Book Title: Ashtadhyayi Padanukram Kosh
Author(s): Avanindar Kumar
Publisher: Parimal Publication
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमल संस्कृत ग्रन्थमाला-44 सव्याख्य अष्टाध्यायी-पदानुक्रम-कोश A WORD INDEX OF PĀŅINI'S :: AȘȚĂDHYAYİ अवनीन्द्र कुमार प्रोफ़ेसर, संस्कृत विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली परिमल पब्लिकेशन्स दिल्ली Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: परिमल पब्लिकेशन्स 27728, शक्ति नगर दिल्ली- 110007 दूरभाष-7127209 प्रथम संस्करण (1996) ISBN: 81-7110-118-2 मुद्रक: हिमांशु लेज़र सिस्टम 46, संस्कृत नगर, सेक्टर-14 रोहिणी, दिल्ली- 110085 दूरभाष- 7262000, 7862183 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 明角角角角角第 इस कार्य में व्यस्त रहने के कारण जिनकी सेवा में मुझसे अनेकशः प्रमाद हुए, उन स्वर्गीया मां की पुण्य स्मृति को - अवनीन्द्र कुमार Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरोवाक् मेरे प्रिय अनुजकल्प श्री अवनीन्द्र कुमार ने पाणिनि की अष्टाध्यायी के प्रत्येक पद का अकारादि क्रम से नया कोष प्रस्तुत किया है। वैसे पहले को द्वारा सम्पादित पाणिनि-कोष है, एक दो और अनुक्रमणिकाएँ हैं, परन्तु इस कोष की अपनी तीन विशेषताएँ हैं १. इसमें न केवल पद प्रत्युत उसके सभी व्याकृत रूप पूरे सन्दर्भ के साथ दे दिये गये हैं। २. प्रत्येक सन्दर्भ के साथ पूरा अर्थ भी सूत्र का दे दिया गया है। ३. जहाँ समास के भीतर भी कोई पद आया हुआ है, उसका भी अपोद्धार कर दिया गया है। इस दृष्टि से यह कोश अत्यन्त संग्राह्य और उपयोगी हो गया है। __ श्री अवनीन्द्र कुमार ने बड़े मनोयोग से पूरी अष्टाध्यायी का मन्थन किया है, अष्टाध्यायी को उसकी समग्रता में पहचानने की कोशिश की है तथा एक-एक पद को पूरी अष्टाध्यायी के परिप्रेक्ष्य में परखा है। यह दुस्साध्य कार्य रहा होगा, मुझे परितोष है कि मेरे अनुज ने कहीं भी अपनी समग्र दृष्टि में शिथिल समाधिदोष नहीं आने दिया है। ___पाणिनि को समझना पूरे विश्व को समझना है, केवल भाषा के ही विश्व को नहीं, भारत की सूक्ष्मेक्षिका प्रतिभा द्वारा साक्षात्कृत पूरी वास्तविकता को समेटने वाले अर्थ-विश्व को समझना है और बहुत अच्छा होता यदि प्रत्येक प्रविष्टि में विभक्ति, कारक का निर्देश भी यथा-संभव दे दिया गया होता, उससे अर्थ स्पष्टतर होता। जैसे– अगात् [(अ+ग) = अग, पंचमी १] इतना देने से अगात् का अर्थ अधिक स्फुट हो जाता है, उसमें किसी दुविधा की गुंजाइश नहीं रहती, उसी प्रकार कहाँ • प्रविष्टि-पद स्वयं का वाचक है, कहाँ अपने से ज्ञापित समूह का, कहाँ अर्थ-कोटि का, कहाँ प्रत्यय का, कहाँ वर्ण का या वर्ण-समूह का, यह भी स्पष्ट कर दिया गया होता तो कोष बड़ा तो हो जाता, पर पूर्णतर होता। पर ग्रन्थविस्तार का भय रहा होगा, हिन्दी अनुवाद में ही ये बातें कुछ हद तक गम्य हैं, ऐसा सोच लिया गया होगा। ___ अस्तु, प्रस्तुत पाणिनि-पदानुक्रमणी श्री अवनीन्द्र कुमार के बरसों के तप का श्लाघ्य फल है और पाणिनि-अध्येताओं के लिए उत्तम सन्दर्भग्रन्थ है, मैं कोशकार को हृदय से आशीष देता हूँ। उनका पाणिनि में मनोयोग और बढ़े और वे उत्तरोत्तर व्याकरण के अन्तर्दर्शन में प्रवृत्त हों। अधिक भाद्रपद शु. १४ . वि. सं. २०५० __.. -विद्यानिवास मिश्र प्रधान सम्पादक- नवभारत टाइम्स पूर्वकुलपति-सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वे वचसी महर्षि पाणिनि-विरचित अष्टाध्यायी भारतीय चिन्तन से प्रसूत प्रज्ञा का चरमोत्कर्ष है । महर्षि ने अपनी तपःप्रसूत साधना की सुदृढ़ आधारशिला पर प्रज्ञा-प्रासाद का निर्माण किया और अन्तर्दृष्टि-प्रसूत चिन्तन को आमे आने वाले युगों के लिए भाषा की अनवद्यता-हेतु हमें एक निकषोत्पल उपहृत किया। पाणिनि की अष्टाध्यायी के अध्येताओं की एक सुदीर्घ परम्परा है । आधुनिक भाषा-वैज्ञानिकों ने भी मनोयोगपूर्वक पाणिनि-परम्परा से जुड़कर ज्ञानधारा में अवगाहन करने का शुभारम्भ किया है। सर्वशास्त्रोपकारक होने के कारण पाणिनि-अष्टाध्यायी के सम्बन्ध में सामग्री का संश्लेषण और विश्लेषण भी कई प्रकार से सुधीजनों के सामने प्रस्तुत हुआ है । प्रस्तुत कोष पाणिनि-अध्ययन-परम्परा के प्रति एक अभिनव अवदान-रूप है। ... मेरे प्रिय प्रोफेसर अवनीन्द्र कुमार व्याकरणशास्त्र में कृतभूरि-परिश्रम हैं । इन्होंने पाणिनि-कोष को अपने चिन्तन के परिपाक से एक नूतन दृष्टि दी है। इस तरह के प्रयास पाणिनि के अध्ययन की परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखने में तथा सुधी अध्येता को अनेकधा "दुर्व्याख्याविषमूर्च्छित” होने से बचा लेते हैं । वस्तुतः कोष-ग्रन्थों में प्रयुक्त पद सुधी अध्येता के सम्मुख स्फटिकवत् अपना परिचय प्रस्तुत कर देते हैं। भगवत्पाद पतञ्जलि व्याख्यान को 'विशेषप्रतिपत्ति' का हेतु मानते हैं-"व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिः व्याख्यान में प्रत्येक सत्र का पदच्छेद यदि सन्दर्भ-सहित सहज प्राप्त हो जाय तो वह सबोध हो जाता है. इसे ही व्याख्यान का प्रथम रूप माना गया है। पद से पदार्थ का बोध सहज होता है । मित्रवर प्रो. अवनीन्द्र कुमार ने समस्तपदों का विग्रह प्रस्तुत करके व्याख्यान के तीसरे चरण को भी अपनी इस कोष-ग्रन्थ में पूरा किया है। इनके कोष के उपरिनिर्दिष्ट तीन वैशिष्ट्य इनकी प्रज्ञा से प्रसूत “त्रिरत्नस्वरूप” हैं। प्राचीन ग्रन्थकारों ने “बालानां सुखबोधाय" रूप में आकर-ग्रन्थों के रहस्य को समझाने में बहुत प्रयास किया है। उसी दिशा में प्राचीन परम्परा के प्रति समर्पित प्रो. कुमार ने आधुनिक प्रगत अध्ययन के परिप्रेक्ष्य में इस कोष का निर्माण करके सरस्वती के प्रांगण में अपने बुद्धि-वैभव की क्रीडा का दिग्दर्शन कराया है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि इनका यह बुद्धिविलास सुधी-समुदाय में समादृत होगा। शब्द-ब्रह्म के उपासक के रूप में इनकी साधना और अधिक फलवती हो । परमपिता परमात्मा से यही कामना करता हूँ। वसन्त पञ्चमी २४ जनवरी १९९६ प्रो. वाचस्पति उपाध्याय कुलपति श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ नई दिल्ली-११००१६ Page #8 --------------------------------------------------------------------------  Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका भाषा के माध्यम से भावाभिव्यक्ति मनुष्य की अन्यतम विशेषता है । सृष्टि के आदिम समय में सम्भवतः इसी विशेषता को पहचान कर पहली बार मनुष्य अपनी श्रेष्ठता पर मोहित हुआ होगा। विरश्चिद्वारा चित्रित इस विचित्र प्रपञ्च में जिन चमत्कारों को देखकर मनुष्य मन्त्रमुग्ध हुआ है, उनमें एक चमत्कार भाषा भी है। यही कारण है कि सुदूर अतीतकाल से अद्यावधि भाषा मनुष्य के अध्ययन का प्रिय विषय रहा है। ___भाषा के अध्ययन के तीन प्रमुख पक्ष हैं- वैज्ञानिक पक्ष, दार्शनिक पक्ष और वैयाकरण पक्ष । यद्यपि संसार की सभी भाषाओं पर समय-समय पर अध्ययन होते रहे हैं किन्तु भारतीय उपमहाद्वीप की पुण्यभूमि पर आविर्भूत तथा पल्लवित संस्कृतभाषा का जितना सर्वाङ्गीण एवं आमूलचूल अध्ययन हुआ है उतना किसी अन्य भाषा का नहीं । समृद्ध शब्दकोश, अगाध साहित्यभण्डार, प्राञ्जल पदावली तथा सुगठित शब्दार्थविन्यास आदि संस्कृत भाषा की विलक्षण विशेषताओं ने विश्व की सर्वाधिक मेधा को अभिभूत किया है । एशिया महाद्वीप की अधिकांश अद्यतन भाषाएँ संस्कृत भाषा की ऋणी हैं। समस्त भारतीय भाषाएँ संस्कृत भाषा के विना निष्प्राण हैं । अन्य भाषाओं को जीवन्त तथा समृद्ध करने वाली प्राणदायिनी संस्कृत भाषा को मृतभाषा कहने वाले तथाकथित कतिपय बुद्धिजीवियों की बौद्धिक दरिद्रता पर हम परिहास भी क्या करें! अस्तु, भारत में संस्कृत भाषा के अध्ययन की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। भारतीय परम्परा में संस्कृत के वैज्ञानिक, दार्शनिक तथा वैयाकरण आदि तीनों पक्षों का विशद अध्ययन हुआ है । संस्कृत के वैज्ञानिक पक्ष पर अध्ययन करने वाले आचार्य हैं- यास्क, औदुम्बरायण, शाकटायन आदि; दार्शनिक पक्ष पर अध्ययन करने वाले आचार्य हैं— पतञ्जलि, भर्तृहरि, गौतम, जैमिनि आदि; और वैयाकरण पक्ष पर अध्ययन करने वाले आचार्य हैं- पाणिनि, इन्द्र, शाकटायन, आपिशलि, शाकल्य, काशकृत्स्न, शौनक, व्याडि, कात्यायन, चन्द्रगोमिन, बोपदेव, हेमचन्द्र, जिनेन्द्रबुद्धि आदि। संस्कृत के वैज्ञानिक और दार्शनिक पक्षों की अध्ययन-परम्पराओं की अपेक्षा वैयाकरण पक्ष की अध्ययन-परम्परा अत्यन्त प्राचीन तथा समृद्ध है। संस्कृत-व्याकरण-परम्परा का उद्भव कब से हुआ, इस प्रश्न का उत्तर देना कठिन है किन्तु हमें संस्कृत-व्याकरण के मूल रूप का सूक्ष्मदर्शन वेदों से हो जाता है । वैदिक भाषा का सूक्ष्म अध्ययन करने के उपरान्त हमें यह स्वीकार करना पड़ता है कि कतिपय व्यत्ययों के होने पर भी वैदिक भाषा भी व्याकरण-नियमों से प्रतिबद्ध रही होगी, अन्यथा इतने सन्तुलित शब्दार्थ-विन्यास वाले मन्त्रों की रचना संभव नहीं होती ।वेदों में बहुत से ऐसे मन्त्र मिलते हैं जिनमें शब्दों की व्युत्पत्ति साथ-साथ स्पष्ट रूप से वर्णित है । जैसे-केतपू: (केत + पू), वृत्रहन् (वृत्र + हन्), उदक (उद् + अन्), आपः (आप्ल व्याप्तौ), तीर्थ (त) और नदी (नद्आदि अनेक शब्दों की व्युत्पत्ति मन्त्रों में स्पष्टतया प्रदर्शित है। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैदिककालीन समाज में जैसे जैसे वेद-मन्त्रों का महत्व बढ़ता गया वैसे वैसे मन्त्रों के शुद्ध उच्चारण,शुद्ध अर्थज्ञान तथा शुद्ध शब्दज्ञान पर बल दिया जाने लगा। परिणामतःशुद्ध उच्चारणज्ञान के लिए शिक्षा ग्रन्थ, शुद्ध अर्थज्ञान के लिए निरुक्त और शुद्ध शब्दज्ञान के लिए व्याकरण ग्रन्थं आदि वेदाङ्गों का आविर्भाव हुआ। वैदिक काल में पुष्पित व्याकरण-परम्परा ब्राह्मण काल में पल्लवित हुई। मैत्रायणी संहिता में छः विभक्तियों का उल्लेख मिलता है। ऐतरेय ब्राह्मण में वाणी के सात भागों (विभक्तियों) का उल्लेख मिलता है । गोपथ ब्राह्मण में व्याकरण के ऐसे पारिभाषिक शब्दों का उल्लेख' प्राप्त होता है, जिनका पाणिनीय व्याकरण में प्रयोग होता है। ब्राह्मण काल के बाद वेद की प्रत्येक शाखा के लिए प्रातिशाख्य नामक व्याकरण-ग्रन्थों का प्रणयन हुआ। प्रातिशाख्यों में व्याकरण का प्रारम्भिक रूप मिलता है । इस प्रकार संस्कृत-व्याकरण-परम्परा का विधिवत् आरम्भ प्रातिशाख्यों से माना जा सकता है। प्रातिशाख्यों के बाद व्याकरण-परम्परा निरन्तर समृद्ध होती गई । लगभगई. पू. पांचवीं शती में आचार्य पाणिनि के आविर्भाव से व्याकरण-परम्परा की समृद्धि चरमोत्कर्ष पर पहुँची । फलतः पाणिनि और संस्कृत-व्याकरण दोनों एक दूसरे के पर्याय हो । गये। पाणिनि से पूर्व अनेक वैयाकरण हो चुके थे। स्वयं पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी में दस आचार्यों का नामोल्लेख किया है- आपिशलि, काश्यप, गार्ग्य, गालव, चाक्रवर्मण, भारद्वाज, शाकटायन, शाकल्य, सेनक और स्फोटायन । पाणिनि-पूर्व व्याकरणों के सम्बन्ध में भर्तृहरि के वाक्यपदीय से हमें एक तथ्य उपलब्ध होता है। भर्तृहरि के अनुसार व्याकरण दो प्रकार के होते थे- अविभाग और सविभाग। अविभाग व्याकरण वह है जिसमें प्रकृति-प्रत्ययादि के विभाग की कल्पना से रहित शब्दों का पारायण मात्र हो । महाभाष्यकार पतञ्जलि के अनुसार अविभाग व्याकरण को शब्दपारायण कहा जाता था। बृहस्पति द्वारा प्रोक्त व्याकरण तथा व्याडि का संग्रह ग्रन्थ अविभाग-व्याकरण के प्रतिनिधि हैं। सविभाग व्याकरण वह है जिसमें प्रकृति-प्रत्ययादि के विभाग की कल्पना की गई हो। तैत्तिरीय संहिता तथा महाभाष्य में उल्लिखित विभाग की कल्पना को स्पष्ट करने का प्रथम श्रेय आचार्य इन्द्र को ही जाता है । इन्द्र से पहले केवल अविभाग व्याकरण का ही प्रचलन था। ऋक्तन्त्र में उल्लेख है कि इन्द्र ने अपनी व्याकरण की शिक्षा भरद्वाज को दी। ऐन्द्र व्याकरण आजकल अनुपलब्ध है किन्तु इसका उल्लेख जैन शाकटायन व्याकरण,लावतारसूत्र, यशस्तिलकचम्पू तथा अलबरुनी के भारतयात्रावर्णन में मिलता है । तिब्बतीय अनुश्रुति के अनुसार ऐन्द्र व्याकरण का परिमाण २५ सहस्र श्लोक था जबकि पाणिनीय व्याकरण का परिमाण एक सहस्र श्लोक है । सम्भवतः इन्द्र का व्याकरण दक्षिण में लोकप्रिय रहा होगा, क्योंकि तमिल भाषा के व्याकरण 'तोल्काप्पियम्' पर इन्द्र के व्याकरण का पर्याप्त प्रभाव है। ऐन्द्र व्याकरण के बाद भरद्वाज, काशकृत्स्न,आपिशलि, शाकटायन आदि आचार्यों के द्वारा प्रणीत व्याकरणों का उल्लेख उपलब्ध होता है। आपिशलि और शाकटायन के व्याकरणों का सर्वाधिक उल्लेख मिलता है किन्त पाणिनीय व्याकरण के सर्वग्रासी प्रभाव के कारण समस्त पाणिनिपर्व व्याकरण काल-कवलित हो चुके हैं । यत्र तत्र उल्लिखित पाणिनिपूर्व व्याकरणों के कुछ सूत्र ही आज उपलब्ध होते हैं। पाणिनिपूर्व व्याकरणों का अध्ययन करने पर पता चलता है कि पाणिनि से पूर्व ऐन्द्र व्याकरण Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक प्रमुख परम्परा के रूप में विकसित हो चुका था। काशकृत्स्न, आपिशलि और शाकटायन इसी परम्परा के पोषक थे । ऐन्द्र परम्परा का उत्तरकालीन विकास काशकृत्स्न, आपिशलि, शाकटायन आदि आचार्यों के माध्यम से होता हुआ कातन्त्र व्याकरण के रूप में हुआ। प्रत्याहार-पद्धति के आविष्कार से संस्कृत-व्याकरण-परम्परा में क्रान्ति आ गई । इस पद्धति का आविष्कर्ता कौन है, इस बारे में कुछ निश्चित रूप से कहा नहीं जा सकता किन्तु पाणिनि अपने व्याकरण में इस प्रत्याहार-पद्धति का जितना वैज्ञानिक उपयोग करता है, उतना किसी भी पाणिनिपूर्व व्याकरण में दृष्टिगोचर नहीं होता। अनुश्रुति है कि पाणिनि ने जिन प्रत्याहार-सूत्रों का उपदेश किया है, वे सूत्र महेश्वरद्वारा पाणिनि को प्रदत्त माने जाते हैं। पाणिनि से पूर्व वर्गों के वर्गीकरण के सम्बन्ध में दो परम्पराएँ प्रतिष्ठित थीं। एक परम्परा ऐन्द्र व्याकरण और प्रातिशाख्यों से सम्बद्ध थी और दूसरी परम्परा माहेश्वर सूत्रों से सम्बद्ध थी। ऐन्द्र और प्रातिशाख्यों के वर्णसमाम्नाय में अकारादिक्रम से स्वरव्यंजनादि का पाठ किया जाता था और व्यञ्जनों का क्रम भी कण्ठ्य-तालव्य-मूर्धन्यादि वर्गक्रम के अनुसार ही रखा जाता था । ऐन्द्र व्याकरण और प्रातिशाख्यों का उद्देश्य वर्णध्वनियों के उच्चारण का वैज्ञानिक अध्ययन था। माहेश्वर सूत्र-पद्धति का उद्देश्य वोच्चारण का वैज्ञानिक अध्ययनन होकर वर्णों का वैज्ञानिक वर्गीकरण था। माहेश्वरसत्रपद्धति में जिस वर्णसमाम्नाय का उपदेश किया जाता है उसमें वर्णध्वनियों के पारस्परिक सम्बन्ध तथा विनिमय को स्पष्ट किया जाता है । माहेश्वर पद्धति के इसी दृष्टिकोण के कारण प्रत्याहारों का जन्म हुआ। - पाणिनि-पूर्व की पूर्वोक्त दोनों परम्पराएँ व्याकरण की दो शाखाओं के रूप में विकसित हुईं । ऐन्द्र परम्परा प्राच्यशाखा के रूप में तथा माहेश्वर परम्परा औदीच्य शाखा के रूप में विकसित हुईं । प्रत्याहारपद्धति का आविष्कार औदीच्य शाखा में ही हुआ, प्राच्य में नहीं । प्राच्यशाखा में प्रत्याहारों का आश्रय न लेकर पूरे-पूरे वर्णों का परिगणन किया गया है । फलतः प्राच्य शाखा के व्याकरण अत्यन्त विस्तृत हो गये । आचार्य पाणिनि औदीच्य शाखा के प्रमुख प्रवक्ता के रूप में अवतरित हुए और प्रत्याहार-पद्धति को चरमोत्कर्ष पर पहुँचाया। प्रत्याहार-पद्धति संस्कृत-व्याकरण-परम्परा के लिए औदीच्य शाखा की अमूल्य देन है। इसी पद्धति ने पाणिनीय व्याकरण-ग्रन्थ अष्टाध्यायी को इतना लोकप्रिय बनाया कि समस्त पाणिनिपूर्व व्याकरण अप्रासङ्गिक हो गये तथा कातन्त्र, चान्द्र, सारस्वत, हैम, जैनेन्द्र आदि पाणिन्युत्तर व्याकरण भी अष्टाध्यायी के प्रभाव के समक्ष निष्प्रयोजन सिद्ध हुए। संस्कृत-व्याकरण-परम्परा में आचार्य पाणिनि का नाम महोज्ज्वल नक्षत्र के तुल्य देदीप्यमान है। आचार्य पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी के माध्यम से विश्वसाहित्य को जो अमूल्य देन दी, उतनी अमूल्य देन शायद ही किसी ने दी होगी। पाणिनिकृत अष्टाध्यायी लौकिक संस्कृत का प्रथम सर्वाङ्गीण व्याकरण है और इसमें वैदिक संस्कृत का व्याकरण भी दिया गया है । अष्टाध्यायी सूत्रपद्धति में लिखा ग्रन्थ है। अष्टाध्यायी के सूत्रों की सूक्ष्म संरचना में पाणिनि ने जिस मेधा का परिचय दिया है, वह आधुनिक कम्प्यूटर भी कदाचित् ही दे सकता है। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xii अष्टाध्यायी में आठ अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में चार पाद हैं। सूत्रों की संख्या लगभग चार हज़ार है । अष्टाध्यायी प्रत्याहार-सूत्रों को आधार मानकर प्रणीत है । पाणिनि ने केवल वर्णों का प्रत्याहार ही नहीं बनाया अपितु प्रत्ययों का भी प्रत्याहार बनाया, जैसे- सुप् तिङ् आदि । अष्टाध्यायी में अधिकार-सूत्र-पद्धति को अपनाया गया है। निर्दिष्ट स्थानपर्यन्त अधिकारसूत्रों का अधिकार चलता है, जैसे- अङ्गस्य, पदस्य, धातो; आदि । लाघव को ही पुत्रोत्सव मानने वाले महावैयाकरण आचार्य पाणिनि ने गणपाठों का प्रयोग किया है। यदि एक ही कार्य अनेक शब्दों से होना है तो उन सभी शब्दों का एक गण बनाकर, प्रथम शब्द में आदि शब्द लगाकर सूत्र में निर्देश किया जाता है, जैसे‘नडादिभ्यः फक्’ । अष्टाध्यायी में गणों का निर्देश करने वाले लगभग २५८ सूत्र हैं । यद्यपि पाणिनि का प्रमुख उद्देश्य लौकिक संस्कृत का व्याकरण बनाना था तथापि वैदिक संस्कृत के व्याकरण की उपेक्षा नहीं की गई । पाणिनि ने वैदिक व्याकरण को भी पर्याप्त महत्त्व दिया है। लौकिक संस्कृत के लिए 'भाषायाम्' और वैदिक संस्कृत के लिए 'छन्दसि' शब्द का प्रयोग किया है। पाणिनि ने अनेक पारिभाषिक संज्ञाओं का प्रयोग किया है। कुछ संज्ञाएँ परम्परागत हैं, जैसे- आङ्, औङ् आदि; और कुछ संज्ञाएँ सर्वथा नई हैं जैसे नदी, घि आदि । पाणिनि ने अनुबन्ध - प्रणाली का भी वैज्ञानिक उपयोग किया. है । पाणिनि का व्याकरण 'अकालक' कहा जाता है । 'वर्तमानसमीप्ये वर्त्तमानवद्वा' इत्यादि सूत्रों के विश्लेषण से पता चलता है कि पाणिनि ने काल की अपेक्षा भाव को प्रमुखता दी है । पाणिनि ने काल को स्पष्ट रूप से शिष्य कहा है। पाणिनि की शैली की यह विशेषता है कि वह किसी विशेष युक्ति से सभी नियमों का विधान करते हैं। उत्सर्गापवाद-युक्ति, परबलीयस्त्व-युक्ति तथा नित्यकार्य-युक्ति पाणिनीय शैली की मौलिक विशेषताएँ हैं। सपादसप्ताध्यायी और त्रिपादी की परिकल्पना पाणिनि की अपूर्व प्रतिभा का परिचायक है। पाणिनि ने लोप की चार स्थितियों का आविष्कार किया है। वे चार स्थितियाँ हैं— लोप, लुक्, श्लु और लुप् । यद्यपि वाजसनेयि - प्रातिशाख्य में वर्ण के अदर्शन को लोप कहा गया है, किन्तु पाणिनि की मौलिकता यह है कि वह लोप को वर्ण तक सीमित न रखकर अदर्शन मात्र को लोप की संज्ञा दे देता है । यद्यपि परवर्ती आचार्यों का मत है कि पर्यायवाची शब्दों के प्रयोग में गौरवलाघवचर्चा नहीं की जानी चाहिए तथापि पाणिनि द्वारा प्रयुक्त 'विभाषा', 'विभाषितम्', 'अन्यतरस्याम्', 'वा', 'बहुलं' आदि पद कुछ निगूढ प्रयोजनों की ओर इंगित करते हैं जो कि अनुसन्धेय हैं ।. पाणिनि ने अष्टाध्यायी के पूरक ग्रन्थों के रूप में धातुपाठ, गणपाठ, उणादिकोश और लिङ्गानुशासन की भी रचना की । पाणिनि के व्याकरण में इन पाँचों उपदेश ग्रन्थों का अनिवार्य महत्त्व है, क्योंकि पाँच उपदेश ग्रन्थ पाणिनि के व्याकरण को पूर्ण बनाते हैं । पाणिनि के व्याकरण की चर्चा हो और कात्यायन तथा पतञ्जलि की चर्चा न हो, यह सम्भव ही नहीं है। क्योंकि कात्यायन और पतञ्जलि से अनुस्यूत होकर ही पाणिनि पूर्ण होता है । यही कारण है कि पाणिन्युत्तर-व्याकरण-परम्परा में पाणिनीय व्याकरण को 'त्रिमुनि व्याकरणम्' कहा गया है । कात्यायन ने अष्टाध्यायी के सूत्रों पर वार्त्तिकों की रचना की है । पतञ्जलि ने कात्यायन-कृत वार्तिकों का आश्रय लेते हुए अष्टाध्यायी की सर्वाङ्गीण एवं विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की, जो 'महाभाष्य' नाम से प्रसिद्ध है । कात्यायन ने अष्टाध्यायी के सूत्रों में आवश्यक परिवर्तन, परिवर्धन और संशोधन के लिए जो नियम बनाए हैं, उन्हें वार्त्तिक कहा जाता है। कात्यायनप्रणीत वार्त्तिकों की संख्या बताना कठिन है। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xill 'क्योंकि महाभाष्य में अन्य आचार्यों के द्वारा रचित वार्त्तिक भी हैं। प्रायः कात्यायन को पाणिनि के आलोचक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है किन्तु यह सर्वथा असत्य है। स्वयं कात्यायन पाणिनि को श्रद्धेय आचार्य स्वीकार करते हैं। किसी विषय पर उक्त, अनुक्त और दुरुक्तों का पर्यालोचन करना वाद होता है, विवाद नहीं । यह वाद ही तत्त्वबोध का साधन होता है । कात्यायन का महत्व इसी बात में है कि उन्होंने पाणिनि को आचार्य मानते हुए भी उनका पर्यालोचन करने का साहस दिखाया । यही कात्यायन की निष्पक्ष दृष्टि का निदर्शन है । पतञ्जलि पाणिनीय व्याकरण- परम्परा में अन्तिम प्रामाणिक आचार्य हैं। पतञ्जलि-प्रणीत महाभाष्य न केवल व्याकरण का ही ग्रन्थ है अपितु एक विश्वकोश है। महाभाष्य में तत्कालीन सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, धार्मिक और सामाजिक तथ्यों का पर्याप्त उल्लेख मिलता है । पतञ्जलि ने व्याकरण जैसे शुष्क और दुरूह विषय को इतने सरस और मनोज्ञ रूप में प्रस्तुत किया है कि अध्येताओं को महाभाष्य एक उपन्यास जैसा प्रतीत होता है । भाषासारल्य, स्फुट विवेचन, विशद एवं स्वाभाविक विषयप्रतिपादन, प्राञ्जल-सुबोध-वाक्यावली आदि पतञ्जलि की उत्कृष्ट शैली की विशेषताएँ हैं। इसी कारण महाभाष्य संस्कृत वाङ्मय का एक आदर्श ग्रन्थ माना जाता है । पतञ्जलि ने महाभाष्य में कात्यायन के वार्त्तिकों को आधार मानकर अष्टाध्यायी के सूत्रों पर विशद व्याख्या लिखी है । पतञ्जलि ने यत्र-तत्र पाणिनि के सूत्र तथा सूत्रांशों का और कात्यायन के वार्त्तिकों का प्रत्याख्यान किया है । किन्तु पतञ्जलिकृत इन प्रत्याख्यानों को आलोचना के रूप में नहीं समझना . चाहिए। क्योंकि हर बात पर उक्त, अनुक्त और दुरुक्तों पर निष्पक्ष पर्यालोचन करना संस्कृत-व्याकरण- परम्परा की एक अपूर्व विशेषता है। इस प्रसङ्ग में कीलहार्न का यह वक्तव्य उल्लेखनीय है— “कात्यायन का वास्तविक कार्य पाणिनि के व्याकरण में उक्त, अनुक्त अथवा दुरुक्त अर्थों पर विचार करना था । पतञ्जलि ने न्यायपूर्वक इन वार्त्तिकों को उसी क्रम से रखा है और पाणिनीय व्याकरण के अपने विचार को, उनके और उस समय तक अन्य उपलब्ध वार्त्तिकों के प्रकाश में, पूर्णता तक पहुँचाया 'है। ऐसा करते हुए पतञ्जलि का यल भी वार्त्तिककारों के समान उक्त, अनुक्त और दुरुक्त अर्थ का चिन्तन और उसकी पूर्णता ही रहा है; ताकि एक ऐसा साधन खोजा जा सकें, जिसे पाणिनीय दृष्टि में ही पूर्ण कहा ..जा सके। सूक्ष्मता और संक्षेप की पाणिनीय धारणा को वे इस सीमा तक ले गए हैं कि उन्हें कात्यायन के या अन्यों के वार्त्तिकों में अथवा पाणिनीय सूत्रों में भी, यदि कहीं व्यर्थ का विस्तार या पुनरावृत्ति मिली है, तो उन्होंने उसका भी विरोध ही किया है । परन्तु यह विरोध इतना सुन्दर और इस ढंग का है कि इसे विरोध न कहकर सुधार और समन्वय कहना अधिक उचित लगता है ।" पाणिनि, कात्यायन और पतञ्जलि द्वारा परिपोषित संस्कृत व्याकरण का अमरग्रन्थ अष्टाध्यायी भाषाशास्त्रियों के अनुसन्धान का केन्द्र-बिन्दु रहा है। लगभग २५०० वर्षों से अष्टाध्यायी पर असंख्य अध्ययन और अनुसन्धान हो चुके हैं और आधुनिक काल में भी अष्टाध्यायी पर अनेक अध्ययन और अनुसन्धान हो रहे हैं। अध्ययन और अनुसन्धान की पद्धतियाँ परिवर्तनशील रही हैं। आधुनिक अनुसन्धान-पद्धति में कोशों की भूमिका को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना जा रहा है। अतः अनुसन्धान के Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेत्र में अष्टाध्यायी के महत्त्व को देखते हुए अष्टाध्यायी पर एक विस्तृत एवं सर्वाङ्गपूर्ण कोश के निर्माण की आवश्यकता का अनुभव किया जाना स्वाभाविक है। ____ अनुमानतः २५०० वर्षों से संस्कृत-कोश-साहित्य के सृजन की परम्परा भारत में अव्याहत गति से चली आ रही है । इस अवधि में १५० से भी अधिक विभिन्न प्रकार के जैसे निघण्टु, पर्यायवाची कोश, समानार्थक, नानार्थक कोश, पारिभाषिक शब्द कोश, एकाक्षर कोश, व्यक्षर कोश, एवं त्र्यक्षरादि कोशों की रचना हुई। यह दुःख का विषय है कि इसका अधिकांश भाग अभी तक अप्रकाशित है, वह या तो मातृकाओं के रूप में विभिन्न ग्रन्थागारों में प्राप्त होता है, अथवा सर्वथा लुप्त हो गया है । आधे से कम ही अंश का कोश-साहित्य प्रकाशित मिलता है। वास्तव में ऐसी स्थिति में कोश-साहित्य को ऐतिहासिक दृष्टि से लिपिबद्ध करना कुछ दुष्कर ही है। संस्कृत वाङ्मय में जिस विशाल कोश-साहित्य का सृजन हुआ है, वैसा विशाल कोश-साहित्य विश्व की किसी भाषा में नहीं है । विविधता और समृद्धि की दृष्टि से भी संस्कृत भाषा के कोश अनुपम और अतुलनीय हैं । वैदिक काल में सर्वप्रथम संस्कृत कोशों की रचना का श्रीगणेश हुआ। कोशनिर्माण के प्रथम चरण में वैदिक संहिताओं के मन्त्रों में प्रयुक्त चुने हुए शब्दों का संकलन मात्र किया गया, उनको विभिन्न श्रेणियों में रखकर उनके व्युत्पत्तिलभ्य अर्थों का निर्देश किया गया है। कोशों की रचना का द्वितीय चरण लौकिक संस्कृत-साहित्य पर आधारित अमरकोश की रचना से आरम्भ होता है। अमरकोश की रचना से पूर्व व्याडि, वररुचि आदि कोशकार हुए; दुर्भाग्यवश उनकी रचनाएँ उपलब्ध न होने के कारण उनके बारे में अधिक कहना सम्भव नहीं है । अमरकोश के प्रणेता अमरसिंह ने स्वयं अपने पूर्ववर्ती कोशकारों के प्रति कृतज्ञता प्रकट की है, इसी से उन रचनाओं की प्रामाणिकता का पता चलता है। अमरसिंह का समय विद्वानों ने छठी शताब्दी ई० माना है। अमरकोश के कुछ टीकाकार क्षीरस्वामी, सर्वानन्द, रघुनाथ चक्रवर्ती आदि मात्र कोशकार ही नहीं, अपितु वैयाकरण भी थे; उन्होंने शब्दों की व्युत्पत्ति देकर, उनके अर्थों का निर्देश कर कोशसाहित्य के विकास का तृतीय चरण आरम्भ किया। व्याकरण-सम्मत व्युत्पत्ति देने से शब्दों के अर्थ की प्रामाणिकता स्वतः सिद्ध हो जाती है। पूर्ववर्ती कोशकारों द्वारा दिए गए अर्थ प्रयोगों के ही आधार पर थे।. कोश-साहित्य के विकास के चौथे चरण में पारिभाषिक शब्दकोशों की रचना हुई। यह धारा अमरसिंहविरचित लौकिक ,शब्दकोश के समानान्तर कोशरचना की धारा थी। आयुर्वेदशास्त्र के अन्तर्गत वनस्पतिशास्त्र पर रचित कुछ कोश अमरकोश से भी पहले के हैं, ऐसा अनुसन्धानकर्ताओं का मत है । धन्वन्तरिनिघण्टु, पर्यायरत्नमाला, शब्दचन्द्रिका आदि मूल रूप में पारिभाषिक शब्दकोश ही हैं, जिनमें आयुर्वेद से सम्बद्ध शब्दों के अतिरिक्त अन्य शब्दों का संग्रह ही नहीं है । ये सभी कोश छन्दोबद्ध थे, अतः उन्हें कण्ठस्थ करना सरल था। कोश-साहित्य के पञ्चम चरण में नानार्थकोशों की रचना हुई । वैज्ञानिक सिद्धान्तों के आधार पर कोशों के निर्माण की दिशा में नानार्थ कोश प्रथम प्रयास है । इन कोशों में प्रयोगों के आधार पर एक ही Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द के अनेक अर्थ दिये गये हैं। इस प्रकार के कोशों का आरम्भिक रूप अमरकोश के तृतीय काण्ड में भी देखने को मिलता है; लेकिन इसका पूर्ण विकसित रूप मेदिनीकोश तथा हलायुध में दिखाई देता है। नानार्थकोशों में शब्दों की संरचना वर्णानुक्रम से पहली बार की गई, जो आधुनिकता और वैज्ञानिकता की दिशा में प्रथम प्रयास था। ___ एकाक्षरकोशों की रचना से संस्कृत कोशों के क्षेत्र में नानारूपता आई और इन्होंने निस्सन्देह संस्कृत-कोश-साहित्य को समृद्धतर किया। आधुनिक काल में भी संस्कृत में वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कोश लिखे गए। इनमें से अधिकांश कोशों में शब्दों को वर्णानुक्रम से रखकर उनके अर्थों को प्रयोगों के आधार पर दिया गया है। ये कोश कण्ठस्थ किये जाने योग्य नहीं हैं; ये सहायक ग्रन्थ के रूप में ही प्रयुक्त किये जा सकते हैं। इन कोशों में वाचस्पत्यम्, शब्दकल्पद्रुम, सैण्ट पीटर्सबर्ग संस्कृत-जर्मन शब्दकोश, मोनियर विलियम्स-विरचित संस्कृत-अंग्रेजी शब्दकोश, आप्टे-विरचित प्रैक्टिकल संस्कृतअंग्रेजी शब्दकोश। वैदिक शब्दों के लिए सूर्यकान्तरचित वैदिक शब्दकोश, पारिभाषिक शब्दों के लिए झल्कीकरविरचित न्यायकोश, दातार काशीकर आदि विद्वानों द्वारा रचित श्रौतकोश, लक्ष्मण शास्त्रीविरचित धर्मकोश आदि विशेषेण उल्लेख्य हैं । इन सभी कोशों में शब्दों को वैज्ञानिक पद्धति से व्यवस्थित कर उनके अर्थों को अभिव्यक्त किया गया है। इनमें से अधिकांश कोशों में अर्थों की पुष्टि के लिए प्रयुक्त सन्दर्भो को भी उद्धृत किया गया है। पूना में आजकल एक नवीन संस्कृत-शब्दकोश के निर्माण का कार्य चल रहा है, जिसमें अनेक प्रतिष्ठित विद्वान् वर्षों से संलग्न हैं । इस आधुनिकतम कोश में ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में किस प्रकार शब्दों के अर्थ परिवर्तित हुए— यह भी बतलाने का प्रयास किया गया है । इसे 'डैस्क्रिप्टिव डिक्शनरी ऑव् संस्कृत लैंग्वेज ऑन हिस्टोरिकल प्रिंसिपल्स' नाम दिया गया है। जैसी कि आशा है यह कोश कोशरचना की कला का अत्यन्त विकसित रूप होगा। . आधुनिक काल में शब्दकोश-प्रणयन-प्रणाली में पर्याप्त प्रगति हो चुकी है और इसका प्रमुख . कारण प्राच्य के साथ पाश्चात्य का विद्या के क्षेत्र में आदान-प्रदान कह सकते हैं । ऊपर उल्लिखित कोशों के अतिरिक्त आधुनिक वैज्ञानिक प्रणाली पर निर्मित निम्न कोश महत्वपूर्ण हैं- १. विल्सन द्वारा संकलित संस्कृत-आंग्ल भाषा कोश, २. बॉथलिंक और रॉथ द्वारा संकलित संस्कृत जर्मन वॉर्टरबुश, ३. तारानाथ भट्टाचार्यविरचित शब्दस्तोममहानिधि, ४. वानोंफरचित संस्कृत-फ्रेञ्च शब्दकोश, ५. आनन्दराम बडुआ-विरचित नानार्थसंग्रह, ६. रामावतार शर्मा द्वारा संकलित वाङ्मयार्णव, ७. मैक्डोनैलविरचित संस्कृत-आंग्लभाषाकोश तथा, ८. मैक्डोनैल एवं कीथ द्वारा रचित वैदिक इण्डैक्स । . आधुनिक अध्ययन-पद्धति में कोश एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका का संवहन करते हैं । अनेक शास्त्रों को न पढ़ सकने वाला भी एक शब्द के अनेक अर्थों को विभिन्न सन्दर्भो और शास्त्रों अथवा विधाओं के परिप्रेक्ष्य में जान सकता है । सभी समृद्ध भाषाओं के अनेक कोष उपलब्ध होते हैं । संस्कृत, अंग्रेज़ी या इसी प्रकार की अन्य समृद्ध भाषाओं के अनेक तकनीकी, व्यावसायिक एवं भिन्न-भिन्न विज्ञानों से सम्बन्धित पृथक्-पृथक् कोश प्रचुर संख्या में मिलते हैं। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . xvi संस्कृत-व्याकरण को उद्देश्य कर भी 'डिक्शनरी ऑव् संस्कृत ग्रामर (के. सी. चटर्जी) एक उपयोगी और प्रामाणिक ग्रन्थ है; इसमें संस्कृत व्याकरण में बहुधा प्रयोग में आने वाले शब्दों एवं तकनीकी पदों को स्पष्टतया विस्तार से सोदाहरण व्याख्यायित किया गया है । पाणिनीय अष्टाध्यायी को उद्देश्य बनाकर भी जर्मन-देशीय बोथलिंग ने जर्मन-भाषा में सूत्रानुवाद-टिप्पणादि से संवलित पर्याप्त समय पूर्व एक कोश प्रकाशित किया था। यद्यपि अत्यन्त प्रयत्नसाध्य कार्य उन्होंने सम्पादित किया था; परन्तु उनके द्वारा अपनायी गई पद्धति भाषा के अतिरिक्त भी सामान्यतया दुरवगाह्य ही थी। उसके बाद भण्डारकार ऑरियण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट से १९३५ में महामहोपाध्याय वेदान्तवागीश श्रीधरशास्त्री पाठक एवं विद्यानिधि सिद्धेश्वरशास्त्री चित्राव के द्वारा पाणिनि के पञ्चाङ्गों, कात्यायन के वार्तिक पाठ के, साथ एक कोष प्रकाश में आया । यद्यपि इस की अपनी सीमाएँ हैं, पर यह कई दृष्टियों से अत्यन्त उपयोगी कहा जायेगा। इसमें किसी शब्द का अर्थ तो नहीं है, मात्र सूत्रों की संख्या का निर्देश कर दिया है; कहीं-कहीं कोई-कोई पद स्खलित भी हो गया प्रतीत होता है; परन्तु इसमें यथासम्भव प्रामाणिक संस्करणों से वार्तिकस्थगणपाठपदसूची, शाकटायनसाधित शब्द, फिट्सूत्रकोश, सवार्तिक अष्टाध्यायीसूत्रपाठ, कैयटायुक्त परिशिष्टवार्त्तिक, वर्णानुक्रम से अन्तर्गणसूत्र, शाकटायनप्रणीत उणादि-सत्रपाठ. उणादि सत्रस्थ गण तथा अन्य अनेकविध उपयोगी सामग्री संकलित की गई है। इस प्रकार यह निस्सन्देह एक उपयोगी कोश है । इसके उपरान्त तीन भागों में आचार्यप्रवर सुमित्र मङ्गेश को के द्वारा डिक्शनरी ऑव् पाणिनि का डैकन कॉलिज पूना से १९६८ में प्रकाशन हुआ। यह कोश अनेक दृष्टियों से उपयोगी है। अकारादिक्रम से पाणिनि-शास्त्र में प्रयुक्त सभी पदों का अर्थ आंग्ल भाषा में दिया गया है; इसके साथ ही कोष्ठक में पाणिनि-सूत्रों से निष्पन्न उदाहरणों को भी पूरी तरह से समझाने का प्रयत्न किया है । यथासम्भव पाणिनि की सूत्र-शैली का आश्रय लेते हुए आचार्यप्रवर को जी ने इसे अत्यन्त उपयोगी बनाया है। प्रस्तत कोश इन दोनों कोशों से कई रूपों में भिन्न है । इस कोश में प्रत्येक पद के अर्थ को सम्पूर्ण सूत्र के सन्दर्भ में व्याख्यायित करने का प्रयास किया है। इससे यह तो हुआ है कि यदि एक सूत्र में ३,४ पद हैं तो उस सूत्र का अर्थ ३,४ स्थलों पर मिलेगा; पर उससे पद के सही अर्थ को पाणिनि के इष्ट परिप्रेक्ष्य में देखने का अवसर मिलेगा; अन्यथा मात्र पद का अर्थ देने पर तो 'वृद्धि' पद से आ, ऐ, औ (आदेच्) और 'च' पद से समुच्चय, अन्वाचय, इतरेतरयोग एवं समाहार अनेक अर्थों के होने पर भी और, एवं आदि अर्थों को ही व्यक्त किया जा पाता। प्रस्तुत कोश में यह भी प्रयत्न किया गया है कि लम्बे लम्बे समासयुक्त पदों को अलग से दिखा दिया गया है। यदि किसी जिज्ञासु को मध्यगत भी किसी पद का स्मरण होता है तो वह उसके आधार. पर पूर्ण समासयुक्त पद को पाकर अर्थ अथवा प्रसंगज्ञान कर सकता है । प्रस्तुत कोश की रचना में अष्टाध्यायी के श्री. रामलाल कपूर ट्रस्ट, बहालगढ़, सोनीपत द्वारा प्रकाशित संस्करण के आधार पर संख्या दी गई है। अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए प्रमुख आधार प० ब्रह्मदत्त जिज्ञासुप्रणीत अष्टाध्यायी-भाष्य (प्रथमावृत्ति), वामनजयादित्यप्रणीत काशिका एवं कहींकहीं चौखम्बा से आचार्य श्रीनारायणमिश्र द्वारा सम्पादित आभा-भाषावृत्तियुक्त अष्टाध्यायीसूत्रपाठ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xvii हैं। जब कभी कोई द्वन्द्व या समस्या आई तो न्यास, पदमञ्जरी और महाभाष्य एवं वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदी से भी परामर्श-साधन किया है । मैं इन सभी ग्रन्थकारों, विद्वानों का ऋणी हूँ, साथ ही इस कोश में किसी भी कारण से आये प्रत्येक दोष का दायित्व स्वयं का स्वीकार करता हूँ। सुधीजनों से क्षमाप्रार्थना के साथ आगे उनको दूर करने का प्रयत्न करूँगा, यही निवेदन कर सकता हूँ ।साथ ही विद्वानों से किसी भी सुझाव को मुझ तक निस्संकोच पहुँचाने का निवेदन भी करता हूँ। पाणिनि के बारे में मुझे कुछ भी यदि आता है तो इसके लिए मैं कीर्तिशेष पूजाह प० ज्योतिःस्वरूप जी, संस्थापक आचार्य, आर्ष गुरुकुल एटा के प्रति सश्रद्ध विनयावनत हूँ । लौकिक और व्यावहारिक संस्कृत ज्ञान के लिए स्व० डॉ० नरेन्द्रदेवसिंह शास्त्री, भूतपूर्व अध्यक्ष, संस्कृत-हिन्दी विभाग, बी. आर. कॉलिज आगरा को मैं सादर स्मरण करता हूँ। .. इस ग्रन्थ का पुरोवाक् लिखकर पाणिनि-शास्त्र के मूर्धन्य विद्वान् आचार्य डॉ० विद्यानिवास मिश्र ने जो स्नेह व्यक्त किया है; मैं उनका हृदय से आभारी हूँ। गुरुकल्प आचार्य डॉ. रसिकविहारी जोशी, विज़िटिंग प्रोफ़सर, मेक्सिको ऑटोनोमस यूनिवर्सिटी एवं एल कॉलेजियो द मैहिको को सादर प्रणति प्रस्तुत करता हूँ । इसके शीघ्र प्रकाशन को लेकर वे सदा सचिन्त रहे। — आचार्य सत्यव्रत शास्त्री का मुझे सदा स्नेह प्राप्त होता रहा है; मैं इसे अपना सौभाग्य मानता हूँ और इस अवसर पर उन्हें सादर सश्रद्ध स्मरण करता हूँ। .. प्रिय सखा प्रो० वाचस्पति उपाध्याय, कुलपति श्री० लालबहादुर राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली को मैं सस्नेह स्मरण करता हूँ । गत २५, २६ वर्षों से वे मेरे अनेक सुख-दुःखों को बराबर बांटते रहे हैं । 'द्वे वचसी' के लिए उन्हें धन्यवाद देकर मैं उनके रोष का पात्र नहीं बनना चाहूंगा। . लगभग १२-१३ वर्ष पूर्व, मेरे सहकर्मी बन्धुवर्य प्रो. सत्यपाल नारङ्ग के सत्परामर्शस्वरूप विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से Subject Index of the Astādhyāyi पर कार्य करने के लिए एक प्रोजैक्ट स्वीकृत हुआ था; यद्यपि प्रो. नारङ्ग की दृष्टि कुछ भिन्न रूप में कार्य को उपस्थित करने की थी; पर परिस्थितियों या मनःस्थिति ने जिस रूप में भी यह कार्य सम्पादित किया, मैं उन्हें सादर सप्रेम स्मरण कर हृदय से धन्यवाद देता हूँ। ___ मैं विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अधिकारियों का भी आभार व्यक्त करता हूँ कि उन्होंने प्रोजैक्ट स्वीकृत कर मुझे पर्याप्त सुविधाएँ प्रदान की। ____ मैं अपने अग्रजकल्प प्रो० कृष्णलाल, संस्कृत विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, डॉ. कमलाकान्त मिश्र, निदेशक राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, नई दिल्ली तथा डॉ. काशीराम, रीडर संस्कृत विभाग, हंसराज कॉलिज, दिल्ली को भी उनके अपने प्रति सहज स्नेह के लिए सादर सप्रेम स्मरण करता हूँ। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xviii इस कार्य को पूर्णता की ओर लाने में एक पूरी टीम का योगदान रहा। मैं सर्वाधिक स्नेह से वत्सकल्प प्रिय शिष्य डॉ. ओमनाथ बिमली, प्रवक्ता, संस्कृत विभाग, राजधानी कॉलिज, दिल्ली को स्मरण करता हूँ, प्रभु उसे सदा विद्या-व्यसन में लगाएँ। मेरे दो अन्य शिष्य प्रिय श्री वेदवीर एवं श्री अनिल कुमार भी साधुवाद के पात्र हैं। ये तीनों पाणिनि-शास्त्र के अद्भुत विद्वान् और संस्कृत का भविष्य हैं तथा 'विद्याभ्यसनं व्यसनम्' की उक्ति को चरितार्थ करते हैं। __इस कार्य में मेरे प्रिय अनुजकल्प डॉ. वागीश कुमार, आचार्य आर्ष गुरुकुल एटा ने प्रचुर सहायता की; वे सदा इसके प्रकाशन के लिए उत्सुक रहे । सुश्री डॉ. माया ए, चैनानी, अमेरिका; प्रिय डॉ. सत्यपालसिंह, प्रवक्ता संस्कृत विभाग, जाकिर हुसैन कॉलिज, दिल्ली, आयुष्मती डॉ. एच्. पूर्णिमा, प्रवक्ता संस्कृत विभाग, श्री शङ्कराचार्य यूनिवर्सिटी फ़ॉर संस्कृत, तिरुअनन्तपुरम् केन्द्र एवं डॉ. कु. निशा गोयल ने भी मुझे अपने-अपने ढंग से सहयोग दिया है। मैं इन सबके उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ। अपनी सहधर्मिणी सुश्री उर्मिलाकुमारी एवं प्रिय आत्मजों चि. सुधांशु और चि. हिमांशु को मेरे स्नेहाशीः। ___ ग्रन्थ के सुन्दर प्रकाशन के लिए श्री. कन्हैयालाल जोशी, स्वामी परिमल पब्लिकेशन्स, दिल्ली धन्यवाद के पात्र हैं । कम्पोजिंग एवं प्रिण्टिंग के लिए एकनिष्ठ संलग्न होकर काम करने वाले चि. हिमांशु जोशी को मैं स्नेहाशीः देता हूँ, प्रभु करें कि वह अपने जीवन में प्रगति के उच्चतम शिखर पर पहुँचे। - -अवनीन्द्र कुमार Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ-प्रत्याहारसूत्र । अंशम् - V. 1.69 आचार्य पाणिनि द्वारा अपने प्रथम प्रत्याहार सूत्र में द्वितीयासमर्थ अंश प्रातिपदिक से (हरण करने वाला पठित सर्वप्रथम वर्ण । इससे 'अ' के सम्पूर्ण अठारह अर्थ में कन प्रत्यय होता है। भेदों का ग्रहण हो जाता है ।। अंशवस्नभृतयः -V.1.55 पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्णमाला का प्रथम वर्ण। (प्रथमासमर्थ प्रातिपदिकों से षष्ठ्यर्थ में यथाविहित प्रत्यय होते हैं, यदि वह प्रथमासमर्थ) अंश =, भाग,वस्न अ-III.1.80 =मूल्य तथा भूति- वेतन समानाधिकरण वाला हो तो। (घिवि तथा कृवि धातुओं से उ प्रत्यय तथा उनको) अकार अन्तादेश (भी) हो जाता है.(कर्तवाची सार्वधातुक अंश्वादयः -VI. 1. 193 के परे रहते)। (प्रति उपसर्ग से उत्तर तत्पुरुष समास में ) अश्वादिअ-III. iii. 102 गण-पठित शब्दों को (अन्तोदात्त होता है)। ...अंसाध्याम् -V. 1.98 (प्रत्ययान्त धातुओं से स्त्रीलिङ्ग कर्तृभिन्न कारक संज्ञा .. देखें-वत्सांसाभ्याम् V. 1. 98 तथा भाव में) अप्रत्यय होता है। 3-VII. I. 102 ...अ...-III. iv.82 .. - (त्यदादि अगों को विभक्ति परे रहते) अकारादेश होता देखें- जलतुसु० III. iv. 82 अ-IV, iii.9 अ -VII. iv. 18 (मध्य शब्द से साम्प्रतिक अर्थ गम्यमान हो तो शैषिक) . (टुओश्वि अङ्गको अङ् परे रहते) अकारादेश होता है। अ-प्रत्यय होता है। अ-VII. iv.73 अ-IV. iii. 31 (भू अङ्ग के अभ्यास को) अकारादेश होता है, लिट् परे (अमावास्या प्रातिपदिक से जात अर्थ में) अप्रत्यय रहते)। (भी) होता है। अक...-II. 1.70 अ-v.iv.74 देखें - अकेनोः II. il. 70 (ऋक्,पुर ,अप् ,धुर तथा पथिन् शब्द अन्त में हैं जिस अक... - IV. 1. 140 समास के, तदन्त प्रातिपदिक से समासान्त ) अप्रत्यय देखें-अकेकान्त V. 1. 140 होता है, (यदि वह धुर् अक्षसम्बन्धी न हो तो)। अक...- VIII. iv. 18 देखें-अकखादौ VIII. iv. 18 अ- VIII. iv. 67 अक: - VI.i.97 (विवृत अकार) संवृत अकार होता है। अक् प्रत्याहार से उत्तर (सवर्ण अच् परे हो तो पूर्व और अण् - प्रथम प्रत्याहार सूत्र पर के स्थान में दीर्घ एकादेश होता है, संहिता के विषय . आचार्य पाणिनि अ,इ,उ - इन तीन वर्षों का उपदेश में)। करके णकार को इत्संज्ञा के लिये रखते है। इससे एक अक: -VI.i. 124 प्रत्याहार बनता है- अण् । (ऋकार परे रहते) अक् को (शाकल्य आचार्य के मत अंश... - V. 1.55 में प्रकृतिभाव हो जाता है तथा उस अक् को हस्व भी हो देखें-अंशवस्नभृतयः V.1.55 जाता है)। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकः अक: - VII. 1. 112 ककार से रहित (इदम् शब्द) के (इद् भाग को अन आदेश होता है, आप् विभक्ति परे रहते ) । अकखादौ - VIII. iv. 18 (उपसर्ग में स्थित निमित्त से उत्तर) जो उपदेश में ककार तथा खकार आदिवाला नहीं है, (एवं षकारान्त भी नहीं है); ऐसे (शेष) धातु के परे रहते (नि के नकार को विकल्प से कार आदेश होता है)। अकङ् - IV. 1. 97 (सुधातृ शब्द से 'तस्यापत्यम्' अर्थ में इञ् प्रत्यय होता है, तथा (सुधातृ शब्द को अकड़ आदेश (भी) होता है। अकच् - V. iii. 71 (अव्यय, सर्वनामवाची प्रातिपदिकों एवं तिङन्तों से इवार्थ से पहले पहले) अकच् प्रत्यय होता है, (और वह टि से पूर्व होता है) । अकच्चिति - III. ili. 153 (अपने अभिप्राय का प्रकाशन करना गम्यमान हो और ) कच्चित् शब्द उपपद में न हो तो (धातु से लिङ् प्रत्यय होता है)। अकथितम् - I. iv. 51 (अपादानादि कारकों से) अनुक्त (कारक भी कर्मसंज्ञक होता है)। अकद्रवा -VI. iv. 147 कद्रू शब्द को छोड़कर (जो उवर्णान्त भसञ्ज्ञक अङ्ग, उसका तद्धित 'ढ' प्रत्यय परे रहते लोप होता है)। अकर्त्यादीनाम् - VI. ii. 87 (प्रस्थ शब्द उत्तरपद रहते) कर्त्यादिगणस्थ (तथा वृद्धसक) शब्दों को छोड़कर (पूर्वपद को आद्युदात्त होता है)। अकर्त्तरि -II. iii. 24 कर्तृभिन्न (हेतुवाची) शब्द में (ऋण वाच्य होने पर पञ्चमी विभक्ति होती है) 1 अकर्त्तरि - III. iii. 19 कर्तृभिन्न कारक में (भी धातु से संज्ञाविषय में घञ् प्रत्यय होता है)। अकर्त्तरि - V. iv. 46 (अतिग्रह, अव्यथन तथा क्षेप विषयों में वर्त्तमान तृतीयाविभक्त्यन्त प्रातिपदिक से विकल्प से तसि प्रत्यय होता है, यदि वह तृतीया) कर्त्ता में न हो तो । 2 . अकर्मक... III. iv. 72 देखें - गत्यर्थाकर्मकo III. iv. 72 अकर्मकस्य - VII. iv. 57 अकर्मक (मुच्ल) धातु को (विकल्प से गुण होता है, सकारादि सन् प्रत्यय परे रहते ) । ....अकर्मकाणाम् - I. iv. 52 देखें – गतिबुद्धिप्रत्यवसानार्थ. I. iv. 52 अकर्मकात् - I. iii. 26 (उपपूर्वक) अकर्मक (स्था) धातु से ( भी आत्मनेपद होता है)। ..... अकाभ्याम् अकर्मकात् - Iiii. 35 (विपूर्वक) अकर्मक (कृञ्) धातु से (भी आत्मनेपद होता है)। अकर्मकात् - I. iii. 45 अकर्मक (ज्ञा) धातु से (भी आत्मनेपद होता है)। अकर्मकात् – I. iii. 49 (अनु उपसर्ग से उत्तर) अकर्मक (वद) धातु से (स्पष्ट वाणी वालों के सहोच्चारण अर्थ में आत्मनेपद होता है) । अर्मकात् - I. iii. 85 (उप उपसर्ग से उत्तर) अकर्मक (रम्) धातु से (परस्मैपद होता है)। अकर्मकात् - I. iii. 88 (अण्यन्तावस्था में) अकर्मक (तथा चेतना कर्ता वाले) धातु से (ण्यन्तावस्था में परस्मैपद होता है)। अकर्मकात् - III. ii. 148 अकर्मक (चलनार्थक और शब्दार्थक) धातुओं से (तच्छीलादि कर्ता हों तो वर्तमानकाल में युच् प्रत्यय होता है)। अकर्मकेभ्यः - III. iv. 69 (सकर्मक धातुओं से लकार कर्म-कारक में होते हैं, चकार से कर्ता में भी होते हैं, और) अकर्मक धातुओं से (भाव तथा चकार से कर्ता में भी होते हैं)। अकर्मधारये - VI. ii. 130 कर्मधारयवर्जित (तत्पुरुष समास में (उत्तरपद राज्य शब्द को आद्युदात्त होता है)। अकाभ्याम् – H. ii. 15 देखें - तृजकाभ्याम् II. ii. 15 ... Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकामे अके अकामे -VI. 1. 11 अकृषः -VI. 1.75 (मूर्धन् तथा मस्तकवर्जित हलन्त एवं अदन्त स्वाङ्गवाची (शिल्पिवाची समास में भी अणन्त उत्तरपद रहते पूर्वपद शब्दों से उत्तर सप्तमी का) काम से भिन्न शब्द उत्तरपद को आधुदात्त होता है, यदि वह अण) कृञ् से परे न हो रहते (अलुक् होता है)। तो। ...अकार्ययो: - V. ii. 20 . अकृत् ... -VI. ii. 191 . देखें - अघृष्टाकार्ययो: V. ii. 20 देखें- अकृत्पदे VI. ii. 191 अकालात् -VI. ii. 32 अकृत्...-VII. iv.25 (सिद्ध, शुष्क, पक्व तथा बन्ध शब्दों के उत्तरपदं रहते) देखें - अकृत्सार्व. VII. iv. 25 अकालवाची (सप्तम्यन्त) पूर्वपद को (प्रकृतिस्वर होता ... अकृत..-III. iv. 36 देखें-समूलाकृतजीवेषु III. iv. 36 अकालात् -VI. I. 17 . अकृत ...- VI. ii. 170 (शय.वास तथा वासिन शब्दों के उत्तरपद रहते) काल- देखें-अकृतमित० VI. ii. 170 वाचियों से भिन्न शब्दों से उत्तर (सप्तमी का विकल्प से अकृतमितप्रतिपन्नाः -VI. 1. 170 अलुक् होता है)। (आच्छादनवाची शब्द को छोड़कर जो जातिवाची, अकाले -VI. 1. 80 कालवाची एवं सुखादि शब्द, उनसे आगे) कृत, मित (अव्ययीभाव समास में भी) अकालवाची शब्दों के उत्त- तथा प्रतिपन्न शब्द को छोड़कर (उत्तरपद क्तान्त शब्द रपद रहते (सह को स आदेश होता है)। को अन्तोदात्त होता है, बहुव्रीहि समास में )। 'अकित:-VII. iv.83 अकृता-II. ii.7 त्यङ् अथवा यङ्लुक पर रहन पर) आकत्-कित्- . अकृदन्त (सुबन्त) के साथ (ईषत् शब्द समास को प्राप्त भिन्न (अभ्यास) को (दीर्घ हो जाता है)। होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है)। अकिति - VI. 1.57 अकृत्पदे - VI. ii. 191 (सृज् और दृशिर् धातु को) कित्-भिन्न (झलादि) प्रत्यय (अति उपसर्ग से उत्तर) अकृदन्त तथा पद शब्द को परे हो तो (अम् आगम होता है)। (अन्तोदात्त होता है)। अदिक्ते -III. ii. 145 ...अकृत्रिमा... - V.I. 42 ..(असम्भावन तथा सहन न करना गम्यमान हो तो)किम् देखें -वृत्यमत्रावपना० IV. 1. 42 के रूप वाले शब्द उपपद न हों (अथवा उपपद हों) तो अकृत्सार्वधातुकयो: - VII. iv. 25 (भी धातु से काल-सामान्य में सब लकारों के अपवाद . लिङ् तथा लुट् प्रत्यय होते हैं)। कृत् तथा सार्वधातुक से भित्र (कित, ङित् यकार) परे ... अकृच्छ्रार्थेषु -III. iii. 126 रहते (अजन्त अङ्ग को दीर्घ होता है)। देखें - कृच्छ्राकृच्छ्रार्थेषु III. iii. 126 अक्लूपि..-III. I. 110 अकृच्छ्रिणि-III. ii. 130 देखें-अक्लूपिचतेः III. I. 110 (इङ तथा धारिघात से वर्तमान काल में शत प्रत्यय होता अक्लूपिचूते: -III. I. 110 है); यदि जिसके लिये क्रिया कष्टसाध्य न हो,ऐसा कर्ता (ऋकार उपधा वाली धातुओं से भी क्यप् प्रत्यय होता वाच्य हो तो। है),क्लपि और चूति धातु को छोड़कर। अकृच्छ्रे - VIII. 1. 13 अके - VI. ii. 73 ' (प्रिय तथा सुख शब्दों को) कष्ट न होना अर्थ द्योत्य हो जीविकार्थवाची समास में) अकप्रत्ययान्त शब्द के उत्त. तो विकल्प करके द्वित्व होता है,एवं उसको कर्मधारयवत् • रपद रहते (पूर्वपद को आधुदात्त होता है)। कार्य होता है)। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तखोपयात् अगात् , अकेकान्तखोपचात् - IV. 1. 140 अक,इक अन्त वाले तथा खकार उपधावाले जो देश- वाची वृद्धसंज्ञक)प्रातिपदिक,उनसे (शैषिक छ प्रत्यय होता अकेनोः - II. HI. 70 (भविष्यत्कालिक और आधमर्ण्य अर्थ होने पर) अक और इन् के योग में (षष्ठी विभक्ति नहीं होती)। अकेवले - VI. 1. 96 मिश्रित अर्थ केबोधक समास में (उदक शब्द उपपद रहते पूर्वपद को अन्तोदात्त होता है)। । अको: - VI. 1. 128 ककारजिनमें नहीं है (तथाजोनबसमास में वर्तमान नहीं है); ऐसे (एतत् तथा तत्) शब्दों के (सका लोप हो जाता है,हल् परे रहते,संहिता के विषय में)। अको: - VII. 1. 11 ककाररहित (इदम् और अदस्) के (भिस् को ऐस् नहीं होता)। ... अको-VII.1.1 देखें- अनाको VII. I.1 अक्रान्तात् -VI. I. 198 क्र अन्त में नहीं है जिसके, ऐसे शब्द के उत्तर (सक्थ शब्द को भी विकल्प से अन्तोदात्त होता है, बहुव्रीहि समास में)। अक्ष...-II. 1. 10 देखें-अक्षशलाकासंख्या: II.1. 10 ...अक्ष.-VI. 1. 121 देखें-कूलतीर० VI. II. 121 अक्ष-III. 1.75 अक्ष धातु से उत्तर (श्नु प्रत्यय विकल्प से होता है.कर्तवाची सार्वधातुक परे रहने पर)। अक्षधूतादिभ्यः - IV. iv. 19 (तृतीयासमर्थ) अक्षतादि-गणपठित प्रातिपदिकों से (उत्पन्न किया गया अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है)। ...अक्षयोः - VI. III. 103 । देखें-पथ्यक्षयोः VI. 11. 103 अक्षशलाकासंख्या: -II.1.10 अक्ष, शलाका तथा संख्यावाची शब्द (सुबन्त परि के साथ अव्ययीभाव समास को प्राप्त होते हैं)। ....अधिभुव..-v.iv.77 देखें- अचतुर० v. iv.77 अखेषु-III. 1.70 (ग्लह शब्द में) अक्ष = जुए का पासा विषय हो,तो (ग्रह धातु से अप् प्रत्यय तथा लत्व निपातन से होता है,कर्तृभिन्न कारक तथा भाव में)। अक्षण-V.iv.76 ... (दर्शन विषय से अन्यत्र वर्तमान) अक्षिशब्दान्त प्रातिपदिक से (समासान्त अच प्रत्यय हो जाता है) .....अक्षणाम् -VII.1.75 देखें- अस्थिदधिक VII. 1.75 . ...अक्ष्णोः -v.iv. 113 देखें - सक्थ्य क्ष्णो : V. iv. 113 अगः - VIII. iv.3 गकारभिन्न (पूर्वपद में स्थित) निमित्त से उत्तर (सज्ञाविषय में नकार को णकारादेश होता है)। अगते: - VIII. 1. 57 (चन, चित्, इव तथा गोत्रादिगणपठित शब्द, तद्धित प्रत्यय एवं आमेडित-सज्ञक शब्दों के परे रहते) गतिस-: झक से भिन्न किसी पद से उत्तर (तिङन्त को अनुदात्त । नहीं होता)। अगतौ - VII. ill. 42 गतिभिन्न अर्थ में वर्तमान ('शद्ल शातने' अङ्ग को तकारादेश होता है)। . ...अगदस्य - VI. III. 69 . देखें - सत्यागदस्य VI. lil. 69 अगस्ति ...-II. iv. 70. देखें- अगस्तिकुण्डिनच् II. iv. 70 अगस्तिकुण्डिनच् -II. iv.70 (अगस्त्य तथा कौण्डिन्य शब्दों से गोत्र में विहित जो तत्कृत बहुवचन में प्रत्यय,उसका लुक हो जाता है, शेष बची अगस्त्य एवं कुण्डिनी प्रकृति को क्रमश:) अगस्ति और कुण्डिनच् आदेश भी हो जाते है। ... अगस्त्य..-VI. iv. 149 देखें-सूर्यतिष्य. VI. iv. 149 अगात् - VIII. 1. 99 गकारभिन्न (इण तथा कवर्ग) से उत्तर (सकार को एकार परे रहते सज्ञाविषय में मूर्धन्य आदेश होता है)। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगारान्तात् अगारान्तात् - IV. iv. 70 ( सप्तमीसमर्थ ) अगार अन्तवाले प्रातिपदिकों से नियुक्त' अर्थ में उन् प्रत्यय होता है)। अगारैकदेशे - III. iii. 79 गृह का एकदेश वाच्य हो तो (प्रघण और प्रमाण शब्द पूर्वन् धातु से अप् प्रत्यय और हन को घन आदेश कर्तृभिन्न कारक संज्ञा कर्म में निपातन किये जाते हैं) । अगार्ग्य... - VIII iv. 66 देखें - अगार्ग्यकाश्यपo VIII. Iv. 66 अगार्ग्यकाश्यपगालवानाम् - VIII. iv. 66 " (उदात्त उदय = परे है जिससे एवं स्वरित उदय = परे है जिससे ऐसे अनुदात्त को स्वरित आदेश नहीं होता) गार्ग्य, काश्यप तथा गालव आचार्यों के मत को छोड़कर। अगोत्रात् - IV. 1. 157 गोत्र से भिन्न जो (वृद्धसंज्ञक प्रातिपदिक), उससे (उदीच्य आचार्यों के मत में फिज प्रत्यय होता है)। अगोत्रादौ - VIII. 1. 69 गोत्रादि-गणपठित शब्दों को छोड़कर (निन्दावाची सुबन्तों के परे रहते भी सगतिक एवं अगतिक दोनों तिङन्तों को अनुदात्त होता है)। अगोपुच्छ.... V. i. 19 देखें- अगोपुच्छसंख्या० V. 1. 19 अगोपुच्छसंख्यापरिमाणात् - L. 19 (यहां से आगे 'तदर्हति' पर्यन्त कहे हुए अर्थों में सामान्यतया ठक् प्रत्यय अधिकृत होता है ) गोपुच्छ, संख्या तथा परिमाणवाची शब्दों को छोड़कर। अगौरादयः - VI. ii. 194 (उप उपसर्ग से उत्तर दो अच् वाले शब्दों को तथा अजिन शब्द को तत्पुरुष समास में अन्तोदात होता है), गौरादि शब्दों को छोड़कर । अग्नि ... - IV. 1. 37 देखें वृषाकप्यग्नि० IV. 1. 37 ... अग्नि... - IV. 1. 125 देखें - कच्छाग्निवक्त्रo IV. 1. 125 ...afafarer-III. i. 132 देखें - चित्याग्निचित्ये III. 1. 132 - - ... अग्निभ्यः - VIII. iit. 97 देखें अम्बाम्ब० VIII. III. 97 - 5 अग्राख्यायाम् अग्नीप्रेषणे - VIII. it. 92 अग्नीध् = यज्ञ का ऋत्विग्विशेष के प्रेषण = नियोजन करने में (पद के आदि को प्लुत उदात्त होता है तथा उससे परे को भी होता है, यज्ञकर्म में ) । ... अग्नीषोम ... IV. ii. 31 देखें द्यावापृथिवीशुनासीर० IV. II. 31 अमेIVIL 32 (प्रथमासमर्थ देवतावाची) अग्नि प्रातिपदिक से (षष्ठ्यर्थ में ढक प्रत्यय होता है)। अग्नेः - VI. iii. 26 (देवतावाची द्वन्द्व समास में सोम तथा वरुण शब्द उत्तरपद रहते) अग्नि शब्द को (ईकारादेश होता है)। अग्नेः - VIII. iii. 82 अग्नि शब्द से उत्तर (स्तुत्, स्तोम तथा सोम के सकार को समास में मूर्धन्य आदेश होता है )। अग्नौ - III. 1. 131 - अग्नि अभिधेय होने पर (परिचाय्य, उपचाय्य और समूह्य शब्दों का निपातन किया जाता है ) । अग्नौ - III. 1. 91 'अग्नि' कर्म उपपद रहते ('चिञ्' धातु से क्विप् प्रत्यय होता है, भूतकाल में)। अम्म्याख्यायाम् III. II. 92 अग्नि की आख्या = कथन गम्यमान होने पर (कर्म उपपद रहते 'चिञ्' धातु से कर्म कारक में 'क्विप्' प्रत्यय होता है, भूतकाल में ) । अप्रगामिनि VIII. iii. 92 (प्रष्ठ शब्द में षत्व निपातन है) अग्रगामी आगे चलने वाला अभिधेय हो तो । = - अग्रतस् ... - III. I. 18 .. देखें - पुरोप्रतो० III. ii. 18 319-- I. iii. 75 प्रन्थविषयक प्रयोग न हो तो ( सम्, उत् एवं आङ् उपसर्ग से उत्तर यम् धातु से आत्मनेपद होता है, यदि क्रिया का फल कतो को मिलता हो तो)। अप्राख्यायाम् - V. Iv. 93 प्रधान को कहने में वर्तमान (उरस्- शब्दान्त तत्पुरुष समासान्त टच् प्रत्यय होता है)। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपात् । अपात् - IV. iv. 116 (सप्तमीसमर्थ) अग्र प्रातिपदिक से (वेद-विषयक भवार्थ में यत् प्रत्यय होता है)। . अग्रान्त.. -V. iv. 145 देखें- अप्रान्तशुद्ध. V. iv. 145 अग्रान्तशुद्धशुभवृषवराहेभ्य: - V. iv. 145, अग्रशब्दान्त तथा शुद्ध,शुभ्र,वृष और वराह शब्दों से उत्तर (भी दन्त शब्द को विकल्प से समासान्त दत आदेश होता है,बहुव्रीहि समास में)। अग्रामणीपूर्वात् - V.III. 112 . ग्रामणी = गाँव का मुखिया पूर्व अवयव न हो जिसके ऐसे (पूगवाची) प्रातिपदिकों से (ज्य प्रत्यय होता है.स्वार्थ ....अघस्य-VII. iv.37 देखें- अश्वाघस्य VII. iv. 37 अघो: - VI. iv. 113 (श्नान्त अङ्ग एवं) घुसंज्ञक को छोड़कर (जो अभ्यस्तसज्ज्ञक अङ्ग,उसके आकार के स्थान में ईकारादेश होता है हलादि कित्, ङित् सार्वधातुक परे रहते)। . ...अघोस्... - VIII. 11.17 देखें-भोभगो० VIII. iii. 17 अङ्-III.i. 52 (असु, वच और ख्या धातु से उत्तर कर्तृवाची लुङ् परे रहने पर चिल के स्थान में) अङ् आदेश होता है। अङ्-III. 1.86 (धातु से आशीर्वादार्थक लिङ् परे रहते वेद विषय में) अप्रत्यय होता है। अङ्-III. iii. 104 . (षकार इत्संज्ञक है जिनका, ऐसी धातुओं से स्त्रीलिङ्ग में) अप्रत्यय होता है,(कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में)। ...अङ्.. VI. 1. 176 देखें-गोश्वन VI. 1. 176 अङ्... VI. iv. 34 देखें- अइहलो: VI. iv.34 अङि-VII. iv. 16 (ऋवर्णान्त तथा दृशिर् अङ्ग को) अङ् प्रत्यय परे रहते (गुण होता है)। अडित:-VI. iv. 103 डिद-भिन्न हि) को (भी धि आदेश होता है,वेद विषय अग्रामाः-II. iv.7 (नदीवाची एवं) ग्रामवर्जित (देशवाची भिन्नलिङ्ग वाले) शब्दों का (द्वन्द्व एकवत् होता है)। अग्रे... -III. iv. 24 देखें- अप्रथमपूर्वेषु III. iv. 24 अप्रथमपूर्वेषु-III. iv. 24 अग्रे,प्रथम,पूर्व उपपद हों तो (समानकर्तृक पूर्वकालिक पातु से विकल्प से क्त्वा और णमुल प्रत्यय होते हैं.पक्ष में लडादि लकार होते हैं)। ...अग्रेभ्यः - VIII. iv. 4 देखें-पुरगामिश्रका VIII. iv. 4 ...अग्रेषु-III. 1. 18 देखें -पुरोऽग्रतो III. I. 18 अग्लोपि... - VII. iv.2 देखें-अग्लोपिशास्वृदिताम् VII. iv.2 अग्लोपिशास्वदिताम् - VII. iv.2 अक प्रत्याहार के किसी अक्षर का लोप हआ है जिस अङ्ग में,उसके तथा शासु अनुशिष्टौ एवं ऋदित अगों की (उपधा को चपरक णि परे रहते हस्व नहीं होता है)। अघष्....-II. iv.56 देखें-अघषपोः II. iv.56 अघषपोः -II. iv.56 घञ् और अप वर्जित (आर्धधातुक) परे रहते (अज् को वी आदेश होता है)। में)। ..अ... IV. iii. 126 देखें - सकाङ्कलक्षणेषु IV. iii. 126 ...अङ्कयो: -VIII. ii. 22 देखें-घाइयो: VIII. 1. 22 अश्वत् -IV. iii. 80 पञ्चमीसमर्थ गोत्रवाची प्रातिपदिकों से 'आगत' अर्थ में) अङ्ग अर्थ में होने वाले प्रत्ययों की तरह प्रत्ययविधि होती है। ...अन.. V. 1.7 देखें- पथ्यङ्ग V. 1.7 . . Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अच अभ - अङ्गले:- V. iv. 86. (सङ्ख्या तथा अव्यय आदि में हैं जिस ) अलिशब्दान्त (तत्पुरुष समास के,तदन्त) प्रातिपदिक से (समासान्त अच् प्रत्यय होता है)। अङ्गले:- V. iv. 114 अङ्गलिशब्दान्त प्रातिपदिक से (समासान्त षच् प्रत्यय होता है.बहतीहि समास में लकड़ी वाच्य हो तो)। अङ्गले:-VIII. iii. 80 (समास में ) अङ्गुलि शब्द से उत्तर (सङ्ग शब्द के सकार को मूर्धन्य आदेश होता है)। अडल्यादिभ्यः - V. il. 108 अङ्गुल्यादि प्रातिपदिकों से (इवार्थ में ठक् प्रत्यय होता अङ्ग-VIII. I. 33 (अनुकूलता गम्यमान हो तो) अङ्गशब्द से युक्त (तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता)। अङ्गम् -I.iv. 13 (जिस धातु या प्रातिपदिक से प्रत्यय का विधान किया जाये,उस धातु या प्रातिपदिक का आदि वर्ण है आदि जिस समुदाय का,उसकी) अङ्गसंज्ञा होती है। अङ्गम् -III. iii. 81 (अप पूर्वक हन् धातु से) शरीर का अवयव अभिधेय हो तो (अप् प्रत्यय तथा हन् को घन आदेश अपघन शब्द में निपातन किया जाता है,कर्तभिन्न कारक संज्ञा में)। अङ्गयुक्तम् - VIII. 1. 9 अङ्ग शब्द से युक्त (आकाङ्क्षा रखने वाले तिङन्त को प्लुत और उदात्त होता है)। अविकारः -II. iii. 20 - अङ्ग = शरीर का विकार (जिससे लक्षित होवे,उसमें तृतीया विभक्ति होती है)। अङ्गस्य-I.1.62 (लुक्,श्लु,लुप शब्दों के द्वारा जहाँ प्रत्यय का अदर्शन होता हो, उसके परे रहते) जो अञ्ज.उसको (प्रत्ययनिमित्त कार्य नहीं होता है)। अङ्गस्य -VI. iv.1 'अङ्गस्य' यह अधिकार सूत्र है, सप्तमाध्याय की समाप्ति-पर्यन्त इसका अधिकार जायेगा। अङ्गात् -VIII. 1.27 (हस्वान्त) अङ्ग से उत्तर (सकार का झल् परे रहते लोप होता है)। अङ्गात् -VIII. iii. 78 (इण प्रत्याहार अन्तवाले) अङ्ग से उत्तर (षीध्वम.लुङ् तथा लिट् के धकार को मूर्धन्य आदेश होता है)। अङ्गानि - VI. I. 70 (मेरेय शब्द उत्तरपद रहते) उसके अङ्ग = उपादान . कारणवाची पूर्वपद को (आधुदात्त होता है)। ....अडिरोभ्यः -II. iv. 65 .. देखें - अत्रिभृगुकुत्स II. iv. 65 ... अङ्ग...- VIII. II.97 - देखें-अम्बाम्ब० VIII. iii.97 ... अहले-IV.II.62 देखें-जिजामूलाले IV. 1.62 अङ्गे-VI. i. 115 (यजुर्वेद-विषय में) अङ्गशब्द में (जो एङ्,उसको अकार , के परे रहते प्रकृतिभाव हो जाता है तथा उस अङ्गशब्द के आदि में जो अकार उसके परे रहते पूर्व एङ् को , प्रकृतिभाव होता है)। अड्यः -VI. fil. 60 डी अन्त में नहीं है जिसके, ऐसा जो (इक् अन्त वाला) शब्द,उसको (गालव आचार्य के मत में विकल्प से हस्व होता है, उत्तरपद परे रहते)। . अहलो: -VI. iv. 34. (शास् अङ्ग की उपधा को इकारादेश हो जाता है) अङ् तथा हलादि (कित, डित) प्रत्यय परे रहते। अच्...-1.1. 10 देखें- अज्झलौ I. 1. 10 अच् -I. ii. 27 (उकाल, उकाल तथा उकाल अर्थात् एकमात्रिक द्विमात्रिक तथा त्रिमात्रिक) अच् (यथासंख्य करके हस्व, दीर्घ और प्लुतसंज्ञक होते हैं)। अच् -1.11.2 (उपदेश में वर्तमान अनुनासिक) अच् (इत्सजक होता है)। अच् - III. II.9 (अनुद्यमन अर्थ में वर्तमान ह धातु से कर्म उपपद रहते) अच् प्रत्यय होता है। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अच् अचः अच् -III. Ill. 56 अच: -III. 1.97 (इवर्णान्त धातुओं से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव अजन्त धातु से (यत् प्रत्यय होता है)। में) अच् प्रत्यय होता है। ...अच: - III. I. 134 अच् - V. ii. 127 देखें - ल्युणिन्यच: III. I. 134 (अर्शस आदि गणपठित प्रातिपदिकों से मत्वर्थ में) अच अच: - V. iii. 83. प्रत्यय होता है। (इस प्रकरण में पठित ढ तथा अजादि प्रत्ययों के परे अच् -.iv.75 रहते दूसरे) अच् से (बाद के शब्दरूप का लोप हो जाता (प्रति, अनु तथा अव पूर्ववाले सामन् और लोमन् प्रातिपदिकों से समासान्त) अच् प्रत्यय होता है। अच: -VI. 1. 189 अच -v.iv. 118 (कर्ता में विहित यक् प्रत्यय के परे रहते उपदेश में जो) .. (नासिकाशब्दान्त बहुव्रीहि समास से समाविषय में अजन्त धातुर्ये, उनको विकल्प से उदात्त हो जाता है)। समासान्त) अच् प्रत्यय होता है (तथा नासिका शब्द के अच: -VI. iv. 138 स्थान में नस् आदेश भी होता है, यदि वह नासिका शब्द (भसजक) लुप्तनकार वाले अबु धातु के (अकार का . स्थूल शब्द से उत्तर न हो तो)। लोप होता है)। ...अच्...-VI. II. 144 ... अचः -VII. 1.72 देखें-थाथप.VI. 1. 144 • देखें-झलच: VII. 1.72 अच्... -VI. II. 157. अचः -VII. ii.3 देखें- अच्को VI. 1. 157 (वद,वज तथा हलन्त अङ्गों के) अच् के स्थान में (वृद्धि । अच्... -VI. iv. 16. होती है, परस्मैपदपरक सिच् परे हो तो)। देखें-अज्ज्ञानगमाम् VI. iv. 16. अच:-VII. 1.61 . अच्... - VI. iv. 62. (उपदेश में) जो अजन्त धात (तास परे रहते नित्य देखें - अान० VI. iv. 62. अनिट),उससे उत्तर (तास के समान ही थल को इट् का अच: -1.1.46 आगम नहीं होता)। (मित् आगम) अचों के मध्य में (जो अन्तिम अच.उसके । अच:-VII. 1. 115 आगे होता है)। अजन्त अङ्गको जित,णित् प्रत्यय परे रहते वृद्धि होती अव:-1.1.56 (पर को निमित्त मानकर) अच के स्थान में विहित अच: - VII. iv. 47 आदेश पूर्व की विधि करने में स्थानिवत् हो जाता है)। अजन्त (उपसगी से उत्तर (घुसज्ञक दा अङ्गको तकारादि अथ:-1.1.63 कित् प्रत्यय परे रहते तकारादेश होता है)। अचों के मध्य में (जो अन्त्य अच वह अन्त्य अच आदि है जिस समुदाय का,उस समुदाय की टि संज्ञा होती है। (मी,मा एवं घुसजक तथारभ,डुलभष,शक्ल,पत्ल और पद् अङ्गों के) अच् के स्थान में (इस आदेश होता है, अच:-1.1.28 सकारादि सन् परेरहते)। (हस्व हो जाये, दीर्घ हो जाये और प्लुत हो जाये अच: -VIII. iv. 28 ऐसा नाम लेकर जब कहा जावे तो वह पूर्वोक्त हस्व, अच से उत्तर(कत में स्थित जो नकार.उसको उपसर्ग में दीर्घ,प्लुत) अच के स्थान में (ही हो)। स्थित निमित्त से उत्तर णकारादेश होता है)। अच:-III. 1.62. अच: - VIII. iv. 45 . अवन्त धातु से उत्तर (ब्लिको विकल्प से चिण आदेश अच से उत्तर (वर्तमान रेफ और हकार से उत्तर यर को होता है,कर्मकर्तवाची लुङमें 'त' शब्द परे हो तो)। विकल्प से द्वित्व होता है)। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचडि अचि अचडि - VII. Iii. 56 अधि-IV.I.89 (अभ्यास से उत्तर 'हि गतौ' धातु के हकार को कवर्गा- . (प्राग्दीव्यतीय) अजादि प्रत्यय की विवक्षा हो तो (गोत्र देश होता है), चङ् परे न हो तो। में उत्पन्न प्रत्यय का लुक नहीं होता)। अचतुर... - V.i. 120 अधि-VI.1.74 देखें - अचतुरसंगतov.i. 120 • (इक = इउलू के स्थान में यथासङ्ख्य करके यण अचतुर....-V. iv.77 = य्व रल आदेश होते है).अच परे रहते.(संहिता के देखें - अचतुरविचतुर० v. iv. 77 विषय में)। - अचतुरविचतुरसुचतुरखीपुंसधेन्वनडुहर्कसामवाङ्मन- अधि-VI.I. 121 साक्षिषुवदारगवोर्वष्ठीवपदष्ठीवनक्तंदिवरात्रिन्दिवा- (प्लुत तथा प्रगृह्यसञक शब्द) अच् परे रहते (नित्य हर्दिवसरजसनिश्श्रेयसपुरुषायुषचायुषत्र्यायुषय॑जुष- ही प्रकृतिभाव से रहते है)। . जातोक्षमहोक्षवृद्धोक्षोपशुनगोष्ठश्वा:-V. iv.77 अचि-VI. 1. 130 ___ अचतुर, विचतुर, सुचतुर, स्त्रीपुंस, धेन्वनडुह, ऋक्साम, ('स' के सुका लोप होता है) अच् परे रहते,(यदि लोप वाङ्मनस. अक्षिभूव, दारगव, ऊवष्ठीव पदष्ठाव, होने पर पाद की पर्ति हो रही हो तो)। नक्तन्दिव,रात्रिन्दिव,अहर्दिव,सरजस,निस्त्रेयस,पुरुषा अधि-VI.I. 182 युष, व्यायुष, व्यायुष, ऋग्यजुष, जातोक्ष,महोक्ष, वृद्धोध, (स्वपादि धातुओं के तथा हिंस् धातु के) अजादि(अनिट् उपशुन तथा गोष्ठश्व शब्द अन्यत्ययान्त निपातन किये जाते हैं। .. सार्वधातुक) परे हो तो (विकल्प से आदि को उदास हो जाता है)। अचतुरसंगतलवणवटयुधकतरसलसेभ्य: -V. 1. 120 अचि-VI. III. 73 । (यहां से आगे जो भाब प्रत्यय कहे जायेंगे,वे प्रत्यय नब् पूर्ववाले तत्पुरुष-समासयुक्त प्रातिपदिकों से नहीं होंगे) (उस लुप्त नकार वाले नब् से उत्तर नुट् का आगम होता चतुर,संगत,लवण,वट,युध,कत,रस तथा लस शब्दों को है), अजादि शब्द के उत्तरपद रहते । छोड़कर। अचि-VI. III. 100 अचाम् -1.1.72 (कु को तत्पुरुष समास में ) अनादि शब्द उत्तरपद हो (जिस समुदाय के) अचों में (आदि अच् वृद्धिसंज्ञक हो, तो (कत् आदेश होता है)। . उस समुदाय की वृद्धसंज्ञा होती है)। अचि - VI. iv.63 ....अचाम् - VII. 1.70 अजादि (कित्,डित्) प्रत्ययों के परे रहते ( दीपातु से देखें- उगिदचाम् VII. I. 70 उत्तर युट् का आगम होता है)। अचाम् -VII. ii. 117 अचि-VI. iv.77 (जित, णित् तद्धित परे रहते, अङ्ग के) अचों के (आदि (श्नुप्रत्ययान्त अङ्ग तथा इवर्णान्त, उवर्णान्त धातु,एवं धू अच् को वृद्धि होती है)। शब्द को इयङ्,उवङ् आदेश होते है),अच् परे रहते। अचि - VII. 1.61 अचि -I.i. 58 अजादि प्रत्यय परे रहते (रध हिंसागत्योः' तथा 'जभ (द्विर्वचन का निमित्त) अजादि प्रत्यय परे हो तो (अजा गात्रविनामे' अङ्गको नुम आगम होता है)। देश स्थानिवत् होता है,द्विर्वचन मात्र करने में)। अचि-VII. 1.73 ...अचि -I. iv. 18 (इक अन्त वाले नपुंसक अङ्गको) अजादि विभक्ति) देखें- यचि I..iv. 18 परे रहते (नुम् आगम होता है)। अचि-II. iv.74 अचि -VII. 1.97 अच् प्रत्यय परे रहते (यङ् का लुक् होता है; चकार से (तृतीयादि) अबादि विभक्तियों के परे रहते (क्रोष्ट शब्द ' अच् परे न हो तो भी बहुल करके लुक् हो जाता है)। को विकल्प से तज्वत् अतिदेश होता है)। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचि अजन्तस्य अचि-VII. ii. 89 (कोई आदेश जिसको नहीं हुआ है, ऐसी) अजादि (विभक्ति) के परे रहते (युष्मद्,अस्मद् अङ्गको यकारादेश होता है)। अचि -VII. II. 100 तिसृ और चतसृ अंगों के ऋकार के स्थान में ) अजादि (विभक्ति) परे रहते (रेफ आदेश होता है)। अचि - VII. H. 72 (क्स का) अजादि प्रत्यय परे रहते (लोप होता है)। अचि-VII. HI.87 (अभ्यस्तसज्जक अङ्गकी लघु उपधा इक को) अजादि (पित् सार्वधातुक) परे रहते (गुण नहीं होता)। अचि - VIII. I. 21 अजादि प्रत्यय परे रहते (ग धातु के रेफ को विकल्प करके लत्व होता है)। अचि - VIII. ii. 108 (उनके अर्थात् प्लुत के प्रसङ्ग में एच् के उत्तरार्द्ध को जो इकार उकार पूर्व सूत्र से विधान कर आये है, उन इकार उकार के स्थान में क्रमशः य व आदेश हो जाते है), अच् परे रहते, (सन्धि के विषय में)। अचि-VIII. ill. 32. (हस्व पद से उत्तर जो ङम, तदन्त पद से उत्तर ) अच् को (नित्य ही डमुटु आगम होता है)। अचि -VIII. iv. 48 अच परे रहते (शर प्रत्याहार को द्वित्व नहीं होता)। अचिण... -VII. iii. 32 देखें-अचिण्णलो: VII. iii. 32 अचिण्णलो: -VII. iii. 32 (हन अङ्ग को तकारादेश होता है), चिण तथा णल प्रत्ययों को छोड़कर जित्.णित् प्रत्यय परे रहते)। अचित्त....- IV.ii.46 देखें- अचितहस्ति० IV. 1.46 अचितहस्तिधेनोः - IV. ii. 46 (षष्ठीसमर्थ) अचेतनवाची तथा हस्तिन् और धेनु शब्दों से (समूहार्थ में ठक् प्रत्यय होता है)। अचित्तात् - IV. iii. 96 .. (प्रथमासमर्थ भक्तिसमानाधिकरणवाची, देशकाल को छोड़कर जो) अचेतनवाची प्रातिपदिक, उनसे (षष्ठ्यर्थ में ठक् प्रत्यय होता है)। अचिरापहते - V. 1.70 (सप्तमीसमर्थ तन्त्र प्रातिपदिक से) 'अचिरापहतः = थोड़ा काल खड्डी से बाहर निकलने को बीता है अर्थात् तत्काल बुना हुआ अर्थ में (कन् प्रत्यय होता है)। अचिरोपसम्पती - VI. ii. 56 अचिरकाल सम्बन्ध गम्यमान हो तो (प्रथम पूर्वपद को विकल्प से प्रकृतिस्वर होता है)। अच्कौ -VI. ii. 157 (न से उत्तर) अच् प्रत्ययान्त तथा क प्रत्ययान्त उत्तरपद को (अशक्ति गम्यमान हो तो अन्तोदात्त होता है)। अच्छ -I. iv. 68 (गत्यर्थक तथा वद धातु के प्रयोग में) अव्यय अच्छ शब्द (गति और निपातसंज्ञक होता है)। अच्छन्दसि - V. iii. 49 (भाग' अर्थ में वर्तमान पूरणप्रत्ययान्त एकादश सङ्ख्या से पहले-पहले जो सङ्ख्यावाची शब्द, उनसे स्वार्थ में अन् प्रत्यय होता है).वेदविषय को छोड़कर। ...अच्यरः -VIII. 11.87 देखें- यच्यरः VIII. iii. 87 अच्चेः -III. 1. 12 च्चिप्रत्ययान्त से भिन्न (भृश आदियों) से (भवति के अर्थ में क्यङ् प्रत्यय होता है,और हलन्तों का लोप भी)। अच्ची -III. 1. 56 . (सुभग, स्थूल, पलित, नग्न, अन्ध, प्रिय, ये च्यर्थ में 'वर्तमान) अच्चिप्रत्ययान्त (कर्म) उपपद रहते (कृ धातु से करण कारक में ख्युन् प्रत्यय होता है)। अज...-V.i.8 . देखें- अजाविभ्याम् V.i.8 अजः-III. iii. 69 (सम, उत् पूर्वक) अज धातु से (कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में समुदाय से पशविषय प्रतीत हो तो अप प्रत्यय होता है)। ...अजगात् - V. ii. 110 देखें - गाण्ड्य जगात् V. ii. 110 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजप अजाविध्याम् ... अजन्तस्य VI. iii.66 अजातौ -VI. iv. 171 देखें- अरुर्दिषदजन्तस्य VI. iii.66 (ब्राह्म शब्द में टिलोप निपातन किया जाता है. अजप ...-I. ii. 34 अपत्यार्थक) जाति को छोड़कर। देखें- अजपन्यू सामसु I. ii. 34 अजात्या -II. 1.67 ...अजपद...- V. iv. 120 (कृत्यप्रत्ययान्त सुबन्त तथा तुल्य के पर्यायवाची सुबन्त) देखें-सुप्रातसुश्व० V. iv. 120 अजातिवाची (समानाधिकरण समर्थ सुबन्त) शब्द के साथ अजपन्यूडसामसु-I. 1. 34 (विकल्प से समास को प्राप्त होते है, और वह तत्पुरुष जप,न्यूड = आश्वलायनश्रौतसूत्रपठित निगदविशेष समास होता है)। तथा सामवेद को छोड़कर (यज्ञकर्म में उदात्त,अनुदात्त तथा ...अजादात् - IV.i. 171 स्वरित स्वरों को एकति स्वर होता है)। देखें-वृद्धत्कोसलाजादात् IV.i. 171 अजर्यम् -III.i. 105 अजादि - II. ii. 33 अजयम शब्द (न पूर्वक जप धातु से कर्तवाच्य में यत् (द्वन्द्वसमास में) अजादि (तथा अदन्त शब्दरूप का पूर्वप्रत्ययान्त निपातन है,संगत अर्थ अभिधेय होने पर)। प्रयोग होता है)। अजर्यम् = संगति या मैत्री। अजादि...- IV.i.4 ...अजस...- III. ii. 167 देखें-अजाधत: IV.i.4 देखें - नमिकम्पि० III. ii. 167 अजसौ -IV.i. 31 अजादी-. iii. 58 (रात्रि शब्द से भी स्त्रीलिङ्ग विवक्षित होने पर संज्ञा तथा । (इस प्रकरण में कहे गये) अजादि प्रत्यय अर्थात् इष्ठन्, ईयसुन् (गुणवाची प्रातिपदिक से ही होते है)। छन्द विषय में ) जस विषय से अन्यत्र (ङीप प्रत्यय होता। ...अजादी -VI.i. 167 देखें-नवजादी VI. 1. 167 .....अजस्तुन्दे - VI. I. 150 .अजादीनाम् - VI. iv.72 देखें - कास्तीराजस्तुन्दे VI. 1. 150 __ अच् आदि वाले अङ्गों को (लुङ,लङ् तथा लङ् के परे ...अजा...- VII. iii. 47 रहते आट का आगम होता है और वह आट् उदात्त भी .. देखें - भवैषा० VII. iii. 47 होता है)। .... अजात्... - IV. ii. 38 अजादेः -VI.i.2 देखें-गोत्रोक्षोष्ट्रो० IV. ii. 38 · अच् आदि में है जिसके, ऐसे शब्द के (द्वितीय एकाच अंजाते: - I. ii. 52 समुदाय को द्वित्व हो जाता है)। .. जातिप्रयोग से पूर्व ही (प्रत्ययलुप् होने पर लुबर्थविशेषण भी प्रकृत्यर्थवत् होते है)। ...अजादौ -v. iii. 83 अजातौ -III. ii. 78 देखें - ठाजादौ v. iii. 83 ___ अजातिवाची (सुबन्त) उपपद रहते (ताच्छील्य = अजाधत:-IV. 1.4 तत्स्वभावता गम्यमान होने पर सब धातुओं से 'णिनि' अजादिगणपठित प्रातिपदिकों से तथा अदन्त प्रातिपप्रत्यय होता है)। दिकों से (स्त्रीलिङ् में टाप् प्रत्यय होता है)। अजाती-III. ii.98 अजाघदन्तम् -II. ii. 33 अजातिवाची (पञ्चम्यन्त) उपपद रहते (जन' धातु से अजादि और ह्रस्व अकारान्त शब्दरूप (द्वन्द्व समास में 'ड' प्रत्यय होता है, भूतकाल में)। पूर्व प्रयुक्त होते हैं)। अजाती-V. iv.37 अजाविभ्याम् - V.i.8 जाति में वर्तमान न हो तो (ओषधि प्रातिपदिक से स्वार्थ (चतुर्थीसमर्थ) अज एवं अवि प्रातिपदिकों से (हित अर्थ में अण् प्रत्यय होता है)। में थ्यन् प्रत्यय होता है)। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजि अजि... - VII. III. 60 देखें - अजिव्रज्यो: VII. iti 60 .... अजिनम् - VI. 1. 194 देखें व्यजजिन VI. II. 194 - ...afrt:- VI. ii. 165 देखें - मित्राजिनयोः VI. ii. 165 अजिनान्तस्य V. iii. 82 अजिन शब्द अन्त में है जिसके, ऐसे (मनुष्यनामधेय प्रातिपदिक से अनुकम्पा गम्यमान होने पर कन् प्रत्यय होता है और उस अजिनान्त शब्द के (उत्तरपद का लोप भी हो जाता है। अजिव्रज्यो: - VII. 1. 60 अज तथा व्रज धातुओं के (जकार को भी कवर्गादिश नहीं होता) । - अजे: - II. Iv. 56 अजू धातु के स्थान में (वी आदेश होता है, घञ् और अप् वर्जित अर्थधातुक परे रहते)। अज्ञानगमाम् - VI. Iv. 16 अजन्त अङ्ग तथा हन् एवं गम् अङ्ग को (झलादि सन् परे रहने पर दीर्घ होता है) । अज्झनग्रहदृशाम् - VI. iv. 62 (भाव तथा कर्म-विषयक स्य, सिच्, सीयुट् और वास् के परे रहते उपदेश में) अजन्त धातुओं तथा हन्, ग्रह एवं दृश् धातुओं को (चिण् के समान विकल्प से कार्य होता है तथा इट् आगम भी होता है) । अज्झलौ – I. 1. 10 (स्थान और प्रयत्न तुल्य होने पर भी ) अच् और हल् (की परस्पर सवर्ण संज्ञा नहीं होती)। अज्ञाति... 1.1.34 देखें - अज्ञातिधनाख्यायाम् I. 1. 34 अज्ञातिधनाख्यायाम् - I. 1. 34 ( स्व शब्द की जस् सम्बन्धी कार्य में विकल्प से सर्वनाम संज्ञा होती है), ज्ञाति = स्वजन तथा धन के कथन को छोड़कर । अज्ञाते - V. iii. 73 'न जाना हुआ' अर्थ में (वर्तमान प्रातिपदिक से तथा तिङन्त से स्वार्थ में यथाविहित प्रत्यय होते हैं)। 12 अज्वरे: -II. ill. 54 (धात्वर्थ को कहने वाले भजादि प्रत्ययान्तकर्तृक रुदादि धातुओं के कर्म में शेष विवक्षित होने पर षष्ठी विभक्ति होती है), ज्वर धातु को छोड़कर । - अजू.... I. ii. 1 देखें- अणित् 1..1 - ... अञ्... - IV. 1. 15 देखें टिड्डाणज् IV. 1. 15 319-IV. i. 86 ( उत्सादि समर्थ प्रातिपदिकों से प्राग्दीव्यतीय अर्थों में) अन् प्रत्यय होता है। अञ्... देखें - अञ् - IV. 1. 104 (षष्ठीसमर्थ बिदादि प्रातिपदिकों से गोत्रापत्य में) अञ् प्रत्यय होता है, (परन्तु इनमें जो अनृषिवाची हैं, उनसे अनन्तरापत्य में अन् होता है) । अजू... - IV. 1. 141 देखें अत्र IV. 1. 141 - - IV. i. 161 अयतौ IV. 1. 161 अज् - — अञ् - IV. 1. 166 (जनपद को कहने वाले क्षत्रियाभिधायक प्रातिपदिक से अपत्य अर्थ में ) अञ् प्रत्यय होता है । अञ् – IV. ii. 11 (तृतीयासमर्थ द्वैप तथा वैयाघ्र प्रातिपदिकों से 'ढका हुआ रथ', इस अर्थ में) अन् प्रत्यय होता है। अञ् – IV. ii. 43 (षष्ठीसमर्थ अनुदात्त आदि वाले शब्दों से समूहार्थ में) अञ् प्रत्यय होता है। 3-IV. ii. 70 (प्रथमा, तृतीया तथा षष्ठीसमर्थ उवर्णान्त प्रातिपदिकों, से चारों - उस नाम का देश, उससे बोला गया, उसका निवास तथा उससे निकट अर्थों में) अन् प्रत्यय होता है। - अञ्... - IV. ii. 105 देखें - अ IV. ii. 105 अञ् - IV. it. 107 (दिशा पूर्वपद वाले प्रातिपदिक से शैषिक ) अञ् प्रत्यय होता है। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____13 . अप... -IV. iii.7 देखें - अष्ठी viii.7 अ -IV. iii. 118 (तृतीयासमर्थ क्षुद्रा, भ्रमर, वटर व पादप प्रातिपदिकों से 'कृते' अर्थ में संज्ञाविषय गम्यमान होने पर) अञ् प्रत्यय होता है। अ - IV. iii. 121 (पत्र पूर्व वाले षष्ठीसमर्थ रथ शब्द से 'इदम्' अर्थ में) अञ् प्रत्यय होता है । अब्... - IV. iii. 126 देखें- अव्यभिजाम् IV. iii. 126 अ -IV. iii. 136 (षष्ठीसमर्थ उवर्णान्त प्रातिपदिक से विकार और अवयव अर्थों में) अञ् प्रत्यय होता है। अब्-IV. iii. 151 (षष्ठीसमर्थ प्राणिवाची तथा रजतादिगण में पढे प्राति- पदिकों से विकार और अवयव अर्थों में )अप्रत्यय होता अ - IV. iv. 49 ' (षष्ठीसमर्थ ऋकारान्त प्रातिपदिक से न्याय्य व्यवहार अर्थ में) अञ् प्रत्यय होता है। अञ्-.i. 15 . (चतुर्थीसमर्थ चर्म के विकृतिवाची प्रातिपदिक से "विकृति के लिए प्रकृति' अभिधेय होने पर “हित” अर्थ में) अब प्रत्यय होता है। .: अ -V.1.26 (शर्प प्रातिपदिक से 'तदर्हति' पर्यन्त कथित अर्थों में) अब् प्रत्यय होता है। अ -v.i.60 (परिमाण समानाधिकरण वाले प्रथमासमर्थ सप्तन् . प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ में) अब प्रत्यय होता है; (वेद विषय में,वर्ग अभिधेय होने पर)। अ -V. 1. 128 - (षष्ठीसमर्थ जीवधारी, जातिवाची, अवस्थावाची तथा उद्गात्रादि प्रातिपदिकों से भाव और कर्म अर्थों में) अब् प्रत्यय होता है। अब्-V.ii.83 (प्रथमासमर्थ कुल्माष प्रातिपदिक से सप्तम्यर्थ में) अब . प्रत्यय होता है.(यदि वह प्रथमासमर्थ प्रायःकरके सज्जा विषय में अन्नविषयक हो तो)। अब् - V. iv. 14 (णअत्ययान्त प्रातिपदिक से स्वार्थ में) अब् प्रत्यय होता है, (स्त्रीलिंग में)। ...अबः - IV.1.73. देखें - शारवाया IV. 1.73 अ - V.I. 100 अजन्त (हरितादि) प्रातिपदिकों से (अपत्य अर्थ में फक् प्रत्यय होता है)। , ...अजोः - II. iv. 64 देखें - यात्रोः II. iv.64 ...अनौ- IV. ii. 33 देखें-अणौ IV. iii. 33 ...अनौ-IV.ili. 93 देखें- अणजी IV. 1. 93 ..अबो-IV. iii. 165 देखें- ययौ IV. II. 165 ...अौ- V.I. 41 देखें -अणवी v.i. 41 ...अओ -V. iii. 117 देखें- अणौ v. iii. 117 अखौ -IV.I. 141 (महाकुल प्रातिपदिक से) अञ् और खज् प्रत्यय विकल्प से) होते है, (पक्ष में ख)। अ -VIII. 1.48 अबु धातु से उत्तर (निष्ठा के तकार को नकारादेश होता है.यदि अब के विषय में अपादान कारक का प्रयोग न हो रहा हो तो) असतो-VI. 1.52 (इक अन्त में है जिसके, ऐसे गतिसज्जक को वप्रत्ययान्त) अबु धातु के परे रहते (प्रकृतिस्वर होता है)। अती -VI. 1.91 विष्वग् तथा देव शब्दों को तथा सर्वनाम शब्दों के टिभाग को अद्रि आदेश होता है, वप्रत्ययान्त) अबु धातु के परे रहते । ...अर-II. 1. 11 देखें-अपपरिवहिरवII.i. 11 ...अ...-III. 1.59 देखें-ऋविन्दपक III. 1. 59 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधूत्तरपद .. अधूत्तरपद... - II. 1. 29 देखें- अन्यारादिस्तें० 11. III. 29 3:-V. iii. 30 (दिशा, देश और काल अर्थों में वर्त्तमान सप्तम्यन्त, पञ्चम्यन्त तथा प्रथमान्त) अड्नु धातु अन्त वाले (दिशाषाची) प्रातिपदिकों से उत्पन्न (अस्ताति प्रत्यय का लुक होता है)। अच्छे - Viv. 8 ( दिशावाचक स्त्रीलिङ्ग न हो तो ) अति उत्तरपद वाले प्रातिपदिक से ( स्वार्थ में विकल्प से ख प्रत्यय होता है)। 3:- VI. i. 164 अञ्जु धातु से उत्तर (वेदविषय में सर्वनामस्थानभिन्न विभक्ति उदात्त होती है ) । अछे - VI. iv. 30 (पूजा अर्थ में) अशु अङ्ग की उपधा के नकार का लोप - नहीं होता है)। अछेः - VII. ii. 53 - अनु धातु से उत्तर (पूजा अर्थ में क्त्वा प्रत्यय तथा निष्ठा को इट् आगम होता है)। अले: - V. Iv. 102 (द्वि तथा त्रि शब्दों से उत्तर) जो अञ्जलि शब्द, तदन्त (तत्पुरुष) से (समासान्त टच् प्रत्यय होता है ) । ... अञ्जस् - VI. ii. 187 देखें स्फिगपूतo VI. II. 187 ... अज्जू... - II. 1. 74 देखें स्म्पूि VII. 1. 74 33:- VII. ii. 71 अश्रू धातु से उत्तर (सिच् को इट् का आगम होता है)। अग्नी - IV. 1. 105 - (तीर तथा रूप्य उत्तरपद वाले प्रातिपदिकों से यथासङ्ख्य करके शैषिक ) अञ् तथा यञ् प्रत्यय होते हैं । अञ्ठञ - IV. iii. 7 (ग्राम के अवयववाची तथा जनपद के अवयववाची दिशा पूर्वपदवाले अर्धान्त प्रातिपदिक से शैषिक) अब् तथा ठञ् प्रत्यय होते हैं । 3fsure-I. ii. 1 (गाड् तथा कुटादिगणस्य धातुओं से परे) जित् तथा णित् भिन्न प्रत्यय (ङिद्वत् होते हैं) । अञ्यञिञम् - IV. iii. 126 (सङ्घ, अङ्क तथा लक्षण अभिधेय हो तो गोत्रप्रत्ययान्त) अञन्त, यजन्त तथा इञन्त षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिकों से (इदम् अर्थ में अण प्रत्यय होता है)। 14 अव्यतौ - FV. i. 161 (मनु शब्द से जाति को कहना हो तो) अञ् तथा यत् प्रत्यय होते है, तथा मनु शब्द को पुक आगम भी हो जाता है)। अद्... III. iv. 94 देखें- अडाटौ III. iv. 94 अट् - VI. iv. 71 (लुङ, लड् तथा लृह के परे रहते अनं को) अट् का आगम होता है (और वह अट् उदात्त भी होता है)। अट् VII. 1. 99 (रुदादि पांच अङ्गों से उत्तर हलादि अपृक्त सार्वधातुक को) अट् आगम होता है, (गार्ग्य तथा गालव आचार्यों के मत में ) । अद VIII. iv. 2 देखें - अकुप्वाइο] VIII. iv. 2 अट्कुप्वाड्नुम्व्यवाये - VIII. iv. 2 - अडज्युची - (रेफ तथा षकार से उत्तर) अट, कवर्ग, पवर्ग, आङ् तथा नुम् का व्यवधान होने पर (भी नकार को णकार हो जाता है) । अटि - VIII. iii. 3 अट् परे रहते (रु से पूर्व आकार को नित्य अनुनासिक आदेश होता है) । अटि - VIII. iii. 9 (दीर्घ से उत्तर नकारान्त पद को ) अट् परे रहते (पादबद्ध मन्त्रों में रु होता है, यदि निमित्त और निमित्ती दोनों एक ही पाद में हों)। अटि - VIII. iv. 61 (झय् प्रत्याहार से उत्तर शकार के स्थान में ) अट् परे रहते (विकल्प से छकार आदेश होता है)। अठच् - V. 1. 35 (सप्तमीसमर्थ कर्मन् प्रातिपदिक से 'चेष्टा करने वाला' अर्थ में) अठच् प्रत्यय होता है । अइच्... V.iii. 80 देखें- अडज्युची VIII. 80 अडज्युचौ - V. iii. 80 (उप शब्द आदि वाले बच् मनुष्यनामधेय प्रातिपदिक ति और अनुकम्पा गम्यमान होने पर) अडच् एवं वुच् (तथा धन्, इलच् और ठच्) प्रत्यय (विकल्प से) होते हैं, (प्राग्देशीय आचार्यों के मत में)। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अडाट अडाटौ - III. iv. 94 (लेट् लकार को पर्याय से) अट्, आट् आगम होते है । अव्यवाये - VIII. III. 63 (सित शब्द से पहले पहले ) अट् का व्यवधान होने पर (तथा अपि ग्रहण से अट् का व्यवधान न होने पर भी सकार को मूर्धन्य आदेश होता है )। अव्यवाये VIIIIII. 71 (परि, नि तथा वि उपसर्ग से उत्तर सिवादि धातुओं के सकार को ) अट् के व्यवधान होने पर (भी विकल्प से मूर्धन्य आदेश होता है)। अड्व्यवाये . VIII. iii. 119 - (निवि तथा अभि उपसर्गों से उत्तर सकार को ) अद् का व्यवधान होने पर (वेद-विषय में विकल्प करके मूर्धन्य आदेश नहीं होता) । 370-I. i. 50 = (ॠवर्ण के स्थान में) अण् अ, इ, उ में से कोई अक्षर (होते ही रपर हो जाता है ) । - अण् .... I. i. 68 देखें - अणुदित् 1. 1. 68 अण्... - II. iv. 58 देखें अणिओ II. iv. 58 अणू - III. II. 1 (कर्म उपपद रहते धातुमात्र से) अण् प्रत्यय होता है। अण् - III. iii. 12 से (क्रियार्थ क्रिया और कर्म उपपद रहते हुए धातु भविष्यत्काल में ) अण् प्रत्यय होता है । - अणू... - IV. 1. 15 देखें टिड्डाणज्यसज्० IV. 1. 15 अण्... - IV. 1. 78 देखें- अणिजो IV. 1. 78 - अण् - IV. 1. 83 (तेन दीव्यति' IV. iv. 2 से पहले पहले ) अणु प्रत्यय का अधिकार है। अण् - IV. 1. 112 (शिवादि प्रातिपदिकों से 'तस्यापत्यम्' अर्थ में) अण् प्रत्यय होता है। 310-IV. i. 168. (क्षत्रियाभिधायी जनपदवाची दो अच् वाले शब्दों से तथा मगध, कलिंग और सूरमस प्रातिपदिकों से अपत्य . अर्थ में) अण् प्रत्यय होता है। 15 अण् 370-IV. ii. 37 (षष्ठीसमर्थ भिक्षादि प्रातिपदिकों से समूह अर्थ में) अण् प्रत्यय होता है। 37-IV. ii. 76 · (सुवास्तु आदि प्रातिपदिकों से चातुरर्थिक IV. ii. 70 पर निर्दिष्ट) अण् प्रत्यय होता है । 370-IV. ii. 99 (रङकु शब्द से मनुष्य अभिधेय न हो तो) अण् (और फक्) प्रत्यय (होते है)। अण् - IV. II. 109 (प्रस्थ शब्द उत्तरपद वाले शब्दों से पलद्यादि गण के शब्दों से तथा ककार उपधावाले शब्दों से शैषिक) अण प्रत्यय होता है । अण् - IV. ii. 131 (देशवाची ककार उपधावाले प्रातिपदिक से शैषिक) अण प्रत्यय होता है। अणू – IV. iii. 16. (सन्धिवेलादिगणपठित शब्दों से तथा ऋतुवाची एवं नक्षत्रवाची शब्दों से) अण् प्रत्यय होता है। अणु - IV. iii. 22. (हेमन्त प्रातिपदिक से वैदिक तथा लौकिक प्रयोग में) अण् (तथा ठञ्) प्रत्यय (होते हैं, तथा उस अण् के परे रहने पर हेमन्त शब्द के नकार का लोप भी होता है) । 310-IV. iii. 57 (सप्तमीसमर्थ ग्रीवा प्रातिपदिक से भव अर्थ में) अण् और ठञ् ) प्रत्यय होते हैं । अण् - IV. iii. 73 (षष्ठ्यर्थ और सप्तम्यर्थ व्याख्यातव्यनाम जो ऋगयनादि प्रातिपदिक, उनसे भव और व्याख्यान अर्थों में) अण् प्रत्यय होता है । अण् – IV. iii. 76 (पञ्चमीसमर्थ शुण्डिकादि प्रातिपदिकों से 'आया हुआ' अर्थ में) अण प्रत्यय होता है। अणू... IV. ill. 93 देखें- अणजी IV. III. 93 अण् - IV. iii. 108 (तृतीयासमर्थ कलापिन् प्रातिपदिक से छन्दविषय में प्रोक्त अर्थ को कहना हो तो) अण् प्रत्यय होता है । अण् - IV. iii. 126 (संघ, अंक तथा लक्षण अभिधेय हो तो गोत्रप्रत्ययान्त अजन्त, यजन्त तथा इञन्त षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिकों से 'इदम्' अर्थ में) अण् प्रत्यय होता है। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण 16 अण अण् -IV. iii. 133 अण् -IV. iv. 126 (षष्ठीसमर्थ बिल्वादि प्रातिपदिकों से विकार और अव- __ (उपधान मन्त्र समानाधिकरण वाले मतुबन्त अश्विमान् यव अर्थों में) अण् प्रत्यय होता है। . प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ में इष्टका अभिषेय हो तो) अण अण् -IV. iii. 149 प्रत्यय होता है, (तथा मतुप् का लुक होता है, वेद-विषय (षष्ठीसमर्थ तसिलादि प्रातिपदिकों से विकार और अवयव अर्थों में) अण् प्रत्यय होता है। अण् -V.i. 27 अण् -IV. iii. 161 (शतमान, विंशतिक, सहस्र तथा वसन प्रातिपदिकों से .. (षष्ठीसमर्थ प्लक्षादि प्रातिपदिकों से फल के विकार 'तदर्हति' पर्यन्त कथित अर्थों में) अण प्रत्यय होता है। और अवयव की विवक्षा होने पर) अण प्रत्यय होता है। अण...- V.I. 41 अण् -IV. iv.4 देखें- अणजौ v.i. 41 (ततीयासमर्थ कुलत्थ तथा ककार उपधावाले प्रातिप- अण्-V. 1. 96 दिकों से 'संस्कृतम्' अर्थ में) अण प्रत्यय होता है। (सप्तमीसमर्थ व्युष्टादि प्रातिपदिकों से 'दिया जाता है' अण् -IV. iv. 18 और 'कार्य' अर्थों में) अण प्रत्यय होता है। (तृतीयासमर्थ कुटिलिका प्रातिपदिक से 'हरति' अर्थ अण् -V.i. 104 में) अण प्रत्यय होता है। (प्रथमासमर्थ ऋतु प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ में) अण् प्रत्यय अण्- IV. iv. 25 होता है. (यदि वह प्रथमासमर्थ ऋतु प्रातिपदिक प्राप्त (तृतीयासमर्थ मुद्ग प्रातिपदिक से मिला हुआ अर्थ में) समानाधिकरण वाला हो तो)।। अण् प्रत्यय होता है। अण् -v.i. 109 अण् -IV. iv. 48 (प्रयोजन समानाधिकरणवाची प्रथमासमर्थ विशाखा तथा आषाढ प्रातिपदिकों से यथासङ्ख्य करके मन्थ तथा (षष्ठीसमर्थ महिषी आदि प्रातिपदिकों से न्याय्य व्यव दण्ड अभिधेय होने पर षष्ठ्यर्थ में) अण प्रत्यय होता है। हार अर्थ में ) अण् प्रत्यय होता है। अण् -V.i. 129, अण् -IV. iv.56 (षष्ठीसमर्थ हायन शब्द अन्तवाले तथा युवादि (शिल्पवाची प्रथमासमर्थ मडुक तथा झर्झर प्रातिपदिकों प्रातिपदिकों से भाव और कर्म अर्थों में) अण् प्रत्यय होता से विकल्प से षष्ठ्यर्थ में) अण प्रत्यय होता है। अण् -IV. iv. 68 अण् -V.ii. 38 (प्रथमासमर्थ भक्त प्रातिपदिक से 'इसको नियतरूप से (प्रथमासमर्थ प्रमाण-समानाधिकरणवाची पुरुष तथा दिया जाता है',इस अर्थ में विकल्प से) अण् प्रत्यय होता हस्तिन् प्रातिपदिकों से षष्ठ्यर्थ में) अण (तथा द्वयसच, दनच् और मात्रच्) प्रत्यय (होते है)। अण् -IV. iv.80 (द्वितीयासमर्थ शकट प्रातिपदिक से 'ढोता है। अर्थ में अण् - V.ii. 61 अण् प्रत्यय होता है। (विमुक्तादि प्रातिपदिकों से 'अध्याय' और 'अनुवाक' अण् -IV. iv.94 - अभिधेय हों तो मत्वर्थ में ) अण् प्रत्यय होता है। (ततीयासमर्थ उरस प्रातिपदिक से बनाया हुआ' अर्थ अण-v.ii. 103 में) अण् (और यत्) प्रत्यय (होते है)। (तपस् तथा सहस्र प्रातिपदिकों से मत्वर्थ में) अण् प्रत्यय अण-IV. iv. 112 होता है। (सप्तमीसमर्थ वेशन्त और हिमवत् प्रातिपदिकों से भव अण - V. iii. 109 अर्थ में) अण प्रत्यय होता है, (वेद-विषय में)। (शर्करादि प्रातिपदिकों से इवार्थ में) अण प्रत्यय होता अण् -IV. iv. 124 (षष्ठीसमर्थ असुर शब्द से वेद-विषय में 'असुर की अण... - V. iii. 117 अपनी माया' अभिधेय होने पर) अण प्रत्यय होता है। देखें- अणजी V.III. 117 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण 17 अणौ अण्-V. iv. 15 अणि-I. iv. 52 (इनुण-प्रत्ययान्त प्रातिपदिक से स्वार्थ में) अण् प्रत्यय (गत्यर्थक,बुद्ध्यर्थक,भोजनार्थक तथा शब्द कर्म वाली होता है। और अकर्मक धातुओं का ) अण्यन्तावस्था में (जो कर्ता, अण् - V. iv. 36 वह ण्यन्तावस्था में कर्मसंज्ञक होता है)। (उस प्रकाशित वाणी से युक्त कर्मन् प्रातिपदिक से अणि-IV.ili.2 स्वार्थ में ) अण् प्रत्यय होता है। (उस खञ् तथा) अण् प्रत्यय के परे रहते ( युष्मद्, ...अण्...-VI. iii. 49 अस्मद् के स्थान पर यथासङ्ख्य युष्माक,अस्माक आदेश देखें-लेखयदण VI. iii. 49 होते हैं)। अण: - IV.i. 156 अणि-VI. ii. 75 अणन्त (दो अच् वाले) प्रातिपदिकों से (अपत्यार्थ में अणन्त शब्द उत्तरपद रहते (नियुक्तवाची समास में फिञ् प्रत्यय होता है)। पूर्वपद को आधुदात्त होता है)। ...अण: - V. iii. 118 अणि -VI. iv. 133 . (अभिजित्, विदभृत्, शालावत. शिखावत्, शमीवत्, (षकार पूर्व में है जिसके, ऐसा जो अन्,तर तथा हन् ऊर्णावत,श्रूमत् सम्बन्धी) अणन्त शब्द से (स्वार्थ में यञ् एवं धृतराजन् भसज्ज्ञक अङ्ग के अन् के अकार का लोप प्रत्यय होता है)। होता है), अण् परे रहते। अणः -VI. ii. 110 अणि-VI. iv. 164 (ढकार तथा रेफ का लोप हुआ है जिसके कारण,उसके (अपत्य अर्थ से भिन्न अर्थ में वर्तमान) अण् प्रत्यय के परे रहते पूर्व के) अण् को (दीर्घ होता है)। परे रहते (भसञ्जक इन्नन्त अङ्गको प्रकृतिभाव हो जाता अण: - VII. iv. 13. .. (क प्रत्यय परे रहते) अण् = अ,इ,उ को (हस्व होता । (ण्यन्त गोत्रप्रत्ययान्त, क्षत्रियवाची गोत्रप्रत्ययान्त,ऋषिअणः -VIII. iv.56 वाची गोत्रप्रत्ययान्त तथा जित् गोत्रप्रत्ययान्त शब्द से -- (अवसान में वर्तमान प्रगृह्यसञक से भिन्न) अण् को युवापत्य में विहित) अण् और इञ् प्रत्ययों का (लुक् होता (विकल्प से अनुनासिक आदेश होता है)। । ...अणके-II.i. 53 अणित्रोः - IV.i. 78 देखें-पापाणके II. i. 53 (गोत्र में विहित ऋष्यपत्य से भिन्न) अण और इब् अणजौ-IV. iii. 93 प्रत्ययान्त (उपोत्तमगुरु वाले) प्रातिपदिकों को (स्त्रीलिङ्ग में (प्रथमासमर्थ सिन्ध्वादि तथा तक्षशिलादिगणपठित ष्यङ् आदेश होता है)। शब्दों से यथासंख्य करके) अण तथा अब् प्रत्यय होते अणुदित् -I.i. 68 हैं,(इसका अभिजन' कहना हो तो)। अण् प्रत्याहार = अ, इ, उ,ऋ,लू, ए, ओ, ऐ, औ, ह, य, अणजौ-v.i.40 वरल तथा उदित् = उकार इत्संज्ञक वर्ण (अपने स्वरूप तथा अपने सवर्ण का भी ग्रहण कराने वाले होते है.प्रत्यय - (षष्ठीसमर्थ सर्वभूमि तथा पृथिवी प्रातिपदिकों से कारण अर्थ में यथासङ्ख्य करके) अण तथा अप्रत्यय होते हैं, को छोड़कर)। (यदि वह कारण संयोग वा उत्पात हो तो)। ...अणुभ्यः - V.ii.4 अणजौ-v.iii. 117 देखें- तिलमाषोov.ii. 4 अणौ -I. iii. 67 (शस्त्रों से जीविका कमाने वाले पुरुषों के समूहवाची अण्यन्तावस्था में (जो कर्म,वह यदि ण्यन्तावस्था में कर्ता पार्धादि तथा यौधेयादि-गणपठित प्रातिपदिकों से स्वार्थ बन रहा हो तो, ऐसी ण्यन्त धातु से आत्मनेपद होता है, में यथासंख्य करके) अण् तथा अब प्रत्यय होते हैं। आध्यान = उत्कण्ठापूर्वक स्मरण अर्थ को छोड़कर)। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणौ अणौ - I. iii. 88 अण्यन्तावस्था में (अकर्मक तथा चेतन कर्ता वाले धातु से ण्यन्तावस्था में परस्मैपद होता है) । ....3quit - IV. ii. 28 देखें - अणौ IV. ii. 28 ....अणी - TV 71 iii. देखें- यदणौ IV. lii. 71 ... अण्डात् - V. ii. 111 देखें - काण्डाण्डात् V. ii. 111 अण्यदर्थे - VI. IV. 60 यत् के अर्थ से भिन्न अर्थ में वर्तमान (निष्ठा के परे रहते क्षि अङ्गको दीर्घ हो जाता है ) । . अत्... - L. 1. 2 देखें आदेश 1.1.2 अत् - III. iv. 106 [लिङादेश ( उत्तमपुरुष एकवचन ) 'इट्' के स्थान में] 'अत्' आदेश होता है। अत् - V. iii. 12 (सप्तम्यन्त किम् प्रातिपदिक से) अत् प्रत्यय होता है। अत् - VII. 1. 31 (युष्मद् अस्मद् अङ्ग से उत्तर पञ्चमी विभक्ति के भ्यस के स्थान में) अत् आदेश होता है । अत् - VII. 1. 85 (पथिन्, मथिन् तथा ऋभुक्षिन् अङ्गों के इकार के स्थान में) अकारादेश होता है, (सर्वनामस्थान परे रहते ) । अत् - VII. 1. 86 (अभ्यस्त अङ्ग से उत्तर प्रत्यय के अवयव झकार के स्थान में) अत् आदेश हो जाता है। अत् - VII. ii. 118 (इकारान्त उकारान्त अङ्ग से उत्तर ङि को औकारादेश होता है तथा विसञ्ज्ञक को ) अकारादेश (भी) होता है। अत् - VII. iv. 66 (ऋवर्णान्त अभ्यास को अकारादेश होता है। 18 अत् - VII. iv. 95 (स्मृ, दृ, ञित्वरा, प्रथ, प्रद, स्तृञ्, स्पश इन अङ्गों के अभ्यास को चङ्परक णि परे रहते) अकारादेश होता है। - अतः - II. iv. 83 अदन्त (अव्ययीभाव) से उत्तर (सुप् प्रत्यय का लुक नहीं होता, अपितु पञ्चमी से भिन्न सुप् प्रत्यय के स्थान में अम् आदेश होता है)। .... अतः देखें - - - - IV. i. 4 अजाद्यतः IV. I. 4 अतः - IV. 1. 95 (षष्ठीसमर्थ) अकारान्त प्रातिपदिक से (अपत्य मात्र को कहने में इन् प्रत्यय होता है)। अतः • IV. 1. 175 (स्त्रीलिङ्ग अभिधेय हो तो तद्राजसंज्ञक) अकार प्रत्यय का भी लुक हो जाता है)। अत: - - V. ii. 115 अकारान्त प्रातिपदिकों से (मत्वर्थ में इनि और उन प्रत्यय होते हैं)। अत: - VI. 1. 94 (अपदान्त) अकार से उत्तर (गुणसञ्ज्ञक अ, ए, ओ के परे रहते पूर्व पर के स्थान में पररूप एकादेश होता है, संहिता के विषय में)। अत: - VI. 1. 98 (अव्यक्त के अनुकरण का) जो अत् शब्द, उससे उत्तर (इति शब्द परे रहते पूर्व पर के स्थान में पररूप एकादेश होता है, संहिता के विषय में) अतः - अत: VI. i. 109 (अप्लुत) अकार से उत्तर (अप्लुत अंकार परे रहते रु के रेफ को उकार आदेश होता है, संहिता के विषय में)। - VI. iii. 134 - अतः (दो अच् वाले तिङन्त के) अकार को (ऋचा विषय में दीर्घ होता है, संहिता में) । अतः VI. iv. 48 अकारान्त अङ्गका (आर्धधातुक परे रहते लोप हो जाता - है)। अतः - VI. iv. 105 "अकारान्त अङ्ग से उत्तर (हि का लुक् हो जाता है) । अतः • VI. iv. 110 - (उकारप्रत्ययान्त कृ अङ्ग के) अकार के स्थान में (ठकारादेश हो जाता है कितु या डि सार्वधातुक परे रहते) । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतः 19 अतसुच अतः - VI. iv. 120 अत:- VII. iv.85 (लिट् परे रहते अङ्ग के असहाय हलों के बीच में वर्त- (अनुनासिकान्त अङ्ग के) अकारान्त (अभ्यास) को (नुक मान) जो अकार, उसको (एकारादेश तथा अभ्यास का आगम होता है,यङ् तथा यङ्लुक परे रहते)। लोप हो जाता है; कित, ङित् लिट् परे रहते)। . अत: -VII. iv. 88.. अतः - VII. 1.9 (चर तथा फल धातुओं के अभ्यास से परे) अकार के स्थान में (उकारादेश होता है,यङ् तथा यङ्लुक परे रहते)। अकारान्त अङ्ग से उत्तर (भिस् के स्थान में ऐस् आदेश अत:- VIII. iii. 46 होता है)। अकार से उत्तर (समास में जो अनुत्तरपदस्थ अनव्यय अत: - VII. I. 24 का विसर्जनीय,उसको नित्य ही सकारादेश होता है; कृ, अकारान्त (नपुंसक लिङ्ग वाले) अङ्ग से उत्तर (सु और कमि, कंस, कुम्भ, पात्र, कुशा तथा कर्णी शब्दों के परे अम् के स्थान में अम् आदेश होता है)। रहते)। अतः -VII. 1.2 अतदर्थे- VI. ii. 156 (अकार के समीप वाले रेफान्त तथा लकारान्त अङ्ग के) (गणप्रतिषेध अर्थ में जो नज, उससे उत्तर) अतदर्थ = अकार के स्थान में (ही वृद्धि होती है,परस्मैपदपरक सिच् 'उसके लिये यह' इस अर्थ में विहित जो न हों,ऐसे (जो परे हो तो)। य तथा यत् तद्धित प्रत्यय, तदन्त उत्तरपद को भी अन्त अतः -VII. 1.7 उदात्त होता है)। (हलादि अङ्ग के लघु) अकार को (परस्मैपदपरक इडादि अतदर्थे -VI. iii. 52 सिच् परे रहते विकल्प से वृद्धि नहीं होती)। अतदर्थ = उसके लिये यह' इस अर्थ में विहित जो न अतः -VII. ii. 80 हो,ऐसे (यत् प्रत्यय) के परे रहते (पाद शब्द को पद् आदेश अकारान्त अङ्ग से उत्तर (सार्वधातक या के स्थान में इय होता है)। , · आदेश होता है)। . अतद्धितलुकि-V. iv.92 अतः -VII. ii. 116 (गो शब्द अन्त वाले तत्पुरुष समास से समासान्त टच . (अङ्गकी उपधा के) अकार के स्थान में विद्धि हो प्रत्यय होता है,यदि वह तत्पुरुष ) तद्धितलुक्-विषयक न " जित् या णित् प्रत्यय परे रहते)। हो, अर्थात् तद्धितप्रत्यय का लुक न हुआ हो तो । अतः -VII. iii. 27 । अतद्धिते-I.ii. 8 - (अर्ध शब्द से परे परिमाणवाची शब्द के अचों में आदि) (उपदेश में) तद्धितवर्जित प्रत्यय (के आदि) में वर्तमान अकार को (वृद्धि नहीं होती, पूर्वपद को तो विकल्प से । (लकार,शकार और कवर्ग की इत्सजा होती है)। होती है जित्, णित् तथा कित् तद्धित परे रहते)। अतद्धिते-VI. iv. 133 अत: -VII. iii. 44 (भसज्जक श्वन, युवन, मघवन् अङ्गों को) तद्धितभिन्न (प्रत्यय में स्थित ककार से पूर्व के) अकार के स्थान में प्रत्ययों के परे रहते (सम्प्रसारण होता है)। (इकारादेश होता है,आप परे रहते,यदि वह आप सुप से अतरुणेषु-I. ii. 73 उत्तर न हो तो)। तरुणों से रहित (ग्रामीण पशुओं के समूह) में (स्त्री शब्द अत:- VII. iii. 101 शेष रह जाता है, पुमान् शब्द हट जाते हैं)। अकारान्त अङ्ग को (दीर्घ होता है, यज्ञादि सार्वधातुक .. अतसर्थप्रत्ययेन - II. iii. 30 प्रत्यय के परे रहते)। अतसुच के अर्थ में विहित प्रत्ययों से बने शब्दों के अत: -VII. iv. 70 योग में (षष्ठी विभक्ति होती है)। (अभ्यास के आदि) अकार को लिट् परे रहते दीर्घ होता अतसुच् - V. iii. 28 (दिशा. देश तथा काल अर्थों में वर्तमान सप्तम्यन्त, अतः - VII. iv.79 पञ्चम्यन्त तथा प्रथमान्त दिशावाची दक्षिण तथा उत्तर (सन परे रहते) अकारान्त (अभ्यास) को (इत्व होता है)। प्रातिपदिकों से स्वार्थ में) अतसुच प्रत्यय होता है। . Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अति अति... -V.1.22 देखें-अतिशदन्तायाः V.1.22 अति -VI. 1. 105 (पदान्त एक प्रत्याहार से उत्तर) अकार परे रहते (पर्व पर के स्थान में पूर्वरूप एकादेश होता है. संहिता के विषय ...अतिभ्यः ...-I. iil.80 देखें-अभिप्रत्यतिभ्यः I. 11.80. .. . अतिव्यथने-V.iv..61 (सपत्र तथा निष्पत्र प्रातिपदिकों से) अतिपीडन' गम्यमान हो तो (कृज् के योग में डाच प्रत्यय होता है)। अतिशदन्तायाः -V.1.22 (संख्यावाची प्रातिपदिक से तदर्हति पर्यन्त कथित अर्थों में कन् प्रत्यय होता है, यदि वह संख्यावाची प्रातिपदिक) ति शब्द अन्तवाला और शत् शब्द अन्त वाला न हो तो। अतिशायने -Vill. 55 अत्यन्त प्रकर्ष अर्थ में वर्तमान (प्रातिपदिक से तमप् और इष्ठन् प्रत्यय होते हैं)। ...अतिसर्ग...-III. iii. 163 देखें-प्रैवातिसर्ग III. iii. 163 ...अतीण..-III. I. 141 देखें-श्याव्यधा० -III. I. 141 ...अतीत... - II. 1. 23 देखें-श्रितातीतपतित० II.i. 23 ...अतीसाराभ्याम् -V.ii. 129 अति-VII. 1. 105 अत् विभक्ति के परे रहते (किम् अङ्गको क्व आदेश होता है)। . . . अति:-I. iv.94 अति शब्द (कर्मप्रवचनीय और निपात संज्ञक होता है, उल्लंघन और पूजा अर्थ में)। अतिक्रमणे-I. iv.94 अतिक्रमण = उल्लङ्घन (और पूजा) अर्थ में (अति शब्द की कर्मप्रवचनीय और निपात संज्ञा होती है)। अतिग्रह...-v.iv.46 देखें-अतिग्रहाव्यथन V. iv. 46 . अतिग्रहाव्यवनक्षेपेषु-V. iv. 46 अतिमह = अन्यों को चरित्रादि के द्वारा अतिक्रमण करके गृहीत होना, अव्यथन = चलायमान या दुःखी न होना तथा क्षेप निन्दा-इन विषयों में वर्तमान (जो तृतीया विभक्ति, तदन्त शब्द से तसि प्रत्यय होता है)। अतिङ्-II. 1. 19 . तिङ् से भिन्न (उपपद का समर्थ शब्दान्तर के साथ नित्य समास होता है और वह तत्पुरुषसंज्ञक समास होता है)। अतिङ्-III.1.93 (धातु के अधिकार में विहित) तिङ-भिन्न प्रत्ययों की (कृत्' संज्ञा होती है)। अतिः - VIII. I. 28 अतिङ् पद से उत्तर (तिवद को अनुदात्त होता है)। ...अतिवर... -III. ii. 142' देखें-सम्पृचानुरुथा III. 1. 142 ...अतिथि..-IV. iv. 104 देखें-पथ्यतिथिवसति० IV. iv. 104 अतिथे:-V.iv. 26 अतिथि प्रातिपदिक से (उसके लिये यह' अर्थ में ज्य प्रत्यय होता है)। अत... -VI. iv. 14 देखें-अत्वसन्तस्य VI. iv. 14. अतुला...-II. 11.72 देखें- अतुलोपमाभ्याम् II. iii. 72 अतुलोपमाभ्याम् -II. iii. 72 तुला और उपमा शब्दों को छोड़कर (तुल्यार्थक शब्दों के योग में ततीया विभक्ति विकल्प से होती है.पक्ष में षष्ठी भी)। ...अतुस्...-III. iv. 82 देखें - णलतुसुस्० III. iv. 82 ...अतृतीयास्थस्य - VI. iii. 98. देखें-अषष्ठ्यतृतीयास्थस्य VI. iii. 98 . अतृन् -III. ii. 104 (जूष वयोहानौ' धातु से भूतकाल में) अतुन् प्रत्यय होता है। अते: -v.iv.96 अति शब्द से उत्तर (जो श्वन शब्द,तदन्त प्रातिपदिक तत्पुरुष से समासान्त टच प्रत्यय होता है)। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत अथुच् 0 अते: -VI. ii. 191. अत्र -VI. iv. 22 अति उपसर्ग से उत्तर (अकृदन्त तथा पद शब्द को (भस्य' के अधिकारपर्यन्त) समानाश्रय अर्थात् एक ही अन्तोदात्त होता है)। निमित्त होने पर ( आभीय कार्य असिद्ध के समान होता अतौ - VI. ii. 50 तु शब्द को छोड़कर (तकारादि एवं नकार इत्सजक कृत् अत्र -VII. iv. 58 के परे रहते भी अव्यवहित पूर्वपद गति को प्रकृतिस्वर यहाँ अर्थात् सन् परे रहते पूर्व के चार सूत्रों से जो इस होता है)। इत् आदि का विधान किया है, उनके (अभ्यास का लोप अत्ति...-VII. ii.66 होता है)। - देखें - अत्यतिव्ययतीनाम् VII. ii. 66 अत्र -VIII. iii.2 अत्पूर्वस्य - VIII. iv. 21 यहाँ से आगे जिसको रु विधान करेंगे, उससे (पूर्व के (उपसर्ग में स्थित निमित्त से उत्तर) अकार पूर्व है जिससे. वर्ण को विकल्प से अनुनासिक आदेश होता है,यह तथ्य ऐसे (हन् धातु) के (नकार को णकारादेश होता है)। अधिकृत होता है)। ...अत्यन्त...-III. ii. 48 अत्रि ...-II. iv. 65 देखें- अन्तात्यन्ता० III. ii. 48 देखें - अत्रिभृगुकुत्स II. iv. 65 ...अत्यन्त...-V.ii. 11 अत्रिभृगुकुत्सवसिष्ठगोतमाङ्गिरोभ्यः - II. iv. 65 देखें-अवारपारात्यन्ताov.ii. 11 अत्रि, भृगु, कुत्स, वसिष्ठ, गोतम, अङ्गिरस्-इन अत्यन्तसंयोगे -II. I. 28 शब्दों से (तत्कृत बहुत्व गोत्रापत्य में विहित जो प्रत्यय, अत्यन्तसंयोग गम्यमान होने पर (भी कालवाची द्विती- उसका भातुकहा उसका भी लुक हो जाता है)। . . यान्तों का समर्थ सुबन्त के साथ विकल्प से समास होता ...(त्रिषु-IV.1.117 है और वह तत्पुरुष समास होता है)। . देखें-वत्सभरद्वाजा IV.I. 117 .. क्रिया, गुण या द्रव्य के साथ सम्पूर्णता से काल और ...अत्वत: - VI. 1. 153 अध्ववाचकों के सम्बन्ध का नाम अत्यन्त-संयोग है। देखें-कर्षात्वत: VI. 1. 153 अत्यन्तसंयोगे-II. iii.5 .. अत्यन्तसंयोग गम्यमान होने पर (काल और अध्व अत्वत: - VII. ii. 62 वाचक शब्दों में द्वितीया विभक्ति होती है)। (उपदेश में) जो धातु अकारवान (और तास के परे रहते . ...अत्यय...-II.i.6 नित्य अनिट),उससे उत्तर (थल को तास् के समान ही इट् देखें-विभक्तिसमीपसमृद्धि II.i. 6 आगम नहीं होता)। ....अत्यस्त...-II. 1. 23 अत्वसन्तस्य-VI. iv. 14 देखें-श्रितातीतपतितः II.i. 23 . (धातु-भिन्न) अतु तथा अस् अन्त वाले अङ्गकी (उपधा को भी दीर्घ होता है,सम्बुद्धिभिन्न सु विभक्ति परे रहते)। ....अत्याकार... -V. 1. 133 देखें-श्लाघात्याकारov.i. 133 अथ-अथ शब्दानुशासनम् पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित मङ्गल तथा अत्याधानम् -III. iii. 80 प्रारम्भ अर्थ का वाचक अव्यय । यहाँ से लौकिक तथा (उद्घन शब्द में) अत्याधान = काष्ठ के नीचे रखा वैदिक शब्दों का अनुशासन = उपदेश आरम्भ होता है। गया काष्ठ वाच्य हो तो (उत् पूर्वक हन् धातु से अपप्रत्यय ...अथ... -VI. ii. 144 तथा हन् को घनादेश निपातन किया जाता है,कर्तृभिन्न कारक संज्ञा विषय में)। देखें- शाथ VI. ii. 144 अत्यतिव्ययतीनाम् - VII. ii. 66 अथुच -III. iii. 89 - अद् भक्षणे,ऋगतो,व्ये संवरणे- इन अङ्गों के (थल (टु इत्संज्ञक है जिन धातुओं का,उनसे कर्तृभिन्न कारक को इट आगम होता है)। संज्ञा तथा भाव में) अथुच प्रत्यय होता है। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथुस् अदूरात् ...अथुस्... - III. iv. 82 अदस: -1.1. 12 देखें-णलतुसुस्० III. iv. 82 अदस् शब्द के (मकार से परे ईदन्त,ऊदन्त और एदन्त अद-I.iv.69 शब्द की प्रगृह्य संज्ञा होती है)। (अनुपदेश विषय में) अदस् शब्द (क्रियायोग में गति अदस: - VII. 1. 107 और निपात-संज्ञक होता है)। __ अदस् अङ्ग को (सु परे रहते औ आदेश तथा सु का । अदः -II. iv. 36 लोप होता है)। अद् के स्थान में (जग्ध आदेश होता है, ल्यप् और अदस: - VIII. ii. 80 तकारादि कित् आर्धधातुक परे रहते)। (असकारान्त) अदस् शब्द के (दकार से उत्तर जो वर्ण, अदः -III. ii. 68 उसके स्थान में उवर्ण आदेश होता है तथा दकार को अद् धातु से (अन्न शब्द से भिन्न सुबन्त उपपद रहते मकारादेश भी होता है)। 'विट्' प्रत्यय होता है)। ...अदसोः -VII.i. 11 ...अदः - III. ii. 160 देखें-इदमदसो: VII.i. 11 देखें-संघस्यदः III. ii. 160 अदाप-I.1.29 अदः -III. iii. 59 दाप और दैप् धातुओं को छोड़कर (दा रूप वाली चार (उपसर्ग उपपद रहते हुए) अद् धातु से(अप् प्रत्यय होता और धा रूप वाली दो धातुओं की घु संज्ञा होती है)। .. है,कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में)। अदिक्खियाम् - V. iv.8 अदः-VII. iii. 100 दिशावाचक स्त्रीलिंग न हो तो (अञ्चति उत्तरपद वाले अद् अङ्ग से उत्तर (हलादि अपृक्त सार्वधातुक को सभी प्रातिपदिक से स्वार्थ में विकल्प से ख प्रत्यय होता है)। आचार्यों के मत में अट आगम होता है)। ...अदिति... - IV.1.85 ...अदन्तात् - VI. iii.8 देखें-दित्यदित्यादित्य IV.1.85 . देखें- हलदन्तात् VI. iii. 8 . अदिप्रभृतिभ्यः -II. iv.72 अदन्तात् - VIII. iv.7. अदादिगण-पठित धातुओं से उत्तर (शप का लुक होता हस्व अकारान्त (पूर्वपद में स्थित) निमित्त से उत्तर (अहन के नकार को णकारादेश होता है)। ....अदुपदेशात् - VI. 1. 1800 देखें- तास्यनुदात्तेत्० VI. 1. 180 अदर्शनम् - I.1.59 विद्यमान के अदर्शन = अनुपलब्धि या वर्णविनाश की अदुपधात् -III.1.98 (लोप संज्ञा होती है)। अकारोपध (पवर्गान्त) धातु से (यत् प्रत्यय होता है)। अदर्शनम् -I. ii. 55 ...अदूर.. -II. ii. 25 (सम्बन्ध को वाचक मानकर-यदि संज्ञा हो तो भी उस बोसो देखें - अव्ययासन्नादूरा II. ii. 25 सम्बन्ध के हट जाने पर उस संज्ञा का) अदर्शन = न अदूरभवः-IV.ii. 69 दिखाई देना (होना चाहिये पर वह होता नहीं है)। (षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिक से) पास होने के अर्थ में (भी अदर्शनम् -I. iv. 28 यथाविहित अण् आदि प्रत्यय होते है)। (व्यवधान के निमित्त जिससे) छिपना (चाहता हो. उस अदूरात् - VIII. ii. 107 कारक की अपादान संज्ञा होती है)। दूर से (बुलाने के विषय से) भिन्न विषय में अप्रगृत्यअदर्शनात् -V.iv.76 सञ्जक एच् के पूर्वार्ध भाग को प्लुत करने के प्रसंग में दर्शन विषय से अन्यत्र वर्तमान (अक्षि-शब्दान्त प्राति- आकारादेश होता है तथा उत्तरवाले भाग को इकार उकार पदिक से समासान्त अच् प्रत्यय होता है)। .. आदेश होते हैं)। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधरोत्तराणाम् अदूरे-v.iii. 35 अद्रि-VI. iii.91 (दिशा, देश और काल अर्थों में वर्तमान पञ्चम्यन्त- (विष्वग तथा देव शब्दों के तथा सर्वनाम शब्दों के वर्जित सप्तमी प्रथमान्त दिशावाची उत्तर, अधर और टिभाग को) अद्रि आदेश होता है, (वप्रत्ययान्त अञ्जु धातु दक्षिण प्रातिपदिकों से विकल्प से एनप् प्रत्यय होता है), के परे रहते)। 'निकटता' गम्यमान होने पर। अद्वन्द्वे-II. iv.69 अदेड्-I.1.2 (द्वन्द्व तथा) अद्वन्द्व = द्वन्द्वभित्र समास में (उपक अ,ए,ओ की (गुणसंज्ञा होती है)। आदियों से उत्तर गोत्रप्रत्यय का बहत्व की विवक्षा में अदेश..- IV. iii. 96 विकल्प से लुक् होता है)। देखें - अदेशकालात् IV. iii. 96 अद्व्यादिभ्यः -v.ili.2 अदेश..-IV. iv..71 (यहां से आगे 'दिक्शब्देभ्यः सप्तमीपञ्चमी' Vii.27 देखें- अदेशकालात् IV. iv.71 सूत्र तक जितने प्रत्यय कहे हैं, वे किम्, सर्वनाम तथा बहु अदेशकालात् - IV. iii. 96 शब्दों से ही होते है),द्वि आदि शब्दों को छोड़कर । (प्रथमासमर्थ भक्तिसमानाधिकरणवाची) देशकाल- अव्युपसर्गस्य -VI. iv. 96 वर्जित (अचेतनवाची) प्रातिपदिक से (षष्ठ्यर्थ में ठक जो दो उपसों से युक्त नहीं है,ऐसे (छादि) अङ्गकी प्रत्यय होता है)। (उपधा को घ प्रत्यय परे रहने पर हस्व होता है)। अदेशकालात् -IViv.71 ...अध्...-V. iii. 39 (जिस देश व काल में अध्ययन नहीं करना चाहिये,ऐसे देखें-पुरधः V. iii. 39 अदेशकालवाची सप्तमीसमर्थ प्रातिपदिकों से (अध्ययन अधः - VIII. 1.40 करने वाला अभिधेय हो तो ठक् प्रत्यय होता है)। (झप् से उत्तर तकार तथा थकार को धकार आदेश होता अदेशे - VIII. iv. 23 है,किन्तु) डुधाञ् धातु से उत्तर (धकारादेश नहीं होता)। (अन्तर शब्द से उत्तर अकार पूर्ववाले हन् धातु के नकार . अधनुषा - IV. iv.3 को णकारादेश होता है) देश को न कहा जा रहा हो तो। (द्वितीयासमर्थ प्रातिपदिक से 'बींधता है' अर्थ में) यदि अड्-VII.1.25 धनुष करण न हो तो (यत् प्रत्यय होता है)। (डतर आदि में है जिनके, ऐसे सर्वादिगणपठित पाँच . ...अधम...-1V.III.5 .. शब्दों से परे सु तथा अम् को) अद्ड् आदेश होता है। 'अनि - IV. iv. 134 ...अधर... -II. 1.1 : (तृतीयासमर्थ) आप् प्रातिपदिक से (संस्कृत अर्थ में यत् देखें - पूर्वापराघरो० II. II. 1 'प्रत्यय होता है, वेद-विषय में)। ...अधर... - V. ill. 34 ....अघ... -V.iii. 22 देखें - उत्तराधर V. il. 34 देखें - सद्य:परुत्० V. iii. 22 ...अधर...-v.iil. 39 अबश्वीन -V. 1. 13 देखें-पूर्वाधरo v. iii. 39 अधश्वीन = आज या कल ब्याने वाली गौ आदि- ...अधराणि-1.1.33 शब्द का निपातन किया जाता है,(निकट प्रसव को कहना देखें-पूर्वपरावरदक्षिणोत्तरापराधराणि I. 1. 33 हो तो)। ....अघरेधुस् - V. iii. 22 अद्रव्यप्रक-v.iv. 11 देखें-सापरुन Vill. 22 . (किम्, एकारान्त, तिडन्त तथा अव्ययों से विहित जो ...अधरोत्तराणाम् -II.iv. 12 तरप-तमप् प्रत्यय, तदन्त से आमु प्रत्यय होता है),द्रव्य देखें-वृक्षमृगतृणधान्य II. iv. 12 का प्रकर्ष = उत्कर्ष न कहना हो तो। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अघस् अधस्... - VIII. iii. 47 देखें - अधः शिरसी VIII. iii. 47 ... अधस VIII. i. 7 देखें - उपर्यध्यधसः VIII. 1. 7 अधः शिरसी - VIII. 1. 47 (समास में अनुत्तरपदस्थ ) अधस् तथा शिरस् के (विसनीय) को सकार आदेश होता है, पद शब्द परे रहते ) । अधातुः - I. ii. 45 ( अर्थवान् शब्द प्रातिपदिक संज्ञक होते है), धातु (और प्रत्यय) को छोड़कर । ― अधातोः VI. iv. 14 धातुभिन्न (अतु तथा अस् अन्त वाले अङ्ग की उपधा) को भी दीर्घ होता है, सम्बुद्धिभिन्न सु विभक्ति परे रहते)। अघातोः VII. 1. 70 (ठक् इत्सक है जिसका, ऐसे) धातुवर्जित अङ्ग को (तथा अञ्जु धातु को सर्वनामस्थान परे रहते नुम् आगम होता है)। - अधि... - I. Iv. 46 देखें अधिशीस्थासाम् 1. Iv. 46 ... अधि... - I. Iv. 48 देखें उपायध्याय 1. Iv. 48 - - अधि... - I. iv. 92 देखें - अधिपरी 1. iv. 92 ... अधि... - VIII. 1. 7 देखें - उपर्यध्ययस् VIII 1.7 अधि: - I. iv. 96 अधि शब्द (कर्मप्रवचनीय और निपातसंज्ञक होता है. ईश्वर अर्थ में ) । ... अधिक.... देखें - अव्ययासनादूरा० II. II. 25 ii. II. ii. 25 - ... अधिक... - VI. ii. 91 देखें - भूताधिकo VI. 1. 91 li. अधिकम् – II. iii. 9 - (जिससे अधिक हो ( और जिसका सामर्थ्य हो, उस कर्मप्रवचनीय के योग में सप्तमी विभक्ति होती है)। अधिकम् - V. ii. 45 (प्रथमासमर्थ दशन् शब्द अन्त वाले प्रातिपदिक से सप्तम्यर्थ में ड प्रत्यय होता है, यदि वह प्रथमासमर्थ ) अधिक समानाधिकरण वाला हो तो । 24 अधिकम् - V. ii. 73 'अधिकम्' यह निपातन किया जाता है। (अध्यारूढ शब्द के उत्तरपद आरूढ शब्द का लोप तथा कन् प्रत्यय निपातन से किया जाता है)। अधिकरणम् - - I. iv. 45 (क्रिया के आश्रय कर्त्ता तथा कर्म की धारणक्रिया के प्रति आधार जो कारक, उसकी) अधिकरण संज्ञा होती है। ... अधिकरणयोः - III. I. 117 देखें - करणाधिकरणयोः 111. II. 117 अधिकरणवाचिर- 11.11168 अधिकरणवाचक ( क्तान्त) के योग में भी षष्ठी विभक्ति होती है। अधिकरणवाचिना ॥1॥ 13 अधिकरणवाची (क्तप्रत्ययान्त सुबन्त ) के साथ भी षष्ठ्यन्त सुबन्त समास को प्राप्त नहीं होता)। अधिकरणे - II. iil. 36 - (अनभिहित ) अधिकरण कारक में (तथा दूरान्तिकार्थ शब्दों से भी सप्तमी विभक्ति होती है ) । अधिकरणे - - II. iii. 64 अधिकरणैतावत्वे (कृत्वसुच् प्रत्यय के अर्थ वाले प्रत्ययों के प्रयोग में कालवाची) अधिकरण होने पर (शेषत्व की विवक्षा में षष्ठी विभक्ति होती है) 1 अधिकरणे अधिकरण (सुबन्त उपपद रहते (शी धातु से अच् प्रत्यय होता है)। - - III. ii. 15 अधिकरणे III. iii. 93 (कर्म उपपद रहने पर) अधिकरण कारक में (भी घुसंज्ञक धातुओं से कि प्रत्यय होता है)। अधिकरणे III. iv. 41 अधिकरणवाची शब्द उपपद हों तो (बन्ध धातु से णमुल् प्रत्यय होता है)। अधिकरणे - III. 1. 76 = (स्थित्यर्थक गत्यर्थक तथा प्रत्यवसान भक्षण अर्थ वाली धातुओं से विहित जो क्त प्रत्यय, वह) अधिकरण कारक में होता है तथा चकार से भाव, कर्म, कर्त्ता में भी होता है)। अधिकरणैतावत्वे - II. iv. 15 वर्तपदार्थ जो कि समासार्थ का आधार है, उसका परिमाण गम्यमान होने पर (द्वन्द्व एकवद नहीं होता ) । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिकारः ___ 25. अध्ययने अधिकार - I. iii. 11 ...अधीनवचने - V.iv.54 (स्वरित चिह्न वाले सूत्र से) अधिकार ज्ञात होता है। देखें-तदधीनवचने v.iv.54 अधिकार्थवचने- II. I. 32 ...अधीष्ट..- III. iii. 161 अधिकार्थवचन गम्यमान होने पर अर्थात् स्तुति देखें-विधिनिमन्त्रणाoH.M.161 अथवा निन्दा में अध्यारोपित अर्थ के कथन में (कर्ता और अधीष्ट- V.i.79 करणवाची तृतीयान्त सुबन्त पद कृत्यप्रत्ययान्त समर्थ (द्वितीयासमर्थ कालवाची प्रातिपदिकों से) 'सत्कारसुबन्तों के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होता है और पूर्वक व्यापार' अर्थ में (तथा 'खरीदा हुआ', 'हो चुका', वह समास तत्पुरुष संज्ञक होता है)। और 'होने वाला-इन अर्थों में यथाविहित ठञ् प्रत्यय अधिकृत्य - IV. iii. 87 (द्वितीयासमर्थ प्रातिपदिक से उसको) अधिकृत करके होता है)। (बनाया गया अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है. यदि अधीष्टे - III. iii. 166 बनाया जाना ग्रन्थविषयक हो तो)। सत्कार गम्यमान हो तो (भी स्म शब्द उपपद रहते धातु अधिके-I.iv.89 . से लोट् प्रत्यय होता है)। (उप शब्द) अधिक (तथा हीन) अर्थ धोतित होने पर अधुना - v. iii. 17 (कर्मप्रवचनीय तथा निपातसंज्ञक होता है)। - अधुना शब्द का निपातन किया जाता है । ...अधिके -VI. iii. 78 अघष्ट ... - V. 1. 20 देखें-ग्रन्थान्ताधिके VI. 1.78 देखें- अष्टाकार्ययो: V.ii. 20 ...अधिपति... -II. iii.39 अष्टाकार्ययोः - v.ii. 20 देखें- स्वामीश्वराधिपति II. iii. 39 (शालीन तथा कौपीन शब्द यथासङ्ख्य करके ) अधिपरी - I. iv. 92 अधि और परि शब्द (कर्मप्रवचनीय और निपातसंज्ञक अघृष्ट जो धृष्ट नहीं है तथा अकार्य =जो करने योग्य : होते है,यदि वे अन्य अर्थ के द्योतक न हों तो)। . नहीं है,वाच्य हों तो (निपातन किये जाते है)। ...अधिभ्याम् - V.ii. 34 .. अधे: - III. 33 देखें - उपाधिभ्याम् V.ii.34 अधि उपसर्ग से उत्तर (कब धातु से आत्मनेपद होता अधिशीस्थासाम् - I. iv. 46 है, पर का अभिभव' अर्थ में)। __ अधिपूर्वक शीङ्,स्था और आस् का (आधार जो कारक, अधे: -VI. 1. 188 उसकी कर्म संज्ञा होती है)। अधि उपसर्ग से उत्तर (उपरिस्थवाची उत्तरपद को अन्तोअधीगर्थ... - II. iii. 52 दात्त होता है)। देखें- अधीगर्थदयेशाम् II. iii. 52 अध्यक्षे-VI. ii.67 अधीगर्थदयेशाम् - II. iii. 52 . अध्यक्ष शब्द के उत्तरपद रहते (पूर्वपद को विकल्प से अधिपूर्वक इक धातु के अर्थवाली धातुओं के तथा दय ला धातुआ क तथा दय आधुदात्त होता है)। और ईश धातुओं के (कर्म कारक में शेष विवक्षित होने अध्ययनतः-II. iv.5 पर षष्ठी विभक्ति होती है)। अध्ययन के निमित्त से (जिनकी अविप्रकृष्ट अर्थात अधीते -IV.ii. 58 प्रत्यासन्न आख्या है,उनका द्वन्द्व एकवद होता है)। (द्वितीयासमर्थ प्रातिपदिक से) अध्ययन करता है' अध्ययने - IV.iv.63 अर्थ में (यथाविहित प्रत्यय होता है, इसी प्रकार द्वितीया अध्ययन में (वृत्तकर्मसमानाधिकरणवाची प्रथमासमर्थ समर्थ प्रातिपदिक से 'जानता है' के अर्थ में यथाविहित प्रातिपदिक से षष्ठयर्थ में ठक प्रत्यय होता है)। प्रत्यय होता है)। अध्ययने -VII. ii. 26 . अधीते-v.ii.84 अध्ययन को कहने में निष्ठा के विषय में ण्यन्त वृति (वेद को) पढ़ता है' अर्थ में (श्रोत्रियन् शब्द का निपातन • किया जाता है)। धातु से इडभावयुक्त वृत्त शब्द निपातन किया जाता है)। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययनेषु 26 ...अध्ययनेषु - V.1.57 अधुवे -III. iv. 54 देखें-संज्ञासंघसूत्रा० V.1.57 __ अधूव (स्वाङ्गवाची द्वितीयान्त शब्द) उपपद रहते (धातु अध्यर्थे -VIII. iii. 51 से णमुल् प्रत्यय होता है)। अधि के अर्थ में वर्तमान (परि शब्द के परे रहते पञ्चमी अधूव= वह अङ्ग, जिसके नष्ट हो जाने पर.भी प्राणी के विसर्जनीय को सकारादेश होता है,वेद विषय में)। नहीं मरता। अध्यर्द्धपूर्व...-V.i. 28 ...अध्य..-III. ii.48 देखें - अध्यद्धपूर्वद्विगो० V. 1. 28 देखें-अन्तात्यन्ता III. 1.48 अध्यद्धपूर्वद्विगो: - V.1.28 ...अध्वन्.. - VI. ii. 187 अध्यर्द्ध शब्द पूर्व हो जिसके, उससे तथा द्विगुसज्ञक देखें - स्फिगपूत० VI. ii. 187 प्रातिपदिक से ('तदर्हति' पर्यन्त कथित अर्थों में आये अध्वनः ... - V.ii. 16 हये प्रत्यय का लक होता है.सज्ञा विषय को छोड़कर)। द्वितीयासमर्थ) अध्वन प्रातिपदिक से (पर्याप्त जा ...अध्यापक....-II.1.64 है' अर्थ में यत् तथा ख प्रत्यय होते हैं)। देखें-पोटायुवतिस्तोक० II. 1.64 अध्वनः... -V. iv.85 अध्याय... -III. iii. 122 (उपसर्ग से उत्तर) अध्वन् शब्दान्त प्रातिपदिक से (समादेखें-अध्यायन्याय III. iii. 122 सान्त अच् प्रत्यय होता है)। . अध्याय..-V. 1.60 देखें - अध्यायानुवाकयो: V. 1.60 ...अध्वनो: - II. iii.5 अध्यायन्यायोधावसंहारा: -III. iii. 122 । देखें- कालाध्वनोः II. iii.5 अधिपूर्वक इङ् धातु से अध्यायः,नि पूर्वक इण धातु से ...अध्वर... - IV. iii. 72 न्यायः, उत् पूर्वक यु धातु से उद्यावः तथा सम् पूर्वक ह देखें-द्वयबाह्मण IV. iii.72 धात से संहार:-ये घजन्त शब्द (भी पुंल्लिग में करण ...अध्वर... - VII. iv. 39 तथा अधिकरण कारक संज्ञा में निपातन किये जाते हैं)। देखें-कव्यध्वर० VII. iv. 39 . अध्यायानुवाकयो: - V. 1.60 ...अध्वर्यु... - IV. iii. 122 अध्याय और अनुवाक अभिधेय होने पर (मत्वर्थ में देखें-पत्राध्वर्युपरिषदः IV. iii. 122 विहित छ प्रत्यय का लुक् होता है)। अध्वर्यु... -VI. ii. 10 अध्यायिनि-IV. iv.71 देखें - अध्वर्युकषाययो: VI. ii. 10 (जिस देश व काल में अध्ययन नहीं करना चाहिए,ऐसे ___ अध्वर्युकषाययो: - VI. ii. 10 सप्तमीसमर्थ देशकालवाची प्रातिपदिकों से) अध्ययन अध्वर्य तथा कषाय शब्द उत्तरपद रहते (जातिवाची करने वाला अभिधेय हो तो (ठक् प्रत्यय होता है)। तत्पुरुष समास में पूर्वपद को प्रकृतिस्वर हो जाता है)। अध्यायेषु - IV. iii. 69 अध्वर्युक्रतुः - II. iv. 4 (षष्ठी तथा सप्तमीसमर्थ व्याख्यातव्यनाम ऋषिवाची प्रातिपदिकों से 'तत्र भवः' तथा 'तस्य व्याख्यान' अर्थों में) __ वेद में जिस क्रतु का विधान है, ऐसे (अनपुंसकलिंग) शब्दों का (द्वन्द्व एकवद् होता है)। अध्याय गम्यमान होने पर (ही ठञ् प्रत्यय होता है)। ...अध्युत्तरपदात् - V. iv.7 ...अध्वानौ-VI. iv. 169 देखें- अषडक्षाशितं. V. iv.7 देखें- आत्माध्वानौ VI. iv. 169 ...अध्यै...-III. iv.9 अन् -v.iii.5 देखें-सेसेनसे III. iv.9 (दिक्शब्देभ्यः सप्तमी.'v.iii. 27 सूत्र तक कहे जाने ...अध्यैन्... -III. iv.9 वाले प्रत्ययों के परे रहते एतत् के स्थान में) अन् आदेश देखें-सेसेनसे III. iv.9 होता है। ... Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 27 अनजः अन् - V. 1.48 (भाग अर्थ में वर्तमान परणार्थक तीयप्रत्ययान्त प्रातिपदिकों से स्वार्थ में) अन् प्रत्यय होता है। अन्...-v.iv. 103 देखें-अनसन्तात् V. iv. 103 अन् -VI. ii. 161 देखें- तन्नन् VI. ii. 161 अन् - VI. iv. 167 (भसञ्जक)अन् अन्तवाले अङ्ग को (अण् परे रहते प्रकृतिभाव हो जाता है)। अन् - VII. ii. 112 (ककार से रहित इदम् शब्द के इद् भाग को ) अन् आदेश होता है, (आप् विभक्ति परे रहते)। अन...-VII.i.1 देखें- अनाको VII. I. 1. अनः - IV.1.12 .. (बहुव्रीहि समास में) जो अन्नन्त प्रातिपदिक. उससे (स्त्रीलिंग में डीप् प्रत्यय नहीं होता)। अनः - IV.i. 28 अन्नत जो (उपधालोपी बहुव्रीहि समास), उससे (स्त्रीलिंग में विकल्प से ङीप् प्रत्यय होता है)। अनः -V. iv. 108 (अव्ययीभाव समास में वर्तमान) अनन्त प्रातिपदिक से (भी समासान्त टच् प्रत्यय होता है)। अन -VI. ii. 150 ' (भाव तथा कर्मवाची) अन् प्रत्ययान्त उत्तरपद को (कारक से उत्तर अन्तोदात्त होता है)। अनः-VI. iv. 134 (भसञक अन् अन्तवाले अङ्ग के) अन् के (अकार का लोप होता है)। अन: - VIII. ii. 16 . (वेद-विषय में) अन अन्तवाले शब्द से उत्तर (मतप को नुट् आगम होता है)। अन: -VIII. iii. 108 अनकारान्त (सन् धात) के (सकार को वेद-विषय में मूर्धन्य आदेश होता है)। अनक्षे-.iv.74 (ऋक्, पुर, अप.धुर् तथा पथिन् शब्द अन्त में हैं जिस समास के, तदन्त से समासान्त अप्रत्यय होता है,) यदि वह (धुर) अक्षसम्बन्धी न हो तो। अनग्लोपे- VII. iv.93 (चङ्परक णि के परे रहते अङ्ग के अभ्यास को लघु धात्वक्षर परे रहते सन् के समान कार्य होता है, यदि अङ्ग के) अक् प्रत्याहार का लोप न हुआ हो तो। अनङ्-V. iv. 131 (ऊधस् शब्दान्त बहुव्रीहि को समासान्त) अनङ् आदेश होता है। अनङ्-VII. 1.75 (नपुंसकलिङ्ग वाले अस्थि, दधि, सक्थि, अक्षि - इन अङ्गों को तृतीयादि अजादि विभक्तियों के परेरहते) अन आदेश होता है (और वह उदात्त होता है)। अनङ्-VII.1.93 __ (सखि अङ्गको सम्बुद्धिभिन्न सु परे रहते) अनङ् आदेश होता है। अनङि-VI. iv. 98 (गम,हन,जन,खन,घस्- इन अङ्गों की उपधा का लोप हो जाता है), अभिन्न (अजादि कित. ङित्) प्रत्यय परे हो तो। अनचि- VIII. iv.46 (अच से उत्तर यर को विकल्प करके) अच परे न हो तो (भी द्वित्व हो जाता है)। अनजिरादीनाम् - VI. iii. 118 अजिरादि शब्दों को छोड़कर (मतुप् परे रहते बच् शब्दों के अण को दीर्घ होता है,सज्ञा विषय में)। अन -II.1.59 नज रहित (क्तान्त सुबन्त) शब्द (नविशिष्ट समानाधिकरण क्तान्त सुबन्त के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होता है और वह तत्पुरुष समास होता है)। अन... -II. iv. 19 देखें- अनब्कर्मधारयः II. iv. 19 अनत्रः - VI. iv. 127 (अर्वन् अङ्ग को तृ आदेश होता है.यदि अर्वन शब्द से परे सुन हो तथा वह अर्वन शब्द) नब से उत्तर (भी) न हो तो। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकर्मधारयः अनकर्मधारयः - II. iv. 19 नञ् तथा कर्मधारय वर्जित (तत्पुरुष नपुंसकलिंग होता है । अनपूर्वे VII. 1. 37 नज् से भिन्न पूर्व अवयव है जिसमें, ऐसे (समास) में (क्त्वा के स्थान में ल्यप् आदेश- होता है)। अनञ्समासे - VI. 1. 128 ककार जिनमें नहीं है तथा ) जो नव् समास में वर्तमान नहीं है, ऐसे (एतत् तथा तत्) शब्दों के (सु का लोप हो जाता है, हल परे रहते, संहिता के विषय में)। - अनपुर- VII. 1. 82 (सु परे रहते) अनडुह अङ्ग को (नुम् आगम होता है)। ... अनडुहाम् - VIII. ii. 72 देखें वसुखसुo VIII. ii. 72 ...अनडुहो - VII. i. 98 देखें - चतुरनडुहो: VII. 1. 98 अनतः VII. i. 5 अकारान्त अङ्ग से उत्तर (आत्मनेपद में वर्तमान जो प्रत्यय का झकार, उसके स्थान में अत् आदेश होता है)। अनत्यन्तगतौ - V. iv. 4 - (क्त प्रत्यय अन्त वाले प्रातिपदिकों से) निरन्तर सम्बन्ध गम्यमान न हो तो (कन् प्रत्यय होता है ) । अनत्याधाने - I. Iv. 74 अत्याधान चिपकाकर न रखने विषय में (उरसि तथा मनसि शब्दों की कृञ् धातु के योग में विकल्प से गति और निपात संज्ञा होती है)। अनदिते: - VIII. iii. 50 (कः करत्, करति, कृषि, कृत इनके परे रहते) अदिति को छोड़कर (जो विसर्जनीय, उसको सकारादेश होता है, वेद-विषय में)। - अनद्यतनवत् - III. iii. 135 (क्रियाप्रबन्ध तथा सामीप्य गम्यमान हो तो धातु से) अनद्यतन के समान (प्रत्ययविधि नहीं होती); अर्थात् सामान्यभूत में कहा हुआ लुङ और सामान्य भविष्यत् में कहा हुआ लद ही होंगे। = क्रियाप्रबन्ध निरन्तरता के साथ क्रिया का अनुष्ठान । सामीप्य = तुल्यजातीय काल का व्यवधान न होना । 28 अनलने - III. II. 111 अनद्यतन = जो आज का नहीं है ऐसे (भूतकाल ) में वर्तमान (धातु से लङ् प्रत्यय होता है)। अनन्तावसचेतिकात् अनद्यतने - III. iii. 15 अनद्यतन = जो आज का नहीं है ऐसे (भविष्यत्काल) में (धातु से लुट् प्रत्यय होता है) । अनद्यतने - V. iii. 21 (सप्तम्यन्त किम्, सर्वनाम और बहु प्रातिपदिकों से हिल् प्रत्यय विकल्प से होता है), अनद्यतन काल विशेष को कहना हो तो । अनधिकरणवाचि - II. Iv. 13 अद्रव्यवाची (परस्परविरुद्ध अर्थ वाले शब्दों का (द्वन्द्व विकल्प से एकवद् होता है)। अनध्वनि - II. III. 12 (चेष्टा क्रिया वाली गत्यर्थक धातुओं के) मार्ग रहित (कर्म) में (द्वितीया और चतुर्थी विभक्ति होती है)। ....अनन्त.... III. . 21 देखें - दिवाविभा० III. . 21 - अनन्त... - Viv. 23 देखें- अनन्तावसचेo Viv. 23 : अनन्तरः VI. ii. 49 (कर्मवाची क्तान्त उत्तरपद रहते पूर्वपदस्य) अव्यवहित (गति) को (प्रकृतिस्वर होता है) । - अनन्तरम् - VIII. 1. 37 ( यावत् और यथा से युक्त) अव्यवहित (तिङन्त को पूजा विषय में अननुदान नहीं होता अर्थात् अनुदात्त ही होता है)। अनन्तरम् - VIII. 1. 49 (अविद्यमान पूर्ववाले आहो उताहो से युक्त) व्यवधा नरहित (तिङ्) को (भी अनुदात्त नहीं होता है) । अनन्तराः - I. i. 7 व्यवधानरहित = जिनके बीच में अच् न हों, ऐसे (दो या दो से अधिक हलों की संयोग संज्ञा होती है)। अनन्तः पादम् - III. 1. 66 (हव्य सुबन्त उपपद रहते वेदविषय में वह धातु से युट् प्रत्यय होता है, यदि वह धातु) पाद के अन्तर अर्थात् मध्य में वर्तमान न हो तो । अनन्तावसथेतिह भेषजात् - V. iv. 23 अनन्त, आवसथ, इतिह तथा भेषज प्रातिपदिकों से (स्वार्थ में ञ्य प्रत्यय होता है) । i Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्तिके अनन्तिके - VIII. 1. 55 (आम् से उत्तर एक पद का व्यवधान है जिसके मध्य में, ऐसे आमन्त्रित सञ्चक पद को अनन्तिक न दूर, न समीप अर्थ में (अनुदात्त नहीं होता) । = ...अनन्तेषु - III. ii. 48 देखें - अन्तात्यन्ता० III. ii. 48 अनन्त्ययो: - VII. ii. 106 ( त्यदादि अंगों के) अनन्त्य = जो अन्त में नहीं है, ऐसे (तकार तथा दकार) के स्थान में (सु विभक्ति परे रहते सकारादेश होता है)। अनन्त्यस्य VII. ii. 79 (सार्वधातुक में लिङ् लकार के) अनन्त्य = में नहीं है, ऐसे (सकार) का (लोप होता है)। - अनन्त्यस्य - VIII, ii. 86 (ऋकार को छोड़कर वाक्य के) अनन्त्य = जो अन्त में न हो ऐसे (गुरुसञ्ज्ञक) वर्ण को (एक-एक करके तथा अन्त्य केटि को भी प्राचीन आचार्यों के मत में प्लुत उदात्त होता है) । • VIII. ii. 105 अनन्त्यस्य (वाक्यस्थ) अनन्त्य = जो अन्त में नहीं है ऐसे (एवं अपि ग्रहण से अन्त्य) पद की (टि को भी प्रश्न एवं आख्यान होने पर प्लुत उदात्त होता है) । अपने III. 1. 68 जो अन्त - अन्नभिन्न (सुबन्त उपपद रहते (अद् धातु से 'विट्' प्रत्यय होता है)। अनपत्ये - IV. 1. 