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मरणाकण्डिका - ७२
कषाय विवेक - शरीर में क्रोध-मान आदि के आवेश रूप प्रवृत्ति नहीं होने देना और क्रोध, मान, माया और लोभ आदि के सूचक वचन नहीं बोलना द्रव्यरूप कषाय विवेक है तथा चित्त में किसी भी कषाय रूप भाव को उत्पन्न नहीं होने देना भाव रूप कषाय विवेक है।
न्द्रिः विवेक -- पाँतों इन्द्रियों के विषयों में आदरभाव रूप या क्रोध आदि के वशीभूत होकर दुष्प्रवृत्ति नहीं करना तथा मैं मनोहर वस्तु का स्पर्श करता हूँ, रसपान करता हूँ, मुखरूपी कमल की सुगन्ध सूंचता हूँ, मनोहर रूप देखता हूँ और सावधानी पूर्वक गीतादि सुनता हूँ, ऐसे वचन नहीं बोलना द्रव्यरूप इन्द्रिय विवेक है तथा विषयों का ज्ञान हो जाने पर भी उन विषयों के अनुरूप मानस ज्ञान का परिणमन न होना भावरूप इन्द्रिय विवेक है।
उपधिविवेक - श्रामण्य के अयोग्य वस्तुएँ ग्रहण नहीं करना द्रव्यरूप उपधि विवेक है और ऐसी अयोग्य वस्तुओं की ओर चित्त का आकर्षित नहीं होना या उन्हें ग्रहण करने का भाव उत्पन्न नहीं होना भाव रूप उपधि विवेक है।
__ शय्या-संस्तर विवेक - यहाँ शय्या का अर्थ वसतिका है। पूर्व की वसतिका में नहीं रहना तथा पूर्व के संस्तर पर न सोना और न बैठना यह काय से, 'मैं पूर्व वसतिका और संस्तर का त्याग करता हूँ ऐसा कहना वचन से और उनमें 'ये मेरे हैं' ऐसा अनुराग नहीं रखना भाव से शय्या एवं संस्तर विवेक है। इसी प्रकार उपकरण और भक्तपान में लगा लेना चाहिए।
वैयावृत्यकर विवेक - अपने शिष्यों आदि के साथ वास न करना काय से, 'मैंने अब तुम्हारा त्याग किया है ऐसा कहना वचन से तथा 'यह शिष्य समुदाय मेरा है ऐसा अनुराग नहीं रखना भाव से वैयावृत्यकर विवेक है।
परिग्रह त्याग का क्रम समस्त-द्रव्य-पर्याय-ममता-सङ्ग-वर्जितः। नि:प्रेम-स्नेह-रागोस्ति, सर्वत्र सम-दर्शनः ॥१७८ ।।
।। इति उपधि-त्यागः॥ अर्थ - समस्त जीव-पुद्गलादि द्रव्य और उनकी पर्यायों में ममता रूपी परिग्रह से रहित प्रेम, प्रणय और राग से रहित सर्वत्र सम भाव होना, यह सब परिग्रह त्याग का क्रम है।।१७८ ।।
प्रश्न - समता भाव को कौन प्राप्त करता है?
उत्तर - जो वस्तु स्वरूप को जानने में लीन रहता है, जीव और पुद्गल में एवं उनकी पर्यायों में ममत्व रहित है, जीव द्रव्य अर्थात् शिष्य एवं वैयावृत्य करनेवालों की नीरोगता, प्रतिष्ठा तथा विद्वत्ता आदि पर्यायों में, अपनी आत्मा की देव, चक्रवर्ती तथा अहमिन्द्रादि पर्यायों में, तथा पुद्गलद्रव्य अर्थात् शरीर में, आहार-पान
औषधादि में, भोग एवं सुख की अनुभूति करानेवाले साधनों में और उनकी शुभता रूप स्पर्श, रस, गन्धादि पर्यायों में प्रेम, स्नेह तथा राग अर्थात् आसक्ति रूप परिणामों से रहित है वह सर्वत्र समताभावी होता है। अर्थात् सम्पूर्ण पदार्थों में समताभाव होना ही परिग्रहत्याग का मूल है, इस समता भाव से परिग्रह का त्याग सहज ही हो जाता है।
इस प्रकार उपधित्याग नामक अधिकार पूर्ण हुआ॥८॥