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मरणकण्डिका - ६९
न हुई हो तो सल्लेखना की सफलता कदापि नहीं हो सकती, और यदि जीविताशा विनष्ट नाम का गुण विद्यमान है तो अन्य सर्वगुण स्वयमेव प्रगट हो जाते हैं, इसलिए इस गुण का कथन अलग से किया गया है।
।। इस प्रकार परिणाम अधिकार पूर्ण हुआ॥७॥
८. उपधित्यागअधिकार
द्रव्य परिग्रह त्याग का निर्देश उपधिं मुञ्चतेऽशेषं मुक्त्वा संयम-साधकम् ।
मुमुक्षु[गयन्मुक्ति, शुद्धलेश्यो महामनाः ।।१७० ।। अर्थ - मुक्ति की खोज करने वाला, विशुद्धलेश्याधारी महामना साधु संयम के साधन मात्र परिग्रह के अतिरिक्त शेष परिग्रह को मन, वचन, काय से त्याग देता है ।।१७० ।।
प्रश्न - शेष परिग्रह कौन-कौन सा है?
उत्तर - जो परिग्रह संयम की साधना में साधकतम कारण होता है उसके अतिरिक्त जो-जो है वह सब शेष शब्द से ग्राह्य होता है। सल्लेखनारत 'साधु को वर्तमान में मात्र पीछी और कमण्डलु ही साधकतम कारण हैं। अथवा शेष परिग्रह में ज्ञान के उपकरण शास्त्र आदि कहे गये हैं, क्योंकि समाधि के समय उनका उपयोग नहीं रहता। तथा दूसरी पीछी और दूसरा 'कमण्डलु भी उस समय संयम की सिद्धि में कारण न होने से संयम का साधन नहीं है, अतः कर्मविनाश का इच्छुक साधु एक पीछी और एक कमण्डलु के अतिरिक्त शेष परिग्रह का मन, वचन और काय से त्याग कर देता है
साधुर्गवेषयन्मुक्ति, शुद्धलेश्यो महामनाः।
- विमुञ्चत्युपधिं सर्वमल्पानल्प-परिक्रियम् ॥१७१॥ अर्थ - मुक्ति का अन्वेषण करने वाले शुद्धलेश्या युक्त महामना साधु अल्प परिकर्मवाली और अधिक परिकर्मवाली ऐसी सर्व ही उपधि का त्याग कर देते हैं ॥१७१ ।।
प्रश्न - उपधि किसे कहते हैं और अल्प परिकर्म तथा अधिक परिकर्म का क्या लक्षण है?
उत्तर - परिग्रह को उपधि कहते हैं। जिसमें देखना, शोधना, झाड़ना आदि कम करना होता है वह परिग्रह अल्पपरिकर्मवाला और जिसमें शोधन-निरीक्षण आदि अधिक करना पड़े वह परिग्रह अधिक परिकर्मवाला कहा जाता है।
भाव परिग्रह न्याय का क्रम औत्सर्गिक-पदान्वेषी, शय्या-संस्तरकादिकम्। पञ्चधा शुद्धिमप्राप्य, ये विवेकं च पञ्चधा ।।१७२॥