88 (प्राग्दीव्यतीय अर्थों में विहित ) अपत्य सन्तान अर्थ से भिन्न ( द्विगुसम्बन्धी जो तद्धित प्रत्यय, उसका लुक होता है)। = अनपत्ये - VI. iv. 164 अपत्य = सन्तान अर्थ से भिन्न अर्थ में वर्तमान (अण् प्रत्यय के परे रहते भसव्वक इन्नन्त अङ्ग को प्रकृतिभाव हो जाता है)। अनपत्ये - VI. iv. 173 = अपत्य सन्तान अर्थ से भिन्न (अण्) परे रहते (औक्षम् - यहाँ टिलोप निपातन किया जाता है)। अनपादाने - VIII. 1. 48 (अबु धातु से उत्तर निष्ठा के तकार को नकारादेश होता है, यदि अच्चु के विषय में) अपादान कारक का प्रयोग न हो रहा हो तो । 29 अनपुंसकम् - II. Iv. 4 नपुंसकभिन्न (अध्वर्युक्रतु वाचकों का द्वन्द्व एकवद् होता है) । अनपुंसकस्य 1.1.42 नपुंसकलिङ्ग भिन्न (सु) की (सर्वनामस्थान संज्ञा होती है) । अनपुंसकेन (नपुंसकलिंग शब्द) नपुंसकलिंगभिन्न अर्थात् स्त्रीलिंग पुल्लिंग शब्दों के साथ (शेष रह जाता है तथा स्त्रीलिंग, पुल्लिंग शब्द हट जाते हैं, एवं उस नपुंसकलिंग शब्द को एकवत् कार्य भी विकल्प करके हो जाता है, यदि उन शब्दों में नपुंसक गुण एवं अनपुंसक गुण का ही वैशिष्ट्य हो, शेष प्रकृति आदि समान ही हो ) । — अनवक्लृप्त्यमर्षयोः - I. ii. 69 अनपेते - IV. iv. 92 (पञ्चमीसमर्थ धर्म, पथिन्, अर्थ, न्याय- इन प्रातिपदिकों से) अनुकूल अर्थ में (यत् प्रत्यय होता है ) । अनभिहिते - II. iii. 1 = अनभिहित अनुक्त- अनिर्दिष्ट (कर्मादि कारकों) में (विभक्ति होवे यह अधिकार सूत्र है)। - अनभ्यासस्य - VI. 1. 8 (लिट् के परे रहते धातु के अवयव) अभ्याससञ्चारहित (प्रथम एकाच् एवं अजादि के द्वितीय एकाच्) को (द्वित्व होता है। - - ...3-44-V. ii. 9 देखें - अनुपदसर्वान्नायानयम् V. ii. 9 अनर्थकौ - I. iv. 92 (अधि, परि शब्द) यदि अन्य अर्थ के द्योतक न हों तो (कर्मप्रवचनीय और निपातसंज्ञक होते हैं) । अनल्विधौ 1.1.55 - अल से परे विधि, अल् के स्थान में विधि अल् परे रहते विधि, अल् के द्वारा विधि - इनको छोड़कर (आदेशस्थानी के तुल्य होता है) । ... अनवः I. iv. 89 देखें प्रतिपर्यनयः 1. iv. 89 अनवक्लृप्ति... - III. iii. 145 देखें अनवक्लृप्त्यमर्षयोः III. III. 145 अनवक्लृप्त्यमर्षयोः - III. II. 145 असम्भावना तथा सहन न करना गम्यमान हो तो (किंवृत्त उपपद न हो या किंवृत्त उपपद हो तो भी धातु से कालसामान्य में सब लकारों के अपवाद लिइ तथा लुट् प्रत्यय होते हैं। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनवने अनाध्याने अनवने -I. iii. 66 अनाचितादीनाम् -VI. ii. 146 पालन करने से भिन्न अर्थ में (भुज धातु से आत्मनेपद (गति, कारक तथा उपपद से उत्तर क्तान्त उत्तरपद को होता है)। अन्तोदात्त होता है,सज्ञा विषय में),आचितादि शब्दों को अनव्ययस्य-VI. iii. 65 छोड़कर। (ख इत्सञक है जिसका, ऐसे शब्द के उत्तरपद रहते) . ...अनाच्छादन...-IV.i. 42 अव्यय-भिन्न शब्द को (हस्व हो जाता है)। देखें-वृत्त्यमत्रावपना IV. 1. 42 37operar - VIII. iii. 46 अनाच्छादनात् - VI.ii. 170 (अकार से उत्तर समास में जो अनुत्तरपदस्थ) अव्यय आच्छादनवाची शब्द को छोड़कर जो (जातिवाची शब्द भिन्न का विसर्जनीय, उसको नित्य ही सकारादेश होता तथा कालवाची एवं सुखादि) शब्द, उनसे उत्तर (क्तान्त उत्तरपद को कृत, मित तथा प्रतिपन्न शब्दों को छोड़कर है; कृ,कमि,कंस,कुम्भ, पात्र,कुशा,कर्णी- इन शब्दों अन्तोदात्त होता है,बहुव्रीहि समास में)।' के परे रहते)। अनात् -VI. I. 197 अनस्...-v.iv.94 (दो अचों वाले निष्ठान्त शब्दों के आदि को उदात्त होता देखें- अनोश्माय: V. iv. 94 है,सज्ञा विषय में), आकार को छोड़कर। अनसन्तात् - V. iv. 103 अनाति-VI. iv. 191 (नपुंसक लिंग में वर्तमान) अन्नन्त तथा असन्तरतत्पुरुष) (हल से उत्तर भसञ्जक अङ्ग के अपत्य-सम्बधी यकार से (समासान्त टच् प्रत्यय होता है, वेदविषय में)। का भी) अनाकारादि (तद्धित) परे रहते (लोप होता है)। अनस्ते: -VIII. 1. 73 अनात्मनेपदनिमित्ते - VII. I. 36 अस् को छोड़कर (जो सकारान्त पद. उसको तिप परे (स्नु तथा क्रम् के वलादि आर्धधातुक को इट आगम रहते दकारादेश होता है)। होता है, यदि स्नु तथा क्रम) आत्मनेपद के निमित्त न हों अनहोरात्राणाम् -III. iii. 137 (कालकृत मर्यादा में अवर भाग कहना हो तो भी ...अनादरयो: -1. in.62 भविष्यत्काल में धातु से अनद्यतन की तरह प्रत्यय-विधि नहीं होती, यदि वह काल का मर्यादा विभाग) दिन-रात अनादरे -II. iii. 17 अनादर गम्यमान होने पर (मन धात के प्राणिवर्जित कर्म सम्बन्धी न हो। में चतुर्थी विभक्ति विकल्प से.होती है)। अनाकावे-III. iv. 23 है अनादरे - II. iii. 38 (समानकर्त्तावाले धातुओं में से पूर्वकालिक धात्वर्थ में (जिसकी क्रिया से क्रियान्तर लक्षित हो.उसमें) अनादर वर्तमान धातु से यद् शब्द उपपद होने पर क्त्वा और गम्यमान होने पर (षष्ठी तथा सप्तमी विभक्ति होती है)। णमुल् प्रत्यय नहीं होते),यदि अन्य वाक्य की आकाङ्क्षा अनादेशादेः-VI. iv. 120न रखने वाला वाक्य अभिधेय हो। लिट् परे रहते) जिस अङ्ग के आदि को आदेश नहीं अनाको-VII.i.1 हुआ है, उसके (असहाय हलों के बीच में वर्तमान जो (अङ्गसम्बन्धी यु तथा वु के स्थान में यथासङ्ख्य करके) अकार, उसको एकारादेश तथा अभ्यासलोप हो जाता है; अन तथा अक आदेश होते हैं। कित,डित् लिट् परे रहते)। अनाङ्-I.1.14 अनादेशे-VII. 1.86 आशब्दवर्जित (निपात प्रगृह्य संज्ञक होते हैं)। (युष्मद् तथा अस्मद् अंग को) आदेशरहित (विभक्ति) अनाचमे: -VII. 1.34 परे रहते (आकारादेश होता है)। (उपदेश में उदात्त तथा मकारान्त धातु को चिण तथा अनाध्याने -1. iii. 43 __ अनाध्यान = उत्कण्ठापूर्वक स्मरण करने अर्थ से भिन्न जित, णित् कृत् परे रहते जो कहा गया वह नहीं होता), अर्थ में वर्तमान (सम् तथा प्रति पूर्वक ज्ञा धातु से आत्मआयूर्वक चम् धातु को छोड़कर । नेपद होता है)। तो। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनाण्याने 31 अनितेः . अनाध्याने -I. iii.67 (अण्यन्तावस्था में जो कर्म.वही यदि ण्यन्तावस्था में कर्ता बन रहा हो तो,ऐसी ण्यन्त धातु से आत्मनेपद होता है) आध्यान = उत्कण्ठा-पूर्वक स्मरण अर्थ को छोड़कर। अनाम् -VIII. iv. 41 (पदान्त टवर्ग से उत्तर सकार और तवर्ग को षकार और टवर्ग नहीं होता),नाम् को छोड़कर । ...अनायास...- VII. ii. 18 देखें-मन्थमनस० VII. ii. 18 अनातवे-VI. 1.9 अनार्तवाची अर्थात ऋत में न होने वाले (शारद शब्द में) उत्तरपद परे रहते (तत्पुरुष समास में पूर्वपद को प्रकृतिस्वर होता है)। अनार्ययोः - IV. 1.78 (गोत्र में विहित) ऋष्यपत्य से भिन्न (अण् और इञ् प्रत्ययान्त उपोत्तम गुरुवाले) प्रातिपदिकों को (स्त्रीलिङ्ग में ष्यङ् आदेश होता है)। अनावे-1.1.16 अवैदिक (इति शब्द) परे रहते (सम्बुद्धिसंज्ञा के निमित्त- भूत ओकारान्त की प्रगृह्य सज्ञा होती है,शाकल्य आचार्य के अनुसार)। अनालोचने-III. 1.60 आलोचन = देखना से भिन्न अर्थ में वर्तमान (दश धातु से त्यदादि उपपद रहते कब और क्विन् प्रत्यय होते हैं)। अनालोचने - VIII. I. 25 न देखना' अर्थ में वर्तमान (ज्ञान अर्थवाले धातुओं के योग में भी युष्मद् अस्मद् शब्दों को पूर्वसूत्रों से प्राप्त वाम् नौ आदि आदेश नहीं होते)। अनाव:-VI.i. 207 "(दो अचों वाले यत् प्रत्ययान्त शब्दों को आधुदात्त होता है), नौ शब्द को छोड़कर। अनाश्वान् -III.ii. 109 अनाश्वान् = नहीं खाया, शब्द निपातन से सिद्ध होता अनास्यविहरणे -I. iii. 20 मुख को खोलने अर्थ से भिन्न अर्थ में (आङपर्वक डुदाञ् धातु से आत्मेनपद होता है)। अनिः -III. Iii. 112 (क्रोषपूर्वक चिल्लाना गम्यमान हो तो नब उपपद रहते धातु से, स्त्रीलिङ्ग कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में ) अनि प्रत्यय होता है। अनिगन्तः - VI. ii. 52 इक अन्त में नहीं है जिसके, ऐसे (गतिसज्जक) को (वप्रत्ययान्त अञ्च धातु के परे रहते प्रकृतिस्वर होता है)। अनि -V.iv. 124 (केवल पूर्वपद से परे जो धर्मशब्द, तदन्त बहुव्रीहि से समासान्त) अनिच् प्रत्यय होता है । अनिषः -IV.I. 122 (इकारान्त) इबन्त-भिन्न (व्यच) प्रातिपदिकों से (भी अपत्यार्थ में ढक् प्रत्यय होता है)। अनिटः -III. 1. 45 इट रहित जो (शलन्त और इगपध) धातु. उससे उत्तर (च्लि के स्थान में क्स होता है,लुङ् परे रहते)। अनिटः -VII. ii. 61 उपदेश में जो (अजन्त धातु, तास् के परे रहते नित्य) अनिट् ,उससे उत्तर (तास के समान ही थल को इट् आगम नहीं होता)। अनिटि-VI.i. 182 (स्वपादि धातुओं के तथा हिंस धातु के अजादि) अनिट् (लसार्वधातुक) परे हो तो विकल्प से आदि को उदात्त हो जाता है)। अनिटि-VI. iv.51 अनिडादि (आर्धधातुक) के परे रहते (णि का विकल्प से लोप होता है)। अनितिपरम् -I. iv. 61 इति शब्द जिससे परे नहीं है,ऐसा जो (अनुकरणवाची) शब्द,(उसकी भी गति और निपात संज्ञा होती है)। अनिते: - VIII. iv. 19 (उपसर्ग में स्थित निमित्त से उत्तर पद के अन्त में वर्तमान) अन धातु के (नकार को णकार आदेश होता है)। अनासेक्ने -VII. iii. 102 (निस् के सकार को तपति परे रहते) अनासेवन = पुनः पुनःन करना अर्थ में (मूर्धन्य आदेश होता है)। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनिती अनुकरणम् अनितौ-v.iv.57 (अव्यक्त शब्द का अनुकरण, जिसमें अर्धभाग दो अच् वाला हो, उससे कृ,भू तथा अस् के योग में डाच प्रत्यय होता है), यदि इतिशब्द परे न हो तो। अनित्यसमासे-VI.1.163 अनित्यसमास = नित्य अधिकार में कहे हए समास (कुगतिप्रादयः II. I. 19 आदि) से अन्यत्र (अन्तोदात्त एकाच उत्तरपद के अनन्तर तृतीयादि विभक्ति विकल्प से उदात्त होती है)। अनित्ये-III. 1. 127 । अनित्य अर्थ में (आनाय्य शब्द आपूर्वक नी धातु से ण्यत् प्रत्यय और आयादेश करके निपातन किया जाता अनित्ये -v.iv. 31 नित्यधर्मरहित (वर्ण) अर्थ में वर्तमान (लोहित प्रातिप- दिक से भी स्वार्थ में कन् प्रत्यय होता है)। अनित्ये -VI. 1. 142 अनित्य विषय में (आश्चर्य शब्द में सट आगम का निपातन किया जाता है)। अनिदिताम् - VI. iv.24 इकार जिसका इत्सझक नहीं है.ऐसे (हलन्त) अङ्गों की (उपधा के नकार का लोप होता है; कित.डित प्रत्ययों के परे रहते)। अनिधाने -VI. 1. 192 नि उपसर्ग से उत्तर उत्तरपद को अन्तोदात्त होता है). प्रकाशन अर्थ में। अनिरवसितानाम् -II. iv. 10 अनिरवसित = अबहिष्कृत (शद्रवाची) शब्दों का (द्वन्द्र एकवद् होता है)। ....अनिरोधेषु-III.1.101 देखें- ग पणितव्या. III. 1. 101 अनिवसन्तः -VI. 1.84 (ग्राम शब्द उत्तरपद रहते.पूर्वपद को आधुदात्त होता है, यदि पूर्वपद) निवास करने वाले को न कहता हो तो। अनिष्ठा - VI. 1.46 (क्तान्त उत्तरपद रहते कर्मधारय समास में) अनिष्ठा = क्त,क्तवतु से भिन्न अन्त वाले (पूर्वपद को प्रकृतिस्वर हो जाता है)। अनिष्ठायाम् - VIII. 1.73 (वि उपसर्ग से उत्तर स्कन्दिर धातु के सकार को) निष्ठा परे न हो तो (विकल्प से मूर्धन्य आदेश होता है)। अनीप्सितम् - I. iv. 50 (जिस प्रकार कर्ता का अत्यन्त ईप्सित = चाहा हुआ . . कारक क्रिया के साथ युक्त होता है,उसी प्रकार का का). न चाहा हुआ (कारक क्रिया के साथ युक्त हो तो उसकी कर्म संज्ञा होती है)। ...अनीयरः -III.1.96 देखें-तव्यत्तव्यानीयरः III.i.96 अनु...-I. iii. 21 देखें- अनुसम्परिभ्य: I. iii. 21 अनु...- I. iii. 79 देखें-अनुपराभ्याम् I. 1.79 . अनु...-I. iv. 41 देखें- अनुप्रतिगृण: I. iv.41 ...अनु...-I. iv. 48 देखें-उपान्वध्याइवस: I. iv. 48 ....अनु...-V. iv.75 देखें-प्रत्यन्वव०V.iv.75 अनु...-V.iv. 81 देखें- अन्ववतप्तात् V. iv.81 अनु...-VIII. iii. 72 देखें- अनुविपर्य० VIII. iii. 72 अनुः -1. iv. 83 - अनु शब्द (लक्षण द्योतित हो रहा हो तो कर्मप्रवचनीय और निपातसंज्ञक होता है)। अनुः-II.1.14 . (अनु शब्द जिसका समीपवाची हो, उस लक्षणवाची सुबन्त के साथ वह) अनु शब्द (विकल्प से समास को प्राप्त होता है और वह अव्ययीभाव समास होता है)। अनुक... -v.ii.74 देखें - अनुकाभिकाभीक: V. ii. 74 अनुकम्पायाम् -v.iii. 76, अनुकम्पा अर्थात् कृपादृष्टि गम्यमान हो तो (प्रातिपदिक से तथा तिङन्त से यथाविहित प्रत्यय होते हैं)। अनुकरणम् -I. iv. 61 (इतिशब्द जिससे परे नहीं है,ऐसा) अनुकरणवाची शब्द (भी गति और निपातसंज्ञक होता है, क्रियायोग में)। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकरणस्य अनुदात्तस्य अनुदात्त..- I.ii. 12 देखें- अनुदात्तडित I. 1. 12 अनुदात-I. 1.30 (उच्चारणस्थान के अधोभाग से उच्चारित अच् की) अनुदात्त संज्ञा होती है। अनुदात - I. I. 38 (देव तथा ब्रह्मन् शब्द को स्वरित के स्थान में )अनुदात्त होता है। - अनुदात्त -II. iv. 32 (अन्वादेश में वर्तमान इदम् के स्थान में)अनुदात्त(अश्' आदेश) होता है, (तृतीया आदि विभक्ति परे रहते)। अनुदात्तडितः - I.1.92 अनुदात्त जिसका इत्संज्ञक हो उस धातु से तथा डकार जिसका इत्सजक हो उस धातु से (आत्मनेपद होता है)। अनुदात्तम् -VI.1. 152 जिस एक पद में उदात्त या स्वरित विधान किया है,उसके एक अचको छोड़करशेषपद)अनुदात्त अच्वालाहोजाता ...अनुकरणस्य-VI.1.95 देखें- अव्यक्तानुकरणस्य VI.1.95 अनुकाभिकाभीक: - V. 1.74 'इच्छा करने वाला' अर्थ में) अनक. अभिक. तथा अभीक शब्दों का निपातन किया जाता है। ...अनुकामम्..- V. 1. 11 देखें- अवारपारात्यन्ता० V.ii. 11 अनुगवम् -V. iv. 83 अनुगव शब्द अच्अत्ययान्त निपातन किया जाता है, (लम्बाई अभिधेय हो तो)। अनुगादिनः-.iv. 13 अनुगादिन प्रातिपदिक से (स्वार्थ में ठक प्रत्यय होता है)। अनुगुः -V. 1. 15 (द्वितीयासमर्थ) अनुगुप्रातिपदिक से (पर्याप्त जाता है', अर्थ में ख प्रत्यय होता है)। अनुज्ञेषणायाम् - VIII. I. 43 अनुमति की इच्छा विषय में (ननु शब्द से युक्त तिडन्त को अनुदात्त नहीं होता)। अनुतापे-III. 1.65 पश्चात्ताप अर्थ में (तथा कर्मकर्ता में तप् धातु से उत्तर च्लि को चिण आदेश नहीं होता,त शब्द परे रहने पर)। ...अनुत्त... -VIII. 1.61 देखें-नसत्तनिक्त्ता०VIII. 1.61 अनुत्तमम् - VIII. I. 53 गत्यर्थक धातुओं के लोडन्त से युक्त उपसर्गसहित एवं) उत्तमपुरुषवर्जित (जो लोडन्त तिङन्त, उसे विकल्प करके अनुदात्त नहीं होता, यदि कारक सभी अन्य न हों तो)। अनुत्तरपदस्थस्य - VIII. ill. 45 " जो उत्तरपद में स्थित नहीं है. ऐसे (इस.उस) के (विसर्जनीयको समास विषय में नित्य ही षत्व होता है;कवर्ग.पवर्ग परे रहते)। अनुदके-III. ii. 58 उदक= पानी से भिन्न (सुबन्त)उपपद रहते (स्पृश धातु से क्विन् प्रत्यय होता है)। अनुदके-III. iii. 123 उदक विषय न हो तो (पुंल्लिग में उत् पूर्वक अच धातु से घञ् प्रत्ययान्त उदक शब्द निपातन किया जाता है; अधिकरण कारक में,संज्ञा विषय होने पर)। अनुदात्तम् - VI. 1. 180 (तासि प्रत्यय,अनुदात्तेत् धातु,ङित् धातु तथा उपदेश में जो अवर्णान्त- इनसे उत्तर लकार के स्थान में जो सार्वधातुक प्रत्यय, वे) अनुदात्त होते हैं; (एछ तथा इङ् धातु को छोड़कर)। अनुदात्तम् -VIII.1.3 (जिसकी आमेडित सजा होती है, वह) अनुदात्त (भी) होता है। अनुदात्तम् - VIII. 1. 18 (यहां से आगे जो कुछ भी कहेगें,वह पाद के आदि में न हो तो सारा) अनुदात्त होता है, (ऐसा जानना चाहिए। अनुदात्तम् - VIII. 1.67 (पूजनवाची शब्दों से उत्तर पजितवाची शब्दों को) अनुदात्त होता है। अनुदात्तम् - VIII. II. 100 (प्रश्नान्त तथा अभिपूजित में विधीयमान प्लुत को) अनुदात्त होता है। अनुदात्तस्य-VI.1.58 (उपदेश में) जो अनुदात्त (तथा ऋकार उपधा वाली धातु), उस को (विकल्प से अम् आगम होता है, अकित् झलादि प्रत्यय परे रहते)। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुदात्तस्य 34 अनुनासिक अनुदात्तस्य-VI.1. 155 ....अनुदात्तेत्... - VI. 1. 180 (जिस अनुदात्त के परे रहते उदात्त का लोप हो, उस देखें-तास्यनुदात्तेतू. VI.1. 180 ... अनुदात्त को (भी आदि उदात्त हो जाता है)। अनुदात्ततः -III. ii. 149 अनुदात्तस्य - VIII. 1.4 (हलादि) अनुदात्तेत् धातुओं से (भी तच्छीलादि कर्ता हो (उदात्त तथा स्वरित के स्थान में वर्तमान यण से उत्तर) तो वर्तमानकाल में युच् प्रत्यय होता है)। अनुदात्त के स्थान में (स्वरित आदेश होता है)। अनुदात्तोपदेश... - VI. iv. 37 अनुदात्तस्य-VIII. IN.65 देखें - अनुदात्तोपदेशवनतिक VI. iv. 37 (उदात्त से उत्तर) अनुदात्त को (स्वरित होता है)। अनुदात्तोपदेशवनतितनोत्यादीनाम् -VI. iv. 37 अनुदात्तात् - IV.1.39 __ अनुदात्तोपदेश और जो अनुनासिकान्त,उनके तथा वन (वर्णवाची अदन्त अनुपसर्जन) अनुदात्तान्त (तकार उप- एवं तनोति आदि अङ्गों के ( अनुनासिक का लोप होता धा वाले) प्रातिपदिकों से (विकल्प से स्त्रीलिङ्ग में डीप है,झलादि कित् ङित् प्रत्ययों के परे रहते)। : प्रत्यय तथा तकार को नकारादेश हो जाता है)। । अनुदात्तौ-II. iv. 33 अनुदात्तात् - VII. II. 10 (अन्वादेश में वर्तमान एतद को त्र और तस् परे रह अनुदात्त अश् आदेश होता है और वेत्र,तस प्रत्यय भी) (उपदेश में एक अच् वाले तथा) अनुदात्त धातु से उत्तर अनुदात्त होते हैं । (इट का आगम नहीं होता)। अनुदात्तादेः-IV. II. 43 अनुदात्तौ -III.i.4 (षष्ठीसमर्थ) अनुदात्तादि शब्दों से (समूहार्थ में अञ् (सुप्स्वादि तथा पित् प्रत्यय) अनुदात्त होते हैं। .. प्रत्यय होता है)। अनुदीचाम् - VI. ii. 89 अनुदातादेः-IVil. 137 (नगर शब्द उत्तरपद रहते महत् तथा नव शब्द को छोड़(षष्ठीसमर्थ ) अनुदात्तादि प्रातिपदिकों से (भी विकार कर पूर्वपद को आधुदात्त होता है, यदि वह नगर) उदीच्य .. और अवयव अर्थों में अब प्रत्यय होता है)। प्रदेश का न हो तो । अनुदात्तादौ-VI. ii. 142 अनुदेश: - I. iii. 10 (देवतावाची द्वन्द्व समास में) अनुदात्तादि उत्तरपद रहते (सम सङ्ख्या वाले शब्दों के स्थान में) पीछे आने वाले (पृथिवी,रुद्र,पूषन,मन्थी को छोड़कर एक साथ पूर्व तथा शब्द (यथाक्रम होते हैं)। उत्तरपद को प्रकृतिस्वर नहीं होता है)। अनुधमने - III. i.9 अनद्यमन = परुषार्थ सम्पादित न करना अर्थ में वर्तः अनुदात्तानाम् -I. I. 39 मान (ह धातु से कर्म उपपद रहते अच् प्रत्यय होता है)। (स्वरित से उत्तर) अनुदात्तों को (संहिता -विषय में एक अनुनासिक - VI. iv. 37 श्रुति होती है)। (अनुदात्तोपदेश और जो अनुनासिकान्त,उनके तथा वन अनुदाते-VI. I. 116 एवं तनोति आदि अङ्गों के) अनुनासिक का (लोप होता है, (यजुवेंद-विषय में कवर्ग तथा धकारपरक) अनुदात्त झलादि कित,डित् प्रत्ययों के परे रहते)। झलादाकत,ङित् प्रत्यया क (अकार के परे रहते (भी एङ को प्रकृतिभाव होता है)। अनुनासिकः -1.1.8 अनुदाते -VI.I. 184 (कुछ मुख से तथा कुछ नासिका से अर्थात् दोनों की जिसमें उदात्त अविद्यमान है,ऐसे (असार्वधातुक) के परे सहायता से बोले जाने वाले वर्ण की) अनुनासिक संज्ञा रहते (भी अभ्यस्तसज्जकों के आदि को उदात्त होता है)। होती है। अनुदात्ते - VIII. 1.6 अनुनासिकः -I. iii.2 (पदादि) अनुदात्त के परे रहते (उदात्त के स्थान में हुआ (उपदेश में वर्तमान ) अनुनासिक (अच् इत्सजक होता जो एकादेश,वह विकल्प करके स्वरित होता है)। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुनासिकः अनुपसर्गात् अनुनासिक: -VI.i. 122 अनुपदसर्वान्नायानयम् - V.ii.9 (आङ को अच परे रहते संहिता के विषय में बहुल (द्वितीयासमर्थ) अनुपद, सर्वान्न तथा अयानय प्रातिकरके) अनुनासिक आदेश होता है (तथा उस अनुनासिक पदिकों से (यथासङ्ख्य करके 'सम्बद्ध', 'खाता है तथा को प्रकृतिभाव भी होता है)। 'ले जाने योग्य' अर्थों में ख प्रत्यय होता है)। अनुनासिक: -VIII. iii.2 अनुपदी - V. 1. 90 . (यहां से आगे जिसको रु विधान करेंगे, उससे पूर्व के (अन्वेष्टा=पीछे जाने वाला अर्थ में) अनुपदी शब्द का वर्ण को विकल्प से) अनुनासिक आदेश होता है, ऐसा निपातन किया जाता है । अधिकार इस रुत्व विधान के प्रकरण में समझना चाहिए। अनुपदेशे-I.iv.69 अनुनासिक: - VIII. iv. 44 अनुपदेश = जो स्वयं सोचा जाये,उस विषय में (अदस् (पदान्त यर प्रत्याहार को अनुनासिक परे रहते विकल्प शब्द क्रियायोग में गति और निपात संज्ञक होता है)। से) अनुनासिक आदेश होता है । अनुपराभ्याम् -I. iii. 79 अनुनासिक: - VIII. iv. 56 _अनु और परा उपसर्ग से उत्तर (कन धातु से परस्मैपद (अवसान में वर्तमान प्रगृह्य-सञक से भिन्न अण् को होता है)। विकल्प से) अनुनासिक आदेश होता है । अनुपसर्गम् -VI. 1. 154 अनुनासिकस्य - VI. iv. 15 (ततीयान्त से परे) उपसर्गरहित (मिश्र शब्द उत्तरपद को अनुनासिकान्त अङ्गकी (उपधा को दीर्घ होता है,क्विप भी अन्तोदात्त होता है. असन्धि गम्यमान होने पर)। तथा झलादि कित, ङित् प्रत्यय परे रहते) । अनुपसर्गम् - VIII. I. 44 अनुनासिकस्य-VI. iv. 41 (क्रिया के प्रश्न में वर्तमान किम शब्द से युक्त) उपसर्ग से रहित (तथा प्रतिषेधरहित तिङन्त को अनुदात्त नहीं .. (विट् तथा वन् प्रत्यय परे रहते) अनुनासिकान्त अङ्गको । होता)। (आकारादेश होता है)। अनुनासिकात् - VIII. iii. 4 अनुपसर्गस्य -III. iii.75 उपसर्गरहित (हृञ् धातु) से (भाव में अप् प्रत्यय तथा (रु से पूर्व) अनुनासिक से अन्य वर्ण से (परे अनुस्वार सम्प्रसारण हो जाता है)। आगम होता है, संहिता में)। अनुपसर्गात् -I. iii. 43 अनुनासिकान्तस्य - VII. iv. 85 उपसर्गरहित (क्रम् धातु) से विकल्प से आत्मनेपद होता अनुनासिकान्त अङ्ग के (अकारान्त अभ्यास को नुक . है)। आगम होता है, यङ् तथा यङ्लुक् परे रहते)। अनुपसर्गात् -I. iti. 76 अनुनासिके - VI. iv. 19 उपसर्गरहित (ज्ञा धातु) से (आत्मनेपद होता है, यदि (च्छ और व् के स्थान में यथासङ्ख्य करके श और क्रिया का फल कर्ता को मिलना हो तो)। ऊ आदेश होता है), अनुनासिकादि (तथा क्विप् और अनुपसर्गात् -III.i.71 झलादि कित्, डित) प्रत्ययों के परे रहते। उपसर्गरहित (यस धातु) से (विकल्प से श्यन् प्रत्यय अनुनासिके - VIII. iv. 44 होता है,कर्तृवाची सार्वधातुक परे रहते)। (पदान्त यर प्रत्याहार को) अनुनासिक परे रहते (विकल्प अनुपसर्गात् -- III. 1. 138 उपसर्गरहित (लिम्प,विन्द,धारि,पारि,वेदि,उदेजि,चेति, . से अनुनासिक आदेश होता है)। साति और साहि) धातु से (भी श प्रत्यय होता है)। अनुपद... -V.ii.9 अनुपसर्गात् - VIII. ii. 55 ' देखें- अनुपदसर्वान्ना० V.ii.9 उपसर्ग से उत्तर न होने पर (फुल्ल, क्षीब, कृश तथा । ...अनुपदम् - IV. iv.37 उल्लाघ शब्द निपातन किये जाते हैं)। देखें-माथोत्तरपदपदव्य० IV. iv. 37 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुपसर्गे अनुवाकयोः । अनुपसर्ग-III.1. 100 उपसर्गरहित (गद,मद,चर और यम् धातुओं से भी यत् प्रत्यय होता है)। अनुपसर्ग-III.1.142 उपसर्गरहित दु और नी धातुओं से 'ण' प्रत्यय होता अनुपसर्ग-III. 1.3 उपसर्गरहित (आकारान्त धातु से कर्म उपपद रहते क प्रत्यय होता है)। अनुपसर्गे-III. 1.24 . उपसर्गरहित (श्रि, णी तथा भू धातुओं से कर्तभिन्न । कारक संज्ञा तथा भाव में घञ्प्रत्यय होता है)। अनुपसर्ग-III. HI.61 ... उपसर्गरहित (व्यषु तथा जप धातुओं से कर्तभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में अप प्रत्यय होता है)। अनुपसर्ग-III. 1.67 उपसर्गरहित (मद् धातु से कर्तभिन्न कारक संज्ञा तथा । भाव में अप् प्रत्यय होता है)। अनुपसर्जनात् - IV.1.14 त्यहॉ से आगे देवयशिशौचि.'IVi81 तक कहे जाने वाले प्रत्यय) अनुपसर्जन = प्रधान प्रातिपदिक से (हुआ करेंगे)। अनुपाख्ये-VI. III. 79 . (अप्रधान) अनमेय के उत्तरपद रहते (भी सह को स आदेश होता है)। अनुपात्यये-III. III. 38 (परिपूर्वक इण घात से) क्रम या परिपाटी गम्यमान होने पर (कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में घब् प्रत्यय होता अनुप्रयोगः - III. 1.4 (पूर्व के लोट् विधायक सूत्रों के द्वारा जिस धातु से लोट् का विधान किया हो,उसके पश्चात् उसी धातु का) बाद में प्रयोग होता है। अनुप्रयोगः -III. iv. 46 (कषादि धातुओं में यथाविधि) अनुप्रयोग होता है अर्थात् जिस धातु से णमुल का विधान करेंगे, उसका ही पश्चात् प्रयोग होता है। अनुप्रयोगस्य-1.11.63 (जिस धातु से आम् प्रत्यय किया गया है, उससे आम् प्रत्यय के समान ही) पश्चात् प्रयोग की गई (कृ धातु) से (आत्मनेपद हो जाता है)। अनुप्रवचनादिभ्यः -V.1.110 (प्रयोजन समानाधिकरणवाची प्रथमासमर्थ) अनुप्रवचनादि प्रातिपदिकों से (षष्ठ्यर्थ में छ'प्रत्यय होता है)। अनुबाहाणात् -IV. 1.67 (द्वितीयासमर्थ) अनुबाह्मण प्रातिपदिक से (अधीते' और 'वेद' अर्थों में इनि प्रत्यय होता है)। अनुभवति -V. 1. 10 (द्वितीयासमर्थ परोवर, परम्पर तथा पुत्रपौत्र प्रातिपदिकों से) अनुभव करता है' अर्थ में (ख प्रत्यय होता है)। अनुम: - VI.1.167 नुमरहित (अन्तोदात्त शतप्रत्ययान्त) शब्द से परे (नदी- . सज्ञक प्रत्यय तथा अजादि सर्वनामस्थानभिन्न विभक्ति को उदात्त होता है। ...अनुपूर्वम् - IV. iv. 28 देखें-प्रत्यनुपूर्वम् IV. iv. 28 ...अनुपूर्वात् - IV. II. 61 देखें- पर्यनुपूर्वात् IV. 1. 61 अनुप्रतिगृण -1.15.41 अनु एवं प्रतिपूर्वक गणाति धातु के प्रयोग में (पर्व का जो कर्ता,ऐसे कारक की भी सम्पदान संज्ञा होती है)। अनुप्रयुज्यते -III. 1. 40 (आम्प्रत्यय के पश्चात लिट्-परक कब का भी) बाद में प्रयोग होता है। ...अनुयाजो-VII. lil. 62 देखें-प्रयाजानुयाजौ VII. iii. 62 अनुयोगे - VIII. 1. 94 (निग्रह करने के पश्चात्) अनुयोग= जिस पक्ष से वह निगृहीत हुआ है, उसी मत का शब्दों द्वारा प्रकाश करना अर्थ में वर्तमान (जो वाक्य,उसकी टि को भी विकल्प से प्लुत उदात्त होता है)। ...अनुराधा ...-IV. 1.34 देखें-अविष्ठाफल्गुन्यनु० IV.III. 34 ...अनुरुष.. -III. ii. 142 देखें- सम्पचानुरुधा III. ii. 142 ....अनुवाकयो:-V. 1.60 देखें-अध्यायानुवाकयो: V. 1.60 • Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादे अनुवादे -II. iv.3 (चरणवाचियों का जो द्वन्द्व, उसको) अनुवाद = अन्य प्रमाणों से ज्ञात अर्थ का शब्द से कथनमात्र गम्यमान होने पर (एकवद्भाव हो जाता है)। अनुविपर्यभिनिभ्यः - VIII. iii. 72 अनु, वि, परि, अभि तथा नि उपसगों से उत्तर (स्यन्दू धातु के सकार को मूर्धन्य आदेश होता है, यदि प्राणी का कथन न हो रहा हो तो)। अनुशतिकादीनाम् - VII. ii. 10 अनुशतिक इत्यादि अङ्गों के (पूर्वपद तथा उत्तरपद दोनों के अचों में आदि अच् को भी बित् णित् अथवा कित् तद्धित परे रहते वृद्धि होती है)। अनुसमुद्रम् - IV. iii. 10 समुद्र के समीप अर्थ में वर्तमान (जो द्वीप,उससे शैषिक यञ् प्रत्यय होता है)। अनुसम्परिभ्यः - I. III. 21 अनु, सम्, परि (तथा आङ्) उपसर्ग से उत्तर (क्रीड् धातु से आत्मेनपद होता है)। ...अनुस्वार... - I.1.57 देखें - पदान्तद्विवचनवरेयलोप० 1.1.57 अनुस्वारः - VIII. iii. 4 (रु से पूर्व वर्ण,जो अनुनासिक से भिन्न है, उससे परे) अनुस्वार आगम होता है, (संहिता में)। अनुस्वारः - VIII. iii. 23. (पदान्त मकार को) अनुस्वार रहते, संहिता में)। अनुस्वारस्य-VIII. iv. 57 • अनुस्वार को (यय प्रत्याहार परे रहते परसवर्ण आदेश होता है)। ...अनूङ् - VI. iii. 33 (एक ही अर्थ में अर्थात् एक ही प्रवृत्तिनिमित्त को लेकर कहा है पुंल्लिग अर्थ को जिस शब्द ने,ऐसे) ऊङ्-वर्जित (भाषितऍस्क स्त्री) शब्द के स्थान पर (पुंल्लिङ्गवाची शब्द के समान रूप हो जाता है)। अनूचान:-III. ii. 108 अनूचान(= कहा) शब्द निपातन से सिद्ध होता है। अनूर्ध्वकर्मणि -I. iii. 24 अनूर्ध्वकर्म(= ऊपर उठने) अर्थ में वर्तमान न हो तो (उत् पूर्वक स्था धातु से आत्मनेपद होता है)। अनुच्छ:-III. 1.36 ऋच्छवर्जित (इजादि, गुरुमान् धातुओं) से (आम् प्रत्यय होता है,लौकिक विषय में,लिट् परे रहते)। अनृतः -VIII. 1.86 ऋकार को छोड़कर (वाक्य के अन्त्य गुरुसज्ञक वर्ण को एक-एक करके तथा अन्त्य के टि को भी प्राचीन आचार्यों के मत में प्लुत उदात्त होता है)। अनृषि -IV. 1. 104 (षष्ठीसमर्थ बिदादि प्रातिपदिकों से गोत्रापत्य में अब् प्रत्यय होता है, परन्तु इनमें) जो अनृषिवाची है, उनसे (अनन्तरापत्य में अज् होता है)। अनेकम् -II. 1. 24 (अन्य पदार्थ में वर्तमान) अनेक (सुबन्त परस्पर समास को विकल्प से प्राप्त होते है और वह समास बहुव्रीहि सजक होता है)। अनेकम् -VIII. 1.35 हि से युक्त साकाच) अनेक तिङन्तों) को (भी तथा अपि ग्रहण से एक को भी कहीं-कहीं अनुदात्त नहीं होता, वेद विषय में)। अनेकाच-VI. III. 42 (भाषितपुंस्क शब्द से उत्तर ङ्यन्त) अनेकाच शब्द को (हस्व हो जाता है; घ,रूप, कल्प, चेलट्, बुव, गोत्र, मत तथा हत शब्दों के परे रहते)। अनेकारः -VI. iv.82 (धातु का अवयव जो संयोग.वह पर्व नहीं है जिस इवर्ण के,तदन्त) अनेक अच्बाले अङ्गको (अच् परेरहते यणादेश होता है)। अनेकाल... -I.1.54 देखें - अनेकाल्शित् I. 1.54 अनेकाल्शित् -1.1.54 __ अनेकालादेश तथा शिदादेश (सम्पूर्ण षष्ठीनिर्दिष्ट के स्थान में होता है)। अनेते -VI. 1.3 (वर्णवाची शब्द के उत्तरपद में रहते वर्णवाची पूर्वपद को प्रकृतिस्वर हो जाता है),एत शब्द उत्तरपद में न हो तो। अनेन -v.ii. 85 (भुक्त क्रिया के समानाधिकरण वाले प्रथमासमर्थ श्राद्ध प्रातिपदिक से) इसके द्वारा' अर्थ में (इनि और ठन् प्रत्यय होते है)। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेहसाम् अन्तः...-V.iv. 117 देखें- अन्तर्वहिाम् Viv.117 अन्त -VI. 1. 153 (कृष् विलेखने' धातु तथा आकारवान घंजन्त शब्द के) अन्त को (उदात्त होता है)। अन्त -VI.1. 190 (सेट् थल परे रहते इट् को विकल्प से उदात्त होता है; . एवं चकार से आदि और) अन्त को विकल्प से होता अन्तः -VI. I. 213 (अवती शब्दान्त को सञ्जाविषय में) अन्त (उदात्त होता --अनेहसाम् - VII. 1. 94 देखें-ऋद्धशनस् VII. 1.94 अनो-III. 49 अनु उपसर्ग से उत्तर(अकर्मक व धातु से व्यक्त वाणी वालों के एक साथ उच्चारण करने अर्थ में आत्मनेपद होता है। अनो: -I. III. 58 अन उपसर्ग से उत्तर (सन्नन्त जा पात से आत्मनेपट नहीं होता है)। अनो: -VI. II. 189 अनु उपसर्ग से उत्तर (अप्रधानवाची उत्तरपद को तथा कनीयस शब्द को अन्तोदात्त होता है)। अनो: -VI. 1.97 अनु से उत्तर (अप् शब्द को ऊकारादेश होता है, देश को कहने में)। अनोत्परः -VIII. iv. 27 (उपसर्ग में स्थित निमित से उत्तर) जो ओकार से परे नहीं है, ऐसे (नस् के नकार) को (णकारादेश होता है)। अनोश्माय सरसाम् -V.iv.94 अनस, अश्मन, अयस् तथा सरस् शब्दान्त (तत्पुरुष समास) से (समासान्त टच प्रत्यय होता है,जाति तथा संज्ञा विषय में)। अनौ-III. II. 100 अनु उपसर्ग पूर्वक (जन्' धातु से कर्म उपपद रहते 'ड' प्रत्यय होता है, भूतकाल में)। अनौत्तराधयें -III. 1. 42 एकधर्मान्वित (संघ) वाच्य हो तो (भी चिधातु से घबू प्रत्यय होता है तथा आदि चकार को ककारादेश होता है, कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में)। ...अन्त.. -III. 1. 21 - देखें-दिवाविमाo III. 1. 21 अन्त... -III. 1.48 देखें- अन्तात्यन्ता III. II. 48 ...अन्त... -VI. iv.55 देखें-आमन्ताo VI. iv. 55 अन्तः-1.v.64 (अपरिग्रह-न स्वीकार करने अर्थ में वर्तमान) अन्तर शब्द क्रियायोग में गति और निपात संज्ञक होता है)। अन्तः-VI. 1.51 (तवै प्रत्यय को) अन्त (उदात्त भी होता है, तथा अव्यवहित पूर्वपद गति को भी प्रकृतिस्वर एक साथ होता है)। अन्तः -VI. 1.92 (VI. ii. 109 तक पूर्वपद के) अन्त को (उदात्त होता है, यह अधिकार सूत्र है) अन्तः -VI. 1. 143 (यहाँ से आगे पाद की समाप्तिपर्यन्त सर्वत्र समास के उत्तरपद का) अन्त (उदात्त होगा, यह अधिकार है)। अन्तः -VI. 1. 179 अन्तर् शब्द से उत्तर (वन शब्द को अन्तोदात्त होता है)। अन्तः-VI. 1. 180 (उपसर्ग से उत्तर उत्तरपद) अन्त शब्द को (भी अन्तोदात होता है)। ...अन्तः ... -VI. III.96 देखें-चन्तरूपसर्गेभ्यः VI. 1. 96 अन्तः -VII.i.3 (प्रत्यय के अवयव के स्थान में) अन्त् आदेश होता है। ...अन्तः...-VIII. 1.5 देखें-प्रनिरन्तo VIII. iv.s अन्तं-VIII. iv. 19 (उपसर्ग में स्थित निमित से उत्तर पद के) अन्त में वर्तमान (अन् धातु के नकार को णकार आदेश होता है)। अन्तः -VIII. V.23 अन्तर शब्द से उत्तर(अकार पूर्ववाले हन् धातु के नकार कोणकारादेश होता है, देश को न कहा जा रहा हो तो)। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तपादम् 39 अन्तिकार्येभ्यः अन्त -I. iv. 28 व्यवधान के कारण जिससे अपना छिपना चाहता हो, उस कारक की अपादान संज्ञा होती है)। अन्तौं -I. iv. 60 व्यवधान अर्थ में तिरः शब्द की क्रिया के योग में गति और निपात संज्ञा होती है)। अन्तर्बहिर्म्याम् - Viv. 117 अन्तर् तथा बहिस् शब्दों से उत्तर (भी जो लोमन् शब्द, तदन्त बहुव्रीहि से समासान्त अप प्रत्यय होता है)। अन्तर्वत्... -IV.I. 32 देखें- अन्तर्वत्पतिवतो: IV. 1. 32 अन्तर्वत्पतिवतो: - V.1.32 ___ अन्तर्वत और पतिवत शब्दों से (स्त्रीलिंग में डीप प्रत्यय होता है तथा उसके सन्नियोग से नुक आगम भी हो जाता अन्तःपादम् -VI.i. 111 पाद के मध्य में वर्तमान (अकार के परे रहते एक को प्रकृतिभाव हो जाता है)। अन्तपादम् -VIII. iii. 103 (इण तथा कवर्ग से उत्तर सकार को तकारादि युष्मद, तत् तथा ततक्षुस् परे रहते मूर्धन्यादेश होता है, यदि वह सकार) पाद के मध्य में वर्तमान हो तो । अन्त पूर्वपदात् - IV. iii. 60 अन्तः शब्द पूर्वपद में है जिसके.ऐसे (सप्तमीसमर्थ अव्ययीभावसंज्ञक) प्रातिपदिक से (भवार्थ में ठब प्रत्यय होता है)। अन्तरतमः-I.1.49 (स्थान में प्राप्त होने वाले आदेशों में) सर्वाधिक सादश्य वाला (आदेश होवे)। अन्तरम् - I. 1. 35 (बहियोग = बाह्य तथा उपसंव्यान = वस्त्र गम्यमान होने पर) अन्तर शब्द की (जस सम्बन्धी कार्य में विकल्प करके सर्वनाम संज्ञा होती है)। अन्तरम् -VI. ii. 166 (व्यवधायकवाची शब्द से उत्तर) अन्तर शब्द को (बहु- व्रीहि समास में अन्तोदात्त होता है)। ...अन्तरयोः - III. 1. 179 देखें-संज्ञान्तरयोः III. ii. 179 अन्तरा... - II. lil. 4 देखें- अन्तरान्तरेणयुक्ते II. ill. 4 अन्तरान्तरेणयुक्ते - II. II. 4 अन्तरा और अन्तरेणशब्दों के योग में द्वितीया विभक्ति होती है)। अन्तराले-II. 1. 26 अन्तराल बीच का हिस्सा वाच्य होने पर (दिशा के नामवाची सुबन्तों का परस्पर विकल्प से समास होता है और वह बहुव्रीहि समास होता है)। ...अन्तरेणयुक्ते - II. II. 4 देखें- अन्तरान्तरेणयुक्ते II. III. 4 अन्तर्धनः-III. 1.78 दिश अभिधेय हो तो कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में) अन्तर्धन शब्द में अन्तर पूर्वक हन् धातु से अप्प्रत्यय तथा हन को घन आदेश निपातन किया जाता है। ...अन्तवचनेषु-II. 1.6 देखें -विभक्तिसमीपसमृद्धि II.1.6 अन्तस्य-VII. 1.2 (अकार के) समीप वाले रेफान्त तथा लकारान्त) अङ्ग के (अकार के स्थान में ही वृद्धि होती है, परस्मैपदपरक सिच के परे रहते)। अन्तात्यन्ताम्वदूरपारसर्वानन्तेषु - III. 1. 48 अन्त, अत्यन्त, अध्व, दूर, पार, सर्व, अनन्त (कमों) के उपपद रहते (गम् धातु से ड प्रत्यय होता है) अन्तादिवत् -VI.1.82 (एक:पूर्वपरयो के अधिकार में जो पूर्व परको एकादेश कहा है,वह एकादेश) पूर्व से कार्य पड़ने पर पूर्व के अन्त के समान माना जाये,तथा पर से कार्य पड़ने परपरके आदि के समान माना जाये। ...अन्तिक... - II. I. 38 देखें-स्तोकान्तिकदार्थ II. 1. 38 अन्तिक... - V. iii. 63 देखें - अन्तिकबाढयो: V. 1.63 अन्तिकबाढयो: - V. iii. 63 अन्तिक तथा बाढ शब्दों को (यथासङ्ख्य करके नेद तथा साध आदेश होते है,अजादि अर्थात् इष्ठन् ईयसुन प्रत्यय क पर रहत)। ..अन्तिकार्येश्य-II. I. 35 देखें-दूरान्तिकाया . 11.35 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तिकाथै अन्धेश्यः । अन्तिकार्थ-II. III. 34 अन्त्यस्य-1.1.51 देखें-दूरान्तिकाई II. 1. 34 (षष्ठीनिर्दिष्ट आदेश) अन्त्य (अल्) के स्थान में होअन्ते - VIII. I. 29 ता है। (पद के) अन्त में (तथा झल परे रहते संयोग के आदि अन्त्यस्य-VI. 1. 16 के सकार तथा ककार का लोप होता है)। (आमेडित सञक जो अव्यक्तानुकरण का अत् शब्द, उसे इति परे रहते पररूप एकादेश नहीं होता, किन्तु) जो अन्ते -VIII. 1.39 (उस आमेडित का) अन्तिम (नकार), उसको (विकल्प से (पद के) अन्त में (झलों को जश् आदेश होता है)। पररूप एकादेश होता है,संहिता के विषय में)। ...अन्तेवासि... - VI. 1.69 अन्त्यात् -1.1.46 देखें-गोत्रान्तेवासिOVI. 169 (अचों में ) जो अन्तिम अच्, उससे (परे मिदागम होता अन्तेवासिनि-VI. 1. 104 (आचार्य है उपसर्जन जिसका,ऐसा) जो अन्तेवासी= अन्त्यात् -I.1.64 शिष्य, उसको कहने वाले शब्द के परे रहते (भी दिशा अन्तिम (अल्) से (पूर्व जो अल् उसकी उपधा संज्ञा .. अर्थ में प्रयुक्त होने वाले पूर्वपद शब्दों को अन्तोदात्त होती है)। होता है)। अन्यात्-VI. 1.83 ...अन्तवासिषु-VII. 129 (ज' उत्तरपद रहते बहुत अच् वाले पूर्वपद के) अन्तिम . देखें-दण्डमाणवान्तवासिव VAL 129 . अक्षर से (पूर्व को उदात्त होता है)। अन्तेवासी-VI. 1. 36 अन्त्यात् -VI. ii. 174 (आचार्य है अप्रधान जिसमें, ऐसे) शिष्यवाची शब्दों (नञ् तथा सु से उत्तर बहुव्रीहि समास में) अन्तिम से का (जो द्वन्द्व, उनके पूर्वपद को प्रकतिस्वर होता है। (पूर्व को उदात्त होता है)। अन्त्यादि-1.1.63 अन्तोदात्तात् -V.1.52 (अचों में) जो अन्तिम अच् , वह है आदि में जिस (बहुव्रीहि समास में भी जो क्तान्त) अन्तोदात्त प्रातिप समुदाय के, (उस समुदाय की टि संज्ञा होती है)। दिक,उससे (स्त्रीलिंग में डीप प्रत्यय होता है)। अन्त्ये न-1.1.70 अन्तोदात्तात् -N.L. 108 (आदि वर्ण) अन्तिम (इत्संज्ञक वर्ण) के साथ मिलकर (बहत अच् वाले उत्तर दिशा में स्थित ग्रामवाची) दोनों के मध्य में स्थित वर्गों का तथा अपने स्वरूप का अन्तोदात्त प्रातिपदिकों से (भी अब् प्रत्यय होता है)। भी ग्रहण कराता है)। अन्तोदात्तात् - IV. 1.67 ...अन्य.. -III. ii.56 (व्याख्यान और भव अर्थों में षष्ठी और सप्तमीसमर्थ देखें- आयसुभग III. ii. 56 बहुत अच् वाले) अन्तोदात्त (व्याख्यातव्य नाम) प्रातिप- ...अन्धक... - IV.I. 114 दिकों से (ठञ् प्रत्यय होता है)। देखें-ऋष्यन्धकवृष्णि IV. 1. 114 अन्तोदात्तात् - VI.1.163 अन्धक... - VI. ii. 34 (अनित्य समास में) अन्तोदात्त (एकाच उत्तरपद) से उत्तर __देखें- अन्धकवृष्णिषु VI. ii. 34 (तृतीयादि विभक्ति विकल्प से उदात्त होती है)। अन्यकवृष्णिषु-VI. ii. 34 ....अन्तौ -1.1.45 (क्षत्रियवाची जो बहुवचनान्त शब्द, उनका द्वन्द्व) यदि अन्धक तथा वृष्णि वंश को कहने में वर्तमान हो तो (पूर्वपद देखें- आद्यन्तौ I. 1. 45 अन्त्यम् -I. II.3 को प्रकृतिस्वर होता है)। (उपदेश में वर्तमान) अन्तिम (हल,इत्सजक होता है)। ...अन्येभ्यः -V.iv.78 देखें-अवसमन्येभ्यः V.iv.78 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्नम् अन्यतरस्याम् अन्नम् -V.ii. 82 अन्यतरस्याम् -II. 1.3 (प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से सप्तम्यर्थ में कन् प्रत्यय (द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ तथा तुर्य सुबन्त एकाधिकरणहोता है. यदि वह प्रथमासमर्थ बहुल करके.सज्ञाविषय वाची एकदेशी सुबन्त के साथ) विकल्प से (समास को में) अन्नविषयक हो तो । प्राप्त होता है और वह तत्पुरुष समास होता है)। अन्नात् - IV. iv. 85 अन्यतरस्याम् -II. ii. 21 (द्वितीयासमर्थ) अन्न प्रातिपदिक से (प्राप्त करने वाला (उपदंशस्तृतीयायाम् III. iv.47 से लेकर अन्वच्याकहना हो तो ण प्रत्यय होता है)। नुलोम्ये III. iv. 64 तक जितने उपपद है, वे अमन्त अन्नेन-II.1.33 अव्यय के साथ ही) विकल्प से (तत्पुरुष समास को प्राप्त अन्नवाची (समर्थ सुबन्त) के साथ (तृतीयान्त व्यञ्जन होते है)। वाची सुबन्त विकल्प से समास को प्राप्त होता है और वह __ अन्यतरस्याम् -II. iii. 22 तत्पुरुष समासे होता है)। (सम् पूर्वक ज्ञा धातु के अनभिहित कर्मकारक में) अन्य.. - II. iii. 29 विकल्प से (तृतीया विभक्ति होती है)। देखें- अन्यारादितरतेंदिक्छब्दा II. iii. 29 अन्यतरस्याम् -II. ill. 32 ...अन्य.. -v.ii. 15 (पृथक्, विना, नाना- इन शब्दों के योग में) विकल्प देखें-सर्वैकान्य V. iii. 15 से (ततीया विभक्ति होती है,पक्ष में पञ्चमी भी होती है)। अन्यतः - IV.I. 40 तकारोषध वर्णवाची प्रातिपदिकों से अन्य जो (वर्णवाची अन्यतरस्याम् -II. III. 34 अदन्त अनुदात्तान्त) प्रातिपदिक, उनसे (स्त्रीलिंग में ङीष (दूरार्थक और अन्तिकार्थक शब्दों के योग में) विकल्प प्रत्यय होता है)। से (षष्ठी विभक्ति होती है,पक्ष में पञ्चमी भी)। . अन्यतरस्याम् -I. ii. 21 अन्यतरस्याम् -II. III. 72 (उकार उपधा वाली धातु से परे भाववाच्य एवं आदि- (तला और उपमा-वर्जित तुल्यार्थक शब्दों के योग में) कर्म में वर्तमान सेट् निष्ठा प्रत्यय) विकल्प करके (कित् विकल्प से (ततीया विभक्ति होती है,पक्ष में षष्ठी भी)। नहीं होता है)। अन्यतरस्याम् -II. iv. 40 अन्यतरस्याम् -I.ii. 58 (अद् को घस्ल आदेश) विकल्प से (होता है, लिट् परे (जाति को कहने में एकत्व को) विकल्प से (बहुत्व हो रहते)। जाता है)। अन्यतरस्याम् -II. iv.44 अन्यतरस्याम् - I. 1.69 . (नपुंसकलिंग शब्द नपुंसकलिंग-भिन्न शब्दों के साथ, ' (आत्मनेपद में हन् के स्थान में) विकल्प से (ही वधादेश अर्थात् पुंल्लिंग शब्दों के साथ शेष रह जाता है, तथा होता है, लुङ् लकार में)। स्त्रीलिंग पुंल्लिग शब्द हट जाते हैं,एवं उस नपंसकलिंग अन्यतरस्याम् -II. iv.69 शब्द को एकवत् कार्य भी) विकल्प करके हो जाता है, (उपकादि शब्दों से परे गोत्र में विहित जो तत्कृत बहु(यदि उन शब्दों में नपुंसक गुण एवं अनपुंसक गुण का वचन प्रत्यय,उसका लुक) विकल्प से होता है.द्वन्दू और ही वैशिष्ट्य हो, शेष प्रकृति आदि समान ही हो)। अद्वन्द्व समास में)। अन्यतरस्याम् - III. 1. 39 अन्यतरस्याम् -I. iv. 44 (उष, विद तथा जाग धातुओं से) विकल्प से (अमन्त्र (परिक्रयण में जो साधकतम कारक,उसकी) विकल्प से विषय में लिट् परे रहते आम् प्रत्यय होता है)। (सम्पदान संज्ञा होती है)। अन्यतरस्याम् -III. I. 41 अन्यतरस्याम् -I.iv.53 (हज् तथा कृञ् धातु का अण्यन्तावस्था का जो कर्ता (विदाकुर्वन्तु- यह रूपलोट् के प्रथम पुरुष बहवचन वह ण्यन्तावस्था में) विकल्प से (कर्मसंज्ञक होता है। में) विकल्प से (निपातन किया जाता है)। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्यतरस्याम् अन्यतरस्याम् अन्यतरस्याम् -III. 1.54 लिप,सिच तथा हे धातुओं से कर्तृवाची लुङ् आत्म- नेपद परे रहने पर ) विकल्प से (च्लि के स्थान में अङ् आदेश होता है)। अन्यतरस्याम् -III. I. 61 (दीप, जन, बुध, पूरि, ताय तथा ओप्यायी धातुओं से उत्तरच्लि के स्थान में चिण् आदेश) विकल्प से (हो जाता है,कर्तृवाची लुङ् त शब्द परे रहते)। अन्यतरस्याम् -III.1.75 . " (असू धातु से) विकल्प से (श्नु प्रत्यय होता है,कर्तृवाची सार्वधातुक परे रहने पर)। अन्यतरस्याम् -III. I. 122 (अमावस्या शब्द में अमापूर्वक वस् धातु से काल अधिकरण में ण्यत् परे रहते) विकल्प से (वद्धि का निपातन किया गया है)। अन्यतरस्याम् -III. 1.3 (समुच्चीयमान क्रियाओं को कहने वाली धातु से लोट प्रत्यय) विकल्प से होता है और उस लोट् के स्थान में हि और स्व आदेश होते है,पर त और ध्वम् स्थानी लोट को विकल्प से हि,स्व आदेश होते हैं)। अन्यतरस्याम् -III. iv. 32 (वर्षा का प्रमाण गम्यमान हो तो कर्म उपपद रहते ण्यन्त पूरी धातु से णमुल् प्रत्यय होता है तथा इस पूरी धातु के ऊकार का लोप) विकल्प से (होता है)। अन्यतरस्याम् -IV.1.8 (पादन्त प्रातिपदिक से खीलिंग में) विकल्प से (डीप प्रत्यय होता है)। अन्यतरस्याम् - IV.i. 13 (दोनों से अर्थात् ऊपर कहे गये मनन्त प्रातिपदिकों से तथा बहुव्रीहि समास में जो अन्नन्त प्रातिपदिक उनसे) विकल्प से (डाप् प्रत्यय होता है)। अन्यतरस्याम् -IV.i. 24 (प्रमाण अर्थ में वर्तमान जो पुरुष शब्द,तदन्त अनुपसर्जन द्विगुसंज्ञक प्रातिपदिक से तद्धित का लुक् होने पर स्त्रीलिङ्ग में) विकल्प से (डीप् प्रत्यय नहीं होता है)। अन्यतरस्याम् - IV.1.28 (अनन्त जो उपधालोपी बहुव्रीहिसमास, उससे स्त्रीलिङ्ग में) विकल्प से (डीप् प्रत्यय होता है)। अन्यतरस्याम् - V.I.81 (दैवयज्ञि आदि शब्दों से स्त्रीलिङ्ग में ष्यङ् प्रत्यय) विकल्प से (होता है)। अन्यतरस्याम् - IV. 1.91 (प्राग्दीव्यतीय अजादि प्रत्यय की विवक्षा में युवापत्य फक् और फिञ् का) विकल्प से (लुक् होता है)। . अन्यतरस्याम् -IV.i. 103 (षष्ठीसमर्थ द्रोणादि प्रातिपदिकों से गोत्रापत्य में) विकल्प से (फक् प्रत्यय होता है)। अन्यतरस्याम् - IV. 1. 140 (अविद्यमानपूर्वपद वाले कुल शब्द से) विकल्प से (यत् और ढकञ् प्रत्यय होते हैं, पक्ष में ख)। अन्यतरस्याम् - IV. 1. 159 . (गोत्र से भिन्न वृद्धसंज्ञक पुत्रान्त प्रातिपदिक से पूर्वसूत्र से विहित जो फिञ् प्रत्यय, उसके परे रहने पर) विकल्प से (कुक प्रत्यय होता है)। अन्यतरस्याम् - IV. ii. 18 (सप्तमीसमर्थ उदश्चित् प्रातिपदिक से 'संस्कृतं भक्षाः' । अर्थ में) विकल्प से (ठक प्रत्यय होता है, पक्ष में अण)। अन्यतरस्याम् - IV. ii. 47 . (षष्ठीसमर्थ केश तथा अश्व प्रातिपदिकों से समूहार्थ में यथासङख्य) विकल्प से (यजु तथा छ प्रत्यय होते है, पक्ष में ठक्)। अन्यतरस्याम् - IV. ii. 104 (ऐषमस्, ह्यस् तथा श्वस् प्रातिपदिकों से) विकल्प से (त्यप् प्रत्यय होता है)। अन्यतरस्याम् - IV. iii.1 (युष्मद् तथा अस्मद् शब्दों से खजू तथा चकार से छ प्रत्यय) विकल्प से होते है,पक्ष में औत्सर्गिक अण होता अन्यतरस्याम् - IV. iii. 46 (सप्तमीसमर्थ ग्रीष्म तथा वसन्त कालवाची प्रातिपदिकों से 'बोध हुआ' अर्थ में वुञ् प्रत्यय) विकल्प से होता है)। अन्यतरस्याम् - IV. iii. 64 (सप्तमीसमर्थ वर्गान्त प्रातिपदिक से अशब्द प्रत्ययार्थ अभिधेय होने पर भव अर्थ में) विकल्प से (यत् तथा ख. प्रत्यय होते है)। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •अन्यतरस्याम् अन्यतरस्याम् अन्यतरस्याम् - IV. iii. 81 (पञ्चमीसमर्थ हेतु तथा मनुष्यवाची प्रातिपदिकों से 'आगत' अर्थ में) विकल्प से (रूप्य प्रत्यय होता है)। अन्यतरस्याम् -IV. iv.54 (प्रथमासमर्थ शलालु प्रातिपदिक से 'इसका बेचना' विषय में) विकल्प से (ष्ठन् प्रत्यय होता है)। अन्यतरस्याम् - IV. iv. 56 (शिल्पवाची प्रथमासमर्थ मड़क तथा झर्झर प्रातिपदिकों से) विकल्प से (षष्ठ्यर्थ में अण प्रत्यय होता है)। अन्यतरस्याम् - IV. iv. 68 (प्रथमासमर्थ भक्त प्रातिपदिक से 'इसको नियत रूप से दिया जाता है',अर्थ में) विकल्प से (अण् प्रत्यय होता अन्यतरस्याम् - V.i. 26 (शर्प प्रातिपदिक से 'तदर्हति' पर्यन्त कथित अथों में) विकल्प से (अञ् प्रत्यय होता है)। अन्यतरस्याम् - V.i. 52 (द्वितीयासमर्थ आढक. आचित तथा पात्र प्रातिपदिकों से 'सम्भव है'.'खाता है'. 'पकाता है' अर्थों में) विकल्प से (ख प्रत्यय होता है)। अन्यतरस्याम् -v.ii. 56 (षष्ठीसमर्थ सङ्ख्यावाची विंशति आदि प्रातिपदिकों से 'पूरण' अर्थ में विहित डट् प्रत्यय को)विकल्प करके (तमट् आगम होता है)। अन्यतरस्याम् -V.ii.96 (प्राणिस्थवाची आकारान्त प्रातिपदिक से मत्वर्थ' में) विकल्प से (लच् प्रत्यय होता है)। अन्यतरस्याम् -v.ii. 109 (केश प्रातिपदिक से 'मत्वर्थ' में) विकल्प से (व प्रत्यय होता है)। अन्यतरस्याम् -Vii. 136 (बलादि प्रातिपदिकों से 'मत्वर्थ' में) विकल्प से (मतप प्रत्यय होता है)। अन्यतरस्याम् - V. iii. 6 (सर्व शब्द के स्थान में) विकल्प से (स आदेश होता है,दकारादि विभक्ति के परे रहते)। अन्यतरस्याम् - V. iii. 21 (सप्तम्यन्त किम्, सर्वनाम और बहु प्रातिपदिकों से) विकल्प से (हिल प्रत्यय होता है, अनद्यतन कालविशेष को कहना हो तो)। अन्यतरस्याम् -V.iii.35 दिशा. देश और काल अर्थों में वर्तमान पञ्चम्यन्तवर्जित सप्तमी, प्रथमान्त दिशावाची उत्तर और दक्षिण प्रातिपदिको से) विकल्प से (एनप प्रत्यय होता है. निकटता गम्यमान हो तो)। अन्यतरस्याम् – v. iii. 44 (एक प्रातिपदिक से उत्तर जो धा प्रत्यय,उसके स्थान में) विकल्प से (ध्यमुब आदेश होता है)। अन्यतरस्याम् - V. iii. 64 (यव और अल्प शब्दों के स्थान में) विकल्प से (कन् आदेश होता है, अजादि अर्थात् इष्ठन् और ईयसुन् प्रत्यय परे रहते)। अन्यतरस्याम् - V. iii. 109 (एकशाला प्रातिपदिक से इवार्थ में) विकल्प से (ठच प्रत्यय होता है)। अन्यतरस्याम् -V.iv.42 (बहुत' तथा 'थोड़ा' अर्थ वाले कारकाभिधायी प्रातिपदिकों से) विकल्प से (शस् प्रत्यय होता है)। अन्यतरस्याम् -V.iv. 105 (कु तथा महत् शब्द से परेजो ब्रह्मन् शब्द,तदन्त तत्पुरुष से) विकल्प से (समासान्त टच प्रत्यय होता है)। अन्यतरस्याम् - V. iv. 109 (नपुंसकलिङ्ग में वर्तमान जो अन्नन्त अव्ययीभाव, तदन्त से समासान्त टच प्रत्यय) विकल्प से होता है)। अन्यतरस्याम् - V. iv. 121 (नज,दुस् तथा सु शब्दों से उत्तर जो हलि तथा सक्थि शब्द,तदन्त बहुव्रीहि से समासान्त अच् प्रत्यय) विकल्प से (होता है)। अन्यतरस्याम् -VI..38 (वय् धातु के यकार को कित् लिट् परे रहते) विकल्प से (वकारादेश भी हो जाता है)। अन्यतरस्याम् -VI.i. 58 (उपदेश में जो अनुदात्त तथा ऋकार उपधावाली धातु, उसको अम आगम) विकल्प से (होता है. अकित झलादि प्रत्यय के परे रहते)। अन्यतरस्याम् -VI. I. 163 (अनित्य समास में अन्तोदात्त एकाच उत्तरपद से उत्तर ततीयादि विभक्ति) विकल्प से (उदात्त होती है)। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्यतरस्याम् अन्यतरस्याम् अन्यतरस्याम् -VI.i. 171 अन्यतरस्याम् -VI. iii. 58 (मतुप प्रत्यय के परे रहते हस्वान्त अन्तोदात्त शब्द से (जिसको पूरा किया जाना चाहिए, तद्वाची एक= असउत्तर नाम् को) विकल्प से (उदात्त होता है)। हाय हल है आदि में जिसके.ऐसे शब्द के उत्तरपद रहते) विकल्प करके (उदक शब्द को उद आदेश होता है)। अन्यतरस्याम् - VI. 1. 178 अन्यतरस्याम् - VI. iii.76 (न से परे भी झलादि विभक्ति) विकल्प से (उदात्त नहीं (प्राणिभिन्न अर्थ में वर्तमान नग शब्द के नत्र को प्रकहोती)। तिभाव) विकल्प करके (होता है)। अन्यतरस्याम् -VI.i. 181 अन्यतरस्याम् - VI. iii. 109 (सिच अन्तवाला शब्दो विकल्प से (आधदात्त होता है)। (संख्या,वि तथा साय पूर्व वाले अह्न शब्द को) विकल्प अन्यतरस्याम् - VI. 1. 188 करके (अहन् आदेश होता है, ङि परे रहते)। (णमुल परे रहते पूर्व धातु को) विकल्प से (आधुदात्त अन्यतरस्याम् - VI. iv.45 होता है)। (क्तिच् प्रत्यय परेरहते सन् अङ्गको आकारादेश हो जाता है तथा) विकल्प से (इसका लोप भी होता है)।. . अन्यतरस्याम् -VI. I. 212 अन्यतरस्याम् -VI. iv.47 (चङन्त शब्द के उत्तरपद को) विकल्प करके (उदात्त (प्रस्ज् धातु के रेफ तथा उपधा के स्थान में) विकल्प से होता है। (रम् आगम होता है,आर्धधातुक परे रहने पर)। . अन्यतरस्याम् -VI. ii. 28 अन्यतरस्याम् -VI. iv.70 (पूगवाची शब्द उत्तरपद रहते कर्मधारय समास में कुमार (मेङ प्रणिदाने' अङ्गको) विकल्प से (इकारादेश होता शब्द को) विकल्प से (आधुदात्त होता है)। है.ल्यप परे रहते)। अन्यतरस्याम् - VI. ii. 29 अन्यतरस्याम् - VI. iv.93 . (द्विगु समास में इगन्त,कालवाची.कपाल,भगाल तथा मित् अङ्ग की उपधा को चिण्परक तथा णमुल्परक णि शराव शब्दों के उत्तरपद रहते पूर्वपद को) विकल्प से परे रहते) विकल्प से (दीर्घ होता है)। ,. (प्रकृतिस्वर हो जाता है)। . अन्यतरस्याम् - VI. ii. 54 अन्यतरस्याम् -VI. iv. 107 (पूर्वपद ईषत् शब्द को) विकल्प से (प्रकृतिस्वर होता । (असंयोग पूर्व जो उकार, तदन्त प्रत्यय का) विकल्प से (लोप भी होता है,मकारादि तथा वकारादि प्रत्ययों के परे रहते)। अन्यतरस्याम् - VI. ii. 110 (बहुव्रीहि समास में उपसर्ग पूर्व वाले निष्ठान्त पूर्वपद अन्यतरस्याम् -VI. iv. 115 को) विकल्प से (अन्तोदात्त होता है)। (भी' अङ्गको)विकल्प करके (इकारादेश होता है.हलादि कित्,डित् सार्वधातुक परे रहते)। अन्यतरस्याम् - VI. ii. 169 (बहुव्रीहि समास में निष्ठान्त तथा उपमानवाची से उत्तर अन्यतरस्याम् - VII. 1. 35 (आशीर्वाद विषय में तु और हि के स्थान में ) विकल्प स्वाहमुख शब्द उत्तरपद को) विकल्प से (अन्तोदात्त होता करके (तातङ् आदेश होता है)। अन्यतरस्याम् -VI. iii. 21 अन्यतरस्याम् -VII. ii. 101 (पुत्र शब्द उत्तरपद रहते आक्रोश गम्यमान होने पर) (जरा शब्द को अजादि विभक्तियों के परे रहते) विकल्प से (जरस् आदेश होता है)। विकल्प करके (षष्ठी का अलुक् होता है)। अन्यतरस्याम् - VII. iii.9 अन्यतरस्याम् - VI. iii. 43 (पद शब्द अन्त में है जिसके,ऐसे श्वन आदि वाले अङ्ग (पूर्वसूत्रों से शेष, नदीसञक शब्दों को) विकल्प करके । को जो ऐच आगम एवं वृद्धिप्रतिषेध कहा है,वह) विकल्प (हस्व हो जाता है;घ,रूपप,कल्पप, चेलट्,बुव, गोत्र,मत से (नहीं होता)। तथा हत शब्दों के परे रहते)। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्यतरस्याम् अन्याभ्याम् अन्यतरस्याम् -VII. iii. 39 (ली तथा ला अङ्गको स्नेह = घृतादि पदार्थ के पिघलना अर्थ में णि परे रहते) विकल्प से (क्रमशः नुक् तथा लुक् आगम होता है)। अन्यतस्स्याम् - VII. iii. 43 (रुह् अङ्ग को)विकल्प से (णि परे रहते पकारादेश होता अन्यत्र -III. iv.75 (उणादि प्रत्यय) सम्प्रदान तथा अपादान कारकों से अन्यत्र (कर्मादि कारकों में भी होते है)। अन्यत्र-III. iv.96 (लेट् सम्बन्धी जो एकार, उसके स्थान में ऐकारादेश विकल्प से होता है), आतऐं' सत्र के विषय को छोड़कर। अन्यथा... -III. iv. 27 देखें- अन्यथैवं III. iv. 27 अन्यथैवंकथमित्वंस-III. iv. 27 __ अन्यथा, एवं, कथं तथा इत्थम् शब्दों के उपपद रहते (कृञ् धातु से णमुल प्रत्यय होता है,यदि कृञ् का अप्रयोग सिद्ध हो)। अन्यतरस्याम् - VII. iv.3 (प्राज,भास, भाष, दीप,जीव,मील,पीड - इन अङ्गो की उपधा को चङ्परक णि परे रहते) विकल्प से (हस्व होता है। अन्यतरस्याम् -VII. iv. 15 (आबन्त अङ्ग को) विकल्प से (हस्व नहीं होता है,कप् प्रत्यय परे रहते)। अन्यतरस्याम् - VII. iv. 41 (शो तथा छो अडको) विकल्प करके (इकारादेश होता है, तकारादि कित् प्रत्यय परे रहते )। अन्यतरस्याम् - VIII. 1. 13 (प्रिय तथा सुख शब्दों को कष्ट न होना' अर्थ द्योत्य हो तो) विकल्प करके (द्वित्व होता है एवं उस को कर्मधा- रयवत् कार्य होता है)। अन्यतरस्याम् - VIII. ii. 54 (प्रपूर्वक स्त्यै धातु से उत्तर निष्ठा के तकारको) विकल्प से (मकारादेश होता है)। अन्यतरस्याम् -VIII. ii. 56 .(नुद, विद, उन्दी,त्रैङ्, घा, ही- इन धातुओं से उत्तर) विकल्प से निष्ठा के तकार को नकारादेश होता है)। अन्यतरस्याम् - VIII. iii. 42 तिरस के विसर्जनीय को) विकल्प करके (सकारादेश होता है, कवर्ग पवर्ग परे रहते)। अन्यतरस्याम् - VIII. iii. 85 (मातुर तथा पितुर् शब्द से उत्तर स्वस के सकार को समास में) विकल्प करके (मर्धन्य आदेश होता है)। अन्यतरस्याम् -VIII. iv. 61 (झय प्रत्याहार से उत्तर हकार को) विकल्प से (पूर्वसवर्ण आदेश होता है)। ...अन्यतरेधुस् - V. iii. 22 देखें- सद्य:परुत् V. iii. 22 अन्यपद के अर्थ के गम्यमान होने पर (भी सुबन्त का नदीवाचियों के साथ विकल्प से अव्ययीभाव समास होता है.संज्ञा अभिधेय होने पर)। ' अन्यपदार्थे -II. ii. 24 (समस्यमान पदों से) भिन्न अर्थ में वर्तमान (अनेक सुबन्त परस्पर समास को प्राप्त होते हैं और वह समास बहुव्रीहि-संज्ञक होता है)। अन्यप्रमाणत्वात् -I. ii. 56 (प्रधानार्थवचन और प्रत्ययार्थवचन अशिष्य होते है, अर्थ के) अन्य = लोक के अधीन होने से। अन्यस्मिन् - IV. 1. 165 भाई से अन्य (सात पीढ़ियों में से कोई,पद तथा आयु दोनों से वृद्ध व्यक्ति जीवित हो तो पौत्रप्रभृति का जो अपत्य,उसके जीवित रहते विकल्प से युवा संज्ञा होती है, पक्ष में गोत्रसंज्ञा)। अन्यस्य-VI. iii. 98 (आशिस, आशा, आस्था, आस्थित, उत्सुक, अति, कारक,राग,छ- इनके परे रहते अषष्ठीस्थित तथा अतृतीयास्थित) अन्य शब्द को (दुक आगम होता है)। अन्यस्य-VI. iv.68 (षु,मा, स्था, गा, पा, हा तथा सा से) अन्य जो (संयोग आदि वाला आकारान्त) अङ्ग, उसको (कित, डित् आर्धधातुक परे रहते विकल्प से एकारादेश होता है)। ...अन्याभ्याम् - VIII. 1. 65 देखें- एकान्याभ्याम् VIII. 1.65 । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्यारादितरतेंदिक्छब्दातरपदावाहियुक्ते . 46 अन्यारादितरतेंदिक्छब्दाश्त्तरपदाजाहियुक्ते - II. iii. 29 अन्य, आरात. इतर, ऋते, दिक्शब्द, अत्तरपद, आच प्रत्ययान्त तथा आहि प्रत्ययान्त शब्दों के योग में (पश्चमी विभक्ति होती है)। ...अन्येधुस् -V.iii. 22 देखें-सद्य:परुत० V. iii. 22 अन्येभ्यः - III. ii. 75 अन्य = अनाकारान्त धातुओं से (भी सुबन्त उपपद रहते मनिन,क्वनिप.वनिप और विच प्रत्यय देखे जाते है)। अन्येभ्यः -III. 1. 178 अन्य धातुओं से (भी तच्छीलादि कर्ता हों, तो वर्तमान काल में क्विप् प्रत्यय देखा जाता है)। अन्येभ्यः - III. iii. 130 (वेद विषय में ) गत्यर्थक धातुओं से अन्य धातुओं से (भी कच्छाकच्छ अर्थ में ईषदादि उपपद रहते हुए युच प्रत्यय देखा जाता है)। अन्येषाम् - VI. ii. 136 जिनें सत्रों से दीर्घत्व नहीं कहा, उनसे अन्य शब्दों को (भी दीर्घ देखा जाता है)। अन्येषु -III. I. 101 (पर्वसत्रों से जिनके उपपद रहते जन् धातु से ड प्रत्यय का विधान किया है,उनसे) अन्य कोई उपपद हो तो (भी जन धातु से ड प्रत्यय देखा जाता है)। . ...अन्योन्योपपदात् -I. iii. 16 देखें -इतरेतरान्योन्योपपदात् I. iii. 16 अन्वचि-III. iv.64 (अनुकूलता गम्यमान हो तो) अन्वक शब्द उपपद रहते (भू धातु से क्त्वा और णमुल् प्रत्यय होते हैं)। अन्ववतप्तात् -V. iv. 81 , अनु, अव तथा तप्त शब्द से उत्तर (रहस् शब्दान्त प्रातिपदिक से समासान्त अच् प्रत्यय होता है)। ...अन्ववसर्ग... -I. iv.95 देखें- पदार्थसम्भावनान्वसर्ग० I. iv. 95 अन्वाजे-I. iv.62 (उपाजे तथा) अन्वाजे शब्द (कत्र के योग में निपात और गतिसंज्ञक होते है)। अन्वादिष्टः - VI. ii. 190 (अनु उपसर्ग से उत्तर) अन्वादिष्टवाची = कथन करने के पश्चात् कुछ और कहा जाये अथवा उस कथन में गौण कथन हो,इस अर्थ के वाचक (पुरुष शब्द को भी अन्तोदात्त होता है)। अन्वादेशे-II. iv. 32 ___ अन्वादेश = कहे हुये वाक्य के पीछे उसी को कुछ और कहने में वर्तमान (इदम् शब्द को अनुदात्त अश् आदेश होता है,तृतीया आदि विभक्ति परे रहते)। हाता अन्विच्छति -V. 1.75 (तृतीयासमर्थ पार्श्व प्रातिपदिक से) चाहता है' अर्थ में (कन् प्रत्यय होता है)। अन्वेष्टा-v.ii. 90 'अन्वेष्टा' = पीछे जाने वाला अर्थ में (अनुपदी शब्द : का निपातन किया जाता है)। अप-III. II.57 (ऋकारान्त तथा उवर्णान्त धातुओं से कर्तृभिन्न संज्ञा तथा भाव में) अप् प्रत्यय होता है। ...अप-v.iv.74 देखें- ऋक्पूरब्यू: V. iv.74. अप्-V.iv. 116 (परण-प्रत्ययान्त स्त्रीलिङ्ग तथा प्रमाणी अन्तवाले शब्दों से बहवीहि समास में समासान्त) अप् प्रत्यय होता है। ...अप... -VI.i. 165 देखें- ऊडिदम् VI. 1. 165 . ...अप... - VI. ii. 144 देखें-थाथव VI. ii. 144 अप्... -VI. iv. 11. देखें - अप्तन्तच VI. iv. 11 अप.. -I.iv.87 देखें - अपपरी I. iv.87 अप.. -II.i. 11 देखें-अपपरिबहिस्सवः II. I. 11 अप.. -II. iii. 10 देखें- अपाड्परिभिः II. iii. 10 ...अप... - VIII. 1.97 देखें-अम्बाम्ब० VIII. 1.97 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपपरिबहिस्चवः अप:-VI. iii.96 अपत्ये -VI. iv. 170 (द्वि,अन्तर तथा उपसर्ग से उत्तर) अपशब्द को (ईका- सन्तानार्थक (अण) के परे रहते (वर्मन शब्द के अन् को रादेश हो जाता है)। छोड़कर जो मकार पूर्ववाला अन.उसको प्रकृतिभाव नहीं अप: - VII. iv. 48 होता)। अप अङ्गको (भकारादि प्रत्यय परे रहते तकारादेश होता ...अपत्रप... -III. ii. 136 देखें - अलंकृञ् III. ii. 136 ...अपकराभ्याम् - IV. iii. 32 ...अपत्रस्तैः -II.i.37. देखें-सिन्ध्वपकराभ्याम् IV. iii. 32 देखें - अपेतापोढमुक्त II.i. 37 अपगुरः - VI.i. 53 अपथम् - II. iv. 30 अप पूर्वक 'गुरी उद्यमने' धातु के (एच के स्थान में . अपथ शब्द (नपुंसकलिंग में होता है)। णमुल् प्रत्यय के परे रहते विकल्प से आत्व हो जाता है)। अपदातौ - IV.ii. 134 अपघनः -III. iii. 81 (साल्व शब्द से) अपदाति अर्थात् पैरों से निरन्तरन चलने अपपूर्वक हन् धातु से (शरीर का अवयव अभिधेय हो वाला मनुष्य (तथा मनुष्यस्थ कर्म) अभिधेय हो,तो (शैषिक तो) अप् प्रत्यय तथा हन् को घन आदेश करके अपघन । वुञ् प्रत्यय होता है)। शब्द निपातन किया जाता है, (कर्तभिन्न कारक संज्ञा में)। अपदादौ - VIII. iii. 38 पदादिभिन्न (कवर्ग तथा पवर्ग) परे रहते विसर्जनीयको ...अपचर... -III. ii. 142 सकारादेश होता है)। देखें-सम्पृचानुरुधा III. ii. 142 अपदान्तस्य-VIII. iii. 24 अपचितः -VII. ii. 30 पद के अन्त में न होने वाले (नकार) को (तथा चकार अपचित शब्द (भी विकल्प से) निपातन किया जाता से मकार को भी झल् परे रहते अनुस्वार आदेश होता है)। अपदान्तस्य - VIII. iii. 55 अपञ्चम्या: -II. iv.83 .. अपदान्त को (मूर्धन्य आदेश होता है,ऐसा अधिकारपाद (अदन्त अव्ययीभाव समास से उत्तर सुप का लुक नहीं । की समाप्तिपर्यन्त जाने)। होता,अपितु उस सुप् को अम् आदेश हो जाता है),पञ्चमी अपदान्तात् -VI. 1. 93 विभक्ति को छोड़कर। अपदान्त (अवर्ण) से उत्तर (उस् परे रहते पूर्व पर के अपञ्चम्या -V.iii. 35 स्थान में पररूप एकादेश होता है,संहिता के विषय में)। (दिशा, देश और काल अर्थों में वर्तमान) पञ्चम्यन्त- अपदेशे - VI. ii.7 वर्जित अर्थात् सप्तमीप्रथमान्त (दिशावाची उत्तर, अधर बहाना अर्थ अभिधेय हो तो (तत्पुरुष समास में पद और दक्षिण) प्रातिपदिकों से विकल्प से एनप प्रत्यय होता शब्द उत्तरपद रहते पूर्वपद को प्रकृतिस्वर होता है)। है, निकटता' गम्यमान हो तो)। अपनयने -v. iv. 49 : अपण्ये - V. iii. 99 चिकित्सा गम्यमान हो तो (रोगवाची शब्द से परे भी (जीविकोपार्जन के लिये) जो न बेचने योग्य (मनुष्य की जो षष्ठी विभक्ति,तदन्त प्रातिपदिक से विकल्प से तसि प्रतिक्ति), उसके अभिधेय होने पर (कन् प्रत्यय का लुप् प्रत्यय होता है। होता है)। ...अपनुदोः - III. ii. 5 अपत्यम् - IV.i.92 देखें-परिमृजापनुदोः III. ii. 5 (षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिकों से) अपत्य = सन्तान अर्थ को कहना हो तो (यथाविहित प्रत्यय होता है)। अपपरिबहिस्चक -II. i. 11 अपत्यम् -IV.I. 162 अप,परि, बहिस् तथा अझु ये (सुबन्त) शब्द (पञ्चम्यन्त (पौत्र और उसके आगे की) सन्तान की (गोत्र संज्ञा होती समर्थ सुबन्त शब्द के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होते हैं, और वह अव्ययीभाव समास होता है)। है। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपपरी अपाच अपपरी-I.1.86 (छोड़ना अर्थ घोतित हो रहा हो तो) अप तथा परि शब्द (कर्मप्रवचनीय और निपातसंज्ञक होते हैं)। अपमित्य... - IV. iv. 21 . देखें- अपमित्ययाचिताभ्याम् IV. iv. 21 अपमित्ययाचिताभ्याम् - V.iv. 21 . (तृतीयासमर्थ) अपमित्य और याचित प्रातिपदिकों से (निर्वृत्त अर्थ में यथासंख्य करके कक और कन प्रत्यय होते है। ...अपर.. -I. 1. 33 देखें-पूर्वपरावरदक्षिणोत्तरापराधराणि I. 1. 33 ...अपर... -II.1.57 देखें- पूर्वापरप्रथम II. 1.57 ...अपर... -II. 1.1. देखें-पूर्वापराबरो० II. 1.1 ...अपर..-IV.1.30 देखें-केवलमामक V.1.30 अपरस्परा:-VI. I. 139 (क्रिया का निरन्तरहोना गम्यमान हो तो) अपरस्पराःशब्द में सुट् आगम निपातन किया जाता है। ...अपराहण..-IV. 1. 28 देखें-पूर्वाहणापराहणाo IV. 1. 28 ...अपराहण... -VI. ii. 38 देखें-बीहापराहण. VI. ii. 38 ...अपराहणाभ्याम् - IV. 1. 24 देखें- पूर्वाणापरा० V. lil. 24 अपरिग्रहे-I. iv.64 अपरिग्रह स्वीकार न करने अर्थ में वर्तमान (अन्तर शब्द क्रियायोग में गति और निपात संज्ञक होता है)। अपरिमाण.. - IV.1.22 देखें-अपरिमाणविस्ताचित IV.1.22 अपरिमाणविस्ताचितकम्बल्येभ्यः - IV. 1. 22 (अदन्त) अपरिमाण, बिस्त, आचित और कम्बल्य अन्तवाले (द्विगुसंज्ञक) प्रातिपदिकों से (तद्धित के लुक् हो जाने पर स्त्रीलिङ्ग में डीप प्रत्यय नहीं होता)। अपरितः -VII. 1. 32 (वेद-विषय में) अपरिताः शब्द (भी) बहुवचनान्त निपातन किया जाता है। अपरे - VII. iv. 80 अवर्णपरक (पवर्ग,यण तथा जकार पर वाले उवर्णान्त अभ्यास को इकारादेश होता है,सन् परे रहते)। ...अपरेधुस... - V. iii. 22 . देखें - सद्य:परुत v. iii. 22 अपरोक्षे-III. 1. 119 अपरोक्ष अर्थात् परोक्षभिन्न (अनद्यतन भूतकाल) में (भी .. वर्तमान धातु से स्म उपपद रहते लट् प्रत्यय होता है)। अपर्श-VI. ii. 177 (बहुव्रीहि समास में उपसर्ग से उत्तर) पशुवर्जित (ध्रुव स्वाङ्ग को अन्तोदात्त होता है)। अपवर्ग-II. iii.6 अपवर्ग = फल प्राप्त होने पर क्रिया की समाप्ति अर्थ में (काल और अध्ववाचियों के अत्यन्तसंयोग में तृतीया विभक्ति होती है)। अपवर्ग-III. iv.60 (तिर्यक् शब्द उपपद रहते ) अपवर्ग गम्यमान होने पर (कृञ् धातु से क्त्वा, णमुल् प्रत्यय होते हैं )। अपस्करः - VI.i. 149 अपस्कर शब्द सुट सहित निपातन किया जाता है. (यदि उससे रथ का अवयव कहा जा रहा हो तो)। अपस्पृधेथाम् -VI..35 (वेद विषय में) अपस्पृधेथाम् शब्द का निपातन किया. जाता है। ...अपहते -v.ii. 70 (पञ्चमीसमर्थ तन्त्र प्रातिपदिक से), 'कुछ समय पहले ही लिया' अर्थ में (कन् प्रत्यय होता है)। अपहवे-I. iii. 44 अपह्नव= मिथ्याभाषण अर्थ में वर्तमान (ज्ञा धातु से आत्मनेपद होता है)। ...अपा: - VI. ii. 33 देखें- परिप्रत्युपापा: VI. ii. 33 अपाड्परिभिः -II. iii. 10 (कर्मप्रवचनीयसंज्ञक) अप, आङ और परि के योग में (पञ्चमी विभक्ति होती है)। ....अपाच्... - IV. ii. 100 देखें-घुप्रागपागु० IV. 1. 100 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपात् Olo - अपात् -I. 11.63 अपि: -I. iv. 95 अप उपसर्ग से उत्तर (वद धातु से क्रियाफल के कर्ता को मिलने की स्थिति में आत्मनेपद होता है)। वन, अन्ववसर्ग अर्थात् कामचार = करे या न करे, गर्दा अपात् -VI.i. 137 अर्थात् निन्दा तथा समुच्चय अर्थों में कर्मप्रवचनीय और अप उपसर्ग से उत्तर (चार पैर वाले बैल आदि तथा निपातसंज्ञक होता है)। मोर आदि पक्षी का कुरेदना अभिप्राय हो तो उस विषय अपि-I. iv. 104 में,ककार से पूर्व सुट् आगम होता है,संहिता में)। (युष्मद शब्द के उपपद रहते समान अभिधेय होने पर अपात् - VI. ii. 186 युष्मद् शब्द का प्रयोग न हो) या हो तो भी (मध्यम पुरुष अप उपसर्ग से उत्तर (भी उत्तरपदस्थित मुख शब्द को होता है)। अन्तोदात्त होता है)। अपि-III.i. 84 अपादादौ - VIII. I. 18 (वेद विषय में श्ना के स्थान में शायच् आदेश) भी (यहाँ से आगे 'तिङि चोदात्तवति' VIII. 1.71 तक होता है तथा पूर्वप्राप्त शानच होता ही है)। जो कुछ कहेगें, वहाँ) पाद के आदि में न हो तो (सारा अपि-III. II. 61 अनुदात्त होता है, ऐसा अधिकार समझना चाहिये। (सोपसर्ग होने पर भी तथा निरुपसर्ग होने पर) भी (सत, अपादानम् - I. iv. 24 सू,द्विष,गुह,दुह,युज,विद,भिद,छिद,जि,नी,राजू धातुओं (क्रिया में अपाय = अलग होने पर जो निश्चल रहे,उस से सबन्त उपपद रहते क्विप् प्रत्यय होता है)। कारक की) अपादान संज्ञा होती है। अपि-III. 1.75. अपादाने-II. iii. 28. (आकारान्त धातुओं से भिन्न धातुओं से) भी (मनिन, (अनभिहित) अपादान कारक में (पञ्चमी विभक्ति होती क्वनिप, वनिप् तथा विच प्रत्यय देखे जाते है)। अपि-III. 1. 101 अपादाने -III. iv. 52 - (पर्वसत्रों में जिनके उपपद रहते जन धातु से ड प्रत्यय (शीघ्रता गम्यमान हो तो) अपादान उपपद रहते (धातु का विधान किया है, उनसे अन्य कोई उपपद हो तो) भी से णमुल् प्रत्यय होता है)। (जन् धातु से ड प्रत्यय देखा जाता है)। अपादाने-III. iv.74 अपि -III. ii. 178 (भीमादि उणादिप्रत्ययान्त शब्द) अपादान कारक में (अन्य धातुओं से) भी (तच्छीलादि कर्ता हो,तो वर्तमा(निपातन किये जाते है)। नकाल में क्विप् प्रत्यय देखा जाता है)। अपादाने -v.iv. 45 अपि-III. iii.2 अपादान कारक में (भी जो पञ्चमी. तदन्त से विकल्प से तसिप्रत्यय होता है,यदि वह अपादान कारक हीय तथा (उणादि प्रत्यय धातु से भूतकाल में) भी ( देखे जाते रुह सम्बन्धी न हो तो)। अपाये -I. iv. 24 अपि-III. iii. 130 (क्रिया में) अपाय = अलग होने पर (जो अचल रहे,उस (वेद विषय में गत्यर्थक धातुओं से अन्य धातुओं से) भी कारक की अपादान संज्ञा होती है)। (कृच्छ्राकृच्छ्र अर्थ में ईषदादि उपपद रहते युच प्रत्यय देखा अपारलौकिके -VI. I. 48 जाता है)। (पिधु हिंसासंराध्योः धातु यदि) अपारलौकिक = इह अपि... -III. iii. 142 लौकिक अर्थ में वर्तमान हो तो (उसके एच के स्थान में देखें-अपिजात्वोः III. iii. 142 णिच् परे रहते आकारादेश हो जाता है)। अपि -III. iii. 145 अपि-I. iv. 80 (किंवृत्त उपपद न हो या) किंवृत्त उपपद हो तो भी (धातु (वेद विषय में गति और उपसर्ग-संज्ञक शब्द धातु से से काल-सामान्य में सब लकारों के अपवाद लिङ् तथा पर में तथा पूर्व में) भी (आते है)। लृट् प्रत्यय होते हैं,असम्भावना तथा सहन न करना गम्यमान हो तो)। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपि अपिभ्याम् अपि-IV. 1. 124 अपि-VIII. iii. 58 (जनपद तथा जनपद अवधिवाची अवृद्ध तथा वृद्ध) भी (नुम, विसर्जनीय तथा शर प्रत्याहार का व्यवधान होने (बहुवचनविषयक प्रातिपदिकों से शैषिक वुज प्रत्यय होता पर) भी (इण तथा कवर्ग से उत्तर सकार को मर्धन्य आदेश होता है)। अपि-v.ii. 14 sifa - VIII. iii. 63 (सप्तमी और पञ्चमी से अतिरिक्त अन्य भी जो विभक्ति, (सित शब्द से पहले-पहले अट का व्यवधान होने पर तदन्त शब्दों से) भी (तसिलादि प्रत्यय देखे जाते है)। तथा) अपि ग्रहण से अट् का व्यवधान न होने पर भी अपि-VI. iii. 136 (सकार को मूर्धन्य आदेश होता है)। (अन्य शब्दों को) भी (दीर्घ देखा जाता है)। अपि -VIII. iii. 71 अपि - VI. iv.73 (परि.नि तथा वि उपसर्ग से उत्तर सिवादि धातुओं के (वेद विषय में) भी (आट् आगम देखा जाता है)। सकार को अट के व्यवधान होने पर) भी (विकल्प से अपि - VI. iv.75 मूर्धन्य आदेश होता है)। (लुङ,लङ्लु ङ् के परे रहने पर वेद-विषय में माङ्का अपि-VIII. iv.2 योग होने पर अट्, आट् आगम बहुल करके होते हैं और (रेफ तथा षकार से परे अटकवर्ग,पवर्ग,आङ् तथा नुम् माङ् का योग न होने पर) भी (नहीं होते)। का व्यवधान होने पर) भी (नकार को णकार हो जाता है)। अपि -VII. I. 38 अपि - VIII. iv.5 (वेद विषय में अनपूर्व वाले समास में क्त्वा के स्थान (प्र, निर्, अन्तर, शर, इक्षु, प्लक्ष, आम्र, कार्घ्य खदिर, में क्त्वा आदेश होता है तथा ल्यप) भी होता है)। पीयूक्षा - इनसे उत्तर वन शब्द के नकार को असञ्जा- ' अपि-VII.1.76 विषय में भी तथा) अपिग्रहण से सज्ञाविषय में भी (णका(अस्थि,दधि,सक्थि - इन अङ्गों को वेद विषय में) भी रादेश होता है)। (अनङ्आ देश देखा जाता है)। अपि-VIII. iv. 14 अपि-VII. iii. 47 . (भस्वा, एषा,अजा,ज्ञाद्वा.स्वा-ये शब्द नब पूर्व वाले (उपसर्ग में स्थित निमित से उत्तर णकार उपदेश में है हों तो भी) न हों तो भी (इनके आकार के स्थान में जो अकार, जिसके, ऐसे धातु के नकार को असमास में तथा) अपिउसको उदीच्य आचार्यों के मत में इत्व नहीं होता)। ग्रहण से समास में भी (णकार आदेश होता है)। अपि -VIII. I. 35 अपि-VIII. iv. 37 हि से युक्त साकांक्ष अनेक तिङन्तों को भी तथा) अपिग्रहण से एक को भी (कहीं कहीं अनुदात्त नहीं होता.वेद- (निमित्त र,ष तथा निमित्ती न के मध्य पद का व्यवधान विषय में)। होने पर) भी (नकार को णकार नहीं होता)। अपि - VIII. 1. 68 अपिजात्वोः -III. iii. 142 (पूजनवाचियों से उत्तर गतिसहित तिङन्त को तथा गति- (निन्दा गम्यमान हो तो) अपि तथा जातु उपपद रहते भिन्न तिङन्त को) भी (अनुदात्त होता है)। (धातु से लट् प्रत्यय होता है)। . अपि - VIII. ii. 86 अपित् -1. ii. 4 (ऋकार को छोड़कर वाक्य के अनन्त्य गुरुसज्ञक वर्ण पिद्भिन्न = पकार इत्संज्ञक प्रत्यय को छोड़कर (सार्वको एक एक करके तथा अन्त्य के टि को) भी (प्राचीन धातुक प्रत्यय ङित्वत् होते हैं)। आचार्यों के मत में प्लुत उदात्त होता है)। अपित् - III. iv. 87 अपि -VIII. 1. 105 (लोडादेश जो सिप.उसके स्थान में हि आदेश होता है (वाक्यस्थ अनन्त्य एवं ) अपि ग्रहण से अन्त्य पद की और) वह अपित (भी) होता है। टि को भी (प्रश्न एवं आख्यान होने पर स्वरित प्लुत होता ...अपिभ्याम् -III. I. 118 देखें - प्रत्यपिभ्याम् III. i. 118 . सदशहामह)। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपीलो: 51 अपोनप्पानप्तृभ्याम् । अपीलो: - VI. ii. 120 अपृक्तस्य-VI.i.65 पीलु शब्द को छोड़कर (जो इगन्त पूर्वपद शब्द,उनको अपृक्तसज्ञक (वि) का (लोप होता है)। 'वह' शब्द उत्तरपद रहते दीर्घ होता है)। अपृक्ते - VII. iii. 91 अपुत्रस्य-VII. iv. 35 (ऊर्गुज् अङ्ग को) अपृक्त (हल् पित् सार्वधातुक) परे पुत्र शब्द को छोड़कर (अवर्णान्त अङ्ग को वेद-विषय में रहते (गुण होता है)। क्यच् परे रहते जो कुछ कहा है, वह नहीं होता)। अपृक्ते - VII. iii. 96 ...अपूपादिभ्यः - V.i.4 (अस् धातु तथा सिच से उत्तर) अपृक्त (हलादि सार्वदेखें - हविरपूपादिभ्यः V.i.4 धातुक) को (ईट् आगम होता है)। अपूरणी... -VI. iii. 33 अपृथिवी... - VI. ii. 142 देखें - अपूरणीप्रियादिषु VI. iii. 33 देखें- अपृथिवीरुद्र० VI. ii. 142 अपूरणीप्रियादिषु - VI. iii. 33 अपृथिवीरुद्रपूषमन्थिषु-VI. ii. 142 (एक ही अर्थ में अर्थात् एक ही प्रवृत्ति-निमित्त को लेकर देवतावाची द्वन्द्व समास में अनुदात्तादि उत्तरपद रहते) भाषित = कहा है पुल्लिग अर्थ को जिस शब्द ने, ऐसे पथिवी.रुद्र.पषन.मन्थी-इन शब्दों को छोड़कर (एक ऊवजित भाषितपुंस्क स्त्रीलिंग के स्थान में पुंल्लिगवाची साथ पूर्व तथा उत्तरपद को प्रकृतिस्वर नहीं होता है)। शब्द के समान रूप हो जाता है),पूरणी तथा प्रियादिवर्जित ता ह),पूरणा तथा प्रयादिवाजत अपे-III. ii.50 . (स्त्रीलिंग समानाधिकरण) उत्तरपद परे हो तो। (क्लेश तथा तमस् कर्म उपपद रहते) अपपूर्वक (हन् अपूर्वनिपाते -1. ii. 44 धातु से ड प्रत्यय होता है)। (समास विधीयमान होने पर नियत विभक्ति वाला पद भी उपसर्जन संज्ञक होता है),उपसर्जन के पूर्वप्रयोग वाले अपपूर्वक (तथा चकार से विपूर्वक लष् धातु से भी कार्य को छोड़कर। घिनुण प्रत्यय होता है)। अपेत... -II. .37 अपूर्वपदात् - IV. 1. 140 अविद्यमान पूर्वपद वाले (कुल) शब्द से विकल्प करके । देखें - अपेतापोढमुक्त० II. 1. 37 यत् और ढकञ् प्रत्यय होते हैं,पक्ष में ख)। अपेतापोढमुक्तपतितापत्रस्तै: - II.i. 37 (थोड़े से पञ्चम्यन्त सुबन्त) अपेत, अपोढ, मुक्त,पतित, अपूर्वम् - VIII. I. 47 अपत्रस्त - इन (समर्थ सुबन्तों) के साथ (विकल्प से जिससे पूर्व कोई शब्द विद्यमान नहीं है,ऐसे (जातु शब्द समास को प्राप्त होते हैं और वे तत्पुरुष होते है)। से युक्त तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता )। ...अपो: - II. iv. 38 अपूर्वक्चने - IV.ii. 12 देखें- छत्रपो: II. iv. 38 (कौमार शब्द) अपूर्ववचन=जिसका पाणिग्रहण पहले ...अपो: - II. iv.56 न हुआ हो, ऐसे अर्थ को व्यक्त करने में (अण् प्रत्ययान्त देखें- अघत्रपोः II. iv.56 निपातन किया जाता है)। ...अपोढ...- II.i.37 ...अपूर्वस्य-VIII. iii. 17 देखें - अपेतापोढमुक्त II. I. 37 देखें- भोभगो० VIII. iii. 17 अपोनप्त... -IV.ii. 26 अपृक्तः -I. I. 41 देखें-अपोनप्पान्नप्तृभ्याम् IV.ii. 26 - (एक = असहाय अल् वाला प्रत्यय) अपृक्त संज्ञक अपोनप्वपान्नप्तृभ्याम् - IV.ii. 26 होता है। देवतावाची अपोनपात् तथा अपांनपात् शब्दों से अपृक्तम् -VI. .66 .. (षष्ठ्यर्थ में घ प्रत्यय होता है,और घ प्रत्यय के सन्नियोग (हलन्त, ड्यन्त तथा आबन्त दीर्घ से उत्तर सु, ति तथा से इन शब्दों को क्रमशः अपोनप्त और अपान्नप्तृ रूपों सि का) जो अपृक्त (हल) उसका (लोप होता है)। का आदेश भी होता है)। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्ततस्वस० अप्राणिषु अतन्तस्वसनप्तनेष्टत्वष्टचतहोतृपोतृप्रशास्तृणाम् - अप्रथमायाम् -VI. I. 131 VI. iv. 11 (मन्त्र विषय में) प्रथमा से भिन्न विभक्तियों के परे रहने अप.तून.तच्यत्ययान्त,स्वस,नप्त,नेष्ट, त्वष्ट,क्षत,होत, नत्वदायत,हात, पर (ओषधि शब्द को भी दीर्घ हो जाता है)। पोत, प्रशास्तृ - इन अङ्गों की (उपधा को दीर्घ होता है, अप्रथमासमानाधिकरणे -III. 1. 124 सम्बुद्धिभिन्न सर्वनामस्थान परे रहते)। ...अप्यो:-III. I. 141 (धातु से लट् के स्थान में शतृ तथा शानच आदेश होते. देखें-उताप्योः III. M. 141 है),यदि अप्रथमान्त के साथ उस लट् का सामानाधिकरण्य हो तो। ...अप्यो: -III. I. 152 देखें- साप्योः III. III. 152 अप्रधान.. -VI. I. 189 ...अप्रख्यानात् -I. 1.54 देखें-अप्रधानकनीयसी VI. 1. 189 देखें - लुब्योगाप्रख्यानात् I. 1.54 अप्रधानकनीयसी-VI. I. 189 . अप्रगृहास्य-VIII. 1. 107 (अनु अपसर्ग से उत्तर) अप्रधानवाची अर्थात् क्रियादि . (दूर से बुलाने के विषय से भिन्न विषय में)प्रगृह्यसञक में जिसे मुख्य रूप से नहीं कहा जा रहा हो; ऐसे उत्तरपद से भिन्न (एच के पूर्वाई भाग) को (प्लुत करने के प्रसंग में को तथा कनीयस शब्द को (अन्तोदात्त होता है)। आकारादेश होता है,तथा उत्तरदाले भाग को इकार,उकार अप्रधाने -II. 1. 19 आदेश होते है)। (सह अर्थ से युक्त) अप्रधान अर्थात्-दोनों में से जिसका . अप्रगृह्यस्य -VIII. iv.56 . क्रियादि के साथ सम्बन्ध साक्षात् शब्द द्वारा नहीं कहा. : (अवसान में वर्तमान) प्रगृह्यसञक से भिन्न (अण को विकल्प से अनुनासिक आदेश होता है)। गया है, उसमें (तृतीया विभक्ति होती है)। अप्रतिषिद्धम् -VIII. 1. 44 ...अप्रयोगे -II.1.56 क्रिया के प्रश्न में वर्तमान किम शब्द से यक्त उपसर्ग देखें-सामान्याप्रयोगे II.1.56 से रहित तथा) प्रतिषेधरहित (तिङन्त) को (अनुदात्त नहीं अप्रशान् -VIII. 1.7 होता)। प्रशान् को छोड़कर (नकारान्त पदकों अम्परक छव अप्रते: -II. iii.43 प्रत्याहार परे रहते रु होता है.संहिता में)। प्रति का प्रयोग न होने पर (साधु और निपुण शब्द के अप्राणिनाम् -II. iv.6 योग में सप्तमी विभक्ति होती है. अर्चा गम्यमान होने प्राणिरहित (जातिवाची) शब्दों का (जो द्वन्द्व, उसे पर)। अप्रते: -VIII. iii. 66 एकवद्भाव होता है)। प्रति से भिन्न (उपसर्गस्थ निमित्त) से उत्तर (षदल धातु के अप्राणिषष्ठ्या -VI. 1. 134 सकार को मूर्धन्य आदेश होता है, अडु तथा अभ्यास के प्राणिभिन्न षष्ठ्यन्त शब्द से उत्तर (तत्पुरुष समास में व्यवधान में भी)। उत्तरपद चूर्णादि शब्दों को आधुदात्त होता है)। अप्रत्ययः -I.i. 68 प्रत्यय को छोड़कर (अण् एवं उदित् वर्ण अपने स्वरूप अप्राणिषु - II. ii.7 तथा अपने सवर्ण के ग्राहक होते हैं)। (मन् धातु के) प्राणिवर्जित (कर्म में अनादर गम्यमान अप्रत्ययः -I. 1.40 होने पर चतुर्थी विभक्ति होती है)। (अर्थवान् शब्द प्रातिपदिक-संज्ञक होते हैं; धातु),प्रत्यय अप्राणिषु-v. iv.97 और प्रत्ययान्त को छोड़कर। (उपमानवाची श्वन शब्द) प्राणिविशेष का वाचक न हो अप्रत्ययस्य-VIII. HI. 41 तो (तदन्त तत्पुरुष से समासान्त टच प्रत्यय होता है)। (इकार और उकार उपधा वाले) प्रत्ययभिन्न समुदाय के अप्राणिप-VI. iii.76 (विसर्जनीय को भी षकार आदेश होता है। कवर्ग.पवर्ग परे रहते)। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्राणिषु अप्राणिषु - VIII. iii. 72 (अनु, वि, परि, अभि, नि उपसगों से उत्तर स्यन्दू धातु सकार को मूर्धन्य आदेश होता है), यदि प्राणी का कथन न हो रहा हो तो । अप्रातिलोम्ये -VIII. i. 33 अनुकूलता गम्यमान हो तो (अङ्ग शब्द से युक्त तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता) । अप्राप्रेडितयो: - VIII. iii. 49 प्र तथा आम्रेडित से भिन्न (कवर्ग तथा पवर्ग) परे हो तो (वेद विषय में विसर्जनीय को विकल्प से सकारादेश होता है) । अप्लुतवत् - VI. 1. 125 (अनार्ष इति के परे रहते प्लुत) अप्लुत के समान हो जाता है। . अप्लुतात् - VI. 1. 109 अप्लुत (अकार) से उत्तर (अप्लुत अकार परे रहते रु के रेफ को उकार आदेश होता है, संहिता के विषय में) । अप्लुते : - VI. i. 109 (प्लुतभिन्न अकार से उत्तर) प्लुतभिन्न (अकार) परे रहते (रु के रेफ को उकार आदेश होता है, संहिता के विषय में) । अबहु..... - V. iv. 73 देखें - अबहुगणात् V. iv. 73 अबहुगणात् - Viv. 73. बहु तथा गण शब्द अन्त में नहीं है जिसके, ऐसे (संख्येय 'अर्थ में वर्तमान बहुव्रीहि समास-युक्त) प्रातिपदिक से (डच् प्रत्यय होता है)। अबहुव्रीहि... .. - VI. iii. 46 देखें - अबहुव्रीह्यशीत्यो: VI. iii. 46 अबहुव्रीह्यशीत्योः -VI. iii. 46 बहुव्रीहि समास तथा अशीति शब्द से भिन्न (संख्यावाचक) शब्द उत्तरपद हो तो, (द्वि तथा अष्टन् शब्दों को आकारादेश होता है)। अबह्वच् - VI. ii. 138 (शिति शब्द से उत्तर नित्य ही) जो अबह्वच् अर्थात् एक या दो अच् वाला (उत्तरपद), उसको (बहुव्रीहि समास में प्रकृतिस्वर होता है, भसत् शब्द को छोड़कर) । भसत् = सूर्य, मांस, बतख, समय, डोंगी, योनि । अबोधने - II. iv. 46 ज्ञान अर्थ से भिन्न अर्थ में वर्तमान (इण् के स्थान में गम् आदेश होता है, णिच् परे रहते ) । 53 अभाषितपुंस्कात् अब्राह्मण... - V. iii. 114 देखें - अब्राह्मणराजन्यात् V. iii. 114 अब्राह्मणराजन्यात् - V. iii. 114 (वाहीक देशविशेष में शस्त्र से जीविका कमाने वाले पुरुषों के) ब्राह्मण और राजन्यभिन्न समूहवाची प्रातिपदिकों से ( यङ् प्रत्यय होता है) । J अभक्ष्य... - IV. iii. 140 देखें - अभक्ष्याच्छादनयो: IV. iii. 140 अभक्ष्याच्छादनयोः - IV. iii. 140, (षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिकों से) भक्ष्य तथा आच्छावर्जित ( विकार और अवयव) अर्थों में (लौकिक प्रयोगविषय में विकल्प से मयट् प्रत्यय होता है ) । अभविष्यति - VII. iii. 16 (सङ्ख्यावाची शब्द से उत्तर वर्ष शब्द के अचों में आदि अच् को ञित् णित् अथवा कित् तद्धित प्रत्यय परे रहते वृद्धि होती है, यदि वह तद्धित प्रत्यय) भविष्यत् अर्थ हुआ हो तो । अभसत् - VI. ii. 138 (शिति शब्द से उत्तर नित्य ही जो अबह्वच् उत्तरपद, उसको बहुव्रीहि समास में प्रकृतिस्वर होता है), भसत् शब्द को छोड़कर। अभागे - I. iv. 90 (लक्षणेत्थम्भूताख्यान० ' I. iv. 89 सूत्र पर कहे गये अर्थों में) भाग अर्थात् हिस्सा अर्थ को छोड़कर (अभि शब्द की कर्मप्रवचनीय और निपात संज्ञा होती है)। अभाव... - VI. iv. 168 देखें - अभावकर्मणोः VI. iv. 168 अभावकर्मणोः - VI. iv. 168 भाव तथा कर्म से भिन्न अर्थ में वर्तमान ( यकारादि तद्धि के परे रहते भी अन्नन्त भसञ्ज्ञक अङ्ग को प्रकृतिभाव हो जाता है। अभाषितपुंस्कात् - VII. iii. 48 अभाषितपुंस्क = एक ही अर्थ में अर्थात् एक ही प्रवृत्ति निमित्त को लेकर नहीं कहा है पुंल्लिङ्ग अर्थ को जिस शब्द ने, ऐसे शब्द से विहित (प्रत्ययस्थित ककार से पूर्व आकार के स्थान में जो अकार, उसको नञ्पूर्व होने पर और पूर्व होने पर भी उदीच्य आचार्यों के मत में इकारादेश नहीं होता) । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभि अभिविद्यौ अभिनिविश: -1. iv. 86 अभिनि पूर्वक विश का (जो आधार.वह भी कर्मसंज्ञक होता है)। अभिनिष्कामति - IV. iii. 86 (द्वितीयासमर्थ प्रातिपदिक से ) अभिनिष्क्रमण अर्थात् निकलना क्रिया का (द्वारकर्ता अभिधेय हो तो यथाविहित प्रत्यय होता है)। अभिनिस: - VIII. iii. 86 अभि तथा निस् से उत्तर (स्तन धातु के सकार को शब्द की सज्ञा गम्यमान हो तो विकल्प से मूर्धन्य आदेश होता ..अभिपूजितयोः - VIII. 1. 100 देखें-प्रश्नान्ताभिपूजितयोः VIII. 1. 100 . अभिप्रती-II. 1. 13 (आभिमुख्य अर्थ में वर्तमान) अभि और प्रति शब्द (लक्षणवाची समर्थ सुबन्त के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होते है, और वह समास अव्ययीभाव संज्ञक होता। अभि...-I. iii. 80 देखें-अभिप्रत्यतिभ्यः I. iii. 80 अभि... -I. iv.46 देखें- अभिनिविश: I. iv.46 अभि... -II. I. 13 देखें-अभिप्रती II. 1. 13 . ...अभि... -III. Iii. 72 देखें-न्यभ्युपविषु III. iii. 72 अभि... - VI. 1. 26 देखें-अभ्यवपूर्वस्य VI.1. 26 ...अभि.. - VIII. iii. 72 . देखें - अनुविपर्य० VIII. iii. 72 अभिः - I. iv. 90 (लक्षणेत्थम्भूताख्यान.' I. iv. 89 सूत्र पर कहे गये अर्थों में भाग अर्थात् हिस्सा अर्थ को छोड़कर) अभि शब्द की (कर्मप्रवचनीय और निपात संज्ञा होती है)। ...अभिक... - V.ii. 74 देखें- अनुकाभिकाभीक: V..1.74 अभिजन: - IV. iii. 90 (प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ में यदि वह प्रथ- मासमर्थ) अभिजन = पूर्वबन्धु अथवा उनका देश हो तो (भी यथाविहित प्रत्यय होते हैं)। ...अभिजित्... - IV. iii. 36 देखें-वत्सशालाभिजिक IV. iii. 36 अभिजित्... - V. iii. 118 . देखें- अभिजिद्विदभृत् V. iii. 118 अभिजिद्विदभृच्छालावच्छिखाक्च्छमीवदूर्णाक्च्छमदणः -v.ili. 118 अभिजित्, विदभृत, शालावत, शिखावत्, शमीवत्, ऊर्णावत् तथा श्रुमत् सम्बन्धी जो अण् प्रत्ययान्त शब्द, उनसे (स्वार्थ में यत् प्रत्यय होता है)। अभिज्ञावचने -III. 1. 112 अभिज्ञावचन अर्थात् स्मृति को कहने वाला कोई शब्द उपपद हो तो (अनद्यतन भूतकाल में धातु से लट् प्रत्यय होता है)। अभितोमावि – VI. ii. 182 (परि उपसर्ग से उत्तरी अभितोभावि = दोनों ओर से होना स्वभाव है जिसका. इस अर्थ को कथन करने वाले शब्द को (अन्तोदात्त होता है)। अभिप्रत्यतिभ्यः -I. iii. 80 , . अभि प्रति और अति उपसर्ग से उत्तर क्षिप धात से परस्मैपद होता है)। ...अभिप्राये -I. iii. 72 . देखें- कर्जभिप्राये I. iii. 72 ...अभिप्रेत...- III. iv. 59 देखें - अयथाभिप्रेताख्याने III. iv.59 अभिप्रेति -I. iv. 32 (करणभूत कर्म के द्वारा जिसको) अभिप्रेत लक्षित किया जाये,(वह कारक सम्प्रदान संज्ञक होता है)। ...अभिभ्यः - VIII. iii. 119 देखें - निव्यभिभ्यः VIII. iii. 119 ...अभिभ्याम् - V. iii.9 देखें-पर्यभिभ्याम् V. ill.9 अभिविधौ -III. 11.44 अभिव्याप्ति गम्यमान हो तो (धातु से भाव में इनुण प्रत्यय होता है)। अभिविधौ-v.iv.53 अभिव्याप्ति गम्यमान हो तो (क,भ तथा अस धातु के योग में तथा सम् पूर्वक पद धातु के योग में भी विकल्प से साति प्रत्यय होता है)। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिविध्योः अभ्यासस्य - अभ्यस्तात् -VII.1.4 अभ्यस्त अङ्ग से उत्तर (प्रत्यय के अवयव झकार के स्थान में अत् आदेश हो जाता है)। । अभ्यस्तात् - VII. I. 78 (अभ्यस्त अङ्ग से उत्तर) शतृ को (तुम् आगम नहीं होता अभ्यस्तानाम् - VI.1.183 (अजादि अनिट् लसार्वधातुक परे हो तो) अभ्यस्तसञ्जकों के (आदि को उदात्त होता है)। अभ्यादाने - VIII. ii. 87 प्रारम्भ में वर्तमान (ओम शब्द को प्लुत उदात्त होता ...अभिविध्योः - II.i. 12 देखें - मर्यादाभिविध्योः II.i. 12 ...अभिव्यक्तिषु -VIII. I. 15 देखें - रहस्यमर्यादा० VIII. i. 15 ...अभीक: - V.ii. 74 देखें- अनुकाभिकाभीक: V.ii.74 अभे: - VI. ii. 185 अभि उपसर्ग के आगे (उत्तरपद स्थित मुख शब्द को अन्तोदात्त होता है)। अभे: - VII. I. 25 अभि उपसर्ग से उत्तर (भी अर्द धातु से निष्ठा परे रहते इट् आगम नहीं होता, सन्निकट अर्थ में)। अभ्यम् - VIII. I. 30 (युष्मद, अस्मद् अङ्ग से उत्तर भ्यस् के स्थान में भ्यम् अथवा) अभ्यम् आदेश होता है । ...अभ्यम...-III. ii. 157 देखें-जिदक्षि० III. ii. 157 अभ्यमित्रात् -V.ii. 17 (द्वितीयासमर्थ) अभ्यमित्र प्रातिपदिक से (पर्याप्त जाता है' अर्थ में छ, यत् और ख प्रत्यय होते हैं)। . अभ्यवपूर्वस्य - VI. 1. 27 अभि तथा अव पूर्व वाले (श्यैङ् धातु) को (निष्ठा परे रहते विकल्प से सम्प्रसारण होता है)। ...अभ्यस्त... -III. iv. 107 देखें-सिषभ्यस्त III. iv. 107 अभ्यस्तम् -VI.1.5 (धातुओं के एकाच को किये जाने वाले द्वित्व रूपों में दोनों की) अभ्यस्त संज्ञा होती है । ...अभ्यस्तयो:-VI. iv. 112 देखें-स्नाभ्यस्तयो: VI. iv. 112 अभ्यस्तस्य-VI.i. 32 (सन्परक तथा चङ्परक णि के परे रहते हृञ् धातु को सम्प्रसारण हो जाता है,तथा) अभ्यस्त का निमित्त जो (हे धातु), उसको (भी सम्प्रसारण हो जाता है)। अभ्यस्तस्य-VII. III. 87 अभ्यस्त-सज्जक अङ्गकी (लघु उपधा इक को अजादि पित् सार्वधातुक परे रहते गुण नहीं होता)। ...अभ्यावृत्ति... - V. iv. 17 देखें-क्रियाभ्यावृत्तिगणने V. iv. 17 . अभ्यासः -VI.1.4 धातुओं के एकाच् को किये गये द्वित्व में प्रथमरूप अभ्यास-सञ्जक होता है । अभ्यासलोपः -VI. iv. 119 (घुसज्ञक अङ्ग एवं अस् को एकारादेश तथा) अभ्यास का लोप होता है; (कित,डित् हि परे रहते)। अभ्यासस्य-III. 1.6 (मान, बध, दान् और शान् धातुओं से सन् प्रत्यय होता है,तथा) अभ्यास के विकार को दीर्घ आदेश होता है)। अभ्यासस्य -VI.1.1 (तुज् के प्रकारवाली धातुओं के) अभ्यास को (दीर्घ होता ह) अभ्यासस्य-VI. 1. 17 (लिट् लकार के परे रहते दोनों अर्थात् वचिस्वपियजादि तथा पहिज्यादि के) अभ्यास को (सम्प्रसारण हो जाता है)। अभ्यासस्य - VI. iv.78 (इवर्णान्त,उवर्णान्त) अभ्यास को (सवर्णभिन्न अच् परे रहते इयङ्ठवङ् आदेश होते है)। अभ्यासस्य -VII. iv.4 (पा पाने' अङ्गकी उपधा का चङ्परक णि परे रहते लोप तथा) अभ्यास को (ईकारादेश होता है)। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभ्यासस्य अभ्यासस्य VII. iv. 58 (यहां सन् परे रहते जो कार्य कहा है, अर्थात् जो इस ईत् आदि का विधान किया है, उनके) अभ्यास का (लोप होता है)। अभ्यासस्य - VIII. ill. 64. (सित से पहले पहले स्था इत्यादियों में अभ्यास का व्यवधान होने पर मूर्धन्य आदेश होता है तथा) अभ्यास के (सकार को भी मूर्धन्य होता है) । अभ्यासात् - VIL III. 55 अभ्यास से उत्तर (भी हन् धातु के हकार को कवगदिश होता है)। अभ्यासात् - VIII. iii. 61 अभ्यास के (इ) से उत्तर (स्तु तथा व्यन्त धातुओं के आदेश सकार को ही षत्वभूत सन् परे रहते मूर्धन्य आदेश होता है। अभ्यासे - 1. III. 71 अभ्यास बार बार करने अर्थ में (मिथ्या शब्द उपपद वाले ण्यन्त कृञ् धातु से आत्मनेपद होता है)। अभ्यासे - VIII. Iv. 53 अभ्यास में वर्तमान (झलों को चर आदेश होता है तथा चकार से जश् भी होता है ) । अभ्यासेन - VIII. 1. 64 (सित से पहले पहले स्था इत्यादियों में) अभ्यास का व्यवधान होने पर (मूर्धन्य आदेश होता है तथा अभ्यास के सकार को भी मूर्धन्य आदेश होता है ) । .. अध्याहन - III. 1. 142 देखें सम्पृचानुरुबा०] III. II. 142 अभ्युत्सादयाम् III. 1. 42 अभ्युत्सादयामकः, (प्रजनयामकः, चिकयामकः, रमयामकः, पावयांक्रियात्, विदामक्रन् शब्दों का विकल्प से) निपातन किया जाता है, (छन्द में ) । ... अभ्यो. - - III. iii. 28 देखें - निरभ्यो: III. iii. 28 ... अप्र... - III. 1. 17 देखें - शब्दवैरकलहा०] III. 1. 17 - ... अ... - III. it. 42 देखें सर्वकूल० III. II. 42 - ... अधात् - IV. iv. 118 देखें समुद्राप्रात् IV. Iv. 118 - • 56 ... अप्रे - III. 1. 32 देखें - वहाने III. I. 32 ...अप्रेषयोः ...अप्रेषयोः - III. III. 37 iii. देखें- द्यूतान्प्रेषयोः III. I. 37 अम् - II. iv. 83 (अदन्त अव्ययीभाव से उत्तर सुप् का लुक नहीं होता, अपितु उस सुप् को तो) अम् आदेश हो जाता है, (पञ्चमी विभक्ति को छोड़कर) । ..अम्... - IV. 1. 2 देखें - स्वौजसमौट् IV. 1. 2 अम् - VLL 57 (सृज् और दृशिर् धातु को कित् भिन्न झलादि प्रत्यय परे हो तो) अम् आगम होता है । अम्... - VI. 1. 90 देखें - अम्शसो: VI. 1. 90 अम् VI. III. 67 -- (खिदन्त उत्तरपद रहते इजन्त एकाच् को) अम् आगम होता है और वह अम् (प्रत्यय के समान भी माना जाता है)। अम्... - VI. Iv. 80 देखें - अम्लसो VI. iv. 80 अम अम् - VII. 1. 24 (अकारान्त नपुंसकलिङ्ग वाले अन्न से उत्तर सु और अम् के स्थान में) अम आदेश होता है। अम् - VII. 1. 28 (युष्मद् तथा अस्मद् अङ्ग से उत्तर ङे तथा प्रथमा एवं द्वितीया विभक्ति के स्थान में) अम् आदेश होता है । अम् - VII. 1. 99 (संबुद्धि परे रहते चतुर् तथा अनडुह अङ्गों को) अम् आगम होता है । अम्... - VIII. iii. 6 देखें- अपरे VIII. III. 6 ... अम... - VII. 11. 28 देखें- रुष्यमत्वरo VII. ii. 28 ... अम: देखें - तान्तन्तामः III. iv. 101 - - III. iv. 101 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम: अम: VII. i. 40 अम् के स्थान में (मश् आदेश होता है, वेद-विषय में) । - ... अम: - VII. iii. 95 देखें - तुरुस्तुo VII. iii. 95 ... अमत्र... - IV. 1. 42 देखें अमत्रेभ्यः IV. ii. 13 वृत्यमत्राo IV. 1. 42 - (सप्तमीसमर्थ) पात्रवाची प्रातिपदिकों से (भोजन के पश्चात् अवशिष्ट अर्थ में यथाविहित अण् प्रत्यय होता है) । अमद्राणाम् - VII. iii. 13 (दिशावाची शब्दों से उत्तर) मद्रशब्दवर्जित (जनपदवाची उत्तरपद) शब्द के (अचों में आदि अच् को तद्धित जित्, णित् तथा कित् प्रत्यय परे रहते वृद्धि होती है)। अमनुष्यकर्तृके - III. I. 53 मनुष्यभिन्न कर्ता अर्थ में वर्तमान (हन् धातु से कर्म उपपद रहते टक् प्रत्यय होता है)। .... अमनुष्यपूर्वा - II. Iv. 23 देखें – राजामनुष्यपूर्वा II. iv. 23 अमनुष्ये - IV. ii. 99 ( रकु शब्द से) मनुष्य अभिधेय न हो तो (अण् और ष्फक् प्रत्यय होते हैं)। . अमनुष्ये - IV. ii. 143 . मनुष्यभिन्न अभिधेय हो तो (पर्वत शब्द से विकल्प से छ प्रत्यय होता है, पक्ष में अण्) । अमनुष्ये - VI. iii. 121 (अन्त उत्तरपद रहते) मनुष्य अभिधेय न होने पर (उपसर्ग के अणु को बहुल करके दीर्घ होता है)। अमन्त्रे - III. 1. 35 (कास्तथा प्रत्ययान्त धातु से लिट् परे रहते आम् प्रत्यय होता है) यदि मन्त्रविषयक प्रयोग न हो तो । .....अमर्षयोः - III. III. 145 देखें - अनववसुपत्यमर्वयोः III. III. 145 अमहत्... - VI. 1. 89 देखें अमहन्नवम् VI. II. 89 57 अमहन्नवम् - VI. 1. 89 (नगर शब्द उत्तरपद रहते) महत् तथा नव शब्द को छोड़कर (पूर्वपद को आधुदात्त होता है, यदि वह नगर उदीच्य प्रदेश का न हो तो ) । अमा - II. ii. 20 (अव्यय के साथ उपपद का जो समास, वह) अमन्त (अव्यय) के साथ (ही होवे, अन्य के साथ नहीं)। अमायोगे VI. in. 75 अर्ध - (लुङ्, लङ्, लृङ् परे रहने पर वेद - विषय में माङ् का योग होने पर अटू, आद आगम बहुल करके होते हैं और) माङ् का योग न होने पर (नहीं भी होते) । अमावस्यत् - III. 1. 122. अमा पूर्वक वस् धातु से काल अधिकरण में ण्यत् परे रहते विकल्प से वृद्धि का अभाव निपातन किया गया है। अमावास्यायाः IV. iii. 30 (सप्तमीसमर्थ) अमावास्या प्रातिपदिक से (जात अर्थ में वुन् प्रत्यय विकल्प से होता है) । अमि - VI. 1. 103 (अक् प्रत्याहार से) अम् विभक्ति परे रहते (पूर्वरूप एकादेश होता है)। अमिति - VII. ii. 34 अमिति शब्द (वेदविषय में ) इडागमयुक्त निपातन है। ...ferent:-V. iv. 150 देखें - मित्रामित्रयो: V. Iv. 150 अमित्रे - III. I. 131 (द्विष धातु से) अमित्र अर्थात् शत्रु कर्त्ता वाच्य हो तो (शतृ प्रत्यय होता है, वर्त्तमान काल में ) । - अमु - Viv. 12 (किम्, एकारान्त, तिङन्त तथा अव्ययों से विहित जो तरप् तमप् प्रत्यय - तदन्त से वेद - विषय में) अमुप्रत्यय (तथा आमु प्रत्यय होते है, द्रव्य का प्रकर्ष न कहना हो तो) । अमूर्ध... - VI. ill. 11 देखें- अपूर्वमस्तकात् VI. I. 11 अमूर्ध... - VI. iii. 83 देखें अप्र० VI. III. 83 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमूर्खप्रभृत्युदर्केषु अयज्ञे अमूर्खप्रभृत्युदर्केषु - VI. ii. 83 अम्बे-VI.i. 114 (वेद-विषय में समान शब्द को स आदेश हो जाता है), (अम्बिके शब्द से पूर्व) अम्बे, (अम्बाले - ये दो) पद मूर्धन,प्रभृति और उदर्क शब्द उत्तरपद न हों तो। (यजुर्वेद में पठित होने पर अकार परे रहते प्रकृतिभाव से अमूर्धमस्तकात् - VI. iii. 11 रहते हैं)। मूर्धन् तथा मस्तकवर्जित (हलन्त एवं अदन्त स्वाङ्ग ...अम्भस्... -VI. iii. 3 वाची) शब्दों से उत्तर (कामभिन्न शब्द उत्तरपद रहते देखें - ओजसहोम्भस्० VI. iii.3 . सप्तमी का अलुक् होता है)। ...अम्भसा - IV. iv.27 ...अमो: -VII..23 देखें - ओजसहोम्भसा IV. iv. 27 देखें- स्वमो: VII. I. 23 अम्शसो:-VI.1.90 अमौ... -III. iv.91 (ओकारान्त से) अम तथा शस विभक्ति के (अच) परे देखें-वामौ III. iv.91 रहते (पूर्व पर के स्थान में आकार एकादेश होता है,संहिता अम्नस् -VIII. 1.70 के विषय में)। देखें- अम्नरुधर VIII. ii. 70 .. अम्शसो: - VI. iv. 80 अग्नरुधरवर् -VIII. ii. 70 अम् तथा शस विभक्ति के परे रहते (स्त्री शब्द को अम्नस, ऊधस, अवस्- इन पदों को (वेदविषय में रु विकल्प से इयङ आदेश होता है)। एवं रेफ,दोनों ही होते है)। अय्... -VI.i. 75 . अम्परे -VIII. iii.6 देखें - अयवायाव: VI.i.75 अम् प्रत्याहार परे है जिससे,ऐसे (खय) के परे रहते (पुम् अय् -VI. iv.55 को रु होता है, संहिता में)। (आम, अन्त, आलु,आय्य,इलु, इष्णु - इनके परे रहते अम्ब.. - VIII. iii.97 णि को) अय् आदेश होता है। देखें- अम्बाम्ब० VIII. 11.97 अय् - VII. ii. 111 अम्बाम्बगोभूमिसव्यापद्वित्रिकुशेकुशक्वइगुमञ्जिपुझिपरमेबहिर्दिव्यग्निभ्यः -VIII. iii.97 __(इदम् शब्द के इद् रूप को पुल्लिंग में) अय् आदेश अम्ब, आम्ब, गो, भूमि, सव्य, अप, द्वि, त्रि, कु, शेकु, होता है,(सु विभक्ति परे रहते)। शकु, अङ्ग,मञ्जि, पुखि,परमे,बर्हिस.दिवि.अग्नि- ...अय..-III. I. 37 इन शब्दों से उत्तर (स्था के सकार को मूर्धन्य आदेश होता देखें- दयायासः III. I. 37: अयङ्- VII. iv. 22 अम्बार्थ... - VII. ill. 107 (यकारादि कित्, ङित् प्रत्यय परे रहते शीङ् अङ्ग को) देखें - अम्बार्थनघो: VII. ill. 107 अयङ् आदेश होता है। अम्बार्थनद्यो: - VII. iii. 107 अयच् - V. ii. 43 अम्बा = माँ के अर्थ वाले तथा नदीसञक अङ्गों को। (प्रथमासमर्थ द्वि तथा त्रि प्रातिपदिकों से षष्ठ्यर्थ में (सम्बुद्धि परे रहते ह्रस्व हो जाता है)। विहित तयप् प्रत्यय के स्थान में विकल्प से) अयच् आदेअम्बाले -VI.i. 114 श होता है। (अम्बिके शब्द से पूर्व अम्बे). अम्बाले - (ये दो) पद अयज्ञपात्रेषु -I. iii.64 (यजुर्वेद में पठित होने पर अकार परे रहते प्रकृतिभाव से यज्ञपात्र से भिन्न विषय में (प्र,उप पूर्वक 'युजिर योगे' रहते है)। धातु से आत्मनेपद होता है)। अम्बिकेपूर्वे - VI.i. 114 अयज्ञे-III. iii. 32 अम्बिके शब्द से पूर्व (अम्बे, अम्बाले - ये दो पद (प्र पर्वक 'स्तब आच्छादने' धातु से) यज्ञविषय से यजुर्वेद में पठित होने पर अकार परे रहते प्रकृतिभाव से अन्यत्र (कर्तभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में घञ् प्रत्यय रहते है)। होता है)। समाजपुजिप शा, आम्ब, गोAIL.il. Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयतो अरीहण अयतौ-VIII. ii. 19 अय धातु के परे रहते (उपसर्ग के रेफ को लकारादेश होता है)। अयथाभिप्रेताख्याने -III. iv.59 .. इष्ट का कथन जैसा होना चाहिये वैसा न होना गम्यमान हो तो (अव्यय शब्द उपपद रहते कृञ् धातु से क्त्वा और णमुल् प्रत्यय होते है)। अयदि -III. iii. 155 (सम्भावना अर्थ को कहने वाला धातु उपपद हो तो) यत् शब्द उपपद न होने पर (सम्भावन अर्थ में वर्तमान धातु से विकल्प से लिङ प्रत्यय होता है.यदि अलम शब्द का अप्रयोग सिद्ध हो)। . . अयदौ-III. iii. 151 यदि का प्रयोग न हो (और यच्च तथा यत्र से भिन्न शब्द उपपद हो तो चित्रीकरण गम्यमान होने पर धातु से लुट् प्रत्यय होता है)। अयनम् -VIII. iii. 24 (अन्तर शब्द से उत्तर) अयन शब्द के (नकार को भी णकारादेश होता है, देश का अभिधान न हो तो)। ...अयम्... -VI.i. 112 'देखें - अव्यादवद्यादOVI.i. 112 अयवादिभ्यः - VIII. ii.9 यवादि शब्दों से भिन्न (मकारान्त एवं अवर्णान्त तथा मकार एवं अवर्ण उपधा वाले) प्रातिपदिक से उत्तर (मतप - को वकारादेश होता है)। अयवायावः -VI. 1.75 . (अच परे रहते एच = ए, ओ.ऐ.औ के स्थान में यथा सङ्ख्य करके) अय, अव, आय, आव आदेश होते है. (संहिताविषय में)। अयस्... - III. iii. 82 देखें - अयोविद्रुषु III. iii. 82 ...अयस्... -V.iv.94 देखें- अनोश्मायःo V. iv.94 अयस्मयादीनि -I. iv. 20 अयस्मय इत्यादि शब्द (वेद में साधु माने जाते है)। अयःशूल... - V.ii.76 देखें- अयःशूलदण्डाov.ii. 76 अयःशूलदण्डाजिनाभ्याम् -V.ii.76 तृतीयासमर्थ अयःशूल तथा दण्डाजिन प्रातिपदिकों से (यथासङ्ख्य करके ठक् तथा ठञ् प्रत्यय होते हैं, 'चाहता है' अर्थ में)। ...अयानयम् -v.ii.9 देखें - अनुपदसर्वान्ना० V. 1.9 अयोपधात् - IV.i.63 जो नित्य ही स्त्रीविषय में न हो,तथा) यकार उपधावाला न हो, ऐसे (जातिवाची) प्रातिपदिक से (स्त्रीलिंग में डीप प्रत्यय होता है)। ...अयोविकार... - IV.i. 42 देखें-वृत्यमत्रावपनाo IV.i. 42 अयोविद्रुषु -III. iii. 82 अयस.वि तथा दू उपपद रहते हुए (हन् धातु से करण कारक में अप् प्रत्यय तथा हन् के स्थान में घनादेश भी होता है)। अरक्त... - VI. iii. 38 देखें - अरक्तविकारे VI. iii. 38 अरक्तविकारे -VI. iii. 38 (वृद्धि का कारण है जिस तद्धित में, ऐसा तद्धित) यदि रक्त तथा विकार अर्थ में विहित न हो तो (तदन्त स्त्री शब्द को पुंवद्भाव नही होता)। ...अरण्य... - IV. 1. 48 देखें-इन्द्रवरुणभव V.i. 48 अरण्यात् -IV.ii. 128 "अरण्य प्रातिपदिक से (मनुष्य अभिधेय हो तो शैषिक वुञ् प्रत्यय होता है)। अरिष्ट ... - VI. ii. 100 देखें- अरिष्टगौडपूर्वे VI. ii. 100 अरिष्टगौडपूर्वे - VI. ii. 100 अरिष्ट तथा गौड शब्द पूर्व है जिस समास में.(उसके पूर्वपद को भी पुर् शब्द उत्तरपद रहते अन्तोदात्त होता ...अरिष्टस्य- IV. iv. 143 देखें - शिवशमरिष्टस्य IV. iv. 143 अरीहण... - IV. ii. 79 देखें-अरीहणकशाश्व IV. ii.79 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरीहणकशाश्व० अर्थवत् •il.78 .. अरीहणकशाश्वर्ण्यकुमुदकाशतृणप्रेक्षाश्मसखिसंकाश- अति.. - VII. ii. 36 बलपक्षकर्णसुतङ्गमप्रगदिन्वराहकुमुदादिभ्यः -IV. II. 79 देखें - अर्तिही० VII. il. 36 अरीहण,कृशाश्व,ऋश्य,कुमुद,काश,तृण,प्रेक्ष,अश्म, ...अर्ति... - VII. 1.78 सखि, संकाश, बल, पक्ष, कर्ण, सुतङ्गम, प्रगदिन, वराह, कुमुद आदि 17 गणों के प्रातिपदिकों से (यथासङ्ख्य अर्ति... -VII. iv. 29 वुज,छण,क,ठच, इल,स,इनि,र,ढण्य,य,फक्,फिज, इज, ज्य,कक्, ठक् चातुरर्थिक प्रत्यय होते है)। देखें- अर्तिसंयोगाद्यो: VII. iv. 29 . अरुस्... - V.iv.51 अर्ति... -VII. iv.77 देखें- अर्मनस्० V.iv.51 देखें - अतिपिपयो: VII. iv.77 अरुस्... -VI. iii.66 अतिपिपत्यों: - VII. iv.77 देखें- असक्दिजन्तस्य VI. 11.66 ऋ तथा पृ धातुओं के (अभ्यास को भी श्लु होने पर .. अरुषिदजन्तस्य-VI. iii. 66 इकारादेश होता है)। अरुष, द्विषत् तथा (अव्ययभिन्न) अजन्त शब्दों को ....अर्तिभ्यः - III. 1. 56 (खिदन्त उत्तरपद रहते मुम् आगम होता है)। देखें-सर्तिशास्त्य III. 1.56 अर्मनश्चक्षुश्वेतोरहोरजसाम् - V. iv. 51 .. अर्तिलूघूसूखनसहचरः - III. ii. 184 (सम्पद्यते के कर्ता में वर्तमान) अरुस्, मनस, चक्षुस्, ऋ,लूज,धू, ष,खनु, षह, चर-इन धातुओं से (करण । चेतस्, रहस् तथा रजस् शब्दों (से कृ,भू तथा अस्ति के योग में च्चिप्रत्यय होता है, तथा उन शब्दों) के (अन्त्य कारक में इत्र प्रत्यय होता है, वर्तमान काल में)। सकार का लोप हो जाता है)। अर्तिसंयोगाद्यो: - VII. iv. 29 ...अरुपः -III. 1. 35 ऋ तथा संयोग आदि में है जिसके, ऐसे (ऋकारान्त) देखें-विध्वरुषः III. 1.35 धातु को (यक् तथा यकारादि असार्वधातुक लिङ् परे रहते ...अरुयु-III. 1. 21 गुण होता है)। देखें-दिवाविभा० III. 1. 21 अर्तिहीब्लीरीक्नूयीक्ष्माय्याताम् - VII. ill. 36 ....अरोकाभ्याम् - V. iv. 144 ऋ,ही,ब्ली,री,क्नूयी, मायी तथा आकारान्त अङ्गको देखें -श्यावारोकाभ्याम् V. iv. 144 (णिच् परे रहते पुक् आगम होता है)। ...अर्घाभ्याम् - V. iv. 25 ...अर्थ... -II. I. 35 देखें- पादार्घाभ्याम् V. iv. 25 ...अर्चाभ्यः -v.ii. 101 देखें - तदर्थार्थबलिहित० II. I. 35 देखें-प्रज्ञाश्रद्धाov.ii. 101 ...अर्थ... - IV. iv. 40 अायाम् -II. iii. 43 देखें-प्रतिकण्ठार्थललामम् IV. iv. 40 अर्चा = पूजा गम्यमान हो तो (साध और निपण शब्दों ...अर्थ... - IV. iv. 92 के योग में सप्तमी विभक्ति होती है, यदि 'प्रति साथ में देखें-धर्मपथ्यर्थ IV. iv.92 प्रयुक्त न हो तो)। ...अर्थवचनम् -I. ii. 56 ...अर्जुनाभ्याम् - IV. iii. 98 देखें - प्रधानप्रत्ययार्थवचनम् I. ii. 56 देखें - वासुदेवार्जुनाभ्याम् IV. iii. 98 ...अर्थवचने -II.i. 33 अर्ति... - III. ii. 184 देखें- अधिकार्थवचने II. 1. 33 देखें-अतिलघ० III. 1. 184 अर्थवत् -I.ii. 45 ...अर्ति... -VII. 1.66 अर्थवान् शब्द (प्रातिपदिक-संज्ञक होते है; धात.प्रत्यय देखें - अत्यतिव्ययतीनाम् VII. 1.66 और प्रत्ययान्त को छोड़कर)। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थस्य अर्थस्य -I. ii. 56 अर्द्धहस्वम् - I. ii. 32 (प्रधानार्थवचन तथा प्रत्ययार्थवचन अशिष्य होते है). (उस स्वरित गुणवाले अच् के आदि की) आधी मात्रा अर्थ के (अन्य अर्थात् लोक के अधीन होने से)। (उदात्त और शेष अनुदात्त होती है)। ...अर्थाभाव... -II.i.6 अर्थात् - IV. iii.4 देखें-विभक्तिसमीपसमृद्धि II. 1.6 अर्ध प्रातिपदिक से (शैषिक यत् प्रत्यय होता है)। अर्थे -VI. ii. 44 ...अर्थात् - V... 47 अर्थ शब्द उत्तरपद रहते (चतुर्थ्यन्त पूर्वपद को प्रकृति- देखें - पूरणार्धात् v. i. 47 अर्थात् - V. iv. 100 स्वर हो जाता है)। अर्ध शब्द से उत्तर (भी जो नौ शब्द.तदन्त तत्पुरुष से अर्थे - VI. iii. 99 समासान्त टच् प्रत्यय होता है)। अर्थ शब्द उत्तरपद हो तो (अषष्ठीस्थित तथा अतृतीया ...अर्थात् -VII. iii. 12 स्थित अन्य शब्द को विकल्प करके दुक् आगम होता है)। देखें - ससर्वार्धात् VII. iii. 12 अर्थेन - II. 1. 29 अर्थात् - VII. iii. 26 (तृतीयान्त सुबन्त तृतीयान्तार्थकृत गुणवाची शब्द के अर्ध शब्द से उत्तर (परिमाणवाची उत्तरपद के अचों में साथ तथा) अर्थ शब्द के साथ (समास को प्राप्त होता है, आदि अच् को वृद्धि होती है,पूर्वपद को तो विकल्प से और वह तत्पुरुष समास होता है)। होती है; जित,णित् तथा कित् तद्धित परे रहते)। ...अर्दयतिभ्यः - III. 1.51 ...अर्पिते-VI.i. 203 देखें-ऊनयतिध्वनयति III. 1. 51 देखें - जुष्टार्पिते I. . 203 अः - VII. ii. 24 अमें - VI. ii. 90 . (सम्,नि तथा वि उपसर्ग से उत्तर) अ धातु को (निष्ठा - ___ अर्म शब्द उत्तरपद रहते (भी महत् तथा नव से भिन्न परे रहते इट् आगम नहीं होता)। . दो अचों वाले तथा तीन अचों वाले अवर्णान्त पूर्वपद को ...अर्घ... -I.i. 32 आधुदात्त होता है)। देखें-प्रथमचरमतयाल्पाकतिपयनेमाः I.1.32 अर्य:-III. 1. 103 अर्य शब्द का (स्वामी और वैश्य अर्थ में निपातन होता अर्धम् -II. ii.2 • (नपुंसकलिंग में वर्तमान) अर्ध शब्द (एकाधिकरणवाची ...अर्यमादीनाम् - v. iii. 84 एकदेशी सुबन्त के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होता देखें-शेवलसुपरिov.iii.84 है और वह तत्पुरुष समास होता है)। ...अर्यम्णाम् -VI.iv. 12 ...अर्धमास... - V. ii. 57 देखें - इन्हन्यूषार्यम्णाम् VI. iv. 12 देखें- शतादिमासा० V.ii. 57 अर्वणः - VI. iv. 127 अर्धर्चा: - II. iv. 31 अर्वन् अङ्गको (तृ आदेश होता है.यदि अर्वन शब्द से अर्धर्च आदि गणपठित शब्द (पुंल्लिग और नपुंसक- परे सुन हो तथा वह अर्वन् शब्द नञ् से उत्तर भी न हो)। लिङ्ग दोनों में होते है)। अर्शआदिभ्यः -V.ii. 127 अर्धस्य - VIII. ii. 107 अर्शस आदि गणपठित प्रातिपदिकों से (मत्वर्थ में अच (दूर से बुलाने के विषय से भिन्न विषय में अप्रगृह्य प्रत्यय होता है)। सज्ञक एच के पूर्व के) अर्ध भाग को (प्लुत करने के अर्हः -III. 1. 12 प्रसंग में आकारादेश होता है तथा उत्तरवाले भाग को पूजार्थक अर्ह धातु से (कर्म उपपद रहते अच प्रत्यय इकार, उकार आदेश होता है)। होता है)। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलिटि ...अह.. -III. iii. 111 . अलकृ... - III. ii. 136 देखें-पर्यायाहोत्पत्तिषु० III. iii. 111 देखें - अलङ्घनिराकृञ् III. ii. 136 ...अह... - VI. ii. 155 अलड्कृनिराकृप्रजनोत्पचोत्पतोन्मदरुव्यपत्रपवृतवथुदेखें-संपाहि. VI. ii. 155 सहचरः-III. ii. 136 अर्हः -III. 1. 133 अलंपूर्वक कृत्र, निर् आङ् पूर्वक कृत्र, प्रपूर्वक जन, अर्ह धातु से (प्रशंसा गम्यमान हो तो वर्तमान काल में उत्पूर्वक पच,उत्पूर्वक पत, उत्पूर्वक मद,रुचि,अपपूर्वक शतृ प्रत्यय होता है)। त्रप, वृतु, वृधु सह, चर - इन धातुओं से (वर्तमान काल अर्हति - IV. iv. 137 में तच्छीलादि कर्ता हो तो इष्णुच प्रत्यय होता है)। (द्वितीयासमर्थ सोम प्रातिपदिक से) 'अर्हति' अर्थात् अलङ्कल्वोः -III. iv. 18 'समर्थ है' - इस अर्थ में (य प्रत्यय होता है)। (प्रतिषेधवाची) अलं तथा खलु शब्द उपपद रहते अर्हति - V.i. 62 (प्राचीन आचार्यों के मत में क्त्वा प्रत्यय होता है)। (द्वितीयासमर्थ प्रातिपदिकों से) 'समर्थ है' - इस अर्थ __ अलङ्गामी –v.ii. 15 में (यथाविहित प्रत्यय होते है)। (द्वितीयासमर्थ अनुगु प्रातिपदिक से) पर्याप्त जाता है'. . अर्थ में (ख प्रत्यय होता है)। अहम् - V.i. 116 अलम् -I. iv. 63 (द्वितीयासमर्थ प्रातिपदिकों से) योग्यताविशिष्ट क्रिया (भूषण अर्थ में वर्तमान) अलम् शब्द (क्रियायोग में गति वाच्य हो तो (वति प्रत्यय होता है)। और निपातसंज्ञक होता है)। अर्हात् - V.i. 19 ...अलम्... - II. iii. 16 (यहाँ से आगे) अर्ह = 'तदर्हति' पर्यन्त कहे हुए अर्थों देखें- नमःस्वस्तिस्वाहा. II. iii. 16 में (सामान्यतया ठक् प्रत्यय अधिकृत होता है; गोपुच्छ, अलम् -III. iii. 154 संख्या तथा परिमाणवाची शब्दों को छोड़कर)। अलम् अथवा तत्समानार्थक शब्द के (प्रयोग के बिना अh -III. iii. 169 ही यदि उसका अर्थ प्रतीत हो रहा हो तो पर्याप्तिविशिष्ट योग्य कर्ता वाच्य हो तो (धातु से कृत्यसंज्ञक, तृच् तथा सम्भावना) अर्थ में (धात से लिङ् लकार होता है)। चकार से लिङ्प्रत्यय होते है)। अलम्... - III. iv. 18 . अलः -I.i.51 देखें- अलकुल्वोः III. iv. 18 . (षष्ठीनिर्दिष्ट को कहा आदेश अन्त्य) अल् के स्थान में ...अलमर्थाः -VI. ii. 155 (होता है)। देखें-संपाधहVI. ii. 155 अल: -I.i.64 - अलमर्थेषु -III. iv. 66 (अन्त्य) अल् से (पूर्व जो अल्,उसकी उपधा संज्ञा होती ____ सामर्थ्य अर्थ वाले (परिपूर्णतावाची) शब्दों के उपपद रहते (धातु से तुमुन् प्रत्यय होता है)। ....अलङ्कर्म... - V.iv.7 ...अलम्पुरुष... - V. iv.7 देखें- अपडक्षाo V. iv.7 देखें- अषडक्षा० V. iv.7 अलङ्कारे - IV. iii. 65 . अलर्षि - VII. iv. 65 (सप्तमीसमर्थ कर्ण तथा ललाट शब्दों से 'भव' अर्थ में) अलर्षि शब्द (वेदविषय में) निपातन किया जाता है। आभूषण अभिधेय हो तो (कन् प्रत्यय होता है)। अलिटि - VII. 1. 37 ...अलङ्कारेषु -IV. 1. 95 (मह धातु से उत्तर) लिट्-भिन्न (वलादि आर्धधातुक) देखें- श्वास्यलारेषु IV. 1. 95 . परे रहते (इट को दीर्घ होता है)। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलिटि अवक्रयः अलिटि-VIII. 1.62 लिभिन्न (इडादि) प्रत्यय परे रहते (रघ अङ्ग को नुम् आगम नहीं होता)। अलुक्-IV.i. 89 (प्राग्दीव्यतीय अजादि प्रत्यय की विवक्षा हो तो गोत्र में उत्पन्न प्रत्यय का) लुक नहीं होता। अलुक् -VI. iii. 1 'अलक' (तथा 'उत्तरपदे' पद) का अधिकार आगे के सूत्रों में जाता है। 'अलोपे-VI. iii. 93 (तिरस शब्द को तिरि आदेश होता है, यदि अच का) लोप न हुआ हो तो।। अलोम... - VI. ii. 117 देखें- अलोमोपसी VI. ii. 117 अलोमोषसी --VI. ii. 117 (सु से परे मन अन्तवाले तथा अस अन्त वाले उत्तरपद शब्दों को बहुव्रीहि समास में आधुदात्त होता है), लोम तथा उषस् शब्दों को छोड़कर। ...अल्प..-I.i. 32. । देखें-प्रथमचरमतयाल्पार्धकतिपयनेमाः I.i. 32 . ...अल्प.. -II iii. 33 - देखें - स्तोकाल्पकृच्छ्र. II. iii. 33 ...अल्पयोः - V. iii.64 देखें - युवाल्पयो: V. iii. 64 - अल्पशः - II. I. 36 । कुछ (पञ्चम्यन्त सुबन्त अपेत, अपोढ, मुक्त. पतित. - अपत्रस्त - इन समर्थ सुबन्तों के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होते हैं और वह तत्पुरुष समास होता है)। अल्याख्यायाम् - IV.i:51 (करणपूर्व अनुपसर्जन क्तान्त प्रातिपदिक से) थोड़े की आख्या गम्यमान हो तो (स्त्रीलिङ्ग में ङीष प्रत्यय होता है)। अल्पाख्यायाम् - V. iv. 136 थोड़े की आख्या होने पर (बहुव्रीहि समास में गन्ध शब्द को समासान्त इकारादेश होता है)। अल्पान्तरम् -II. ii. 34 अपेक्षाकृत कम अच् वाला शब्द रूप (द्वन्द्व समास में पूर्व प्रयुक्त होता है)। ....अल्पार्थात् - V. iv. 42 देखें - बह्वल्पार्थात् V. iv. 42 अल्पे-v.ii. 85 'थोड़ा' अर्थ में वर्तमान (प्रातिपदिक से तथा तिङन्त से यथाविहित प्रत्यय होते है)। अल्लोपः - VI. iv. 111 (श्नम् प्रत्यय तथा अस् धातु के) अकार का लोप होता है ; (कित, डित् सार्वधातुक परे रहते)। अल्लोप: -VI. iv. 134 (भसज्ञक अन् अन्तवाले अङ्ग के अन् के) अकार का लोप होता है। ...अव्... - VI. 1.75 देखें- अयवाया: VI. 1.75 ...अव.. -I. iii. 22 देखें-समवप्रविश्यः I. I. 22 ...अव... -II. iii. 57. देखें - व्यवहपणोः II. ill. 57 अव... - III. iii. 26 देखें- अवोदोः III. iii. 26 अव... -III. iii. 45 देखें - अवन्योः III. iii. 45 अव... - V. iv.79 देखें-अवसमन्येभ्यः V. iv.79 ...अव... - V. iv. 81 देखें - अन्ववतप्तात् V. iv.81 ...अव.. -VI. iv. 20 देखें-ज्वरत्वर० VI. iv. 20 ...अक: - V. iii. 39 देखें-पुरधवः V. iii.39 ...अव: - VIII. ii. 70 देखें - अग्नरुधरव: VIII. ii. 70 ...अवक्रमुः...-VI. I. 112 देखें - अव्यादवद्यात VI. 1. 112 अवक्रयः - IV. iv. 50 (षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिक से) अवक्रय अर्थ में (ठक प्रत्यय होता है)। अवक्रय =नियत मूल्य पर नियत काल के लिये किसी द्रव्य का लेना। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवक्षेपण अवयवे, ...अवक्षेपण..-I. ill. 32 अवधारणे -II.1.8 देखें-गन्धनावक्षेपणसेवन I. III. 32 अवधारण= इयत्तापरिच्छेद अर्थ में वर्तमान (यावत् अवक्षेपणे-v.ili.95 अव्यय का समर्थ सुबन्त के साथ अव्ययीभाव समास 'अवक्षेपण' निन्दा अर्थ में वर्तमान (प्रातिपदिक से होता है)। अवन्ति.. - IV.I. 174 कन् प्रत्यय होता है)। देखें-अवन्तिकुन्तिकुरुभ्यः IV. 1. 174 अवक्षेपणे-VI. ii. 195 अवन्तिकुन्तिकुरुभ्यः - IV. 1. 174 (स उपसर्ग से परवर्ती उत्तरपद को तत्पुरुष समास में (क्षत्रियाभिधायी जनपदवाची) अवन्ति, कुन्ति तथा कुरु अन्तोदात्त होता है), निन्दा गम्यमान हो तो। शब्द से (भी उत्पन्न तद्राजसंज्ञक प्रत्ययों का स्त्रीलिङ्ग अवग्रहात् -VIII. iv.25 . . . अभिधेय हो तो लुक् हो जाता है)। (वेदविषय में ऋकारान्त) अवगृह्यमाण पूर्वपद से उत्तर ...अवन्तु... -VI.i. 112 (नकार को णकार आदेश होता है)। देखें- अव्यादवद्यात. VI.i. 112. अवग्रह = पदपाठकाल में पदों को अलग अलग रखना। अवन्योः -III. iii. 45 अवङ्-VI.1. 119 (आक्रोश गम्यमान हो तो) अव तथा नि पूर्वक (ग्रह (अच् परे रहते पदान्त में गो शब्दको विकल्प से) अवङ् धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में घञ् प्रत्यय आदेश होता है,(स्फोटायन आचार्य के मत में)। होता है)। अक्च क्षे-III. iv. 15 अवपथासि-VI.i. 117 (कृत्यार्थ अभिधेय हो तो वेदविषय में) अवपूर्वक अवपथाः शब्द में (भी जो अनुदात्त अकार, उसके परे चक्षिक धातु से शे प्रत्ययान्त अवचक्षे शब्द (भी) निपातन रहते यजर्वेद विषय में एक को प्रकृतिभाव होता है)। किया जाता है। ...अक्पूर्वस्य - VI.i. 26 अवज्ञाने -III. iil.55 देखें - अध्यवपूर्वस्य VI. 1. 26 तिरस्कार अर्थ में वर्तमान (परिपूर्वक भू धातु से कर्तृ-. ...अवपूर्वात् - V. iv.75 भिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में विकल्प से घञ् प्रत्यय देखें-प्रत्यन्ववपूर्वात् V. iv.75 होता है, पक्ष में अच् होता है)। ...अवम.. - VI. ii. 25. अवत्याः -VI.1.214 देखें - अज्यावम० VI. ii. 25, स्त्रीत्वविशिष्ट अवती-शब्दान्त को (सज्जा विषय में ...अवयवाः -II.1.44 अन्त्य को उदात्त होता है)। देखें- अहोरात्रावयवाः II. I. 44 अवद्या... -III. 1. 101 अवयवाः -VI. ii. 176 देखें-अवधपण्य III. 1. 101 (बहुव्रीहि समास में बहु से उत्तर) गुणादिगणपठित अवधपण्यवर्याः -III. 1. 101 अवयववाची शब्दों को (अन्तोदात्त नहीं होता)। 'अवद्य, पण्य,वर्य- ये शब्द (यथासंख्य करके गह, पणितव्य और अनिरोध अर्थों में यत्प्रत्ययान्त निपातन अवयवात् - VII. iii.2 किये जाते है)। अवयववाची पूर्वपद से उत्तर (ऋतुवाची उत्तरपद शब्द . ...अवधात्... -VI.i. 112 के अचों में आदि अच् को जित, णित् तथा कित् तद्धित देखें-अव्यादवद्यात्o VI.i. 112 प्रत्यय परे रहते वृद्धि होती है)। अवधारणम् - VIII. 1.62 अवयवे - IV. iii. 132 (च तथा अह शब्द का लोप होने पर प्रथम तिङन्त को (षष्ठीसमर्थ प्राणिवाची, ओषधिवाची तथा वृक्षवाची अनुदात्त नहीं होता, यदि एव शब्द वाक्य में) अव- प्रातिपदिकों से) अवयव (तथा विकार) अर्थ में (यथाधारण निश्चय अर्थ में प्रयुक्त किया गया हो तो। विहित प्रत्यय होता है)। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवयवे अवस्यु अवयवे-v.ii. 42 'अवयव' अर्थ में वर्तमान (सङ्ख्यावाची प्रातिपदिकों से षष्ठ्यर्थ में तयप् प्रत्यय होता है)। अवयसि -V..83 (षण्मास प्रातिपदिक से) अवस्था अभिधेय न हो तो . (हो चुका' अर्थ में ठन् तथा ण्यत् प्रत्यय होते है)। अवयाः -VIII. ii.67 दीर्घ किये हुए अवयाः शब्द का सम्बुद्धि में निपातन किया जाता है। ...अवर... -I.1.33 देखें-पूर्वपरावरदक्षिणोत्तरापराधराणि I... 33 ...अवर... -Vills देखें-परावराघमो०V.iii.5 ...अवरयोगे -III. iv. 18 देखें-परावरयोगे III. iv. 18 ...अवरसमात्-IV. iii.49 देखें- ग्रीष्मावरसमात् IV. iii. 49 'अवरस्मिन् -III. iii. 136 - 'अवर प्रविभाग अर्थात् इधर के भाग को लेकर (मर्यादा कहनी हो तो भविष्यत्काल में धातु से अनद्यतनवत् प्रत्ययविधि नहीं होती है)। अवरस्य-v.ii. 41. (सप्तमी, पञ्चमी,प्रथमान्त दिशा, देश तथा कालवाची) अवर शब्द को (अस्तात् प्रत्यय के परे रहते विकल्प से अवादेश होता है)। ...अवराणाम् -V. iii.39 देखें - पूर्वाधराov.ii. 39 ...अवराभ्याम् - v. iii. 29 देखे-परावराभ्याम् V. iii. 29 ...अवर्ण... - VI.i. 176 देखें-गोश्वन्साववर्णराडकुड्कृद्ध्यः VI.i. 176 अवर्णम् - VI. ii. 90 (अर्म शब्द उत्तरपद रहते भी) अवर्णान्त (दो तथा तीन अचों वाले महत् एवं नव से भिन्न) पूर्वपद को (आधुदात्त होता है)। अवर्णस्य - VI. iii. 111 (ढकार और रेफ का लोप होने पर सह तथा वह धातु के) अवर्ण को (ओकारादेश होता है)। अवर्मणः - VI. iv. 170 (अपत्यार्थक अण् के परे रहते) वर्मन् शब्द के अन् को छोड़कर (जो मकार पूर्व वाला अन, उसको प्रकृतिभाव नहीं होता)। अवष्टव्ये - V. ii. 13 " (अद्यश्वीन शब्द निपातित किया जाता है),आसन्न = निकट प्रसव को कहना हो तो । ....अवस् - VIII. 1.70 देखें - अम्नरूधर VIII. ii. 70 अवसमन्धेभ्यः - V.iv.79 अव, सम् तथा अन्ध शब्दों से उत्तर (तमस् शब्दान्त प्रातिपदिक से समासान्त अच् प्रत्यय होता है)। ...अवसा... -III. 1. 141 देखें-श्याव्यया. III. 1. 141 अवसानम् -I. iv. 109 (विराम= वर्णोच्चारण के अभाव की) अवसान संज्ञा होती है। ...अवसानयोः - VIII. iii. 15 देखें-खरवसानयो: VIII. iii. 15 अवसाने -VIII. iv.55 __ अवसान में वर्तमान (झलों को विकल्प करके चर् आदेश होता है)। अवस्करः - VI. I. 143 (अन्न का कचरा अभिधेय हो तो) अवस्कर शब्द में सट आगम का निपातन किया जाता है। ...अवस्करात् -IV. iii. 28 देखें-पूर्वाहणापराहणाo IV. iii. 28 अवस्थायाम् - V. iv. 146 (ककुद-शब्दान्त बहुव्रीहि का समासान्त लोप होता है). समुदाय से अवस्था गम्यमान होने पर। अवस्थायाम् -VI. 1. 115 अवस्था गम्यमान होने पर (तथा सझा एवं उपमा विषय में बहुव्रीहि समास में उत्तरपद शृङ्ग शब्द को आधुदात्त होता है)। ...अवस्युष-VI.1.112 देखें-अव्यादवचात. VI.1. 112 " Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवहरति 66 अवृद्धात् अवहरति -V.1.51 अविदर्थस्य-II. iii. 51 (द्वितीयासमर्थ प्रातिपदिक से 'सम्भव है), 'अवहरण जानने से भिन्न अर्थ वाली (ज्ञा धात) के (करण कारक करता है' (और पकाता है) अर्थ में (यथाविहित प्रत्यय में शेष विवक्षित होने पर षष्ठी विभक्ति होती है)। होते है)। अविद्यमानवत् - VIII.i. 72 ....अवह... -III. I. 141 (किसी पद से पूर्व आमन्त्रित सजक पद हो तो वह देखें - श्यादव्यधा० III. 1. 141 आमन्त्रित पद) अविद्यमान के समान माना जाये। अवात् -I. III. 51 अविप्रकृष्टकाले -v.iv. 20 अव उपसर्ग से उत्तर (ग निगरणे' धातु से आत्मनेपद आसन्नकालिक (क्रिया की अभ्यावृत्ति के गणन) अर्थ होता है)। में वर्तमान (बहु प्रातिपदिक से विकल्प से धा प्रत्यय होता अवात् - V.ii. 30 अविप्रकृष्टाख्यानाम् - II. iv.5 अव उपसर्ग प्रातिपदिक से (कुटारच तथा कटच् प्रत्यय (अध्ययन की दृष्टि से) समीपस्थ पदार्थों के वाचक .. होते है)। शब्दों का (द्वन्द्व एकवत् हो जाता है)। .. अवात् -VIII. iii. 68 अव उपसर्ग से उत्तर (भी स्तन्भु के सकार को आश्रयण ...अविभ्याम् - V.i. 8. देखें - अजाविभ्याम् V.i. 8 एवं समीपता अर्थ में मूर्धन्य आदेश होता है)। अविशब्दने - VII. ii. 23 अवाते -VIII. ii. 50 (निष्ठा परे रहते घुषिर् धातु शब्दों द्वारा) अपने भावों (निस् पूर्वक वा धातु से उत्तर निष्ठा के तकार को नकार को प्रकाशन करने से भिन्न अर्थ में (अनिट् होती है)। आदेश करके निर्वाण शब्द) वात अर्थात् वायु अभिधेय न होने पर (निपातित है)। अविशेषे - IV. 1.4 (यदि नक्षत्रविशेष से युक्त काल का रात्रि आदि) विशेषअवारपार... -v.ii. 11. , रूप विवक्षित न हो तो (पूर्वसूत्रविहित प्रत्यय का लुप् हो देखें - अवारपारात्यन्त० v. ii. 11 जाता है)। ...अवारपारात् - IV. ii. 92 अविष्ट ... - VI. iii. 114 देखें- राष्ट्रावारपारात् IV. ii. 92 देखें- अविष्टाष्टO VI. iii: 114 अवारपारात्यन्तानुकामम् - V.ii. 11 अविष्टाष्टपञ्चमणिभिन्नच्छिन्नच्छिद्रसुवस्वस्तिकस्य (द्वितीयासमर्थ) अवारपार, अत्यन्त तथा अनुकाम - VI. iii. 114 प्रातिपदिकों से (भविष्य में जानेवाला' अर्थ में ख प्रत्यय (कर्ण शब्द उत्तरपद रहते) विष्ट,अष्टन,पञ्चन,मणि,भिन्न, होता है)। छिन्न, छिद्र, नुव, स्वस्तिक - इन शब्दों को छोड़कर ...अवि... - VI. iv. 20 (लक्षणवाची शब्दों के अण् को दीर्घ होता है, संहिता के देखें - ज्वरत्वरस्रिव्यविमवाम् VI. iv. 20 विषय में)। अवि... - VII. iii. 85 ...अविस्पष्ट ... - VIII. ii. 18 देखें- अविचिण VII. ii. 85 देखें-मन्थमनस्० VIII. ii. 18 अविचिण्णल्डित्सु- VII. iii. 85 अवृद्धम् - VI. ii. 87 वि, चिण, णल तथा ङ् इत् वाले प्रत्ययों को छोड़कर (प्रस्थ शब्द उत्तरपद रहते कादिगण तथा) वृद्धसंज्ञक (अन्य सार्वधातुक, आर्धधातुक प्रत्ययों के परे रहते जागृ शब्दों को छोड़कर (पूर्वपद को आधुदात्त होता है)। अङ्गको गुण होता है)। अवृद्धात् -IV.i. 160 अविजिगीषायाम् - VIII. ii. 47 (प्राचीन आचार्यों के मत में) वृद्धसंज्ञाभिन्न प्रातिपदिक (दिव् धातु से उत्तर) जीतने की इच्छा से भिन्न अर्थ में से (अपत्यार्थ में बहुल करके फिन् प्रत्यय होता है, अन्यथा (निष्ठा के तकार को नकारादेश होता है)। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवृद्धात् अव्ययम् अवृद्धात् - IV.ii. 124 (जनपद तथा जनपदसीमावाची) वृद्धसंज्ञाभिन्न (तथा वृद्ध भी बहुवचनविषयक) प्रातिपदिकों से (शैषिक वुज प्रत्यय होता है)। अवृद्धाभ्यः -IV.I. 113 जिनकी वृद्धसंज्ञा न हो, ऐसे (नदी तथा मानुषी अर्थ न वाले; नदी, मानुषी नाम वाले) प्रातिपदिकों से (अपत्य अर्थ में अण् प्रत्यय होता है)। अवे-III. ii. 72 अव उपसर्ग उपपद रहते (यज गत से मन्त्र विषय में 'ण्विन्' प्रत्यय होता है)। अवे-III. iii. 51 . (वर्षा के समय में भी वर्षा का न होना अभिधेय होने पर) अव उपसर्ग पूर्वक (ग्रह धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में विकल्प से घञ् प्रत्यय होता है)। अवे-III. iii. 120 अव उपसर्ग पूर्वक (त, स्तृञ् धातुओं से करण और अधिकरण कारक में प्रायः करके घञ् प्रत्यय होता है, संज्ञाविषय हो तो)। अवे: -V. iv. 28 - अवि प्रातिपदिक से (स्वार्थ में क प्रत्यय होता है)। ....अवेभ्यः -I. iii. 18 देखें - परिव्यवेभ्यः I. iii. 18 अवोद.. -VI. iv.29 - देखें - अवोदैधौ० VI. iv. 29 . अवोदैधौद्मप्रथहिमश्रथा: - VI. iv. 29 अवोद, एध, ओद्म, प्रश्रथ तथा हिमश्रथ - ये शब्द निपातन किये जाते हैं। अवोदोः -III. iii. 26 'अव और उद् पूर्वक (णी धातु से कर्तृभिन्न संज्ञा तथा भाव में घञ्प्रत्यय होता है)। अव्यक्तानुकरणस्य-VI.1.95 अव्यक्त के अनुकरण का (जो अत् शब्द, उससे उत्तर इति शब्द परे रहते पूर्व पर के स्थान में पररूप एकादेश होता है, संहिता के विषय में)। अव्यक्तानुकरणात् - V. iv.57 अव्यक्त शब्द के अनुकरण से (जिसमें अर्धभाग दो अच् वाला हो ; उससे कृ,भू तथा अस के योग में डाच प्रत्यय होता है, यदि इति शब्द परे न हो तो)। ...अव्यथ.. -III. ii. 157 देखें-जिदृक्षिः III. ii. 157 ...अव्यथन.... - V.iv.46 देखें-अतिग्रहाव्यथन V.iv.46 अव्यथिष्य -III. iv. 10 (प्रयै.रोहिष्य तथा) अव्यथिष्य शब्द वेद-विषय में (प्रय, तुमर्थ में निपातन किये जाते है)। ...अव्यथ्या: - IILI. 114 देखें- राजसूयसूर्य० III. 1. 114 अव्यपरे -VI.i. 111 वकार, यकारपरक भिन्न अकार परे रहने पर (पाद के मध्य में वर्तमान एङ को प्रकृतिभाव होता है)। ...अव्यय..-II. ii. 11 देखें- पुरणगुणसुहितार्थ II. ii. 11 अव्यय.. -II. 1.25 देखें-अव्ययासन्नादूरा II. II. 25 ...अव्यय... -II. iii. 69 देखें-लोकाव्ययनिष्ठा0 II. iil. 69 अव्यय... - V. iii. 71 देखें - अव्ययसर्वनाम्नाम् V. iii. 71 ...अव्यय.. -VI. 1.2 ' देखें-तुल्यार्थ० VI. ii.2 अव्यय... -VI. ii. 168 देखें-अव्ययदिक्शब्दO VI. ii. 168 ...अव्ययघात् - V. iv. 11 देखें-किमेतिङov.iv. 11 अव्ययदिक्शब्दगोमहत्स्थूलमुष्टिपथुवत्सेभ्यः - VI. ii. 168 (बहुव्रीहि समास में) अव्यय,दिक्शब्द,गो,महत्, स्थूल, मुष्टि, पृथु, वत्स-इनसे उत्तर (स्वाङ्गवाची मुख शब्द उत्तरपद को अन्तोदात्त नहीं होता)। अव्ययम् -I.i. 36 (स्वरादिगणपठित शब्दों की तथा निपातों की) अव्यय संज्ञा होती है। अव्ययम् - I. iv.66 अव्यय (पुरस् शब्द क्रियायोग में गति और निपात संज्ञक होता है)। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्ययम् अशनाय अव्ययम् -II.1.6 अव्ययीभावे-VI. 1. 121 (विभक्ति, समीप, समृद्धि, व्यृद्धि, अर्थाभाव, अत्यय, (उत्तरपद कूल, तीर, तूल,मूल,शाला, अक्ष, सम- इन असम्पति, शब्दप्रादुर्भाव, पश्चात्, यथा, आनुपूर्व्य, योग- शब्दों को) अव्ययीभाव समास में (आधुदात्त होता है)। पद्य,सादृश्य,सम्पत्ति,साकल्य, अन्तवचन- इन अर्थों में विद्यमान) अव्यय पद (समर्थ सुबन्त के साथ समास को अव्ययीभावे-VI. iii. 80 प्राप्त होता है और वह अव्ययीभाव समास होता है)। अव्ययाभाव समास म(भा अकालवाचा शब्दी के उत्तअव्ययसर्वनाम्नाम् - V. iii. 71 रपद रहते सह को स आदेश होता है)। । अव्यय तथा सर्वनामवाची प्रातिपदिकों (एवं तिङन्तों) अव्यये-III. iv. 59 से (इवार्थ से पहले पहले अकच प्रत्यय होता है और वह (इष्ट का कथन जैसा होना चाहिये वैसान होना गम्यमान टि से पूर्व होता है)। हो तो) अव्यय शब्द उपपद रहते (कृञ् धातु से क्त्वा अव्ययात् -II. iv.82 और णमुल् प्रत्यय होते है)। अव्यय के उत्तर (आप और सुप प्रत्ययों का लुक होता अव्ययेन-II. 1. 20 (अव्यय के साथ उपपद का यदि समास हो तो वह अव्ययात् -IV. ii. 103 अमन्त) अव्यय के साथ (ही हो, अन्यों के साथ नहीं)। .. अव्यय प्रातिपदिकों से (शैषिक त्यप् प्रत्यय होता है)। ...अव्ययेभ्यः -IV. 1. 23 ...अव्ययादेः - IV.I. 26 देखें-सायंचिरम् M. II. 23 देखें-संख्याव्ययादेःV.1.26 अव्यात्... -VI. 1. 112 ...अव्ययादेः-v.iv.86 देखें-अव्यादवद्यात्. VI. 1. 112 देखें-संख्याव्ययादेः V.iv.86 अव्यादवद्यादवक्रमुखतायमवन्त्ववस्युषु-VI. 1. 112 अव्ययासन्नादूराधिकसङ्ख्याः - II. ii. 25 अव्यात्, अवद्यात्, अवक्रम, अव्रत, अयम्, अवन्तु, (सङ्ख्येय में वर्तमान सङ्ख्या के साथ) अव्यय,आसन्न, अवस्यु- इन शब्दों में (वर्तमान अकार के परे रहते पाद अदर.अधिक तथा सङ्ख्या (विकल्प से समास को प्राप्त . के मध्य में जो एङ उसको भी प्रकतिभाव हो जाता है)। होते है,और वह समास बहुव्रीहि सजक होता है)। ....अव्रत... - VI. 1. 112 . अव्ययीभावः - I.1.40 देखें- अव्यादवद्यात्. VI. 1. 112 अव्ययीभाव समास (भी अव्ययसंज्ञक होता है)। अश्-II. iv. 32 अव्ययीभावः-II.1.5 (अन्वादेश में वर्तमान इदम् के स्थान में अनुदात्त) अश यहाँ से अव्ययीभाव समास अधिकृत होता है। आदेश होता है.(ततीया आदि विभक्तियों के परे रहते)। अव्ययीभावः-II. iv. 18 अव्ययीभाव समास (भी नपुंसकलिंग होता है)। अश् -VII.1.27 अव्ययीभावात् -II. iv. 83. (युष्मद् तथा अस्मत् अङ्ग से उत्तरडस के स्थान में) अश आदेश होता है। (अदन्त) अव्ययीभाव से उत्तर (सुप् का लुक नहीं होता, अशक्तौ - VI. ii. 157 अपितु पञ्चमीभिन्न सुप् प्रत्यय के स्थान में 'अम्' आदेश (न से उत्तर अन्यत्ययान्त तथा अक प्रत्ययान्त उत्तरपद हो जाता है)। को) सामर्थ्य का अभाव गम्यमान हो तो (अन्तोदात्त होता अव्ययीभावात् -IV. iii. 59 (सप्तमीसमर्थ) अव्ययीभावसंज्ञक प्रातिपदिक से (भी अशते-V.1.21 भवार्थ में व्य प्रत्यय होता है)। (शत प्रातिपदिक से 'तदर्हति' पर्यन्त कथित अर्थों में ठन् अव्ययीभावे-v.iv. 107 और यत् प्रत्यय होते है), यदि सौ अभिधेय न हो तो। अव्ययीभाव समास में वर्तमान (शरदादि प्रातिपदिकों . से समासान्त टच् प्रत्यय होता है)। देखें-अशनायोदय VII. iv.34 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशनायोदन्यधनायाः अच अशनायोदन्यधनायाः -VII. iv. 34 अशिति -VI. I. 44 अशनाय, उदन्य, धनाय - ये शब्द (क्रमशः बुभुक्षा, (उपदेश अवस्था में जो एजन्त धातु,उसको आकारादेश पिपासा,गर्घ अर्थात् लोभ- इन अर्थों में निपातन किये हो जाता है).