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ममेयचन्द्रिकाटीका श.३ उ १ अमिमूर्ति प्रतिमगवदुनर ____ २६ अकानाम्, अञ्जनानाम्, रत्नानाम्, जातरूपाणाम, अञ्जनपुलकानाम् स्फटिकानाम्, इति । रस्नानां करतनादीनाम्, वाणाम् हीरफाणाम् अङ्कानाम्-स्फटिकानाम् इति पोडशविधाना रत्नानां सारपुद्गलान् गृहीत्वा क्रियसनद्धात फरोतीति भाव । __चिकीर्पितरूपनिर्माणार्थ द्वितीयवारमपि वैक्रियसमुद्घातेन समवइन्तीत्याह 'दोचपि वेउन्नियसमुग्यायेण समोहण्णाइ" द्वितीयमपि वैक्रियसमुद्घातेन समय इन्तीति 'पभृण गोयमा' प्रभु वल्ल हे गौतम " चमरे अमरिंदे अमुरराया" चमर असुरेन्द्र अमरराज 'केवलकप्प' केवल परिपूर्ण क्ल्प-स्वकार्यकरण सामयम् ‘जदीय दीव' लक्षयोजनायामविष्कम्भ जम्बूदीपनामकमध्यजम्बूद्वीपम् "वहहिं अमुरकुमारेहिं देवेहि देवीही य" बहुमि अमरकुमारै देवे देवीमिय 'आईण' आकीर्णम् व्याप्तम्, 'वीइपिण्ण' व्यतिकीर्णम्, विशेषेण न्याप्तम् 'उवत्यह' उपस्तीर्णम् उपरि-उपरि आच्छादितम् ‘सयह ' सस्तीर्णम्-परस्पर मकाण अजणाण ११, रयणाण १२ जायख्याण १३, अजनपुलयाण १४ फलिहाण' १५ इन रस्नोका संग्रह हुआ है। तात्पर्य कहने का यह है कि इन सोलह प्रकार के रस्नों के सारभूत पुम्दों को ग्रहण कर घह क्रियसमुद्धात करता है। यदि यह पुन इच्छितरूप पनाना चाहता है तो वित्तीयधार भी वह वैफियसमुद्धात करता है। यही यात 'दोच पि घेउब्वियसमुग्धारण समोहण्णा इस पाठ द्वारा प्रफटकी गई है। ‘पयूण गोयमा। चमरे असुरिंदे असुरराया केवलकप्प जवूदीव दीप वहहिं असुरकुमारेहिं देहिं देवीहिंय आरण्ण, वितिकिण्ण, उवस्थड सथड़, फुट, अवगाढायगाट करेचए' और वह भसुरेन्द्र असुरराज चमर केवल बिलकुल पूरे-कल्प अपने कार्य करने में शक्तिमान इस एक लाख योजन लये घोड़े जायरुवाण अजनपुलयाण फलियाण " वा तात्पर्य से छउपत સેળ પ્રકારના રત્નના સારભૂત પુદગલેને ગ્રહણ કરીને તે વેકિય સમૂવાત કરે છે જે ફરીથી ઈચ્છિત રૂપ બનાવવાની ઈચ્છા થાય તે તે બીજીવાર પણ વૈદિય સમ્રત કરે છે भर पातार दोच्यपि उश्विय समुग्धारण समाइण्णइ मासूत्र का शव " पण गोयमा चमरे अमुरिंदे अमरराया केयलकप्प जयदीव दीव पहुए असुरकुमारेहिं देवेहि य देवीहि य माइण वितिषिण उपस्यड़ सथड फट अवगारावगाट फरेसए" गीतमा त मरेन्द्र भसुरस यभर टaratheml છે કે આ એક લાખ જનની ૧ બાઈ પહેલાઈવાળા જ બુદ્વીપને અનેક અસુરકુમાર