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मरणकण्डिका - ५१
आवश्यक जो आत्मा में आवास कराते हैं ऐसे सामायिक, चतुर्विशति स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और व्युत्सर्ग को आवश्यक कहते हैं।
सर्व सावध के त्याग रूप समता परिणाम को सामायिक कहते हैं। वृषभादि चौबीस तीर्थंकरों के गुणों को, उनके स्तवनों को ज्ञान-श्रद्धानपूर्वक पढ़ना चतुर्विंशतिस्तव है। रत्नत्रय विभूषित आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक और स्थविर मुनिराजों के गुणातिशयों को जानकर श्रद्धा-भक्ति से अभ्युत्थान पूर्वक उनकी विनय में प्रवृत्ति करना वन्दना आवश्यक है।
प्रश्न - अभ्युदयादि रूप विनय कौन करता है और इससे क्या लाभ हैं?
उत्तर - मान रहित, संसार से विरक्त, निरालस, सरल हृदय, दूसरों के गुणों को प्रगट करने में तत्पर और संघप्रेमी अथवा धर्मप्रेमी ही विनय करते हैं। जिनेन्द्र देव ने विनय को प्रथम कर्तव्य कहा है क्योंकि विनय से मान कषाय का विनाश होता है, गुरुजनों में बहुमान, तीर्थंकरों की आज्ञा का पालन, श्रुतोपदिष्ट धर्म की आराधना, परिणामविशुद्धि तथा आर्जव और सन्तोषादि गुणों की प्रकर्षता होती है।
प्रश्न - जो दीक्षा में अपने से छोटे हैं क्या उनकी भी विनय करनी चाहिए ?
उत्तर - जो रत्नत्रय एवं तप में सदा तत्पर रहते हैं, या वाचना करते हैं या अनुयोग का शिक्षण कराते हैं । यदि "अवमरत्नत्रयस्याभ्युत्थातव्यं" अपने से रत्नत्रय में न्यून भी हों तब भी उनके पास अध्ययन करने वालों को उनके सम्मान में उठ कर खड़े होना चाहिए।
प्रश्न - प्रतिक्रमण किसे कहते हैं और उसके कितने भेद हैं?
उत्तर - दोषों की निवृत्ति को प्रतिक्रमण कहते हैं। नाम प्रतिक्रमण - अयोग्य नामों का उच्चारण नहीं करना नाम प्रतिक्रमण है। स्थापना प्रतिक्रमण - लिखित, चित्रित, खोदी हुई या उकेरी हुई त्रस-स्थावरों की आकृतियों को नष्ट न करना, मर्दन न करना, तोड़ने-फोड़ने आदि रूप क्रियायें न करना तथा आप्ताभासों की अर्थात् हरि-हरादिकों की प्रतिमाओं के सामने हाथजोड़ कर खड़े न होना, मस्तक न झुकाना और गन्धादि द्रव्यों से उनकी पूजन न करना स्थापना प्रतिक्रमण है।
द्रव्य प्रतिक्रमण - वास्तु, क्षेत्रादि दस प्रकार के बाह्य परिग्रहों का त्याग करना, उद्गम- उत्पादनादि दोषयुक्त वसतिका, उपकरण एवं आहार आदि पदार्थ अभिलाषा, उन्मत्तता एवं संक्लेशादि परिणामों की वृद्धि के कारण हैं अत: दोषयुक्त ऐसे पदार्थों को ग्रहण न करना द्रव्य प्रतिक्रमण है।
क्षेत्र प्रतिक्रमण - जहाँ ज्ञानवृद्ध या तपोवृद्धादि गुणयुक्त साधुजन नहीं रहते अथवा जिस स्थान पर रहने से रत्नत्रय की हानि होती है, अथवा जो स्थान स-स्थावर जीवों से या पानी कीचड़ आदि से व्याप्त हैं ऐसे स्थानों का त्याग करना क्षेत्र प्रतिक्रमण है।
काल प्रतिक्रमण - रात्रि में, तीनों सन्ध्याओं में, स्वाध्याय काल में एवं सामायिक आदि षड़ावश्यकों के समय में यत्र-तत्र आना-जाना, गप्पाष्टक करना तथा अन्य-अन्य क्रियायें करने का त्याग करना काल प्रतिक्रमण है।