शित प्रत्ययों से भिन्न प्रत्ययों के विषय में। जाते है)। अशिश्वी-IV.1.62 अशप्... - VII. 1.63 (सखी तथा) अशिश्वी शब्द (स्त्रीलिंग में डीप प्रत्ययान्त देखें-अशब्लिटो: VII..63 निपातन किये जाते है,भाषा विषय हो तो)। अशपथे-v. iv. 66 अशिष्यम् -I. 1.53 . (सत्य प्रातिपदिक से) सौगन्ध वाच्य न हो तो (कृञ् के (उस उपर्यक्त यक्तवद भाव को) पर्णतया शासित नहीं योग में डाच् प्रत्यय होता है)। किया जा सकता, (उसके लौकिक व्यवहार के अधीन अशब्दसज्ञा -I.i.67 होने से)। (व्याकरणशास्त्र में ) शब्दसंज्ञा को छोड़कर (शब्दों के ...अशीति... -V.i.58 अपने स्वरूप का ग्रहण होता है,उनके अर्थ अथवा पर्यायवाची शब्दों का नहीं)। देखें-पंक्तिविंशतिov.i. 58 अशब्दसजायाम् - VII. iii. 67 ...अशीत्योः - VI. iii. 46 शब्द की सजा न हो तो (वच अङ्गको ण्य परे रहते देखें- अबहुव्रीहाशीत्योः VI. iii. 46 कवर्गादेश नहीं होता। . अशूद्रे-VIII. ii. 83 अशब्दे-III. iii. 33 . शद्र से अन्य विषय में (प्रत्यभिवाद वाक्य के पद की (विपूर्वक स्तृञ् धातु से) शब्दविषयभिन्न विस्तार) को टि को प्लत होता है और वह प्लुत उदात्त होता है)। कहना हो तो (कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में घब् अश्नोते: - VII. iv.72 प्रत्यय होता है)। 'अशूङ् व्याप्तौ' अङ्ग के (दीर्घ किये हुये अभ्यास से अशब्दे-IV. iii.64 उत्तर भी नुट् आगम होता है)। (सप्तमीसमर्थ वर्गान्त प्रातिपदिक से) शब्दभिन्न प्रत्य- . ...अश्म... - IV.ii.79 यार्थ अभिधेय होने पर(भव अर्थ में विकल्प से यत् तथा 'देखें - अरीहणकशाश्व IV. 1.79 ख प्रत्यय होते है)। अशब्लिटो: - VII.1.63 ...अश्म... - V. iv.94 देखें - अनोश्मायov.iv.94 शप् तथा लिड्वर्जित (अजादि) प्रत्ययों के परे रहते (रम राभस्ये' अङ्ग को नुम् आगम होता है)। ...अश्म... -VI. 1. 91 अशरीरे-I. ill. 36 देखें- भूताधिक. VI. ii. 91 (कर्ता में स्थित) शरीरभिन्न (कर्म के होने पर(भीणीज ...अश्मकात् -IV.I. 171 धातु से आत्मनेपद होता है)। देखें-साल्यावयवप्रत्यग्रथ० IV.I. 171 अश्लील...-VI. I. 42 ...अशाम् -VII. ii.74 देखें-स्मिपूड VII. ii. 74 देखें- अश्लीलदृढरूपा VI. ii. 42 अश्लीलदृढरूया -VI. ii. 42 अशाला - II. iv. 24 'अश्लीलदृढरूपा' इस समास किये हये शब्द के (पूर्वशाला अर्थ से भिन्न (जो सभा,तदन्त नकर्मधारयभिन्न तत्पुरुष भी नपुंसकलिंग में होता है)। पद को प्रकृतिस्वर होता है)। शाला. अर्थात् घर या भवन। अश्व..-II. iv.27 देखें-अश्ववडवी II. iv.27 अशि-VIII. iii. 17 .. (भो.भगो अघो तथा अवर्ण पर्व में है जिसके उसके ....अश्य.. -VII.91 पूर्व को यकार आदेश होता है).अश परे रहते। देखें-क्सोक्षा० V. 1. 91 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अश्व . अश्व... - VI. iil. 107 देखें - उदराश्वेषुषु VI. iii. 107 ... अश्व... - VI. iii. 130 देखें - सोमाश्वेo VI. iii. 130 अश्व... - VII. 1. 51 देखें- अश्वक्षीर० VII. 1. 51 अश्व... - VII. Iv. 37 देखें - अश्वाघस्य VII. Iv. 37 अश्वक्षीरवृषलवणानाम् - VII. 1. 51 अश्व, क्षीर, वृष, लवण इन अङ्गों को क्यच परे रहते असुक् आगम होता है, आत्मा की प्रीति विषय में) । ... अश्वत्थ... - IV. iii. 48 देखें - कलाप्यश्वत्थo IV. iii. 48 ... अश्वत्थात् - IV. 1. 21 देखें - आग्रहायण्यश्वत्थात् IV. ii. 21 ...अश्यत्वाभ्याम् - IV. 1. 5 देखें - श्रवणाश्वत्थाभ्याम् IV. 1. 5 अश्वपत्यादिभ्य IV. 1. 84 अश्वपति आदि (समर्थ) प्रातिपदिकों से (भी प्राग्दीव्यतीय अर्थों में अण् प्रत्यय होता है)। - ... आश्वयुज्.. - IV. III. 36 देखें - वत्सशालाभिजिo IV. III. 36 अश्वस्य - Vit. 19 षष्ठीसमर्थ अश्व प्रातिपदिक से (एक दिन में जाया जा सकने वाला मार्ग' कहना हो तो खज् प्रत्यय होता है) । अश्वाघस्य VII. iv. 37 अश्व तथा अघ अङ्ग को (क्यच् परे रहते वेद-विषय में आकारादेश होता है)। 70 अश्वादिभ्यः IV. 1. 110 (षष्ठीसमर्थ) अश्वादि प्रातिपदिकों से (गोत्रापत्य में फञ् प्रत्यय होता है)। - .. अश्यादेः - V. 1. 38 देखें- असंख्यापरिमाणo V. 1. 38 ... अश्वाभ्याम् - IV. ii. 47 देखें - केशाश्वाभ्याम् IV. 1. 47 अश्विमान् IV. Iv. 127 (उपधान मन्त्र समानाधिकरण वाले प्रथमासमर्थ मतुबन्त) अश्विमान् प्रातिपदिक से (षष्ठ्यर्थ में इष्टका अभिधेय हो तो अण् प्रत्यय होता है, तथा उसके संयोग से मतुप् का लुक् होता है, वेद-विषय में)। अषडक्ष... V. iv. 7 देखें - अवडक्षाशितं Viv. 7 अवडक्षाशितंग्वलंकर्मालंपुरुषाच्युत्तरपदात् - V. Iv. 7 अषडक्ष, आशितंगु, अलंकर्म, अलम्पुरुष शब्दों से तथा अधि शब्द उत्तरपद वाले प्रातिपदिकों से (स्वार्थ में ख प्रत्यय होता है)। ... अश्ववडव... - II. iv. 12 अपाते VIII. iv. 18 देखें - वृक्षमृगतृणधान्यo II. Iv. 12 अश्ववडवौ - II. iv. 27 (उपसर्ग में स्थित निमित्त से उत्तर) जो (उपदेश में ककार तथा खकार आदिवाला नहीं है, एवं षकारान्त (भी) नहीं अश्ववडव (का द्वन्द्व समास करने पर पूर्व शब्द के है, ऐसे (शेष) धातु के परे रहते (नि के नकार को विकल्प समान लिंग होता है)। से णकारादेश होता है)। - अषष्ठी... - VI. iii. 98 देखें - अवष्ठ्यतृतीयास्थस्य VI. III. 98 अवष्ट्यतृतीयास्वस्य - VI. III. 98 (आशीष, आशा, आस्था, आस्थित, उत्सुक, ऊति, कारक, राग तथा छ प्रत्यय के परे रहते) अषष्ठीस्थित तथा अत्तीयास्थित (अन्य) शब्द को (दुक् आगम होता है)। ... अवाढा... - IV. iit. 34 देखें- श्रविष्ठापाकाo IV. 34 अष्टन: ... अष्ट... - VI. iii 114 देखें •अविष्टाष्ट० VI. iii. 114 अष्टन: - VI. 1. 166 (दीर्घ अन्त वाले) अष्टन् शब्द से उत्तर (सर्वनामस्थानभिन्नं विभक्ति उदात्त होती है) । ... अष्टन: - VI. ill. 46 देखें - राष्टन: VI. ili. 46 अष्टन: - VI. ill. 124 अष्ट शब्द को उत्तरपद परे रहते सखा-विषय में दीर्घ होता है)। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टनः असज्ञायाम् अष्टन: - VII. ii. 84 अष्टन अङ्गको विभक्ति परे रहते आकारादेश हो जाता है)। ...अष्टमाभ्याम् -v.iii. 50 देखें - षष्ठाष्टमाभ्याम् v. iii. 50 अष्टानाम् -VII. iii. 74 (शम् इत्यादि) आठ अङ्गों को (श्यन् परे रहते दीर्घ होता अष्टाभ्यः -III. ii. 141 (शमादि) आठ धातुओं से (तच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमान काल में घिनुण प्रत्यय होता है)। अष्टाभ्यः - VII. 1. 21 आत्त्व किये हुये अष्ट शब्द से उत्तर (जश् और शस् के स्थान में औश् आदेश होता है)। अष्ठीवत् - VIII. II. 12 अष्ठीवत शब्द का निपातन किया जाता है। अस्... -V.ii. 121 देखें-अस्मायाov.ii. 121 असंयोगपूर्वस्य -VI. iv. 83 (धात का अवयव) संयोग पूर्व नहीं है जिस (इवर्ण) के, तदन्त (अनेकाच्) अंग को (अजादि सुप् परे रहते यणादेश, होता है)। . असंयोगपूर्वात् - VI. iv. 107 संयोग पूर्व में नहीं है जिसके, ऐसे (उकारान्त) अङ्ग से उत्तर (भी हि का लुक हो जाता है)। असंयोगात् -I. ii.5 ' असंयोगान्त धातु से परे (अपित लिट् प्रत्यय कित के समान होता है)। असंयोगोपधात् - IV.I.54 (स्वाङ्गवाची उपसर्जन और) असंयोग उपधावाले (अदन्त) प्रातिपदिक से (स्त्रीलिंग में विकल्प सेङीप प्रत्यय होता है)। असखि -I.iv.7 (नदी संज्ञा से अवशिष्ट हस्व इकारान्त उकारान्त शब्दों की घिसंज्ञा होती है), सखि शब्द को छोड़कर। असावा.. -V.1.39 - देखें- असमाचापरिमाणाov.1. 39 असख्यादेः-v.ii. 49 सङ्ख्या आदि में न हो जिसके, ऐसे (सङ्ख्यावाची षष्ठीसमर्थ नकारान्त) प्रातिपदिकों से (परण' अर्थ में विहित डट् प्रत्यय को मट् का आगम होता है)। असङ्ख्यादेः - V.ii. 58 सङ्ख्या आदि में न हो जिनके, ऐसे (षष्ठीसमर्थ सङ्ख्यावाची षष्टि आदि) प्रातिपदिक से (भी पूरण' अर्थ में विहित डट् प्रत्यय क्रो नित्य ही तमट् आगम होता है)। असङ्ख्यापरिमाणाश्यादेः - V.I. 38 सङ्ख्यावाची, परिमाणवाची तथा अश्वादि से भिन्न (षष्ठीसमर्थ गो शब्द तथा दो अच वाले) प्रातिपदिकों से (कारण' अर्थ में यत् प्रत्यय होता है, यदि वह कारण संयोग का उत्पात हो तो)। असज्ञा...-VII. iii. 17 देखें- असंज्ञाशाणयोः VII. 1. 17 असप्क्षायाम् -I.1.33 (पूर्व, पर, अवर, दक्षिण, उत्तर, अपर, अधर शब्दों की जस सम्बन्धी कार्यों में विकल्प से सर्वनाम संज्ञा होती है, यदि) संज्ञाभिन्न (व्यवस्था) गम्यमान हो तो। असज्ञायाम् -III. 1. 112 असंज्ञाविषय में (भृ धातु से क्यप प्रत्यय होता है)। असज्जायाम -III. 1. 180 संज्ञा गम्यमान न हो तो (वि.प्र तथा सम्पूर्वक भू धातु से डु प्रत्यय होता है,वर्तमान काल में)। असज्ञायाम् -IV.II. 106 संज्ञा में वर्तमान न हो तो (दिशावाची शब्द पूर्वपद वाले प्रातिपदिक से शैषिक ब प्रत्यय होता है)। असज्ञायाम् -IV. III. 146 (षष्ठीसमर्थ तिल तथा यव प्रातिपदिकों से) संज्ञा गम्यमान न हो तो (विकार और अवयव अर्थों में मयट् प्रत्यय होता है)। असज्ञायाम् -V.1.24 (विंशति तथा त्रिंशद् प्रातिपदिकों से 'तदर्हति' पर्यन्त कथित अर्थों में ड्वुन् प्रत्यय होता है),सज्ञाभिन्न विषय में। असज्ञायाम् - V. 1. 28 (अध्यर्द शब्द पूर्व में है जिसके,उससे तथा द्विगुसज्ज्ञक प्रातिपदिक से 'तदर्हति पर्यन्त कथित अर्थों में उत्पन्न प्रत्यय का लुक होता है), सज्जाविषय को छोड़कर। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असज्ञायाम् असज्ञायाम् - VIII. Iv. 5 (प्र, निर्, अन्तर, शर, इस प्लक्ष, आम्र, कार्ष्ण, खदिर, पीयूक्षा इनसे उत्तर वन शब्द के नकार को) असञ्ज्ञाविषय में (तथा अपि ग्रहण से सञ्ज्ञाविषय में भी णकारादेश होता है)। - असज्ञाशाणयो: - VII. iii. 17 (परिमाणवाची शब्द अन्त में है जिस अङ्ग के, उस संख्यावाची शब्द के आगे उत्तरपद के अचों में आदि अच् को जित, णित् तथा कित् तद्धित प्रत्यय परे रहते वृद्धि होती है), सञ्ज्ञा विषय एवं शाण शब्द उत्तरपद को छोड़कर। .....असती - L. Iv. 62 देखें - सदसती I. 1. 62 असत्यवचनस्य - II. iii. 33 असत्ववाचक = अद्रव्यवाचक (स्तोक, अल्प, कृच्छ्र, कतिपय इन शब्दों से करण कारक में तृतीया विभक्ति विकल्प से होती है)। - असत्वे - I. Iv. 57 द्रव्य अर्थ अभिव्यक्त न हो तो (चादिगणपठित शब्द निपातसंज्ञक होते हैं)। ... असन्... - VI. 1. 61 (वेद-विषय में) असृज् शब्द के स्थान में असन आदेश हो जाता है, (शस् प्रकार वाले प्रत्ययों के परे रहते) । ..असन्तस्य - VI. iv. 14 देखें - अत्वसन्तस्य VI. Iv. 14 ..असता - V. Iv. 103 देखें - अनसन्तात् V. Iv. 103 असन्धी - VI. II. 154 (तृतीयान्त से परे उपसर्गरहित मिश्र शब्द उत्तरपद को भी अन्तोदात्त होता है), सुलह करना गम्यमान न हो तो । ... असमाप्तौ - V. iii. 67 देखें - ईषदसमाप्ती V. III. 67 असमासे - V. 1. 20 समास में वर्तमान न होने पर (निष्कादि' प्रातिपदिकों से 'तदर्हति पर्यन्त कथित सब अर्थों में ठक् प्रत्यय होता है) । असमासे - VII. 1. 71 समास न हो तो (युज अङ्ग को सर्वनामस्थान परे रहते नुम् आगम होता है)। 72 असहाये असमासे - VIII. I. 14 (उपसर्ग में स्थित निमित्त से उत्तर णकार उपदेश में है जिसके, ऐसे धातु के नकार को) असमास में (तथा अपि ग्रहण से समास में भी णकार आदेश होता है)। ... असम्प्रति... - II. 1. 6 देखें - विभक्तिसमीपसमृद्धि II. 1. 6 असम्बुद्धौ – VI. iv. 8 सम्बुद्धिभिन्न (सर्वनामस्थान) के परे रहते (भी नकारान्त अङ्ग की उपधा को दीर्घ हो जाता है)। असम्बुद्धी - VII. 1. 92 सम्बुद्धि परे नहीं है जिससे, ऐसे (सखि शब्द से उत्तर सर्वनामस्थान विभक्ति णिद्वत् होती है ) । असम्मतौ - III. 1. 128 अपूजित अर्थ में प्रणाय्य शब्द निपातन है)। असरूप: III. 1. 94 (धातु के अधिकार में उक्त ऐसे प्रत्यय, जिनका परस्पर समान रूप नहीं है, (विकल्प से बाधक होते है, स्त्री अधिकार में विहित प्रत्ययों को छोड़कर)। असर्वनामस्थानम् - VI. 1. 164 - (अनु धातु से उत्तर वेद-विषय में) सर्वनामस्थान- भिन्न विभक्ति (उदात्त होती है)। असर्वनामस्थाने - I. iv. 17 सर्वनामस्थान = सु, औ, जस्, अम्, और से भिन्न (सु आदि) प्रत्ययों के परे रहते (पूर्व की पद संज्ञा होती है) । असर्वविभक्तिः - I. 1. 37 जिससे सब विभक्तियाँ उत्पन्न नहीं होतीं, ऐसे (तद्धितप्रत्ययान्त) शब्द (भी अव्ययसंज्ञक होते है ) । असवर्णे - VI. 1. 123 सवर्णभिन्न (अच्) परे हो तो (इक् को शाकल्य आचार्य मत में प्रकृतिभाव हो जाता है, तथा उस इक् के स्थान में ह्रस्व भी हो जाता है)। असवर्णे - VI. iv. 78 1 (वर्णान्त तथा उवर्णान्त अभ्यास को) सवर्णभिन्न (अच्) परे रहते (इयङ् और उवङ् आदेश होते है)। असहाये - V. ill. 52 'अकेला' अर्थ में वर्तमान (एक प्रातिपदिक से आकिनिच् प्रत्यय तथा कन् और लुक होते हैं)। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असादृश्ये असर्य असादृश्ये - II.1.7 असुप -VII. 11.44 तुल्यता से भिन्न अर्थ में वर्तमान (अव्यय 'यथा' का (आप परे रहते प्रत्यय में स्थित ककार से पूर्व अकार समर्थ सुबन्त के साथ समास होता है और वह अव्ययी- के स्थान में इकारादेश होता है, यदि वह आप) सुप से भाव समास होता है)। उत्तर न हो तो। ...असि.. - IV. 1.95 असुपि-VIII. ii. 69 देखें-श्वास्यलङ्कारेषु IV. 1. 95 (अहन् के नकार को रेफ आदेश होता है), सुप् परे न • असि - v. iii. 39 हो तो। (दिशा, देश तथा काल अर्थों में वर्तमान सप्तम्यन्त, असुरस्य-IV. iv. 123 पञ्चम्यन्त तथा प्रथमान्त दिशावाची पूर्व,अधर तथा अवर प्रातिपदिकों से) असि प्रत्यय होता है (और प्रत्यय के (षष्ठीसमर्थ) असुर प्रातिपदिक से (अपना' अर्थ में यत साथ-साथ इन शब्दों को यथासंख्य करके पर अध तथा प्रत्यय होता है, वेद-विषय म)। अव आदेश होते है)। असूतजरती - VI. ii. 42 असिच् - V. iv. 122 असूतजरती - इस समास किये हुये शब्द के (पूर्वपद (नयु, दुस् तथा सं शब्दों से उत्तर जो प्रजा तथा मेधा को प्रकृतिस्वर होता है। शब्द, तदन्त बहुव्रीहि से नित्य ही समासान्त) असिच् ...असूयः -III. 1. 146 प्रत्यय होता है। देखें-निन्दहिंसक III. II. 146 असिचि - VII. II. 57 असूया.. - VIII.1.8 (कृती, घृती, उच्छृदिर, उतृदिर - इन धातुओं से उत्तर देखें - असूयासम्मति VIII. 1.8 सिचभिन्न (सकारादि आर्धधातक) को विकल्प से इट असूया... -VIII. ii. 103 का आगम होता है)। देखें - असूयासम्मतिVIII. I. 103 असिद्ध -VI.i. 83 ....असूयार्थानाम् - I. iv.37 देखें - कुषगुहेासूयार्थानाम् I. iv. 37 (षत्व और तुक् विधि करने में एकादेश) असिद्ध अर्थात् कार्य के होने पर भी उसका न माना जाना जैसा होता है। असूयाप्रतिवचने - III. iv. 28 (यथा और तथा शब्द उपपद रहते) निन्दा से प्रत्युत्तर असिद्धम् -VIII. 1.1 गम्यमान हो तो (कृञ् धातु से णमुल प्रत्यय होता है, यदि (यह अधिकार सूत्र है, यहाँ से आगे अध्याय की कृञ् का अप्रयोग सिद्ध हो)। समाप्तिपर्यन्त 3 पाद के सूत्र पूर्व-पूर्व की दृष्टि में अर्थात् सवा सात अध्याय में कहे गये सूत्रों की दृष्टि में) असिद्ध। अस्यासम्मतिकोपकुत्सनमात्सनिषु-VIII.1.8 होते है,अर्थात् सिद्ध के समान कार्य नहीं करते। (वाक्य के आदि के आमन्त्रित को द्वित्व होता है. यदि वाक्य से) असूया दूसरे के गुणों को भी सहन न करना, असिद्धवत् - VI. iv. 22 असम्मति = असत्कार,कोप= क्रोध,कुत्सन= निन्दा तथा (भस्य' के अधिकारपर्यन्त समानाश्रय अर्थात एक ही भर्त्सन =डराना गम्यमान हो रहा हो तो। . निमित्त होने पर आभीय कार्य)सिद्ध के समान नहीं होता। असूयासम्मतिकोपकुत्सनेषु - VIII. II. 103 असुक् - VII. 1. 50 (आमेडित परे रहते पूर्वपद की टि को स्वरित प्लुत होता (वेद-विषय में अवर्णान्त अङ्ग से उत्तर जस् को) असुक् । है), असूया = दूसरों के गुणों को भी सहन न करना,असका आगम होता है। म्मति= असत्कार, कोप-क्रोध तथा कुत्सन=निन्दा असुङ्- VII. 1. 89 गम्यमान होने पर। . (पुंस् अङ्ग के स्थान में सर्वनामस्थान परे रहते) असुङ् असूर्य... - II. II. 36 आदेश होता है। देखें-असूर्यललाटयो: III. 1. 36 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असूर्यललाटयोः । 74 अखियाम् ...अस्ति ... - IV. iii. 56 देखें - दतिकुक्षिकलशिo IV. iii. 56 अस्ति... -IV.iv.60 देखें- अस्तिनास्तिदिष्टम् IV. iv.60 अस्ति-v.ii.94 'है' क्रिया के समानाधिकरण वाले (प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ तथा सप्तम्यर्थ में मतुप प्रत्यय होता असूर्यललाटयो: - III. ii. 36 असर्य तथा ललाट (कम) उपपद हो तो (यथासंख्य करके दृशिर तथा तप् धातुओं से खश् प्रत्यय होता है)। ...असे... - III. iv.9 देखें- सेसेनसे. III. iv.9 असे: -VIII. ii. 80 . असकारान्त (अदस शब्द) के (दकार से उत्तर जो वर्ण. उसके स्थान में उवर्ण आदेश होता है तथा दकार को मकारादेश भी होता है)। ...असेन...-III. iv.9 देखें-सेसेनसे III. iv.9 . ...असेवित... - VI.i. 140 देखें-सेवितासेवित. VI. I. 140. ...असो: -VI. iv. 111 देखें-श्नसो: VI. iv. 111 ...असो: -VI. iv. 119 देखें-ध्वसो: VI. iv. 119 असोढः-I. iv. 26 (परा पूर्वक जि धातु के प्रयोग में) जो असह्य है, वह (कारक अपादान सञ्जक होता है)। असौ-VI. iv. 127 (अर्वन् अङ्गको त आदेश होता है), यदि (अर्वन् शब्द से) परे सुन हो (तथा वह अर्वन् शब्द न से उत्तर भी न हो)। अस्ति ... - VII. iii. 96 देखें-अस्तिसिच: VII. iii.96 अस्तिः -VIII. iii. 87 (उपसर्ग में स्थित निमित्त से उत्तर तथा प्रादुस शब्द से उत्तर यकारपरक एवं अच्परक) अस् धातु के (सकार को मूर्धन्य आदेश होता है)। अस्तिनास्तिदिष्टम् - IV.iv.60 (प्रथमासमर्थ) अस्ति, नास्ति तथा दिष्ट प्रातिपदिकों से (इसकी मति' विषय में ठक् प्रत्यय होता है)। ...अस्तियोगे-v.iv. 50 देखें-कश्वस्तिक .iv. 50 अस्तिसिच -VII. ii.96 __ अस् धातु तथा सिच् से उत्तर (अपृक्त हलादि सार्वधातुक को ईट् आगम होता है)। . अस्ते: -II. iv. 52 अस् को (भू आदेश होता है, आर्धधातुक विषय उपस्थित होने पर)। अस्तेये-III. iii. 40 चोरी से भिन्न (हाथ से ग्रहण करना) गम्यमान हो तो (चि धातु से कर्तृभिन्न कारक और भाव में घञ् प्रत्यय होता है)। ...अस्त्य र्थेषु -III. iii. 146 देखें-किंकिलास्त्यर्थेषु III. iii. 146 ...अस्त्यर्थेषु - III. iv. 65 देखें-शकधृष० III. iv.65 ...अस्त्योः - VII. iv. 50 देखें- तासस्त्योः VII. iv. 50 अखियाम् - II. iii. 25 “स्त्रीवर्जित (गुणस्वरूप जो हेतु, उस) में (विकल्प से पञ्चमी विभक्ति होती है)। अस्तम् -I. iv.67 (अव्यय) अस्तं शब्द (भी क्रियायोग में गति और निपातः संज्ञक होता है)। अस्ताति-V. iii. 40 (सप्तमी,पञ्चमी, प्रथमान्त, पूर्व,अधर तथा अवर शब्दों को) अस्तात् प्रत्यय के परे रहते (भी यथासंख्य करके पुर, अध् तथा अव् आदेश होते है)। अस्ताति:-v.iii. 27 , दिशा. देश और काल अर्थों में वर्तमान सप्तम्यन्त पञ्चम्यन्त तथा प्रथमान्त दिशावाची प्रातिपदिकों से स्वार्थ में) अस्ताति प्रत्यय होता है। अस्ति-IV. 1.66 अस्ति समानाधिकरण वाले (प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से सप्तम्यर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है,यदि सप्तम्यर्थ से निर्दिष्ट उस नाम वाला देश हो)। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्त्रियाम् अस्मिन् अखियाम् -II. iv. 62 अस्मदः -I.ii. 59 (बहुत्व अर्थ में वर्तमान तद्राजसज्जक प्रत्यय का लुक अस्मदर्थ के (एकत्व और द्वित्व को कहने में बहुवचन होता है), स्त्रीलिंग को छोड़कर, (यदि वह बहुत्व तद्राज- विकल्प करके होता है)। सज्ञक-कृत ही हो तो)। अस्मदि-I. iv. 106 अस्त्रियाम् - III. 1. 94 तिङ् समानाधिकरण अस्मद् शब्द के उपपद रहते, स्त्री अधिकार में 'विहित' प्रत्ययों से भिन्न (जो धात के (अस्मत् शब्द प्रयुक्त हो या न हो, तो भी उत्तम पुरुष हो अधिकार में विहित असरूप अपवाद प्रत्यय, वे विकल्प जाता है)। से बाधक होते है)। ...अस्मदो: - IV. iii.1 अस्त्रियाम् - IV.i.94 देखें- युष्मदस्मदो: IV. iii.1 (युवापत्य की विवक्षा होने पर गोत्र से ही प्रत्यय हो. . देखें - युष्मदस्मदो: VI.i. 205 अनन्तरापत्य तथा प्रकृति से नहीं),स्त्री अपत्य को छोड़कर। ...अस्मदो: -VII. ii.86 अखियाम् - V. iii. 113 . देखें-युष्मदस्मदो: VII. 1. 86 (वातवाची तथा कञ् प्रत्ययान्त प्रातिपदिकों से स्वार्थ पथ ...अस्मदो: - VIII. I. 20 में ज्य प्रत्यय होता है), स्त्रीलिंग को छोड़कर। देखें- युष्मदस्मदो: VIII. 1. 20 अखियाम् -VII. iii. 119 ...अस्मद्भ्याम् - VII. I. 27 (घिसक्षक अङ्ग से उत्तर आङ्=टा के स्थान में ना देखें - युष्मदस्मद्भ्याम् VII. I. 27 आदेश होता है),स्त्रीलिंग वाले शब्द को छोड़कर।. ..अस्माकौ - IV.ifi.2 अस्त्री-I. iv.4 देखें - युष्माकास्माको IV. iii. 2 (इयङ्, उवङ् स्थान वाले स्त्र्याख्य ईकारान्त ऊकारान्त . रान्त अस्मायामेधामजः - V. ii. 121 शब्द नदीसंज्ञक नहीं होते).स्त्री शब्द को छोड़कर। - अस् अन्तवाले तथा माया,मेधा और सज प्रातिपदिकों अस्त्रीविषयात् - IV.i.63 से (मत्वर्थ में विनि प्रत्यय होता है)। जो नित्य ही स्त्रीविषय में न हो (तथा यकार उपधावाला न हो). ऐसे (जातिवाची) प्रातिपदिक से (स्त्रीलिंग में डीप अस्मिन् - IV.ii. 20 प्रत्यय होता है)। (प्रथमासमर्थ पौर्णमासी विशेषवाची प्रातिपदिक से) अस्थि .. - VII. 1.75 सप्तम्यर्थ = अधिकरण अभिधेय होने पर (यथाविहित देखें- अस्थिदधि० VII. 1.75 अण् प्रत्यय होता है)। अस्थिदधिसक्थ्यक्ष्णाम् - VII.i.75 अस्मिन् - IV. ii. 66 (नपुंसकलिंग वाले) अस्थि, दधि, सक्थि, अक्षि - इन (अस्ति समानाधिकरण वाले प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक (अस्ति समानाधिकरण वाले डों को तितीयादि अजाति विभक्तियों के परे रहते से) सप्तम्यर्थ में (यथाविहित प्रत्यय होता है.यदि सप्तम्यर्थ अनङ् आदेश होता है और वह उदात्त होता है)। से निर्दिष्ट उस नाम वाला देश हो)। अस्थूलात् - V.iv. 118 अस्मिन् - IV. iv. 87 (सञ्जाविषय में नासिका-शब्दान्त बहुव्रीहि से समासान्त (दृश्यसमानाधिकरण प्रथमासमर्थ पद प्रातिपदिक से) अच् प्रत्यय होता है, तथा नासिका शब्द के स्थान में नस सप्तम्यर्थ में (यत् प्रत्यय होता है)। आदेश भी हो जाता है),यदि वह नासिका शब्द स्थूल शब्द अस्मिन् -V.i. 17 से उत्तर न हो तो। (प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से षष्ठयर्थ तथा ) सप्तम्यर्थ • अस्पर्श -VIII. ii. 47 में (यथाविहित प्रत्यय होता है,यदि वह प्रथमासमर्थ प्राति(श्यैङ् धातु से उत्तर निष्ठा के तकार को नकारादेश पदिक 'स्यात् = सम्भव हो' क्रिया के साथ समानाधिहोता है),स्पर्श अर्थ को छोड़कर। करण वाला हो तो)। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्मिन् 76 अस्मिन्-v.1.46 (प्रथमासमर्थ प्रातिपादिकों से) सप्तम्यर्थ में (यथाविहित प्रत्यय होते है, यदि 'वृद्धि' ब्याज के रूप में दिया जाने वाला द्रव्य,'आय' =जमीदारों का भाग, 'लाभ' = मूल- द्रव्य के अतिरिक्त प्राप्य द्रव्य, शुल्क' = राजा का भाग तथा 'उपदा' = घूस दी जाने वाली क्रिया के कर्म वाच्य हों तो)। अस्मिन् -v.ii. 45 (प्रथमासमर्थ दशन् शब्द अन्त वाले प्रातिपदिक से) सप्तम्यर्थ में (ड प्रत्यय होता है, यदि वह प्रथमासमर्थ अधिक समानाधिकरण वाला हो तो)। अस्मिन् -V.1.2 (प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से) सप्तम्यर्थ में (कन प्रत्यय होता है,यदि वह प्रथमासमर्थ बहुल करके सज्जाविषय में अन्नविषयक हो तो)। अस्मिन् -V. 1.94 (है' क्रिया के समानाधिकरण वाले प्रथमासमर्थ प्राति- पदिक से षष्ठ्यर्थ तथा) सप्तम्यर्थ में (मतुप् प्रत्यय होता अस्मे-III. 1. 122 स्म शब्दरहित (पुरा शब्द) उपपद रहते (अनद्यतन भूत- काल में धातु से लङ्ग प्रत्यय विकल्प से होता है और चकार से लट् भी होता है)। अस्मै -IV.iv.66 (प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से) इसके लिए नियमपूर्वक दिया जाता है, विषय में ठक् प्रत्यय होता है)। अस्य-I. 1.69 (नपुंसकलिङ्ग शब्द नपुंसकलिङ्गभिन्न अर्थात् स्त्रीलिङ्ग पुंल्लिङ्ग शब्दों के साथ शेष रह जाता है, तथा स्त्रीलिङ्ग पुंल्लिङ्ग शब्द हट जाते हैं,एवं) उस नपुंसकलिङ्ग शब्द को (एकवत् कार्य भी विकल्प करके हो जाता है, यदि उन शब्दों में नपुंसक गुण एवं अनपुंसक गुण का ही वैशिष्ट्य हो,शेष प्रकृति आदि समान ही हो)। अस्य -III. iv. 32 (वर्षा का प्रमाण गम्यमान हो तो कर्म उपपद रहते परी धातु से णमुल् प्रत्यय होता है तथा) इस पूरी धातु के (अकार का लोप विकल्प से होता है)। अस्य - IV.ii. 23 (प्रथमासमर्थ प्रातिपदिकों से) षष्ठ्यर्थ में (यथाविहित प्रत्यय होता है, यदि वह प्रथमासमर्थ देवताविशेषवाची प्रातिपदिक हो)। अस्य-IV. 1.54 (प्रथमासमर्थ छन्दोवाची प्रातिपदिकों से) षष्कार्थ में (यथाविहित अण प्रत्यय होता है, प्रगाथों के आदि के अभिधेय होने पर)। अस्य - IV. iii. 52 (प्रथमासमर्थ कालवाची सोढ अर्थात् 'जिसे सहन किया गया' समानाधिकरण प्रातिपदिक से) षष्ठ्यर्थ में (यथाविहित प्रत्यय होता है)। . अस्य-IV. iii. 89 (प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से) षष्ठ्यर्थ में (यथाविहित प्रत्यय होता है, यदि प्रथमासमर्थ 'निवास' हो तो)। अस्य-IV. iv.51 (प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से) षष्ठ्यर्थ में (ठक प्रत्यय होता है, यदि वह प्रथमासमर्थ 'जीतने योग्य' हो तो)। " अस्य - IV. iv. 88 . (आबर्हि = उत्पाटनीय समानाधिकरण प्रथमासमर्थ मल प्रातिपदिक से) षष्ठ्यर्थ में (यत् प्रत्यय होता है)। अस्य-v.i.16 (प्रथमासमर्थ प्रातिपदिकों से) षष्ठ्यर्थ (तथा सप्तम्यर्थ) में (यथाविहित प्रत्यय होता है,यदि वह प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक स्यात् अर्थात् 'सम्भव हो', क्रिया के साथ समानाधिकरण वाला हो तो)। अस्य-V.1.55 (प्रथमासमर्थ प्रातिपदिकों से) षष्ठ्यर्थ में (यथाविहित प्रत्यय होता है, यदि वह प्रथमासमर्थ भाग, मूल्य तथा वेतन समानाधिकरण हो तो)। अस्य-v.i. 56. (प्रथमासमर्थ परिमाणवाची प्रातिपदिकों से) षष्ठ्यर्थ में (यथाविहित प्रत्यय होते हैं)। अस्य- (प्रथमासमर्थ कालवाची प्रातिपदिक से) षष्ठ्यर्थ में (यथाविहित ठञ् प्रत्यय होता है. ब्रह्मचर्य गम्यमान होने पर)। अस्य-V.i. 103 (प्रथमासमर्थ समय प्रातिपदिक से) षष्ठ्यर्थ में (यथाविहित ठज प्रत्यय होता है,यदि वह प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक प्राप्त समानाधिकरण वाला हो तो)। अस्य-v.ii. 35 (प्रथमासमर्थ संज्ञात समानाधिकरण वाले तारकादि प्रातिपदिकों से) षष्ठ्यर्थ में (इतच् प्रत्यय होता है)। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्य अन्विोः . 77 अस्य-V.ii.79 अस्याम् - IV. 1.56 (प्रथमासमर्थ शृङ्खल प्रातिपदिक से) षष्ठ्यर्थ में (कन् (प्रथमासमर्थ प्रहरण समानाधिकरण वाले प्रातिपदिकों प्रत्यय होता है, यदि वह प्रथमासमर्थ बन्धन बन रहा हो से) सप्तम्यर्थ में (ण प्रत्यय होता है) यदि 'अस्याम' से तथा जो षष्ठी से निर्दिष्ट हो वह करभ ऊंट का छोटा निर्दिष्ट (क्रीडा) हो। बच्चा हो तो) अस्याम् - IV. ii. 57 अस्य-V.ii.94 (प्रथमासमर्थ क्रियावाची धजन्त प्रातिपदिक से) सप्त(है' क्रिया के समानाधिकरणवाले प्रथमासमर्थ म्यर्थ में (ज प्रत्यय होता है)। प्रातिपदिकों से) षष्ठ्यर्थ (तथा सप्तम्यर्थ) में (मतुप् प्रत्यय अस्वाइपूर्वपदात् - IV.i. 53 होता है)। स्वाङ्गभिन्न पद जिसके पूर्वपद में है, ऐसे (अन्तोदात्त क्त अस्य-VI.i. 38 प्रत्ययान्त बहुव्रीहि समास वाले) प्रातिपदिक से (विकल्प इस वय के यकार को (कित् लिट् के परे रहते विकल्प से स्त्रीलिङ्ग में डोष् प्रत्यय होता है)। करके वकासदेश भी हो जाता है)। अस्वाङ्गम् -VI. ii. 183 अस्य-VI. iv.45 (प्र उपसर्ग से उत्तर) अस्वाङ्गवाची उत्तरपद को (सजा(क्तिच प्रत्यय परे रहते अङ्गसंज्ञक सन् धातु को विषय में अन्तोदात्त होता है)। आकारादेश हो जाता है तथा विकल्प से) इसका (लोप तथा विकल्प स) इसका (लाप ...अस्वैरी-III.I. 119 भी होता है)। देखें-पदास्वैरि०. III. 1. 119 अस्य-VI. iv. 107 ...अह... -VIII. 1. 24 (असंयोग पूर्व वाले) उकारान्त प्रत्यय का (विकल्प देखें-चवाहाo VIII. 1. 24 करके लोप भी होता है,मकारादि तथा वकारादि प्रत्ययों। अह - VIII. i. 61 के परे रहते)। अह (से युक्त प्रथम तिङन्त को विनियोग तथा चकार ...अस्य-VI. iv. 148 से क्षिया अर्थात् शिष्टाचार का व्यतिक्रम गम्यमान होने देखें- यस्य VI. iv. 148 पर अनुदात्त नहीं होता। अस्य - VII. iv. 32 ...अहन् -II. iv.29 अवर्णान्त अङ्ग को (च्चि परे रहते ईकारादेश होता है)। देखें - रात्राहाहाः II. iv. 29 अस्यति ... III. 1.52 ...अहन्..-III. 1. 21 देखें - अस्यतिवक्ति० III. 1. 52 देखें - दिवाविभा० III. ii. 21 अस्यति...-III. iv.57 अहन् -VI. iii. 109 देखें - अस्यतितृषोः III. iv.57 (संख्या, वि तथा साय पूर्ववाले अह्न शब्द को विकल्प अस्यतितृषोः -III. iv.57 करके) अहन् आदेश होता है,(ङि परे रहते)। (क्रिया के उत्तर = व्यवधान में वर्तमान) असु तथा तृष अहन् -VIII. 1.68 धातुओं से (कालवाची द्वितीयान्त शब्द उपपद रहते णमुल अहन् के नकार को (रु होता है)। प्रत्यय होता है)। अहनि -IV. iv. 130 अस्यतिवक्तिख्यातिभ्यः-III. 1.52 (ओजस प्रातिपदिक से मत्वर्थ में यत् और ख प्रत्यय असु,वच्,ख्याञ्- इन धातुओं से उत्तर (च्लि के स्थान होते है),दिन अभिधेय हो तो (वेद-विषय में)। में अङ् आदेश होता है, कर्तृवाची लुङ् परे रहते)। अन्विडो: - VI.i. 180 (तासि प्रत्यय, अनुदात्तेत् धातु.डित् धातु तथा उपदेश अस्यते: - VII. iv. 17 में जो अवर्णान्त - इन से उत्तर लकार के स्थान में जो 'अस क्षेपणे' अङ्गको (अङ परे रहते थक आगम होता सार्वधातुक प्रत्यय, वे अनुदात्त होते है), तथा इङ् धातुओं को छोड़कर। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहम् अहम्... -V.ii. 140 देखें- अहंशुभमो: V. ii. 140 अहंशुभमो: - V. ii. 140 अहम् तथा शुभम् प्रातिपदिकों से (मत्वर्थ में युस प्रत्यय होता है)। अहः... -II.1.44 देखें- अहोरात्रावयवाः II.i. 44 अहः ...-II. iv. 28 देखें- अहोरात्रे II. iv. 28 ...अहः ... -v.i. 86 देखें - रात्र्यहस्संवत्स V.1.86 .. ...अहः ... - V. iv. 91 देखें- राजाहःसखिभ्य: V. iv. 91 ...अहः ... -VI. 1. 33 देखें-वय॑मानाहोरात्रा. VI. 1. 33 अहसर्वकदेशसङ्ख्यातपुण्यात् -v.iv.87 ' अहर, सर्व, एकदेशवाचक शब्द, सङ्ख्यात तथा पुण्य शब्दों के आगे (तथा सङ्ख्या और अव्यय के आगे भी जो रात्रि शब्द, तदन्त तत्पुरुष से समासान्त अच् प्रत्यय होता अहीय.. - V. iv.45 देखें- अहीयरुहो: V. iv. 45 अहीयरुहो: - V.iv. 45 ___ (अपादान कारक में भी जो पञ्चमी,तदन्त से तसि प्रत्यय विकल्प से होता है, यदि वह अपादान कारक) हीय और रुह सम्बन्धी न हो तो। ...अहे: - IV. iii. 56 - देखें-दृतिकुक्षिकलशिo Vii. 56 ...अहे: -VIII. 1.39 देखें-तुपश्यपश्यताहै: VIII. 1. 39 अहो -VIII. I. 40 अहो शब्द से युक्त (तिङन्त को भी पूजाविषय में . ' अनुदात्त नहीं होता)। अहोरात्रावयवा: -II.i. 44 दिन के अवयववाची तथा रात्रि के अवयववाची (सप्तम्यन्त सुबन्त) शब्द (क्तान्त समर्थ सुबन्त के साथ विकल्प : से समास को प्राप्त होते हैं और वह समास तत्पुरुष संज्ञक होता है)। अहोरात्रे -II. iv. 28 अहन और रात्रि शब्दों का (द्वन्द्व समास में छन्द विषय में पूर्वपद के समान लिङ्ग होता है)। , ...अहौ-VII. ii. 94 देखें -स्वाही VII. 1. 94 अहः-V. iv. 88 (इन सङ्ख्यावाची,अवयववाची तथा सर्व,एकदेशवाचक शब्द,सङ्ख्यात और पुण्य शब्द से उत्तर) अहन् शब्द के स्थान में (समासान्त अह्न आदेश होता है,तत्पुरुष समास में)। अहः-V. iv. 88 (इन सङ्ख्यावाची, अवयववाची तथा सर्व,एकदेशवाचक शब्द,सङ्ख्यात और पुण्य शब्द से उत्तर अहन शब्द के स्थान में समासान्त) अह्न आदेश होता है, (तत्पुरुष समास में)। अहः-VI. iv. 145 अहन् अङ्ग के (टि भाग का ट तथा ख तद्धित प्रत्यय परे रहते ही लोप होता है)। अहर्... - V. iv. 42 देखें- अहसर्वक० V. iv. 42 अहरणे-VI. ii.65 हरण शब्द को छोड़कर (धर्म्यवाची शब्दों के परे रहते सप्तम्यन्त तथा हारिवाची पूर्वपद को आधुदात्त होता है)। ...अहर्दिव... -Viv.77 देखें-अचतुर० V. iv.77 ...अहलोपे - VIII. i. 62 देखें-चाहलोपे VIII.i.62 अहस्त्यादिभ्यः - V. iv. 138 (उपमानवाचक) हस्त्यादिवर्जित प्रातिपदिकों से उत्तर (जो पाद शब्द,उसका समासान्त लोप हो जाता है,बहुव्रीहि समास में)। ...अहा: -II. iv.29 देखें-रात्राहाहाः II. iv.29 अहीने -Iii. 47 हीन = त्यक्त,जहाँ से विभक्त हो चुका हो,उससे भिन्न अर्थ के वाचक समास में (क्तान्त उत्तरपद रहते द्वितीयान्त पूर्वपद को प्रकृतिस्वर हो जाता है)। (अदन्त पूर्वपद में स्थित निमित्त से उत्तर) अहन के (न कोण आदेश होता है)। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहस्य 79 आक्रन्दात् अह्रस्य -VI. iii. 109 (संख्या,वि तथा साय पूर्ववाले) अह्न शब्द को (विकल्प करके अहन् आदेश होता है, ङि प्रत्यय परे रहते)। आ आ -I. iv.1 आ-VII. 1.84 (कडारा: कर्मधारये' II. 1. 38 सूत्र) तक (एक सज्ञा (अष्टन अङ्गको विभक्ति परे रहते) आकारादेश हो जाता होती है, यह अधिकार है)। आ-III. ii. 134 आकम् - VII. I. 33 (प्राजभास.' III. ii. 177, इस सूत्र से विहित क्विप) (युष्मद तथा अस्मद अङ्ग से उत्तर साम् के स्थान में) पर्यन्त (जितने प्रत्यय कहे हैं; वे सब तच्छील, तद्धर्म तथा आकम आदेश होता है। तत्साधुकारी कर्ता अर्थों में जानने चाहिए)। आकर्षात् - IV.iv.9 आ-III. iii. 141 (तृतीयासमर्थ) आकर्ष प्रातिपदिक से (चरति अर्थ में (उताप्योःसमर्थयोलिङIII. iii. 152 से) पहले जितने सूत्र हैं,(उनमें लिनिमित्त होने पर, क्रिया की अतिपत्ति में ष्ठल् प्रत्यय होता है)। भूतकाल में विकल्प से लुङ्प्रत्यय होता है)। आकर्षादिभ्यः - V. ii. 64 आ-v.i. 19 (सप्तमीसमर्थ) आकर्षादि प्रातिपदिकों से (कुशल'अर्थ (यहाँ से आगे 'अर्हति' अर्थ) पर्यन्त (जितने अर्थ कहे में कन् प्रत्यय होता है)। गये हैं, उन सब अर्थों में सामान्य करके ठक् प्रत्यय होता .. आकाङ्क्षम् - VIII. ii. 9 है,यह अधिकार है; गोपुच्छ, संख्या तथा परिमाणवाची शब्दों को छोड़कर)। (अङ्ग शब्द से युक्त ) आकाङ्क्षा रखने वाले (तिङन्त आ - V.i. 120 को भर्त्सना विषय में प्लुत होता है)। यहां से लेकर (ब्रह्मणस्त्व! V.i. 135 पर्यन्त त्व तल . आकाशम् -VIII. ii. 104 प्रत्यय होते है, ऐसा अधिकार जानना चाहिए)। (वाक्य से क्षिया, आशीः तथा प्रैष गम्यमान हो तो) आ-VI.i.90 . साकाङ्क्ष (तिङन्त) की (टि को स्वरित प्लुत होता है)। (ओकारान्त से उत्तर अम तथा शस विभक्ति के अच .क्षिया आचारोल्लंघन, आशीः = इष्टाशंसन. परे रहते, पूर्व पर के स्थान में) आकार (एकादेश) होता है. प्रेष = शब्दप्रेरण। (संहिता के विषय में)। आकालिकट् -V.i. 113 आ...-VI. iii. 34 (एक ही काल में उत्पत्ति एवं विनाश कहना हो तो) देखें- आकृत्वसुच: VI. iii. 34 प्रथमासमर्थ समानकाल शब्द के स्थान में आकाल आदेश और इकट् प्रत्यय का निपातन होता है। आ-VI. iii. 90 आकिनिन् -v. iii. 52 (सर्वनाम-सज्ञक शब्दों को) आकारादेश होता है; (अकेला' अर्थ में वर्तमान एक प्रातिपदिक से) आकि(दृक्, दृश् तथा वतुप् परे रहते)। निच् (तथा कन् प्रत्यय और लुक् भी होते है)। आ... - VI. iv. 22 . आकृत्वसुच: - VI. iii. 34 देखें - आभात् VI. iv. 22 (तसिलादि प्रत्ययों से लेकर) कृत्वसुच् पर्यन्त कहे गये आ-VI. iv. 117 जो प्रत्यय,उनके परे रहते (ऊवर्जित भाषितपुंस्क स्त्रीशब्द (हि परे रहते.ओहाक अङ्गको विकल्प से) आकारादेश को पुंवत् हो जाता है)। होता है (तथा इकारादेश भी)। आक्रन्दात् - IV. iv. 38 ...आ... -VII. .39 (द्वितीयासमर्थ) आक्रन्द प्रातिपदिक से (दौड़ता है' अर्थ देखें-सुलुक VII. 1.39 में ठञ् तथा ठक् प्रत्यय होते है)। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आक्रीड आग्रहायण्यश्वत्थात् ...आक्रीड... - III. I. 142 देखें-सम्पृचानुरुधा० III. ii. 142 आक्रोश... -VI. iv. 61 • देखें-आक्रोशदैन्ययो: VI. iv. 61 आक्रोशे -III. iii. 45 आक्रोश = क्रोधपूर्वक चिल्लाना गम्यमान हो तो (अव तथा नि पूर्वक ग्रह धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है)। आक्रोशे - III. iii. 112 क्रोधपूर्वक चिल्लाना गम्यमान हो तो (नब उपपद रहते धात से स्त्रीलिङ्गकर्तभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में अनि प्रत्यय होता है)। आक्रोशे-III. iv. 25 (कर्म उपपद रहते ) आक्रोश गम्यमान हो तो (समानकर्तृक पूर्वकालिक कृञ् धातु से खमुज् प्रत्यय होता है)। आक्रोशे-VI. 1. 158 (नञ् से उत्तर) आक्रोश गम्यमान होने पर (भी अच्चत्ययान्त तथा कप्रत्ययान्त उत्तरपद को अन्तोदात्त होता है)। आक्रोशे-VI. iii. 20 आक्रोश गम्यमान होने पर (उत्तरपद परे रहते षष्ठी विभक्ति का अलुक् होता है)। आक्रोशे-VIII. iv. 47 आक्रोश गम्यमान हो तो (आदिनी शब्द परे रहते पुत्र शब्द को द्वित्व नहीं होता)। आक्रोशदैन्ययोः -VI. iv.61 (क्षि अङ्गको अण्यदर्थ निष्ठा के परे रहते) आक्रोश तथा दैन्य = दीनता गम्यमान होने पर (विकल्प से दीर्घ होता आख्यानपरिप्रश्नयोः -III. iii. 110 उत्तर तथा परिप्रश्न गम्यमान होने पर (धातु से स्त्रीलिङ्ग कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में विकल्प से इब् प्रत्यय होता है, चकार से ण्वुल भी होता है)। .. . ...आख्यानयो: - VIII. ii. 105 देखें - प्रश्नाख्यानयोः VIII. ii. 105 आख्यायाम् - IV.i. 48 (पुरुष के साथ सम्बन्ध होने के कारण जो प्रातिपदिक) स्त्रीलिङ्ग में वर्तमान हो,तथा पुंल्लिग को पहले कह चुका हो, (ऐसे अदन्त अनुपसर्जन प्रातिपदिक से ङीष् प्रत्यय होता है)। आगतः - IV. iii.74 (पञ्चमीसमर्थ प्रातिपदिक से) 'आया हुआ' अर्थ में ... (यथाविहित प्रत्यय होता है)। आगनीगन्ति -VII. iv. 65 आगनीगन्ति शब्द (वेदविषय में) निपातन किया जाता 74 आगवीन:-v.ii. 14 'आगवीन' शब्द आङ् पूर्वक गो शब्द से कर्मकर वाच्य हो तो ख प्रत्ययान्त निपातन किया जाता है। . कर्मकर= ऐसा नौकर जो गौ के बदले अर्थात् जब तक गौ वापस न कर सके सेवा करे। आगस्त्य ... -IL iv.70 देखें - आगस्त्यकौण्डिन्ययोः II. iv. 70 आगस्त्यकौण्डिन्ययोः -II. iv.70 __ आगस्त्य तथा कौण्डिन्य शब्दों से परे (गोत्र में विहित जो तत्कृत बहुवचनप्रत्यय,उसका लक हो जाता है। शेष बची अगस्त्य एव कुण्डिनी प्रकृति को क्रमशः अगस्ति और कुण्डिनच् आदेश भी हो जाते है)। आग्रहायणी... - IV. ii. 22 देखें-आग्रहायण्यश्वत्थात् IV. ii. 22 ...आग्रहायणीभ्यः -V. iv. 110 देखें - नदीपौर्णमास्या० V. iv. 110 ...आग्रहायणीभ्याम् - IV. iii. 50 • देखें- संवत्सराग्रहायणीभ्याम् IV. iii. 50 आग्रहायण्यश्वत्थात् -IV.ii. 21 (प्रथमासमर्थ पौर्णमासी शब्द से समानाधिकरण वाले) आग्रहायणी तथा अश्वत्थ शब्दों से (सप्तम्यर्थ में ठक प्रत्यय होता है)। आख्याता-I. iv. 29 - (नियमपूर्वक विद्याग्रहण में) जो पढ़ाने वाला है, वह (कारक अपादान-संज्ञक होता है)। ...आख्यातात् - IV. iii.72 देखें - दूयजब्राह्मण IV. 1.72 आख्यान ... -III. iii. 110 देखें-आख्यानपरिप्रश्नयोः III. iii. 110 ...आख्यान... - VI. 1. 103 देखें-ग्रामजनपदाख्यान VI. 1. 103 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आग्रायणेषु आध्यम ...आग्रायणेषु - IV. 1. 102 देखें- भृगुवत्सा IV.I. 102 ...आइ... -I.li.83 देखें- व्याड्यरिभ्य: I. iii. 83 ...आइ... -I. iv. 48 देखें-उपान्वध्यावस: I. iv. 48 आङ्-I.iv.88 आङ शब्द (मर्यादा और अभिविधि अर्थ में कर्म- प्रवचनीय और निपातसंज्ञक होता है)। आङ्-II. . 12 (मर्यादा और अभिविधि अर्थ में विद्यमान) आङ् शब्द (पञ्चम्यन्त समर्थ सुबन्त के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होता है, और वह समास अव्ययीभावसंज्ञक होता ...आइ... -II. iii. 10 देखें- अपाइपरिभिः II. iii. 10 आङ्... - VI. 1.72 देखें-आइमाडो: VI. 1.72 . आङ् -VI. 1. 122 आङको (अच परे रहते संहिता के विषय में अनुनासिक आदेश होता है तथा उस अननासिक को प्रकतिभाव भी होता है)। ...आइ... -VIII. iv.2 देखें- अटकुप्वा VIII. iv.2 आङ:-I. iii. 20 . आङ् उपसर्ग से उत्तर (डुदा धातु से आत्मनेपद होता है, यदि वह मुख को खोलने अर्थ में वर्तमान न हो तो)। आड:-1. iii. 28 , आङ् उपसर्ग से उत्तर (अकर्मक यम् और हन् धातुओं से आत्मनेपद होता है)। आड:-I. iii.31 (स्पर्धा-विषय में) आङ् उपसर्ग से उत्तर (हृञ् धातु से आत्मनेपद होता है)। आङ:-I. iii. 40 . आङ् उपसर्ग से उत्तर (क्रम धातु से आत्मनेपद होता है, उद्गगमन अर्थ में)। आड: - VII.1.65 आङ से उत्तर (यकारादि प्रत्ययों के विषय में लभ अङ्ग को नुम् आगम होता है)। आड:-VII. iii. 119 (घिसंज्ञक अङ्ग से उत्तर) आङ् =टा के स्थान में (ना आदेश होता है स्त्रीलिङ्ग वाले शब्द को छोड़कर)। आङि-III. ii. 11 आङ पर्वक (ह धात से कर्म उपपद रहते ताच्छील्य गम्यमान होने पर अच्' प्रत्यय होता है)। आङि -III. iii. 50 __ आङ् पूर्वक (रु तथा प्लु धातुओं से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में विकल्प से घञ् प्रत्यय होता है)। आडि -III: ill. 73 .. (युद्ध अभिधेय हो तो) आङ् पूर्वक (हे धातु को सम्पसारण तथा अप् प्रत्यय होता है)। आङि-VI. iv. 141 (मन्त्र-विषय में) आङ् = टा परे रहते (आत्मन् शब्द के आदि का लोप होता है)। आङि- VII. ii. 105 (आबन्त अङ्गको) आङ्=टा परे रहते (तथा ओस् परे रहत एकारादेश होता है)। ...आडो: -VI. 1. 92 देखें -ओमाडो: VI. 1. 92 आङ्गिरसे -IV.i. 107 (कपि तथा बोध प्रातिपदिकों से) आङ्गिरस गोत्र को कहना हो तो (यञ् प्रत्यय होता है)। ...आझ्यः -I. iii.75 देखें-समुदाझ्यः I. 11.75 ...आझ्याम् -I. iii. 59 देखें-प्रत्याभ्याम् I. iii. 59 ...आभ्याम् -I.iv.40 देखें-प्रत्याझ्याम् I. iv. 40 आइमाडोः -V.i.72 आङ् तथा माङ्को (भी छकार परे रहते तुक का आगम होता है,संहिता के विषय में)। ...आङ्यम...'-I.ili. 89 देखें-पादम्यायमाझ्यस० I. iii. 89 ...आङ्यम... -III. II. 142 देखें- सम्पृचानुरुधा० III. 1. 142 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आड्यस . आट ...आड्य स... -I.iii. 89 आचार्योपसर्जन: -VI. ii. 104 देखें-पादम्यायमाझ्यस० 1. iii. 89.. आचार्य है अप्रधान जिसका, ऐसा (जो अन्तेवासी, ...आङ्यस... -III. . 142 . उसको कहने वाले शब्द के परे रहते भी दिशा अर्थ में देखें -सम्पृचानुरुधा० III. 1. 142 प्रयुक्त होने वाले पूर्वपद शब्दों को अन्तोदात्त होता है)। ....आड्वसः -I. iv. 48 ...आचिख्यासायाम् - II. iv. 21 देखें-उपान्वध्याइवस: I. iv. 48 देखें- तदाद्याचिख्यासायाम् II. iv. 21 ...आचित... - IV.i. 22 ...आच्... -II. iii. 29 देखें - अन्यारादितरते. II. iii. 29 देखें- अपरिमाणबिस्ताचित IV.i. 22 आच् - V. iii. 36 ...आचित ... - V.i. 52 देखें - आढकाचितपात्रात् V.i. 52 (दिशा,देश तथा काल अर्थों में वर्तमान पञ्चम्यन्तवर्जित आच्छादने-III. iii. 54 सप्तमीप्रथमान्त दिशावाची दक्षिण प्रातिपदिक से) आच प्रत्यय होता है। आच्छादन अर्थ में (प्र पूर्वक वृञ् धातु से कर्तृभिन्न । कारक तथा भाव में विकल्प से घञ् प्रत्यय होता है,पक्ष .. आचारे-III. I. 10 में अप् होता है)। आचार अर्थ में (उपमानवाची सुबन्त कर्म से विकल्प । आच्छादने -V.iv.6 से 'क्यच' प्रत्यय होता है)। 'ढकने अर्थ में वर्तमान (प्रातिपदिक से स्वार्थ में कन .. आचार्य ... - VI. ii. 133 प्रत्यय होता है)। देखें-आचार्यराज. VI. ii. 133. .. ...आच्छादनयोः - IV. iii. 140 ... आचार्यकरण ... -I. iii. 36 देखें- अभक्ष्याच्छादनयोः IV.ili. 140 देखें- सम्माननोत्सञ्जनाचा० I. iii. 36 आजि ... - VI. iii. 51 आचार्यराजर्विक्संयुक्तज्ञात्याख्येभ्यः - VI. ii. 133 देखें - आज्यातिगोप० VI. iii. 51 . आचार्य, राजन. ऋत्विक, संयुक्त तथा ज्ञाति की आज्यातिगोपहतेषु-VI. iii. 51 आख्यावाले शब्दों से उत्तर (पुत्र शब्द को तत्पुरुष समास (पाद शब्द को पद् आदेश होता है); आजि, आति, ग, में आधुदात्त नहीं होता)। उपहत के उत्तरपद रहते। ...आचार्याणाम् - IV.i. 48 आज्ञायिनि - VI. iii. 5 देखें-इन्द्रवरुणभव० IV. 1. 48 आज्ञायी शब्द के उत्तरपद रहते (भी मनस् शब्द से उत्तर आचार्याणाम् - VII. iii. 49 तृतीया का अलुक् होता है)। (अभाषितपुंस्क से विहित प्रत्ययस्थित ककार से पूर्व आकार के स्थान में जो अकार.उसको नगर्व और अनब आट् - III. iv. 92 पूर्व रहते हुए भी उदीच्य से भिन्न) आचार्यों के मत में (लोट् सम्बन्धी उत्तम पुरुष को) आट् का आगम हो (आकारादेश होता है)। .. जाता है, (और वह उत्तम पुरुष पित् भी माना जाता है)। आट् -VI. iv. 72 आचार्याणाम् - VIII. iv. 51 (अच् आदि वाले अङ्गों को लुङ, लङ् तथा लुङ् के (दीर्घ से उत्तर) सभी आचार्यों के मत में (द्वित्व नहीं परे रहते) आट का आगम होता है,(और वह आट उदात्त होता)। भी होता है)। आचार्योपसर्जन: - VI. ii. 37 आट् - VII. iii. 112 आचार्य है अप्रधान जिसमें,ऐसे (शिष्यवाची शब्दों का (नदीसज्ञक अङ्ग से उत्तर डित् प्रत्यय को) आट् आगम जो द्वन्दू, उनके पूर्वपद को भी प्रकृतिस्वर होता है)। होता है। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आट: आट: -VI.i.87 आत्-VI. 1.213 आट् से उत्तर (भी जो अच् तथा अच से पूर्व जो आट. (मतुप से पूर्व) आकार को (उदात्त होता है, यदि वह इन दोनों पूर्व पर के स्थान में वृद्धि एकादेश होता है. मत्वन्त शब्द स्त्रीलिंग में सज्जाविषयक हो तो)। संहिता के विषय में)। आत् -VI. iii. 45 ...आटचौ-v.ii. 125 (समानाधिकरण उत्तरपद रहते तथा जातीय-प्रत्यय परे देखें- आलजाटचौ v. ii. 125 रहते महत् शब्द को) आकारादेश होता है। ...आटौ - III. iv. 94 आत् - VI. iv. 41 देखें - अडाटौ III. iv.94 (विट् तथा वन् प्रत्यय के परे रहते अनुनासिकान्त अङ्ग आढक ... - V.i. 52 को) आकारादेश होता है । देखें - आढकाचितपात्रात् V.i. 52 आत् -VI. iv. 160 आढकाचितपात्रात् -v.i. 52 (ज्य अङ्ग से उत्तर ईयस् को) आकार आदेश होता है। (द्वितीयासमर्थ) आढक. आचित तथा पात्र प्रातिपदिक ...आत्... -VII. I. 12 से (सम्भव है': 'अवहरण करता है' तथा 'पकाता है' देखें - इनात्स्या: VII. I. 12 अर्थों में विकल्प से ख प्रत्यय होता है)। ...आत् ... - VII. 1. 39 आढ्य ...-III. ii. 56 . देखें - सुलुक-VII. 1. 39 देखें - आढ्यसुभग III. ii. 56 आत् -VII. 1.50 आढ्यसुभगस्थूलपलितनग्नान्धप्रियेषु -III. 1.56 __(वेद-विषय में) अवर्णान्त अङ्ग से उत्तर (जस् को असुक् आगम होता है)। आढ्य, सुभग, स्थूल, पलित, नग्न, अन्ध, प्रिय-इन । (च्यर्थ में वर्तमान अच्चिप्रत्ययान्त कर्मों) के उपपद रहते आत् - VII.i. 80 (कृञ् धातु से करण कारक में ख्युन् प्रत्यय होता है)। . अवर्णान्त अङ्ग से उत्तर (शी तथा नदी परे रहते शतृ प्रत्यय को विकल्प से नुम् आगम होता है)। आत् ... -I.i.1 देखें - आदैन् ।.i.1 आत् - VII.i. 85 ....आत् ... -III. I. 141 (पथिन्, मथिन् तथा ऋभुक्षिन् अङ्गों को स परे रहते) - देखें - श्याव्यधा० III. 1. 141 आकारादेश होता है। आत् ... -III. ii. 171 ...आत्... - VII. ii. 67 देखें - आदृगम III. ii. 171 . देखें- एकाजाद्घसाम् VII. ii. 67 आत् -VI. 1.44 आत् -VII. iii.1 (उपदेश अवस्था में जो एजन्त धातु,उसको) आकारादेश (देविका,शिंशपा,दित्यवाट,दीर्घसत्र,श्रेयस्- इन अङ्गों हो जाता है, (इत्सजक शकारादि प्रत्यय परे हो तो नहीं के अचों में आदि अच् को वृद्धि का प्रसङ्ग होने पर जित्, णित् तथा कित् तद्धित परे रहते) आकारादेश होता है। होता)। आत् -VII. iii.49 आत् -VI.i. 84 (अभाषितपुंसक से विहित प्रत्ययस्थित ककार से पूर्व . अवर्ण से उत्तर (जो एच् तथा एच् परे रहते जो पूर्व का आकार के स्थान में जो अकार,उसको नपूर्व और अनअवर्ण- इन दोनों पूर्व पर के स्थान में गुण एकादेश होता पूर्व रहते हुये भी अन्य आचार्यों के मत में) आकारादेश होता है। आत् - VI. 1. 100 आत् - VII. iv. 37 अवर्ण से उत्तर (इच् प्रत्याहार परे रहते, पूर्व पर के स्थान । (अश्व और अघ अङ्गों को क्यच् परे रहते वेदविषय · में पूर्वसवर्ण दीर्घ एकादेश नहीं होता है)। में) आकारादेश होता है। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत् आत्मन् 146 आत् - VIII. 1. 107 आत: -VII.1.34 (दूर से बुलाने के विषय से भिन्न विषय में, अप्रगृह्य- आकारान्त अङ्ग से उत्तर (णल् के स्थान में औकारादेश संज्ञक एच के पूर्वाई भाग को प्लुत करने के प्रसङ्ग में) होता है)। आकारादेश होता है.(तथा उत्तर वाले भाग को इकार, आत -VII. iii.46 उकार आदेश होते है)। (यकार तथा ककार पूर्व वाले) आकार के (स्थान में जो आत -III. I. 136 प्रत्ययस्थित ककार से पूर्व अकार,उसके स्थान में इकाराआकारान्त धातुओं से (भी उपसर्ग उपपद रहते 'क' देश नहीं होता,उदीच्य आचार्यों के मत में)। प्रत्यय होता है)। आतः -VII. ii. 81 आत-III. ii.3 आकारान्त अङ्ग से उत्तर (डित् सार्वधातुक के अवयव आकारान्त (उपसर्गरहित) धातु से (कर्म उपपद रहते 'क' । या के स्थान में इय् आदेश होता है)। प्रत्यय होता है)। आतः -VII. iii. 33 आत-III. 1. 74 ___आकारान्त अङ्ग को (चिण तथा जित्,णित् कृत् प्रत्यय आकारान्त धातुओं से (सुबन्त उपपद रहते वेदविषय में - परे रहते युक आगम होता है)। मनिन,क्वनिप.वनिप् तथा विच प्रत्यय होते है)। आतः -VIII. 1.43 आतः-III. iii. 106 (संयोग आदि वाले) आकारान्त (एवं यण्वान् धातु) से (उपसर्ग उपपद रहते) आकारान्त धातुओं से (भी कर्त उत्तर (निष्ठा के तकार को नकारादेश होता है)। भिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में अङ प्रत्यय होता है)। आत:-VIII. iii.3 आतः-III. II. 128 . (अट् परे रहते रु से पूर्व) आकार को (नित्य अनुनासिक आकारान्त धातुओं से (कृच्छ्, अकृच्छ्र अर्थ में ईषद्, आदेश होता है)। दुस तथा सु उपपद हो तो युच प्रत्यय होता है)। आततन्य-VII. 1.64 आत: -III. iv.95 'आततन्थ'- यह शब्द (थल् परे रहते वेद विषय में) (लेट् सम्बन्धी) जो आकार,उसके स्थान में (ऐकारादेश इडभावयुक्त निपातन किया जाता है। ' होता है)। ...आतपयो: - IV. iii. 13 आत-III. iv. 110 देखें- रोगातपयो: IV. i. 13 (सिच से उत्तर यदि झिको जुस हो तो) आकारान्त धातु ...आताम् ... -III. iv.78 . से ही हो। देखें-तिप्तस्झि० III. iv.78 आत-V.ii.96 ...आताम् - VII. ii. 73 (प्राणिस्थवाची) आकारान्त प्रातिपदिकों से (मत्वर्थ में देखें- यमरम0 VII. ii. 73 विकल्प से लच् प्रत्यय होता है)। ...आताम् - VII. iii. 36 आत-VI. iv.64 देखें - अर्तिही0 VII. iii. 36 (इजादि आर्धधातुक तथा कित, डित् आर्धधातुक ...आति ... - VI. iii. 51 प्रत्ययों के परे रहते) आकारान्त अङ्गका (लोप होता है)। देखें- आज्यातिगो० VI. iii. 51 आतः-VI. iv. 112 आतिः -V. iii.34 (श्ना तथा अभ्यस्तसज्जक के) आकार का (लोप हो (दिशा, देश तथा काल अर्थों में वर्तमान सप्तम्यन्त, जाता है; कित,डित् सार्वधातुक परे रहते)। पञ्चम्यन्त तथा प्रथमान्त दिशावाची उत्तर, अधर और आत: - VI. iv. 140 दक्षिण प्रातिपदिकों से) आति प्रत्यय होता है। आकारान्त जो धातु, तदन्त (भसज्ज्ञक) अङ्ग के (अकार आत्मन् ... -V.1.8 का लोप होता है)। देखें-आत्मन्विश्वजन V.i.8 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मनः आदरानादरयोः आत्मनः -III. 1.8 आत्मनेपदेषु - VII. i.5 (इच्छा करने वाले व्यक्ति के) आत्मीय (इच्छा) के (सुबन्त (अनकारान्त अङ्ग से उत्तर) आत्मनेपद में वर्तमान (जो कर्म से इच्छा अर्थ में विकल्प से क्यच् प्रत्यय होता है)। प्रत्यय का झकार,उसके स्थान में अत आदेश होता है)। आत्मनः - VI. iii.7 आत्मनेपदेषु - VII.i. 41 (वेद-विषय में) आत्मनेपद में वर्तमान (तकार का लोप आत्मन् शब्द से परे (भी तृतीया का अलुक् होता है, हो जाता है)। उत्तरपद परे रहते)। आत्मनेपदेषु - VII. H. 42 आत्मनः -VI. iv. 141 (वृ तथा ऋकारान्त धातुओं से उत्तर) आत्मनेपदपरक (मन्त्र-विषय में आङ् = टा परे रहते) आत्मन् शब्द के लिङ् तथा सिच् को विकल्प से इट् आगम होता है)। (आदि का लोप होता है)। आत्मविश्वजनभोगोत्तरपदात् -v.i.9 . आत्मनेपदनिमित्ते - VII. ii. 36 . (चतुर्थीसमर्थ) आत्मन, विश्वजन तथा भोग शब्द उत्त(स्नु तथा क्रम् धातुओं के वलादि आर्धधातुक को इट् रपद वाले प्रातिपदिकों से (हित' अर्थ में ख प्रत्यय होता आगम होता है,यदि स्नु तथा क्रम्) आत्मनेपद के निमित्त । न हों तो। आत्मप्रीतौ-VII.1.51 आत्मनेपदम् -I. iii. 12 . (अश्व, क्षीर,वृष,लवण- इन अङ्गों को क्यच् परे रहते) (अनुदात्तेत् तथा ङित् धातु से) आत्मनेपद होता है। आत्मा की प्रीति विषय में (असुक् आगम होता है)। आत्मनेपदम्-I. iv.99 आत्ममाने -III. 1.83 . (तङ् अर्थात् त, आताम्, झ, थास, आथाम, ध्वम्, इड्, आत्ममान अर्थात् 'अपने आप को मानना' अर्थ में वहि,महिङ् और आन अर्थात् शानच् तथा कानच् प्रत्ययों वर्तमान (मन् धातु से सुबन्त उपपद रहते खश् और चकार से 'णिनि' प्रत्यय होता है)। की) आत्मनेपद संज्ञा होती है। आत्मम्मरिः -III. ii. 26 आत्मनेपदानाम् - III. iv.79 आत्मम्भरि शब्द इन्प्रत्ययान्त निपातन किया जाता है। (टित् अर्थात् लट्,लिट्,लुट्,लृट,लेट, लोट् लकारों के) जो आत्मनेपदसंज्ञक त,आताम.झ आदि आदेश- उनके आत्मा ... -VI. iv. 169 (टि भाग को एकार आदेश हो जाता है)। देखें-आत्माध्यानौ VI. iv. 169 आत्मनेपदे - VII. iii. 73 आत्माध्वानी - VI. iv. 169 (दुह प्रपूरणे,दिह उपचये,लिह आस्वादने,गुह संवरणे- (भसञ्जक) आत्मन् तथा अध्वन् अङ्गों को (ख प्रत्यय इन धातुओं के क्स का विकल्प से लुक होता है,दन्त्य परे रहते प्रकृतिभाव होता है)। अक्षर आदिवाले) आत्मनेपदसञक प्रत्ययों के परे रहते। ...आथर्वणिक... -VI. iv. 174 आत्मनेपदेषु -I. ii. 11 देखें - दाण्डिनायनहास्ति० VI. iv. 174 आत्मपेपद विषय में (इक्समीप हल वाले धातु से परे ...आथाम् ... -III. iv. 78 झलादि लिङ् तथा सिच् प्रत्यय कित्वत् होते हैं)। देखें - तिप्तस्झि० III. iv. 78 आत्मनेपदेषु -II. iv.44 ...आद् ... - II. iv. 80 आत्मनेपद प्रत्ययों के परे रहते (हन को वध आदेश देखें - घसहरणश II. iv. 80 विकल्प से होता है, लुङ् लकार में)। आदर ... -I..iv. 62 आत्मनेपदेषु - III. 1.54 देखें-आदरानादरयोः I. iv.62 । (कर्तवाची लुङ) आत्मनेपद परे रहते (लिप.सिच और आदरानादरयोः -I.iv.62 हज् धातु से उत्तर लि को विकल्प से अङ आदेश होता (क्रमशः) आदर एवं अनादर अर्थों में वर्तमान (सत और असत् शब्द क्रियायोग में गति और निपातसंज्ञक होते है)। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदायेषु ... आदायेषु - III. ii. 17 देखें - भिक्षासेना० III. I. 17 आदि... - I. 1. 45 देखें आद्यन्तौ I. 1. 45 - ... आदि . III. ii. 21 देखें दिवाविभा०] III. 1. 21 - - आदि - I. 1. 70 आदिवर्ण (अन्त्य इत्संज्ञक वर्ण के साथ मिलकर दोनों के मध्य में स्थित वर्णों का तथा अपने स्वरूप का भी ग्रहण कराता है)। आदि: - I. 1. 72 (जिस समुदाय के अचों में) आदि अच् (वृद्धिसंज्ञक हो, उस समुदाय की वृद्धसंज्ञा होती है)। आदि - I. iii. 5 (उपदेश में) आदिभूत (जि, दु और हु की इत्सब्जा होती है)। आदि: - IV. ii. 54 (प्रथमासमर्थ छन्दोवाची प्रातिपदिकों से षष्ठ्यर्थ में यथाविहित अण् प्रत्यय होता है, प्रगाथों के) आदि के अभिधेय होने पर । आदि: - VI. 1. 181 (सिच् अन्त वाला शब्द विकल्प से) आदि(उदात्त होता है) । आदि - VI. 1. 183 (अजादि अनिट् लसार्वधातुक परे हो तो अभ्यस्तसंज्ञक के) आदि को (उदात्त होता है) । आदि - VI. 1. 188 (मुल परे रहते पूर्व धातु को विकल्प से) आदि (उदात्त होता है)। आदि: - VI. 1. 191 ( ञकार इत्सञ्ज्ञक तथा नकार इत्सञ्ज्ञक प्रत्ययों के परे रहते नित्य ही) आदि को (उदात्त होता है)। आदि: - VI. ii. 27 (प्रत्येनस् शब्द उत्तरपद रहते कर्मधारय समास में कुमार शब्द को) आदि (उदात्त) होता है। आदि: - VI. ii. 64 (यहाँ से आगे जो कुछ कहेंगे, उसके पूर्वपद के) आदि को (उदात्त होता है, यह अधिकार है)। 86 आदि: - VI. ii. 125 (नपुंसकलिङ्ग कन्थाशब्दान्त तत्पुरुष समास में चिहणादिगणपठित शब्दों के) आदि को (उदात्त होता है)। आदिकर्मणि - III. iv. 71 क्रिया के आदि क्षण में विहित (जो क्त प्रत्यय, वह कर्ता में होता है तथा चकार से भाव कर्म में भी होता है)। ... आदिकर्मणोः - I. ii. 21 देखें - भावादिकर्मणोः I. ii. 21 ... आदिकर्मणोः - VII. ii. 17 देखें - भावादिकर्मणोः VII. ii. 17 आदितः - I. ii. 32 - आदुक् (उस स्वरित गुण वाले अच् के) आदि की (आधी मात्रा उदात्त और शेष अनुदात्त होती है)। आदित - III. iv. 84 (बू से परे जो लट् लकार, उसके स्थान में परस्मैपदसंज्ञक) आदि के (पाँच आदेशों के स्थान में क्रम से पाँचों हील, अस उस पल अधुस्- आदेश विकल्प से हो जाते है, साथ ही बू धातु को आह आदेश भी हो जाता है)। आदितः - VII. 1. 16 आकार इत्सञ्ज्ञक धातुओं को (भी निष्ठा परे रहते इट् आगम नहीं होता) । ... आदित्य .. IV. i. 85 देखें - दित्यदित्यादित्यo IV. 1. 85 - आदिनी - VIII. iv. 47 - ( आक्रोश गम्यमान हो तो) आदिनी शब्द परे रहते (पुत्र शब्द को द्वित्व नहीं होगा) । आदिशि... - III. Iv. 58 देखें - आदिशिग्रहो: III. iv. 58 आदिशियोः - III. Iv. 58 (द्वितीयान्त नाम शब्द उपपद रहते) आङ् पूर्वक दिश् तथा मह धातु से णमुल् प्रत्यय होता है)। आदुक् - VI. iii. 75 (एक है आदि में जिसके, ऐसे नञ् को भी उत्तरपद परे रहते प्रकृतिभाव होता है तथा एक शब्द को) आदुक् का आगम होता है। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदृगमहनजनः 87 आनाम्य आधन्तवत् -I. 1. 20 (एक में भी) आदि के समान और अन्त के समान (कार्य हो जाते है। आद्यन्तौ -I.i. 45 (षष्ठीनिर्दिष्ट को जो टित् आगम तथा कित् आगम कहा गया हो, वह क्रम से उसका) आदि और अन्त (अवयव हो)।आधुदात्तः - III. i.3 (जिसकी प्रत्ययसंज्ञा कही है, वह) आधुदात्त (भी होता आदृगमहनजन: -III. ii. 171 आत् = आकारान्त, ऋ= ऋकारान्त तथा गम, हन, जन धातुओं से (तच्छीलादि कर्ता हो,तो वेदविषय में वर्तमान काल में कि तथा किन् प्रत्यय होते हैं तथा उन कि,किन् । प्रत्ययों को लिट्वत् कार्य होता है)। आदेः-I.i.53 • (पर को कहा गया कार्य) आदि (अल्) के स्थान में हो। आदेः -III. iii. 41 (निवास,चयन,शरीर तथा राशि अर्थों में चि धातु से घञ् प्रत्यय होता है तथा चिञ् के) आदि चकार को (ककारादेश होता है.कर्तभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में)। आदेः -VLiv. 141 (मन्त्रविषय में आङ्= टा परे रहते आत्मन् शब्द के) आदि का (लोप होता है)। आदेः -VII. 1. 117 . (जित्, णित् तद्धित प्रत्यय परे रहते अङ्ग के अचों के) आदि (अच) को (वृद्धि होती है)। आदेः - VII. iv. 20 (अभ्यास के) आदि के (अकार को लिट परे रहते दीर्घ होता है)। आदेः - VIII. ii. 91 (हि,प्रेष्य,ौषट्, वौषट्, आवह - इन पदों के) आदि को (यज्ञकर्म में प्लुत उदात्त होता है)। आदेश..-VIII. iii. 59 देखें-आदेशप्रत्यययो: VIII. iii. 59 आदेश: -I.1.55 आदेश (स्थानी के सदृश होता है, अल्विधि को छोड़कर)। आदेशप्रत्यययोः -VIII. iii. 59 (इण तथा कवर्ग से उत्तर) आदेश तथा प्रत्यय के (सकार को मूर्धन्य आदेश होता है)। आदेच् -I.i.1 आ, ऐ, औ की (वृद्धि संज्ञा होती है)। आधन्तवचने - V.i. 113 (आकालिकट् - यह निपातन किया जाता है), यदि एक ही काल में उत्पत्ति एवं विनाश कहना हो तो। आधुदात्तम् -VI. ii. 119 (बहुव्रीहि समास में सु से उत्तर दो अच् वाले) आधुदात्त शब्द को (वेद विषय में आधुदात्त ही होता है)। आधुने - V.ii.67 (सप्तमीसमर्थ उदर प्रातिपदिक से) पेटू' वाच्य हो तो (तत्पर' अर्थ में ठक प्रत्यय होता है)। ...आधमर्ययो: -II. iii. 70 देखें- भविष्यदायमर्ण्ययोः II. iii. 70 ...आधमग्रंयो: -III. iii. 170 देखें - आवश्यकाधमर्ययो: III. Iii. 170 आधमण्यें-VIII. 1.60 (ऋणम् शब्द में ऋधातु से उत्तर क्त के तकार को नकारादेश निपातन है), आधमW = कर्ज लेने वाले का ऋण अभिधेय होने पर। आधारः -I. iv. 45 क्रिया के आश्रय कर्ता तथा कर्म का धारण क्रिया के प्रति) जो आधार है, वह (कारक अधिकरण संज्ञक होता आनङ्-VI. iii. 24 (विद्या तथा योनि सम्बन्ध के वाचक ऋकारान्त शब्दों के द्वन्द्व समास में उत्तरपद परे रहते) आनङ् आदेश होता आनन्तर्ये:- IV.i. 104 (षष्ठीसमर्थ बिदादि प्रातिपदिकों से गोत्रापत्य में अञ् प्रत्यय होता है, परन्तु इनमें जो अनृषिवाची हैं, उनसे) अनन्तरापत्य में (अब होता है)। ...आनाम्य..-IV. iv.91 देखें-तार्यतुल्य IV. iv.91 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनाय: आनाय: III. iii.124 (जाल अभिधेय हो तो) आइ पूर्वक नी धातु से करण कारक तथा संज्ञा में आनाय शब्द (घञ् प्रत्ययान्त निपातन किया जाता है)। - आनाय्य: III. i. 127 'आनाय्य' शब्द का निपातन किया जाता है, (अनित्य अर्थ को कहने के लिये) । - आनि - VIII. I. 17 (उपसर्ग में स्थित निमित्त से उत्तर लोडादेश) आनि के ( नकार को णकारादेश होता है) । आनुक् - IV. 1. 48 (इन्द्र, वरुण आदि प्रातिपदिक पुंल्लिङ्ग के हेतु से स्त्रीलिङ्ग में वर्तमान हों तो उनसे ङीप् प्रत्यय तथा) आनुक् का आगम होता है। ... आनुपूर्व्य... - II. 1. 6 देखें - विभक्तिसमीपसमृद्धि II. 1. 6 अनुलोम्ये - III. 1. 64 iv. अनुकूलता गम्यमान हो तो (अन्वक शब्द उपपद रहते भू धातु से क्त्वा णमुल् प्रत्यय होते हैं)। आनुलोम्ये - V. Iv. 63 अनुकूलता अर्थ में वर्तमान (सुख तथा प्रिय प्रातिपदिनों से कृञ के योग में डाच् प्रत्यय होता है)। .... आनुलोम्येषु - - III. ii. 20 देखें - हेतुताच्छील्यानुलोम्येषु III. II. 20 आमृदु - VI. 1. 35 (वेदविषय में) आनुचुः शब्द का निपातन किया जाता 88 है। आनूहु: - VI. 1. 35 (वेदविषय में) आनुहुः शब्द का निपातन किया जाता है । आने - VII. 1. 82 आन परे रहते (अङ्ग के अकार को मुक् आगम होता है)। ...आनी - I. Iv. 99 देखें - तडानौ I iv. 99 आप्... - II. iv. 82 देखें - आप्सुप II. iv. 82 ... आप्... - IV. 1. 1 देखें - ड्याप्प्रातिपदिकात् IV. 1. 1 - - VII. iii. 116 .... आप्... देखें- नद्यानीष्य VII. 1. 116 आपू... - VII. Iv. 55 देखें - आज्ञप्यृधाम् VII. iv. 55 - ...3114: - VI. iii. 62 देखें - ड्याप: VI. iii. 62 आप: - VI. iv. 57 आप् से उत्तर (ल्यप् परे रहते विकल्प से णि के स्थान में अयादेश होता है) । आप: VII. i. 18 आवन्त अङ्ग से उत्तर (और औ तथा औद के स्थान में शी आदेश होता है)। - ... आप - VII. 1. 54 देखें - ह्रस्वनद्याप VII. 1. 54 आप: - VII. iii. 105 आवन्त अङ्ग को (आङ्टा परे रहते तथा ओस परे रहते एकारादेश होता है)। आपः VII. iv. 15 आबन्त अङ्ग को (विकल्प से ह्रस्व नहीं होता, कप् प्रत्यय परे रहते) । ...आपण... III. iii. 119 देखें - गोचरचर० III. III. 119 - आपने VI. iv. 151 आपत्यस्य (हल से उत्तर भसक्षक अङ्ग के) अपत्यसम्बन्धी (यकार) का (भी अनाकारादि तद्धित परे रहते लोप होता है)। आपनीफणत् - VII. iv. 65 आपनीफणत् शब्द (वेद-विषय में) निपातन किया जाता है । आपन्नः - V. 1. 72 (द्वितीयासमर्थ संशय प्रातिपदिक से) प्राप्त हो गया' अर्थ में (यथाविहित ठञ् प्रत्यय होता है) । - - आपने - II. 1. 4 देखें प्राप्तापने II. II. 4 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपनैः आम ...आपन्नैः ... -II.1.23 ...आबाथ... - VI. II. 21 देखें-श्रितातीतपतित II.1.23 देखें- आशङ्काबाधo VI. II. 21 ...आपात्या: -III. iv. 68 आबाधे - VIII. 1. 10 देखें-भव्यगेय III. iv.68 पीड़ा अर्थ में वर्तमान (शब्द को द्वित्व होता है तथा आपि - VII. ii. 112 उस शब्द को बहुव्रीहि के समान कार्य भी हो जाता है)। (ककार से रहित इदम् शब्द के इद् भाग को अन् आदेश ...आण्य: - VI. 1.66 होता है),आप अर्थात् टा से लेकर सुप (सप्तमी बहुवचन) देखें-हल्ल्यान्यः VI.1.66 तक किसी विभक्ति के परे रहते। आभात् -VI. iv. 22 आपि-VII. iii. 44 'भस्य' के अधिकारपर्यन्त (समानाश्रय अर्थात एक ही (प्रत्यय में स्थित ककार से पूर्व अकार के स्थान में निमित्त होने पर आभीय कार्य सिद्ध के समान नहीं होता)। इकारादेश होता है); आप् अर्थात् टापु,डाप् या चाप परे आभिमुख्ये-II.1. 13 रहते,(यदि वह आप सुप् से उत्तर न हो तो)। आभिमुख्य अर्थ में वर्तमान (अभि और प्रति का चिन्हाआपिशले: - Vi. i. 89 र्थक सुबन्त के साथ विकल्प से अव्ययीभाव समास होता आपिशलि आचार्य के मत में (सुबन्त अवयव वाले है)। ऋकारादि धातु के परे रहते अवर्णान्त उपसर्ग से उत्तर पूर्व ...आभीक्ष्ण्ययोः - VIII. 1. 27 पर के स्थान में संहिता-विषय में विकल्प से वृद्धि एकादेश देखें-कुत्सनाभीक्ष्ण्ययोः VIII. 1. 27. होता है)। आभीक्ष्ण्ये -III. II. 81 ...आपृच्छच..-III. 1. 123 देखें - निष्टयदेवहूय० III. 1. 123 आभीक्ष्ण्य = पुनः पुनः होना अर्थ गम्यमान हो तो (धातु से बहुल करके णिनि प्रत्यय होता है)। . 'आपो-VI. 1. 114 'आपो' - यह पद (यजुर्वेद में पठित होने पर अकार आभीक्ष्ण्ये -III. iv. 22 परे रहते प्रकृतिभाव से रहता है)।.. पौनः पुन्य अर्थ में (समानकर्तृक दो धातुओं में जो आजप्यधाम् - VII. iv.55 पूर्वकालिक धातु,उससे णमुल प्रत्यय होता है),चकार से क्त्वा प्रत्यय भी होता है)। आप,ज्ञपि तथा ऋध् अङ्गों के (अच् के स्थान में इकारादेश होता है, सकारादि सन् प्रत्यय परे रहते)। आम् -III. 1.35 (कास् धातु और प्रत्ययान्त धातुओं से लिट् परे रहते आप्रपदम् -V.ii. 8 अमन्त्र विषय में) आम् प्रत्यय होता है। (द्वितीयासमर्थ) आप्रपद प्रातिपदिक से (प्राप्त होता है' आम्-III. iv.90 अर्थ में ख प्रत्यय होता है)। .(लोट् सम्बन्धी जो एकार, उसको) आम आदेश होता ...आप्लाव्य.. -III. iv. 68 देखें- भव्यगेय III. iv. 68 ...आम्... -IV. 1.2 आप्सुपः-II. iv.82 देखें- स्वौजसमौट IV.1.2 (अव्यय से उत्तर) आपटाप.डाप.चाप्स्त्री प्रत्यय तथा आम... -VI. iv. 55 सुप्का (लुक हो जाता है)। देखें- आमन्ता VI. iv. 55 आपः - VII. iii. 113 आम् -VII. 1.98 आबन्त अङ्ग से उत्तर (डित् प्रत्यय को याट् आगम होता (चतुर तथा अनडुह अङ्गों को सर्वनामस्थान-विभक्ति परे रहते) आम् आगम होता है (और वह उदात्त होता है)। आवर्हि -IV.iy.88 आम् -VII. iii. 116 आबर्हि = उत्पादनीय समानाधिकरण (प्रथमासमर्थ मूल (नदीसजक आबन्त तथा नी से उत्तर ङि विभक्ति के प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ में यत् प्रत्यय होता है)। स्थान में) आम् आदेश होता है। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमः 90 आप्रेडिते . आमः -II. iv. 81 आमि -I. iv.5 आम् प्रत्यय से उत्तर (च्लि का (इयङ्,उवङ्स्थानी स्त्री की आख्यावाले ईकारान्त ऊकाआमः - VIII. 1.55 रान्त शब्दों की) आम् परे रहते (विकल्प से नदी सजा आम् से उत्तर (एक पद का व्यवधान है जिसके मध्य नहीं होती,स्त्री शब्द को छोड़कर)। में, ऐसे आमन्त्रित-सज्ञक पद को अनन्तिक = दूरवर्ती आमि - VII. i. 52 अर्थ में अनुदात्त नहीं होता)। (अवर्णान्त सर्वनाम से उत्तर) आम् को (सुट् का आगम होता है)। आमन्ताल्वाय्येत्विष्णुपु - VI. iv. 55 आम्, अन्त, आलु, आय्य, इलु.इष्णु- इनके परे रहते (णि को अय् आदेश होता है)। . . (किम्, एकारान्त, तिङन्त तथा अव्ययों से विहित जो ...आमन्त्रण... - III. iii. 161 तरप् तथा तमप् प्रत्यय, तदन्त से) आमु प्रत्यय होता है, (द्रव्य का प्रकर्ष न कहना हो तो)। देखें-विधिनिमन्त्रणाo III. iii. 161 आमन्त्रितम् -II. iii. 48 ...आमुष.. -III. ii. 142 (सम्बोधन में विहित प्रथमान्त शब्दों की) आमन्त्रित संज्ञा देखें-सम्पृचानुरुथा. III. I. 142. होती है। आम्प्रत्ययवत् -I. iii. 63 जिस धात से आम प्रत्यय किया गया है.उसके समान आमन्त्रितम् - VIII. 1.55 (आम से उत्तर एक पद का व्यवधान है जिसके मध्य में, ही (पश्चात् प्रयोग की गई कृ धातु से आत्मनेपद हो' ऐसे) आमन्त्रित सजक पद को (अनन्तिक अर्थ में अनुदात्त जाता है)। नहीं होता)। ...आम्ब... - VIII. iii. 97 आमन्त्रितम् - VIII. 1.72 देखें-अम्बाम्ब० VIII. iii.97 (किसी पद से पूर्व आमन्त्रित-सब्जक पद हो तो वह) ...आ... - VIII. iv.5 आमन्त्रित पद (अविद्यमान के समान माना जावे)। देखें-प्रनिरन्त० VIII. iv.5 आमन्त्रितस्य -VI. 1. 192 आग्रेडितम् - VII. 1.95 आमन्त्रित-सञ्जक के (भी आदि को उदात्त होता है)। (भर्त्सन में) आमेडित को (प्लुत उदात्त होता है)। आमन्त्रितस्य -VIII. 1.8 आमेडितम् - VIII. 1.2 (वाक्य के आदि के) आमन्त्रित को द्वित्व होता है,यदि (उस द्वित्व किये हये के पर वाले शब्दरूप की) आमेडित वाक्य से असूया,सम्मति,कोप,कुत्सन एवं भर्त्सन गम्य- सज्जा होती है। मान हो रहा हो तो)। ...आप्रेडितयोः -VIII. iii. 49 आमन्त्रितस्य - VIII. 1. 19 देखें- अप्रामेडितयो: VIII. iii. 49 (पाद के आदि में वर्तमान न हो तो पद से उत्तर) आग्रेडितस्य-VI.i.96 आमन्त्रित-सज्ञक (सम्पूर्ण) पद को (भी अनुदात्त होता आमेडित-सज्ञक जो (अव्यक्तानुकरण का अत्) शब्द, उसे (इति परे रहते पररूप एकादेश नहीं हो,किन्तु जो उस आमन्त्रिते -II.i.2 आमेडित का अन्त्य तकार, उसको विकल्प से पररूप आमन्त्रित-सज्ञक पद के परे रहते (पूर्व के सुबन्त पद एकादेश होता है. संहिता के विषय में)। को पर के अङ्ग के समान कार्य होता है, स्वरविषय में)। आप्रेडिते -VIII. ii. 103 आमन्त्रिते-VIII. 1.73 आमेडित परे रहते (पूर्वपद की टि को स्वरित होता है। (समान अधिकरण वाला) आमन्त्रित पद परे हो तो। असूया,सम्मति,कोप तथा कुत्सन गम्यमान होने पर)। (उससे पूर्ववाला आमन्त्रित पद अविद्यमान के समान न आग्रेडिते-VIII. iii. 12 हो)। (कान शब्द के नकार को रु होता है),आमेडित परे रहते। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमेडितेषु आर्धधातुकस्य आयुधजीविसङ्घात् - V. iii. 114 (वाहीक देशविशेष में) शस्त्रों से जीविका कमाने वाले पुरुषों के समूहवाची प्रातिपदिकों से (ज्यट् प्रत्यय होता है, ब्राह्मण और राजन्य को छोड़कर)। आयुधात् -IV. iv. 14 (तृतीयासमर्थ) आयुध प्रातिपदिक से (छ तथा ठन् प्रत्यय होते है)। ....आप्रेडितेषु - VIII. I. 57 देखें-चनचिदिव. VIII. 1.57 ...आय... -VI.i.75 देखें- अयवायाव: VI.1.75 ...आय... - V.i. 46 देखें - वृद्ध्यायलाभ० V.i. 46 आय: - III. I. 28 (गुप, धूप,विच्छ,पणि और पनि धातओं से स्वार्थ में) आय प्रत्यय होता है। आयन्... - VII.1.2 देखें-आयनेयीovi.i.2 आयनेयीनीयियः - VII. 1.2 . (प्रत्यय के आदि के फ,द,ख,छ् तथा घ् को यथासङ्ख्य करके) आयन, एय, ईन, ईय् तथा इय् आदेश होते है। आयस्थानेभ्य: - IV. iii. 75. (पञ्चमीसमर्थ) आयस्थानवाची= आय अर्थात् स्वामी के ग्राह्य भाग के उत्पन्न होने का स्थल,तवाची प्रातिपदिकों से (आगत अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है)। आयादयः -III.i.31 आय आदि = आय,ईयङ्,णिङ् प्रत्यय (आर्धधातुक के विषय में विकल्प से होते हैं)। आयाम: -II.i. 15 . (अनु जिसका) आयामवाची = विस्तारवाची है, (ऐसे । लक्षणवाची समर्थ सुबन्त के साथ भी अनु का विकल्प से समास होता है और वह अव्ययीभाव समास होता है)। आयामे - V. iv. 83 . (अनुगव शब्द अच् प्रत्ययान्त निपातन किया जाता है). लम्बाई अभिधेय हो तो। आयुक्त... - II. iii. 40 देखें-आयुक्तकुशलाभ्याम् II. iii. 40 आयुक्तकुशलाभ्याम् -II. iii. 40 आयुक्त तथा कुशल शब्दों के योग में (भी षष्ठी और सप्तमी विभक्ति होती है, तत्परता गम्यमान होने पर)। आयुधजीविभ्यः - IV. iii. 91 (प्रथमासमर्थ पर्वतवाची प्रातिपदिकों से 'वह इसका अभिजन'- इस अर्थ में छ प्रत्यय होता है),आयुधजीवियों अर्थात शस्त्रों से जीविका चलाने वालों को कहने के लिये। ...आयुषः -VIII. iii. 83 देखें-ज्योतिरायुषः VIII. iii. 83 आयुष्य.. - II. iii. 73 देखें - आयुष्यमद्रभद्र० II. i. 73 आयुष्यमद्रभद्रकुशलसुखार्थहितैः-II. iii. 73 (आशीर्वाद गम्यमान होने पर) आयुष्य,मद्र,भद्र,कुशल, सुख,अर्थ,हित- इन शब्दों के प्रयोग में (शेष विवक्षित होने पर विकल्प से चतुर्थी विभक्ति होती है,चकार से पक्ष में षष्ठी भी होती है)। ...आय्य..-VI. iv. 55 देखें-आमन्ता० VI. iv.55 आरक्-IV.i. 130 (गोधा प्रातिपदिक से उत्तरदेशवासी आचार्यों के मत में) आरक् प्रत्यय होता है। ...आरात्... - II. iii. 29 देखें- अन्यारादितरते. II. iii. 29 आरु -III. ii. 173 .. (श तथा वदि धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमान काल में) आरु प्रत्यय होता है। ...आरूढयो: -v.ii. 34 , देखें-आसन्नारूढयो: V. ii. 34 ...आर्द्रा... -IVii. 28 देखें-पूर्वाहणापराहणार्दा IV. iii. 28 आर्धधातुकम् -III. iv. 114 (धातु से विहित तिङ,शित से शेष बचे जो प्रत्यय. उनकी) आर्धधातुक संज्ञा होती है। ...आर्धधातुकयो: - VII. iii. 84 देखें - सार्वधातुकार्ध० VII. iii. 84 आर्धधातुकस्य-VII. ii. 35 (वल् प्रत्याहार आदि में है जिसके. ऐसे) आर्धधातुक को (इट का आगम होता है)। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्धधातुके आर्धधातुके 1.1.4 जिस आर्धधातुक को निमित्त मानकर (धातु के अवयव का लोप हुआ हो, उसी आर्धधातुक को निमित्त मानकर (इक् के स्थान में जो गुण, वृद्धि प्राप्त होते है, वे नहीं होते)। आर्धधातुके – II. iv. 35 आर्धधातुक के विषय में अथवा परे रहते, यह अधिकार सूत्र है। आर्धधातुके – III. 1. 31 आर्धधातुक के विषय में (आय आदि प्रत्यय विकल्प से होते है)। आर्धधातुके VI. Iv. 47 यह अधिकार सूत्र है; न ल्यपि VI. iv. 68 से पूर्व तक आर्धधातुक का अधिकार जायेगा। आर्धधातुके - VII. Iv. 49 (सकारान्त अङ्ग को सकारादि) आर्धधातुक के परे रहते ( तकारादेश होता है)। आर्य. - VI. ii. 58 (ब्राह्मण तथा कुमार शब्द उत्तरपद रहते कर्मधारय समास में पूर्वपद) आर्य शब्द को विकल्प से प्रकृतिस्वर होता है)। . आर्यकृत... - IV. 1. 30 ... देखें - केवलमामक० IV. 1. 30 ..आ..... II. iv. 58 देखें - ण्यक्षत्रियार्ष० II. Iv. 58 ... आल. - VII. 1. 39 देखें - सुलुक्० VII. 1. 39 आलच्... - V. ii. 125 देखे आलजाटवी V. 1. 125 92 आली - VII. 125 (वाच् प्रातिपदिक से 'मत्वर्थ में) आलच् और आटच् प्रत्यय होते हैं, (बहुत बोलने वाला अभिधेय हो तो)। आलम्बन... - VIII. iii. 68 - देखें- आलम्बनाविदूर्ययोः VIII. iii. 68 आलम्बनाविदूर्ययोः - VIII. II. 68 (अव उपसर्ग से उत्तर भी स्तन्धु के सकार को) आलम्बन आश्रयण और आविदुर्य समीपता अर्थ में (मूर्धन्य आदेश होता है)। = आलिङ्गने - III. 1. 46 आलिङ्गन अर्थ में वर्तमान (श्लिष् धातु से उत्तर चिल के स्थान में क्स आदेश होता है, लुङ् परे रहने पर) । ... आलु... - VI. iv. 55 देखें - आमन्ताo VI. iv. 55 आलुच् - III. ii. 158 (स्पृह, गृह, पत, दय, नि और तत्पूर्वक द्रा, अत्पूर्वक दुधाम् इन धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हों तो वर्तमान काल में) आलुच् प्रत्यय होता है। आलेखने - VI. 1. 137 (अप उपसर्ग से उत्तर किरति होने पर चार पैर वाले बैल आदि तथा पक्षी मोर आदि में जो) कुरेदना गम्यमान हो तो (संहिता में ककार से पूर्व सुट् का आगम होता है)। ... आकः - VI. 1. 75 देखें - अयवायाव: VI. 1. 75 आवट्यात् - IV. 1. 75 (अनुपसर्जन) आवटा शब्द से भी स्त्रीलिंग में चाप प्रत्यय होता है)। ... आयपन... - IV. 1. 42 देखें - वृत्यमत्रावपना० IV. 1. 42. आवसथात् आवश्यक... III. iii. 170 देखें - आवश्यकाधमर्ण्ययोः III. iii. 170 आवश्यकाधमर्ण्ययोः - III. iii. 170 आवश्यक और आधमर्ण्य ऋण विशिष्ट कर्ता वाच्य हो तो (धातु से णिनि प्रत्यय होता है)। आवश्यके - - III. i. 125 आवश्यक अर्थ द्योतित होने पर (उवर्णान्त धातु से ण्यत् प्रत्यय होता है। आवश्यके VII. III. 65 (ण्य परे रहते) आवश्यक अर्थ में (अङ्ग के चकार, जकार को कवर्गादेश नहीं होता) । ... आवसथ... - V. iv. 23 देखें- अनन्तावसचेo Viv. 23 आवसथात् - IV. iv. 74 (सप्तमीसमर्थ) आवसथ प्रातिपदिक से (बसता है' अर्थ में ष्ठ प्रत्यय होता है)। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवहति आवहति - V. 1. 49 (वंशादिगणपठित प्रातिपदिकों से उत्तर जो भार शब्द, तदन्त द्वितीयासमर्थ प्रातिपदिक से 'हरण करता है', वहन करता है' और) 'उत्पन्न करता है' अर्थ में (यथाविहित प्रत्यय होता है)। . आवहानाम् - VIII. ii. 91 ... देखें - ब्रूहिप्रेष्यo VIII. ii. 91 .....आविदूर्ययोः - VIII. iii. 68 देखें - आलम्बनाविदूर्ययोः VIII. iii. 68 आविदुर्ये VII. ii. 25 (अभि उपसर्ग से उत्तर भी) सन्निकट अर्थ में (अर्द धातु से निष्ठा परे रहते इट् आगम नहीं होता) । ...आवौ VII. ii. 92 देखें - युवायौ VII. ii. 92 ....आशङ्कयोः - IIi. iv. 8 देखें - उपसंवादाशङ्कयोः III. iv. 8 आशङ्का... - VI. ii. 21 देखें - आशङ्काबाध० VI. ii. 21 आशङ्काबाघनेदीयस्सु - VI. 1. 21 आशङ्क, आबाध तथा नेदीयस् शब्दों के उत्तरपद रहते (सम्भावनवाची तत्पुरुष समास में पूर्वपद को प्रकृतिस्वर हो जाता है)। ... आशंस... - III. ii. 168 देखें - सनाशंस० III. ii. 168 आशंसायाम् -III. iii. 132 आशंसा गम्यमान होने पर (धातु से भविष्यत्काल में विकल्प से भूतकाल के समान तथा वर्तमान काल के समान भी प्रत्यय हो जाते है)। आशंसावचने - III. iii. 134 आशंसावाची शब्द उपपद हो तो (धातु से लिङ् प्रत्यय होता है। ... आशा... - VI. iii. 98 देखें - आशीराशा० VI. iii. 98 आशितः - VI. i. 201 (कर्तृवाची) आशित शब्द को (आद्युदात्त होता है)। ... आशितङ्गु... - V. iv. 7 -314580 V. iv. 7 -III. ii. 45 आशित सुबन्त उपपद रहते (भू धातु से करण और भाव में खच् प्रत्यय होता है)। 1 देखें आशिते 93 आशीर् आशिषि - II. iii. 55 आशीर्वचन अर्थ में (नाथ' धातु के कर्मकारक में शेष की विवक्षा होने पर षष्ठी विभक्ति होती है)। आशिषि - - II. iii. 73 आशीर्वाद गम्यमान हो तो (आयुष्य, मद्र, भद्र, कुशल, सुख, अर्थ, हित- इन शब्दों के योग में शेष विवक्षित होने पर चतुर्थी विभक्ति विकल्प से होती है, चकार से पक्ष में षष्ठी भी होती है) 1 आशिषि - III. 1. 86 आशीर्विषयक (लिङ्) परे रहते (धातु से अङ् प्रत्यय होता है, वेद-विषय में) । आशिषि - III. 1. 150 आशीर्वाद अर्थ गम्यमान हो तो (भी धातुमात्र से वुन् प्रत्यय होता है) । आशिषि - III. ii. 49 आशीर्वचन गम्यमान होने पर (हन् धातु से कर्म उपपद रहते ड प्रत्यय होता है) । आशिषि - III. iii. 173 आशीर्वाद विशिष्ट अर्थ में वर्तमान (धातु से लिङ् तथा लोट् प्रत्यय होते हैं)। 1 आशिषि - III. iv. 104 आशीर्वाद अर्थ में विहित (परस्मैपदसंज्ञक लिङ् को यासुट् आगम होता है, वह कित् और उदात्त होता है)। आशिषि - III. iv. 116 आशीर्वाद अर्थ में (जो लिंङ, वह आर्धधातुकसंज्ञक होता है)। आशिषि - VI. ii. 148 (सञ्ज्ञाविषय में) आशीर्वाद गम्यमान हो तो (कारक से उत्तर दत्त तथा श्रुत क्तान्त शब्दों को ही अन्तोदात्त होता है) । आशिषि - VII. 1. 35 आशीर्वाद विषय में (तु और हि के स्थान में तातङ् आदेश होता है, विकल्प करके) । आशिस्.... -VI. iii. 98 देखें - आशीराशा० VI. iii. 98 आशीर् -VI. i. 35 (वेदविषय में) आशीर शब्द का निपातन किया जाता है। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीराशाश्या० आसेव्यमानयोः आशिलाशा, जात्या,जास्पित,तुक,10कारक आसन्दीवत-VIII.li.12 आशीराशास्थास्थितोत्सुकोतिकारकरागच्छेषु – VI... ...आसनयो: - VIII. iii.94 iii.98 देखे-वृक्षासनयोः VIII. 1. 94 आशिस्, आशा,आस्था,आस्थित,उत्सुक,ऊति,कारक, राग,छ- इनके परे रहते (अषष्ठीस्थित तथा अतृतीयास्थित अन्य शब्द को दुक आगम होता है)। आसन्दीवत् शब्द का निपातन किया जाता है। ...आसन्न... -II.1.25 आशीर्ताः - VI.i. 35 देखें - अव्ययासन्नादूरा० II. ii. 25 वेदविषय में) आशीर्त शब्द का निपातन किया जाता आसन्न... -v.ii. 34 देखें - आसन्नारूढयो: V. ii. 34 ...आशी: ... - VIII. ii. 104 आसन्नकाले-III. ii. 116 देखें-क्षियाशी:o VIII. ii. 104 समीपकालिक (प्रष्टव्य अनद्यतन परोक्ष भूतकाल) में आश्चर्यम् - VI. 1. 142 वर्तमान (धातु से भी लङ् तथा लिट् प्रत्यय होते है)। (अनित्य विषय में) आश्चर्य शब्द में सुट् आगम का आसन्नारूढयो: -v.ii. 34 निपातन किया जाता है। (यथासङ्ख्य करके) आसन्न और आरूढ अर्थों में . आश्रये-III. iii. 85 वर्तमान (उप और अधि उपसों से त्यकन् प्रत्यय होता है, (कर्तभिन्न कारक संज्ञा में,उपघ्न शब्द में उप पूर्वक हन् सज्ञाविषय में)। धातु से अप् प्रत्यय तथा हन् की उपधा का लोप निपातन ...आसाम् -I. iv. 46. किया जाता है), सामीप्य प्रतीत होने पर। देखें- अधिशीड्स्थासाम् I. iv.46 आश्वयुज्याः -IV. iii. 45 आसाम् -IV. iv. 125 (सप्तमीसमर्थ) आश्वयुजी प्रातिपदिक से (बोया हआ (उपधान मन्त्र समानाधिकरण प्रथमासमर्थ मतुबन्त अर्थ में वुञ् प्रत्यय होता है)। प्रातिपदिक से) षष्ठ्यर्थ में (यत् प्रत्यय होता है, यदि आश्वयुजी = अश्विनी नक्षत्र से युक्त पौर्णमासी। षष्ठ्यर्थ में निर्दिष्ट ईंटें ही हों, तथा मतुप् का लुक् भी हो जाता है,वेद विषय में)। ...आषाढा... - IV. iii. 34 आसीत् - VII. 1. 102 देखें-अविष्ठाफल्गुन्य IV. iii: 34 ...आषाढात् - V.I. 109 (उपरिस्वित्), आसीत्' (इनकी टि को प्लुत अनुदात्त देखें-विशाखाषाढात् V.I. 109 होता है)। ...आस... -III. iii. 107 'आसु... -III.i. 126 देखें- ण्यासश्रन्य III. iii. 107 देखें-आसुयुवपि III. 1. 126 ...आस.. -III. iv.72 ...आसुति... - V.ii. 112 देखें- गत्यर्थाकर्मक III. iv.72 देखें-रज-कृष्याov.ii. 112 ...आस-III. 1.37 आसुयुवपिरपिलपित्रपिचमः - III. 1. 126 देखें-दयायासः III. 1. 37 आङ् पूर्वक षुज,यु,वप,रप,लप,त्रप् और चम् - इन आस: - VII. ii. 83 धातुओं से (भी ण्यत् प्रत्यय होता है)। आस से उत्तर (आन को ईकारादेश होता है)। आसेवायाम् -II. iii. 40 आसन् -VI.1.61 आसेवा = तत्परता गम्यमान होने पर (आयुक्त और (वेद विषय में आस्य शब्द के स्थान में) आसन् आदेश कुशल शब्दों के योग में षष्ठी और सप्तमी विभक्ति हो जाता है.(शस प्रकार वाले प्रत्ययों के परे रहते। होती है)। ...आसन... -VI. 1. 151 ...आसेव्यमानयोः -III. iv.56 देखें - मन्वितन्० VI. 1. 151 देखें-व्याप्यमानासेव्य III. iv.56 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आस्था 95 . . इक आहतप्रशंसयो: -v.ii. 120 आहत=सांचे में ठोककर रूप निखार कर बनाई जाने वाली मुद्राएँ तथा प्रशंसा= स्तुति अर्थों में वर्तमान (रूप प्रातिपदिक से 'मत्वर्थ' में यप् प्रत्यय होता है)। आहाकः-III. 1.74 (निपात अभिधेय हो तो आङ पूर्वक हेव धातु से अप प्रत्यय, सम्प्रसारण तथा वृद्धि भी निपातन से करके) आहाव शब्द सिद्ध होता है, (कर्तृभिन्न कारक संज्ञाविषय में)। ...आस्था .. -VI. iii. 98 देखें- आशीराशा. VI. 1. 98 ...आस्थित... -VI. iii. 98 देखें-आशीराशा VI. ill. 98 आस्पदम् -VI. 1. 141 (प्रतिष्ठा अर्थ में) आस्पद शब्द में सुट् आगम का निपातन किया जाता है। ...आस्य.. -I.i.9 देखें-तुल्यास्यप्रयत्नम् I.1.9 ....आस्यप्रयत्नम् -I.1.9 देखें- तुल्यास्यप्रयत्नम् I.i.9. ...आस्तु... -III. I. 141 देखें-श्याचधाo. III. I. 141 ...आस्वनाम्-VII. ii. 28 देखें-रुष्यमत्वर VII. 1. 28 आह-III. iv.84 (बू धातु से परे जो लट् लकार, उसके स्थान में जो परस्मैपदसंज्ञक आदि के पांच आदेश,उनके स्थान में क्रम से पांच ही णल,अतुस,उस.थल,अथुस आदेश विकल्प से हो जाते , साथ ही बू धातु को) आह आदेश (भी) हो जाता है। आह -VIII. ii. 35 आह के (हकार के स्थान में थकारादेश होता है. झल परे रहते)। आहत... -v.ii. 120 देखें - आहतप्रशंसयो: V.ii. 120 आहि-v.iii.37 (दिशा,देश तथा काल अर्थों में वर्तमान पञ्चम्यन्तवर्जित सप्तमीप्रथमान्त दिशावाची दक्षिण प्रातिपदिक से) आहि (तथा आच् प्रत्यय होते हैं, 'दूरी' वाच्य हो तो)। आहिताग्न्यादिषु -II. ii. 37 आहिताग्नि आदि शब्दों में (निष्ठान्त का पूर्व प्रयोग विकल्प से होता है)। आहितात् - VIII. iv.8 आहित= शकट इत्यादि वाहनों में जो रखा जाये, वह पदार्थ, तद्वाची (जो पूर्वपद, तत्स्थ निमित्त) से उत्तर (वाहन शब्द के नकार को णकार आदेश होता है)। ...आहियुक्ते -II. iii. 29 देखें- अन्यारादितरते. II. iii. 29 आहृतम् -v.i.76 (तृतीयासमर्थ उत्तरपथ प्रातिपदिक से) 'लाया हुआ (तथा जाता है) अर्थ में (यथाविहित ठञ् प्रत्यय होता आहो -VIII. 1.49 (अविद्यमान पूर्व वाले) आहो (उताहो) से युक्त (व्यवधान- रहित तिङ् को भी अनुदात्त नहीं होता है)। इ-प्रत्याहार सूत्र । - आचार्य पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में प्रथम प्रत्याहार सूत्र में पठित द्वितीय वर्ण, जो अपने सम्पूर्ण अठारह भेदों का ग्राहक होता है। अष्टाध्यायी में पठित वर्णमाला का दूसरा वर्ण। ३...-VI. iv.77 देखें- यो: VI. iv.77 ३...-VI. iv. 148 देखें- यस्य VI. iv. 148 इ.. -VIII. ii. 15 देखें - इर: VIII. 1. 15 इक् -I.1.44 (यण = य, व, र, ल् के स्थान में जो हो चुका अथवा होने वाला) इक्इ ,उ,ऋ,ल, (उसकी सम्प्रसारण संज्ञा होती है)। यहाँ यण के स्थान में जो इक वर्ण और यण के स्थान में इक करना- यह वाक्यार्थ भी सम्प्रसारण-संज्ञक है। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 颗 इक् - 1147 (एच् ए ओ, ऐ, औ के स्थान में हस्वादेश करने में) इक् = इ, उ, ऋ, लृ ही होता है। इक - L. 13 (गुण हो जाये, वृद्धि हो जाये ऐसा नाम लेकर जहाँ गुण, वृद्धि का विधान किया जाये, वहाँ वे ) इक् = इ, उ, ऋ, लृ के स्थान में ही हों। इक: - I. 1. 9 इगन्त धातु से परे (झलादि सन् प्रत्यय कित्वत् होता है)। इक: - VI. 1. 74 इक् = इ, उ, ऋ, लृ के स्थान में (यथासंख्य करके यण् = य्. व. र् ल् आदेश होते है; अच् परे रहते, संहिता के विषय में) । इक: - VI. 1. 123 (असवर्ण अच् परे हो तो) इक् को (शाकल्य आचार्य के मत में प्रकृतिभाव हो जाता है तथा उस इक् के स्थान में ह्रस्व भी हो जाता है)। इक: - VI. iit. 60 (डी अन्त में नहीं है जिसके, ऐसा ) जो इक् अन्त वाला शब्द, उसको (गालव आचार्य के मत में विकल्प से हस्व होता है, उत्तरपद परे रहते) । इक: - VI. ill. 120 (पीलु शब्द को छोड़कर) जो इगन्त पूर्वपद, उसको (वह शब्द के उत्तरपद रहते दीर्घ होता है)। इक: - VI. iii. 122 इगन्त (उपसंर्ग) को (काश शब्द उत्तरपद रहते दीर्घ होता है. संहिता के विषय में)। इक: - VI. lii. 133 इगन्त शब्द को (सुञ् परे रहते ऋचा विषय में दीर्घ हो जाता है)। इक - VII. 1. 73 इक् अन्तवाले (नपुंसकलिंग) को (अजादि विभक्ति परे रहते नुम् आगम होता है)। @ VII. iii. 50 (अङ्ग के निमित्त ठ को) इक आदेश होता है। इक: - VIII. 1. 76 (रेफान्त तथा वकारान्त जो धातु पद, उसकी उपधा) इक् को (दीर्घ होता है)। 96 ....इकान्त... - IV. II. 140 देखें अकेकात०] IV. II. 140 ...... - VIII. Iv. 5 देखें - प्रनिरन्त० VIII. Iv. 5 इगन्त... - VI. 1. 29 देखें - इगन्तकालo Vi. ii. 29 इगन्तकालकपाल भगालशरावेषु VIII. 29 ( द्विगुसमास में ) इगन्त उत्तरपद रहते तथा कालवाची एवं कपाल, भगाल, शराव इन शब्दों के उत्तरपद रहते (पूर्वपद को प्रकृतिस्वर होता है ) । इगन्तात् - V. 1. 130 = (षष्ठीसमर्थ लघु हस्व अक्षर पूर्व में है जिसके ऐसे) इक्- इ, उ, ऋ, लृ अन्तवाले प्रातिपदिक से भी भाव और कर्म अर्थों में अण् प्रत्यय होता है)। - - इगुपध... III. i. 135 देखें इगुपधज्ञा०] III. L. 135 - - इगुपधज्ञाप्रीकिर - III. 1. 135 - इक् उपधावाली धातुओं से तथा ज्ञा, प्री कृ इन धातुओं से (क प्रत्यय होता है ) । इगुपधात् - III. 1. 45. इक् उपधा वाली जो शलन्त और अनिट) धातु, उससे उत्तर (चिल के स्थान में 'क्स' होता है, लुङ् परे रहते ) । . इङ्... - I. iii. 86 देखें - बुधयुधनराजने I. iii. 86 इससे इङ्... - III. ii. 130 देखें - इयाय III. II. 130 --... - VI. L. 47 देखें - क्रीड्जीनाम् VI. 1. 47. इड - II. iv. 48 इङ् के स्थान में भी गम् आदेश होता है, आर्धधातुक सन् परे रहते) । इङः III. iii. 21 इङ् धातु से (भी कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में घन् प्रत्यय होता है)। .... इडते. - VI. 1. 180 देखें- अहो VI. 1. 180 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इचार्यो: इचार्यो: -III. ii. 130 इजुपधात् -VIII. iv. 30 इङ् तथा ण्यन्त धू धातु से (वर्तमान काल में शतृ प्रत्यय इच उपधा वाले (हलादि) धातु से उत्तर (विहित जो कृत् होता है, यदि 'जिसके लिए क्रिया कष्टसाध्य न हो', ऐसा प्रत्यय,तत्स्थ अच् से उत्तर नकार को भी उपसर्ग में स्थित कर्ता वाच्य हो तो)। निमित्त से उत्तर विकल्प से णकारादेश होता है)। इच -v.iv. 127 इञ्-III. iii. 110 (कर्मव्यतिहार अर्थ में जो बहुव्रीहि समास, तदन्त से (उत्तर तथा परिप्रश्न गम्यमान होने पर धातु से स्त्रीलिंग समासान्त) इच् प्रत्यय होता है। कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में विकल्प से) इब प्रत्यय इच: - VI. iii.67 होता है.(चकार से ण्वुल भी होता है)। (खिदन्त उत्तरपद रहते) इजन्त (एकाच) को (अम् आगम हो जाता है और वह अम् प्रत्यय के समान भी माना जाता इ -IV.I.95 (षष्ठीसमर्थ अकारान्त प्रातिपदिक से अपत्य मात्र को इचि-VI.i. 100 कहने में) इन् प्रत्यय होता है। (अवर्ण से.उत्तर) इच प्रत्याहार परे रहते (पूर्व पर के स्थान ब-IV.I. 153 में पूर्वसवर्ण दीर्घ एकादेश नहीं होता है)। (उदीच्य आचार्यों के मत में सेनान्त, लक्षण तथा कारिइच्छति -I. iv. 28 वाची प्रातिपदिकों से अपत्य अर्थ में) इञ् प्रत्यय होता है। (व्यवधान के कारण जिससे छिपना) चाहता है, (उस कारक की अपादान सजा होती है)। इ -IV.I. 171 इच्छा -Iii. iii. 101 , (क्षत्रियाभिधायी जनपदवाची साल्व के अवयववाची इच्छा शब्द स्त्रीलिंग भाव में श प्रत्ययान्त निपातन किया तथा प्रत्यप्रथ, कलकूट तथा अश्मक प्रातिपदिकों से जाता है। अपत्य अर्थ में) इञ् प्रत्यय होता है। इच्छायाम् -III.1.7 ...इ..-IV. 1.79 इच्छा अर्थ में (इच्छा कर्मवाली जो धातु,इच्छा के साथ देखें-दुग्छण्कठ० IV. 1.79 . समानकर्तृक,उससे सन् प्रत्यय विकल्प से होता है)। इन-II. iv.60 इच्छार्थेभ्यः -III. 1. 160 (प्राग्देश वालों के गोत्रापत्य में आया) जो इञ् प्रत्यय, इच्छार्थक धातुओं से (वर्तमान काल में विकल्प से लिङ् तदन्त प्रातिपदिक से (युवापत्य में विहित प्रत्ययों का लुक प्रत्यय होता है,पक्ष में लट)। होता है)। इच्छार्थेषु -III. iii. 157 . इच्छार्थक धातुओं के उपपद रहते (लिङ् तथा लोट् । इक-II. iv.66 प्रत्यय होते है)। इञ् प्रत्यय का (बहुत अच् वाले शब्द से उत्तर भरत इच्छु: -III. ii. 169 गोत्र और प्राच्य गोत्र के बहुत्व की विवक्षा होने पर लुक इष धातु से उ प्रत्यय तथा ष को छ निपातन से करके इच्छु शब्द का निपातन किया जाता है। इकः - IV. ii. 111 इजादेः -III. I. 36 (गोत्रप्रत्ययान्त) इजन्त प्रातिपदिकों से (भी अण प्रत्यय (ऋच्छ धातु को छोड़कर) इच् प्रत्याहार आदिवाली (तथा होता है)। गुरुमान) धातु से (लिट् परे रहते आम् प्रत्यय होता है, लौकिक विषय में)। ...इलाम्-IV.ili. 127 इजादेः-VIII. iv. 31 देखें - अव्यजिजाम् IV. ill. 127 . (उपसर्ग में स्थित निमित्त से उत्तर) इच् आदि वाला जो इजि - VII. iii. 8 (नुम् सहित हलन्त) धातु, उससे विहित (जो कृत् प्रत्यय, (श्वन आदि वाले अङ्ग को) इज् प्रत्यय परे रहते (जो तत्स्थ नकार को अच् से उत्तर णकार आदेश होता है)। कुछ कहा है,वह नहीं होता)। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... 98 इणः ...इस्रो: -II. iv.58 इट् -VII. 1.66 देखें-अणिोः II. iv.58 (अद् भक्षणे,ऋगतो,व्ये संवरणे - इन अङ्गों के थल् ...इत्रोः -IV.i.78 को) इट् आगम होता है। देखें- अणिजोः IV. 1.78 इट: -III. iv. 106 ...इजोः -IV.i. 101 (लिङादेश उत्तमपुरुष एकवचन) इट् के स्थान में (अत् . . देखें - यत्रिलो: IV. 1. 101 आदेश होता है)। इट् -I. ii.2 इट: -VIII. ii. 28 (ओविजी' से परे) इडादि प्रत्यय (ङिद्वत होते है)। इट् से उत्तर (सकार का लोप होता है, ईट् परे रहते)। ...इट्.. -III. iv. 78 इट: -VIII. iii. 79 देखें-तिप्तस्झि० III. iv.78. (इण् से परे) इट् से उत्तर (पीध्वम्, लुङ् तथा लिट् के इट् -V.i. 23 धकार को विकल्प से मूर्धन्य आदेश होता है)। (वतुप्रत्ययान्त सङ्ख्यावाची प्रातिपदिक से 'तदर्हति' ....इटाम् -I.1.6 पर्यन्त कथित अर्थों में कन् प्रत्यय होता है तथा उसकन् को देखें -दीधीवेवीटाम I.16 विकल्प से) इट् आगम होता है। इटि-VI. iv.64 इट् -VI.i. 190 (सेट् थल् परे रहते) इट् अथवा प्रकृतिभत शब्द के इडादि (आर्धधातुक तथा अजादि कित,डित आर्धधा(अन्त्य अथवा आद्य स्वर को विकल्प से उदात्त हो तुक) प्रत्ययों के परे रहते (आकारान्त अङ्गका लोप होता इट् - VI. iv.62 (भाव तथा कर्मविषयक स्य,सिच.सीयुट और तास के इटि - VII. 1. 62 परे रहते उपदेश में अजन्त धातुओं तथा हन,ग्रह एवं दृश् (लिड्भित्र) इजादि प्रत्यय परे रहते (रध् अङ्ग को नुम् धातुओं को विकल्प से चिण के समान कार्य होता है तथा) आगम नहीं होता)। इट् आगम (भी) होता है। इटि-VII. ii.4 इट् - VII. ii. 8 (परस्मैपदपरक) इडादि (सिच्) परे रहते (हलन्त अङ्ग को (वशादि कृत् प्रत्यय परे रहते) इट् का आगम (नहीं वृद्धि नहीं होती)। होता)। इडाया: -VIII. 11.54 इट् - VII. ii. 35 इडा शब्द के (षष्ठी विभक्ति के विसर्जनीय को विकल्प (वल् प्रत्याहार आदि में है जिसके,ऐसे आर्धधातुक को) से सकार आदेश होता है; पति, पुत्र, पृष्ठ, पार,पद,पयस् • इट् का आगम होता है। तथा पोष शब्द के परे रहते, वेद-विषय में)। इट् - VII. ii. 41 ...इण... -III. ii. 157 (वृ तथा ऋकारान्त धातुओं से उत्तर सन् आर्धधातुक को देखें - जिदृक्षि० III. ii. 157 विकल्प से) इट् आगम होता है। इण... - III. ii. 163 इद् -VII. ii. 47 देखें - इण्नश III. ii. 163 निर पूर्वक कुष् से उत्तर निष्ठा को) इट् आगम होता है। ....इण... - III. v. 16 इट् - VII. 1. 52 देखें-स्थेण्कृषIII. iv. 16 "विस् तथा क्षुध धातु से परे क्त्वा तथा निष्ठा प्रत्यय को) इट् आगम होता है। इण... - VIII. iii. 57 देखें-इण्को : VIII. Iii. 57 इट् - VII. ii. 58 इण: -II. iv.45 (गम्ल धातु से उत्तर सकारादि आर्धधातुक को परस्मैपद परे रहते) इट् का आगम होता है। इण को (गा आदेश होता है,लुङ् आर्धधातुक परे रहते)। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इणः इणः - III. iii. 38 (परिपूर्वक) इण् धातु से (क्रम या परिपाटी गम्यमान होने पर कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है) । ... इणः - III. iii. 99 देखें - समजनिषद० III. iii. 99 इण: - VI. iv. 81 इण् अङ्ग को (यणादेश होता है, अच् परे रहते ) । इण: - VII. iv. 69 • इण् अङ्ग के (अभ्यास को कित् लिट् परे रहते दीर्घ होता है। इण: - VII. iii. 39 इण से उत्तर (विसर्जनीय को षकारादेश होता है; अपदादि कवर्ग, पवर्ग के परे रहते ) । इणः - VIII. iii. 78 इण् प्रत्याह्यर अन्त वाले अङ्ग से उत्तर ( षीध्वम्, लुङ् तथा लिट् के धकार को मूर्धन्य आदेश होता है) । .... इणोः - III. iii. 37 देखें - नीणोः III. iii. 37 इण्को: - VIII. iii. 57 (यहां से आगे पाद की समाप्ति पर्यन्त कहे कार्य) इण् एवं कवर्ग से उत्तर (होते है, ऐसा अधिकार जानें ) । इन जिसर्तिभ्य: - III. ii. 163 इण, णश, जि, सृ- इन धातुओं से ( तच्छीलादि कर्त्ता हों तो वर्तमानकाल में क्वरप् प्रत्यय होता है) । इत् - I. ii. 16 (स्था और घुसंज्ञक धातुओं से परे सिच् कित्वत् होता है और उनको इकारादेश (भी) हो जाता है। इत् - I.. ii. 50 (तद्धित के लुक् हो जाने पर गोणी शब्द को) इकारादेश हो जाता है। इत् - I. iii. 2 ( उपदेश में वर्तमान अनुनासिक अच् ) इत्सञ्ज्ञक होता है। .... इत्... - IV. 1. 169 देखें - वृद्धेत्कोसo IV. 1. 169 99 इत् इत् - IV. 1. 24 (देवतावाची 'क' प्रतिपदिक से षष्ठयर्थ में अण् प्रत्यय होता है तथा प्रत्यय के साथ उस 'क' को) इकारान्तादेश (भी) होता है। इत् - Viv. 135 (उत्, पूति, सु तथा सुरभि शब्दों से उत्तर गन्ध शब्द को बहुव्रीहि समास में समासान्त) इकारादेश होता है । इत् - VI. iii. 27 (देवताद्वन्द्व में वृद्धि किया गया शब्द उत्तरपद रहते अग्नि शब्द को) इकारादेश होता है। इत् - VI. iv. 34 (शास् अङ्ग की उपधा को) इकारादेश हो जाता है; (अङ् तथा हलादि कित, ङित् प्रत्यय परे रहते ) । इत् - VI. iv. 90 ('मेङ् प्रणिदाने' अङ्ग को विकल्प करके) इकारादेश होता है, ( ल्यप् परे रहते) । इत् - VI. iv. 114 (दरिद्रा धातु के आकार के स्थान में) इकारादेश होता है; (हलादि कित्, ङित् सार्वधातुक परे रहते ) । इत् - VII. 1. 100 (ऋकारान्त धातु अङ्ग को) इकारादेश होता है। इत् - VII. iii. 44 ( प्रत्यय में स्थित ककार से पूर्व अकार के स्थान में) इकारादेश होता है; (आप् परे रहते, यदि वह आप सुप् से | उत्तर न हो तो) । इत्... - VII. iii. 117 देखें - इदुद्भ्याम् VII. iii. 117. इत् - VII. iv. 5. (ष्ठा अङ्ग की उपधा को चङ्परक णि परे रहते) इकारादेश होता है। इत् -VII. iv. 40 (दो, षो, मा तथा स्था अङ्गों को तकारादि कित् प्रत्यय के परे रहते) इकारादेश होता है। इत् - VII. 1. 56 (दम्भ अङ्ग के अच् के स्थान में) इकारादेश होता है, (तथा चकार से ईकारादेश भी होता है) । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 इत् - VII. 1.76 (हुम आदि तीन धातुओं के अभ्यास को) इकारादेश होता है। इत्... - VIII. II. 106 देखें-इदती VIII. 1. 106 इत्... -VIII. 1. 107 देखें-दतो: VIII. 1. 107 इत्.. - VIII. iii. 41 देखें- दुपयस्य VIII. iii. 41 इत:-III. iv.97 . (परस्मैपद विषय में लोट् लकार-सम्बन्धी) इकारका(भी विकल्प से लोप हो जाता है)। . इत:-III. iv. 100 (डितलकारसम्बन्धी) इकार का (भी नित्य ही लोप हो जाता है)। इत:-IV.1.65 इकारान्त (अनुपसर्जन मनुष्यजातिवाची) शब्द से (स्त्रीलिंग में ङीष् प्रत्यय होता है)। इत: - IV.1. 122 इकारान्त (अनिवन्त व्यच) प्रतिपदिकों से (भी अपत्य अर्थ में ढक् प्रत्यय होता है)। इत:-VII.1.86 (पथिन्,मथिन् तथा ऋभुक्षिन् अङ्ग के) इकार के स्थान में (अकारादेश होता है, सर्वनामस्थान परे रहते)। इतन् -V.ii. 36 (प्रथमासमर्थ संजात समानाधिकरण वाले तारकादि प्रातिपदिकों से षष्ठयर्थ में) इतच प्रत्यय होता है। ...इतर.. -II. 11.29 देखें-अन्यारादितरते. II. 11.29 इतरात् -VII. 1.27 इतर शब्द से उत्तर (सु तथा अम् के स्थान में वेद-विषय में अद्ड् आदेश नहीं होता है)। इतराय:-.ili.14 (सप्तमी और पञ्चमी से) अतिरिक्त अन्य (भी) जो (विभक्ति), तदन्त शब्दों से (भी तसिलादि प्रत्यय देखे जाते है)। इतरेतर... -I. iii. 16 देखें - इतरेतरान्योन्योपपदात् I. II. 16 इतरेतरान्योन्योपपदात् -I. ill. 16 इतरेतर एवं अयोन्य शब्द उपपद वाले धातु से (भी कर्मव्यतिहार अर्थ में आत्मनेपद नहीं होता)। . ...इतरेधुस्... - V. ii. 22 देखें-सद्य-परुत्० V. iii. 22 . इता-I.i.62 (आदिवर्ण अन्तिम) इत्संज्ञक वर्ण के साथ मिल कर तन्मध्यगत वर्षों का एवं स्वस्वरूप का ग्रहण कराते है)। इति -I.1.43 न अर्थात् निषेध और वा अर्थात् विकल्प - इन अर्थों की विभाषा संज्ञा होती है। इति -I.1.65 सप्तमी विभक्ति से निर्देश किया हुआ जो शब्द हो, . उससे अव्यवहित पूर्व को ही कार्य होता है। इति-I.1.66 पञ्चमीविभक्ति से निर्दिष्ट जो शब्द,उससे उत्तर को कार्य होता है। - इति - II. II. 27 सप्तम्यन्त तथा तृतीयान्त समानरूप वाले सुबन्त परस्पर इदम् ='यह' अर्थ में विकल्प से समास को प्राप्त होते है, और वह बहुव्रीहि समास होता है। .. इति-II. 1. 28 तुल्ययोग में वर्तमान सह- यह अव्यय तृतीयान्त सुबन्त के साथ समास को प्राप्त होता है और वह बहुव्रीहि समास होता है। इति-III.1.42 अभ्युत्सादयामकः, प्रजनयामकः, चिकयामकः, रमयामकः,पावयांक्रियात् तथा विदामक्रन्-ये पद वेद-विषय में विकल्प से निपातित होते हैं। इति-III. 1. 41 विदाकुर्वन्तु यह रूप निपातन किया जाता है,विकल्प करके। इति-III. 11. 154 पर्याप्तिविशिष्ट सम्भावन अर्थ में वर्तमान धातु से लिङ् प्रत्यय होता है, यदि अलम् शब्द का अप्रयोग सिद्ध हो रहा हो। इति -V.1.62 सखी तथा अशिश्वी-ये शब्द भाषा विषय में स्त्रीलिंग में डीप प्रत्ययान्त निपातन किये जाते है। . Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति इति - IV. 1. 20 प्रथमासमर्थ पौर्णमासी विशेषवाची प्रातिपदिक से अधिकरण अभिधेय होने पर यथाविहित अण् प्रत्यय होता है । इति - IV. 1.54 प्रथमासमर्थ छन्दोवाची प्रातिपदिकों से षष्ठयर्थ में यथाविहित अणु प्रत्यय होता है, प्रगायों के आदि के अभिधेय होने पर। इति - IV. 1. 56 प्रथमासमर्थ प्रहरण अर्थात् प्रहार का साधन समानाधिकरण वाले प्रातिपदिकों से सप्तम्यर्थ में ण प्रत्यय होता है. यदि 'अस्यां' से निर्दिष्ट क्रीडा हो । इति IV. ii. 66 अस्ति समानाधिकरण वाले प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से सप्तम्यर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है. यदि सप्तम्यर्थ से निर्दिष्ट उस नाम वाला देश हो अर्थात् प्रकृति-प्रत्ययसमुदाय से देश कहा जा रहा हो। 101 इति - IV. 1. 66 षष्ठीसमर्थ व्याख्यान किये जाने योग्य जो प्रातिपदिक, उनसे व्याख्यान अभिधेय होने पर तथा सप्तमीसमर्थ व्याख्यातव्यनामवाची शब्दों से भव अर्थ में भी यथाविहित प्रत्यय होते है । इति - IV. Iv. 125 उपधान मन्त्र समानाधिकरण प्रथमासमर्थ मतुबन्त प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ में यत् प्रत्यय होता है, यदि षष्ठ्यर्थ में निर्दिष्ट ईटें ही हों, तथा मतुप् का लुक भी होता है, वेदविषय में। इति - V. 1.16 प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से षष्ठयर्थ में तथा प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से सप्तम्यर्थ में भी यथाविहित प्रत्यय होता है, यदि वह प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक स्यात् क्रिया के साथ समानाधिकरण वाला हो तो । इति - V. ii. 45 प्रथमासमर्थ दशन शब्द अन्तवाले प्रातिपदिक से सप्तम्यर्थ में ड प्रत्यय होता है, यदि वह प्रथमासमर्थ 'अधिक' समानाधिकरण वाला हो तो। IV.-ii. 57 - प्रथमासमर्थ क्रियावाची घञन्त प्रातिपदिक से सप्तम्यर्थ इति – V. 1. 94 में प्रत्यय होता है। इति इति - V. 1. 42 सप्तमीसमर्थ सर्वभूमि तथा पृथिवी प्रातिपदिकों से 'प्रसिद्ध' अर्थ में भी यथाविहित अण् और अञ् प्रत्यय होते हैं। इति .77 ग्रहण क्रिया के समानाधिकरण वाची पूरण प्रत्ययान्त प्रातिपदिक से स्वार्थ में कन् प्रत्यय होता है तथा पूरण प्रत्यय का विकल्प से लुक भी हो जाता है। इति - V. ii. 93 इन्द्रियम् शब्द का निपातन किया जाता है, 'जीवात्मा का चिन्ह', 'जीवात्मा के द्वारा देखा गया', 'जीवात्मा के द्वारा सृजन किया गया', 'जीवात्मा के द्वारा सेवित', 'ईश्वर के द्वारा दिया गया' - इन अर्थों में, विकल्प से। - 'है' क्रिया के समानाधिकरण वाले प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ तथा सप्तम्यर्थ में मतुप् प्रत्यय होता है। इति - Viv. 10 1 स्थान- शब्दान्त प्रातिपदिक से विकल्प से छ प्रत्यय होता है, यदि समानस्थान वाले व्यक्ति द्वारा स्थानशब्दान्तपद- प्रतिपाद्य तत्त्व अर्थवान् हो । इति - VI. ii. 149 इस प्रकार के व्यक्ति के द्वारा किया गया, इस अर्थ में जो समास, वहाँ भी क्तान्त उत्तरपद को कारक से परे अन्तोदात्त होता है। इति - VI. iii. 112 साढ्यै, साढ्वा तथा साढा- ये शब्द वेद में निपातन किये जाते है। इति - VII. 1. 43 वेद-विषय में 'यजध्वैनम्' शब्द भी निपातन किया जाता है 1 इति - VII. 1. 48 वेद - विषय में इष्ट्वीनम् यह शब्द भी निपातन किया जाता है। इति - VII. 1. 34 प्रसित स्कभित, स्तभित, उत्तभित, चत्त, विकस्त, विशस्तू. ', शंस्तृ शास्तृ, तरुतृ, तरूतृ, वरुतृ, वरूतृ, वरूत्रीः, उज्ज्वलिति, क्षरिति, क्षमिति वमिति, अमिति ये शब्द भी वेद विषय में निपातन है। - - Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति इति - VII. 1. 64 बभूथ, आततन्य, जगृध्य, ववर्थ ये शब्द थल परे रहते निपातन किये जाते है, वेद विषय में । इति - VII. iv. 65 2 दाधर्ति, दर्धर्ति, दर्धर्षि बोभूतु तेतिक्ते, अलर्षि, आपनीफणत्, संसनिष्यदत्, करिक्रत्, कनिक्रदत्, भरिभ्रत् दविध्वतः, दविद्युतत् तरित्रतः, सरीसृपतम्, वरीवृजन् मर्मृज्य, आगनीगन्ति ये शब्द वेद-विषय में निपातन किये जाते है । - इति - VII. iv. 74 ससूव यह शब्द वेदविषय में निपातन किया जाता इति - VIII. 1. 43 अनुज्ञा के लिये की गई प्रार्थना-विषय में ननु शब्द से युक्त तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता। इति - VIII. 1. 60 'ह' से युक्त प्रथम तिङन्त विभक्ति को धर्मोल्ल गम्यमान होने पर अनुदात्त नहीं होता। 102 इति - VIII. 1. 61 'अहं' से युक्त प्रथम तिङन्त को विनियोग तथा चकार से धर्मोल्लन गम्यमान होने पर अनुदात नहीं होता। इति - VIII. 1. 62 च तथा अह शब्द का लोप होने पर प्रथम तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता, यदि 'एव' शब्द वाक्य में अवधारण अर्थ में प्रयुक्त किया गया हो तो। - इति VIII. i. 64 वै तथा बाव से युक्त प्रथम तिङन्त को भी विकल्प से वेद-विषय में अनुदात्त नहीं होता । इति • VIII. ii. 70 - अम्नस्, ऊधस्, अवस् - इन पदों को वेद-विषय में रु एवं रेफ दोनों ही देखे जाते हैं। इति - VIII. ii. 101 'चित्' यह निपात भी जब उपमा के अर्थ में प्रयुक्त हो तो वाक्य की टि को अनुदात्त प्लुत होता है। इति - - VIII. ii. 102 'उपरि स्विदासीत्' इसकी टि को भी प्लुत अनुदात्त होता है। इति - VIII. III. 43 कृत्वसुच् के अर्थ में वर्तमान द्विस्, त्रिस् तथा चतुर् के विसर्जनीय को षकारादेश विकल्प करके होता है; कवर्ग, पवर्ग परे रहते । .. इतिह... - V. iv. 23 देखें- अनन्तावसचेo Viv. 23 इतौ - I. 1. 16 (वैदिकेतर) इति शब्द के परे रहते (शाकल्य आचार्य के अनुसार 'सम्बुद्धि' संज्ञा के निमित्तभूत ओकार की प्रगृह्य संज्ञा होती है)। .. इतौ - V. lil. 4 देखें - एतेतौ VIII. 4 इतौ - VI. 1. 95 (अव्यक्त के अनुकरण का जो अत् शब्द, उससे उत्तर) इति शब्द परे रहते (पूर्व पर के स्थान में पररूप एकादेश होता है, संहिता के विषय में) । ...इत्यंसु - III. Iv. 27 देखें अन्यचैवं०] III. Iv. 27 इत्वम्भूतलक्षणे - -II. iii. 21 प्रकारविशिष्टत्व को प्राप्त का जो चिह्न, उसमें (तृतीया विभक्ति होती है। .... इत्यम्मूताख्यान... - I. Iv. 89 देखें - लक्षणत्वम्भूताख्यानभाग० 1. Iv. 89 इत्वम्भूतेन VIII. 149 - प्रकारविशिष्टत्व को प्राप्त हुये के द्वारा किया गया' अर्थ में जो समास, वहाँ भी क्तान्त उत्तरपद को कारक से परे अन्तोदात्त होता है)। ...इलु... - VI. iv. 55 देखें - 新 आमन्ताo VI. iv. 55 - इत्यादय: - VI. 1. 7 (जर यह धातु तथा) यह जक्ष् धातु आरम्भ में है जिन (छ:- जागृ, दरिद्रा, कास, शास्, देधीङ् तथा वेवीङ) धातुओं के, वे धातुयें (अभ्यस्तसंज्ञक होती है)। इत्यादौ - VI. 1. 115 (अङ्ग शब्द में जो एक उसको अकार के परे रहते प्रकृतिभाव हो जाता है तथा उस अङ्ग शब्द के आदि में (जो अकार, उसके परे रहते पूर्व एड् को प्रकृतिभाव होता है) । ..इत्र... - VI. ii. 144 - देखें थाथघञ् VI. ii. 144 इत्रः - III. ii. 184 (ऋ, लूञ, धू, षू, खनु, षह, चर इन धातुओं से करण कारक में ) इत्र प्रत्यय होता है, (वर्तमान काल में) । - Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इथुक् इथुक् - V. ii. 53 (वतुप् प्रत्ययान्त प्रातिपदिक को 'पूरण' अर्थ में विहित डट् प्रत्यय परे रहते) इथुक् आगम होता है। इदः - VII. ii. 111 (इदम् शब्द के) इद रूप को (पुल्लिंग में अयु आदेश होता है, सुविभक्ति परे रहते) । इदङ्किमो - VI. iii. 89 इदम् तथा किम् शब्द को (यथासङ्ख्य करके ईश् तथा की आदेश हो जाते है; दृक्, दृश् तथा वतुप् परे रहते) । इदन्तः (वेद- विषय में मस् विभक्ति) इकार आगम अन्तवाली हो जाती है)। • VII. 1. 47 - इदम् - II ii. 26 (सप्तम्यन्त तथा तृतीयान्त समान रूप वाले दो सुबन्त परस्पर) इदम् = यह (इस) अर्थ में (विकल्प से समास को प्राप्त होते है, और वह बहुव्रीहि समास होता है)। इदम् - IV. ill. 119 (षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिक से) 'यह' अर्थ में (यथाविहित प्रत्यय होता है) । ... इदम् ... - VI. 1. 165 देखें - ऊडिदम् VI. 1. 165 इदम् ... - VI. ii. 162 देखें- इदमेतत्तo VI. 1. 162 इदम्... - VI. Iii. 89 देखें- इदङ्कियोः VI. III. 89 इदम्... - VII. 1. 11 देखें- इदमदसो: VII. 1. 11 इदमः - II. iv. 32 . ( अन्वादेश में वर्तमान) इदम् के स्थान में (अनुदात्त 'अश्' आदेश होता है, तृतीयादि विभक्तियों के परे रहते)। इदम: - V. iii. 3 (दिक्शब्देभ्यः सप्तमी 'o V. iii. 27 सूत्र तक कहे जाने वाले प्रत्ययों के परे रहते) इदम् के स्थान में (इश् आदेश होता है)। इदम: - Viii. 11 (सप्तम्यन्त) इदम् प्रातिपदिक से (ह प्रत्यय होता है)। इदम: - V. iii. 16 (सप्तम्यन्त) इदम् प्रातिपदिक से (हिंल् प्रत्यय होता है)। 103 इदम: - V. iii. 24 (प्रकारवचन में वर्तमान) इदम् प्रातिपदिक से (स्वार्थ में यमुप्रत्यय होता है। इदम: - VII. iii. 108 इदम् अङ्ग को (सु विभक्ति परे रहते मकारादेश होता है)। इदमदसो - VII. 1. 11 (ककाररहित) इदम् और अदस् के (भिस् को ऐस् नहीं होता) । इदमेतत्तद्भ्यः - VI. ii. 162 बहुव्रीहि समास में ) इदम् एतत् तथा तद् से उत्तर (क्रिया के गणन में वर्तमान प्रथम तथा पूरण प्रत्ययान्त शब्दों को अन्तोदात्त होता है)। इन्. -. इदम्भ्याम् - V. II. 40 देखें किमिदम्भ्याम् VII. 40 इदितः - VII. 1. 58 इकार इत्सव्वक है जिसका ऐसे (धातु) को (नुम् का आगम होता है)। - इदुतौ VIII. II. 106 (ऐच् के स्थान में जब प्लुत का प्रसङ्ग हो तो उस ऐच् के अवयवभूत) इकार व उकार (प्लुत होते हैं)। दुतौ - VIII. II. 107 (दूर से बुलाने के विषय से भिन्न विषय में अप्रगृह्यसञ्ज्ञक एच् के पूर्वार्द्ध भाग को प्लुत करने के प्रसङ्ग में आकार आदेश होता है तथा उत्तरवाले भाग को) इकार तथा उकार आदेश होते है। - · इदुदुपधस्य - VIII. iii. 41 इकार और उकार उपधा वाले (प्रत्ययभिन्न समुदाय) के (विसर्जनीय को भी षकार आदेश होता है; कवर्ग, पवर्ग परे रहते) । इदुद्भ्याम् - III. iii. 117 इकारान्त, उकारान्त (नदीसंज्ञक) से उत्तर (डिङ के स्थान में आम् आदेश होता है)। इन् - III. 1. 24 (कृ' धातु से स्तम्ब और शकृत् कर्म उपपद रहने पर) इन् प्रत्यय होता है। इन्... - VI. iii. 18 देखें इन्सिनातिषु VI. III. 18 - Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 इनित्रिकटाच इन्... -VI. iv. 12 देखें- इन्हन्पूषार्यम्णाम् VI. iv. 12 इन्-VI.v.164 (अपत्य अर्थ से भिन्न अर्थ में वर्तमान अण प्रत्यय के परे रहते भसज्जक) इनन्त अङ्गको (प्रकृतिभाव हो जाता इन..-N. iv. 133 देखें-इनौ IV. iv. 133 इन...-VII.1.12 देखें-इनात्स्या : VII. 1. 12 इन -V.iv. 152 (बहुव्रीहि समास में) इन् अन्तवाले शब्दों से (समासान्त कप् प्रत्यय होता है, स्त्रीलिंग विषय में)। इनङ्-IV. 1. 126 (कल्याणी आदि शब्दों से अपत्य अर्थ में ढक प्रत्यय होता है, तथा उसके सत्रियोग से कल्याणी आदियों को) इन आदेश (भी) हो जाता है। इन... -V.1.33 देखें-इनचिटच्० V. 1. 33 इनपिटच् -V.1.33 नि उपसर्गप्रातिपदिकसे नासिकासम्बन्धी झुकाव' को कहना हो तो सज्जाविषय में) इनच तथा पिटच् प्रत्यय होते है,(तथा नि शब्द को यथासक्य करके प्रत्यय के साथ साथ चिक तथा चि आदेश भी होते है)। इनयो - IV.iv. 133 (ततीयासमर्थ पूर्व प्रातिपदिक से 'किया हुआ' अर्थ में) इन और य प्रत्यय होते है,(चकार से ख प्रत्यय भी होता इनि: -III. 1. 93 (वि पूर्वक क्री धातु से कर्म उपपद रहते भूतकाल में) इनि प्रत्यय होता है। इनिः-III. 1. 159 (प्रपूर्वक जु धातु से तच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमान काल में) इनि प्रत्यय होता है। इनि. - IV.II. 10 (तृतीयासमर्थ पाण्डुकम्बल प्रातिपदिक से 'ढका हुआ रथ' अर्थ में) इनि प्रत्यय होता है। इनि: -V.ii. 61 (द्वितीयासमर्थ अनुब्राह्मण प्रातिपदिक से अधीते या वेद अर्थों में) इनि प्रत्यय होता है। इनि. - IV. ii. 111 (ततीयासमर्थ कर्मन्द तथा कृशाश्व प्रातिपदिकों से यथासक्य भिक्षुसूत्र तथा नटसूत्र का प्रोक्त विषय अभिधेय होने पर) इनि प्रत्यय होता है। इनि: - V. iv. 23 (तृतीयासमर्थ चूर्ण प्रातिपदिक से मिला हुआ' अर्थ में) इनि प्रत्यय होता है। इनि: -V. 1.86 (प्रथमासमर्थ पूर्व प्रातिपदिक से 'इसके द्वारा अर्थ में) इनि प्रत्यय होता है। इनि: - V. 1. 128 (द्वन्द्वसमास-निष्पन्न शब्दों,रोगार्थक शब्दों तथा प्राणियों में स्थित निन्द्य पदार्थों को कहने वाले अकारान्त प्रातिपदिकों से मत्वर्थ' में) इनि प्रत्यय होता है। इनिठनौ - V... 85 (मुक्त क्रिया के समानाधिकरण वाले प्रथमासमर्थ श्राद्ध प्रातिपदिक से 'इसके द्वारा' अर्थ में) इनि और ठन प्रत्यय होते है। इनिठनौ-v.i. 115 (अकारान्त प्रातिपदिकों से 'मत्वर्थ' में) इनि तथा ठन् प्रत्यय होते है। इनित्रकटबर - IV. 1.50 (षष्ठीसमर्थ खल, गो, रथ प्रातिपदिकों से समूह अर्थ में यथासज्य करके) इनि, त्र तथा कट्यच् प्रत्यय (भी) इनात्स्या -VII.1. 12 (अदन्त अङ्ग से उत्तर टा,उसि तथा डस के स्थान में क्रमश) इन्, आत् और स्य आदेश होते है। इनि..-IV. 1.50 " देखें-इनित्रकट्य IV. 1. 50 ...इनि... - IV. 1.79 देखें-दुष्क IV. 1.79 इनि...-v.1.85 देखें-इनिठनौ V. 1.85 नि..-V. 1. 115 देखें-इनिठनी V.II. 115 होते है। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनी ... इनी - V. ii. 102 देखें - विनीनी Vii. 102 इनुण् - III. iii. 44 (अभिव्याप्ति गम्यमान हो तो धातु से भाव में) इनुण् प्रत्यय होता है। इनुण: - Viv. 15 इनुण् प्रत्ययान्त प्रातिपदिक से ( स्वार्थ में अण् प्रत्यय होता है। ...इनो - II. iii. 70 देखें - अकेनोः II. iii. 70 इन्द्र... - IV. 1. 48 देखें - इन्द्रवरुणभवo IV. 1. 48 .... इन्द्रजननादिभ्यः - IV. iii. 88 देखें - शिशुक्रन्दयमसभo IV. iii. 88 105 इन्द्रजुष्टम् - Vii. 93 'जीवात्मा के द्वारा सेवित' अर्थ में (इन्द्रियम् शब्द का निपातन किया जाता है)। इन्द्रदत्तम् - V. ii. 93 'ईश्वर के द्वारा दिया गया' अर्थ में (इन्द्रियम् शब्द का निपातन किया जाता है)। इन्द्रदृष्टम् -V. ii. 93 'जीवात्मा के द्वारा देखा गया' अर्थ में (इन्द्रियम् शब्द का निपातन किया जाता है)। इन्द्रलिङ्गम् - V. ii. 93 'जीवात्मा का चिह्न' अर्थ में (इन्द्रियम् शब्द का निपातन किया जाता है)। • इन्द्रवरुणभवशर्वरुद्रमृडहिमारण्ययवयवनमातुलाचार्याणाम् – IV. 1. 48 इन्द्र, वरुण, भव, शर्व, रुद्र, मृड, हिम, अरण्य, यव, यवन, मातुल तथा आचार्य प्रातिपदिक, (पुल्लिंग के हेतु से स्त्रीत्व में वर्तमान हों तो उन) से (ङीप् प्रत्यय तथा आनुकू का आगम होता है)। इन्द्रसृष्टम् - V. ii. 93 'जीवात्मा के द्वारा सृजन किया गया' अर्थ में (इन्द्रियम् शब्द का निपातन किया जाता है)। इन्द्रस्य - VII. lii. 22 (परन्तु देवताद्वन्द्व में उत्तरपद के रूप में प्रयुक्त) इन्द्र शब्द (अचों में आदि अच् को वृद्धि नहीं होती)। ... इन्द्रिय... - VI. iii. 130 देखें - सोमाश्वेo VI. iii. 130 इन्द्रियम् - Vit. 93 इन्द्रियम् शब्द का ( विकल्प से) निपातन किया जाता है, (जीवात्मा का चिह्न, जीवात्मा के द्वारा देखा गया, जीवात्मा के द्वारा सृजन किया गया, जीवात्मा के द्वारा सेवित तथा ईश्वर के द्वारा दिया गया अर्थों में)। इन्द्रे - VI. 1. 120 इन्द्र शब्द में स्थित (अच् के परे रहते भी गो को अवङ् आदेश होता है)। ... इन्यानयोः - VI. i. 209 देखें - वेण्विन्यानयो: VI. 1. 209 fa... - I. ii. 6 • देखें - इन्धिभवतिभ्याम् I. 1. 6 इन्धिभवतिभ्याम् - I. ii. 6 'ञिइन्धी दीप्त' तथा 'भू सत्तायाम्' धातुओं से परे (भी लिट् प्रत्यय कित्वत् होता है) । इन्सिद्धबध्नातिषु - VI. iii. 18 इनन्त, सिद्ध तथा बध्नाति उत्तरपद रहते ( भी सप्तमी का अलुक् नहीं होता है) । इय: इन्हन्यूषार्यणाम् - VI. iv. 12 इन्प्रत्ययान्त, हन्, पूषन् तथा अर्यमन् अङ्ग की (उपधा को शिविभक्ति के परे रहते ही दीर्घ होता है)। इम् - VII. lil. 92 (तह हिंसायाम् ' अङ्ग को हलादि पित् सार्वधातुक परे रहते) इम् आगम होता है। इमनिच् - - V. 1. 121 (षष्ठीसमर्थ पृथ्वादि प्रातिपदिकों से 'भाव' अर्थ में विकल्प से) इमनिच् प्रत्यय होता है। ... इमा... - VI. Iv. 154 देखें - इष्ठेमेयस्सु VI. iv. 154 ... इमात्... - V. lil. 111 देखें - प्रनपूर्वo Vill. 111 ... इय: - VII. 1. 2 देखें - आयनेयी० VII. 1. 2 इय: - VII. 1. 80 (अकारान्त अङ्ग से उत्तर सार्वधातुक-संज्ञक 'या' के स्थान में) इय् आदेश होता है। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इय: इय: - VII. iii. 2 (केक, मित्रयु तथा प्रलय अङ्गों के य् आदि वाले भाग को) इय् आदेश होता है; (ञित् णित्, कित् तद्धित परे रहते) इयङ्... I. iv. 4 देखें - इयडुवस्थानौ I. iv. 4 इयदुवडौ - VI. iv. 77 (श्नुप्रत्ययान्त अङ्ग तथा इवर्णान्त, उवर्णान्त धातु एवं भू शब्द को) इयङ् उवङ् आदेश होते हैं, (अच् परे रहते)। इयडुवस्थानौ - I. iv. 4 इयङ् तथा उवङ् स्थान वाले, (न्याख्य ईकारान्त और उकारान्त) शब्द (नदीसंज्ञक नहीं होतें, स्त्री शब्द को छोड़कर) । इर: - VII. 1. 15 वर्णान्त तथा रेफान्त शब्दों से उत्तर (वेद-विषय में मतुप् को वकारादेश होता है) ... इरम्मद... - III. ii. 37 देखें - उग्रम्पश्येरम्मद० III. ii. 37 इयो: - VI. iv. 76 इरे के स्थान में (वेद विषय में बहुल करके रे आदेश होता है)। इरित: - III. i. 57 'इर्' इत् संज्ञक है जिनका, ऐसी धातुओं से उत्तर (चिल को अङ् विकल्प से होता है, कर्तृवाची परस्मैपद लुङ् परे रहते। ... इरेच् – III. iv. 81 देखें – एशिरेच् III. iv. 81 ... इल... - IV. ii. 79 देखें - वुञ्छण्कठo IV. ii. 79 इलच् - V. ii. 99 (फेन प्रातिपदिक से 'मत्वर्थ' में) इलच् (तथा लच्) प्रत्यय ( विकल्प से होते हैं) । इलच् - Vii. 117 (तुन्दादि प्रातिपदिकों से 'मत्वर्थ' में) इलच् प्रत्यय(तथा इन और ठन् प्रत्यय होते है)। ... इलच. - V. ii. 100 देखें - शनेलच: V. ii. 100 106 इलचौ - V. ii. 105 देखें - लुबिलचौ V. ii. 105 ... इलचौ - देखें - घनिलचौ V. iii. 79 - V. iii. 79 इव - V. 1. 115 (सप्तमीसमर्थ तथा षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिक से) 'समान' अर्थ में (वति प्रत्यय होता है) । ... इव... - VIII. 1. 57 देखें - चनचिदिव० VIII. 1. 57 इवन्त... - VII. ii. 49 देखें - इवन्तर्ध० VII. ii. 49 इवन्तर्धप्रस्जदम्भुश्रिस्वयूर्ण भरज्ञपिसनाम् - VII. ii. 49 इव् अन्त में है जिनके, उनसे तथा ऋधु वृद्धौ, भ्रस्ज पार्क, दम्भे, सेवायाम्, स्व शब्दोपतापयोः, यु मिश्रणे, ऊर्णुञ् आच्छादने, भृञ् भरणे, ज्ञपि, सन् - इन धातुओं से उत्तर (सन् को विकल्प से इट् आगम होता है)। ...इवर्णयोः - -VII. iv. 53 देखें - यीवर्णयो: VII. iv. 53 इषीका. इवात् - V. iii. 70 'इवे प्रतिकृतौ' V. iii. 96 सूत्र से पहले पहले 'क' प्रत्यय अधिकृत होता है)। -- V. iii. 96 (प्रतिमाविषयक) इव के अर्थ में वर्तमान (प्रातिपदिक से कन् प्रत्यय होता है)। इश् - V. iii. 3 (दिक्शब्देभ्यः सप्तमीपञ्चमी Viii. 27 सूत्र तक कहे जाने वाले प्रत्ययों के परे रहते इदम् के स्थान में) इश् आदेश होता है। ... इष... - III. iii. 96 देखें – वृषेषo III. iii. 96 - इष... - VII. ii. 48 देखें - इषसहलुभ० VII. ii. 48 इषसहलुभरुषरिषः - VII. ii. 48 इषु, षह, लुभ, रुष, रिष धातुओं से उत्तर (तकारादि आर्धधातुक को विकल्प से इट् आगम होता है)। ... इषीका... - VI. iii. 64 देखें - इष्टकेषीका० VI. iii. 64 इषु... - VII. iii. 77 देखें - इषुगमियमाम् VII. iii. 77 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इषुगमियमाम् 107 इषुगमियमाम् - VII. iii. 77 इषु, गम्लु तथा यम् अङ्गों को शित् प्रत्यय परे रहते छकारादेश होता है)। ...इषुषु-VI. ii. 107 देखें - उदराश्वेषुषु VI. ii. 107 इष्टका... - VI. iii. 64 देखें - इष्टकेषीकाo VI. iii. 64 इष्टकासु-IV. iv. 165 (उपधान मन्त्र समानाधिकरण प्रथमासमर्थ मतुबन्त प्रातिपदिक से षष्ठयर्थ में यत् प्रत्यय होता है. यदि षष्ठयर्थ में निर्दिष्ट) ईंटें ही हों (तथा मतुप का लुक भी हो जाता है, वेद-विषय में)। इष्टकेषीकामालानाम् - VI. iii. 64 (चित, तूल तथा भारिन् शब्दों के उत्तरपद होने पर यथासंख्य करके) इष्टका. इषीका तथा माला शब्दों को (हस्व हो जाता है)। इष्टादिभ्यः - v. ii. 88 (प्रथमासमर्थ) इष्टादि प्रातिपदिकों से (भी 'इसके द्वारा' अर्थ में इनि प्रत्यय होता है)। इष्ट्वीनम् - VII.i. 48 (वेद विषय में) इष्टवीनम यह क्त्वाप्रत्ययान्त शब्द (भी) निपातन किया जाता है। इष्ठ.. -VI. iv. 154 देखें- इष्ठेमेयस्सु VI. iv. 154 ...इष्ठनौ -v. iii. 55 देखें - तमबिष्ठनौ v. iii. 55 इष्ठस्य-VI. iv. 159 (बहु शब्द से उत्तर) इष्ठन् को (यिट् आगम होता है तथा बहु शब्द को भू आदेश भी होता है)। इष्ठेमेयस्सु-VI. iv. 154 (तृ का लोप होता है); इष्ठन्, इमनिच तथा ईयसन परे रहते। इष्णुच् - III. ii. 136 (अलंपूर्वक कृज, निर् और आङ् पूर्वक कृज, प्रपूर्वक जन,उत्पूर्वक पच, उत्पूर्वक पत.उत्पूर्वक मद,रुचि,अपपूर्वक त्रप, वृतु, वृधु, सह, चर- इन धातुओं से वर्तमान काल में तच्छीलादि कर्ता हो तो) इष्णुच् प्रत्यय होता है। ...इष्णुच्... - VI. ii. 160 देखें-कृत्योकेष्णुच्० VI. ii. 160 ...इष्णुषु - VI. iv.55 देखें- आमन्ता० VI. iv. 55 ...इष्वास... -VI. ii. 38 देखें-वापराहण VI. ii. 38 इस्... - VI. iv.97 देखें- इस्मन्त्रन VI. iv.97 इस्... - VII. iii. 51 देखें-इसुसुक्तान्तात् VII. iii. 51 इस् - VII. iv. 54 (मी, मा तथा घुसज्ञक एवं रभु, डुलभष, शक्ल, पत्लु और पद अङ्गों के अच के स्थान में) इस आदेश होता है। (सकारादि सन् परे रहते)। इस्... - VIII. iii. 44 -इससो: VIII. iii.44 इसुसुक्तान्तात् - VII. ii. 51 इसन्त, उसन्त, उगन्त तथा तकारान्त अङ्ग से उत्तर (ठ के स्थान में क आदेश होता है)। इसुसो: - VIII. iii. 44 इस् तथा. उस् के (विसर्जनीय को विकल्प से षकारादेश होता है; सामर्थ्य होने पर; कवर्ग,पवर्ग परे रहते)। इस्मन्त्रन्क्विषु -VI. iv. 97 इस्, मन्, जन् तथा क्वि प्रत्ययों के परे रहते (भी छादि अङ्ग की उपधा को ह्रस्व होता है)। .ई.. - I. 1. 26 देखें- व्युपधात् I. I. 26 ई... -I. iv.3 देखें - यूI. iv.3 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ई ई - III. 1. 111 (खन् धातु को अन्त्य अल् के स्थान में) ईकार आदेश (और क्यप् प्रत्यय भी होता है) । -VI. iv. 113 (श्नान्त अङ्ग एवं घुसञ्ज्ञक को छोड़कर अभ्यस्तसञ्ज्ञक के आकार के स्थान में) ईकारादेश होता है; (हलादि कित्. ङित् सार्वधातुक परे रहते) । ई. - VII. i. 77 (द्विवचन विभक्ति परे रहते अस्थि, दधि, सक्थि अङ्ग को) ईकारादेश होता है, (और वह उदात्त होता है, वेदविषय में) । - VII. iv. 31 (घ्रा तथा घ्मा अङ्ग को यङ् परे रहते ) ईकारादेश होता है। ई - VII. iv. 97 (गण धातु के अभ्यास को) ईकारादेश (तथा चकार से अकारादेश भी) होता है, (चङ्परक णि परे रहते)। ईकक् - IV. Iv. 59 (प्रथमासमर्थ प्रहरणसमानाधिकरणवाची शक्ति तथा यष्टि प्रातिपदिकों से षष्ठ्यर्थ में ) ईकक् प्रत्यय होता है। ईकक् - V. iii. 110 (कर्क तथा लोहित प्रातिपदिकों से स्वार्थ में) ईकक् प्रत्यय होता है । ईकन् - V. 1. 33 (अध्यर्द्धशब्द पूर्ववाले तथा द्विगुसञ्ज्ञक खारी शब्दान्त प्रातिपदिक से ‘तदर्हति' पर्यन्त कथित अर्थों में) ईकन् प्रत्यय होता है। ...ई.क्ष्योः - I. iv. 39 देखें- राधीक्ष्योः I. iv. 39 ई - VII. iii. 93 (ब्रूज् अङ्ग से उत्तर हलादि पित्- सार्वधातुक को ) ईट् का आगम होता है। ईटि - VIII. ii. 28 (इट् से उत्तर सकार का लोप होता है), ईट् परे रहते । ईड... -VI. i. 208 देखें - ईडवन्द० VI. 1. 208 ईड... -VII. ii. 78 देखें - ईडजनो: VII. ii. 78 108 ईडजनो: - VII. ii. 78 ईड तथा जन् धातु से उत्तर (ध्वे तथा से सार्वधातुक को ईट आगम होता है)। ईडवन्दवृशंसदुहाम् -VI. i. 208 ईड, वन्द, वृ, शंस, दुह् धातुओं का (जो ण्यत्, तदन्त शब्द को आद्युदात्त होता है)। ईत्... - I. 1. 11 देखें - ईदूदेत् I. 1. 11 ईत: ईत्... - I. 1. 18 देखें - ईदूतौ I. 1. 18 ईत् - VI. iii. 26 ( देवतावाची द्वन्द्व समास में सोम तथा वरुण शब्द उत्तरपद रहते अग्नि शब्द को) ईकारादेश होता है। ईत्. -VI. iii. 96 (द्वि, अन्तर् तथा उपसर्ग से उत्तर आप् शब्द को) कारादेश होता है । ईत् - VI. iv. 65 ( आकारान्त अङ्ग को ) ईकारादेश होता है, (यत् प्रत्यय परे रहते) । ईत् - VI. iv. 139 (उत् उपसर्ग से उत्तर भसंज्ञक अशु को ) ईकारादेश होता है। ईत् - VII. 1. 83 (आस् से उत्तर आन को) ईकारादेश होता है। ईत् – VII. iv. 4 (पा पाने' अङ्ग की उपधा का चङ्परक णि परे रहते लोप होता है, तथा अभ्यास को ) ईकारादेश होता है । ईत्- VII. iv. 55 (आप्, ज्ञपि तथा ऋघ् अङ्गों के अच् के स्थान में) ईकारादेश होता है, (सकारादि सन् प्रत्यय परे रहते) । ईत् – VIII. ii. 81 (अकारान्त अदस् शब्द के दकार से उत्तर एकार के स्थान में) ईकारादेश होता है, (एवं दकार को मकार भी होता है; बहुत पदार्थों को कहने में) । ईत: - VI. iii. 39 (स्वाङ्गवाची शब्द से उत्तर भी) जो ईकार, तदन्त (स्त्रीलिङ्गशब्द) को (पुंवद्भाव नहीं होता) । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईति ईति - VI. Iv. 148 (भसञ्ज्ञक इवर्णान्त तथा अवर्णान्त अङ्ग का लोप होता है), ईकार (तथा तद्धित) के परे रहते । ... ईतो. - IV. ii. 123 देखें- रोपधेतोः IV. ii. 123 ईदूदेद् - I. 1. 11 द्विवचन ईकारान्त, उकारान्त तथा एकारान्त शब्द (प्रगृह्यसंज्ञक होते है ) । .... ईन .... देखें - आयनेयी० VI. 1. 2 ... ईदितः - VII. ii. 14 देखें - श्वीदित: VII. ii. 14 ईदूतौ – I. 1. 18 ईकारान्त और ऊकारान्त शब्दरूप (सप्तमी के अर्थ में ईरन्... - V. ii. 111 प्रयुक्त होने पर प्रगृह्यसंज्ञक होते है) । - VII. i. 2 ई... - IV. iv. 28 - IV. iv. 28 देखें - ईफ्लोमकूलम् IV. iv. 28 'ईपलोमकूलम् - (द्वितीयासमर्थ प्रति तथा अनु पूर्ववाले) ईप, लोम और कूल प्रातिपदिक से (वर्तते' अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है) । ईप्सितः - I. iv. 26 (रोकने अर्थवाली धातुओं के प्रयोग में) ईप्सित = इष्ट पदार्थ की (अपादान संज्ञा होती है) । - ईप्सितः - - I. iv. 36 (स्पृह धातु के प्रयोग में) ईप्सित = इष्ट पदार्थ (सम्प्रदानसञ्जक होता है)। ... ई .... देखें - आयनेयी० VII. 1. 2 4... - VII. 1. 2 109 ईयङ् - III. 1. 29 (घृणार्थक सौत्र ऋत् धातु से) ईयङ् प्रत्यय होता है। ईयस - Viv. 156 (बहुव्रीहि समास में) ईयसुन् अन्त वाले शब्दों से (भी कप् प्रत्यय नहीं होता) । ईस्ट - VI. Iv. 160 (ज्य अङ्ग से उत्तर) ईयस् को (आकार आदेश होता है) । ... ईयसुनौ - V. III. 57 देखें - तरबीयसुनौ Viii. 57 ... ईयस्सु. - V. iv. 154 देखें - इष्ठेमेयस्सु V. iv. 154 ... ईरचौ -V. ii. 111 देखें - ईरनीरचौV. ii. 111 देखें - ईरन्नीरचौ Vii. 111 ईरनीरचौ - V. ii. 111 (काण्ड तथा आण्ड प्रातिपदिकों से यथासङ्ख्य करके) ईरन् तथा ईरच् प्रत्यय होते हैं, (मत्वर्थ में) । ... ईर्मा - V. iv. 126 देखें - दक्षिणेर्मा Viv. 126 ईर्मन् = व्रण । ईप्सिततमम् – I. iv. 49 (कर्ता का अपनी क्रिया के द्वारा) जो अत्यन्त चाहा गया, ईशा – II. iii. 52 'वह (कारक कर्म-संज्ञक होता है) । ... ईर्ष्या... - I. iv. 37 देखें - क्रुधदुहेर्ष्यासूयार्थानाम् I. iv. 37 ईवत्याः - VI. 1. 215 ईवती शब्दान्त पद को (सञ्ज्ञाविषय में अन्तोदात्त होता है। ईश्... - VI. iii. 89 देखें - ईश्की VI. iii. 89 ... ईश... - III. 1. 175 देखें - स्वेशभासo III. ii. 175 ईश: - VII. ii. 77 'ईश् ऐश्वर्ये' धातु से उत्तर (से'- इस सार्वधातुक को इट् आगम होता है)। ईश्वर देखें - अधीगर्थदयेशाम् II. iii. 52 ईश्की – VI. lii. 89 - (इदम् तथा किम् शब्दों को यथासङ्ख्य करके) ईश् तथा की आदेश हो जाते है; (दृक्, दृश् तथा वतुप् परे रहते) । ... ईश्वर... - II. iii. 39 देखें - स्वामीश्वराधिपति० II. iii. 39 ... ईश्वर... - VII. iii. 30 देखें - शुचीश्वर VII. iii. 30 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरः 110 ईश्वरः -v.i.41 ईषत् - II. ii.7 (षष्ठीसमर्थ सर्वभूमि तथा पृथिवी प्रातिपदिकों से) अल्पार्थक 'ईषत्' शब्द (अकृदन्त सुबन्त के साथ समास 'स्वामी' अर्थ में (यथासङ्घय करके अण् तथा अञ् प्रत्यय को प्राप्त होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है)। होते है)। ईषत्... - III. iii. 126 ईश्वरक्चनम् - II. iii.9 देखें - ईषदुःसुषु III. iii. 126 (जिससे अधिक हो और जिसका) ईश्वरवचन ईषदर्थे -VI. iii. 104 . = सामर्थ्य हो, (उसमें कर्मप्रवचनीय के योग में सप्तमी ईषत् = थोड़ा' के अर्थ में वर्तमान (कु शब्द को उत्तरपद . विभक्ति होती है)। परे रहते का आदेश हो जाता है)। ईश्वरे - I. iv. 96 ईषदसमाप्तौ-v.iii.67 ईश्वर= स्वस्वामिसम्बन्ध अर्थ में (अधि शब्द की कर्म- ___'किश्चित् न्यून' अर्थ में वर्तमान (प्रातिपदिक से कल्पप, प्रवचनीय और निपात संज्ञा होती है)। देश्य तथा देशीयर् प्रत्यय होते हैं। ईश्वरे - III. iv. 13 ईषःसुषु - III. ii. 126 ईश्वर शब्द के उपपद रहते (तमर्थ में धात से तोसन (कृच्छ्र अर्थ वाले तथा अकृच्छ अर्थ वाले) ईषद. दुस' ' कसुन् प्रत्यय होते हैं, वेद-विषय में)। तथा सु उपपद हों तो (धातु से खल् प्रत्यय होता है)। ईषत् - VI. ii. 54 . ई३ - VI.i. 128 ____प्लुत 'ई३' (अच् परे रहते चाक्रवर्मण आचार्य के मत पूर्वपद ईषत् शब्द को विकल्प से प्रकृतिस्वर होता है)। में अप्लुत के समान हो जाता है)। उ उ प्रत्याहारसूत्र -1 3-I.ii. 12 - आचार्य पाणिनि द्वारा अपने प्रथम प्रत्याहार सूत्र ऋवणान्त धातु स पर (भा झलााद वर्णान्त धातु से परे (भी झलादि लिङ् 3 में पठित तृतीय वर्ण,जो अपने सम्पूर्ण अठारह भेदों का आत्मनेपद विषय में कित्वत् होते है)। ग्राहक होता है। 