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मरणकण्डिका - ६३
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करते हैं। जैसे शिशु उठना चाहते हुए भी गिरता है, वैसे ही हम लोग चारित्र के अभिलाषी होते हुए भी उसे धारण करने में असमर्थ हैं।
चारित्रमोह का क्षयोपशम होने से आपके निवृत्तिरूप परिणाम हुए हैं। आप पूज्यतम हैं। आपके प्रसाद से और आपकी अनुमोदना करने से आगामी भव में हमें भी समस्त आरम्भ-परिग्रह के त्याग की शक्ति प्राप्त हो। हे देव ! इस सुसज्जित विमान को सुशोभित करें।
इन्द्र की विज्ञप्ति के बाद भगवान ने अन्तःपुर, परिवार एवं ज्ञातिवर्ग को हर्ष-विषाद युक्त देखा। उन्हें नाना प्रकार से सम्बोधन दिया और कहा कि वृथा प्रमाद मत करो, संसार-समुद्र को पार करने का उद्यम करो और प्रमाद से हमारे द्वारा जो अपराध हुए हों उन्हें क्षमा करो।
पश्चात् सुन्दर वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो भगवान ने मोक्षपुरी के द्वार सदृश सुसज्जित विमान में प्रवेश किया। अपने कन्धों पर ले जाये जानेवाले विमान को देवों ने किसी रम्य प्रदेश में उतारा । उत्तर की ओर मुख कर तथा सिद्धों को नमस्कार कर भगवान ने अंतरंग-बहिरंग परिग्रह का त्याग कर मन, वचन और काय से रत्नत्रय धारण कर लिया। इस प्रकार के निष्क्रमण कल्याणक को जो यतिजन देखते हैं उनका सम्यक्त्व विशुद्ध हो जाता
ज्ञान कल्याणक जिन्होंने मोहनीय कर्म का भार उतार कर फेंक दिया है तथा शेष तीनों घातिया कर्मों को नष्ट कर तद्भव में ही मोक्षफल को फलित करने वाला केवलज्ञान प्राप्त कर लिया है उनके दर्शन से एवं ज्ञानकल्याणक के दर्शन से जिनेन्द्रप्रणीत मार्ग की दृढ़ श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है जिससे सम्यक्त्व निर्मल हो जाता है।
स्थितीकरण रूप उपकार इस प्रकार होता है संविग्नो वृत्त-सम्पन्न:, शुद्धलेश्यस्तपोधनः।
देशान्तरातिथिः साधुः, संवेजति तद्वतः ॥१५३ ॥ अर्थ - देश-देशान्तर का अतिथि होने वाला साधु संसार से भयभीत होता हुआ वैराग्य सम्पन्न हो जाता है। उसके व्रत, चारित्र और लेश्या की शुद्धि हो जाती है तथा तप वृद्धिंगत हो जाता है॥१५३ ।।
प्रश्न - देशान्तर में विहार करने वाले साधु के तप आदि की वृद्धि कैसे हो जाती है?
उत्तर - देश-देशान्तर में विहार करने से परम तपस्वी, दृढ़ चारित्री, संसारभीरु, वैराग्यसम्पन्न, महात्मा एवं समताधारी साधुजन का समागम प्राप्त होता रहता है। उनका उत्कृष्ट आचरण देखकर अपने मन में विचार आता है कि-अहो ! धन्य है इन्हें ! ये कितने तपस्वी हैं ! या कितने तत्त्वज्ञ हैं, समतारूपी रस में तो मानों मज्जन ही कर रहे हैं, इनकी लेश्या-विशुद्धि कितनी अनुपम है। ये साधुजन भी तो वर्तमान काल में इस प्रकार के निर्दोष चारित्र से सम्पन्न हैं, फिर हम लोग दृढ़ चारित्री एवं लेश्या-विशुद्धिपूर्वक ऐसा तपश्चरण क्यों नहीं कर पा रहे हैं? इससे ज्ञात होता है कि हमारी आत्मा संसार के दुखों से भयभीत नहीं है। इस प्रकार विशिष्ट साधुजनों के दर्शन एवं सम्पर्क से अपने में तप और वैराग्य आदि की वृद्धि होती है।