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मरणकण्डिका - ५६
नहीं पढ़ाते हैं, मुझे पूर्ववत् अपने समीप नहीं बैठाते हैं, मुझसे अब कोई वार्तालाप भी नहीं करते हैं।' इस प्रकार
और अन्य-अन्य कारणों से गुरु के प्रति क्रोध, माया या मानरूप परिणाम रखने पर गुरु की विनय में प्रमाद, अवज्ञा वा अवहेलना करने पर या निन्दा करने पर या उनके विपरीत चलने पर तथा इसी प्रकार की अन्य भी कुचेष्टाएँ करने पर पापास्रव होता है जो उसके दुखसमूह को बढ़ानेवाला ही है, अत: ऐसे पापानब के कारणभूत परिणामों का त्याग कर देना तथा गुरु को जो प्रिय हो, जिससे स्वपर का हित हो एवं रत्नत्रय की वृद्धि हो ऐसे परिणाम मानसिक विनय रूप होते हैं जो सदा करने चाहिए।
परोक्ष विनय इत्ययं विनयोऽध्यक्षः, परोक्षः स मतो गुरोः।
अप्रत्यक्षेऽपि या वृत्तिराज्ञा-निर्देश-चर्ययोः ॥१३०॥ अर्थ - इस प्रकार उपर्युक्त विवेचित सब प्रकार की विनय यदि गुरु के प्रत्यक्ष रहते की जाती है तब वह प्रत्यक्ष विनय कही जाती है और उनके प्रत्यक्ष नहीं रहते की जाती है तो वह परोक्ष विनय कही जाती है। तथा गुरु के अभाव में भी उनकी आज्ञा-निर्देश रूप आचरण करना परोक्ष विनय है ।।१३०॥
गुरु के अतिरिक्त अन्य की भी विनय करनी चाहिए संयत्तानां गृहस्थानां, आर्यिकाणां यथायथम् ।
विनयः सर्वदा कार्यः, संसारान्तं यियासुना॥१३१॥ अर्थ – संसार-भ्रमण नष्ट करने के इच्छुक भव्य जीवों को साधुओं की विनय तो करनी ही चाहिए किन्तु जो अपने से छोटे साधु हैं उनका उनके योग्य प्रिय वचन तथा प्रिय आचरण द्वारा, आर्यिकाओं का एवं गृहस्थों का शुभाशीर्वाद आदि उनके योग्य वचनों द्वारा उन्हें सन्तुष्टि प्रदान करना भी विनय की कोटि में है जो अवश्य करना चाहिए।।१३१।।
बिनय ही सब सिद्धि का कारण है विनयेन विना शिक्षा, निष्फला सकला यतेः।
विनयो हि फलं तस्याः, कल्याणं तस्य चिन्तितम् ॥१३२ ॥ अर्थ - विनय के बिन! अर्थात् विनयरहित साधु की सब शिक्षा व्यर्थ होती है, शिक्षा का फल विनय ही तो है। (फिर विनय का फल क्या है ? ऐसा प्रश्न होने पर ग्रन्थकार कहते हैं कि) सर्व अभ्युदय निश्रेयसरूप कल्याण ही उसका फल है अर्थात् पंचकल्याणक रूप ऐश्वर्य की प्राप्ति तथा इन्द्रिय-अनिन्द्रिय सुख की प्राप्ति ये सब विनय के सुविचारित फल हैं ।।१३२ ।।
विमुक्तिः साध्यते येन, श्रामण्यं येन वयते॥
सूरिराराध्यते येन, येन संघ: प्रसाद्यते ।।१३३॥ विनयेन विना तेन, निर्वृति यो यियासति । तरण्डे न विना मन्ये, स तितीर्षति वारिधिम् ॥१३४॥