3-III. 1.79 -पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्ण __(तनादि गण की धातुओं और डुकृञ् धातु से उत्तर माला का तीसरा वर्ण। कर्तृवाची सार्वधातुक परे रहने पर) उ प्रत्यय होता है। उ... -I.ii. 27 -III. ii..168 (सन्नन्त धातुओं से तथा आङ् पूर्वक शसि एवं भिक्ष देखें -अकाल: I. ii. 27 धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हों तो वर्तमान काल में) उ ....... -II. iii. 69 प्रत्यय होता है। देखें - लोकाव्ययनिष्ठा० II. iii. 69 3 -III. iv.86 . उ.-v.i.3 (लोट् लकार के जो तिप् आदि आदेश,उनके इकार को) देखें-उगवादिभ्यः V.i.3 उकार आदेश होता है। उ-VIII. ii. 80 3 -VII. iv.7 (असकारान्त अदस् शब्द के दकार से उत्तर जो वर्ण, (चडूपरक णि परे रहते अङ्गकी उपधा) ऋवर्ण के स्थान उसके स्थान में) उवर्ण आदेश होता है, (तथा दकार को में विकल्प से ऋकारादेश होता है)। मकारादेश भी होता है)। 3-VII. iv.66 3-I.1.50 ऋवर्णान्त (अभ्यास) को (अकारादेश होता है)। ऋवर्ण के स्थान में (अण = अ.इ.उ में से कोई वर्ण यदि ...उक्... - VII. iii. 51 प्राप्त हो तो वह होते ही रपर हो जाता है)। देखें-इसुसुक्तान्तात् VII. iii. 51 . Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 111 उज्छादीनाम् उगिदचाम् - VII.1.70 उक् इत्सझक है जिनका, ऐसे (धातु वर्जित) अङ्गको तथा अञ्जु धातु को (सर्वनामस्थान परे रहते नुम् आगम होता है)। अम्पश्य.. - III. ii. 37 देखें-अम्पश्येरम्मद III. II. 37 उपम्पश्येरम्मदपाणिन्धमा - III. ii. 37 उग्रम्पश्य,इरम्मद तथा पाणिन्धम-ये शब्द (भी) खश प्रत्ययान्त निपातन किये जाते है। उच - VII. ii.64 'उच समवाये' धातु से (क प्रत्यय परे रहते ओक शब्द .... - II. II. 69 देखें-लोकाव्ययनिष्ठा II. 1.69 ....उक...-VI. 1. 160 देखें-कत्योकेष्णुच्छ VI. II. 160 ...उक: -VII. I. 11 देखें-शुक: VII. ii. 11 • उक -III. 1. 154 (लष,पत,पद,स्था,भवृष,हन,कम.गम-इन धातओं से तच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमान काल में) उका प्रत्यय होता है। उक -V.i. 101 (चतुर्थीसमर्थ कर्मन् प्रातिपदिक से 'शक्त है' अर्थ में) उकञ् प्रत्यय होता है। ...उक्च शस्... -III. Ii. 71 देखें-श्वेतवहोक्थशस् III. 1.71 ...उक्चादि.. -IV. 1.59 देखें-क्रतक्थादिO IV.ii. 59 ....उ. -IV. 1. 38 देखें - गोत्रोझोष्ट्रो० V.ii. 38 ....उक्षा... -v.ii.91 देखें - वत्सोक्षा० v. iii. 91 ...उखात् -IV.ii. 17 देखें-शूलोखात् IV.ii. 17 ...उखात् - IV. iii. 102 देखें - तित्तिरिवरतन्तु० IV. il. 102 उगवादिभ्यः -V.1.2 उवर्णान्त और गवादि गण में पठित प्रातिपदिकों से (क्रीत अर्थ से पहले कथित अर्थों में यत् प्रत्यय होता है)। उगित्... -VII. .70 देखें-उगिदचाम् VII. I. 70 उगितः-IV.i.6 उक्=उ,ऋ,लु इत् वाले प्रातिपदिक से (भी स्त्रीलिंग में डीप प्रत्यय होता है)। उगितः - VI. iii.44 उगित शब्द से परे (जो नदी.तदन्त शब्द को विकल्प करके हस्व होता है; घ, रूप,कल्प, चेलट्, ब्रुव, गोत्र, मत तथा हत शब्दों के परे रहते)। उच्चैः-I.11.29 ऊर्ध्व भाग से उच्चरित (अच् की उदात्त संज्ञा होती है)। उच्चस्तराम् -1.1.35 (यज्ञकर्म में वषट्कार अर्थात् वौषट् शब्द विकल्प से) उदात्ततर होता है, (पक्ष में एकश्रुति हो जाती है)। ...उच्छिष्य.. - III.i. 123 देखें-निष्टक्यदेवहूयो०.i. 123 उज्ज्वलिति - VII. ii. 34 उज्ज्वलिति शब्द (वेद विषय में) इडभाव युक्त निपातित है। उषः-I.1.17 उञ्=उ शब्द की (प्रगृह्यसज्जा होती है, अवैदिक इति के परे रहते)। उषः -VIII. 1. 33 , (मय प्रत्याहार से उत्तर) उञ् को (अच् परे रहते विकल्प करके वकारादेश होता है)। 3f VIII. iii. 21 (अवर्ण पूर्ववाले पदान्त य.व् का) उबू (पद) के परे रहते (भी लोप होता है)। ना उच्छति -IV. iv. 32 (द्वितीयासमर्थ प्रातिपदिक से) चुनता है' अर्थ में (ठक प्रत्यय होता है)। उच्छादीनाम् -VI. 1. 157 उञ्छादि शब्दों को (भी अन्तोदात्त हो जाता है)। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उणादयः - 112 उत्करादिण्य . उणादयः-III. 1.1 i.उण् आदि प्रत्यय । पाया . ii. उणादि नाम से पाणिनिरचित अष्टाध्यायी का परि- शिष्ट। (धातुओं से) उण आदि प्रत्यय (वर्तमान काल में बहुल करके होते है)। उणादयः -III. iv.75 उणादि प्रत्यय (सम्प्रदान तथा अपादान कारकों से अन्यत्र अर्थात् कर्मादि कारकों में भी होते है)। उत्... -I. 1. 27 देखें-उद्विभ्याम् I. iii. 27 ... ...उत्... -I. iii. 75 देखें-समुदाय I. iii.75 . उत्... -III. iii. 29 देखें - उन्योः III. 1. 29 उत्-IV.i. 115 (संख्या, सम् तथा भद्र पूर्व वाले मातृ शब्द से अपत्य अर्थ में अण् प्रत्यय होता है साथ ही मातृ शब्द को) उकार अन्तादेश (भी) हो जाता है। उत्.. - V.iv. 135 देखें - उत्पूति० V. iv. 135 उत्..-V.iv. 148 देखें-उद्विभ्याम् V. iv. 148 उत् -VI. 1. 107 (ऋकार से उत्तर ङसि तथा डस् का अकार हो तो पूर्व पर के स्थान में) उकार एकादेश होता है,(संहिता के विषय में)। उत् - VI. iv. 110 (उकार प्रत्ययान्त कृ अङ्ग के अकार के स्थान में) उका- रादेश हो जाता है; कित्,डित् सार्वधातुक परे रहते)। उत् - VI.i. 127 (दिव् पद को) उकारादेश होता है। उत् -VII. I. 102 (ओष्ठ्य वर्ण पूर्व है जिस ऋकार से, तदन्त घातु को) उकारादेश होता है। उत्-VII. iv.88 (चर तथा त्रिफला धातुओं के अभ्यास से परे अकार के स्थान में) उकारादेश होता है, (यङ् तथा यङ्लक परे रहते)। उत... -III. iii. 141 देखें-उताप्योः III. iii.141 . . . . उत..-III. 1. 152 देखें-उताप्योः III. 1. 152.. .. उतः - IV.I. 44 उकारान्त (गुणवचन) प्रातिपदिक से (स्त्रीलिंग में विकल्प से डीप् प्रत्यय होता है)। उतः - IV.1.66 उकारान्त (मनुष्य जातिवाची) प्रातिपदिकों से (स्त्रीलिङ्ग में ऊङ् प्रत्यय होता है)। उतः -VI. iv. 106 (असंयोग पूर्व वाले) उकारान्त (प्रत्यय) अङ्ग से उत्तर (हि का लुक होता है)। उत -VII. iii. 89 (हलादि पित् सार्वधातुक परे रहते लुक् हो जाने पर) उकारान्त अङ्ग को (वृद्धि होती है)। उताप्यो: -III. iii. 141 'उताप्योः समर्थयोलिङ् III. iii. 152 से (पहले पहले जितने सूत्र हैं, उनमें लिङ्का निमित्त होने पर क्रिया की अतिपत्ति में विकल्प से लुङ् प्रत्यय होता है,भूतकाल में)। उताप्योः - III. iii. 152 . (समानार्थक) उत तथा अपि उपपद हों तो (धातु से लिङ् प्रत्यय होता है)। उताहो-VIII. I. 49 . (अविद्यमान पूर्ववाले आहो तथा)उताहो से युक्त (व्यवधानरहित तिङन्त को भी अनुदात्त नहीं होता है)। ...उतौ-VIII. ii. 106 देखें - इदतौ VIII. I. 106 ...उतौ-VIII. ii. 107 देखें - इदुतौ VIII. ii. 107 उत्क: -V.ii. 80 उत्क शब्द उत् पूर्वक कन् प्रत्ययान्त निपातन किया जाता है.(उदास मन वाला' अर्थ में)। उत्करादिभ्यः - IV. ii. 89 उत्करादि प्रातिपदिकों से (चातुरर्थिक छ प्रत्यय होता है। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... अत्कृष्ट ... उत्कृष्ट - II. 1. 60 देखें - सन्महत्परमोत्तo II. 1. 60 ... उत्तचित... - VII. II. 34 देखें - प्रसितस्कभित० VII. ii. 34 ... उत्तम... - II. 1. 60 देखें - सन्महत्परमो० II. 1. 60 उत्तम..... V. iv. 90 देखें - उत्तमैकाभ्याम् Viv. 90 उत्तम: (परिहास गम्यमान हो रहा हो तो भी मन्य है उपपद जिसका, ऐसी धातु से युष्मद् उपपद रहते समान अभिधेय होने पर युष्मद् शब्द का प्रयोग हो या न हो, तो भी मध्यम पुरुष हो जाता है तथा उस मन् धातु से) उत्तम पुरुष हो जाता है, और उत्तम पुरुष को एकत्व हो जाता है)। उत्तम: I. iv. 106 (अस्मद् शब्द उपपद रहते समान अभिधेय हो, तो अस्मत शब्द प्रयुक्त हो या न हो, तो भी) उत्तम पुरुष हो जाता है। उत्तम: VI. 1. 91 उत्तम पुरुष-सम्बन्धी (ल् प्रत्यय विकल्प से णित्वत् होता है)। - - I. iv. 105 — - ... उत्तमपूर्वात् - IV. 1.5 देखें - परावराधमो० IV. III. 5 उत्तमर्णः I. iv. 35 (णिजन्तत्र धातु के प्रयोग में) जो उत्तमर्ण ऋण देने वाला, वह (कारक सम्प्रदानसंज्ञक होता है)। उत्तमस्य III. iv. 92 · (लोट् सम्बन्धी) उत्तम पुरुष को (आट् का आगम हो जाता है, और वह उत्तम पुरुष पित् भी माना जाता है)। - उत्तमस्य III. iv. 98 (लोट् सम्बन्धी) उत्तम पुरुष के (सकार का लोप विकल्प से हो जाता है। - ... उत्तमाः I. iv. 100 देखें - प्रथममध्यमोत्तमाः I. Iv. 100 113 उत्तमैकाभ्याम् – V. iv. 90 "उत्तम और एक शब्दों से परे (भी तत्पुरुष समास में अहन् शब्द को अह्न आदेश नहीं होता) । ... उत्तर... - I. 1. 33 देखें पूर्वपरावरदक्षिणोत्तरापराधराणि I. 1. 33 - उत्तर... - V. iii. 34 देखें - उत्तराधरo Viii. 34 उत्तर... V. iv. 98 देखें उत्तरमृगपूर्वात् V. Iv. 98 उत्तरपचेन - V. 1. 76 - तृतीयासमर्थ उत्तरपथ प्रातिपदिक से (लाया हुआ' अर्थ में तथा 'जाता है' अर्थ में यथाविहित ठञ् प्रत्यय होता है)। ... उत्तरपद... - II. 1. 50 देखें - तद्धितार्थोत्तरपद० II. 1. 50 उत्तरपदे उत्तरपदभूग्नि - VI. ii. 175 उत्तरपदार्थ के बहुत्व को कहने में वर्तमान (बहुशब्द से नम् के समान स्वर होता है)। ... उत्तरपदयोः - VII. ii. 98 देखें – प्रत्ययोत्तरपदयोः VII. ii. 98 उत्तरपदलोपः - V. iii. 82 - (अजिन शब्द अन्त वाले मनुष्य नामधेय प्रातिपदिक से 'अनुकम्पा' गम्यमान होने पर कन् प्रत्यय होता है, और उस अजिनान्त शब्द के) उत्तरपद का लोप (भी) हो जाता है। उत्तरपदवृद्ध - VI. II. 105 'उत्तरपदस्य' VII. iii. 10 के अधिकार में कहे गये सूत्रों के द्वारा जो वृद्धि सम्पादित, उस वृद्धि किये हुये शब्द के परे रहते (सर्वशब्द तथा दिक्शब्द पूर्वपद को अन्तोदात्त होता है)। - उत्तरपदस्य - VII. iii. 10 'उत्तरपदस्य' यह अधिकार सूत्र है; 'हनस्तोऽचिण्णलो ' VII. ii. 32 से पूर्व तक जायेगा । उत्तरपदात् - VI. 1. 163 (अनित्य समास में अन्तोदात्त एकाच्) उत्तरपद से आगे (तृतीयादि विभक्ति विकल्प से उदात्त होती है)। उत्तरपदादि - VI. II. 111 यह अधिकार सूत्र है। यह जहाँ तक जायेगा वहाँ तक उत्तरपद के आदि को उदात्त होता जायेगा। उत्तरपदे - VI. ii. 142 (देवतावाची द्वन्द्व समास में अनुदात्तादि) उत्तरपद रहते (पृथिवी, रुद्र, पूषन्, मन्थी को छोड़कर एक साथ पूर्व तथा उत्तरपद को प्रकृति स्वर नहीं होता) । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरपदे 114 उत्तरपदे - VI. iil.1 ....उत्पच... - III. ii. 136 (अलुक्' तथा) 'उत्तरपदे'- पद का अधिकार आगे के देखें - अलंकृञ् III. I. 136 ... .. सूत्रों में जाता है, अतः यह अधिकार सूत्र है। ...उत्पत... - III. ii. 136 ...उत्तरम् -II. 1.1 देखें- अलंकृञ् III. ii. 136 देखें-पूर्वापराघरोत्तरम् II. ii. 1 ...उत्पत्तिषु-III. iii. 111 उत्तरम् - VII. iii. 25 देखें- पर्यायाहोत्पत्तिषु III. iii. 111 (जङ्गल, धेनु तथा वलज अन्तवाले अङ्ग के पूर्वपद के ...उत्पातौ -v.i.37 अचों में आदि अच् को वृद्धि होती है तथा इन अङ्गों का) देखें - संयोगोत्पातौ v.i.37 । उत्तरपद (विकल्प से वृद्धिवाला होता है; जित,णित, कित् उत्पुच्छे -VI. ii. 196 . तद्धित परे रहते)। (तत्पुरुष समास में) उत्पुच्छ शब्द को (विकल्प से ...उत्तरम् - VIII. 1. 48 अन्तोदात्त होता है)। देखें -चिदुत्तरम् VIII. 1.48 उत्तरमृगपूर्वात् - V. iv.98 उत्पूतिसुसुरभिभ्यः - V. iv. 135 उत्तर, मृग और पूर्व (तथा उपमानवाची शब्दों) से उत्तर उत्,पूति,सु तथा सुरभि शब्दों से उत्तर (गन्ध शब्द को (भी जो सक्थि शब्द, तदन्त तत्पुरुष से समासान्त टच बहव्रीहि समास में समासान्त इकारादेश होता है)। ... प्रत्यय होता है)। उत्वद्... -IV. iii. 148 - उत्तरस्य -I.1.66 ... देखें- उत्वद्वद्धo IV. iii. 148 (पञ्चमी विभक्ति से निर्दिष्ट होने पर) उत्तर को कार्य उत्वद्वर्धबिल्वात् - IV. iii. 148 होता है। उकारवान् व्यच षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिक. वर्ध तथा उत्तरस्य-VIII. 1. 107 बिल्व शब्दों से (वेद-विषय में मयट प्रत्यय नहीं होता)। (दूर से बुलाने के विषय से भिन्न विषय में अप्रगृह्य उत्सङ्गादिभ्यः - IV. iv. 15 सजक एच के पूर्वार्द्ध भाग को प्लुत करने के प्रसङ्ग में आकारादेश होता है तथा उत्तरवाले भाग को (इकार,उकार (तृतीयासमर्थ) उत्सङ्गादि प्रातिपदिकों से (हरति आदेश होते है)। = स्थानान्तर प्राप्त करता है अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है)। उत्तरात् - V.ii. 38 उत्सङ्ग = गोद । (दिशा,देश तथा काल अर्थों में वर्तमान पञ्चम्यन्तवर्जित ...उत्सञ्जन... -I. iii. 36 सप्तमी, प्रथमान्त दिशावाची) उत्तर शब्द से (भी आच् देखें-सम्माननोत्सञ्जना० I. iii. 36 और आहि प्रत्यय होते हैं,दूरी वाच्य हो तो)। उत्सादिभ्यः -IV.i.86 उत्तराधरदक्षिणात् - V. iii. 34 उत्सादि (समर्थ प्रातिपदिकों से (प्राग्दीव्यतीय अर्थों में दिशा. देश तथा काल अर्थों में वर्तमान सप्तम्यन्त, अब प्रत्यय होता है)। पञ्चम्यन्त तथा प्रथमान्त दिशावाची) उत्तर, अधर और . उत्स= झरना, फव्वारा, स्रोत। .. दक्षिण प्रातिपदिकों से (आति प्रत्यय होता है)। ...उत्सुक... - VI. iii. 98 ...उत्तराभ्याम् - V. iii. 28 देखें-आशीराशा. VI. iii. 98 देखें - दक्षिणोत्तराभ्याम् V. ii. 28 ...उत्सुकाभ्याम् -II. iii. 44 ...उत्तरेद्युः - v. iii. 22 देखें-प्रसितोत्सुकाभ्याम् II. iii. 44 देखें- सद्य:परुत्० . ii. 22 उदः -I. iii. 24 उत्तरेषु-VIII. 1. 11 (यहाँ से) आगे द्विर्वचन करने में कर्मधारय समास के उत् उपसर्गपूर्वक (स्था' धातु से आत्मनेपद होता है. समान कार्य होते हैं,ऐसा जानना चाहिये)। अनूर्ध्वकर्म अर्थात् ऊपर उठने अर्थ में वर्तमान न हो तो)। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 115 उदात्तः उद-I.ii. 53 ...उदन्य.. -VII. iv.34 उत् उपसर्ग से उत्तर (सकर्मक चर् धातु से आत्मनेपद देखें- अशनायोदन्यः VII. iv. 34 होता है)। उदन्वान् - VIII. ii. 13 उदन्वान शब्द (उदधि तथा संज्ञा विषय में निपातन है)। ...उदः-V. 1.29 देखें-सम्प्रोद: V... 29 ...उदर... -IV..55 उदः-VI. iii. 56 देखें-नासिकोदरौष्ठ 1.1.55 (उदक शब्द को) उद आदेश होता है; (सज्ञा विषय में, उदर... - VI. ii. 107 उत्तरपद परे रहते)। देखें - उदराश्वेषुषु VI. ii. 107 उदः-VI. iv. 139 ...उदरयोः -III. iv.31 उत् उपसर्ग से उत्तर(भसजक अञ्जको ईकारादेश होता देखें - चर्मोदरयोः III. iv. 31 उदरात् -V.ii.67 (सप्तमीसमर्थ) उदर प्रातिपदिक से (पेटू' वाच्य हो तो ...उद -VIII. 1.6 'तत्पर' अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है)। देखें -प्रसमुपोदः VIII. 1.6 उदराश्वेषुषु-VI. ii. 107 उदः -VIII. iv.60 . __उदर,अश्व,इषु - इनके उत्तरपद रहते (बहुव्रीहि समास उत् उपसर्ग से उत्तर (स्था तथा स्तम्भ को पूर्वसवर्ण में सज्ञाविषय में पूर्वपद को अन्तोदात्त होता है)। • आदेश होता है)। उदरे - VI. iii. 87 उदक-IV. 1.73 उदर शब्द उत्तरपद रहते (य प्रत्यय परे हो तो समान शब्द . (विपाट् नदी के) उत्तरदेश में (जो कुएँ है,उनके अभिधेय भिधय को विकल्प करके स आदेश हो जाता है)। होने पर भी अञ् प्रत्यय होता है)। ....उदर्केषु -VI. iii. 83 उदकस्य -VI. iii. 56 देखें - अमूर्धप्रभृत्यु० VI. iii. 83 उदक शब्द को (उद आदेश होता है; सज्ञाविषय में. . ॥ है; सज्ञाविषय म, उदश्वितः -IV. 1. 18 उत्तरपद परे रहते)। (सप्तमीसमर्थ) उदश्वित् प्रातिपदिक से (संस्कृतं भक्षा' उदके - VI. ii. 96 अर्थ में विकल्प से ठक् प्रत्यय होता है)। 'मिश्रित अर्थ के बोधक समास में) उदक शब्द उपपद उदात्त... -I. ii. 40 रहते (पूर्वपद को अन्तोदात्त होता है)। देखें-उदात्तस्वरितपरस्य I. ii. 40 उनुः -III. iii. 123 उदात्त... - VIII. ii. 4 (उदक विषय न हो तो पुंल्लिग में) उत् पूर्वक अञ्च धातु देखें- उदात्तस्वरितयो: VIII. 1.4 से घञ् प्रत्ययान्त उद्ङ्क शब्द निपातन किया जाता है, उदात्त... - VIII. iv.66 (अधिकरण कारक में,संज्ञा विषय होने पर)। देखें - उदात्तस्वरितोदय VIII. iv. 66 ...उदच्.. - IV. ii. 100 उदात्तः -I. ii. 29 देखें-धुप्रागपागु० IV. ii. 100 (ऊर्ध्व भाग से उच्चरित अच की) उदात्त संज्ञा होती है। उदधौ-VIII. ii. 13 उदात्त -I. ii. 37 (सुब्रह्मण्य नाम वाले निगद में एकश्रुति नहीं हो, किन्तु (उदन्वान् शब्द) उदधि (तथा सञ्जा) के विषय में उस निगद में जो स्वरित,उसको) उदात्त (तो) हो जाता है। (निपातन है)। उदात्त: -III. iii.96 उदन् -VI.i. 61 (मन्त्रविषय में वृष, इष,पच,मन, विद,भू, वी तथा रा (वेद-विषय में उदक शब्द के स्थान में) उदन् आदेश हो धातुओं से स्त्रीलिङ्गभाव में क्तिन् प्रत्यय होता है,और) वह जाता है,(शस् प्रकार वाले प्रत्ययों के परे रहते)। उदात्त होता है। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदात उदात - III. Iv. 103 (परस्मैपद-विषयक लिङ् लकार को यासुट् का आगम होता है और वह उदात्त (और ङिद्वत् भी) होता है। उदात - IV. 1. 37 (वृषाकपि, अग्नि, कुसित, कुसीद - इन अनुपसर्जन प्रातिपदिकों को स्त्रीलिङ्ग में) उदात्त (ऐकारादेश हो जाता है तथा ङीप् प्रत्यय होता है)। उदास - V. 1. 44 (प्रथमासमर्थ उभ प्रातिपदिक से उत्तर षष्ठ्यर्थ में नित्य ही तयप के स्थान में अयच् आदेश होता है और वह अयच् आदि) उदात्त होता है। उदात्तः - VI. 1. 153 (कृष विलेखने' धातु तथा आकारावान् घञन्त शब्द के अन्त को) उदास होता है। 116 उदात्त - VI. 11. 64 (यहाँ से आगे जो कुछ कहेंगे, उसके आदि को उदात्त होता है (यह अधिकार है)। उदाक्तः - VI. 1. 71 (लुङ लङ् तथा लृङ् के परे रहते अङ्ग को अट् का आगम होता है, और वह अटू) उदात्त (भी) होता है। उदात्त - IV. Iv. 108 (सप्तमीसमर्थ समानोदर प्रातिपदिक से 'शयन किया हुआ' अर्थ में यत् प्रत्यय होता है, तथा समानोदर शब्द के ओंकार को) उदात्त होता है। · उदात्तः - VII. 1. 75 (नपुंसकलिंग वाले अस्थि, दधि, सक्थि, अक्षि- इन अङ्ग को तृतीयादि अजादि विभक्तियों के परे रहते अनङ् 'आदेश होता है और वह) उदात्त होता है। उदात - VII. 1. 98 (चतुर तथा अनडुह अनों को सर्वनामस्थान विभक्ति परे रहते आम् आगम होता है और वह) उदात्त होता है। उदात्तः - VIII. 11. 5. (उदात्त के साथ जो अनुदात्त का एकादेश वह) उदात्त होता है। उदात्तः - VIII. 1. 82 (यह अधिकार सूत्र है, पाद की समाप्तिपर्यन्त सर्वत्र वाक्य के टि भाग को प्लुत) उदात्त होता है, (ऐसा अर्थ होता जायेगा । उदि उदात्तम् - I. 1. 32 (उस स्वरित गुण वाले अच् के आदि की आधी मात्रा) उदात्त (और शेष अनुदात्त होती है। उदात्तयणः - VI. 1. 168 (हल् पूर्व में है जिसके ऐसा) जो उदात्त के स्थान में यण, उससे परे (नदीसञ्ज्ञक प्रत्यय तथा अजादि सर्वनामस्थानभिन्न विभक्ति को उदात्त होता है)। उदात्तलोपः - VI. 1. 155 (जिस अनुदात्त के परे रहते) उदात्त का लोप होता है, ( उस अनुदात्त को भी आदि उदात्त हो जाता है)। उदात्तवति - VIII. 1. 71 उदात्तवान् (तिङन्त) के परे रहते (भी गतिसञ्ज्ञक को अनुदात्त होता है)। उदात्तस्वरितपरस्य - I. ii. 40 उदात्तपरक तथा स्वरितपरक (अनुदात्त) को (सन्नतर अर्थात् अनुदात्ततर आदेश हो जाता है)। उदात्तस्वरितयोः - VIII. 1. 4 उदात्त तथा स्वरित के स्थान में वर्तमान (यण् से उत्तर अनुदात्त के स्थान में स्वरित आदेश होता है)। उदात्तस्वरितोदयम् - VIII. iv. 66 उदात्त उदय = परे है जिससे, एवं स्वरित उदय परे है जिससे ऐसे (अनुदात्त) को (स्वरित आदेश नहीं हो; गार्ग्य, काश्यप तथा गालव आचार्यों के मत को छोड़कर) । उदात्तात् - VIII. iv. 65 उदात्त से उत्तर (अनुदात्त को स्वरित आदेश होता है)। - VIII. 11. 5 उदात्तेन उदात्त के साथ (जो अनुदात्त का एकादेश, वह उदात्त होता है)। उदात्तोपदेशस्य - VII. iii. 34 उपदेश में उदात्त (तथा मकारान्त) धातु को (चिण् तथा जित् णित् कृत् परे रहते वृद्धि नहीं हो, आङ्पूर्वक चम् धातु को छोड़कर) । 3f-III. ii. 31 'उत् पूर्वक (रुज्' और 'वह' धातुओं से 'कूल' कर्म उपपद रहने पर 'ख' प्रत्यय होता है) 3f-III. in. 35 . उत् पूर्वक (मह् धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में व् प्रत्यय होता है)। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 117 उद्विभ्याम् उदि -III. iii. 49 ...उदेजि-III. 1. 138 उत् पूर्वक (श्रि,यु.पू तथा द्रु धातुओं से कर्तृभिन्न कारक देखें - लिम्पविन्द III. 1. 138 संज्ञा तथा भाव में घन प्रत्यय होता है)। ...उदोः -III. iii. 26 ...उदित् -I. 1. 68 देखें-अवोदोः III. iii. 26 देखें - अणुदित् I. 1. 68 ....उदो: -III. iii.69 उदितः -VII. 1.56 देखें-समुदोः III. iil.69 उकार इत्सज्जक धातुओं से उत्तर (क्त्वा प्रत्यय को उद्गमने -I. iii. 40 विकल्प से इट् आगम होता है)। उद्मन = उदय होना अर्थ में (आपूर्वक क्रम धातु से उदीचाम् -III. iv. 19 आत्मनेपद होता है)। (व्यतीहार अर्थ वाली मेङ् धातु से) उदीच्य आचार्यों के .....उन्मात्रादिभ्यः -V.I. 128 मत में (क्त्वा प्रत्यय होता है)। . देखें-प्राणभृज्जातिवयोov.i. 128 उदीचाम् -IV.i. 130 उद्घन: -III. iii. 80 उत्तरदेश निवासी आचार्यों के मत में (गोधा प्रातिपदिक उद्घन शब्द में उत् पूर्वक हन् धातु से अप प्रत्यय तथा हन् को घनादेश निपातन किया जाता है, (अत्याधान से आरक् प्रत्यय होता है)। अर्थात् काष्ठ के नीचे रखा हुआ काष्ठ वाच्य हो तो, उदीचाम् - V.i. 152 कर्तृभिन्न कारक संज्ञाविषय में)। उदीच्य आचार्यों के मत में (सेनान्त प्रातिपदिकों,लक्षण..उद्घौ - III. 1. 86 शब्द तथा शिल्पीवाची प्रातिपदिकों से अपत्य अर्थ में इञ् देखें - संघोद्घौ III. iii. 86 प्रत्यय होता है)। उद्धृतम् - IV.ii. 13 उदीचाम् -IV.i. 157 सप्तमीसमर्थ पात्रवाची प्रातिपदिकों से भोजन के (गोत्र से भिन्न जो वृद्धसंज्ञक प्रातिपदिक,उससे) उदीच्य पश्चात् अवशिष्ट अर्थ में (यथाविहित अण् प्रत्यय होता आचार्यों के मत में (फिञ् प्रत्यय होता है)। उदीचाम् -VII. iii: 46 ...उद्ध्यो -III. 1. 114 उदीच्य आचार्यों के मत में (यकारपूर्व एवं ककारपूर्वदेखें-भिद्योद्ध्यौ III. 1. 114 आकार के स्थान में जो अकार,उसके स्थान में इकारादेश ..उद्भ्याम् -VII. ill. 117 नहीं होता)। देखें- इदुद्भ्याम् VII. ifi. 117 उदीचाम् - VI. iii. 31 ....उद्याव.. - IIL iii. 122 उदीच्य आचार्यों के मत में (मातरपितरौ शब्द निपातन देखें - अध्यायन्याय III. iii. 122 किया जाता है)। उद्वमने -III.1.16 उदीच्यग्रामात् - IV. 1. 108 उद्वमन अर्थ में (वाष्प और ऊष्म कर्म से क्यङ् प्रत्यय उत्तर दिशा में होने वाले ग्रामवाची (अन्तोदात्त बहद अच् वाले) प्रातिपदिकों से (भी अञ् प्रत्यय होता है)। उद्वमन = उगलना। .....उदुपयस्य - VIII. iii. 41 उद्विभ्याम् -1.11.27 देखें-इदुदुपधस्य VIII. iii. 41 उत् तथा वि उपसर्ग से उत्तर (अकर्मक तप् धातु से उदुपधात् - I. ii. 21 - आत्मनेपद होता है)। , उकार उपधा वाली धातु से परे (भाववाच्य तथा आदि उद्विभ्याम् -v.iv. 148 कर्म में वर्तमान सेट् निष्ठा प्रत्यय विकल्प करके कित् नहीं उत तथा वि से उत्तर (काकुद शब्द का समासान्त लोप होता है) होता है, बहुव्रीहि समास में)। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..उन्द... ... उन्द... - VIII. 1. 56 देखें- नुदविदोन्द० VIII. II. 56 उन्नतः - V. 1. 106 उन्नत समानाधिकरण वाले (दन्त प्रातिपदिक से उरच् प्रत्यय होता है, 'मत्वर्थ' में)। उन्नत = ऊपर की ओर निकला हुआ। उनी... - III. 1. 123 उन्नीय... देखें - निष्टक्यदेवहूक III. 1. 123 उन्योः III. iii. 29 उद् तथा नि उपपद रहने पर (गृ' धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है) । - ... उन्मद... III. ii. 136 देखें - अलंकृ० III. 1. 136 उन्मनाः - V. II. 80 (उत्क शब्द उत्पूर्वक कन् प्रत्ययान्त निपातन किया जाता है), 'उदास मन वाला' अभिधेय हो तो। ...उप... - I. ill. 30 देखें - निसमुपविष्य 1. III. 30 उप... - I. 1. 39 देखें - उपपराभ्याम् I. III. 39 उप... - I. Iv. 48 देखें - उपान्यध्याय 1. Iv. 48 ... उप... - III. lit. 63 देखें समुप० III. III. 63 - ... उप... - III. iii. 72 देखें - न्यभ्युपविषु III. 1. 72 उप... III. iv. 49 देखे - उपपीडरुयकर्ष: III. Iv. 49 118 उप... - V. II. 34 देखें - उपाधिभ्याम् V. 1. 34 ... उप... - VI. II. 33 देखें- परिप्रत्युपाप VI. II. 33 ... उप... - VIII. 1. 6 देखें प्रसमुपोद VIII. 1. 6 उप - 1. iv. 86 उप शब्द (अधिक तथा हीन अर्थ में कर्मप्रवचनीय और निपातसंज्ञक होता है)। 1 ... . उपकर्ण... - IV. III. 40 देखें उपजानूपकर्णo IV. II. 40 उपकादिभ्यः - II. iv. 69 उपक आदियों से उत्तर (द्वन्द्व और अद्वन्द्व दोनों में गोत्र प्रत्यय का विकल्प से लुक होता है; बहुत्व की विवक्षा होने पर)। ... उपक्रम... - VI. ii. 14 देखें - मात्रोपज्ञोपo VI. ii. 14 .. उपक्रमम् - II. Iv. 21 देखें - उपज्ञोपक्रमम् II. Iv. 21 उपन - III. iii. 85 सामीप्य प्रतीत होने पर, कर्तृभिन्न संज्ञा में) उपघ्न शब्द उप पूर्वक हन् धातु से अप् प्रत्यय तथा हन् की उपधा का लोप कर निपातन किया जाता है। - - ... उपचाय्य... • III. 1. 131 देखें - परिचाय्योपचाय्यo III. 1. 131 .... उपचाध्यानि - III. 1. 123 देखें - निष्टवर्यदेवहू III. 1. 123 उपजानु... - IV. 1. 40 देखें उपजानूपकर्ण० IV. iii. 40 उपजानूपकर्णोपनीये - IV. III. 40 सप्तमीसमर्थ उपजानु, उपकर्ण तथा उपनीवि शब्द से (प्रायभव:' अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है)। - उपज्ञा... II. iv. 21 देखें - उपज्ञोपक्रमम् II. iv. 21 - .. उपज्ञा... - VI. 1. 13 देखें मात्रोपज्ञोपo VI. I. 13 उपज्ञाते - IV. 1. 115 ...उपतापयोः (तृतीयासमर्थ प्रातिपदिक से) उपज्ञात = नई सूझ में (यथाविहित प्रत्यय होता है)। - उपज्ञोपक्रमम् III. 21 ( नञ् तथा कर्मधारयवर्जित) उपज्ञान्त तथा उपक्रमान्त (तत्पुरुष नपुंसकलिंग में होता है, यदि उपज्ञेय तथा उपक्रम्य के आदि = प्रथम कर्ता को कहने की इच्छा हो तो)। - ...उपताप... - V. ii. 128 देखें इन्द्रोपतापo V. 1. 128 ... उपतापयोः - VII. iii. 61 देखें - पाण्युपतापयोः VII. III. 61 अर्थ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदंश 119 उपधायाः उपदंश -III. iv.47 (तृतीयान्त शब्द उपपद रहते) उपपूर्वक दंश् धातु से (णमुल् प्रत्यय होता है)। ...उपदा-V.1.46 देखें-वृद्ध्यायलाभOV.I.46 .उपदेशे-I.ili.2 उपदेश में वर्तमान (अनुनासिक अच् इत्सजक होता - जिस मन्त्र को बोलकर ईंटों की वेदी बनाई जाये.वह उपधान मन्त्र कहलाता है। . उपधायाः-VI. iv.7 (नकारान्त अङ्गकी) उपधा को (नाम परे रहते दीर्घ होता .46 उपदेश= अष्टाध्यायी, धातुपाठ, उणादिकोष, गणपाठ, लिंगानुशासन। उपदेशे-VI.1.44 उपदेश अवस्था में (जो एजन्त धातु,उसको आकारादेश हो जाता है,शित्प्रत्यय परे हो तो नहीं होता)। उपदेशे-VI. iv. 62 (भाव तथा कर्म-विषयक स्य.सिच.सीयट और तास के परे रहते) उपद्रेश में (अजन्त धातुओं तथा हन, ग्रह एवं दृश् धातुओं को चिण के समान विकल्प से कार्य होता है तथा इट् आगम भी होता है)। उपदेशे-VII. ii. 10 उपदेश में (एक अच् वाले तथा अनुदात्त धातु से उत्तर इट का आगम नहीं होता)। उपदेशे-VII. 1. 62 . उपदेश में (जो धातु अकारवान् और तास् के परे रहते नित्य अनिद, उससे उत्तर थल् को तास् के समान ही इट् आंगम नहीं होता)। उपदेशे-VIII. iv. 18 (उपसर्ग में स्थित निमित्त से उत्तर जो) उपदेश में (ककार तथा खकार आदिवाला नहीं है,एवं षकारान्त भी नहीं है, ऐसे शेष धातु के परे रहते नि के नकार को विकल्प से णकारादेश होता है)। ...उपघयोः - VI. iv. 47 देखें-रोपधयो: VI. iv.47 उपधा-I.i.64 (अन्त्य अल से पूर्व अल की) उपधासंज्ञा होती है। उपयानः - IV. iv. 125 उपधान मन्त्र (समानाधिकरण प्रथमासमर्थ मतुबन्त) प्रातिपदिक से (षष्ठ्यर्थ में यत् प्रत्यय होता है,तथा मतुप का लुक भी हो जाता है, वेद-विषय में)। उपधायाः -VI. iv. 20 (ज्वर त्वर,त्रिवि अव.मव-इन अङ्गों के वकार तथा) उपधा के स्थान में (ऊछ आदेश होता है. क्विप तथा झलादि एवं अनुनासिकादि प्रत्ययों के परे रहते)। उपधायाः -VI. iv. 24 (इकार जिसका इत्सज्ज्ञक नहीं है, ऐसे हलन्त अङ्गकी) उपधा के (नकार का लोप होता है; कित.डित् प्रत्ययों के परे रहते)। उपधाया-VI. iv.87 (गोह अङ्गकी) उपधा को (सकारादेश होता है, अजादि प्रत्यय परे रहते)। उपधायाः -VI. iv. 149 (भसज्ज्ञक अङ्ग की) उपधा (यकार का लोप होता है, ईकार तथा तद्धित के परे रहते; यदि वह य सूर्य, तिष्य अगस्त्य तथा मत्स्य-सम्बन्धी हो)। उपधाया -VII. I. 101 (धातु अङ्गकी) उपधा के (ऋकार के स्थान में भी इकारादेश होता है)। उपधाया -VII. I. 116 (अङ्गकी) उपधा के (अकार के स्थान में वृद्धि होती है। जित,णित् प्रत्यय परे रहते)। उपधायाः -VII. iv.1 (चङ्परक णि के परे रहते अङ्गकी) उपधा को (हस्व होता है)। उपधाया -VIII. 1.9 (यवादिशब्दवर्जित मकारान्त एवं अवर्णान्त तथा मकार एवं अवर्ण) उपधा वाले प्रातिपदिक से उत्तर (मतुप को वकारादेश होता है)। उपधाया - VIII. 1.76 (रेफान्त तथा वकारान्त जो धातु पद, उसकी) उपधा (इक्) को (दीर्घ होता है)। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपवायाम् 120 उपमाने उपधायाम् -VIII. I. 78 ....उपमन्त्रणेषु-1. iii. 47 (हल् परे रहते धातु के) उपधाभूत (रेफ एवं वकार की देखें - भासनोपसम्भाषा० I. iii. 47 उपधा इक् को भी दीर्घ होता है)। ...उपमान... - VI. 1.2 उपघालोपिन: - IV. 1. 28 देखें - तुल्यार्थ. VI. ii. 2 उपधालोपी अर्थात् जिसकी उपधा का लोप हुआ हो, उपमानम् -VI.i. 198 ऐसे (बहुव्रीहि समासवाले अन्नन्त) प्रातिपदिक से उपमानवाची शब्द को (संज्ञा विषय में आधुदात्त होता (स्त्रीलिंग में विकल्प से ङीप् प्रत्यय होता है)। ...उपधि.. - V.1.13 उपमान = तुलना या तुलना का मापदण्ड । देखें-छदिरुपधिबले: V.1.13. उपमानम् -VI. ii. 80 उपमानवाची (पूर्वपद णिनि प्रत्ययान्त शब्दार्थक धातु ...उपनिषदौ-I. iv.78 के उत्तरपद होने पर ही आधुदात्त होता है)। देखें-जीवकोपनिषदौ I. iv.78. उपमानम् -VI. ii. 127 ...उपनीके-IV. 11.40 (तत्पुरुष समास में) उपमानवाची (उत्तरपद चीर) शब्द देखें-उपजानुपको IV. 1.40 को (आधुदात्त होता है)। उपपदम् -II. 1. 19 उपमानात् -III.1. 10 समीपोच्चरित पद (तिभिन्न समर्थ शब्दान्तर के साथ उपमानवाची (सबन्त कम) से (आचार अर्थ में विकल्प : नित्य समास को प्राप्त होता है),और वह तत्पुरुष समास । से क्यच् प्रत्यय होता है)। होता है। उपमानात् - V. iv.97 उपपदम् - III. 1. 92 उपमानवाची (श्वन् शब्दान्त तत्पुरुष ) से (समासान्त (इस धातोः सूत्र के अधिकार में सप्तमी विभक्ति से टच् प्रत्यय होता है, यदि वह श्वन् शब्द प्राणिविशेष का निर्दिष्ट पदों की) उपपद संज्ञा होती है। वाचक न हो तो)। ....उपपदात् - VI. 1. 139 उपमानात् - V. iv. 137 देखें- गतिकारको० VI. II. 139 उपमानवाची शब्दों से उत्तर (भी गन्ध शब्द को समाउपपदे -I. iv. 104 सान्त इकारादेश हो जाता है,बहुव्रीहि समास में)। (युष्मद् शब्द के) उपपद रहते (समान अभिधेय होने पर ...उपमानात् -VI. 1. 145 युष्मद् शब्द का प्रयोग हो या न भी हो, तो भी मध्यम देखें - सूपमानात् VI. II. 145 पुरुष होता है)। .....उपमानात् -VI. ii. 169 उपपदेन - 1. il.77 देखें-निष्ठोपमानात् VI. ii. 169 उपपद= समीपोच्चरित पद के द्वारा (कभिप्राय क्रिया उपमानानि -II.i. 54 फल के प्रतीत होने पर धातु से विकल्प करके आत्मनेपद उपमान वाचक (सुबन्त) शब्द (सामान्य वाचक समानाधिकरणं सुबन्तों के साथ विकल्प से तत्पुरुष समास को प्राप्त होते है)। अपराभ्याम् -III. 39 उपमाने-III. 1.79 उप एवं परा उपसर्ग से उत्तर (क्रम् धातु से आत्मनेपद उपमानवाची (कर्ता) उपपद रहते (धातुमात्र से 'णिनि' होता है; वृत्ति,सर्ग तथा तायन अर्थों में)। प्रत्यय होता है)।. . 'उपपडल्यकर्षः - III. in.49 उपमाने-III. V. 45 (तृतीयान्त तथा सप्तम्यन्त उपपद हो तो) उपपूर्वक पीड, उपमानवाची (कर्म) उपपद रहते (और चकार से कर्ता रुप तथा कई धातुओं से (भी णमुल् प्रत्यय होता है। उपपद रहते धातुमात्र से णमुल् प्रत्यय होता है। " होता है)। .. . Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपमाने 121 उपसर्गप्रादुर्थ्याम् उपमाने -VI. 1.72 (गो, बिडाल, सिंह,सैन्धव-इन) उपमानवाची शब्दों के उत्तरपद रहते (पूर्वपद को आधुदात्त होता है)। ....उपमाभ्याम् -II. iii.72 देखें- अतुलोपमाभ्याम् II. 1.72 उपमार्थे -VIII. 1. 101 (चित- यह निपात भी जब) उपमा के अर्थ में प्रयुक्त हो,तो वाक्य की टि को अनुदात्त प्लत होता है)। उपमितम् -II.1.55 उपमित= उपमेयवाची (सुबन्त) शब्द (समानाधिकरण व्याघ्रादि सुबम्त शब्दों के साथ विकल्प से तत्पुरुष समास को प्राप्त होता है, साधारणधर्मवाची शब्द के अप्रयोग होने पर)। उपयमने-I. ii. 16 उपयमन =विवाह करने अर्थ में वर्तमान (यम् धातु से परे सिच कितवत् होता है.आत्मनेपद विषय में)। उपयमने - I. iv.76 (हस्ते तथा पाणौ शब्द) उपयमन= विवाह विषय में हों तो (नित्य ही उनकी कृयु के योग में गति और निपात संज्ञा होती है)। ...उपयो: -III. iii. 39 देखें- व्युपयो: III. iii. 39 उपयोगे -I. iv. 29 नियमपूर्वक विद्या ग्रहण करने में (जो पढ़ाने वाला,उस कारक की अपादान संज्ञा होती है)। उपयोगेषु -I. iii. 32 देखे - गन्थनावक्षेपणसेवन० I. ii. 32 उपरि... - V. iii. 31 देखें- उपर्युपरिष्टात् V. iii. 31 उपरि... -VIII. 1.7 देखें-उपर्यध्यधस: VIII. 1.7 उपरि -VIII. ii. 102 उपरि (स्विदासीत्) की (टि को भी प्लुत अनुदात्त होता उपरिस्थम् -VI. ii. 188 (अधि उपसर्ग से उत्तर) उपरिस्थवाची= ऊपर बैठने वाला,तद्वाची उत्तरपद को (अन्तोदात्त होता है)। उपर्यध्यधसः -VIII. 1.7 उपरि, अधि, अधस - इन शब्दों को (समीपता अर्थ कहना हो तो द्वित्व होता है)। उपर्युपरिष्टात् - V. 1. 31 उपरि और उपरिष्टात् शब्दों का निपातन किया जाता है,(अस्ताति के अर्थ में)। ....उपशुन.. - Viv.77 देखें-अचतुरov.iv.77 उपसंवाद.. -III. iv.8 देखें-उपसंवादाशंकयोः III. iv.8 उपसंवादाशंकयो: -III. iv.8 उपसंवाद तथा आशन गम्यमान हों तो (भी धातु से वेद विषय में लेट् प्रत्यय होता है)। उपसंवाद = पणबन्ध अर्थात् तू ऐसा करे तो मैं भी ऐसा करूं। ...उपसंव्यानयोः -1.1.35 देखें - बहियोंगोपसव्यानयोः I. 1. 35 ...उपसमाधानेषु -III. III. 41 देखें- निवासचिति III. . 41. ..उपसम्पती - VI. 1.56 देखें- अचिरोपसंपत्तौ VE: 1.56 ...उपसम्भापा.. - I. II. 47 . देखें - भासनोपसम्भाषा I. iii. 47 उपसर्ग... - VIII. iii. 87 देखें- उपसर्गप्रादुर्थ्याम् VIII. Iii. 87 उपसर्गपूर्वम् - VI. ii. 110 (बहुव्रीहि समास में) उपसर्ग पूर्व वाले (निष्ठान्त पूर्वपद) को (विकल्प से अन्तोदात्त होता है)। उपसर्गप्रादुर्ध्याम् - VIII. iii. 87 उपसर्ग में स्थित निमित्त से उत्तर तथा प्रादुस् शब्द से उत्तर (यकारपरक एवं अच्परक अस धातु के सकार को मूर्धन्य आदेश होता है)। ...उपरिष्टात् - V. iii. 31 . देखें-उपर्युपरिष्टात् V. 1. 31 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसर्गप्रादुर्थ्याम् 122 उपसमें होता है)। उपसर्गव्यपेतम् - VIII. 1. 38 उपसर्गात् - VII. iv. 47 (यावत् और यथा से युक्त एवं) उपसर्ग से व्यवहित (अजन्त) उपसर्ग से उत्तर (घुसज्जक 'दा' अङ्गको तका(तिङन्त को भी पूजाविषय में अननुदात्त नहीं होता,अर्थात् रादि कित् प्रत्यय परे रहते तकारादेश होता है)। अनुदात्त होता है)। उपसर्गात् - VIII. iii. 65 उपसर्गस्य-VI. iii. 121 उपसर्गस्थ निमित्त से उत्तर(सुनोति.सुवति,स्यति.स्तौति. स्तोभति,स्था,सेनय,सेध,सिच,सञ्ज,स्वा- इनके (सकार त उत्तरपद रहत) उपसर्ग क (अण् का बहुल करक को मूर्धन्यादेश होता है)। दीर्घ होता है, अमनुष्य अभिधेय होने पर)। ) उपसर्गात् - VIII. iv. 14 . उपसर्गस्य - VIII. ii. 19 उपसर्ग में स्थित निमित्त से उत्तर (णकार उपदेश में है • (अय धातु के परे रहते) उपसर्ग के रेफ को लकारादेश जिसके, ऐसे धातु के नकार को असमास में तथा अपि ग्रहण से समास में भी णकार आदेश होता है)। उपसर्गाः -I. iv. 58 उपसर्गात् - VIII. iv. 27 (प्रादिगणपठित शब्द निपातसंज्ञक होते है तथा क्रिया उपसर्ग में स्थित निमित्त से उत्तर (जो आकार से परे नहीं । के साथ प्रयुक्त होने पर वे) उपसर्गसंज्ञक होते है। है, ऐसे नस् के नकार को णकारादेश होता है)। उपसर्गात् - V.I. 116 उपसर्गे-II. iii. 59 . (धातु के अर्थ में वर्तमान) उपसर्ग से (स्वार्थ में वति। उपसर्ग होने पर (दिव धात के कर्म कारक में षष्ठी प्रत्यय होता है, वेद-विषय में)। विभक्ति होती है)। उपसर्गात् -V.iv.85 उपसर्गे-III. I. 136 उपसर्ग से उत्तर (अध्वन् शब्दान्त प्रातिपदिक से समा- उपसर्ग उपपद रहते (आकारान्त धातुओं से भी 'क' सान्त अच् प्रत्यय होता है)। प्रत्यय होता है)। उपसर्गात् - V. iv. 119 उपसर्गे -III. ii. 61 उपसर्ग से उत्तर(भी नासिका-शब्दान्त बहुव्रीहि से समा- (सत्, सू, द्विष, द्रुह, दुह, युज, विद,भिद, छिद,जि,नी, सान्त अच् प्रत्यय होता है,तथा नासिका को नस आदेश राज,धातुओं से),वे उपसर्गयुक्त हों तो (भी तथा निरुपसर्ग भी हो जाता है)। हों तो भी सुबन्त उपपद रहते क्विप् प्रत्यय होता है)। उपसर्गात् - VI.i. 88 उपसर्गे-III. ii.99 (अवर्णान्त) उपसर्ग से उत्तर (ऋकारादि धातु के परे रहते उपसर्ग उपपद रहते (भी संज्ञा विषय में जन् धातु से पूर्व पर के स्थान में वद्धि एकादेश होता है.संहिता विषय 'ड' प्रत्यय होता है, भूतकाल में)। उपसर्गे-III. ii. 186 उपसर्गात् - VI. ii. 177 उपसर्गसहित (दिव् तथा क्रुश् धातुओं से भी तच्छीलादि (बहुव्रीहि समास में) उपसर्ग से उत्तर (पर्श-वर्जित धूव । कर्ता हो,तो वर्तमान काल में वुञ् प्रत्यय होता है)। स्वाङ्गको अन्तोदात्त होता है)। उपसर्गे -III. iii. 22 . पशु = पसली की हड्डी। उपसर्ग उपपद रहने पर (रु धातु से घञ् प्रत्यय होता है, कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में)। उपसर्गात् - VII. I. 67 उपसर्गे-III. iii. 59 (खल् तथा घञ् प्रत्ययों के परे रहते) उपसर्ग से उत्तर उपसर्ग उपपद रहते हुए (अद् धातु से अप् प्रत्यय होता (लभ् अङ्ग को नुम् आगम होता है)। है,कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में)। उपसर्गात् - VII. iv. 23 उपसर्गे-III. iii. 92 उपसर्ग से उत्तर (ऊह वितर्के' अङ्गको यकारादि कित्, उपसर्ग उपपद रहने पर (घसंज्ञक धातुओं से कतभिन्न ङित् प्रत्यय परे रहते हस्व होता है)। कारक संज्ञा तथा भाव में कि प्रत्यय होता है)। में)। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसमें 123 उपानहोः उपसगे-III. iii. 106 उपसर्ग उपपद रहते (आकारान्त धातुओं से भी स्त्रीलिंग, कर्तभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में अप्रत्यय होता है)। ...उपसर्गेभ्यः -VI. iii.96 देखें-द्ववन्तरुपसर्गेभ्य: VI. iii.96 उपसर्जनम् - I. ii. 43 (समास-विधायक सूत्रों में जो प्रथमा विभक्ति से निर्दिष्ट पद,उसकी) उपसर्जन संज्ञा होती है। उपसर्जनम् - II. ii. 30 उपसर्जन संज्ञक (का समास में पूर्व प्रयोग होता है)। उपसर्जनस्य -I.ii. 48. उपसर्जन (गो शब्दान्त प्रातिपदिक तथा उपसर्जन स्त्रीप्रत्ययान्त प्रातिपदिक) को (हस्व होता है)। उपसर्जनस्य-VI. iii. 81 जिस समास के सारे अवयव उपसर्जन हैं.तदवयव (सह शब्द) को (विकल्प से 'स'आदेश होता है)। उपसर्जनात् - IV.i. 54 (स्वाङ्गवाची जो) उपसर्जन (असंयोग उपधा वाले अदन्त प्रातिपदिक), उनसे (स्त्रीलिंग में विकल्प से ङीप प्रत्यय , होता है)। ...उपसर्जने -I. ii. 57 देखें-कालोपसर्जने I. 1.57 उपसर्या-III. 1. 104 उपसर्या शब्द उपपूर्वक सृधातु से यत्प्रत्ययान्त निपातन है,प्रजन अर्थात् प्रथम गर्भग्रहण का समय जिसका हो गया हो उस अर्थ में)। उपसिक्ते - IN. iv. 26 . (तृतीयासमर्थ व्यञ्जनवाची प्रातिपदिक से) ऊपर डाला हुआ' - इस अर्थ में (ठक् प्रत्यय होता है)। उपसृष्टयो: -I. iv. 38 उपसर्ग से युक्त (ध तथा द्रह धात) के (प्रयोग में जिसके प्रति कोप किया जाये.उस कारक की कर्म संज्ञा होती है)। ...उपस्थानीय.. -III. iv.68 देखें - भव्यगेय III. iv. 68 उपस्थिते-VI. I. 125 अनार्ष इति के परे रहते (प्लत अप्लत के समान हो जाता ....उपहतेषु - VI. ii. 51 देखें -आज्यातिगो० VI. iii. 51 उपाजे-I. iv.72 उपाजे (तथा अन्वाजे) शब्द (कब के योग में निपात और गति संज्ञक होते हैं)। उपात् -I. iii. 25 उप उपसर्ग से उत्तर (स्था धातु से आत्मनेपद होता है, मन्त्रकरण अर्थ में)। उपात् -I. iii. 56 उप उपसर्ग से उत्तर (पाणिग्रहण अर्थ में वर्तमान यम् धातु से आत्मनेपद होता है)। उपात् -I. iii. 84 उपपूर्वक (रम् धातु) से (भी परस्मैपद होता है)। उपात् -VI.i. 134 (प्रतियल,वैकृत तथा वाक्याध्याहार अर्थ गम्यमान हो तो कृ धातु के परे रहते) उप उपसर्ग से उत्तर (ककार से पूर्व सुट का आगम होता है,संहिता के विषय में)। प्रतियत्न = किसी गुण को किसी और गुण में बदलना। उपात् -VI.ii. 194 उप उपसर्ग से उत्तर (दो अच वाले शब्दों तथा अजिन शब्द को तत्पुरुष समास में अन्तोदात्त होता है, गौरादि शब्दों को छोड़कर)। उपात् - VII. 1.66 (प्रशंसा गम्यमान होने पर) उप उपसर्ग से उत्तर (लभ अङ्ग को यकारादि प्रत्यय के विषय में नुम् आगम होता उपादेः-v.iii. 80 उपशब्द आदि वाले (बह्वच मनुष्य-नामधेय)प्रातिपदिक से (नीति और अनुकम्पा गम्यमान होने पर अडच. तूच तथा घन, इलच और ठच् प्रत्यय विकल्प से होते है. प्राग्देशीय आचार्यों के मत में)। उपाधिभ्याम् - V.ii. 34 उप और अधि उपसर्ग प्रातिपदिकों से (यथासङ्ख्य करके यदि वह आसन्न' और 'आरूढ' अर्थों में वर्तमान हों तो सद्भाविषय में त्यकन् प्रत्यय होता है)। ...उपानहो:-V. 1. 14 देखें-ऋमभोपानहो: V.I. 14 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपान्यध्यावसः 124 उमा... उभयथा - VIII. ii. 70 (अम्नस, ऊघस्, अवस् पदों को वेद-विषय में) दोनों प्रकार से अर्थात रु एवं रेफ दोनों ही होते है। उभयथा-VIII. iii. 8 (नकारान्त पद को अम्परक छव् प्रत्याहार परे रहते पादयुक्त मन्त्रों में) दोनों प्रकार से होता है, अर्थात् एक पक्ष में रु एवं दूसरे पक्ष में नकार ही रहता है। उभयप्राप्तौ-II. iii. 66 (जिस कृदन्त के योग में कर्ता और कर्म) दोनों में (एक साथ षष्ठी विभक्ति की) प्राप्ति हो (वहाँ कर्म कारक में ही षष्ठी विभक्ति होती है, कर्ता में नहीं)। . ....उभयेधुस् -V. iii. 22 . देखें- सद्य-पस्त० V. iii. 22 उभयेषाम् -VI.i. 17 (लिट् लकार के परे रहते) दोनों अर्थात् वचिस्वपियजादि तथा ग्रहिज्यादियों के (अभ्यास को सम्प्रसारण हो जाता उपान्वध्यावस: -I. iv. 48 उप, अनु, अधि और आङ्पूर्वक वस् का (जो आधार, वह कर्मसञ्जक होता है)। ...उपाभ्याम् -I. iii. 42 देखें-प्रोपाभ्याम् I. ii. 42 ...उपाभ्याम् -I. iii. 64 देखें-प्रोपाभ्याम् I. iii.64 उपे-III. ii. 73 उप उपपद रहते (यज् धातु से छन्द विषय में विच् प्रत्यय होता है)। उपेयिवान् -III. 1. 109 उपेयिवान् शब्द निपातन से सिद्ध होता है। .. उपोत्तमम् - VI. 1. 174 र (षट्सज्जक, त्रि तथा चतुर शब्द से उत्पन्न झलादि विभक्ति; तदन्त शब्द में ) उपोत्तम= तीन या तीन से अधिक स्वरों वाले शब्दों के अन्त्य अक्षर के समीपवाला पूर्व वर्ण (उदात्त होता है)। उपोत्तमम् - VI. 1. 211 (रेफ इत् वाले शब्द के) उपोत्तम= तीन या तीन से अधिक स्वरों वाले शब्दों के अन्त्य अक्षर के समीपवाले पूर्व वर्ण को (उदात्त होता है)। ...उपोत्तमयोः - IV. 1.78 . देखें - गुरूपोत्तमयोः IV.i. 78 उप्ते -IV. ii. 44 (सप्तमीसमर्थ कालवाची प्रातिपदिकों से) बोया हुआ अर्थ में (भी यथाविहित प्रत्यय होता है)। उभयथा-III. iv. 117 (वेदविषय में) दोनों सार्वधातुक, आर्धधातुक संज्ञायें होती है; अर्थात् जिसकी सार्वधातुक संज्ञा कही है,उसकी आर्धधातुक संज्ञा और जिसकी आर्धधातुक संज्ञा कही है, उसकी सार्वधातुक संज्ञा होती है। उभयथा -VI. iv.5 . (वेदविषय में तिस.चतस अङ्गको) दोनों प्रकार से (देखा जाता है - दीर्घ भी और ह्रस्व भी)। उभयथा - VI. iv. 86 (भू तथा सुधी अों को वेद-विषय में) दोनों प्रकार से देखा जाता है, अर्थात् यणादेश भी होता है तथा नहीं भी होता। न होने की स्थिति में इयङ्,उवङ् आदेश होते हैं। उभात् -V.ii.44 (प्रथमासमर्थ) उभप्रातिपदिक से उत्तर (षष्ठ्यर्थ में नित्यही तयप् के स्थान में अयच् आदेश होता है और वह अयच् आधुदात्त होता है)। उभाभ्याम् - IV.i. 13 . दोनों से अर्थात् ऊपर कहे गये मन्नन्त प्रातिपदिकों से तथा बहुव्रीहि समास में जो अनन्त प्रातिपदिक, उनसे (स्त्रीलिंग में विकल्प से डाप् प्रत्यय होता है)। उभे -VI.1.5 (जो द्वित्वरूप से कहे गये) वे दोनों (अभ्यस्तसज्ज्ञक होते है)। उभे - VI. ii. 140 (वनस्पत्यादि समस्त शब्दों में)दोनों = पूर्व तथा उत्तरपद को (एक साथ प्रकृतिस्वर होता है)। उभौ-VIII. iv. 20 (उपसर्ग में स्थित निमित्त से उत्तर अभ्याससहित अन धातु के) दोनों नकारों को (णकार आदेश होता है)। उम् - VII. iv. 20 (वच् अङ्ग को अङ् परे रहते) उम् आगम होता है। उमा... - Iv.iii. 155 देखें - उमोर्णयोः IV. iii. 155 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...उमा... 125 उष्ट ...उमा... - V.ii.4 देखें-तिलमाषो० V.ii.4 उमोर्णयोः - IV. iii. 155 (षष्ठीसमर्थ) उमा तथा ऊर्णा प्रातिपदिक से (विकल्प से विकार तथा अवयव अर्थ में वुञ् प्रत्यय होता है)। उर: -VI.i. 113 यजुर्वेद-विषय में एडन्त (उर:शब्द को प्रकृतिभाव होता है, अकार परे रहते)। उर:प्रभृतिभ्य: - V. iv. 151 उरस इत्यादि अन्तवाले शब्दों से (बहुव्रीहि समास में कप् प्रत्यय होता है)। . उरच -v.ii. 106 (उन्नत समानाधिकरण वाले दन्त प्रातिपदिकों से मत्वर्थ में) उरच प्रत्यय होता है। ...उरभ्र... -IV.ii.38 देखें-गोत्रोक्षोष्ट्रो० IV.ii. 38 उरस: - IV. iii. 114 . (ततीयासमर्थ) उरस् शब्द से (एकदिक अर्थ में यत् प्रत्यय तथा चकार से तसि प्रत्यय भी होता है)। उरस: - IV. iv.94 (तृतीयासमर्थ) उरस् प्रातिपदिक से (बनाया हुआ' अर्थ में अण् और यत् प्रत्यय होते हैं)। उरस: - V. iv. 82 (प्रति शब्द से उत्तर) उरस शब्दान्त प्रातिपदिक से (समासान्त अच् प्रत्यय होता है, यदि वह उरस् शब्द सप्तमी विभक्ति के अर्थवाला हो तो)। उरस:-V.iv.93 - (प्रधान को कहने में वर्तमान) उरस् शब्दान्त (तत्पुरुष) से (समासान्त टच् प्रत्यय होता है)। उरसि...-I. iv.74 देखें-उरसिमनसी I. iv.74 उरसिमनसी-I. iv.75 उरसि और मनसि शब्द (कृञ् के योग में विकल्प से निपात और गति संज्ञक होते है, अनत्याधान अर्थ में)। ...उरु.. - VI. iv. 157 देखें-प्रियस्थिर० VI. iv. 157 ....उरु.. - VIII. iv. 26 देखें-धातुस्थोरुभ्यः VIII. iv.26 ...उरुष्याणाम् -VI. iii. 132 देखें-तुनुप० VI. iii. 132 ...उल्लाघा: - VIII. ii. 55 देखें - फुल्लक्षीब VIII. ii. 55 ...उवड - VI. iv.77 देखें - इयड्जवडी VI. iv.77 ...उवइस्थानौ-I. iv.4 देखें -इयडुवस्थानौ -I. iv. 4 ...उशनस् - VII. 1. 94 देखें-ऋदशनस० VII. 1. 94 उशीनरेषु - II. iv. 20 (कन्थाशब्दान्त तत्पुरुष संज्ञा विषय में नपुंसकलिंग में होता है), यदि वह कन्था उशीनर जनपदसम्बन्धी हो तो। उशीनरेषु - IV. ii. 117 उशीनर देश में (जो वाहीक ग्राम वृद्धसंज्ञक है, उनसे विकल्प से ठज तथा जिठ शैषिक प्रत्यय होते हैं)। उप..-III. I. 38 देखें - उपविदजागृभ्यः III. 1. 38 उपविदजागृभ्यः -III. 1.36 उष, विद तथा जागृ धातुओं से विकल्प से अमन्त्र विषय में लिङ् परे रहते आम् प्रत्यय होता है)। ...उषसः - IV.ii. 30 देखें-वाय्यतुपित्रुषस: IV. ii. 30 उपस - VI. iii. 30 (देवताद्वन्द्व में उत्तरपद परे रहते) उषस् शब्द को (उषासा आदेश होता है)। ...उपसी-VI. ii. 117 देखें- अलोमोषसी VI. ii. 117 उषासा-VI. iii. 30 (देवताद्वन्दू में उत्तरपद परे रहते उषस शब्द को) उषासा आदेश होता है। ...उष्ट... - IV. 1. 38 देखें-गोत्रोक्षोष्ट्रो० IV. ii. 38 उष्ट्र: - VI. ii. 40 (सादि तथा वामि शब्द उत्तरपद रहते पूर्वपद) उष्ट्र शब्द को (प्रकृतिस्वर होता है)। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उष्टात् 126 . उष्ट्रात् - IV. iii. 154 (षष्ठीसमर्थ) उष्ट्र प्रातिपदिक से (विकार और अवयव अर्थों में वुञ् प्रत्यय होता है)। ...उष्णाभ्याम् -V.ii. 72 देखें-शीतोष्णाभ्याम् V. 1.72 ...उष्णिक्... - III. ii. 59 देखें-ऋत्विम्दधक III. ii. 59 ...उष्णिके -v.ii.71 देखें-ब्राह्मणकोष्णिके V.ii.71 उष्णे-VI. iii. 106 उष्ण शब्द उत्तरपद रहते (कु शब्द को कव आदेश भी होता है,एवं विकल्प से का आदेश भी होता है)। ...उस्... - III. iv. 82 देखें- णलतुसुस III. iv. 82 . .... ...उस्... - VII. iii. 51 देखें- इसुसुक्तान्तात् VII. iii. 51 . . उसि - VI.i. 93 (अपदान्त अवर्ण से उत्तर) उस् परे रहते (पूर्व पर के स्थान में पररूप एकादेश होता है)। ...उसो: - VIII. iii. 44 . देखें-इसुसो: VIII. iii. 44 ऊ... -I.ii. 26 ...ऊठ -VI. iv. 19 देखें - व्युपधात् I. ii. 26 देखें-शूठ VI. iv. 19 ऊ... -I.ii. 27 ऊ - VI. iv. 132 देखें-अकाल: I. ii. 27 (वाह अन्तवाले भसज्ञक अङ्ग को सम्प्रसारणसञ्जक) ऊ...-I. iv.3 ऊळ होता है। देखें-यूI. iv.3 अक: -III. I. 165 ...ऊठ्सु - VI. 1. 86 (जागृ धातु से वर्तमान काल में) ऊक प्रत्यय होता है. देखें- एत्येपत्यसु VI.1.86 (तच्छीलादि कर्ता हो तो)। अडिदम्पदाधप्पुप्रैधुभ्य: - VI. 1. 168 अकाल -I.ii. 27 ऊठ, इदम्,पदादि, अप,पुम,रै तथा दिव् शब्दों से उत्तर उकाल,ऊकाल तथा उ३काल अर्थात् एकमात्रिक द्विमा- (सर्वनामस्थानभिन्न विभक्ति उदात्त होती है)। त्रिक तथा त्रिमात्रिक (अच् की यथासंख्य करके हस्व,दीर्घ का यथासख्य करक हस्व,दाष ...ऊत् ...-I.. 11 और प्लुत संज्ञा होती है)। देखें - ईदूदेत् I..11 अ -IV.i.66 ऊत् -VI. iii.97 (उकारान्त मनुष्यजातिवाची प्रातिपदिकों से स्त्रीलिंग में) (अनु से उत्तर अप् शब्द कों) ऊकारादेश होता है, देश ऊङ् प्रत्यय होता है। को कहने में)। ऊ -VI. 1. 169 ऊत् - VI. iv. 89 देखें- अधात्वो: VI. I. 169 (गोह अङ्ग की उपधा को) ऊकारादेश होता है, (अजादि उड्यात्वोः -VI.i. 169 प्रत्यय परे रहते)। ऊङ् तथा धातु का (जो उदात्त के स्थान में हुआ यण, हल पूर्ववाला हो तो उससे उत्तर अजादि सर्वनामस्थान ऊति... -III. ili.97 भिन्न विभक्ति को उदात्त नहीं होता)। देखें- ऊतियूति III. iii. 97 ऊद.. -VI. 1. 165 ...ऊति... -VI. iii.98 देखें-ऊडिदम VI.1.165 देखें- आशीराशास्था. VI. 1.98 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उतियूतिजूतिसातिहेतिकीर्तयः 127 ऊर्वष्ठीव ऊतियूतिजूतिसातिहेतिकीर्तयः - III. iii. 97 ऊर्णायाः -v.ii. 123 क्तिन्प्रत्ययान्त ऊति, यति, जूति, साति, हेति और कीर्ति ___ ऊर्णा प्रातिपदिक से (मत्वर्थ' में युस् प्रत्यय होता है)। (शब्द निपातन से सिद्ध होते है)। ...ऊर्णावत् - V. iii. 118 देखें- अभिजिद्ov.iii. 118 ...ऊतौ -I.i. 18 ...ऊर्गु... - VII. ii. 49 देखें -ईदूतौ I. i. 18 देखें - इवन्तर्ध० VII. ii. 49 ...अदितः -VII. ii.44 ऊों : -I.ii.3 देखें-स्वरतिसूति० VII. ii. 44 _ 'ऊर्गुञ् आच्छादने' धातु से परे (इडादि प्रत्यय विकल्प ...ऊयस्... - VIII. ii. 70 से डित्वत् होते हैं)। देखें- अम्नरूधर VIII. 1.70 ऊणति: - VII. ii. 6 ऊधस: -IV.i. 25 ऊर्णब अङ्ग को (परस्मैपदपरक इडादि सिच् परे रहते (बहुव्रीहि समास में वर्तमान ऊधस् शब्दान्त प्रातिपदिक विकल्प से वृद्धि नहीं होती)। से (स्त्रीलिंग में ङीप् प्रत्यय होता है)। ऊोत: - VII. ii. 90 ऊधस -V. iv. 131. (हलादि पित् सार्वधातुक परे रहते) 'अर्गुञ् आच्छादने' ऊधस शब्दान्त (बहुव्रीहि) को (समासान्त अन आदेश धातु को विकल्प से वृद्धि होती है)। होता है)। ऊर्ध्वम् -v.ifi.83 ऊनयति... -III.1.51 देखें-ऊनयतिध्वनयति III. 1.51 (इस प्रकरण में कथित ठ तथा अजादि प्रत्ययों के परे रहते द्वितीय अच् से) बाद के शब्दरूप का (लोप हो जाता ऊनयतिध्वनयत्येलयत्यर्दयतिथ्यः - III.i. 51 । ऊन, ध्वन, इल, अर्द-इन ण्यन्त धातुओं से उत्तर (वेद ऊर्ध्वमौहर्तिके -III. iii.9 विषय में च्लि के स्थान में चङ आदेश नहीं होता)। दो घड़ी से ऊपर के (भविष्यत्काल) को कहना हो तो ...ऊनार्थ... -II.i.30 (लोडर्थलक्षण में वर्तमान धातु से लिङ्प्रत्यय विकल्प से देखें- पूर्वसदृशसमो० II.i. 30 होता है तथा लट् भी)। ऊनार्थ... -VI. ii. 153 देखें- ऊनार्थकलहम् VI. ii. 153 ऊर्ध्वमौहूर्त्तिके - III. iii. 164 (प्रैष, अतिसर्ग तथा प्राप्तकाल अर्थ गम्यमान हों तो) ऊनार्थकलहम् - VI. ii. 153 मुहूर्त से ऊपर के काल को कहने में (धातु से लिङ्प्रत्यय (तृतीयान्तं शब्द से परे उत्तरपद) ऊन=स्वल्प अर्थ के होता है, तथा चकार से यथाप्राप्त कृत्यसंज्ञक एवं लोट् वाचक एवं कलह शब्द को (अन्तोदात्त होता है)। प्रत्यय होते है)। . ऊरूत्तरपदात् - IV.i. 69 ऊर्ध्वात् - V. iv. 130 ऊरु शब्द उत्तरपद वाले प्रातिपदिकों से (औपम्य गम्य- ऊर्ध्व शब्द से उत्तर (जो जानु शब्द,उसको विकल्प से मान होने पर स्त्रीलिंग में ऊङ् प्रत्यय होता है)। समासान्त जु आदेश होता है,बहुव्रीहि समास में)। ....ऊर्जस्वल... -v.ii. 114 ऊचे -III. iv. 44 देखें-ज्योत्स्नातमित्राov.ii. 114 (कर्तृवाची) ऊर्ध्व शब्द उपपद हो तो (शषि शोषणे' ...ऊर्जस्विन्.. - V. ii. 114 तथा पूरी आप्यायने' धातुओं से णमुल प्रत्यय होता है)। देखें-ज्योत्स्नातमित्रा० V.ii. 114 ऊर्यादि... -I. iv.60 ...ऊर्जि... -III. ii. 177 देखें - ऊर्यादिच्चिडाच: I. iv. 60 देखें-प्राजभास III. ii. 177 ऊर्यादिच्चिडाच: -I. iv.60 ...ऊर्णयो: - IV. iii. 155 ऊर्यादिशब्द, च्यन्त और डाजन्त शब्द (भी गति तथा देखें-ऊमोर्णयोः IV. iii. 155 निपातसंज्ञक होते है, क्रियायोग में)। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊर्वष्ठीय, ... ऊर्वष्ठीव... - V. iv. 77 देखें - अचतुरo Viv. 77 ऊलोफ - III. iv. 32 (वर्षा का प्रमाण गम्यमान हो तो कर्म उपपद रहते ण्यन्त पूरी धातु से णमुल् प्रत्यय होता है, तथा इस पूरी धातु के ) ऊकार का लोप (विकल्प से) होता है। ऊ... - V. 1. 107 देखें - वसुषिमुष्कमध V. II. 107 ऊवसुषिमुष्कमध: - V. ii. 107 ऊ, सुषि, मुष्क तथा मधु प्रातिपदिकों से (मत्वर्थ' में र प्रत्यय होता है)। ऋ - प्रत्याहार सूत्र II - भगवान् पाणिनि द्वारा अपने द्वितीय प्रत्याहार सूत्र में पठित प्रथम वर्ण जो अपने सम्पूर्ण अठारह भेदों का ग्राहक होता है । - - पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्णमाला का चौथा वर्ण । ऋ... - III. 1. 125 देखें - ऋहलो: III. 1. 125 .. ऋ... - III. it. 171 देखें - आदृगम० III. I. 171 ....... - VII. 1. 74 देखें स्मिपू० VII. li. 74 - ... ऋ... - VII. iv. 11 देखें ऋच्छत्कृताम् VII. I. 11 ऋ... - VII. iv. 16 देखें ऋ VII. Iv. 16 - ऋलृक् - प्रत्याहार सूत्र II पाणिनीय अष्टाध्यायी का द्वितीय प्रत्याहार सूत्र । इस सूत्र के ककार से तीन- अक्, इक् और उक् प्रत्याहार बनते हैं। ऋ से 18 प्रकार के और लृ से 12 प्रकार के भेदों का महण होता है। IV. iii. 72 देखें - ऋक्... - Viv. 73 देखें - ऋक्पूरब्यूo Viv. 73 ब्राह्मणo IV. lii. 72 128 .. ऊष्मभ्याम् - III. 1. 16 落 देखें उन्हते: - वायोव्यभ्याम् III. 1. 16 - - VII. iv. 23 (उपसर्ग से उत्तर) 'उह वितकें' अङ्ग को (यकारादि कित् हित् प्रत्यय परे रहते ह्रस्व होता है)। ॐ – I. 1. 16 - उञ् को ऊँ आदेश (प्रगृह्य सञ्ज्ञक होता है, शाकल्य के अनुसार)। उ३... - I. ii. 27 देखें - ऊकालः I. ii. 27 - ऋक्पूरव्यूः पथाम् V. Iv. 74 - ऋचि ऋक्, पुर, अप, धुर तथा पथिन् शब्द अन्त में है जिस (समास) के, तदन्त से (समासान्त अ प्रत्यय होता है, यदि वह पुर् अक्षसम्बन्धी न हो तो)। ऋक्षु - VIII. iii. 8 (नकारान्त पद को अम्परक छव् प्रत्याहार परे रहते ) पादयुक्त मन्त्रों में (दोनों प्रकार से होता है, अर्थात् एक पक्ष मेंरु एवं दूसरे पक्ष में नकार ही रहता है)। ... ऋक्साम्... - V. iv. 77 देखें अचतुरo Viv. 77 ऋगयनादिभ्यः - IV. iii. 73 (षष्ठीसमर्थ तथा सप्तमीसमर्थ व्याख्यातव्यनाम्) ऋगयनादि प्रातिपदिकों से (भव और व्याख्यान अर्थों में अण् प्रत्यय होता है)। - .. ऋग्यजुष... - Viv. 77 देखें - अचतुरo Viv. 77 ऋचः - VI. iii. 54 ऋचा सम्बन्धी (पाद शब्द को श परे रहते पद् आदेश होता है। - ... ऋचः VII. 1. 66 देखें - यजयाच० VII. 1. 66 ऋचि - IV. 1.9 (पादन्त प्रातिपदिक से स्त्रीलिङ्ग में टाप् प्रत्यय होता है), ऋचा वाच्य हो तो। fa-VI. iii. 132 (तु, नु, घ, मधु, तह, कु, त्र, उरुष्य इन शब्दों को) ऋचा विषय में (दीर्घ हो जाता है)। - Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋचि 129 करत ऋचि -VII. iv. 39 ऋत् -VII. iv.7 (कवि, अध्वर, पृतना - इन अङ्गों को क्यच परे रहते . (चङ्परक णि परे रहते अङ्ग की उपधा अवर्ण के स्थान लोप होता है).पादबद्ध मन्त्र के विषय में। में विकल्प से) ऋकारादेश होता है। ...ऋच्छ... - VII. iii. 78 ऋत्... - VIII. iv. 25 देखें-पिबजिघ्र VII. iii. 78 देखें-ऋदवग्रहात् VIII. iv. 25 ऋच्छति-VII. iv. 11 ...ऋत: -I. ii. 24 देखें - ऋच्छत्यताम् VII. iv. 11 देखें-वञ्चिलुच्यतः-I. ii. 24 ऋच्छत्यताम् - VII. iv. 11 ऋतः - IV. iii. 78 ऋच्छ तथा ऋकारान्त अङ्गों को लिट परे रहते गण (पञ्चमीसमर्थ विद्या तथा योनि-सम्बन्धवाची) ऋकारान्त होता है)। प्रातिपदिकों से (आगत' अर्थ में ठञ् प्रत्यय होता है)। ...ऋच्छिभ्याम् -I. iii. 29 . ऋतः-IV. iv.49 देखें - गम्वृच्छिभ्याम् I. iii. 29 (षष्ठीसमर्थ) ऋकारान्त प्रातिपदिक से (न्याय्य व्यवहार ऋजो: - VI. iv. 162 अर्थ में अञ् प्रत्यय होता है)। ऋजु अङ्ग के (ऋकार के स्थान में विकल्प से आटेश ...ऋत: - V. iv. 153 होता है; वेद विषय में; इष्ठन्,इमनिच, ईयसुन् परे रहते)। देखें-नहतः V. iv. 153 ऋत: - V.iv. 158 ...ऋण... -IH. iii. 111 (बहुव्रीहि समास में) ऋवर्णान्त शब्दों से (वेदविषय में *देखें-पर्यायाहर्णोत्पत्तिषु III. iii. 111 समासान्त कप् प्रत्यय नहीं होता)। ऋणम् - VIII. ii. 60 ऋत: -VI.i. 107 ऋणम् शब्द में ऋ धातु से उत्तर क्त के तकार को ऋकार से उत्तर (ङसि तथा ङस् का अकार हो तो पूर्वपर नकारादेश निपातन है,(आधमर्ण्य विषय में)। के स्थान में उकारादेश होता है.संहिता के विषय में)। ऋणे-II. 1. 42 ऋत: -VI. iii. 22 ऋण = कर्जा गम्यमान होने पर (कृत्य प्रत्ययान्त के साथ (विद्याकृत सम्बन्धवाची तथा योनिकृत सम्बन्धवाची) सप्तम्यन्त का तत्पुरुष समास होता है)। ऋकारान्त शब्दों से उत्तर (षष्ठी का उत्तरपद परे रहते अलुक ऋणे-IIii. 24 होता है)। (कर्तृभिन्न हेतुवाची शब्द में) ऋण वाच्य होने पर (पञ्चमी ऋतः -VI. iii. 24 विभक्ति होती है)। (विद्या तथा योनि सम्बन्धवाची) ऋकारान्त शब्दों के ऋणे - IV. iii. 47 (द्वन्द्व समास में उत्तरपद परे रहते अन आदेश होता है)। (सप्तमीसमर्थ कालवाची प्रातिपदिकों से देने योग्य है' ऋत: - VI. iv. 161 कहना हो और) ऋण अभिधेय हो तो (यथाविहित प्रत्यय __ (हल् आदि वाले भसज्ञक अङ्ग के लघु) ऋकार के स्थान होता है)। में (र आदेश होता है; इष्ठन, इमनिच तथा ईयसुन परे ऋत्... - IV.i.5 रहते)। देखें-ऋनेभ्यः IV.i.5 ऋतः -VII. ii. 43 ...ऋत्... - Iv.iii. 72 (संयोग है आदि में जिसके,ऐसे) ऋकारान्त धातु से उत्तर देखें-द्ववजब्राह्मण IV. iii. 72 (भी आत्मनेपदपरक लिङ् सिच्को विकल्प से इट् आगम ऋत्... - VII. 1. 94 होता है)। देखें-ऋदुशन VII. i.94 ऋत: -VII. ii.63 ऋत्... - VII. ii. 70 (तास् परे रहते नित्य अनिट), ऋकारान्त धातु से उत्तर . देखें-ऋद्धनो: VII. ii. 70 (थल को तास् के समान ही इट् आगम नहीं होता,भारद्वाज आचार्य के मत में)। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 ऋगुशनस्पुरुदंसोऽनेहसाम् . ऋतः -VII. ii. 100 ऋतो: - VII. iii. 11 (तिस तथा चतस अङ्गों के) ऋकार के स्थान में (अजादि (अवयववाची पूर्वपद से उत्तर) ऋतुवाची (उत्तरपद) विभक्ति परे रहते रेफ आदेश होता है)। शब्द के (अचों में आदि अच् को जित, णित् तथा कित् ऋत: - VII. iii. 110 तद्धित प्रत्यय परे रहते वृद्धि होती है)। ऋकारान्त अङ्गको (ङि तथा सर्वनामस्थान विभक्ति परे ऋत्विक्... -III. ii. 59 रहते गुण होता है)। देखें-ऋत्विम्दधृक् III. ii. 59 . ऋत: -VII. iv. 10 ...ऋत्विक्... - VI. ii. 133 (संयोग आदि में है जिसके, ऐसे) ऋकारान्त अङ्ग को देखें - आचार्यराज VI. ii. 133 (भी गुण होता है, लिट् परे रहते)। ऋत्विग्दधृक्स्रग्दिगृष्णिगञ्चयुजिक्रुञ्चाम् -III. ii. 59 ऋतः -VII. iv. 27 ऋत्विक, दधृक्, स्रक, दिक, उष्णिक - ये पाँच शब्द ऋकारान्त अङ्ग को (कृत-भिन्न एवं सार्वधातुक-भिन्न क्विन प्रत्ययान्त निपातन किये जाते हैं तथा अञ्चु, युजि, यकार तथा च्चि परे हो तो रीड़ आदेश होता है)।। क्रुश्च धातुओं से (भी क्विन् प्रत्यय होता है)। .. ऋत: -VII. iv.92 ...ऋत्विग्भ्याम् - V.i.70 ऋकारान्त अङ्ग के (अभ्यास को भी रुक,रिक तथा रीक् देखें- यज्ञविंग्भ्याम् V.i.70 आगम होता है, यङ्लुक होने पर)। ऋग्व्य ... - VI. iv. 175 ...ताभ्याम् - VIII. iii. 109 देखें - ऋग्व्यवास्त्व्य०VI. iv. 175 देखें - पृतनाभ्याम् VIII. iii. 109 ऋव्यवास्त्व्यवास्त्वमाध्वीहिरण्ययानि -VI. iv. 175 ...ऋति... - III. ii. 43 ऋत्व्य,वास्त्व्य,वास्त्व,माध्वी,हिरण्यय-ये शब्दरूप देखें - मेघर्तिः III. ii. 43 निपातन किये जाते हैं, (वेद विषय में)। ऋति-VI.i. 88 ऋदवग्रहात् - VIII. iv. 25 (अवर्णान्त उपसर्ग से उत्तर) ऋकारादि धातु के परे रहते । (वेद विषय में) ऋकारान्त अवगृह्यमाण.= अलग पढ़े (पूर्व पर दोनों के स्थान में वृद्धि एकादेश होता है,संहिता गये या पढ़े जाने योग्य पूर्वपद से उत्तर (नकार को णकाके विषय में)। रादेश होता है)। ऋति-VI.i. 124 ...ऋदिताम् -VII. iv.2 ऋकार परे रहते (अक् को शाकल्य आचार्य के मत में । देखें - अग्लोपिशास्वृदिताम् VII. iv. 2 प्रकृतिभाव तथा साथ ही उस अक् को ह्रस्व भी हो जाता ऋदुपधस्य - VI.i. 58 (उपदेश में अनुदात्त तथा) ऋकार उपधा वाली जो धातु, ...ऋतु... - IV. ii. 30 उसको (अम् आगम विकल्प से होता है, झलादि प्रत्यय देखे-वायवृतुपित्रुषस: IV. ii. 30 परे रहते)। ...ऋतु... - IV. iii. 16 ऋदुपधस्य - VII. iii. 90 देखें - सन्धिवेला० IV. iii. 16 ऋकार उपधा वाले अङ्ग के (अभ्यास को यङ् तथा ...ऋते -II. iii. 29 यङ्लुक में रीक् आगम होता है)। देखें - अन्यारादितरते. II. iii. 29 ऋते: - III. i. 29 ऋदुपधात् -III. I. 110 घृणार्थक सौत्र ऋत् धातु से (ईयङ् प्रत्यय होता है)। ऋकारोपध धातुओं से (भी क्यप् प्रत्यय होता है,क्लपि तो: - V.i. 104 और चूति धातुओं को छोड़कर)। (प्रथमासमर्थ) ऋतु-प्रातिपदिक से (षष्ठयर्थ में अण ऋदुशनस्पुरुदंसोऽनेहसाम् - VII. 1. 94 प्रत्यय होता है,यदि वह प्रथमासमर्थ ऋतप्रातिपदिक प्राप्त ऋकारान्त तथा उशनस्, पुरुदंसस्, अनेहस् अङ्गों को समानाधिकरण वाला हो तो)। (भी सम्बुद्धिभिन्न सु परे रहते अनङ् आदेश होता है)। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 131 ऋताम् ऋदशः -VII. iv. 16 ऋषि... -IV.i. 114 ऋवर्णान्त तथा दृशिर् अङ्ग को (अङ् परे रहते गुण देखें - ऋष्यन्धकवृष्णि IV.i. 114 होता है)। ऋषिदेवतयोः - III. ii. 186 ऋदोः -III. iii. 57 (पून धातु से) ऋषिवाची (करण) तथा देवतावाची (कर्ता) ऋकारान्त तथा उवर्णान्त धातुओं से (कर्तृभिन्न कारक में (डत्र प्रत्यय होता है. वर्तमान काल में)। संज्ञा तथा भाव में अप प्रत्यय होता है)। ऋषिभ्याम् - IV. iii. 103 ऋद्धनोः -VII. ii. 70 (तृतीयासमर्थ) ऋषिवाची (काश्यप और कौशिक) ऋकारान्त तथा हन् धातु के (स्य को इट् आगम होता. प्रातिपदिकों से (प्रोक्त अर्थ में णिनि प्रत्यय होता है)। ...ऋय.. -VII. ii. 49 ऋषी-VI.i. 148 देखें-इवन्तर्धo VII. 1.49 (प्रस्कण्व तथा हरिश्चन्द्र शब्द में सुट का निपातन किया ...ऋधाम् - VII. iv.55 जाता है),ऋषि अभिधेय हो तो। देखें-आपज्ञप्य॒धाम् VII. iv.55 ऋषः - IV. iii. 69 ऋनेभ्यः - IV.i.5 (षष्ठी तथा सप्तमीसमर्थ व्याख्यातव्यनाम) ऋषिवाची ऋकारान्त तथा नकारान्त प्रातिपदिकों से (स्त्रीलिङ्ग में प्रातिपदिकों से (भव,व्याख्यान अर्थों में अध्याय गम्यमान ङीप प्रत्यय होता है)। होने पर ही ठञ् प्रत्यय होता है)। ...ऋभुक्षाम् -VII. i. 85 ऋषौ - IV.iv.96 देखें - पथिमध्यभुक्षाम् VII. 1. 85 (षष्ठीसमर्थ हृदय शब्द से बन्धन अर्थ में भी) वेद अभि...ऋप्रय.. - IV.ii. 79 धेय होने पर (यत् प्रत्यय होता है)। देखें- अरीहणकृशाश्व० IV. 1.79 ऋषौ-VI. iii. 129 ऋयम... -V.i. 14 देखें - ऋषभोपानहो: V.i. 14 (मित्र शब्द उपपद रहते भी) ऋषि अभिधेय होने पर ...सभेभ्यः - V. iii. 91 (विश्व शब्द को दीर्घ हो जाता है)। . देखें- वत्सोक्षा० V. iii. 91 ऋष्यन्धकवृष्णिकुरुभ्यः - IV.i. 114 ऋषभोपानहो: - V.i. 14. ऋषिवाची तथा अन्धक, वृष्णि और कुरु वंश वाले (चतुर्थीसमर्थ विकृतिवाची) ऋषभ और उपानह प्राति- समर्थ प्रातिपदिकों से (भी अपत्य अर्थ में अण् प्रत्यय पदिकों से (उसकी विकृति के लिए प्रकृति' अभिधेय होता है)। होने पर 'हित' अर्थ में ज्य प्रत्यय होता है)। ऋहलो: - III.i. 124 ऋषि... -III. ii. 186 ऋवर्णान्त और हलन्त धातुओं से (ण्यत् प्रत्यय होता देखें- ऋषिदेवतयोः III. ii. 186 ऋत्... - III. iii. 57 देखें - ऋदोः III. iii. 57 ऋतः -VII. I. 100 ऋकारान्त (धातु अङ्ग) को (इकारादेश होता है)। ...ऋत: - VII. ii. 38 देखें-वृत: VIII. ii. 38 ...ऋताम् - VII. iv. 11 देखें - ऋच्छत्यृताम् VII. iv. 11 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 एकम् ल-प्रत्याहार सूत्र | -भगवान् पाणिनि द्वारा द्वितीय प्रत्याहार सूत्र में पठित द्वितीय वर्ण,जो अपने सम्पूर्ण बारह भेदों का ग्राहक होता है। -पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्णमाला का पांचवां वर्ण। ....लदितः-III. iv. 55 देखें-पुषादिद्यता III. iv. 55 ए-प्रत्याहार सूत्र III एक -VI. iii. 61 - आचार्य पाणिनि द्वारा तृतीयः प्रत्याहार सूत्र में एक शब्द को (तद्धित तथा उत्तरपद परे रहते हस्व होता पठित प्रथम वर्ण, जो अपने सम्पूर्ण बारह भेदों का ग्राहक है)। होता है। एक... - VIII. 1. 65 -पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्ण देखें- एकान्याभ्याम् VIII. I. 65 ... माला का छठा वर्ण। एक: - IV. 1. 93 ए-III. iv.79 (गोत्र में) एक ही (प्रत्यय) होता है। (टित् अर्थात् लट्, लिट्, लुट, लट्, लेट्, लोट् लकारों के जो आत्मनेपद आदेश-त,आताम,झ आदि,उनके एक: -VI. 1.81 टि भाग को) एकार आदेश हो जाता है। (पूर्व और पर दोनों के स्थान में) एक आदेश होगा,(यह ए-III. iii. 56 अधिकृत होता है)। इवर्णान्त धातुओं से (कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव एकगोपूर्वात् - V. ii. 118 में अच् प्रत्यय होता है)। एक शब्द जिसके पूर्व में हो, तथा गोशब्द जिसके पूर्व में होऐसे प्रातिपदिक से (मत्वर्थ में नित्य ही ठत्र प्रत्यय ए-III. iv. 86 होता है)। (लोट् लकार के जो तिप आदि आदेश.उनके) इकार एकदिक् - IV. iii. 112 को (उकार आदेश होता है)। (तृतीयासमर्थ प्रातिपदिक से)समानदिशा अर्थ में (यथाए - VI. iv. 67 विहित प्रत्यय होता है)। (कित्, ङित् लिङ् आर्धधातुक परे रहते घु,मा,स्था, गा, ...एकदेश... -V.iv.87 पा,हा तथा सा- इन अङ्गों को) एकारादेश हो जाता है। देखें- सर्वैकदेश V. iv. 87 ए - VI. iv.82 एकदेशिना - II. ii.1 (धात्ववयव असंयोगपूर्व अनेकाच) इवर्णान्त अङ्गको (पूर्व,अपर,अधर,उत्तर-ये सुबन्त शब्द एकद्रव्यवाची) (अच् परे रहते यणादेश होता है)। एकदेशी = अवयवी (समर्थ सुबन्त) के साथ (विकल्प से ...एक... - II. I. 48 समास को प्राप्त होते हैं और वह तत्पुरुष समास होता है)। देखें- पूर्वकालैकसर्वजरत II. I. 48 एकधुरात् - IV.iv.79 एक... -V.ii. 118 (द्वितीयासमर्थ) एकधुर प्रातिपदिक से (ढोता है' अर्थ में देखें - एकगोपूर्वात् V. ii. 118 ख प्रत्यय तथा उसका लुक् होता है)। ...एक... -V. iii. 15 एकम् -VIII. 1.9 देखें-सर्वैकान्य. V. iii. 15 (द्वित्व किये हुये) एक शब्द को (बहुव्रीहि के समान कार्य हो जाता है)। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकयोः 133 एकस्मिन् ...एकयोः -I. iv. 22 अनपुंसकगुण का ही वैशिष्ट्य हो,शेष प्रकृति आदि समान देखें -दूचेकयोः I. iv. 22 ही हो)। एकवचन... -I.iv. 101 एकवत् -I.iv. 105. देखें - एकवचन द्विवचनबहुवचनानि I. iv. 101 (परिहास गम्यमान हो रहा हो तो भी, मन्य है उपपद एकवचन द्विवचनबहुवचनानि -I. iv. 101 जिसका, ऐसी धातु से युष्मद् उपपद रहते, समान (उन तिडों के तीन-तीन अर्थात त्रिक की एक-एक करके अभिधेय होने पर युष्मद् शब्द का प्रयोग हो या न हो, क्रम से) एकवचन,द्विवचन और बहुवचन संज्ञा होती है। मध्यम पुरुष हो जाता है तथा उस मन धातु से उत्तम पुरुष हो जाता है और उस उत्तम पुरुष को) एकवत् = एकत्व एकवचनम् - I. ii. 61 (वेदविषय में पुनर्वसु नक्षत्र के द्वित्व अर्थ में विकल्प से) (भी) हो जाता है। एकत्व होता हैं। एकवर्जम् - VI.i. 152 एकवचनम् - II. iii. 49 (जिस एक पद में उदात्त या स्वरित विधान किया है, (आमन्त्रितसंज्ञक प्रथमा विभक्ति का) एकवचन उसी के) एक अच् को छोड़कर (शेष पद अनुदात्त अच् (संबुद्धिसञक होता है)। वाला हो जाता है)। एकवचनम् - II. iv.1 एकविभक्ति -I. ii. 44 (द्विगु समास) एकवचनान्त होता है। (समास विधीयमान होने पर) नियतविभक्तिवाला पद एकवचनस्य - VII. 1. 32 (भी उपसर्जन संज्ञक होता है, पूर्वनिपात उपसर्जन कार्य (युष्मद् अस्मद् अङ्ग से उत्तर पञ्चमी के) एकवचन के को छोड़कर)। . स्थान में (भी अत् आदेश होता है)। एकविभक्तौ-I. ii.64 एकवचनस्य-VIII. 1.22 एक = समान विभक्ति के परे रहते (समानरूप वाले (पद से उत्तर अपादादि में वर्तमान) एकवचन वाले शब्दों में से एक शेष रह जाता है, अन्य हट जाते है)। (युष्मद, अस्मद् पद) को (क्रमशःते.मे आदेश होते है और एकश-I. iv. 101 वे अनुदात्त होते है)। (उन तिों के तीन-तीन की) एक एक करके क्रम से ....एकवचनात् - V.iv.43 (एकवचन,द्विवचन और बहुवचन संज्ञा होती है)। देखें -संख्यैकवचनात् V. iv. 43 एकशालायाः-v. iii. 109 ...एकवचने-I. iv. 22 एकशाला प्रातिपदिक से (इवार्थ में विकल्प से ठच - देखें - द्विवचनैकक्चने I. iv. 22 प्रत्यय होता है)। एकवचने - IV. iii. 3 एकशेष -I. 1.64 . एक अर्थ को कहने वाले (युष्मद,अस्मद् शब्दों के स्थान (समान रूप वाले शब्दों में से) एक शेष रह जाता है में यथासङ्ख्य तवक,ममक आदेश होते है,उस ख तथा (अन्य हट जाते है,एक विभक्ति के परे रहते)। अण् प्रत्यय के परे रहते)। एकश्रुति -1. ii. 33 एकवचने - VII. ii.97 एक अर्थ का कथन करने वाले (युष्मद्, अस्मद् अङ्गके (दूर से बुलाने में वाक्य) एकश्रुति = एक जैसा स्वर वाला हो जाता है। मपर्यन्त भाग को क्रमशः त्व,म आदेश होते है)। एकस्मिन् -I.1.20 एकवत् -I. ii. 69 (नपुंसकलिङ्ग शब्द नपुंसकलिङ्गभिन्न शब्द अर्थात् एक में (भी आदि के समान और अन्त के समान कार्य । स्त्रीलिङ्ग पुंल्लिङ्ग शब्दों के साथ शेष रह जाता है, तथा । होते है। स्त्रीलिङ्ग पुंल्लिङ्ग शब्द हट जाते है एवं उस नपंसकलिङ्ग एकस्मिन् -1.li.58 शब्द को विकल्प से) एकवत् अर्थात् एक के समान कार्य (जाति को कहने में) एकत्व अर्थ में विकल्प करके बहत्व (भी) हो जाता है, (यदि उन शब्दों में नपुंसकगुण एवं हो जाता है)। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकस्य 134 एकादेशः एकस्य-V. iii.92 एकाचः - VI. iii.67 (किम,यत् तथा तत् प्रातिपदिकों से दो में से एक का (खिदन्त उत्तरपद रहते इजन्त) एकाच को (अम् आगम (पृथक्करण अर्थ में डतरच प्रत्यय होता है)। होता है, और वह अम् प्रत्यय के समान भी माना जाता एकस्य-V.iv. 19 एक शब्द के स्थान में (क्रियागणन' अर्थ में सकत एकाच: - VII. ii. 10 आदेश तथा सुच् प्रत्यय होता है) । (उपदेश में) एक अच् वाले (तथा अनुदात्त) धातु से उत्तर एकस्य -VI. iii.75 (इट का आगम नहीं होता)। (एक है आदि में जिसके, ऐसे नञ् को भी उत्तरपद परे एकाचः - VIII. ii. 37 रहते प्रकृतिभाव होता है तथा) एक शब्द को (आदुक् का (धातु का अवयव) जो एक अच् वाला (तथा झपन्त), आगम होता है)। उसके अवयव (बश् के स्थान में भष् आदेश होता है, एकहलादौ-VI. iii. 58 झलादि सकार तथा झलादि ध्व शब्द के परे रहते, पदान्त (जिसको पूरा किया जाना चाहिये,तद्वाची) एक = अस- में)। हाय हल है आदि में जिसके, ऐसे शब्द के उत्तरपद रहते एकाजाधसाम् -VII. ii.67 (विकल्प करके उदक शब्द को उद आदेश होता है)। (कृतद्विर्वचन) एकाच धातु तथा आकारान्त एवं घस् से (कतद्विर्वचन) एकाच धात तथा आका एकहल्मध्ये - VI. iv. 120 उत्तर (वसु को इट् आगम होता है)। . . . (लिट् परे रहते जिस अङ्ग के आदि को आदेश नहीं हुआ एकाजुत्तरपदे - VIII. iv. 12 है, उसके) असहाय हलों के बीच में वर्तमान (अकार को एक अच् है उत्तरपद में जिस समास के,वहां (पूर्वपद में एकारादेश तथा अभ्यासलोप हो जाता है; कित,डित् लिट् स्थित निमित्त से उत्तर प्रातिपदिकान्त, नुम् तथा विभक्ति परे रहते)। के नकार को णकार आदेश होता है)। एका-I. iv.1 एकात् - V.iii.44 (कडाराः कर्मधारये' II. ii. 38 सूत्र तक) एक (संज्ञा 'एक' प्रातिपदिक से उत्तर (जो धा प्रत्यय, उसके स्थान होती है, यह अधिकार है)। में विकल्प से ध्यमु आदेश होता है)। . एकाच -I.i. 14 एकात् - V. iii. 52 (आङ से भिन्न) एक स्वर वाले (निपातसंज्ञक शब्दों की अकेले' अर्थ में वर्तमान) 'एक' प्रातिपदिक से (आकिप्रगृह्य संज्ञा होती है)। निच् प्रत्यय तथा कन् और लुक् होते है)। एकाच - VI. iv. 163 एकात् -V.11.94 (भसञक) एक अच् वाला अङ्ग (प्रकृतिवत् बना रहता एक प्रातिपदिक से (भी अपने अपने विषयों में डतरच है; इष्ठन्, इमनिच, ईयसुन् परे रहते)। तथा डतमच प्रत्यय होते है,प्राचीन आचार्यों के मत में)। एकाच... -VII. ii.67 एकादशभ्यः -V. 11:49 . देखें - एकाजाद्घसाम् VII. ii. 67 (भाग' अर्थ में वर्तमान पूरण-प्रत्ययान्त) एकादश एकाच -III.1.22 सङ्ख्या से पहले पहले जो सङ्ख्यावाची शब्द, उनसे एक अच् है जिसमें, ऐसी (हलादि धातु) से (क्रियासम- (स्वार्थ में अण् प्रत्यय होता है, वेद-विषय को छोड़कर)। भिहार या अतिशय अर्थ में यङ् प्रत्यय होता है)। एकादिः -VI. iii.75 एकाचः -VI.1.1 एक है आदि में जिसके, ऐसे (नज) को (भी उत्तरपद परे (प्रथम) एक अच् वाले समुदाय को (द्वित्व हो जाता है)। रहते प्रकृतिभाव होता है, तथा एक शब्द को आदुक् का एकाच -VI.i. 162 आगम होता है)। (सप्तमी बहुवचन सु के परे रहते) एक अच वाले शब्द एकादेश: - VIII. 1.5 से उत्तर (तृतीया विभक्ति से लेकर आगे की विभक्तियों (उदात्त के साथ हुआ अनुदात्त का) एलादेश (उदात्त होता को उदात्त होता है)। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकाधिकरणे 135 ...एत एकाधिकरणे - II. i.1 पूर्व,अपर,अधर,उत्तर- ये सबन्त) एकाधिकरणवाची = एकद्रव्यवाची (एकदेशी = अवयवी समर्थ सुबन्त) के साथ (विकल्प से समास को प्राप्त होते है और वह तत्पुरुष त है और वह तत्पुरुष समास होता है)। एकान्तरम् -VIII. 1.55 . (आम् से उत्तर) एकपद का व्यवधान है जिसके मध्य में, ऐसे (आमन्त्रितसञ्जक) पद को (आमन्त्रित अर्थ में अन- दात्त नहीं होता)। एकान्याभ्याम् -VIII. 1.65 (समान अर्थ वाले) एक तथा अन्य शब्दों से युक्त (प्रथम तिङन्त को विकल्प से अनुदात्त नहीं होता,वेदविषय में)। ...एकाभ्याम्-v.iv.90 देखें-उत्तमैकाभ्याम् V. iv. 90 एकाल् - I. ii. 41 एक = असहाय अल् वाला (प्रत्यय अपृक्तसंज्ञक होता एकाहगमः -v.ii. 19 ' (षष्ठीसमर्थ अश्व प्रातिपदिक से) 'एक दिन में जाया जा सकने वाला मार्ग' कहना हो तो (खब प्रत्यय होता है)। एकेवाम् - VIII. ii. 104 (यजुर्वेद में तकारादि युष्मद.तत तथा ततक्षस परे रहते इण् तथा कवर्ग से उत्तर सकार को) कुछ आचार्यों के मत में (मूर्धन्य आदेश होता है)। एकैकस्य -VIII. ii. 86 (ऋकार को छोड़कर वाक्य के अनन्त्य गुरुसज्जक वर्ण को) एक-एक करके (तथा अन्त्य के टि) को (भी प्राचीन आचार्यों के मत में प्लुत उदात्त होता है)। ...एक-I.1.2 देखें- अदे I. 1.2 एक-1.1.74 (जिस समुदाय के अचों का आदि अच) एङ = ए, ओ में से कोई (हो,उसकी पूर्वदेश को कहने में वृद्ध संज्ञा होती एडि-VI.i. 90 (अवर्णान्त उपसर्ग से उत्तर) एक आदिवाले (धात) के परे रहते (पूर्व पर के स्थान में पररूप एकादेश होता है)। एहस्वात् - VI.i. 68 एडन्त तथा ह्रस्वान्त प्रातिपदिक से उत्तर (हल् का लोप होता है, यदि वह हल सम्बुद्धि का हो तो)। एच: -I. I. 46. एच् = ए,ओ,ऐ,ओं के स्थान में (ह्रस्वादेश करने में इक ही हस्व हो)। एच: --VI.i. 44 (उपदेश अवस्था में )जो एजन्त धातु,उसको (आकारादेश हो जाता है, इत्सञ्ज्ञक शकारादि प्रत्यय परे हो तो नहीं होता)। एच: -VI..75 एच = ए, ओ, ऐ, औ के स्थान में (यथासङ्ख्य करके अय, अव, आय, आव् आदेश होते है। अच् परे रहते, संहिता-विषय में)। एच:-VIII. 1. 107 (दूर से बुलाने के विषय से भिन्न विषय में अप्रगृह्यसञ्जक) एच के (पूर्वार्द्ध भाग को प्लत करने के प्रसङ्ग में आकारादेश होता है,तथा उत्तरवाले भाग को इकार उकार आदेश होते है)। एच-VI. 1.85 (अवर्ण से उत्तर जो एच् तथा) एच के परे रहते (जो अवर्ण- इन दोनों पूर्व पर के स्थान में वृद्धि एकादेश होता है)। ...एजन्तः -I.i.38 देखें-मेजन्तः I. I. 38 एजे: -III. ii. 28 "एज़ कम्पने', इस णिजन्त धातु से (कर्म उपपद रहते 'खश्' प्रत्यय होता है)। ...एणीपद... - V. iv. 120 देखें-सुप्रातसुश्व० V. iv. 120 एण्यः - IV. iii. 17 (प्रावृष प्रातिपदिक से) एण्य प्रत्यय होता है। एण्या: - IV. iii. 156 (षष्ठीसमर्थ एणी प्रातिपदिक से विकार और अवयव अर्थों में ठञ् प्रत्यय होता है)। ...एत्-I.i. 11 देखें - ईदूदेत् I. I. 11 गुरुसमकवा तथा अन्त्य पायों के मत एछ... -VI.1.67 देखें - एहस्वात् VI. I. 67 एड-VI. 1. 105 (पदान्त) एङ् से उत्तर (अकार परे रहते पूर्व पर के स्थान पर रहत पूर्व पर के स्थान में पूर्वरूप एकादेश होता है, संहिता के विषय में)। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 ...एदिताम् , ...एत्.. -V. iv. 11 एतयो:-IV.III. 140 देखें-किमेत्तिड V. iv. 11 (षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिकों से भक्ष्य तथा आच्छादनएत् -VI. iv. 119 वर्जित) विकार तथा अवयव अर्थों में (लौकिक प्रयोग (घु सज्जक अङ्ग एवं अस को) एकारादेश (तथा अभ्यास विषय में विकल्प से मयट् प्रत्यय होता है)। का लोप) होता है; हि,क्डित् परे रहते)। एति... - III.i. 109 एत् - VII. ili. 103 देखें - एतिस्तु III. i. 109 . (अकारान्त अङ्ग को बहुवचन झलादि सुप् परे रहते) एति - IV. iv. 42 (द्वितीयासमर्थ प्रतिपथ प्रातिपदिक से)'जाता है'- अर्थ एकारादेश होता है। में (ठन् तथा ठक् प्रत्यय होते है)। एत...-v.ii. 4 एति.. -VI.1.86 देखें- एतेतौ V. 1.4 देखें - एत्येधत्यूठसु VI. 1.86 एत -III. iv.90 एति-VII. iii.99 (लोट् सम्बन्धी) जो एकार,उसे (आम आदेश होता है)। (गकार-भिन्न इण तथा कवर्ग से उत्तर सकार को) एकार परे रहते (सञ्जाविषय में मूर्धन्य आदेश होता है)। एत-III. iv. 93 (लोट् लकार सम्बन्धी उत्तम पुरुष का) जो एकार,उसके एति - VII. iv. 51 (तास और अस के सकार को एकारादेश होता है).एकार स्थान में (ऐं' आदेश होता है)। परे रहते । एत:-III. iv.96 (लेट् सम्बन्धी) जो एकार, उसके स्थान में (ऐकारादेश एतिस्तुशास्वदजुषः -III. 1. 109 बिकल्प से होता है, आत ऐं' सूत्र के विषय को छोड़कर)। ___ इण.ष्टुञ,शासु,ज.दङ, जुषी - इन धातुओं से (क्यप् एत:-VIII. 1. 81.. प्रत्यय होता है)। (असकारान्त अदस शब्द के दकार से उत्तर) एकार के एते:-VII. iv. 14 स्थान में (ईकारादेश भी होता है, एवं दकार को मकार भी (उपसर्ग से उत्तर) 'इण् गतौ' अङ्ग को (यकारादि कित्, होता है; बहुत पदार्थों को कहने में)। डित् लिङ् परे रहते ह्रस्व होता है)1. एतत्...-VI. 1. 128 एतेतौ -V. iii. 4. देखें - एत्तदो: VI. i. 128 (इदम् शब्द के स्थान में रेफादि तथा थकारादि प्रत्ययों ...एतत्... -VI. 1. 162 के परे रहते यथासङ्ख्य करके) एत तथा इत आदेश होते देखें-इदमेतत् VI. II. 162 एतत्तदोः -VI.1. 128 ...एतेभ्यः -Vil. 39 (ककार जिनमें नहीं है तथा जो नब समास में वर्तमान देखें- यत्तदेतेभ्य: V. 1.39 नहीं है। ऐसे) एतत तथा तत् शब्दों के (स का लोप हो एतेभ्य: -V. iv.88 जाता है, हल् परे रहते; संहिता के विषय में)। इन (सङ्ख्यावाची, अव्ययवाची तथा सर्व,एकदेशवाएतदः -II. iv. 33 . चक शब्द सङ्ख्यात और पुण्य शब्द) से उत्तर(अहन् शब्द (अन्वादेश में वर्तमान) एतत् के स्थान में (त्र और तस् के स्थान में अह्न आदेश होता है,तत्पुरुष समास में)। प्रत्ययों के परे रहते अनुदात्त अश् होता है, तथा च और एत्येपत्यूठसु -VI. 1. 86. इण् गतौ धातु के एच से पूर्व तथा एध एवं ऊठ के अच् तस् भी अनुदात्त हो जाते है)। से पूर्व (जो अवर्ण तथा उस अवर्ण से उत्तर जो अच,उन एतदः-v.iil.5 दोनों पूर्व पर के स्थान में संहिता के विषय में वृद्धि (दिक्शब्देभ्यः सप्तमी.'v.iii.27 सत्र तक कहे जाने एकादेश होता है)। वाले प्रत्ययों के परे रहते) एतत् के स्थान में (अन् आदेश ...एदिताम् - VII. II.S होता है)। देखें-हवन्तक्षण. VII. 1.5 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....एघ... 137 ...एध... -VI. iv. 29 एव-III.i.88 देखें - अवोदैधौ० VI. iv. 29 (तप सन्तापे' धातु के कर्ता को कर्मवभाव हो जाता ...एधति... -VI.i.86 है,यदि वह तप धातु तप कर्मवाली) ही हो.(अन्य किसी देखें - एत्येधत्यूठसु VI.i. 86 कर्म वाली न हो)। एघाच - V. iii. 46 एव-III. iv.70 (द्वि तथा त्रि सम्बन्धी धा प्रत्यय को विकल्प से) एधाच (कृत्यसंज्ञक प्रत्यय, क्त और खल अर्थ वाले प्रत्यय . आदेश (भी) होता है। भाव और कर्म में) ही (होते है)। एन: -II. iv. 34 एव-III. iv. 111 (अन्वादेश में वर्तमान इदम् और एतद् के स्थान में (आकारान्त धातुओं से उत्तर लङके स्थान में जो झि द्वितीया, टा और ओस विभक्ति परे रहते) एन आदेश आदेश उसको जुस् आदेश होता है,शाकटायन आचार्य होता है। के मत में) ही। एनप -V.iii. 35 एव-IV. iii.69 (दिशा,देश और काल अर्थों में वर्तमान पञ्चम्यन्तवर्जित (षष्ठी तथा सप्तमीसमर्थ व्याख्यातव्यनाम ऋषिवाची सप्तमीप्रथमान्त दिशावाची उत्तर अधर और दक्षिण प्राति प्रातिपदिकों से भव,व्याख्यान अर्थों में अध्याय गम्यमान पदिकों से विकल्प से) एनप् प्रत्यय होता है, (निकटता। होने पर) ही (ठञ् प्रत्यय होता है)। गम्यमान हो तो)। एव-v.ill.58 एनपा-II. iii. 31 (इस प्रकरण में कहे गये अजादि प्रत्यय अर्थात् इष्ठन, ईयसुन गुणवाची प्रातिपदिक से) ही (होते है)। . एनप प्रत्ययान्त के योग में द्वितीया विभक्ति होती है)। एव -VI. 1.77 ....एय... -VII.1.2 ' (यकारादि प्रत्यय-निमित्तक) ही (जो धातु का एच, देखें-आयनेयी० VII.i.2 उसको यकारादि प्रत्यय के परे रहते वकारान्त अर्थात् अव, ...एलयति - III.i. 51 आव आदेश होते है,संहिता के विषय में)। देखें-ऊनयतिध्वनयति III. 1.51 एव-I.1.65 एव - VI. ii. 80 (वृद्ध = गोत्र प्रत्ययान्त शब्द युवा प्रत्ययान्त के साथ (शब्दार्थवाली प्रकृति है जिन णिनन्त शब्दों की,उनके उत्तरपद रहते) ही (उपमानवाची पूर्वपद को आधुदात्त होता शेष रह जाता है, यदि वृद्ध युव प्रत्यय-निमित्तक) ही (भेद हो तो)। एव-I. iv.8 एव-VI. II. 148 (सज्ञाविषय में आशीर्वाद गम्यमान हो तो कारक से (पति शब्द समास में) ही घिसंज्ञक होता है)। . उत्तर क्तान्त दत्त तथा श्रुत शब्दों को) ही (अन्त उदात्त होता एव - II. ii. 20 (अव्यय के साथ उपपद का यदि समास होता है तो एव-VI. iv. 145 वह अमन्त अव्यय के साथ) ही (होता है, अन्य अव्ययों (अहन अङ्ग के टि भाग का ट तथा ख तद्धित प्रत्यय के साथ नहीं)। परे रहते) ही (लोप होता है)। एव-II. iv. 62 pa - VIII: i. 62 (बहुत्व अर्थ में वर्तमान तद्राजसंज्ञक प्रत्यय का लुक (च तथा ह का लोप होने पर प्रथम तिङन्त को अनुदात्त होता है,स्त्रीलिंग को छोड़कर यदि वह बहुत्व उस तद्राज- नहीं होता यदि) एव (शब्द वाक्य में अवधारण अर्थ में संझक-कृत) ही (हो तो)। प्रयुक्त किया गया हो तो)। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 ऐश्वर्ये एव-VIII. iii. 61 (अभ्यास के इण से उत्तर स्तु तथा ण्यन्त धातुओं के आदेश सकार को) ही (षत्वभूत सन् परे रहते मूर्धन्य आदेश होता है)। ...एवम्... - III. iv. 27 देखें- अन्यथैवंकथन III. iv. 27 ...एवयुक्ते-VIII. 1. 24 देखें- चवाहाo VIII. I. 24. एश्... - III. iv. 81 देखें- एशिरेच् III. iv. 81 . एशिरेच् - III. iv. 81 (लिट् के स्थान में जो त और झ आदेश, उनको यथा- सङ्ख्य करके) एश् और इरेच आदेश होते हैं। ...एषा... - VII. iii. 47 देखें- भखैषा VII. iii. 47 एषाम् - v. ii. 78 (प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से) षष्ठ्यर्थ में (कन् प्रत्यय होता है, यदि वह प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक ग्राम का मुखिया हो तो)। एषाम् - V. iii. 39 (दिशा, देश तथा काल अर्थों में वर्तमान सप्तम्यन्त, पञ्चम्यन्त तथा प्रथमान्त दिशावाची पूर्व,अधर तथा अवर प्रातिपदिकों से असि प्रत्यय होता है और प्रत्यय के साथसाथ) इन शब्दों को (यथासङ्ख्य करके पुर, अध् तथा अव् आदेश भी होते हैं)। एहि... -VIII. 1.46 देखें - एहिमन्ये VIII. 1.46 एहिमन्ये - VIII. I.46 एहि तथा मन्ये से युक्त (लडन्त तिङन्त को प्रहास गम्यमान हो तो अनुदात्त नहीं होता)। ऐ-प्रत्याहार सूत्र V - आचार्य पाणिनि द्वारा अपने चतुर्थ प्रत्याहार सूत्र में पठित प्रथम वर्ण, जो अपने सम्पूर्ण बारह भेदों का ग्राहक होता है। -पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्णमाला का आठवां वर्ण। ऐ-III. iv.93 (लोट् लकार-सम्बन्धी उत्तम पुरुष का जो एकार,उसके स्थान में) ऐ' आदेश होता है। ऐ-III. iv.95 (लेट् सम्बन्धी जो आकार उसके स्थान में) ऐकारादेश होता है। ऐ - IV. 1. 36 (अनुपसर्जन पतक्रतु प्रातिपदिक से स्त्रीलिंग में डीप् प्रत्यय होता है, तथा) ऐकारान्तादेश (भी) हो जाता है। ऐकागारिकट - V.i. 112 (प्रयोजनसमानाधिकरणवाची प्रथमासमर्थ एकागार प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ में) ऐकागारिकट' शब्द का निपातन किया जाता है, (चोर अभिधेय हो तो)। ...ऐक्ष्वाक... - VI. iv. 174 देखें-दाण्डिनायनहास्ति० VI. iv. 174 .....ऐच -I.i.1 . देखें - आदैच् I.i.1 ऐच - VII. ifi.3 (पदान्त यकार तथा वकार से उत्तर जित.णित. कित् तद्धित परे रहते अङ्ग के अचों में आदि अच् को वृद्धि नहीं होती, किन्तु उन यकार वकार से पूर्व तो क्रमशः) ऐ. औ आगम होता है। ऐच: - VIII. I.106 ऐच के स्थान में (जब प्लुत का प्रसङ्ग हो तो उस ऐच के अवयवभूत इकार उकार प्लुत होते हैं)। ऐरक्-IV.i. 128 (चटका शब्द से अपत्य अर्थ में) ऐरक प्रत्यय होता है। ऐश्वये -v.ii. 126 स्वामिन'- यह शब्द आमिन-प्रत्ययान्त 'मत्वर्थ में' निपातन किया जाता है),ऐश्वर्य गम्यमान हो तो। ऐश्वर्ये -VI. ii. 18 ऐश्वर्यवाची (तत्पुरुष समास) में (पति शब्द उत्तरपद रहते पूर्वपद को प्रकृतिस्वर हो जाता है)। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐषमस्... 139 ओत् ऐषमस्... - IV.ii. 104 देखें - ऐषमोहःश्वस: IV.ii. 104 ...ऐषमस्... - v. iii. 22 देखें - सद्य:परुत v. iii. 22 ऐषमोहाःश्वस: - IV.ii. 104 ऐषमस, हास, श्वस् प्रातिपदिकों से (विकल्प से त्यप् प्रत्यय होता है)। ऐषमः = इस वर्ष में। ...ऐषकार्यादिभ्यः - IV.ii. 53 देखें - भौरिक्याद्यैषु० IV. ii. 53 ऐस् - VII. i.9 (अकारान्त अङ्ग से उत्तर भिस् के स्थान में) ऐस् आदेश होता है। ओ-प्रत्याहारसूत्र II - आचार्य पाणिनि द्वारा अपने ततीय प्रत्याहार सूत्र में पठित द्वितीय वर्ण,जो अपने सम्पूर्ण बारह भेदों का ग्राहक होता है। -पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्णमाला का सातवाँ वर्ण। . ओ-IV.iv. 108 (सप्तमीसमर्थ समानोदर प्रातिपदिक से 'शयन किया हुआ' अर्थ में यत् प्रत्यय होता है, तथा समानोदर शब्द के) ओकार को (उदात्त होता है)। ओ: -III. I. 125 उवर्णान्त धातु से (आवश्यक द्योतित होने पर ण्यत् प्रत्यय होता है)। ...ओ: - III. iii. 57 . देखें - ऋदोः III. iii. 57 ओ: - IV. ii. 70 (प्रथमा: ततीया तथा षष्ठीसमर्थ) उवर्णान्त प्रातिपदिकों से (उपरिकथित चारों अर्थों में अञ् प्रत्यय होता है)। ओ: - IV.ii. 118 उवर्णान्त (देशवाची प्रातिपदिकों) से (शैषिक ठत्र प्रत्यय होता है)। ओ: – IV. ii. 136 (षष्ठीसमर्थ) उवर्णान्त प्रातिपदिक से विकार और अवयव अर्थों में अञ् प्रत्यय होता है)। ओ:-VI. iv.83 (धातु का अवयव,संयोग पूर्व नहीं है। जिस उवर्ण के तदन्त (अनेकाच) अङ्गको (अजादि सुप परे रहते यणादेश होता है)। ओ: - VI. iv. 146 (भसज्ज्ञक) उवर्णान्त अङ्ग को (गण होता है.तद्धित परे रहते)। ओ: - VII. iv. 80 (अवर्णपरक पवर्ग,यण तथा जकार पर वाले) उवर्णान्त (अभ्यास) को (इकारादेश होता है, सन् परे रहते)। ओक:-VII. iii.64. (उच समवाये' धातु से क प्रत्यय परे रहते) ओक शब्द निपातन किया जाता है। ओजःसहोम्भसा - Iv.iv. 27 (तृतीयासमर्थ) ओजस,सहस, अम्भस प्रातिपदिकों से (व्यवहार करता है' अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है)। ओजःसहोम्भस्तमस: - VI. iii. 3 ओजस्, सहस, अम्भस् तथा तमस् शब्दों से उत्तर (तृतीया विभक्ति का उत्तरपद परे रहते अलुक होता है)। ओजस... - IV. iv. 27 देखें- ओजःसहोम्भसा IV. iv. 27 ओजस्... - VI. ii.3 देखें - ओजःसहोम्भस्o VI. iii. 3 ओजस: - IV. iv. 130 ओजस प्रातिपदिक से (मत्वर्थ में यत और ख प्रत्यय होते है; दिन अभिधेय हो तो.वेद विषय में)। ओत् -I.i. 15 ओकारान्त (निपात प्रगृह्यसञ्जक होता है)। ओत् -VI. iii. 111 (ढकार और रेफ का लोप होने पर सह तथा वह धातु के अवर्ण को) ओकारादेश होता है। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओत: 140 ओत: -VI.1.90 ओकारान्त से उत्तर (अम तथा शस विभक्ति के अच परे रहते पूर्व पर के स्थान में आकार एकादेश होता है, संहिता के विषय में)। ओत: -VII. iii.71 ओकारान्त अङ्ग का (श्यन् परे रहते लोप होता है)। ओत: - VIII. iii. 20 ओकार से उत्तर (यकार का लोप होता है,गार्य आचार्य के मत में)। ...ओदन... - VI. ill. 59 देखें- मन्यौदन VI. 1.59 . ....ओदनात् - IV. iv.67 देखें- श्राणामांसौदनात् IV. iv.67 ओदित:-VIII. ii. 45 ओकार इत् वाले धातुओं से उत्तर (भी निष्ठा के नकारादेश होता है)। ...ओर... -VI. iv. 29 देखें - अवोदैछौo VI. iv. 29 ओम्... -VI.1.92 देखें- ओमाडो: VI.1.92 ओम् - VIII. ii. 87 (प्रारम्भ में वर्तमान) ओम् शब्द को (प्लुत उदात्त होता ...ओषधि.. - IV. il. 132 देखें- प्राण्योषधिवृक्षेभ्यः IV. 1. 132 ओषधि.. - VIII. iv.6 देखें- ओषधिवनस्पतिभ्यः VIII. iv. 6 ओषधिवनस्पतिभ्यः - VIII. iv.6. ओषधिवाची तथा वनस्पतिवाची (पूर्वपद में स्थित नि- .. मित्त) से उत्तर (वन शब्द के नकार को विकल्प करके णकारादेश होता है)। ओषधेः - v. iv. 37 (जाति में वर्तमान न हो तो) ओषधि प्रातिपदिक से (स्वार्थ में अण् प्रत्यय होता है)। ओषधेः-VI. ill. 131 (मन्त्र विषय में प्रथमा से भिन्न विभक्ति के परे रहते) ओषधि शब्द को (भी दीर्घ हो जाता है)। . ...ओष्ठ.. - IV.I.55 देखें- नासिकोदरीष्ठ .1.55 ओष्ठ्य ..-VII. I. 102 देखें- ओष्ठ्यपूर्वस्य VII. 1. 102 ओष्ठ्य पूर्वस्य -VII.1. 102 - ओष्ठ्य वर्ण पूर्व है जिस (ऋकार) से, तदन्त (धातु) को (उकारादेश होता है)। ....ओ.. - IV. 1.2 देखें - स्वौजसमौट्o V. 1.2 ओसि - VII. II. 104 ओस् परे रहते (भी अकारान्त अङ्ग को एकारादेश होता है)। ...ओस्स-II. iv. 34 देखें- द्वितीयाटोस्सु II. iv.34 ओमाझे:-VI.1.92 (अवर्ण से उत्तर) ओम् तथा आङ् के परे रहते (भी पूर्व पर के स्थान में पररूप एकादेश होता है,संहिता के विषय में)। औ-प्रत्याहार सूत्र V - आचार्य पाणिनि द्वारा चतुर्थ प्रत्याहार सूत्र में पठित द्वितीय वर्ण,जो अपने सम्पूर्ण बारह भेदों का ग्राहक होता -पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्णमाला का नौवां वर्ण। đi... - V. 1. 2 देखें- स्वौजसमौट् IV.1.2 at - V. 1. 38 (मनु शब्द से स्त्रीलिंग में विकल्प से ङीप प्रत्यय) औकार अन्तादेश (एवं ऐकार अन्तादेश भी हो जाता है, और वह ऐकार उदात्त भी होता है)। औ-VII.1.34 (आकारान्त असे उत्तर णल के स्थान में) औकारादेश हो जाता है। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औ औ - - VII. ii. 107 (अदस् अङ्ग को) औ आदेश (तथा सु का लोप होता. है) । औक्थिक... - IV. III. 128 iii. देखें - छन्दोगौक्थिकo IV. iii. 128 - औक्षम् VI. Iv. 173 ( अनपत्यार्थक अण् परे रहते) औक्षम् यहाँ टिलोप निपातन किया जाता है। - औड - VII. 1. 18 ( आबन्त अङ्ग से उत्तर) और औ तथा और के स्थान में (शी आदेश होता है ) । ... और... - IV. 1. 2. देखें - स्वौजसमौट् IV. 1. 2 औत् - VII. 1. 84 (दिव् अङ्ग को सु परे रहते) औकारादेश होता है। - क् - प्रत्याहारसूत्र II भगवान् पाणिनि द्वारा अपने द्वितीय प्रत्याहार सूत्र में इत्सञ्ज्ञार्थ पठित वर्ण । इससे तीन प्रत्याहार बनते हैं अक्, इक् और उक् । — .. क् - I. 1. 5 देखें विडति 1.1.5 - क्... - VI. iv. 15 देखें fasfar VI. iv. 15 क्... - VI. iv. 24 देखें fisfir VI. iv. 24 - क्... - VI. iv. 63 देखें- fafi VI. iv. 63 - = क्... VI. iv. 98 देखें - क्ङिति VI. iv. 98 क्... VII. iv. 22 देखें fasfa VII. iv. 22 - 141 क... - VIII. iii. 37 देखें - क= पौ VIII. iii. 37 = क पौ - VIII. iii. 37 (कवर्ग तथा पवर्ग परे रहते विसर्जनीय को यथासङ्ख्य करके) = क अर्थात् जिह्वामूलीय तथा प अर्थात् क औत् VII. III. 118 (इकारान्त, उकारान्त अङ्ग से उत्तर ङि को) औकारादेश होता है, तथा मिसञ्ज्ञक को अकारादेश होता है)। औपम्ययोः देखें औपम्ये - 1. iv. 78 (जीविका और उपनिषद् शब्दों की उपमा के विषय में (कृञ् के योग में नित्य गति और निपात संज्ञा होती है) । औपम्ये - IV. 1. 69 ( शब्द उत्तरपद वाले प्रातिपदिकों से) औपम्य गम्यमान होने पर (स्त्रीलिंग में कुछ प्रत्यय होता है)। औश् औ - VII. 1. 21 VI. ii. 113 संज्ञौपम्ययो: VI. . 113 (आत्व किये हुये अष्ट शब्द से उत्तर जस् और शस् के स्थान में) और आदेश होता है। उपध्मानीय आदेश होते है (तथा चकार से विसर्जनीय भी होता है) । (=क= जिह्वामूलीय, पउपध्मानीय ) । क - प्रत्याहारसूत्र XII. में पठित प्रथम वर्ण। क - पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्णमाला का अड़तीसवां वर्ण । - आचार्य पाणिनि द्वारा अपने बारहवें प्रत्याहार सूत्र III. ii. 77 (सोपसर्ग या निरुपसर्ग स्था धातु से सुबन्त उपपद रहते) क (तथा क्विप्) प्रत्यय होता है। क ...क - III. iii. 83 (स्तम्ब शब्द उपपद रहते हुए करण कारक में हन् धातु से) क प्रत्यय ( तथा अप् प्रत्यय भी होता है और अप प्रत्यय परे रहने पर हन को घन आदेश भी हो जाता है)। ...क..... - - IV. ii. 79 — gyvado IV. ii. 79 - क - IV. ii. 139 (राजन् शब्द से शैषिक छ प्रत्यय होता है, तथा उसको) क अन्तादेश (भी) होता है। ... क - VII. 1. 9 देखें - तितुत्रo VII. II. 9 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंशम्भ्याम् 142 कंशम्भ्याम् -V.ii. 138 कक्... - IV. iv. 21 कम तथा शम् प्रातिपदिकों से (मत्वर्थ में ब,भ,युस.ति, देखें- कक्कनौ IV. iv. 21 तु,त तथा यस् प्रत्यय होते हैं)। कक्कनौ - IV. iv. 21 कः - III. 1. 135 (तृतीयासमर्थ अपमित्य और याचित प्रातिपदिकों से (इक उपधावाली धातुओं से तथा ज्ञा,प्री तथा कृ धातु निर्वृत्त अर्थ में यथासङ्ख्य करके) कक और कन प्रत्यय . से) क प्रत्यय होता है। होते हैं। कः-III.i. 144 (गेह वाच्य होने पर ग्रह धात से) क प्रत्यय होता है। ककुदस्य - V. iv. 146 कः -III. 1.3 (बहुव्रीहि समास में) ककुद शब्दान्त का (समासान्त (अनुपसर्ग आकारान्त धातु से कर्म उपपद रहते) क लोप होता है, अवस्था गम्यमान होने पर)। प्रत्यय होता है। कक्षीवत् - VIII. ii. 12 क: - III. iii.41 (निवास, चिति = चयन, शरीर तथा उपसमाधान कक्षीवत् शब्द का निपातन किया जाता है। =राशि अर्थों में चिञ् धातु से घञ् प्रत्यय होता है तथा ...कच्चित् - VIII. I. 30 चित्र के आदि चकार को) ककारादेश हो जाता है,(कर्तृ- देखें- यद्यदिO VIII. I. 30 . भिन्न कारक संज्ञाविषय तथा भाव में)। कच्छ... - IV. ii. 125 कः -V. iii.70 देखें- कच्छाग्निवक्त्र० IV. ii. 125 (इवे प्रतिकृतौ' v. iii. 70 सूत्र से पहले पहले) क कच्छाग्निवकागतॊत्तरपदात् - IV. ii. 125 .. प्रत्यय अधिकृत होता है। (देश में वर्तमान) कच्छ, अग्नि, वक्त्र, गर्त - ये उत्तकः-v.iv. 28 (अवि प्रातिपदिक से स्वार्थ में ) क प्रत्यय होता है। रपद में है जिनके, ऐसे (वृद्धसंज्ञक तथा अवृद्धसंज्ञक) प्रातिपदिकों से (शैषिक वुज् प्रत्यय होता है)। क: - VII. ii. 103 (किम् अङ्ग को विभक्ति परे रहते) क आदेश होता है। कच्छादिभ्यः - IV.ii. 132 , क: -VII. iii. 51 (देशविशेषवाची) कच्छादि प्रातिपदिकों से (भी शैषिक (इसन्त,उसन्त,उगन्त तथा तकारान्त अङ्ग से उत्तर ठ के अण प्रत्यय होता है)। स्थान में) क आदेश होता है। ....कज्जलम् - VI. ii.91 कः -VIII. ii. 41 देखें - भूताधिक० VI. ii. 91. (षकार तथा ढकार के स्थान में) क आदेश होता है, (सकार परे रहते)। कञ्-III. ii. 60 क: -VIII. ii. 51 (अनालोचन अर्थ में वर्तमान 'दृश्' धातु से त्यदादि (शुष् शोषणे' धातु से उत्तर निष्ठा के तकार को) कका शब्द उपपद रहते) कञ् प्रत्यय होता है, (तथा चकार से रादेश होता है। क्विन् भी होता है)। क: - VIII. iii. 50 ...क... - IV.i. 15 देखें- टिड्ढाण IV. 1. 15 देखें - कःकरत VIII. iii. 50 कःकरत्करतिकृधिकृतेषु - VIII. iii. 50 कटच् - V.ii. 29 कः,करत,करति, कृधि,कृत - इनके परे रहते (अदिति __ (सम्, प्र, उत् तथा वि - इन उपसर्ग प्रातिपदिकों से) को छोड़कर जो विसर्जनीय उसको सकारादेश होता है, कटच् प्रत्यय होता है। वेद-विषय में)। कटादेः - IV.ii. 138 ...कक्... - IV. ii. 79 कट शब्द आदि में है जिनके,ऐसे (प्राग्देशवाची) प्रातिदेखें-खुच्छण्कठO IV.ii.79 पदिकों से (शैषिक छ प्रत्यय होता है)। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...कटुक... 143 ...कतिपय... ...कटुक... -VI. ii. 126 कण्ठपृष्ठग्रीवाजम् - VI. ii. 114 देखें- चेलखेटO VI. ii. 126 (सज्ञा तथा औपम्य विषय में वर्तमान बहुव्रीहि समास ...कट्यच:-IVii. 50 में) कण्ठ, पृष्ठ,ग्रीवा,जला - इन उत्तरपद शब्दों को (भी देखें- इनित्रकट्यच: IV. ii. 50 आधुदात्त होता है)। कठ... -IV. iii. 107 कण्ड्वादिभ्य: -III. i. 27 . देखें- कठचरकात् IV. iii. 107 कण्डूज् आदि = कण्ड्वादिगणपठित धातुओं से (यक् प्रत्यय होता है)। . कठचरकात् - IV. iii. 107 ...कण्व... - III. 1. 17 कठ और चरक शब्द से उत्पन्न (प्रोक्त प्रत्यय का छन्द देखें - शब्दवैरकलहा. III. 1. 17 विषय में लुक् होता है)। कण्वादिभ्यः - IV. 1. 110 कठिनान्त... - IV. iv. 72 कण्वादि प्रातिपदिकों से (गोत्र में विहित जो प्रत्यय, देखें - कठिनान्तप्रस्तार• IV. iv. 72 तदन्त प्रातिपदिक से शैषिक अण प्रत्यय होता है)। कठिनान्तप्रस्तारसंस्थानेषु - IV. iv. 72 कत् -VI. iii. 100 (सप्तमीसमर्थ) कठिन शब्द अन्तवाले, प्रस्तार तथा (क को तत्पुरुष समास में अजादि शब्द उत्तरपद हो तो) संस्थान प्रातिपदिकों से (व्यवहार करता है' अर्थ में ठक कत आदेश होता है। प्रत्यय होता है)। .. ...कत... - V... 120 कडङ्कर..-v.i. 68 . देखें - अचतुरमङ्गलov.i. 120 देखें - कङ्करदक्षिणात् V. i. 68 ...कतन्तेभ्य: - IV.i. 18 करदक्षिणात् - V.i. 68 देखें- लोहितादिकतन्तेभ्यः IV.i. 18 (द्वितीयासमर्थ) कडडर और दक्षिणा प्रातिपदिकों से (छ....कतमो-II.i. 62 और यत् प्रत्यय होते हैं, समर्थ है' अर्थ में)। देखें- कतरकतमौ II..62 कडारा: -II. ii. 38 ...कतमौ -VI. ii. 57 कडारादि शब्द (कर्मधारय समास में पूर्व प्रयुक्त होते - देखें- कतरकतमो VI. ii. 57 है, विकल्प से)। कतर... -II. . 62 देखें- कतरकतमौ II. 1.62 कंडारात् - I. iv.1 कतर... -VI. ii. 57 'कडाराः कर्मधारये' II. ii. 38 सूत्र (तक एक संज्ञा है, देखें- कतरकतमौ VI. ii. 57 यह अधिकार है)। कतरकतमौ-II.i.62 कडारात् - II. 1.3 (जाति के विषय में विविध प्रश्न में वर्तमान) कतर,कतम 'कडाराः कर्मधारये II. ii. 38 से (पहले पहले समास शब्द (समानाधिकरण समर्थ सुबन्त के साथ तत्पुरुष सज्ञा का अधिकार जायेगा)। समास को प्राप्त होते हैं)। कणे... - I. iv. 65 कतरकतमौ -VI. ii. 57 खें- कणेमनसी I. iv. 65 कतर तथा कतम पूर्वपद को (कर्मधारय समास में कणेमनसी - I. iv. 65 विकल्प से प्रकृतिस्वर होता है)। कणे और मनस शब्द (क्रियायोग में गति और निपात ..कति... -v.ii. 51 संज्ञक होते है,श्रद्धा के प्रतीघात अर्थ में)। देखें- षट्कति० V.ii. 51 कण्ठ... -VI. I. 114 ...कतिपय..-I.i. 32 देखें- कण्ठपृष्ठ VI. ii. 114 देखें- प्रथमचरमतयाल्पार्धकतिपयनेमाः I.1. 32 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...कतिपय... 144 ...कतिपय... - II. 1.64 कन् - IV. ii. 130 देखें- पोटायुवतिस्तोक II.i.64 (देशविशेषवाची मद्र,वृजि शब्दों से शैषिक) कन् प्रत्यय ...कतिपय... - V. ii. 51 . होता है। देखें- षट्कतिov.ii. 51. कन् - IV. iii. 32 ...कतिपयस्य - II. iii. 33 (सप्तमीसमर्थ सिन्धु तथा अपकर शब्दों से जातार्थ में) देखें- स्तोकाल्पकृच्छ्र II. iii. 33 कन् प्रत्यय होता है। ...कत्य... - III. ii. 143 कन् - IV. iii. 65 (सप्तमीसमर्थ कर्ण तथा ललाट शब्दों से भव अर्थ में देखें - कपलस III. ii. 143 आभूषण अभिधेय हो तो) कन् प्रत्यय होता है। कठ्यादिभ्यः -IV. .94 कठ्यादि प्रातिपदिकों से (शैषिक अर्थों में ढकञ् प्रत्यय कन् - IV. iii. 144 होता है)। (षष्ठीसमर्थ पिष्ट प्रातिपदिक से संज्ञाविषय में विकार ...कत्य... - III. ii. 143 अर्थ कहना हो तो) कन् प्रत्यय होता है। देखें- कष...स्त्रम्भः III. ii. 143 कन् -V.i. 22 (सङ्ख्यावाची प्रातिपदिक से 'तदर्हति पर्यन्त कथित ...कथम्... -III. iv. 27 अर्थों में) कन् प्रत्यय होता है, (यदि वह सङ्ख्यावाची देखें- अन्यथैवंकथ० III. iv. 27 प्रातिपदिक तिशब्दान्त तथा शतशब्दान्त न हो तो)। कथमि-III. iii. 143 ...कन्... - VI. ii. 25 (गर्दा गम्यमान हो तो) कथम शब्द उपपद रहते (विकल्प देखें- अज्यावम० VI. ii. 25 करके लिङ प्रत्यय होता है,तथा चकार से लट प्रत्यय भी। कन् - V.ii.64 होता है)। (सप्तमीसमर्थ आकर्षादि प्रातिपदिकों से 'कुशल' अर्थ कथादिभ्यः - IV.iv. 102. (सप्तमीसमर्थ) कथादि प्रातिपदिकों से (साधु अर्थ में में) कन् प्रत्यय होता है। ठक होता है)। कन्... -V.ili. 51 ' ...कथि... - III. iii. 105 देखें - कन्लुको v. iii. 51 देखें- चिन्तिपूजि० III. iii. 105 कन् - V. iii.64 (युव और अल्प शब्दों के स्थान में विकल्प से) कन कदा... -III. iii. 5 आदेश होता है,(अजादि अर्थात् इष्ठन, ईयसुन् प्रत्यय परे देखें - कदाकहो: III. iii. 5 रहते)। कदाको : -III. iii.5 कन् - V. iii. 65 कदा और कर्हि उपपद रहने पर (भविष्यत् काल में धातु निन्दित' अर्थ में वर्तमान प्रातिपदिक से स्वार्थ में) कन् से विकल्प से लट प्रत्यय होता है)। प्रत्यय होता है, (संज्ञा गम्यमान होने पर)। कद्... - IV.i.71 कन् - V. iii. 81 . देखें - कद्रुकमण्डल्वो: IV.i. 71 (मनुष्यनामधेय जातिवाची प्रातिपदिक से) कन् प्रत्यय कद्रुकमण्डल्वोः IV.i.71 होता है, (नीति तथा अनुकम्पा गम्यमान हो तो)। कदु और कमण्डलु शब्दों से (वेद-विषय में स्त्रीलिंग में कन् – v. iii. 87 ऊ प्रत्यय होता है)। (छोटा' अर्थ में वर्तमान प्रातिपदिक से सज्ञा गम्यमान ...कध्यै... -III. iv.9 . हो तो) कन् प्रत्यय होता है। देखें - सेसेनसे III. iv.9 कन् - v. iii. 95 ...कध्यैन्... -III. iv.9 (अवक्षेपण' अर्थ में वर्तमान प्रातिपदिक से) कन् प्रत्यय देखें- सेसेनसे० III. iv.9 होता है। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 145 कन् - V.iv.3 कप -III. ii. 70 . (स्थूलादि प्रातिपदिकों से प्रकारवचन गम्यमान हो तो) सुबन्त उपपद रहते 'दुह' धातु से कप् प्रत्यय होता है कन् प्रत्यय होता है। (तथा अन्त्य हकार को घकारादेश होता है)। कन् -V.iv. 29 कप् - V. iv. 151 (यावादि प्रातिपदिकों से स्वार्थ में) कन् प्रत्यय होता है। (उरस इत्यादि अन्तवाले शब्दों से बहुव्रीहि समास में) कनिक्रदत् -VII. iv. 65 कप् प्रत्यय होता है। कनिक्रदत् शब्द (वेद-विषय में) निपातन किया जाता ...कपाटयोः - III. ii. 54 देखें - हस्तिकपाटयोIII. ii. 54 कनीन - IV. 1. 116 ...कपाल... -VI. ii. 29 (कन्या शब्द से अपत्य अर्थ में अण प्रत्यय होता है तथा देखें- इगन्तकाल०VI. ii.29 अण परे रहते कन्या शब्द को) कनीन आदेश (भी) हो कपि... - IV.i. 107 जाता है। देखें- कपिबोधात् IV. 1. 107 ...कनीयसी-vi. ii. 189 कपि.. -v.i. 126 देखें - अप्रधानकनीयसी VI. ii. 189 देखें - कपिज्ञात्यो: V.i. 126 ...कनौ - IV. iv. 21 कपि-VI.ii. 173 'देखें- कक्कनौ IV. iv. 21 (नञ् तथा सु से उत्तर उत्तरपद के) कप् के परे रहते ...कनौ-V.i.50 (उससे पूर्व को उदात्त होता है)। देखें - ठन्कनौ V.i. 50 कपि - VI. iii. 126 कन्था -II. iv. 20 कप् परे रहते (चिति शब्द को दीर्घ हो जाता है, संहिता 'कन्थान्त (तत्पुरुष संज्ञा विषय में नपंसक लिंग में होता है,यदि वह कन्था उशीनर जनपद-सम्बन्धी हो तो)। विषय में)। कन्था ... - IV. ii. 141 कपि-VII. iv. 14 देखें- कन्थापलदO IV.ii. 141 कप प्रत्यय परे रहते (अण् = अ, इ, उ को ह्रस्व नहीं कन्था - VI. ii. 124 होता है)। (नपुंसक लिंग) कन्थान्त (तत्पुरुष समास में भी उत्तरपद कपिज्ञात्यो: - V.i. 126 को आधुदात्त होता है)। (षष्ठीसमर्थ) कपि तथा ज्ञाति प्रातिपदिकों से (भाव और कन्थापलदनगरग्रामह्रदोत्तरपदात् - IV. ii. 141 कर्म अर्थ में ढक प्रत्यय होता है)। . - कन्था, पलद,नगर,ग्राम तथा ह्रद शब्द उत्तरपद में हैं कपिबोधात् - IV.i. 107 जिनके, ऐसे (वृद्धसंज्ञक देशवाची) प्रातिपदिकों से (छ। कपि तथा बोध प्रातिपदिकों से (आङ्गिरस गोत्र कहना प्रत्यय होता है)। हो तो यञ् प्रत्यय होता है)। कन्थायाः - IV.ii. 101 कपिष्ठल: - VIII. iii. 91 कन्था प्रातिपदिक से (शैषिक ठक् प्रत्यय होता है)। (कपिष्ठल में मुर्धन्य आदेश निपातन है. गोत्र विषय कन्यायाः -IV.i. 116 को कहने में)। कन्या शब्द से (अपत्य अर्थ में अण प्रत्यय होता है तथा अण् परे रहने पर) कन्या शब्द को (कनीन आदेश भी हो ...कपूर्वाया: - VII. iii. 46 जाता है)। देखें - यकपूर्वाया: VII. iii. 46 कन्लुको-V. iii. 51 ...कबरात् - IV.i. 42 (मान = माप का पश्वङ्ग अर्थात् पशु का अंग रूपी षष्ठ देखें- जानपदकुण्ड IV. 1. 42 और अष्टम शब्दों से यथासंख्य करके) कन् तथा लुक कम्... - V.ii. 138 प्रत्यय होते है,(भाग अभिधेय हो तो)। देखें- कंशंभ्याम् V.ii. 138 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...कम... 146 करणे ...कम.. -III. ii. 154 देखें-लषपतपद० III. I. 154 ...कम... -III. ii. 167 देखें- नमिकम्पि III. ii. 167 ...कमण्डल्वो :-IV.i. 71 देखें - कद्रुकमण्डल्वो: IV.i.71 ...कमि... - VIII. iii. 46 देखें- कृकमि० VIII. iii.46 ...कमि... - VIII. iv. 33 देखें- भाभूपू० VIII. iv. 33 कमिता-v.ii.74 'इच्छा करने वाला' अर्थ में (अनक.अभिक तथा अभीक शब्दों को निपातन किया जाता है)। ...कमुलौ -III. iv. 12 देखें- णमुल्कमुलौ III. iv. 12 कम: -III. 1.30 कान्त्यर्थक कमु धातु से (णिङ् प्रत्यय होता है)। ...कम्पि .. -III. ii. 167 देखें-नमिकम्पि० III. ii. 167 कम्बलात् - V.i.3 'कम्बल' - इस प्रातिपदिक से (भी क्रीत अर्थ से पहले कहे गये अर्थों में यत् प्रत्यय होता है,सज्ञा-विषय के होने पर)। ...कम्बल्येभ्यः - IV.i. 22 देखें- अपरिमाणविस्ताo IV. 1. 22 कम्बोजात् - Iv.i. 173 (क्षत्रियाभिधायी जनपदवाची) जो कम्बोज शब्द,उससे (अपत्यार्थ में विहित तद्राज-संज्ञक प्रत्यय का लुक् हो जाता है)। करण..-III. ii. 45 देखें-करणभावयोः III. ii. 45 करण... -III. iii. 117 देखें-करणाधिकरणयोः III. iii. 117 करण... - IV. iv.97 देखें- करणजल्पकर्षेषु IV. iv.97 करणजल्पकर्षेषु -IV. iv.97 (षष्ठीसमर्थ मत,जन, हल प्रातिपदिकों से यथासङ्ख्य करणपूर्वात् - IV.1.50 करण कारक पूर्व वाले (क्रीत-शब्दान्तं अनुपसर्जन) प्रातिपदिक से (स्त्रीलिंग में डीप् प्रत्यय होता है)। करणभावयोः -III. 1. 45 (आशित सुबन्त उपपद रहते भू धातु से) करण और भाव में (खच् प्रत्यय होता है)। करणम् -I. iv. 42 (क्रिया की सिद्धि में जो सबसे अधिक सहायक, उस कारक की) करणसंज्ञा होती है। करणम् -III. I. 102 करण कारक में (वह धातु से यत् प्रत्यय करके वह्यम्' शब्द का निपातन होता है)। करणम् -VI.1. 196 करणवाची (जय शब्द आधुदात्त होता है)। ...करणयोः -II. 1. 18 देखें - कर्तृकरणयोः II. I0. 18 ...करणयोः -VI. iv. 27 देखें-भावकरणयो: VI. iv. 27 . ...करणयो: - VIII. iv. 10 देखें-भावकरणयो: VIII. iv. 10 करणाधिकरणयोः - III. iii: 117 (धातु से) करण और अधिकरण कारक में (भी ल्युट् प्रत्यय होता है)। ...करणे-II.i.31 देखें-कर्तकरणे II,I.31 करणे-II. iii. 33 करण कारक में (असत्ववाची स्तोक, अल्प,कृच्छु और कतिपय - इन शब्दों से विकल्प से तृतीया और पञ्चमी विभक्ति होती है)। करणे-II. iii. 51 (अविदर्थक 'ज्ञा' धातु के) करण कारक में (शेष विवक्षित होने पर षष्ठी विभक्ति होती है)। करणे -II. iii.63 (यज् के) करण कारक में (वेद-विषय में बहुल करके षष्ठी विभक्ति होती है)। करणे - III.1.17 करण अर्थात करने अर्थ में (कर्मवाची शब्द,वैर,कलह, अभ्र,कण्व और मेष शब्दों से क्यङ् प्रत्यय होता है)। विशेष- यहाँ करण शब्द क्रिया का वाचक है; पारिभाषिक 'साधकतमं करणम्' वाला करण नहीं। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करणे 147 कतरि करणे-III. ii. 56 करोते: -VI. iv. 108 (व्यर्थ में वर्तमान, अच्चिप्रत्ययान्त आढ्य, सुभग, (वकारादि अथवा मकारादि प्रत्यय परे रहते) क अङ्ग से स्थूल,पलित,नग्न,अन्ध तथा प्रिय कर्म उपपद रहते कृ उत्तर (उकार प्रत्यय का नित्य ही लोप हो जाता है)। धातु से) करण कारक में (ख्यन प्रत्यय होता है)। करोती-v.i. 132 करणे-III. ii. 85 (भूषण अर्थ में सम् तथा परि उपसर्ग से उत्तर) कृ धातु करण कारक उपपद रहते (यज् धातु से 'णिनि' प्रत्यय के परे रहते (ककार से पूर्व सुट का आगम होता है,संहिता के विषय में)। होता है, भूतकाल में)। करणे -III. ii. 182 कर्कलोहितात् - V. iii. 10 कर्क तथा लोहित प्रातिपदिकों से (इवार्थ में ईकक प्रत्यय (दाप,णीज,शसु,यु,युज.ष्टुञ, तु,षि, षिचिर, मिह, होता है)। पत्लु, दंश,णह - इन धातुओं से) करण कारक में (ष्ट्रन ...कर्ण... - IV.i.55 प्रत्यय होता है)। देखें-नासिकोदरौष्ठ० IV. 1.55 करणे -III. iii. 82 ...कर्ण... - IV. 1.64 (अयस, वि तथा द्रु उपपद रहते हन् धातु से) करण देखें-पाककर्णपर्ण IV.i.64 कारक में (अप् प्रत्यय होता है तथा हन् के स्थान में ...कर्ण... - IV.ii.79 घनादेश भी होता है)। देखें- अरीहणकृशाश्व० IV. ii. 79 करणे-III. iv. 37 कर्ण... - IV. iii. 65 करण कारक उपपद हो तो (हन् धातु से णमुल प्रत्यय देखें-कर्णललाटात् IV. iii. 65 होता है)। कर्णः -VI. ii. 112 ...करत्... -VIII. iii. 50 (बहतीहि समास में वर्णवाची तथा लक्षणवाची से परे देखें -क: करत्करति० VIII. iii. 50 उत्तरपद) कर्ण शब्द को (आधुदात्त होता है)। ......करति... - VIII. iii. 50 ...कर्णयोः -III. ii. 13 देखें-क: करत्करति० VIII. iii. 50 देखें - स्तम्बकर्णयोः III. ii. 13 करभे-v.i1.79 कर्णललाटात् - IV. iii. 65 (प्रथमासमर्थ शृङ्खल प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ में कन् (सप्तमीसमर्थ) कर्ण तथा ललाट शब्दों से (भव अर्थ में प्रत्यय होता है। यदि वह प्रथमासमर्थ बन्धन बन रहा हो, ___ आभूषण अभिधेय हो तो कन् प्रत्यय होता है)। तथा) जो षष्ठी से निर्दिष्ट हो वह करभ = ऊँट का छोटा ...कर्णादिभ्यः -v.ii. 24 बच्चा हो तो। देखें-पील्वादिकर्णादिभ्य: V. ii. 24 करिक्रत् - VII. iv. 65 ...कर्णीषु - VIII. iii. 46 रिक्रत् शब्द (वद-विषय मनिपातन किया जाता है। देखें-कृकमि० VIII. iii. 46 ...करीपेषु -III. ii. 42 कर्णे-VI. iii. 114 देखें-सर्वकूला III. ii. 42 कर्ण शब्द उत्तरपद रहते (विष्ट,अष्टन,पञ्चन,मणि,भिन्न, करे - IV. iv. 143 छिन्न, छिद्र, सुव, स्वस्तिक - इन शब्दों को छोड़कर (षष्ठीसमर्थ शिव, शम और अरिष्ट प्रातिपदिकों से) लक्षणवाची शब्दों के अण को दीर्घ होता है.संहिता के 'करने वाला' अर्थ में (स्वार्थ में तातिल प्रत्यय होता है)। विषय में)। . करोति - IV. iv. 34 कर्तरि -I. iii. 14 (द्वितीयासमर्थ शब्द और दर्दुर प्रातिपदिकों से) करता (क्रिया के व्यतिहार अर्थात् अदल बदल करने अर्थ में) . है' अर्थ में (ठक् प्रत्यय होता है)। कर्तवाच्य में (धात से आत्मनेपद होता है)। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तरि 148 वाह)। कर्त्तरि-I. iii. 78 कर्ता -I.ii.67 (जिन धातुओं से, जिस विशेषण द्वारा आत्मनेपद का (अण्यन्तावस्था में जो कर्म.वही यदि ण्यन्तावस्था में) विधान किया है,उनसे अवशिष्ट धातुओं से) कर्तृवाच्य में कर्ता बन रहा हो तो (ऐसी ण्यन्त धातु से आत्मनेपद होता (परस्मैपद होता है)। है, आध्यान = उत्कण्ठापूर्वक स्मरण अर्थ में)। कर्तरि - II. ii. 15 कर्ता-1. iv. 40 कर्ता में (जो तृच् और अक प्रत्ययान्त सुबन्त,उनके साथ ___ (प्रति एवं आङ् पूर्वक श्रु धातु के प्रयोग में पूर्व का) कर्म में जो षष्ठी, वह समास को प्राप्त नहीं होती)। जो कर्ता,वह (कारक सम्प्रदान संज्ञक होता है)। . कर्तरि -II. 1.16 कर्ता में (जो षष्ठी, वह भी अक प्रत्ययान्त सुबन्त के कर्ता -I. iv. 52 . साथ समास को प्राप्त नहीं होती)। (गत्यर्थक,बुद्ध्यर्थक,भोजनार्थक तथा शब्द कर्म वाली और अकर्मक धातुओं का) जो (अण्यन्तावस्था में) कर्ता, कर्तरि -II. iii. 71 (कृत्य प्रत्ययों के योग में) कर्त कारक में विकल्प से वह (ण्यन्तावस्था में कर्मसंज्ञक हो जाता है)। षष्ठी विभक्ति होती है,न कि कर्म में)। कर्ता-I. iv. 54 कर्तरि -III. I. 48 (क्रिया की सिद्धि में स्वतन्त्र रूप से विवक्षित कारक कर्तवाची (लङ) परे रहते (णिजन्तों से तथा श्रिद और की) कर्त संज्ञा होती है। स्रु से उत्तर लि को चङ् होता है)। कर्ता - VI. 1. 201 कर्तरि -III. 1. 68 कर्तृवाची (सार्वधातुक) परे रहते (धातु से शप् प्रत्यय कर्तृवाची (आशित शब्द को आधुदात्त होता है)। होता है)। कर्तुः-I. iv. 49 कर्तरि -III. ii. 19 कर्ता को (अपनी क्रिया के द्वारा जो अत्यन्त ईप्सित हो.. कर्तृवाची (पूर्व शब्द) उपपद रहते (स्' धातु से 'ट' उस कारक की कर्म संज्ञा होती है)। प्रत्यय होता है)। कर्तुः -III.i. 11 कर्तरि -III. 1.57 . (उपमानवाची सुबन्त) कर्ता से (विकल्प से क्यङ् प्रत्यय (च्यर्थ में वर्तमान अच्ळ्यन्त आढ्य,सुभग,स्थूल,पलित, होता है और विकल्प से ही सकार का लोप भी)। नग्न, अन्ध,प्रिय- ये सुबन्त उपपद हों तो) कर्तृ कारक में (भू धातु से खिष्णुच् तथा खुकञ् प्रत्यय होते हैं)। कर्तुः - III. ii. 116 . कर्तरि -III. 1.79 (जिस कर्म के संस्पर्श से) कर्ता को (शरीर का सुख (उपमानवाची) कर्ता के उपपद रहते (धातुमात्र से णिनि । पातमाणिनि उत्पन्न हो, ऐसे कर्म के उपपद रहते भी धातु से ल्युट् प्रत्यय होता है)। प्रत्यय होता है)। कर्तरि - III. ii. 186 कर्तृ... -II. . 31 (पूज धातु से ऋषिवाची करण तथा देवतावाची) कर्ता देखें - कर्तृकरणे II. I. 31 में (इत्र प्रत्यय होता है,वर्तमान काल में)। कर्तृ... - II. iii. 18 कर्तरि - III. iv. 67 -कर्तृकरणयोः II. Ili. 18 (इस धातु के अधिकार में सामान्य विहित कृत् संज्ञक कर्त... -II. 11. 65 प्रत्यय) कर्तृ कारक में (होते हैं)। देखें-कर्तृकर्मणोः II. iii. 65 कर्तरि - III. iv.71 ...कर्तृ... -III. ii. 21 (क्रिया के आरम्भ के आदि क्षण में विहित जो क्त देखें-दिवाविमा० III. ii. 21 प्रत्यय.वह) कर्ता में (होता है तथा चकार से भावकर्म में कर्तृ... -III. iii. 127 भी होता है)। देखें - कर्तृकर्मणोः III. iii. 127 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृकरणयोः कर्तृकरणयो: - II. iii. 18 (अनभिहित) कर्ता और करण कारक में (तृतीया विभक्ति होती है)। कर्तृकरणे - कर्त्ता और करण कारक में (जो तृतीया, तदन्त सुबन्त का समर्थ कृदन्त सुबन्त के साथ बहुल करके समास होता है और वह समास तत्पुरुष संज्ञक होता है)। II. i. 31 कर्तृकर्मणोः II. 1. 65 (अनभिहित) कर्त्ता और कर्म कारक में (कृत् प्रत्यय के प्रयुक्त होने पर षष्ठी विभक्ति होती है) । कर्तृकर्मणोः - III. 1. 127 (भू तथा कृञ् धातु से यथासङ्ख्य करके) कर्ता एवं कर्म उपपद रहते, (चकार से कृच्छ्र तथा अकृच्छ्र अर्थ में वर्तमान, ईषद् दुस् अथवा सु उपपद हों तो भी खल् प्रत्यय होता है)। कर्त्तृयकि - VI. 1. 189 कर्ता में विहित यक् प्रत्यय के परे रहते (उपदेश में अजन्त धातुओं के आदि स्वर विकल्प से उदात्त हो जाते हैं) । कर्तृवेदनायाम् III. 1. 18 कर्त्ता सम्बन्धी अनुभव अर्थ में (सुख आदि कर्मवाचकों से क्यड़ प्रत्यय होता है)। कर्तृस्थे - I. iii. 37 कर्ता में स्थित ( शरीरभिन्न कर्म के) होने पर भी णीव धातु से आत्मनेपद होता है)। - कर्त्रभिप्राये - Iiii. 72 (स्वरितेत् तथा ञित् धातुओं से आत्मनेपद होता है, यदि क्रिया का फल) कर्ता को मिलता हो तो। कत्र: - III. iv. 43 कर्तृवाची (जीव तथा पुरुष) शब्द उपपद हों तो (यथासङ्ख्य करके नश् तथा वह् धातुओं से णमुल् प्रत्यय होता है)। = कर्म - I. iii. 67 (अण्यन्तावस्था में जो कर्म, (वही यदि ण्यन्तावस्था में कर्ता बन रहा हो, तो ऐसी ण्यन्त धातु से आत्मनेपद होता है आध्यान उत्कण्ठापूर्वक स्मरण अर्थ को छोड़कर)। 149 कर्म - I. iv. 38 (उपसर्ग से युक्त क्रुध तथा द्रुह् धातु के प्रयोग में जिसके प्रति क्रोध किया जाये, उस कारक की) कर्म संज्ञा होती है । कर्म - I. iv. 43 (दिव् धातु का जो साधकतम कारक, उसकी) कर्म (और करण) संज्ञा होती है। कर्म - I. iv. 46 (अधिपूर्वक शीड, स्था और आस् का आधार जो कारक, उसकी) कर्मसंज्ञा होती है। देखें कर्म - I. iv. 49 (कर्ता को अपनी क्रिया के द्वारा जो अत्यन्त ईप्सित हो, उस कारक की) कर्म संज्ञा होती है। कर्म - कर्मणः 1 - -III. ii. 89 सुकर्म० III. II. 89 IV. iv. 63 (अध्ययन में वर्तमान) कर्म (समानाधिकरणवाची प्रथमासमर्थ) प्रातिपदिक से (षष्ठ्यर्थ में ठक् प्रत्यय होता है)। कर्म... - V. 1. 99 देखें - कर्मवेषात् V. 1. 99 C कर्म... - V. 1. 7 ii. - देखें - पथ्यङ्गo Vii. 7 कर्मकर्तरि - 111. 1. 62 i. कर्मकर्तृवाची (लु में त शब्द) परे रहते (अजन्त धातु से उत्तर च्लि को 'चिण्' आदेश होता है, विकल्प से) । कर्मणः III. 1. 7 (इच्छा क्रिया के) कर्म का (अवयव समानकर्तृक धातु से इच्छा अर्थ में विकल्प करके सन् प्रत्यय होता है) | कर्मणः III. i. 15 कर्मकारकस्थ (रोमन्थ और तपस्) शब्द से ( आचरण अर्थ में विकल्प से क्यङ् प्रत्यय होता है)। कर्मण: - V. 1. 102 (चतुर्थीसमर्थ) कर्मन् प्रातिपदिक से (शक्त है' अर्थ में उकञ् प्रत्यय होता है)। कर्मण: - V. iv. 36 (सन्देश सुनकर किये गये कार्य के प्रतिपादक) कर्मन् प्रातिपदिक से (स्वार्थ में अण् प्रत्यय होता है) । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मणा । 150 कर्मणि कर्मणा -I. iv. 32 (करणभूत) कर्म के द्वारा (जिसको अभिप्रेत किया जाये. वह कारक सम्प्रदान संज्ञक होता है)। . कर्मणा-III.i. 87 कर्मस्थ क्रिया से (तुल्य क्रिया वाला कर्ता कर्मवत हो जाता है)। कर्मणि -I. iii. 37 (कर्ता में स्थित शरीर-भित्र) कर्म के होने पर (भी णीब् धातु से आत्मनेपद होता है)। कर्मणि - II. ii. 14 कर्म कारक में (विहित जो षष्ठी, वह भी समर्थ सुबन्त के साथ समास को प्राप्त नहीं होती)। कर्मणि -II. iii.2 (अनभिहित) कर्म कारक में (द्वितीया विभक्ति होती है)। कर्मणि -II. iii. 14 (क्रियार्थ क्रिया उपपद में है जिस धातु के,उस अप्रयुज्यमान धातु के अनभिहित) कर्म कारक में (चतुर्थी विभक्ति होती है)। कर्मणि-II. iii. 22 (सम् पूर्वक ज्ञा धातु के अनभिहित) कर्मकारक में । (विकल्प से तृतीया विभक्ति होती है)। कर्मणि-II. iii. 52 (स्मरण अर्थवाली धातु, दय् तथा ईश् धातु के) कर्म कारक में (शेष षष्ठी विभक्ति होती है)। कर्मणि -II. iii. 66 (जहाँ कर्ता और कर्म दोनों में षष्ठी की प्राप्ति हो, वहाँ) कर्म कारक में (ही षष्ठी विभक्ति होती है)। कर्मणि-III. 1.1 कर्म उपपद रहते (धातु मात्र से अण् प्रत्यय होता है)। कर्मणि-III. ii. 22 कर्म शब्द उपपद रहते (कृ' धातु से 'ट' प्रत्यय होता है, भृति = वेतन गम्यमान होने पर)। कर्मणि-III. ii. 86 कर्म उपपद रहते (हन्' धातु से भूतकाल में 'णिनि' प्रत्यय होता है)। कर्मणि-III. ii. 92 कर्म उपपद रहते (कर्म कारक के अभिधानार्थ ही 'चित्र' धातु से भी क्विप् प्रत्यय होता है, अग्नि की आख्या अभिधेय हो तो)। कर्मणि - III. ii. 93 कर्मत्वविशिष्ट सुबन्त के उपपद होने पर (विपूर्वक क्री धातु से इनि प्रत्यय होता है)। कर्मणि -III. ii. 100 कर्म उपपद रहते (अनु पूर्वक जन् धातु से 'ड' प्रत्यय होता है, भूतकाल में)। कर्मणि-III. iii. 12 (क्रियार्थ क्रिया और) कर्म उपपद रहने पर (धातु से . . भविष्यत्काल में अण् प्रत्यय होता है)। . . कर्मणि-III. iii. 93 कर्म उपपद रहने पर (अधिकरण कारक में भी घु-संज्ञक धातुओं से कि प्रत्यय होता है)। कर्मणि - III. I. 116 (जिस कर्म के संस्पर्श से कर्ता को शरीर का सुख उत्पन्न हो. ऐसे) कर्म के उपपद रहते (भी धातु से ल्युट प्रत्यय होता है)। कर्मणि - III. I. 189 (धा धातु से) कर्मकारक में (ष्ट्रन् प्रत्यय होता है,वर्तमान काल में)। ॥ कर्म उपपद रहते (आक्रोश गम्यमान हो तो समानकर्तृक पूर्वकालिक कृञ् धातु से खमुञ् प्रत्यय होता है)। कर्मणि - III. iv. 29 (सम्पूर्णताविशिष्ट) कर्म उपपद हो तो (दशिर तथा विद् धातुओं से णमुल् प्रत्यय होता है)। " कर्मणि-III. iv. 45 (उपमानवाची) कर्म उपपद रहते (और कर्ता भी उपपद रहते धातुमात्र से णमुल् प्रत्यय होता है)। कर्मणि-III. iv. 69 (सकर्मक धातुओं से लकार) कर्म कारक में (होते हैं, चकार से कर्ता में भी होते है और अकर्मक धातुओं से भाव में होते हैं तथा चकार से कर्ता में भी होते है)। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मणि कर्मणि - V. 1. 123 (षष्ठीसमर्थ गुणवचन ब्राह्मणादि प्रातिपदिकों से) कर्म के अभिधेय होने पर (तथा भाव में ष्यञ् प्रत्यय होता है)। कर्मणि - V. ii. 35 सप्तमीसमर्थ कर्मन् प्रातिपदिक से (चेष्टा करनेवाला' अर्थ में अठच् प्रत्यय होता है) । कर्मणि - VI. ii. 48 कर्मवाची ( क्तान्त) उत्तरपद रहते (तृतीयान्त पूर्वपद को प्रकृतिस्वर हो जाता हैं) । ... कर्मणी - IV. iv. 120 देखें - भागकर्मणी IV. iv. 120 ... कर्मणोः - I. iii. 13 देखें - भावकर्मणोः I. iii. 13 ... कर्मणोः - II. iii. 65 देखें - कर्तृकर्मणोः II. iii. 65 ...quit: - III. i. 66 देखें भावकर्मणोः III. 1. 66 .....कर्मणोः - III. iii. 127 देखें - कर्तृकर्मणोः III. iii. 127 - ... कर्मणोः - VI. iv. 62 देखें - भावकर्मणोः VI. iv. 62 151 ... कर्मणोः - VI. iv. 168 देखें - अभावकर्मणोः VI. iv. 168 कर्मधारय... - VI. iii. 41 देखें - कर्मधारयजातीयo VI. iii. 41 कर्मधारयः . - I. ii. 42 (समान है अधिकरण जिनका, ऐसे पदों वाले तत्पुरुष की) कर्मधारय संज्ञा होती है । कर्मधारयजातीयदेशीयेषु - VI. iii. 41 कर्मधारय समास में तथा जातीय एवं देशीय प्रत्ययों परे रहते (वर्जित भाषितपुंस्क स्त्रीशब्द को पुंवद्भाव हो जाता है)। कर्मधारयवत् - VIII. 1. 11 (यहाँ से आगे द्विर्वचन करने में) कर्मधारय समास के समान कार्य होते है, (ऐसा जानना चाहिये) । कर्मधारये - II. ii. 38 कर्मधारय समास में (कडारादियों का पूर्व प्रयोग विकल्प से होता है)। कर्मव्यतिहारे कर्मधारये - VI. ii. 25 (श्र, ज्य, अवम, कन् तथा पापवान् शब्द के उत्तरपद रहते) कर्मधारय समास में (भाववाची पूर्वपद को प्रकृतिस्वर होता है)। कर्मधारये - VI. ii. 46 (क्तान्त शब्द उत्तरपद रहते) कर्मधारय समास में (अनिष्ठान्त पूर्वपद को प्रकृतिस्वर हो जाता है)। कर्मधारये -VI. ii. 57 (कतर तथा कतम पूर्वपद को) कर्मधारय समास में ( विकल्प से प्रकृति-स्वर होता है) । कर्मन्द... - IV. iii. 111 देखें - कर्मन्दकृशाश्वात् IV. lii. 111 कर्मन्दकृशाश्वात् - IV. iii. 111 (तृतीयासमर्थ) कर्मन्द तथा कृशाश्व प्रातिपदिकों से ( यथासङ्ख्य भिक्षुसूत्र तथा नटसूत्र का प्रोक्त विषय अभिधेय हो तो इनि प्रत्यय होता है)। कर्मप्रवचनीययुक्ते - II. iii. 8 कर्मप्रवचनीय संज्ञक शब्दों के योग में (द्वितीया विभक्ति होती है) । कर्मप्रवचनीयाः - I. iv. 82 यह अधिकार है, आगे I. iv. 96 तक कर्मप्रवचनीय संज्ञा का विधान किया जायेगा । ... कर्मवचनः - VI. ii. 150 देखें - भावकर्मवचनः VI. ii. 150 कर्मवत् - III. 1. 87 (जिस कर्म के कर्ता हो जाने पर भी क्रिया वैसी ही लक्षित हो, जैसी कर्मावस्था में थी, उस कर्म के साथ तुल्य क्रिया वाले कर्ता को) कर्मवद्भाव होता है। कर्मवेषात् - V. 1. 99 (तृतीयासमर्थ) कर्मन् तथा वेष प्रातिपदिकों से (शोभित किया' अर्थ में यत् प्रत्यय होता है) । कर्मव्यतिहारे -I. iii. 18 कर्मव्यतिहार = क्रिया के अदल बदल करने अर्थ में (धातु से आत्मनेपद होता है)। कर्मव्यतिहारे - III. iii. 43 1 क्रिया का अदल बदल गम्यमान हो तो (स्त्रीलिंग में धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञाविषय तथा भाव में णच् प्रत्यय होता है) " Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मव्यतिहारे 152 कर्मव्यतिहारे-v.iv. 127 कलापिन: - Iv.ili 108 कर्मव्यतिहार = क्रिया के अदल बदल करने के अर्थ (ततीयासमर्थ) कलापिन प्रातिपदिक से (द्वन्द्व विषय में में (जो बहुव्रीहि समास, तदन्त से समासान्त इच् प्रत्यय प्रोक्त अर्थ कहना हो तो अण प्रत्यय होता है)। होता है)। कलापिवैशम्पायनान्तेवासिभ्य: - IV. iii. 104 कर्मव्यतिहारे - VII. iii.6 कर्मव्यतिहार = क्रिया के अदल बदल करने अर्थ में ___ (तृतीयासमर्थ) कलापी के अन्तेवासी तथा वैशम्पायन के अन्तेवासी के वाचक प्रातिपदिकों से (प्रोक्तार्थ में णिनि (पूर्वसूत्र से जो कुछ कहा है, वह नहीं होता)। प्रत्यय होता है, द्वन्द्व विषय में)। कर्ष... -VI.i. 153 देखें - कर्षात्वत: VI. I. 153 कलाप्यश्वत्थयवबुसाद् - IV. iii. 48. (सप्तमीसमर्थ कालवाची) कलापि, अश्वत्थ, यव,बुस ...कर्षः-III. iv. 50 देखें- उपपीडरुधकर्षः III. iv. 50 शब्दों से (वुन् प्रत्यय होता है, 'देयमणे' विषय में)। ...कर्षाः -VI. ii. 129 ...कलिङ्ग... - IV.i. 168 देखें-द्वयमगध IV.i. 168 देखें-कूलसूद० VI. ii. 129 ...कल्क... - III. i. 117 कर्षात्वतः -VI.i. 153 देखें - मुञ्जकल्क III. I. 117 कृष् विलेखने धातु तथा आकारवान् (घबन्त) शब्द के " ...कल्प... - VI. iii. 42 . (अन्त को उदात्त होता है)। देखें-घरूपO VI. iii. 42 ...कर्षेषु - IV. iv.97 कल्पप्... - V. iii. 67 देखें- करणजल्पO IV. iv.97 देखें-कल्पब्देश्य० V. iii.67 ...को :-III. iii.5 कल्पब्देश्यदेशीयर:- V. iii.67 देखें- कदाकों : III. iii. 5 (किञ्चित् न्यून' अर्थ में वर्तमान प्रातिपदिक से) कल्पप. ...कल... -III. 1.21 देश्य तथा देशीयर प्रत्यय होता है। देखें- मुण्डमिश्र III. 1.21 ....कल्पेषु - IV. iii. 105 ...कलकूट... - IV.i. 171 देखें-ब्राह्मणकल्पेषु IV. iii. 105 देखें-साल्वावयवप्रत्यप्रथ० IV.i. 171 कल्याण्यादीनाम् - IV. 1. 126 ...कलशि... - IV. iii. 56 कल्याणी आदि शब्दों से (अपत्य अर्थ में ठक प्रत्यय देखें- दृतिकुक्षिकलशिo V.I.56 होता है) तथा कल्याण्यादियों को (इनङ् आदेश भी हो ...कलह... - II. I. 30 जाता है)। देखें - पूर्वसदृशसमो० II. I. 30 कवचिन: -IV.ii. 40...कलह... - III. 1. 17 (षष्ठीसमर्थ) कवचिन् शब्द से (समूह अर्थ में ठञ् देखें-शब्दवैरकलहा० III.i. 17 प्रत्यय भी होता है)। ...कलह.. -III. 1. 23 कवते: - VII. iv. 63 देखें- शब्दश्लोक III. ii. 23 कुङ् अङ्ग के (अभ्यास को यङ् परे रहते चवर्गादेश नहीं होता)। ...कलहम् -VI. 1. 153 देखें- ऊनार्थकलहम् VI. li, 153 कवम् -VI. iii. 107 कलापि... - IV. iii.48 (उष्ण शब्द उत्तरपद रहते कु शब्द को) कव आदेश (भी) देखें-कलाप्यश्वत्यIV. iii. 48 होता है,(एवं विकल्प से का आदेश भी)। कलापि... -IVill. 104 कवि... - VII. iv. 39 देखें-कलापिवैशम्पायo IV. iii. 104 देखें-कव्यध्वरOVII. iv. 39 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कव्य... कव्य..... - III. ii. 65 देखें - कव्यपुरीष० III. II. 65 कव्यध्वरपृतनस्य - VII. iv. 39 कवि, अध्वर, पृतना इन अङ्गों का (क्यच् परे रहते लोप होता है, पादबद्ध मन्त्र के विषय में) । कव्यपुरीषपुरीष्येषु - III. 1. 65 - • कव्य, पुरीष, पुरीष्य ये (सुबन्त उपपद हों, तो (वेद विषय में वह धातु से ज्यु प्रत्यय होता है)। - कष... कशे: - VI. 1. 