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मरणकण्डिका - ५३
इसका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल एक वर्ष प्रमाण है। सायंकालीन प्रतिक्रमण में सौ उच्छ्वास प्रमाण, प्रात:कालीन प्रतिक्रमण में पचास उच्छ्वास प्रमाण, पाक्षिक प्रतिक्रमण में तीन सौ उच्छवास प्रमाण, चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में चार सो उच्छ्वास प्रमाण और वार्षिक प्रतिक्रमण में पाँच सौ उच्छ्वास प्रमाण काल पर्यन्त कायोत्सर्ग करना चाहिए | कायोत्सर्ग क्रिया में यदि उच्छ्वास का या परिणाम का स्खलन हो जावे तो आठ उच्छ्वास प्रमाण अधिक काल तक कायोत्सर्ग और करना चाहिए।
तप विनय किनकी करना चाहिए तपस्तपोऽधिके भक्तिर्यच्छेषाणामहेडनम् । स तपो विनयोऽवाचि, ग्रन्थोक्तं चरतो यतेः॥१२१ ।।
अर्थ - अनशन आदि बारह प्रकार के तपों की और जो साधुजन अपने से अधिक तपस्वी हैं उनकी भक्ति एवं विनय अवश्य करनी चाहिए किन्तु जो साधुजन तप में अपने से कम हैं किन्तु ज्ञान, श्रद्धान और चारित्र सम्पन्न हैं, उनका पराभव नहीं करना भी तप विनय है। शास्त्रोक्त आचरण करने वाले साधु के इस प्रकार तप का विनय होता है ।।१२१॥
प्रश्न - जो साधु तप में अपने से कम हैं उनकी विनय क्यों करनी चाहिए ?
उत्तर - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के अनुगत किया जाने वाला तप ही सम्यक्तप है। जो साधुगण ज्ञान, श्रद्धान और चारित्र से सम्पन्न होने पर भी तप में अपने से कम हैं उनका तिरस्कार नहीं करना, क्योंकि उनकी अवहेलना करने से ज्ञानादि सद्गुणों का तिरस्कार होता है अर्थात् ज्ञानादि का बहुमान न होने से अपने ज्ञान में अतिचार लगता है। अवहेलना से वात्सल्यगुण का नाश होने से अपने सम्यग्दर्शन में दोष उत्पन्न होता है तथा सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान सदोष होने पर सम्यक् चारित्र भी सदोष हो जाता है जो महा अनर्थ है, अत: ज्ञान, श्रद्धान एवं चारित्रसम्पन्न किन्तु तप में अपने से हीन साधु की अवहेलना अपने अहित का ही कारण है ऐसा जान कर उनका भी सम्मानादि करना चाहिए। पूर्व गाथा (१२०) में और इस गाथा में कहे हए गुणों का पालन करने से तथा शास्त्रानुसार आचरण करने से ही साधुजनों को तप विनय की प्राप्ति होती है।
उपचार विनय के भेद कायिको वाचिकश्चैतः. पञ्चमो विनयस्त्रिधा।
सर्वोप्यसौ पुनर्द्वधा, प्रत्यक्षेतर - भेदतः ।।१२२ ।। अर्थ - कायिक, वाचिक और मानसिक के भेद से उपचार विनय तीन प्रकार की है तथा यह तीनों प्रकार की विनय प्रत्यक्ष और परोक्ष विनय के भेद से दो-दो प्रकार की है।।१२२ ।।
प्रत्यक्ष कायिक विनय संभ्रमो नमनं सूरेः, कृतिकाजलि-क्रिया। सम्मुखं यानमायाति, यात्यनुव्रजनं पुनः ॥१२३ ।।