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मरणकण्डिका - ७४
सम्यक्त्वादि परिणाम स्वरूप भावश्रिति का आश्रय लेते हैं। उपरिम पद की उद्यमशीलता का आशय यह है कि शुभ परिणामवालों को शुभ परिणामों की उत्कृष्टता के लिए ही उद्यम करना चाहिए, जघन्य परिणामों के प्रवाह में कदापि नहीं बहना चाहिए, क्योंकि जिसके शुभ परिणाम उत्तरोत्तर मन्द-मन्द होते जाते हैं वह घने और विशाल कर्मरूपी अन्धकार को नाश के अभिमुख दीपक के सदृश दूर नहीं कर सकता । अर्थात् जैसे बुझता हुआ दीपक तीव्र प्रकाश देता है कि समन्द होट अ बुझान और धीरे धीरे अन्धकार से ढक जाता है ; उसी प्रकार मन्द-मन्द होता हुआ शुभ परिणाम भी अशुभ परिणामों की परम्परा का जनक होता है और उससे कर्मों की स्थिति एवं अनुभाग उत्तरोत्तर बढ़ते हैं, जिसके फलस्वरूप वही दीर्घ संसारीपना प्राप्त होता है। इसके विपरीत सम्यग्ज्ञान रूपी वायु से प्रेरित शुभ परिणामरूप अग्नि उत्तरोत्तर वृद्धिंगत होती हुई कर्मरूपी वृक्ष के रस को सुखाकर उसे जड से नष्ट कर देने में सहायक होती है।
भावश्रिति के विनाश से बचने के उपाय गणिनैव समं जल्पः, कार्यार्थ यतिभिः परैः ।
कुदृष्टिभिः समं मौनं, शान्तै: स्वैश्च विकल्पते ।।१८३ ।। अर्थ - शुभ परिणामों की रक्षा हेतु साधु को आचार्य के साथ ही धर्म-सम्बन्धी वार्तालाप करना चाहिए। विशेष कार्यवश अन्य साधुजनों से बोले, अन्यथा नहीं। मिथ्यादृष्टि जनों में मौन रखे । शान्त-परिणामी जनों में और ज्ञातिजनों में यदि ऐसा विश्वास है कि 'ये मेरे वचन सुनकर धर्म धारण कर लेंगे' तो ही उनसे वार्तालाप करे, अन्यथा मौन रखे ||१८३ ।।।
शुभ परिणामधारी मुनि की प्रवृत्ति का क्रम कार्याय स्वीकृतां शय्यां, विमुच्याचारपण्डितः । परिकर्मवीं वृत्ते, वर्तते देह-निस्पृहः ।।१८४॥ दुश्चरं पश्चिमे काले, भक्तत्यागं सिषेविषुः । धीरैःनिषेवितं बाढ़, चतुरङ्गे प्रवर्तते ।।१८५ ।।
॥ इति श्रितिसूत्रम्॥ अर्थ - आचारशास्त्र में प्रवीण और अपने शरीर से निस्पृह सल्लेखना-रत साधु ने पूर्व जीवन में जो वसतिका आदि स्वीकार की थी, उसे त्याग कर वह चारित्र और तपश्चरण आदि में संलग्न होता है ।।१८४ ।।
जीवन के अन्त में आहार त्याग करने का इच्छुक साधु सम्यक्त्वादि चार आराधनाओं में प्रवृत्ति करता है। आहार का त्याग करना अति दुष्कर है, अत: धीर-वीर पुरुष ही जीवन पर्यन्त के लिए आहार का त्याग कर सकते हैं। ऐसा कठिन त्याग कायर जीव नहीं कर सकते ॥१८५ ।।
प्रश्न - यहाँ मात्र शय्या-त्याग का आदेश क्यों दिया गया है? तथा परिकर्मवती का क्या अर्थ है? उत्तर - यहाँ शय्या उपलक्ष है, अत: शय्या शब्द से वसतिका, संस्तर एवं उपकरण आदि सबका ग्रहण