147 (प्रतिष्कश शब्द में प्रति पूर्वक) कश् धातु को (सुट् आगम तथा उसी सुद् के सकार को षत्वं निपातन किया जाता है। देखें - - -III. ii. 42 III. ii. 143 कपलसo III. ii. 143 - कषः कष् धातु से (सर्व, कूल, अन और करीब कर्म उपपद रहते 'खच्' प्रत्यय होता है ) । कषः III. iv. 34 (निमूल तथा समूल कर्म उपपद रहते) कष् धातु से ( णमुल् प्रत्यय होता है)। - कषः VII. ii. 22 को (दुःख तथा गंभीर अर्थ में) कर हिंसायाम् धातु कष् ( निष्ठा परे रहते इट् आगम नहीं होता ) । 153 कपलसकत्थत्रम्भ: -III. ii. 143 (विपूर्वक) कष्, लस्, कत्थ, स्रम्भ- इन धातुओं से ( तच्छीलादि कर्ता हो, तो वर्तमान काल में घिनुण् प्रत्यय होता है)। - कवादिषु - III. Iv. 46 कषादि धातुओं में (यथाविधि अनुप्रयोग होता है, अर्थात् जिस धातु से णमुल् का विधान करेंगे, उसका ही पश्चात् प्रयोग होगा)। ... कषाययोः - VI. ii. 10 देखें - अध्वर्युकषाययो: VI. ii. 10 कष्टाय - III. 1. 14 चतुर्थी समर्थ कष्ट शब्द से (कुटिल अर्थ में क्यङ् प्रत्यय होता है)। . कस... - VII. iv. 84 देखें - वसुo VII. iv. 84 ...कसः - III. ii. 175 देखें स्पेशभासo III. ii. 175 - ... कसतेष्य - III. 1. 140 देखें- ज्वलितिकसन्तेभ्यः III. 1. 140 कसुन् – III. iv. 17 (भावलक्षण में वर्तमान सृपि तथा तृद् धातुओं से तुमर्थ में) कसुन् प्रत्यय होता है, (वेद-विषय में)। ... कसुर - 1.1.39 देखें क्त्वातोसुन्कसुनः I. 1. 39 .... कसुनौ – III. iv. 13 देखें- तोसुन्कसुनौ III. iv. 13 ....कसे... - III. iv. 9 देखें - सेसेनसेo III. iv. 9 कस्कादिषु - VIII. iii. 48 कस्कादि-गणपठित शब्दों के (विसर्जनीय को भी यथायोग सकार अथवा षकार आदेश होता हैः कवर्ग, पवर्ग परे रहते) । " कस्य - IV. ii. 24 'क' देवतावाची प्रातिपदिक से (षष्ठयर्थ में अण् प्रत्यय होता है) तथा 'क' को (प्रत्यय के साथ साथ इकारान्तादेश भी होता है। कंसीय.... कस्य --- V. iii. 72 ककारान्त अव्यय को (अकच् प्रत्यय के साथ साथ दकारादेश भी होता है) । कंस... - VI. ii. 122 देखें - कंसमन्यo VI. ii. 122 ... कंस... - VIII. iii. 46 देखें ककमि० VIII. III. 46 कंसमन्वशूर्पपाय्यकाण्डम् - VI. ii. 122 कंस, मन्य, शूर्प, पाय्य, काण्ड इन उत्तरपद शब्दों को (द्विगु समास में आद्युदात्त होता है) । - कंसात् - V. 1. 25 कंस प्रातिपदिक से (तदर्हति' पर्यन्त कथित अर्थों में टिठन् प्रत्यय होता है)। कंसीय... - IV. iii. 165 देखें - कंसीयपरशव्ययोः IV. iii. 165 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंसीयपरशव्ययोः 154 कारकम् कंसीयपरशव्ययोः - IV. iii. 165 कान् -VIII. III. 12 (षष्ठीसमर्थ कंसीय तथा परशव्य प्रातिपदिकों से विकार कान शब्द के (नकार को रु होता है, आमेडित परे अर्थ में यथासङ्ख्य करके य थासङ्ख्य करक पबू आर अप्रत्यय हात ह, रहते)। और अञ् प्रत्यय होते है, तथा प्रत्यय के साथ साथ) कंसीय और परशव्य का (लुक् भी होता है)। कान -III. II. 106 काकुदस्य-V. iv. 148 वेद-विषय में भूतकाल में विहित लिट के स्थान में । (उत तथा वि से उत्तरा काकद शब्द को (समासान्त लोप विकल्प से) कानच आदेश होता है। होता है,बहुव्रीहि समास में)। कापिश्या: -V.1.98 काठके - VII. iv. 38 कापिशी शब्द से (शैषिक ष्फक् प्रत्यय होता है)। देव तथा सम्न अङ्गको क्यच परे रहते आकारादेश काम... -V. 1. 98 होता है, यजुर्वेद की) काठक शाखां में।। देखें- कामबले V. ii. 98 ...काणाम् -VI. I. 144 कामप्रवेदने -III. iii. 153 देखें- थाथप VI. ii. 144 अपने अभिप्राय का प्रकाशन करना गम्यमान हो (और . ' ...काण्ठेविद्धिभ्यः -IV.i.81 कच्चित् शब्द उपपद में न हो तो धातु से लिङ् प्रत्यय देखें- दैवयज्ञिशौचिवृक्षि० V.1.81 होता है)। काण्ड.. -V. 1. 111 कामवले -v.ii. 98 देखें- काण्डाण्डात् V. 1. 111 (वत्स और अंस प्रातिपदिकों से मत्वर्थ में यथासङ्ख्य ...काण्डम् -VI. ii. 122 करके) कामवान् = प्रेमयुक्त और बलवान अर्थ गम्यमान देखें- कंसमन्थ. VI. 1. 122 हो तो (लच् प्रत्यय होता है)। ...काण्डम् -VI. ii. 126 ...कामुक... -IV.i. 42 देखें- चेलखेटO VI. 1. 126 देखें - जानपदकुण्ड IV.I. 42. काण्डाण्डात्-v.ii. 111 कामे - V. 1.65 काण्ड तथा अण्ड प्रातिपदिकों से (यथासङ्ख्य करके । (सप्तमीसमर्थ धन और हिरण्य प्रातिपदिकों से) 'इच्छा' ईरन और ईरच प्रत्यय होते है, 'मत्वर्थ' में)। अर्थ में (कन् प्रत्यय होता है)। काण्डादीनि - VI. 1. 135 काम्यच् - III.1.9 (अप्राणिवाची षष्ठ्यन्त शब्द से उत्तर पूर्वोक्त छ:) काण्डादि उत्तरपद को (भी आधुदात्त होता है)। (आत्मसम्बन्धी सुबन्त कर्म से इच्छा अर्थ में विकल्प से) काम्यच्' प्रत्यय (भी) होता है। काण्डान्तात् - IV.i. 23 काण्ड शब्दान्त (अनुपसर्जन द्विग-संज्ञक) प्रातिपदिक से ...कार... -III. ii. 21 (तद्धित का लुक ही जाने पर स्त्रीलिंग में ङीप् प्रत्यय नहीं देखें - दिवाविभा० III. ii. 21 होता, क्षेत्र वाच्य होने पर)। ...कारक... -VI. ii. 139 देखें - गतिकारको० VI. ii. 139 कात् -VI.i. 131 ...कारक... -VI. iii.98 ककार से (पूर्व सुट् का आगम होता है), यह अधिकार देखें- आशीराशास्था0 VI. iii. 98 कात् -VII. iii. 44 कारकम् - VIII.i. 51 (प्रत्यय में स्थित) ककार से (पूर्व अकार के स्थान में (गत्यर्थक धातुओं के लोट् लकार से युक्त लुडन्त इकारादेश होता है,आप परे रहते; यदि वह आप सुप से तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता, यदि) कारक (सारा अन्य उत्तर न हो तो)। न हो तो)। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारकात् 155 कारकात् - V. iv. 42 (बहुत तथा थोड़ा अर्थ वाले) कारकाभिधायी प्रातिपदिकों से (विकल्प से शस् प्रत्यय होता है) । - कारकमध्ये II. iii. 7 दो कारकों के बीच में (जो काल और अध्व-वाचक शब्द, उनसे सप्तमी और पञ्चमी विभक्ति होती है)। कारकात् - VI. ii. 148 (सञ्ज्ञा विषय में आशीर्वाद गम्यमान हो तो) कारक से उत्तर (कान्त दत्त तथा श्रुत शब्दों का ही अन्त वर्ण उदात्त होता है)। कारके - I. iv. 23 कारके यह अधिकार सूत्र है। कारके - III. 1. 19 (कर्तृभिन्न कारक में भी धातु से संज्ञाविषय में घब् प्रत्यय होता है)। कारनाम्नि - VI. III. 9 (प्राच्यदेशों के) जो करों के नाम वाले शब्द, उनमें (भी हलादि शब्द के परे रहते हलन्त तथा अदन्त शब्दों से उत्तर सप्तमी विभक्ति का अलुक् होता है)। कारिणि - V. ii. 72 (द्वितीयासमर्थ शीत तथा उष्ण प्रातिपदिकों से) 'करने वाला' अभिधेय हो तो (कन् प्रत्यय होता है)। .....कारिभ्यः - IV. 1. 152 देखें- सेनान्तलक्षणo IV. 1. 152 कारे - VI. iii. 69 . कार शब्द उत्तरपद रहते (सत्य तथा अगद शब्द को मुम् आगम हो जाता है)। कार्त्तकौजपादय: - VI. ii. 37 कार्त्तकौजपादि जो द्वन्द्वसमास वाले शब्द, उनके पूर्वपद को (भी प्रकृति स्वर हो जाता है) । ... कार्तिकी.... - IV. 1. 23 देखें- फाल्गुनीश्रवणा० IV. 1. 23 कायें - V. iv. 52 (कु. भू तथा अस् धातु के योग में सम् पूर्वक पद धातु के कर्त्ता में वर्तमान प्रातिपदिक से) 'सम्पूर्णता' गम्यमान हो तो (विकल्प से साति प्रत्यय होता है) । - कार्मः VI. iv. 172 'कार्म' इस शब्द में ताच्छील्यार्थक ण परे रहते टिलोप का निपातन किया जाता है। ....कार्यार्याभ्याम् - IV. 1. 155 - देखें ... कार्य... - V. 1. 92 देखें - परिजय्यलभ्यo V. 1. 92 कार्यम् - I. iv. 2 (विप्रतिषेध = तुल्य बल विरोध होने पर परसूत्र - कथित) कार्य होता है। कार्यम् - V. 1. 95 (सप्तमीसमर्थ कालवाची प्रातिपदिकों से दिया जाता है' और 'कार्य' = काम (अर्थों में भव अर्थ के समान ही प्रत्यय हो जाते हैं)। कार्षापण... - V. 1. 29 देखें - कार्षापणसहस्राभ्याम् V. 1. 29 कार्षापणसहस्राभ्याम् - V. 1. 29 (अध्यर्द्ध शब्द पूर्व में है जिसके, ऐसे तथा द्विगुसञ्ज्ञक) कार्षापण एवं सहस्त्र शब्दान्त प्रातिपदिक से (तदर्हति पर्यन्त कथित अर्थों में उत्पन्न प्रत्यय का विकल्प से लुक् होता है। ... का... - VIII. iv. 5 देखें प्रनिरन्तः ० VIII. iv. 5 - कौसल्यकार्यार्याभ्याम् IV. 1. 155 काल... - I. ii. 57 देखें - कालोपसर्जन III. 57 काल.... देखें - -II. iii. 5 कालाध्वनोः 11. iii. 5 काल... III. iii. 167 देखें कालसमयवेलासु III. l. 167 - - ... काल... देखें - जानपदकुण्डo IV. 1. 42 • IV. 1. 42 - ..काल... काल... - V. ii. 81 देखें - कालप्रयोजनात् V. ii. 81 — ... काल... - VI. 1. 29 देखें इगन्तकाल० VI. II. 29 ... काल... - VI. ii. 170 देखें - जातिकाल० VI. II. 170 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...काल... 156 कालेषु ...काल... -VI. iii. 14 कालात् - IV. iii. 43 देखें-प्रावृटशरत् VI. iii. 14 कालवाची (सप्तमीसमर्थ) प्रातिपदिकों से (साधु, ...काल... - VI. iii. 16 . पुष्यत्, पच्यमान अर्थों में यथाविहित प्रत्यय होता है)। देखें - घकालतनेषु VI. iii. 16 साधु = उचित, उपयोगी। कालः -IV.ii.3 पुष्यत् = खिलता हुआ। (नक्षत्रविशेषवाची तृतीयासमर्थ प्रातिपदिक से उन पच्यमान = परिपक्व होता हुआ। नक्षत्रों से युक्त) काल अर्थ को कहने में) (यथाविहित ....कालात् - IV. iv.71 = अण् प्रत्यय होता है)। देखें - अदेशकालात् IV.iv.71 . कालनाम्न: -VI. iii. 16 कालात् - V.i.77 काल के नामवाची शब्दों से उत्तर (सप्तमी का घसज्ज्ञक (यहाँ से आगे V.i.96 तक के कहे हुए प्रत्यय) कालप्रत्यय, काल शब्द तथा तनप्रत्यय के उत्तरपद रहते विकल्प करके अलुक् होता है)। . वाची प्रातिपदिकों से (हुआ करेंगे,ऐसा जानें)। कालप्रयोजनात् - V.ii. 81 कालात् - V.i. 106 कालवाची तथा प्रयोजनवाची प्रातिपदिकों से (रोग' । (प्रथमासमर्थ) काल प्रातिपदिक से (षष्ठ्यर्थ में यत् अभिधेय हो तो कन् प्रत्यय होता है)। प्रत्यय होता है, यदि वह प्रथमासमर्थ काल प्रातिपदिक ...कालयोः -III.i. 148 प्राप्त समानाधिकरण वाला हो तो)। देखें -व्रीहिकालयोः III. 1. 148 कालात् - V. iv. 33 कालविभागे -III. iii. 137 (अनित्य वर्ण में तथा 'रँगा हुआ' अर्थ में वर्तमान) काल कालकृतमर्यादा में (अवरभाग को कहना हो तो भी । प्रातिपदिक से (भी कन् प्रत्यय होता है)। भविष्यकाल में धातु से अनद्यतन के समान प्रत्ययविधि कालाध्वनो: -II. iii.5 नहीं होती, यदि वह काल का मर्यादाविभाग दिन-रात- काल के अर्थ वाले शब्दों में तथा अध्व = मार्गवाची सम्बन्धी न हो)। शब्दों में (द्वितीया विभक्ति होती है, अत्यन्तसंयोग गम्यकालसमयवेलासु-III. iii. 167 मान होने पर)। काल, समय, वेला - ये शब्द उपपद रहते (धात से काले-II. iii. 64 तुमुन् प्रत्यय होता है)। काल (अधिकरण) होने पर (कृत्वसुच अर्थ वाले प्रत्ययों के प्रयोग में षष्ठी विभक्ति होती है, शेषत्व की विवक्षा काला: -II.i. 27 में)। कालवाचक (द्वितीयान्त) शब्द (क्तान्त समर्थ सुबन्त के । साथ विकल्प से समास को प्राप्त होते हैं, और वह । (सप्तम्यन्त सर्व, एक, अन्य, किम्, यत् तथा तत् प्रातितत्पुरुष समास होता है)। पदिकों से) काल अर्थ में (दा प्रत्यय होता है)। काला: -II. 1.5 कालेभ्यः - IV.ii. 33 (परिमाणवाची) काल शब्द (परिमाणीवाची सुबन्त के कालविशेषवाची प्रातिपदिकों से (सास्य देवता' विषय साथ विकल्प से समास को प्राप्त होते है,और वह तत्पुरुष में 'भव' अधिकार के समान प्रत्यय होते हैं)। समास होता है)। कालेषु - III. iv. 57 कालात् - IV. iii. 11 (क्रिया के व्यवधान में वर्तमान असु तथा तृष धातुओं कालविशेषवाची प्रातिपदिकों से (शैषिक ठञ् प्रत्यय से) कालवाची (द्वितीयान्त) शब्द उपपद रहते (णमुल् होता है)। प्रत्यय होता है)। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...कालेषु 157 कित ...कालेषु - v. iii. 27 देखें - दिग्देशकालेषु v. iii. 27 कालोपसर्जने - I. ii. 57 काल तथा उपसर्जन = गौण (भी अशिष्य होते हैं,तुल्य हेतु होने से अर्थात् पूर्वसूत्रोक्त लोकाधीनता के हेतु होने से)। काल्या-III. I. 104 (प्रथम गर्भ के ग्रहण का) समय हो गया है- इस अर्थ में (उपसर्या शब्द निपातन किया जाता है)। ...काश... - IV.ii. 79 देखें - अरीहणकृशाश्व० IV. ii. 79 ...काश... -VI. ii. 82 देखें-दीर्घकाश VI. ii. 82 काशे-VI. iii. 122 (इगन्त उपसर्ग को)काश शब्द उत्तरपद रहते (दीर्घ होता है,संहिता के विषय में)। काश्यप... - IV. iii. 103 देखें - काश्यपकौशिकाभ्याम् IV. iii. 103 ...काश्यप.. - VIII. iv.66 देखें- अगार्ग्यकाश्यप VIII. iv.66 काश्यपकौशिकाभ्याम् - IV. iii. 103 (ततीयासमर्थ ऋषिवाची) काश्यप और कौशिक प्रातिपदिकों से (प्रोक्त अर्थ में णिनि प्रत्यय होता है)। काश्यपस्य-I.ii. 25 काश्यप आचार्य के मत में (तृष, मृष, कृश् - इन धातुओं से परे सेट् क्त्वा कित् नहीं होता है)। काश्यपे-IV.i. 124 (विकर्ण तथा कुषीतक शब्दों से) काश्यप अपत्य विशेष को कहना हो (तो ठक् प्रत्यय होता है)। काश्यादिभ्यः -IV.ii. 115 काशी आदि प्रातिपदिकों से (शैषिक ठञ् तथा जिठ् प्रत्यय होते हैं)। ...काषि.. -VI. iii. 53 देखें-हिमकाषिहतिषु VI. iii. 53 कास्... -III. I. 35 देखें-कास्प्रत्ययात् III. I.35 कासू... - V. iii. 90 देखें - कासूगोणीभ्याम् v. iii. 90 कासूगोणीभ्याम् -V. iii.90 (छोटा' अर्थ गम्यमान हो तो) कासू तथा गोणी प्रातिपदिकों से (ष्टरच प्रत्यय होता है)। कासू = शक्ति नामक अस्त्र । गोणी = बोरी। - कास्तीर... - VI. I. 150 देखें - कास्तीराजस्तुन्दे VI.i. 150 कास्तीराजस्तुन्दे - VI.i. 150 कास्तीर तथा अजस्तुन्द शब्दों में सुट का निपातन किया जाता है,(नगर अभिधेय हो तो)। कास्प्रत्ययात् - III. I. 35 'कास शब्दकुत्सायाम्' धातु से तथा प्रत्ययान्त धातुओं से (लट् लकार परे रहते आम् प्रत्यय होता है, यदि मन्त्रविषयक प्रयोग न हो तो)। कि... - III. ii. 171 देखें -किकिनौ III. ii. 171 किः -III. iii.92 (उपसर्ग उपपद रहने पर घुसंज्ञक धातुओं से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में) कि प्रत्यय होता है। किकिनौ -III. ii. 169 (आत् = आकारान्त, ऋ = ऋकारान्त तथा गम्, हन्, जन् धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हो तो वेदविषय में वर्तमानकाल में) कि तथा किन् प्रत्यय होते है,(और उन कि, किन् प्रत्ययों को लिट्वत् कार्य होता है)। किङ्किल... - III. iii. 146 देखें - किङ्किलास्त्य III. iii. 146 किङ्किलास्त्यर्थेषु - III. iii. 146 (अनवक्तृप्ति तथा अमर्ष गम्यमान न हो तो) किङ्किल तथा अस्ति अर्थ वाले पदों के उपपद रहते (धातु से लूट प्रत्यय होता है)। कित् -I. ii. 5 (असंयोगान्त धातु से परे अपित् लिट् प्रत्यय) कित् के समान होता है। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कित् 158 किमः कित् - III. iv. 104 किम् - II.i. 63 (आशीर्वाद में विहित परस्मैपद-संज्ञक लिङ् को यासुट् किम शब्द (निन्दा गम्यमान होने पर समानाधिकरण आगम होता है), तथा वह कित् (और उदात्त) होता है। समर्थ सुबन्त के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होता कित: - VI. i. 159 है, और वह समास तत्पुरुषसंज्ञक होता है)। (तद्धितसञ्जक) कित् प्रत्यय को (अन्तोदात्त होता है)। ...किम्... - III. ii. 21 ...कितवादिभ्यः -II. iv. 68 देखें-दिवाविभा० III. ii. 21 . देखें-तिककितवादिभ्यः II. iv. 68 किम्... -v.ii. 40 किति -II. iv. 36 देखें-किमिदम्भ्याम् V.ii. 40 (अद को जग्घ आदेश होता है. ल्यप तथा तकाराटि) किम्... -V. iii. 2 देखें - किंसर्वनामo v. iii.2 कित् (आर्धधातुक) परे रहते। ...किम्.. - V.ii. 15 किति – VI. i. 15 देखें- सर्वैकान्य v. iii. 15 (वच, जिष्वप् तथा यजादि धातुओं को) कित् प्रत्यय किम्... - V. iii. 92 के परे रहते (सम्प्रसारण हो जाता है)। देखें-किंयत्तदः V. iii. 92 किति – VI. i. 38 किम्.. -v.iv. 11 (इस वय के यकार को) कित (लिट) प्रत्यय के परे रहते देखें-किमेत्तिङ ov.iv. 11 (विकल्प करके वकारादेश भी हो जाता है)। . किम् - VIII. I. 44 किति-VII. ii. 11 (क्रिया के प्रश्न में वर्तमान) किम् शब्द से युक्त (उपसर्ग : (श्रि तथा उगन्त धातुओं को) कित प्रत्यय परे रहते (इट से रहित तथा प्रतिषेधरहित तिङन्त को अनुदात्त नहीं होआगम नहीं होता। ता)। किति -VII. ii. 118 किमः - V. ii. 41 (तद्धित) कित परे रहते (भी अङ्ग के अचों में आदि अच (सङ्ख्या के परिमाण अर्थ में वर्तमान प्रथमासमर्थ) को वृद्धि होती है)। किम् प्रातिपदिक से (षष्ठ्यर्थ में डति तथा वतुप प्रत्यय होते हैं,और उस वतुप् प्रत्यय के वकार के स्थान में घकार किति -VII. iv. 40 आदेश होता है)। (दो, षो, मा तथा स्था अङ्गों को तकारादि) कित् प्रत्यय किम: - V. iii. 12 . के परे रहते (इकारादेश होता है)। (सप्तम्यन्त) किम् प्रातिपदिक से (अत् प्रत्यय होता है)। किति -VII. iv. 69 किम: -V.ili. 25 (इण् अङ्ग के अभ्यास को) कित् (लिट्) परे रहते (दीर्घ (प्रकारवचन में वर्तमान) किम् प्रातिपदिक से (भी थमु होता है)। प्रत्यय होता है)। ....कितौ-I.i. 45 किम: - V. iv.70 देखें-टकितौ I.1.45 (निन्दा' अर्थ में वर्तमान) किम् प्रातिपदिक से (समा...किद्ध्यः -III. 1.5 सान्त प्रत्यय नहीं होते)। देखें - गुप्तिकिझ्यः III. I.S किम: - VII. ii. 103 ...किनौ-III. 1. 171 किम अङ्गको विभक्ति परे रहते 'क' आदेश होता देखें-किकिनौ III. I. 171 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किमिदम्भ्याम् 159 किमिदम्भ्याम् -V. 1.40 किरतौ -VI.1. 135 (प्रथमासमर्थ परिमाण समानाधिकरणवाची) किम तथा (काटने के विषय में) क विक्षेपे धात के परे रहते (उप इदम् प्रातिपदिकों से (षष्ठ्यर्थ में वतुप प्रत्यय होता है, उपसर्ग से उत्तर ककार से पूर्व सुट का आगम होता है, और वतुप के वकार को धकार आदेश हो जाता है)। संहिता के विषय में)। किमेतिडव्ययघात् - V. iv. 11 किशरादिभ्यः -IV. iv.53 किम्, एकारान्त, तिङन्त तथा अव्ययों से जो घ अर्थात् तरप् तथा तमप् प्रत्यय, तदन्त से (आमु प्रत्यय होता है, (प्रथमासमर्थ) किशरादि प्रातिपदिकों से (इसका द्रव्य का प्रकर्व न कहना हो तो)। बेचना' अर्थ में ष्ठन प्रत्यय होता है)। ...किमो-VI. II.89 किशर = सुगन्धिविशेष। देखें-इदहिकमो: VI. 1.89 की-VI.1.21 किंयत्तदः -V.ii.92 (चायू धातु को यङ् प्रत्यय के परे रहते) की आदेश किम्, यत् तथा तत् प्रातिपदिकों से (दो में से एक का होता है। पृथक्करण' अर्थ में डतरच प्रत्यय होता है)। की-VI.1.34 किंवृत्तम् -VIII.1.48 (चाय धातु को वेदविषय में बहुल करके) की' आदेश (जिससे उत्तर चित् है तथा जिससे पूर्व कोई शब्द नहीं हो जाता है। है, ऐसे) किंवृत्त शब्द से युक्त (तिङन्त को भी अनुदात्त ...की - VI. iii. 89 नहीं होता)। देखें -ईश्की VI. I. 89 दिक्ते -III. iii. 6 ...कीर्तयः -III. iii. 97 (लिप्सा अर्थात् लेने की इच्छा गम्यमान होने पर) देखें - उतियूति III. ii. 97 किंवृत्त = क्या, कौन,किसे आदि से सम्बद्ध प्रश्न उपपद ..कु... - I. iii. 8 होने पर (भविष्यत्काल में धातु से विकल्प से लट् प्रत्यय देखें-लशकु० I. 1.8 होता है)। कु...-II. 1. 18 विक्ते - III. iii. 144 देखें-कुगतिप्रादयः II. 1. 18 किंवृत्त उपपद हो तो (गर्दा गम्यमान होने पर धातु से कु... - V. iv. 105 लिङ् तथा लुट् प्रत्यय होते है)। देखें - कुमहद्भ्याम् V. iv. 105 ..किंशुलकादीनाम् - VI. ill. 116 कु... -VI.i.116 देखें-कोटरकिंशुलकादीनाम् VI. III. 116 देखें-कुधपरे VI. I. 116 किंसर्वनामबहुभ्यः - V. ii.2 ...कु... -VI. iii. 132 (यहाँ से आगे 'दिक्शब्देश्यः सप्तमीपञ्चमी.'v.i. देखें-तुनुघ० VI. iii. 132 27 तक जितने प्रत्यय कहे हैं, वे सब) किम.सर्वनाम तथा । कु-VII. 1. 104 बहु शब्दों से ही होते हैं,(द्वि आदि शब्दों को छोड़कर)! (तकारादि तथा हकारादि विभक्तियों के परे रहते किम को) कु आदेश होता है। ....किरः -III.i. 35 कु... -VII.iv.62 देखें-इगुपधज्ञा III. 1.35 - देखें-कहो: VII. iv.62 किरः-VII. 1.75 ' कृ इत्यादि (पाँच) धातुओं से उत्तर (भी सन को इट कु... -VIII. lil. 37 आगम होता है)। ___.देखें- कुप्वोः VIII. HI. 37 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 ...कु... - VIII. II. 96 ...कुक्षि.. - IV. 1. 95 देखें- विकुशमि० VIII. II. 96 देखें - कुलकुक्षि० IV. 1. 95 ..कु... - VIII. 11.97 ....कुक्षि.-IV. 11.56 देखें- अम्बाम्ब० VIII. 1. 97 देखें-दृतिकुक्षिकलशि IV. 1.56 ..कु... - VIII. iv.2 ..कुक्षि.. - VI. ii. 187 देखें-अकुप्वाइO VIII. iv.2 देखें - स्फिगपूत० VI. ii. 187 कु:-VII. 11.52 कुगतिप्रादयः - II. ii. 18 (चकार तथा जकार के स्थान में) कवर्ग आदेश होता __ कु = निन्दार्थक अव्यय, गतिसज्ञक और प्रादि शब्द है, (घित् तथा ण्यत् प्रत्यय परे रहते)। (समर्थ सुबन्त के साथ नित्य ही समास को प्राप्त होते है कु:-VIII. 1.30 और वह तत्पुरुष समास होता है)। (चवर्ग के स्थान में) कवर्ग आदेश होता है, (झल् परे ....कुजरैः - II. 1.61 रहते या पदान्त में)। देखें - वृन्दारकनाग II. 1. 61 कु:-VIII. 1.62 कुजादिभ्यः - IV.1.98 (क्विन् प्रत्यय हुआ है जिस धातु से,उस पद को) कवर्ग (गोत्रापत्य में) षष्ठीसमर्थ कुशादि प्रातिपदिकों से (फ (अन्त) आदेश होता है। प्रत्यय होता है)। कुक् - IV. 1. 158 ....कुटादिभ्यः - I. 1.1 (गोत्रभिन्न वद्धसंज्ञक वाकिनादि प्रातिपदिकों से उदीच्य देखें-गाइकटादिभ्यः 1.1.1 आचार्यों के मत में अपत्यार्थ में फिञ् प्रत्यय तथा कुक् कटारच् -V.ii. 30 का आगम होता है)। . ___ (अव उपसर्ग प्रातिपदिक से) कुटारच् (तथा कटच्) कुक्-IV. 1. 90 प्रत्यय (होते है)। (नडादि शब्दों को चातुरर्थिक छ प्रत्यय तथा) कुक् का कुटिलिकायाः - IV. iv. 18 आगम होता है। (तृतीयासमर्थ) कुटिलिका प्रातिपदिक से (हरति'अर्थ कुक्-V.II. 129 में अण् प्रत्यय होता है)। (वात तथा अतीसार प्रातिपदिकों से 'मत्वर्थ' में इनि कुटिलिका = टेढ़ी गति, लौहकारों का उपकरण प्रत्यय होता है, तथा इन शब्दों को) कुक् आगम भी होता कुटी... - V. iii. 88 . देखें-कुटीशमी0 v. iii. 88 कुक्... - VIII. iii. 28 कुटीशमीशुण्डाय - V. iii. 88 देखें - कुक्टुक् VIII. II. 28 (छोटा' अर्थ गम्यमान हो तो) कुटी,शमी और शुण्डा ...कुक्कुट्यो - Iv. iv.46 प्रातिपदिकों से (र प्रत्यय होता है)। देखें- ललाटकुक्कुट्यो IV. iv. 46 शमी = वृक्षविशेष, शुण्डा = सूंड कुक्टुक् - VIII. II. 26 ...कुट्ट..-III. 1. 155 (पदान्त डकार तथा णकार को यथासङ्ख्य करके देखें -अल्पभिक्षO III. 1. 155 विकल्प से) कुक् तथा टुक् आगम होते हैं, (शर् प्रत्याहार कुणप्... - V.II. 24 परे रहते)। . देखें-कुणब्याहची v.ii. 24 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाहची कुणाची - V. 1. 24 (षष्ठीसमर्थ पील्वादि तथा कर्णादि प्रातिपदिकों से यथासङ्ख्य करके 'पाक' तथा 'मूल' अर्थ अभिधेय हों तो) कुणप् तथा जाहच् प्रत्यय होते हैं। .... कुण्ड.... - IV. i. 42 देखें - जानपदकुण्डo IV. 1. 42 कुण्डम् - VI. ii. 136 (वनवाची उत्तरपद) कुण्ड शब्द को (तत्पुरुष समास में आद्युदात्त होता है। कुण्डपाय्य.... -III. i. 130 देखें - कुण्डपाय्यसंचाय्यौ III. 1. 130 कुण्डपाय्यसंचाय्य - III. 1. 130 (ऋतु अभिधेय हो तो) कुण्डपाय्य तथा संचाय्य शब्द निपातन किये जाते हैं । ... कुण्डिनच् - देखें - अगस्तिकुण्डिनच् II. iv. 70 कुत्वा -V. iii. 89 (छोटा' अर्थ गम्यमान हो तो) कुतू प्रातिपदिक से (डुपच् प्रत्यय होता है)। तेल रखने की चमड़े की बोतल या कुप्पी कुतू = .... कुत्स...... - II. iv. 65 देखें – अत्रिभृगुकुत्सo II iv. 65 कुत्सन.... -IV. ii. 127 देखें- कुत्सनप्रावीण्ययो: IV. ii. 127 - II. iv. 70 ... कुत्सन... - VIII. 1. 8 देखें – असूयासम्मतिo VIII. 1. 8 कुत्सन... - VIII. i. 27 देखें- कुत्सनाभीक्ष्ण्ययो: VIII. 1. 27 कुत्सनप्रावीण्ययो: - IV. ii. 127 निन्दा तथा नैपुण्य अभिधेय हो तो (नगर प्रातिपदिक से शैषिक वुञ् प्रत्यय होता है) । कुत्सनाभीक्ष्ण्ययोः - VIII. i. 27 ( तिङन्त पद से उत्तर) निन्दा तथा पौनःपुन्य अर्थ में वर्तमान (गोत्रादिगण-पठित पदों को अनुदात्त होता है)। 161 कृप्य... कुत्सने - IV. 1. 147 (गोत्र में वर्तमान जो स्त्री, तद्वाची प्रातिपदिक से) निन्दा गम्यमान होने पर (अपत्य अर्थ में ण प्रत्यय होता है, और ठक् भी)। कुत्सने - VIII. 1. 69 (गोत्रादिगण-पठित शब्दों को छोड़कर) निन्दावाची सुबन्त के परे रहते ( भी सगतिक एवं अगतिक दोनों तिङन्तों को अनुदात्त होता है) । .... कुत्सनेषु - VIII. ii. 103 देखें – असूयासम्मति० VIII. it. 103 कुत्सनैः - II. 1. 52 कुत्सन= निन्दावाची (समानाधिकरण सुबन्त) शब्दों के साथ (कुत्सित = निन्दितवाची सुबन्त शब्द विकल्प से समास को प्राप्त होते हैं, और वह तत्पुरुष समास होता है) । कुत्सितानि - II. 1. 52 कुत्सितवाची = निन्द्यवाची (सुबन्त) शब्द (कुत्सनवाची = निन्दावाची समानाधिकरण सुबन्तों के साथ · विकल्प करके समास को प्राप्त होते हैं, और वह समास तत्पुरुषसंज्ञक होता है) । कुत्सिते - V. iii. 74 'निन्दित' अर्थ में वर्तमान (प्रातिपदिक तथा तिङन्त से यथाविहित प्रत्यय है। कुत्सितैः - II. 1. 53 (कुत्सनवाची पाप और अणक शब्द) कुत्सित= निन्दितवाची (सुबन्तों) के साथ (विकल्प से समास को प्राप्त होते हैं, और वह तत्पुरुष समास होता 1 अणक = घृणित | कुधपरे - VI. i. 116 (यजुर्वेद - विषय में) कवर्ग तथा धकारपरक (अनुदात्त अकार) के परे रहते (भी एड् को प्रकृतिभाव होता है)। ... कुन्ति... -IV. i. 174 देखें - अवन्तिकुन्तिo IV. 1. 174 ... कुप्य... - III. 1. 114 देखें – राजसूयसूर्य० III. 1. 114 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 舊 कुप्वोः कुवो:. -VIII. iii. 37 कवर्ग तथा पवर्ग परे रहते (विसर्जनीय को यथासङ्ख्य करके अर्थात् जिह्वामूलीय तथा प अर्थात् उपध्मानीय आदेश होते है, तथा चकार से विसर्जनीय भी होता है)। कुमति - VIII. iv. 13 पूर्वपद में स्थित निमित्त से उत्तर) कवर्गवान् शब्द उत्तरपद रहते (भी प्रातिपदिकान्त, नुम् तथा विभक्ति के नकार को कारादेश होता है)। 1 कुमहद्भ्याम् - V. Iv. 105 कु तथा महत् शब्द से परे (जो ब्रह्म शब्द, तदन्त तत्पुरुष से विकल्प से समासान्त टच् प्रत्यय होता है)। कुमार... - III. 1. 51 देखें - कुमारशीर्षयोः III. II. 51 कुमारः - II. i. 69 कुमार शब्द (समानाधिकरण श्रमण आदि समर्थ सुबन्त शब्दों के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होता है, और वह समास तत्पुरुषसंज्ञक होता है)। कुमार: - VI. ii. 26 (पूर्वपद स्थित) कुमार शब्द को (भी कर्मधारय समास में प्रकृतिस्वर होता है)। .... कुमारयोः - VI. 1. 57 देखें - ब्राह्मणकुमारयोः VI. 11. 57 कुमारशीर्षयोः - III. 1. 51 कुमार तथा शीर्ष (कर्म) के उपपद रहते (हन् धातु से fift प्रत्यय होता है)। कुमार्याम् - VI. 1. 95 ( अवस्था गम्यमान हो तो) कुमारी शब्द उपपद रहते (पूर्वपद को अन्तोदात्त होता है) । IV. ii. 79 कुमुद देखें - अरीहणकृशाश्व० IV. II. 79 100 कुमुद... - IV. 1. 86 देखें - कुमुदनडवेतसेभ्यः IV. 1. 86 कुमुदनडवेतसेभ्यः - IV. 1. 86 162 कुमुद, नड और वेतस प्रातिपदिकों से (चातुरर्थिक मतुप् प्रत्यय होता है)। ....कुमुदादिभ्यः - IV. II. 79 देखें - अरीहणकृशाश्य० IV. II. 79 ... कुम्बि... - III. iii. 105 - चिन्तिपूजिo III. III. 105 .. कुम्भ... - VI. ii. 102 देखें - कुसूलकूपo VI. 1. 102 कुरुयुगन्धराभ्याम् ... कुम्भ... - VIII. iii. 46 देखें - कृकमि० VIII. iii. 46 कुम्भपदीषु - Viv. 139 कुम्भपदी आदि शब्द (भी) कृतसमासान्तलोपं साधु समझने चाहिये । कुम्भपदी हाथी के सिर के समान पैर वाला । .... कुरु... - VIII. 1. 79 देखें - कुर्छुराम् VIII. II. 79 कुरच् - III. ii. 162 = (विद्, भिदिर, छिदिर्इन धातुओं से तच्छीलादि कर्त्ता हो तो वर्तमान काल में) कुरच् प्रत्यय होता है। कुरु... - IV. 1. 170 देखें - कुरुनादिभ्यः IV. 1. 170 कुरु... - IV. 1. 129 देखें - कुरुयुगन्धराभ्याम् IV. 1. 129 कुरुगार्हपत - VI. 11.42 'कुरुगार्हपत' इस समास किये हुये शब्द के पूर्वपद को (प्रकृतिस्वर होता है)। कुरुनादिभ्यः - IV. 1. 170. (क्षत्रियाभिधायी जनपदवाची) कुरु तथा नकार आदि वाले प्रातिपदिकों से (अपत्य अर्थ में ण्य प्रत्यय होता है)। .... कुरुभ्यः - IV. 1. 114 देखें - ऋष्यन्यकवृष्णिo IV. 1. 114 कुरुभ्यः - IV. 1. 174 देखें - अवन्तिकुन्तिकुरुध्य IV. 1. 174 कुरुयुगन्धराभ्याम् - IV. II. 129 . कुरु तथा युगन्धर जनपदवाची शब्दों से (विकल्प से शैषिक वुञ् प्रत्यय होता है)। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुर्वादिभ्यः 163 कुसीददशैकादशात् कर्वादिय-V.I. 151 ...कुश... -IV.1.42 कुरु आदि प्रातिपदिकों से (अपत्यार्थ में ण्य प्रत्यय होता देखें-जानपदकुण्ड- IV.1.42 ...कुशल... -II. 1.73 देखें-आयुष्यमद्रभद्र II. iii. 73 कुल..-IV. 1.95 देखें-कुलकुक्षि IV. 1.95 ...कुशल... - VII. 1. 30 देखें-शचीश्वर VII. iii. 30 . कुलकुक्षिणीवाभ्यः -IVil.95 कुशल -V. 1.63 कुल, कुक्षि तथा ग्रीवा शब्दों से (यथासङ्ख्य श्वा, (सप्तमीसमर्थ पथिन् प्रातिपदिक से) 'कुशल' अर्थ में असि = खड्ग तथा अलंकरण अभिधेय होने पर जात (वुन् प्रत्यय होता है)। अर्थात् उत्पन्न आदि अर्थों में ढकब प्रत्यय होता है)। ...कुशल:-IVill. 38 कुलटाया: -IV. 1. 127 . देखें-कृतलब्धकीत IV. 11. 38 ....कुशलाभ्याम् -II. 11.40 कुलटा शब्द से (अपत्य अर्थ में ढक् प्रत्यय होता है)। देखें-आयुक्तकुशलाभ्याम् II. Ill. 40 तथा उस कुलटा को विकल्प से इनङ् आदेश भी होता ...कुशा... -VIII. 11.46 देखें-ककमि० VIII. III. 46 कुलत्व.. -V.in.4 कुशाग्रात् -V. 1. 103 देखें-कुलत्यकोपधात् IV.in.4 कुशाग्र प्रातिपदिक से (इवार्थ में छ प्रत्यय होता है)। कुलत्यकोपधात् - IV.in.4 ....कुष... -I.1.7 (ततीयासमर्थ) कलत्थ तथा ककार उपधावाले प्राति देखें - मृडमदगुषकुपक्लिशक्दवस: I. I. 7 कुषः -VII. 1.46 पदिकों से (संस्कृतम्'अर्थ में अण् प्रत्यय होता है)। निपूर्वक) कुष् अङ्ग से उत्तर (वलादि आर्धधातुक को कुलात् -V.I. 139 विकल्प से इट् आगम होता है)। । कुल शब्द तथा कुलशब्दान्त प्रातिपदिक से (भी कृषि..-III.1.90 अपत्य अर्थ में ख प्रत्यय होता है)। देखें-कुपिरजोः III. 1. 90 कुलालादिश्य - IV. 1. 117 कुपिरजोः -III. 1. 90 . (तृतीयासमर्थ) कुलालादि प्रातिपदिकों से (संज्ञा गम्य- ___ कुष और रज् धातु से (कर्मवद्भाव में श्यन् प्रत्यय और मान होने पर कृत अर्थ में वुड् प्रत्यय होता है)। परस्मैपद होता है,प्राचीन आचार्यों के मत में)। कुलिजात् - V.I.54 ...कुपीतकात्.- IV. 1. 124 (द्वितीयासमर्थ द्विगुसज्जक) कुलिजशब्दान्त प्रातिपदिक देखें- विकर्णकुपीतकात् IV. 1. 124 से (सम्भव है' ले आता है' तथा 'पकाता है' अर्थों में ...कुसित... - IV. 1. 37 प्रत्यय का लुक्, ख प्रत्यय तथा ष्ठन् प्रत्यय होते हैं)। देखें - वृषाकप्यग्नि IV. 1. 37 कुल्पापात् - V. 1. कुसीद.. - IV. iv. 31 (प्रथमासमर्थ) कुल्माष प्रातिपदिक से (सप्तम्यर्थ में अञ् देखें- कुसीददशैकादशात् IV. iv. 31 प्रत्यय होता है,यदि उक्त प्रथमासमर्थ बहुल करके सजा- कुसीददशैकादशात् - IV. iv. 31 विषय में अन्नविषयक हो तो)। (द्वितीयासमर्थ) कुसीद तथा दशैकादश प्रातिपदिकों से --कुवित्.. - VIII. 1. 30 (निन्दित वस्तु को देता है' - अर्थ में यथासङ्ख्य करके देखें- यदि VIIL.I. 30 छन् और ष्ठच् प्रत्यय होते हैं)। - Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...कुसीदानाम् कुसीद = व्याज ...कुसीदानाम् -V.1.37 देखें-वृषाकप्यग्नि V.I.37 कुसूल... -VI. II. 102 देखें-कुसूलकूप० VI. Iii. 102 कुसूलकूपकुम्मशालम् -VI. II. 102 बिल शब्द उत्तरपद रहते कुसूल, कूप, कुम्भ,शालाइन पूर्वपदस्थित शब्दों को (अन्तोदात्त होता है)। कुसूल = अन्न रखने का पात्र, कुठला। कुस्तुम्बुरुणि-VI. 1. 138 कस्तम्बरु शब्द में (तकार से पूर्व सट आगम निपातन किया जाता है,यदि वह जाति अर्थ वाला हो तो)। कुस्तुम्बुरु = ओषधि विशेष ...कुह... -VI.1.210 देखें-त्यागराग० VI.I. 210 कुहो: - VII. IN.62 (अभ्यास के) कवर्ग तथा हकार को (चवर्ग आदेश होता ...कूलम् -IV. iv. 28 देखें-ईपलोमकूलम् IV. iv. 28 कूलसूदस्थलकर्णः -VI. 1. 129 (सज्जाविषय में) कुल,सूद,स्थल,कर्ष- इन उत्तरपद शब्दों को (तत्पुरुष समास में आधदात होता है)। कले-III. 1. 31 'कूल' कर्म उपपद रहते (उत् पूर्वक रुज् और वह धातु से 'खश्' प्रत्यय होता है)। ....कृ... -II. iv. 80 देखें-घसरणश II. iv.80 कृ...-III. 1.59 देखें-कमद II. 1. 59 क...-III. 1. 120 देखें-कृत्योः III. 1. 120 कृ...-III. IN.61 देखें-कृथ्वोः III. iv.61 क... - V. iv. 50 देखे-कवस्ति०V. iv. 50, ...क... -VI. iv. 102 देखें-अणु. VI. iv. 102 क..-VII. II.13.. देखें-कसम VII. II. 13 कृ... - VIII. Iii. 46 देखें-ककमि VIII. III.46 कृकर्ण... -IV. 1. 144 देखें - कुकर्णपर्णात् IV. 1. 144 कृकर्णपर्णात् - IV. ii. 144 (भारद्वाज देश में वर्तमान) जो कुकर्ण तथा पर्ण प्रातिपदिक, उनसे (शैषिक छ प्रत्यय होता है)। कमिकंसकुम्भपात्रकुशाकर्णीषु - VIII. III. 46. (अकार से उत्तर समास में जो अनुत्तरपदस्थ अनव्यय का विसर्जनीय उसको नित्य ही सकारादेश होता है); कृ, कमि, कंस, कुम्भ, पात्र, कुशा, कर्णी - इन शब्दों के परे रहते। ...कच्छ्र... -II. Iil. 33 देखें - स्तोकाल्पकच्छ II. I. 33 . ...कूवारात् -V.1.94 . देखें-तूदीशलातुov.ii.94 ..कूप.. -VI. 1. 102 देखे-कुसूलकूप. VI. II. 102 कूपेषु - IV.II. 72 (बहुत अच् वाले प्रातिपदिकों से) कुएं को कहना हो (तो चातुरर्थिक अञ् प्रत्यय होता है)। ...कूल..-III. ii. 42 देखें- सर्वकूला III. Hi: 42 कूल... - VI. I. 121 देखें-कलतीर० VI. 1. 121 कूल... - VI. II. 129 देखें-कूलसूदO VI. II. 129 कूलतीरतूलमूलशालाक्षसमम् - VI. I. 121 कूल, तीर, तूल, मूल,शाला, अक्ष, सम - इन उत्तरपद शब्दों को (अव्ययीभाव समास में आधुदात्त होता है)। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 165 - कृच्छ्र... -III. ill. 126 कर-II. iii. 53 देखें-कृच्छाकच्छार्थेषु III. ii. 126 'कृ' धातु के (कर्म कारक में शेषत्व से विवक्षित प्रतिकच्छ्र... - VII. II. 22 यत्न गम्यमान होने पर षष्ठी विभक्ति होती है)। देखें-कृच्छ्रगहनयो: VII. II. 22 कृषः -III. 1. 20 कृच्छ्रगहनयोः - VII. ii. 22 (कर्म उपपद रहते) कृञ् धातु से हेतु,ताच्छील्य अथवा दुःख तथा गम्भीर अर्थ में (कष् हिंसायाम्' धातु को आनुलोम्य गम्यमान हो तो ट प्रत्यय होता है)। निष्ठा परे रहते इट् आगम नहीं होता)। कृर-III. 1.48 ...कृच्छ्यो : - VI. 1.6 देखें - चिरकृच्छ्यो : VI. 1.6 (मेघ, ऋति और भय कर्म उपपद रहते) कृञ् धातु से (खच् प्रत्यय होता है)। कच्छाकच्छायें -III. Iii. 126 कृच्छ् = कष्ट तथा अकृच्छ्र = सुख अर्थवाले (ईषद कृष-III. II.56 था उपपट हों तो धात से खल प्रत्यय होता (व्यर्थ में वर्तमान अच्चिप्रत्ययान्त आढ्य, सुभग, स्थूल, पलित, नग्न, अन्ध, प्रिय कर्म उपपद रहते) कृञ् ...कृच्छ्राणि-II.i. 38 धातु से (करण कारक में ख्युन् प्रत्यय होता है)। देखें-स्तोकान्तिकदार्थ II.1. 38 कृष-III. 1. 89 का - IH.1.40 'कृ' धातु से (सु,कर्म,पाप,मन्त्र और पुण्य कर्म उपपद (आम्प्रत्यय के पश्चात्) कृञ् प्रत्याहार=कृ, भू, अस् रहते क्विप् प्रत्यय होता है, भूतकाल में)। का (भी अनुप्रयोग होता है, लिट् परे रहते)। ...करः-III. 1.96 देखे-युधिर III. II.9 देखे-स्थेका III. iv. 16 कृषः -III. III. 100 कृ धातु से (स्त्रीलिंग में कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा देखें-हाह III. iv. 36 भाव में श तथा क्यप् प्रत्यय भी होता है। कृषः-1.11. 32 कृषः-III. iv. 25 ... (गन्धन, अवक्षेपण,सेवन,साहसिक्य,प्रतियल,प्रकथन तथा उपयोग अर्थ में वर्तमान) कब धातु से (आत्मनेपद ___(कर्म उपपद रहते आक्रोश गम्यमान हो तो समानकहोता है)। र्तृक) कृञ् धातु से (खमुज प्रत्यय होता है)। कर-I. 1.63 कृषः-III. iv. 59 (जिस धातु से आम् प्रत्यय किया गया है,उसके समान (इष्ट का कथन जैसा होना चाहिये वैसा न होना गम्यही पश्चात् प्रयोग की गई) कृ धातु से (आत्मनेपद हो मान हो तो अव्यय शब्द उपपद रहते) कृञ् धातु से (क्त्वा जाता है)। और णमुल् प्रत्यय होते हैं)। का-1.11.71 कृषः-V.iv.58 (मिथ्या शब्द उपपद वाले ण्यन्त) 'कृ' धातु से (आत्म- (द्वितीय, तृतीय, शम्ब तथा बीज प्रातिपदिकों से कृषि' नेपद होता है, अभ्यास अर्थ में)। अभिधेय हो तो) का घात के योग में (डाच प्रत्यय होता कर -I. III. 79 (अनु और परा उपसर्ग से उत्तर) 'कृ' धातु से (पर- ...जोः - III. lil. 127 स्मैपद होता है)। देखें- भूकमओ III. I. 127 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...कृय 166 ...कृज्य - III. I. 79 देखें-तनादिकश्यः III. 1.79 ...कृण्व्योः -II.1.80 देखें-धिन्विकृण्व्योः III. 1. 80 कृत् -I. 1. 38 कृत, (जो मकारान्त तथा एजन्त, तदन्त शब्दरूप की अव्यय संज्ञा होती है)। कत्... -I. 1.46 देखें-कृत्तद्धितसमासा: I. ii. 46 कृत् - III. 1. 93 (धातोः' सूत्र के अधिकार में कहे तिङ् से भिन्न प्रत्ययों की) कृत् संज्ञा होती है। कृत् - III. iv.67 (इस धातु के अधिकार में सामान्य विहित) कृत्संज्ञक प्रत्यय (कर्तृ कारक में होते है)। कृत्-VI. 1. 139 (गति, कारक तथा उपपद से उत्तर) कृदन्त उत्तरपद को (तत्पुरुष समास में प्रकृतिस्वर होता है)। ...कृत... -III. 1.21 देखें-मुण्डमिश्र III. 1.21 कृत... - IV. 11. 38 देखें-कृतलव्धकीत V.III. 38 कृत... -VII. ii. 57 देखें-कृतवृत० VII. 1.57 का:-v.ii.5 (तृतीयासमर्थ सर्वचर्मन् प्रातिपदिक से) किया हुआ अर्थ में (ख तथा खञ् प्रत् कृतवृतच्छदादनृतः -VII. ii. 57 कृती, घृती, उच्छृदिर, उतृदिर, नृती- इन धातुओं से उत्तर (सिज्मिन्न सकारादि आर्धधातुक को विकल्प से इट का आगम होता है)। कृतम् - IV. iv. 133 (तृतीयासमर्थ पूर्व प्रातिपदिक से) किया हुआ' अर्थ में (इन और य प्रत्यय होते है)। कृतम् - VI. ii. 149 (इस प्रकार को प्राप्त हुये के द्वारा) किया गया' - इस अर्थ में (जो समास, वहाँ भी क्तान्त उत्तरपद को कारक से परे अन्तोदात्त होता है)। कृतलब्धक्रीतकुशला - IV. ill. 38 (सप्तमीसमर्थ प्रातिपदिक से) किया हुआ, पाया हुआ, खरीदा हुआ तथा कुशल अर्थों में (यथाविहित प्रत्यय होते है)। कृता -II..31 (समर्थ) कृदन्त (सुबन्त) के साथ (कर्ता और करणवाची तृतीयान्तों का बहुल करके तत्पुरुष समास होता है)। कृतादिभिः - II.i. 58 (श्रेणि आदि सुबन्त शब्द) कृत आदि (समानाधिकरण सुबन्त) शब्दों के साथ (विकल्प से समास को प्राप्त होते हैं और वह समास तत्पुरुषसंज्ञक होता है)। कृति-II. iii. 65 ___ कृत् प्रत्यय का प्रयोग होने पर (अनभिहित कर्ता और कर्म कारक में षष्ठी विभक्ति होती है)। कृति -VI.1.69. (हस्वान्त धातु को पित् तथा) कृत् प्रत्यय के परे रहते (तुक् का आगम होता है)। कृति - VI. ii. 50 . (तु शब्द को छोड़कर तकारादि एवं नकार इत्सज्जक) कृत् प्रत्यय के परे रहते (भी अव्यवहित पूर्वपद गति को प्रकृतिस्वर होता है)। कृति - VI. iii. 13 (तत्पुरुष समास में) कृदन्त शब्द उत्तरपद रहते (बहुल करके सप्तमी का अलुक होता है)। कृति - VI. III. 71 कृदन्त उत्तरपद रहते (रात्रि शब्द को विकल्प करके मुम आगम होता है। कृति -VII. 1.8 (वशादि) कृत् प्रत्यग के परे रहते (इट का आगम नहीं होता)। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृति 167 कृत्योकेष्णुच्चार्वादयः कृति -VIII. 1.2 कृत्यतृचः-III. III. 169 (सुवविधि, स्वरविधि, संज्ञाविधि तथा) कृत् विषयक (योग्य कर्ता वाच्य अथवा गम्यमान हो तो धातु से) (तुक की विधि करने में नकार का लोप असिद्ध होता कृत्यसंज्ञक तथा तृच प्रत्यय हो जाते हैं,(तथा चकार से लिङ् भी होता है)। कृति - VIII. iv. 28 कृत्यल्युट -III. III. 113 . (अच् से उत्तर) कृत् में स्थित (जो नकार,उसको उपसर्ग कृत्यसंज्ञक प्रत्यय तथा ल्युट् प्रत्यय (बहुल अर्थों में में स्थित निमित्त से उत्तर णकारादेश होता है)। होते है)। कृते-IV. iii. 87 कृत्या -III.1.95 (द्वितीयासमर्थ प्रातिपदिक से 'उसको अधिकृत विषय अधिकार सूत्र होने से इसके अधिकार में विहित प्रत्यय बनाकर) किया गया' अर्थ में (यथाविहित प्रत्यय होता है, 'कृत्य' संज्ञक होते हैं। लक्ष्य करके बनाया गया यदि ग्रन्थ हो तो)। कृत्याः -III. iii. 163 कृते - IN. I. 116 (प्रेषण करना, कामचारपूर्वक आज्ञा देना, अवसरप्राप्ति (तृतीयासमर्थ प्रातिपदिक से ग्रन्था बनाने अर्थ में (यथा अर्थों में धातु से) कृत्यसंज्ञक प्रत्यय होते हैं, (तथा लोट भी होता है)। विहित प्रत्यय होता है)। कृत्याः -III. iii. 171 ...कतेषु-VIII. II. 50 देखें-कःकरत VIII. 1.50 (आवश्यक और आधमर्ण्यविशिष्ट अर्थ हो तो धातु से) कृत्यसंज्ञक प्रत्यय (भी) हो जाते हैं। ...कतो:-VII. Ill. 33 देखें-चिण्कतो: VII. II. 33 ..कत्या : -VI. II.2 . देखें- तुल्यार्थ.VI. 1.2 कृत्य..-II.1.67 कृत्यानाम् -II. iii. 71 देखें-कृत्यतुल्याख्या II.1.67 कृत्य-प्रत्ययान्तों के प्रयोग होने पर (कर्तृ कारक में कृत्य.. -III. III. 113 विकल्प से षष्ठी विभक्ति होती है,न कि कर्म में) देखें-कृत्यल्युटः III. iii. 113 कृत्यार्थे -III. iv. 14 कत्य... -III. III. 169 कृत्यार्थ = भाव, कर्म गम्यमान होने पर (वेदविषय देखें-कत्यतयः III. 1. 169 में धातु से तवै, केन्, केन्य तथा त्वन् प्रत्यय होते हैं)। कृत्य.. -III. iv.70 देखें-कृत्यक्तखलाः III. iv.70 कृत्यैः - II. 1. 32 कृत्य.. -VI. 1. 160 (समर्थ) कृत्यप्रत्ययान्त (सुबन्तों) के साथ (कर्ता और देखें-कृत्योकेष्णु० VI. II. 160 करणवाची तृतीयान्तों का विकल्प से तत्पुरुष समास होता कृत्यक्तखलाः - III. iv. 70 है, अधिकार्थवचन गम्यमान होने पर)। कृत्यसंज्ञक प्रत्यय, क्त और खल अर्थ वाले प्रत्यय कृत्यः -II. 1.42 (भाव और कर्म में ही होते है)। कृत्यप्रत्ययान्त के साथ (सप्तम्यन्त सुबन्त का तत्पुरुष कृत्यतुल्याख्या-II. 1.67 समास होता है, ऋण गम्यमान होने पर)। कृत्य तथा तुल्य के पर्यायवाची (सुबन्त) शब्द (अजा- कृत्योकेष्णुच्चार्वादयः - VI. 1. 160 तिवाची समानाधिकरण समर्थ सुबन्तों के साथ विकल्प (नञ् से उत्तर) कृत्यसंज्ञक,उक, इष्णुच् प्रत्ययान्त तथा से समास को प्राप्त होते हैं,और वह तत्पुरुष समास होता चार्बादिगणपठित उत्तरपद शब्दों को (भी अन्तोदात्त होता Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृत्वसुच 168 केकयमित्रयुप्रलयानाम् कृत्वसुच् -V.IV. 17 ...कृषि... - V. ii. 112 (क्रिया के बार-बार गणन अर्थ में वर्तमान सङ्ख्यावाची देखें- रजकृष्याov.in. 112 प्रातिपदिकों से) कृत्वसुच् प्रत्यय होता है। कृषः - VII. iv.64 कृत्वोऽर्थप्रयोगे-II. 1.64 कृष् अङ्ग के (अभ्यास को वेद-विषय में यह परे रहते कृत्वसुच प्रत्यय अथवा इसके अर्थ वाले प्रत्ययों के चवर्गादेश नहीं होता)। प्रयोग में (काल अधिकरण होने पर षष्ठी विभक्ति होती कृषौ -V.iv. 58 है; शेषत्व की विवक्षा में)। द्वितीय, तृतीय,शम्ब तथा बीज प्रातिपदिको से) कृषि कृत्वोऽथें - VIII. ill. 43 अभिधेय होने पर (कृञ् धातु के योग में डाच् प्रत्यय कृत्वसुच् के अर्थ में वर्तमान (द्विस, त्रिस् तथा चतुर् के होता है)। विसर्जनीय को विकल्प से वकारादेश होता है; कवर्ग ...कृष्टपच्य.. - III. I. 114 अथवा पवर्ग परे रहते)। देखें- राजसूयसूर्य II. 1. 114 ...कृद्ध्यः -VI. 1. 176 कसभवस्तुदुखुश्रुक - VII. ii. 13 देखें - गोश्वन० VI. 1. 176 कृ, स,भृत, स्तु, द्रु, स्नु, श्रु- इन अङ्गों को ....कृषि... - VIII. ii. 50 प्रत्यय परे रहते इट् आगम नहीं होता)। देखें - कःकरत VIII. iii. 50 कृ -III. ill. 30 कृपः -VIII. I. 18 (उद् तथा नि पूर्वक) कृ धातु से (धान्यविषय में घब् कृप् धातु के रेफ को लकारादेश होता है)। प्रत्यय होता है, कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में)। । कवस्तियोगे - V. iv. 50 क्लप: -1. iii. 93 कृ, भू तथा अस् धातु के योग में (सम् पूर्वक पद् धातु क्लुप् (= कृप) धातु से (लुट् लकार में तथा चकार से के कर्ता में वर्तमान प्रातिपदिक से च्चि प्रत्यय होता है)। स्य, सन् होने पर भी विकल्प से परस्मैपद होता है)। कृश्योः -III. iv. 61 क्लप - VII. ii. 60 (तस्मत्ययान्त स्वाङ्गवाची शब्द उपपद हो तो) कु, भू 'कृपू सामर्थे' धातु से उत्तर (तास् तथा सकारादि आर्धधातुओं से (क्त्वा तथा णमुल् प्रत्यय होते है)। धातुक को इट आगम नहीं होता, परस्मैपद परे रहते)। कमदहिभ्यः - III. 1. 59 के-VII. iii. 64 कृमृ.दृ तथा रुह धातु से उत्तर च्लि को छन्द-विषय (उच समवाये' धातु से) क प्रत्यय परे रहते (ओक शब्द में अह आदेश होता है.कर्तवाची लुङ परे रहते)। निपातन किया जाता है)। कवृषोः - III. 1. 120 के -VII. iv. 13 . कृ तथा वृष धातुओं से विकल्प से क्यप प्रत्यय होता __क प्रत्यय परे रहते (अण् = अ, इ, उ को हस्व होता ...कश... - VIII. ii. 55 देखें-फुल्लक्षीब VIII. 1. 55 ...कशाश्व... - IV. 1.80 देखें- अरोहणकशाश्व० V. 1. 80 ...कशाश्वात् -VIII. 111 देखें-कर्मन्दकशाश्वात् IV. 1. 111 केकय.. - VII. iil.2 देखें - केकयमित्रयु० VII. Ili.2 केकयमित्रयुप्रलयानाम् - VII. Iii. 2 केकय,मित्रयु तथा प्रलय अङ्गों के (यकार आदि वाले भाग को इय आदेश होता है जित, णित् अथवा कित् तखित परे रहते)। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केदारात् 169 कोपधात् केदारात् - IV. ii. 39 केशाश्वाभ्याम् - IV. ii. 47 (षष्ठीसमर्थ) केदार शब्द से (यञ् प्रत्यय होता है, तथा (षष्ठीसमर्थ) केश तथा अश्व प्रातिपदिकों से (समूहार्थ में यथासङ्ख्य यञ् तथा छ प्रत्यय होते हैं; विकल्प से; वुञ् भी)। पक्ष में ठक)। ....केन्... - III. iv. 14 ...केशि... - VI. iv. 165 देखें- तवैकेन्केन्यत्वनः III. iv. 14 देखें- गाथिविदथिVI. iv. 165 ...केन्य.. - III. iv. 14 कोः -VI. iil. 100 देखें - तवैकेन्केन्यत्वनः III. iv. 14 कु को (तत्पुरुष समास में अजादि शब्द उत्तरपद हो तो केवल... - IV.I. 30 कत् आदेश होता है)। देखें - केवलमामक IV. 1. 30 ...को: -VIII. ii. 29 केवलमामकमागधेयपापापरसमानार्यकृतसुमङ्गलभेषजात् देखें-स्को: VIII. ii. 29 -IV. 1.30 ...को: -VIII. iii.57 केवल, मामक, भागधेय, पाप, अपर, समान, आर्यकृत, देखें-इण्को : VIII. iii. 57 सुमाल तथा भेषज शब्दों से (संज्ञा तथा छन्द-विषय में कोटर... -VI. iii. 116 स्त्रीलिङ्ग में डीप प्रत्यय होता है); (अन्यत्र लौकिक प्रयोग देखें- कोटरकिंशुलकादीनाम् VI. iii. 116 विषय में इन शब्दों से टाप् ही होगा)। कोटरकिंशुलकादीनाम् - VI. iii. 116 केवलस्य - VII. ii. 5 (वन तथा गिरि शब्द उत्तरपद रहते यथासंख्य करके) । केवल (न्यग्रोध शब्द) के (अचों में आदि अच् को वृद्धि कोटरादि एवं किंशलकादि शब्दों को (सज्जाविषय में दीर्घ नहीं होती, किन्तु उसके य से पूर्व को ऐकार आगम तो होता है)। होता है)। ...कोटरा... - VIII. iv.4 ...केवला:-III. 48 देखें - पुरगामिश्रका० VIII. iv. 4 देखें - पूर्वकालैकसर्वजरत् II. 1. 48 ...कोप.. -VIII. 1.8 केवलात् - V. iv. 124 देखें - असूयासम्मति० VIII. 1. 8 केवल पूर्वपद से परे (जो धर्म शब्द, तदन्त बहुव्रीहि से । ....कोप.. -VIII. I. 103 देखें-असूयासम्मति VIII. 1. 103 अनिच् प्रत्यय होता है)। कोप: - I. iv. 37 केवलाभ्याम् - VII. 1.68 (क्रुध, द्रुह, ईर्घ्य तथा असूय अर्थों वाली धातुओं के केवल (स तथा दुर् उपसगों) से उत्तर (लम् धातु को प्रयोग में जिसके ऊपर) क्रोध व्यक्त किया जाये, (उस ख तथा घञ्प्रत्यय परे रहते नुम् आगम नहीं होता है)। कारक की सम्प्रदान संज्ञा होती है)। केश.. - IV. 1.47 कोपधात् - IV. 1.64 देखें-केशाश्वाभ्याम् IV. II. 47 (द्वितीयासमर्थ) ककार उपधावाले (सूत्रवाची) प्रातिप....केशवेशेषु - IV. 1.42 दिकों से (भी 'तदधीते तद्वेद' अर्थ में उत्पन्न प्रत्यय का देखें-वृत्यमत्रावपना IV.I. 42 लुक् होता है)। केशात् - V.i. 109 कोपधात् - IV.ii. 78 केश प्रातिपदिक से (मत्वर्थ में विकल्प से व प्रत्यय ककार उपधावाले प्रातिपदिक से (भी चातुरर्थिक अण होता है)। प्रत्यय होता है)। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...कोपधात् 170 विति ...कोपधात् - IV. ii. 106 कौरव्य.. - IV.I. 19 देखें-प्रस्थोत्तरपदपलधा० IV. ii. 106 देखें-कौरव्यमाण्डूकाभ्याम् IV.I. 19 कोपधात् - IV.ii. 131 कौरव्यमाण्डूकाभ्याम् – IV.1.19 (देशवाची) ककार उपधावाले प्रातिपदिक से (शैषिक __ (अनुपसर्जन) कौरव्य तथा माण्डूक प्रतिपदिकों से (पी अण् प्रत्यय होता है)। स्त्रीलिङ्ग में एक प्रत्यय होता है,और वह तद्धितसंज्ञक होता. कोपधात् - IV. iii. 134 (षष्ठीसमर्थ) ककार उपधावाले प्रातिपदिक से (भी कौशले - VIII. 11. 89 विकार और अवयव अर्थों में अण् प्रत्यय होता है)। (नि तथा नदी शब्द से उत्तर 'ष्णा शौचे' धातु के सकार: ...कोपयात् - Iv.iv.4 को) कुशलता गम्यमान हो तो (मूर्धन्य आदेश होता है)। .. देखें- कुलत्वकोपधात् IV. iv.4 ...कौशिकयोः -IV.I. 106 . कोपधायाः-IV. iii. 36 देखें- ब्राह्मणकौशिकयो: IV. 1. 106 .. ककार उपधावाले (स्त्रीशब्द) को (पुंवद्भाव नहीं होता)। देखें-काश्यपकौशिकाभ्याम् M. . 103 कोशात् -IV. iii. 42 कौसल्य..-.1.155 . (सप्तमीसमर्थ) कोश प्रातिपदिक से (सम्भव अर्थ में । देखें-कौसल्यकार्यािभ्याम् IV.I. 155 ढ प्रत्यय होता है)। कौसल्यकार्यािभ्याम् - IV.1.155 ... कोष्णिके-v.1.71 कौसल्य तथा कार्य शब्दों से (भी अपत्य अर्थ में : देखें- ब्राह्मणकोष्णिक V.ii. 71 फिञ् प्रत्यय होता है)। ... कोसल... - IV. 1. 169 विडति-I.1.5 देखें-वृद्धत्कोसला• IV. 1. 169 कित,गित, ङित् को निमित्त मानकर (भी इक् के स्थान ...कौ - VI. ii. 157 में जो गुण और वृद्धि प्राप्त होते हैं, वे न हो)। देखें-अच्कौ VI. ii. 157 विडति - VI. v. 15 ...कौटाभ्याम् - V.iv.95 (अनुनासिकान्त अन की उपधा को दीर्घ होता है, क्वि देखें - ग्रामकोटाभ्याम् V. iv.95 तथा झलादि) कित् ङित् प्रत्यय परे रहते। कौटिल्ये - III. 1. 23 विडति -VI. iv. 24 (गत्यर्थक धातुओं से नित्य) कुटिलता-युक्त (गति) (इकार जिनका इत्सबक नहीं हैं,ऐसे हलन्त अग की गम्यमान होने पर (ही यङ् प्रत्यय होता है)। उपधा के नकार का लोप होता है),कित् डित् प्रत्ययों के ...कौण्डिन्ययो: - II. iv. 70 परे रहते। देखें- आगस्त्यकौण्डिन्ययोः II. iv. 70 विडति-VI. iv.37 ...कौपीने -v.i. 20 (अनुदात्तोपदेश और जो अनुनासिकान्त-उनका तथा वन एवं तनोति आदि अों के अनुनासिक का लोप होता देखें- शालीनकौपीने v. II. 20 है, झलादि) कित डित प्रत्ययों के परे रहते। कौमार - IV. ii. 12 विडति-VI.V.. कौमार शब्द (अपूर्ववचन घोतित हो रहा हो तो) अण- (अजादि) कित् ङित् प्रत्ययों के परे रहते (दीपातु से प्रत्ययान्त निपातन किया जाता है। उत्तर युट् का आगम होता है)। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकृति 171 विडति-VI. iv.98 (गम,हन,जन,खन, घस्- इन अङ्गों की उपधा का लोप हो जाता है, अङ्वर्जित अजादि) कित्,डित् प्रत्यय परे हो तो। विडति - VII. iv. 22 (यकारादि) कित् डित् प्रत्यय परे रहते (शीङ अङ्ग को 'अयङ् आदेश होता है)। क्त... -I.1.25 देखें- क्तवतवतू I. i. 25 ...क्त... -III. iv.70 देखें-कृत्यक्तखलाः III. iv. 70 ...क्त ... VI. ii. 144 देखें-थाथप VI. ii. 144 क्तः -III. II. 186 (जि जिसका इत्संज्ञक है,ऐसी धातु से वर्तमानकाल में) क्त प्रत्यय होता है। क्तः -III. iii. 114 (नपुंसकलिङ्ग भाव में धातुमात्र से) क्त प्रत्यय होता है। क्त -III. iv. 71 (क्रिया के आरम्भ के आदि क्षण में विहित जो) क्त प्रत्यय. (वह कर्ता तथा चकार से भावकर्म में भी होता ...क्तवतू -I.i. 25 देखें-क्तक्तवतू I.i. 25 क्तक्तवतू -I.i. 25 क्त और क्तवतु प्रत्यय (निष्ठासंज्ञक होते है)। क्तस्य-II. iii.67 'क्त' प्रत्यय के (योग में भी षष्ठी विभक्ति होती है, उसके वर्तमानकाल में विहित होने पर)। क्तात् - IV.i.51 (करणपूर्व अनुपसर्जन) क्तान्त प्रातिपदिक से (थोडे की आख्या गम्यमान हो तो स्त्रीलिङ्ग में ङीष् प्रत्यय होता है)। क्तात् - V.iv.4 क्तप्रत्यय अन्त वाले प्रातिपदिकों से (निरन्तर सम्बन्ध गम्यमान न हो तो कन् प्रत्यय होता है)। क्तिच्... - III. ii. 174 देखें-क्तिच्क्तौ III. iii. 174 क्तिचि - VI. iv. 39 क्तिच परे रहते (अनुदात्तोपदेश, वनति तथा तनोति आदि अङगों के अनुनासिक का लोप तथा दीर्घ नहीं होता है)। क्तिचि-VI. iv. 45 क्तिच प्रत्यय परे रहते (सन् अङ्ग को आकारादेश होता है तथा विकल्प से इसका लोप भी होता है)। क्तिच्चतौ -III. iii. 174 (आशीर्वाद विषय में धातु से) क्तिच् और क्त प्रत्यय (भी) होते हैं,(यदि समुदाय से संज्ञा प्रतीत हो तो)। क्तिन् -III. iii. 94 (धातुमात्र से स्त्रीलिङ्ग में कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में) क्तिन् प्रत्यय होता है। ...क्तिन्... - VI. ii. 151 देखें- मन्क्तिन VI. ii. 151 क्ते-VI. ii. 45 क्तान्त शब्द उत्तरपद रहते (भी चतुर्थ्यन्त पूर्वपद को प्रकृतिस्वर हो जाता है) क्ते-VI. 1. 61 क्तान्त उत्तरपद रहते (नित्य अर्थ है जिसका,ऐसे समास में विकल्प से पूर्वपद को प्रकृतिस्वर होता है)। क्तः -III. iv.76 (स्थित्यर्थक अकर्मक. गत्यर्थक तथा प्रत्यवसानार्थक धातुओं से विहित) जो क्त प्रत्यय,वह (अधिकरण कारक में होता है तथा चकार से भाव, कर्म और कर्ता में भी होता है)। क्तः-VI. ii. 145 (सु तथा उपमानवाची से उत्तर) क्तान्त उत्तरपद को (अन्तोदात्त होता है)। क्त - VI. ii. 170 (आच्छादनवाची शब्द को छोडकर जो जातिवाची कालवाची एवं सुखादि शब्द,उनसे उत्तर उत्तरपद)क्तान्त शब्द को (कृत, मित तथा प्रतिपन्न शब्दों को छोड़कर अन्तोदात्त होता है, बहुव्रीहि समास में)। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 क्तेन-II. 1.24 क्वा -1.1.22 .(स्वयम्-इस अवयव का) क्तप्रत्ययान्त (समर्थ सुबन्त) ( पधातु से परे सेट निष्ठा तथा सेट) क्त्वा प्रत्यय (भी के साथ विकल्प से समास होता है और वह समास कित नहीं होता है)। तत्पुरुषसंज्ञक होता है)। क्वा -II. 1. 22 क्तेन -II. . 38 क्त्वा-प्रत्ययान्त के साथ (भी तृतीयाप्रभृति उपपद (स्तोक, अन्तिक और दूर अर्थ वाले पञ्चम्यन्त सुबन्त, विकल्प से समास को प्राप्त होते हैं, और वह तत्पुरुष तथा पञ्चम्यन्त कृच्छू शब्द जो सुबन्त, उनका समर्थ) समास होता है)। क्तान्त (सुबन्त) के साथ (विकल्प से समास होता है, और क्वा -III. iv. 18 वह तत्पुरुषसंज्ञक होता है)। प्रतिषेधवाची अलं तथा खल शब्द उपपद रहते प्राचीन क्तेन-II.1.44 आचार्यों के मत में धातु से) क्त्वा प्रत्यय होता है। (दिन के अवयववाची और रात्रि के अवयववाची सप्त- क्वा ..-III. IN.59 म्यन्त सुबन्तों का) क्तान्त (समर्थ सुबन्त) के साथ (विकल्प देखें-क्वाणमुलौ III. iv.59 से तत्पुरुष समास होता है)। क्वा -VII.1.38 क्तेन -II. 1.59 (अनपूर्व वाले समास में क्त्वा के स्थान में) क्त्वा . (अनञ् क्तान्त सुबन्त शब्द नज्-विशिष्ट = जिस शब्द आदेश होता है (तथा ल्यप आदेश भी वेद-विषय में होता । में न ही विशेष हो अन्य सब प्रकृति प्रत्यय आदि द्वितीयपद के तुल्य हों) समानाधिकरण तान्त (सुबन्त) क्वा ..-VII. 1.50 के साथ विकल्प से तत्पुरुष समास को प्राप्त होता है)। देखें- क्वानिष्ठयोः VII. ii. 50 क्तेन-II. 1. 12 क्वाणमुलौ-III. 1.59 , (पूजा अर्थ में विहित) जो क्त प्रत्यय, तदन्त शब्द के साथ (भी षष्ठ्यन्त सुबन्त समास को प्राप्त नहीं होता। (इष्ट का कथन जैसा होना चाहिये वैसा न होना गम्य...क्तौ-III. iii. 174 मान हो तो अव्यय शब्द उपपद रहते कृञ् धातु से) क्त्वा देखें-क्तिच्चतौ III. 1. 174 और णमुल प्रत्यय होते हैं। . क्यः - VII.i.37 कत्वातोसुकसुनः - I. 1. 39 . (नज से भिन्न पूर्व अवयव है जिसमें, ऐसे समास में) क्त्वान्त, तोसुन्नन्त और कसुन्नन्त शब्द (अव्ययसंज्ञक क्त्वा के स्थान में (ल्यप् आदेश होता है)। होते हैं)। क्य-VII. I. 47 क्वानिष्ठयोः - VII. ii. 50 (वेद-विषय में) क्त्वा को (या आगम होता है)। (क्लिश् धातु से उत्तर) क्त्वा तथा निष्ठा को (इट् आगम क्वा .. -I.i.39 विकल्प से होता है)। देखें- क्त्वातोसुन्कसुनः I. 1. 39. वित्व-VI. iv. 18 क्त्वा -I. ii.7 (क्रम् अङ्ग की उपधा को भी झलादि) क्त्वा प्रत्यय परे (मृड,मृद,गुध,कुष, क्लिश, वद,वस-इन धातुओं से रहते (विकल्प से दीर्घ होता है)। परे) क्त्वा प्रत्यय (किद्वत् होता है)। वित्व-VI.N.31 क्वा -I. 1. 18 (स्कन्द तथा स्यन्द के नकार का लोप) क्त्वा प्रत्यय परे (सेट) क्त्वा प्रत्यय (कित् नहीं होता है)। रहते (नहीं होता। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वित्व 173 वित्व-VII. 1. 55 क्य च् -III. 1.8 (जू वयोहानौ' तथा 'ओवश्चू छेदने' धातु के) क्त्वा (इच्छा क्रिया का कर्म जो कर्ता का आत्मसम्बन्धी प्रत्यय को (इट् आगम होता है)। सुबन्त, उससे इच्छा अर्थ में विकल्प से) क्यच् प्रत्यय वित्व - VII. iv. 43 होता है)। (ओहाक् त्यागे' अङ्ग को भी) क्त्वा प्रत्यय परे रहते क्यच् -III.i. 19 (हि आदेश होता है)। (करोति के अर्थ में नमस्,वरिवस् और चित्रङ् कर्मों से) किर-III. iii. 88 क्यच् प्रत्यय होता है। (डु इत्संज्ञक है जिन धातुओं का,उनसे कर्तृभिन्न कारक क्यचि - VII. I. 51 संज्ञा तथा भाव में) किन प्रत्यय होता है। (अश्व, क्षीर, वृष, लवण-इन अङ्गों को) क्यच् परे को-IV. iv. 20 रहते (आत्मा की प्रीति विषय में असुक् आगम होता है)। (तृतीयासमर्थ) क्त्रि प्रत्ययान्त प्रातिपदिक से निर्वत्त क्यचि-VII. iv.33 अर्थ में नित्य ही मप प्रत्यय होता है)। क्यच् परे रहते (भी अवर्णान्त अङ्ग को ईकारादेश होता क्नु: -III. ii. 139 (तसि, गृधि,षि तथा क्षिप् धातुओं से तच्छीलादि कर्ता क्यच्च्यो : - VI. iv. 152 हो, तो वर्तमानकाल में) क्नु प्रत्यय होता है। (हल से उत्तर अङ्ग के अपत्य-सम्बन्धी यकार का) क्य ....क्नूयी... VII. il. 36 तथा चि परे रहते (भी लोप होता है)। देखें- अर्तिही०- VII. il. 36 क्यप् -III. I. 106 क्नोपे: -III. iv. 33 • (उपसर्गरहित वद् धातु से सुबन्त उपपद रहते) क्यप् (चेलवाची कर्म उपपद हो तो वर्षा का प्रमाण गम्यमान प्रत्यय होता है, (चकार से यत् प्रत्यय भी होता है)। होने पर) ण्यन्त नूयी धातु से (णमुल् प्रत्यय होता है)। क्यप् - III. 1. 109 क्मरच् - III. ii. 160 (इण,ष्टुञ्, शासु, वृज,दृङ् और जुषी धातुओं से) क्यप् (स, घसि, अद्- इन धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हो, प्रत्यय होता है। तो वर्तमानकाल में) क्मरच प्रत्यय होता है। क्यप् -III. iii. 98 क्यङ्-III. I. 11 (वज तथा यज् धातुओं से स्त्रीलिङ्गभाव में) क्यप् प्रत्यय (उपमानवाची सुबन्त कर्ता से आचार अर्थ में विकल्प होता है,(और वह उदात्त होता है)। से) क्यङ् प्रत्यय होता है,(तथा विकल्प से सकार का क्यष् -III. 1. 13 लोप भी हो जाता है)। (अळ्यन्त लोहितादि तथा डाच् प्रत्ययान्त शब्दों से क्या .. - VI. iii. 35 'भवति' अर्थ में) क्यष् प्रत्यय होता है । देखें-क्यङ्मानिनो: VI. iil. 35 क्यपः -1. iii.90 क्यङ्मानिनोः - VI. ill. 35 क्यष्-प्रत्ययान्त धातु से (परस्मैपद होता है, विकल्प क्यङ् तथा मानिन् परे रहते (भी अवर्जित भाषितपुंस्क करके)। स्त्रीशब्द को पुंवद्भाव हो जाता है)। क्यस्य -VI. iv. 50 क्य.. -VI. iv. 152 (हल् से उत्तर) 'क्य' का विकल्प से लोप होता है, देखें-क्यच्व्योः VI. iv. 152 आर्धधातुक परे रहते)। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्यात् क्यात् - III. ii. 170 क्यप्रत्ययान्त धातुओं से (तच्छीलादि कर्ता हो, तो वर्त - मानकाल में वेदविषय में उ प्रत्यय होता है)। क्ये - I. iv. 15 क्यच् क्यछ और क्यष् परे रहते (नकारान्त शब्दरूप की पद संज्ञा होती है। ऋतु.. - IV. 1. 59 देखें - क्रतूक्थादिसूत्रान्तात् IV. 1. 59 ऋतु ... IV. iii. 68 देखें क्रतुयज्ञेभ्यः IV. III. 68 क्रतूक्थादिसूत्रान्तात् - IV. ii. 59 (द्वितीयासमर्थ) क्रतु विशेषवाची, उक्थादि तथा सूत्रान्त प्रातिपदिकों से (अध्ययन तथा जानने का कर्त्ता अभिधेय हो तो ठक् प्रत्यय होता है) । क्रतु = यज्ञ । उक्थ = साम का लक्षण ग्रन्थ क्रतुयज्ञेभ्य IV. iii. 68 क्रतुवाची और यज्ञवाची (व्याख्यातव्यनाम षष्ठी तथा सप्तमीसमर्थ) प्रातिपदिकों से भी व्याख्यान और भव अर्थों में ठञ् प्रत्यय होता है) । क्रतौ 1 III. i. 130 क्रतु = यज्ञविशेष की संज्ञा अभिषेय हो तो (कुण्डपाय और संचाय्य शब्द निपातन किये जाते हैं)। क्रतौ - VI. ii. 97 क्रतुवाची समास में (द्विगु उत्तरपद रहते पूर्वपद को अन्तोदात्त होता है)। ... - - क्रत्वादयः - VI. ii. 118 (सु से उत्तर) क्रत्वादि शब्दों को (भी आद्युदात्त होता 1 कथानाम् - VI. 1. 210 देखें - त्यागरागo VI. 1. 210 ...क्रम III. 1. 67 देखें – जनसन... III. 1. 67 ... 174 क्रम. - I. iil. 38 (वृत्ति, सर्ग और तायन अर्थों में वर्तमान) क्रम् धातु से (आत्मनेपद होता है)। क्रम: - VI. Iv. 18 क्रम् अङ्ग की उपधा को भी झलादि क्त्वा परे रहते विकल्प से दीर्घ होता है) । - क्रमः VII. 11.76 क्रमु अङ्ग को (परस्मैपदपरक शित् के परे रहते दीर्घ होता है)। क्रमणे III.1.14 क्रिया कुटिलता अर्थ में (चतुर्थी समर्थ कष्ट शब्द से 'क्य' प्रत्यय होता है)। कमादिभ्यः - IV. 1. 60 (द्वितीयासमर्थ) क्रमादि प्रातिपदिकों से (अध्ययन तथा जानने का कर्ता अभिधेय होने पर वुन् प्रत्यय होता है) ।. .... क्रमु... - III. 1. 70 देखें - प्राशभ्लाश० III. 1. 70 ...क्रमो : - VII. 1. 36 देखें- नुक्रमो VII. 1. 36 ... क्रयविक्रयात् - IV. Iv. 13 देखें - वस्नक्रयविक्रयात् IV. Iv. 13 क्रव्य: - VI. 1. 79 क्रम्य शब्द का निपातन किया जाता है, उसी अर्थ में अर्थात् क्रयार्थ अभिधेय होने पर। क्रव्ये - III. ii. 69 क्रव्य (सुबन्त उपपद रहते (भी अद् धातु से विट् प्रत्यय होता है। ... क्राथ II. iii. 56 देखें - जासिनिग्रहणo II. III. 56 किए - 1. III. 18 क्रिय: 000 (परि, वि तथा अव उपसर्ग पूर्वक) 'डुक्रीज्' धातु से (आत्मनेपद होता है)। क्रिया - - IV. ii. 57 (प्रथमासमर्थ) क्रियावाची (भजन्त प्रातिपदिक से सप्त म्यर्थ में ज प्रत्यय होता है)। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 175 किया-V.I. 114 क्रियायाम्-III. I. 11 (ततीयासमर्थ प्रातिपदिकों से 'समान' अर्थ में वति क्रिया के निमित्त यदि) क्रिया उपपद में हो (तो धातु प्रत्यय होता है, यदि वह समानता) क्रिया की हो तो। से भविष्यत् काल में तुमुन् तथा ण्वुल् प्रत्यय होते है)। क्रियागणने - VI. I. 162 क्रियायोगे -I. iv. 58 (बहुव्रीहि समास में इदम्, एतत्, तद् से उत्तर) क्रिया के (प्रादिगणपठित शब्द निपात-सजक होते है, तथा) गणन में वर्तमान (प्रथम तथा पूरण प्रत्ययान्त शब्दों को क्रिया के साथ प्रयुक्त होने पर (वे उपसर्गसजक होते अन्तोदात्त होता है)। क्रियातिपतौ - III. II. 139 क्रियार्थायाम् - III. ii. 10 (भविष्यकाल में लिङ्गका निमित्त होने पर) क्रिया का एक क्रिया के लिये (यदि दूसरी क्रिया उपपद में हो तो उल्लंघन अथवा सिद्ध न होना गम्यमान हो तो (धातु से धातु से भविष्यत् काल में तुमन तथा ण्वुल प्रत्यय होते लङ् प्रत्यय होता है)। क्रियान्तरे - III.in.57 क्रियाथोंपपदस्य-II. iii. 14 क्रिया के व्यवधान में वर्तमान (अस तथा तष क्रिया के लिये क्रिया उपपद में जिसके, ऐसी (अप्रयुधातुओं से कालवाची द्वितीयान्त शब्द उपपद रहते णमुल ज्यमान) धातु के (अनभिहित कर्मकारक में भी चतुर्थी प्रत्यय होता है)। विभक्ति होती है)। क्रियाप्रबन्य... III. 1. 135. क्रियासमभिहारे -III.1.22 देखें- क्रियाप्रबन्यसामीप्ययोः II. iii. 135 क्रिया के बार-बार होने या अतिशयता अर्थ में (एकाच, 'क्रियाप्रबन्यसामीप्ययोः -III. II. 125 हलादि धातु से 'यङ्' प्रत्यय होता है)। क्रियाप्रबन्ध तथा सामीप्य गम्यमान हो तो (धातु से क्रियासमभिहारे - III. iv. 2 अनद्यतन के समान प्रत्ययविधि नहीं होती है)। क्रिया का पौनःपुन्य गम्यमान हो तो (धातु से धात्वर्थ सम्बन्ध होने पर सब कालों में लोट् प्रत्यय हो जाता है, क्रियाप्रश्ने - VIII. 1. 44 और उस लोट् के स्थान में सब पुरुषों तथा वचनों में हि क्रिया के प्रश्न में वर्तमान (किम् शब्द से युक्त उप- और स्व आदेश नित्य होते हैं, तथा त ध्वम् भावी लोट सर्ग-रहित तथा प्रतिषेधरहित तिङन्त को अनुदात्त नहीं के स्थान में विकल्प से हि, स्व आदेश होते है)। होता। क्रियासातत्ये-VI.i. 138 क्रियाफले - I. ii. 72 क्रिया का निरन्तर होना गम्यमान हो तो (अपरस्पराःशब्द (स्वरितेत् तथा जित् धातुओं से आत्मनेपद होता है. में सुट् आगम निपातन किया जाता है)। यदि) क्रिया का फल (कर्ता को मिलता हो तो)। क्री...VI.i.47 देखें- क्रीजीनाम् VI.I. 47 क्रियाभ्यावृत्तिगणने - V. iv. 17 क्रीजीनाम् -VI.i.47 "क्रिया के बार-बार गणन' अर्थ में वर्तमान __ 'डुक्री करणे', 'इङ् अध्ययने' तथा 'जि जये' धातुओं (सङ्ख्यावाची प्रातिपदिकों से स्वार्थ में कृत्वसुच् प्रत्यय के (एच के स्थान में णिच प्रत्यय के परे रहते आकारादेश होता है)। . . हो जाता है)। क्रियाया -III. ii. 126 क्रीड-I. iii. 21 क्रिया के (लक्षण तथा हेतु अर्थ में वर्तमान धातु से लट् (अनु, सम्, परि और आयूर्वक) क्रीड् धातु से के स्थान में शत,शानच आदेश होते है)। (आत्मनेपद होता है)। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रीडा... क्रीडा... - II. ii. 17 देखें - क्रीडाजीविकयोः II. ii. 17 क्रीडाजीविकयोः - II. ii. 17 क्रीडा और जीविका अर्थ में (षष्ठ्यन्त सुबन्त अक् अन्त वाले सुबन्त के साथ नित्य ही समास को प्राप्त होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है) 1 क्रीडायाम् - IV. ii. 56 (प्रथमासमर्थ प्रहरण समानाधिकरण वाले प्रातिपदिकों से सप्तम्यर्थ में ण प्रत्यय होता है, यदि 'अस्यां ' से) निर्दिष्ट क्रीडा हो । 176 क्रीतात् - IV. 1.50 (करणकारक पूर्व वाले) क्रीत - शब्दान्त अनुपसर्जन प्रातिपदिक से (स्त्रीलिङ्ग में ङीष् प्रत्यय होता है) । क्रीतात् - V. 1. 1 (यहाँ से आगे) 'तेन क्रीतम्' इस सूत्र से पहले पहले के कहे हुये अर्थों में (छ' प्रत्यय अधिकृत होता है)। ... क्रीताः देखें - मन्तिन् VI. ii. 151 क्रु... - III. ii. 174 देखें - क्रुक्लुकनौ III. ii. 174 • VI. ii. 151 - कुक्लुकनौ – III. 1. 174 - (भी धातु से तच्छीलादि कर्ता हो, तो वर्तमानकाल में) क्रु तथा क्लुकन् प्रत्यय हो जाते हैं। ... कुङ्... - VI. 1. 176 देखें - गोवन् VI. 1. 176 क्रीडायाम् - VI. ii. 74 (प्राग्देश-निवासियों की) जो क्रीडा, तद्वाची समास में (अकप्रत्ययान्त शब्द के उत्तरपद रहते पूर्वपद को आधुदात होता है। ... क्री.... - IV. iii. 38 देखें - कृतलब्धक्रीतo IV. iii. 38 क्रीतम् - V. 1. 36 (तृतीयासमर्थ प्रातिपदिक से) ‘खरीदा गया' अर्थ में क्रुधद्नुहो (यथाविहित प्रत्यय होते हैं)। • क्रीतवत् - IV. iii. 153. (षष्ठीसमर्थ परिमाणवाची प्रातिपदिकों से) क्रीतार्थ में कहे गये प्रत्यय (विकार तथा अवयव अर्थों में भी होते हैं) । ... कुञ्चाम् - देखें - ऋत्विग् III. ii. 59 - III. ii. 59 क्रोडादिव्य क्रुध ... - I. iv. 37 देखें - कुधदुहेर्थ्यासूयार्थानाम् I. iv. 37 क्रुध ... - I. iv. 38 देखें - क्रुधद्रुहो: I. iv. 38 क्रुध ... - III. ii. 151 देखें - क्रुधमण्डार्थेभ्य: III. ii. 151 क्रुधदुहेर्ष्यासूयार्थानाम् - I. iv. 37 क्रुध, द्रुह, ईर्ष्या, असूया - इन अर्थों वाली धातुओं के (प्रयोग में जिसके ऊपर कोप किया जाये, उस कारक की सम्प्रदान संज्ञा होती है)। -I. iv. 38 (उपसर्ग से युक्त) क्रुध तथा द्रुह धातु के प्रयोग में ( जिसके प्रति कोप किया जाय, उस कारक की कर्म संज्ञा होती है)। क्रुधमण्डार्थेभ्यः - III. ii. 151 क्रोधार्थक और मण्डार्थक धातुओं से (भी तच्छीलादि कर्ता हो, तो वर्तमान काल में युच् प्रत्यय होता है) । .. क्रुशो: - III. ii. 147 देखें- देविक्रुशो III. ii. 147 क्रो: - I. iv. 53 देखें - हक्रो: I. iv. 53 क्रोडादि... - IV. 1.56 देखें - क्रोडादिबह्वचः IV. 1. 56 क्रोडादिबह्वचः - IV. 1. 56 क्रोडादि (स्वाङ्गवाची उपसर्जन तथा ) अनेक अच् वाले (अदन्त स्वाङ्गवाची उपसर्जन जिनके अन्त में हैं, उन ) प्रातिपदिकों से (स्त्रीलिङ्ग में ङीष् प्रत्यय नहीं होता है)। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोष्टुः क्रोड = गोद । क्रोष्टुः - VII. 1. 95 (सम्बुद्धिभिन्न सर्वनामस्थान परे रहते तुन् प्रत्ययान्त) क्रोष्टु शब्द (तृज्वत् हो जाता है)। क्रौड्यादिभ्यः - IV. 1. 80 (गोत्र में वर्त्तमान) क्रौड्यादि प्रातिपदिकों से (भी स्त्रीलिङ्ग में ष्यङ् प्रत्यय होता है) । क्रौड्या क्रुड की पुत्री क्र्यादिभ्यः III. i. 81 डुक्रीञ् आदि धातुओं से (श्ना' प्रत्यय होता है; कर्तृ वाचक सार्वधातुक परे रहने पर) । = - ... क्लमु... - III. 1. 70. देखें - प्राशभ्लाश० III. 1. 70 .... क्लमु... - VII. iii. 75 देखें - ष्ठिवुक्लमुचमाम् VII. iii. 75 ... क्लिश... - I. 1. 7 देखें - मृडमृदगुधकुषक्लिशवदवसः I. ii. 7 ... क्लिश... - III. ii. - 146 देखें - निन्दहिंसo III. ii. 146 क्लिश: - VII. ii. 50 क्लिश् धातु से उत्तर (क्त्वा तथा निष्ठा को विकल्प से इट् आगम होता है)। ...क्लुकनौ - III. ii. 174 देखें - क्रुक्लुकनौ III. ii. 174 क्लेश... - III. ii. 50 देखें - क्लेशतमसो: III. ii. 50 क्लेशतमसोः - III. ii. 50 क्लेश तथा तमस् (कर्म) के उपपद रहते (अपपूर्वक हन् धातु से प्रत्यय होता है) । क्य - VII. ii. 105 (अत् विभक्ति के परे रहते किम् अङ्ग को) क्व आदेश होता है। क्वणः - III. iii. 65 (निपूर्वक, अनुपसर्ग तथा वीणा विषय होने पर भी) क्वण् धातु से (कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में विकल्प से अप् प्रत्यय होता है, पक्ष में घञ्) । 177 . क्वनिप्... - III. ii. 74 देखें - मनिन्क्वनिप् III. ii. 74 विवप् क्वनिप् – III. ii. 94 (दृश् धातु से कर्म उपपद रहते) भूतकाल में क्वनिप् प्रत्यय होता है। क्वरप् - III. ii. 163 (इ, ण, जि, सृ- इन धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमानकाल में) क्वरप् प्रत्यय होता है। ... क्वरफ - IV. 1. 15 देखें - टिड्ढाणञ् IV. 1. 15 क्वसुः - III. ii. 106 (वेदविषय में लिट् के स्थान में) क्वसु आदेश (भी) होता है, (विकल्प से) । क्वादे: - VII. iii. 59 कवर्ग आदि वाले धातु के (चकार तथा जकार के स्थान में कवर्गादेश नहीं होता) । fara... VI. iv. 15 देखें - क्विझलो: VI. iv. 15 क्विन् - III. ii. 58 (उदकभिन्न सुबन्त उपपद रहते 'स्पृश्' धातु से) क्विन् प्रत्यय होता है । क्विप्रत्ययस्य -VIII. ii. 66 क्विन् प्रत्यय हुआ है जिस धातु से, उस पद को (कवर्गादेश होता है)। क्विझलो - VI. iv. 15 (अनुनासिकान्त अङ्ग की उपधा को दीर्घ होता है); क्वि तथा झलादि (कित्, डित्) प्रत्यय परे रहते । क्विप् - III. 1. 61 (सद्, सू, द्विष, द्रुह, दुह, युज, विद, भिद, छिद, जि, नी, राजू - इन धातुओं से, सोपसर्ग हों तो भी तथा निरुपसर्ग हों तो भी, सुबन्त उपपद रहते ) क्विप् प्रत्यय होता है। faaq-III. ii. 76 (सब धातुओं से सोपपद हो चाहें निरुपपद) क्विप् प्रत्यय (भी) होता है। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्विम् 178 शियः । क्विप् - II. I. 87 (ब्रह्म, भ्रूण और वृत्र - ये ही कर्म उपपद रहते 'हन्' धातु से भूतकाल में) क्विप् प्रत्यय होता है। क्विप् -III. I. 166 (प्राजू, भास, धुर्वी, ऊर्ज, ,जु, पावपूर्वक ष्टुव-इन धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमानकाल में)क्विप् प्रत्यय होता है। ...क्विपु-VI. iv.97 देखें-इस्मन् VI. iv.97 क्वे:-III. 1. 138 (प्राजभास. III. ii. 166 इस सूत्र से विहित) क्विप् प्रत्यय (पर्यन्त जितने प्रत्यय कहे हैं; वे सब तच्छील, तद्धर्म तथा तत्साधुकारी कर्ता अर्थों में जानने चाहिए)। क्वौ-VI. iii. 115 (नहि, वृति, वृषि,व्यधि,रुचि,सहि, तनि-इन) क्विणत्ययान्त शब्दों के उत्तरपद रहते (पूर्व अण् को दीर्घ हो जाता है)। क्वौ-VI.iv.40 क्वि के परे रहते (गम् के अनुनासिक का लोप होता क्षत्रियात् - IV.I. 166 (जनपद को कहने वाले) क्षत्रिय अभिधायक प्रातिपदिक से (अपत्य अर्थ में अञ् प्रत्यय होता है)। क्षमिति - VII. ii. 34 क्षमिति शब्द (वेदविषय में) इडागमयुक्त निपातित है। क्षयः -VI.1. 195 क्षय शब्द (आधुदात्त होता है, निवास अभिधेय होने पर)। अय्य... - VI.1.78 देखें-क्षय्यजय्यौ VI.i.78 क्षय्यजय्यौ -VI. I. 78 क्षय्य और जय्य शब्द निपातन किये जाते हैं, (शक्य . अर्थ में)। ...र..- VI. iii. 15 - देखें - वर्षक्षरशरवरात् VI. iii. 15 . क्षरिति - VII. II. 34 क्षरिति शब्द वेदविषय में इडागमयुक्त निपातित है। क्षायः - VIII. ii. 53 क्षे धातु से उत्तर (निष्ठा के तकार को मकारादेश होता क्वो -VIII. iii. 25 सम् के मकार को मकारादेश होता है,क्विप् प्रत्ययान्त राजू धातु के परे रहते। ... क्षण.. - II. 1.5 देखें- हम्यन्तक्षण VII. ii. 5 ...त...- VI. iv. 11 देखें - अप्तृन्तच्० VI. iv. 11 क्षत्रात् - IV. 1. 138 क्षत्र शब्द से (अपत्य अर्थ में घ प्रत्यय होता है)। ...क्षत्रिय.. -II. iv. 58 देखें - ण्यक्षत्रियाजितः II. iv.58 ...क्षत्रियाख्येभ्यः- IV. il. 99 देखें-गोत्रक्षत्रियाख्येभ्यः IV. 1.99 ...क्षि..-III. ii. 157 देखें - जिदृक्षि० III. ii. 157 क्षिपः-I.ii. 80 (अभि,प्रति तथा अति पूर्वक) क्षिप्' धातु से (परस्मैपद होता है)। ...क्षिः -III. 1. 140 देखें-त्रसिधिo III. ii. 140 ...क्षिप्र..-VI.iv. 156 . देखें- स्थूलदूर० VI. iv. 156 क्षिप्रवचने - III. iii. 133 शीघ्रवाची शब्द उपपद हो तो (आशंसा गम्यमान होने पर धातु से लृट् प्रत्यय होता है)। क्षियः - VI. iv.59 _ 'क्षि क्षये' अथवा 'क्षि निवासगत्योः धातु को (दीर्घ होता है, ल्यप् परे रहते)। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षियः 179 क्षियः-VIII. 1.46 (दीर्घ) क्षि धातु से उत्तर (निष्ठा के तकार को नकारादेश होता है)। क्षिया..-VIII. 1. 104 देखें-क्षियाशी: VIII. II. 104 क्षियायाम् -VIII. 1.60 (ह इससे युक्त प्रथम तिङन्त विभक्ति को) धर्मोल्लंघन गम्यमान होने पर (अनुदात्त नहीं होता)। क्षियाशी प्रेवेषु-VIII. 1. 104 क्षिया= आचारोल्लंघन, आशीः तथा प्रैष = शाब्दप्रेरणा गम्यमान हो तो (साकाङ्क्ष तिङन्त की टि को स्वरित प्लुत होता है)। ... श्रीब... - VIII. 1.55 देखें-फुल्लक्षीय VIII. 1.55 ...धीर... -VII.1.51 देखें- अश्ववीर० VII.1.51 धीरात् - TV.1.19 (सप्तमीसमर्थ) क्षीर प्रातिपदिक से (संस्कृतं भक्षाः' अर्थ में ठञ् प्रत्यय होता है)। ६... - III. II. 25 देखें-शुश्रुव III. III. 25 शुद्रजन्तवः -II. N. क्षुद्रजन्तु = नेवले से लेकर सूक्ष्म जीव,तद्वाची शब्दों का (द्वन्द एकवद् होता है)। क्षुद्रा...-IN. III. 118 देखें- खुद्राप्रमरक्टर० N. I. 118 शुद्राप्रमरक्टरपादपात् - IV. III. 118 (तृतीयासमर्थ) क्षुद्रा, अमर, वटर, पादप प्रातिपदिकों से (कृते' अर्थ में संज्ञाविषय गम्यमान होने पर अञ् प्रत्यय होता है)। क्षुद्रा = छोटी मक्खी वटर = पामार, शठ ..बुद्राणाम् -VI. iv. 156 देखें- स्थूलदूर० VI. iv. 156 क्षुद्राभ्यः - IV.i. 131 क्षुद्रावाची प्रकृतियों से (अपत्य अर्थ में विकल्प से क् प्रत्यय होता है)। ...क्षुधोः - VII. ii. 52 देखें - वसतिक्षुधो: VII. ii. 52 क्षुब्ध..-VII. . 18 देखें - क्षुब्धस्वान्तः VII. ii. 18 बुमादिषु - VII. iv. 38 क्षुम्नादिगण में पठित शब्दों के (नकार को भी णकारादेश नहीं होता)। क्षुब्धस्वान्तध्वान्तलग्नम्लिष्टविरिब्धफाण्टबाढानि - VII. ii. 18 क्षुब्ध,स्वान्त, ध्वान्त, लग्न,म्लिष्ट,विरिब्ध, फाण्ट,बाढ - ये शब्द (निष्ठा परे रहते यथासङ्ख्य करके मन्थ, मनस. तमस, शक्त, अविस्पष्ट,स्वर, अनायास, भृशइन अर्थों में निपातन किये जाते है)। क्षुल्लक:-VI. ii. 31 (वैश्वदेव शब्द उत्तरपद रहते पूर्वपदस्थित) क्षुल्लक शब्द (तथा महान् शब्द को प्रकृतिस्वर होता है)। क्षुल्लक = छोटा, क्षुद्र खुश्रुक -III. iii. 25 विपूर्वक) क्षु तथा श्र धातुओं से ( कर्तभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है)। ...क्षेत्र..-III. ii. 21 देखें-दिवाविभा० III. ii. 21 ...क्षेत्रज्ञ..- VII. iii. 30 देखें- शुचीश्वर० VII. i. 30 क्षेत्रियच् - V.ii. 92 'क्षेत्रियच्' शब्द को निपातन किया जाता है, (दूसरे शरीर में चिकित्सा किये जाने योग्य' अर्थ में)। क्षेत्रे -N.i:23 (काण्डशब्दान्त अनुपसर्जन द्विगुसंज्ञक प्रातिपदिक से तद्धित का लुक हो जाने पर स्त्रीलिङ्ग में) क्षेत्र वाच्य होने पर (डीप् प्रत्यय नहीं होता है)। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 क्षेत्रे -v.1.1 बहुव्रीहि समास में सज्ञाविषय में पूर्वपद को अन्तोदात्त (षष्ठीसमर्थ धान्यविशेषवाची प्रातिपदिकों से उत्पत्ति- होता है)। स्थान' अभिधेय हो तो खञ् प्रत्यय होता है), यदि वह ... क्षेपेषु - V. iv. 46 (उत्पत्तिस्थान) खेत हो तो। देखें- अतिग्रहाव्यथन० V.iv.46 क्षेपे-II. I. 25 क्षेम..-III. ii. 44 निन्दा गम्यमान होने पर (क्तान्त समर्थ सबन्त के साथ देखें - क्षेमप्रियमद्रे III. I. 44 द्वितीयान्त खट्वा सुबन्त का समास होता है, और वह समास तत्पुरुषसंज्ञक होता है)। क्षेमप्रियमद्रे - III. II. 44. क्षेपे-II.1.41 क्षेम, प्रिय, मद्र -इन (कर्मो) के उपपद रहते (कृज् धातु (समस्त पद से) निन्दा गम्यमान होने पर (ध्वाङ्क्ष = से अण् प्रत्यय होता है,तथा चकार से खच् भी होता है)। काकवाची समर्थ सुबन्त के साथ सप्तम्यन्त सुबन्त का क्ष्णुव....-I. iii. 65 विकल्प से समास होता है, और वह तत्पुरुष समास होता (सम् उपसर्ग से उत्तर) 'दणु तेजने' धातु से (आत्मनेपद . होता है)। क्षेपे-II.1.46 ... मायी... - VII. iii. 36 . निन्दा गम्यमान होने पर (सप्तम्यन्त सुबन्त का क्तान्त देखें - अर्तिही. VII. iii. 36 समर्थ सुबन्त के साथ तत्पुरुष समास होता है)। . ...शिवदि...-1. 1. 19 क्षेपे-II.1.63 देखें - शीविदिमिदिदिवदिषषः I. 1. 19 .. निन्दा गम्यमान होने पर (किम्' शब्द का समानाधिक क्स: -III. . 45 रण समर्थ के साथ विकल्प से समास होता है, और वह समास तत्पुरुषसंज्ञक होता है)। (शलन्त और इगुपध जो अनिट् धातु, उससे लुङ् परे क्षेपे-v.iv.70 रहते च्लि के स्थान में ) क्स आदेश होता है। 'निन्दा' अर्थ में वर्तमान (किम् प्रातिपदिक से समासान्त क्सस्य - VII. ii. 71 प्रत्यय नहीं होते)। क्स का (अजादि प्रत्यय परे रहते लोप होता है)। क्षेपे-VI. 1.69 ...क्से... - III. iv.9 निन्दावाची समास में (गोत्रवाची, अन्तेवासिवाची तथा देखें - सेसेनसे० III. iv.9 माणव एवं ब्राह्मण शब्दों के उत्तरपद रहते पूर्वपद को वस्तुः - III. ii. 139 . आधुदात्त होता है)। (ग्ला, जि, स्था तथा चकार से भू धातु से भी) क्स्नु क्षेपे-VI. 1. 108 प्रत्यय (वर्तमानकाल में होता है.तच्छीलादि कर्ता हो तो)। निन्दा गम्यमान होने पर (उदर, अश्व, इषु उत्तरपद रहते क्स्नु में गकार चर्वभूत निर्दिष्ट है। ख-प्रत्याहारसूत्र XI . भगवान् पाणिनि द्वारा अपने ग्यारहवें प्रत्याहारसूत्र में पठित प्रथम वर्ण। पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्णमाला का तीसवाँ वर्ण। ख-IV.iv. 132 (वेशस्,यशस् आदि वाले भगान्त प्रातिपदिक से मत्वर्थ में) ख प्रत्यय (भी) होता है, (वेद-विषय में)। ख-V.1.91 (द्वितीयासमर्थ सम् तथा परि पूर्व वाले वत्सर शब्दान्त Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 181 प्रातिपदिक से 'सत्कारपूर्वक व्यापार', खरीदा हुआ','हो खखत्री - V. ii. 5 (तृतीयासमर्थ सर्वचर्मन प्रातिपदिक से 'किया हुआ' अर्थ में) ख तथा खञ् प्रत्यय होते हैं। खच् - III. ii. 32 (प्रिय और वश कर्म उपपद रहते वद् धातु से) खच् प्रत्यय होता है। खचि - VI. iv. 94 . खच्परक (णि परे रहते अङ्ग की उपधा को हस्व होता छ प्रत्यय) होता है। ख.. -V.ii.5 देखें - खखनौ v.ii.5 ...ख... -VII..2 देखें - फढख. VII.1.2 ख: -IV.i. 139 (कुल शब्द अन्त वाले तथा केवल कुल प्रातिपदिक से भी अपत्य अर्थ में) ख प्रत्यय होता है। ख: - IV. iv.78 (द्वितीयासमर्थ सर्वधुर प्रातिपदिक से 'ढोता है' अर्थ में) ख प्रत्यय होता है। . ख-v.i.9. (चतुर्थीसमर्थ आत्मन, विश्वजन तथा भोगशब्द उत्तरपदवाले प्रातिपदिकों से 'हित' अर्थ में) ख प्रत्यय होता खञ्- IV. iii.1 (युष्मद् तथा अस्मद् शब्दों से) खञ् (तथा चकार से छ) प्रत्यय (विकल्प से होते हैं.पक्ष में औत्सर्गिक अण होता ख.-V.I. 32 - (अध्यर्द्ध शब्द पूर्ववाले तथा द्विगुसज्जक विंशतिक :' शब्दान्त प्रातिपदिक से 'तदर्हति पर्यन्त कथित अर्थों में) . ख प्रत्यय होता है। ख. -v.i. 52. (द्वितीयासमर्थ आढक,आचित तथा पात्र प्रातिपदिक से 'संभव है. अवहरण करता है तथा पकाता है' अर्थों में विकल्प से) ख प्रत्यय होता है। ख-v.i.84 (द्वितीयासमर्थ समा प्रातिपदिक से ‘सत्कारपूर्वक कारपूर्वक व्यापार','खरीदा हुआ', 'हो चुका' तथा 'होने वाला' इन अर्थों में) ख प्रत्यय होता है। ख -v.ii.6 (षष्ठीसमर्थ यथामख तथा सम्मख प्रातिपदिकों से 'दर्शन' = शीशा अर्थ में) ख प्रत्यय होता है। . ख-v.iv.7 (अषडक्ष, आशितंगु, अलंकर्म, अलंपुरुष शब्दों से तथा अधि शब्द उत्तरपद वाले प्रातिपदिकों से स्वार्थ में) ख प्रत्यय होता है। ख -IV. iv.99 (सप्तमीसमर्थ प्रतिजनादि प्रातिपदिकों से साधु अर्थ में) खञ् प्रत्यय होता है। ख -v.i. 11 (चतुर्थीसमर्थ माणव तथा चरक प्रातिपदिकों से 'हित' अर्थ में) खब प्रत्यय होता है। खञ् - V. ii. 2 (षष्ठीसमर्थ धान्यविशेषवाची प्रातिपदिकों से 'उत्पत्तिस्थान' अभिधेय हो तो) खञ् प्रत्यय होता है, (यदि वह उत्पत्तिस्थान खेत हो तो)। खञ्-v.ii. 18 (भूतपर्व' अर्थ में वर्तमान गोष्ठ प्रातिपदिक से) खब प्रत्यय होता है। .खौ-IV.i. 141 देखें - अखबौ IV.i. 141 ...खजा-I.ii. 93 देखें- यत्खनौ IV.ii. 93 ...खनौ-V.1.70 देखें - घखत्री v.i. 70 ...खजौ-V.1.80 देखें- यत्खनौ V.1.80 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...ख्वी 182 खलतिपलितवलिनजरतीभिः ...खो -v.ii.5 देखें-खखौ v.il.5 खट्वा -II.i. 25 (द्वितीयान्त) खट्वा शब्द (क्तान्त समर्थ सुबन्त के साथ तत्पुरुष समास को प्राप्त होता है. निन्दा गम्यमान होने पर)। ...खण्डिका.. - IV. iii. 102 देखें-तित्तिरिवरतन्तु० IV. iii. 102 .. खण्डिकादिभ्यः - IV. 1.44 (षष्ठीसमर्थ) खण्डिकादि प्रातिपदिकों से (भी समूहार्थ को कहने में अब प्रत्यय होता है)। ...खदिर...-VIII. iv.5 देखें-प्रनिरन्त... VIII. iv.5 ...खन... -III. 1.67 देखें-जनसन० III. 1.67 ...खन..-III. II. 184 देखें- अतिलघू III. II. 184 ...खन..-VI. iv.98 देखें-गमहन. VI. iv.98 खनः -III. 1. 111 खन् धातु से (क्यप् प्रत्यय होता है, और अन्त्य अल् के स्थान में ईकार आदेश भी होता है)। खन -III. iii. 125 खन् धातु से (पुंल्लिङ्ग करणाधिकरण कारक संज्ञा में घ प्रत्यय होता है, तथा चकार से घञ् भी होता है)। खनति - IV. iv.2 . (तृतीयासमर्थ प्रातिपदिक से 'खेलता है), खोदता है, (जीतता है', 'जीता हुआ- अर्थों में ठक प्रत्यय होता खमुश्-III. iv. 25 (कर्म उपपद रहते आक्रोश गम्यमान हो तो समानकर्तृक पूर्वकालिक कृञ् धातु से) खमुञ् प्रत्यय होता है। खयः -VII. iv.61 (शर प्रत्याहार का कोई वर्ण पूर्व में है जिस खय प्रत्याहार के, ऐसे अभ्यास का) खय् शेष रहता है। खयि-VIII. iii.7 (अम् परे है जिससे, ऐसे) खय के परे रहते (पुम् को रु होता है,संहिता में)। खर: - VIII. iii. 15 देखें-खरवसानयो: VIII. iii. 15 ... खरवसानयोः - VIII. ii. 15 रेफान्त पद को) खर परे रहते तथा अवसान में (विसर्जनीय आदेश होता है, संहिता में)। . ...खरशालात् - IV. 11.35 देखें-स्थानान्तगोशाल. IV. iii. 35 खरि -VIII. iv. 54 खर् परे रहते (भी झलों को चर् आदेश होता है)। . खल्-III. iii. 126. (कृच्छ् अर्थवाले तथा अकृच्छ अर्थवाले ईषद,दुस् तथा सु उपपद हों तो धातु से) खल् प्रत्यय होता है। खल्... - VII. 1.67 देखें-खल्यो : VII. 1.67 खल... - V.II. 49 देखें - खलगोरथात् IV. ii. 49 खल... - V. 1.7 देखें - खलयवमाषतिल० V.i.7 खलगोरथात् -IN.ii. 49 (षष्ठीसमर्थ) खल, गो तथा रथ प्रातिपदिकों से (समूह अर्थ को कहने में य प्रत्यय होता है)। खलति... -II. I. 66 देखें-खलतिपलितवलिन II.1.66 खलतिपलितवलिनजरतीधि -II. 1.66 (युवन् शब्द)खलति,पलित,वलिन,जरती-इन (समानाधिकरण सुबन्त) शब्दों के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है)। ...खनाम् - VI. iv. 42 देखें-जनसनखनाम् VI. iv.42 ...खन्य..-III.1.123 देखें-निष्टक्र्यदक्य II.1.123 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खालयवमाषतिलवृषब्रह्मणः खलति = गंजा पुरुष । पलित = वलिन = जरती = वृद्धा । सफेद बालों वाला । खलयवमाषतिलवृषब्रह्मण: - V. 1. 7 (चतुर्थीसमर्थ) खल, यव, माष, तिल, वृष, ब्रह्मन् प्रातिपदिकों से (भी 'हित' अर्थ में यत् प्रत्यय होता है) । ... खलर्थ..... देखें - लोकाव्ययनिष्ठा० II. 1. 69 झुर्री वाला। - - .... खल. - JIIIv. 70 देखें - कृत्यक्तखलर्थाः III. Iv. 70 खल्यत्रो - VII. 1. 67 खल तथा घम् प्रत्ययों के परे रहते (उपसर्ग से उत्तर लभ् अङ्ग को नुम् आगम होता है)। II. iii.69 III. iv. 18 देखें - अलखत्वोः III. Iv. 18 - खश् - III. II. 28 (णिजन्त एजृ धातु से कर्म उपपद रहते) खश् प्रत्यय होता है। ख - III. 1. 83 (आत्ममान अर्थ में विद्यमान 'मन्' धातु से सुबन्त उपपद रहते) खश् प्रत्यय होता है, चकार से णिनि भी होता है । ... खाद... - III. I. 146 देखें निन्दहिंस०] III. 1. 146 .. खादौ - VIII. iv. 18 देखें अकखादी VIII. Iv. 18 ...खान्य... - III. 1. 123 देखें निष्टकर्यदेवहूय III. 1. 123 खार्याः - V. 1. 33 (अध्यर्द्धशब्द पूर्ववाले तथा द्विगुसव्छक) खारीशब्दान्त प्रातिपदिक से (तदर्हति पर्यन्त) कथित अर्थों में ईकन् प्रत्यय होता है)। 183 खार्या - V. Iv. 101 खारी शब्दान्त ( द्विगु सव्वक तत्पुरुष) से (तथा अर्धशब्द से उत्तर जो खारी शब्द, तदन्त से समासान्त टच् प्रत्यय होता है, प्राचीन आचार्यों के मत में) । खिति - VI. iii 65 ख् इत्सञ्ज्ञक है जिसका, ऐसे शब्द के उत्तरपद रहते (अव्ययभिन्न शब्द को हस्व हो जाता है) । खिदे: - VI. 1. 51 'खिद् दैन्ये' धातु के (एच के स्थान में वेदविषय में विकल्प से आत्व हो जाता है)। खिष्णुच्... - III. 1. 57 देखें खिष्णुखुकञ III. II. 57 खिष्णुखुकञ – III. ii. 57 - (व्यर्थ में वर्तमान अध्य्यन्त आदय, सुभग, स्थूल, पलित, नग्न, अन्ध, प्रिय-ये सुबन्त उपपद रहते कर्तृ कारक में भूधातु से ) खिष्णुच् तथा खुकञ् प्रत्यय होते .... खुकञ - III. II. 57 देखें - खिष्णुखुकी III. II. 57 खे - VI. iv. 169 ..खौ (भसक्षक आत्मन् और अध्वन् अङ्गों को) ख प्रत्यय परे रहते (प्रकृतिभाव होता है) । .. खेट... - VI. ii. 126 देखें - चेलखेटo VI. ii. 126 ...खो - VI. Iv. 145 देखें - खो: VI. iv. 145 ... खोपधात् - IV. II. 140 देखें - अकेकान्त० IV. II. 140 ...खौ - IV. 1. 92 ii. देखें घखौ IV. 1. 92 ..खौ IV. iii. 64 देखें- यखौ IV. III. 64 ..खौ IV. iv. 130 देखें- यत्खौ IV. Iv. 130 — -- Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 ...खौ - V.1.54 देखें - लुक्खौ v. 1.54 ...खौ-V. 1. 16 देखें-यत्खौv.ii. 16 ख्य... -VI. I. 108 देखें-ख्यत्यात् VI. 1. 108 ख्य -III. 1.7 (सम् उपसर्ग पूर्वक) ख्या धातु से (कर्म उपपद रहते 'क' प्रत्यय होता है)। ख्यत्यात् - VI. 1. 108 ख्य और त्य से (परे सि तथा ङस अकार के स्थान में उकार आदेश होता है,संहिता के विषय में)। ...ख्या.. -VIII. 1. 57 . देखें- ध्याख्या० VIII. I. 57 ख्या -II. iv.54 (चक्षिङ् के स्थान में, आर्धधातुक के विषय में) ख्याञ् आदेश होता है। ...ख्यातिथ्यः -III. I. 52 देखें - अस्यतिवक्ति III. I. 52 ख्यु - III. ii. 56 (व्यर्थ में वर्तमान अच्चिप्रत्ययान्त आढ्य, सुभग, स्थूल,पलित,नग्न,अन्ध तथा प्रिय कर्म उपपद रहते कब धातु से करण कारक में) ख्युन् प्रत्यय होता है। .. . ग-1.1.5 गण... -III. iii. 86 देखें-विक्डति 1.1.5 देखें-गणप्रशंसयोः III. 11.86 ग-प्रत्याहारसूत्र x. ....गण..-v.i1.52 भगवान पाणिनि द्वारा अपने दशम प्रत्याहारसत्र में देखें-बहुपूग० V. ii. 52 पठित तृतीय वर्ण। गण -VII. iv.97 पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्णमाला गण धातु के (अभ्यास को ईकारादेश तथा चकार से का सत्ताइसवां वर्ण। अकारादेश भी होता है,चङ्परक णि परे रहते)। ... ग..-VI. iii. 51 ...गणम् - IV. iv.84 देखें- आज्यातिगो० VI. ii. 51 देखें-धनगणम् IV. iv.84 ग:-III. 1. 146 ...गणात् - V.iv.73 . देखें- अबहुगणात् V. iv.73 गै धातु से (थकन्' प्रत्यय होता है,शिल्पी कर्ता वाच्य । हो तो)। ...गणि.. -VI. iv. 165 देखें - गाथिविदथि० VI. iv. 165 गच्छति-IV. iii. 85 गणप्रशंसयोः - III. ii. 86. (द्वितीयासमर्थ प्रातिपदिक से) गच्छति क्रिया के (पथ (संघ और उद्घ शब्द यथासंख्य करके) गण = समूह तथा दूत कर्ता अभिधेय होने पर यथाविहित प्रत्यय होता तथा प्रशंसा = स्तुति गम्यमान होने पर (निपातन किये जाते हैं, कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में)। गच्छति -V.1.73 ...गत... - II. I. 23 (द्वितीयासमर्थ योजन प्रातिपदिक से)'जाता है' अर्थ में देखें-श्रितातीतपतित० II.1. 23 (यथाविहित ठञ् प्रत्यय होता है)। गतः -IV.iv.86 ...गण.. -1.1.22 (द्वितीयासमर्थ वश प्रातिपदिक से) प्राप्त हुआ अर्थ में देखें- बहुगणवतुडति I. 1. 22 (यत् प्रत्यय होता है)। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गति... 185 गत्वरः गति... -I. iii. 15 गतौ - VIII. 1. 70 देखें - गतिहिंसार्थेभ्यः I. ii. 15 गतिसंज्ञक के परे रहते (गतिसंज्ञक को अनुदात्त होता गति... -I. iv. 52 देखें-गतिबुद्धिमत्यवसाना० I. iv. 52 गतौ - VIII. iii. 113 ...गति... -II. ii. 18 गति अर्थ में वर्तमान (षिधु गत्याम्' धातु के सकार देखें-कुगतिप्रादयः II. ii. 18 को मूर्धन्य आदेश नहीं होता)। ...गति... -III. iv.76 देखें -ग्रौव्यगति० III. iv.76 गत्यर्थ... -I. iv. 68 गति... -VI. II. 139 देखें – गत्यर्थवदेषु I. iv. 68 देखें – गतिकारको० VI. 1. 139 गत्यर्थ... - III. iv.72 गति. -I. iv.59 देखें-गत्यकर्मक० III. iv. 72 (प्रादियों की क्रिया के योग में) गति संज्ञा (और उपसर्ग । संज्ञा भी) होती है। (चेष्टा क्रिया वाली) गत्यर्थक धातुओं के (मार्गवर्जित गतिः -VI. 1. 49 कर्म में द्वितीया और चतुर्थी विभक्ति होती है। (कर्मवाची क्तान्त उत्तरपद रहते पूर्वपदस्थ अव्यवहित) गत्यर्थलोटा - VIII. I. 51. गति को (प्रकृतिस्वर होता है)। गति अर्थवाले धातुओं के लोट् लकार से युक्त (लुडन्त गतिः -VIII. 1.70 तिङन्त को अनदात्त नहीं होता.यदि कारक सारा अन्य न (गतिसंज्ञक के परे रहते) गतिसंज्ञक को (अनुदात्त होता हो तो)। गत्यर्थवदेषु -I.iv. 98 गतिकारकोपपदात् - VI. ii. 139 गत्यर्थक और वद् धातु के प्रयोग में (अव्यय अच्छ गति, कारक तथा उपपद से उत्तर (कृदन्त उत्तरपद को शब्द गति और निपात संज्ञक होता है)। तत्पुरुष समास में प्रकृतिस्वर होता है)। गत्यकर्मकश्लिवशीस्थासवसजनसहजीर्यतिथ्यः - गतिबुद्धिात्यवसानार्थशब्दकर्माकर्मकाणाम् -I. iv. 52 III. iv. 72 गत्यर्थक, बुद्ध्यर्थक, भोजनार्थक, शब्दकर्म और गत्यर्थक, अकर्मक, श्लिष,शीङ्,स्था, आस, वस,जन, अकर्मक धातुओं का (जो अण्यन्तावस्था का कर्ता, वह रुह तथा जू धातुओं से विहित (जो क्त प्रत्यय, वह कर्ता ण्यन्तावस्था में कर्मसंज्ञक होता है)। में होता है; चकार से भाव,कर्म में भी होता है)। गतिहिंसाधेभ्यः -1. iii. 15 गत्यर्थेभ्यः - III iii. 129 गत्यर्थक तथा हिंसार्थक धातुओं से (कर्मव्यतिहार अर्थ ___(वेदविषय में) गत्यर्थक धातुओं से (कृच्छ्, अकृच्छ् अमें आत्मनेपद नहीं होता है)। थों में ईषदादि उपपद हों तो युच् प्रत्यय होता है)। गतौ -III. 1. 23 गत्यो: - VIII. iii. 40 गत्यर्थक धातुओं से (कुटिलता गत्यमान होने पर नित्य (नमस् तथा पुरस्) गतिसंज्ञक शब्दों के (विसर्जनीय को यङ् प्रत्यय होता है, क्रिया-समभिहार में नहीं होता)। सकारादेश होता है; कवर्ग, पवर्ग परे रहते)। गतौ - VII. ill. 63 गत्वरः -III. . 164 गति अर्थ में वर्तमान (वक्षु अङ्ग को कवर्गादेश नहीं गत्वर यह शब्द (भी) क्वरप् प्रत्ययान्त निपातन किया 'होता)। जाता है। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद... 186 गत्वर = घुमक्कड़, अनित्य गन्यने-I. 1. 15 गद... -III. I. 100 गन्धन = चुगली करने अर्थ में वर्तमान (यम् धातु से देखें-गदमदOIII.. 100. परे सिच् कित्वत् होता है, आत्मनेपदविषय में)। गद... -III. 11.64 गन्धस्य-v.iv. 135 देखें- गदनद III. iii. 64 (उत्.पूति,सु तथा सुरभि शब्दों से उत्तर) गन्ध शब्द को गद... -VIII. iv. 17 (बहुव्रीहि समास में समासान्त इकारादेश होता है)। देखें- गदनद० VIII. iv. 17 ...गम... -III. 1. 154 गदनदपठस्वनः -III. iii. 64 देखें-लक्पत III. II. 154 (नि पूर्वक) मद,नद,पठ तथा स्वन् धातुओं से विकल्प ....गम.. -III. II. 171 से कर्तभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में अच् प्रत्यय होता देखें-आदगम III. 1. 171 है,पक्ष में घञ् होता है)। गम... - VI. iv.98 गदनदपतपदधुमास्यतिहन्तियातिवातिद्रातिप्सातिवपतिवहति । देखें-गमहनजनक VI. iv.98 • शाम्यतिचिनोतिदेग्धिषु-VIII. iv. 17 (उपसर्ग में स्थित निमित्त से उत्तर नि के नकार कोणकार गम... VII. 1.68 आदेश होता है); गद.नद.पत,पद,घुसंज्ञक,मा, षो,हन, देखें-गमहन VII. 1.68 या.वा.द्रा,प्सा,वप,वह,शम,चि एवं दिह धातुओं के परे गमः -I. 1. 13 रहते (भी)। . 'गम्ल गतौ' धातु से परे (झलादि लिङ्ग,सिच् आत्मनेपद गदमदचरयम -III. 1. 100 विषय में विकल्प से कित्वत् होते है)। (उपसर्गरहित) गद, मद, चर, यम् धातुओं से (भी यत् गमः -III. II. 46 प्रत्यय होता है)। (संज्ञा गम्यमान होने पर कर्म उपपद्र रहते) गम् धातु से गन्तव्य..-VI. II. 13 (भी खच प्रत्यय होता है)। देखें-गन्तव्यपण्यम् VI. II. 13 ...गमः -III. 1.67 गन्तव्यपण्यम् -VI. I. 13 देखें-जनसन III. 1.67 (वाणिज शब्द उत्तरपद रहते तत्पुरुष समास में) गन्तव्य- ...गमः-III. 1.58 वाची = जाने योग्य स्थानवाची तथा पण्यवाची = औ देखें-ग्रहदा सत III. II.58 क्रयविक्रययोग्य वस्तुवाची पूर्वपद को (प्रकृतिस्वर हो गमः -VI. iv. 40 जाता है)। (क्वि परे रहते) गम् के (अनुनासिक का लोप होता है)। गन्थन.. - I. il. 32 गमहनजनखनघसाम् -VI.IN.98 देखें- गन्धनावक्षेपणसेवनसाहO I. III. 32 गम,हन, जन,खन,घस्-इन अङ्गों की (उपधा का गन्थनावक्षेपणसेवनसाहसिक्यप्रतियत्मप्रकथनोपयोगेषु लोप हो जाता है। अभिन्न अजादि कित.डित् प्रत्यय I. iil. 32 परे हो तो)। गन्धन = चुगली करना,अवक्षेपण = धमकाना.सेवन = सेवा करना,साहसिक्य = जबरदस्ती करना,प्रतियल गमहनविदविशाम् - VII. I. 68 = किसी गुण को भिन्न गुण में बदलना.प्रकथन = बढ़ा गम्ल, हन, विद्ल, विश् - इन अङ्गों से उत्तर (वसु चढ़ाकर कहना तथा उपयोग = चर्मादि कार्य में को विकल्प से इट् का आगम होता है)। लगाना-इन अर्थों में वर्तमान (कृज धातु से आत्मनेपद ...गमाम् -VI. iv. 16 होता है)। देखें-अज्झनगमाम् VI. iv. 16 . Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गमि... 187 गवाश्वप्रभृतीनि गर्ध = लालच। गर्भिण्या -II. 1.70 (चतुष्पाद = चार पैर वाले पश आदि के वाचक सुबन्त शब्द समानाधिकरण) गर्भिणी (सुबन्त) शब्द के साथ (विकल्प से समास को प्राप्त होते हैं, और वह तत्पुरुष संज्ञक समास होता है)। ...गर्दा... - I. iv. 95 . देखें - पदार्थसम्भावनान्ववसर्गः I. iv. 95 गर्हायाम् - III. iii. 142 निन्दा गम्यमान हो तो (अपि तथा जातु उपपद रहते धातु से लट् प्रत्यय होता है)। गर्दायाम् - III. ii. 149 गर्दा = निन्दा गम्यमान हो तो (भी यच्च,यत्र उपपद रहते धात से लिङ प्रत्यय होता है)। गर्हायाम् - VI. ii. 127 - (चेल,खेट,कटुक,काण्ड-इन उत्तरपद शब्दों को तत्पुरुष समास में) निन्दा गम्यमान होने पर (आधुदात्त होता गमि... -I.1.29 देखें-गम्यूछिभ्याम् I. 11. 29 ..गमि.. - II. iv. 80 देखें-घसरणश II. iv. 80 ...गमि.. - VII. iii. 77 देखें- इसुगमियमाम् VII. III. 77 ..गमि.. - VII. iv. 33 देखें-भानपु० VII. iv. 33 गमि-II. iv.46 . (अबोधनार्थक इण के स्थान में, णिच् परे रहते) गम् आदेश होता है। . गमः -VII. 1.58 . गम्ल धातु से उत्तर (सकारादि आर्धधातुक को परस्मैपद परे रहते इट् का आगम होता है)। गम्भीरात् -IV. .58 (सप्तमीसमर्थ) गम्भीर प्रातिपदिक से (भव अर्थ में व्य प्रत्यय होता है)। गम्यादयः-III. iii. 3 (उणादिप्रत्ययान्त) गमी आदि शब्द (भविष्यत् काल के अर्थ में साधु होते है)। गम्यच्छिभ्याम् -I. iii. 29 - (सम् उपसर्ग से उत्तर अकर्मक) धातुओं से (आत्मनेपद होता है)। ...गर्... - VI. iv. 157 - देखें - प्रस्थस्फ० VI. iv. 157 गर्गादिभ्यः -IV.i. 105 गर्गादि षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिकों से (गोत्रापत्य में यञ् प्रत्यय होता है)। ...गर्वोत्तरपदात् - IV. 1. 125 . देखें-कच्छाग्नि IV.ii. 125 गोत्तरपदात्- IV. 1. 136 गर्त शब्द उत्तरपदवाले (देशवाची) प्रातिपदिकों से (शैषिक छ प्रत्यय होता है)। ...गर्थेषु - VII. iv. 34 । देखें-बुभुक्षापिपासा. VII. iv. 34 गर्दा... - III. i. 101 देखें - गर्हापणितव्यः III. 1. 101 गर्दापणितव्यानिरोधेषु -III. 1. 101 (अवध,पण्य,वर्य-ये शब्द यथासंख्य करके) गर्दा = निन्दनीय,पणितव्य = खरीदने योग्य और अनिरोध = . सेवन करने योग्य अर्थों में (यत्प्रत्ययान्त निपातन किये जाते है)। गर्झम् - IV. iv. 30 (द्वितीयासमर्थ प्रातिपदिक से 'देता है' अर्थ में ठक प्रत्यय होता है). यदि देय पदार्थ निन्दित हो। ...गर्दात् - V.ii. 128 देखें - द्वन्द्वोपतापo v.ii. 128 ...गवादिभ्यः -V.i.3 देखें - उगवादिभ्यः V. 1.3 गवाश्वप्रभृतीनि -II. iv. 11 गवाश्व इत्यादि शब्द (यथापठित = कृतैकवद्भाव द्वन्दुरूप ही साधु होते है)। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गवि... गवि... - VIII. III. 95 देखें - गवियुधिभ्याम् VIII. III. 95 गवियुधिभ्याम् - VIII. iii. 95 गवि तथा युधि से उत्तर (स्थिर शब्द के सकार को मूर्धन्य आदेश होता है)। गहनयो: - VII. ii. 22 ... देखें - कृच्छ्रगहनयो: VII. 11. 22 महादिभ्यः - IV. 1. 137 गहादि प्रातिपदिकों से (भी शैषिक छ प्रत्यय होता है) । गा - II. iv. 45 (इण् के स्थान में लुछ आर्धधातुक रहते) गा आदेश होता है। गा... - III. ii. 8 देखें गापोः 111. II. 8 III. iii. 95 स्थागापापच: III. iii. 95 - VI. iv. 66 - गा... देखें ... Th.. देखें - घुमास्था०] VI. Iv. 66 - -- गाङ्... - I. ii. 1 देखें - गाइकुटादिभ्यः I. II. 1 गाङ् - II. iv. 49 (इङ् को आर्धधातुक लिट् परे रहते) गाङ् आदेश होता है) । गाइकुटादिभ्य - Iii. 1 = इडादेश गा तथा कुटादिगणपठित 'कुट कौटिल्ये' 'कुट कौटिल्ये' से लेकर 'कुङ् शब्दे' पर्यन्त धातुओं से परे (जित् णित् भिन्न प्रत्यय डित्वत् होते हैं)। गाण्डी... - V. ii. 110 देखें - • गाण्ड्यजगात् V. ii. 110 गाण्ड्यजगात् - VII. 110 गाण्डी तथा अजग प्रातिपदिकों से (मत्वर्थ में व प्रत्यय होता है, संज्ञाविषय में) । गाति... -II. iv. 77 देखें गातिस्याधुपाo II. I. 77 188 गातिस्वाघुपाभूभ्यः - III. 77 - गा, स्था, घुसंक धातु, पा और भू इन धातुओं से उत्तर (सिच् का लुक् हो जाता है, परस्मैपद परे रहते) । .... गाथा... III. it. 23 देखें - शब्दश्लोक० III. II. 23 गाथि... - VI. Iv. 165 - देखें – गाविविदधि० VI. iv. 165 गाञ्चिविदचिकेशिगणिपणिनः - VI. Iv. 165 गाथिन्, विदथिन् केशिन्, गणिन्, पणिन् - इन अङ्गों ( अ परे रहते प्रकृतिभाव हो जाता है)। गाथ... - VI. ii. 4 देखें गायलवणयो: VI. II. 4 - - मालवणयोः - VI. 1. 4 (प्रमाणवाची तत्पुरुष समास में) गाय तथा लवण शब्दों के उत्तरपद रहते (पूर्वपद को प्रकृतिस्वर होता है) । गाव = तल, लिप्सा .....गान्धारिभ्याम् - IV. 137 देखें - साल्वेयगान्धारिभ्याम् IV. 1. 137 गापोः गार्ग्यस्य - III. ii. 8 गा तथा पा धातु से (टक्' प्रत्यय होता है, कर्म उपपद रहने पर)। गामी VB11 - (द्वितीयासमर्थ अवारपार, अत्यन्त तथा अनुकाम प्रातिपदिकों से) 'भविष्य में जाने वाला' अर्थ में (ख प्रत्यय होता है)। गार्ग्य.... गार्ग्य... - VII. 1. 99 देखें - गार्ग्यगालवयो: VII. iii. 99 गार्ग्यगालवयो: - VII. III. 99 (रुदादि पांच अगों से उत्तर हलादि अपृक्त सार्वधातुक को अट् का आगम होता है) गार्ग्य तथा गालब आचार्यों के मत में। गार्ग्यस्य - VIII. iii. 20 (ओकार से उत्तर यकार का लोप होता है), गार्ग्य आचार्य के मत में) । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...गार्हपत... ___189 गुणः ...गुण... - II. ii. 11 देखें - पूरणगुणसुहितार्थ. II. ii. 11 गुणः -I.1.2 (अ, ए, ओ की) गुणसंज्ञा होती है। गुणः -VI.i.84 (अवर्ण से उत्तर जो अच् तथा अच् परे रहते जो अवर्ण, इन दोनों पूर्व पर के स्थान में) गुण (एकादेश) होता है। गुणः -VI. iv. 146 (भसंज्ञक उवर्णान्त अङ्ग को) गुण होता है, (तद्धित परे रहते)। गुणः -VI. iv. 156 (स्थूल, दूर, युव, हस्व, क्षिप्र, क्षुद्र - इन अङ्गों का पर जो यणादि भाग,उसका लोप होता है इष्ठन्, इमनिच् तथा ईयसुन् परे रहते तथा उस यणादि से पूर्व को) गुण होता ....गार्हपत... - VI. ii. 42 देखें - कुरुगार्हपत० VI. ii. 42 ...गालवयो: - VII. iii. 99 देखें - गा→गालवयो: VII. ii. 99 गालवस्य -VI. iii. 60 (ङीष् अन्त में नहीं है जिसके,ऐसा जो इक् अन्त वाला शब्द,उसको) गालव आचार्य के मत में (विकल्प से हस्व होता है, उत्तरपद परे रहते)। गालवस्य-VII.1.74 . (तृतीया विभक्ति से लेकर आगे की अजादि विभ- क्तियों के परे रहते भाषितपुंस्क नपुंसकलिङ्ग वाले इगन्त अङ्ग को) गालव.आचार्य के मत में (पुंवद्भाव हो जाता है)। ...गालवानाम् - VIII. iv.66 देखें - अगायेकाश्यप० VIII. iv.66 ...गाहेषु-VI. iii. 59 देखें - मन्चौदन० VI. iii. 59 गिरि....-VI. ii. 94 • देखें - गिरिनिकाययो:० . VI. ii. 94 गिरिनिकाययोः - VI. ii. 94 गिरि तथा निकाय शब्दों के परे रहते (संज्ञाविषय में पूर्वपद.को अन्तोदात्त होता है)। गिरेः - Viv. 112 - (अव्ययीभाव समास में वर्तमान) गिरि शब्दान्त प्रातिपादक से (भी समासान्त टच प्रत्यय विकल्प से होता है सेनक आचार्य के मत में)। ...गियों: -VI. iii. 116 देखें- वनगिर्यो: VI. iii. 116 गुडादिभ्यः - IV. iv. 102 (सप्तमीसमर्थ) गुडादि प्रातिपदिकों से (साधु अर्थ में ठञ् प्रत्यय होता है)। गुण.. -I.i.3. . देखें - गुणवृद्धी I. 1.3 गुणः -VII. iii. 82 (मिद अङ्ग के इक को शित प्रत्यय परे रहते) गुण हो जाता है। गुणः - VII. iii. 91 • (ऊर्ण अङ्ग को अपृक्त हल् पित् सार्वधातुक परे रहते) गुण होता है। गुणः - VII. iii. 108 (हस्वान्त अङ्ग को सम्बुद्धि परे रहते) गुण होता है। गुणः - VII. iv. 10 (संयोग आदि में है जिसके,ऐसे ऋकारान्त अङ्ग को भा) गुण होता है; (लिट परे रहते)। गुणः -VII. iv. 16 (ऋवर्णान्त तथा दृशिर् अङ्ग को अङ् परे रहते) गुण होता है। गुणः - VII. iv. 21 (शीङ् अङ्ग को सार्वधातुक परे रहते) गुण होता है)। गुणः - VII. iv. 29 (ऋ तथा संयोग आदि में है जिसके, ऐसे ऋकारान्त धातु को यक् तथा यकारादि आर्धधातुक लिङ् परे रहते) गुण होता है। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190 गुपूधूपविच्छिपणिपनियः गुणः - VII. iv.57 (अकर्मक मुच्ल धातु को विकल्प से) गुण होता है, (सकारादि सन् प्रत्यय परे रहते)। गुणः -VII. iv.75 (णिजिर आदि तीन घातओं के अभ्यास को श्ल होने पर) गुण होता है। गुणः - VII. iv. 82 (यङ् तथा यङ्लुक् के परे रहते इगन्त अभ्यास को) गुण होता है। गुणकात्स्न्ये - VI. ii. 93 गुण की सम्पूर्ति अर्थ में वर्तमान (पूर्वपद सर्व शब्द को अन्तोदात्त होता है)। गुणप्रतिषेधे - VI. II. 155 गुणं के प्रतिषेध अर्थ में वर्तमान (नञ् से उत्तर संपादि, अर्ह, हित, अलम् अर्थ वाले तद्धितप्रत्ययान्त उत्तरपद को अन्तोदात्त होता है)। गुणवचन... -V.I. 123 देखें - गुणवचनब्राह्मणाo V. 1. 123 गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः - V.i. 123 गुण को जिसने कहा, ऐसे तथा ब्राह्मणादि (षष्ठीसमर्थ) प्रातिपदिकों से (कर्म के अभिधेय होने पर तथा भाव में ष्यञ् प्रत्यय होता है)। गुणवचनस्य-VIII. 1. 12 (प्रकार अर्थ में वर्तमान) गुणवचन शब्दों को (द्वित्व होता है, और इसे कर्मधारयवत् कार्य भी होता है)। गुणवचनात् -IV.. 44 (उकारान्त) गुणवचन अर्थात् गुण को कहने वाले प्रातिपदिक से (स्लीलिङ्ग में विकल्प से ङीष् प्रत्यय होता है)। गुणवचनात् - V. iii. 58 (इस प्रकरण में कहे गये अजादि प्रत्यय अर्थात् इष्ठन्, ईयसुन्) गुणवाची प्रातिपदिक से (ही) होते हैं। गुणक्चनेन -II.1.29 (तृतीयान्त सुबन्त तृतीयान्तार्थकृत) गुणवाची शब्द के साथ (तथा अर्थ शब्द के साथ समास को प्राप्त होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है)। गुणवचनेषु -VI. ii. 24 गुण को कहने वाले शब्दों के उत्तरपद रहते (विस्पष्टादि पूर्वपद को तत्पुरुष समास में प्रकृतिस्वर होता है)। गुणवृद्धी-I.i.3 (गुण हो जाये, वृद्धि हो जाये, ऐसा नाम लेकर जहाँ) गुण,वृद्धि का विधान किया जाये,(वहाँ वे इक् = इ,उ, ऋ,ल के स्थान में ही हों)। गुणस्य-V.ii.47 (प्रथमासमर्थ सङ्ख्यावाची प्रातिपदिकों से) 'इस भाग का (यह मूल्य है' अर्थ में मयट् प्रत्यय होता है)। गुणादयः -VI. 1. 176 (बहु से उत्तरबहुव्रीहि समास में) गुणादिगणपठित शब्दों .. को (अन्तोदात्त नहीं होता। ...गुणानाम् -VI. iv. 126 देखें-शसददOVI.iv. 126 गुणान्ताया -V.iv.59 गुण शब्द अन्त वाले (सङ्ख्यावाची) प्रातिपदिक से भी कृञ् के योग में कृषि अभिधेय हो तो डाच् प्रत्यय होता गुणे-II. 1.25 स्त्रीलिङ्ग को छोड़कर हेतुवाची) गुणवाचक शब्द में (विकल्प से पञ्चमी विभक्ति होती है)। गुणे-VI.i. 94 . (अपदान्त अकार से उत्तर) गुणसंज्ञक अ,ए,ओ के परे रहते (पर्व.पर के स्थान में पररूप एकादेश होता है;संहिता के विषय में)। ...गुध.. -I. 1.7 देखें - मृडमृदगुपकुशक्लिशवदवसः I. 1.7 गुप्.. - III. 1.5 देखें - गुप्तिकियः III. 1.5 गुपू... - III. 1. 28 देखें - गुपूधूपविच्छि III. 1. 28 गुपधूपविच्छिपणिपनिभ्यः -III.1.28 गुप, धूप, विच्छि, पणि, पनि-इन धातुओं से (आय प्रत्यय होता है)। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 191 गुपेः - II. 1.50 गुरौ-VI. III. 10 गुप् धातु से उत्तर (छन्दविषय में च्लि के स्थान में (मध्य शब्द से उत्तर) गुरु शब्द के उत्तरपद रहते (सप्तमी विकल्प से चङ् आदेश होता है,कर्तृवाची लुङ् परे रहने विभक्ति का अलुक् होता है)। पर)। ....गुहाम् - VIII. II. 73 गुप्तिकिम्यः - III. 1.5 देखें- दुहदिहO VIII. ii. 73 . गुप,तिज,कित्- इन धातुओं से (स्वार्थ में सन् प्रत्यय ...गुहो: - VII. II. 12 होता है)। देखें - ग्रहगुहो: VII. II. 12 ...गुरु.. - VI. . 157 ...गूर्तानि - VIII. ii. 61 देखें-प्रियस्थिर० VI. 1. 157 देखें-नसत्तनिक्ता VIII. ii. 61 गुरू-I. iv. 11 ...गृणः -I. iv. 41 (संयोग के परे रहते हस्व अक्षर की) गुरु संज्ञा होती देखें - अनुप्रतिगृणः I. iv. 41 गृधि.. -I. iii. 69 गुरुमतः -III. 1. 36 देखें - गृषिवज्च्योः . I. III. 69 (इजादि) गुरु अक्षर आदिवाली धातु से (आम्' प्रत्यय ...गृषि... - III. II. 140 होता है; लौकिक विषय में,लिट् परे रहते,ऋच्छ धातु को देखें - प्रसिधिo III. II. 140 छोड़कर)। ..गृधि.. - III. ii. 150 गुरुपोत्तमयोः - IV. 1.78 देखें-जुचक्रम्य० III. I. 150 (गोत्र में विहित ऋष्यपत्य से भिन्न अण और इज गधिवच्यो : -I. iii. 69 प्रत्यय अन्त वाले) उपोत्तम गुरुवाले प्रातिपदिकों को (ण्यन्त) गृधु और वच धातुओं से (आत्मनेपद होता है, (स्त्रीलिङ्ग में ष्यङ् आदेश होता है)। ठगने अर्थ में)। उपोत्तम = तीन और तीन से अधिक वर्णों वाले शब्द ...गृष्टि..-II. 1.64 देखें-पोटायुवतिस्तोक II.1.64 के अन्तिम वर्ण से समीप का वर्ण। ...गृष्टि.. --VI. 1. 38 गुरुयोत्तमात् - V.1.131 देखें-बीहापराहण. VI. ii. 38 (षष्ठीसमर्थ,यकार उपधा वाले) गुरु है उपोत्तम जिसका, गृष्ट्यादिभ्यः - IV. 1. 136 ऐसे प्रातिपदिक से (भाव और कर्म अर्थों में वुज प्रत्यय गष्टयादि प्रातिपदिकों से (भी अपत्य अर्थ में ठब होता है)। प्रत्यय होता है)। गुरोः -III. iii. 103 गृहपतिना - IV. iv. 90 (हलन्त) जो गुरुमान् धातु, उनसे (भी स्त्रीलिङ्ग कर्तृ- (तृतीयासमर्थ) गृहपति शब्द से (संयुक्त अर्थ में ज्य भिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में अप्रत्यय होता है)। प्रत्यय होता है, संज्ञाविषय में)। गुरोः - VIII. 1. 86 ...गृहमेधात् - IV. ii. 31 (ऋकार को छोड़कर वाक्य के अनन्त्य) गरुसंज्ञक वर्ण देखें-द्यावापृथिवीशना० IV. 1.31 को (एक-एक करके तथा अन्त्य के टि को भी प्राचीन ...गृहि.. - III. I. 158 आचार्यों के मत में प्लुत उदात्त होता है)। देखें-स्मृहिगृहि० III. 1. 158 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृह्णाति . 192 गोतन्तियवम् गो:-v.iv.92 गो शब्द अन्तवाले (तत्पुरुष समास से समासान्त टच प्रत्यय होता है,यदि वह तत्पुरुष तद्धितलक-विषयक न हो)। गो: - VI.i. 118 सर्वत्र = छन्द तथा भाषा विषय में गो शब्द के (पदान्त में एङ् को विकल्प से अकार परे रहते प्रकृतिभाव होता गृह्णाति-IV. iv. 39 (पद शब्द उत्तरपद वाले द्वितीयासमर्थ प्रातिपदिक से) 'ग्रहण करता है' अर्थ में (ठक प्रत्यय होता है)। ...गृभ्यः ...-III.1.24 देखें-लुपसदचर III. I. 24 ...गेय.. -III. iv. 68 देखें-भव्यगेय. III. iv. 68 गेहे-III.1. 144 गेह = घर वाच्य होने पर (प्रह.धातु से 'क' प्रत्यय होता है)। गो... -I.ii. 48 देखें-गोस्त्रियोः I. ii. 48 ...गो... - IV. 1. 49 देखें-खलगोरथात् IV. 1. 49 गो... - IV. 1. 135 देखें - गोयवाग्योः M. ii. 135 गो... - IV. Ill. 157 देखें - गोपयसो: IV. iii. 157 गो... -V.I.38 . देखें - गोव्यक: V.i. 38 गो... - VI.i. 176 देखें - गोश्वन्० VI.i. 176 गो... -VI. ii. 72 देखें-गोबिडाल. VI. ii.72 गो... - VI. ii. 78 देखें - गोतन्तियवम् VI. ii. 78 ...गो... - VI. ii. 168 देखें- अव्ययदिक्शब्द० VI. ii. 168 ...गो... - VIII. iii. 97 देखें - अम्बाम्ब० VIII. iii. 97 गो: - IV. iii. 142 (षष्ठीसमर्थ) गो प्रातिपदिक से (भी पुरीष = मल अभिधेय होने पर मयट प्रत्यय होता है)। गो: -VII..57 (वेद-विषय में ऋचा के पाद के अन्त में वर्तमान) गो शब्द से उत्तर (आम् को नुट् का आगम होता है)। ...गोजौ-III. iv.73 देखें - दाशगोलौ III. iv.73 . . गोचर... -III. iii. 119 देखें - गोचरसञ्चरo III. iii. 119 गोचरसञ्चरवहनजव्यजापणनिगमाः -III. iii. 119 गोचर, सञ्चर, वह, व्रज, आपण तथा निगम शब्द (भी घप्रत्ययान्त पुंल्लिङ्गकरण या अधिकरण कारक में निपातन किये जाते है)। ... गोण..-IV.i. 42 . देखें-जानपदण्ड IV.I.42 ...गोणीभ्याम् –. iii. 90 देखें - कासूगोणीभ्याम् V. iii. 90 गोण्याः -I.ii. 50 गोणी शब्द को इकारादेश होता है, (तद्धितलुक् होने पर)। गोणी = बोरी, आवपन। गोत: -VII. .90 गो शब्द से उत्तर (सर्वनामस्थानविभक्ति णित्वत् होती गोतन्तियवम् - VI. ii. 78 पूर्वपद गो,तन्ति, यव इन शब्दों को (पाल शब्द उत्तरपद रहते आधुदात्त होता है)। तन्ति = राज्य की गायों का बड़ा झुण्ड । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...गोतम.. 193 ...गोतम.. -II. iv.65 देखें - अत्रिभृगुकुत्स II. iv. 65 गोत्र.. - IV. ii. 38 , देखें - गोत्रोक्षोष्ट्रो० IV. ii. 38 गोत्र.. - IV. iii. 99 • देखें - गोत्रक्षत्रियाख्येभ्यः IV. iii. 99 गोत्र.. - IV. iii. 125 देखें - गोचरणात् IV. iii. 125 गोत्र.. - V. i. 133 देखें - गोत्रचरणात् .i. 133 . गोत्र.. - VI. 1.69 देखें-गोत्रान्तेवासी VI. 1.69 ...गोत्र.. - VI. iii. 42 देखें-घरूपकल्प. VI. iii. 42 ...गोत्र... -VI. iil.84 देखें - ज्योतिर्जनपदO VI. iii. 84 गोत्रक्षत्रियाख्येभ्यः- IV. ii. 99 (प्रथमासमर्थ भक्तिसमानाधिकरणवाची) गोत्र आख्या- वाले तथा क्षत्रिय आख्या वाले प्रातिपदिकों से (बहुल करके वुञ् प्रत्यय होता है)। गोचरणाद् - IV. ii. 125 (षष्ठीसमर्थ) गोत्रवाची तथा चरणवाची प्रातिपदिकों से (इदम्' अर्थ में वुञ् प्रत्यय होता है)। गोत्रचरणात् - V.i. 133 (षष्ठीसमर्थ) गोत्रवाची तथा चरणवाची प्रातिपदिकों से (श्लाघा' = प्रशंसा करना, अत्याकार' = अपमान करना तथा तदवेत' = उससे युक्त होना- इन विषयों में भाव तथा कर्म अर्थों में वुज प्रत्यय होता है)। गोत्रम् - IV.i. 162 (पौत्र से लेकर जो सन्तान उसकी) गोत्रसंज्ञा होती है। गोत्रखियाः -IV..147 गोत्र में वर्तमान जो स्त्री, तद्वाची प्रातिपदिक से (कुत्सन गम्यमान होने पर अपत्य अर्थ में ण प्रत्यय होता है.और ठक् भी)। गोत्रात् - IV. 1.94 (युवापत्य की विवक्षा होने पर) गोत्र से ही प्रत्यय हो; (अनन्तरापत्य अथवा प्रथम प्रकृति से नहीं, स्त्री अपत्य को छोड़कर)। गोत्रात् - IV. iii. 80 (पञ्चमीसमर्थ) गोत्रवाची प्रातिपदिकों से (आगत' अर्थ में अङ्कवत् प्रत्ययविधि होती है)। ...गोत्रादि... -VIII. 1.57 देखें-चनचिदिव० VIII.1.57 गोत्रादीनि - VIII. 1.27 (तिङन्त पद से उत्तर निन्दा तथा पौन:पुन्य अर्थ में वर्तमान) गोत्रादिगणपठित पदों को (अनुदात्त होता है)। गोत्रान्तेवासिमाणवबाह्मणेषु - VI. II. 69 (निन्दावाची समास में) गोत्रवाची,अन्तेवासिवाची तथा माणव तथा ब्राह्मण शब्दों के उत्तरपद रहते (पूर्वपद को आधुदात्त होता है)। गोत्रावयवात् - IV.i. 79 गोत्ररूप से लोक में स्वीकृत कुलसंज्ञा रूप से प्रख्यात जो प्रातिपदिक, उनसे (गोत्र में विहित जो अनार्ष अण और इत्र प्रत्यय उनको स्त्रीलिङ्ग में ष्यङ् आदेश होता गोत्रे-II. iv.63 (यस्कादिगणपठित शब्दों से उत्तर) गोत्र में विहित (स्त्रीभिन्न प्रत्यय का लक होता है.बहत्व की विवक्षा में; यदि वह बहुत्व गोत्र-प्रत्यय-द्वारा निष्पादित हो तो)। गोत्रे -IV.i.78 गोत्र में विहित (ऋष्यपत्य से भिन्न अण् और इञ् प्रत्यय अन्त वाले उपोत्तम गुरुवाले प्रातिपदिकों को स्त्रीलिङ्ग में ष्यङ् आदेश होता है)। गोत्रे -IV.i. 89 (प्राग्दीव्यतीय अजादि प्रत्यय की विवक्षा हो तो) गोत्र में उत्पन्न प्रत्यय का (लुक नहीं होता)। गोत्रे - IV. 1. 93 गोत्र में (एक ही प्रत्यय होता है)। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194 में। गोत्रे -IV.i. 98 ...गोपूर्वात् - V.ii. 118 गोत्रापत्य में (कुझादि षष्ठी समर्थ प्रातिपदिकों से कञ् देखें - एकगोपूर्वात् V. 1. 118 प्रत्यय होता है)। गोबिडालसिंहसैन्यवेषु - VI. II. 72 . गोत्रे - IV. ii. 110 गो, बिडाल, सिंह, सैन्धव - इन (उपमानवाची) शब्दों (कण्वादि प्रातिपदिकों से) गोत्र में विहित जो प्रत्यय. के उत्तरपद रहते (पूर्वपद को आधुदात्त होता है)। (तदन्त प्रातिपदिक से शैषिक अण प्रत्यय होता है)। होता ... गोमिन्... - V. II. 114 गोत्रे - VIII. 1. 91 देखें-ज्योत्स्नातमित्रा० V. 1. 114 गोयवाग्वोः - IV. 1. 135 (कपिष्ठल' में मूर्धन्य निपातन है),गोत्र विषय को कहने गो तथा यवागू अभिधेय हो तो (पी देशवाची साल्व.. शब्द से शैषिक वुञ् प्रत्यय होता है)। गोत्रोक्षोष्ट्रोरप्रराजराजन्यराजपुत्रवत्समनुष्याजात् - IV. ...गोशाल... - IV. Ill. 35 ii.38 देखें - स्थानान्तगोशाल. IV. II. 35 (षष्ठीसमर्थ) गोत्रवाची शब्दों से तथा उक्षन, उष्ट,उरत्र, गोश्वन्साववर्णराडकट्यः - VI. 1. 176 राजन, राजन्य,राजपुत्र, वत्स, मनुष्य तथा अज शब्दों से गो, श्वन, सु प्रथमा के एकवचन के परे रहते जो अव-: (समूह अर्थ में वुञ् प्रत्यय होता है)। र्णान्त शब्द, राट्, अङ्, क्रुङ् तथा कृत् से (जो कुछ भी उक्षन् = बैल। स्वरविधान कह आये हैं,वह नहीं होते)। उरभ्र = मेष, भेड़। गोक्दादिभ्यः -V.1.62 " गोव्यच - V. 1. 38 गोषदादि प्रातिपदिकों से (मत्वर्थ में 'अध्याय' और (सङ्ख्यावाची. परिमाणवाची तथा अश्वादि प्राति- 'अनुवाक' अभिधेय हो तो वन प्रत्यय होता है)। पदिकों को छोड़कर षष्ठीसमर्थ) गो तथा दो अच् वाले गोष्ठात् - V. II. 18 प्रातिपदिकों से (कारण' अर्थ में यत् प्रत्यय होता है, यदि (भूतपूर्व' अर्थ में वर्तमान) गोष्ठ प्रातिपदिक से (ख वह कारण संयोग वा उत्पात हो तो)। प्रत्यय होता है)। गोधायाः - IV. 1. 129 ....गोष्ठश्या -V.v.77 गोधा शब्द से (अपत्य अर्थ में दक् प्रत्यय होता है)। देखें - अचतुर० V. iv.77 गोधा = गोह। गोष्पदम् -VI.1.140 गोपयसो: - IV. ii. 157 गोष्पद शब्द में सुट् आगम तथा उसको षत्व का निपा तन किया जाता है; (सेवित, असेवित तथा प्रमाण विषय (षष्ठीसमर्थ) गो तथा पयस् शब्दों से (विकार तथा अवयव अर्थों में यत् प्रत्यय होता है)। गोष्पद = गायों के चरने की जगह मोपवनादिभ्यः - II. iv.67 गोखियोः -I. 1. 49 गोपवन आदि शब्दों से उत्तर (गोत्र में विहित प्रत्ययों (उपसर्जन) गो शब्दान्त प्रातिपदिक तथा (उपसर्जन) का तत्कृत बहुवचन में लुक नहीं होता)। स्त्रीप्रत्ययान्त प्रातिपदिक को (हस्व हो जाता है)। गोपुच्छात् - IV. iv.6 गोह -VI. iv.89 (तृतीयासमर्थ) गोपुच्छ प्रातिपदिक से (तरति' अर्थ में गोह अङ्ग की (उपधा को ऊकारादेश होता है,अजादि ठञ् प्रत्यय होता है)। प्रत्यय परे रहते)। में)। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 195 ग्रहवदनिश्चिगमः गौ:-VI.1.41 ग्रह...-III. iii.58 (साद,सादि तथा सारथि शब्दों के उत्तरपद रहते पूर्वपद) देखें- ग्रहपद० III. iii. 58 गो शब्द को (प्रकृतिस्वर हो जाता है)। ...ग्रह...-VI.iv.62 ...गौडपूर्वे- VI. 1. 100 देखें- अझन० VI. iv. 62 देखें- अरिष्टगौडपूर्वे VI. 1. 100 ग्रह... -VII. ii. 12 ...गौरादिभ्यः - IV.1.40 देखें - ग्रहगुहो: VII. I. 12 देखें-पिद्रौरादिष्य IV.1.40 ग्रह-III. 1. 143 म्मिनि: - V. 1. 124 ग्रह धातु से विकल्प से 'ण' प्रत्यय होता है)। (वाच प्रातिपदिक से 'मत्वर्थ' में) ग्मिनि प्रत्यय होता. ॥ ग्रह-III. iii. 35 (उत् पूर्वक) ग्रह धातु से (कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा F-I. 1.51 भाव में घञ् प्रत्यय होता है)। (आ उपसर्ग से उत्तर) 'गृ निगरणे' धातु से (आत्मनेपद ग्रहः - III. iii. 45 होता है। (आक्रोश गम्यमान हो तो अव तथा नि पूर्वक) ग्रह धातु : -III. ill. 29 से (कर्तभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में घन प्रत्यय होता (उद, नि उपपद रहते हुए गृ धातु से (कर्तृभिन्न कारक है। संज्ञा तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है)। ग्रहः-III. iii.51 T-VIII. 1. 19 (वर्षप्रतिबन्ध अभिधेय होने पर अव पूर्वक) ग्रह धातु - गधातु के रेफ को यङ् परे रहते लत्व होता है)। से (कर्तभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में विकल्प से घब् अन्धान्त.. -VI. III. 78 प्रत्यय होता है)। . देखें-ग्रन्थान्ताधिके VI. I. 78 ...ग्रह -III. iv. 36 - अन्यान्ताधिके-VI. 1.78 देखें-ह गृह III. iv.36 अन्य के अन्त एवं अधिक अर्थ में वर्तमान (सह शब्द ग्रह-VIL. I.37 को भी उत्तरपद परे रहते स आदेश होता है)। ग्रह धातु से (लिभिन्न वलादि आर्धधातुक परे रहते अन्वे-VII.87 इट् को दीर्घ होता है)। . द्वितीयासमर्थ प्रातिपदिक से उसको विषय बनाकर ग्रहगुहो: - VII. I. 12 बनाया गया अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है), लक्ष्य ग्रह,गुह अङ्गों को (तथा उगन्त अगों को सन प्रत्यय परे करके बनाया गया यदि ग्रन्थ हो तो। रहते इट् आगम नहीं होता)। अन्ये-IV.III. 116 ग्रहणम्-V.ii. 77 (तृतीयासमर्थ प्रातिपदिक से) अन्य (बनाने) अर्थ में ग्रहण क्रिया के समानाधिकरणवाची (पूरणप्रत्ययान्त (यथाविहित प्रत्यय होता है)। प्रातिपदिक से स्वार्थ में कन् प्रत्यय होता है, तथा पूरण प्रसित... - VII. 1.34 प्रत्यय का विकल्प से लुक भी हो जाता है)। देखें - प्रसितस्कमित० VII. II. 34 प्रहवदनिश्चिगमः-III. 11.58 असितस्कमितस्तमितोतषितवत्तविकस्ता -VII. II. 34 ग्रह,व, द तथा निर् पूर्वक चि तथा गम् धातुओं से भी ग्रसित, स्कभित, स्तभित, उत्तभित, चत्त, विकस्त-ये (कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में अच् प्रत्यय होता . शब्द (भी वेदविषय में निपातित है)। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...महि.. 196 ...अहि... -I. ii. 8 ग्रामकोटाभ्याम् - V. iv.95 देखें- रुदविदमुषपहिस्वपिप्रच्छ: I. ii. 8 ग्राम तथा कौट शब्दों से उत्तर (तक्षन् शब्दान्त तत्पुरुष ...अहि... - III. 1. 134 से भी समासान्त टच् प्रत्यय होता है)। कौट = कुटी अथवा पर्वत में होने वाला। देखें- नन्दिप्रहिO III. I. 134 ग्रामजनपदाख्यानचानराटेषु - VI. i. 103 अहि... - VI.1.16 ग्राम,जनपद तथा आख्यानवाची शब्दों के उपपद रहते देखें- अहिज्या० VI.i. 16 तथा चानराट शब्द के उपपद रहते (दिशावाची पूर्वपद अहिज्यावयिव्यधिवष्टिविचतिवश्वतिपृच्छतिभृज्जतीनाम् शब्दों को अन्तोदात्त होता है)। -VI.i. 16 ग्रामजनपदैकदेशात् - IV. iii.7 ग्रह,ज्या, वय,व्यध, वश,व्यच ओवश्च,प्रच्छ, प्रस् __ग्राम के अवयव-वाची तथा जनपद के अवयववाची इन धातुओं को (सम्प्रसारण हो जाता है, ङित् तथा कित्। प्रत्यय के परे रहते)। (दिशापूर्वपद वाले अर्धान्त) प्रातिपदिक से (शैषिक अञ् तथा ठञ् प्रत्यय होते हैं)। ग्रहे: -III.i. 118 ग्रामजनबन्धुभ्यः -IV. 1.42 . . . प्रति और अपि उपसर्ग पूर्वक ग्रह धातु से (क्यप् प्रत्यय होता है)। (षष्ठीसमर्थ) माम,जन,बन्धु प्रातिपदिकों से (समूह अर्थ ..हो - III. iv. 39 में तल् प्रत्यय होता है)। -वर्तिग्रहो: III. iv. 39 ग्रामणी: -v.ii.78 . ...महो: -III. iv.58 (प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ में कन् प्रत्यय होता : है); यदि वह प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक ग्राम का मुखिया हो देखें- आदिशिग्रहोः III. iv. 58 तो। ग्राम... - IV. ii. 43 ...ग्रामण्योः - VII. 1.56 देखें - ग्रामजनबन्धु० IV. II. 43 देखें - श्रीप्रामण्यो: VII. 1.56 ...प्राम.. - IV.ii. 141 ग्रामनगराणाम् - VII. iii. 14 देखें-कन्यापलद० IV. ii. 141 (दिशावाची शब्दों से उत्तर प्राच्य देश में वर्तमान) ग्राम ग्राम... -IV. iii.7 तथा नगरवाची शब्दों के (अच् में आदि अच् को तद्धित देखें- ग्रामजनपदैकदेशात् IV. iii.7 जित, णित् तथा कित् प्रत्यय परे रहते वृद्धि होती है)। ग्राम... - V. iv.95 प्रामात् - IV.1.93 देखें-ग्रामकौटाभ्याम् V. iv.95 ग्राम शब्द से (य और खञ् प्रत्यय होते हैं)। ग्राम.. - VI.ii. 103 ग्रामात् - IV. iii. 61 (परि.अनुपूर्वक अव्ययीभावसंज्ञक) ग्रामशब्दान्त (सप्तदेखें - ग्रामजनपदा० VI. ii. 103 मीसमर्थ) प्रातिपदिक से (भव अर्थ में ठञ् प्रत्यय होता ग्राम-VII. I. 14 देखें-ग्रामनगराणाम् VII. iii. 14 ग्रामे - VI. 1.84 ग्रामः-VI. 1.62 शिल्पीवाची शब्द उत्तरपद रहते) ग्राम पर्वपद को ग्राम शब्द उत्तरपद रहते (पूर्वपद को आधुदात्त होता है. (विकल्प से प्रकृतिस्वर होता है)। यदि पूर्वपदं निवास करने वाले को न कहता हो तो)। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राम्यपशुसयेषु 197 ग्राम्यपशुसयेषु - I. ii. 73 (तरुणों से रहित) ग्रामीण पशुओं के समूह में (स्त्री पशु शेष रह जाता है, पुमान् हट जाते हैं)। ...प्रावस्तुकः - III. ii. 177 देखें-प्राजभास. III.ii. 177 :.ग्रीवा... -VI. ii. 114 देखें-कण्ठपृष्ठ VI. ii. 114 ...ग्रीवाभ्यः - IV. 1.95 देखें-कुलकुक्षि iv. ii. 95 ग्रीवाभ्यः - V. iii. 57 (सप्तमीसमर्थ) ग्रीवा प्रातिपदिक से (भव अर्थ में अण और ठञ् प्रत्यय होता है)। ग्रीष्य..-IV. iii.46 देखें- ग्रीष्मवसन्तात् IV. ill.46 ग्रीष्य.. - IV. iii. 49 देखें - ग्रीष्मावरसमात् IV. iii. 49 ग्रीष्मवसन्तात् - IV. iii. 46 (सप्तमीसमर्थ) ग्रीष्म तथा वसन्त (कालवाची) प्रातिपदिकों से (बोया हुआ अर्थ में विकल्प से वुञ् प्रत्यय होता है)। ग्रीष्मावरसमात् - IV. iii. 49 (सप्तमीसमर्थ कालवाची) ग्रीष्म और अवरसम प्रातिपदिकों से (देयमणे' अर्थ में वुञ् प्रत्यय होता है)। ...गुचु... - III.i. 58 देखें - वृस्तम्भु० I. 1. 58 ग्ल ह - III. iii.70 ग्लह शब्द (में अथवा विषय हो तो ग्रह धातु से अप् प्रत्यय तथा लत्व निपातन से होता है, कर्तृभिन्न कारक तथा भाव में)। ग्ला...- III. 1. 139 देखें- ग्लाजिस्थ: III. 1. 139 ...म्ला.. - III. iv.65 देखें- शकषज्ञाग्ला. III. iv. 65 म्लाजिस्थः -III. ii. 139 ग्ला,जि,स्था (तथा चकार से भू) धातु से (भी वर्तमान काल में क्स्नु प्रत्यय होता है, तच्छीलादि कर्ता हो तो)। ...ग्लुचु... - III. 1. 58 देखें - जूस्तम्भु० III.i. 58 घ- प्रत्याहारसूत्र - Ix भगवान् पाणिनि द्वारा अपने नवम प्रत्याहार सूत्र में पठित प्रथम वर्ण। पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्णमाला का बाईसवां वर्ण। घ-III. iii. 125 (खन् धातु से पुँल्लिङ्ग करणाधिकरण कारक संज्ञा में) घ प्रत्यय होता है,(तथा चकार से घबू भी होता है)। घ.. - IV. ii. 28 देखें - घाणौ N. ii. 28 घ..- V.ii.92 .. देखें-घखौ IV.ii. 92 घ.-v.i.70 - देखें-घखत्री V.i.70 घ.. -VI. iii. 16 देखें - घकालतनेषु VI. iii. 16 घ... - VI. iii. 42 देखें - घरूप० VI. iii. 42 घ.. -VI. iii. 132 देखें- तुनुघमक्षु० VI. iii. 132 घ.. - VIII. ii. 22 देखें - घाइयो: VIII. ii. 22 घः -I.1.21 (तरप् और तमप् की) घ संज्ञा होती है। घ -III. 1.70 '(सुबन्तं उपपद रहते 'दुह' धातु से कप् प्रत्यय होता है, तथा अन्त्य हकार को) घकारादेश होता है। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 B . -III. HI.84 घखो -V.1.70 (परिपूर्वक हन् धातु से करणकारक में अप् प्रत्यय होता (द्वितीयासमर्थ यज्ञ तथा ऋत्विग् प्रातिपदिकों से समर्थ है, तथा हन् के स्थान में) घ आदेश (भी होता है)। है' अर्थ में) यथासङ्ख्य करके घ तथा खञ् प्रत्यय होते हैं। -III. III. 118 (धातु से करण और अधिकरण कारक में पंल्लिक में घखौ-IV.ii.92 प्रायः करके) घ प्रत्यय होता है, (यदि समुदाय से संज्ञा (राष्ट्र तथा अवारपार शब्दों से शैषिक जातादि प्रतीत होती है)। अर्थों में यथासङ्ख्य) घ और ख प्रत्यय होते हैं। घ-IV.I. 138 घच्.. - IV. iv. 117 (क्षत्र शब्द से अपत्य अर्थ में) घ प्रत्यय होता है। देखें-घच्छौ Niv. 117. घच्छौ -IV. iv. 117 .-IV. 1. 26 (अपोनपात्, अपांनपात् देवतावाची शब्दों से षष्ठ्यर्थ (सप्तमीसमर्थ अग्र प्रातिपदिक से वेदविषयक भवार्थ .. में प्रत्यय होता है और प्रयोग में) घच और छ प्रत्यय (भी) होते हैं। . से इन शब्दों को अपोनप्त और अपांनप्त आदेश भी घा... -II. v. 38 होता है)। देखें-घषयोः II. iv. 38 -IV. iv. 118 घ -III. Iii. 16 (सप्तमीसमर्थ समुद्र और अप्र प्रातिपदिकों से वेदवि- (पद, रुज, विश और स्पृश् धातुओं से) पञ् प्रत्यय षयक भवार्थ में) घ प्रत्यय होता है)। होता है)। घ-IV. iv. 135 घ -III. Iii. 120 (तृतीयासमर्थ सहस्र प्रातिपदिक से तुल्य अभिधेय हो (अवपूर्वक तू,स्तृञ् धातुओं से करण, अधिकरण कारक तो)घ प्रत्यय होता है। तथा संज्ञाविषय में प्रायः करके) पञ् प्रत्यय होता है। छ - IV. iv. 141 ... .. - VI. 1. 144 देखें-थाथषष्० VI. II. 144 (नक्षत्र प्रातिपदिक से वेद-विषय में) घ प्रत्यय होता है। घषः-IV. 1.57 घ-v.ii. 40 (प्रथमासमर्थ क्रियावाची) घजन्त प्रातिपदिक से (सप्त(प्रथमासमर्थ परिमाण समानाधिकरणवाची किम् तथा म्यर्थ में ज प्रत्यय होता है)। इदम् प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ में वतुप प्रत्यय होता है,तथा घर -VI.1. 153 उस वतु के वकार के स्थान में) घकार आदेश होता है। (कृष् विलेखने' धातु तथा अकारवान्) घबन्त शब्द के छ -VIII. ii. 32 (अन्त को उदात्त होता है)। (दकार आदि वाले धातु के हकार के स्थान में) घकार घषपोः -II. iv. 38 आदेश होता है, (झल् परे रहते या पदान्त में)। घञ् और अप (आर्धधातुक) परे रहते (भी अद् को घस्ल घकालतनेषु - VI. II. 16 आदेश होता है)। (काल के नामवाची शब्दों से उत्तर सप्तमी का) घसजक घषि-VI.1.46 प्रत्यय, काल शब्द तथा तन प्रत्यय के उत्तरपद रहते (विकल्प करके अलुक होता है)। (स्फुर तथा स्फुल धातुओं के एच् के स्थान में) षब् प्रत्यय के परे रहते (आकारादेश हो जाता है)। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 199 घाणौ घषि-VI. 1. 121 घबन्त उत्तरपद रहते (अमनुष्य अभिधेय होने पर उपसर्ग के अण को बहल करके दीर्घ होता है)। घषि-VI. iv. 27 (भाववाची तथा करणवाची) घन के परे रहते (भी रज धातु की उपधा के नकार का लोप होता है)। ... घयोः -VII. 1.67 देखें-खल्यो : VII. 1.67 ...घट.. - III. iv. 65 देखें-शकवज्ञाग्ला. III. iv. 65 घटः-v.ii.35 (सप्तमीसमर्थ कर्मन प्रातिपदिक से)'चेष्टा करने वाला' अर्थ में (अठच् प्रत्यय होता है)। छन् -IV. 1. 25 (प्रथमासमर्थ शक्र शब्द से षष्ठयर्थ में) घन प्रत्यय होता है,(सास्य देवता' अर्थ में)। छन् -IV. iv. 115 (सप्तमीसमर्थ तुम शब्द से वेद-विषयक भवार्थ में) घन् प्रत्यय होता है। घन्-v.i.67 (द्वितीयासमर्थ पात्र प्रातिपदिक से 'समर्थ है' अर्थ में) घन् (और यत्) प्रत्यय (होते है)। घन्... -V. iii.79 देखें-घनिलचौ .iii.79 घनः -III. 11.77 काठिन्य अभिधेय हो तो हन धातु से अप प्रत्यय होता है, तथा हन को घन आदेश भी हो जाता है। घनिलचौ-v.i1.79 (बहुत अच् वाले मनुष्यनामधेय प्रातिपदिकों से 'अन- कम्पा से सम्बद्ध नीति' गम्यमान हो तो) घन और इलच प्रत्यय होते है, (तथा विकल्प से ठच् प्रत्यय होता है)। घरूपकल्पचेलअवगोत्रमतहतेषु - VI. III. 42 (भाषितपुंस्क शब्द से उत्तर ड्यन्त अनेकाच शब्द को हस्व हो जाता है); ष,रूप, कल्प, चेलट, बुव, गोत्र, मत तथा हत शब्दों के परे रहते। घस् - V.i. 105 (वेदविषय में समर्थ ऋतु प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ में) घस् प्रत्यय होता है, (यदि वह प्रथमासमर्थ ऋतु प्रातिपदिक प्राप्त समानाधिकरण वाला हो तो)। घस.. -II. iv.80 देखें - घसहरणश० II. iv. 80 घसरणशवृदहावृच्छगमिजनिभ्यः -II. iv.80 (मन्त्र विषय में) घस,ह,णश.