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मरणकण्डिका - ७०
अर्थ - जो औत्सर्गिक पद के अन्वेषक हैं किन्तु शय्या एवं संस्तर आदि के विषय में पाँच प्रकार की शुद्धि और पाँच प्रकार के विवेक को प्राप्त नहीं करते वे मुनेि समाधेि को प्राप्त नहीं कर सकते ॥१७२ ॥
विपद्यन्ते समाधि ते, लभन्ते न विमोहिनः ।
शुद्धिं ये पञ्चधा प्राप्ता, ये विवेकं च पञ्चधा ||१७३।। अर्थ - जो निर्मोह साधु पाँच प्रकार की शुद्धि और पाँच प्रकार के विवेक को प्राप्त कर लेते हैं, वे समाधि को प्राप्त कर लेते हैं ।।१७३ ।।
शुद्धि के पाँच भेद शुद्धिरालोचना शय्या-संस्तरोपधि-गामिनी।
वैयावृत्यकराहार-पान-जाता च पञ्चधा ॥१७४ ।। अर्थ - आलोचना की, शय्या-संस्तर की, उपधि की, वैयावृत्य करनेवालों की और आहार-पान की ये पाँच प्रकार की शुद्धियाँ हैं ।।१७४ ।।
ज्ञान-दर्शन-चारित्र-विनयावश्यकाश्रया।
अथवा पञ्चधा शुद्धिर्विधेया शुद्धबुद्धिना ॥१७५ ।। अर्थ - अथवा शुद्ध बुद्धिवाले साधु को दर्शन शुद्धि, ज्ञान शुद्धि, चारित्र शुद्धि, विनय शुद्धि और षड़ावश्यक शुद्धि ये पाँच प्रकार की शुद्धियाँ रखनी चाहिए ।।१७५॥
प्रश्न - इन दस प्रकार की शुद्धियों के क्या लक्षण हैं?
उत्तर - कर्मग्रहण के कारणभूत जिन-जिन पदार्थों में जिनका आदर भाव अथवा ममत्व भाव होता है उसके लिए वह सब उपधिरूप होता है। अन्तरंग परिग्रह होने से माया कषाय तो उपधिरूप है ही किन्तु कर्मबन्ध का कारण होने से असत्य भाषण भी परिग्रह स्वरूप है।
आलोचना शुद्धि-माया कषाय और असत्य का त्याग कर आलोचना करना आलोचना शुद्धि है।
शय्या-संस्तर शुद्धि - उद्गम, उत्पादन आदि दोषों से रहित एवं 'यह मेरी है' इस प्रकार के परिग्रह भाव से रहित शय्या-संस्तर अर्थात् वसतिका शुद्धि है।
उपधि शुद्धि - पीछी कमण्डलु भी उद्गम-उत्पादन दोष से रहित ही ग्रहण करने योग्य हैं, अन्यथा नहीं, क्योंकि अशुद्ध उपकरण असंयम के कारण हैं। उनमें 'ये मेरे हैं ऐसा मूर्छाभाव पैदा हो जाता है अत: उनका त्याग करना उपधि शुद्धि है।
वैयावृत्य करनेवालों की शुद्धि - वैयावृत्य करनेवालों का संयमी होना और वैयावृत्य के क्रम का ज्ञाता होना वैयावृत्यकारी की शुद्धि है। इस शुद्धि में 'असंयमी और क्रम को न जाननेवाले अक्रमज्ञ लोग मेरी वैयावृत्य करने वाले नहीं हैं' ऐसा स्वीकार करने पर उनका त्याग हो जाता है।
आहार-पान शुद्धि - उद्गम और उत्पादनादि दोषों से रहित आहार-पान लेना भक्तपान शुद्धि है।