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मरणकण्डिका - ४६
वात्सल्यवृद्धि - संसार के दुखी प्राणियों पर, अज्ञान अन्धकार में भटकनेवाले अज्ञ प्राणियों पर एवं साधर्मिक बान्धवों पर वात्सल्य भाव वृद्धिंगत होता है, क्योंकि वात्सल्य भाव के बिना दूसरों को धर्मोपदेश देकर समीचीन मार्ग में लगाने का पुरुषार्थ बन ही नहीं सकता।
तीर्थप्रवर्तन - रत्नत्रय का वर्णन करने में तत्पर होने से जिनागम तीर्थ है एवं सम्यग्दर्शन-शान चारित्र में निहित रहनेवाला मोक्षमार्ग भी तीर्थ है। धर्म रूपी उपदेशदान से श्रुत की एवं मोक्षमार्ग की परम्परा सदा प्रवाहित होती रहती है।
परदेशना - सतत उपदेश देते रहने से पचन कला में एक हो जाता है और समझाने की चतुरता वृद्धिंगत हो जाती है।
इस प्रकार शिक्षा प्रकरण पूर्ण हुआ॥३॥
४. विनय अधिकार
विनय के भेद विनयो दर्शने ज्ञाने, चारित्रे तपसि स्थितः ।
उपचारे च कर्तव्यः, पञ्चधापि मनीषिभिः ॥११३॥ अर्थ - दर्शन विनय, ज्ञान विनय, चारित्र विनय, तप विनय और उपचार विनय, इस प्रकार बुद्धिमानों को पाँच प्रकार की विनय करनी चाहिए॥११३॥
दर्शन विनय उपबृंहादि तात्पर्य, भक्त्यादि-करणोधमः ।
सम्यक्त्व-विनयो ज्ञेयः, शङ्कादीनां च वर्जनम् ।।११४ ।। अर्थ - शंकादि दोषों का त्याग कर उपबृंहण या उपगृहन आदि गुणों में एवं भक्ति आदि करने में जो उद्यम है उसे सम्यक्त्व विनय जानो ।।११४ ।।।
प्रश्न - विनय किसे कहते हैं और सम्यक्त्व विनय क्या है?
उत्तर - “विनयत्यपनयति यत्कर्माशुभं तद्विनयः' अर्थात् जो अशुभ कर्मों को या अष्ट कर्मों को नष्ट करती है उसे विनय कहते हैं।
शंका आदि दोषों का त्याग, अरहन्तदेव आदि की भक्ति और उपबृंहण, स्थितीकरण, वात्सल्य और प्रभावना, इन गुणों को धारण करना सम्यग्दर्शन की विनय है। इससे पहले श्लोक ४८, ४९, ५० के द्वारा इन सबका कथन किया जा चुका है।
ज्ञान विनय ज्ञानीयो विनयः काले, विनयेऽवग्रहे मतः। बहुमानेऽनपलत्यां, व्यञ्जनेऽर्थे हुयेऽष्टधा ॥११५ ।।