व. दह. आकारान्त, वज कृ,गमि,जनि- इन धातुओं से (विहित फिल का लुक हो जाता है)। ... घसाम् - VI. iv. 98 देखें-गमहनजनखन० VI. iv.98 ...घसाम् - VII. ii. 69 देखें- एकाजाघसाम् VII. ii.69 ...घसि... -III. II. 160 देखें - स्पस्यदः III. ii. 160 घसि... - VI. iv. 100 देखें - घसिमसोः VI. iv. 100 घसिमसोः -VI. iv. 100 घस तथा भस अङ्गकी (उपधा का वेदविषय में लोप होता है; हलादि तथा अजादि कित,ङित् प्रत्यय परे रहते)। ...घसीनाम् - VIII. iii.60 देखें- शासिवसि० VIII. 1.60 घस्तृ-II. iv. 37 (अद् को) घस्लू आदेश होता है,लुङ् और सन् आर्धधातक परे रहते)। घस्य-VIII. ii. 17 (नकारान्त शब्द से उत्तर) घसज्जक को (वेद-विषय में नुट् आगम होता है)। घाडूयो: - VIII. ii. 22 (परि के रेफ को भी)घ तथा अङ्कशब्द परे रहते (विकल्प से लत्व होता है)। घाणी-IV. 1. 28 (प्रथमासमर्थ देवतावाची महेन्द्र प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ में)घ, अण् (तथा छ प्रत्यय भी) होते हैं। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....घाम् 200 घोषादिषु ...घाम्-VII.1.2 देखें-फडखछ्याम् VIL.1.2 घि-I.iv.7 (नदी संज्ञा से अवशिष्ट ह्रस्व इकारान्त.उकारान्त शब्दों की) घि सज्ञा होती है, (सखि शब्द को छोड़कर)। घि-II. ii. 32 घिसंज्ञक का (पूर्व प्रयोग होवे, द्वन्द्व समास में)। घित... - VII. iii. 52 देखें-पिण्ण्य तो: VII. iii. 52 घिण्ण्यतो: - VII. iii. 52 (चकार तथा जकार के स्थान में कवर्ग आदेश होता है) षित् तथा ण्यत् प्रत्यय परे रहते। घिनुण -III. I. 141 (शमादि आठ धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हो तो वर्त- मान काल में) धिनुण प्रत्यय होता है। घु-I. 1. 18 (दाप लवने और दैप शोधने को छोड़कर दारूप वाली चार और धा रूप वाली दो धातुओं की) घु संज्ञा (होती घुरच् -III. ii. 161 (भञ्ज, भास, मिद् - इन धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमानकाल में) घुरच प्रत्यय होता है। घुषि: -VII. 1. 23 (निष्ठा परे रहते) घुषिर् धातु (अविशब्दन अर्थ में अनिट् होती है)। विशब्दन = शब्दों द्वारा भावों का प्रकाशन । घे-VI. iv. 96 (जो दो उपसों से युक्त नहीं हैं, ऐसे छादि अङ्ग की . उपधा को) घ प्रत्यय परे रहने पर (हस्व होता है)। घे: - VII. iii. 111 घिसंज्ञक अङ्ग को (ङित् सुप् प्रत्यय परें रहते गुण होता है)। घे: - VII. iii. 118 (इकारान्त,उकारान्त अङ्ग से उत्तर डि को औकारादेश होता है, तथा) घिसंज्ञक को (अकारादेश भी होता है)। घो: -III. iii. 92 (उपसर्ग उपपद रहने पर) घुसंज्ञक धातुओं से कि प्रत्यय होता है)। घो: - VII. 1.70 घुसंज्ञक अङ्ग का (लेट् परे रहते विकल्प से लोप होता है)। ...पु... -II. iv.77 देखें - गातिस्थाधुपा० II. iv.77 घु... -VI. iv.66 देखें - घुमास्था० VI. iv.66 घु... -VI. iv. 119 देखें - ध्वसो: VI. iv. 119 ...घु... - VII. iv. 54 . देखें - मीमाधु० VII. iv. 54 ...घु... - VIII. iv. 17 देखें - गदनद० VIII. iv. 17 घुमास्थागापाजहातिसाम् -VI. iv. 66 घसंज्ञक.मा.स्था.गा.पा.ओहाक त्यागे तथा षो अन्त- कर्मणि- इन अङ्गों को (हलादि कित, डित् आर्धधातुक के परे रहते ईकारादेश होता है)। घो: -VII. iv.46 घुसंज्ञक (दा धातु) के स्थान में (दद् आदेश होता है; तकारादि कित् प्रत्यय परे रहते)। घोष.. - VI. iii. 55 देखें - घोषमिश्रशब्देषु VI. ii. 55 घोषमिश्राशब्देषु - VI. iii. 55 घोष, मिश्र तथा शब्द के उत्तरपद रहते (पाद शब्द को विकल्प करके पद् आदेश होता है)। घोषादिषु-VI. ii. 85 घोषादि शब्दों के उत्तरपद रहते (भी पूर्वपद को आधु"दात्त होता है)। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 201 डसि ...प्राधेट्शाच्छासः - II. iv. 78 घ्रा, धेट्, शा, छा, सा-इन धातुओं से उत्तर (परस्मैपद परे रहते विकल्प करके सिच का लुक् हो जाता है)। घामो: - VII. iv. 31 घा तथा मा अङ्ग को (यङ् परे रहते ईकारादेश होता घा... -II. iv.78 देखें-घ्राधेट्शाच्छासः II. iv.78 ....घा... -III.i. 135 देखें-पाघ्राध्या. III. 1. 135 ....घा.. -VII. 11. 78 देखें- पाघ्राध्या० VII. iii. 78 घा.. - VII. iv. 31 देखें - घामो: VII. iv. 31 ...घा... - VIII. ii. 56 देखें - नुदविदोन्द० VIII. ii. 56 ध्वसो: - VI. iv. 119 घुसंज्ञक अङ्ग एवं अस् को (एकारादेश तथा अभ्यास का लोप होता है; हि,क्ङित् परे रहते)। ...वोः - I. ii. 17 देखें - स्थाध्वोः I. I. 17 -प्रत्याहारसूत्र III ...डस्... - IV. 1.2 आचार्य पाणिनि द्वारा अपने तृतीय प्रत्याहारसूत्र में देखें - स्वौजसमौट IV. i. 2 इत्संज्ञार्थ पठित वर्ण। इस: - VII. I. 27 इ.. - VIII. iii. 28 (युष्मत् तथा अस्मत् शब्द से उत्तर) ङस् के स्थान में देखें -गो: VIII. iii. 28 (अश् आदेश होता है)। हु-प्रत्याहारसूत्र VII ...डसाम् - VII. 1. 12 भगवान् पाणिनि द्वारा अपने सप्तम प्रत्याहारसूत्र में देखें - टाइसिडसाम् VII. 1. 12 पठित तृतीय वर्ण। ...डसि... - IV..2 पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्णमाला देखें - स्वौजसमौट्छ IV.i.2 का सत्रहवां वर्ण। असि... - VI. 1. 106 डम: - VIII. iii. 32 देखें - इसिडसो: VI. 1. 106 (हस्व पद से उत्तर वर्तमान) डमन्त पद से उत्तर (अच डसि-VI. 1. 205 को नित्य ही ङमुट् आगम होता है)। (युष्मद् तथा अस्मद् शब्दों के आदि को) डस् परे रहते डमुट् - VIII. iii. 32 (उदात्त होता है)। (हस्व पद से उत्तर जो डम.तदन्त पद से उत्तर अच को . ...डसि... -VII.i. 12 नित्य ही) डमुट् आगम होता है। देखें - टासिडसाम् VII. 1. 12 यि-VI.i. 206 इसि... - VII. I. 15 डे विभक्ति परे रहते (भी युष्मद् , अस्मद् को आधुदात्त देखें - सिड्योः VII. i. 15 होता है)। इसि - VII. ii. 96 यि - VII. 1. 95 (युष्मद्, अस्मद् अङ्ग के मपर्यन्त भाग को क्रमश. (युष्मद्, अस्मद् अङ्ग के मपर्यन्त भाग को क्रमश: तुभ्य.महय आदेश होते हैं): विभक्ति के परे रहते। तव तथा मम आदेश होते हैं).ङस विभक्ति के परे रहते। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डसिडसो: इसिडसो: (एङ् से उत्तर) ङसि तथा डस् का (अकार हो तो भी पूर्व पर के स्थान में पूर्वरूप एकादेश होता है, संहिता के विषय में) । डसिडसो: (अकारान्त सर्वनाम अग से उत्तर) ङसि तथा इस के स्थान में (क्रमशः स्मात् तथा स्मिन् आदेश होते हैं)। VII. i. 15 ...इसो - VI. 1. 106 - - VI. i. 106 - देखें- इसिङसो: VI. 1. 106 ... डि... - IV. 1. 2 देखें - fs... - VI. iv. 136 देखें डियो VI. iv. 136 स्वौजसमौट् IV. 1. 2 - fs - VII. iii. 110 देखें डिसर्वनामस्थानयो: VII. II. 110 डि... - VIII. ii. 8 देखें - डिसम्बुद्ध्यो: VIII. it. 8 डित् 1.1.52 (षष्ठीनिर्दिष्ट का) डकार इत्संज्ञक आदेश (भी अन्त्य अल् के स्थान में होता है)। डित् - Iii. 1 (गा एवं कुटादिगणपठित धातुओं से परे बित्, णित् भिन्न प्रत्यय) ङित्वत् = डित् के समान माने जाते हैं। डि- III. Iv. 103 202 (परस्मैपदविषयक लिङ्लकार को यासुट् का आगम होता है, और वह उदात्त तथा) ङिद्वत् भी होता है। [...]डित् - VI. 1. 180 देखें तास्यनुदात्तेo VI. 1. 180 ...डितः - I. iii. 12 - देखें- अनुदानडित 1. 12 डिल: - III. Iv. 99 डित्-लकारसम्बन्धी उत्तम पुरुष के सकार का नित्य लोप हो जाता है)। डिस- VII. II. 81 अकारान्त अङ्ग से उत्तर ङित् सार्वधातुक के अवयव - आकार के स्थान में इय् आदेश होता है। डिति - L. 1. 5 देखें - डिति 1.1.5 fifa-1. Iv. 6 (स्त्रीलिङ्ग के वाचक ह्रस्व इकारान्त, उकारान्त शब्द तथा इय-उव-स्थानी ईकारान्त, उकारान्त व्याख्य शब्द भी) ङित् प्रत्यय के परे रहते (विकल्प से नदीसंज्ञक होते हैं)। डिति - VI. 1.16 (ग्रह,ज्या,वय्,व्यघ्, वश्, व्यच्, ओव्रश्चू, प्रच्छ, भ्रस्ज्इन धातुओं को सम्मसारण हो जाता है) डि (तथा कित्) प्रत्यय के परे रहते। ....डिति - VI. Iv. 15 देखें विति VI. iv. 15 .....डिति - VI. Iv. 24 देखें विडति VI. in. 24 - डिसर्वनामस्थानयो: ...fefa-VI. iv. 63 देखें - क्डिति VI. iv. 63 ...डिति - VI. Iv. 98 देखें विडति VI. Iv. 98 - डिति - VII. I. 111 (धिसंज्ञक अङ्गको) डित् सुप् प्रत्यय परे रहते (गुण होता है)। ..डिति - VII. iv. 22 देखें विडति VII. Iv. 22 .... डिल्स - VIL. III. 85 देखें- अविचिण् VII. III. 85 - डियो: - VI. iv. 136 ङि तथा शी विभक्ति के परे रहते (अन् के अकार का लोप विकल्प से होता है) डिसम्बुद्धयो: - VIII. ii. 8 (प्रातिपदिक पद के अन्त का जो नकार, उसका) ङि तथा सम्बुद्धि परे रहते (लोप नहीं होता) । डिसर्वनामस्थानयो: VILL H. 110 (ऋकारान्त अङ्ग को) ङि तथा सार्वधातुक विभक्ति परे रहते (गुण होता है)। 1 - Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 203 ड्वनिप् डि.. - IV.1.1 देखें - झ्याप्रातिपदिकात् N.1.1 ....... - VI. 1.66 देखें- हल्याळ्यः VI.1.66 डी... - VI. iii. 22 देखें-यापः VI. ill. 22 डीन्- IV.I.73 (अनुपसर्जन जातिवाची शारिवादि तथा अजन्त प्रातिपदिकों से स्त्रीलिङ्ग में) डीन् प्रत्यय होता है। डीप-10.15 (ऋकारान्त तथा नकारान्त प्रातिपदिकों से स्त्रीलिङ्ग में) ङीप् प्रत्यय होता है। अप्- IV. 1. 26 (संख्या आदि वाले तथा अव्यय आदि वाले ऊघस्शब्दान्त बहुव्रीहि समास वाले प्रातिपदिक से) डीप् प्रत्यय होता है। डीप-V.1.60 (दिशा पूर्वपद है जिसमें, ऐसे प्रातिपदिक से स्त्रीलिङ्ग में) डीप् प्रत्यय होता है। - IV. 1.25 (बहुव्रीहि समास में वर्तमान ऊधस्-शब्दान्त प्रातिपदिक से स्त्रीलिङ्ग में) डीष् प्रत्यय होता है। अप- IV. 1. 40 (तोपध वर्णवाची प्रातिपदिकों से अन्य जो वर्णवाची अदन्त अनुदात्तान्त प्रातिपदिक,उनसे स्त्रीलिङ्ग में) ङीष् प्रत्यय होता है। ....... - IV.1.2 . देखें- स्वौजसमौट्o V.1.2 हे - VII. 1. 28 (युष्मद् तथा अस्मद् अङ्ग से उत्तर) डे विभक्ति के स्थान में अम् आदेश होता है)। D-VII. I. 13 (अकारान्त अङ्ग से उत्तर) 'डे' के स्थान में (य आदेश हो जाता है)। हे - VII. iii. 116 (नदीसंज्ञक, आबन्त तथा नी से उत्तर) ङि विभक्ति के स्थान में (आम् आदेश होता है)। जै-VI. iii. 109 (संख्या,वि तथा साय पूर्व वाले अह शब्द को विकल्प करके अहन् आदेश होता है), ङि परे रहते। लो: - VIII. ii. 28 (पदान्त) डकार तथा णकार को (यथासंख्य करके विकल्प से कुक् तथा टुक् आगम होते हैं, शर् प्रत्याहार परे रहते)। ड्यः - VI. iii. 42 (भाषितपुंस्क शब्द से उत्तर) ङ्यन्त (अनेकाच्) शब्द का (हस्व हो जाता है; घ, रूप, कल्प, चेलट्, बुव, गोत्र, मत तथा हत शब्दों के परे रहते)। ड्याः - VI. 1. 172 (वेदविषय में) ङ्यन्त शब्द से उत्तर (बहुल करके नाम् विभक्ति को उदात्त होता है)। झ्याप: - VI. il. 62 ड्यन्त तथा आबन्त शब्दों को (संज्ञा तथा छन्द-विषय में उत्तरपद परे रहते बहुल करके हस्व होता है)। झ्याप्पातिपदिकात् - IV.i.1 (यहाँ से आगे कहे हुए सु आदि प्रत्यय) ङ्यन्त,आबन्त तथा प्रातिपदिक से ही हुआ करेंगे। ....ड्यो: - VII. I. 15 देखें- इसियो: VII. I. 15 ड्वनिप् - III. ii. 103 (षज तथा यज धात से भूतकाल में) ङ्वनिप् प्रत्यय होता है। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 च - प्रत्याहारसूत्र IV आचार्य पाणिनि द्वारा अपने चतुर्थ प्रत्याहारसूत्र में इत्स- ज्ञार्थ पठित वर्ण। च - प्रत्याहारसूत्र XI आचार्य पाणिनि द्वारा अपने ग्यारहवें प्रत्याहारसूत्र में पठित छठा वर्ण। -पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्ण- माला का पैतीसवाँ वर्ण। च-I.1.5 (कित्,गित,डित् को निमित्त मानकर) भी (इक के स्थान में जो गुण और वृद्धि प्राप्त होते हैं, वे न हों)। च-I.1. 18 (सप्तमी के अर्थ में वर्तमान ईकारान्त सकारान्त शब्दों की) भी (प्रगृह्य संज्ञा होती है)। च-1.1.24 (डति प्रत्ययान्त संख्यावाची शब्द की) भी (पटसंजा होती है। च-1.1.30 (द्वन्द्वसमास में) भी (सर्वादियों की सर्वनाम संज्ञा नहीं होती)। च-11.32 (प्रथम,चरम,तयप् प्रत्ययान्त शब्द,अल्प,अर्ध,कतिपय तथा नेम शब्दों की) भी (जस-सम्बन्धी कार्य में विकल्प से सर्वनाम संज्ञा होती है)। च-I.1.37 (जिससे सारी विभक्ति उत्पन्न न हो, ऐसे तद्धित-प्रत्ययान्त शब्द की) भी (अव्ययसंज्ञा होती है)। च -I.i. 40 अव्ययीभाव समास की) भी (अव्ययसंज्ञा होती है)। च-I.i. 52 (डिदादेश) भी (अन्त्य अल् के स्थान में होता है)। च-1.1.63 (त्यदादिगणपठित शब्द) भी (वृद्धसंज्ञक होते है)। च-I.i.68 (अण् और उदित् अपने स्वरूप का) भी (ग्रहण कराते है,प्रत्यय को छोड़कर)। च-1. ii.6 (इन्धि तथा भू धातु से परे) भी लिट् प्रत्यय कित्वत् होता है)। च-1.11.8 (रुद,विद,मुष,ग्रह,स्वप तथा प्रच्छ इन धातुओं में परे सन्) और (क्त्वा प्रत्यय कित्वत् होते हैं)। . च-I. ii. 10 (इक् के समाप जो हल्, उससे परे) भी (झलादि सन् कित्वत् होता है)। च-1. ii. 12 (ऋवर्णान्त धातु से परे) भी (झलादि लिङ् तथा सिप कित्वत् होते हैं, आत्मनेपदविषय में)। च-I.ii. 16 (स्था तथा घुसज्जक धातुओं से परे सिच कित्वत् होता है और इकारादेश) भी (हो जाता है)। . च-I. ii. 22 (पूङ् धातु से परे सेट् निष्ठा तथा सेट् क्त्वा प्रत्यय) भी (कित् नहीं होता है)। च-1.11.24. (वा, लुच, ऋत् इन धातुओं से परे) भी (सेट् क्त्वा विकल्पकरके कित् नहीं होता है)। च-I. ii. 26 (इकार तथा उकार उपधा वाली रलन्त हलादि धातुओं. से परे सेट् सन्) और (सेट् क्त्वा प्रत्यय विकल्प से कित् नहीं होते है)। च-I. ii. 28 (हस्व हो जाये, दीर्घ हो जाये प्लुत हो जाये, ऐसा नाम लेकर जब कहा जाये तो) वह पूर्वोक्त हस्व दीर्घ प्लुत (अच् के स्थान में ही हो)। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - I. ii. 44 (समास विधीयमान होने पर नियत विभक्ति वाला पद) भी (उपसर्जनसंज्ञक होता है, पूर्वनिपात उपसर्जन कार्य को छोड़कर) । च - I. 1. 46 (कृत्प्रत्ययान्त, तद्धितप्रत्ययान्त और समास) भी (प्रातिपदिक संज्ञक होते हैं)। च - I. 1. 52 (प्रत्यय के लुप् • होने पर उस लुबर्थ के जो विशेषण, उनमें भी (लिङ्ग और संख्या प्रकृत्यर्थ के समान हो जाते हैं, जाति के प्रयोग से पूर्व ही) । I. ii. 55 (सम्बन्ध को वाचक मानकर यदि संज्ञा हो तो) भी (उस सम्बन्ध के जाने पर इस संज्ञा का अदर्शन होता है, पर वह होता नहीं है)। च - I. 1. 56 (काल तथा उपसर्जन = गौण) भी (अशिष्य होते हैं, तुल्य हेतु होने से अर्थात् पूर्वसूत्रोक्त लोकाधीनत्व हेतु होने से) । च - I. 11.59 (अस्मदर्थ के एकत्व और द्वित्व अर्थ में भी (बहुवचन विकल्प करके होता है)। 205 च - I. 1. 60 (फल्गुनी और प्रोष्ठपद नक्षत्रविषयक द्वित्व अर्थ में) भी ( बहुत्व अर्थ विकल्प करके होता है) 1 - I. ii. 62 (वेद-विषय में विशाखा नक्षत्र के द्वित्व अर्थ में) भी ( विकल्प करके एकत्व होता है)। च - I. 1. 66 (गोत्रप्रत्ययान्त जो स्त्रीलिङ्ग शब्द, वह युवप्रत्ययान्त शब्द के साथ शेष रह जाता है और उस स्त्रीलिङ्ग गोत्रप्रत्ययान्त शब्द को पुंवत् कार्य) भी (हो जाता है, यदि उन दोनों शब्दों में वृद्धयुवप्रत्ययनिमित्तक ही वैरूप्य हो और सब समान हों)। च - I. 1. 69 (नपुंसकलिङ्ग शब्द उससे भिन्न शब्द अर्थात् स्त्रीलिलिङ्ग पुंल्लिङ्ग शब्दों के साथ शेष रह जाता है, तथा स्त्रीलिङ्ग पुंल्लिङ्ग शब्द हट जाते हैं, एवं उस नपुंसकलिङ्ग शब्द को एकवत् कार्य) भी (विकल्प करके हो जाता है, यदि उन शब्दों में नपुंसकगुण एवं अनपुंसक गुण का ही वैशिष्ट्य हो, शेष प्रकृति आदि समान ही हो) । च - I. iii. 16 (इतरेतर तथा अन्योन्य शब्द उपपदवाची धातु से) भी (काम की अदलाबदली अर्थ में आत्मनेपद नहीं होता) । - I. iii. 21 (अनु, सम्, परि) और (आङ्पूर्वक क्रीड् धातु से आत्मनेपद होता है)। च - I. iii. 23 (अपने भाव कथन तथा विवाद के निर्णायक को कहने अर्थ में) भी (स्था धातु से आत्मनेपद होता है)। च - I. iii. 26 (उपपूर्वक अकर्मक स्था धातु से) भी (आत्मनेपद होता 3.1 च - I. iii. 35 (विपूर्वक अकर्मक कृञ् धातु से उत्तर) भी (आत्मनेपद होता है)। च - I. iii. 37 (कर्ता में स्थित शरीरभिन्न कर्म के होने पर) भी ( णीञ् धातु से आत्मनेपद होता है)। च - I. iii. 45 (अकर्मक ज्ञा धातु से) भी (आत्मनेपद होता है)। च - I. iii. 55 (तृतीया विभक्ति से युक्त सम् पूर्वक् दाण् धातु से) भी (आत्मनेपद होता है, यदि वह तृतीया चतुर्थी के अर्थ में हो तो)। च - I. iii. 60 (सम्मानन, शालीनीकरण) तथा (प्रलम्भन अर्थ में ण्यन्त ' धातु से आत्मनेपद होता है)। ली Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च - I. iii 61 (लुङ, लिङ् लकार में) तथा (शित् विषय में जो 'मृङ् प्राणत्यागे' धातु, उससे आत्मनेपद होता है)। च - 1. iii. 74 (णिजन्त धातु से) भी (क्रिया का फल कर्ता को मिलता हो तो आत्मनेपद होता है) । च - I. iii. 84 (उपपूर्वक रम् धातु से भी ( परस्मैपद होता है)। I. iii. 87 (निगरणार्थक तथा चलनार्थक ण्यन्त धातुओं से भी (परस्मैपद होता है) 1 च - I. iii. 93 (लुट् लकार) एवं (स्य और सन् प्रत्ययों के होने पर भी कृपू धातु से विकल्प करके परस्मैपद होता है)। च - 1. iv. 6 . ( ह्रस्व इकारान्त, उकारान्त स्त्र्याख्य शब्द तथा इयड्उवङ् स्थानी ईकारान्त, ऊकारान्त स्त्र्याख्य शब्द) भी (डित् प्रत्यय के परे रहते विकल्प से नदीसञ्ज्ञक होते हैं) । च - 1. iv. 12 (दीर्घ अक्षर की) भी (गुरुसंज्ञा होती है)। च - I. iv. 16 (सित् प्रत्यय के परे रहते भी (पूर्व की पदसंज्ञा होती है)। च - Iiv. 41 (अनु एवं प्रतिपूर्वक गृ धातु के प्रयोग में पूर्व का जो कर्ता, ऐसे कारक की भी (सम्प्रदान संज्ञा होती है) । च - I. iv. 43 (दिव् धातु का जो साधकतम कारक, उसकी कर्म) और (करण संज्ञा होती है)। 206 च - I. iv. 47 (अभि, नि पूर्वक विश् का जो आधार, उस कारक की) भी (कर्म संज्ञा होती है)। च - I. iv. 50 ( जिस प्रकार कर्त्ता का अत्यन्त ईप्सित कारक क्रिया के साथ युक्त होता है, इस प्रकार ) ही (कर्ता का न चाहा हुआ कारक क्रिया के साथ युक्त हो तो उसकी कर्म संज्ञा होती है)। च - I. iv. 51 (अपादानादि कारकों से अनुक्त कारक की भी (कर्म संज्ञा होती है) 1 च - I. iv. 55 (उस स्वतन्त्र के प्रयोजक कारक की हेतुसंज्ञा) और (कर्तृसंज्ञा होती है) । च - I. iv. 59 (प्रादियों की क्रिया के योग में गतिसंज्ञा) और (उपसर्ग संज्ञा भी होती है)। च - I. Iv. 60 (ऊर्यादि शब्द तथा च्व्यन्त और डाजन्त शब्द) भी (क्रियायोग में गति और निपातसंज्ञक भी होते हैं)। च - 1. iv. 61 (इति शब्द जिससे परे नहीं है, ऐसा जो अनुकरणवाची शब्द, उसकी भी (क्रियायोग में गति और निपात संज्ञा होती है। च - I. iv. 67 (अस्तं शब्द जो अव्यय, उसकी भी (क्रिया के योग में गति और निपातसंज्ञा होती है)। च - I. iv 73 (साक्षात् इत्यादि शब्दों की) भी (कृञ् धातु के योग में विकल्प से गति और निपात संज्ञक होते हैं) । . च - I. iv. 75 (मध्ये पदे तथा निवचने शब्द) भी (कृञ् के योग में विकल्प से गति और निपात संज्ञा होती है)। च - I. iv. 81 (वे गति और उपसर्गसंज्ञक शब्द वेद-विषय में व्यवधान से) भी (होते हैं)। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2011 . 1.105 च-i.iv.86 (उप शब्द अधिक) तथा (हीन अर्थ द्योतित होने पर कर्मप्रवचनीय और निपातसंज्ञक होता है)। च-I.v.94 (अति शब्द की उल्लान) और (पजा अर्थ में कर्मप्रव- चनीय तथा निपात संज्ञा होती है)। च-I.iv. 103 (सुपों और तिडों के तीन-तीन की विभक्ति संज्ञा) भी (हो जाती है)। च-I.V. 105 (परिहास गम्यमान हो रहा हो तो भी मन्य है उपपद जिसका,ऐसी धातु से युष्मद् उपपद रहते,समान अभिधेय होने पर युष्मद् शब्द का प्रयोग हो या न हो तो भी मध्यम पुरुष हो जाता है,तथा उस मन् धातु से उत्तम पुरुष हो जाता है और उस उत्तम पुरुष को एकत्व) भी (हो जाता है)। च-I. iv. 105 (परिहास गम्यमान हो रहा हो तो) भी (मन्य है उपपद जिसका,ऐसी धातु से युष्मद् उपपद रहते समान अभिधेय होने पर युष्मद् शब्द का प्रयोग हो या न हो तो भी मध्यम पुरुष हो जाता है तथा उस मन धातु से उत्तम परुष हो जाता है और उस उत्तम पुरुष को एकत्व भी हो जाता है)। च-II. 1. 15 (अनु जिसका आयामवाची = दीर्घतावाची है,ऐसे लक्षणवाची समर्थ सुबन्त के साथ) भी (अन का विकल्प से समास होता है और वह अव्ययीभाव समास होता है। च-II.1.16 . (तिष्ठद्गु इत्यादि समुदायरूप शब्दों की) भी (अव्ययीभावसंज्ञा निपातन से होती है)। च-II.1.19 (सङ्ख्यावाची सुबन्तों का नदीवाची समर्थ सुबन्तों के साथ) भी (विकल्प से अव्ययीभाव समास होता है)। च-II.1.20 (अन्यपदार्थ गम्यमान होने पर भी (संज्ञाविषय में , सुबन्त का नदीवाची समर्थ सुबन्त के साथ अव्ययीभाव समास होता है)। च-II.1.22 (द्विगु समास) भी (तत्पुरुष संज्ञक होता है)। च-II.1.28 , (अत्यन्तसंयोग गम्यमान होने पर) भी (कालवाची द्वितीयान्त शब्दों का समर्थ सुबन्तों के साथ विकल्प से समास होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है)। च-II.1.40 (सिद्ध,शुष्क,पक्व,बन्ध-इन समर्थ सुबन्तों के साथ) भी (सप्तम्यन्त सुबन्त का विकल्प से समास होता है और वह तत्पुरुष समास होता है)। च-II. I. 47 (पात्रेसम्मित आदि शब्द) भी (निन्दा गम्यमान होने पर समुदायरूप तत्पुरुष समासान्त निपातन किये जाते है)। च-II.1.50 (तद्धितार्थ का विषय उपस्थित रहने पर,उत्तरपद परेरहते तथा समाहार वाच्य होने पर) भी (दिशावाची तथा सङ्ख्यावाची सुबन्तों का समर्थ समानाधिकरणवाची सबन्तों के साथ विकल्प से समास होता है और वह तत्पुरुष होता है)। च -II..57 (पूर्व, अपर, प्रथम, चरम, जघन्य, समान, मध्य, मध्यम, वीर-इनका विशेषणवाची सबन्तों के साथ विकल्प से तत्पुरुष समास होता है)। च -II.1.65 (जातिवाची सुबन्त प्रशंसावाची समानाधिकरण समर्थ सुबन्तों के साथ) भी (विकल्प से समास को प्राप्त होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है)। च-II. 1.71 (मयूरव्यंसकादिगणपठित समुदाय रूप शब्द) भी (समानाधिकरण तत्पुरुषसंज्ञक निपातित है)। च-II. 1.4 (प्राप्त, आपन्न सुबन्त) भी (द्वितीयान्त सुबन्त के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होते हैं और वह तत्पुरुष समास होता है)। च-II. 1.9 (याजकादि सुबन्तों के साथ) भी (षष्ठ्यन्त सुबन्त का समास होता है और वह तत्पुरुष समास होता है)। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 - च-II. ii. 12 (पूजा अर्थ में विहित जो क्त प्रत्यय, तदन्त शब्द के साथ) भी (षष्ठ्यन्त सुबन्त समास को प्राप्त नहीं होता)। च-II. ii. 13 (अधिकरणवाची क्तप्रत्ययान्त सुबन्त के साथ) भी (षष्ठ्यन्त सुबन्त समास को प्राप्त नहीं होता)। च-II. ii. 14 (कर्म में जो षष्ठी विहित है,वह) भी (समर्थ सुबन्त के साथ समास को प्राप्त नहीं होती)। . च -II. ii. 16 (कर्ता में जो षष्ठी,वह) भी (अक प्रत्ययान्त सुबन्त के साथ समास को प्राप्त नहीं होती)। च -II. ii. 22 (तृतीयाप्रभृति जो उपपद,वे क्त्वा-प्रत्ययान्त शब्दों के साथ) भी विकल्प से समास को प्राप्त होते हैं, और वह तत्पुरुष समास होता है)। च-II. iii.3 (वेद-विषय में ह धातु के अनभिहित कर्म में ततीया) और (द्वितीया विभक्ति होती है)। च-II. iii.9 (जिससे अधिक हो) और (जिसका सामर्थ्य हो, उसमें कर्मप्रवचनीय के योग में सप्तमी विभक्ति होती है)। च-II. iii. 11 (जिससे प्रतिनिधित्व और जिससे प्रतिदान हो, उससे) भी (कर्म-प्रवचनीय के योग में पञ्चमी विभक्ति होती है)। च-II. iii. 14 (क्रिया के लिये क्रिया उपपद हो जिसकी,ऐसी अप्रयुज्यमान धातु के अनभिहित कर्म कारक में) भी (चतुर्थी विभक्ति होती है)। च - II. iii. 15 (तुमन के समानार्थक भाववचन-प्रत्ययान्त से) भी (चतुर्थी विभक्ति होती है)। च - II. iii. 16 (नमः,स्वस्ति,स्वाहा,स्वधा,अलम,वषट्-इन शब्दों के योग में) भी (चतुर्थी विभक्ति होती है)। च-II. iii. 27 हित शब्द के प्रयोग में तथा हेतु के विशेषणवाची सर्वनामसंज्ञक शब्द के प्रयोग में हेतु द्योतित होने पर तृतीया) और (षष्ठी विभक्ति होती है)। . . च-II. 11. 33 (स्तोक, अल्प,कृच्छु कतिपय-इन असत्ववाची शब्दों से करण कारक में तृतीया) और पञ्चमी विभक्ति होती है)। च-II. iii. 35 (दूरार्थक तथा अन्तिकार्थक शब्दों से द्वितीया विभक्ति होती है) और चकार से (षष्ठी व पञ्चमी भी)। च -II. iii. 36 . (अनभिहित अधिकरण कारक में) तथा (दूरान्तिकार्थक शब्दों से (भी) सप्तमी विभक्ति हो च-II. iii. 37 (जिसकी क्रिया से क्रियान्तर लक्षित होवे, उसमें) भी (सप्तमी विभक्ति होती है)। च-II. iii. 38 (जिसकी क्रिया से क्रियान्तर लक्षित हो.उसमें अनादर गम्यमान होने पर षष्ठी) तथा (सप्तमी विभक्ति होती है)। च -II. iii. 39 (स्वामी, ईश्वर, अधिपति, दायाद, साक्षी,प्रतिभू, प्रसूत -इन शब्दों के योग में) भी (षष्ठी और सप्तमी विभक्ति होती है)। च-II. iii. 40 (आयुक्त और कुशल शब्दों के योग में) भी (आसेवा गम्यमान हो तो षष्ठी और सप्तमी विभक्ति होती है)। आसेवा = तत्परता। च-II. iii. 41 (जिससे निर्धारण हो उसमें) भी (षष्ठी और सप्तमी विभक्ति होती है)। च-II. iii. 44 (प्रसित और उत्सुक शब्दों के योग में तृतीया) और (सप्तमी विभक्ति होती है)। प्रसित = संलग्न, फंसा। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 209 च-II. iv. 18 (अव्ययीभाव समास) भी (नपुंसकलिङ्ग होता है)। च-II. iv. 24 (शाला अर्थ से भिन्न जो सभा,तदन्त नकर्मधारयभिन्न तत्पुरुष) भी (नपुंसकलिङ्ग में होता है)। च-II. iv. 28 हेमन्त और शिशिर शब्द) तथा (अहन और रात्रि शब्दों का द्वन्द्व समास में छन्द-विषय में पूर्ववत् लिङ्ग होता है)। च-II. iv. 31 (अर्धर्चादि शब्द पुंल्लिङ्ग) और नपुंसकलिङ्ग में होते च-II. iii. 45 (लुबन्त नक्षत्रवाची शब्द में भी तृतीया) और (सप्तमी विभक्ति होती है)। च-II. iii.47 (सम्बोधन में) भी (प्रथमा विभक्ति होती है)। च-II. iii. 63 (यज धातु के करण कारक में) भी (वेद-विषय में बहुल करके षष्ठी विभक्ति होती है)। च-II. iii.67 (वर्तमान काल में विहित क्त प्रत्यय के प्रयोग में) भी (षष्ठी विभक्ति होती है)। च-II. iii. 68 . (अधिकरण में विहित क्त-प्रत्ययान्त के योग में) भी (षष्ठी विभक्ति होती है)। च-II. iii: 73 (आशीर्वचन गम्यमान हो तो आयुष्य,मद्र,भद्र, कुशल, सुख, अर्थ, हित - इन शब्दों के योग में शेष विवक्षित होने पर विकल्प से चतुर्थी विभक्ति होती है)। चकार से पक्ष में षष्ठी भी होती है। च -II. iv.2 (प्राणी-अङ्गवाची, तूर्य = वाद्य अङ्गवाची तथा सेनाङ वाची शब्दों के द्वन्द्व को) भी (एकवद्भाव हो जाता है)। च-II. iv.9 (जिन जीवों का सनातन विरोध है.तद्वाची शब्दों का द्वन्द) भी (एकवत् होता है)। च-II. iv. 11 (गवाश्व इत्यादि शब्द यथापठित = कृतैकवद्भाव द्वन्द्वरूप) ही (साधु होते हैं)। च-II. iv. 13 (परस्पर विरुद्धार्थक अद्रव्यवाची शब्दों का द्वन्द्व) भी (विकल्प से एकवद् होता है)। च-II. iv. 15 ' (अधिकरण का परिमाण कहने में जो द्वन्दू, वह) भी (एकवत् नहीं होता है)। च-II. iv. 33 (अन्वादेश में वर्तमान एतद् के स्थान में अनुदात्त अश् आदेश होता है) और (वे त्र, तस् प्रत्यय भी अनुदात्त होते हैं)। च-II. iv. 38 (घन और अप आर्धधातुक के परे रहते) भी (अद धातु को घस्ल आदेश होता है)। च:-II. iv. 43 (आर्धधातुक लुङ् परे रहते) भी (हन् को वध आदेश हो जाता है)। च-II. iv. 47 (आर्धधातुक सन् प्रत्यय के परे रहते) भी (अबोधनार्थक इण् धातु को गमि आदेश हो जाता है)। च -II. iv. 48 (इङ् धातु को) भी (गम् आदेश होता है, आर्धधातुक सन् परे रहते)। च-II. iv. 51 (सन्परक, चङ्परक णिच् के परे रहते) भी (इङ को विकल्प से गाङ् आदेश होता है)। च-II. iv. 59 (गोत्रवाची पैलादि शब्दों से) भी (युवापत्य में विहित प्रत्यय का लुक होता है)। च - II. iv. 64 (गोत्र में विहित य और अञ् प्रत्ययों का) भी (तत्कृत बहुत्व में लुक् होता है,स्त्रीलिङ्ग को छोड़कर)। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च - II. iv. 65 इन (अत्रि, भृगु, कुत्स, वसिष्ठ, गोतम, अङ्गिरस् शब्दों से तत्कृतबहुत्व गोत्रापत्य में विहित जो प्रत्यय, उसका भी (लुक् हो जाता है) । - च - II. iv. 74 (अच् प्रत्यय के परे रहते यङ् का लुक् हो जाता है ;) चकार से बहुल करके अच् परे न हो तो भी लुक् हो जाता है। च - III. 1. 2 ( जिसकी प्रत्ययसंज्ञा नहीं है) वह, जिस (धातु का प्रातिपदिक) से (विधान किया जाये, उससे परे होता है, यह अधिकार भी पञ्चमाध्याय की समाप्तिपर्यन्त जानना चाहिये। च - III. 1. 3 (जिसकी प्रत्ययसंज्ञा कही है, वह आद्युदात्त) भी (होता है)। च - III. 1. 6 (मान्, वध, दान् और शान् धातुओं से सन् प्रत्यय होता है) तथा (अभ्यास के विकार को अर्थात् सन्यतः VII. iv. 79 से इत्त्व करने के पश्चात् दीर्घ आदेश हो जाता है)। च - III. 1. 9 (आत्मसम्बन्धी सुबन्त कर्म से इच्छा अर्थ में विकल्प से काम्यच् प्रत्यय) भी (होता है)। च - III. 1. 11 उपमानवाची (सुबन्त कर्त्ता से आचार अर्थ में क्यङ् प्रत्यय विकल्प से होता है, तथा सकारान्त शब्दों के सकार का लोप) भी (विकल्प से होता है)। च - III. 1. 12 (अच्प्रत्ययान्त भृशादि शब्दों से भू धातु के अर्थ में क्यङ् प्रत्यय होता है, और उन भृशादि में विद्यमान हलन्त शब्दों के हल् का लोप) भी (होता है) । भृश = अधिक । च - III. 1. 26 (हेतुमान् के अभिधेय होने पर) भी (धातु से णिच् प्रत्यय होता है)। 210 च - III. 1. 36 (इजादि तथ गुरुमान् धातु से आम् प्रत्यय होता है, लौकिक विषय में लिट् परे रहते, ऋच्छ् धातु को छोड़ कर) । च - III. 1. 37 (दय, अय तथा आस् धातुओं से भी (अमन्त्रविषयक लिट् लकार परे रहते आम् प्रत्यय हो जाता है)। च - III. 1. 39 (भी, ही, भृ एवं हु धातुओं से अमन्त्रविषयक लिट् परे रहते विकल्प से आम् प्रत्यय होता है) और (इनको श्लुवत् कार्य भी हो जाता 1 च - III. 1. 40 (आम्प्रत्यय के पश्चात् कृञ् प्रत्याहार का ) भी (अनुप्रयोग होता है, लिट् परे रहने पर) । च - III. 1. 53 (लिप, सिच तथा ह्वेञ् धातुओं से) भी (कर्तृवाची लुङ् परे रहने पर चिल के स्थान में अङ् आदेश होता है)। च - III. 1. 56 (सृ, शासु तथा ऋ धातुओं से उत्तर) भी (च्लि के स्थान अङ् . आदेश होता है, कर्तृवाची लुङ् परस्मैपद परे रहते । में च - III. 1. 58 (जूष, स्तम्भु, म्रुचु, म्लुचु, ब्रुचु, ग्लुचु, ग्लुचु तथा श्वि धातुओं से उत्तर चिल के स्थान में) भी (विकल्प से अङ् होता है, कर्तृवाची लुङ् परे रहने पर) । च - III. 1. 63 (दुह धातु से उत्तर) भी (च्लि के स्थान में चिण् आदेश विकल्प से होता है, कर्मकर्त्ता में त के परे रहते) । च - III. 1. 65 (तप् धातु से उत्तर लि के स्थान में चिण् आदेश नहीं होता, कर्मकर्त्ता में) तथा (पश्चात्ताप अर्थ में त के परे रहने पर) । च - III. 1. 72 (सम् पूर्वक यस् धातु से) भी (कर्तृवाची सार्वधातुक परे रहते विकल्प से श्यन् प्रत्यय होता है)। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 211 च-III.1.74 च-III. I. 119 (श्रु धातु से श्नु प्रत्यय होता है, कर्तृवाची सार्वधातुक (पद, अस्वैरी, बाह्या, पक्ष्य - अर्थों में) भी (ग्रह धातु परे रहने पर साथ ही श्रु धातु को श्रृ आदेश) भी होता से क्यप् प्रत्यय होता है)। च-III. I. 121 च-III.1.80 (वाहन अभिधेय हो तो युज् धातु से भी क्यप प्रत्यय) (विवि,कृवि धातुओं से उ प्रत्यय) तथा (उनको अकार तथा (जकार को कुत्व युग्य शब्द में निपातन किया जाता अन्तादेश (पी) हो जाता है,कर्तृवाची सार्वधातुक परे रहने है)। पर)। च-III. 1. 126 च-III. 1.82 (आङ्पूर्वक घु, यु,वप, रस, लपत्रप् और चम् - इन धातुओं से) भी (ण्यत् प्रत्यय होता है)। (स्तम्भु, स्तुम्मु, स्कम्मु, स्कुम्भु तथा स्कुञ् धातुओं से । स्न) तथा (श्ना प्रत्यय होते हैं,कर्तवाची सार्वधातक परे च-III. I. 132 रहने पर)। (अग्नि अभिधेय हो तो चित्य तथा अग्निचित्या शब्द) च-III.1.90 भी (निपातन किये जाते हैं)। (कुष और रन धातु को कर्मवद्भाव में श्यन् प्रत्यय) च - III. 1. 136 और (परस्मैपद होता है, प्राचीन आचार्यों के मत में)। (आकारान्त धातुओं से) भी (उपसर्ग उपपद रहते क च-III.1.99 प्रत्यय होता है)। (शक्ल शक्तौ और यह मर्षणे धातुओं से ) भी (यत् . च - III. 1. 138 प्रत्यय होता है)। (उपसर्गरहित लिम्प,विद,धारि,पारि,वेदि,उदेजि,चेति, च-III. 1. 100 साति, और साहि धातुओं से) भी (श प्रत्यय होता है)। (गद,मद,चर,यम्-इन उपसर्गरहित धातुओं से) भी च-III. I. 141 : (यत् प्रत्यय होता है)। (श्यैङ् आ, आकारान्त, व्यद्य, आङ् और सम्पूर्वक स्नु, च-III. 1. 106 अतिपूर्वक इण, अवपूर्वक सा, अवपूर्वक ह, लिह, श्लि, श्वस्-धातुओं से) भी (ण प्रत्यय होता है)। (उपसर्गरहित वद् धातु से सुबन्त उपपद रहते हुए क्यप् च-III. 1. 147 प्रत्यय होता है, तथा) चकार से (यत् भी होता है)। शिल्पी कर्ता वाच्य हो तो गा धातु से युट् प्रत्यय) भी च-III. 1. 108 (होता है)। (अनुपसर्ग हन् धातु से सुबन्त उपपद रहते भाव में च-III. 1. 148 (व्रीहि और काल अभिधेय हो, तो हा धातु से) ण्युट क्या होता है, तथा तकार अन्तादेश) भी (होता है)। प्रत्यय होता है)। च-II. 1. 110 च-III. 1. 150 (ऋकार उपधावाली धातुओं से) भी (क्यप् प्रत्यय होता (आशीर्वाद अर्थ गम्यमान होने पर) भी (धातुमात्र से है,क्लपि और चूति धातुओं को छोड़कर)। वुन् प्रत्यय होता है)। च-III. 1. 111 च-III. 1.2 (खन् धातु से क्यप् प्रत्यय होता है तथा अन्त्य अल् (हेज, वेज् माङ् - इन धातुओं से) भी (कर्म उपपद को ईकारादेश) भी (होता है)। रहते अण् प्रत्यय होता है)। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212 च-III. 1. 10 च-III. ii.64 (आयु गम्यमान हो तो) भी (कर्म उपपद रहते हज् धातु (वह धातु से) भी (वेदविषय में सुबन्त उपपद रहते ण्वि से अच् प्रत्यय होता है)। प्रत्यय होता है)। च-III. ii. 17 च-III. 1.69 (भिक्षा, सेना, आदाय शब्द उपपद रहते) भी (चर् धातु सेट प्रत्यय होता है)। (क्रव्य सुबन्त उपपद रहते) भी (अद् धातु से विट् प्रत्यय च-III. 1. 26 होता है)। (फलेग्रहि) और (आत्मम्भरि शब्द इन् प्रत्ययान्त निपातन च-III. ii. 70 किये जाते है)। (दुह धातु से सुबन्त उपपद रहते कप् प्रत्यय होता है) च-III. ii. 30 तथा (अन्त्य हकार को घकारादेश होता है)। (नाडी और मुष्टि कर्म उपपद रहते) भी (ध्मा तथा धेट .. है च- III. 1.74 धातुओं से खश् प्रत्यय होता है)। (आकारान्त धातुओं से सुबन्त उपपद रहते मनिन्, . च-III. 1.34 क्वनिप, वनिप) तथा (विच् प्रत्यय होते हैं)। मित और नख कर्म उपपद हो तो भी पिच धात मे च-III. ii. 76 खश् प्रत्यय होता है। (सोपपद हों चाहे निरुपपद, लोक तथा वेद में सब च -III. 1. 37 धातुओं से क्विप् प्रत्यय) भी (होता है)। (उग्रम्पश्य, इरम्मद तथा पाणिन्धम ये शब्द) भी (खश च- III. ii. 77 प्रत्ययान्त निपात न किये जाते है।। (सुबन्त उपपद रहते सोपसर्ग या निरुपसर्ग स्था धातु च-III. 1.44 से क) तथा (क्विप् प्रत्यय होता है)। (क्षेम,प्रिय,मद्र-इन कमों के उपपद रहते कब धातु च - III. ii. 83 से अण् प्रत्यय होता है) तथा चकार से खच् प्रत्यय भी (आत्ममान अर्थात् अपने आप को मानना अर्थ में वर्तहोता है। मान मन् धातु से खश् प्रत्यय होता है), चकार से णिनि च-III. ii. 48 भी होता है। (संज्ञा गम्यमान होने पर कर्म उपपद रहते गम् धातु से) च- III. 1.96 भी (खच् प्रत्यय होता है)। (सह शब्द उपपद रहते) भी (युध् तथा कृञ् धातुओं से च-III. ii. 53 भूतकाल में क्वनिप् प्रत्यय होता है)। (मनुष्यभिन्न कर्ता अर्थ में वर्तमान हन् धातु से) भी च- III. 1. 98 (कर्म उपपद रहने पर टक् प्रत्यय होता है)। (उपसर्ग उपपद रहते) भी (संज्ञा विषय में जन् धातु से च-III. ii. 59 भूतकाल में ड प्रत्यय होता है)। . (ऋत्विक. दधक, स्रक, दिक्, उष्णिक्-ये पाँच शब्द च-III.1.107 क्विन प्रत्ययान्त निपातन किये जाते हैं । अञ्च, युज् तथा विट-विषय में लिट के स्थान में क्वस आदेश) भी क्रु धातुओं से) भी (क्विन् प्रत्यय होता है)। (विकल्प से होता है)। च-III. ii. 60 . च- III. ii. 109 (त्यदादि शब्द उपपद रहते आलोचन = देखना से भिन्न अर्थ में वर्तमान दृश् धातु से कब और (क्विन् प्रत्यय (क्वसु-प्रत्ययान्त उपेयिवान, अनाश्वान, अनूचान शब्द) होते है)। भी (निपातन किये जाते है)। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 213 च- III. ii. 116 च- III. ii. 148 (ह तथा शश्वत् शब्द उपपद हों तो धातु से अनद्यतन (सोपसर्ग दिव तथा क्रुश् धातुओं से) भी (तच्छीलादि परोक्ष भूतकाल में लङ् प्रत्यय होता है), और चकार से कर्ता हो तो वर्तमानकाल में वज प्रत्यय होता है)। लिट भी होता है। च - III. ii. 149 च- III. ii. 117 (अनुदात्तेत, हलादि धातुओं से) भी (तच्छीलादि कर्ता (समीपकालिक प्रष्टव्य अनद्यतन परोक्ष भूतकाल में । हो.तो वर्तमानकाल में यच प्रत्यय होता है)। वर्तमान धातु से) भी (लङ् तथा लिट् प्रत्यय होते है)। च III. ii. 151 च - III. ii. 119 (अपरोक्ष अनद्यतन भूतकाल में) भी (वर्तमान धातु से ___ (क्रोधार्थक और मण्डनार्थक धातुओं से) भी (तच्छीस्म उपपद रहते लट् प्रत्यय होता है)। लादि कर्ता हो, तो वर्तमानकाल में युच् प्रत्यय होता है)। च-III. ii. 122 च-III. 1. 153 (स्म-शब्द-रहित पुरा शब्द उपपद हो तो अनद्यतन भूत (खूद, दीपी, दीक्ष - इन धातुओं से) भी (तच्छीलादि काल में धातु से लङ्ग प्रत्यय विकल्प से होता है) और कर्ता हो, तो वर्तमानकाल में युच प्रत्यय नहीं होता)। चकार से लट् भी होता है। च-III. ii. 157 च-III. ii. 125 (जि, दृङ्, क्षि, विपूर्वक श्रिज, इण, वम, नपूर्वक व्यथ, (सम्बोधन विषय में) भी (धातु से लट् के स्थान में शत, अभिपूर्वक अम, परिपूर्वक भू,प्रपूर्वक षू - इन धातुओं से) भी (तच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमानकाल में इनि . शानच आदेश होते है)। प्रत्यय हो जाता है)। च - III. ii. 138 च-III. ii. 164 (भू धातु से) भी (वेद-विषय में तच्छीलादि कर्ता हो तो (गत्वर शब्द) भी (क्वरप् प्रत्ययान्त निपातन किया वर्तमान काल में इष्णुच् प्रत्यय होता है)। जाता है)। च- III. ii. 139 च-III. ii. 171 (एला,जि,स्था) तथा चकार से भू धातु से भी (वर्तमान (आत् = आकारान्त,ऋ = ऋकारान्त तथा गम.हन, काल में कस्नु प्रत्यय होता है, तच्छीलादि कर्ता हो तो)। जन धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हों तो वेद-विषय में च - III. ii. 142 वर्तमानकाल में कि तथा किन् प्रत्यय होते हैं) और (उन (सम्पूर्वक पृची, अनुपूर्वक रुधिर, आयूर्वक यम्, कि, किन् प्रत्ययों को लिट् के समान कार्य होता है)। आङ्पूर्वक यसु, परिपूर्वक स, सम्पूर्वक सृज्, परिपूर्वक च -III. ii. 176 देव, सम्पूर्वक ज्वर, परिपूर्वक क्षिप, परिपूर्वक रट, परिपूर्वक वद, परिपूर्वक दह,परिपूर्वक मुह,दुष,द्विष,द्रुह,दुह, (यङन्त ‘या प्रापणे' धातु से) भी (तच्छीलादि कर्ता हो, युज, आयूर्वक क्रीड़, विपूर्वक विचिर, त्यज, रञ्ज, भज, __तो वर्तमानकाल में वरच् प्रत्यय होता है)। अतिपूर्वक चर, अपपूर्वक चर, आङ्पूर्वक मुष, अभि च - III. ii. 186 आयूर्वक हन् - इन धातुओं से) भी (तच्छीलादि कर्ता (पूज् धातु से ऋषिवाची करण में) तथा (देवतावाची हो तो वर्तमानकाल में घिनुण प्रत्यय होता है)। कर्ता में इत्र प्रत्यय होता है, वर्तमानकाल में)। च- III. ii. 144 च- III. ii. 188 (अपपूर्वक तथा) चकार से विपूर्वक लष् धातु से भी । __(मत्यर्थक, बुद्ध्यर्थक तथा पूजार्थक धातुओं से) भी .(घिनुण प्रत्यय होता है)। (वर्तमानकाल में क्त प्रत्यय होता है)। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 च- III. ill.7 (चाहे जाते हुये अभीष्ट पदार्थ से सिद्धि गम्यमान हो तो) भी (भविष्यत् काल में धातु से विकल्प से लट् प्रत्यय होता है)। चं-III. ill.8 (लोडर्थ लक्षण में वर्तमान धातु से) भी (भविष्यत् काल में विकल्प से लट् प्रत्यय होता है)। च-III. 1.9 (मुहर्त से ऊपर भविष्यकाल को कहना हो तो लोडर्थ- लक्षण में वर्तमान धातु से लिङ् प्रत्यय भी होता है, और लट) भी। च- III. iii. 11 क्रियार्थ क्रिया उपपद हो तो भविष्यकाल में धातु से भाववाचक प्रत्यय) भी होते है)। च-III. iii. 12 (क्रियार्थ क्रिया) तथा (कर्म उपपद रहते हुए धातु से भविष्यत् काल में अण प्रत्यय होता है)। च- III. iii. 13 (धातु से केवल भविष्यत् काल में) तथा चकार से क्रियार्थ क्रिया उपपद रहने पर भी (भविष्यत् काल में लृट् प्रत्यय होता है)। च- III. iii. 19 (कर्तभिन्न कारक में) भी (धातु से संज्ञाविषय में घन् प्रत्यय होता है)। च -III. 1. 21 (इङ् धातु से) भी (कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है)। च-III. iii. 34 विपूर्वक स्तन धातु से छन्द का नाम कहना हो तो) भी (कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है। च-III. 11.40 (चोरी से भिन्न. हाथ से ग्रहण करना गम्यमान हो तो) चिञ् धातु से (कर्तृभिन्न कारक और भाव में घञ् प्रत्यय होता है)। च-III. iii. 41 (निवास,जो चुना जाये,शरीर तथा राशि अर्थों में चिञ् धातु से घञ् प्रत्यय होता है) तथा (चि के आदि चकार को ककारादेश हो जाता है, कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में)। च-III. Iii. 42 ऊपर नीचे स्थित न होने वाला संघ वाच्य हो तो) भी (चिञ् धातु से घञ् प्रत्यय होता है, तथा आदि चकार को ककारादेश हो जाता है, कर्तृभिन्न कारक संज्ञा एवं भाव में)। च - III. iii. 53 (घोड़े की लगाम वाच्य हो तो) भी (प्रपूर्वक ग्रह धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है,पक्ष में अप् होता है)। च- III. iii. 58 (प्रह,व,दृ तथा निर् पूर्वक चि एवं गम् धातुओं से) भी (कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में अप् प्रत्यय होता है)। च-III. 11.60 निपूर्वक अद् धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में ण प्रत्यय भी होता है, अप) भी। च- III. iii. 63 (सम.उप.नि.वि उपसर्ग पर्वक तथा निरुपसर्ग) भी . (यम् धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में विकल्प से अप् प्रत्यय होता है), पक्ष में घञ्। च - III. iii. 65 . नि-पूर्वक, अनुपसर्ग तथा वीणा विषय होने पर) भी (क्वण धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में विकल्प से अप् प्रत्यय होता है, पक्ष में घड़)। च-III. iii. 72 (नि, अभि, उप तथा वि पूर्वक हे धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में अप् प्रत्यय होता है, तथा हे को सम्प्रसारण) भी होता है)। च- II. ifi.16 (हन् धातु से भाव में अप् प्रत्यय होता है, तथा प्रत्यय के साथ ही (हन् को वध आदश भी हो जाता है)। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 215 च- III. iii. 79 च- III. iii. 116 (गृह का एकदेश वाच्य हो तो प्रघण और प्रघाण शब्द (जिस कर्म के संस्पर्श से कर्ता के शरीर में सुख उत्पन्न में प्र-पूर्वक हन् धातु से अप् प्रत्यय) और (हन को घन हो, ऐसे कर्म के उपपद रहते) भी (धातु से ल्युट् प्रत्यय आदेश कर्तभिन्न कारक में निपातन किये जाते है)। होता है)। च-III. iii. 83 च- III. iii. 117 (स्तम्ब शब्द उपपद रहते करण कारक में हन् धातु से (धातु से करण और अधिकरण कारक में) भी (ल्युट क तथा अप् प्रत्यय) भी होता है, और अप् प्रत्यय परे प्रत्यय होता है)। रहने पर हन को घन आदेश भी हो जाता है)। च- III. iii. 119 च- III. 1. 93 (गोचर, सञ्चर, वह, व्रज, व्यज, आपण और निगम शब्द) भी (घ-प्रत्ययान्त पुंल्लिङ्ग करण या अधिकरण __ (कर्म उपपद रहने पर अधिकरण कारक में) भी (घु कारक में संज्ञा विषय में निपातन किये जाते है)। संज्ञक धातुओं से कि प्रत्यय होता है)। च-III. iii. 121 च- III. 1.97 (हलन्त धातुओं से) भी (संज्ञाविषय होने पर करण तथा (ऊति, यति, जूति, साति, हेति और कीर्ति शब्द) भी अधिकरण कारक में प्रायः करके घञ् प्रत्यय होता है, (अन्तोदात्त निपातन से सिद्ध होते हैं)। पुंल्लिङ्ग में)। . च- III. II. 100 च-III. iii. 122 . (कृज् धातु से स्त्रीलिङ्ग कर्तभिन्न संज्ञा तथा भाव में (अध्याय,न्याय,उद्याव तथा संहार-ये घजन्त शब्द) श प्रत्यय होता है, तथा) चकार से क्यप भी होता है। भा (पुल्लिङ्ग करण तथा अधिकरण कारक संज्ञा में निपा तन किये जाते है)। च-III. 1. 103 · उद्याव = सबके एकत्र होने का स्थान। (हलन्त,जो गुरुमान् धातु, उनसे) भी (स्त्रीलिङ्ग कर्तृ च -III. iii. 125 भिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में अप्रत्यय हो जाता है)। (खन् धातु से पुंल्लिङ्ग करणाधिकरण कारक संज्ञा में च- III. iii. 105 घ प्रत्यय होता है, तथा) चकार से घञ् भी होता है। '. (चिन्त, पूज, कथ, कुम्ब तथा चर्च् धातुओं से) भी च-III. ii. 127 (स्त्रीलिङ्गकर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में अङ् प्रत्यय होता है)। (भू तथा कृञ् धातु से यथासङ्ख्य करके कर्ता एवं कर्म उपपद रहते चकार से दुःख अथवा सुख अर्थ में च-III. iii. 106 वर्तमान ईषद्,दुस् तथा सु उपपद हों तो) भी (खल् प्रत्यय (उपसर्ग उपपद रहते आकारान्त धातुओं से) भी होता है)। (स्त्रीलिङग कर्तभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव म अङ् च-III. iii. 132 प्रत्यय होता है)। (आशंसा गम्यमान होने पर धातु से भूतकाल के समान च- III. iii. 110 तथा वर्तमानकाल के समान) भी (विकल्प से प्रत्यय हो (उत्तर तथा परिप्रश्न गम्यमान होने पर धातु से स्त्रीलिङ्ग जाते है)। कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में विकल्प से इञ् प्रत्यय . च- III. iii. 137 होता है, तथा) चकार से ण्वुल भी होता है। (कालकृत मर्यादा में अवर भाग को कहना हो तो) भी च- II. II. 115 (भविष्यत् काल में धातु से अनद्यतनवत् प्रत्ययविधि नहीं (नपुंसकलिङ्ग भाव में धातु से ल्युट् प्रत्यय) भी (होता होती.यदि वह काल का मर्यादा-विभाग दिनरातसम्बन्धी न हो)। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 च- III. iii. 140 च-III. iii. 171 लिङ्का निमित्त हेतुहेतुमत् आदि हो तो क्रियातिपत्ति (आवश्यक और आधमर्ण्य विशिष्ट अर्थ हों तो धातु से होने पर भूतकाल में) भी (धातु से लङ् प्रत्यय होता है)। कत्यसंज्ञक प्रत्यय) भी हो जाते है)। च-III. iii. 143 च-III. iii. 172 ___(गर्दा गम्यमान हो तो कथम् शब्द उपपद रहते (शक्यार्थ गम्यमान हो तो धातु से लिङ् प्रत्यय होता है, विकल्प से लिङ् प्रत्यय होता है), तथा चकार से लट् तथा) चकार से कृत्यसंज्ञक प्रत्यय भी होते हैं। प्रत्यय भी होता है। च-III. iii. 174 च - III. ill. 149 (आशीर्वाद विषय में धातु से क्तिच् और क्त प्रत्यय) (गर्दा गम्यमान हो तो) भी (यच्च और यत्र उपपद रहते भी होते हैं, यदि समुदाय से संज्ञा प्रतीत हो)। धातु से लिङ् प्रत्यय होता है)। च-III. iii. 176 च- III. iii. 150 (माङ् शब्द के साथ स्म शब्द भी उपपद रहते धात (आश्चर्य गम्यमान हो तो) भी (यच्च और यत्र उपपद से लङ् तथा) चकार से लुङ् प्रत्यय होता है। रहने पर धातु से लिङ् प्रत्यय होता है)। च-III. iv.2 (क्रिया का पौनःपुन्य गम्यमान हो तो धातु से धात्वर्थच-III. III. 159 सम्बन्ध होने पर सब कालों में लोट् प्रत्यय हो जाता है, (समानकर्तृक इच्छार्थक धातुओं के उपपद रहते धातु और उस लोट् के स्थान में नित्य हि और स्व आदेश होते से लिङ् प्रत्यय) भी (होता है)। है),तथा (त, ध्वम् भावी लोट के स्थान में विकल्प से हि. च-III. III. 162 स्व आदेश होते है)। (विधि, निमन्त्रण, आमन्त्रण, सम्प्रश्न, प्रार्थना अर्थों में च-III. iv.8 लोट् प्रत्यय) भी होता है। (उपसंवाद तथा आशंका गम्यमान हो तो) भी (धातु से - च-III. III. 163 वेद-विषय में लेट् प्रत्यय होता है)। (प्रेषण करना, कामचार पूर्वक आज्ञा देना, समय आ च - III. iv. 11 जाना - इन अर्थों में धातु से कृत्य संज्ञक प्रत्यय होते हैं, (दृशे तथा विख्ये शब्द) भी ( वेदविषय में तुमुन् के तथा) चकार से लोट् भी होता है। अर्थ में के प्रत्ययान्त निपातन किये जाते हैं)। च-III. 1. 164 च-III. iv. 15 (प्रैष, अतिसर्ग,तथा प्राप्तकाल अर्थ गम्यमान हों तो (कृत्यार्थ अभिधेय हो, तो वेद-विषय में अव-पूर्वक मुहूर्त से ऊपर के काल को कहने में धातु से लिङ् प्रत्यय चक्षिङ् धातु से शेन् प्रत्ययान्त अवचक्षे शब्द) भी (निपाहोता है, तथा) चकार से यथाप्राप्त कृत्यसंज्ञक एवं लोट तन किया जाता है)। प्रत्यय होते हैं। च-III. iv. 20 च-III. III. 166 (सत्कार गम्यमान हो तो) भी (स्म शब्द उपपद रहते (जब पर का अवर के साथ या पर्वका पर के साथ योग धात से लोट प्रत्यय होता है)। गम्यमान हो,तो) भी (धातु से क्त्वा प्रत्यय होता है)। च-III. iii. 169 च-III. iv. 22 (योग्य कर्ता वाच्य हो या गम्यमान हो तो धातु से ___(पौनःपुन्य अर्थ में समानकर्तृक दो धातुओं में जो कृत्यसंज्ञक तथा तृच प्रत्यय हो जाते है) तथा चकार से पूर्वकालिक धातु, उससे णमुल् प्रत्यय होता है),चकार से लिङ् भी होता है। क्त्वा भी होता है। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 217 च -III. iv. 32 (वर्षा का प्रमाण गम्यमान हो तो कर्म उपपद रहते ण्यन्त पूरी धातु से णमुल् प्रत्यय होता है),तथा (इस पूरी धातु के ऊकार का लोप विकल्प से होता है)। च-III. iv.45 · (उपमानवाची कर्म) और कर्ता भी उपपद रहते (धातुमात्र से णमुल् प्रत्यय होता है)। च-III. iv. 48 (अनुप्रयुक्त धातु के साथ समान कर्मवाली हिंसार्थक धातुओं से) भी (तृतीयान्त उपपद रहते णमुल प्रत्यय होता है)। च -III. iv. 49 . (तृतीयान्त तथा सप्तम्यन्त उपपद हो तो उपपूर्वक पीड, रुध तथा कर्ष धातुओं से) भी (णमुल् प्रत्यय होता है)। च-III. iv.51 (आयाम = लम्बाई गम्यमान हो तो) भी (सप्तम्यन्त तथा तृतीयान्त उपपद रहते धातु से णमुल् प्रत्यय होता है)। च- III. iv. 53 . (द्वितीयान्त उपपद रहते) भी (शीघ्रता गम्यमान हो तो .. धातु से णमुल् प्रत्यय होता है)। च-III. iv.55 (चारों ओर से क्लेश को प्राप्त स्वाङ्गवाची द्वितीयान्त शब्द उपपद हो तो) भी (धातु से णमुल् प्रत्यय होता है)। च-III. iv.69 (सकर्मक धातुओं से लकार कर्मकारक में होते हैं. चकार से कर्ता में भी होते हैं, और अकर्मक धातुओं से भाव में होते हैं,तथा) चकार से कर्ता में भी होते हैं। च-III. iv.69 ___(सकर्मक धातुओं से लकार कर्मकारक में होते हैं, चकार से कर्ता में भी होते हैं, और अकर्मक धातुओं से भाव में होते हैं,तथा) चकार से कर्ता में भी होते हैं। च-III. iv.71 (क्रिया के आरम्भ के आदि क्षण में विहित जो क्त प्रत्यय, वह कर्ता में होता है, तथा) चकार से भावकर्म में भी होता है। च-III. iv.72 (गत्यर्थक. अकर्मक,श्लिष,शीङ्, स्था, आस,वस,जन, रुह तथा जू धातुओं से विहित जो क्त प्रत्यय, वह कर्ता में होता है); चकार से भाव, कर्म में भी होता है। च -III. iv.76 (स्थित्यर्थक = अकर्मक,गत्यर्थक तथा प्रत्यवसानार्थक धातुओं से विहित जो क्त प्रत्यय,वह अधिकरण कारक में होता है,तथा) चकार से यथाप्राप्त कर्म.कर्ता में भी होता है। च-III. iv.87 (लोडादेश, जो सिप, उसके स्थान में हि आदेश होता है, और वह अपित्) भी (होता है)। च-III. iv.92 (लोट-सम्बन्धी उत्तमपुरुष को आट् का आगम हो जाता है,और वह उत्तम पुरुष पित) भी (माना जाता है)। च -III. iv.97 (परस्मैपदविषय में लेट-लकार-सम्बन्धी इकार का) भी (विकल्प से लोप हो जाता है)। च-III. iv. 100 (डित-लकार-सम्बन्धी इकार का) भी (नित्य ही लोप हो जाता है)। च-III. iv. 103 (परस्मैपद के लिङ् लकार को यासुट का आगम होता है, और वह उदात्त तथा ङित् के समान) भी (होता है)। च-III. iv. 109 (सिच से उत्तर, अभ्यस्त-संज्ञक से उत्तर तथा विद् धातु से उत्तर) भी (झि को जुस् आदेश होता है)। च-III. iv. 112 (द्विषु धातु से परे) भी (लङादेश झि के स्थान में जुस् आदेश होता है,शाकटायन आचार्य के ही मत में)। ' (लिडादेश जो तिबादि, उनकी) भी (आर्धधातुक-संज्ञा होती है)। च-V.I.6 उगिदन्तं प्रातिपदिक से) भी (स्त्रीलिङ्ग में ङीप् प्रत्यय होता है)। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 च-IV.I.7 च-IV.1.54 (वन्नन्त प्रातिपदिकों से स्त्रीलिङ्ग में ङीप प्रत्यय होता है (स्वाङ्गवाची जो उपसर्जन, असंयोग उपधावाले अदन्त तथा उस वन्नन्त प्रातिपदिक को रेफ अन्तादेश) भी (हो प्रातिपदिक, उनसे) भी (स्त्रीलिङ्ग में विकल्प से डीप प्रत्यय जाता है)। होता है)। च-IV.i.16 च-IV.i. 55 (अनुपसर्जन यजन्त प्रातिपदिक से) भी (स्त्रीलिङ्ग में डीप् (नासिका,उदर इत्यादि जो स्वाङ्गवाची उपसर्जन,तदन्त प्रत्यय होता है)। प्रातिपदिकों से) भी (स्त्रीलिङ्ग में विकल्प से ङीष प्रत्यय च-IV.I. 19 होता है, पक्ष में टाप भी होता है)। (कोरव्य तथा माण्डूक अनुपसर्जन प्रातिपदिकों से) भी च-IV.1.57 (स्त्रीलिङ्ग में ष्फ प्रत्यय होता है, और वह तद्धित-संज्ञक (सह, नज, विद्यमान- ये शब्द पूर्व में हों और स्वार होता है)। वाची उपसर्जन अन्त में हो जिनके, उन प्रातिपदिकों से) च-IV.I.27 भी (स्त्रीलिङ्ग में ङीष् प्रत्यय नहीं होता)। (संख्या आदि वाले दाम और हायन शब्दान्त बहुव्रीहि च-IV.1.59 प्रातिपदिक से) भी (स्त्रीलिङ्ग में डीप् प्रत्यय होता है)। (वेद-विषय में डोष्-प्रत्ययान्त दीर्घजिही शब्द) भी च-IV.1.30 .. (निपातन होता है)। (केवल, मामक आदि शब्दों से) भी (संज्ञा तथा छन्द च-IV. 1.64 विषय में स्त्रीलिङ्ग में डीप् प्रत्यय होता है)। (पाक, कर्ण, पर्ण, पुष्प, फल, मूल, वाल - शब्द च-IV.I.31 उत्तरपद में हो तो) भी (जातिवाची प्रातिपदिक से स्त्रीलिङ्ग (रात्रि शब्द से) भी (स्त्रीलिङ्ग विवक्षित होने पर जस् में अष् प्रत्यय होता है)। विषय से अन्यत्र, संज्ञा तथा छन्द-विषय में डीप् प्रत्यय च-IV.I. 68 होता है)। (पङ्ग शब्द से) भी (स्त्रीलिङ्ग में ऊङ् प्रत्यय होता है)। च-IV. 1. 36. च-IV.1.70 (अनुपसर्जन प्रतक्रतु प्रातिपदिक से स्त्रीलिङ्ग में डीप अनुपसजन पूतक्रतु प्रातिपादक स लाला म प् (संहित,शफ.लक्षण,वाम आदि वाले ऊरूत्तरपद प्रातिप्रत्यय होता है, तथा ऐकार अन्तादेश) भी हो जाता है। पदिकों से) भी (स्त्रीलिङ्ग में ऊङ् प्रत्यय होता है)। च-IV.i.41 च-IV.1.75 (षित् प्रातिपदिकों तथा गौरादि प्रातिपदिकों से) भी (अनुपसर्जन आवट्य शब्द से) भी (स्त्रीलिङ्ग में चाप् (स्त्रीलिङ्ग में डीप् प्रत्यय होता है)। प्रत्यय होता है)। च-IV.i. 45 च-IV.I.80 (बहु आदि प्रातिपदिकों से) भी (स्त्रीलिङ्ग में विकल्प से (गोत्र में वर्तमान क्रौड्यादि प्रातिपदिकों से) भी (स्त्रीलिङ्ग ङीष् प्रत्यय होता है)। में ष्यङ् प्रत्यय होता है)। च-IV.i.47 च-IV.I.84 (वेद-विषय में अनुपसर्जन भू-शब्दान्त प्रातिपदिकों से) (अश्वपति आदि समर्थ प्रातिपदिकों से) भी (प्राग्दीव्यभी (स्त्रीलिङ्ग में नित्य ही ङीष् प्रत्यय होता है)। तीय अर्थों में अण प्रत्यय होता है)। च-IV.i. 52 च-IV.1.96 (बहुव्रीहि समास में) भी (जो क्तान्त अन्तोदात्त प्राति- (बाहु आदि प्रातिपदिकों से) भी (तस्यापत्यम्' अर्थ में पदिक,उनसे स्त्रीलिङ्ग में ङीष् प्रत्यय होता है)। इञ् प्रत्यय होता है)। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 219 च-V.1.97 च-IV.i. 144 (सुधातृ शब्द से 'तस्यापत्यम्' अर्थ में इब् प्रत्यय होता (प्रातृ शब्द से अपत्य अर्थ में व्यत्) तथा चकार से छ है, तथा सुधात शब्द को अकङ् आदेश) भी (होता है)। प्रत्यय होता है। च-IV.I. 101 च-V.I. 147 (गोत्र में विहित जो यञ् और इञ् प्रत्यय, तदन्त से) भी । (गोत्र में वर्तमान जो स्त्री,तद्वाची प्रातिपदिक से कुत्सन (तस्यापत्यम्' अर्थ में फक् प्रत्यय होता है)। गम्यमान होने पर अपत्य अर्थ में ण प्रत्यय होता है), और च-V.1. 108 (ठक भी होता है)। (वतण्ड शब्द से) भी (आङ्गिरस गोत्र को कहना हो तो च-IV.I. 149 यञ् प्रत्यय होता है)। (फिजन्त वृद्ध-संज्ञक सौवीर गोत्रापत्य प्रातिपदिक से च-V.1.114 कुत्सित युवापत्य के कहने में छ) तथा चकार से ठक. (ऋषिवाची तथा अन्धक वृष्णि और कुरु वंश वाले प्रत्यय (बहुल करके होता है)। समर्थ प्रातिपदिकों से) भी (अपत्य अर्थ में अण प्रत्यय च-IV.i. 152 होता है)। (सेना अन्त वाले प्रातिपदिकों से, लक्षण शब्द से तथा च-IV.i. 116 शिल्पीवाची प्रातिपदिकों से) भी (अपत्यार्थ में ण्य प्रत्यय (कन्या शब्द से अपत्य अर्थ में अण् प्रत्यय होता है, होता है)। तथा अण् परे रहने पर कन्या शब्द को कनीन आदेश) च-IV.I. 155 भी (हो जाता है)। (कौसल्य तथा कार्मार्य शब्दों से) भी (अपत्य अर्थ में च-V.I. 119 फिञ् प्रत्यय होता है)। (मण्डूक प्रातिपदिक से ढक् प्रत्यय होता है तथा विकल्प च - IV.i. 158 से अण) भी (होता है)। (गोत्रभिन्न वृद्ध-संज्ञक वाकिनादि प्रातिपदिकों से च-V.I. 122 उदीच्य आचार्यों के मत में अपत्यार्थ में फिञ् प्रत्यय) (इकारान्त अनिबन्त व्यचं प्रातिपदिकों से) भी (अपत्य तथा (कुक का आगम होता है)। में ढक् प्रत्यय होता है)। च -IV.i. 161 च-V.I. 123 (मन शब्द से जाति को कहना हो तो अब तथा यत् (शप्रादि प्रातिपदिकों से) भी (अपत्य अर्थ में ढक प्रत्यय होते हैं, तथा मनु शब्द को षुक् आगम) भी (हो प्रत्यय होता है)। जाता है)। च-V.I. 125 च-IV. 1. 164 (धू प्रातिपदिक से अपत्य अर्थ में ढक् प्रत्यय होता है, (बड़े भाई के जीवित रहते पौत्रप्रभृति का जो अपत्य छोटा भाई,उसकी) भी (युवा संज्ञा हो जाती है)। तथा धू को वुक् का आगम) भी होता है)। च-IV.i. 167 च-IV. 1. 134 (जनपदवाची क्षत्रियाभिधायी साल्वेय तथा गान्धारि पितृष्वस प्रातिपदिक को जो कुछ कहा है,वह मातृष्वस शब्दों से) भी (अपत्य अर्थ में अञ् प्रत्यय होता है)। शब्द को) भी (होता है)। च-IV. 1. 174 च-IV.i. 136 (क्षत्रियाभिधायी, जनपदवाची जो अवन्ति, कुन्ति तथा (गष्ट्यादि प्रातिपदिकों से) भी (अपत्य अर्थ में ढब् कुरु शब्द, उनसे) भी (उत्पन्न जो तद्राज-संज्ञक प्रत्यय, प्रत्यय होता है)। उनका स्त्रीलिङ्ग अभिधेय हो तो लक हो जाता है)। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 च-V.I. 175 (स्त्रीलिङ्ग अभिधेय हो, तो तद्राज-संज्ञक अकार प्रत्यय का) भी (लुक् हो जाता है)। च-IV. 1.27 (प्रथमासमर्थ टेवतावाची अपोनप्त तथा अपांनप्त शब्दों से छ प्रत्यय) भी (होता है)। च-IV. 1. 28 (प्रथमासमर्थ देवतावाची महेन्द्र प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ में घ, अण) तथा (छ प्रत्यय भी होते हैं)। च-IV. 1.31 (प्रथमासमर्थ देवतावाची द्यावापृथिवी, शुनासीर, मरुत्वत्, अग्नीषोम, वास्तोष्पति तथा गृहमेध प्रातिपदिकों से छ) तथा (यत् प्रत्यय होता है)। च-IV. II. 39 (षष्ठीसमर्थ केदार शब्द से यज्) तथा (चकार से वुञ् प्रत्यय होता है)। च-v.ii. 40 (षष्ठीसमर्थ कवचिन् शब्द से समूह अर्थ में ठन प्रत्यय) भी (होता है)। च-IV.II. 44 (षष्ठीसमर्थ खण्डिकादि प्रादिपदिकों से) भी (समूहार्थ को कहने में अब प्रत्यय होता है)। च - IV.II.50 (षष्ठीसमर्थ खल.गो.रथ प्रातिपदिकों से समूह अर्थ में यथासङ्ख्य इनि,त्र तथा कट्यच् प्रत्यय) भी (होते हैं)। च-IV.ii.64 (द्वितीयासमर्थककार उपधावाले सूत्रवाची प्रातिपदिकों से) भी (तदधीते तद्वेद' अर्थ में उत्पन्न प्रत्यय का लुक् हो जाता है)। च-IV. 1.65 (प्रोक्तप्रत्ययान्त छन्द और ब्राह्मणवाची शब्द) भी (अध्येत, वेदितृ-प्रत्यय-विषयक होते हैं, अन्य प्रोक्तप्र- त्ययान्त शब्दों का केवल प्रोक्त अर्थमात्र में ही प्रयोग होता है। च-IV. 1.69 (षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिक से निकट होने के अर्थ में) भी (यथाविहित प्रत्यय होते हैं)। च-IV. 1.71 (जिस मतप के परे रहते बहत अच वाला अङ्ग हो उस मत्वन्त प्रातिपदिक से) भी (अञ् प्रत्यय होता है)। च-IV. 1.73 विपाट् नदी के किनारे पर जो कुएँ हैं, उनके अभिधेय होने पर) भी (अञ् प्रत्यय होता है)। च - IV. ii. 74 (सङ्कलादि प्रातिपदिकों से) भी (चातुर्थिक अञ् प्रत्यय होता है)। च-IV. ii. 78 (ककार उपधा वाले प्रतिपदिक से) भी (चातुरर्थिक अण् प्रत्यय होता है)। च-IV. 1.81 (वरणादि प्रातिपदिकों से विहित जो चातुरर्थिक प्रत्यय, उसका) भी (लुप् होता है)। च-IV. 1.83 (शर्करा शब्द से चातुरर्थिक ठक तथा छ प्रत्यय) भी होते है। च-IV.ii.85 (मधु आदि प्रातिपदिकों से) भी (चातुरर्थिक मतपप्रत्यय होता है)। च-IV. 1.90 (नडादि शब्दों को चातुर्थिक छ प्रत्यय) तथा (कुक् का आगम होता है)। च-IV. 1.99 (रङ्कु शब्द से मनुष्य अभिधेय न हो तो अण) और (फक प्रत्यय होते है)। च-IV. ii. 108 (अन्तोदात्त बहुत अच् वाले उत्तर दिशा में होने वाले ग्रामवाची प्रातिपदिकों से) भी (अब् प्रत्यय होता है)। च- IV. ii. 111 (गोत्रप्रत्ययान्त इबन्त प्रातिपदिकों से) भी (अण् प्रत्यय होता है)। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 221 च-v.ii. 116 च-IV. iii.6 (वाहीक देश के जो ग्राम, तद्वाची वृद्ध-संज्ञक प्रातिप- (दिशावाची पूर्वपद वाले अर्घ प्रातिपदिक से शैषिक दिक से) भी (शैषिक ठञ् तथा त्रिठ् प्रत्यय होते हैं)। ठज्) और (यत् प्रत्यय होते हैं)। च-IV.ii. 121 च - IV. iii. 14 ) (निशा,प्रदोष कालविशेषवाची शब्दों से) भी विकल्प (प्रस्थ, पुर, वह अन्त वाले जो देशवाची वद्ध-संज्ञक प्रातिपदिक,उनसे) भी (शैषिक वज प्रत्यय होता है)। से ठञ् प्रत्यय होता है)। च-IV. iii. 15 च -IV.ii. 123 (कालविशेषवाची श्वस प्रातिपदिक से विकल्प से ठन (जनपद तथा जनपद अवधि को कहने वाले वृद्ध-संज्ञक प्रत्यय होता है,तथा उस प्रत्यय को तुट का आगम) भी प्रातिपदिकों से) भी (शैषिक वुञ् प्रत्यय होता है)। (होता है)। च-IV.ii. 126 च-IV. iii. 20 (देशविशेषवाची धूमादिगणपठित प्रातिपदिकों से) भी (कालवाची वसन्त प्रातिपदिक से) भी (वेदविषय में ठञ् (शैषिक वुञ् प्रत्यय होता है)। प्रत्यय होता है)। च-IV. ii. 132 च-IV. iii. 21 (देशविशेषवाची कच्छादि प्रातिपदिकों से) भी (शैषिक ___ (कालवाची हेमन्त शब्द से) भी (वेद-विषय में ठञ् अण् प्रत्यय होता है)। प्रत्यय होता है)। च-IV. 11. 135 च-IViii. 22 (गो तथा यवागू अभिधेय हों तो) भी (देशवाची साल्व (हेमन्त प्रातिपदिक से वैदिक तथा लौकिक प्रयोग में शब्द से शैषिक वुड् प्रत्यय होता है)। अण) तथा (ठञ् प्रत्यय होते हैं,तथा उस अण् के परे रहते हेमन्त शब्द के तकार का लोप भी होता है)। च-IV.ii. 137 च-IV.ii. 23 (गहादि प्रातिपदिकों से) भी (शैषिक छ प्रत्यय होता (कालवाची सायं,चिरं, प्राहे.प्रगे तथा अव्यय प्रातिप दिकों से ट्यु तथा ट्युल प्रत्यय होते हैं. और इन प्रत्ययों च-IV.ii. 139 को तुट आगम) भी (होता है)। . (राजन् शब्द से शैषिक छ प्रत्यय होता है, तथा उसको च-IV.ii. 29 के अन्तादेश) भी होता है)। (सप्तमीसमर्थ पथिन प्रातिपदिक से 'जात' अर्थ में वुन् च-IV. 1. 142 प्रत्यय होता है,तथा प्रत्यय के साथ-साथ पथिन् को पन्थ (पर्वत शब्द से) भी (शैषिक छ प्रत्यय होता है)। आदेश) भी होता है)। च-IVill.1 च-IV. iii.31 (युष्मद् तथा अस्मद् शब्दों से खञ् तथा) चकार से (अमावास्या प्रातिपदिक से 'जात' अर्थ में अप्रत्यय) छ प्रत्यय (विकल्प से होते हैं, पक्ष में औत्सर्गिक अण। भी (होता है)। होता है)। च-IV. iii. 33 च-IV. ifi.2 . (उस अण) तथा (ख प्रत्यय के परे रहते युष्मद् अस्मद् (सिन्धु और अपकर शब्दों से यथाक्रम अण् और अञ् के स्थान में क्रमशः युष्माक.अस्माक आदेश होते है)। प्रत्यय) भी (होते हैं)। च-IV. iii.5 च-IV. iii. 35 (पर, अवर, अधम, उत्तम - ये शब्द पूर्व में है जिनके,. (स्थान शब्द अन्त वाले,गोशाल तथा खरशाल प्रातिपऐसे अर्घ शब्द से) भी शैषिक यत प्रत्यय होता है। दिकों से) भी (जातार्थ में उत्पन्न प्रत्यय का लक होता है)। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 व च-IV. iii. 44 च-IV. ii. 104 (सप्तमीसमर्थ कालवाची प्रातिपदिकों से 'बोया हुआ' (ततीयासमर्थ कलापी के अन्तेवासी तथा वैशम्पायन अर्थ में) भी (यथाविहित प्रत्यय होता है)। के अन्तेवासी-वाचक प्रातिपदिकों से) भी (प्रोक्तार्थ में च -IV. ii. 50 णिनि प्रत्यय होता है, छन्दविषय में) . (सप्तमीसमर्थ कालवाची संवत्सर तथा आग्रहायणी च-IV.ili. 113 प्रातिपदिकों से ठन) तथा (वुञ् प्रत्यय होता है)। (तृतीयासमर्थ प्रातिपदिक से 'एकदिक्' विषय में तसि. च-IV. iii. 55 प्रत्यय) भी (होता है)। (सप्तमीसमर्थ शरीर के अवयववाची प्रातिपदिकों से) च-IVii. 114 भी (भव' अर्थ में यत् प्रत्यय होता है)। (तृतीयासमर्थ उरस् शब्द से 'एकदिक्' अर्थ में यत् च-IN. iii. 57 प्रत्यय) तथा (चकार से तसि प्रत्यय भी होता है)। (सप्तमीसमर्थ ग्रीवा प्रातिपदिक से भव अर्थ में अण) , और (ढ प्रत्यय होता है)। (षष्ठीसमर्थ पत्र अध्वर्य तथा परिषद प्रातिपदिकों से). च-IV. iii.59 भी (इदम्' अर्थ में अञ् प्रत्यय होता है)। (सप्तमीसमर्थ अव्ययीभाव-संज्ञक प्रातिपदिक से) भी , च-IV. 1. 132 . (भव' अर्थ में ज्य प्रत्यय होता है)। (षष्ठीसमर्थ प्राणिवाचि, ओषधिवाची तथा वृक्षवाची च-IV. iii. 63 प्रातिपदिकों से अवयव) तथा विकार अर्थों में (यथाविहित (सप्तमीसमर्थ वर्ग अन्त वाले प्रातिपदिक से) भी (भव' प्रत्यय होता है)। अर्थ में छ प्रत्यय होता है)। च-IV. iii. 134 च-IV. iii.66 ' (षष्ठीसमर्थ व्याख्यान किये जाने योग्य जो प्रातिपदिक (षष्ठीसमर्थ ककार उपधा वाले प्रातिपदिक से) भी उनसे व्याख्यान अभिधेय होने पर यथाविहित प्रत्यय हो- (विकार और अवयव अर्थों में अण् प्रत्यय होता है)। ता है),तथा (सप्तमीसमर्थ व्याख्यातव्यनामवाची शब्दों से च-IV. 1. 137 'भव' अर्थ में भी यथाविहित प्रत्यय होता है)। (षष्ठीसमर्थ अनुदात्तादि प्रातिपदिकों से) भी (विकार च-IV. iii.68 और अवयव अर्थों में अञ् प्रत्यय होता है)। (क्रतुवाची और यज्ञवाची व्याख्यातव्यनाम षष्ठी तथा सप्तमीसमर्थ प्रातिपदिकों से) भी (व्याख्यान' और 'भव' च - IV. iii. 142 अर्थों में ठञ् प्रत्यय होता है)। (षष्ठीसमर्थ गो प्रातिपदिक से) भी (मल अभिधेय होने च-IV. iii.79 ' पर मयट् प्रत्यय होता है)। (पञ्चमीसमर्थ पित प्रातिपदिक से 'आगत' अर्थ में यत् च-IViii. 143 प्रत्यय होता है) तथा (चकार से ठञ् प्रत्यय होता है)। (षष्ठीसमर्थ पिष्ट प्रातिपदिक से) भी (विकार अर्थ में च-V. iii. 82 मयट् प्रत्यय होता है)। (पञ्चमीसमर्थ हेतु तथा मनुष्यवाची प्रातिपदिकों से 'आगत' अर्थ में मयट् प्रत्यय) भी (होता है)। च-IV. iii. 152 च -IV. iii. 90 विकार और अवयव अर्थों में विहित जो जित् प्रत्यय, (प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से 'इसका अभिजन है अर्थ तदन्त षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिकों से) भी विकार और अवमें) भी (यथाविहित प्रत्यय होते है)। यव अर्थों में ही अब प्रत्यय होता है)। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च-1M. ill. 158 (षष्ठीसमर्थ द्रु प्रातिपदिक से) भी विकार और अवयव अथों में यत् प्रत्यय होता है)। . ___ च-IV. iii. 163 (षष्ठीसमर्थ जम्बू प्रातिपदिक से फल अभिधेय होने पर विकारावयव अर्थों में विहित प्रत्यय का विकल्प से लप) 'भी (होता है)। च-IV.ki. 164 (षष्ठीसमर्थ हरीतकी आदि प्रातिपदिकों से विकार अवयव अर्थों में विहित प्रत्यय का फल अभिधेय होने पर) भी (लुप होता है)। च-IV. . 165 (षष्ठीसमर्थ कंसीय, परशव्य प्रातिपदिकों से विकार अर्थ में यथासङ्ख्य करके यज और अब प्रत्यय होते हैं. तथा प्रत्यय के साथ-साथ कंसीय और परशव्य का लुक) भी होता है)। च-IV..iv. 11 (तृतीयासमर्थ श्वगण प्रातिपदिक से ठज्) तथा (ष्ठन् प्रत्यय होते हैं)। च-V. iv. 14 (तृतीयासमर्थ आयुध प्रातिपदिक से छ) तथा (ठन् प्रत्यय होते है)। च-Viv. 17 (सप्तमीसमर्थ अग्र प्रातिपदिक से वेद-विषयक भवार्थ में घ और छ प्रत्यय) भी (होते हैं)। च-IV. iv. 29 (द्वितीयासमर्थ परिमुख प्रातिपदिक से) भी (वर्तते'-अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है)। च-IV. iv. 36 (द्वितीयासमर्थ परिपन्थ प्रातिपदिक से बैठता है) तथा (मारता है'अर्थों में ठक् प्रत्यय होता है)। च-IV. iv. 38 (द्वितीयासमर्थ आक्रन्द प्रातिपदिक से 'दौड़ता है'- अर्थ में ठज्) तथा (ठक् प्रत्यय होते हैं)। च-IV. iv. 40 .. (द्वितीयासमर्थ प्रतिकण्ठ, अर्थ,ललाम प्रातिपदिकों से) भी (महण करता है- अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है)। च-IV. iv. 42 द्वितीयासमर्थ प्रतिपथ प्रातिपदिक से 'जाता है'-अर्थ में ठन) तथा (ठक् प्रत्यय होते हैं)। च-IV. iv.58 (प्रहरण समानाधिकरणवाची प्रथमासमर्थ परश्वध प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ में ठञ् प्रत्यय होता है,) चकार से ठक् भी। च-IV.IN.79 (द्वितीयासमर्थ एकधुर प्रातिपदिक से 'ढोता है' अर्थ में ख प्रत्यय) तथा (उसका लोप होता है)। च - IV. iv.94 (तृतीयासमर्थ उरस् प्रातिपदिक से बनाया हुआ' अर्थ में अण) और (यत् प्रत्यय होते है)। च-IV.iv.9 (षष्ठीसमर्थ हृदय शब्द से बन्धन अर्थ में) भी (वेद अभिधेय होने पर यत् प्रत्यय होता है)। च-IV.iv. 108 __ (सप्तमीसमर्थ समानोदर प्रातिपदिक से 'शयन किया हुआ' अर्थ में यत् प्रत्यय होता है) तथा (समानोदर शब्द के ओकार को उदात्त होता है)। च - IV. iv. 125 (उपधान मन्त्र समानाधिकरण प्रथमासमर्थ मतबन्त प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ में यत् प्रत्यय होता है, यदि षष्ठ्यर्थ में निर्दिष्ट इंटे ही हों) तथा (मतुप का लुक भी हो जाता है, वेद-विषय में)। च-IV. iv. 129 (प्रथमासमर्थ मधु प्रातिपदिक से मत्वर्थ में मास और तनू प्रत्ययार्थ विशेषण हों तो ज) और (यत् प्रत्यय होते हैं)। . च-IV. iv. 132 (वेशस्,यशस् आदि वाले भगान्त प्रातिपदिक से मत्वर्थ में ख प्रत्यय) भी (होता है, वेद-विषय में)। च-v.iv. 133 (तृतीयासमर्थ पूर्व प्रातिपदिक से 'किया हुआ' अर्थ में इन और य प्रत्यय होते हैं, चकार से ख भी होता है। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 च-IV.v. 136 (प्रथमासमर्थ सहन प्रातिपदिक से मत्वर्थ में) भी (ष प्रत्यय होता है,वेद-विषय में) च-IV. iv. 138 (सोम शब्द से मयट के अर्थ में) भी (य प्रत्यय होता है)। च-IV. iv. 140 (वसु प्रातिपदिक से समूह) तथा (मयट् के अर्थ में यत् प्रत्यय होता है)। च-IV. iv. 144 (षष्ठीसमर्थ शिव.शम और अरिष्ट प्रातिपदिकों से करने वाला विषय में भाव अर्थ में) भी (तातिल् प्रत्यय होता है)। च-v.i.3 (कम्बल प्रातिपदिक से) भी (क्रीत' अर्थ से पहले-पहले पठित अर्थों में यत् प्रत्यय होता है, सञ्जा- विषय के होने पर)। च-v.i.7 (चतुर्थीसमर्थ खल, यव, माष, तिल, वृष. ब्रह्मन् प्रातिपदिकों से) भी (हित अर्थ में यत् प्रत्यय होता है)। च-V.1.21 (शत प्रातिपदिक से) भी (अहीय अर्थों में ठन् और यत् प्रत्यय होते हैं, यदि सौ अभिधेय न हों तो)। च- V. 1. 31 (द्वि तथा त्रिशब्द पूर्व वाले बिस्त शब्दान्त द्विगुसज्ञक प्रातिपदिक से) भी (तदर्हति'-पर्यन्त कथित अर्थों में उत्पन्न प्रत्यय का विकल्प से लुक् होता है)। च-V.1.39 (षष्ठीसमर्थ पुत्र शब्द से छ) और (यत् प्रत्यय होते हैं, संयोग अथवा उत्पातरूपी निमित्त अर्थ में)। च-v.i. 42 (सप्तमीसमर्थ सर्वभूमि तथा पृथिवी प्रातिपदिकों से 'प्रसिद्ध'अर्थ में) भी (यथासङ्ख्य करके अण और अबू प्रत्यय होते है)। च-v.i. 48 (प्रथमासमर्थ भाग प्रातिपदिक से सप्तम्यर्थ में यत) तथा (ठन प्रत्यय होते हैं. यदि 'वद्धि' = व्याज के रूप में दिया जाने वाला द्रव्य 'आय' = जमींदारों का भाग. 'लाभ' = मूल द्रव्य के अतिरिक्त प्राप्य द्रव्य, शुल्क' राजा का भाग तथा 'उपदा' = घूस-ये 'दिया जाता है' क्रिया के कर्म वाच्य हों तो)। च-V.iv.51 (सम्पद्यते के कर्ता में वर्तमान अरुस्, मनस्, चक्षुस्, चेतस्,रहस् तथा रजस् शब्दों के अन्त्य का लोप) भी (क. भू तथा अस्ति के योग में होता है, तथा च्चिप्रत्यय भी . होता है)। च-v.i. 53 (द्विगु-सज्ञक द्वितीयासमर्थ आढक, आचित तथा पात्र प्रातिपदिक से 'सम्भव है', 'अवहरण करता है' तथा 'पकाता है' अर्थों में ष्ठन् प्रत्यय) भी (होता है)। च-v.i.54 (द्वितीयासमर्थ द्विगु-सञक कुलिज शब्दान्त प्रातिपदिक से 'सम्भव है', 'अवहरण करता है' तथा 'पकाता है' अर्थों में प्रत्यय का लुक,ख प्रत्यय) तथा (ष्ठन् प्रत्यय होते हैं)। च-v.i.64 द्वितीयासमर्थ शीर्षच्छेद प्रातिपदिक से नित्य ही योग्य है' अर्थ में यत् प्रत्यय) भी (होता है,यथाविहित ठक् भी)। . . . द्वितायासमर्थ प्रातिपदिक मात्र से वेद-विषय में) भी । (समर्थ है' अर्थ में यत् प्रत्यय होता है)। च-V.1.67 (द्वितीयासमर्थ पात्र प्रातिपदिक से 'समर्थ है' अर्थ में घन) और (यत् प्रत्यय होते है)। च-V.i.68 द्वितीयासमर्थ कडकर और दक्षिणा प्रातिपदिकों से छ) और (यत् प्रत्यय होते हैं, समर्थ है' अर्थ में)। च-v.i.76 (तृतीयासमर्थ उत्तरपथ प्रातिपदिक से लाया हुआ' अर्थ में) तथा (जाता है' अर्थ में यथाविहित ठञ् प्रत्यय हो जाता है)। च-v.i.82 षण्मास प्रातिपदिक से अवस्था अभिधेय हो तो 'हो चुका' अर्थ में ण्यत् और यप् प्रत्यय होते हैं. तथा औत्सर्गिक ठ भी। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 225 च - V. 1. 83 (षण्मास प्रातिपदिक से अवस्था अभिधेय न हो तो ठञ) तथा (ण्यत् प्रत्यय होता है 'हो चुका' अर्थ में)। च - V. 1.86 द्वितीयासमर्थ रात्रिशब्दान्त, अहः शब्दान्त तथा संवत्सर शब्दान्त द्विगु-सञ्ज्ञक प्रातिपदिकों से) भी (सत्कारपूर्वक व्यापार', 'खरीदा हुआ', 'हो चुका' तथा 'होने वाला' अर्थों में विकल्प से ख प्रत्यय होता है)। च - V. 1. 87 (द्वितीयासमर्थ वर्ष-शब्दान्त द्विगु-सञ्ज्ञक प्रातिपदिकों से 'सत्कारपूर्वक व्यापार', 'खरीदा गया', 'हो चुका' तथा 'होने वाला' अर्थों में विकल्प करके ख प्रत्यय) तथा (विकल्प से प्रत्यय का लुक् होता है) । च - V. 1. 91 (द्वितीयासमर्थ सम् तथा परि पूर्ववाले वत्सरशब्दान्त प्रातिपदिक से 'सत्कारपूर्वक व्यापार', 'खरीदा हुआ', 'हो 'चुका' तथा 'होने वाला' अर्थों में ख प्रत्यय) तथा (छ प्रत्यय होते है । च - V. 1. 94 • (षष्ठीसमर्थ यज्ञ की आख्यावाले प्रातिपदिकों से) भी (दक्षिणा' अर्थ में यथाविहित ठञ् प्रत्यय होता है)। च - V. 1. 95 (सप्तमीसमर्थ कालवाची प्रातिपदिकों से दिया जाता है) और (कार्य' अर्थों में भव अर्थ के समान ही प्रत्यय हो जाते हैं)। च - V. 1. 101 (चतुर्थीसमर्थ योग प्रातिपदिक से 'शप्त है' अर्थ में यत्) तथा (ठञ् प्रत्यय होते हैं)। च - V. 1. 119 यहाँ से लेकर (ब्रह्मणस्त्व: V. 1. 135 के त्वपर्यन्त त्व, तल् प्रत्यय होते हैं, ऐसा अधिकार जानना चाहिए)। च - V. 1. 122 (षष्ठीसमर्थ वर्णवाची तथा दृढादि प्रातिपदिकों से 'भाव' अर्थ में ष्यञ्) तथा (इमनिच् प्रत्यय होते हैं)। च - V. 1. 123 (गुण को जिसने कहा, ऐसे तथा ब्राह्मणादि षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिकों से कर्म के अभिधेय होने पर) तथा (भाव में ष्यञ् प्रत्यय होता है)। च - V. 1. 124 (षष्ठीसमर्थ स्तेन प्रातिपदिक से भाव और कर्म अर्थ में यत् प्रत्यय होता है, तथा स्तेन शब्द के न का लोप) भी हो जाता है)। च - V. 1. 130 (षष्ठीसमर्थ लघु = ह्रस्व अक्षर पूर्व में जिसके, ऐसे इ, उ, ऋ, लृ अन्तवाले प्रातिपदिक से) भी (भाव कर्म अर्थों में प्रत्यय होता है) । = इक् च - V. 1. 132 (षष्ठीसमर्थ द्वन्द्व सञ्ज्ञक तथा मनोज्ञादि प्रातिपदिकों से) भी (भाव और कर्म अर्थों में वुञ् प्रत्यय होता है)। a V. ii. 17 (द्वितीयासमर्थ अभ्यमित्र प्रातिपदिक से 'पर्याप्त जाता है' अर्थ में छ प्रत्यय) तथा (यत् और ख प्रत्यय होते हैं) । च - Vii. 30 (अव उपसर्ग प्रातिपदिक से कुटारच्) तथा (कटच् प्रत्यय होते हैं)। च - Vii. 33. (नासिका का झुकाव अभिधेय हो तो नि उपसर्ग प्रातिपदिक से इनच् तथा पिटच् प्रत्यय होते हैं, सञ्ज्ञाविषय में तथा नि शब्द को यथासङ्ख्य करके प्रत्यय के साथ-साथ चिक तथा चि आदेश) भी होते हैं) । च - V. 1. 38 (प्रथमासमर्थ प्रमाण समानाधिकरणवाची पुरुष तथा हस्तिन् प्रातिपदिकों से षष्ठ्यर्थ में अण्) तथा (द्वयसच् दघ्नच् और मात्रच् प्रत्यय होते हैं) । - V. ii. 41 (सङ्ख्या के परिणाम अर्थ में वर्तमान किम् शब्द से षष्ठ्यर्थ में डति प्रत्यय) तथा (वतुप् प्रत्यय होते हैं, तथा उस वतुप् के वकार के स्थान में घकार आदेश हो जाता है) । च - Vit. 46 (अधिक समानाधिकरणवाची शत् शब्द अन्त में है जिसके, ऐसे तथा विंशति प्रातिपदिक से) भी (सप्तम्यर्थ में प्रत्यय होता है)। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 च-V.II.50 (सङ्ख्या आदि में न हो जिसके ऐसे षष्ठीसमर्थ सख्यावाची नकारान्त प्रातिपदिक से परण अर्थ में विहित डट् प्रत्यय को थट) तथा (मट् आगम होता है), वेद-विषय में। च-v.ii. 55 (षष्ठीसमर्थ त्रि प्रातिपदिक से 'पूरण' अर्थ में तीय प्रत्यय होता है, तथा (प्रत्यय के साथ साथ त्रि को सम्प्रसारण भी हो जाता है)। च-v.ii.57 (षष्ठीसमर्थ शतादि प्रातिपदिकों से) तथा (मास, अदमास और संवत्सर प्रातिपदिकों से 'पूरण' अर्थ में विहित डट् प्रत्यय को तमट का आगम नित्य ही हो जाता च-v..58 (षष्ठीसमर्थ सङ्ख्या आदि में न हो जिसके, ऐसे सङ्ख्यावाची षष्टि आदि प्रातिपदिकों से) भी (पूरण' अर्थ में विहित डट् प्रत्यय को नित्य ही तमट् आगम होता च-V.ii. 103 (तपस तथा सहस्र प्रातिपदिकों से 'मत्वर्थ' में अण प्रत्यय) भी (होता है)। च-v.ii. 104 (सिकता तथा शर्करा प्रातिपदिकों से) भी (मत्वर्थ' में . अण प्रत्यय होता है)। च-v.ii. 105 सिकता तथा शर्करा प्रातिपदिकों से 'देश' अभिधेय . हो तो लुप् और इलच्) तथा (अण् प्रत्यय विकल्प से होते है 'मत्वर्थ' में)। च-v.1.116 नीलिपातिपतिको मोमी (मत्वर्थ' में इनि तथा ठन प्रत्यय होते हैं, विकल्प से)। च -v.ii. 117 (तुन्दादि प्रातिपदिकों से 'मत्वर्थ' में इलच) तथा (इनि और ठ प्रत्यय होते है)। च.-v.ii. 119 . (शत शब्द अन्तवाले तथा सहस्र शब्द अन्तवाले निष्क प्रातिपदिक से) भी (मत्वर्थ' में ठञ् प्रत्यय होता है)। च-V. 1. 129 (वात और अतीसार प्रातिपदिकों से 'मत्वर्थ' में इनि प्रत्यय होता है, तथा इन शब्दों को कुक् आगम) भी (होता है)। च - V. 1. 131 (सुखादि प्रातिपदिकों से) भी (मत्वर्थ' में इनि प्रत्यय होता है)। च - V.ii. 132 (धर्म शब्द अन्तवाले. शील शब्द अन्तवाले तथा वर्णशब्द अन्तवाले प्रातिपदिकों से) भी (मत्वर्थ' में इनि प्रत्यय होता है)। च-v.iil.8 (किम, सर्वनाम तथा बहु से उत्तर जो तसि, उस तसि के स्थान में) भी (तसिल आदेश होता है)। च-V. iii.9 (परि तथा अभि शब्दों से) भी (तसिल् प्रत्यय होता है)। च-V. 1.87 (विद्यमान है पूर्व में कोई शब्द जिस प्रातिपदिक के,ऐसे प्रथमासमर्थ पूर्व शब्द से) भी (इसके द्वारा' अर्थ में इनि प्रत्यय होता है)। च-V.1.88 प्रथमासमर्थ इष्टादि प्रातिपदिकों से) भी (इसके द्वारा अर्थ में इनि प्रत्यय होता है)। च-V.ii.95 (प्रथमासमर्थ रसादि प्रातिपदिकों से) भी (मत्वर्थ' में मतुप् प्रत्यय होता है)। च-V.1.97 (सिध्मादि प्रातिपदिकों से) भी (मत्वर्थ' में विकल्प से लच् प्रत्यय होता है)। च-v.1.99 (फैन प्रातिपदिक से मत्वर्थ' में इलच) तथा (लच प्रत्यय होते हैं, विकल्प से)। Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 227 च-V. 1. 13 अव् आदेश होते है)। वेद-विषय में सप्तम्यन्त किम् शब्द से विकल्प से ह च-v.i11.40 प्रत्यय) भी (होता है)। (सप्तमी, पञ्चमी, प्रथमान्त पूर्व,अधर तथा अवर शब्दों च-V. 1. 18 को अस्तात प्रत्यय परे रहते) भी (यथासंख्य करके पर. (सप्तम्यन्त इदम प्रातिपदिकसेदानीम् प्रत्यय) भी (होता अध तथा अव आदेश होते है। च-V.li.43 च-V.II. 19 (द्रव्य का अनेक सङ्ख्याओं में बदलना' अर्थ गम्य(काल अर्थ में वर्तमान सप्तम्यन्त तत् प्रातिपदिक से दा। मान हो तो) भी (सङ्ख्यावाची प्रातिपदिकों से धा प्रत्यय प्रत्यय) तथा (दानीम् प्रत्यय होते है)। होता है)। च-V. 1. 20 च-v.ili.45 उन सप्तम्यन्त इदम् और तत् प्रातिपदिकों से वेदविषय (दि तथा त्रि सम्बन्धी धा प्रत्यय को) भी विकल्प से में यथासङ्ख्य करके दा और हिल् प्रत्यय होते हैं) तथा धमुञ् आदेश होता है)। (यथाप्राप्त दानीम् प्रत्यय भी होता है)। च-V.i.46 च- V.III. 25 (प्रकारवचन में वर्तमान किम् प्रातिपदिक से) भी (थमु द्वि तथा त्रि शब्द सम्बन्धी धा प्रत्यय को विकल्प से ___ एधाच आदेश) भी होता है)। प्रत्यय होता है)। च-V. 1. 26 च - Vil.50 - (हेतु अर्थ में वर्तमान) तथा (प्रकारवचन अर्थ में वर्तमान (भाग' अर्थ में वर्तमान षष्ठ और अष्टम शब्दों से ब किम् प्रातिपदिक से था प्रत्यय होता है, वेदविषय में)। प्रत्यय) तथा (अन् प्रत्यय होते हैं,वेदविषय को छोड़कर)। च-V.1.33 च-V.11.51 (पश्च तथा पश्चा शब्द) भी (वेदविषय में निपातन किये (मान तथा पशु का अङ्गरूपी षष्ठ और अष्टम प्रातिजाते हैं, अस्ताति के अर्थ में)। पदिकों से यथासङ्ख्य करके कन् प्रत्यय तथा प्रत्ययलुक होते है) तथा (यथाप्राप्त अन और ब प्रत्यय भी होते है)। -V.m.37 (दिशा,देश तथा काल अर्थों में वर्तमान पञ्चम्यन्तवर्जित र सप्तमीप्रथमान्त दिशावाची दक्षिण प्रातिपदिक से आहि) (अकेले' अर्थ में वर्तमान एक प्रातिपदिक से आकितथा (आच् प्रत्यय होते हैं , 'दूरी' वाच्य हो तो)। निच् प्रत्यय) तथा (कन् और लुक् होते है)। -V.I. 38 च-Vill.54 (दिशा.देश तथा काल अर्थों में वर्तमान पञ्चम्यन्तवर्जित (भूतपूर्व अर्थ में षष्ठीविभक्त्यन्त प्रातिपदिक से रूप्य) सप्तमीप्रथमान्त दिशावाची उत्तरशब्द से) भी (आहि तथा और (चरट् प्रत्यय होते है)। आच् प्रत्यय होते है,दूरी वाच्य हो तो)।. . च-Vill.56 च -V.11.39 (अत्यन्त प्रकर्ष' अर्थ में तिङन्त से) भी (तमप प्रत्यय (दिशा, देश तथा काल अर्थों में वर्तमान सप्तम्यन्त, होता है)। .. पाम्यन्त तथा प्रथमान्त दिशावाची पूर्व,अधर तथा अवर च -V. 1.61 प्रातिपदिकों से असि प्रत्यय होता है), और (प्रत्यय के (प्रशस्य शब्द के स्थान में अजादि अर्थात् इच्छन, ईयसुन् साथ-साथ इन शब्दों को यथासंख्य करके पुर, अध् तथा प्रत्यय परे रहते ज्य आदेश) भी होता है)। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 228 च-V.11.62 च-V. 1. 104 (वृद्ध शब्द के स्थान में) भी (अजादि अर्थात् इष्ठन, (दु शब्द से) भी (पात्रत्व अभिधेय होने पर यत् प्रत्यय ईयसुन प्रत्यय परे रहते ज्य आदेश होता है)। निपातन किया जाता है)। च-V. iii. 72 च-v.ii. 106 (ककारान्त अव्यय को अकच प्रत्यय के साथ साथ । (वह इवार्थ विषय है जिसका, ऐसे समास में वर्तमान दकारादेश) भी (होता है)। प्रातिपदिक से) भी (छ प्रत्यय होता है)। च-v.ili.77 च-V. iv.1 (नीति' गम्यमान हो तो) भी (उस अनुकम्पा से सम्बद्ध (सङ्ख्या आदि में है जिसके.ऐसे पाद और शत शब्द अन्तवाले प्रातिपदिकों से वीप्सा. गम्यमान हो तो वुन प्रातिपदिक से तथा तिङन्त से यथाविहित प्रत्यय होते हैं)। प्रत्यय होता है, तथा प्रत्यय के साथ साथ पाद और शत च-V. iii. 79 के अन्त का लोप) भी (हो जाता है)। (बहुत अच् वाले मनुष्यनामधेय प्रातिपदिकों से 'अनु- च- V. iv. 2 कम्पा से युक्त नीति' गम्यमान हो तो घन् और इलच् (दण्ड तथा दान गम्यमान हो तो,पाद तथा शत शब्दान्त प्रत्यय होते है), तथा विकल्प से ठच् प्रत्यय होता है)। सङ्ख्या आदि वाले प्रातिपदिकों से) भी (वुन् प्रत्यय होता च-v. iii. 80 है,तथा पाद और शत के अन्त का लोप भी हो जाता है)। (उपशब्द आदि वाले बहुच मनष्यनामधेय प्रातिपदिक च-v.ives से नीति और अनुकम्पा गम्यमान होने पर अडच, वुच्) (अरुस, मनस, चक्षुस, चेतस्, रहस् और रजस् शब्दों से तथा (घन, इलच् और ठच् प्रत्यय विकल्प से होते हैं, चि प्रत्यय भी होता है, और इन प्रकृतियों का अन्तलोप) प्राग्देशीय आचार्यों के मत में)। भी। च-V.1.2 च-V. iv. 12. (अजिन शब्द अन्तवाले मनुष्यनामधेय प्रातिपदिक से किम्, एकारान्त, तिङन्त तथा अव्ययों से उत्पन्न जो 'अनुमान गम्यमान होने पर कन् प्रत्यय होता है और उस तरप् प्रत्यय,तदन्त से वेदविषय में अमु) तथा (आमु प्रत्यय अजिनान्त शब्द के उत्तरपद का लोप) भी (हो जाता है)। होते हैं, द्रव्य का प्रकर्ष न कहना हो तो)। च-v.iii.94 च-V.iv. 19 (एक प्रातिपदिक से) भी (अपने अपने विषयों में डतरच् (एक शब्द के स्थान में सकृत् आदेश होता है), तथा तथा डतमच् प्रत्यय होते हैं, प्राचीन आचार्यों के मत में)। (सुच् प्रत्यय होता है, क्रिया-गणन' अर्थ में)। च-v.ili.97 च - V. iv. 22 (इवार्थ गम्यमान हो तो संज्ञा विषय में) भी (कन् प्रत्यय (बहत' अर्थ को कहने में प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से होता है)। 'तस्य समूह IV. iii.३६ के अधिकार में कहे हुए प्रत्ययों च-v.iii.99 के समान प्रत्यय होते है),तथा (मयट् प्रत्यय भी होता है)। (जीविकोपार्जन के लिये जो न बेचने योग्य मनुष्य की च-v.iv. 25 प्रतिकृति.उसके अभिधेय होने पर) भी (कन् प्रत्यय का (पाद और अर्घ प्रातिपदिकों से) भी (उसके लिये यह' लुप् होता है)। अर्थ में यत् प्रत्यय होता है)। च-V. iii. 100 च-v. iv. 31 (देवपथादि प्रातिपदिकों से) भी (इवार्थ प्रकृति अभिधेय नित्यधर्मरहित वर्ण अर्थ में वर्तमान लोहित प्रातिपदिक होने पर उत्पन्न प्रत्यय का लुप हो जाता है)। से) भी (स्वार्थ में कन् प्रत्यय होता है)। . Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च - Viv. 33 (अनित्य वर्ण में तथा रङ्ग हुआ अर्थ में वर्त्तमान काल प्रातिपदिक से) भी (कन् प्रत्यय होता है) । च - Viv. 38 (प्रज्ञादि प्रातिपदिकों से) भी (स्वार्थ में अन् प्रत्यय होता I च - Viv. 41 (प्रशंसाविशिष्ट' अर्थ में वर्त्तमान वृक तथा ज्येष्ठ प्रातिपदिकों से यथासङ्ख्य करके तिल तथा तातिल् प्रत्यय) भी होते हैं, वेदविषय में)। च - Viv. 43 (सहख्यावाची प्रातिपदिकों से तथा एक अर्थ को कहने वाले प्रातिपदिकों से) भी (विकल्प से शस् प्रत्यय होता है वीप्सा द्योतित हो रही हो तो) । च 229 - V. iv.-45 (अपादान कारक में) भी (जो पचमी, तदन्त से विकल्प सेतसि प्रत्यय होता है, यदि वह अपादान कारक हीय और रुह सम्बन्धी न हो तो) । -V. iv. 47 (हीयमान तथा पाप शब्द के साथ सम्बन्ध है जिन शब्दों का, तदन्त शब्दों से परे) भी (जो तृतीयाविभक्ति, तदन्त से विकल्प से तसि प्रत्यय होता है, यदि वह तृतीया कर्त्ता में हुई हो तो) । च - Viv. 49 (चिकित्सा' गम्यमान हो तो रोगवाची शब्द से परे) भी (जो षष्ठी विभक्ति, तदन्त प्रातिपदिक से विकल्प से तसि प्रत्यय होता है)। च - Viv. 53 ( अभिव्याप्ति' गम्यमान हो तो कृ भू तथा अस् धातु के योग में तथा सम्-पूर्वक पद धातु के योग में) भी ( विकल्प से साति प्रत्यय होता है) । च - Viv. 55 . (देने योग्य वस्तु तदधीनवचन वाच्य हो तो कृ, भू तथा अस् के योग में तथा सम्-पूर्वक पद के योग में त्रा) तथा (साति प्रत्यय होते हैं)। - V. iv. 59 (गुण शब्द अन्त वाले सङ्ख्यावाची प्रातिपदिकों से) भी (कृञ् के योग में कृषि अभिधेय हो तो डाच् प्रत्यय होता है)। च - Viv. 60 ( बिताना' अर्थ गम्यमान हो तो समय प्रातिपदिक से) भी (डाच् प्रत्यय होता है, कृञ् के योग में) । च - Viv. 87 (अहर, सर्व, एकदेशवाचक शब्द, सङ्ख्यात तथा पुण्य शब्दों से उत्तर तथा सङ्ख्या और अव्यय से उत्तर) भी (जो रात्रिशब्द, तदन्त तत्पुरुष से समासान्त अच् प्रत्यय होता है)। च - Viv. 90 (उत्तम और एक शब्दों से परे) भी (तत्पुरुष समास में अहन् शब्द को अह्न आदेश नहीं होता) । a - V. iv. 95 (पाम तथा कौट शब्दों से उत्तर तक्षन् शब्दान्त तत्पुरुष से) भी (समासान्त टच् प्रत्यय होता है)। -V. iv. 98 (उत्तर, मृग और पूर्व से उत्तर तथा उपमानवाची शब्दों से उत्तर) भी (जो सक्थि शब्द, तदन्त तत्पुरुष से समासान्त टच् प्रत्यय होता है)। च - Viv. 100 (अर्ध शब्द से उत्तर) भी (जो नौ शब्द, तदन्त तत्पुरुष से समासान्त टच् प्रत्यय होता है)। च - Viv. 108 (अव्ययीभाव समास में वर्तमान अत्र प्रातिपदिक से) भी (समासान्त टच् प्रत्यय होता है)। च - Viv. 112 (अव्ययीभाव समास में वर्त्तमान गिरि शब्दान्त प्रातिपदिक से) भी (समासान्त टच् प्रत्यय विकल्प से होता है, सेनक आचार्य के मत में) । च - Viv. 117 (अन्तर् ' तथा बहिस् शब्दों से उत्तर) भी (जो लोमन् शब्द, तदन्त बहुव्रीहि से समासान्त अप् प्रत्यय होता है) । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च - Viv. 118 (नासिका शब्दान्त बहुवीहि से समासान्त अच् प्रत्यय होता है, सञ्ज्ञाविषय में तथा नासिका शब्द के स्थान में नस आदेश) भी (हो जाता है, यदि वह नासिका शब्द स्थूल शब्द से उत्तर न हो तो)। च - Viv. 119 (उपसर्ग से उत्तर) भी (नासिका - शब्दान्त बहुव्रीहि से समासान्त अच् प्रत्यय होता है, तथा नासिका को नस आदेश भी हो जाता है)। च - Viv. 128 (द्विदण्डि आदि शब्द) भी ( इच्प्रत्ययान्त गण में जैसे पठित हैं, वैसे ही साधु समझने चाहिये) । च - Viv. 132 (धनुषु शब्दान्त बहुव्रीहि को) भी (समासान्त अन आदेश होता है)। च - Viv. 137 (उपमानवाची शब्दों से उत्तर) भी (गन्ध शब्द को समासान्त इकारादेश हो जाता है)। च - Viv. 139 (कुम्भपदी आदि शब्द) भी (कृतसमासान्त- लोप साधु समझने चाहिये) । च - Viv. 142 (वेदविषय में) भी (दन्तशब्द को दतृ आदेश समासान्त होता है, बहुव्रीहि समास में) । च - Viv. 145 (अमशब्दान्त तथा शुद्ध, शुभ, वृष और वराह शब्दों से उत्तर) भी (दन्त शब्द को विकल्प से समासान्त दतृ आदेश होता है, बहुव्रीहि समास में) । च - Viv. 153 (बहुव्रीहि समास में नदीसञ्ज्ञक तथा ऋकारान्त शब्दों - से) भी (समासान्त कप् प्रत्यय होता है)। 230 च - Viv. 156 (बहुव्रीहि समास में ईयसुन् अन्त वाले शब्दों से) भी (कप् प्रत्यय नहीं होता) । च - Viv. 160 (निष्यवाणि शब्द में) भी (कप का अभाव निपातन किया जाता है)। च - VI. 1. 12 (दाश्वान्, साहवान्) तथा (मीवान् शब्दों का छन्द तथा भाषा में सामान्य करके निपातन किया जाता है)। च - VI. 1. 16 - (ग्रज्या व व्य व व्यच, ओवश्व, प्रच्छ, स्व् - इन धातुओं को सम्प्रसारण हो जाता है, ङित्) तथा (कित् प्रत्यय के परे रहते) । च - VI. 1. 25 (प्रति से उत्तर) भी (श्यै धातु को सम्प्रसारण हो जाता है, निष्ठा के परे रहते । च - VI. 1. 29 (लिट् तथा यङ् के परे रहते) भी (ओप्यायी धातु को पी आदेश होता है)। च - VI. 1. 31 (सन् परे हो या च परे हो जिस णिच् के, ऐसे णि के परे रहते) भी (टुओश्वि धातु को विकल्प से सम्प्रसारण हो . जाता है)। च - VI. 1. 32 (सन्परक, चङ्परक णि के परे रहते हेञ् धातु को सम्मसारण हो जाता है, तथा अभ्यस्त का निमित्त जो व् धातु उसको भी (सम्प्रसारण हो जाता है)। च - VI. 1. 38 (इस वय के यकार को कित् लिट् के परे रहते विकल्प करके वकारादेश) भी (हो जाता है)। · च VI.i. 40 (ल्यप् के परे रहते) भी (वेञ् धातु को सम्प्रसारण नहीं होता है। - च VI.i. 41 ( ल्यप् परे रहते ज्या धातु को) भी (सम्प्रसारण नहीं होता है। च - VI. 1. 42 (व्येञ् धातु को) भी ( ल्यप् परे रहते सम्प्रसारण नहीं होता है)। च - VI. 1. 49 (मी, डुमि तथा दी धातुओं को स्यप् परे रहते) तथा (एच के विषय में भी उपदेश अवस्था में ही आत्व हो जाता है। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 231 च - VI. 1. 58 (उपदेश में जो अनुदात्त) तथा (ऋकार उपधावाली धातु, उसको अम् आगम विकल्प से होता है; झलादि प्रत्यय परे रहते) । च - VI. 1. 60 ( यकारादि तद्धित के परे रहते) भी (शिरस् को शीर्षन् आदेश हो जाता है) । च - VI. 1. 71 (छकार परे रहते) भी (ह्रस्वान्त को तुक् का आगम होता है। च - VI. 1. 72 (आङ् तथा माङ् को) भी (छकार परे रहते तुक् का आगम होता है, संहिता के विषय में)। . च - VI. 1. 80 (भय्य तथा प्रवय्य शब्द) भी (निपातन किये जाते हैं, वेद-विषय में)। च - VI. 1. 82 (एकः पूर्वपरयोः' के अधिकार में जो पूर्वपर को एकादेश कहा है, वह एकादेश, पूर्व से कार्य पड़ने पर पूर्व के अन्त के समान माना जाये), तथा (पर से कार्य करने पर पर के आदि के समान माना जाये) । - VI. 1. 87 (आद से उत्तर) भी (जो अच् तथा अच् से पूर्व जो आट्, इन दोनों पूर्व पर के स्थान में वृद्धि एकादेश होता है, संहिता के विषय में) । च - VI. 1. 92 (अवर्ण से उत्तर ओम् तथा आङ् परे रहते) भी (पूर्व पर के स्थान में पररूप एकादेश होता है)। च - VI. 1. 101 (दीर्घ वर्ण से उत्तर जस्) तथा चकार से, इच् परे रहते (पूर्वसवर्ण दीर्घ एकादेश नहीं होता है)। च - VI. 1. 104 (सम्प्रसारण वर्ण से उत्तर अच् परे हो तो) भी (पूर्व पर के स्थान में पूर्वरूप एकादेश होता है)। च - VI. 1. 106 (एड् से उत्तर ङसि तथा ङस् का अकार हो तो) भी (पूर्व पर के स्थान में पूर्वरूप एकादेश होता है, संहिता के विषय में) । च - VI. 1. 110 (हश् प्रत्याहार परे रहते) भी (अकार से उत्तर रु के रेफ को उकार आदेश होता है, संहिता के विषय में ) । च - VI. 1. 112 (अव्यात्, अवद्यात्, अवक्रमु, अव्रत, अयम्, अवन्तु, अवस्यु - इन शब्दों में जो अकार, उसके परे रहते पाद के मध्य में जो एड्, उसको) भी (प्रकृतिभाव हो जाता है)। च - VI. 1. 115 (यजुर्वेदविषय में अङ्ग शब्द में जो एङ, उसको अकार के परे रहते प्रकृतिभाव हो जाता है), तथा (उस अङ्ग शब्द के आदि में जो अकार, उसके परे रहते पूर्व एड् को प्रकृतिभाव होता है)। च - VI. 1. 116 (यजुर्वेदविषय में कवर्ग, धकारपरक अनुदात्त अकार के परे रहते) भी (एड् को प्रकृतिभाव होता है) । च - VI. 1. 117 (अवपथाः शब्द में) भी (जो अनुदात्त अकार, उसके परे रहते यजुर्वेदविषय में एङ् को प्रकृतिभाव होता है) । च - VI. 1. 120 (इन्द्र शब्द में स्थित अच् के परे रहते) भी (गो को अवङ् आदेश होता है)। च - VI. 1. 123 (असवर्ण अच् परे हो तो इक् को शाकल्य आचार्य के मत में प्रकृतिभाव हो जाता है), तथा (उस इक् के स्थान में ह्रस्व भी हो जाता है)। च - VI. 1. 133 (समुदाय अर्थ में) भी (कृ धातु परे रहते सम् तथा परि उत्तर कार से पूर्व सुट् का आगम होता है, संहिता के विषय में) । च - VI. 1. 136 (उप) तथा (प्रति उपसर्ग से उत्तर 'कृ विक्षेपे' धातु के परे रहते हिंसा के विषय में ककार से सुट् आगम होता है, संहिता के विषय में) । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 च-VI.1.147 च-VI. 1. 206 (प्रतिष्कश शब्द में प्रतिपूर्वक कश् धातु को सुट् आगम) ( विभक्ति परे रहते) भी (युष्मद्, अस्मद् को आधुतथा (उसी सुट् के सकार को षत्व का निपातन किया दात्त होता है)। जाता है)। च-VI. 1. 16 च -VI. 1. 151 (प्रीति गम्यमान हो रही हो, तो सुख तथा प्रिय शब्द (पारस्कर इत्यादि शब्दों में) भी (सट आगम निपातन । उत्तरपद रहते) भी (तत्पुरुष समास में पूर्वपद को प्रकृतिकिया जाता है, सजा के विषय में)। स्वर हो जाता है)। च-VI.i. 154 . च-VI. 1. 26 (उञ्छादि शब्दों को) भी (अन्तोदात्त हो जाता है)। (पूर्वपदस्थित कुमार शब्द को) भी (कर्मधारय समास च - VI. 1. 155 में प्रकृतिस्वर होता है)। लोप होता है, च-VI. 1. 31 उस अनुदात्त को) भी (आदि उदात्त हो जाता है)। (द्विगु समास में दिष्टि तथा वितस्ति शब्दों के परे रहते) ' च -VI.1. 178 भी (विकल्प करके पूर्वपद को प्रकृतिस्वर होता है)। (न से परे) भी (झलादि विभक्ति विकल्प से उदात्त नहीं होती)। (आचार्य है अप्रधान जिसमें, ऐसे शिष्यवाची शब्दों च -VI.1. 184 का जो द्वन्द्व,उनके पूर्वपद को) भी (प्रकृतिस्वर होता है)। (जिसमें उदात्त अविद्यमान है,ऐसे ल सार्वधातुक के परे च- VI. ii. 37 रहते) भी (अभ्यस्त सजकों के आदि को उदात्त होता (कार्त्तकोजपादि जो द्वन्द्व समास वाले शब्द,उनके पूर्व पद को) भी (प्रकृतिस्वर हो जाता है)। च -VI. 1. 190 च-VI. I. 39 (सेट थल परे रहते इट को विकल्प से उदात्त होता है. (वैश्वदेव शब्द उत्तरपद रहते पूर्वपदस्थित क्षुल्लक एवं) चकार से (आदि को, अन्त को विकल्प से होता है। शब्द) तथा (महान् शब्द को प्रकृतिस्वर होता है)। च-VI. 1. 192 च-VI. I. 42 (कुरुगार्हपत, रिक्तगुरु, असूतजरती, अश्लीलदृढरूपा, (आमन्त्रित सञक के) भी (आदि को उदात्त होता है। पारेवडवा, तैतिलकद्रू, पण्यकम्बल-इन सात समास च-VI.1.194 किये हुए शब्दों के) तथा (दासीभारादि शब्दों के पूर्वपद (तवै'-प्रत्ययान्त शब्द का आद्य स्वर भी उदात्त हो जाता को प्रकृतिस्वर होता है)। है, और अन्त्य स्वर) भी। च-VI. ii. 45 च-VI.i. 197 (क्तान्त शब्द उत्तरपद रहते) भी (चतुर्थ्यन्त पूर्वपद को (वृषादि शब्दों के) भी (आदि को उदात्त होता है। प्रकृतिस्वर हो जाता है)। च-VI. 1. 199 च-VI. 1.50 (दो अचों वाले निष्ठान्त शब्दों के) भी (आदि को उदात्त (तु शब्द को छोड़कर तकारादि एवं नकार इत्सजक कृत् के परे रहते) भी (अव्यवहित पूर्वपद गति को प्रकृतिस्वर होता है, सज्ञा विषय में, आकार को छोड़कर)। होता है)। च-VI.1.203 च-VI.ii. 51 (जुष्ट तथा अर्पित शब्दों को) भी (वेद-विषय में विकल्प (तवै प्रत्यय को अन्त उदात्त) भी होता है, तथा अव्यसे आधुदात्त होता है)। वहित पूर्वपद गति को भी प्रकृतिस्वर एक साथ होता है)। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 233 च-VI. ii. 51 (तवै प्रत्यय को अन्त उदात्त भी होता है), तथा (अनन्तर पूर्वपद गति को भी प्रकृतिस्वर एक साथ होता है)। च-VI. ii. 53 (वप्रत्ययान्त अञ्च धातु के परे रहते नि तथा अधि को) भी (प्रकृतिस्वर होता है)। च-VI. ii.59 (बाह्मण तथा कुमार शब्द उपपद रहते कर्मधारय समास में पूर्वपद राजन् शब्द को) भी (विकल्प से प्रकृतिस्वर होता है)। च -VI. 1.63 (प्रशंसा गम्यमान हो तो शिल्पिवाची शब्द उत्तरपद रहते राजन् पूर्वपद वाले शब्द को) भी (विकल्प से प्रकृतिस्वर होता है)। च-VI. ii.65 (युक्तवाची समास में) भी (पूर्वपद को आधुदात्त होता रा " च-VI. 1.68 (शिल्पिवाची शब्द उत्तरपद रहते पाप शब्द को) भी (विकल्प से आधुदात्त होता है)। च-VI.ii.76 शिल्पिवाची समास में) भी (अणन्त उत्तरपद रहते पर्व- पद को आधुदात्त होता है, यदि वह अण कृज से परे न हो)। च-VI. 1.77 (समाविषय में) भी (अणन्त उत्तरपद रहते पर्वपद को आधुदात्त होता है, यदि वह अण् कृञ् से परे न हो तो)। च-VI. 1. 81 (युक्तारोही आदि समस्त शब्दों को भी (आद्यदात्त हो- ता है)। च-VI. ii. 85 (घोषादि शब्दों के उत्तरपद रहते) भी (पूर्वपद को आधु- दात्त होता है)। च-VI. 1.88 (प्रस्थ शब्द उत्तरपद रहते पूर्वपद मालादि शब्दों को) भी (आधुदात्त होता है)। च-VI. 1. 90 (अर्म शब्द उत्तरपद रहते) भी (अवर्णान्त जो दो अचों वाले तथा तीन अचों वाले महत्, नव से भिन्न पूर्वपद, उन्हें आधुदात्त होता है)। च- 1100 (अरिष्ट तथा गौड शब्द पूर्व हैं जिस समास में, उसके पूर्वपद को) भी (पुर शब्द उत्तरपद रहते अन्तोदात्त होता है)। च -VI. ii. 104 (आचार्य है अप्रधान जिसका, ऐसा जो अन्तेवासी, उसको कहने वाले शब्द के परे रहते) भी (दिशा अर्थ में प्रयुक्त होने वाले पूर्वपद शब्दों को अन्तोदात्त होता है)। च-VI. 1. 105 (उत्तरपदस्य' VII. iii. 10 सूत्र के अधिकार में कही जो वृद्धि,उस वृद्धि किये हुये शब्द के परे रहते सर्व शब्द) तथा (दिग्वाची शब्द पूर्वपद को अन्तोदात्त होता है)। च-VI. ii. 113 (सञ्जा तथा उपमा विषय में वर्तमान जो बहुव्रीहि,वहाँ) भी (उत्तरपद कर्ण शब्द को आधुदात्त होता है)। च-VI. ii. 114 (सजा तथा औपम्य विषय में वर्तमान बहुव्रीहि समास में कण्ठ, पृष्ठ, ग्रीवा, जवा इन उत्तरपद शब्दों को) भी (आधुदात्त होता है)। च-VI. 1. 115 (अवस्था गम्यमान होने पर) तथा (सज्ञा एवं उपमा विषय में बहुव्रीहि समास को आधुदात्त होता है। शृङ्ग उत्तरपद रहते)। च-VI. II. 118 (सु से उत्तर क्रत्वादि शब्दों को) भी (आधुदात्त होता है)। च-VI. 1. 120 (बहुव्रीहि समास में सु से उत्तर वीर तथा वीर्य शब्दों को) भी (वेद-विषय में आधुदात्त होता है)। च-VI. ii. 124 (नपुंसकलिङ्ग कन्थान्त तत्पुरुष समास में) भी (उत्तरपद आधुदात्त होता है)। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 च-VI. 1. 131 च-VI. II. 186 (कर्मधारयवर्जित तत्पुरुष समास में उत्तरपद वर्यादि ___(अप उपसर्ग से उत्तर) भी (उत्तरपदस्थित मुख शब्द को शब्दों को) भी (आधुदात्त होता है)। . अन्तोदात्त होता है)। च-VI. 1. 135 च-VI. 1. 187 (अप्राणिवाची षष्ठ्यन्त शब्द से उत्तर पूर्वोक्त छ: (अप उपसर्ग से उत्तर स्फिग,पत,वीणा,अबस.अध्वन, काण्डादि उत्तरपद शब्दों का) भी (आधुदात्त होता है)। कुक्षि, तथा हल के वाची शब्दों को एवं नाम शब्द को) च-VI. 1. 141 भी (अन्तोदात्त होता है)। (देवतावाची शब्दों के द्वन्द्व समास में) भी (एक साथ च-VI. 1. 190 दोनों अर्थात् पूर्व और उत्तरपद को प्रकृतिस्वर होता है)। (अनु उपसर्ग से उत्तर अन्वादिष्टवाची पुरुष शब्द को) च-VI. 1. 147 भी (अन्तोदात्त होता है)। (प्रवृद्धादियों के क्तान्त उत्तरपद को) भी (अन्तोदात्त च-VI. II. 198 होता है। (क्र अन्त में नहीं है, जिसके ऐसे अक्रान्त शब्द से उत्तर च-VI. 1. 149 सक्थ शब्द को) भी विकल्प से अन्तोदात्त होता है, बहु(इस प्रकार को प्राप्त हुये के द्वारा किया गया- इस व्रीहि समास में)। अर्थ में जो समास, वहाँ) भी (क्तान्त उत्तरपद को कारक च-VI. 1.5 से परे अन्तोदात्त होता है)। च-VI. 1. 154 (आज्ञायी शब्द के उत्तरपद रहते) भी (मनस् शब्द से (तृतीयान्त से परे उपसर्गरहित मिश्र शब्द उत्तरपद को) उत्तर तृतीया का अलुक् होता है)। भी (अन्तोदात्त होता है, असन्धि गम्यमान हो तो)। च-VI. 1. 156 (आत्मन् शब्द से परे) भी (तृतीया का अलुक होता है, (गणप्रतिषेध अर्थ में नज से उत्तर अतदर्थ में वर्तमान उत्तरपद परे रहते)। जो य तथा यत् तद्धित प्रत्यय, तदन्त उत्तरपद को) भी च-VI. I.T (अन्तोदात्त होता है)। (जिस सज्जा से वैयाकरण व्यवहार करते हैं. उसको च-VI. 1. 158 कहने में पर शब्द) तथा चकार से आत्मन् शब्द से उत्तर (न से उत्तर आक्रोश गम्यमान होने पर) भी (अअत्य- (भी चतुर्थी विभक्ति का अलुक होता है)। यान्त तथा कप्रत्ययान्त उत्तरपद को अन्तोदात्त होता है)। सपा कमत्यवान्त उत्तरपदका अन्तादात्त हाताहाच - VI.ii.9 . च-VI. ii. 160 (प्राच्यदेशों के जो करों के नाम वाले शब्द.उनमें) भी (न से उत्तर कृत्यसञक उक, इष्णुच् प्रत्ययान्त तथा (हलादि शब्द के परे रहते हलन्त तथा अदन्त शब्दों से चार्वादिगणपठित उत्तरपद शब्दों को) भी (अन्तोदात्त होता उत्तर सप्तमी विभक्ति का अलुक होता है)। च-VI. III. 12 च-VI. 1. 180 (बन्ध शब्द उत्तरपद रहते) भी (हलन्त तथा अदन्त शब्द (उपसर्ग से उत्तर उत्तरपद अन्त शब्द को) भी (अन्तोदात्त से उत्तर सप्तमी का विकल्प करके अलुक् होता है)। होता है)। च-VI. 1. 18 च-VI. 1. 184 (निरुदकादिगणपठित शब्दों को) भी (अन्तोदात्त होता (इन्नन्त, सिद्ध तथा बजाति उत्तरपद रहते) भी (सप्तमी का अलुकू नहीं होता है)। . Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 235 च-VI. Jil.59 (मन्थ, ओदन,सक्तु, बिन्दु,वन,भार, हार, वीवध,गाह - इन शब्दों के उत्तरपद रहते) भी (उदक शब्द को उद आदेश विकल्प करके होता है)। च - VI. lil. 61 (एक शब्द को तद्धित) तथा (उत्तरपद परे रहते हस्व होता है)। - च - VI. iii. 63 (त्व प्रत्यय परे रहते) भी (ड्यन्त तथा आबन्त शब्दों को बहुल करके हस्व होता है)। च-VI. 1.67 (खिदन्त उत्तरपद रहते इजन्त एकाच को अञ् आगम होता है, और वह अम् प्रत्यय के समान) भी (माना जाता च-VI.M. 19 (स्थ शब्द के उत्तरपद रहते) भी (भाषा-विषय में सप्तमी का अलुक् नहीं होता है)। च-VI. II. 25 (देवतावाची शब्दों के द्वन्द्व समास में) भी (उत्तरपद परे रहते पूर्वपद को आनङ् आदेश होता है)। च-VI. il. 29 (पृथिवी शब्द उत्तरपद रहते देवताद्वन्द्व में दिव् शब्द को दिवस आदेश होता है).तथा चकार से (धावा आदेश भी होता है)। च-VI. II.32 (पितरामातरा यह शब्द) भी (वेदविषय में निपातन किया जाता है)। च-VI. 1. 35 (क्यङ् तथा मानिन् परे रहते) भी (ऊवर्जित भाषितपुंस्क स्त्रीशब्द को पुंवद्भाव हो जाता है)। . च-VI. III. 37 (सजावाची तथा पूरणीप्रत्ययान्त भाषितपुंस्क स्त्रीशब्दों को) भी पुंवद्भाव नहीं होता)। च-VI. 1.39 (स्वागवाची शब्द से उत्तर) भी (इकारान्त स्त्री शब्द को पुंवभाव नहीं होता)। च-VI. II. 40 (जातिवाची स्त्रीलिङ्ग शब्द को) भी (पुंवद्भाव नहीं होता)। च-VI. 11.44 (उगित् शब्द से परे जो नदी, तदन्त शब्द को) भी (विकल्प करके हस्व होता है;घ,रूप,कल्पप.चेलट. बव गोत्र, मत तथा हत शब्दों के परे रहते)। -VI. 1.53 • हिम्, कापिन, हति- इनके उत्तरपद रहते) भी (पाद शब्द को पद् आदेश होता है)। च-VI. 1.57 पै.वास, वाहन तथा धि शब्द के उत्तरपद रहते) भी (उदक शब्द को उद आदेश होता है)। च-VI. Ili.68 (वाचंयम तथा पुरन्दर शब्दों में) भी (पूर्वपदों को अम् आगम निपातन किया जाता है)। च-VI. iii. 75 (एक है आदि में जिसके,ऐसे नज् को) भी (उत्तरपद परे रहते प्रकृतिभाव होता है, तथा एक शब्द को आदुक्का आगम होता है)। च-VI. 1.75 (एक है आदि में जिसके, ऐसे नब् को भी उत्तरपद परे रहते प्रकृतिभाव होता है), तथा (एक शब्द को आदुक् का आगम होता.है)। च-VI. iii. 78 (ग्रन्थ के अन्त एवं अधिक अर्थ में वर्तमान सह शब्द को) भी (उत्तरपद परे रहते स आदेश होता है)। च-VI. ill. 79 (अप्रधान अनुमेय के उत्तरपद रहते) भी (सह को स आदेश होता है)। च-VI. 1.80 (अव्ययीभाव समास में) भी (अकालवाची शब्दों के उत्तरपद रहते सह को स आदेश होता है)। . Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236 च-VI. iii.91 अङ्ग की उपधा को दीर्घ हो जाता है)। (विष्वग् एवं देव शब्दों के) तथा (सर्वनाम शब्दों के च-VI. iv. 13 टिभाग को अद्रि आदेश होता है,वप्रत्ययान्त अश्रु धातु (सम्बनिभिन्न स विभक्ति के परे रहते) भी (इन, हन. के परे रहते)। पूषन् तथा अर्थमन् अङ्गों की उपधा को दीर्घ होता है)। च -VI. iii. 101 च-VI. iv. 14 (रथ तथा वद शब्द उत्तरपद हो तो) भी (कु को कत् (धात-भिन्न अतु तथा अस् अन्तवाले अङ्ग की उपधा आदेश होता है। को) भी (दीर्घ होता है, सम्बुद्धिभिन्न स विभक्ति परे च -VI. iii. 102 रहते)। (तृण शब्द उत्तरपद हो तो) भी (कु को कत् आदेश होता च-VI. iv. 18 है, जाति अभिधेय होने पर)। (क्रम् अङ्ग की उपधा को) भी (झलादि क्त्वा प्रत्यय परे च -VI. ii. 106 रहते विकल्प से दीर्घ होता है)। (उष्ण शब्द उत्तरपद रहते कु शब्द को कव आदेश) भी च-VI. iv. 19 (होता है, एवं विकल्प से का आदेश भी होता है)। (च्छ और व् के स्थान में यथासङ्ख्य करके श, और च -VI. iii. 107 ऊठ आदेश होते हैं. अनुनासिकादि प्रत्यय परे रहते) तथा (पथिन् शब्द उत्तरपद रहते) भी (वेद विषय में कु को (क्वि और झलादि कित, ङित् प्रत्ययों के परे रहते)। 'कव' तथा 'का' आदेश विकल्प करके होते है)। च-VI. iv. 20 . च-VI. iii. 119 (ज्वर, त्वर, सिवि, अव, मव् - इन अङ्गों के वकार) (शरादि शब्दों को) भी (सञ्जा-विषय में मतप परे रहते तथा (उपधा के स्थान में ऊ आदेश होता है; क्वि) तथा दीर्घ होता है)। (झलादि एवं अनुनासिकादि प्रत्ययों के परे रहते)। च -VI. iii. 125 च-VI. iv. 26 (वेद -विषय में) भी (अष्टन् शब्द को दीर्घ होता है, (रङ्ग अङ्ग की उपधा के नकार का) भी (लोप होता है, उत्तरपद परे रहते)। शप् परे रहते)। च - VI. iii. 129 च-VI. iv. 27 (मित्र शब्द उत्तरपद रहते) भी (ऋषि अभिधेय होने पर (भाववाची तथा करणवाची घ के परे रहते) भी (रज विश्व शब्द को दीर्घ हो जाता है)। धातु की उपधा के नकार का लोप होता है)। च-VI. iii. 131 च-VI. iv. 33 (मन्त्र-विषय में प्रथमा से भिन्न विभक्ति के परे रहते (भङ्ग अङ्ग के नकार का लोप) भी (विकल्प से होता है. ओषधि शब्द को) भी (दीर्घ हो जाता है)। चिण् प्रत्यय परे रहते)। च-VI. 1. 135 च - VI. iv. 39 (ऋचा-विषय में निपात को) भी (दीर्घ हो जाता है)। (क्तिच परे रहते अनुदात्तोपदेश, वनति तथा तनोति च-VI. iv.6 आदि अङ्गों के अनुनासिक का लोप) तथा (दीर्घ नहीं (तृ अङ्ग को) भी (नाम् परे रहते वेद-विषय में दोनों । होता)। प्रकार से अर्थात् दीर्घ एवं अदीर्घ देखा जाता है)। च-VI. iv. 45 च-VI. iv.8 (क्तिच् प्रत्यय परे रहते सन् अङ्गको आकारादेश हो (सम्बदिभिन्न सर्वनामस्थान के परे रहते) भी (नकारान्त जाता है) तथा (विकल्प से इसका लोप भी होना है)। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च - VI. iv. 62 (भाव तथा कर्मविषयक स्य, सिच, सीयुट् और तास् के परे रहते उपदेश में अजन्त धातुओं तथा हन्, ग्रह एवं दृश् धातुओं को चिण् के समान विकल्प से कार्य होता है), तथा (इट् आगम भी होता है)। च - VI. iv. 64 ' (इडादि आर्धधातुक) तथा (अजादि प्रत्ययों के परे रहते आकारान्त अङ्ग का लोप होता है)। च - VI. iv. 98 (इस्, मन्, त्रन् तथा क्वि प्रत्ययों के परे रहते) भी (छादि अङ्ग की उपधा को ह्रस्व होता है) 1 च - VI. iv. 100 (घस् तथा-भस् अङ्ग की उपधा का वेद-विषय में लोप होता है; हलादि) तथा (अजादि कित्, डित् प्रत्यय परे रहते) । च - VI. iv. 103 (अङित् हि को) भी (धि आदेश होता है, वेद-विषय में) । 237 च - VI. Iv. 84 ( वर्षाभू इस अङ्ग को ) भी ( अजादि सुप् परे रहते में यकारादेश तथा अभ्यास का लोप होता है)। यणादेश होता है)। च - VI. iv. 122 (तृ, फल, भज, त्रप – इन अङ्गों के अकार के स्थान में) भी (एकारादेश तथा अभ्यासलोप होता है; कित्, ङित्, लिट् तथा सेट् थल् परे रहते ) । च - VI. iv. 106 - (संयोग पूर्व में नहीं है जिससे ऐसा जो उकार, तदन्त - जो प्रत्यय, तदन्त अङ्ग से उत्तर) भी (हि का लुक् हो जाता है)। च - VI. iv. 107 (असंयोगपूर्व जो उकार, तदन्त इस प्रत्यय का विकल्प से लोप) भी होता है, मकारादि तथा वकारादि प्रत्ययों . के परे रहते)। च - VI. iv. 109 ( यकारादि प्रत्यय परे रहते) भी (कु अङ्ग से उत्तर उकार प्रत्यय का नित्य ही लोप होता है)। 1 - VI. iv. 116 ( ओहाक् त्यागे' अङ्ग को भी (इकारादेश विकल्प से होता है; हलादि कि, त् सार्वधातुक परे रहते) " च - VI. iv. 117 (ओहा अङ्गको विकल्प से आकारादेश होता है) तथा (इकार आदेश भी, हि के परे रहते) । च - VI. iv. 119 (घु-सञ्ज्ञक अङ्ग एवं अस् को एकारादेश) तथा (अभ्यास का लोप होता है; कित्, ङित् परे रहते) । च - VI. Iv. 121 (सेट् थल परे रहते) भी (अनादेशादि अङ्ग के दो असहाय हलों के मध्य में वर्त्तमान जो अकार, उसके स्थान च - VI. iv. 125 (फण् आदि सात धातुओं के अवर्ण के स्थान में) भी (विकल्प से एत्त्व तथा अभ्यासलोप होता है; कित्, ङित्, लिट् तथा सेट् थल परे रहते ) । च - VI. iv. 148 (भसञ्ज्ञक इवर्णान्त तथा अवर्णान्त अङ्ग का लोप होता है; ईकार) तथा (तद्धित के परे रहते) । च - VI. iv. 151 (हल से उत्तर भसञ्ज्ञक अङ्ग के अपत्यसम्बन्धी यकार का) भी (अनाकारादि तद्धित परे रहते लोप होता है)। च - VI. iv. 152 (हल से उत्तर अङ्ग के अपत्य सम्बन्धी यकार का क्य तथा च्चि परे रहते) भी (लोप होता है)। च - VI. iv. 156 (स्थूल, दूर, युव, ह्रस्व, क्षिप्र, क्षुद्र – इन अङ्गका पर जो यणादि भाग, उसका लोप होता है; इष्ठन्, इमनिच् और ईयसुन परे रहते) तथा (उस यणादि से पूर्व को गुण होता है)। च - VI. iv. 158 ( बहु शब्द से उत्तर इष्ठन्, इमनिच् तथा ईयसुन् का लोप होता है, और उस बहु के स्थान में भू आदेश) भी (होता है)। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238 च - VI. iv. 159 (बहु शब्द से उत्तर इष्ठन् को यिट् आगम होता है) तथा (बहु शब्द को भू आदेश भी होता है)। च - VI. iv. 165 (गाथिन्, विदथिन्, केशिन्, गणिन्, पणिन् — इन अ को) भी (अण् परे रहते प्रकृतिभाव हो जाता है)। च - VI. iv. 166 (संयोग आदि में है, जिस 'इन्' के, उसको) भी (अण् परे रहते प्रकृतिभाव हो जाता है)। च - VI. iv. 168 (भाव तथा कर्म से भिन्न अर्थ में वर्तमान यकारादि तति के परे रहते) भी (अन् अन्त वाले भसञ्ज्ञक अङ्ग को प्रकृतिभाव हो जाता है) । च - VII. 1. 19 (नपुंसक अङ्ग से उत्तर) भी ( औ = औ तथा औट् के स्थान में शी आदेश होता है)। च - VII. 1. 32 (युष्मद्, अस्मद् अङ्ग से उत्तर पञ्चमी विभक्ति के एकवचन के स्थान में) भी (अत् आदेश होता है)। च - VII. 1. 43 (वेद-विषय में 'यजध्वैनम्' यह शब्द ) भी ( निपातन किया जाता है)। च - VII. 1. 45 (त के स्थान में तप्, तनपू, तन, थन आदेश) भी (होते हैं, वेद-विषय में)। च - VII. 1. 48 (वेद - विषय में 'इष्ट्वीनम्' यह शब्द) भी (निपातन किया जाता है। च - VII. 1. 49 (स्नात्वी इत्यादि शब्द) भी (वेद-विषय में निपातन किये जाते हैं। च - VIII. 1. 51 (पूङ - धातु से उत्तर) भी (त्क्वा तथा निण्ठा को इट् आगम विकल्प से होता है। च - VII. 1. 55 (षट्-सव्ाक तथा चतुर् शब्द से उत्तर) भी (आम् को नुट् का आगम होता है)। च - VII. 1. 64 (शप् तथा लिट्वर्जित अजादि प्रत्ययों के परे रहते 'डुलभष् प्राप्तौ' अङ्ग को) भी (नुम् आगम होता है)। च - VII. 1. 77 (द्विवचन विभक्ति परे रहते वेद-विषय में अस्थि, दधि, सक्थि अङ्गों को ईकारादेश होता है), और (वह उदात्त होता है। च - VII. 1. 94 (ऋकारान्त अङ्ग तथा उशनस्, पुरुदंसस्, अनेहस् अ को) भी ( सम्बुद्धि-भिन्न सु परे रहते अन आदेश होता है)। च - VII. 1. 96 (स्त्रीलिङ्ग में वर्तमान क्रोष्टु शब्द को) भी (तुजन्त शब्द के समान अतिदेश हो जाता है। च - VII. 1. 101 (धातु अङ्ग की उपधा ऋकार के स्थान में) भी (इकारादेश होता है। च - VII. 1. 9 - (ति, तु, त्र, थ, सि, सु, सर, क, स प्रत्ययों के परे रहते) भी (इट् आगम नहीं होता) । इन कृत्सञ्ज्ञक च - VII. 1. 12 (मह, गुह) तथा (उगन्त अनों को सन् प्रत्यय परे रहते इट् का आगम नहीं होता) । च - VII. 1. 16 (आकार-इत्सञ्ज्ञक धातुओं को) भी (निष्ठा परे रहते इट् आगम नहीं होता) । च - VII. 1. 25 (अभि उपसर्ग से उत्तर) भी (सन्निकट अर्थ में अर्द धातु से निष्ठा परे रहते इट् आगम नहीं होता) । च - VII. 1. 30 (अपचित शब्द) भी (विकल्प से निपातन किया जाता है)। च - VII. 11. 32 (वेद-विषय में अपरिहृताः शब्द) भी (बहुवचनान्त निपातन किया जाता है)। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 239 च-VII. 1.34 च-VII. ii.98 (प्रसित, स्कभित, स्तभित, उत्तभित, चत्त, विकस्त, वि- (प्रत्यय तथा उत्तरपद परे रहते) भी (एकत्व अर्थ में शस्त, स्त, शास्त, तरुत, तरूत, वरुत, वरूत, वरूजी, वर्तमान युष्मद.अस्मद अङ्ग के मपर्यन्त अंश को क्रमशः उज्ज्वलिति, क्षरिति, क्षमिति,वमिति, अमिति-ये शब्द) त्व,म आदेश होते हैं)। भी (वेदविषय में निपातित है)। च -VII. ii. 107 च - I. I. 40 (अदस् अङ्ग को औ' आदेश) तथा (सु का लोप होता (परस्मैपदपरक सिच परे रहते) भी (वृ तथा ऋकारान्त है)। धातुओं से उत्तर इट् को दीर्घ नहीं होता)। च-VII. ii. 109 च-VII. II. 43 (इदम् के दकार के स्थान में) भी (यकार आदेश होता (संयोग है आदि में जिसके, ऐसे ऋकारान्त धातु से है,विभक्ति परे रहते)। उत्तर) भी (आत्मनेपदपरक लिङ् सिच् को विकल्प से इट् च-VII.1.118 आगम होता है)। (कित तद्धित परे रहते) भी (अङ्ग के अचों में आदि च - VII. ii. 45 . अच् को वृद्धि होती है)। (रधादि धातुओं से उत्तर) भी (वलादि आर्धधातुक को च-VII. iii. 4 विकल्प से इट् आगम होता है)। (द्वार इत्यादि शब्दों के यकार वकार से उत्तर) भी (जित्, च -VII. I. 1 णित, कित् तद्धित परे रहते अङ्ग के अचों में आदि अच् । (पूधातु से उत्तर) भी (क्त्वा तथा निष्ठा को इट् आगम को वृद्धि नहीं होती, किन्तु यकार वकार से पूर्व को ऐच विकल्प से होता है)। आगम तो हो जाता है)। च-VII. 1.60 च-VII. iii.5 (कृपू सामर्थे' धातु से उत्तर तास) तथा (सकारादि (केवल न्यग्रोध शब्द के अचों में आदि अच् को) भी सार्वधातुक को इट आगम नहीं होता,परस्मैपद परे रहते)। (वृद्धि नहीं होती,किन्तु उसके य से पूर्व को ऐकार आगम - च-VII. 1.73 तो होता है)। .. (यम,रमु,णम तथा आकारान्त अङ्ग को सक् आगम च-VII. iii.7 होता है.) तथा (सिच को परस्मैपद परे रहते इट् आगम (स्वागत इत्यादि शब्दों को) भी (वृद्धि-निषेध एवं होता है)।. ऐजागम नहीं होता)। च-VII. ii. 75 च-VII. iii. 15 (कृ इत्यादि पाँच धातुओं से उत्तर) भी (सन् को इट् (सङ्ख्यावाची शब्द से उत्तर संवत्सर शब्द के तथा आगम होता है)। सङ्ख्यावाची शब्द के अचों में आदि अच् को) भी (जित, च -VII. 1.78 . णित् तथा कित् तद्धित परे रहते वृद्धि होती है)। (ईड तथा जन् धातु से उत्तर ध्व) तथा (से सार्वधातुक च - VII. iii. 19 को इट् आगम होता है)। (हृद, भग,सिन्धु- ये अन्त में है जिन अङ्गों के, उनके च-VII. 1.87 पूर्वपद को) तथा (उत्तरपद के अचों में आदि अच को भी (द्वितीया विभक्ति के परे रहते) भी (युष्मद् तथा अस्मद जित्, णित् तथा कित् तद्धित परे रहते वृद्धि होती है)। अङ्गको आकारादेश हो जाता है)। च-VII. iii. 20 च-VII. ii. 88 (अनुशतिक इत्यादि अङ्गों के पूर्वपद तथा उत्तरपद (प्रथमा विभक्ति के द्विवचन के परे रहते) भी दोनों के अचों में आदि अच् को) भी (जित. णित् तथा ' (भाषाविषय में युष्मद, अस्मद् को आकारादेश होता है। कित् तद्धित परे रहते वृद्धि होती है)। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240 च-VII. iii. 21 च-VII. iii. 83 (देवतावाची द्वन्द्व समास में) भी (पूर्वपद तथा उत्तरपद (जुस् प्रत्यय परे रहते) भी (इगन्त अङ्ग को गुण होता के अचों में आदि अच् को जित्, णित् तथा कित् है)। तद्धित परे रहते वृद्धि होती है)। च -VII. iii. 86 च-VII. iii. 23 (पुक् परे रहने पर तत्समीपस्थ अङ्ग के इ८ को तथा (दीर्घ से उत्तर) भी (वरुण शब्द के अचों में आदि अच् लघसज्जक इक उपधा को) भी (सार्वधातुक ताँ आर्ध-. को वृद्धि नहीं होती)। धातुक परे रहते गुण हो जाता है)। च -VII. iii. 29 च-VII. iii.98 (तत् = ढक् प्रत्ययान्त प्रवाहण अङ्गके उत्तरपद के अचों में आदि अच को) भी (वृद्धि होती है, पूर्वपद को तो (रुदिर् इत्यादि पाँच धातुओं से उत्तर) भी (हलादि विकल्प से होती है; जित्,णित.कित.तद्धित परे रहते)। अपृक्त सार्वधातुक को ईट च - VII. iii. 35 च-VII. iii. 102 (जन तथा वध अङ्ग को) भी (चिण तथा जित्, णित् (अकारान्त अङ्ग को यज्ञादि सुप् परे रहते) भी (दीर्घ कृत् परे रहते उपधा को वृद्धि नहीं होती)। होता है)। . च-VII. iii. 48 च-VII. iii. 104 (अभाषितपुंस्क शब्द से विहित प्रत्ययस्थ ककार से पूर्व (ओस परे रहते) भी (अकारान्त अङ्ग को एकारादेश अकार, उसको नपूर्व होने पर) और (अनपूर्व होने पर होता है। भी उदीच्य आचार्यों के मत में इकारादेश नहीं होता है)। च -VII. iii. 105 च-VII. iii. 52 (आबन्त अङ्ग को आङ् = टा परे रहते) तथा (ओस् परे देखें-चजोः -VII. iii. 52 रहते एकारादेश होता है)। च - VII. iii. 53 च-VII. iii. 106 (न्यख-आदि-गणपठित शब्दों के चकार,जकार को) भी (सम्बुद्धि परे रहते) भी (आबन्त अङ्ग को एकारादेश (कवर्ग आदेश होता है)। होता है)। च-VII. iii. 55 (अभ्यास से उत्तर) भी (हन घात के हकार को कवर्गादेश। -च-VII. iii. 109 होता है)। (जस् परे रहते) भी (हस्वान्त अङ्ग को गुण होता है)। च-VII. iii. 58 च - VII. iii. 114 (अभ्यास से उत्तर) चि अङ्ग को विकल्प से कवर्गादेश । (आबन्त सर्वनाम अङ्ग से उत्तर ङित् प्रत्यय को स्याट् होता है,सन् तथा लिट् परे रहते)। आगम होता है) तथा (उस आबन्त सर्वनाम को ह्रस्व भी च -VII. iii.60 हो जाता है)। (अज तथा व्रज धातुओं के जकार को) भी (कवर्गादेश च-VII. iii. 119 नहीं होता)। (इकारान्त, उकारान्त अङ्ग से उत्तर ङि को औकारादेश च - VII. iii. 66 होता है,) तथा (घिसञक को अकारादेश होता है)। (यज, ट्याच,रुच, प्रपूर्वक वच,ऋच-इन अङ्गों के च-VII. iv.4 चकार, जकार को) भी (ण्य प्रत्यय परे रहते कवर्गादेश (पा पाने' अङ्गकी उपधा का चङ्परक णि परे रहते नहीं होता)। लोप होता है) तथा (अभ्यास को ईकारादेश होता है)। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च - VII. iv. 10 (संयोग आदि में है जिसके भी (गुण होता है, लिट् परे रहते) । च - VII. iv. 26 ( हैं) । - • ऐसे ऋकारान्त अङ्ग को) प्रत्यय परे रहते) भी (अजन्त अङ्ग को दीर्घ होता च - VII. iv. 30 (ऋ तथा संयोग आदि वाले ऋकारान्त अङ्ग को यङ् परे रहते) भी (गुण होता है) । च - VII. iv. 33 (क्यच् परे रहते) भी (अवर्णान्त अङ्ग को ईकारादेश होता है) । च - VII. iv. 43 ( ओहाक् त्यागें' अङ्ग को) भी (क्त्वा प्रत्यय परे रहते हि आदेश होता है) । त्र - VII. iv. 44 - ', (सुधित, वसुधित, नेमधित, धिष्व, धिषीय ये शब्द ) भी (वेद-विषय में निपातित हैं) । च - VII. iv. 51 (रैफादि प्रत्यय के परे रहते) भी (तास् सकार का लोप होता है) । और अस् च - VII. iv. 56 (दम्भ अङ्ग के अच् के स्थान में इकारादेश होता है) . तथा (चंकार से ईकारादेश भी होता है) । च - VII. iv. 65 (दाघर्ति, दर्धर्षि, बोभूतु, तेतिक्ते, अलर्षि, आपनीफण संसनिष्यदत्, करिक्रत्, कनिक्रदत्, भरिभृत्, दविध्वतः, दविद्युतत् तरित्रतः, सरीसृपतम्, वरीजत्, मर्मृज्य, आगनीगन्ति- ये शब्द) भी (वेदविषय में निपातन किये जाते हैं)। च - VII. iv. 72 (अशू व्याप्तौ ' अङ्ग के दीर्घ किये हुये अभ्यास से उत्तर) भी (नुट् आगम होता है)। 241 च - VII. iv. 77 (ऋ तथा पृ धातुओं के अभ्यास को) भी (श्लु होने पर इकारादेश होता है)। च - VII. iv. 86 (जप, जभी, दह, दंश, भञ्ज, पश- इन अङ्गों के अभ्यास को) भी (नुक् आगम होता है, यङ् तथा यङ्लुक् परे रहते)। च - VII. iv. 87 (चर गतौ' तथा 'त्रिफला विशरणे' अङ्ग के अभ्यास को) भी (यङ् तथा यङ्लुक् परे-रहते नुक् आगम होता है)। च - VII. iv. 89 (तकारादि प्रत्यय परे रहते) भी (चर तथा फल् अङ्ग के अकार के स्थान में उकारादेश होता है) । च - VII. iv. 90 (ऋकार उपधा वाले अङ्ग के अभ्यास को) भी (यङ् तथा यङ्लुक् में रीक् आगम होता है) । च - VII. iv. 91 (ऋकार उपधा वाले अङ्ग के अभ्यास को रुक्, रिक्) तथा चकार से (रीक् आगम होते हैं, यङ्लुक् 1 च - VII. iv. 92 (ऋकारान्त अङ्ग के अभ्यास को) भी (रुक्, रिक् तथा रीक् आगम होते हैं, यङ्लुक् होने पर) । च - VII. iv. 97 (गण धातु के अभ्यास को ईकारादेश) तथा चकार से (अकारादेश भी होता है, चङ्परक णि परे रहते ) । च - VIII. 1. 3 (जिसकी आम्रेडित-सञ्ज्ञा होती है, वह अनुदात्त) भी होता है)। च - VIII. 1. 10 (पीडा अर्थ में वर्तमान शब्द को) भी (द्वित्व होता है, तथा उस शब्द को बहुव्रीहि के समान कार्य भी होता है) । च - VIII. 1. 19 (पद से उत्तर आमन्त्रित सञ्ज्ञक सम्पूर्ण पद को) भी (पाद के आदि में वर्त्तमान न हो तो अनुदात्त होता है) । च - VIII. 1. 24 देखें - चवाहाहैव० VIII. 1. 24 च - VIII. 1. 25 (न देखना' अर्थ में वर्त्तमान ज्ञान अर्थ वाले धातुओं के योग में) भी (युष्मद् अस्मद् शब्दों को पूर्व सूत्रों से प्राप्त वाम्, नौ आदि आदेश नहीं होते)। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 च-VIII. 1.34 (हि शब्द से युक्त तिडन्त) भी (अनुकूलता गम्यमान होने पर अनुदात्त नहीं होता)। च-VIII. 1. 38 (यावत् और यथा से युक्त एवं उपसर्ग से व्यवहित तिङ्को ) भी (पूजा-विषय में अननुदात्त नहीं होता, अर्थात् अनुदात्त होता है)। च-VIII. 1.40 (अहो शब्द से युक्त तिङन्तको) भी (पूजा विषय में अनुदात्त नहीं होता)। च-VIII. 1. 42 (पुरा शब्द से युक्त तिङन्त को) भी (शीघ्रता अर्थ गम्यमान होने पर अनुदात्त नहीं होता)। । च-VIII. I. 48 जिससे उत्तर चित् है तथा जिससे पूर्व कोई शब्द नहीं है, ऐसे किंवृत्त शब्द से युक्त तिङन्त को) भी (अनुदात्त नहीं होता)। च-VIII. I. 49 (अविद्यमान पूर्ववाले आहो, उताहो से युक्त व्यवधा- नरहित तिङ् को) भी (अनुदात्त नहीं होता है)। च - VIII.1.52 (गत्यर्थक धातुओं के लोडन्त से युक्त लोडन्त को) भी (अनुदात्त नही हाता, यदि कारक सारे अन्य न हो तो)। च - VIII. 1.53 (हन्त से युक्त सोपसर्ग उत्तमपुरुषवर्जित लोडन्त तिङन्त को) भी विकल्प से अनुदात्त नहीं होता)। च-VIII. 1. 58 - (चादियों के परे रहते) भी (गतिभिन्न पद से उत्तर तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता)। च.. -VIII. 1.59 देखें-चवायोगे VIII. I. 59 च.. -VIII. 1.61 (अह' से युक्त प्रथम तिङन्त को विनियोग) तथा (क्षिया अर्थात् अनौचित्य गम्यमान होने पर अनुदात्त नहीं होता)। च-VIII. 1.62 देखें-चाहलोपे च VIII.1.62 च -VIII. 1.64 (वै तथा वाव से युक्त प्रथम तिङन्त को) भी विकल्प से वेद-विषय में अनुदात्त नहीं होता)। च - VIII. 1.69 (गोत्रादिगण-पठित शब्दों को छोड़कर निन्दावाची सुबन्त शब्दों के परे रहते) भी (सगतिक एवं अगतिक दोनों तिङन्तों को अनुदात्त होता है)। .. च - VIII. 1.70 (उदात्तवान् तिङन्त के परे रहते) भी (गतिसञक को. निघात होता है)। च-VIII. 1.9 (मकारान्त एवं अवर्णान्त तथा मकार एवं अवर्ण उपधा : वाले प्रातिपदिक से उत्तर मतुप को वकारादेश होता है, किन्तु यवादि शब्दों से उत्तर मतुप् को व नहीं होता)। . च-VII. I. 13 (उदन्वान् शब्द उदधि) तथा (सञ्जा-विषय में निपादन च-VIII. 1.22 (परि के रेफ को) भी (ध तथा अङ्कशब्द परे रहते विकल्प से लत्व होता है)। च-VIII. ii. 25 (धकारादि प्रत्यय के परे रहते) भी (सकार का लोप होता च - VIII. 1. 29 (पद के अन्त में) तथा (झल परे रहते संयोग के आदि के सकार तथा ककार का लोप होता है)। च-VIII. il. 38 (झषन्त दध् धातु के बश् के स्थान में भष् आदेश होता है; तकार तथा थकार परे रहते) तथा (झलादि सकार एवं ध्व परे रहते भी)। च-VIII. ii. 42 रेफ तथा दकार से उत्तर निष्ठा के तकार को नकारादेश होता है) तथा (निष्ठा के तकार से पूर्व के दकार को भी नकारादेश होता है)। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 243 च-VIII. ii. 45 (ओकार इत् वाले धातुओं से उत्तर) भी (निष्ठा के त को नकारादेश होता है)। च-VII. 1.65 (मकार तथा वकार परे रहते) भी (मकारान्त धातु को नकाराटेसा होता है)। च.-III. 1.67 (अवयाः, श्वेतवा) तथा (पुरोडाः- ये शब्द दीर्घ किये हुये सम्बुद्धि में निपातन है)। च-VIII. 1.71 . (महाव्याहृति भुवस् शब्द को) भी (वेद-विषय में दोनों प्रकार से अर्थात् रु एवं रेफ दोनों ही होते है)। च-VIII. 1.75 (दकारान्त जो पद् धातु, उसको) भी (सिप् परे रहते विकल्प से रु आदेश होता है)। च-VIII. 1.77 (हल् परे रहते) भी रेफान्त एवं वकारान्त धातु की उप- धाभूत इक् को दीर्घ होता है)। च-VIII. II. 78 . (हल् परे रहते धातु के उपधाभूत रेफ एवं वकार के परे - रहते उपधा इक् को) भी (दीर्घ होता है)। - च-VIII. 1.84 (दर से बुलाने में जो प्रयुक्त वाक्य,उसकी टि को) भी (प्लुत उदात्त होता है)। च-VIH. 1.93 (अग्नीत के प्रेषण में पद के आदि को प्लुत उदात्त होता है), तथा (उससे परे को भी होता है, यज्ञकर्म में)। च-VIII. 1. 94 (निग्रह करने के पश्चात् अनुयोग में वर्तमान जो वाक्य - उसकी टि को) भी विकल्प से प्लुत उदात्त होता है)। च-VIII. 1.99 (प्रतिश्रवण में वर्तमान वाक्य की टि को) भी (प्लुत उदात्त होता है)। च-VIII. ii. 101 (चित् यह निपात) भी (जब उपमा के अर्थ में प्रयुक्त हो, तो वाक्य की टि को अनुदात्त प्लत होता है।। च-VIII. ii. 102 (उपरि स्विदासीत्' इसकी टि को) भी (प्लुत अनुदात्त होता है)। च-VIII. iii. 21 (अवर्ण पूर्ववाले पदान्त यत् का उब् पद के परे रहते) भी (लोप होता है)। च - VIII. II. 24 (अपदान्त नकार को ती चकार से मकार को) भी (झल परे रहते अनुस्वार आदेश होता है)। च -VIII. iii. 30 (नकारान्त पद से उत्तर) भी (सकारादि पद को विकल्प से धुट का आगम होता है)। च-VIII. III. 37 (कवर्ग तथा पवर्ग परे रहते विसर्जनीय को यथासङ्ख्य करके = क अर्थात् जिह्वामूलीय तथा = प अर्थात् उपध्मानीय आदेश होते है).तथा चकार से विसर्जनीय भी होता है)। च-VIII. iii. 41 (इकार और उकार उपधा वाले प्रत्ययभिन्न समुदाय के विसर्जनीय को) भी (षकार आदेश होता है; कवर्ग, पवर्ग परे रहते)। च-VIII. III. 48 (कस्कादि-गणपठित शब्दों के विसर्जनीय को) भी (सकार अथवा षकार आदेश यथायोग से होता है;कवर्ग. पवर्ग परे रहते)। च-VIII. 1. 52 (पा धातु के प्रयोग परे हों तो) भी (पञ्चमी के विसर्जनीय को बहल करके सकार आदेश होता है.वेद-विषय में)। च -VIII. iii. 60 (इण तथा कवर्ग से उत्तर शासु, वस् तथा घस् के सकार को) भी (मूर्धन्य आदेश होता है)। च-VIII. iii. 62 (अभ्यास के इण से उत्तर ण्यन्त जिष्विदा,ष्वद तथा षह धातुओं के सकार को सकारादेश होता है, षत्वभूत सन् के परे रहते) भी। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 च-VIII. iii. 64 च-VIII. iv. 17 (सित से पहले-पहले स्था इत्यादियों में अभ्यास का __ (उपसर्ग में स्थित निमित्त से उत्तर नि के नकार को णकार व्यवधान होने पर भी मूर्धन्य आदेश होता है,) तथा आदेश होता है; गद, नद, पत, पद, घुसञ्जक, मा, षो, हन्, या,वा,द्रा,प्सा,वप,वह,शम्,चि एवं दिह धातुजी के परे (अभ्यास के सकार को भी मर्धन्य होता है)। रहते) भी। च-VIII. iii. 68 च - VIII. iv. 24 (अव उपसर्ग से उत्तर) भी (स्तन्मुके सकार को आश्रयण __ (अन्तर् शब्द से उत्तर अयन शब्द के नकार थो) भी तथा समीपता अर्थ में मूर्धन्य आदेश होता है)। (णकारादेश होता है.देश का अभिधान न हो ते च -VIII. iii. 69 च-VIII. iv. 26 . (वि उपसर्ग से उत्तर) तथा चकार से: अव उपसर्ग से (धातु में स्थित निमित्त से उत्तर तथा उरु एवं षु शब्द उत्तर (भोजन अर्थ में स्वन धातु के सकार को मूर्धन्य से उत्तर नस् के नकार को) भी (वेद-विषय में णकार आदेश होता है.