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मरणकण्डिका - ६४
अनियत विहार से उत्पन्न अन्य गुण प्रियधर्माशयः साधुरागमार्थ-विचक्षणः।
भ्रमन्नषद्य-वित्रस्त:, मंत्रिग्नं कुरुते परम् ।।१५४!! अर्थ - अनियत बिहार करने वाला साधु प्रियधर्मा, आगम के अर्थ में कुशल, विहार में अभ्यस्त रहने के कारण निरालस, कष्टसहिष्णु हो जाने से निराकुल चित्त होता हुआ अपने को अतिशय रूप से वैराग्यशील करता है।।१५४॥
अवद्य-भीरु संविग्ने, प्रियधर्मतरेक्षणे।
अवद्य-भीरुः संविग्नः, प्रियधर्मतरोऽस्ति सः ॥१५५ ॥ __ अर्थ - देशान्तर में विहार करते समय पार्यों से अत्यन्त भयभीत, वैराग्यवान और अतिशय धर्मप्रिय महान् साधुओं के दर्शन होते हैं। उन्हें देख कर ये विहार-रत साधु भी पापभीरु, वैराग्यसम्पन्न और धर्म में प्रीति करने वाले बन जाते हैं ॥१५५ ॥
प्रश्न - संविग्नः, प्रियधर्मा और अवद्यभीरु किसे कहते हैं?
उत्तर - जो पंच परावर्तन के आगमन से अत्यन्त भयभीत होते हैं वे साधु अथवा अत्यन्त वैराग्यशील साधु संविग्न होते हैं। उत्तम क्षमादि धर्मों का पालन करनेवाले प्रियधर्मा कहे जाते हैं। जो थोड़ा सा भी अशुभयोग नहीं होने देते अथवा जो पाप से डरते हैं वे अवद्यभीर कहे जाते हैं।
शीतातप-क्षुधा-तृष्णा, निषद्याद्याः परीषहाः।
यतिनाटाव्य-मानेन, समस्ताः सन्ति भाविताः ।।१५६॥ अर्थ - देश-देशान्तर में विहार करने वाले साधुओं के द्वारा शीत, उष्ण, क्षुधा, तृषा एवं निषद्या आदि समस्त परीषह सहन किये जाते हैं ॥१५६।।
शृण्वतो भूरि-सूरीणां, व्याख्यां नानार्थ-दर्शिनीम् ।
देशान्तरातिथे: साधोरस्ति सूत्रार्थ-कौशलम् ॥१५७॥ अर्थ - देश-देशान्तर का अतिथि होता हुआ साधु अनेक आचार्यों के द्वारा शास्त्रों की नाना प्रकार की व्याख्या सुनता है जिससे उसे सूत्र एवं उनके अर्थों में महान् कुशलता प्राप्त हो जाती है।।१५७।।
विनिष्क्रम-प्रवेशादि, समाचार-विचक्षणः ।
सूरीणां बहुभेदानां, जायते पाद-सेवया ॥१५८ ।। अर्थ - विहार में बहुत भेदवाले आचार्यों के चरण-कमलों की सेवा से निकलने और प्रवेश करने रूप समाचार विधि में अतिशय कुशलता प्राप्त हो जाती है ।।१५८ ।।
प्रश्न - बहुत भेद वाले आचार्य कौन-कौन हैं और निकलने तथा प्रवेश रूप समाचार विधि में किस प्रकार की कुशलता प्राप्त हो जायेगी ?