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मरणकण्डिका - 194
कर लेना चाहिए । अर्थात् स्वाध्याय या धर्मोपदेश हेतु जो शास्त्रआदि, आचार्यादि की वैयावृत्य हेतु अन्य कोई परिग्रह, औषधियाँ तदतिरिक्त ज्ञानोपकरण एवं संयमोपकरण संगृहीत कर रखे हों तो उनका त्याग कर दें। यहाँ परिकर्मवती का अर्थ है स्वयं के उद्देश्य से वसतिका, संस्तर या उपकरण आदि रखे हैं, उनका भी त्याग कर दें।
इस प्रकार श्रिति अधिकार पूर्ण हुआ || ९ ||
१०. भावना अधिकार
नवीन- आचार्य की स्थापना
समयनुदिशं सर्व, गणं संक्लेश वर्जितः ।
कियन्तं कालमात्मानं, गणी भावयते तराम् ।। १८६ ॥
अर्थ - समाधि के इच्छुक आचार्य अनतुर्विध को के लिए समर्पित करते हैं। और संक्लेश रहित अर्थात् संघभार से मुक्त होते हुए वे आचार्य कुछ समय तक अतिशय रूप से अपने आत्मा की भावना करते हैं ॥१८६ ॥
उत्तर- "अनुगुरो: पश्चादृिशति विधत्ते...
प्रश्न- यहाँ अनुदिश का क्या अर्थ है और नवीन आचार्य स्थापन का क्या मार्ग है ? ....... अनुदिक् एलाचार्यः " । अर्थात् गुरु के पश्चात् जो मुनि चारित्र का क्रम सर्व संघ को निर्देशित करते हैं उन्हें अनुदिश अर्थात् एलाचार्य कहते हैं। जो आचार्य सल्लेखना ग्रहण करना चाहते हैं वे सर्व संघ को एकत्र कर आचार्य पद के योग्य शिष्य को सर्वसंघ के मध्य बैठा कर तथा स्वयं संघ के बाहर खड़े होकर एलाचार्य को सर्वसंघ समर्पित करते हुए कहते हैं कि ये एलाचार्य रत्नत्रय का निरतिचार पालन करते हैं, स्व को और सर्व संघ को संसार समुद्र से तारने में समर्थ हैं। ये ही अब आपके गुरु हैं ऐसी मेरी सम्मति है, अतः इनकी आज्ञानुसार ही आप सबकी प्रवृत्ति होनी चाहिए, इत्यादि । तत्पश्चात् परोपकार करने का आयास छोड़कर अर्थात् निर्द्वन्द्व होकर आत्मध्यान की भावना से अपनी आत्मा को संस्कारित करना चाहिए।
प्रश्न
त्यागने योग्य पाँच भावनाएँ
कान्दर्पी कॅल्विषी प्राज्ञैराभियोग्यासुरी सदा ।
साम्मोही पञ्चमी हेया, संक्लिष्टा भावना ध्रुवम् ॥ ९८७ ॥
अर्थ - प्राज्ञ यतियों को निश्चय से कान्दप, कैल्विषी, आभियोग्या, आसुरी और पाँचवीं साम्मोही इन संक्लिष्ट भावनाओं का सदा के लिए त्याग कर देना चाहिए || १८७ ॥
भावनाओं का कान्दर्पी आदि नामकरण किस कारण से किया गया है ?