अडव्यवाय एवं अभ्यास-व्यवाय में भी)। आदेश होता है)। च - VIII. iii. 74 च-VIII. iv. 30 (इच् उपधावाले हलादि धातु से विहित जो कृत् प्रत्यय, (परि उपसर्ग से उत्तर) भी (स्कन्द् के सकार को विकल्प तत्स्थ जो अच् से उत्तर नकार, उसको) भी (उपसर्ग में से मूर्धन्यादेश होता है)। स्थित निमित्त से उत्तर विकल्प से पकारादेश होता है) च-VIII. 1. 94 च-VIII. iv. 38 (छन्द का नाम कहना हो तो) भी (विष्टार शब्द में षत्व (क्षुम्नादिगणपठित शब्दों के नकार को) भी (णकारादेश निपातन किया गया है)। नहीं होता)। च -VIII. iii. 98 च -VIII. iv. 46 (सषामादि शब्दों के सकार को) भी (मर्धन्य आदेश ___ (अच् से उत्तर यर् को विकल्प करके अच् परे न हो । होता है)। तो) भी (द्वित्व हो जाता है)। च-VIII. iii. 109 च-VIII. iv.53 (पृतना तथा ऋत शब्द से उत्तर) भी (सह धातु के सकार (अभ्यास में वर्तमान झलों को चर् आदेश होता है,तथा को वेद-विषय में मूर्धन्य आदेश होता है)। चकार से जश्) भी होता है)। च-VIII. iii. 114 च-VIII. iv.54 (खर् परे रहते) भी (झलों को चर आदेश होता है)। (प्रतिस्तब्ध, निस्तब्ध शब्दों में) भी (मर्धन्याभाव निपा चक्रीवत् -VIII. I. 12 तन है)। चक्रीवत् शब्द का निपातन किया जाता है। च-VIII. iv. 11 चक्षिङ -II. iv.54 (पूर्वपद में स्थित निमित्त से उत्तर प्रातिपदिक के अन्त चक्षिक के स्थान में (ख्या आदेश होता है, आर्धधातुक में जो नकार तथा नुम् एवं विभक्ति में जो नकार उसको) के विषय में)। भी (विकल्प से णकारादेश होता है)। ...चक्षुस्... -V.iv.51 च -VIII. iv. 13 देखें - अर्मनस्० V. iv. 51 (पूर्वपद में स्थित निमित्त से उत्तर कवर्गवान् शब्द उत्त चङ्-III.1.48 रपद रहते) भी (प्रातिपदिकान्त. नम तथा विभक्ति के ___ण्यन्त धातु, श्रि, द्रु, और स्नु धातुओं से उत्तर कर्तृवाची नकार को णकार आदेश होता है)। लुङ् परे रहते च्लि के स्थान में चङ् आदेश होता है)। ... . Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चडि चडि - VI. 1. 11 चङ् के परे रहते (धातु के अनभ्यास अवयव प्रथम एकाच् दृथा अजादि के द्वितीय एकाच को द्वित्व होता है) । चडि - VI. 1. 18 (णि स्वप् धातु को) चङ् प्रत्यय के परे रहते (सम्प्रसारण हो जाता है)। चङि - VI. 1. 212 चडन्त शब्द के (उपोत्तम को विकल्प करके उदात्त होता है) । चडि - VII. iv. 1 चपरक (णि के परे रहते अग की उपधा को ह्रस्व होता है। चडि - VIII. iii. 116 (स्तम्भु, षिवु तथा षह् धातु के सकार को) चङ् परे रहते (मूर्धन्य आदेश नहीं होता) । art-II. lv. 51 देखें - संश्चडोः II. iv. 51 ..चड. - VI. 1. 31देखें - संश्चडों: VI. 1. 31 .... चकम्य... - III. II. 150 देखें - जुचङ्क्रम्य... III. ii. 150 ड्रे - VII. iv. 93 चङ्परक (णि) परे रहते (अङ्ग के अभ्यास को लघु धात्वक्षर परे रहते सन् के समान कार्य होता है, यदि अन के अंक का लोप न हुआ हो तो)। चजो: VII. iii. 52 चकार तथा जकार के स्थान में (कवर्ग आदेश होता है; वित् तथा ण्यत् प्रत्यय परे रहते) । - चटकायाः IV. i. 128 चटका शब्द से (अपत्य अर्थ में ऐरक् प्रत्यय होता है)। चटका = चिड़िया । 245 - ... खण्... - VIII. 1. 30 देखें- यद्यदि० VIII. 1. 30 . चणपौ... V. ii. 26 देखें चुशुप्वणपौ Vii. 26 - . चतसृ - VI. iv. 4 देखें - तिसृचतस् VI. iv. 4 ...चतसु - VIL. II. 101 देखें - तिसुचतस् VII. I. 101 चतुर... - VII. 1. 98 देखें - चतुरनडुहो: VII. 1. 98 ... चतुर् - VIII III. 43 देखें द्विखश्चतुः VIII ii. 43 चतुरः - VI. 1. 161 चतुर् शब्द को (अन्तोदात्त होता है, शस् परे रहते) । चतुरनडुहो - - VII. i. 98 चतुर् तथा अनडुह अों को (सर्वनामस्थान विभक्ति परे रहते आम् आगम होता है, और वह उदात्त होता है) । - .. चतुरश्र... - V. Iv. 120 देखें - सुप्रातसुश्वo Viv. 120 .... चतुराम् - V. 1. 51 देखें षट्कतिo V. II. 51 - ... चतुर्थ... - II. II. 3 देखें - द्वितीयतृतीयचतुर्थ० II. I. 3 चतुर्थी - II. 1. 35 चतुर्थ्यन्त सुबन्त (तदर्थ, अर्थ, बलि, हित, सुख तथा रक्षित - इन समर्थ सुबन्तों के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है) । चतुर्थी III. 13 (अनभिहित सम्प्रदान कारक में) चतुर्थी विभक्ति होती है) । - चतुर्थी... चतुर्थी 11. III. 73 - (आशीर्वाद गम्यमान होने पर आयुष्य, मद्र, भद्र, कुशल, सुख अर्थ हित- इन शब्दों के योग में शेष विवक्षित होने पर विकल्प से) चतुर्थी विभक्ति होती है, (चकार से पक्ष में षष्ठी भी होती है)। चतुर्थी... - VI. ii. 43 चतुर्थी पूर्वपद को (चतुर्थ्यन्तार्थ के उत्तरपद रहते प्रकृतिस्वर होता है) । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...चतुर्थी... '246. ..चतुर्थी... - VIII. 1. 20 देखें-षष्ठीचतुर्थी. VIII. 1. 20 चतुर्थ्यर्थे -I. iii. 55 (तृतीया विभक्ति से युक्त सम-पर्वक दाण धात से भी आत्मनेपद होता है, यदि वह तृतीया) चतुर्थी के अर्थ में हो तो)। चतुर्थ्यर्थे -II. iii. 62 चतुर्थी के अर्थ में (बहुल करके षष्ठी विभक्ति होती है, वेद में)। चतुर्थ्या: - VI. iii.7 . (जिस सज्ञा से वैयाकरण ही व्यवहार करते हैं,उसको कहने में पर शब्द से उत्तर भी) चतुर्थी विभक्ति का (अलुक् होता है)। ...चतुथ्यौँ -II. iii. 13 देखें-द्वितीयाचतुथ्यौँ II. III. 13 ...चतुर्थ्य: - V. iv. 18 देखें-द्वित्रिचतुर्थ्य: V. iv. 18 ... चतुर्थ:-VI.1. 173 देखें - षट्तिचतुर्थ्य: VI. I. 173 ... चतुर्थ्य: - VII. I. 56 चतुर्थ्य: - VII. II. 59: (वृतु इत्यादि) चार धातुओं से उत्तर (सकारादि आर्ध- धातुक को परस्मैपद परे रहते इट् का आगम नहीं होता)। चतुष्पाच्छकुनिषु - VI. 1. 137 (अप उपसर्ग से उत्तर) चार पैर वाले बैल आदि तथा पक्षी मोर आदि में) जो 'कुरेदना हो तो उस विषय में संहिता में ककार से पूर्व सूट का आगम होता है)। चतुष्पात्...-VI.i. 137 देखें - चतुष्पाच्छकुनिषु VI. 1. 137 चतुष्पादः-II.1.70 चतुष्पाद् = चार पैर वाले पश आदि वाचक (सबन्ती शब्द (समानाधिकरण गर्भिणी सुबन्त के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होते हैं और वह तत्पुरुष समास होता है)। चतुष्पाभ्यः - V.I. 135 चतुष्पाद् अभिधायी प्रातिपदिकों से (अपत्य अर्थ में ढ प्रत्यय होता है)। ...चत... - VII. II. 34 देखें-असितस्कभित० VII. 1.34 . ...चत्वारिंशत्... - V.1.58 देखें-पंक्तिविंशति०V.1.58 . ... चत्वारिंशतो... V.I.61 देखें-त्रिंशच्चत्वारिंशतो: V.i.61 चत्वारिंशताभृतौ -VI. 1.48 (सबको अर्थात् द्वि, अष्टन तथा त्रि को जो कुछ भी कह आये हैं, वह) चत्वारिंशत् आदि सङ्ख्या उत्तरपद . रहते (बहुव्रीहि समास तथा अशीति को छोड़कर विकल्प करके हो)। चन... -VIII. I.57 देखें-चनचिदिक VIII.1.57 चनचिदिवगोत्रादितद्धिताडितेषु - VII. I. 57 चन.चित. इव.गोत्रादिगण पठित.शब्द.तद्धित प्रत्यय एवं आमेडित सजक शब्दों के परे रहते (गतिसज्जक से भिन्न किसी पद से उत्तर तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता)। चन्द्रोत्तरपदे - VI. 1. 146 (हस्व से उत्तर) चन्द्र शब्द उत्तरपद हो तो (सुट् का . आगम होता है,मन्त्रविषय में)। ...चमः-III. 1. 126 . देखें - आसुयुवफिक III. 1. 126 ...चमाम् - VII. 1.75 देखें-ष्ठिवुक्लमुचमाम् VII. 1.75 . चर -VIII. iv.53 (अभ्यास में वर्तमान झलों को) चर आदेश होता है, (तथा चकार से जश् भी होता है)। ...चर... -III. 1.24 देखें - लुपसदचर० III. 1. 24 ...चर.. -III. I. 100 देखें-गदमदचरo III. 1. 100 चर... - VII. iv. 87 देखें - चरफलो: VII. iv. 87 चरः-I. ill.53 (उत् उपसर्ग से उत्तर सकर्मक)चर धातु से (आत्मनेपद होता है)। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 247 चवायोगे ...चर: -III. ii. 136 देखें- अलंकृञ् III. I. 136 ...चरः -III. ii. 184 देखें- अतिलघू III. ii. 184 ...चरकात्-IV. iii. 107 देखें-कठचरकात् IV. iii. 107 ...चरकाभ्याम् -V.I. 10 देखें-माणक्चरकाभ्याम् V... 10 चरट् - V. iii. 53 (भूतपूर्व अर्थ में वर्तमान प्रातिपदिक से) चरट् प्रत्यय होता है)। ....चरणात् - IV. i. 125 देखें - गोत्रचरणात् IV. iii. 125 . ...चरणात् V. 1. 133 देखें- गोत्रचरणात् V.I. 133 चरणानाम् -II. iv.3 (अनुवाद गम्यमान होने पर) चरणवाचियों का (द्वन्द्व एकवद् होता है)। चरणे - VI. III. 85 चरण गम्यमान हो तो (ब्रह्मचारी शब्द के उत्तरपद रहते समान शब्द को स आदेश हो जाता है)। चरणेभ्यः - IV. ii. 45 - (षष्ठीसमर्थ) चरणवाची प्रातिपदिकों से (समूह अर्थ में किये जाने वाले अर्थ में प्रत्यय होते हैं)। चरति -IV. iv.8 (तृतीयासमर्थ प्रातिपदिकों से) आचरण करता है.चलता है अर्थ में (ठक् प्रत्यय होता है)। चरति - IV. iv. 41 द्वितीयासमर्थ धर्म प्रातिपदिक से) आचरण करता हैअर्थ में (ठक् प्रत्यय होता है)। चरफलो: - VII. iv.87 'चर गतौ' तथा 'त्रिफला विशरणे' अङ्ग के (अभ्यास को भी यङ् तथा यङ्लुक् परे रहते नुक् आगम होता है)। ...चरम... -I.1.32 देखें-प्रथमचरमतयाल्पार्धकतिपयनेमाः I.1.32 ...चरम..-II. 1.57 देखें - पूर्वापरप्रथम II. 1. 57 ...चरि -III. iv. 16 देखें-स्थेण्कृञ् III. iv. 16 चरे: -III. ii. 16 'चर्' धातु से (अधिकरण सुबन्त उपपद रहते 'ट' प्रत्यय होता है)। ....चरो: -III. i. 15 देखें- वर्तिचरोः III. I. 15 ...चर्च: -III. iii. 105 देखें-चिन्तिपूजि० III. iii. 105 चर्म... -III. iv. 31 देखें - चर्मोदरयोः III. iv. 31 । चर्मणः - V.i. 15 (चतुर्थीसमर्थ) चर्म के (विकृतिवाची) प्रातिपदिक से (विकृति के लिए प्रकृति' अभिधेय होने पर 'हित' अर्थ में अञ् प्रत्यय होता है)। चर्मण्वती-VIII. ii. 12 चर्मण्वती शब्द का निपातन किया जाता है। चर्मोदरयोः -III. iv. 31 चर्म तथा उदर कर्म उपपद रहते (ण्यन्त पूर धातु से णमुल् प्रत्यय होता है)। ...चर्विधिषु -I.1.57 देखें - पदान्तद्विर्वचनवरे० I. 1. 57 चलन..-III. 1. 148 देखें-चलनशब्दार्थात् III. 1. 148 चलनशब्दार्थात् - III. ii. 148 (अकर्मक) चलनार्थक और शब्दार्थक धातुओं से (तच्छीलादि कर्ता हो, तो वर्तमानकाल में युच् प्रत्यय होता ...चलनार्थेभ्यः -I. il.87 देखें - निगरणचलनार्थेभ्यः I. iii. 87 चवायोगे - VIII. 1. 59 च तथा वा के योग में (प्रथमोच्चरित दो तिङन्तों में प्रथम तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता)। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चवाहाहैवयुक्ते चवाहाहैवयुक्ते VIII. 1. 24 चवा, ह, अह, एव इनके योग में (षष्ठ्यन्त चतुर्थ्यन्त, द्वितीयान्त युष्मद् अस्मद् शब्दों को पूर्व सूत्रों से प्राप्त वाम्, नौ आदि आदेश नहीं होते) । चाक्रवर्मणस्य - VI. 1. 126 (प्लुत 'ई ३' अच् परे रहते) चाक्रवर्मण आचार्य के मत (अप्लुत के समान हो जाता है) । .... चाटु... - III. ii. 23 देखें- शब्दश्लोक० III. II. 23 चादयः - I. iv. 57 चादिगणपठित शब्द (निपातसंज्ञक होते हैं, यदि वे द्रव्यवाची न हों तो)। चादिलोपे VIII. 1. 63 चादियों के लोप होने पर (प्रथम तिङन्त को विकल्प करके अनुदात्त नहीं होता) । 248 चादिषु - VIII. 1. 58 चादियों के परे रहते (भी गतिभिन्न पद से उत्तर तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता) । .... चानराटेषु - VI. II. 103 देखें - ग्रामजनपदा० VI. ii. 103 चानश् III. 1. 129 (ताच्छील्य, वयोवचन, शक्ति अर्थों में द्योतित होने पर धातु (से वर्तमान काल में) चानश् प्रत्यय होता है। ... चान्द्रायणम् - V. 1. 72 देखें - पारायणरावण० V. 1. 72 - चाप् - IV. 1. 74 (यडन्त प्रातिपदिकों से स्त्रीलिङ्ग में) चाप् प्रत्यय होता है। 1 - चाय: - VI. 1. 34 चायृ धातु को (वेदविषय में बहुल करके की आदेश हो जाता है)। ... चार्वादयः VI. ii. 160 देखें - कृत्योकेष्णुच् VI. 1. 160 चाहलोपे - VIII. 1. 62 चायें - II. ii. 29 'च' के अर्थ समाहार और इतरेतर योग में ( वर्त्तमान अनेक सुबन्त समास को प्राप्त होते हैं, और वह द्वन्द्व समास होता है। च तथा अह शब्द का लोप होने पर (प्रथम तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता, यदि 'एव' शब्द वाक्य में अवधारण अर्थ में प्रयुक्त किया गया हो तो)। ...fa- V. ii. 33 देखें इनफ्टिय् VII. 33 चि... - VI. 1. 53 देखें - चिस्फुरो: VI. 1. 53 ...चिक... - V. 1. 33 - देखें - इनच्पिटच्० . . 33 चिकचि - V. ii. 33 (नासिका का झुकाव ' अभिधेय हो तो नि उपसर्ग प्रातिपदिक से इनच् तथा पिटच् प्रत्यय होते हैं, सञ्ज्ञाविषय में तथा नि शब्द को यथासङ्ख्य करके प्रत्यय के साथसाथ) चिक तथा चि आदेश भी हो जाते हैं। चिकयामक: III. i. 42 चिकयामकः शब्द (चिञ् धातु से णि प्रत्यय द्वित्व आम् और कुत्व करके) वेद में विकल्प से निपातित है। (साथ ही अभ्युत्सादयामकः प्रजन्यामकः, रमयामकः, पावयांक्रियात्, विदामक्रन् शब्द भी वेदविषय में विकल्प से निपातित किये जाते हैं) । चायः VI. i. 21 चायृ धातु को (यङ् प्रत्यय के परे रहते की आदेश होता चिण् - III. 1. 60 है)। चिण्... - चिकित्स्यः V. ii. 92. = (क्षेत्रियच् शब्द का निपातन किया जाता है, दूसरे क्षेत्र शरीर में) चिकित्सा किये जाने योग्य अर्थ में चिच्युषे - VI. 1.35 (वेदविषय में) चिच्युषे का निपातन किया जाता है। (गत्यर्थक 'पद्' धातु से उत्तर कर्तृवाची लुङ् 'त' शब्द परे रहते चिल के स्थान में) चिण आदेश होता है)। चिण् - III. 1. 66 (च्लि के स्थान में धातुमात्र से उत्तर भाव अथवा कर्मवाची लुङ् का 'त' शब्द परे रहते) चिण् आदेश होता है। faul... - VI. iv. 93 देखें विण्णामुलो: VI. Iv. 93 - Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 249 चिण... - VII. I. 69 चित: -VI. i. 157 देखें -चिण्णमुलो: VII I. 69 . चकार इत् वाले समुटित शब्द को (अन्तोदात्त होता है)। चिण...-VII: iii. 33 चिततूलभारिषु - VI. iii. 64 देखें-चिण्कृतो: VII. iii. 33 (इष्टका, इषीका,माला-इन शब्दों को) चित,तूल तथा ..चिण... - VII. iii. 85 भारिन् शब्दों के उत्तरपद रहते (यथासङ्ख्य करके हस्व देखें-अविचिण VII. iii. 85 हो जाता है)। चिण: -VI. iv. 104 ...चिति... -III. iii. 41 चिण से उत्तर (प्रत्यय का लुक् हो जाता है)। देखें-निवासचिति III. iii. 41 चिणि - VI. iv. 33 चिते: - VI. iii. 126 (भङ्ग अङ्ग के नकार का लोप भी विकल्प से होता है) (कप् परे रहते) चिति शब्द को (दीर्घ हो जाता है,संहिताचिण् प्रत्यय परे रहते। विषय में)। ...चिणौ -III.i. 89 चितवति -v.i.88 देखें-यक्विणौ III. 1.89 चित्तवान् = चेतन प्रत्ययार्थ के अभिधेय होने पर (द्वितीचिण्कृतो: - VII. iii: 33 यासमर्थ वर्षशब्दान्त द्विगुसज्ञक प्रातिपदिकों से 'सत्का(आकारान्त अङ्गको)चिण् तथा (जित,णित) कृत् प्रत्यय रपूर्वक व्यापार', 'खरीदा हुआ', 'हो चुका' तथा 'होने परे रहते (युक् आगम होता है)। वाला'- इन अर्थों में उत्पन्न प्रत्यय का नित्य ही लुक चिण्णमुलो: - VI. iv. 93 होता है)। (मित अज की उपधा को) चिणपरक तथा णमुलपरक चित्तवत्कर्तृकात्-I. iii. 88 . (णि परे रहते विकल्प से दीर्घ होता है)। (अण्यन्तावस्था में अकर्मक तथा) चेतन कर्ता वाले धात विण्णमुलो: - VII. I. 69 से (ण्यन्तावस्था में परस्मैपद होता है)। . (लम् अङ्ग को) चिण् तथा णमुल् प्रत्यय परे रहते चित्तविरागे - VI. iv. 91 (विकल्प से नुम् आगम होता है)। चित्त के विकार अर्थ में (दोष अङ्ग की उपधा को णि चिण्वत् - VI. iv. 62 परे रहते विकल्प से ऊकारादेश होता है)। (भाव तथा कर्मविषयक स्य, सिच, सीयुट् और तास् चित्य... - III. 1. 132 के परे रहते उपदेश में अजन्त धातुओं तथा हन.ग्रह एवं देखें-चित्याग्निचित्ये III. I. 132 दृश धातुओं को) चिण के समान (विकल्प से कार्य होता चित्याग्निचित्ये-III. 1. 132 है, तथा इट् आगम भी होता है)। (अग्नि अभिधेय है तो) चित्य तथा अग्निचित्या शब्द ...चित्... - VI. ii. 19 भी निपातन किये जाते हैं। देखें-भूवाक् VI. ii. 19 .. . ...चित्र..-III. ii. 21 ..चित्... - VIII. 1.57 देखें-दिवाविभा० III. ii. 21 देखें-चनचिदिव० VIII. 1.57 ....चित्रडा -III. I. 19 देखें- नमोवरिवश्चित्रहः III. 1. 19 वित् - VIII. ii. 101 चित्रीकरणे- III. Iii. 150 'चित् (यह निपात भी जब उपमा के अर्थ में प्रयुक्त हो आश्चर्य गम्यमान हो तो (भी यच्च, यत्र उपपद रहते तो वाक्य के टि को अनुदात्त प्लुत होता है)। धातु से लिङ् प्रत्यय होता है)। चित... -VI. iii.64 ...चिद्.. -VIII. 1.57 देखें-चिततूलभारिषु VI.ili.64 देखें-चनचिदिवगोत्रादिO VIII. 1.57 परस्मैपद होतानकर्ता वाले की वित्तविराम Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिद् 250 ...चत... चु... -I. iii.7 देखें-चुटू I. iii.7 चु.. - V. iv. 106 देखें-चुदवहान्तात् V. iv. 106 . . चुः - VII. iv. 62 (अभ्यास के कवर्ग तथा हकार को) चवर्ग आदेश होता.' fare - VIII. ii. 101 चित् = (इति) यह निपात (भी जब उपमा के अर्थ में प्रयुक्त हो तो वाक्य के टि को अनुदात्त प्लुत होता है)। चिदुत्तरम् -VIII.i. 48 जिससे उत्तर चित है (तथा जिससे पूर्व कोई शब्द नहीं है, ऐसे किंवृत्त शब्द से युक्त तिडन्त को अनुदात्त नहीं होता)। ...चिनोति... VIII. iv.17 देखें- गदनदO VIII. iv. 17 . चिन्ति... III. iii. 105 . देखें-चिन्तिपूजि III. iii. 105 । चिन्तिपूजिकविकुम्बि: - III. iii. 105 चिति,पूज,कथ,कुम्ब तथा चर्च् धातुओं से (भी स्त्रीलिङ्ग कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में अङ्प्रत्यय होता है)। चिर... -VI. 1.6 देखें-चिरकृच्छयो: VI. 1.6 चिरकृच्छ्यो : - VI. II. 6. चिर तथा कृच्छ शब्द उत्तरपद रहते (तत्पुरुष समास में प्रतिबन्धिवाची पूर्वपद को प्रकृतिस्वर होता है)। चिरम् -VI. ii. 127 (तत्पुरुष समास में उपमानवाची) चीर उत्तरपद शब्द को (आधुदात्त होता है)। ...चिरम्... IV. 1. 23 देखें-सायंचिरंपाहणे... 23 विस्फुरो: - VI. 1.53 चि तथा स्फुर् धातुओं के (एच् के स्थान में णिच् प्रत्यय के परे रहते विकल्प से आत्व हो जाता है)। चिहणादीनाम् - VI. ii. 125 (नपंसकलिङ्ग कन्थान्त तत्परुष समास में) चिहणादि गणपठित शब्दों के (आदि को उदात्त होता है)। चीरम् - VI. II. 127 (तत्पुरुष समास में उपमानवाची) चीर उत्तरपद शब्द को (आधुदात्त होता है)। चीरम् = लम्बा, कम चौड़ा वस्त्र। ...चीवरात् -III. 1. 20 देखें-पुच्छभाण्डचीवरात् III. I. 20 .....चुः - VIII. iv. 39 देखें- श्चु: VIII. iv. 39 चुचुप.. -V.ii. 26 देखें-चुञ्चप्वणपोv.ii. 26 चुक्षुप्वणपौ-v.ii. 26 (तृतीयासमर्थ प्रातिपदिक से 'ज्ञात' अर्थ में) चुचुप और चणप् प्रत्यय होते हैं। चुटू -1.11.7 (उपदेश में प्रत्यय के आदि में वर्तमान) चवर्ग और टवर्ग (इत्सझक होते हैं)। चुदवहान्तात् - V. iv. 107 (समाहार द्वन्द्व में वर्तमान) चवर्गान्त,दकारान्त,षकारान्त : तथा हकारान्त शब्दों से (समासान्त टच् प्रत्यय होता है)। ...चुना - VIII. iv. 39 . देखें-श्वुना VIII. iv. 39 ...चुरादिष्यः -III.1.25 खें-सत्यापपाश II.1.25 ....चूर्ण... -III. I. 25 देखें -सत्यापपाश० III. 1. 25 ...चूर्ण... - III. iv. 35 देखें - शुष्कचूर्णरूक्षेषु III. iv. 35 चूर्णात् - IV. iv. 23 (तृतीयासमर्थ) चूर्ण प्रातिपदिक से मिला हुआ अर्थ में इनि प्रत्यय होता है)। चूर्णादीनि - VI. ii. 134 (प्राणिभिन्न षष्ठ्यन्त शब्द से उत्तर तत्पुरुष समास में चूर्णादि उत्तरपद शब्दों को (आधुदात्त होता है)। ....चूत... -VII. 1.57 देखें-कृतचूत VII. 1.57 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 251 ...चते: -III. 1. 110 देखें-अक्लूपिचते. III. I. 110 के-III. II. 71 'चिज्' धातु से (अग्नि कर्म उपपद रहते ‘क्विप्' प्रत्यय होता है,) भूतकाल में। चेत् -I. ii. 65 (वृद्ध = गोत्र प्रत्ययान्त शब्द युवा प्रत्ययान्त के साथ शेष रह जाता है.) यदि (वृद्ध युव प्रत्ययनिमित्त ही भेद हो तो)। चेत् -I.ii. 55 (ततीया विभक्ति से युक्त सम्-पूर्वक दाण् धातु से भी आत्मनेपद होता है) यदि (वह तृतीया चतुर्थी के अर्थ में हो तो)। चेत् -I. iii. 67 ' (अण्यन्तावस्था में जो कर्म. वही) यदि (ण्यन्तावस्था में कर्ता बन रहा हो, तो ण्यन्त धातु से आत्मनेपद होता है, आध्यान = अर्थात् उत्कण्ठापूर्वक स्मरण अर्थ को छोड़कर। चेत् - III. iii. 154 (पर्याप्तिविशिष्ट सम्भावन अर्थ में वर्तमान धातु से लिङ् प्रत्यय होता है,) यदि (अलम् शब्द का अप्रयोग सिद्ध हो रहा हो)। . चेत् - III. iv. 27 (अन्यथा, एवं, कथं, इत्यम् शब्दों के उपपद रहते का धातु से णमुल प्रत्यय होता है). यदि (कब का अप्रयोग सिद्ध हो)। चेत्-V.i. 114 (ततीयासमर्थ प्रातिपदिकों से 'समान' अर्थ में वति रोम प्रत्यय होता है), यदि (वह समानता क्रिया की हो तो)। चेत् - V. iv. 10 (स्थान-शब्दान्त प्रातिपदिक से विकल्प से छ प्रत्यय होता है), यदि (समान स्थान वाले व्यक्ति द्वारा स्थानान्तपदप्रतिपा द्य तत्त्व अर्थवान् हो तो)। चेत् - VI. 1. 130 (स' के सु का लोप होता है, अच् परे रहते) यदि (लोप होने पर पाद की पूर्ति रही हो तो)। ...चेत्... - VIII. I. 30 देखें- यदिO VIII. 1. 30 चेत् - VIII. 1.51 (गत्यर्थक धातुओं के लोट् लकार से युक्त लुडन्त तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता),यदि (कारक सारा अन्य न हो तो)। ...चेतस्... - V. iv. 31 देखें- अर्मनस० V. iv. 51 ...चेति... - III ... 138 देखें -लिम्पविन्द III. 1. 138 चेल... - VI. 1. 126 देखें - चेलखेटO VI. ii. 126 चेलखेटकटुककाण्डम् - VI. ii. 126 चेल,खेट,कटुक,काण्ड- इन उत्तरपद शब्दों को निन्दा गम्यमान होने पर आधुदात्त होता है)। ...चेल.. - VI. iii. 42 . देखें - घरूप० VI. ii. 42 चेले -III. iv. 33 'चेलवाची = वस्त्रवाची कर्म उपपद हों तो (वर्षा का प्रमाण गम्यमान होने पर ण्यन्त क्नूय धातु से णमुल प्रत्यय होता है)। चेष्टायाम् -II. iii. 12 चेष्टा जिनकी क्रिया हो,ऐसे (गत्यर्थक धातुओं के मार्गरहित कर्म में द्वितीया और चतुर्थी विभक्ति होती है)। ...चेष्ट्योः ... - VII. iv. 96 देखें- वेष्टिचेष्ट्यो: VII. iv.96 ..च ...चैत्रीभ्यः ... -IV.ii. 23 देखें-फाल्गुनीश्रवणाo IV. ii. 23 चो: - VIII. ii. 30 चवर्ग के स्थान में (कवर्ग आदेश होता है.झल परे रहते या पदान्त में)। चौ - VI. i. 216 चु परे रहते (पूर्व को अन्त उदात्त होता है)। चौ - VI. iii. 137. चु परे रहते (पूर्व अण को दीर्घ होता है)। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252 8 . चौरे -v.i. 112 ...च्चि... -I.iv.60 (प्रयोजन समानाधिकरणवाची प्रथमासमर्थ एकागार देखें - ऊर्यादिच्चिडाच: I. iv.60 प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ में 'ऐकागारिकट' शब्द का निपा- च्चि: -V.iv.50 तन किया जाता है), चोर अभिधेय होने पर। . (कृ, भू तथा अस् धातु के योग में सम्-पूर्वक पद् धातु च्छ्... - VI. iv. 19 के कर्ता में वर्तमान प्रातिपदिक से) च्चि प्रत्यय होता है)। देखें - छ्वो: VI. iv. 19 च्चौ-VII. iv. 16 च्छ्वोः -VI. iv. 19 च्चि प्रत्यय परे रहते (भी अजन्त अङ्ग को दीर्घ होता है)। च्छ तथा व् के स्थान में (यथासङ्ख्य करके श् और ऊठ् आदेश होते हैं; अनुनासिक प्रत्यय, क्वि तथा झलादि चौ -VII. iv. 32 कित् डित् प्रत्ययों के परे रहते)। (अवर्णान्त अङ्ग को) च्चि परे रहते (ईकारादेश होता है)। च्क -IV.i.98 व्यर्थे - III. iv. 62 (गोत्रापत्य में षष्ठीसमर्थ कुआदि प्रातिपदिकों से)च्फ प्रत्यय होता है। व्यर्थ में वर्तमान (नाधार्थ प्रत्ययान्त शब्द उपपद हों ...च्कजोः - V.iti. 113 तो कृ, भू धातुओं से क्त्वा और णमुल् प्रत्यय होते हैं)। देखें-वातच्यत्रोः -V. iii. 113 व्यर्थेषु - III. ii. 56 ...च्यवतीनाम् - VII. iv.81 च्व्यर्थ में वर्तमान (अच्च्यन्त 'कृ' धातु से करण कारक देखें-प्रवतिशृणोति VII. iv. 81 में 'ख्युन' प्रत्यय होता है); आढ्य,सुभग, स्थूल,पलित, चिल: -III.i. 43 नग्न, अन्ध तथा प्रिय कर्म के उपपद रहते)। (धातुमात्र से) च्लि प्रत्यय होता है, (लुङ् परे रहते)। ....च्च्योः - IV. iv. 152 च्ले: - III.i.44 च्लि के स्थान में (सिच् आदेश होता है)। देखें - क्यव्यो : VI. iv. 152 , ...छ... -VI. iv. 19 देखें - च्छ्वोः VI. iv. 19 छ - प्रत्याहारसूत्र XI आचार्य पाणिनि द्वारा अपने ग्यारहवें प्रत्याहार सूत्र में पठित तृतीय वर्ण। पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्णमाला का बत्तीसवां वर्ण। . छ - IV.i. 149 (फिजन्त वृद्धसंज्ञक प्रातिपदिक सौवीर गोत्रापत्य से कत्सित युवापत्य को कहने में) छ (तथा ठक्) प्रत्यय (बहुल करके) होता है। छ -V.ii. 27 (प्रथमासमर्थ देवतावाची अपोनप्त तथा अपांनप्त शब्दों से) छ प्रत्यय (भी) होता है। छ - IV. ii. 31 (प्रथमासमर्थ देवतावाची द्यावापृथिवी, शुनासीर, मरुत्वत्, अग्नीषोम, वास्तोष्पति, गृहमेध प्रातिपदिकों से) छ (तथा यत्) प्रत्यय (होते हैं)। (तथा यत् प्रत्यय छ - IV. iv. 14 (तृतीयासमर्थ आयुध प्रातिपदिक से) छ (तथा ठन) प्रत्यय (होते हैं)। छ - V.i. 39 (षष्ठीसमर्थ पुत्र प्रातिपदिक से 'कारण' अर्थ में) छ प्रत्यय (तथा यत् प्रत्यय होते हैं,यदि वह कारण संयोग अथवा उत्पात हो तो)। छ -V.i.68 द्वितीयासमर्थ कडकर और दक्षिणा प्रातिपदिकों से 'समर्थ है' अर्थ में) छ (और यत्) प्रत्यय (होते हैं)। '08 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 253 छगलिनः छ -V.i. 110 छ: - IV. iii. 91 (प्रयोजन समानाधिकरणवाची प्रथमासमर्थ अनुप्रवच- (प्रथमासमर्थ पर्वतवाची प्रातिपदिकों से 'वह इनका नादि प्रातिपदिकों से षष्ठ्यर्थ में) छ प्रत्यय होता है। अभिजन' अर्थ में) छ प्रत्यय होता है.(आयुधजीवियों को छ -V.i. 134 कहने के लिये)। (षष्ठीसमर्थ ऋत्विग विशेषवाची प्रातिपदिकों से भाव छ: - IV. iii. 130 और कर्म अर्थों में) छ प्रत्यय होता है। (षष्ठीसमर्थ रैवतिकादि प्रातिपदिकों से 'इदम्' अर्थ में) छ -v.ii. 17 . ___ छ प्रत्यय होता है। (द्वितीयासमर्थ अभ्यमित्र प्रातिपदिक से 'पर्याप्त जाता छः - V.i.1 है' अर्थ में) छ, (यत् और ख) प्रत्यय (होते हैं)। (तेन क्रीतम्' इस सूत्र से पहले पहले कहे गए अर्थों छ -V.iv.9 में) छ प्रत्यय अधिकृत होता है। (जाति शब्द अन्त वाले प्रातिपदिक से द्रव्य गम्यमान छ: –.i. 90 हो तो स्वार्थ में) छ प्रत्यय होता है। (द्वितीयासमर्थ वत्सर-शब्दान्त प्रातिपदिकों से 'सत्कार...छ... - VII.i.2 पूर्वक व्यापार', 'खरीदा हुआ', 'हो चुका' तथा 'होने . देखें- फढखछ VII.i.2 . वाला'- इन अर्थों में) छ प्रत्यय होता है.(वेदविषय में)। ...छ... - VIII. ii. 36 छ. -v.ii. 59 . देखें-वश्वप्रस्ज. VIII. ii. 36 (प्रातिपदिक मात्र से मत्वर्थ में) छ प्रत्यय होता है,(सक्त छः - IV.i. 143 और साम वाच्य हो तो)। — (स्वस प्रातिपदिक से अपत्यार्थ में) छ प्रत्यय होता है। छ: - V. iii. 105 छः - IV. ii. 6 (कुशाग्र प्रातिपदिक से इवार्थ में) छ प्रत्यय होता है । : ' (तृतीयासमर्थ नक्षत्र के द्वन्द्ववाची शब्दों से युक्त काल' छ: - V. iii. 116 'अर्थ में) छ प्रत्यय होता है। . (शस्त्रों से जीविका कमाने वाले पुरुषों के समूहवाची छ - IV. ii. 89 दामन्यादिगणपठित तथा त्रिगर्तषष्ठ प्रातिपदिक से स्वार्थ __ (उत्करादि प्रातिपदिकों से चातुरर्थिक) छ प्रत्यय होता है। में) छ प्रत्यय होता है। छ. -IVii. 113 छ: - VII. iii. 77 - (वृद्धसंज्ञक प्रातिपदिक से शैषिक) छ प्रत्यय होता है। (इष, गम्लु तथा यम् अङ्गों को शित् प्रत्यय परे रहते) छ.-IV. ii. 136 छकारादेश होता है। (गर्त शब्द उत्तरपदवाले देशवाची प्रातिपदिकों से छ: -VIII. iv.61 शैषिक) छ प्रत्यय होता है। (झय प्रत्याहार से उत्तर शकार के स्थान में अट परे रहते छ: - IV. iii. 62 विकल्प से) छकार आदेश होता है। (सप्तमीसमर्थ जिह्वामल तथा अङ्गलि प्रातिपदिकों से ...छगलात्... - IV. 1. 117 भव अर्थ में) छ प्रत्यय होता है। देखें - विकर्णशुग IV.i. 117 छः - IV.ii. 88 छगलिन: - IV. iii. 109 - (शिशुक्रन्द,यमसभ, द्वन्द्ववाची तथा इन्द्रजननादिगणप (तृतीयासमर्थ) छगलिन प्रातिपदिक से (वेदविषय में ठित शब्दों से 'अधिकृत्य कृते ग्रन्थे' अर्थ में) छ प्रत्यय प्रोक्त अर्थ को कहने में दिनुक प्रत्यय होता है)। होता है। छगलिन् = कलापि का शिष्य । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छण् छण् - IV. 1. 132 (पितृष्वसृ शब्द से अपत्य अर्थ में) छण् प्रत्यय होता है । ... छण्... - IV. ii. 79 देखें - वुञ्छण्कठo IV. ii. 79 ... छण्... - IV. iii. 94 देखें - ढक्छण्ढज्यक: IV. iii. 94 छण् - IV. iii. 102 (तित्तिरि, वरतन्तु, खण्डिका, उख प्रातिपदिकों से छन्दोविषयक प्रोक्त अर्थ में) छण् प्रत्यय होता है । छत्रादिभ्यः - IV. iv. 62 (शील समानाधिकरणवाची प्रथमासमर्थ) छत्रादि प्रातिपदिकों से (षष्ठ्यर्थ में ण प्रत्यय होता है) । 254 छदिः ... - V. 1. 13 देखें - छदिरुपधिबले: V. 1. 13 छदिरुपधिवले: V. 1. 13 (चतुर्थीसमर्थ विकृतिवाची) छदिस्, उपधि और बलि प्रातिपदिकों से ('उसकी विकृति के लिए प्रकृति' अभिधेय होने पर 'हित' अर्थ में ढञ् प्रत्यय होता है)। छन्द:... - IV. 1. 65 देखें - छन्दो ब्राह्मणानि IV. ii. 65 छन्दः - V. ii. 84 'वेद को (पढ़ता है' अर्थ में श्रोत्रियन् शब्द का निपातन किया जाता है) । छन्दसि - I. ii. 36 वेद-विषय में (तीनों स्वरों को विकल्प से एकश्रुति हो जाती है। छन्दसि - I. ii 61 वेदविषय में (पुनर्वसु नक्षत्र के द्वित्व अर्थ में विकल्प से एकत्व होता है। छन्दसि - I. iv. 9 वेदविषय में (षष्ठ्यन्त से युक्त पति शब्द विकल्प से घिसंज्ञक होता है) । छन्दसि - I. iv. 20 वेदविषय में (अयस्मय आदि शब्द साधु समझे जायें)। छन्दसि - I. iv. 80 वेदविषय में (गति-उपसर्गसंज्ञक शब्द धातु से पर तथा पूर्व में भी आते हैं) । छन्दसि छन्दसि – II. iii. 3 वेद-विषय में (हु धातु के अनभिहित कर्म में तृतीया और द्वितीया विभक्ति होती है) । छन्दसि - II. iii. 62 वेद में (चतुर्थी के अर्थ में षष्ठी विभक्ति बहुल करके होती है)। छन्दसि - II. iv. 28 वेद में (हेमन्तशिशिर और अहोरात्र पूर्वपद के समान लिङ्गवाले होते है)। छन्दसि - II. iv. 39 वेद में (बहुल करके अद् को घस्लृ आदेश होता है, घञ् और अच् प्रत्यय के परे रहते) । छन्दसि -II. iv. 73 वेद में (शप् का लुक् बहुल करके होता है)। छन्दसि - II. iv. 76 (जुहोत्यादि धातुओं से परे) वेद में (शप् के स्थान में बहुल करके श्लु होता है) । - छन्दसि - III. 1. 42 (अभ्युत्सादयामकः, प्रजनयामकः, चिकयामकः, रमयामकः, पावयांक्रियात् तथा विदामक्रन् पद) वेदविषय में (विकल्प से निपातित होते हैं) 1 छन्दसि -III. 1. 50 वेद-विषय में गुप् धातु से परे चिल के स्थान में विकल्प से चङ् आदेश होता है, कर्तृवाची लुङ् परे रहने पर)। छन्दसि - III. i. 59 वेद-विषय में (कर्तृवाची लुङ् परे रहने पर कृ, मृ, दृ तथा रुह धातुओं से उत्तर चिल के स्थान में अड़ आदेश होता है) । छन्दसि - III. 1. 84 वेदविषय में (श्ना के स्थान में शायच् आदेश होता है, तथा शानच् भी होता है) । छन्दसि - III. 1. 123 वेदविषय में (निष्टर्क्स, देवहूय, प्रणीय, उन्नीय, उच्छिष्य, मर्य, स्त, ध्वर्य, खन्य, खान्य, देवयज्या, आपृच्छ्य, प्रतिइन षीव्य, ब्रह्मवाद्य, भाव्य, स्ताव्य, उपचाय्यपृड शब्दों का निपातन किया जाता है) । — Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छन्दसि 255 छन्दसि छन्दसि-III. 1. 27 छन्दसि-IV.1.59 वेदविषय में (वन,षण,रक्ष,मथ धातुओं से कर्म उपपद वेदविषय में (दीर्घजिह्वी शब्द भी ङीष्-प्रत्ययान्त निपारहते इन प्रत्यय होता है)। तन किया जाता है)। छन्दसि-III. 1. 63 वेद विषय में (सह' धातु से सुबन्त उपपद रहते ‘ण्वि' छन्दसि - IV.1.71 (कट्ठ और कमण्डलु शब्दों से) वेदविषय में (स्त्रीलिङ्ग प्रत्यय होता है)। छन्दसि -III. 1.73 में ऊङ् प्रत्यय होता है)। वेदविषय में (उप उपपद रहते 'यज्' धातु से 'णिच् छन्दसि - IV. III. 19 प्रत्यय होता है)। (वर्षा प्रातिपदिक से) वेदविषय में (ठञ् प्रत्यय होता है)। छन्दसि-III. 1.88 छन्दसि -IV. iii. 106 __ वेदविषय में (कर्म उपपद रहते भूतकाल में हन् धातु (तृतीयासमर्थ शौनकादि प्रातिपदिकों से प्रोक्त विषय से बहुल करके क्विप् प्रत्यय होता है)। -में) छन्द अभिधेय होने पर णिनि प्रत्यय होता है)। छन्दसि -III. ii. 105 छन्दसि - IV. iii. 147 वेद-विषय में (धातुमात्र से सामान्य भूतकाल में लिट् (षष्ठीसमर्थ दो अच् वाले प्रातिपदिक से) वेदविषय में प्रत्यय होता है)। (विकार अवयव अर्थ अभिधेय होने पर मयट् प्रत्यय होता छन्दसि -III. . 137 (ण्यन्त धातुओं से) वेदविषय में (तच्छीलादि कर्ता हो, छन्दसि - IV. iv. 106 तो वर्तमानकाल में इष्णुच् प्रत्यय होता है)। (सप्तमीसमर्थ सभा शब्द से साधु अर्थ में) वैदिक प्रयोग छन्दसि -III. ii. 170 विषय में (ढ प्रत्यय होता है)। '. (क्य प्रत्ययान्त धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हों तो वर्त्त- छन्दसि - IV. iv. 110 मानकाल में) वेदविषय में (उ प्रत्यय होता है)। (सप्तमीसमर्थ प्रातिपदिक से भव अर्थ में) वेद-विषय छन्दसि -III. iii. 129 में (यत् प्रत्यय होता है)। वेदविषय में (गत्यर्थक धातुओं से कृच्छ्, अकृच्छु अर्थों छन्दसि - V.i. 60 में ईषद्, दुर, सु उपपद हों तो युच् प्रत्यय होता है)। (परिमाण समानाधिकरण वाले प्रथमासमर्थ सप्त प्रातिछन्दसि -III. iv.6 पदिक से षष्ठ्यर्थ में अञ् प्रत्यय होता है) वेद विषय में, वेदविषय में (धात्वर्थ- सम्बन्ध होने पर विकल्प से लुङ् (वर्ग अभिधेय होने पर)। लङ्,लिट् प्रत्यय होते हैं)। छन्दसि -V.i. 66 छन्दसि - III. iv. 88 (द्वितीयासमर्थ प्रातिपदिक मात्र से) वेदविषय में (भी (पूर्वसूत्र से जो लोट् को हि विधान किया है, उसको) 'समर्थ है' अर्थ में यत् प्रत्यय होता है)। वेदविषय में (विकल्प से अपित् होता है)। छन्दसि -V..90 . छन्दसि - III. iv. 117 (द्वितीयासमर्थ वत्सरशब्दान्त प्रातिपदिकों से 'सत्कारपूवेदविषय में (दोनों सार्वधातुक,आर्धधातुक संज्ञायें हो र्वक व्यापार','खरीदा हुआ','हो चुका' तथा 'होने वाला' अर्थों में छ प्रत्यय होता है).वेदविषय में। छन्दसि -.i. 105 छन्दसि-IV.i. 46 वेदविषय में (प्रथमासमर्थ ऋतु प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ (बबादि अनुपसर्जन प्रातिपदिकों से) वेद-विषय में में घस् प्रत्यय होता है, यदि वह प्रथमासमर्थ ऋतु प्राति में प्रत्यय होता है यदि व (नित्य ही स्त्रीलिङ्ग में ङीष् प्रत्यय होता है)। पदिक प्राप्त समानाधिकरण वाला हो तो। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छन्दसि 256 छन्दसि - V. 1. 116 (धातु के अर्थ में वर्त्तमान उपसर्ग से स्वार्थ में वि प्रत्यय होता है), वेद-विषय में । छन्दसि - V. li. 50 (सङ्ख्या आदि में न हो जिसके, ऐसे षष्ठीसमर्थ सङ्ख्यावाची नकारान्त प्रातिपदिक से 'पूरण' अर्थ में विहित डट् प्रत्यय को थट् तथा मट् आगम होता है) वेदविषय में । छन्दसि -V. ii. 89 वेद-विषय में (परिपन्थिन् और परिपरिन् शब्दों का निपातन किया जाता है, 'पर्यवस्थाता' मार्ग का अवरोधक वाच्य हो तो)। छन्दसि - Vit. 122 (प्रातिपदिकों से वैदिक प्रयोग-विषय में (बहुल करके 'मत्वर्थ' में विनि प्रत्यय होता है)। छन्दसि -V. iii. 13 वेदविषय में (सप्तम्यन्त किम् शब्द से विकल्प से ह प्रत्यय भी होता है) | छन्दसि -V. iii. 20 ( उन सप्तम्यन्त इदम् तथा तत् प्रातिपदिकों से) वेदविषय में (यथासङ्ख्य करके दा और हिल् प्रत्यय होते हैं, तथा यथाप्राप्त दानीम् प्रत्यय भी होता है)। छन्दसि - V. iii. 26 1 (हेतु' तथा 'प्रकारवचन' अर्थ में वर्तमान किम् प्राति-पदिक से था प्रत्यय होता है), वेदविषय में। छन्दसि -V. iii. 59 वेदविषय में (तृन्, तृच् अन्तवाले प्रातिपदिकों से अजादि अर्थात् इष्ठन्, ईयसुन् प्रत्यय होते है । e छन्दसि - V. lil. 111 (प्रन, पूर्व, विश्व, इम इन प्रातिपदिकों से इवार्थ में थाल् प्रत्यय होता है), वेद विषय में । छन्दसि - Viv. 12 (किम्, एकारान्त, तिङन्त तथा अव्ययों से विहित जो तर, तमप् प्रत्यय; तदन्त से) वेदविषय में (अमु तथा आमु प्रत्यय होते हैं, द्रव्य का प्रकर्ष न कहना हो तो)। छन्दसि छन्दसि - Viv. 41 (प्रशंसाविशिष्ट' अर्थ में वर्तमान वृक तथा ज्येष्ठ प्रातिपदिकों से यथासङ्ख्य करके तिल् तथा तातिल् प्रत्यय भी होते हैं); वेदविषय में । छन्दसि - V. iv. 103 (नपुंसकलिङ्ग में वर्त्तमान अनन्त तथा असन्त तत्पुरुष से समासान्त टच् प्रत्यय होता है), वेदविषय में । छन्दसि I-V. iv. 123 वेदविषय में (बहुप्रजास् शब्द सिच्- प्रत्ययान्त निपातन किया जाता है, बहुव्रीहि समास में) । छन्दसि - Viv. 142 वेदविषय में (भी दन्त शब्द को समासान्तं दतृ आदेश होता है, बहुव्रीहि समास में) । छन्दसि - Viv. 158 (बहुव्रीहि समास में ऋवर्णीन्त शब्दों से) वेदविषय में (समासान्त कप् प्रत्यय नहीं होता है) । छन्दसि - VI. 1. 33 वेदविषय में (ह्वेञ् धातु को बहुल करके सम्प्रसारण हो जाता है)। छन्दसि - VI. 1. 51 (खिद् दैन्ये' धातु के एच् के स्थान में) वेदविषय में ( विकल्प से आत्त्व हो जाता है) । छन्दसि - VI. 1. 59 वेदविषय में (शीर्षन् शब्द का निपातन किया जाता है)। छन्दसि - V. i. 68 (शि का बहुल करके लोप हो जाता है), वेदविषय में । छन्दसि - VI. 1. 80 (भय्य तथा प्रवय्य शब्द भी निपातन किये जाते है) वेदविषय में । छन्दसि - VI. i. 102 (दीर्घ से उत्तर जस् तथा इच् परे रहते) वेदविषय में (पूर्व पर के स्थान में पूर्वसवर्ण दीर्घ एकादेश विकल्प से होता है)। छन्दसि - VI. 1. 122 (आङ् को अच् परे रहते संहिता के विषय में) और वेद - विषय में (बहुल करके अनुनासिक आदेश होता है, तथा उस अनुनासिक को प्रकृतिभाव भी हो जाता है)। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छन्दसि 257 छन्दसि १जानाशाप. . . छन्दसि - VI.i. 129 (स्यः शब्द के सु को) वेदविषय में (हल् परे रहते बहुल करके लोप हो जाता है)। । छन्दसि -VI. 1. 164 (अञ्च धातु से उत्तर) वेदविषय में (सर्वनामस्थानभिन्न विभक्ति उदात्त होती है)। छन्दसि - VI.i. 172 वेदविषय में (ड्यन्त शब्द से उत्तर बहुल करके नाम् विभक्ति उदात्त होती है)। छन्दसि -VI.i. 203 . (जुष्ट तथा अपित शब्दों को भी) वेदविषय में (विकल्प से आधुदात्त होता है)। छन्दसि -VI. ii. 119. (बहुव्रीहि समास में सु से उत्तर दो अच् वाले आधुदात्त शब्द को) वेदविषय में (आधुदात्त ही होता है)। छन्दसि -VI. . 164 वेदविषय में (संख्या शब्द से परे स्तन शब्द को बहुव्रीहि समास में विकल्प से अन्तोदात्त होता है)। छन्दसि - VI. ii. 199 'वेटविषय में उत्तरपद (पर=सक्थ शब्द के आदि को बहुल करके अन्तोदात्त होता है)। छन्दसि-VI. iii. 32 . पितरामातरा यह शब्द भी) वेदविषय में (निपातन किया जाता है)। छन्दसि-VI. iii. 83 वेदविषय में (समान शब्द को स आदेश हो जाता है; मूर्धन, प्रभृति,उदर्क उत्तरपद न हो तो)। छन्दसि -VI. iii. 95. (माद तथा स्थ उत्तरपद रहते) वेदविषय में (सह शब्द को सध आदेश होता है)। छन्दसि -VI. iii. 107 (पथिन शब्द उत्तरपद रहते भी) वेदविषय में को 'कव' तथा 'का' आदेश विकल्प करके होते हैं)। छन्दसि -VI. iii. 125 वेदविषय में (भी अष्टन् शब्द को दीर्घ हो जाता है, उत्तरपद परे रहते)। छन्दसि -VI. iv.5 वेदविषय में (तिस, चतसृ अङ्ग को दोनों प्रकार से अर्थात् दीर्घ एवं अदीर्घ देखा जाता है)। छन्दसि -VI. iv. 58 वेद-विषय में (यु मिश्रणे' तथा 'प्लुङ् गतौ' धातु को दीर्घ होता है,ल्यप परे रहते)। छन्दसि - VI. iv.73 , वेद-विषय में (भी आट् आगम देखा जाता है)। छन्दसि - VI. iv.75 (लुङ, लङ, लुङ् परे रहने पर) वेद-विषय में (माङ् का योग होने पर अट् आट् आगम बहुल करके होते हैं; और माङ् का योग न होने पर भी नहीं होते)। छन्दसि -VI. iv. 86 (पू तथा सुधी अों को) वेद-विषय में (दोनों प्रकार से देखा जाता है)। छन्दसि - VI. iv. 98 (तन् तथा पत् अङ्ग की उपधा का लोप होता है। वेदविषय में (अजादि कित्, डित् प्रत्यय परे रहते)। छन्दसि-VI. iv. 102 (श्रु,श्रृणु, पृ.कृ तथा वृ से उत्तर) वेद-विषय में (हि को धि आदेश होता है)। छन्दसि -VI. iv. 162 (ऋजु अङ्गके ऋकार के स्थान में विकल्प से र आदेश होता है) वेद-विषय में; (इष्ठन्, इमनिच, ईयसुन् परे रहते)। छन्दसि - VI. iv. 175 (ऋत्य वास्त्व्य, वास्त्व,माध्वी, हिरण्यय-ये शब्दरूप निपातन किये जाते है) वेद-विषय में। छन्दसि -VII.1.8 वेद-विषय में (झादेश अत् को बहल करके रुट आगम होता है)। छन्दसि - VII.i. 10 वेद-विषय में (अकारान्त अङ्ग से उत्तर बहुल करके भिम् को ऐस आदेश होता है। - Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छन्दसि छन्दसि - VII. 1. 27 (इतर शब्द से उत्तर सु तथा अम् के स्थान में) वेद-विषय (अद्ड् आदेश नहीं होता) । में 258 छन्दसि -VII. i. 38 (अपूर्व समास में क्त्वा के स्थान में क्त्वा तथा ल्यप् आदेश भी) वेद-विषय में (होता है)। छन्दसि -VII. i. 56 (श्री तथा ग्रामणी अङ्ग के आम् को) वेद-विषय में (नुट् का आगम होता है)। छन्दसि - VII. 1. 76 (अस्थि, दधि, सक्थि अङ्गों को) वेद-विषय में (भी अनङ् देखा जाता है)। छन्दसि - VII. 1. 83 (दृक्, स्ववस्, स्वतवस् अङ्गों को) वेद-विषय में (सु रहते नुम् आगम होता है)। छन्दसि -VII. i. 103 वेद- विषय में (ऋकारान्त धातु अङ्ग को बहुल करके इकारादेश होता है)। छन्दसि VII. ii. 31 (ह्र कौटिल्ये' धातु को निष्ठा परे रहते) वेद- विषय में (हु आदेश होता है)। छन्दसि - VII. iii. 97 1 (अस् तथा सिच् से उत्तर हलादि अपृक्त सार्वधातुक को बहुल करके) वेद-विषय में (ईट् आगम होता है) छन्दसि - VII. iv. 8 1 वेद-विषय में (चङ्परक णि परे रहते उपधा ॠवर्ण के स्थान में नित्य ही ऋकारादेश होता है) । छन्दसि - VII. iv. 35 (पुत्र शब्द को छोड़कर अवर्णान्त अङ्ग को) वेद-विषय में (क्यच् परे रहते जो कुछ कहा है, वह नहीं होता) । छन्दसि - VII. iv. 44 (ओहाक् अङ्ग को विकल्प से) वेद-विषय में ( क्त्वा प्रत्यय परे रहते 'हि' आदेश होता है ) । छन्दसि -- VII. iv. 64 (कृष् अङ्ग के अभ्यास को) वेद-विषय में (यङ् परे रहते चवर्गादेश नहीं होता) । - छन्दसि VII. iv. 78 वेद-विषय में (अभ्यास को बहुल करके श्लु. होने पर इकारादेश होता है) । छन्दसि छन्दसि - VIII. 1. 35 (हि से युक्त साकाङ्क्ष अनेक तिङन्त को भी तथा अपि ग्रहण से एक को भी कहीं कहीं अनुदात्त नहीं होता), वेदविषय में । छन्दसि - - VIII. 1. 56 ( यत्परक, हिपरक तथा तुपरक तिङ् को) वेद-विषय में (अनुदात्त नहीं होता)। छन्दसि -VIII. i. 64 ( वै तथा वाव - इनसे युक्त प्रथम तिङन्त को भी विकल्प से) वेद-विषय में (अनुदात्त नहीं होता)।. छन्दसि - VIII. ii. 15 (इवर्णान्त तथा रेफान्त शब्दों से उत्तर) वेद-विषय में (मतुप् को नकारादेश होता है ) । छन्दसि -VIII. ii. 61 (नसत्त, निषत्त, अनुत्त, प्रतूर्त, सूर्त, गूर्त वेद-विषय में (निपातन किये जाते है)। छन्दसि - VIII. ii. 70 — ये शब्द) (अम्नस्, ऊधस्, अवस् - इन पदों को) वेद- विषय में (दोनों प्रकार से अर्थात् रु एवं रेफ दोनों ही होते हैं)। छन्दसि - VIII. iii. 1 (मत्वन्त तथा वस्वन्त पद को संहिता में सम्बुद्धि परे रहते) वेद-विषय में (रु आदेश होता है)। छन्दसि - VII. iii. 49 ( प्र तथा आम्रेडित को छोड़कर जो कवर्ग तथा पवर्ग परे हों तो) वेद-विषय में (विसर्जनीय को विकल्प से सकारादेश होता है)। छन्दसि - VIII. iii. 105 (इण् तथा कवर्ग से उत्तर स्तुत तथा स्तोम के संकार को) वेद- विषय में कई आचार्यों के मत में मूर्धन्य आदेश होता है)। छन्दसि -VIII. iii. 119 (निवि तथा अभि उपसर्गों से उत्तर सकार को अट् का व्यवधान होने पर) वेद- विषय में (विकल्प से मूर्धन्य आदेश नहीं होता) । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छन्दसि 259 छन्दसि -VIII. iv. 25 ....छन्न.. -VII. ii. 27 वेद-विषय में (ऋकारान्त अवगृह्यमाण पूर्वपद से उत्तर देखें-दान्तशान्त VII. 1. 27 नकार को णकारादेश होता है)। छवि-VIII. iii.7 ....छन्दसो... - IV.i. 29 (प्रशान् को छोड़कर नकारान्त पद को अम्परक) छव 'देखें-संज्ञाछन्दसोः IV. .29 प्रत्याहार परे रहते (रु होता है,संहिता में)। ...छन्दसोः.. - VI. ii. 62 ...छसौ...-IV.ii. 114 देखें-संज्ञाछन्दसो: VI. iii. 62 देखें-ठक्छसौ IV.H. 114छन्दसः - IV. iv.93 छस्य -VI. iv. 153 (तृतीयासमर्थ) छन्दस् प्रातिपदिक से (बनाया हुआ (बिल्वकादि शब्दों से उत्तर भसञ्जक) छ का (लुक् होता अर्थ में यत् प्रत्यय होता है)। छन्दसः -IV.ii. 54 ...छ... -II. iv.78 (प्रथमासमर्थ) छन्दोवाची प्रातिपदिकों से (षष्ठ्यर्थ में देखें-प्राधेट्शाच्छासः II. iv. 78 यथाविहित- अण् प्रत्यय होता है,प्रगाथों के अभिधेय होने ...छा... -VII. li.37 पर,यदि वह प्रथमासमर्थ छन्दस् आदि आरम्भ में हो)। देखें-शाच्छासाO VIL. I. 37 छन्दसः - IV. iii. 71 छात्र्यादयः -VI. 1.86 (षष्ठी-सप्तमीसमर्थ व्याख्यातव्यनाम) छन्दस् प्रातिप- (शाला शब्द उत्तरपद रहते) छात्रि आदि शब्दों को दिक से (भव और व्याख्यान अर्थों में यत् और यण प्रत्यय (आधुदात्त होता है)। होते है)। छादेः -VI. iv. 96 छन्दोग... -IV. iii. 128 (जो दो उपसर्गों से युक्त नहीं है,ऐसे) छादि अङ्ग की देखें-छन्दोगौक्थिक IV. iii. 128 (उपधा को घ प्रत्यय परे रहने पर हस्व होता है)। . छन्दोगौक्थिकयाज्ञिकबहवचनटात् - IV. iii. 128 छाया-II. Iv. 22 (षष्ठीसमर्थ) छन्दोग,औक्थिक,याज्ञिक,बहुच और नट ___(नकर्मधारयवर्जित) छायान्त (तत्पुरुष नपुंसकलिंग में होता है,बाहुल्य गम्यमान होने पर)। प्रातिपदिकों से (इदम्' अर्थ में ज्य प्रत्यय होता है)। ...छाया... -II. iv. 25 औक्थिक= उक्थ मन्त्रों को बोलनेवाला ब्राह्मण । देखें-सेनासुराच्छायाo II. iv. 25 छान्दोनाम्नि-III. li. 34 ....छाये -VI. 1. 14 (वि पूर्वक स्तब धात से) छन्द का नाम (विष्टारपङक्ति देखें-मात्रोपज्ञोपO VI. ii. 14 आदि की कर्तभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव) में (अब प्रत्यय ...छिद... -III. ii. 61 होता है)। देखें-सत्सू III. ii. 61 छन्दोनाम्नि-VIII. iii. 94 ....छिदे... -III. 1. 162 देखें-विदिभिदिच्छिदेः III. 1. 162 कन्ट का नाम कहना हो तो (भी विष्टार शब्द में षत्व ...छिद्र...-VI. iii. 114 निपातन किया जाता है)। देखें- अविष्टाष्टO VI. Iii. 114 छन्दोब्राह्मणानि-V.ii. 65 ...छिन्न...-VI. 1. 114 (प्रोक्त-प्रत्ययान्त) छन्द और ब्राह्मणवाची शब्द (अध्येत. देखें- अविष्टाष्टO VI. III. 114 वेदित प्रत्ययविषयक होते हैं,अन्य प्रोक्त-प्रत्ययान्त शब्दों ...छुराम्... - VIII. ii. 79 का केवल प्रोक्त अर्थ मात्र में भी प्रयोग होता है)। -भकुछराम् VIII. 1.79 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .छ्द... .. छ्द... - VII. 1. 57 देखें - कृतवृत० VII. 1. 57 - VI. i. 71 छकार परे रहते ( भी हस्वान्त को तुक् का आगम होता है, संहिता के विषय में)। ....छेदात्... - V. 1. 64 देखें शीर्षच्छेदात् V. 1. 64 छेदादिष्य - V. 1. 63 (द्वितीयासमर्थ) छेदादि प्रातिपदिकों से (नित्य ही समर्थ - ज - प्रत्याहारसूत्र X भगवान् पाणिनि द्वारा अपने दशम प्रत्याहार सूत्र में पठित प्रथम वर्ण । पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्णमाला का पच्चीसवां वर्ण । ज - VI. Iv. 36 (हन् अङ्ग के स्थान में हि परे रहते) ज आदेश होता है। अबू - VI. 17 'जस्' इस धातु की (तथा वह आरम्भ में है जिन छः धातुओं के, उनकी अभ्यस्त सखा होती है)। ... जगती - IV. Iv. 122 देखें - रेवतीजगतीहवि० IV. Iv. 122 जगती = मानवजाति । 260 जगृभ्म - VII. 1. 64 'जगृभ्म' यह शब्द थल परे रहते इडभावयुक्त निपातन किया जाता है, (वेदविषय में) । जग्धिः II. iv. 36 (अद् के स्थान में ल्यप् और तकारादि कित् आर्धधातुक परे रहते) जग्घ् (आदेश होता है)। - जघन्य... - II. 1. 57 देखें पूर्वापरप्रथम II. 1. 57 - जङ्गल - VII. iii. 25 देखें - अङ्गलधेनुo] VII. III. 25 जङ्गलधेनुवलयान्तस्य VII. I. 25 - जङ्गल, धेनु तथा वलज अन्तवाले अङ्ग के (पूर्वपद के अचों में आदि अच्] को वृद्धि होती है तथा इन अग़ों का है' अर्थ में यथाविहित ठक् प्रत्यय होता है)।. .... छे... - VI. III. 98 देखें - आशीरास्था० VI. iii. 98. ...छौ - IV. ii. 47 देखें- पच्छौIVIII. 47 ...छौ IV. 1. 83 - देखें – ठक्छौ IV. 1. 83 ........ • IV. iv. 117 देखें पच्छौ IV. Iv. 117 - - उत्तरपद विकल्प से वृद्धिवाला होता है; बिंतु, णित् तथा कित् तद्धित परे रहते ) । वलज = धान्यराशि । ... - VI. I. 114 देखें - कण्ठपृष्ठo VI. II. 114 ..... III. ii. 21 देखें - दिवाविभा० III. ii. 21 .... - IV. 1. 55 देखें - नासिकोदरीष्ठ IV. 1. 55 ....अतुनोः - IV. III. 135 देखें - पुजतुनो: IV. iii. 135 - ... जन्... -I. ill. 86 देखें - बुधयुक्नशमने 1. III. 86 ... जन... - III. 1. 61 देखें - दीपजन III. 1. 61 जन... - III. ii. 67 देखें – जनसन० III. it. 67 ... जन... - III. iv. 72 देखें - गत्यर्थाकर्मक० III. I. 72 - ... जन... - IV. 1. 43 देखें ... जन... - IV. Iv. 97 देखें - मतजनहलात् IV. Iv. 97 ... जन... - VI. 1. 186 देखें- धीडी० VI. 1. 186 प्रामजनबन्० IV. II. 43 - -- जन... - VI. iv. 42 देखें- जनसनखनाम् VI. Iv. 42 जन... Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...जन... 261 ...जन्य... ...जन.. -VI. iv.98 ...जनपदैकदेशात् - IV. 1.7 देखें-गमहन०VI. iv.98 देखें - प्रामजनपदैकदेशात् M. iii.7 ...जनः -III. ii. 171 जनसनखनक्रमगमः -III. 1.67 देखें- आद्गम III. I. 171 जन, सन, खन,क्रम, गम्-इन धातुओं से (सुबन्त जनपद... -IV. ii. 124 उपपद रहते वेदविषय में विट प्रत्यय होता है)। देखें-जनपदतदवध्योश्च IV. 1. 124 ...जनपद... -VI. iii. 84 जनसनखनाम् -VI. iv.42 देखें-ज्योतिर्जनपदO VI. II. 84 जन.सन.खन -इन अङ्गी को (आकारादेश हो जाता जनपदतदवथ्योः - IV.ii. 123 है. झलादि सन तथा झलादि कित,डित परे रहते)। जनपद तथा जनपद अवधि के कहने वाले (वृद्धसंज्ञक ...जनिष्यः -II. iv. 80 प्रातिपदिकों से भी शैषिक वुञ् प्रत्यय होता है)। देखें-घसरणशo II. iv.80 जनपदवत् -IV. iii. 100 जनि.. -VII. iill. 35 (बहवचन-विषय में वर्तमान जो जनपद के समान ही देखें-जनिवध्यो: VII. iii. 35 क्षत्रियवाची प्रातिपदिक,उनको) जनपद की भांति (ही सारे जनिक -I. iv. 30 कार्य हो जाते है। जन्यर्थ = जन्म का जो कर्ता = उत्पन्न होने वाला, जनपदशब्दात् -V.1.166 उसकी (जो प्रकृति = उपादानकारण, उस कारक की जनपद को कहने वाले (क्षत्रिय अभिधायक) प्रातिपदिक ___ अपादान संज्ञा होती है)। से (अपत्य अर्थ में अञ् प्रत्यय होता है)। जनिता-VI.4,53 जनपदस्य - VII. Hi. 12 (मन्त्र-विषय में) इडादि तच परे रहते 'जनिता' शब्द (स.सर्व तथा अर्द्ध शब्द से उत्तर) जनपदवाची उत्तरपद निपातित होता है। शब्द के (अचों में आदि अच् को तद्धित बित् णित् तथा ...जनिभ्यः -II. iv. 80 कित् प्रत्यय परे रहते वृद्धि होती है)। देखें-घसरण II.iv.80 ...जनपदाख्यान... - VI. ii. 103 ...जनिभ्यः -III. iv. 16 देखें-स्थे त III. iv. 16 देखें - ग्रामजनपदा० VI. ii. 103 जनिवथ्यो: -VII. I. 35 जनपदिनाम् - IV. iii. 100 (जन तथा वध अङ्ग को भी चिण तथा वित्, णित् कृत् (बहवचन विषय में वर्तमान जो जनपद के समान ही) परे रहते जो कहा गया, वह नहीं होता)। क्षत्रियवाची प्रातिपदिक, उनको (जनपद की भांति ही सारे जन-III. 1.97 कार्य हो जाते है)। 'जन्' धातु से (सप्तम्यन्त उपपद रहते 'ड' प्रत्यय होता जनपदेन -IV.lii. 100 है), भूतकाल में। (बहुवचन-विषय में वर्तमान जो) जनपद के समान (ही क्षत्रियवाची प्रातिपदिक,उनको जनपद की भांति ही सारे ...जनो: - VII. ii. 78 कार्य हो जाते हैं)। देखें-ईडजनो: VII. 1.78 जनपदे-IV. ii. 80 ...जनो: - VII. III. 79 देखें-शनो : VII. III. 79 (ड्यन्त, आबन्त प्रातिपदिक से देश-सामान्य में जो चातुरर्थिक प्रत्यय उसका) प्रान्तविशेष को कहना हो तो ...जन्य.. -III. iv. 68 (लुप हो जाता है)। देखें- भव्यगेय III. iv. 68 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्या : 262 - त) रमजादरा हानाहा जन्याः - IV. iv. 82 ...जय्यौ-VI.1.78 (द्वितीयासमर्थ) जनी (वध) प्रातिपदिक से (संज्ञा गम्य- देखें-क्षय्यजय्यौ VI.1.78 . मान होने पर 'ढोता है' अर्थ में यत् प्रत्यय होता है)। जर... -VI. 1. 116 देखें-जरमरमित्र VI. I. 116 ' ...जप..-III. 1.24 ...जरत् -II. I. 48 देखें-लुपसदचर III. I. 24 देखें-पूर्वकालैकसर्वजरत्० II.1.48 ...जप.. -III. 1. 166 ...जरतीभिः -II.1.66 देखें-यजज्पदशाम् III. 1. 166 देखें-खलतिपलितवलिन० II.1.66 जप.. -VII. iv.86 जरमरमित्रमृताः – VI. ii. 116 देखें-अपजम VII. iv.86 (न से उत्तर) जर,मर,मित्र,मृत- इन उत्तरपद शब्दों.. जपपमदहदशमञ्जपशाम् - VII. iv.86 को (बहुव्रीहि समास में आधुदात्त होता है)। . जप,जभी,दह,दश, भञ्ज पश-इन अङ्गों के (अभ्यास जरस् - VII. II. 101 को भी नुक् आगम होता है)। (जरा शब्द को अजादि विभक्तियों के परे रहते विकल्प' . ...जपोः - III. I. 13 से) जरस आदेश होता है। देखें - रमिजपोः III. II. 13 जरायाः - VII. I. 101 ....जपो: -III. III.61 जरा शब्द को (अजादि विभक्तियों के परे रहते विकल्प देखें-व्यधजयोः III. 11.61 से जरस् आदेश होता है)। ...जभ.. -III.1.24 जल्प.. -III. 1. 155 देखें- लुफ्सदचर० III. 1. 24 देखें-जल्पभिक्ष. III. I. 155 ...जभ... -VII. iv.86 जल्पभिक्षकुट्टलुण्टबङ - III. I. 155 देखें- जपजम VII. iv.86 जल्प,भिक्ष,कुट्ट,लुण्ट,वृक-इन धातुओं से (तच्छी...जभोः -VII.1.61 लादि कर्ता हो तो वर्तमानकाल में पाकन् प्रत्यय होता . देखें- रविवभोः VII.I.61 ...जल्प..-IV. 1.97 .. जम्ब्या : - IV. iii. 162 देखें-करणजल्पकषु V.iv..97 (षष्ठीसमर्थ) जम्ब् प्रातिपदिक से (विकार अर्थ में फल .. अभिधेय हो तो विकल्प से अण् प्रत्यय होता है)। वेग अभिधेय होने पर(पञ् परे रहते ‘स्यद' शब्द निपाजम्मा - V. iv. 125 तन किया जाता है)। (बहव्रीहि समास में स, हरित. तण तथा सोम शब्दों ....जश्... - I. 1.57 से उत्तर) जम्मा शब्द अनिअत्ययान्त निपातन किया __ देखें - पदान्तद्विवचनवरे I. 1.57 जाता है। . जश्.. - VII. I. 20 जम्भा = जबड़ा। जयः -VI. I. 196 देखें-अश्शसो: VII. 1. 20 (करणवाची) जय शब्द (आधुदात्त होता है)। जश्-VIII. iv. 52 जयति - IV. iv.2 (झलों के स्थान में झश् परे रहते) जश् आदेश होता है। (तृतीयासमर्थ प्रातिपदिक से खेलता है', 'खोदता है. जश-VIII. I. 39 'जीतता है',(जीता हुआ- अर्थों में ठक् प्रत्यय होता है)। (पद के अन्त में वर्तमान झलों को)जश् आदेश होता हैं। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जसोः जश्शसो: - VII. 1. 20 (नपुंसकलिङ्ग में वर्तमान अङ्ग से उत्तर) ज‍ और शस् के स्थान में (शि आदेश होता है)। ... जस्... - IV. 1. 2 देखें - स्वौजसमौट् IV. 1. 2 जस - VI. 1. 160 (तिसृ शब्द से उत्तर) जस्को (अन्तोदात्त होता है) 1 जस: VII. i. 17 (अकारान्त सर्वनाम अङ्ग से उत्तर) जस् के स्थान में (शी आदेश होता है)। — जसि – I. 1. 31 (द्वन्द्व समास में सर्वादियों की सर्वनामसंज्ञा) जस् सम्बन्धी कार्य में (विकल्प से नहीं होती)। जसि - VI. 1. 101 (दीर्घ वर्ण से उत्तर) जस् (तथा चकार से इच्) परे रहते (पूर्वसवर्ण दीर्घ एकादेश नहीं होता है) । जसि - VII. 1. 93 जस् विभक्ति परे हो तो (युष्मद्, अस्मद् अङ्ग के मपर्यन्त अंश को क्रमशः यूय, वय आदेश होते हैं) । जसि -VII. iii. 109 जस् परे रहते (भी ह्रस्वान्त अङ्ग को गुण होता है) । जसे: - VII. 1.50 (वेद-विषय में अवर्णान्त अङ्ग से उत्तर) जस् को (असुक् आगम होता है)। .... जहातिसाम् - VI. iv. 66 देखें जहाते: - घुमास्थाo VI. iv. 66 - VI. iv. 116 'ओहाक् त्यागे' अङ्ग को (भी इकारादेश विकल्प से होता है; हलादि ति डित् सार्वधातुक परे रहते ) । जहाते: - VII. iv. 43 263 'ओहाक् त्यागे' अङ्ग को (भी क्त्वा प्रत्यय परे रहते हि आदेश होता है)। जा - VII. iii. 79 (ज्ञा तथा जर्नी अङ्ग को शित् प्रत्यय परे रहते) जा आदेश होता है। .. जागराम् - VI. 1. 186 देखें... - भीहीभृ० VI. 1. 186 जा: - III. ii. 165 जातिकालसुखादिभ्यः जागृ धातु से (वर्तमान काल में ऊक प्रत्यय होता है, तच्छीलादि कर्ता हो तो) । ... जागृ... - VII. ii. 5 देखें - हम्यन्तक्षणo. VII. ii. 5 जागृभ्यः - III. 1. 38 देखें - उषविदजागृभ्यः III. 1. 38 जाग्र: - VII. iii. 85 जागृ अङ्ग को (गुण होता है; वि, चिण्, णल् तथा ङ् इत् वाले प्रत्ययों को छोड़कर अन्य सार्वधातुक प्रत्ययों के परे रहते) । जातः - IV. iii. 25 (सप्तमीसमर्थ प्रातिपदिकों से) 'उत्पन्न हुआ' अर्थ में ( यथाविहित प्रत्यय होता है)। जातरूपेभ्यः - IV. iii. 150 (षष्ठीसमर्थ) सुवर्णवाची प्रातिपदिकों से (परिमाण जाना जाये तो विकार अभिधेय होने पर अण् प्रत्यय होता है) । जाति... - V. iv. 94 देखें - जातिसंज्ञयो: V. iv. 94 जाति... - VI. ii. 170 देखें जातिः - II. 1. 64 जातिवाची (सुबन्त) शब्द (पोटा, युवति, स्तोक, कतिपय, गृष्टि, धेनु, वशा, वेहद्वष्कयणी, प्रवक्तृ, श्रोत्रिय, अध्यापक, धूर्त — इन समानाधिकरण समर्थ सुबन्तों के साथ समास को प्राप्त होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है)। जाति: - जातिकाल० VI. ii. 170 - II. iv. 6 जातिवाचकों का (द्वन्द्व एकवद् होता है, प्राणीवाचियों को छोड़कर)। जाति: - - VI. i. 138 (कुस्तुम्बरु शब्द में तकार से पूर्व सुट् का निपातन किया जाता है, यदि वह) जाति अर्थ वाला हो तो । जातिकालसुखादिभ्यः - VI. ii. 170 (आच्छादनवाची शब्द को छोड़कर जो ) जातिवाची कालवाची एवं सुखादि शब्द, उनसे उत्तर क्तान्त J Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जातिनाम्ट शब्द को कृत, मित तथा प्रतिपन्न शब्द को छोड़कर अन्तोदात्त होता है, बहुव्रीहि समास में) । जातिनाम्नः - V. iii. 81 (मनुष्यनामधेय) जातिवाची प्रातिपदिक से (कन् प्रत्यय होता है, नीति तथा अनुकम्पा गम्यमान हो तो) । जातिपरिप्रश्ने - II. 1. 62 जातिपरिप्रश्न = जाति के विषय में विविध प्रश्न में वर्तमान (कतर, कतम शब्द समानाधिकरण समर्थ सुबन्त के साथ समास को प्राप्त होते हैं, और वह तत्पुरुष समास होता है)। जातिपरिप्रश्ने - V. iii. 93 'जाति को पूछने के विषय में ' (किम्, यत् तथा तत् प्रातिपदिकों से बहुतों में से एक का निर्धारण गम्यमान हो तो विकल्प से उतमच् प्रत्यय होता है। जातियो: - Viv. 94 (अनस्, अश्मन्, अयस् तथा सरस् शब्दान्त तत्पुरुषों से समासान्त टच् प्रत्यय होता है; जाति तथा सञ्ज्ञा विषय में) । ... जातीय... - VI. iii. 41 देखें - कर्मचारयजातीय VI. III. 41 जातीययो... - VI. III. 45 iii. देखें - समानाधिकरणजातीययोः VI. III. 45 जातीय - Vili 69 (प्रकार - विशिष्ट' अर्थ में वर्तमान प्रातिपदिक से) जातीयर प्रत्यय होता है। जातु... - III. iii. 147 देखें - जातुयदो: III. ill. 147 - जातु - VIII. 1. 47 (जिससे पूर्व कोई शब्द विद्यमान नहीं है, ऐसे) जातु शब्द से युक्त (तिङन्त को अनुदात नहीं होता)। जातुयदः III. 147 (असम्भावना या अक्षमा अभिधेय हो तो) जातु अथवा यत् उपपद रहते (धातु से लिङ् प्रत्यय होता है)। जाते .VI. ii. 171 264 (जातिवाची, कालवाची तथा सुखादियों से उत्तर) जात शब्द उत्तर पद को (अन्तोदात्त होता है, बहुव्रीहि समास में) । जाते - IV. 1. 63 (जो नित्य ही स्त्रीविषय में न हो तथा यकार उपधा वाला न हो, ऐसे) जातिवाची प्रातिपदिक से (स्त्रीलिङ्ग में डीष् प्रत्यय होता है। जाते: - VI. iii. 40 जातिवाची (स्त्रीलिङ्ग) शब्द को भी पुंवद्भाव नहीं होता) । जातो... - V. 1. 77 देखें जातोक्ष = युवा बैल | जात (मनु शब्द से) जाति को कहना हो (तो अञ् तथा यत् प्रत्यय होते हैं, तथा मनु शब्द को षुक् आगम भी हो जाता है)। जाती - V. II. 133 (हस्त शब्द से 'मत्वर्थ' में इनि प्रत्यय होता है), जातिवाच्य हो तो । - - IV. i. 161 अचतुर V. Iv. 77 जानपद... जातौ - VI. ii. 10 (अध्वर्यु तथा कषाय शब्द उत्तरपद रहते) जातिवाची सत्पुरुष समास में (पूर्वपद को प्रकृतिस्वर हो जाता है)। जातौ - VI. iii. 102 (तृण शब्द उत्तरपद हो तो भी कु को कत् आदेश होता है), जाति अभिधेय होने पर । जात्यन्तात् - VIv. 9 जाति शब्द अन्तवाले प्रातिपदिक से (द्रव्य गम्यमान हो तो स्वार्थ में छ प्रत्यय होता है ) । जात्याख्यायाम् - 1. ii. 58 जाति को कहने में (एकत्व अर्थ में बहुत्व विकल्प करके हो जाता है)। ... जात्वोः - III. iii. 142 देखें- अभिजात्योः III. III. 142 जानपद... - IV. 1. 42 देखें जानपदकुण्ड IV. 1. 42 - Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जानपदकुण्डगोणस्थल. 265 जिह्वामूलाडले जानपदकुण्डगोणस्थलभाजनागकालनीलकुशकामुककब- शेष विवक्षित होने पर षष्ठी विभक्ति होती है)। रात् - IV.i. 42 ...जाहचौ-v.ii. 24 जानपद आदि ११ प्रातिपदिकों से (यथासंख्य करके देखें-कणब्जाहचौ V.ii. 24 वृत्ति अमत्रादि ११ अर्थों में स्त्रीलिङ्ग में डीष् प्रत्यय ...जि... -II. ii. 46 होता है)। देखें-भृतवृ० III. ii. 46 जानपदाख्यायाम् -V.iv. 104 ...जि... -III. ii. 61 (ब्रह्मशब्दान्त तत्पुरुष समास से समासान्त टच् प्रत्यय देखें-सत्सू० III. H. 61 होता है,यदि समास के द्वारा ब्रह्मन शब्द) जनपद में होने ...जि... -III. II. 139 वाले की आख्या वाला हो तो। देखें-ग्लाजिस्थः II. I. 139 जानुनः - V. iv. 129 जि... - III. ii. 157 (बहुव्रीहि समास में प्र तथा सम् से उत्तर) जो जानु शब्द, देखें-जिदृक्षिा III. ii. 157 उसके स्थान में (समासान्त अ आदेश होता है)। ...जि... --III. 1. 163 जान्त... -VI. iv. 32 देखें - इण्नशo III. ii. 163 ....जि.. -VII. iv. 80 देखें-जान्तनशाम् VI. iv. 32 जान्तनशाम् -VI. iv. 32 देखें-पुयजि० VII. iv. 80 ... जिय... - VII. iii. 78 जकारान्त अङ्ग के तथा नश् के (नकार का लोप देखें-पिबजिन० VII. III. 78 विकल्प करके नहीं होता)। जिघ्रते: -VII. iv.6 ...जाबाल... - VI. ii: 38 'घ्रा गन्धोपादाने' अङ्ग की (उपधा को चङ्परक णि देखें-बीहापराहण VI. ii. 38 परे रहते विकल्प से इकारादेश होता है)। जाया.. -III. 1. 52 देखें-जायापत्योः III. ii. 52 जितम् - IV. iv.2 जायापत्योः -III. ii. 52 (तृतीयासमर्थ प्रातिपदिक से खेलता है', 'खोदता है', 'जीतता है),तथा 'जीता हुआ- अर्थ में (ठक् प्रत्यय होता (लक्षणवान् कर्ता अभिधेय होने पर) जाया और पति (कम) के उपपद रहते (हन धात से टक प्रत्यय होता है)। ...जित्या: -III: I. 117 जायाया-v.iv. 134 देखें - विपूयविनीयजित्याः III. 1. 117 जाया-शब्दान्त (बहतीहि) को (समासान्त निङ आदेश जिदृक्षिवित्रीण्वमाव्यथाध्यमपरिभूप्रसूभ्यः - Mom होता है)। III. ii. 157 जालम् - III. iii. 124 जि, दङ, क्षि, विपूर्वक श्रिज. इण, वम, नपूर्वक व्यथ जाल अभिधेय हो तो (आङ् पूर्वक नी धातु से करण अभिपूर्वक अम,परिपूर्वक भू, प्रपूर्वक सू-इन धातुओं कारक तथा संज्ञा में आनाय शब्द घञ् प्रत्ययान्त किया से भी (तच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमानकाल में इनि प्रत्यय जाता है)। होता है)। जासि.. -II. iii. 56 जिह्वामूल... - IV. iii. 62 देखें-जासिनिग्रहण II. ill. 56 देखें-जिह्वामूलागुले: IV. iii. 62 जासिनिग्रहणनाटक्राथपिषाम् -II. iii. 56 जिह्वामूलाडले: - IV. III. 62 (हिंसा क्रिया वाले) चौरादिक जसु ताडने, नि प्रपूर्वक (सप्तमीसमर्थ) जिह्वामूल तथा अगुलि प्रातिपदिकों से • हन, ण्यन्त नट एवं क्रथ, पिष्-इन धातुओं के (कर्म में (भव अर्थ में छ प्रत्यय होता है)। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...जीनाम् 266 जुष्टार्पित ...जीनाम् - VI.i. 47 देखें - क्रीजीनाम् VI. I. 47 ....जीर्यतिभ्यः... - III. iv. 72. देखें – गत्यर्थाकर्मक० III. iv. 72 जीर्यते: - III. ii. 104 'जृष् वयोहानौ' धातु से (भूतकाल में अतॄन् प्रत्यय होता जीविकार्थे- V. ii. 99 जीविकोपार्जन के लिये (जो न बेचने योग्य मनुष्य की प्रतिकति. उसके अभिधेय होने पर भी. कन प्रत्यय का लुप होता है)। जीविकार्थे- VI. ii. 73 जीविकार्थवाची समास में (अकप्रत्ययान्त शब्द के उत्त- .. रपद रहते पूर्वपद को आधुदात्त होता है)। जीविकोपनिषदौ-I. iv. 78 जीविका और उपनिषद् शब्द (कृञ् के योग में गति और निपात संज्ञक होते हैं, उपमा के विषय में)। ...जीवेषु-III. iv. 36 देखें - समूलाकृतजीवेषु III. iv. 36 . जीव... -III. iv. 43 देखें-जीवपुरुषयोः III. iv.43 ...जीव.. - VII. iv.3 देखें- प्राजभास VII. iv.3' जीवति -V.i. 163 (पौत्रप्रभृति का जो अपत्य,उसकी पितामह के) जीवित रहते (युवा संज्ञा ही होती है)। जीवति - IV.i. 165 (भाई से अन्य सात पीढ़ियों में से कोई पद तथा आयु दोनों से बूढ़ा व्यक्ति) जीवित हो (तो पौत्रप्रभृति का जो अपत्य,उसके जीते ही विकल्प से युवा संज्ञा होती है,पक्ष में गोत्रसंज्ञा)। जीवति -Viv. 12 (तृतीयासमर्थ वेतनादि प्रातिपदिकों से) 'जीता है' अर्थ में (ठक् प्रत्यय होता है)। जीवति-v.ii. 21 (तृतीयासमर्थ वात प्रातिपदिक से) 'जीता है' अर्थ में (खञ् प्रत्यय होता है)। ...जीवन्तात्... - IV.i. 103 देखें-द्रोणपर्वत• IV. 1. 103 जीवपुरुवयोः -III. iv.43 (कर्तावाची) जीव तथा पुरुष शब्द उपपद हों तो (यथासङ्ख्य करके नश तथा वह धातुओं से णमुल प्रत्यय होता है)। ...जीविकयोः -II. 1. 17 देखें-क्रीडाजीविकयोः II. ii. 17 ...जीविका... -I.iv.78 देखें-जीविकोपनिषदौ I. iv.78 देखें-विन्दजीवो: III. iv. 20 . जु... - III. ii. 150 खें-जुचक्रम्य III. ii. 150 ...जु... - III. I. 177 . देखें - प्राजभासथुर्विद्युतोणि III. ii. 177 जुक् -VII. iii.38 (कंपाना अर्थ में वर्तमान वा धातु को णिच् परे रहते) जुक आगमा जुचक्रम्यदन्द्रम्यगृधिज्वलशुचलषपतपदः - III.. ii. 150 जु, चक्रम्य, दन्द्रम्य, स, गृधु, ज्वल, शुच, लष, पत, पद- इन धातुओं से (तच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमान काल में युच् प्रत्यय होता है)। ...जुषः -III. 1. 109 देखें - एतिस्तुशास्व. III. 1. 109 ....जुषाणो... - VI. 1. 114 देखें - आपोजुषाणो. VI.i. 114 जुष्ट.-VI. i. 203 देखें - जुष्टार्पिते VI. 1. 203 जुष्टार्पिते - VI. 1. 203 जष्ट और अर्पित शब्दों को (भी वेद विषय में विकल्प से आधुदात्त होता है।) Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जुस् जुस् - III. iv. 108 (लिङादेश झि को) जुस् आदेश हो जाता है। जुसि – VII. iii. 83 - जुस् परे रहते (भी इगन्त अङ्ग को गुण होता है) । जुहोत्यादिभ्यः - II. iv. 75 जुहोत्यादिगण की धातुओं से उत्तर (शप् के स्थान श्लु आदेश होता है)। ... जूति... - III. lii. 97 देखें ऊतिपूर्ति० 111. III. 97 - जू... - 111. 1. 58. देखें स्तम्बुo] III. 1. 58 - जू... - VI. iv. 124 देखें - प्रमु० VI. iv. 124 कृ. - VII. 11.55 देखें वश्च्यो: VII. 11. 55 भ्रमुत्रसाम् - VI. iv. 124 जू. प्रमु तथा त्रस् अ के (अकार के स्थान में एत्व तथा अभ्यास लोप विकल्प से होता है; कितु, ङित् लिट् तथा सेंट् थल परे रहते) । जुवश्च्यो:- VII. 1. 55 'जू वयोहानौ' तथा 'ओवश्चू छेदने' धातु के (क्वा प्रत्यय को इट् आगम होता है)। जृस्तम्भुम्रुचुम्लुचुचुचुम्लुचुग्लुञ्चुश्विभ्यः - III. 1. 52 वृष, स्तम्भु, मुचु, म्लुचु, मुचु, ग्लुचु, ग्लुडु, श्वि इन धातुओं से उत्तर (भी चिल के स्थान में अङ् आदेश विकल्प से होता है, कर्तृवाची लुङ् परे रहते)। जे - VIII 14 - (प्रावृट, शरत्, काल, दिव्-- - इन शब्दों की सप्तमी का) 'ज' उत्तरपद रहते (अलुक् होता है)। जे - VI. 1. 82 (दीर्घान्त पूर्वपद को तथा काश, तुष, भ्राष्ट्र, वट- इन पूर्वपद शब्दों को) 'ज' उत्तरपद रहते (आद्युदात्त होता है)। जे VII. III. 18 जात अर्थ में विहित (जित् णित् तथा कित् तद्धित परे रहते प्रोष्ठपद अङ्ग के उत्तरपद के अचों में आदि को वृद्धि होती है)। 267 जे: - I. iii. 19 (वि तथा परा उपसर्ग से उत्तर) 'जि' धातु से (आत्मनेपद होता है। जे:- VII. iii. 57 (अभ्यास से उत्तर) जि अङ्ग को (सन् तथा लिट् परे रहते कवर्गादेश होता है)। जैह्माशिनेय... - VI. iv. 174 देखें - दाण्डिनायनहास्तिo VI. iv. 174 ...जो. - VII. 1. 52 देखें ज्ञ - I. iii. 44 ( अपह्नव अर्थ में वर्त्तमान) ज्ञा धातु से (आत्मनेपद होता है) । ... I. iii. 58 ( अनु पूर्वक सन्नन्त) शा धातु से (आत्मनेपद नहीं होता)। - जो VII. III. 52 I. iii. 76 (उपसर्ग रहित) 'ज्ञा' धातु से (आत्मनेपद होता है, (क्रिया का फल कर्त्ता को मिलने पर ) । *** ज्ञः - II. iii. 51 (जानने से भिन्न अर्थ वाले शेष विभक्ति होने पर) जा धातु के (करण कारक में षष्ठी विभक्ति होती है)। ..III. ii. 6 देखें - दाज्ञः III. 1. 6 ज्ञपि.... - VII. ii. 49 देखें इक्त०] VII. II. 49 ...जपि... - VII. Iv. 55 देखें - आज्ञप्यृधाम् VII. Iv. 55 - ...ज्ञप्ताः - VII. ii. 27 देखें - दान्तशान्त० VII. ii. 27 ज्ञा... - I. iii. 57 देखें - ज्ञाश्रुस्मृदृशाम् I. iii. 57 .....ज्ञा.... •III. 1. 135 देखें- इगुपधज्ञा०] III. 1. 135 ...ज्ञा... - VII. iii. 47 देखें- भरत्रैषा०] VII. III. 47. - Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञा... 268 ज्वलितिकसन्तेभ्यः ज्ञा... - VII. iii.79 ज्यायसि - IV.i. 164 देखें-ज्ञाजनो: VII. iii. 79 बडे (भाई के जीवित रहते पौत्रप्रभृति का जो अपत्य ज्ञाजनो: - VII. iii. 79 छोटा भाई, उसकी भी युवा संज्ञा हो जाती है)। ज्ञा तथा जनी अङ्ग को शित् प्रत्यय परे रहते जा आदेश ....ज्येष्ठाभ्याम् – V. iv. 41 होता है)। - देखें - वृकज्येष्ठाभ्याम् V. iv. 41 ...ज्ञात्याख्येभ्यः -VI. ii. 133 ज्योतिरायुषः - VIII. iii. 83 देखें-आचार्यराज VI. ii. 133 ज्योतिस् तथा आयुस् शब्द से उत्तर (स्तोम शब्द के ... ज्ञात्यो: - V.i. 126 सकार को समास में मूर्धन्य आदेश होता है)। देखें - कपिज्ञात्यो: V. 1. 126 ज्योतिस्... - VI. iii. A. ज्ञा स्मृदृशाम् -I. iii. 57 देखें - ज्योतिर्जनपद० VI. iii. 84 ज्ञा, श्र. स्म, दृश् - इन धातुओं के (सन्नन्त से परे ज्योतिर्जनपदरात्रिनाभिनामगोत्ररूपस्थानवर्णवयोवचनआत्मनेपद होता है)। बन्धुषु-VI. iii. 84 ...ज्ञान.. -I.ii.37 ज्योतिस्, जनपद, रात्रि, नाभि, नाम, गोत्र, रूप, स्थान, देखें-सम्माननोत्सजन० 1. iii. 37 वर्ण, वयस्, वचन, बन्धु-इन शब्दों के उतरपद रहते ...ज्ञान... -I. iii. 47 (समान को स आदेश हो जाता है) देखें-भासनोपसम्भाषा I. iii. 47 ज्योतिस्:... - VIII. iii. 83 ज्ञीप्यमानः -I. iv. 34 देखें - ज्योतिरायुषः VIII. iii. 83 (श्लाघ, हनुङ्, स्था, शप-इन धातुओं के प्रयोग में) ज्योत्स्ना... -v.ii. 114 जो जनाये जाने की इच्छा वाला है,वह (कारक सम्प्रदान देखें - ज्योत्स्नातमिस्राov.i: 114 संज्ञक होता है।) ज्योत्स्नातमिस्राङ्गिणोर्जस्विनूर्जस्वलगोमिन्मलिनशुः -V.iv. 129 मलीमसाः - V.ii. 114 - (बहव्रीहि समास में प्रतथा सम से उत्तर जो जानु शब्द, ज्योत्स्ना, तमिस्रा, ङ्गिण, ऊर्जस्विन. ऊर्जस्वल, उसके स्थान में समासान्त) जु आदेश होता है। गोमिन, मलिन तथा मलीमस शब्दों का निपातन किया ज्य -v.ii. 61 जाता है (मत्वर्थ' में)। . (प्रशस्य शब्द के स्थान अजादि में अर्थात् इष्ठन्,ईय ३१ ज्वर... -VI. iv. 20 सुन् प्रत्यय परे रहते) ज्य आदेश (भी) होता है। देखें -ज्वरत्वरo VI. iv. 20 ...ज्य.. - VI. ii. 25 ज्वरत्वरस्त्रिव्यविमवाम् - VI. iv. 20 देखें-अज्या० VI. ii, 25 ज्वर, त्वर, त्रिवि, अव, मव् इन अङ्गों के (वकार तथा ज्य: -VI.i. 41 उपधा के स्थान में ऊठ आदेश होता है, क्वि तथा झलादि (ल्यप् परे रहते) ज्या धातु को (भी सम्प्रसारण नहीं होता एवं अनुनासिकादि प्रत्ययों के परे रहते)। ...ज्वल... - III. ii. 150 ...ज्या...-VI.i. 16 देखें-जुचक्रम्य III. ii. 150 देखें - अहिज्या० VI.i. 16 ज्वलितिकसन्तेभ्यः - III. I. 140 ज्यात् - VI. iv. 160 'ज्वल' दीप्त्यर्थक धातु से लेकर 'कस्' गत्यर्थक धातु ज्य अङ्ग से उत्तर (ईयस् को आकार आदेश होता है)। पर्यन्त धातुओं से विकल्प से 'ण' प्रत्यय होता है)। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 269 झ-प्रत्याहार सूत्र VIII झल्... - VII. 1.72 आचार्य पाणिनि द्वारा अपने अष्टम प्रत्याहार सत्र में देखें-झलचः VII. I. 72 पठित प्रथम वर्ण। झल: -VIII. ii. 26 पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्णमाला - झल् से उत्तर (सकार का लोप होता है,झल् परे रहते)। का बींसवा वर्ण। झलचः -VII. 1.72 , ...झ... -III. iv.78 झलन्त तथा अजन्त (नपुंसकलिङ्ग वाले) अङ्ग को देखें-तिप्सिस्झि० III. iv. 78 (सर्वनामस्थान परे रहते नुम् आगम होता है)। झ: - VII.i.3 झलाम् - VIII. ii. 39 (प्रत्यय के अवयव) झ् के स्थान में (अन्त् आदेश होता (पट के अन्त में वर्तमान) शलों को (जश आदेश होता झलाम् - VIII. iv. 52 झलों के स्थान में (झश् परे रहते जश् आदेश होता झयः -V. iv. III (अव्ययीभाव समास में वर्तमान) झयन्त प्रातिपदिकों से (समासान्त टच् प्रत्यय होता है)। झयः - VIII. II. 10 झयन्त से उत्तर (मतुप को वकारादेश हो जाता है)। झयः - VIII. iv. 61 ... . झय प्रत्याहार से उत्तर (हकार को विकल्प से पूर्वसवर्ण आदेश होता है)। ....झयोः - III. iv. 81 देखें - तझयोः III. iv. 81 'झर -VIII. iv.64 (हल् से उत्तर) झर् का विकल्प से लोप होता है,सवर्ण झर परे रहते)। झरि - VIII: iv.64 (हल् से उत्तर झर् का विकल्प से लोप होता है, सवर्ण) झर् परे रहते। ...झझरात् -IV. iv.56 देखें- मडकझाझरात् IV. iv.56 झल्-I. 1.9 (इगन्त धातु से परे) झलादि (सन् कित्वत् होता है)। झल्-VI.1. 177 . (दिव् शब्द से परे) झलादि विभक्ति (उदात्त नहीं होती)। झलि - VI.i. 57 (सज तथा दशिर धातु को कित् भिन्न) झलादि प्रत्यय परे हो तो (अम् आगम होता है)। झलि - VI. i. 174 (षट्सज्ज्ञक, त्रि तथा चतुर् शब्द से उत्पन्न) झलादि (विभक्त्यन्त) शब्द में (उपोत्तम को उदात्त होता है)। झलि-VI. iv.37 (अनुदात्तोपदेश और जो अनुनासिकान्त उनके तथा वन एवं तनोति आदि अङ्गों के अनुनासिक का लोप होता है) झलादि (कित् ङित्) प्रत्ययों के परे रहते। झलि - VII. 1. 60 (टुमस्जो शुद्धौ' तथा 'णश् अदर्शने' धातुओं को) झलादि प्रत्यय परे रहते (नुम् आगम होता है)। झलि - VII. ii. 103 (अकारान्त अङ्ग को बहुवचन) झलादि (सुप) परे रहते (एकारादेश होता है)। झलि - VIII. 1. 26 (झल से उत्तर सकार का लोप होता है) झल् परे रहते। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झलि 270 झलि - VIII. iii. 24 (अपदान्त नकार को तथा चकार से मकार को भी) झल् परे रहते (अनुस्वार आदेश होता है)। ...झलो: -VI. iv. 15 देखें- क्विझलो: VI. iv. 15 ...झलो: -VI. iv. 42 देखें-सज्झलो: VI. iv. 42 ...झल्ल्यः - VI. iv. 101 देखें-हुझल्थ्य: VI. iv. 101 झशि -VIII. iv. 51 . (झलों के स्थान में)झश् परे रहते (जश् आदेश होता है)। झस्य -III. iv. 105 (लिङादेश) झ के स्थान में रन आदेश होता है)। झव:-VIII. ii.40 झष से उत्तर (तकार तथा थकार को धकारादेश होता है किन्तु डुधाञ् धातु से उत्तर धकारादेश नहीं होता)। झपन्तस्य - VIII. ii. 37 (धातु का अवयव) जो (एक अच् वाला तथा) झपन्त, उसके (अवयव वश् के स्थान में भष् आदेश होता है, झलादि सकार तथा झलादि ध्व शब्द के परे रहते एवं पदान्त में)। ...झि... - III. iv. 78 देखें- तिप्तस्झि० III. iv. 78 'झे: - III. iv. 108 लिङादेश) झि को (जुस आदेश हो जाता है)। ञ्-प्रत्याहारसूत्र VIII अ: -IV. ii.57 (प्रथमासमर्थ क्रियावाची घजन्त प्रातिपदिक से आचार्य पाणिनि द्वारा अपने अष्टम प्रत्याहारसूत्र में । म्यर्थ में) ब प्रत्यय होता है। . इत्सज्ञार्थ पठित वर्ण। जः - IV. 1. 106 ... -VI. i. 191 (असंज्ञा में वर्तमान दिशावाची शब्द पूर्वपद में है जिस देखें-जिति VI.i. 191 प्रातिपदिक के.ऐसे दिक्पूर्वपद प्रातिपदिक से शैषिक)ब अ... -VII. ii. 115 प्रत्यय होता है। देखें-णिति VII. ii. 115 जि.... -I. iii.5 देखें-जिटुडक: I. iii.s . ज्.. - VII. ii. 54 जिटुडवः - I. iii.5 देखें-णिन्नेषु VII. iii. 54 (उपदेश के आदि में वर्तमान) जि,टु और डु (इत्सज्ज्ञक ज-प्रत्याहारसूत्र VII होते हैं। भगवान् पाणिनि द्वारा अपने सप्तम प्रत्याहारसूत्र में ...विठौ-IV.ii. 115 पठित प्रथम वर्ण। देखें - ठबिठौ IV. ii. 115 . पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्णमाला ...जितः -I.iii.72 का पन्द्रहवां वर्ण। देखें- स्वरितजितः I. iii. 72 अ-IV. iv. 129 ...जितः -II. iv.58 (प्रथमासमर्थ मघ प्रातिपदिक से मत्वर्थ में मास औरतन देखें- ण्यक्षत्रियार्ष० II. iv. 58 ले लिया. . प्रत्ययार्थ विशेषण हों तो)ज (और यत्) प्रत्यय (होते है)। जित - IV. ii. 152 ज-v.ili. 50 (विकार और अवयव अर्थों में विहित) जो जित् प्रत्यय, .. (भाग अर्थ में वर्तमान षष्ठ और अष्टम शब्दों से) ब तदन्त (षष्ठीसमर्थ) प्रातिपदिकों से (भी विकार और अवप्रत्यय (तथा अन् प्रत्यय होते हैं,वेदविषय को छोड़कर)। यव अर्थों में ही अञ् प्रत्यय होता है)। । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीत 271 जीतः - III. 11.156 ज्य: -IV. iv.90 जिजिसका इत्संज्ञक हो, ऐसी धातु से (वर्तमानकाल में (तृतीयासमर्थ गृहपति शब्द से संयुक्त अर्थ में) ज्य क्त प्रत्यय होता है)। प्रत्यय होता है, (सज्ञा विषय में)। जे-VI. 1.70 ज्य - V.1.14 (श्येन तथा तिल शब्द को पात शब्द के उत्तरपद रहते (चतुर्थीसमर्थ विकृतिवाची ऋषभ और उपानह प्रातिपतथा) व प्रत्यय के परे रहते (मुम् आगम होता है)। दिकों से उसकी विकृति के लिए प्रकृति' अभिधेय होने परे 'हित' अर्थ में) ज्य प्रत्यय होता है। ... đ – V . 105 • देखें- अध्यौ ... 105 ज्यः -V.III. 112 ष्णिति - VII. I. 115 (प्रामणी यदि पूर्व अवयव न हो जिसके ऐसे पूगवाची (अजन्त अजों को) जित, णित् प्रत्यय परे रहते (वृद्धि प्रातिपदिकों से) ज्य प्रत्यय होता है, (स्वार्थ में)। होती है)। ज्य -V.iv.23 मिति - VI.. 191 (अनन्त, आवसथ, इतिह तथा मेषज् प्रातिपदिकों से स्वार्थ में) ज्य प्रत्यय होता है। बकार इत्सज्जक तथा नकार इत्सजक प्रत्ययों के परे । रहते (नित्य ही आदि को उदात्त होता है)। .. ज्य-V.iv. 26 जिनेषु - VIL ill.54 (अतिथि प्रातिपदिक से 'उसके लिये यह अर्थ में) ज्य (हन् धातु के हकार के स्थान में कवर्गादेश होता है) प्रत्यय होता है। जित्, णित् प्रत्यय तथा नकार परे रहते। ज्यङ्-IV. 1. 169 ..ज्य....-IV.1.79 . (क्षत्रियाभिधायी,जनपदवाची,वृद्धसंज्ञक,इकारान्त तथा -देख-दुष्छण्कठ० IV.ii.79 कोसल और अजाद प्रातिपदिकों से अपत्य अर्थ में) व्यङ् ज्य - IV. iii. 58 प्रत्यय होता है। (सप्तमीसमर्थ गम्भीर प्रातिपदिक से भव अर्थ में) ज्य ज्यट-v.i प्रत्यय होता है। (वाहीक देशविशेष में शस्त्र से जीविका कमाने वाले ज्य-IVili.84 पुरुषों के समूहवाची प्रातिपदिकों से स्वार्थ में)ज्युट् प्रत्यय (पञ्चमीसमर्थ विदुर शब्द से 'प्रभवति' अर्थ में) ज्य होता है.(बाह्मण और राजन्य शब्द को छोड़कर)। प्रत्यय होता है। ज्यादयः-v.iii. 119 ज्यः - IV. 1.92 (प्रथमासमर्थ शुण्डिकादि प्रातिपदिकों से 'इसका अभि ज्यादि प्रत्ययों की (तद्राजसंज्ञा होती है)। जन' इस अर्थ में) ज्य प्रत्यय होता है। ज्युट -III. ii, 65 ज्य: - IV. iii. 128 (वह' धातु से कव्य, पुरीष और पुरीष्य (सुबन्त उपपद (षष्ठीसमर्थ छन्दोग, औक्थिक याज्ञिक,बहुच तथा नट रहते वेदविषय में) ज्युट प्रत्यय होता है । प्रातिपदिकों से 'इदम्' अर्थ में) ज्य प्रत्यय होता है। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272 ट् - प्रत्याहारसूत्र V आचार्य पाणिनि द्वारा अपने पश्चम प्रत्याहारसूत्र में इत्स- क्षार्थ पठित वर्ण। ट.. -I.i. 45 देखें-टकिती I.1.45 ट-प्रत्याहारसूत्र x आचार्य पाणिनि द्वारा अपने ग्यारहवें प्रत्याहार सत्र में पठित सप्तम वर्ण। पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्णमाला का छत्तीसवां वर्ण। ट.. - VI. iv. 145 देखें-टखो: VI. iv. 145 ८-III. I. 16 (चर धातु से अधिकरण सुबन्त उपपद रहते) ट प्रत्यय होता है। टक्-III. ii. 8 (गा और पा धातु से कर्म उपपद रहते) टक् प्रत्यय होता ....टा... -IV.1.2 देखें - स्वौजसमौट V.1.2 टा... - VII. I. 12 देखें - टाङसिङसाम् VII. I. 12. टाङसिङसाम् -VII.i. 12 (अदन्त अङ्ग से उत्तर) टा,ङसि तथा डस् के स्थान में (क्रमशः इन्, आत् व स्य आदेश होते हैं)। टाप-IV.i.4 (अजादिगण-पठित तथा अदन्त प्रातिपदिकों से स्त्रीलिङ्ग में) टाप् प्रत्यय होता है। टाप् - IV.i.9 (पादन्त प्रातिपदिक से स्त्रीलिङ्ग में ऋचा वाच्य हो तो) टाप् प्रत्यय होता है। टि-1.1.63 (अचों के मध्य में जो अन्त्य अच,वह अन्त्य अच् आदि है जिस समुदाय का, उस समुदाय की) टिसंज्ञा होती है। टिठन् - IV. iv. 67 (प्रथमासमर्थ श्राणा तथा मांसौंदन प्रातिपदिकों से 'इसको नियतरूप से दिया जाता है' - अर्थ में) टिठन् प्रत्यय होता है। श्राणा = कांजी,यवागू। टिठन् -V.i. 25 (कंस प्रातिपदिक से तदर्हति'- पर्यन्त कथित अर्थों में) टिठन् प्रत्यय होता है। टित्.. - IV.i. 15 देखें - टिड्डाणज्यसo IV.I. 15 टिट्टाणब्यसदनमात्रतयप्ठक्ठकज्यवरपःIV.i. 15 टित, ढ,अण, अब, द्वयसच.दनच, मात्रच, तयप, ठक्, ठज,कञ् तथा क्वरप्-प्रत्ययान्त (अनुपसर्जन)प्रातिपदिकों से (स्त्रीलिङ्ग में डीप् प्रत्यय होता है)। टितः -III. iv.79 टित् अर्थात् लट्,लिट्, लुट्,लृट, लेट, लोट् लकारों के (जो त,आतामझ आदि आत्मनेपद आदेश,उनके टि भाग को एकार आदेश हो जाता है)। ट -III. 1.52 (जाया और पति कर्म उपपद रहते लक्षणवान् कर्ता अभिधेय होने पर 'हन्' धातु से) टक प्रत्यय होता है। टकिती-I.1.45 (षष्ठीनिर्दिष्ट) टिदागम और किदागम (क्रमशः आधवयव और अन्तावयव होते हैं)। टखो: - VI. iv. 145 (अहन् अङ्ग के टि भाग का) ट तथा ख तद्धित प्रत्यय परे रहते (ही लोप होता है)। टच् - V. iv. 91 (राजन, अहन् तथा सखि-शब्दान्त प्रातिपदिकों से समासान्त) टच प्रत्यय होता है; (तत्पुरुष समास में)। ...टा... - II. 1.34 देखें - द्वितीयाटीस्सु II. v. 34 .. Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 273 ट्वितः टीटच्.. - V. ii. 31 टे: -VII.i. 88 देखे - टीटाटच्० v. ii. 31 (पथिन्, मथिन् तथा ऋभुक्षिन् भसञक अङ्गों के) टीटनाटनटचः -v.ii. 31 टिभाग का (लोप होता है)। (आ उपसर्ग प्रातिपदिक से 'नासिकासम्बन्धी झुकाव टे-VIII. ii. 82 को कहना हो तो सञ्जाविषय में) टीटच, नाटच तथा (यह अधिकारसूत्र है। पाद की समाप्तिपर्यन्त सर्वत्र घंटच् प्रत्यय होते हैं। 'वाक्य के) टिभाग को (प्लुत उदात्त होता है' ऐसा अर्थ ....... - I. iii. 5 होता जायेगा। देखें - बिटुडवः I. iii.5 टे-VIII. ii. 89 ....८: - VIII. iv. 40 (यज्ञकर्म में अन्तिम पद की) टिभाग को (प्रणव अर्थात ओम आदेश होता है और वह प्लुत उदात्त होता है)। देखें- VIII. iv.40 टेण्यण - V. iii. 115 ....टुक् - VIII. iii. 28 (शस्त्रों से जीविका कमाने वाले पुरुषों के समूहवाची देखें - कुक्टुक् VIII. iii. 28 वृकं प्रातिपदिक से स्वार्थ में) टेण्यण् प्रत्यय होता है। ...टू-I. iii.7 टो: - VIII. iv. 41 देखें - चुटू i. ii.7 (पदान्त) टवर्ग से उत्तर (सकार और तवर्ग को षकार टे-III. iv.79 और टवर्ग नहीं होता, नाम् को छोड़कर)। (टित् अर्थात् लट्, लिट्, लुट, लट्, लेट, लोट् लकारों ट्यण् - IV. ii. 29 के जो आत्मनेपद त,आताम,झ आदि आदेश,उनके) टि (प्रथमासमर्थ देवतावाची सोम शब्द से षष्ठ्यर्थ में) भांग को (एकार आदेश हो जाता है)। ' ट्यण् प्रत्यय होता है। टे- V. iii. 71 ट्यु... - IV. iii. 23 (अव्यय तथा सर्वनामवाची प्रातिपदिकों से एवं तिङन्तों .. देखें - ट्युट्युलौ० V. ii. 23 . से इवार्थ से पहले पहले अकच् प्रत्यय होता है और वंह) टि भाग से (पूर्व होता है)। ट्युट्युलौ - IV. iii. 23 (कालवाची सायं चिरं प्राहे. प्रगे तथा अव्यय प्रातिपटे-VI.ii.91 दिकों से) ट्यु तथा ट्युल प्रत्यय होते हैं (तथा इन प्रत्ययों - (विष्वग तथा देव शब्दों के तथा सर्वनाम शब्दों के) को तुट आगम भी होता है)। टिभाग को (अद्रि आदेश होता है, वप्रत्ययान्त अञ्जु धातु ...ट्युलौ - IV. iii. 23 के परे रहते)। देखें - ट्युट्युलौ IV. iii. 23 टे-VI. iv. 143 ट्ल - IV. iii. 139 (भसज्जक अङ्ग के) टि भाग का (लोप होता है, डित् (षष्ठीसमर्थ शमी प्रातिपदिक से विकार और अवयव प्रत्यय के परे रहते)। अर्थों में) टल प्रत्यय होता है। टे: - VI. iv. 155 ट्वित: - III. iii. 89 (इष्ठन्, इमनिच् तथा ईयसुन् परे रहते भसञक अङ्ग टु इत्संज्ञक है जिन धातुओं का,उनसे (कर्तृभिन्न कारक के) टि भाग का (लोप होता है)। संज्ञा तथा भाव में अथुच् प्रत्यय होता है)। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274 ठ-प्रत्याहारसूत्र XI ठक्-IV. 1. 62 आचार्य पाणिनि द्वारा अपने ग्यारहवें प्रत्याहार सूत्र में (वसन्तादि प्रातिपदिकों से 'तदधीते तद्वेद' अर्थों में) ठक् पठित चतुर्थ वर्ण। प्रत्यय होता है। पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्णमाला ...ठक: -IV. 1.79 का तेतीसवां वर्ण। देखें - दुञ्छण्कठ• IV. ii. 79 ठ... - V. iii. 3 ठक्.. - IV. ii. 83 देखें-ठाजादौ vili.3 देखें- ठक्छौ ।.ii. 83 ....ठक्... - IV. 1. 15 देखें - टिहाण .1.15 . ठक्-V.ii. 101 . ठक्-IV.1.146 (कन्था प्रातिपदिक से शैषिक) रेवती आदि शब्दों से अपत्य अर्थ में) ठक प्रत्यय होता ठक्... -IV.ii. 114 देखें- ठक्छसौ IV.ii. 114. ठक्-IV.I. 148 ठक्-IV. iii. 18 (सौवीर गोत्र में वर्तमान वृद्धसंज्ञक प्रातिपदिकों से (वर्षा प्रातिपदिक से शैषिक) ठक् प्रत्यय होता है। अपत्य अर्थ में बहुल करके) ठक् प्रत्यय होता है, (दुर्वचन ठक् -IV.ii. 40 या घृणा गम्यमान होने पर)। (सप्तमीसमर्थ उपजानु, उपकर्ण, उपनीवि शब्दों से ठक् - IV.ii.2 'प्रायभवः' अर्थ में) ठक् प्रत्यय होता है। (तृतीयासमर्थ रागविशेषवाची लाक्षा तथा रोचना प्राति ठक्- V.I11.72 पदिकों से 'रंगा गया' अर्थ में) ठक प्रत्यय होता है। (षष्ठी तथा सप्तमीसमर्थ व्याख्यातव्यनाम जो दो अच् ठक् -v.ii. 17 वाले प्रातिपदिक,ऋकारान्त, ब्राह्मण,ऋक्,प्रथम, अध्वर, (सप्तमीसमर्थ दधि प्रातिपदिक से 'संस्कृतं भक्षाः' अर्थ पुरश्चरण, नाम तथा आख्यात प्रातिपदिक-इनसे भव, में) ठक् प्रत्यय होता है। व्याख्यान अर्थों में) ठक् प्रत्यय होता है। ठक् - IV. ii. 21 ठक् - IV.ii. 75 . (प्रथमासमर्थ पौर्णमासी शब्द के साथ समानाधिकरण (पक्षमीसमर्थ आयस्थानवाची प्रातिपदिकों से आगत वाले आग्रहायणी तथा अश्वत्थ शब्दों से सप्तम्यर्थ में) अर्थ में) ठक् प्रत्यय होता है। ठक् प्रत्यय होता है। ठक् -IV.ii. 96 ठक्-IV. 1.46 (षष्ठीसमर्थ अचेतनवाची तथा हस्तिन् और धेनु शब्दों (प्रथमासमर्थ भक्तिसमानाधिकरणवाची जो देश, काल से समूहार्थ में) ठक् प्रत्यय होता है। को छोड़कर अचेतनवाची प्रातिपदिक, उनसे षष्ठ्यर्थ में) ठक् प्रत्यय होता है। ठक् - Iv.ii. 59 (द्वितीयासमर्थ क्रत विशेषवाची,उक्थादि तथा सूत्रान्त ठक्-V.1. 108 प्रातिपदिकों से अध्ययन तथा जानने का कर्ता अभिधेय ___ (अगुल्यादि प्रातिपदिकों से इवार्थ में) ठक् प्रत्यय हो तो) ठक् प्रत्यय होता है। होता है। Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक 275 - ठक्-IV.III. 123 ठक्ठी - V. 1.76 (षष्ठीसमर्थ हल और सीर शब्दों से 'इदम' अर्थ में) (तृतीयासमर्थ अयःशूल तथा दण्डाजिन प्रातिपदिकों से 'चाहता है' अर्थ में यथासङ्ख्य करके) ठक् और उब ठक् प्रत्यय होता है। प्रत्यय होते हैं। ठक्-IV. iv.1 अयःशूल = तीक्ष्ण उपाय। (यहां से लेकर तद्वहति रथयुगप्रासङ्गम्' से पहले-पहले दण्डाजिन = दम्भ। जो अर्थ निर्दिष्ट किये गये हैं,वहां तक) ठक् प्रत्यय (का ...ठच... -V.1.79 अधिकार समझना चाहिये)। देखें-दुष्छकठ० N. II. 79 ठक्-IV. iv. 81 ठ - IV. iv.64 (द्वितीयासमर्थ हल और सीर प्रातिपदिकों से 'ढोता है' । (अध्ययन-विषय में वृत्तकार्यसमानाधिकरणवाची प्रथअर्थ में ठक् प्रत्यय होता है। मासमर्थ बह्वच पूर्वपदवाले प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ में) ठक् -IV.Iv. 102 . ठच् प्रत्यय होता है। (सप्तमीसमर्थ कथादि प्रातिपदिकों से साध अर्थ में) ठच् - V. 11.78 (बहुत अच् वाले मनुष्यनामधेय प्रातिपदिक से अनुठक् प्रत्यय होता है। कम्पा अथवा गम्यमान होने पर, अनुकम्पा से युक्त नीति ठक् - V. iv.13 गम्यमान होने पर विकल्प से) ठच् प्रत्यय होता है। (अनुगादिन् प्रातिपदिक से स्वार्थ में) ठक् प्रत्यय होता ठन् - V. iii. 109. (एकशाला प्रातिपदिक से इवार्थ में विकल्प से) ठच् ठक्.-v.iv.34 प्रत्यय होता है)। . विनयादि प्रातिपदिकों से स्वार्थ में) ठक् प्रत्यय होता ...ठा... - IV.I. 15 देखें - टिड्डाण IV. i. 15 ठक् - V. 1.67 ठञ् -IV. ii. 34 (सप्तमीसमर्थ उदर प्रातिपदिक से 'पेटू' वाच्य हो तो (प्रथमासमर्थ देवतावाची महाराज तथा प्रोष्ठपद प्राति'तत्पर' अर्थ में) ठक् प्रत्यय होता है। पदिकों से षष्ठ्यर्थ में) ठत्र प्रत्यय होता है। ठक्.... - V. 1.76 ठञ्-IV. 1.40 देखें - ठक्ठजो V. 1.76 (षष्ठीसमर्थ कवचिन् शब्द से समूह अर्थ में) ठञ् प्रत्यय (भी) होता है। ...ठक: - IV. 1.79 ठप्... - IV. 1. 113 देखें-दुल्छकठ० IV. ii. 79 देखें-ठबिठौ IV.ii. 113 ठक्छसौ - IV. II. 114 ठञ्- IV. 1. 118 (वृद्धसंज्ञक भवत् शब्द से शैषिक) ठक् और छस् प्रत्यय (उवर्णान्त देशवाची प्रातिपदिकों से शैषिक) ठज प्रत्यय होते हैं। . होता है। ठक्छौ - IV. 1.83 ठ -IV. 1.6 (शर्करा शब्द से चातुरर्थिक) ठक् तथा छ प्रत्यय (भी) (दिशावाची पूर्वपदवाले अर्ध प्रातिपदिक से) शैषिक होते हैं। ठञ् (और यत्) प्रत्यय (होते है)। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठ 276 ठञ् - IV. iii. 11 ठञ् - IV. iv. 58 (कालविशेषवाची प्रातिपदिकों से) शैषिक ठञ् प्रत्यय (प्रहरण समानाधिकरणवाची प्रथमासमर्थ परश्वध होता है। प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ में) ठञ् प्रत्यय होता है (और चकार से ठक् भी)। ठञ् -IV. iii. 19 परश्वध = कुल्हाड़ी, कुठार, फरसा। . (वर्षा प्रातिपदिक से वेदविषय में) ठञ् प्रत्यय होता है। ठञ्-IV. iv. 103 ठ -IV.iii. 50 (सप्तमीसमर्थ गुडादि प्रातिपदिकों से साधु अर्थ में). (सप्तमीसमर्थ कालवाची संवत्सर तथा आग्रहायणी ठञ् प्रत्यय होता है। प्रातिपदिकों से) ठञ् (तथा वुज) प्रत्यय (होते हैं)। ठञ् -V.i. 18 ठञ्-IV. iii. 60 . (यहां से आगे वतेः= 'तेन तुल्यं क्रिया चंद्वतिः' सूत्र (अ = तः शब्द पूर्वपद में है जिसके,ऐसे सप्तमीसमर्थ से पहले पहले तक) ठञ् प्रत्यय अधिकृत होता है। . अव्ययीभावसंज्ञक प्रातिपदिक से भवार्थ में) ठत्र प्रत्यय ठञ्-v.i. 43 होता है। (सप्तमीसमर्थ लोक तथा सर्वलोक प्रातिपदिक से ठञ्-IV. iii.67 'प्रसिद्ध' अर्थ में) ठञ् प्रत्यय होता है। (व्याख्यान और भव अर्थ में षष्ठी और सप्तमीसमर्थ ठञ्-v.i. 107 बहत अच वाले अन्तोदात्त व्याख्यातव्यनाम प्रातिपदिकों (प्रकर्ष में वर्तमान जो प्रथमासमर्थ काल शब्द, उससे से) ठञ् प्रत्यय होता है। षष्ठ्यर्थ में) ठञ् प्रत्यय होता है। ठ -IV. iii.78 ठञ् -V.ii. 118 (पञ्चमीसमर्थ विद्यायोनि-सम्बन्धवाची ऋकारान्त (एक शब्द जिसके पूर्व में हो तथा गो.शब्द जिसके पूर्व प्रातिपदिकों से आगत अर्थ में) ठञ् प्रत्यय होता है। में हो.ऐसे प्रातिपदिक से 'मत्वर्थ' में नित्य ही) ठञ् प्रत्यय ठञ् - IV. iv.6 होता है। (ततीयासमर्थ गोपुच्छ प्रातिपदिक से 'तरति' अर्थ में) ...ठो - IV. iii.7 ठञ् प्रत्यय होता है। देखें - अष्ठी IV. 1.7 ठञ् - IV. iv. 11 ...ठौ-V..ii. 76 (तृतीयासमर्थ श्वगण प्रातिपदिक से) ठञ् (तथा ठन्) देखें - ठक्ठौ V.ii.76 प्रत्यय (होते हैं)। ठजिठौ - IV. ii. 115 श्वगण = कुत्तो का झुण्ड । (काशी आदि प्रातिपदिकों से शैषिक) ठञ् और विठ् ठञ् - IV. iv. 38 - प्रत्यय होते हैं। (द्वितीयासमर्थ आक्रन्द प्रातिपदिक से 'दौडता है' अर्थ ठन् - IV.iv.7 में) ठञ् (तथा ठक) प्रत्यय (होते है)। (तृतीयासमर्थ नौ तथा दो अच वाले प्रातिपदिकों से आक्रन्द = रोने का स्थान, शरणस्थान । 'तरति' अर्थ में) ठन प्रत्यय होता है। ठञ्-IV. iv. 52 ठन् - IV. iv. 13 (प्रथमासमर्थ लवण प्रातिपदिक से इसका बेचना' अर्थ (ततीयासमर्थ वस्न और क्रयविक्रय प्रातिपदिकों से) ठन् में) ठञ् प्रत्यय होता है। प्रत्यय होता है। . Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठन् 277 ठन्-IV. iv.42 (द्वितीयासमर्थ प्रतिपथ प्रातिपदिक से 'जाता है' अर्थ में) ठन् (तथा ठक्) प्रत्यय (होते हैं)। ठन् - IV. iv.70 (सप्तमीसमर्थ अगार अन्त वाले प्रातिपदिकों से 'नियुक्त' अर्थ में) ठन् प्रत्यय होता है। ठन्... - V.1.21 देखें- ठन्यतौ v.1.21 ठन् - V. 1.47 (प्रथमासमर्थ पूरणवाची प्रातिपदिकों से तथा अर्ध प्रातिपदिक से) सप्तम्यर्थ में ठन् प्रत्यय होता है, (यदि 'वृद्धि' = के रूप में दिया जाने वाला द्रव्य, 'आय' = जमींदारों का भाग, 'लाभ' = मूल द्रव्य के अतिरिक्त प्राप्य द्रव्य, शुल्क' = राजा का भाग तथा 'उपदा' = घूस 'दिया जाता है' क्रिया के कर्मवाच्य हों तो)। ठन्.. --V.1.50 देखें - ठन्कनौ V. 1. 50 ठन् -V.I. 83. (षण्मास प्रातिपदिक से अवस्था अभिधेय न हो तो) ठन् प्रत्यय (तथा ण्यत् प्रत्यय होते हैं, हो चुका' अर्थ में)। ...ठनौ-v.ii. 85 देखें - इनिठनौ v. ii. 85 ...ठनौ-V.II. 115 देखें - इनिठनौ V. 1. 115 ठन्कनौ-v.1.50 (द्वितीयासमर्थ वस्न और द्रव्य प्रातिपदिकों से 'हरण करता है','वहन करता है' और 'उत्पन्न करता है' अर्थों में यथासङ्ख्य) ठन् और कन् प्रत्यय होते हैं। ठन्यतौ -V.1.21 (शत प्रातिपदिक से भी आीय अर्थों में) ठन और यत् प्रत्यय होते हैं.(यदि सौ अभिधेय न हो तो)। ठप - IV. iii. 26 (सप्तमीसमर्थ प्रावष प्रातिपदिक से 'उत्पन्न हुआ' अर्थ में) ठप् प्रत्यय होता है। ठस्य - VII. Ill. 50 . (अङ्ग के निमित्त) ठ को (इक आदेश होता है)। ठाजादौ - V. iii.83 (इस प्रकरण में कथित) ठ तथा अजादि प्रत्ययों के परे रहते द्वितीय अच से बाद के शब्दरूप का लोप हो जाता है। 3-प्रत्याहारसूत्र x भगवान् पाणिनि द्वारा अपने दशम प्रत्याहार सूत्र में पठितं चतुर्थ वर्ण। पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्णमाला का अट्ठाइसवां वर्ण। P-III. I. 48 (अन्त, अत्यन्त, अध्व, दूर, पार. सर्व. अनन्त कर्मों के उपपद रहते गम् धातु से) ड प्रत्यय होता है। P-III. 1.97 (जन् धातु से सप्तम्यन्त उपपद रहते) भूतकाल में ड प्रत्यय होता है। -V.ii.45 . (प्रथमासमर्थ दशन् शब्द अन्तवाले प्रातिपदिक से सप्तम्यर्थ में) ड प्रत्यय होता है, (यदि वह प्रथमासमर्थ अधिक समानाधिकरण वाला हो तो)। R-VIII. iii. 29 डकारान्त पद से उत्तर (सकारादि पद को विकल्प से धु का आगम होता है)। -III. 1. 97 (सप्तम्यन्त उपपद हो तो जन् धातु से) ड प्रत्यय होता है। उच् -V.iv.73 (बहु तथा गण शब्द अन्त में नहीं है जिसके, ऐसे सङ्ख्येय अर्थ में वर्तमान बहुव्रीहिसमासयुक्त प्रातिपदिक से) डच् प्रत्यय होता है। छट् - V.II. 48 (षष्ठीसमर्थ सङ्ख्यावाची प्रातिपदिकों से 'पूरण' अर्थ में) डट् प्रत्यय होता है। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278 हुण्-V.1.61 (त्रिंशत् तथा चत्वारिंशत् प्रातिपदिकों से संज्ञा-विषय में 'तदस्य परिमाणम्' अर्थ को कहने में) डण् प्रत्यय होता है,(बाह्मणग्रन्थ अभिधेय हों तो)। इतम - V. 1.93 (जाति को पूछने के विषय में किम् यत् तथा तत् प्रातिपदिकों से बहुतों में से एक का निर्धारण गम्यमान हो तो विकल्प से) डतमच प्रत्यय होता है। इतर -V.III. 92 (किम्, यत् तथा तत् प्रातिपदिकों से 'दो में से एक का पृथक्करण' अर्थ में) डतरच प्रत्यय होता है। इतरादिभ्यः -VII. I. 25 डतर आदि में है जिसके, ऐसे (सर्वादिगणपठित पांच) शब्दों से उत्तर (सु तथा अम् को अह आदेश होता है)। उति-I.1.24 डतिप्रत्ययान्त (संख्यावाची) शब्द (की भी षट् संज्ञा होती है)। ...उति-1.1.25 देखें-बहुगणवतुडति 1.1.25 इति-v.1.41 (सङ्ख्या के परिमाण अर्थ में वर्तमान प्रथमासमर्थ किम् प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ में) डति प्रत्यय (तथा वतुप प्रत्यय होते हैं तथा उस वतुप के वकार के स्थान में धकार आदेश हो जाता है)। डवः -1.11.5 देखें-जिटायः 1. 1.5 डा.. -II. iv.85 देखें-परीरसII.IN.85 ...डा... -VII.1.39 देखें - सुलु VII. 1. 39 डाच - V.IN.57 (अव्यक्त शब्द के अनुकरण से जिसमें अर्धभाग दो अच् वाला हो; उससे क.भू तथा अस के योग में) डाच प्रत्यय होता है, (यदि इति शब्द परे न हो तो)। ...डाय-1.11.60 देखें - ऊर्यादिविडायः I. 1.60 ...डाव्यः -III. 1. 13 देखें-लोहतादिहाव्य III. 1. 13 छाप-IV.I. 13 (दोनों से अर्थात् ऊपर कहे गये मनन्त प्रातिपदिकों से तथा बहुव्रीहि समास में जो अन्नन्त प्रातिपदिक- उनसे स्त्रीलिङ्ग में विकल्प से) डाप् प्रत्यय होता है। डारीरस:-II.iv.85 (लुट् लकार के प्रथम पुरुष के स्थान में क्रमशः) डा,रौ और रस् आदेश होते हैं। डिति -VI. iv. 142 (भसज्जक विंशति अङ्ग के ति का) डित् प्रत्यय परे रहते (लोप होता है)। -III. II. 180 (संज्ञा गम्यमान न हो तो वि,प्र तथा सम्पूर्वक भू धातु से) डु प्रत्यय होता है, (वर्तमानकाल में)। दुपच् - V. III. 89 (छोटा' अर्थ गम्यमान हो तो कुतू प्रातिपदिक से) डुपच् प्रत्यय होता है। कुतू = तेल डालने के लिये चमड़े की बनी कुप्प। इमतुप-V...86 “(कुमुद, नड और वेतस प्रातिपदिकों से चातुरर्थिक) इमतुप् प्रत्यय होता है। कुमुद = सफेद कुमुदिनी, लाल कमल। नड = नरकुल। वेतस = नरकुल,बेंत। झ्याइयो - IV. 1.8 (तृतीयासमर्थ वामदेव प्रातिपदिक से देखा गया साम' अर्थ में) ड्यत् और ड्य प्रत्यय होते हैं। स्याइयो - IV.IN.113 (सप्तमीसमर्थ स्रोतस् प्रातिपदिक से वेद-विषय में भवार्थ में विकल्प से) ड्यत, ड्य दोनों प्रत्यय होते हैं। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 279 इयण -Viv. 111 (सप्तमीसमर्थ पाथस् और नदी प्रातिपदिकों से वेद- विषय में भव अर्थ में) ड्यण् प्रत्यय होता है। इयत्.. - IV. 1.9 देखें- ड्याड्यो V. 1.9 इयत्.. - IV. iv. 113 देखें-झ्याइयो N. iv. 113. ....झ्या.. - VII. 1. 39 देखें-सुलक्० VII. 1. 39 ..डयो - N.I.9 देखें - ड्यड्ड्यौ N. I.9 ....इयो -IV. iv. 113 देखें - ड्यड्ड्यौ iv. iv. 113 इवल - IV. ii. 87 (नड,शाद शब्दों से चातुरर्थिक) इवलच प्रत्यय होता है। नड = नरकुल। शाद = छोटी घास, कीचड़। ड्वितः-III. iii. 88 डु इत्संज्ञक है जिन धातुओं का,उनसे (कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में वित्र प्रत्यय होता है)। इन् - V.i. 24 (विंशति तथा त्रिंशद् प्रातिपदिकों से 'तदर्हति पर्यन्त कथित अर्थों में) डुवुन् प्रत्यय होता है; (संज्ञाभिन्न विषय में)। ६.. - VI. III. 110 -VIII. 1. 13 देखें - इलोपे vi. III. 110 (ढकार परे रहते) ढकार का (लोप होता है, संहिता में)। ह-प्रत्याहार सूत्र IX ढक् - IV.i. 119 भगवान् पाणिनि द्वारा अपने नवम प्रत्याहार सूत्र में (मण्डूक प्रातिपदिक से) ढक प्रत्यय होता है.(चकार से पठित द्वितीय वर्ण। . विकल्प करके अण भी होता है)। पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्णमाला ___मण्डूक = मेंढक। का तेइसवां वर्ण। स्क्-IV. 1. 120 .....-V.1.15 (स्त्री-प्रत्ययान्त प्रातिपदिकों से अपत्य अर्थ में) ढक् देखें - धिाण IV. 1.15 प्रत्यय होता है। ...... - VII.1.2 हक् - IV. 1. 142 देखें-फडखO VII.1.2 (दुष्कुल प्रातिपदिक से अपत्य अर्थ में विकल्प से) ढक -V.v. 106 प्रत्यय होता है, (पक्ष में ख)। . (सप्तमीसमर्थ सभा शब्द से साध अर्थ में वैदिक प्रयोग विषय में) ढ प्रत्यय होता है। दक्-Vil. 32 C-V.III. 102 (प्रथमासमर्थ देवतावाची अग्नि प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ (शिला शब्द से इवार्थ में) ढ प्रत्यय होता है। में) ढक प्रत्यय होता है। .-VIII. 1.31 हक्-IV. 1.96 (हकार के स्थान में) ढकार आदेश होता है, (झल परे (नदी आदि प्रातिपदिकों से शैषिक) ढक् प्रत्यय होता रहते या पदान्त में)। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280 बक्... - IV. 1. 94 -IV. iii. 56 देखें-ढक्छण्ढज्यकः IV. iii. 94 (सप्तमीसमर्थ दृति, कुक्षि, कलशि. वस्ति, अस्ति तथा -.i. 126 अहि शब्दों से 'भव' अर्थ में) ढब् प्रत्यय होता है। (षष्ठीसमर्थ कपि तथा ज्ञाति प्रातिपदिकों से भाव तथा ...... -IV. iil.94 कर्म अर्थ में) ढक् प्रत्यय होता है। देखें-ढक्छण्डव्यक: IV. iii. 94 डक् - V. 1.2 ढ -IV. iii. 156 (षष्ठीसमर्थ धान्यविशेषवाची व्रीहि तथा शालि प्राति- (षष्ठीसमर्थ एणी प्रातिपदिक से विकार और अवयव पदिकों से 'उत्पत्तिस्थान' अभिधेय हो तो) ढक प्रत्यय अर्थों में) ढब् प्रत्यय होता है। होता है, (यदि वह उत्पत्तिस्थान खेत हो तो)। एणी= काली हरिणी डक -IV. 1.94 डब् - IV. iv. 104 (कठ्यादि प्रातिपदिकों से शैषिक अर्थों में) ढकब प्रत्यय (सप्तमीसमर्थ पथिन, अतिथि, वसति,स्वपति प्रातिपहोता है। दिकों से साधु अर्थ में) ढञ् प्रत्यय होता है। " ...डको -N.. 140 हा-V.i. 13 देखें - यही V.I. 140 (चतुर्थीसमर्थ विकृतिवाची छदिस्, उपधि और बलि डकि-V.1.133 प्रातिपदिकों से उसकी विकृति के लिए प्रकृति' अभिधेय .. (अपत्यार्थ में आये हुए ढक् प्रत्यय के परे रहते (पितृ- होने पर 'हित' अर्थ में) ढञ् प्रत्यय होता है। ष्वस शब्द का लोप हो जाता है)। -V.1.17 ...डको - IV. iv.in (प्रथमासमर्थ परिखा प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ एवं सप्तदेखें- याकौ IV. iv.77 म्यर्थ में) ढब प्रत्यय होता है,(यदि वह प्रथमासमर्थ प्राति पदिक स्यात् = 'सम्भव हो'"क्रिया के साथ डक्छण्डव्यक:-VH1.94 समानाधिकरण वाला हो तो। .. (तूदी, शलातुर, वर्मती, कूचवार प्रातिपदिकों से यथासङ्ख्य करके) ढक्छ ण. ढब तथा यक प्रत्यय होते हैं. -V.III. 101 (इसका देश' विषय में)। (वस्ति प्रातिपदिक से 'इव' का अर्थ घोतित हो रहा हो ह -V.I. 135 .... तो) ढब् प्रत्यय होता है। (चतुष्पाद के वाचक प्रातिपदिकों से अपत्य अर्थ में) ...डबा-.. 10 ढब् प्रत्यय होता है। देखें - णढोv.i. 10 ब - IV.ii. 19 दिनुक्-IV. iii. 109 (तृतीयासमर्थ छगलिन् प्रातिपदिक से वेदविषय में (सप्तमीसमर्थ क्षीर प्रातिपदिक से 'संस्कृतं भक्षाः' अर्थ 'प्रोक्त' अर्थ में) ढिनुक प्रत्यय होता है। में) ढञ् प्रत्यय होता है। हे - VI. iv. 147 .... ... - IV. 1.79 (कद्र को छोड़कर जो उवर्णान्त भसज्जक अङ्ग,उसका) देखें-दुच्छण्कठ० V.ii. 79 ढ तद्धित प्रत्यय परे रहते (लोप होता है)। ब - IV. iii. 42 d.-VII. iii. 28 (प्रवाहण अङ्ग के उत्तरपद के अचों में आदि अच को (सप्तमीसमर्थ कोश प्रातिपदिक से सम्भूत अर्थ म) नित्य वृद्धि होती है,पूर्वपद को तो विकल्प से होती है);ढ ढब् प्रत्यय होता है। तद्धित प्रत्यय परे रहते। Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 281 d-VIII. III. 13 ढकार परे रहते (ढकार का लोप होता है. संहिता में)। ....डो:-VIII. II. 41 देखें-पडो : VIII. II. 41 ह -IV.i. 129 (गाषा शब्द स अपत्य ढलोपे-VI. iii. 110 ढकार एवं रेफ का लोप हुआ है जिसके कारण,उसके परे रहते (पूर्व के अण् को दीर्घ होता है)। ण् - प्रत्याहारसूत्र । ण:-IV. 1.56 आचार्य पाणिनि द्वारा अपने प्रथम प्रत्याहार सूत्र में (प्रथमासमर्थ प्रहरण समानाधिकरण वाले प्रातिपदिकों इत्सज्जार्थ पठित वर्ण। से सप्तम्यर्थ में) ण प्रत्यय होता है,(यदि अस्यां' से क्रीडा ण - प्रत्याहारसूत्र VI निर्दिष्ट हो)। आचार्य पाणिनि द्वारा अपने छठे प्रत्याहारसत्र में उत्स- - .v.62 ज्ञार्थ पठित वर्ण। (शील समानाधिकरणवाची प्रथमासमर्थ छत्रादि प्राति- ण-प्रत्याहारसूत्र VII पदिकों से षष्ठ्यर्थ में) ण प्रत्यय होता है। भगवान् पाणिनि द्वारा अपने सप्तम प्रत्याहारसूत्र में ण-V. iv.85 पठित चतुर्थ वर्ण। (द्वितीयासमर्थ अन्न प्रातिपदिक से प्राप्त करने वाला' कहना हो तो) ण प्रत्यय होता है। . पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी में पठित वर्णमाला का अठा-रहवां वर्ण। . ण:-IV. iv. 100 (सप्तमीसमर्थ भक्त प्रातिपदिक से साधु अर्थ में) ण ण-III. iii. 60 प्रत्यय होता है। (नि पूर्वक अद् धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव ण: - V.1.75 में) ण प्रत्यय (भी होता है, अप भी)। द्वितीयासमर्थ पथिन प्रातिपदिक से 'नित्य ही जाता है' ण-IV.I. 147 अर्थ में) ण प्रत्यय होता है (तथा उस प्रत्यय के सन्नियोग (गोत्र में वर्तमान जो खी,तद्वाची प्रातिपदिक से कुत्सन से पथिन् को पन्थ आदेश भी होता है)। गम्यमान होने पर अपत्य अर्थ में) ण प्रत्यय होता है (और ण:-v.ii. 101 ठक् भी)। (प्रज्ञा, श्रद्धा तथा अर्चा प्रातिपदिकों से 'मत्वर्थ' में विकल्प करके) ण प्रत्यय होता है। ण... - V.I. 150 ण:-VI.i.63 देखें - णफिौ IV.i. 150 (धातु के आदि के) णकार के स्थान में (उपदेश में नकार ण... -V.i. 10 आदेश होता है)। देखें-णढो V. 1. 10 ण: -VIII. iv.1 ण... - V.i.97 रेफ तथा षकार से उत्तर नकार को) णकारादेश होता है, देखें - णयतौ V. 1. 97 (एक ही पद में)। ण:-III. I. 140 . ण: - VIII. iv. 12 (एक अच् है उत्तरपद में जिस समास के,वहाँ पूर्वपद में (ज्वल से लेकर कस् पर्यन्त धातुओं से विकल्प से) ण · स्थित निमित्त से उत्तर प्रातिपदिकान्त, नुम् तथा विभक्ति प्रत्यय होता है। के नकार को) णकार आदेश होता है। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णच् 282 ...णि... णच -III. iii.43 णमुल्कमुलौ -III. iv. 12 (क्रिया का अदल-बदल गम्यमान हो तो स्त्रीलिङ्ग में. (शक्नोति' धात उपपद हो तो वेद-विषय में धातु से) धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में) णच् प्रत्यय णमुल तथा कमुल प्रत्यय होते हैं। . होता है। णयतौ - V.1.97 णच:-V..iv. 14 (तृतीयासमर्थ यथाकथाच तथा हस्त प्रातिपदिकों से णयत्ययान्त प्रातिपदिक से (स्वार्थ में अब प्रत्यय होता दिया जाता है' और 'कार्य' अर्थों में यथासङ्ख्य करके है; स्त्रीलिङ्ग में)। ण और यत् प्रत्यय होते हैं। णढौ -v.i. 10 णल्... -III. iv. 82 (चतुर्थीसमर्थ सर्व तथा पुरुष प्रातिपदिकों से 'हित' अर्थ देखें - णलतुसुस III. iv. 82 में यथासङ्ख्य) ण तथा ढञ् प्रत्यय होते हैं। .. णल्-VII.1.91 णफिौ -IV.i. 150 (उत्तमपुरुष-सम्बन्धी) णल् प्रत्यय (विकल्प से णित्वत् . (सौवीर गोत्रवाचक फाण्टाहृति तथा मिमत शब्दों से) होता है)। ण तथा फिज् प्रत्यय होते हैं। ...णल्... - VII. iii. 85 णमुल... - III. iv. 12 देखें - अविचिण्णY VII. 1.85 देखें - णमुल्कमुलौ III. iv. 12 णल: - VII. I. 34 णमुल् - III. iv. 22 (आकारान्त अङ्ग से उत्तर) णल् के स्थान में (औकारादेश (पौन:पुन्य अर्थ में समानकर्तृक दो धातुओं में जो पूर्व- हो जाता है)। कालिक, उससे) णमुल् प्रत्यय होता है, (चकार से क्त्वा णलतुसुस्थलथुसणल्वमा: - III. ii. 82 भी होता है)। (लिट् लकार के परस्मैपदसंज्ञक जो 9 तिबादि आदेश, णमुल्-III. iv. 26 उनके स्थान में यथासङ्ख्य करके) णल,अतुस,उस्,थल, (स्वादुवाची शब्दों के उपपद रहते समानकर्तृक पूर्व- अथुस्, अ,णल, व,म-ये आदेश हो जाते हैं। कालिक कृञ् धातु से) णमुल् प्रत्यय होता है। ..णलो: - VII. I. 32 णमुलि - VI. i. 52 देखें - अविण्णलो: VII. III. 32. (अपपूर्वक 'गुरी उद्यमने' धातु के एच के स्थान में) णमुल ...णश... - II. iv. 80 प्रत्यय के परे रहते (विकल्प से आत्व हो जाता है)। देखें-घसहरणश II. iv. 80 णमुलि - VI.i. 188 ....णान्ता -I..24 णमुल् प्रत्यय के परे रहते (पूर्व धातु को विकल्प से देखें-ष्णान्ता I. 1. 24 आधुदात्त होता है)। णि... - III. I. 48 ... णमुलो : -VI. iv.93 देखें-णिश्रिदु० III. I. 48 देखें - चिण्णमुलो: VI. iv. 93 णि... -III. iii. 107 ....णमुलो: - VII. I. 69 देखें- ण्यासश्रन्थः III. Iii. 107 देखें - चिण्णमुलो: VII. i. 69 ...णि... - VII. II.5 ...णमुलौ - III. iv. 59 देखें-हम्यन्तक्षण VII. 1.5 देखें - क्त्वाणमुलौ III. iv. 59 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णि 283 णि -III.1.20 णिनि: -III. ii. 78 (पुच्छ,भाण्ड और चीवर कमों से क्रियाविशेष गम्यमान (धातुओं से अजातिवाची सुबन्त उपपद रहते होने पर) णिङ् प्रत्यय होता है। ताच्छील्य= तत्स्वभावता गम्यमान होने पर) णिनि प्रत्यय होता है। णिङ्-III. I. 30 (कम् धातु से) णिङ् प्रत्यय होता है। णिनि: -III. iii. 170 (आवश्यक और आधमर्ण्य वाच्य हो तो धातु से) णिनि •णिच् -III.1.21 प्रत्यय होता है। . (मुण्ड, मिश्र, श्लक्ष्ण, लवण, व्रत, वस्त्र, हल, कल, कृत, तूस्त - इन कर्मों से 'करोति' अर्थ में) णिच् प्रत्यय णिनिः - IV. iii. 103 होता है। (तृतीयासमर्थ ऋषिवाची काश्यप और कौशिक प्राति पदिकों से प्रोक्त अर्थ में) णिनि प्रत्यय होता है। णिच् -III. i. 25 (सत्याप,पाश,रूप,वीणा,तूल,श्लोक,सेना,लोम,त्वच, णिश्रिद्रुस्नुभ्य: -III.1.48 वर्म, वर्ण, चूर्ण - इन शब्दों तथा चुरादि धातुओं से) ण्यन्त तथा श्रि,द्रु,स्नु धातुओं से (च्लि के स्थान में चङ् णिच् प्रत्यय होता है। आदेश होता है, कर्तृवाची लुङ् परे रहते)। णिच:-1. lil.74 ...णी... -III. iii. 24 णिजन्त.धातु से (भी आत्मनेपद होता है,क्रियाफल कर्ता देखें- श्रिणीभुवः III. iii. 24 को मिले तो)। णे: -I. iii. 67 ....णित् -I. il.1 (अण्यन्त अवस्था में जो कर्म,वही यदि ण्यन्त अवस्था में देखें - णित् I. ii. 1 कर्ता बन रहा हो तो ऐसी) ण्यन्त धातु से (आत्मनेपद होता णित् - VII. 1. 90 है; आध्यान = उत्कण्ठापूर्वक स्मरण अर्थ को छोड़कर)। (गो शब्द से उत्तर सर्वनामस्थानविभक्ति) णित्वत् होती णे:-I. iii. 86 (बुध,युध,नश,जन,इ,पदू, -इन) ण्यन्त धातुओं ....णित्.. - VII. iii. 54 से (परस्मैपद होता है)। देखें-णिन्नेषु VII. iii. 54 णे:-III. ii. 137 ___ण्यन्त धातुओं से (वेद-विषय में तच्छीलादि कर्ता हो,तो ...णिति - VII. ii. 115 वर्तमानकाल में इष्णुच् प्रत्यय होता है)। देखें-णिति VII. ii. 115 णे: - VI. iv. 51 ...णिनि... - III. 1. 134 (अनिडादि आर्धधातुक के परे रहते) “णि' का (लोप देखें - ल्युणिन्यचः II:.1. 134 होता है)। णिनि - VI. II. 79 णे:-VII. 1. 27 णिन्नन्त शब्द उत्तरपद रहते (पूर्वपद को आधुदात्त होता (अध्ययन को कहने में निष्ठा के विषय में) ण्यन्त (वृति) धातु से (वृत्त शब्द निपातन किया जाता है)। णे: - VII: iv. 29 णिनिः - III. ii. 51 __ण्यन्त धातु से (विहित जो कत प्रत्यय.उसमें स्थित जो (कुमार तथा शीर्ष कर्म के उपपद रहते हन् धातु से) अच् से उत्तर नकार, उसको उपसर्ग में स्थित निमित्त से णिनि प्रत्यय होता है। उत्तर विकल्प से णकार आदेश होता है)। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...णोः - ...णो:-VIII. iii. 28 - VII. iv. 1 देखें - गो: VIII. iii. 28 (चपरक) णि के परे रहते (अङ्ग की उपधा को हस्व णोपदेशस्य-VIII. iv. 14 . होता है)। (उपसर्ग में स्थित निमित्त से उत्तर) णकार उपदेश में है। ण्य..-II. iv.58 जिसके, ऐसे धातु के (नकार को असमास में तथा अपि- देखें- ण्यक्षत्रियार्वत्रितः II. iv. 58 ग्रहण से समास में भी णकार आदेश होता है)। ..ण्य..- IV. 1.79 णौ-I. iii.67 देखें- वुच्छण्कठ० IV. i. 79 (अण्यन्तावस्था में जो कर्म, वही यदि) ण्यन्तावस्था में ण्य:- IV. 1.85 (कर्ता बन रहा हो तो ऐसी ण्यन्त धातु से आत्मनेपद होता है,आध्यान = उत्कण्ठापूर्वक स्मरण अर्थ को छोड़कर)। (दिति,अदिति, आदित्य तथा पति उत्तरपद वाले समर्थ प्रातिपदिकों से प्राग्दीव्यतीय अथों में) ण्य प्रत्यय होता णौ-I. iv. 52 (गत्यर्थक, बुद्ध्यर्थक, भोजनार्थक तथा शब्दकर्मवाली और अकर्मक धातुओं का जो अण्यन्तावस्था में कर्ता.वह) ण्यः-IV. 1. 151 ण्यन्तावस्था में (कर्मसंज्ञक हो जाता है)। (कुरु आदि प्रातिपदिकों से अपत्य अर्थ में) ण्य प्रत्यय णी-II. iv. 46 होता है। (आर्धधातुक) णिच् परे रहते (अबोधनार्थक इण् को गम् ण्यः - IV.i. 170 आदेश होता है)। (क्षत्रियाभिधायी जनपदवाची कुरु तथा नकार आदि णौ-II.iv. 51 वाले प्रातिपदिकों से अपत्य अर्थ में) ण्य प्रत्यय होता है। (सनपरक चपरक) णिच परे रहते (भी इङ को गाङ ण्य:-IV.iv.44 आदेश विकल्प से होता है)। द्वितीयासमर्थ परिषद् प्रातिपदिक से समवेत होता है' णौ-VI.I. 31 अर्थ में) ण्य प्रत्यय होता है। (सन् हो या चङ् परे हो जिस णिच् के, ऐसे) णि के परे ण्य: - IV. iv. 101 रहते (भी टुओश्वि धातु को विकल्प से सम्प्रसारण हो (सप्तमीसमर्थ परिषद् प्रातिपदिक से साधु अर्थ में) ण्य जाता है)। प्रत्यय होता है। जौ-VI.1.47 ण्यक्षत्रियाजितः - II. iv. 58 (डुक्रीज इङ् तथा जि धातुओं के एच् के स्थान में) णिच् ण्यन्त गोत्रप्रत्ययान्त, क्षत्रियवाची गोत्रप्रत्ययान्त, ऋषिप्रत्यय के परे रहते (आकारादेश हो जाता है)। वाची गोत्रप्रत्ययान्त तथा ब जिनका इत्सजक हो ऐसे णौ - VI.1.53 जो गोत्रप्रत्ययान्त शब्द- उनसे (युवापत्य में विहित अण (चि तथा स्फुर् धातुओं के एच् के स्थान में) णिच् प्रत्यय और इञ् प्रत्ययों का लुक् होता है)। के परे रहते (विकल्प से आत्व हो जाता है)। ण्यत् -III. 1. 125 णौ - VI. iv. 90 (ऋवर्णान्त और हलन्त धातुओं से) ण्यत् प्रत्यय होता (दोष अङ्ग की उपधा को ऊकार आदेश होता है) णि है। परे रहते। ण्यत् -V.i.82 णौ -VII. iii. 36 (षण्मास प्रातिपदिक से अवस्था अभिधेय हो तो 'हो (ऋ, ही, ब्ली,री,क्नूयी, मायी तथा आकारान्त अङ्ग चुका' अर्थ में) ण्यत् प्रत्यय (और यप् प्रत्यय होते हैं तथा को) णिच् परे रहते (पुक् आगम होता है)। औत्सर्गिक ठञ् प्रत्यय भी)। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ण्यतः ण्यतः - VI. 1. 208 (ईड, बन्द, वू, शंस, दुह-इन धातुओं का) जो ण्यत् तदन्त शब्द को (आद्युदात्त होता है)। .ण्यतो: VIII. iii. 52 देखें - धिण्ण्यतो: VIII. iii. 52 ण्यांसजन्य - III. I. 107 यन्त धातुओं एवं 'आस उपवेशने' तथा 'श्रन्थ् विमोचनप्रतिहर्षयो' धातुओं से (स्त्रीलिङ्ग कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में युच् प्रत्यय होता है । - प्युट् III. 1. 147 (गा धातु से शिल्पी कर्ता वाच्य होने पर) ण्युट् प्रत्यय होता है। - ण्ये - VII. iii. 65 य परे रहते (आवश्यक अर्थ में अङ्ग के चकार, जकार को कवर्गादेश नहीं होता। ... ण्योः - VIII. iii. 61 देखें - स्तौतिण्योः VIII. iii. 61 त- प्रत्याहारसूत्र XI - आचार्य पाणिनि द्वारा अपने ग्यारहवें प्रत्याहार सूत्र में पठित आठवां वर्ण । पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित • वर्णमाला का सेंतीसवां वर्ण । .I. IV. 19 देखें तसौ 1. IV 19 285 त... ... II. iv. 79 - देखें तथासो: 11. Iv. 79 - त - III. 1. 108 (अनुपसर्ग हन् धातु से सुबन्त उपपद रहते भाव में क्यप् प्रत्यय होता है तथा) तकार अन्तादेश (भी) होता है। त... • III. iv. 2 देखें - तब्वमो: III. iv. 2 - त - fua: III. ii. 62 (भज् धातु से सुबन्त उपपद रहते सोपसर्ग हो या निरुपसर्ग तो भी) ण्वि प्रत्यय होता है। ण्विन् - III. 1. 69 (वैदिक प्रयोग विषय में श्वेतवह, उक्यशस्, पुरोडाशये शब्द) ण्विन्-प्रत्ययान्त ( निपातन किये जाते हैं)। प्युच् - III. III. 111 - (पर्याय अर्ह, ऋण तथा उत्पत्ति अर्थों में धातु से स्त्रीलिङ्ग , भाव में विकल्प से) वुच् प्रत्यय होता है। ण्वुल्... - III. 1. 133 i. देखें ण्वुल्तृचौ III. 1. 133 - • ण्वुल् - III. iii. 108 (रोगविशेष की संज्ञा में धातु से स्त्रीलिङ्ग में) ण्वुल् प्रत्यय (बहुल करके) होता है। ...ugeit - III. iii. 10 देखें तुमुलौ IIIIII. 10 - ण्वुल्तृचौ - III. 1. 133 (धातुमात्र से) ण्वुल्, तृच् प्रत्यय होते हैं । ...... III. iv. 78 देखें - तिप्तस्झिo III. iv. 78 III. iv. 81 त... देखें - तझयो: III. iv. 81 त... ...... III. iv. 101 देखें - तान्तन्ताम: III. iv. 101 ... त... - V. ii. 138 देखें - बभयुस्o Vii. 138 ...th... - VII. 1. 9 देखें - तितुत्रo VII. li. 9 - त... - VII. ii: 106 देखें - तदो: VII. ii. 106 त... - VIII. ii. 38 देखें - तथो: VIII. II. 38 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286 त... -VIII. ii.40 तछील... - III. ii. 134 देखें-तथो: VIII. 1. 40 देखे - तच्छीलतद्धर्म III. 1. 134 त:-IV.i. 39 तच्छीलतद्धर्मतत्साधुकारिषु - III. 1. 134 (वर्णवाची अदन्त अनुपसर्जन अनुदात्तान्त तकार उप- (प्राजभास III.ii. 177.इस सूत्र से विहित क्विपधावाले प्रातिपदिकों से विकल्प से स्त्रीलिङ्ग में डीप् प्रत्यय __ पर्यन्त जितने प्रत्यय कहे हैं,वे सब) तच्छील = फल की तथा) तकार को (नकारादेश हो जाता है)। आकांक्षा बिना किये स्वभाव से ही उस क्रिया में प्रवृत्त होने वाला, तद्धर्म = स्वभाव के बिना भी अपना धर्म ." त: - VII.i.41 समझकर उस क्रिया में प्रवृत्त होने वाला तथा तत्साधुकारी (वेद-विषय में आत्मनेपद में वर्तमान) तकार का (लोप = उस क्रिया को कुशलता से करने वाला कर्ता अर्थों में : हो जाता है)। जानने चाहिए। त:-VII. iii. 32 तझयोः - III. iv. 81 .. (हन् अङ्ग को) तकारादेश होता है, (चिण तथा ण्यत् लिट् के स्थान में जो) त और झ आदेश, उनको .. प्रत्ययों को छोड़कर जित, णित् प्रत्यय परे रहते)। (यथासङख्य करके एश् और इरेच आदेश होते है)। त: - VII. iii. 42 तत् -I.1.62 (अगति अर्थ में वर्तमान 'शदल शातने' अङ्गको) तका- जिस समुदाय के अचों में आदि अच् वृद्धिसंज्ञक हो) . रादेश होता है। वह (समुदाय वृद्धसंज्ञक होता है)। त:-VII. iv.47 तत् -I. 1.53 (अजन्त उपसर्ग से उत्तर घुसंज्ञक दा अङ्ग को तकारादि _ वह उपर्युक्त युक्तवद्भाव (= पूरा-पूरा शासन विहित कित् प्रत्यय परे रहते) तकारादेश होता है। नहीं किया जा सकता, उसके लौकिक व्यवहार के अधीन तक्षः -III. 1.76 होने से)। तथू धातु से (तनूकरण = छीलने अर्थ में विकल्प से ...तत्... -III. 1. 21 श्नु प्रत्यय होता है, कर्तृवाची सार्वधातुक परे रहने पर)। देखें-दिवाविषा III. 1. 21 ...तक्षशिलादिभ्यः - IV. 1. 93 तत् - IV. 1.56 देखे - सिन्धुतक्षशिलादिश्य - IV. 1.3 प्रथमासमर्थ (प्रहरण समानाधिकरणवाले प्रातिपदिकों तक्ष्णः - V. iv. 95 से सप्तम्यर्थ में ण प्रत्यय होता है.यदि अस्यां' से क्रीडा निर्दिष्ट हो)। (पाम तथा कौट शब्दों से उत्तर) तक्षन्-शब्दान्त (तत्पुरुष) से (भी समासान्त टच् प्रत्यय होता है)। तत् -IV.ii. 58. द्वितीयासमर्थ प्रातिपदिक से (अध्ययन करता है' अर्थ तङ् -I. iv.99 में यथाविहित अण् प्रत्यय होता है, इसी प्रकार द्वितीयादेखें - तडानौ I. iv.99 समर्थ प्रातिपदिक से 'जानता है' अर्थ में यथाविहित अण ...तङ् - VI. iii. 132 प्रत्यय होता है)। देखें - तुनुपम VI. ii. 132 तत् - IV.ii. 58 तडानौ- I. iv.99 (द्वितीयासमर्थ प्रातिपदिक से 'अध्ययन करता है' अर्थ तङ् और आन (आत्मनेपद संज्ञक होते हैं)। में यथाविहित अण प्रत्यय होता है. इसी प्रकार) द्वितीयातङ = त से लेकर महिङ तक प्रत्यय। समर्थ प्रातिपदिक से (जानता है' अर्थ में यथाविहित अण आन = शानच, कानन्। प्रत्यय होता है)। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत् 287 -IV. iii. 52 प्रथमासमर्थ (कालवाची 'सहन किया' समानाधिकरण प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है)। तत् - IV. iii. 85 द्वितीयासमर्थ प्रातिपदिक से (गच्छति क्रिया के पथ तथा कर्ता अभिधेय होने पर यथाविहित प्रत्यय होता है)। तत् - IV. iv. 28 द्वितीयासमर्थ (प्रति, अनुपूर्वक जो ईप, लोम और कूल) प्रातिपदिक, उनसे ('वर्तते = हैं' अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है) । तत् - IV. iv. 51 प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से (षष्ठ्यर्थ में ठक् प्रत्यय होता है, यदि वह प्रथमासमर्थ ' खरीदने योग्य' हो) । तत् - IV. iv. 66 प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से (इसके लिये नियमपूर्वक दिया जाता है' विषय में ठक् प्रत्यय होता है ) । तत् - IV. iv. 76 द्वितीयासमर्थ (रथ, युग, प्रासङ्ग प्रातिपदिकों से ‘ढोता है' अर्थ में यत् प्रत्यय होता है ) । तत् - V. 1. 16 (प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ में तथा ) प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से (सप्तम्यर्थ में यथाविहित प्रत्यय होते हैं, यदि वह प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक 'स्यात्' 'सम्भव हो' क्रिया के साथ समानाधिकरण वाला हो तो) । तत् - V. 1. 16 प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से (षष्ठ्यर्थ में तथा प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से सप्तम्यर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है, यदि वह प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक 'स्यात्' = 'सम्भव हो' क्रिया के साथ समानाधिकरण वाला हो तो)। तत् - V. 1. 46 प्रथमासमर्थ प्रातिपदिकों से (सप्तम्यर्थ में यथाविहित प्रत्यय होते हैं, यदि 'वृद्धि' = व्याज के रूप में दिया जाने वाला द्रव्य, 'आय' = जमींदारों का भाग, 'लाभ' = मूलद्रव्य के अतिरिक्त प्राप्य द्रव्य, 'शुल्क' = राजा का भाग तथा 'उपदा' = घूस — ये 'दिया जाता है' क्रिया के कर्म वाच्य हों तो)। तत् - V. 1.49 (वंशादिगणपठित प्रातिपदिकों से उत्तर जो भार शब्द, तदन्त) द्वितीयासमर्थ प्रातिपदिक से (हरण करता है' 'वहन करता है' और 'उत्पन्न करता है' अर्थों में यथाविहित प्रत्यय होते हैं) । तत् - V. 1.56 प्रथमासमर्थ (परिमाणवाची) प्रातिपदिकों से (षष्ठ्यर्थ में यथाविहित प्रत्यय होते हैं) । तत् - V. i. 62 द्वितीयासमर्थ प्रातिपदिकों से (समर्थ है' अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होते हैं)। तत् - V. 1. 93 प्रथमासमर्थ (कालवाची) प्रातिपदिक से (षष्ठ्यर्थ में यथाविहित ठञ् प्रत्यय होता है, ब्रह्मचर्य गम्यमान होने पर)। तत् - V. 1. 103 प्रथमासमर्थ (समय) प्रातिपदिक से (षष्ठ्यर्थ में यथाविहित ठञ् प्रत्यय होता है, यदि वह प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक प्राप्त समानाधिकरण वाला हो तो) । तत् - V. 1. 116 द्वितीयासमर्थ प्रातिपदिक से (योग्यता) विशिष्ट क्रिया वाच्य हो तो वति प्रत्यय होता है) । तत् - V. ii. 7 द्वितीयासमर्थ (सर्व शब्द आदि में है जिनके, ऐसे ) (पथिन्, अङ्ग, कर्म, पत्र तथा पात्र) प्रातिपदिकों से (व्याप्त होता है' अर्थ में खं प्रत्यय होता है) । तत् - V. ii. 36 प्रथमासमर्थ (संजात समानाधिकरण वाले तारकादि) प्रातिपदिकों से (षष्ठ्यर्थ में इतच् प्रत्यय होता है)। . तत्... - V. ii. 39 ... देखें- यत्तदेतेभ्यः Vii. 39 तत् - V. ii. 45 प्रथमासमर्थ (दशन् शब्द अन्तवाले) प्रातिपदिक से (सप्तम्यर्थ में ड प्रत्यय होता है, यदि वह प्रथमासमर्थ अधिक समानाधिकरण वाला हो तो)। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत् 288 तत् - IV. 1. 66 (अस्ति समानाधिकरण वाले) प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से (सप्तम्यर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है, यदि सप्तम्यर्थ से निर्दिष्ट उस नामवाला देश हो, इतिकरण विवक्षार्थ है) । तत् - V. ii. 82 प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से (सप्तम्यर्थ में कन् प्रत्यय होता है, यदि वह प्रथमासमर्थ बहुल करके सञ्ज्ञाविषय अन्नविषयक हो तो) । तत् - Viv. 21 प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से (प्रभूत' अर्थ में मयट् प्रत्यय होता है। ... तत्... - VIII. iii. 103 देखें- युष्पतत्ततक्षुः षु० VIII. iii. 103 ततः - IV. 1. 74 पञ्चमीसमर्थ प्रातिपदिक से (आया हुआ' अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है) । ... ततक्षुःषु - VIII. iii. 103 देखें - युष्मत्तत्ततक्षुःषु VIII. iii. 103 तत्कालस्य - I. 1. 69 (त् परे वाला तथा त् से परे वाला वर्ण) स्वकालसवर्ण एवं स्वरूप के ग्राहक होते हैं, (भिन्नकाल वाले सवर्ण का नहीं । तत्कृत - II. 1. 29 (तृतीयान्त सुबन्त) तत्कृत = तृतीयान्तार्थकृत (गुणवाची शब्द के साथ समास को प्राप्त होता है और वह तत्पुरुष समास होता है) । तत्पुरुषः - I. ii. 42 (समान है अधिकरण जिनका, ऐसे पदों वाला) तत्पुरुष (कर्मधारयसंज्ञक होता है)। तत्पुरुष: - II. i. 21 = तत्पुरुष पूर्वाचार्यों द्वारा विहित उत्तरपदार्थप्रधान समास की संज्ञा - यह अधिकार सूत्र है । तत्पुरुषः - II. iv. 19 तत्पुरुष समास (नञ् और कर्मधारय को छोड़कर नपुंसकलिङ्ग होता है)। तठप्रत्ययस्य ...तत्पुरुषयोः - II. iv. 26 देखें - द्वन्द्वतत्पुरुषयोः II. iv. 26 तत्पुरुषस्य - V. iv. 86 (सङख्या तथा अव्यय आदि में है जिस अङगुलि शब्दान्त तत्पुरुष समास के (तदन्त प्रातिपदिक से समासान्त अच् प्रत्यय होता है)। तत्पुरुषात् - V. 1. 120 (यहां से आगे जो भावार्थक प्रत्यय कहे जायेंगे, वे नञ्पूर्व) तत्पुरुष समास युक्त प्रातिपदिकों से (नहीं; होंगे चतुर, संगत, लवण, वट, युध, कत, रस तथा लस शब्दों को छोड़कर) । तत्पुरुषात् - V. iv. 71 ( नञ् से परे जो शब्द, तदन्त) तत्पुरुष से (समासान्त प्रत्यय नहीं होता) । तत्पुरुषे - VI. 1. 13 ( यङ् को सम्प्रसारण होता है, यदि पुत्र तथा पति शब्द उत्तरपद हो तो), तत्पुरुष समास 1 तत्पुरुषे - VI. ii. 2 तत्पुरुष समास में (पूर्वपदस्थानीय तुल्यार्थक, तृतीयान्त, सप्तम्यन्त उपमानभूतार्थवाचक, अध्ययसंज्ञक, द्वितीयान्त तथा कृत्यप्रत्ययान्त शब्दों का स्वर प्रकृतिवत् रहता है)। तत्पुरुवे - VII. 1. 122 (नपुंसकलिङ्ग वाले शालाशब्दान्त) तत्पुरुष समास में (उत्तरपद को आद्युदात्त होता है ) । - तत्पुरुषे - VI. ii. 193 (प्रति उपसर्ग से उत्तर) तत्पुरुष समास में (अश्वादिगणपठित शब्दों को अन्तोदात्त होता है)। तत्पुरुषे - VI. iii. 13 तत्पुरुष समास में (कृदन्त शब्द उत्तरपद रहते बहुल करके सप्तमी का अलुक् होता है) । तत्पुरुषे - VI. iii. 100 ( को ) तत्पुरुष समास में (अजादि शब्द उत्तरपद हो तो कत् आदेश होता है)। तत्प्रत्ययस्य - VII. iii. 29 तत् = ढक्प्रत्ययान्त ( प्रवाहण = वाहन अङ्ग) के (उत्तरपद के अचों में आदि अच् को भी वृद्धि होती है, Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तात्ययात् 289 तथोः पूर्वपद को तो विकल्प से होती है; जित,णित,कित् तद्धित प्रत्यय परे रहते)। तठात्ययात् - IV. iii. 152 विकार और अवयव अर्थों में विहित (जो जित् प्रत्यय, तदन्त षष्ठीसमर्थ) प्रातिपदिक से (भी विकार और अवयव अर्थों में ही अब् प्रत्यय होता है)। ततायोजक:-I. iv. 55 उस स्वतन्त्र कर्ता का प्रेरक (कारक हेतुसंज्ञक और कर्त- संज्ञक भी होता है)। तत्र -II. I. 45 (सप्तम्यन्त) तत्र' यह अव्यय शब्द (क्तप्रत्ययान्त समर्थ सुबन्त के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होता है और वह समास तत्पुरुषसंज्ञक होता है)। तत्र-II. ii. 27. सप्तम्यन्त (तथा तृतीयान्त समान रूप वाले दो सुबन्त परस्पर इदम् = इस अर्थ में विकल्प से समास को प्राप्त प्राप्त होते हैं और वह बहुव्रीहि समास होता है)। तत्र-II. iii.9 जिससे अधिक हो और जिसका सामर्थ्य हो) उस (कर्म- प्रवचनीय के योग) में (सप्तमी विभक्ति होती है)। तत्र-III. 1.92 इस धातु के अधिकार में (जो सप्तमी विभक्ति से निर्दिष्ट पद हैं, उनकी उपपद संज्ञा होती है)। तत्र -V.ii. 13 'सप्तमीसमर्थ (पात्रवाची) प्रातिपदिकों से भोजन के पश्चात् अवशिष्ट (शुद्ध अन्न) अर्थ में यथाविहित (अण) प्रत्यय होता है। तत्र - IV. iii. 25 सप्तमीसमर्थ प्रातिपदिकों से (उत्पन्न हुआ अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है)। तत्र - IV. iii. 53 सप्तमीसमर्थ प्रातिपदिक से (होने वाला' अर्थ में यथा- विहित प्रत्यय होता है)। तत्र-IV. iv.69 . सप्तमीसमर्थ प्रातिपदिक से (नियुक्त अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है)। तत्र - IV. iv. 98 सप्तमीसमर्थ प्रातिपदिक से (साधु = कुशल अर्थ को कहने में यत् प्रत्यय होता है)। तत्र -V.i. 42 सप्तमीसमर्थ (सर्वभूमि और पृथिवी प्रातिपदिकों से 'प्रसिद्ध' अर्थ में भी यथासङ्ख्य करके अण तथा अञ् प्रत्यय होते है)। तत्र -V.i.95 सप्तमीसमर्थ (कालवाची) प्रातिपदिकों से (दिया जाता है' और 'कार्य' अर्थों में 'भव' अर्थ के समान ही प्रत्यय हो जाते है)। तत्र -v.i. 115 सप्तमीसमर्थ प्रातिपदिकों (तथा षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिकों से 'समान' अर्थ में वति प्रत्यय होता है)। तत्र-V.1.3 सप्तमीसमर्थ पथिन् प्रातिपदिक से (कुशल अर्थ में वुन् प्रत्यय होता है)। ...तत्साधकारिषु-III. ii. 134 . देखें-तच्छीलतदधर्म III. 1. 134 ...तत्स्थयो: - IV. ii. 133 देखें - मनुष्यतत्स्थयोः IV. 1. 133 . ... तथयो:-III. iv. 28 देखें - यथातथ्योः III. iv, 28 तथा -I. iv. 50 (जिस प्रकार कर्ता का अत्यन्त ईप्सित कारक क्रिया के साथ युक्त होता है) उस प्रकार (ही कर्ता का न चाहा हआ कारक क्रिया से युक्त हो तो उसकी कर्म संज्ञा होती है)। तथासो: -II. iv.79 त और थास परे रहते (तनादि धातुओं से उत्तरवर्ती सिच का विकल्प से लुक होता है)। तथो: - VIII. ii. 38 (झषन्त दध् धातु के बश् के स्थान में भष् आदेश होता है) तकार तथा थकार परे रहते (तथा झलादि सकार एवं ध्व परे रहते भी)। -0 Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथोः 290 तथो: - VIII. 1. 40 (झप से उत्तर) तकार तथा थकार को (धकार आदेश होता है, किन्तु डुधाञ् धातु से उत्तर धकारादेश नहीं हो- ता)। ...तदः -V. iii. 15 देखें-सर्वैकान्यov.ii. 15 तदः -V.ili. 19 (काल अर्थ में वर्तमान सप्तम्यन्त) तत् प्रातिपदिक से (दा तथा दानीम् प्रत्यय होते है)। ...तदः - V. 1. 92 देखें-किंयत्तदः V. 1. 92 तदधीनवचने -v.iv.54 (स्वामिविशेषवाची प्रातिपदिक से) ईशितव्य' अभिधेय होने पर (कृ.