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मरणकण्डिका - ६७
किमालन्दं परीहारं, भक्तत्यागमुतेङ्गिनीम् ।
पादोपगमनं किं किं, जिनकल्पं श्रयाम्यहम् ।।१६३॥ अर्थ - क्या मैं आत्महित करने हेतु आलन्द विधि का या परिहार-विशुद्धि चारित्र का या भक्तत्याग का या इंगिनीमरण का या पादोपगमन/प्रायोपगमन का या जिनकल्प का आश्रय ग्रहण करूँ? ॥१६३ ।।
प्रश्न - आत्महितेच्छु साधु ने स्वहित के लिए कितने विकल्प उठाये हैं? उनके क्या लक्षण हैं?
उत्तर - आलन्द विधि, परिहार विधि, भक्तत्याग, इंगिनी, प्रायोपगमन और जिनकल्प, इस प्रकार यहाँ आत्महित के लिए छह विकल्प अर्थात् संन्यास विधि के छह प्रकार कहे गये हैं। इनमें से भक्तत्याग विधि का विवेचन आचार्यदेव कर ही रहे हैं, इंगिनी और प्रायोपगमन की विधियों का वर्णन इसी ग्रन्थ में आगे किया जायेगा। शेष आलन्द विधि, परिहार विधि और जिनकल्प विधि इन तीनों का पालन इस काल में असम्भव है। क्योंकि ये तीनों अतिशयरूप से उच्चकोटि के साधु का आचार हैं जो महामुनियों की अतिश्रेष्ठ सल्लेखना के अभ्यास का साधकतम हेतु है। इनका वर्णन भगवती आराधना गाथा १५७ की टीका में है, जिसे अवश्यमेव पढ़ना चाहिए।
भक्तप्रत्याख्यान के लिए प्रयत्नशीलता सत्येव स्मृतिमाहात्म्ये, विचार्ये सति जीविते ।
भक्तत्यागे मतिं धत्ते, बल-वीर्यानिगूहकः ।।१६४।। अर्थ - उपर्युक्त प्रकार से विचार कर स्मृति का माहात्म्य होने पर और आयु के अल्प रह जाने पर अपने बल एवं वीर्य को न छिपाते हुए मुनिराजों को भक्तप्रत्याख्यान में अपनी बुद्धि लगानी चाहिए ॥१६४॥
प्रश्न - स्मृति-माहात्म्य का क्या आशय है?
उत्तर - जिनागम के रहस्य का उपदेश सुनने से जो उसका संस्कार रहा उसके प्रभाव में 'मैं आयु अवसान के समय अवश्य ही विधिपूर्वक सल्लेखना करूंगा' ऐसा जो संकल्प किया था, उसका स्मरण भी भक्तप्रत्याख्यान का कारण होता है। यह स्मृति-माहात्म्य का आशय है।
भक्तप्रत्याख्यान लेने का कारण संन्यास-कारणे जाते, पूर्वोक्तान्यतमे सति ।
करोति निश्चितं बुद्धिं, भक्तत्यागे तथैव सः॥१६५ ॥ अर्थ - पूर्व में कहे गये सल्लेखना के कारणों में से किसी एक कारण के उपस्थित होने पर उसी प्रकार निश्चय से भक्तप्रत्याख्यान में अपनी बुद्धि लगानी चाहिए ॥१६५॥
आराधक के मन की दृढ़ता योगा यावन हीयन्ते, यावनश्यति न स्मृतिः। श्रद्धा प्रवर्तते यावद्, यावदिन्द्रिय-पाटवम् ॥१६६॥