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परणकण्डिका - ७२
दर्शन शुद्धि - निःशंकित आदि गुणों के अनुरूप आत्मा की परिणति होना ।
ज्ञान शुद्धि - योग्य काल में अध्ययन और गुरु तथा शास्त्र आदि का नाम नहीं छिपाना, इत्यादि गुणों के अनुकूल आत्म-परिणति होना ।
चारित्र शुद्धि - प्रत्येक व्रत की पाँच-पाँच भावनाएं हैं, इन पच्चीस भावनाओं का पालन करना चारित्र की शुद्धि है।
विनय शुद्धि - कीर्ति,यश, आदर-सत्कार आदि दृष्ट फलों की अपेक्षा न करके साधर्मी जन और गुरुजन आदि की विनय करना।
आवश्यक शुद्धि - सावध योग का त्याग, जिनेन्द्र के गुणों में अनुराग, वन्धमान श्रुत एवं आचार्यादि के गुणों का अनुसरण करना, स्व-कृत अपराधों की निन्दा करना, मन से प्रत्याख्यान करना तथा शरीर की असारता और उसके अनुपकारीपने का चिन्तन यह आवश्यक शुद्धि है । इन शुद्धियों के होने से उनके अपने-अपने दोषों का त्याग हो जाता है।
पाँच प्रकार के विवेक का कथन विवेको भक्तपानाङ्ग-कषायाक्षोपधि-श्रितः। पञ्चधा साधुना कार्यो, द्रव्य-भाव गतो द्विधा ।।१७६ ।। सोऽथवा पञ्चधा शय्या-संस्तरोपधि-गोचरः।
वैयावृत्यकराहार-पान-विग्रह-संश्रयः ॥१७७ ।। अर्थ - भक्तपान विवेक, शरीर विवेक, कषाय विवेक, इन्द्रिय विवेक और उपधि विवेक इस प्रकार साधुओं के द्वारा करने योग्य यह विवेक पाँच प्रकार का है। तथा प्रत्येक विवेक द्रव्य विवेक और भाव विवेक के भेद से दो-दो प्रकार का है।।१७६॥
अथवा शय्या-संस्तर विवेक, उपधि विवेक, वैयावृत्यकर विवेक, आहार-पान विवेक और शरीर विवेक के भेद रूप अन्यथा प्रकार से विवेक पाँच प्रकार का है॥१७७ ।।
प्रश्न - इन विवेकों के क्या लक्षण हैं?
उत्तर - भक्तपान विवेक - शास्त्रोक्त विधि से शुद्ध आहार-जल ग्रहण करना, प्राण कण्ठगत होने पर भी अयोग्य भोजन-पान ग्रहण नहीं करना यह द्रव्यरूप भक्तपान विवेक है और अयोग्य भोजनपान का मन से भी विचार नहीं करना भावरूप भक्तपान विवेक है।
शरीर विवेक - आँख मटकाना, चुटकी बजाना तथा ओष्ठ डसना आदि रूप शारीरिक कुचेष्टाएँ नहीं करना द्रव्यरूप शरीर विवेक है तथा कुचेष्टा करने के भाव ही नहीं होने देना भाव शरीर विवेक है।
अथवा - शरीर पर होने वाले किसी भी प्रकार के उपद्रव दूर नहीं करना, 'मेरे ऊपर उपद्रव मत करो' ऐसा वचन से नहीं कहना। बिच्छु, सर्प, कुत्ता, डाँस एवं मच्छर आदि को हाथ से, पीछी से या अन्य किसी उपाय से दूर नहीं करना। अथवा पीछी, चटाई या छाता आदि से शरीर नहीं ढकना शरीर विवेक है।