भू तथा अस् के योग में तथा सम्पूर्वक पद् के योग में साति प्रत्यय होता है)। तदन्तस्य -1.1.71 (जिस विशेषण से विधि की जाये,वह विशेषण) विशे- षणान्त (एवं स्वरूप) का ग्राहक होता है। तदभावे-I. 1.55 (सम्बन्ध को वाचक मानकर यदि संज्ञा हो तो भी) उस सम्बन्ध के हट जाने पर (उस संज्ञा का अदर्शन होना चाहिये, पर वह होता नहीं है)। तदर्थ... - II. 1. 35 देखें - तदर्थार्थवलिहित० II. 1. 35 तदर्थम् - V.i. 12 '(चतुर्थीसमर्थ विकृतिवाची प्रातिपदिक से उपादानकारण अभिधेय हो तो 'हित' अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है) यदि वह उपादानकारण अपने उत्तरावस्थान्तर - वकृति विकार के लिये हो तो। तदर्थस्य -II. 1.58 वि और अव उपसर्ग से युक्त ह और पण के अर्थ वाली (दिव धात) के (कर्म कारक में षष्ठी विभक्ति होती है)। तदर्थार्थबलिहितसुखरक्षितैः - II. 1. 35 (चतुर्थ्यन्त सुबन्त) तदर्थ तथा अर्थ, बलि, हित, सुख, रक्षित- इन (समर्थ सुबन्तों) के साथ (विकल्प से समास को प्राप्त होता है और वह तत्पुरुष समास होता है)। तदर्थे-IV.1.79 (क्रय्य शब्द का निपातन किया जाता है) उस अर्थ में अर्थात् क्रयार्थ अभिधेय होने पर। . तदर्थे - VI. ii. 43 (चतुर्थन्त पूर्वपद को) चतुर्थ्यन्तार्थ के उत्तरपद रहते . . (प्रकृतिस्वर होता है)। तदर्थेषु - VI. ii. 71 (अन्न की आख्यावाले शब्दों को) उस अन्न के लिये पात्रादि,तद्वाची शब्द के उत्तरपद रहते (आधुदात्त होता है)। ...तदवध्योः - IV.ii. 124 देखें - जनपदतदवथ्यो: IV. 1. 124.. ...तदवेतेषु - V.I. 133 देखें - श्लाघात्याकार० V. 1. 133 तदादि- I. iv. 13 (जिस धातु या प्रातिपदिक से प्रत्यय का विधान किया जाये,उस प्रत्यय के परे रहते) उस (धातु या प्रातिपदिक) का आदि वर्ण है आदि जिसका, वह समुदाय (अङ्गसंज्ञक होता है)। तदाद्याचिख्यासायाम् -II. iv. 21 उपज्ञा और उपक्रम के नकर्मधारयवर्जित आदि = प्रथमकर्ता के कथन की इच्छा होने पर (उपज्ञान्त और उपक्रमान्त तत्पुरुष नपुंसकलिङ्ग में होते है)। ...तदो: - VI.i. 128 देखें- एक्तदो: VI. 1. 128 तदो:-VII. 1. 106 (त्यदादि अङ्गों के अनन्त्य) तकार तथा दकार के स्थान में (सु विभक्ति परे रहते सकारादेश होता है)। ...तद्धर्म... -III. 1. 134 - देखें - तच्छीलतधर्म III. ii. 134 ...तद्धित... -I. ii. 46 देखें - कृत्तद्धितसमासा: I. ii. 46 ..तद्धित... - VIII.1.57 देखें - चनचिदिव० VIII. 1. 57 तद्धितः -1.1.37 (जिससे सारी विभक्ति उत्पन्न न हो,ऐसे) तद्धित-प्रत्ययान्त शब्द (की भी अव्ययसंज्ञा होती है)। . Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धितः 291 तद्राजा तद्धितः - IV.i. 17 साथ विकल्प से समास होता है और वह तत्पुरुष समास (अनुपसर्जन यजन्त प्रातिपदिकों से स्त्रीलिङ्ग में प्राचीन होता है)। आचार्यों के मत में एक प्रत्यय होता है और वह) तद्धित तद्धिते-VI.1.60 संज्ञक होता है। (यकारादि) तद्धित के परे रहते (भी शिरस शब्द को तद्धितलुकि -I. ii. 49 शीर्षन आदेश हो जाता है)। • तद्धितप्रत्यय के लुक होने पर (उपसर्जन स्त्रीप्रत्यय का तद्धिते – VI. ii. 61 लुक् होता है)। . (एक शब्द को) तद्धित परे रहते (तथा उत्तरपद परे रहते तद्धितलुकि -IN.i. 22 ह्रस्व होता है)। (अकारान्त अपरिमाण, बिस्ता, आचित और कम्बल्य तद्धिते - VI. iv. 144 अन्त वाले द्विगुसंज्ञक प्रातिपदिकों से) तद्धित के लुक हो (भसज्ज्ञक नकारान्त अङ्ग के टि भाग का लोप होता जाने पर (स्त्रीलिङ्ग में ङीप् प्रत्यय नहीं होता)। है); तद्धित प्रत्यय परे रहते। तद्धितस्य - VI. 1. 158 तद्धिते - VI. iv. 151 तद्धित जो (चित् प्रत्यय,उसको (अन्तोदात्त हो जाता है)। (हल् से उत्तर भसञक अङ्ग के अपत्य-सम्बन्धी यकार तखितस्य - VI. III. 38 का भी लोप होता है, अनाकारादि) तद्धित परे रहते। (वद्धिका कारण हो जिस तद्धित में.ऐसा) तद्धित (यदि रक्त तथा विकार अर्थ में विहित न हो तो) तदन्त (स्त्री (हस्व इण से उत्तर सकार को तकारादि) तद्धित परे रहते शब्द) को (भी पुंवद्भाव नहीं होता)। (मूर्धन्य आदेश होता है)। तद्धितस्य -VI. iv. 150 . तद्धितेषु - VII. ii. 117 (हल् से उत्तर भसञक अङ्ग के उपधाभूत) तद्धित के जित,णित) तद्धित परे रहते (अङ्ग के अचों के आदि (यकार का भी ईकार परे रहते लोप होता है)।। अच् को वृद्धि होती है)। तद्धिताः - IV.1.76 ...तद्भ्यः - VI. I. 162 (यहां से आगे पञ्चमाध्याय की समाप्ति तक जो भी देखें-इदमेतत०VI. ii. 162 प्रत्यय कहेंगे,उनकी) तद्धित संज्ञा होती है। (यह अधि तधुक्तात् - V.ili.77 कार सूत्र है)। (नीति' गम्यमान हो तो भी) उस अनुकम्पा से सम्बद्ध तद्धिता -VI. ii. 155 प्रातिपदिक तथा तिङन्त से (यथाविहित प्रत्यय होते है)। (गण के प्रतिषेध अर्थ में वर्तमान नब से उत्तर संपादि, तधुक्तात् -V.iv. 36 अर्ह, हित, अलम् अर्थवाले) तद्धित प्रत्ययान्त (उत्तरपद उस प्रकाशित वाणी से युक्त (कर्म) प्रातिपदिक को अन्तोदात्त होता है)। से (स्वार्थ में अण् प्रत्यय होता है)। तद्धितार्थ... - II. 1. 50 तद्राजस्य -II. iv.62 देखें - तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे II. 1. 50 तद्राजसंज्ञक प्रत्ययों का (बहुत्व में वर्तमान होने पर लुक तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे – II. 1. 50 होता है, यदि तद्राजकृत बहुत्व हो तो, स्त्रीलिङ्ग को छोड़कर)। तद्धितार्थ का विषय उपस्थित होने पर,उत्तरपद परे रहते तथा समाहार वाच्य होने पर (भी दिशावाची तथा तद्राजा: -IV. . 172 सङ्ख्यावाची सुबन्तों का समानाधिकरणवाची सबन्तों के (उन अजादि प्रत्ययों की) तद्राज संज्ञा होती है। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ताजः ...तन्द्र... तनिपत्योः -VI. iv.99 तन् तथा पत् अङ्ग की (उपधा का लोप होता है, वेदविषय में; अजादि कित्, ङित् प्रत्यय परे रहते)। ...तनिषु-VI. ill. 115 देखें-नहिवृति० VI. Iii. 115 तनुत्वे - V.III. 91 (वत्स, उक्षन, अश्व, ऋषभ इन प्रातिपदिकों से) . 'अल्पता' घोतित हो रही हो तो (ष्टरच् प्रत्यय होता) है। तनूकरणे -III. 1.76 तनूकरण अर्थात् छीलने अर्थ में वर्तमान (तथू धातु से . श्नु प्रत्यय विकल्प से होता है, कर्तृवाची सार्वधातुंक परे रहने पर)। रहनाप ...तनेषु-VI. Hi. 16देखें-घकालतनेषु VI: Ill. 16 ... तनोते: - VI. in.17 ताजा-V. iii. 119 (ज्यादि प्रत्ययों की) तद्राज संज्ञा होती है। तद्वान् -IV. iv. 125 (उपधान मन्त्र समानाधिकरण प्रथमासमर्थ) मतबन्त प्रातिपदिक से षष्ठ्य र्थ में यत् प्रत्यय होता है.यदि (षष्ठ- यर्थ में निर्दिष्ट ईंटें ही हों तथा मतुप् का लुक् भी हो जाता है; वेद-विषय में)। तद्विषयाणि -IVii. 65 (प्रोक्तप्रत्ययान्त छन्द और ब्राह्मणवाची शब्द) अध्येत् वेदितृ - प्रत्यय-विषयक होते हैं,(अन्य प्रोक्तप्रत्ययान्त शब्दों का केवल प्रोक्त अर्थ में प्रयोग होता है)। तद्विवयात् - V. iii. 106 वह अर्थात् इवार्थ विषय है जिसका, ऐसे (समास में वर्तमान) प्रातिपदिक से (भी इवार्थ में छ प्रत्यय होता है। तब्बमोः -III. iv.2 (क्रिया का पौन:पुन्य गम्यमान हो तो धातु से धात्वर्थ- सम्बन्ध होने पर सब कालों में लोट प्रत्यय हो जाता है तथा उस लोट् के स्थान में नित्य हि और स्व आदेश होते हैं तथा) त, ध्वम् भावी लोट् के स्थान में (विकल्प से हि,स्व आदेश होते हैं)। ...तन... - VII. 1. 45 देखें - तप्तनप० VII. I. 45 ...तनप्.. - VII. I. 45 देखें-तप्तनपO VII. 1.45 तनादि ... - III. 1. 79 देखें - तनादिकृश्यः III. 1.79 तनादिकृज्य: - III. 1.79 तनादिगण की धातुओं तथा डुकृञ् धातु से उत्तर (उ' प्रत्यय होता है, कर्तृवाची सार्वधातुक परे रहने पर)। तनादिभ्यः - II. iv.79 तनादि धातुओं से उत्तर सिच का लक विकल्प से होता है, त' और थास् परे रहते)। तन् अङ्ग की (उपधा को झलादि सन् परे रहते विकल्प से दीर्घ होता है)। तनोते: - VI. iv. 44 तनु अङ्गको विकल्प से यक् परे रहते आकारादेश होता है)। ...तनोत्यादीनाम् - VI. iv. 37 देखें - अनुदात्तोपदेश VI. iv. 37 ....तन्ति.. - VI. 1.78 देखें - गोतन्तियवम् VI. I. 78 तन्त्रात् -V. ii. 70 पञ्चमीसमर्थ तन्त्र प्रातिपदिक से (अचिरापहृत' = थोड़ा काल खड्डी से बाहर निकलने को बीता है अर्थात् तत्काल बुना हुआ अर्थ में कन प्रत्यय होता है)। ...तन्न्यो : - V. iv. 159 देखें - नाडीतन्त्र्यो: V. iv. 159 ...तन्द्रा...-III. II. 158 देखें- पहिगृहिक III. I. 158 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तन्नाम्नि 293 तमविष्ठनौ तन्नाम्नि -IV.ii.66 तपस्... - V. ii. 102 (अस्ति समानाधिकरण वाले प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से देखें- तप:सहस्राभ्याम् V. 1. 102 सप्तम्यर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है,यदि सप्तम्यर्थ से । तपःसहस्राभ्याम् -V.ii. 102 निर्दिष्ट) उस नाम वाला (देश हो,इतिकरण विवक्षार्थ है)। तपस और सहस्र प्रातिपदिकों से (यथासङ्ख्य करके तन्नामिकाभ्यः - IV.i. 113 'मत्वर्थ' में विनि तथा इनि प्रत्यय होते है)। (जिनकी वृद्धसंज्ञा न हो ऐसे नदी तथा मानुषी अर्थवाले) ...तपि... -III. ii. 46 तथा नदी,मानुषी नाम वाले प्रातिपदिकों से (अपत्य अर्थ देखें- भृतवृ० III. ii. 46 में अण प्रत्यय होता है)। ... तपो: - III. ii. 36 तन्निमित्तस्य -VI.1.77 देखें-दशितपोः III. I. 36 यकारादि प्रत्ययनिमित्तक (ही जो धातु का एच) उसको (यकारादि प्रत्यय के परे रहते वकारान्त अर्थात् अव आव् ...तपोभ्याम् - III. 1. 15 आदेश होते हैं,संहिता के विषय में)। देखें- रोमन्थतपोभ्याम् III. I. 15 ...तन्यो: -IV. iv. 128 तप्तनप्तनथनाः -VII.i. 45 देखें- मासतन्योः IV. iv. 128 (त के स्थान में) तप.तनप,तन.थन आदेश भी होते हैं, तप.. - VII.J. 45 . (वेद-विषय में)। देखें - तप्तनप्तन० VII. I. 45 ...तप्तात् - V.iv.81 तपः -II. . 26 देखें- अन्ववतप्तात् V. iv. 81 (उत् एवं वि उपसर्ग से उत्तर अकर्मक) तप् धातु से ...तम्... - III. iv. 101 (आत्मनेपद होता है)। देखें -तान्तन्तामः III. iv. 101 तपः-III. 1.65 तम् -V.1.79 सन्तापार्थक तपं धातु से उत्तर(च्लिको चिण आदेश नहीं द्वितीयासमर्थ (कालवाची प्रातिपदिकों से सत्कारपूर्वक होता;कर्मकर्ता में और अनुताप अर्थ में,त शब्द परे रहते)। व्यापार', खरीदा हुआ', हो चुका' और 'होने वाला' अतप-III. I. 88 थों में यथाविहित ठञ् प्रत्यय होता है)। (तपकर्मक) 'तप् संतापे' धातु का (ही कर्ता कर्मवत् तमट् - V. ii. 56 होता है)। (षष्ठीसमर्थ सङ्ख्यावाची विंशति आदि प्रातिपदिकों तपकर्मकस्य - III. i. 88 से पूरण अर्थ में विहित डट् प्रत्यय को विकल्प करके) तपकर्मक (तप् धातु) का (ही कर्ता कर्मवत् होता है)। तमट् आगम होता है। तपतौ - VIII. Iii. 102 तमप्... - V. iii. 55 (निस के सकार को) तपति परे रहते (अनासेवन अर्थ देखें-तमबिष्ठनौ v. iii. 55 में मूर्धन्य आदेश होता है)। ...तमपौ -I. 1.21 अनासेवन = बार-बार न करना। देखें - तरप्तमपौ I. 1.21 तपरः-I.i.68 ।त् परे वाला एवं त् से परे वाला (वर्ण अपने कालवाले तमबिष्ठनौ - V. iii. 55 सवर्णों का तथा अपना भी ग्रहण कराता है,भिन्नकाल वाले . (अत्यन्त प्रकर्ष अर्थ में प्रातिपदिक से) तमप् और इष्ठन् सवर्ण का नहीं)। प्रत्यय होते हैं। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...तमस्.. 294 तल्लक्षण ...तमस्... -VII. ii. 18 तरति-Viv.5 देखें-मन्यमनस० VII. ii. 18 (तृतीयासमर्थ प्रातिपदिक से) तैरता है' अर्थ में (ठक तमसः -V.iv.79 प्रत्यय होता है)। (अव, सम् तथा अन्ध शब्दों से उत्तर) तमस-शब्दान्त तरप्... -1.1.21 प्रातिपदिक से (समासान्त अच् प्रत्यय होता है)। देखें-तरप्तमपौ I.1.21 ...तमसः - VI. iii.3 तरप्... -V. iii. 57 देखें-ओजसहोम्भ० VI. iii.3 देखें - तरबीयसुनौ Vill.57 ...तमसो: - III. ii. 50 तरप्तमपौ -1.1.21 देखें-क्लेशतमसोः III. 1.50 तरप् और तमप् प्रत्यय (घसंज्ञक होते हैं)।. . ...तमि.. -III. iv. 16 तरबीयसुनौ-v. iii. 57 देखें-स्थेण्कृष् III. iv. 16 - (द्वयर्थ तथा विभाग करने योग्य शब्द उपपद हों तो ...तमिस्रा... -v.il. 114 प्रातिपदिक से तथा तिङन्त से) तरप् तथा ईयसुन् प्रत्यय देखें-ज्योत्स्नातमित्रा० V. 1. 114 होते हैं। ...तय.. -I.1.32 तरित्रतः-VII. iv.65 देखें -प्रथमचरमतयाल्पाकतिपयनेमाः I. 1. 32 तरित्रतः शब्द (वेद-विषय में)निपातन किया जाता है। ...तयप्... - IV. 1. 15 तरुत -VII. II. 34 देखें-टिहाण IV.i. 15 तरुतृ शब्द (वेद-विषय में) इडभावयुक्त निपातित है। तयम्-V. 1.42 तख्त - VII. I. 34 (अवयव अर्थ में वर्तमान प्रथमासमर्थ सङ्ख्यावाची तरूतृ शब्द (वेदविषय में) इडभावयुक्त निपातित है। . प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ में) तयप् प्रत्यय होता है। तल्-IV. II. 42 तयस्य - V. 1.43 ___ (षष्ठीसमर्थ ग्राम,जन, बन्धु प्रातिपदिकों से समूह अर्थ (प्रथमासमर्थ द्वि तथा त्रि प्रातिपदिकों से उत्तर षष्ठ्यर्थ में विहित) तयप् प्रत्यय के स्थान में विकल्प से अयच में) तल् प्रत्यय होता है। आदेश होता है)। तल - V. iv. 27 तयोः -III. iv.70 (देव प्रातिपदिक से स्वार्थ में) तल् प्रत्यय होता है। (कृत्यसंज्ञक प्रत्यय,क्त और खल् अर्थ वाले प्रत्यय) तलोप -IV.1.22 भाव और कर्म में (ही होते हैं)। (हेमन्त प्रातिपदिक से वैदिक तथा लौकिक प्रयोग में तयोः -v.ili. 20 . __ अण तथा ठञ् प्रत्यय होते हैं तथा उस अण् के परे रहने उन सप्तम्यन्त इदम् और तत् प्रातिपदिकों से पर हेमन्त शब्द के) तकार का लोप (भी) होता है। (यथासङ्ख्य करके वेदविषय में दा और हिल् प्रत्यय होते ...तलौ-v.i. 118 हैं तथा यथाप्राप्त दानीम् प्रत्यय भी होता है)। देखें - त्वतलो V. 1. 118 तयोः - VIII. II. 108 उनके अर्थात् प्लुत के प्रसङ्ग में एच के उत्तरार्ध को जो तल्लक्षणः - I. I. 65 इकार, उकार पूर्व सूत्र से विधान कर आये हैं, उन इकार (यदि) वृद्धयुवप्रत्ययनिमित्तक (ही भेद हो तो वृद्ध = उकार के स्थान में (क्रमशः य व आदेश हो जाते हैं; अच गोत्र प्रत्ययान्त शब्द युव प्रत्ययान्त के साथ शेष रह जाता परे रहते,सन्धि के विषय में)। है,युवप्रत्ययान्त का लोप हो जाता है। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त .. 295 तस्मात् तव... -VII. 1.96 देखें-तवममौ VII. 1. 96 तवक... -IV. iii.3 देखें - तवकममको IV. iii.3 तवकममको-IV. 1.3 (एक अर्थ को कहने वाले युष्मद, अस्मद शब्दों के स्थान में यथासङ्ख्य) तवक,ममक आदेश होते हैं.(उस खञ् तथा अण् प्रत्यय के परे रहते)। तवममौ - VII. . 96 (युष्मद, अस्मद् अङ्ग के मपर्यन्त भाग को क्रमश:) तव तथा मम आदेश होते हैं, (ङस् विभक्ति परे रहते)। ....तवेङ्... - III. iv.9 देखें - सेसेनसे० III. iv.9 ...तवेन - III. iv.9 देखें - सेसेनसे. II. iv.9 तवै... - III. iv. 14 ' देखें - तवैकेन्केन्यत्वनः III. iv. 14 तवै-VI. 1.51 तवै प्रत्यय को (अन्त उदात्त भी होता है तथा अव्यवहित - पूर्वपद गति को भी प्रकृतिस्वर एक साथ होता है)। तवैकेनकेन्यत्वनः -III. iv. 14. (कृत्यार्थ में भाव कर्म में वेदविषय में धातु से) तवै, केन्, केन्य, त्वन्- ये चार प्रत्यय होते हैं। ...तव्य.. - II. I. 11 देखें - पूरणगुणसुहितार्थ II. ii. 11 ...तव्य... - III. 1. देखें- तव्यत्तव्यानीयर: III. 1. 96 तव्यत्.. - III. 1. 96 देखें- तव्यत्तव्यानीयरः III.1.96 तव्यत्तव्यानीयरः - III. 1. 96 (धातु से) तव्यत्, तव्य और अनीयर् प्रत्यय होते हैं। त.. -III.Iv. 101 . देखें-तस्थस्थमिपाम् III. iv. 101 ...तस्... - III. iv. 78 देखें-तिप्तरिझ० III. iv. 78 तसि: - IV. iii. 113 (तृतीयासमर्थ प्रातिपदिक से एकदिक विषय में) तसिल प्रत्यय (भी) होता है। तसि-V. iv. 44 (प्रति शब्द के योग में विहित पञ्चमी विभक्ति अन्त वाले प्रातिपदिक से विकल्प से) तसि प्रत्यय होता है। तसिल्-v.ili.7 . (पञ्चम्यन्त किम.सर्वनाम तथा बहु शब्दों से) तसिल प्रत्यय होता है। तसिलादिषु -VI. iii. 34 तसिलादि प्रत्ययों से लेकर कृत्वसुच-पर्यन्त कहे गये जो प्रत्यय), उनके परे रहते (ऊवर्जित भाषितपुंस्क स्त्रीशब्द को पुंवत् हो जाता है)। तसे: -v. iii.8 (किम्, सर्वनाम तथा बहु से उत्तर) तसि के स्थान में (भी तसिल आदेश होता है। ... तसोः - II. iv. 33 देखें-नसोः II. iv. 33 तसौ-I. iv. 19 तकारान्त तथा सकारान्त शब्द (भसंज्ञक होते हैं, मतुबर्थक प्रत्ययों के परे रहते)। ....तसौ-II. iv. 33 देखें- तसौ In. iv. 33 तस्थस्थमिपाम् - III. iv. 101 (ङित्-लकार-सम्बन्धी) तस्,थस,थ और मिप् के स्थान में (यथासंख्य ताम्, तम्, त और अम् आदेश होते हैं)। तस्प्रत्यये -III. iv. 61 . तस्प्रत्ययान्त (स्वाङ्गवाची) शब्द उपपद हो तो (क.भ धातुओं से क्त्वा, णमुल् प्रत्यय होते है)। तस्मात् -1.1.66 पञ्चमी विभक्ति से (निर्दिष्ट जो शब्द, उससे उत्तर को कार्य होता है)। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्मात् 296 तस्मात् -VI.1.99 तस्य-IV. 1.68 उस 'प्रथमयोः पूर्वसवर्णः सूत्र से दीर्घ किये हुये पूर्व- षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिकों से (निवास अर्थ में देश का सवर्ण दीर्घ से उत्तर (शस के अवयव सकार को नकार' नाम गम्यमान होने पर यथाविहित प्रत्यय होता है)। आदेश होता है, पुंल्लिङ्ग में)। . तस्य - IV. iii.66 तस्मात् - VI. iii. 73 षष्ठीसमर्थ (व्याख्यान किये जाने योग्य) जो प्रातिपदिक, उस लुप्त (नज) वाले नकार से उत्तर (नुट् का आगम उनसे (व्याख्यान अभिधेय होने पर तथा सप्तमीसमर्थ होता है, अजादि शब्द के उत्तरपद रहते)। व्याख्यातव्यनामवाची शब्दों से भी भवार्थ में यथाविहित तस्मात् - VII. iv.1 प्रत्यय होते है)। अभ्यास के दीर्घ हुये आकार से उत्तर (दो हल् वाले तस्य- IV. iii. 119 अङ्ग को नुट आगम होता है)। षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिक से (यह अर्थ में यथाविहित तस्मिन् - I. 1.65 प्रत्यय होता है)। सप्तमी विभक्ति (से निर्देश किया हुआ जो शब्द,उससे तस्य-Vii. 131 अव्यवहित पूर्व को ही कार्य होता है)। षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिक से विकार अर्थ में यथाविहित तस्मिन् - IV. ill.2 प्रत्यय होता है)। उस खब(तथा अण प्रत्ययो के परे रहते (यष्मद.अस्मद के स्थान में यथासङ्ख्य करके युष्माक, अस्माक आदेश षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिक से (धर्म्य अर्थ में ठक् प्रत्यय होते है)। होता है)। तस्मै -V..5 तस्य -V.i.37 चतर्थीसमर्थ प्रातिपदिक से (हित' अर्थ में यथाविहित षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिकों से (कारण अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है)। प्रत्यय होते हैं, यदि वह कारण संयोग वा उत्पात हो तस्मै -V.1. 100 तो)। चतुर्थीसमर्थ (सन्तापादि) प्रातिपादिकों से (शक्त है' तस्य -V.1.41 अर्थ में यथाविहित ठञ् प्रत्यय होता है)। षष्ठीसमर्थ (सर्वभूमि तथा पृथिवी प्रातिपदिकों से तस्य-I. ii. 32 'स्वामी' अर्थ में यथासङ्ख्य अण् तथा अञ् प्रत्यय होते उस स्वरित अच के (आदि की आधी मात्रा उदात्त और है)। शेष अनुदात्त होती है)। तस्य - V.i. 44 तस्य-I. iii.9 षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिकों से (खेत' अर्थ वाच्य होने पर उस इत्सज्ञक वर्ण का (लोप होता है)। यथाविहित प्रत्यय होते है)। तस्य-IV. 1. 92 तस्य-v.i. 94 षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिकों से (अपत्य अर्थ को कहना हो षष्ठीसमर्थ (यज्ञ की आख्या वाले) प्रातिपदिकों से (भी तो यथाविहित प्रत्यय होता है)। 'दक्षिणा' अर्थ में यथाविहित ठञ् प्रत्यय होता है)। तस्य - IV. ii. 36 तस्य-v.i. 115 (समथों में) जो (प्रथम) षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिक, उससे (सप्तमीसमर्थ प्रातिपदिक से तथा) षष्ठीसमर्थ प्रातिप(समूह अर्थ को कहना हो तो यथाविहित प्रत्यय होता है)। दिक से (समान' अर्थ में वति प्रत्यय होता है)। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्य 297 तस्य-V.i. 118 ....ताडधौ-III. 1.55 षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिक से (भाव' अर्थ में त्व और तल देखें-पाणिवताडयौ III. 1. 55 प्रत्यय होते है)। तात् - VII. 1.44 तस्य-V.ii. 24 (लोट् मध्यम पुरुष बहुवचन 'त' के स्थान में) तात् षष्ठीसमर्थ (पील्वादि तथा कर्णादि) प्रातिपदिकों से आदेश होता है, (वेद-विषय में)। (यथासङ्ख्य करके 'पाक' तथा 'मूल' अर्थ अभिधेय हो । तातड्-VII. 1.35 - तो कुणप् तथा जाहच् प्रत्यय होते है)। (आशीर्वाद-विषय में तु और हि के स्थान में) तातङ् तस्य -v.ii. 48 आदेश होता है, (विकल्प करके)। षष्ठीसमर्थ (सङख्यावाची प्रातिपदिकों से 'पूरण' अर्थ तातिल -IV. iv. 141 में डट् प्रत्यय होता है)। (सर्व और देव प्रातिपदिकों से वेद-विषय में स्वार्थ में) तस्य - VII.i. 44 तातिल् प्रत्यय होता है। (लोट् मध्यम पुरुष बहुवचन) त के स्थान में (तात् ...तातिलौ - V. iv. 41 · आदेश हो जाता है, वेदविषय में)। देखें-तिल्तातिलौ v. iv. 41 तस्य -VIII.1.2 तादर्थे - V. iv. 24 उस द्वित्व किये हुये शब्द के (पर वाले शब्द की आने-- (देवता शब्द अन्तवाले प्रातिपदिक से) 'उसके लिये यह अर्थ में (यत् प्रत्यय होता है)। डित सञ्ज्ञा होती है)। ...ताच्छील्य.. - III. ii. 20 तादौ - VI. ii. 50 (तु शब्द को छोड़कर) तकारादि (एवं न इत्सज्ञक कृत) .: देखें - हेतुताच्छील्य. II. ii. 20 के परे रहते (भी अव्यवहित पूर्वपद गति को प्रकृतिस्वर .. ताच्छील्यवयोक्चनशक्तिषु - III. ii. 129 होता है)। ताच्छील्य = फल की आकांक्षा किये विना स्वभाव तादौ - VIII. iii. 101 से ही उस क्रिया में प्रवृत्त होना, वयोवचन = अवस्था .... को कहना तथा शक्ति = सामर्थ्य-इन अर्थों के द्योतित (हस्व इण से उत्तर सकार को) तकारादि तद्धित (परे होने पर (धातु से वर्तमान काल में चानश् प्रत्यय होता रहते (मूर्धन्य आदेश होता है)। तानि -I. iv. 100 ताच्छील्ये -III. 1. 11 वे तिडों के तीन तीन (एक-एक करके क्रम से एकवचन, तत्स्वभावता गम्यमान होने पर (आङ्पूर्वक ह धातु से । द्विवचन और बहुवचनसंज्ञक होते हैं)। कर्म उपपद रहते अच् प्रत्यय होता है)। तान्तन्ताम: -III. iv. 101 ताच्छील्ये -III. ii. 78 (डित्-लकार-सम्बन्धी तस्,थस.थ और मिप के स्थान में क्रमशः) ताम, तम्त और अम् आदेश होते हैं। तत्स्वभावता गम्यमान होने पर (अजातिवाची सुबन्त उपपद रहते सब धातुओं से 'णिनि' प्रत्यय होता है। ...तान्तात् - VII. Iii. 51 देखें-इसुसुक्तान्तात् VII. iii. 51 ताच्छील्ये - VI. iv. 177 (कार्म' इस शब्द में) ताच्छील्यार्थक = तत्स्वभावार्थक तापेः - III. 1. 39 ' (ण) परे रहते (टिलोप निपातन किया जाता है)। णिजन्त तप् धातु से (द्विषत् और पर कर्म उपपद रहते खच् प्रत्यय होता है)। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ताभ्याम् 298 ताभ्याम् -III. iv.75 तासस्त्योः -VII. iv. 50 (उणादि प्रत्यय) सम्प्रदान तथा अपादान कारकों से तासु तथा अस् धातु के (सकार का सकारादि आर्ध(अन्यत्र कर्मादि कारकों से भी होते है)। धातुक परे रहते लोप होता है)। ताभ्याम् -VII. iii.3 तासि... -VI.I. 180 (पदान्त यकार तथा वकार से उत्तर जित्, णित, कित् तद्धित परे रहते अङ्ग के अचों में आदि अच को वद्धि तासि-VII. 1.66 नहीं होती, किन्तु) उन यकार वकार से (पूर्व तो क्रमशः (कृपू सामर्थ्य' धातु से उत्तर) तास् (तथा सकारादि ऐच = ऐ, औ आगम होता है)। आर्धधातुक को इट् आगम नहीं होता, परस्मैपद परे रहते)। ताम्.. - III. iv. 101 ...तासिषु-VI. iv. 62 देखें-तान्तन्तामः III. iv. 101 . देखें-स्यसि VI. iv.62 ... तायनेषु -I. iii. 38 ...तासी-III. 1. 33 देखें-वृत्तिसर्गतायनेषु I. il. 38 देखें - स्यतासी III. 1. 33 ...तायि..-III. 1. 61 तास्यनुदात्तेन्दुिपदेशात् - VI. 1. 180 देखें-दीपजन III. 1.61 तासि प्रत्यय, अनुदात्तेत् धातु, डित् धातु तथा उपदेश तारकादिभ्यः -V.ii.36 में जो अवर्णान्त इनसे उत्तर (लकार के स्थान में जो (प्रथमासमर्थ संजात समानाधिकरण वाले) तारकादि सार्वधातुक प्रत्यय, वे अनुदात्त होते हैं, हुङ् तथा इङ् धातु प्रातिपदिकों से (षष्ठ्यर्थ में इतच प्रत्यय होता है)। को छोड़कर)। तार्य.. - IV. iv. 91 . . तास्वत् - VII. ii. 61 देखें - तार्यतुल्य० IV. iv. 91 (उपदेश में जो अजन्त धातु, तास् के परे रहते नित्य, तार्यतुल्यप्राप्यवध्यानाप्यसमसमितसम्मितेषु-IV. iv.91 अनिट्, उससे उत्तर) तास् के समान ही (थल को इट् आगम नहीं होता)। (तृतीयासमर्थ नौ, वयस्, धर्म, विष, मूल, मूल-सीता, -ति-II. 1. 36 तुला-इन आठ प्रातिपदिकों से यथासंख्य करके) तार्य. तुल्य, प्राप्य, वध्य, आनाम्य, सम, समित, सम्मित-इन (ल्यप् तथा) तकारादि (कित् आर्धधातुक) परे रहते (अद् आठ अर्थों में (यत् प्रत्यय होता है)। को जग्थ् आदेश होता है)। तालादिभ्यः - IV. iii. 149 ति... - III. iv. 107 (षष्ठीसमर्थ) तालादि प्रातिपदिकों से (विकार और अक्- देखें-तियोः III. iv. 107 . यव अर्थों में अण् प्रत्यय होता है)। ...ति... -V. 1. 138 देखें-बमयुसov.ii. 138 तावतिथम् - V. 1.77 (ग्रहण क्रिया के समानाधिकरणवाची) पूरणप्रत्ययान्त ....ति... - VI.1.66 प्रातिपदिक से (स्वार्थ में कन् प्रत्यय होता है तथा पूरण देखें-सुतिसि VI. 1.66 प्रत्यय का विकल्प से लुक भी होता है)। ति-VI. 1. 123 तास... - VII. iv. 50 (दा के स्थान में हुआ) जो तकारादि आदेश,उसके परे रहते (इगन्त उपसर्ग को दीर्घ होता है)। देखें - तासस्त्योः VII. 17.50 . Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 299 तिशित् ति-VI. iv. 142 (भसञक विंशति अङ्गके) ति को (डित् प्रत्यय परे रहते लोप होता है)। ति... - VII. ii.9 देखें-तितुत्र० VII. ii.9 ति-VII. ii. 48 (इषु,षह,लुभ,रुष,रिष्-इन धातुओं से उत्तर) तकारादि (आर्धधातुक) को विकल्प से इट् आगम होता है)। ति... - VII. I. 104 देखें-तिहो: VII. 1. 104 ति-VII. iv. 40 (दो,षो,मा तथा स्था अङ्गों को) तकारादि (कित) प्रत्यय के परे रहते (इकारादेश होता है)। ति - VII. iv.89 तकारादि प्रत्यय परे रहते (भी चर तथा फल के अभ्यासोत्तरवर्ती अकार के स्थान में उकारादेश होता है)। ति - IV.1.77 . (युवन् प्रातिपदिक से स्त्रीलिङ्ग में) ति प्रत्यय होता है (और वह तद्धितसंज्ञक होता है)। ति: - V.ii. 25 (षष्ठीसमर्थ पक्ष प्रातिपदिक से 'मूल' वाच्य हो तो) ति प्रत्यय होता है। तिककितवादिभ्यः - II. iv. 68 तिकादियों से तथा कितवादियों से उत्तर (द्वन्द्व-समास में गोत्र प्रत्यय का लुक् होता है,बहुत्व की विवक्षा होने पर)। तिकन् - V. iv. 39 (मृद् प्रातिपदिक से स्वार्थ में) तिकन् प्रत्यय होता है। तिकादिभ्यः - IV. 1. 154 तिकादि प्रातिपदिकों से (अपत्य अर्थ में फिञ् प्रत्यय होता है)। तिङ्.. - III. iv. 113 देखें-तिशित् III. iv. 113 ...तिक..-v.iv. 11 देखें-किमेत्तिड V. iv. 11 तिङ्- VIII. 1. 28 (अतिङ् पद से उत्तर) तिङ् पद को (अनुदात्त होता है)। तिङ्-VIII.i.68 (पूजनवाचियों से उत्तर गतिसहित तिङन्त को तथा गतिभिन्न) तिङन्त को (भी अनुदात्त होता है)। तिङ्- VIII. ii. 96 (अङ्ग शब्द से युक्त आकांक्षा वाले) तिङन्त को (प्लुत होता है)। तिङ्-VIII. 1. 104 (क्षिया, आशीः तथा प्रैष गम्यमान हो तो साकाङ्क्षा) तिङन्त (की टि को स्वरित प्लुत होता है)। तिङ:-I. iv. 100 तिङ् प्रत्ययों के (तीन-तीन के समूह क्रम से प्रथम, मध्यम और उत्तमसंज्ञक होते है)। तिङ-v.iil. 56 . (अत्यन्त प्रकर्ष' अर्थ में) तिङन्त से (भी तमप प्रत्यय होता है)। तिङ-VI. iii. 134 (दो अच वाले) तिङन्त के (आकार के स्थान में ऋचाविषय में दीर्घ होता है, संहिता में)। तिङः - VIII. 1. 27 तिङन्त पद से उत्तर (निन्दा तथा पौन:पुन्य अर्थ में वर्तमान गोत्रादिगण-पठित पदों को अनुदात्त होता है)। ...तिङन्तम् -I.iv. 14 देखें - सुप्तिडन्तम् I. iv. 14 fals: – VII. iii. 88 (भू तथा पूङ् अङ्ग को) तिङ् (पित् सार्वधातुक) परे रहते (गुण नहीं होता)। तिङि -VIII.i. 71 (उदात्तवान) तिङन्त के परे रहते (भी गतिसज्ञक को अनुदात्त होता है)। तिशित् -III. iv. 113 (घात से विहित) तिङ तथा शित प्रत्ययों की (सार्वधातुक संज्ञा होती है)। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 300 तिलयवाभ्याम् ...ति... -III. 1.5 तिरः -I. iv.70 देखें - गुप्तिकियः II. 1.5 (व्यवधान अर्थ में) तिर: शब्द (क्रिया के योग में गति तित् - VI. 1. 179 और निपातसंज्ञक होता है।) तकार इत्सञ्जक है जिसका, उसको (स्वरित होता है)। तिरस: - VI. iii. 93 तितिक्षायाम् -I. ii. 20 तिरस् को (तिरि आदेश होता है, व-प्रत्ययान्त अछु .. तितिक्षा = क्षमा करने अर्थ में वर्तमान (मृष् धातु से धातु के उत्तरपद रहते, यदि अङ्गु का लोप न हुआ हो परे निष्ठा प्रत्यय कित नहीं होता है)। तो)। तिरस: -VIII. iii. 42 तितुत्रतथसिसुसरकसेषु - VII. ii.9 तिरस् के (विसर्जनीय को विकल्प करके सकारादेश (कृत्सञ्जक) ति, तु, त्र, त, थ, सि, सु, सर, क,स-इन । होता है; कवर्ग, पवर्ग परे रहते)। प्रत्ययों के परे रहते (भी इट् आगम नहीं होता)। तिरि -VI. iii.93 तित्तिरि... - IV. iii. 102 . (तिरस् को) तिरि आदेश होता है (व-प्रत्यययान्त अछु ।' देखें - तित्तिरिवरतन्तु० IV. iii. 102 धातु के उत्तरपद रहते, यदि अञ्च का लोप न हुआ हो तित्तिरिवरतन्तुखण्डिकोखात् - IV. iii. 102 तो)। तित्तिरि,वरतन्तु,खण्डिका,उखा प्रातिपदिकों से (छन्दो- तिर्यचि-III. iv.60 विषयक प्रोक्त अर्थ में छण प्रत्यय होता है)। तिर्यक् शब्द उपपद रहते (अपवर्ग गम्यमान होने पर .. तित्याज-VI.1.35 कृञ् धातु से क्त्वा और णमुल् प्रत्यय होते हैं)। (वेदविषय में)तित्याज शब्द का निपातन किया जाता है। तिल्... - V. iv. 41 तिथुक् - v. ii. 52 देखें-तिल्तातिलौ V.iv. 41 (षष्ठीसमर्थ बहु, पूग, गण, सङ्घ-इनको 'पूरण' अर्थ तिल... -IV. iii. 146 . में विहित डट् प्रत्यय के परे रहते) तिथुक् आगम होता देखें-तिलयवाभ्याम् IV.ii. 146 ...तिल... -V.1.7 तियोः - III. iv. 107 (लिङ् - सम्बन्धी) तकार और थकार को (सुट् का देखें - खलयवमाव० V.1.7 आगम होता है)। तिल.. -V.ii.4 तिप्... - III. iv.78 देखें-तिलमाषो० v. ii. 4 देखें-तिप्तस्मि III. iv. 78 तिलमाषोमाभगाणुभ्यः - V.ii. 4 तिपि - VIII. I. 73 (षष्ठीसमर्थ धान्यविशेषवाची) तिल, माष, उमा, भङ्गा (अस् को छोड़कर जो संकारान्त पद,उसको) तिप परे और अणु प्रातिपदिकों से (उत्पत्तिस्थान' अभिधेय हो तो रहते (दकारादेश होता है)। विकल्प करके यत् प्रत्यय होता है.यदि वह उत्पत्तिस्थान तिप्तरिझसिम्यस्थमिव्यस्मस्तातांझथासाथाम्ध्यमिड्वहि खेत हो तो)। महिङ् -III. iv. 78 तिलयवाभ्याम् - IV. iii. 146 (लकार = लट्,लिट् आदि के स्थान में) तिप.तस,झि, (षष्ठीसमर्थ) तिल,यव प्रातिपदिकों से (संज्ञा गम्यमान सिप,थसाथ,मिप.वस.मस.त,आताम्,झ,थास, आथाम, न हो तो विकार और अवयव अर्थों में मयट् प्रत्यय होता ध्वम्,इड्, वहि,महिङ्-(ये १८ प्रत्यय होते हैं)। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...तिलस्य 301 ...तिलस्य-VI. 1.70 तिसृभ्यः - VI. 1. 160 देखें - श्येनतिलस्य VI. iii. 70 तिस शब्द से उत्तर (जस् को अन्तोदात्त होता है)। तिल्तातिलौ-v.iv. 41 तिहो: - VII. ii. 104 (प्रशंसाविशिष्ट' अर्थ में वर्तमान वृक तथा ज्येष्ठ प्राति तकारादि तथा हकारादि विभक्तियों के परे रहते (किम् पदिकों से यथासङ्ख्य करके) तिल तथा तातिल् प्रत्यय को कु आदेश होता है)। (भी) होते हैं, वेदविषय में)। '...तिष्ठ.. - VII. iii. 78 ... तीक्ष्ण.. -VI. 1. 161 देखें-पिबजिन VII. iii. 78 देखें- तन्नन Vii. 161 तिष्ठति -IV. iv. 36 तीय-v.ii.54 द्वितीयासमर्थ परिपन्थ प्रातिपदिक से बैठता है तथा (षष्ठीसमर्थ द्वि प्रातिपदिक से 'पूरण' अर्थ में) तीय 'मारता है' अर्थों में ठक् प्रत्यय होता है)। प्रत्यय होता है। तिष्ठते: - VII. iv.5 तीयात्-v.iii. 48 'ष्ठा' अङ्गकी (उपधा को चङ्परक णि परे रहते इका- (भाग' अर्थ में वर्तमान पूरणार्थ) तीयप्रत्ययान्त प्रातिरादेश होता है)। पदिकों से (स्वार्थ में अन् प्रत्यय होता है)। तिष्ठद्गुप्रतीनि II.1.16 तीर... - IV. 1. 105 तिष्ठद्गु इत्यादि समुदाय रूप शब्द (भी निपातन से . देखें - तीररूप्योत्तर IV. 1. 105 अव्ययीभावसजक होते हैं)। ...तीर... - VI. 1. 121 . तिष्य..-I. 1.73 देखें-कूलतीर० VI. ii. 121 देखें - तिष्यपुनर्वस्वोः I. ii. 73 तीररूप्योत्तरपदात् - IV.ii. 105 ...तिष्य.. - IV. ii. 34 तीर तथा रूप्य उत्तरपदवाले प्रातिपदिकों से देखें - अविष्ठाफल्गुन्यनु IV. 1. 34 (यथासङ्ख्य करके शैषिक अब तथा ज प्रत्यय होते है)। ...तिष्य.. - VI. iv. 149 तीर्थे -VI. iii. 86 देखें - सूर्यतिष्या. VI. iv. 149 तीर्थ शब्द उत्तरपद हो तो (य प्रत्यय परे रहते समान तिष्यपुनर्वस्वोः -I. 1.63 शब्द को स आदेश होता है)। तिष्य और पुनर्वसु शब्दों के (नक्षत्रविषयक द्वन्द्वसमास तु-I. ii. 37 में बहुवचन के स्थान में नित्य ही द्विवचन हो जाता है)। (सब्रह्मण्या माम वाले निगद में एकश्रुति नहीं होती, तिस... - VI. iv. 4 किन्तु उस निगद में जो स्वरित. उसको उदात्त) तो (हो देखें - तिसूचतस VI. iv.4 जाता है)। तिस... - VII. 1. 99 तु... -I. iii.4 देखें-तिस्चतस VII. 1. 99 देखें - तुस्माः I. il. 4 तिसूचतस - VI. iv. 4 तु-IV.1.163 . तिस,चतसृ अङ्ग को (नाम् परे रहते दीर्घ नहीं होता है)। (पौत्र से परवर्ती जो अपत्य, उसकी पिता इत्यादि के तिसूचतस - VII. ii. 99 जीवित रहते युवा संज्ञा) ही (होती है)। (त्रि तथा चतुर् अङ्गों को स्त्रीलिङ्ग में क्रमश) तिस, ...तु... - V. II. 138 चतस आदेश होते हैं,(विभक्ति परे रहते)। देखें - बायुस्० V. 1. 138 Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 302 तु-V. iii. 68 (किञ्चित् न्यून' अर्थ में वर्तमान सबन्त से विकल्प से बेहुच प्रत्यय होता है और वह सुबन्त से पूर्व में) ही (होता (अनादि अर्थात् इष्ठन, इमनिच तथा ईयसुन् प्रत्यय होते है)। तः-VI. iv. 154 तृ का (लोप होता है; इष्छन्, इमनिच् तथा ईयसुन् परे रहते)। तुक्-VI.1.69 . (हस्वान्त धातु को णित् तथा कृत् प्रत्यय के परे रहते) तुक् का आगम होता है। तुक्-VIII. I. 31 (पदान्त नकार को शकार परे रहते विकल्प से) तुक् आगम होता है। ...तुको: - VI.1.83 देखें - पत्वतुकोः VI. 1.83 तुप्रात् - IV. iv. 115 (सप्तमीसमर्थ) तुम शब्द से (वेद-विषयक भवार्थ में घन प्रत्यय होता है)। ...तुग्विधिषु - VIII. I. 2 . देखें-सुपवर VIII. ii.2 तजादीनाम - तुज के प्रकार वाली धातुओं के (अभ्यास को दीर्घ होता तु-VI.1.96 ' (आमेडितसञ्जक जो अव्यक्तानुकरण का अत् शब्द, उसे इति परे रहते पररूप एकादेश नहीं होता) किन्तु (जो उस आमेडित का अन्त्य तकार,उसको विकल्प से पररूप एकादेश होता है,संहिता के विषय में)। तु.. - VI. iii. 132 देखें-तुनुघम० VI. iil. 132 तु.. - VII. I. 35 देखें - तुह्यो: VII. 1.35 ...तु... - VII. II.9 देखें-तितुत्र VII. 1.9 तु-VII. iii.3 (पदान्त यकार तथा वकार से उत्तर जित.णित, कित, तद्धित परे रहते अङ्ग के अचों में आदि अच् को वृद्धि नहीं होती. किन्तु उन यकार, वकार से पूर्व) तो (क्रमशः ऐच-ऐ, औ आगम होता है)। तु-VII. iii. 26 (अर्ध शब्द से उत्तर परिमाणवाची उत्तरपद को अचों में आदि अच् को वृद्धि होती है, पूर्वपद को) तो (विकल्प से होती है; जित, णित् तथा कित् तद्धित के परे रहते)। तु... - VII. iii.95 देखें - तुरुस्तु० VII. iii. 95 तु... -VIII. 1.39 देखें - तुपश्यपश्यताहै: VHI. I. 39 तु-VIII. 1.2 (यहाँ से आगे जिसको रु विधान करेंगे, उससे पूर्व के वर्ण को) तो विकल्प से अनुनासिक आदेश होता है,एसा अधिकार इस रुत्व-विधान के प्रकरण में समझना चाहिये)। .. तुः-V. iii. 59 (वेदविषय में) तृन्, तृच् अन्तवाले प्रातिपदिकों से : तुद् - IV.in: 15 (कालविशेषवाची श्वस् प्रातिपदिक से विकल्प से ठञ् प्रत्यय होता है, तथा उस प्रत्यय को) तुट का आगम भी होता है। तुट् - IV. iii. 23 (कालवाची सायं,चिरं,प्रा,प्रगे. तथा अव्यय प्रातिपदिकों से ट्यु तथा ट्युल प्रत्यय होते हैं तथा इन प्रत्ययों को) तुट आगम (भी) होता है। ...तुद... -III. ii. 182 देखें -दाम्नी III. ii. 182 तुदः -III. ii. 35 'तुद्' धातु से (विधु और अरुस् कर्म उपपद रहते 'ख' प्रत्यय होता है)। Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुदादिभ्यः 303 तुदादिश्य:-III. 1.77 तुम -III. iv.9 . तुदादि धातुओं से (श' प्रत्यय होता है,कर्तृवाची सार्व- (वेदविषय में) तुमर्थ में (धातुसे से, सेन, असे, असेन, धातुक परे रहने पर)। कसे, कसेन, अध्यै, अध्यैन्, कध्यै,कध्यैन्, शध्यै,शध्यैन्, तुनुधमक्षुतबोरुष्याणाम् - VI. lil. 132 तवै, तवेङ्, तथा तवेन् प्रत्यय होते हैं)। त.न.घ.मक्ष. तङ, क.त्र. उरुष्य - इन शब्दों को तुमुन्... -III. iii. 10 '(ऋचा-विषय में दीर्घ हो जाता है)। देखें- तुमुन्ण्वु लौ III. iii. 10 तुन्द.. - III. ii.5 तुमुन् - III. iii. 158 देखें - तुन्दशोकयोः III. ii. 5 (समान है कर्ता जिसका, ऐसी इच्छार्थक धातुओं के तुन्दशोकयो: - III. ii. 5 उपपद रहते धातु से) तुमुन् प्रत्यय होता है। तुन्द तथा शोक (कर्म) के उपपद रहते (यथासंङ्ख्य तुमुन् -III. iii. 167 करके परिपूर्वक मृज तथा अपपूर्वक नुद् धातु से क प्रत्यय (काल, समय, वेला शब्द उपपद रहते धातु से) तुमुन् होता है)। प्रत्यय होता है। तुन्दादिभ्यः -- V. ii. 117 तुमुन्न्धु ली-III. 1.10 तुन्दादि प्रातिपदिकों से (मत्वर्थ में इलच तथा इनि और । (क्रियार्थ क्रिया उपपद में हो तो धातु से भविष्यत्काल ठन् प्रत्यय होते हैं)। में) तुमुन् तथा ण्वुल् प्रत्यय होते हैं। तुन्दि..-v.ii. 139 ...तुरायण.. - V. 1.72 देखें - तुन्दिबलि. V. ii. 139 देखें - पारायणतुरायणo v. i. 72 तुन्दिबलिवटे: - V. ii. 139 तुरुस्तुशम्यम: - VII. ii. 95 तुन्दि, बलि तथा वटि प्रातिपदिकों से (मत्वर्थ में भ तु, रु, ष्टुन, शम् तथा अम् धातुओं से उत्तर (हलादि प्रत्यय होता है)। सार्वधातुक को विकल्प से ईट का आगम होता है)। ...तुपरम् - VIII. 1. 56 ...तुर्याणि - II. ii.3 देखें - यद्धितुपरम् VIII. 1. 56 देखें- द्वितीयतृतीयचतुर्थ II. ii. 3 तुपश्यपश्यताहै: - VIII. 1. 39 ...तुलाभ्यः - IV.iv.91 तु, पश्य, पश्यत, अह - इनसे युक्त (तिङन्त को पू- देखें - नौवयोधर्म V. iv.91 जा-विषय में अनुदात्त नहीं होता)। ...तुल्य.. - IV.iv.91 तुभ्य... - VII. ii. 95. देखें - तार्यतुल्य० IV. iv. 91 देखें - तुभ्यमह्यौ VII. ii. 95 तुल्यक्रियः - III. 1. 87 तुभ्यमह्यौ -VII. ii.95 (कर्म के साथ अर्थात् कर्मस्थक्रिया के साथ) समान(युष्मद्, अस्मद् अङ्ग के मपर्यन्त भाग को क्रमशः) तुभ्य, क्रिया वाला (कर्ता कर्मवत् होता है)। मह्य आदेश होते हैं (डे विभक्ति के परे रहते)। तुल्यम् - I. ii. 56 तुमर्थात् - II. ii. 15 (काल तथा उपसर्जन = गौण भी अशिष्य होते हैं) तुमुन् के समानार्थक (भाववाचक प्रत्ययान्त से भी तुल्य हेतु होने से अर्थात् पूर्वसूत्रोक्त लोकाधीनत्व हेतु चतुर्थी विभक्ति होती है)। होने से। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 304 ...तृण... तुल्यम् -V.i. 114 ...तूर्य... - II. iv.2 (तृतीयासमर्थ प्रातिपदिकों से) 'समान' अर्थ में (वति देखें - प्राणितूर्यसेनाङ्गानाम् II. iv. 2 प्रत्यय होता है.यदि वह समानता क्रिया की हो तो)। ....तूल... -III. 1.25 तुल्ययोगे-II. ii. 28 देखें – सत्यापपाश० III. 1. 25 तुल्ययोग में वर्तमान (सह अव्यय तृतीयान्त सुबन्त के साथ समास को प्राप्त होता है) और वह समास बहुव्रीहि ...तूल... -VI. ii. 121 सञ्जक होता है)। देखें - कूलतीर० VI. ii. 121 ...तुल्याख्या-II.i.67 ...तूल... - VI. iii. 64 देखें-कृत्यतुल्याख्या II.i.67 देखें - चिततूलभारिषु VI. ii. 64 . तुल्यार्थ... - VI. ii. 2 तूष्णीमि - III. iv. 63 देखें - तुल्यार्थतृतीया० VI. ii. 2 तूष्णीम् शब्द उपपद हो (तो भू धातु से क्त्वा, णमुल. तुल्यार्थतृतीयासप्तम्युपमानाव्ययद्वितीयाकृत्याः - प्रत्यय होते है)। VI. ii. 2 ...तूस्तेभ्यः - III. I. 21 (तत्पुरुष समास में) तुल्य अर्थवाले तृतीयान्त,सप्तम्यन्त देखें - मुण्डमिश्र III. 121 . उपमानवाची अव्यय, द्वितीयान्त तथा कृत्यप्रत्ययान्त पूर्व तु-VI. iv. 127 पद में स्थित शब्दों को (प्रकृतिस्वर होता है)। . (अर्वन् अङ्ग को) तृ आदेश होता है, (यदि अर्वन् शब्द तुल्याएं: -II. iii. 72 तुल्यार्थक शब्दों के योग में (शेष विवक्षित होने पर से परे सु न हो तथा वह अर्वन् शब्द नञ् से उत्तर भी न तृतीया विभक्ति विकल्प से होती है;पक्ष में षष्ठी भी,तुला हो)। और उपमा को छोड़कर)। तृच्... -II. ii. 15 तुल्यास्यप्रयत्नम् -1.1.9 . देखें-तृजकाभ्याम् II. ii. 15 मुख में होने वाले स्थान और प्रयत्न तुल्य हों जिनके. ...तृ... - VI. iv. 11 ऐसे वर्णों की (परस्पर सवर्ण संज्ञा होती है)। देखें - अतुन्तच्० VI. iv. 11 ...तुष... - VI. ii. 82 ...तच: -III. iii. 169 देखें-दीर्घकाश VI. 1. 82 देखें - कृत्यतृचः III. iii. 169 तुस्मा :-I.iii.4 ...तृचौ -III. 1. 133 विभक्ति में वर्तमान) तवर्ग,सकार और मकार (अन्तिम देखें - ण्वुल्तृचौ III. 1. 133 हल होते हुये भी इत्संज्ञक नहीं होते)। तृजकाभ्याम् - II. ii. 15 तुह्योः -VII. 1.35 - (कर्ता में विहित) तृच् और अकप्रत्ययान्त (सुबन्त) के (आशीर्वाद-विषय में) तु और हि के स्थान में (तात साथ (कर्म में जो षष्ठी,वह समास को प्राप्त नहीं होती)। आदेश होता है,विकल्प करके)। तूदी... - IV. it. 94 तृवत् -VII. 1.95 देखें-तूदीशलातुर0 V. ii. 94 (सम्बुद्धि-भिन्न सर्वनामस्थान परे रहते तुन्प्रत्ययान्त तूदीशलातुरवर्मतीकूचवारात् - IV.ili.94 क्रोष्टु शब्द) तृच् के समान अर्थात् तृचत्ययान्त की तरह तूदी, शलातुर, वर्मती तथा कुंचवार प्रातिपदिकों से हो जाता है। (यथासङ्ख्य करके ढक्,छण, ढञ् तथा यक् प्रत्यय होते ...तृण... -II. iv. 12 हैं, इसका अभिजन' विषय में)। देखें-वृक्षमृगतृणधान्य. II. iv. 12 . Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... तृण.... ... तृण... - IV. 1. 79 देखें - अरीहणकृशाश्व० IV. 1. 79 ... तृण ... - V. iv. 125 देखें - सुहरितo Viv. 125 तृणह: - VII. iii. 92 'गृह हिंसायाम्' अङ्ग को ( हलादि पित् सार्वधातुक परे रहते इम् आगम होता है)। तृणे - VI. iii. 102 तृण शब्द उत्तरपद हो तो (भी कु को कत् आदेश होता है, जाति अभिधेय होने पर) । .... तृतीय .... - II. ii. 3 देखें - द्वितीयतृतीयचतुर्थ० II. II. 3 ... तृतीय ... - V. iv. 58 देखें - द्वितीयतृतीयo Viv. 58 तृतीया - II. 1. 29 'तृतीयान्त सुबन्त (तत्कृत गुणवाचक और अर्थ शब्द के साथ विकल्प से समान को प्राप्त होता है और वह तत्पुरुष समास होता है। तृतीया - II. iii. 3 (वेद-विषय में हु धातु के अनभिहित कर्म में) तृतीयाविभक्ति होती है, (चकार से द्वितीया विभक्ति भी होती है) । तृतीया - II. iii. 6 (अपवर्ग गम्यमान होने पर काल और अध्ववाचियों के अत्यन्त संयोग में) तृतीया विभक्ति होती है। तृतीया 305 - II. iii. 18 (अनभिहित कर्ता और करण कारक में) तृतीया विभक्ति होती है। तृतीया - II. iii. 27 . (हेतु शब्द के प्रयोग में तथा हेतु के विशेषणवाची सर्वनामसञ्ज्ञक शब्द के प्रयोग में हेतु द्योतित होने पर) तृतीया विभक्ति होती है (और चकार से षष्ठी भी ) । तृतीया - - II. iii. 32 (पृथक्, विना, नाना — इन शब्दों के योग में विकल्प से) तृतीया विभक्ति होती है, (पक्ष में पचमी भी होती है) 1 तृतीया - II. iii. 44 (प्रसित और उत्सुक शब्दों के योग में) तृतीया विभक्ति होती है (तथा चकार से सप्तमी भी) । तृतीयाप्रभृतीनि तृतीया - II. iii. 72 (तुल्यार्थक शब्दों के योग में, तुला और उपमा शब्दों को छोड़कर विकल्प से) तृतीया विभक्ति होती है, (पक्ष में षष्ठी भी)। तृतीया... - II. iv. 85 देखें - तृतीयासप्तम्योः II. iv. 85 ... तृतीया... - VI. ii. 2 देखें - तुल्यार्थतृतीया० VI. ii. 2 तृतीया - VI. ii. 48 (कर्मवाची क्तान्त उत्तरपद रहते) तृतीयान्त पूर्वपद को (प्रकृतिस्वर हो जाता है)। तृतीयात् - V. iii. 84 (मनुष्यनामवाची शेवल, सुपरि, विशाल, वरुण तथा अर्यमा शब्द आदि में है जिनके ऐसे शब्दों के) तीसरे (अच्) के बाद (की प्रकृति का लोप हो जाता है, ठ तथा अजादि प्रत्ययों के परे रहते) । तृतीयादि: - VI. i162 (सप्तमीबहुवचन सु के परे रहते एक अच् वाले शब्द से उत्तर) तृतीयाविभक्ति से लेकर आगे की (विभक्तियों को उदात्त होता है) । तृतीयादिषु I-VII. i. 74 तृतीया विभक्ति से लेकर आगे की (अजादि) विभक्तियों के परे रहते (भाषितपुंस्क नपुंसकलिङ्ग वाले अङ्ग को गालव आचार्य के मत में पुंवद्भाव हो जाता है)। तृतीयादिषु - VII. 1. 97 तृतीयादि (अजादि) विभक्तियों के परे रहते (क्रोष्टु शब्द को विकल्प से तृज्वत् अतिदेश होता है ) । तृतीयादौ - II. iv. 32 तृतीया आदि विभक्ति परे रहते (अन्वादेश में वर्तमान इदम् के स्थान में अनुदात्त अश् आदेश होता है)। तृतीयाप्रभृतीनि - IIii. 21 'उपदंशस्तृतीयायाम् ' III. iv. 47 से लेकर 'अन्वच्यानुलोम्ये' तक III. iv. 64 जो भी उपपद हैं, वे (अमन्त Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...तृतीयाभ्याम् 306 अव्यय के साथ ही विकल्प से तत्परुष समास को प्राप्त होते है)। ...तृतीयाभ्याम् -VII. iii. 115 देखें-द्वितीयातृतीयाभ्याम् VII. iii. 115 तृतीयाया: - V. iv. 46 (अतिग्रह, अव्यथन तथा क्षेप विषयों में वर्तमान) तृतीयाविभक्त्यन्त प्रातिपदिक से विकल्प से तसि प्रत्यय होता है, यदि वह तृतीया कर्ता में न हो तो)। अतिग्रह = दुर्बोध। अव्यर्थक = पीड़ा का न होना, साँप। क्षेप = निन्दा तृतीयाया: - VI. ii. 153 ततीयान्त से परे (उत्तरपद ऊनार्थवाची एवं कलह शब्द को अन्तोदात्त होता है)। तृतीयाया: - VI. ill. 3 (ओजस्, सहस, अम्भस् तथा तमस् शब्द से उत्तर) तृतीया विभक्ति का (उत्तरपद परे रहते अलुक् होता है)। तृतीयायाम् - III. iv. 47 ततीयान्त शब्द उपपद रहते (उपपूर्वक दंश् धातु से णमुल् प्रत्यय होता है)। तृतीयायुक्तात् -1. iii. 54 तृतीयाविभक्ति से युक्त (सम् पूर्वक चर् धातु) से (आत्मनेपद होता है)। तृतीयार्थे -I. iv. 84 तृतीयार्थ के द्योतित होने पर (अनु कर्मप्रवचनीय तथा निपातसंज्ञक होता है)। तृतीयासप्तम्यो: – II. iv. 84 तृतीया और सप्तमी विभक्ति के (सप के) स्थान में (अदन्त अव्ययीभाव से उत्तर अम आदेश होता है.बहल करके)। तृतीयासमासे -I.1.29 तृतीया तत्पुरुष समास में (सर्वादियों की सर्वनाम संज्ञा नहीं होती)। ...तृद... - VII. ii. 57. देखें-कृतवृत० VII. ii. 57 ...तदोः -III. iv. 17 देखें - सृपितृदोः III. iv. 17 तन् -III. ii. 135 (तच्छीलादि कर्ता हों तो वर्तमानकाल में धातुमात्र से) तृन् प्रत्यय होता है। तृन्... - VI. ii. 161 देखें- तन्नन्न VI. ii 161 ...तन्.. -VI. iv. 11 देखें - अप्तन्तच VI. iv. 11. ...तनाम् -II. iii. 69 देखें -लोकाव्ययनिष्ठा0 II. iii. 69 तन्नन्नतीक्ष्णशुचिषु - VI. ii. 161 (नज से उत्तर) तन्प्रत्ययान्त एवं अन्न,तीक्ष्ण तथा शुचि उत्तरपद शब्दों को विकल्प से अन्तोदात्त होता है)। ...तृप्र.. - VI. iv. 157 देखें - प्रियस्थिर० VI. iv. 157 तषि... -I. ii. 25 देखें-तृषिमृषिक: I. 1. 25 तषिमूषिकशे: -I. ii. 25 तृष.मृष,कृश् धातुओं से परे (सेट् क्त्वा प्रत्यय काश्यप आचार्य के मत में विकल्प कित् नहीं होता है)। ...तृषोः -III. ii. 172 देखें - स्वपितृ III. ii. 172 ...तृषोः - III. iv. 57 देखें - अस्यतितृषोः III. iv. 57 ...तृ... - III. ii. 46 देखें-भृतवृ० III. ii. 46 ... -III. iii. 120 देखें - तृस्त्रोः III. iii. 120 तृ... - VI. iv. 122 देखें - तृफलमज० VI. iv. 122 तृस्त्रोः - III. iii. 120 (अवपूर्वक) तृ,स्तृ धातुओं से (करण और अधिकरण कारक में संज्ञाविषय में प्रायः घञ् प्रत्यय होता है)। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृफलमायः 307 तेमयो तफलमकापः-VI. iv. 122 तेन -IVill. 101 तु,फल,भज,त्रप्-इन अङ्गों के (अकार के स्थान में तृतीयासमर्थ प्रातिपदिक से (प्रोक्त = प्रवचन किया भी एकारादेश तथा अभ्यासलोप होता है; कित,डित् लिट् हुआ अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है)। तथा सेट् थल् परे रहते)। तेन-IV. iii. 112 ते-I.iv.79 तृतीयासमर्थ प्रातिपदिक से (समान दिशा अर्थ में . वे (गति और उपसर्गसंज्ञक शब्द धातु से पहले होते यथाविहित प्रत्यय होता है)। तेन -IV. .2 , ते-III. 1.60 तृतीयासमर्थ प्रातिपदिक से (खेलता है,खोदता है,जी(कर्तृवाची लुङ) त शब्द परे रहते (पद् धातु से उत्तर तता है, जीता हुआ' अर्थों में ठक् प्रत्यय होता है)। च्लि को चिण् आदेश होता है)। तेन - V.i. 36 ते - IV. 1. 172 , तृतीयासमर्थ प्रातिपदिक से (खरीदा गया' अर्थ में उन अजादि प्रत्ययों की (तद्राज संज्ञा होती है)। यथाविहित प्रत्यय होते है)। ते-VIII.1.22 तेन-V.1.77 देखें-तेमयो VIII. 1. 22 - तृतीयासमर्थ (कालवाची) प्रातिपदिक से (बनाया हुआ' तेतिक्ते -VII. iv.65 अर्थ में यथाविहित ठञ् प्रत्यय होता है)। तेतिक्ते शब्द (वेद-विषय में) निपातन किया जाता है। तेन - V. 1. 92 तेन -II. 1. 27 तृतीयासमर्थ (कालवाची) प्रातिपदिक से (जीता जा ' (सप्तम्यन्त तथा) तृतीयान्त (समान रूप वाले दो सुबन्त सकता है'. 'प्राप्त करने योग्य', 'किया जा सके तथा परस्पर इदम् = यह इस अर्थ में विकल्प से समास को 'सुगमता से किया जा सके' अर्थों में यथाविहित ठब प्राप्त होते हैं और वह बहुव्रीहि समास होता है)। प्रत्यय होता है)। तेन -II. 1. 28 . तेन-v.i.97 ... (तुल्ययोग में वर्तमान 'सह' अव्यय) ततीयान्त (सुबन्त) तृतीयासमर्थ (यथाकथाच तथा हस्त) प्रातिपदिक से के साथ (समास को प्राप्त होता है, और वह समास (दिया जाता है' और 'कार्य अर्थों में यथासङ्ख्य करके बहुव्रीहिसंज्ञक होता है)। ण और यत् प्रत्यय होते है)। तेन - II. iv. 62 तेन-V.i. 114 (बहुत्व अर्थ में वर्तमान तद्राजसंज्ञक प्रत्यय का लुक ततीयासमर्थ प्रातिपदिकों से (समान' अर्थ में वति होता है, स्त्रीलिङ्ग को छोड़कर; यदि वह बहुत्व) उसी । प्रत्यय होता है, यदि वह समानता क्रिया की हो तो)। तद्राजकृत हो तो। तेन-v.ii. 26 तेन -IV. 1.1 तृतीयासमर्थ प्रातिपदिकों से (ज्ञात' अर्थ में चुप और (समर्थों में) जो (प्रथम) तृतीयासमर्थ (रागविशेषवाची) प्रातिपदिक,उससे (रंगा गया' अर्थ में यथाविहित प्रत्यय चणप् प्रत्यय होते हैं)। होता है)। तेमयौ-VIII. 1. 22 तेन - IV. 1.67 (पद से उत्तर अपदादि में वर्तमान एकवचन वाले तृतीयासमर्थ प्रातिपदिकों से (बनाया गया' अर्थ में षष्ठ्यन्त, चतुर्थ्यन्त युष्मद्, अस्मद् पदों को क्रमशः) ते यथाविहित प्रत्यय होता है,यदि उस शब्द से देश का नाम तथा मे आदेश होते हैं.(और वे आदेश अनुदात्त होते , गम्यमान हो)। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तैतिलकबूः 308 होता है)। तैतिलकः - VI. ii. 42 त्यकन् - V.ii. 34 "तैतिलकद्रू' इस समास किये हुये शब्द के (पूर्वपद को (उप और अधि उपसर्ग प्रातिपदिकों से यथासङ्ख्य प्रकृति स्वर होता है)। यदि वे 'आसन्न' और 'आरूढ' अर्थों में वर्तमान हों तो तेतिलकद्रू = देवता कश्यप की पत्नी,नागों की माता। सज्ञाविषय में) त्यकन् प्रत्यय होता है। ...तो: - VIII. iv. 39 ...त्यज... -III. ii. 142 . देखें-स्तो: VIII. iv. 39 देखें - सम्पृचानुरुष IH. ii. 142 तो: - VIII. iv. 42 त्यदादिषु - III. ii. 60 तवर्ग को (षकार परे रहते ष्टुत्व नहीं होता)। त्यदादि शब्द उपपद रहते (अनालोचन =देखना से तो:- VIII. iv. 59 भिन्न अर्थ में वर्तमान दृश् धातु से कञ् और क्विन् प्रत्यय तवर्ग के स्थान में (लकार परे रहते परसवर्ण आदेश होते है)। त्यदादीनाम् -VII. ii. 102 तोपधात् - IV. 1. 39 त्यदादि अङ्गों को विभक्ति परे रहते अकारादेश होता । (वर्णवाची अदन्त अनुपसर्जन अनुदात्तान्त) तकार उपधावाले प्रातिपदिकों से विकल्प से स्त्रीलिङ्ग में डीप त्यदादीनि -1.1.73 प्रत्यय तथा तकार को नकारादेश हो जाता है)। त्यदादिगणपठित शब्द (की भी वृद्धसंज्ञा होती है)। : ...तोसुन्... - I. 1. 39 त्यदादीनि -I. ii. 72 देखें- कत्वातोसुन्कसुनः I. 1. 39 त्यदादि शब्दरूप (सबके साथ नित्य ही शेष रह जाते तोसुन्... III. iv. 13 हैं, अन्य हट जाते हैं)। देखें-तोसुन्कसुनौ III. iv. 13 त्यप् - IV. ii. 103 तोसुन् - III. iv. 16 (अव्यय प्रातिपदिकों से शैषिक) त्यप् प्रत्यय होता है। क्रिया के लक्षण में वर्तमान स्था. इण.का.वदि.चरि. हु,तमि तथा जनि धातुओं से वेदविषय में तुमर्थ में) तोसुन् देखें - त्यागराग० VI. 1.210 प्रत्यय होता है। - त्यागरागहासकुहश्वठक्रयानाम् - VI. 1. 21 तोसुन्कसुनौ-III. iv. 13 त्याग,राग,हास,कुह,श्वठ,क्रथ-इन शब्दों के (आदि (ईश्वर शब्द उपपद रहते तुमर्थ में वेद-विषय में धातु को विकल्प से उदात्त होता है)। से) तोसुन, कसुन् प्रत्यय होते हैं। ...त्यात् -VI.i. 108 तौ - III. ii. 126 देखें-ख्यत्यात् VI. 1. 108 . वे - शतृ तथा शानच् प्रत्यय (सत् - संज्ञक होते हैं)। त्र... - II. iv. 33 तौल्वलिभ्यः - II. iv.61 देखें - तसोः II. iv. 33 (गोत्रवाची) तौल्वलि आदि शब्दों से (विहित जो। ___... - II. iv. 33 युवापत्य में प्रत्यय, उसका लुक नहीं होता)। त्यक्-IV. 1.97 देखें - तसौ II. iv. 33 (दक्षिणा, पश्चात् तथा पुरस् प्रातिपदिकों से शैषिको ...... - VI. ii. 50 त्यक् प्रत्यय होता है। देखें - इनिाकट्य IV. 1. 50 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....... 309 त्रिचतुरोः . .." ....... - VI. iii. 132 देखें- तुनुघमक्षु० VI. iii. 132 ....... - VII. 1.9 देखें - तितुत्र० VII. ii.9 त्रतसो: -II. iv. 33 • त्र और तस प्रत्ययों के परे रहते (अन्वादेश में वर्तमान एतद् के स्थान में अनुदात्त अश् होता है तथा त्र और तस् भी अनुदात्त होते है)। त्रतसौ - II. iv. 33. व तथा तस परे रहते अन्वादेश में वर्तमान एतट के स्थान में अनुदात्त अश् आदेश होता है और वे) त्र, तस् प्रत्यय (भी अनुदात्त होते हैं)। ....मन्... -VI. iv.97 देखें-इस्मन् VI. iv.97 ....त्रप्... - VI. iv. 157 . देखें- प्रस्थस्फ० VI. iv. 157 ...त्रप: -VI. iv. 122 देखें - तृफल० VI. iv. 122 ...त्रपि..-III. I. 126 देखें - आसुयुवपि० III. i. 126 त्रपु... - IV. ii. 135 देखें - पुजतुनो: IV. iii. 135 पुजतुनोः - IV. iii. 135 (षष्ठीसमर्थ) त्रपु और जतु प्रातिपदिकों से (अण् प्रत्यय होता है तथा इन दोनों को षुक् आगम भी होता है)। त्रय: - VI. iii. 47 वि शब्द को) त्रयस आदेश होता है; (सङ्ख्या उत्तरपद रहते,बहुव्रीहि समास तथा अशीति को छोड़कर)। त्रय: - VII. i. 53 (त्रि अङ्ग को) त्रय आदेश होता है, (आम् परे रहते)। त्रयाणाम् - VII. iv.78 (णिजिर् आदि) तीन धातुओं के (अभ्यास को श्लु होने पर गुण होता है)। उल्-. iii. 10 (सप्तम्यन्त किम,सर्वनाम तथा बहु प्रातिपदिकों से) त्रल प्रत्यय होता है। ...असाम् - VI. iv. 124 देखें - प्रमु० VI. iv. 124 ...त्रास... -III. 1.70 देखें- प्राशलाशo III. 1.70 त्रसि... -III. ii. 140 देखें-सिगृधि० III. ii. 140 सिगृधिषिक्षिपे:- III. ii. 139 त्रसि,गृधि,धृषि तथा क्षिप् धातुओं से (तच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमान काल में क्नु प्रत्यय होता है)। त्रा-v.iv.55 (देने योग्य वस्तु तदधीनवचन वाच्य हो तो कृ, भू तथा अस के योग में तथा सम् पूर्वक पद के योग में) वा प्रत्यय (तथा साति प्रत्यय होते है)। ....त्रा... - VIII. ii. 56 देखें - नुदविदोन्द० VIII. ii. 56 ...त्रार्थानाम् - 1. iv. 25 देखें - भीत्रार्थानाम् I. iv. 25 ...त्रि... -v.iv. 18 देखें – द्वित्रिचतुर्थ्य: V. iv. 18 ...त्रि... - VI. 1. 173 देखें- तिचतुर्थ्य: VI.1. 173 त्रि... -VII. ii. 99 देखें - त्रिचतुरो: VII. ii. 99 ...त्रि... - VIII. iii.97 देखें- अम्बाम्ब० VIII. iii.97 त्रिककत-V. iv. 147 (पर्वत अभिधेय हो तो बहुव्रीहि समास में) त्रिककुत् शब्द निपातन किया जाता है। ...त्रिगर्तषष्ठात् - v. iii. 116 देखें - दामन्यादि० V. iii. 116 त्रिचतुरोः - VII. 1. 99 त्रि तथा चतुर अङ्ग को (स्त्रीलिङ्ग में क्रमशः तिसृ,चतसू आदेश होते हैं, विभक्ति परे रहते)। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...त्रिपूर्वात् 310 त्वतली ...त्रिपूर्वात् - V. 1. 30 -V.1.55 देखें - वित्रिपूर्वात् V. 1. 30 (षष्ठीसमर्थ) त्रि प्रातिपदिक से (पूरण' अर्थ में तीय त्रिप्रभृतिषु - VII. iv. 49 प्रत्यय होता है तथा प्रत्यय के साथ-साथ त्रि को तीन मिले हुये संयुक्त वर्णों को (शाकटायन आचार्य के सम्प्रसारण हो जाता है)। मत में द्वित्व नहीं होता)। त्रे:-VI. iii.47 ...त्रिभ्याम् -V.ii.43 त्रिशब्द को त्रयस् आदेश होता है;सङ्ख्याउत्तरपद रहते, देखें- वित्रिभ्याम् V. 1. 43 बहुव्रीहि समास तथा अशीति उत्तरपद को छोड़कर)। ...त्रिभ्याम् - V. iv. 102 वे:-VII.1.53 देखें-द्वित्रिभ्याम् V. iv. 102 . त्रि अङ्ग को (त्रय आदेश होता है, आम् परे रहते)। त्रैगर्ते - IV. 1. 111 ...त्रिभ्याम् - V. iv. 115 देखें-द्वित्रिभ्याम् V. iv. 115 (भर्ग शब्द से गोत्र में फञ् प्रत्यय होता है; त्रिगर्त देश ...त्रिभ्याम् - VI. ii. 197 में उत्पन्न अर्थ वाच्य हो तो। देखें - वित्रिभ्याम् VI. I. 197 त्र्यच् - VI. ii. 90 (अर्म शब्द उत्तरपद रहते भी अवर्णान्त जो दो अचों । ....त्रिस्... - VIII. iii. 43 वाले तथा) तीन अचों वाले (महत् तथा नव से भिन्न .. .देखें-द्विखिश्चतः VIII. III.43 पूर्वपद, उन्हें आधुदात्त होता है)। त्रिस्तावा-.iv.84 ...त्र्यायुष... -V.iv.77 . (द्विस्तावा तथा) त्रिस्तावा शब्द का निपातन किया जाता __ देखें - अचतुर० V. iv. 77 है,(यज्ञ की वेदि अभिधेय हो तो)। ...त्र्यो:-V. iii.45 त्रिंशच्चत्वारिंशतो: - V.i.61 देखें-द्वियोः V. 11.45 (परिमाणसमानाधिकरण वाले प्रथमासमर्थ) त्रिंशत् तथा चत्वारिंशत प्रातिपदिकों से षष्ठयर्थ में (सज्जाविषय में त्व... -V.I. 118 डण् प्रत्यय होता है, ब्राह्मण-प्रन्थ अभिधेय हो तो)। बाण-प्रन्थ अभिधेय हो तो देखें- वसली v.1.118. ...त्रिंशत्... - V.1.58 - व... - VII. II. 94 देखें-पंक्तिविंशति० V.1.58 देखें-वाही VII. 1.94 त्रिंशत्... - V.I. 61 त्व... - VII. I. 97 . देखें-त्वमौ VII. 1.97 देखें-त्रिंशच्चत्वारिंशतो: V.I. 61 व-.i. 135 ...त्रिंशद्भ्याम् – V.i.64 (षष्ठीसमर्थ ऋत्विग विशेषवाची ब्रह्मन् प्रातिपदिक से देखें - विंशतित्रिंशद्भ्याम् V. 1. 24 भाव और कर्म अर्थों में) त्व-प्रत्यय होता है। त्रीणि -I. iv. 100 ...त्वच.. -III. 1.25 (तिङ् प्रत्ययों के तीन) तीन (का समूह क्रम से प्रथम, देखें- सत्यापपाशo III. 1. 25 मध्यम और उत्तम संज्ञक होता है)। त्वतलौ-v.i. 118 ....टि... - III. 1.70 (षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिक से 'भाव' अर्थ में) त्व और तल देखें-प्राशलाश III. 1.70 प्रत्यय होते हैं। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 311 ...त्वन:-III. iv. 14 देखें - तवैकेन्केन्यत्वनः III. iv. 14 त्वमौ - VII. ii. 97 (एक अर्थ का कथन करने वाले युष्मद, अस्मद् अग के मपर्यन्त भाग को क्रमशः) त्व,म आदेश होते हैं। ....वर.. -VI. iv. 20 देखें - ज्वरत्वर VI. iv. 20 ...त्वर... -VII. ii. 28 देखें - रुख्यमत्वर० VII. ii. 28 ...त्वर.. - VII. iv.95 देखें-स्मृदत्वर० VII. iv.95 ...त्वष्ट..-VI.iv: 11 देखें-अप्तन्तच्० VI. iv. 11 त्वा... -VIII. 1.23 देखें-त्वामौ VIII. I. 23 त्वात् -V.I. 119 (यहाँ से लेकर) 'ब्राह्मणस्त्वः 'v.i. 135 के त्वपर्यन्त (त्व तल प्रत्यय होते हैं,ऐसा अधिकार जानना चाहिये)। त्वामौ -VIII. I. 23 (पद से उत्तर अपादादि में वर्तमान द्वितीया विभक्ति को जो एकवचन, तदन्त युष्मद्, अस्मद् पद को यथासङ्ख्य करके) त्वा,मा आदेश होते हैं (और वे अनुदात्त होते है)। वाहौ-VII. ii. 94 (सु विभक्ति परे रहते युष्मद, अस्मद् अंग के मपर्यन्त भाग को क्रमशः) त्व तथा अह आदेश होते हैं। त्वे - VI. iii. 63 त्व प्रत्यय परे रहते (भी ङ्यन्त तथा आबन्त शब्द को बहुल करके हस्व होता है)। . थ-प्रत्याहारसूत्र XI आचार्य पाणिनि द्वारा अपने ग्यारहवें प्रत्याहार सूत्र में पठित पञ्चम वर्ण। पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्णमाला का चौतीसवां वर्ण। . . ..-1.1.23 देखें-थफान्तात् I. 11. 23 ...... -III. iv. 78 - देखें-तिप्तस्झि० III. iv. 78 ...-VI. 1. 144 देखें-थाथपञ् VI. ii. 144 ..... - VII. 1.9 देखें-तितुत्र VII. 1.9 थ:-VII. 1.87 (पथिन् तथा मथिन् अङ्ग के) थकार के स्थान में (न्थ' आदेश होता है)। थ:-VIII. ii.35 (आह के हकार के स्थान में) थकारादेश होता है.(झल परे रहते)। थकन् -III. 1. 146 (गै धातु से शिल्पी कर्ता वाच्य होने पर) थकन् प्रत्यय होता है। थट्-V.ii.50 (सङ्ख्या आदि में न हो जिसके. ऐसे षष्ठीसमर्थ सङ्ख्यावाची नकारान्त प्रातिपदिक से पूरण' अर्थ में (थट् तथा मट् आगम होता है)। ...थना: - VII. I. 45 देखें - तप्तनप० VII. I. 45 थफान्तात् -I. ii. 23 (नकार उपधा वाली) थकारान्त तथा फकारान्त धातुओं से परे (जो सेट् क्त्वा प्रत्यय,वह विकल्प करके कित् नहीं होता है)। थमुः - V.lil. 24 (प्रकारवचन में वर्तमान इदम् प्रातिपदिक से स्वार्थ में) थमु प्रत्यय होता है। ..थल्... - III. iv. 82 देखें-णलतुसुस० III. Iv.82 Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थलि 312 थलि -VI. . 190 (सेट) थल् परे रहते (इट को विकल्प से उदात्त होता है; एवं चकार से प्रकृतिभूत शब्द के आदि.अथवा अन्त को विकल्प से उदात्त होता है)। थलि-VI. iv. 121 (सेट) थल परे रहते (भी अनादेशादि अङ्ग के दो असहाय हलों के मध्य में वर्तमान जो अकार उसके स्थान में एकारादेश तथा अभ्यास का लोप हो जाता है)। थलि-VII. II. 61 (उपदेश में जो अजन्त धात. तास के परे रहते नित्य अनिट्, उससे उत्तर तास् के समान ही) थल् को (इट आगम नहीं होता)। ...थस्... - III. iv.78 देखें-तिप्तस्झि III. iv.78 ...थस्... -III. iv. 101 देखें-तस्-थस्-थ-मिपाम् III. iv. 101 था-V. iii. 26 (हेतु' अर्थ में वर्तमान तथा प्रकारवचन अर्थ में वर्तमान किम् प्रातिपदिक से) था प्रत्यय होता है; (वेदविषय में)। थाथपञ्चताजबित्रकाणाम् -VI. ii. 144 (गति, कारक और उत्तरपद से उत्तर) थ, अथ, घ,क्त, अच, अप, इत्र तथा क प्रत्ययान्त शब्दों को (अन्तोदात्त होता है)। थाल् - V. iii. 23 (प्रकारवचन में वर्तमान किम, सर्वनाम तथा बहु प्रातिपदिकों से) थाल् प्रत्यय होता है। थाल् - V. iii. 111 (प्रल, पूर्व, विश्व,इम – इन प्रातिपदिकों से इवार्थ में) थाल् प्रत्यय होता है, (वेदविषय में)। ...थास्... -III. iv. 78 देखें-तिप्तस्झि० III. iv. 78 थास:-III. iv.80 (टित् लकारों अर्थात् लट्,लिट्, लुट्,लृट, लेट, लोट् के स्थान में जो) थास आदेश,उसके स्थान में (से आदेश होता है)। थासो:-II. iv.79 देखें- तथासोः II. iv.79 . थुक् -v.ii. 51 (षष्ठीसमर्थ षट्, कति, कतिपय तथा चतुर् प्रातिपदिकों से पूरण अर्थ में विहित डट् प्रत्यय के परे रहते) थुक् आगम होता है। . थुक् -VII. iv. 17 (असु क्षेपणे' अङ्ग को अङ् परे रहते) थुक् आगम होता ...थो: - III. iv. 107 देखें-तिथोः III. iv. 107 ...थो: - V. iii. 4 देखें - रथो: V. iii. 4 : -VIII. 1. 38 . देखें - तथो: VIII. ii. 38 . ...थो: - VIII. ii. 40 देखें- तथो: VIII. ii. 40 थ्यन् -V.i.8 (चतुर्थीसमर्थ अज एवं अवि प्रातिपदिकों से 'हित' अर्थ में) थ्यन प्रत्यय होता है। द-प्रत्याहारसूत्रx भगवान् पाणिनि द्वारा अपने दशम प्रत्याहार सूत्र में पठित पञ्चम वर्ण। पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्णमाला का उनत्तीसवां वर्ण। ....द... -V. iv. 106 देखें-चुदषहान्तात् V. iv. 106 दः-I.iii. 20 (आङ् उपसर्ग से उत्तर) डुदाञ्' धातु से (आत्मनेपद होता है,यदि वह मुख के खोलने अर्थ में वर्तमान न हो तो)। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 313 दण्डव्यवसर्गयोः दः -V. iii. 72 ...दक्षिणात् - V.i. 68 (ककारान्त अव्यय को अकच् प्रत्यय के साथ-साथ) देखें-कडङ्करदक्षिणात् V. 1.68 दकारादेश भी होता है। ...दक्षिणात् - V. iii. 34 दः-VI. iii. 123 देखें-उत्तराधरo Vii. 34 दा के स्थान में (हुआ जो तकारादि आदेश, उसके परे । दक्षिणात् -V. iii. 36 रहते इगन्त को दीर्घ होता है)। (दिशा, देश तथा काल अर्थों में वर्तमान सप्तमी, . द: - VII. ii. 109 प्रथमान्त दिशावाची) दक्षिण प्रातिपदिक से (आच् प्रत्यय (इदम् के) दकार के स्थान में (भी मकारादेश होता है, होता है)। - विभक्ति परे रहते)। दक्षिणापश्चात्पुरसः - Iv.ii.97 द:-VII. iv.46 दक्षिणा, पश्चात् तथा पुरस प्रातिपदिकों से (शैषिक (घुसज्ञक) दा धातु के स्थान में (दद् आदेश होता है, त्या प्रत्यय होता है)। तकारादि कित् प्रत्यय परे रहते)। दक्षिणेर्मा-v. iv. 126 दः -VIII. ii. 42 रेफ तथा दकार से उत्तर निष्ठा के तकार को नकारादेश (बहुव्रीहि समास में व्याध का सम्बन्ध होने पर) दक्षि णेर्मा शब्द अनियत्ययान्त निपातन किया जाता है। होता है तथा निष्ठा के तकार से पूर्व के) दकार को (भी नकारादेश होता है)। दक्षिणोत्तराभ्याम् -v. iii. 28 (दिशा, देश और काल अर्थों में वर्तमान सप्तम्यन्त, दः-VII: ii. 72 पञ्चम्यन्त तथा प्रथमान्त दिशावाची) दक्षिण तथा उत्तर (सकारान्त वस्वन्त पद को तथा उसु,ध्वंसु एवं अनडुह प्रातिपदिकों से (स्वार्थ में अतसच प्रत्यय होता है)। पदों को) दकारादेश होता है। ...दजच्... -IV.i. 15 दः-VIII. ii. 75 देखें - टिड्डाण IV.i. 15 दकारान्त (पद् धातु को भी सिप् परे रहते विकल्प से ...दनच... -v.ii. 37 रु आदेश होता है)। देखें-द्वयसदजच V.ii.37 द: - VIII. ii. 80 दण्ड.. - V. iv. 2 (असंकारान्त अदस् शब्द के दकार से उत्तर जो वर्ण देखें - दण्डव्यवसर्गयो: V. iv. 2 उसके स्थान में उवर्ण आदेश होता है तथा) दकार को दण्डमाणव... - IV. iii. 129 (मकारादेश भी होता है)। देखें - दण्डमाणवान्तेवासिषु IV. iii. 129 ...दक्षिण... -I.i. 33 दण्डमाणवान्तेवासिषु - IV. iii. 129 देखें-पूर्वपरावरदक्षिणोत्तरापराधराणि I. I. 33 (षष्ठीसमर्थ गोत्रवाची प्रातिपदिकों से 'इदम्' अर्थ में) दक्षिण... - V. iii. 28 दण्डमाणव तथा अन्तेवासी अभिधेय हों (तो वुञ् प्रत्यय देखें - दक्षिणोत्तराभ्याम् V. i. 28 नहीं होता)। । ...दण्डयो: -V.1. 109 दक्षिणा... - IV. ii. 98 देखें - दक्षिणापश्चात्० IV. i. 98 देखें - मन्थदण्डयो: V. 1. 109 दण्डव्यवसर्गयो: - V.iv.2 दक्षिणां - V.i.94 दण्ड तथा व्यवसर्ग =दान गम्यमान हो तो (पाद तथा (षष्ठीसमर्थ यज्ञ की आख्यावाले प्रातिपदिकों 'दक्षिणा' शत-शब्दान्त सङ्ख्या आदि वाले प्रातिपदिकों से भी वुन् '= यज्ञ समाप्ति पर पुरोहित को दिया जाने वाला द्रव्य प्रत्यय होता है तथा पाद और शत के अन्त का लोप भी अर्थ में (यथाविहित ठञ् प्रत्यय होता है)। हो जाता है)। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...दण्डाजिनाभ्याम् 314 ...दण्डाजिनाभ्याम् –v.ii. 76 देखें - अयःशूलदण्डा० V. ii. 76 दण्डादिभ्यः - V.1.65 (द्वितीयासमर्थ) दण्डादि प्रातिपदिक से (समर्थ है' अर्थ में यत् प्रत्यय होता है)। ...दत्.. - VI. 1.61 देखें - पहन्नोमास्० VI. i. 61 ...दत्... - VI. ii. 197 देखें - पाइन्मूर्धसु VI.ii. 197 दत -V.iv. 141 (संख्यापूर्व वाले तथा सु पूर्व वाले दन्त शब्द को समासान्त) दत आदेश होता है; (अवस्था गम्यमान होने पर, बहुव्रीहि समास में)। दत्त-VI. ii. 148 देखें - दत्तश्रुतयो: VI. ii. 148 दत्तम् - IV. iv. 119 (सप्तमीसमर्थ बर्हिस प्रातिपदिक से) 'दिया हआ' अर्थ में (यत् प्रत्यय होता है, वेद-विषय में)। दत्तश्रुतयो: - VI. ii. 148 (सज्ञाविषय में आशीर्वाद गम्यमान हो तो कारक से उत्तर) दत्त तथा श्रुत क्तान्त शब्दों को (ही अन्त उदात्त होता है)। दद् - VII. iv. 46 (घुसज्ञक दा धातु के स्थान में) दद् आदेश होता है, (तकारादि कित् प्रत्यय परे रहते)। ...दद... -VI. iv. 126 देखें-शसददO VI. iv. 126 धवब्राह्मणप्रथमाध्वरपुचरणनामाख्यातात् – IV. iii.72 (षष्ठी तथा सप्तमीसमर्थ व्याख्यातव्यनाम जो) दो अचों वाले प्रातिपदिक, ऋकारान्त, ब्राह्मण, ऋक्, प्रथम, अध्वर, पुरश्चरण, नाम तथा आख्यात प्रातिपदिक उन से (भव, व्याख्यान अर्थों में ठक् प्रत्यय होता है)। मगधकलिङ्गसूरमसात् - IV. 1. 168 (क्षत्रियाभिधायी जनपदवाची) दो अचों वाले शब्दों से तथा मगध, कलिङ्ग और सूरमस प्रातिपदिकों से (अपत्य अर्थ में अण् प्रत्यय होता है)। चन्तरुपसर्गेभ्य: - VI. iii. 96 द्वि, अन्तर् तथा उपसर्ग से उत्तर (आप् शब्द को ईका- .. रादेश हो जाता है)। द्वयष्टन: - VI. iii. 46 द्वि तथा अष्टन् शब्दों को (आकारादेश होता है संख्या उत्तरपद हो तो,बहुव्रीहि समास तथा अशीति उत्तरपद को छोड़कर)। ....व्यायुष... -V.iv.77 देखें-अचतुर० V. iv.77 व्येकयो: -I. iv. 22 द्वित्व तथा एकत्व अर्थ की विवक्षा में (क्रमशः द्विवचन. और एकवचन के प्रत्यय होते हैं)। यसदनमात्रच:-V.I1.37 - (प्रथमासमर्थ प्रमाण समानाधिकरणवाची प्रातिपदिकों से षष्ठ्यर्थ में) द्वयसंच,दन और मात्रच प्रत्यय होते हैं। द्वयोः-I. ii. 59 . (अस्मदर्थ के एकत्व और) द्वित्व अर्थ में (बहुवचन विकल्प करके होता है)। घ-प्रत्याहारसूत्र IX भगवान पाणिनि द्वारा अपने नवम प्रत्याहार सत्र में पठित तृतीय वर्ण। . पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्णमाला का चौबीसवां वर्ण। घ:-III. 1. 181 धा धातु से (कर्मकारक में ष्टन् प्रत्यय होता है.वर्तमानकाल में)। घः -V.iii.44 (एक प्रातिपदिक से उत्तर जो) धा प्रत्यय,उसके स्थान में (विकल्प से ध्यमुञ् आदेश होता है)। Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. छ - VIII. 1. 34 (ह बन्धने' धातु के हकार को) धकारादेश होता है, (झल् परे रहते या पदान्त में) । छ. - VIII. 1. 40 (झ से उत्तर तकार तथा थकार को) धकार आदेश होता है (किन्तु, डुधाञ् धातु से उत्तर धकारादेश नहीं होता)। छ - VIII. iii. 78 (इण् प्रत्याहार अन्तवाले अङ्ग से उत्तर षीध्वम्, लुङ् तथा लिट् के) धकार को (मूर्धन्य आदेश होता है ) । धन... - IV. iv. 84 देखें- धनगणम् IV. iv. 84 धन... - V. 1. 65 देखें - धनहिरण्यात् V. it. 65 धन - VI. 1. 186 देखें - भीहीo VI. 1. 186 धनगणम् - IV. iv. 84 (द्वितीयासमर्थ) धन और गण प्रातिपदिकों से (प्राप्त करने वाला अभिप्रेत हो तो यत् प्रत्यय होता है)। धनहिरण्यात् - V. ii. 65 (सप्तमीसमर्थ) धन और हिरण्य प्रातिपदिकों से (इच्छा' अर्थ में कन् प्रत्यय होता है ) । ... धनाख्यायाम् - I. 1. 34 देखें - अज्ञातिधनाख्यायाम् I. 1. 34 315 ....धनायाः - VII. iv. 34 देखें - अशनायोदन्य० VII. iv. 34 धनुष - Viv. 132 धनुष्-शब्दान्त (बहुव्रीहि) को ( भी समासान्त अन आदेश होता है)। ... धनुस् – III. 1. 21 देखें - दिवाविभा० III. ii. 21 धने - VI. ii. 55 (हिरण्य और परिमाण दोनों अर्थों को कहने वाले पूर्वपद को) धन शब्द उत्तरपद रहते (विकल्प से प्रकृतिस्वर होता है। धर्मशीलवर्णान्तात् धन्य... - IV. 1. 120 देखें - धन्वयोपधात् IV. ii. 120 धन्वयोपधात् - IV. ii. 120 (देश में वर्तमान) धन्ववाची तथा यकार उपधावाले (वृद्धसंज्ञक) प्रातिपदिकों से (शैषिक वुञ् प्रत्यय होता है)। ... धपरे - VI. 1. 116 देखें - कुधपरे VI. 1. 116 ... धम... - VII. iii. 78 देखें - पिबजिघ्र० VII. iii. 78 धमुञ् - V. iii. 45 (द्वि तथा त्रि सम्बन्धी धा प्रत्यय को भी विकल्प से, धमुत्र आदेश होता है। ... धर्म... - IV. iv. 91 देखें - नौवयोधर्मo IV. iv. 91 धर्म... - IV. iv. 92 देखें - धर्मपथ्यर्थ० IV. iv. 92 धर्म... - V. ii. 132 देखें - धर्मशील० V. ii. 132 धर्मपथ्यर्थन्यायात् - IV. iv. 92 (पञ्चमीसमर्थ) धर्म, पथिन्, अर्थ, न्याय प्रातिपदिकों से (अनपेत अर्थ में यत् प्रत्यय होता है) । अनपेत = जो दूर न गया हो, बोला न हो, अविरहित, सम्पन्न । धर्म - IV. iv. 41 (द्वितीयासमर्थ) धर्म प्रातिपदिक से ('आवरण करता है' अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है)। धर्मवत् - IV. ii. 45 (षष्ठीसमर्थ चरणवाची प्रातिपदिकों से समूह अर्थ में) धर्म अर्थ में कहे हुओं के समान (प्रत्यय होते हैं)। धर्मशीलवर्णान्तात् - V. ii. 132 धर्म शब्द अन्तवाले, शील शब्द अन्त वाले तथा वर्ण शब्द अन्तवाले प्रातिपदिकों से (भी. 'मत्वर्थ' में इनि प्रत्यय होता है। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मात् 316 धातुस्थ.. - VIII. iv. 26 देखें - धातुस्थोरुषुभ्य: VIII. iv. 26 धातुस्थोरुषुभ्यः - VIII. iv. 27 . धातु में स्थित निमित्त से उत्तर तथा उरु एवं षु शब्द से उत्तर (नस के नकार को भी वेद-विषय में णकार आदेश होता है)। षु = प्रसूति, प्रजनन धातो: -I. iv. 79 (वे गति और उपसर्ग-संज्ञक शब्द) धातु से (पहले होते धर्मात् - V. iv. 124 (केवल पूर्वपद से परे जो) धर्म शब्द, तदन्त बहुव्रीहि से समासान्त अनिच् प्रत्यय होता है। . धाम् - IV. iv. 47 (षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिक से) न्याय्य व्यवहार अर्थ में (ढक् प्रत्यय होता है)। धयें - VI.ii. 65 (हरण शब्द को छोड़कर) धर्म्यवाची शब्दों के परे रहते (सप्तम्यन्त तथा हारिवाची पूर्वपद को आधुदात्त होता है)। धा-v. iii. 42 (क्रिया के प्रकार अर्थ में वर्तमान सङ्ख्यावाची प्राति- पदिक से) धा प्रत्यय होता है। धा-V. iv. 20 (आसन्नकालिक क्रिया की अभ्यावृत्ति के गणन अर्थ में वर्तमान बहु प्रातिपदिक से विकल्प से) धा प्रत्यय होता है। ...धा: -I.i. 19 देखें - दाधा: I. 1. 19 धातवः -I. iii.1 (भ जिनके आदि में है तथा वा धात के समान जो क्रियावाची शब्द हैं,वे) धातुसंज्ञक होते हैं। धातवः -III.i. 32 (सनाद्यन्त समुदाय) धातुसंज्ञक होते हैं। ...धातु... - VI. iv.77 देखें-श्नुधातुध्रुवाम् VI. iv.77 धातुप्रातिपदिकयोः -II. iv.71 धातु और प्रातिपदिक के अवयवभूत (सुप् का लुक् होता है)। धातुलोपे - I. 1.4 (जिस आर्धधातुक को निमित्त मानकर) धातु के अवयव का लोप हुआ हो,उसी (आर्धधातुक) को निमित्त मानकर (इक् के स्थान में जो गुण,वृद्धि प्राप्त होते हैं,वे नहीं होते)। धातुसम्बन्धे - III. iv.1 दो धातुओं के अर्थ का सम्बन्ध होने पर भिन्नकाल में विहित प्रत्यय भी कालान्तर में साधु होते हैं। धातोः -III. 1.7 (इच्छाक्रिया के कर्म का अवयव समानकर्तृक) धातु से (इच्छा अर्थ में विकल्प करके सन् प्रत्यय होता है)। धातोः -III. 1. 22 (एकाच और हलादि) धातु से (क्रियासमभिहार अर्थात् पुन:पुनः अथवा अतिशय अर्थ में विकल्प से यङ् प्रत्यय होता है)। धातो: - III. 1. 91 अधिकार सूत्र है,तृतीय अध्याय की समाप्ति तक इसका । अधिकार जाएगा। अर्थात् तृतीयाध्याय की समाप्ति तक कहे जाने वाले प्रत्यय धातु से ही होंगे। धातोः -III. ii. 14 धातुमात्र से (संज्ञा विषय में अच् प्रत्यय होता है, शम्' उपपद रहने पर)। धातो: -VI.i.8 (लिट् लकार के परे रहते) धातु के (अवयव अनभ्यास प्रथम एकाच एवं अजादि के द्वितीय एकाच को द्वित्व होता है)। धातो: -VI.i.77 (यकारादि-प्रत्यय-निमित्तक ही जो) धातु का (एच. उसको यकारादि प्रत्यय के परे रहते वकारान्त अर्थात् अव् आव आदेश होते हैं, संहिता के विषय में)। धातो: - VI. 1. 156 धातु का (अन्त उदात्त होता है)। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घातो: 317 • धान्य धातो: - VI. iv. 140 ...धात्वोः -VI.i. 169 (आकारान्त) जो धातु, तदन्त (भसज्ञक) आङ्ग के देखें-ऊधात्वो: VI. I. 169 (आकार का लोप होता है)। ...धान्य -II. iv. 12 धातो: -VII. 1. 58 देखें - वृक्षमृगतृण II. iv. 12 (इकार इत्सजक है जिसका,ऐसे) धातु को (नुम् आगम धान्यानाम् - V.1.1 होता है)। षष्ठीसमर्थ धान्यविशेषवाची प्रातिपदिकों से (उत्पत्तिधातो: - VII. 1. 100 स्थान' अभिधेय हो तो खञ् प्रत्यय होता है, यदि वह (ऋकारान्त) धातु अङ्ग को (इकारादेश होता है)। उत्पत्तिस्थान खेत हो तो)। घातो: - VIII. ii. 32 धान्ये-III. iii. 30 (टकार आदि वाले) धात के (हकार के स्थान में पकार (उद.नि पर्वक क धात से) धान्यविषय में (घज प्रत्यय आदेश होता है, झल् परे रहते या पदान्त में)। होता है, कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में)। धातो: - VIII. ii. 43 धान्ये-III. iii. 48 (संयोग आदि वाले आकारान्त एवं यण्वान्) धातु से (नि पूर्वक वृ धातु से) धान्यविशेष को कहना हो तो उत्तर (निष्ठा के तकार को नकारादेश होता है)। कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है)। धातो: - VIH. ii.64 ...घाय्याः -III. I. 129 (मकारान्त) धातु (पद) को (नकारादेश होता है)। देखें- पाय्यसान्नाय्य०- III. I. 129 धातो: -VIII. 1.74 ...धारि - III. I. 138 (सकारान्त पद) धातु को (सिप परे रहते विकल्प से रु . देखें-लिम्पविन्द III. I. 138 आदेश होता है)। ...धारि... - III. ii. 46 धातौ -III. ii. 155 देखें - मृतव० III. ii. 46 (संभाषण अर्थ के कहने वाला) धातु उपपद हो (तो धारे: -I. iv. 35 यत् शब्द उपपद न होने पर सम्भावन अर्थ में वर्तमान णिजन्त धन धात के (प्रयोग में जो उत्तमर्ण है. वह धातु से विकल्प से लिङ् प्रत्यय होता है, यदि अलम् शब्द । कारक सम्प्रदान-संज्ञक होता है)। का अप्रयोग सिद्ध हो)। ...धार्थप्रत्यये-III. iv. 62 घातौ - VI.i. 89 देखें-नाधार्थप्रत्यये-III. iv. 62 (अवर्णान्त उपसर्ग से उत्तर ऋकारादि) धातु के परे रहते ...धाय्यों: -III. ii. 130 (पूर्व,पर दोनों के स्थान में वृद्धि एकादेश होता है,संहिता देखें - इचार्यो: III. ii. 130 के विषय में)। धावति - IV. iv. 37 धात्वर्थे -v.i. 116 (द्वितीयासमर्थ माथ शब्द उत्तरपदवाले प्रातिपदिक से धात के अर्थ में वर्तमान (उपसर्ग से स्वार्थ में वति तथा पदवी, अनुपद प्रातिपदिकों से) 'दौड़ता है'- अर्थ प्रत्यय होता है, वेदविषय में)। में (ढक प्रत्यय होता है)। धात्वादेः -VI..62 धि - VIII. ii. 25 धातु के आदि के (षकार के स्थान में उपदेश अवस्था कारादि प्रत्यय के परे रहते (भी सकार का लोप होता में सकार आदेश होता है)। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धि: fa: - VI. iv. 101 (हु तथा झलन्त से उत्तर हलादि हि के स्थान में) चि आदेश होता है। विन्दि... - III. 1. 80 देखें चिन्विकृण्योः III. 1. 80 चिन्विकृण्ण्यो - III. 1. 80 चिवि तथा कृवि धातु को (उ' प्रत्यय और अकार अन्तादेश भी होता है, कर्तृवाची सार्वधातुक परे रहने पर)। धिषीय - VII. iv. 45 धिषीय शब्द (वेदविषय में निपातन किया जाता है)। ...fag-VI. iii. 57 देखें पेवंवासo VI. III. 57 - 1 धिष्व - VII. iv. 45 | धिष्व शब्द (वेदविषय में) निपातन किया जाता है. घुट् - VIII. iii. 29 (डकारान्त पद से उत्तर सकारादि पद को विकल्प से) घुट् का आगम होता है। ....... - VI. 74 देखें ऋक्रब्यूo Viv. 74 - धुरः - IV. iv. 77 (द्वितीयासमर्थ) घुर् प्रातिपदिक से (ढोता है' अर्थ में यत् और ढक् प्रत्यय होते हैं)। ... धुर्वि... III. ii. 177 देखें - भ्राजभासo III. ii. 177 - ... धू... III. ii. 184 देखें अर्तिलूधू०] III. II. 184 .. धूञ्... - VII. ii. 44 देखें स्वरतिसूति० VII. II. 34 ...q-VII. ii. 72 - - देखें स्तुभ्य VII. 1. 72 318 - .. धूप... III. i. 28 देखें गुपधूपविच्छि० III. 1. 28 धूमादिभ्यः - IV. 1. 126 (देशविशेषवाची) धूमादिगणपठित प्रातिपदिकों से (भी शैषिक वुञ् प्रत्यय होता है) । .... धूर्तेः - II. 1. 64 देखें- पोटायुवतिस्तोक० II. 1. 64 ... धृतराज्ञाम् - VI. iv. 135 देखें पूर्वहन् VI. Iv. 135 -III. iv. 65 - .. धूप... देखें - - • शकधृषo III. iv. 65 ... धृषः - I. ii. 19 देखें शीस्विदिमिदिविदि 1. II. 19 - .. धृषि... - III. ii. 140 देखें - प्रसिधि० III. H. 140 धृषिशसी - VII. ii. 19 'विषा प्रागल्भ्ये' तथा 'शसु हिंसायां' धातु (निष्ठा परे रहते अविनीतता गम्यमान होने पर अनिट् होते हैं)। .....घृष्टौ देखें - VI. i. 200 शुष्कपृष्टी VI. 1. 200 .... घेट्... - II. Iv. 78 देखें - प्रावेशाच्छास II. Iv. 78 छेटू.. - III. 1. 49 देखें- यो - Bevel: III. i. 49 -III. 1. 137 • पाघ्राध्मा० III. 1. 137 - III. ii. 159 दाषेट् III. 1. 159 .. घे .... देखें ... घेटू.... देखें - पेटो - III. 1. 29 ... धेनु.... • घ्माधेटो: III. ii. 29 देखें घेट्यो - III. 1. 49 धेट् तथा टुओश्वि धातु से उत्तर (चिल को विकल्प से चङ् आदेश होता है, कर्तृवाची लुङ् परे रहने पर) । ......... - II. i. 64 देखें- पोटायुवतिस्तोक० II. 1. 64 Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... धेनु.... ... धेनु... - VII. iii. 25 देखें- जङ्गलबेनु० VII. III. 25 धेनुष्या - IV. iv. 89 (साविषय में धेनुष्या शब्द (स्त्रीलिङ्ग में निपातन किया जाता है)। ... येनो IV. ii. 46 देखें - अचित्तहस्तिo IV. II. 46 .... बेन्वनडुह... - V. I. 78 देखें अक्तुरo Viv. 78 ... चैवत्य... - VI. I. 174 देखें- दाण्डिनायेनास्तिo VI. iv. 174 - - st... VII. iii. 78 देखें - पिवजि० VII. III. 78 - ... ष्मा... - III. 1. 137 देखें - पाघ्राध्मा०] III. 1. 137 -III. ii. 29 BIL... 'देखें - ध्माधेटो: III. ii. 29 - 319 . घ्मा... - VII. iii. 78 देखें - पाघ्राध्मा० VII. iii. 78 माटो : - III. ii. 29 (नासिका तथा स्तन कर्म उपपद रहते ) ध्मा तथा धेट् धातुओं से (खस् प्रत्यय होता है)। ... मो. - VII. iv. 31 देखें - घ्राध्मो VIL. I. 31 ध्यमुज् - V. iii. 44 (एक प्रातिपदिक से उत्तर जो धा प्रत्यय, उसके स्थान में विकल्प से) ध्यमुज् आदेश होता है। .घ्या... - VIII. ii. 57 - देखें व्याख्यापू०] VIII. 1. 57 ध्याख्यामूर्च्छिमदाम् VIII. II. 57 ध्यै ख्या, पू, मूर्च्छा मदी इन धातुओं से परे (निष्ठा के तकार को नकारादेश नहीं होता) । ध्रुवम् - I. iv. 24° अपाय अर्थात् अलग होने पर) अचल रहने वाला (कारक अपादान संज्ञक होता है)। ध्रुवम् - VI. 1. 177 बहुव्रीहि समास में उपसर्ग से उत्तर पर्शुवर्जित) ध्रुव स्वाङ्ग को (अन्तोदात्त होता है ) । धौव्य... - III. I. 76 देखें - प्रौव्यगति०] III. iv. 76 धौव्यगतिप्रत्यवसानार्थेभ्य - III. Iv. 76 स्थित्यर्थक (अकर्मक), गत्यर्थक तथा प्रत्यवसानार्थक भक्षणार्थक धातुओं से विहित (जो क्त प्रत्यय, वह अधिकरण कारक में होता है तथा चकार से यथाप्राप्त भाव, कर्म, कर्त्ता में भी होता है)। ध्वनयति- III. 1. 51 देखें - अनयतिध्वनयति०] III. 1. 51 = ... ध्वम् - III. iv. 78 देखें - तिप्ताि० 11II. I. 78 ध्वात्... ध्वमः - VII. 1. 42 (वेद-विषय में) ध्वम् के स्थान में (ध्वात् आदेश होता है) । . ... ध्वमो. - III. iv. 2 देखें - तध्वमो: III. 1. 2 ... ध्वर्य... - III. 1. 123 देखें - निष्टक्यदेवहूय III. I. 123 .......... IV. iv. 84 देखें सुखंसु VII. Iv. 84 ...ध्वंसु... - VIII II. 72 देखें - वसुखुसु VIII. ii. 72 ध्वाङ्क्षेण – II. 1. 41 - = कौआवाची (समर्थ (सप्तम्यन्त सुबन्त) ध्वाक्षसुबन्त) के साथ (क्षेप निन्दा गम्यमान होने पर विकल्प से समास को प्राप्त होता है और वह तत्पुरुष समास होता है। ध्वात्... - VII. 1. 42 (वेद - विषय में ध्वम् के स्थान में) ध्वात् आदेश हो जाता है)। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...ध्यान्त 320 ...ध्वान्त - VII. ii. 18 देखें-क्षुब्धस्वान्त०VII. ii. 18 ध्वान्त = ढका हुआ, अन्धकार। ध्वे -VII. 1.78 (ईड तथा जन् धातु से उत्तर) ध्व (तथा से सार्वधातुक) को (इट् आगम होता है)। ...ध्वोः - VIII. II. 37 देखें- स्वो: VIII. ii. 37 | न्... - VI.1.3 देखें-न्द्राः VI.1.3 न-प्रत्याहारसूत्र VII भगवान् पाणिनि द्वारा अपने सप्तम प्रत्याहार सूत्र में पठित पञ्चम वर्ण। पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्णमाला का उन्नीसवां वर्ण। न-I.1.4 (जिस आर्धधातुक को निमित्त मानकर धातु के अवयव कालोपहुआ हो,उसी आर्धधातुकको निमित्त मानकर इक के स्थान में जो गुण,वृद्धि प्राप्त होते हैं,वे) नहीं होते। न-I. 1. 10 (स्थान और प्रयत्न तुल्य होने पर भी अच् और हल् की परस्पर सवर्ण संज्ञा) नहीं होती। न-I.1. 28 (बहुव्रीहि समास में सर्वादियों की सर्वनाम संज्ञा) नहीं होती। न-1.1.43 निषेध (और विकल्प की विभाषा संज्ञा होती है)। न-1.1.57 (पदान्त,द्विर्वचन,वरे,यलोप,स्वर,सवर्ण,अनुस्वार,दीर्घ, जश, चर् - इनकी विधियों में परनिमित्तक अजादेश स्थानिवत्) नहीं होता। न-I.1.62 (लक, श्ल और लप शब्दों के द्वारा जहाँ प्रत्यय का अदर्शन किया गया हो, उसके परे रहते जो अङ्, उसको जो प्रत्ययलक्षण कार्य प्राप्त हों,वे) नहीं हों। न-I. 1. 18 (सेट् क्त्वा प्रत्यय कित) नहीं होता है। न-1.1.37 (सुबह्मण्या नाम वाले निगद में एकश्रुति) नहीं होती । (किन्तु उस निगद में वर्तमान स्वरित को उदात्त तो हो जाता है)। न-I. iii.4 (विभक्ति में वर्तमान अन्तिम तवर्ग,सकार और मकार इत्सञक) नहीं होते। न-I. iii. 15 (गत्यर्थक तथा हिंसार्थक धातुओं से क्रिया के अदल-.. बदल अर्थ में आत्मनेपद) नहीं होता। न-I.ii. 58 (अनु उपसर्गपूर्वक सन्नन्त ज्ञा धातु से आत्मनेपद) नहीं होता है। न-I.ii. 89 (पा, दमि, आयूर्वक यम, आङपूर्वक यस, परिपूर्वक मुह,रुचि,नृति,वद,वस्-इन ण्यन्त धातुओं से परस्मैपद) नहीं होता)। न-I. iv.4 (इयङ् उवङ् आदेश होता है जिन ईकारान्त ऊकारान्त स्त्री की आख्यावाले शब्दों को, उनकी नदी-संज्ञा) नहीं होती,(स्त्री शब्द को छोड़कर)। न-II. ii. 10 (निर्धारण में वर्तमान षष्ठ्यन्त सुबन्त का समर्थ सुबन्त के साथ समास) नहीं होता। न-II. iii. 69 (ल,उ,उक,अव्यय,निष्ठा,खलर्थ,तन् - इन के प्रयोग में षष्ठी विभक्ति) नहीं होती। न-II. iv. 14 (दधिपय आदि द्वन्द्व शब्दरूप एकवद्) नहीं होते। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 321 । न-II.iv.61 न-III. iv. 23 (गोत्रवाची तौल्वलि आदि शब्दों से विहित जो (समानकर्तावाले धातुओं में से पूर्व एवं पर कालवाची युवापत्यार्थक-प्रत्यय,उसका लुक) नहीं होता। अर्थ में वर्तमान धातु से यद शब्द उपपद होने पर क्त्वा, न-II. iv. 67 णमुल प्रत्यय) नहीं (होते,यदि अन्य वाक्य की आकाङ्क्षा (गोपवनादि शब्दों से परे गोत्रप्रत्यय का तत्कृत बहुव न रखने वाला वाक्य अभिधेय हो)। चन में लुक) नहीं होता है। न-IV.i. 10 न-II. iv.83 (षट्संज्ञक प्रातिपदिकों से तथा स्वस्रादि प्रातिपदिकों (अदन्त अव्ययीभाव से उत्तर सुप का लुक) नहीं होता, से स्त्रीलिङ्ग में विहित प्रत्यय) नहीं होते। (अपितु पञ्चमीभिन्न सुप् प्रत्यय के स्थान में अम् आदेश हो जाता है)। (अदन्त अपरिमाण, बिस्त, आचित और कम्बल्य अन्त न-III. 1.47 वाले द्विगुसंज्ञक प्रातिपदिकों से तद्धित के लुक् हो जाने (दृश् धातु से चिल के स्थान में क्स आदेश नहीं होता पर स्त्रीलिङ्ग में ङीप् प्रत्यय) नहीं होता। (लुङ् परे रहने पर)। न-IV.i.56 न-III.i.51 (क्रोडादि स्वानवाची उपसर्जन तथा बसच अदन्त (ऊन, ध्वन, इल, अर्द-इन ण्यन्त धातुओं से उत्तर वेद- स्वाङ्गवाची उपसर्जन जिनके अन्त में हैं, उन प्रातिपदिकों विषय में च्लि के स्थान में चङ् आदेश नहीं होता। से स्त्रीलिङ्ग में डीप) नहीं होता। न-III. 1.64 . न-IV. 1. 176 (रुधिर धातु से उत्तर च्लि के स्थान में चिण आदेश) (क्षत्रियाभिधायी जनपदवाची प्राग्देशीय शब्द तथा नहीं होता, (कर्मकर्ता में, त शब्द परे रहते)। भर्गादि, यौधेयादि शब्दों से उत्पन्न जो तद्राजसंज्ञक न-III. i. 89 प्रत्यय,उनका स्त्रीत्व अभिधेय हो तो लक) नहीं होता। (दुह, स्नु तथा नम् धातुओं को कर्मवद्भाव में कहे हुए न - IV. 1. 112 कार्य यक और चिण) नहीं होते। (प्राच्य भरत गोत्रवाची इअन्त द्वयच् प्रातिपदिक से अण् 'न-III. ii. 23 प्रत्यय) नहीं होता। • (शब्द,श्लोक, कलह, गाथा, वैर, चाटु, सूत्र, मन्त्र, पद- न-IV. iii. 129 इन कर्मों के उपपद रहते कृ धातु से ट प्रत्यय) नहीं (षष्ठीसमर्थ गोत्रवांची प्रातिपदिकों से 'इदम्' अर्थ में होता है। . दण्डमाणव तथा अन्तेवासी अभिधेय हों तो वुब प्रत्यय) , न-III. ii. 113 नहीं होता। (यत् शब्द सहित अभिज्ञावचन उपपद हो तो अनद्यतन न-IV. iii. 148 भूतकाल में धातु से लुट् प्रत्यय) नहीं होता। (उकारवान द्वच् या व्य षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिक से तथा न-III. ii. 152 वर्ध, बिल्व शब्दों से वेदविषय में मयट् प्रत्यय) नहीं (यकारान्त धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हों तो वर्तमा- होता। नकाल में युच् प्रत्यय) नहीं होता। न-v.i. 120 न-III. iii. 135 (यहां से आगे जो भाव प्रत्यय कहे जायेंगे, वे प्रत्यय (क्रियाप्रबन्ध तथा सामीप्य गम्यमान हो तो धातु से नपूर्ववाले तत्पुरुष से) नहीं होंगे; (चतुर, संगत, लवण, अनघतन के समान प्रत्ययविधि) नहीं होती। वट, युध, कत, रस तथा लस शब्दों को छोड़कर)। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 322 ....... - V.ii. 100 देखें-शनेलच. V.ii. 100 न-v.iv.5 (अर्धवाची शब्द उपपद हो तो क्तान्त प्रातिपदिक से कन् प्रत्यय) नहीं होता। न-v.iv.69 (पूजनवाची प्रातिपदिक से समासान्त प्रत्यय) नहीं होते। न-V.iv.89 (सङ्ख्या आदि वाले समाहार में वर्तमान तत्पुरुष समास में अहन् शब्द को अह्न आदेश) नहीं होता। न-V. iv. 155 सज्ञाविषय में बहुव्रीहि समास में कप् प्रत्यय नहीं होता न-VI.1.3 - (अजादि धातु के द्वितीय एकाच-समुदाय के संयोग के आदि में स्थित न् द् तथा र् को द्वित्व) नहीं होता। न-VI.1.20 (वश् धातु को यङ् प्रत्यय के परे रहते सम्प्रसारण) नहीं होता। न-VI.i.37 (सम्प्रसारण के परे रहते सम्प्रसारण) नहीं होता। न-VI.i. 45 (उपदेश में एजन्त व्यञ् धातु को लिट् लकार के परे रहते आकारादेश) नहीं होता। न-VI.i.96 (आमेडितसज्ञक जो अव्यक्तानुकरण का अत् शब्द, उसे इति परे रहते पररूप एकादेश) नहीं होता, (किन्तु आमेडित के अन्त्य तकार को विकल्प से पररूप.एकादेश होता है, संहिता के विषय में)। न-VI.i. 100 (अवर्ण से उत्तर इच प्रत्याहार परे रहते पूर्व,पर के स्थान में पूर्वसवर्ण दीर्घ एकादेश) नहीं होता। न-VI. 1. 169 (ऊक तथा धातु का जो उदात्त के स्थान में हुआ यण हल पूर्व वाला हो तो उससे उत्तर अजादि सर्वनामस्थान-भिन्न विभक्ति को उदात्त) नहीं होता। न-VI.1. 176 (गो, श्वन.सु = प्रथमा के एकवचन परे रहते जो अवर्णान्त शब्द,राट, अङ्, क्रुङ् तथा कृत् से जो कुछ भी स्वरविधान कहा है वह) नहीं होता। न-VI. ii. 19 (ऐश्वर्यवाची तत्पुरुष समास में पति शब्द उत्तरपद रहते पूर्वपद भू,वाक्,चित् तथा दिधिषू शब्दों को प्रकृतिस्वर) नहीं होता। न-VI. ii.91 (भूत, अधिक,संजीव,मद्र, अश्मन, कज्जल इन पूर्वपदों को अर्म शब्द उत्तरपद रहते आधदात्त) नहीं होता। न-VI. ii. 101 (हास्तिन, फलक तथा मार्देय - इन पूर्वपद शब्दों को पुर शब्द उत्तरपद रहते अन्तोदात्त) नहीं होता। न-VI. ii. 133 (आचार्य,राजन, ऋत्विक,संयुक्त तथा ज्ञाति की आख्या वाले पुत्र उत्तरपद स्थानीय तत्पुरुष समास में आधुदात्त) नहीं होता। न-VI. I. 142 देवतावाची द्वन्द्व समास में अनुदात्तादि उत्तरपद रहते पृथिवी,रुद्र,पूषन, मन्थी को छोड़कर एक साथ पूर्व तथा उत्तरपद को प्रकृतिस्वर) नहीं होता। न-VI. ii. 168 (बहुव्रीहि समास में अव्यय, दिक्शब्द,गो,महत्, स्थूल, मुष्टि, पृथु, वत्स-इनसे उत्तर स्वाङ्गवाची मुख शब्द उत्तरपद को अन्तोदात्त) नहीं होता। न-VI.ii. 176 (बहु से उत्तर, बहुव्रीहि समास में अवयववाची गुणादिगणपठित शब्दों को अन्तोदात्त) नहीं होता। न-VI. ii. 181 नि तथा वि उपसर्ग से उत्तर (अन्तःशब्द को अन्तोदात्त) नहीं होता। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 323 न-VI. III. 18 (इन्नन्त, सिद्ध तथा बध्नाति उत्तरपद रहते भी सप्तमी का अलुक) नहीं होता। 7-VI. 1. 36 (ककार उपधा वाले स्त्री शब्द को पंवदभाव) नहीं हो- ता। न-VI. iv.4 (तिस्, चतसृ अङ्गको नाम् परे रहते दीर्घ) नहीं होता। न-VI. iv.7 . नकारान्त अङ्ग की (उपधाको नाम परे रहते दीर्घ होता न-VI. iv. 30 . (पूजा अर्थ में अबु अङ्ग की उपधा के नकार का लोप) नहीं होता। न-VI.iv. 39 (क्तिच प्रत्यय परे रहते अनुदात्तोपदेश, वनति तथा तनोति आदि अङ्गों के अनुनासिक का लोप तथा दीप) नहीं होता है। न-VI. iv.69 (घु, मा, स्था, गा, पा, हा तथा सा अङ्गों को ल्यप् परे रहते जो कुछ कहा है, वह) नहीं होता। न-VI. iv.74 (लुङ, लङ् तथा लुङ् परे रहते जो अट्, आट् आगम कहे हैं, वे माङ् के योग में) नहीं होते। न-VI.iv.85 (म तथा सधी अङ्गको यणादेश नहीं होता.(अजादि सुप परे रहते)। न-VI. iv. 126 (शस.दद तथा वकार आदि वाली धातुओं के गुणादेश द्वारा निष्पन्नजो अकार,उसके स्थान में एत्त्व तथा अभ्यास लोप) नहीं होता, कित,डित लिद एवं थल परे रहते)। न-VI. iv. 137 (वकार तथा मकार अन्त में हैं जिसके, ऐसे संयोग से उत्तर,तदन्त भसजक अन के अकार का लोप नहीं होता। न-VI. iv. 170 (अपत्यार्थक अण् के परे रहते वर्मन् शब्द के अन् को छोड़कर जो मकार पूर्ववाला अन्, उसको प्रकृतिभाव) नहीं होता। न-VII. 1. 11 (ककाररहित इदम् तथा अदस के भिस को ऐस) नहीं होता। न-VIII. I. 26 (इतर शब्द से उत्तर सु तथा अम् के स्थान में वेद-विषय में अद्ङ् आदेश) नहीं होता। न-VII. 1. 62 (लिट्-भिन्न इडादि प्रत्यय परे रहते रघ आङ्ग को नुम् आगम) नहीं होता। न-VII.1.68 (केवल सु तथा दुर् उपसर्गों से उत्तर लभ् धातु को खल् तथा घञ् प्रत्यय परे रहते नुम् आगम) नहीं होता। न-VIII. 1.78 (अभ्यस्त अङ्ग से उत्तर शतृ को नुम् आगम) नहीं होता। न-VII. ii.4 (परस्मैपदपरक इडादि सिच परे रहते हलन्त अङ्गको वृद्धि नहीं होती। न-VII. 1.8 (वशादि कृत् प्रत्यय परे रहते इट् का आगम) नहीं होता। न-VII. ii.39 (वृ तथा ऋकारान्त धातुओं से उत्तर इट् को लिङ् परे तीनों रोता। न-VII. ii.59 (वृतु इत्यादि चार धातुओं से उत्तर सकारादि आर्धधातुक को परस्मैपद परे रहते इट् आगम) नहीं होता। न-VII. ifi.3 (पदान्त यकार तथा वकार से उत्तर जित.णित. कित तद्धित परे रहते अङ्ग के अचों में (आदि अच् को वृद्धि) नहीं होती, किन्तु उन यकार वकार से पूर्व तो ऐच = ऐ और औ आगम क्रमशः होते है)। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 324 न-VII. 1.6 न-VII. iv.63 क्रिया के अदल-बदल अर्थ में पूर्व सूत्र से जो कुछ (कुङ् अङ्ग के अभ्यास को यङ् परे रहते चवर्गादेश) कहा है अर्थात् वृद्धिनिषेध और ऐच आगम, वह) नहीं नहीं होता। होता। न - VIII. 1. 24 न-VII. 1. 22 (च,वा,ह,अह,एव- इनके योग में षष्ठ्यन्त,चतुर्थ्यन्त, (देवता इन्द्र में उत्तर पद के रूप में प्रयुक्त इन्द्र शब्द के द्वितीयान्त युष्मद्, अस्मद् शब्दों को पूर्व सूत्रों से प्राप्त अचों में आदि अच् को वृद्धि नहीं होती। वाम् नौ, आदि आदेश) नहीं होते। न-VII. 1. 27 -VIII. 1.29 (अर्ध शब्द से परे परिमाणवाची शब्द के अचों में आदि (पद से उत्तर लुडन्त तिङन्त को अनुदात्त) नहीं होता। अकार को वृद्धि) नहीं होती.(पूर्वपद को तो विकल्प से न-VIII.1.37 होती है; जित्, णित् तथा कित् तद्धित परे रहते)। (यावत् और यथा से युक्त अव्यवहित तिङन्त को पू... न-VII. 1.34 जा-विषय में अनुदात्त) नहीं होता, (अर्थात् अनुदात्त ही (उपदेश में उदात्त तथा मकारान्त धातु को चिण तथा होता है)। बित, णित् कृत् परे रहते वृद्धि नहीं होती (आङ्पूर्वक चम् धातु को छोड़कर)। (गति अर्थवाले धातओं के लोट लकार से यक्त लन्त न-VII. I. 45 तिङन्त को अननुदात्त नहीं होता, यदि कारक सारा अन्य) (प्रत्यय में स्थित ककार से पूर्व या तथा सा के अकार न हो तो। के स्थान में इकारादेश) नहीं होता। न-VIII. 1.73 न-VII. 1.59 (समान अधिकरण वाला आमन्त्रित पद परे हो तो उससे (कवर्ग आदि वाले धातु के चकार तथा जकार के स्थान पूर्ववाला आमन्त्रित पद अविद्यमान के समान) न हो। में कवर्गादेश) नहीं होता। न-VIII. 1.3 न-VII.1.87 (ना परे रहते मुभाव असि) नहीं होता। (अभ्यस्तसज्जक अङ्ग की लघु उपधा इक को अजादिन -VIII. 1.8 पित् सार्वधातुक परे रहते गुण) नहीं होता। (प्रातिपदिक.के अन्त का जो नकार. उसका ङि तथा न-VII. iv.2 सम्बुद्धि परे रहते लोप) नहीं होता। (अक् प्रत्याहार के किसी अक्षर का लोप हुआ है जिस न-VIII. ii. 57. अङ्ग में,उसके तथा शासु अनुशिष्टौ एवं ऋदित् अङ्गों की ___(ध्यै, ख्या, प, मूर्छा,मदी - इन धातुओं के निष्ठा के उपधा को चङ्परक णि परे रहते हस्व) नहीं होता। तकार को नकारादेश) नहीं होता। -VII. iv. 14 न-VIII. 1.79 (रेफ तथा वकारान्त भसज्ञक को एवं कुरकुर धातु की (कप् प्रत्यय परे रहते अण् = अ,इ, उ, को हस्व) उपधा को दीर्घ) नहीं होता। नहीं होता। न-VIII. II. 110 न-VII. iv. 35 (रेफ परे है जिससे उसके सकार को तथा सप्ल, सूज, (पुत्र शब्द को छोड़कर अवर्णान्त अज को वेद-विषय स्पृश, मह एवं सवनादिगणपठित शब्दों के सकार को में क्यच् परे रहते जो कुछ कहा है, वह) नहीं होता। इण तथा कवर्ग से उत्तर मूर्धन्य आदेश) नहीं होता। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 325 न-VIII. iv. 33 न. - VII.i. 29 (उपसर्ग में स्थित निमित्त से उत्तर भा, भू.पूज, कमि, (युष्मद् तथा अस्मद् अङ्ग से उत्तर शस् के स्थान में) गमि.ओप्यायी तथा वेप-इन धातुओं से विहित कृत्स्थ नकारादेश होता है। नकार को अच से उत्तर णकार आदेश) नहीं होता। | अच् स उत्तर णकार आदश) नहीं होता। --VII. 1.64 न-VIII. iv. 41 (मकारान्त धातु पद को) नकारादेश होता है। (पदान्त टवर्ग से उत्तर सकार और तवर्ग को षकार और - VIII. II. 42 टवर्ग) नहीं होता,(नाम् को छोड़कर)। (रेफ तथा दकार से उत्तर निष्ठा के तकार को) नकारादेश 7 - VIII. iv. 47 • होता है (तथा निष्ठा के तकार से पूर्व के दकार को भी (आक्रोश गम्यमान हो तो आदिनी शब्द परे रहते पुत्र नकारादेश होता है)। शब्द को द्वित्व) नहीं होता। न.-VIII. iv. 1 न-VIII. iv.66 रेफ तथा षकार से उत्तर) नकार को (णकारादेश होता (उदात्त उदय = परे है जिससे एवं स्वरित उदय = है,एक ही पद में)। परे है जिससे,ऐसे अनुदात्त को स्वरित आदेश) नहीं होता, न - VIII. III. 7 (गार्ग्य, काश्यप तथा गालव आचार्यों के मत को (प्रशान को छोड़कर) नकारान्त पद को (अम्परक छन् छोड़कर)। प्रत्याहार परे रहते रु होता है, संहिता में)। न-I. iv. 15 न -VIII. iii. 24 नकारान्त शब्दरूप (पदसंज्ञक होते हैं;क्यच,क्यङ् तथा (अपदान्त) नकार को (तथा चकार से मकार को भी झल क्या परे रहते)। परे रहते अनुस्वार आदेश होता है)। न -V.I. 33 न: - VIII. iii. 27 (पति शब्द से यज्ञसंयोग गम्यमान होने पर ङपि प्रत्यय (नकारपरक हकार परे रहते पदान्त मकार को विकल्प और) नकार अन्तादेश भी हो जाता है। से) नकारादेश होता है। +-IV. 1.39 २-VIII. iii. 30 (वर्णवाची अदन्त अनुपसर्जन अनुदात्तान्त तकार उप नकारान्त पद से उत्तर (भी सकारादि पद को विकल्प धावाले प्रातिपदिकों से विकल्प से स्त्रीलिङ्ग में उपि प्रत्यय से धुट् का आगम होता है)। तथा तकार को) नकारादेश हो जाता है। न. -VIII. iv. 26 F-VI. I. 63 (धातु में स्थित निमित्त से उत्तर तथा उरु एवं षु शब्द (धात के आदि में णकार के स्थान में उपदेश अवस्था से उत्तर) नस् शब्द के (नकार को भी वेद-विषय में णकामें) नकार आदेश होता है। रादेश होता है)। न:-VI.1.99 ...नकुल... - VI. iii. 74 (प्रथमयोः पूर्वसवर्णः' VI. i. 98 सूत्र से किये हुये देखें- नानपात्o VI. Iii. 74 पूर्वसवर्ण दीर्घ से उत्तर शस् के अवयव सकार को) नकार ...नक्तंदिव.. - V. iv.77 आदेश होता है, (पुल्लिङ्ग में)। देखें- अचतुर० V. iv. 77 न: - VI. iv. 144 (भसब्जक) नकारान्त अङ्गके (टि भाग का लोप होता ..नक्र.. -VI. iii. 74 , है,तद्धित प्रत्यय परे रहते)। देखें- नानपात्o VI. 1.74 Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 326 नजिट ...नक्षत्र... . ...नक्षत्र.-VI. iii. 74 नखमुखात् -IV.1.58 देखें- नानपात्. VI. iii. 74 नखशब्दान्त तथा मुखशब्दान्त प्रातिपदिकों से (संज्ञानक्षत्रद्वन्द्वे - 1. ii. 63 विषय में स्त्रीलिङ्ग में ङीष् प्रत्यय नहीं होता) (तिष्य तथा पुनर्वसु शब्दों के) नक्षत्रविषयक द्वन्द्व समास .....नखे... - III. ii. 34 में (बहुवचन के स्थान में नित्य ही द्विवचन हो जाता है) देखें- मितनखे III. II. 34 नक्षत्रात् - V. iv. 141 नगः - VI. iii. 76 नक्षत्र प्रातिपदिक से (वेद-विषय में घ प्रत्यय होता है। (प्राणि-भिन्न अर्थ में वर्तमान) नग शब्द के (न को नक्षत्रात् - VIII. iii. 100 प्रकृतिभाव विकल्प करके होता है)। (गकारभिन्न से परे) नक्षत्रवाची शब्दो से उत्तर (सकार ...नगर... -IV. 1. 141 को एकार परे रहते सद्भा-विषय में विकल्प से मूर्धन्य देखें-कन्यापलद IV. 1. 141 आदेश होता है)। ...नगराणाम् -VII. Ili. 14 नक्षत्रे -I. ii.60 देखें - ग्रामनगराणाम् VII. iii. 14 (फल्गुनी और प्रोष्ठपद) नक्षत्रविषयक (द्वित्व) अर्थ में नगरात् - IV. II. 127 (भी बहुत्व विकल्प करके होता है)। (निन्दा और नैपुण्य अभिधेय हों तों) नगर प्रातिपदिक नक्षत्रे - II. iii. 45 से (शैषिक वुञ् प्रत्यय होता है)। नक्षत्रवाची (लुबन्त) शब्द से (तृतीया और सप्तमी नगरान्ते - VII. II. 24 विभक्ति होती है)। (प्राच्य देश में) नगर अन्तवाला अग, उसके (पूर्वपद नक्षत्रे - III. 1. 116 तथा उत्तरपद के अचों में आदि अच् को जित,णित् तथा नक्षत्र अभिधेय होने पर (पष्य और सिख्य शब्द क्रमशः कित तद्धित परे रहते वृद्धि होती है)। . पुष् और सिध् धातुओं से क्यप् प्रत्ययान्त निपातन हैं, नगरे – VI. 1. 150. अधिकरण कारक में)। . (कास्तीर तथा अजस्तुन्द शब्दों में सुट् आगम निपातन नक्षत्रेण - IV. 1.3 किया जाता है) नगर अभिधेय हो तो। नक्षत्रविशेषवाची तृतीयासमर्थ प्रातिपदिक से ('उन नगरे - VI. I.89 नक्षत्रों से युक्त काल' कहने में यथाविहित (अण) प्रत्यय नगर शब्द उत्तरपद रहते (महत् तथा नव शब्द को होता है। छोड़कर पूर्वपद को आधुदात्त होता है. यदि वह नगर ...नक्षत्रेभ्यः -IV. iii. 16 उदीच्य प्रदेश का न हो तो)। देखें- सन्धिवेलाचतु. IV. iii. 16 ...नग्न.. -III. ii. 56 नक्षत्रेभ्यः- IV. ii. 37 देखें-आढयसुभग III. 11. 56 नक्षत्रवाची प्रातिपदिकों से (जातार्थ में उत्पन्न प्रत्यय का नर-III. 11.90 बहुल करके लुक् होता है)। (यज,याच,यत, विच्छ,प्रच्छ,तथा रक्ष धातुओं से कर्तृनख-IV.i. 58 भिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में) नङ प्रत्यय होता है। देखें- नखमुखात् IV. 1. 58 नजिड-III. 1. 172 ...नख... -VI.lil.74 स्वप् तथा तप धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हों तो वर्त.. देखें-नभ्राण्नपात VI. 1.74 मानकाल में नजिङ् प्रत्यय होता है। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 327 ...नटात - न -II. 1.6 नन्दुःसुभ्य:-V.iv. 121 'नज्' इस अव्यय का (सुबन्त के साथ समास होता है नज.दुस तथा सु शब्दों से उत्तर (जो हलि तथा सक्थि और वह तत्पुरुष समास होता है)। शब्द,तदन्त बहुव्रीहि से समासान्त अच प्रत्यय विकल्प से होता है)। ...न.-IV.1.57 देखें-सहनविद्यमान० V..57 नपूर्वाणाम् - VII. iii. 47 (भस्वा, एषा,अजा,ज्ञा,दा,स्वा- ये शब्द) नञ् पूर्व वाले ना.. - IV. 1.87 हों तो (भी,न हों तो भी इनके आकार के स्थान में जो अकार, देखें - नानौ IV. 1.87 उसको उदीच्य आचार्यों के मत में इत्त्व नहीं होता)। ना.. - V. iv. 121 नव्यूर्वात् - V.i. 120 देखें- नदुःसुभ्य: V. iv. 121 (यहां से आगे जो भाव प्रत्यय कहे जायेंगे. वे प्रत्यय) ना... - VI. II, 172 नञ् पूर्ववाले (तत्पुरुष समासयुक्त प्रातिपदिकों से नहीं होंगे; चतुर, संगत, लवण, वट, युध, कत, रस तथा लस देखें - नसुभ्याम् VI. ii. 172 शब्दों को छोड़कर)। नषः-V.iv.71 ...नश्याम् -V. 1.27 . न से परे ( जो शब्द, तदन्त तत्पुरुष से समासान्त देखें-विनश्याम् V. 1. 27 प्रत्यय नहीं होते)। नक-VI. 1. 116 नव्वत् - VI. II. 174 (उत्तरपदार्थ के बहुत्व को कहने में वर्तमान बहु शब्द नब से उत्तर (जर,मर, मित्र.मत- इन उत्तरपद शब्दों को बहुव्रीहि समास में आधुदात्त होता है)। से) नञ् के समान (स्वर होता है)! नविशिष्टेन -II.1.59 नक -VI. 1. 154 (अनक्तान्त सुबन्त) नञ्चिशिष्ट = जिस शब्द में नब (गुण के प्रतिषेध अर्थ में वर्तमान) नञ् से उत्तर (संपादि, ही विशेष हो, अन्य सब प्रकृति प्रत्यय आदि द्वितीय पद अर्ह, हित, अलम अर्थ वाले तद्धितप्रत्ययान्त उत्तरपद को के तुल्य हों, (समानाधिकरण क्तान्त सुबन्त) के साथ अन्तोदात्त होता है)। (विकल्प से समास को प्राप्त होता है और वह तत्पुरुष नक - VI. III. 72 समास होता है)। न के (नकार का लोप हो जाता है, उत्तरपद के परे। नसुभ्याम् -VI. 1. 172 रहते)। (बहुव्रीहि समास में) नञ् तथा सु से परे (उत्तरपद को नर-VII. 11. 30 अन्तोदात्त होता है)। नञ् से उत्तर (शुचि, ईश्वर, क्षेत्रज्ञ, कुशल,निपुण - इन ननौ -IV.1.87 शब्दों के अचों में आदि अच को वृद्धि होती है तथा (धान्यानां भवने.'v.ii.1 तक जिन अर्थों में प्रत्यय पूर्वपद को विकल्प से होती है; जित,णित,कित् तद्धित कहे हैं. उन सब अर्थों में स्त्री तथा पुंस शब्दों से परे रहते)। यथासङ्ख्य करके) नञ् तथा स्नञ् प्रत्यय होते हैं। नषि-II: III. 112 ...नटसूत्रयोः - IV. ii. 110 (क्रोधपूर्वक चिल्लाना गम्यमान हो तो) नब् उपपद रहते देखें - भिक्षुनटसूत्रयोः M. II. 110 (धातु से स्त्रीलिङ्ग कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में इनि ...नटात् - IV.III. 128 प्रत्यय होता है)। देखें -छन्दोगौन्धिक० N. II. 128 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328 नवजादी . दख- Viv153 ...नह... - IV. 1.86 देखें-कुमुदना IV. 1.6 नह..-IV. 1.87 देखें-नहशादात् IV. 1.87 नशादात् -IV. 1.87 नड, शाद शब्दों से (चातुरर्थिक ड्वलच् प्रत्यय होता नड = एक प्रकार की लम्बी जलीय घास शाद = छोटी घास,कीचड़। नादिभ्यः - IV. 1.99 नडादि षष्ठ्यन्त प्रातिपदिकों से (गोत्रापत्य में फक् प्रत्यय होता है)। नडादीनाम् - IV. 1. 90 नडादि शब्दों को (चातुरर्शिक छ प्रत्यय तथा कुक का आगम होता है)। नते-V.I.31 (अव उपसर्ग प्रातिपदिक से नासिका-सम्बन्धी) झकाव को कहना हो तो (सज्जाविषय में टीटच,नाटच तथा प्रटच् प्रत्यय होते है)। ...नद.-III. 1.64 देखें-मन-III. 1.64 ...द.. - VIII.R.n देखें- गदEO VIII. iv. 17 नदी-I.N.3 कारान्त तथा मकारान्त स्त्रीलिङ्गको कहने वाले शब्द) नदीसजक होते हैं। नदी-II..7 - भिन्न लिन वाले) नदीवाचकों का (मामवर्जित देशवाची शब्दों का द्वन्द्व एकवद् होता है)। नही... - IV.1.113 देखें-दीमापीयः M. 1. 113 नदी... - V. v. 110 देखें-नदीपौर्णमास्या V.iv. 110 नदी... - V.v. 153 देखें-नतः V.iv. 153 नदी... - VI. 1. 161 देखें- जादी VI. I. 167 नदी-VI. ii. 109 (बहुव्रीहि समास में बन्धु शब्द उत्तरपद रहते) नद्यन्त पूर्वपद को (अन्तोदात्त होता है)। ...नदी... -VII.1.54 देखें-हस्वनचाफ VII.1.54 नदी... - VII. iii. 116 देखें-नखानीभ्यः VII. II. 116 ..... ... नदीपौर्णमास्याग्रहावणीच्यः - V. iv. 110 (अव्ययीभाव समास में वर्तमान) नदी, पौर्णमासी तथा आग्रहायणी शब्दान्त पदों से टच् प्रत्यय होता है)। नदीभि-II.1. 19 नदीसंज्ञक (समर्थ सुबन्तों) के साथ (भी संख्यावाची सुबन्तों का विकल्प से समास होता हैं और वह अव्ययीभाव समास होता है)। प्रकृत सूत्र में 'यू स्त्र्याख्यौ नदी' से विहित शास्त्रीय नदी संज्ञा का ग्रहण नहीं है। ...नदीभ्याम् - Iv.iv. 111 देखें-पाचोनदीभ्याम् IV, iv. 111 ...नदीच्याम् - VIII. Iii. 89 , देखें-मिनदीभ्याम् VIII. iii. 89 नदीमामुवीय - IV. 1. 113 (जिनकी वृद्धसंज्ञा न हो ऐसे) नदी तथा मानुषी अर्थ वाले (नदी, मानुषी नाम वाले) प्रातिपदिकों से (अपत्य अर्थ में अण् प्रत्यय होता है)। नदे-III.I. 115 नद अभिधेय हो तो (कर्ता में भिद्य और उद्ध्य शब्द क्यप् प्रत्ययान्त निपातन किये जाते हैं)। नधजादी-VI.1.167 (नुम-रहित अन्तोदात्त शत-प्रत्ययान्त शब्द से परे) नदीसज्जक प्रत्यय तथा अजादि (सर्वनामस्थानभिन्न विभक्ति को उदात्त होता है)। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 329 नपुंसकस्य नया-VI. 1.43 नदीसज्जक (पूर्वसूत्र से शेष) शब्दों को विकल्प करके हस्व हो जाता है घ,रूप,कल्प,चेल बुष,गोत्र,मत तथा हत शब्दों के परे रहते)। नवाः-VII. ii. 112 नदीसज्ञक अनि से उत्तर (डित् प्रत्यय को आट् आगम होता है)। नवादिष्यः - IV. 1. 96 नदी आदि प्रातिपदिकों से (शैषिक ठक् प्रत्यय होता नसाम्-IV. 1.84 (ड्यन्त, आबन्त प्रातिपदिक से) नदी अभिधेय हो तो चातुरर्थिक मतुप प्रत्यय होता है)। नाम्नीय -VII. M. 116 | नदीसजक, आबन्त तथा नी से उत्तर (ङि विभक्ति के स्थान में आम आदेश होता है)। नहत -V.Iv. 153 (बहुव्रीहि समास में) नदीसज्जक तथा ऋकारान्त शब्दों से (भी समासान्त कप् प्रत्यय होता है)। ..नयो: - VII. 1.79 देखें-शीनो: VII. 1.79 ...यो: - VII. I. 107 देखें-अमानयो: VII. I. 107 म्-III. 1.91 (बिच्चा शये' धातु से भाव में) नन् प्रत्यय होता है। मु-VIII. 1. 43. (अनु.षणा विषय में) ननु इस शब्द से युक्त (तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता)। अनुऔषणा = अनुमति की कामना।। नवी -III. 1. 120 (पृटप्रतिवचन अर्थात् पूछे जाने पर जो उत्तर दिया जाये, इस अर्थ में पातु से) ननु शब्द उपपद रहते (सामान्य भूतकाल में लट् प्रत्यय होता है)। मन्दि-II. 1. 134 देखें - बन्दियहि III. 1. 134 मन्दिवहिपचादिभ्यः -III.1. 134 नन्यादि. ब्रह्मादि तथा पचादि धातओं से (यथासंख्य करके ल्यु,णिनि तथा अच् प्रत्यय होते है)। न्यो: -III. I. 121 (पृष्टप्रतिवचन अर्थ में धातु से) न तथा नु उपपद रहते (सामान्य भूतकाल में विकल्प से लट् प्रत्यय होता है)। पृष्टप्रतिवचन = पूछेजाने पर प्रतिकथन = उत्तर देना। परे - VIII. I. 27 नकारपरक (ककार) के परे रहते (पदान्त मकार को विकल्प से नकारादेश होता है)। ...सात... -VI. .74 देखें-नाना VI. 1.74 मुस -VI.1.74 देखें-माया VI. I. 74 नमुलकम् -I. 1.9 (समानप्रकृतिवाले नपुंसक तथा अनपुंसक शब्दों का सहप्रयोग होने पर) नपुंसक शब्द (ही अवशिष्ट रहता है और विकल्प से उसका प्रयोग भी एकवचन में होता है)। नपुंसकम् - II.1.2 नपुंसकलिङ्ग में वर्तमान (अर्ध शब्द एकाधिकरणवाची एकदेशी सुबन्त के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होता है और वह बसुरुष समास होता है)। सुंसकम् - II. iv. 17 जिसको पूर्व में एकवद्भाव कहा है, वह) नपुंसकलिङ्ग वाला होता है। नमुलकम् -II. iv. 30 (अपथ सब्द) नपुंसकलिङ्ग वाला होता है। मुखवस्य-VII. 1.72 (झलन्त तथा अजन्त) नपुंसकलिङ्ग वाले अङ्ग को (सर्वनामस्थान विपक्ति परे रहते नुम् आगम होता है)। पुंसकस्य-VII.1.79 (अभ्यस्त असे उत्तर जो शत प्रत्यय,बदन्त) नपुंसक शब्द को विकल्प से नुम् आगम होता है)। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नपुंसकत् नपुंसकात् - -V. iv. 103 नपुंसकलिङ्ग में वर्तमान (अन्नन्त तथा असन्त तत्पुरुष) से (समासान्त टच् प्रत्यय होता है, वेदविषय में) । नपुंसकात् - V. Iv. 109 नपुंसकलिङ्ग में वर्तमान (अन्नन्त अव्ययीभाव) से (समासान्त टच् प्रत्यय विकल्प से होता है)। नपुंसकात् - -VII. i. 19 नपुंसक अङ्ग से उत्तर (भी औ = औ तथा औट् के स्थान में शी आदेश होता है)। नपुंसकात् - VII. 1. 23 नपुंसकलिङ्ग वाले अङ्ग से उत्तर (सु और अम् का लुक् होता है)। नपुंसके 330 -I. ii. 46 नपुंसकलिङ्ग में वर्तमान (प्रातिपदिक को ह्रस्व हो जाता है) । नपुंसके है)। नपुंसके – III. 1. 114 - नपुंसकलिङ्ग (भाव) में (धातुमात्र से क्त प्रत्यय होता - VI. ii. 98 नपुंसकलिङ्ग वाले समास में (सभा शब्द उत्तरपद रहते पूर्वपद को अन्तोदात्त होता है)। नपुंसके - -VI. ii. 123 नपुंसकलिङ्ग (शालाशब्दान्त तत्पुरुष समास) में (उत्तरपद को आद्युदात्त होता है) । नपुंसके - VII. 1. 14 नपुंसकवाची (तत्पुरुष समास) में (मात्रा, उपज्ञा, उपक्रम तथा छाया शब्द उत्तरपद हों तो पूर्वपद को प्रकृतिस्वर होता है)। ... नप्तृ... - VI. Iv. 11 देखें- अप्तन्तृच् VI. Iv. 11 नम्राट्.. - VI. iit. 74 देखें - नम्राण्नपान् VI. III. 74 नप्राप्नपान्नवेदानासत्यानमुचिनकुलनखनपुंसकनक्षत्रनक्रनाकेषु - VI. iii. 74 नाट् नपात्, नवेदा, नासत्या, नमुचि, नकुल, नख, नपुंसक, नक्षत्र,नक्र, नाक- इन शब्दों में (जो नञ, उसे प्रकृतिभाव हो जाता है।) ... नम... - VII. ii. 73 देखें यमरमनमाताम् VII. ii. 73 नमः... - II. iii. 16 देखें – नमः स्वस्तिस्वाहाo II. 1. 16 नमस्... - III. 1. 19 देखें - नमोवरिवश्चित्रड III. 1. 19 नमस्... -VIII. iii. 40 देखें – नमस्पुरसो VIII. iii. 40 नमस्पुरसोः -VIII. iii. 40 (गतिसञ्ज्ञक) नमस् तथा पुरस् शब्दों के (विसर्जनीय को सकारादेश होता है; कवर्ग, पवर्ग परे रहते) । नम:स्वस्तिस्वाहास्वधालंववड्योगात् – II. iii. 16 नमः, स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा, अलम्, वषट्— इन शब्दों के योग में (भी चतुर्थी विभक्ति होती है)। ... नमाम् - III. 1. 89 देखें - दुहस्नुनमाम् III. 1. 89 नमि... -III. ii. 167 देखें - नमिकम्पि० III. 1. 167 नमिकम्पिस्म्यजसक महिंसदीप: - III. 1. 167 - म कपि, मिङ् नपूर्वक जसु, कमु, हिसि, दीपी इन धातुओं से (वर्तमानकाल में तच्छीलादि कर्ता हो तो र प्रत्यय होता है)। 1 ...नमुचि... -VI. iii. 74 देखें - नानपान VI. III. 74 नमोवरिवश्चित्रड:- 1 - III. i. 19 नमस्, वरिवस्, चित्रड्— इन (कर्मों) से (करोति' अर्थ में क्यच् प्रत्यय होता है)। नरे -VI. iii. 127 नर शब्द उत्तरपद रहते (सञ्ज्ञा-विषय में विश्व शब्द को दीर्घ होता है)। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाला 331 नलोपः -V.I. 124 नशिवहो: -III. iv.43 (षष्ठीसमर्थ स्तेन प्रातिपदिक से भाव तथा कर्म अर्थ में (कर्तावाची जीव तथा पुरुष शब्द उपपद हों तो यत् प्रत्यय होता है तथा) स्तेन शब्द के न का लोप भी यथासङ्ख्य करके) नश तथा वह धातुओं से (णमुल् हो जाता है)। प्रत्यय होता है)। नलोपः-VI. iii. 72 नशे: - VIII. ii. 63 (नज् के) नकार का लोप हो जाता है, (उत्तरपद के परे नश् पद को (विकल्प से कवर्गादेश होता है)। रहते)। नशे: - VIII. iv. 35 नलोपः-VI. iv.23 (षकारान्त) नश् धातु के (नकार को णकारादेश नहीं (श्न से उत्त) नकार का लोप हो जाता है)। होता)। नलोपः-VIII. .2 ...नशो: -VII. 1.60 (सुविधि,स्वरविधि,सज्जाविधि एवं कृत् विषयक तुक् देखें-मस्जिनशोः VII. 1.60 की विधि करने में) नकार का लोप (असिद्ध होता है)। नस-VI. 1. 61 नलोप. - VIII. 1.7 वेदविषय में नासिका शब्द के स्थान में नस् आदेश हो (प्रातिपदिक पद के अन्त के) नकार का लोप होता है)। जाता है, शस् प्रकार वाले प्रत्ययों के परे रहते)। ....नव.. -II.148 नसत.. - VIII. ii. 61 देखें-पूर्वकालैकसर्वजरत II. 1. 48 - देखें - नसत्तनिक्ता० VIII. ii. 61 ....नवति... -V.1.58 नसत्तनिक्तानुत्तप्रतूर्तसूर्तगूर्तानि - VIII. ii. 61 देखें -पंक्तिविंशति० V.i. 58 नसत्त,निषत्त, अनुत्त,प्रतूर्त, सूर्त, गूर्त - ये शब्द (वेदनवण्यः -VII. 1. 16 विषय) में निपातन किये जाते है)। (पूर्व है आदि में जिनके, ऐसे गणपठित) नौ (सर्वनामों) __नसम् - V. iv. 118 से उत्तर (ङसि तथा ङि के स्थान में क्रमशः स्मात् तथा ___ (नासिकाशब्दान्त बहुव्रीहि से समासान्त अच् प्रत्यय स्मिन् आदेश विकल्प से होते है)। होता है, सञ्जाविषय में तथा नासिका शब्द के स्थान में) ....नवम् - VI. 1. 89 नस देश (भी) हो जाता है.(यदि बह नासिका शब्द स्थूल देखें- अमहन्नवम् VI. ii. 89 शब्द से उत्तर न हो तो)। ....नवेदा... - VI. iii. 74 नसह-V.ii. 27 देखें- नमानपात्o VI. ii. 74 (वि तथा नञ् प्रातिपदिकों से) “पृथग्भाव” अर्थ में ...नश... -I. iii. 86 (यथासङ्ख्य करके ना तथा नाज प्रत्यय होते है)। देखें-बुधयुधनशजने I. iii. 86 ..नसौ - VIII. 1. 21 ...नश... -III. II. 163 देखें - वस्नसौ VIII. 1. 21 देखें-इण्नश III. 1. 163 नह - VIII. I. 31 ...नशाम् -VI. iv. 32 नह से युक्त (तिङन्त को प्रत्यारम्भ = पुनरारम्भ होने देखें-जान्तनशाम् VI. iv. 32 पर अनुदात्त नहीं होता। नशि... - III. iv. 43 ...नहः-III. 1. 182 देखें-नशिवहो:-III. iv.43 देखें-दाम्नी III. 1. 182 Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 332 नहः -VIII. 1.34 'णह बन्धने' धातु के (हकार को धकारादेश होता है.झल परे रहते या पदान्त में)। नहि... - VI. iii. 115 देखें-नहिवृतिः VI. iii. 115 नहिवृतिवृषिव्यधिरुचिसहितनिषु - VI. ii. 115 नहि, वृति, वृषि, व्यधि,रुचि,सहि, तनि-इन (क्विपप्रत्ययान्त) शब्दों के उत्तरपद रहते (पूर्व अण को दीर्घ हो जाता है)। ना..-III. iv.62 देखें-नाधार्थप्रत्यये III. iv.62 ना...-V.ii. 27 देखें - नानात्रौ V. ii. 27 ना-VII. iii. 119 (घिसज्जक अङ्ग से उत्तर आङ् = टा के स्थान में) ना आदेश होता है, (स्त्रीलिङ्ग वाले शब्द को छोड़कर)। ...नाकेषु-VI. Iii. 74 देखें-नभ्रानपान VI. iii. 74 ...नाग...-II.i.61 देखें-वृन्दारकनाग० II.i.61. ...नाग... - IV.I. 42 देखें-जानपदण्ड IV.I.42 ...नावी - V. ii. 27 देखें - नानात्रौ v.i.27 ..नाट... - II. iii. 56 देखें-जासिनिग्रह II. ii. 56 ...नाटच्.. - V.ii. 31 देखें -टीटजाटच्. V.ii. 31 नाडी... - III. ii. 30 देखें - नाडीमुष्ट्योः II. ii. 30 नाडी... -V. iv. 159 देखें-नाडीतन्त्र्यो : V.iv. 159 नाडीतन्त्र्योः - V. iv. 159 (स्वाङ्ग में वर्तमान) नाडी शब्दान्त तथा तन्त्री- शब्दान्त (बहुव्रीहि) से (समासान्त कप प्रत्यय नहीं होता है)। नाडीमुष्ट्योः - III. 1. 30 नाडी और मुष्टि (कर्म) उपपद रहते (भी ध्मा तथा धेट धातुओं से खश प्रत्यय होता है)। .. . नात् - VIII. i. 17 नकारान्त शब्द से उत्तर (घसञक को वेद-विषय में नुट् आगम होता है)। नाथः -II. iii. 55 (आशीर्वादार्थक) 'नाथ' धातु के (कर्म कारक में शेष की विवक्षा होने पर षष्ठी विभक्ति होती है) ...नाथयोः - III. ii. 25 देखें-दक्तिनाथयोः III. I. 25 ....नादिभ्यः - IV. 1. 170 देखें - कुरुनादिभ्यः M.i, 170. नाधार्थप्रत्यये-III. iv.62 (व्यर्थ में वर्तमान) 'ना' प्रत्यय 'धा' प्रत्यय अथवा इसके समानार्थक प्रत्ययान्त शब्द उपपद हों तो (कृ,भू धातुओं से क्त्वा और णमुल् प्रत्यय होते हैं)। नानात्रौ-v.ii. 27 (वि तथा नञ् प्रातिपदिकों से 'पृथग् 'भाव' अर्थ में यथासङ्ख्य करके) ना तथा ना प्रत्यय होते हैं। ...नानाभि-II. 1. 32 देखें-पृथग्विनानानाभिः II. iii. 32 नान्तात् - V. ii. 49 (सङ्ख्या आदि में न हो जिसके,ऐसे सङ्ख्यावाची षष्ठीसमर्थ) नकारान्त प्रातिपदिक से (पूरण' अर्थ में 'विहित डट् प्रत्यय को मट् का आगम होता है)। ...नान्दी... -III. ii. 21 देखें-दिवविभा० III. 1. 21 नान्दी = सन्तोष, प्रसन्नता, नाटक के आदि में मङ्गलाचरण। ...नाभि... -VI. iii. 84 देखें-ज्योतिर्जनपदOVI. iii. 84 नाम् – VI. i. 171 (मतुप् प्रत्यय के परे रहते हस्वान्त अन्तोदात्त शब्द से उत्तर) नाम् (विकल्प से उदात्त होता है)। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...नाम... .333 निकटे ...नाम... - IV. iii. 72 नासिकोदरौष्ठज्यादन्तकर्णश्रङ्गात्- IV. 1. 55 देखें - द्वयबाण IV. ill. 72 नासिका,उदर इत्यादि (जो स्वाङ्गवाची उपसर्जन,तदन्त) ...नाम..-VI. II. 187 प्रातिपदिकों से (भी स्त्रीलिङ्ग में विकल्प से ङीष् प्रत्यय देखें- स्फिगपूत VI. ii. 187 होता है,पक्ष में टाप)। ...नाम.. - VI. iii. 84 ...नास्ति... - IV. iv. 60 देखें - ज्योतिर्जनपदO VI. iii. 84 देखें - अस्तिनास्तिदिष्टम् IV. iv.60 नामि - VI. iv.3 नि... -I. iii. 30 नाम् परे रहते (अङ्ग को दीर्घ हो जाता है)। देखें-निसमुपविभ्यः I. ii. 30 नाम्नि-III. iv. 58 ...नि..-1. iv. 46 द्वितीयान्त) नाम शब्द उपपद रहते (आङ् पूर्वक दिश् देखें - अभिनिविशः I. iv. 46 तथा ग्रह धातु से णमुल् प्रत्यय होता है)। ...नि... - III. iii. 63 नाव: -V. iv.99 देखें-समुप III. iii. 63 नो शब्द अन्तवाले (द्विगुसज्ञक तत्पुरुष) से (समासान्त न _man टच् प्रत्यय होता है)। देखें- न्यभ्युपविषु II. iii. 72 .....नावी -- VIII. 1. 20 नि... - VI. II. 181 देखें - वान्नावौ VIII. 1. 20 देखें-निविभ्याम् VI. ii. 181 ...नासत्या... -VI. iii.74 ...नि... - VII. ii. 24 देखें-नानापनपात VI. iii.74 देखें - सन्निविभ्यः VII. II. 24 नासिका... - III. ii. 29 .. -VIII. iii.70 देखें - नासिकास्तनयोः III. ii. 29 देखें- परिनिविण्यः VIII. ill. 70 नासिका -IV.i.55 ...नि... - VIII. iii.76 देखें - नासिकोदरौष्ठ IV. 1.55 देखें-निनिविष्य VIII. iii.76 नासिकायाः-v.ii. 31 नि... - VIII. iii. 89 (अव प्रातिपदिक से) नासिकासम्बन्धी (झुकाव को कहना हो तो सञ्जाविषय में टीटच, नाटच् तथा भ्रटच् देखें - निनदीभ्याम् VIII. iii. 89 प्रत्यय होते हैं)। नि... - VIII. ii. 119 नासिकायाः -V. iv. 118 देखें-निव्यभिभ्यः VIII. ii. 119 नासिकाशब्दान्त (बहुव्रीहि) से (समासान्त अच् प्रत्यय नि: -III. 1.89 होता है.समाविषय में तथा नासिका शब्द के स्थान में (लोडादेश जो मिप, उसके स्थान में) नि आदेश हो नस आदेश भी हो जाता है,यदि वह नासिका शब्द स्थूल जाता है। शब्द से उत्तर न हो तो)। नासिकास्तनयोः -III. ii. 29 निकटे-IV.iv.73 नासिका तथा स्तन (कर्म) उपपद रहते (ध्मा तथा घेट् । (सप्तमीसमर्थ) निकट प्रातिपदिक से (बसता है' अर्थ ' धातुओं से खश् प्रत्यय होता है)। में ठक् प्रत्यय होता है)। Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...निकाययोः 334 ...निकाययो: -VI. 1.94 निष-III. 1.87 देखें-गिरिनिकाययो: VI. 1.94 (सब प्रकार से बराबर (निमित्त) अभिधेय हो तो) नि ...निकाय्य..-III. 1. 129 पूर्वक हन् धातु से अप्प्रत्यय टि भाग का लोप तथा घन देखें- पाय्यसान्नाव्य III. 1. 129 आदेश निपातन करके निष शब्द सिद्ध करते हैं। ...निक्ष..-VIII. iv.32 निष = समारोह, परिणाह। देखें- निसनिक्षनिन्दाम् VII. iv. 32 निक-v.in. 134 निक्ष = चुम्बन। (जायाशब्दान्त बहुव्रीहि को समासान्त) निङ् आदेश ...निगमाः -III. iii. 119 होता है। देखें-गोचरसार III. 1. 119 निजाम् - VII. iv.75 निगमे -VI. 1. 112 णिजिर् इत्यादि (तीन) धातुओं के (अभ्यास को श्लु (साढ्यै,साढ्वा तथा साढा- ये शब्द) वेद में (निपातन न होने पर गुण होता है)। किये जाते हैं)। निति - VI. ii. 50 निगमे-VI.v.9 (तुन को छोड़कर तकारादि एवं) नकार इत्सजक (कृत) वेद-विषय में (नकारान्त अङ्ग के उपधाभूत षकार है पूर्व के परे रहते (भी अव्यवहित पूर्वपद गति संज्ञक को प्रकृमें जिससे, ऐसे अच् को सम्बुद्धि-भिन्न सर्वनामस्थान के तिस्वर होता है)। परे रहते विकल्प से दीर्घ होता है)। नित्य... - VIII. 1.4 निगमे - III. 1. 64 देखें – नित्यवीप्सयोः VIII. .4 (बभूथ, आततन्थ, जगृभ्म, ववर्थ - ये शब्द थल् परे नित्यम् - 1. ii. 63 रहते निपातन किये जाते हैं) वेद-विषय में। (तिष्य तथा पुनर्वसु शब्दों के नक्षत्रविषयक द्वन्द्वसमास निगमे - VII. iii. 81 में बहुवचन के स्थान में) नित्य ही द्विवचन हो जाता है)। (मीज् हिंसायाम्' अङ्ग को शित् प्रत्यय परे रहते) वेद- नित्यम् - I. 1. 72 विषय में (हस्व होता है)। (त्यदादि शब्दरूप सबके साथ अर्थात् त्यदादियों के निगमे - VII. iv.74 साथ या त्यदादि से अन्यों के साथ भी) नित्य ही (शेष (ससूव- यह शब्द) वेदविषय में (निपातन किया जाता रह जाते हैं, अन्य हट जाते है)। नित्यम् - I. iv.76 निगरण.. - I. ii. 87 " (हस्ते तथा पाणौ शब्द की विवाह-विषय में कृञ् के देखें-निगरणचलनार्थेभ्यI. 1.87 योग में) नित्य ही (गति और निपात संज्ञा होती है)। निगरण = खाना,निगलना। नित्यम् -II. ii. 17 निगरणचलनार्थेभ्यः -I. iii. 86 (क्रीडा और जीविका अर्थ में षष्ठ्यन्त सुबन्त अक् निगलने अर्थ वाले एवं चलन अर्थ वाले (ण्यन्त) धातु- अन्तवाले सुबन्त के साथ) नित्य ही ( समास को प्राप्त ओं से (भी परस्मैपद होता है)। होता है और वह तत्पुरुष समास होता है)। निगृह्य-VIII. 1. 94 नित्यम् -III.1.23 निग्रह करने के पश्चात् (अनुयोग में वर्तमान जो वाक्य, 'नित्य ही (गति अर्थ वाली धातुओं से कुटिलता गम्यउसकी टि को भी विकल्प से प्लुत होता है)। . मान होने पर 'यङ्' प्रत्यय होता है)। . Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नित्यम् 'विशेष: 'नित्यम्' का ग्रहण विषय के नियम के लिये है कि गत्यर्थकों से नित्य ही कुटिल अर्थ में होवे, क्रिया के समभिहार में नहीं । नित्यम् - III. 1. 66 (परिमाण गम्यमान होने पर पण् धातु से) नित्य ही (कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में विकल्प से अप् प्रत्यय होता है, पक्ष में घञ्) । नित्यम् - III. Iv. 99 (ङित् लकार-सम्बन्धी उत्तम पुरुष के सकार का) नित्य (लोप हो जाता है)। नित्यम् - -IV. i.29 (अन्नन्त उपधालोपी बहुव्रीहि समास में संज्ञा तथा छन्द विषय में) नित्य ही (स्त्रीलिङ्ग में ङीप् प्रत्यय होता है) । नित्यम् - IV. 1. 35 (सपल्यादियों में जो पति शब्द, उसको ङीप् प्रत्यय तथा नकारादेश स्त्रीलिङ्ग में ) नित्य ही हो जाता है। नित्यम् - IV. 1.46 (बह्लादि अनुपसर्जन प्रातिपदिकों से वेद-विषय में) नित्य ही (स्त्रीलिङ्ग में ङीष् प्रत्यय होता है)। नित्यम् - IV ill. 142 (भक्ष्य और आच्छादनवर्जित विकार और अवयव अर्थों में षष्ठीसमर्थ वृद्धसंज्ञक तथा शरादि प्रातिपदिकों से लौकिक प्रयोगविषय में) नित्य ही ( मयट् प्रत्यय होता है। नित्यम् : - IV. Iv. 20 (तृतीयासमर्थ क्त्रिप्रत्ययान्त प्रातिपदिक से निर्वृत्त अर्थ में) नित्यं ही (मप् प्रत्यय होता है)। नित्यम् - V. 1. 63 (द्वितीयासमर्थ छेदादि प्रातिपदिकों से) 'नित्य ही समर्थ हैं' (अर्थ में यथाविहित ठक् प्रत्यय होता है)। नित्यम् -V. i. 75 (द्वितीयासमर्थ पथिन् प्रातिपदिक से) 'नित्य ही (जाता है) अर्थ में (ण प्रत्यय होता है तथा उस प्रत्यय के सन्नियोग से पथिन् को पन्थ आदेश हो जाता है)। नित्यम् - V. 1. 88 (चित्तवान् = चेतन प्रत्ययार्थ अभिधेय होने पर द्वितीयासमर्थ वर्षशब्दान्त द्विगुसच्छक प्रातिपदिकों से 'सत्का 335 नित्यम् रपूर्वक व्यापार' 'खरीदा हुआ' 'हो चुका' तथा 'होने वाला' - इन अर्थों में उत्पन्न प्रत्यय का) नित्य ही (लुक् होता है। नित्यम् - V. II. 44 (प्रथमासमर्थ उभ प्रातिपदिक से उत्तर षष्ठ्यर्थ में) नित्य ही (तयप् के स्थान में अग्रच् आदेश होता है और वह अयच् आद्युदात्त होता है)। नित्यम् - V. 1. 57 (षष्ठीसमर्थ शतादि प्रातिपदिकों से तथा मास, अर्द्धमास और संवत्सर प्रातिपदिकों से 'पूरण' अर्थ में विहित डट् प्रत्यय को तमट् का आगम) नित्य ही हो जाता है। नित्यम् - V. ii. 118 (एक शब्द जिसके पूर्व में हो तथा गो शब्द जिसके पूर्व में हो, ऐसे प्रातिपदिक से 'मत्वर्थ' में) नित्य ही (ठञ् प्रत्यय होता है)। नित्यम् - V. Iv. 122 (नञ, दुस् तथा सु शब्दों से उत्तर जो प्रजा और मेघा शब्द, तदन्त बहुव्रीहि से) नित्य ही (समासान्त असिच् प्रत्यय होता है। नित्यम् - VI. 1. 56 (हेतु जहाँ भय का कारण हो, उस अर्थ में वर्त्तमान ष्मिङ् धातु के एच के स्थान में णिच् परे रहते) नित्य ही (आत्व हो जाता है)। नित्यम् - VI. 1. 121 (प्लुत तथा प्रगृह्य सञ्ज्ञक शब्द अच् परे रहते) नित्य ही ( प्रकृतिभाव से रहते है) । नित्यम् - VI. 1. 191 (कार इत्सञ्ज्ञक तथा नकार इत्संज्ञक प्रत्ययों के परे रहते) नित्य ही (आदि को उदात्त होता है)। नित्यम् - VI. 1. 204 (जुष्ट तथा अर्पित शब्दों को मन्त्रविषय में) नित्य ही (आद्युदात्त होता है)। नित्यम् - VI. iv. 108 (वकारादि, मकारादि प्रत्यय परे रहते कृ अङ्ग से उत्तर उकार प्रत्यय का) नित्य ही (लोप हो जाता है)। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नित्यम् नित्यम् - VII. 1. 81 (शप् तथा श्यन् का जो शतृ प्रत्यय, उसको) नित्य ही (नुम् का आगम होता है)। नित्यम् - VII. ii. 61 (उपदेश में जो अजन्त धातु, तास के परे रहते) नित्य (अनि, उससे उत्तर तास् के समान ही थल् को इट् आगम नहीं होता। 336 नित्यम् - VII. iv. 8 (वेद-विषय में चङ्परक णि परे रहते उपधा ॠवर्ण के स्थान में) नित्य ही (ऋकारादेश होता है)। नित्यम् - VIII. 1. 66 (यत् शब्द से घटित पद से उत्तर तिङन्त को) नित्य: (अनुदात्त नहीं होता। नित्यम् - VIII. iii. 3 (अट् परे रहते रु से पूर्व आकार को) नित्य ही (अनुनासिक आदेश होता है)। नित्यम् I-VIII. iii. 32 (ह्रस्व पद से उत्तर जो डम्, तदन्त पद से उत्तर अच् नित्य ही (मुट् आगम होता है) । नित्यम् - VIII. iii. 45 (अनुत्तरपदस्थ इस्, उस् के विसर्जनीय को समासविषय में नित्य ही षत्व होता है, कवर्ग अथवा पवर्ग परे रहते) । नित्यम् - VIII. iii. 77 (वि उपसर्ग से उत्तर स्कन्भु धातु के सकार को) नित्य (मूर्धन्यादेश होता है)। नित्यवीप्सयो: - VIII. i. 4 नित्यता एवं वीप्सा अर्थ में (जो शब्द, उस सम्पूर्ण शब्द को द्वित्व होता है) । परिव्याप्ति, निरन्तरता प्रकट करने के लिये वीप्सा द्विरुक्ति । = नित्याबहूच् - VI. 1. 138 (शिति शब्द से उत्तर) नित्य ही जो अबह्वच् उत्तरपद, उसको बहुव्रीहि समास में प्रकृतिस्वर होता है, भसत् शब्द को छोड़कर) । निपाता: नित्यार्थे - VI. ii. 61 ( क्तान्त उत्तरपद रहते) नित्य अर्थ है जिसका, ऐसे समास में (विकल्प से पूर्वपद को प्रकृतिस्वर होता है)। .....निद्रा... - III. ii. 158 देखें - स्पृहिगृहि० III. ii. 158 निन्द... - III. ii. 146 देखें - निन्दहिंस० III. 1. 146 ...fafa-VI. i. 191 देखें – निति VI. 1. 191 निन्दहिंसक्लिशखादविनाशपरिक्षिपपरिरटपरिवादिव्याभ वासूयः - III. ii. 146 णिदि कुत्सायाम्, हिसि हिंसायाम्, क्लिशू विबाधने, खादृ भक्षणे, विपूर्वक ण्यन्त णश अदर्शने, परिपूर्वक क्षिप, परिपूर्वक रट, परिपूर्वक ण्यन्त वद, वि आङ् पूर्वक भाष व्यक्तायां वाचि, असूय् - इन धातुओं से ( तच्छीलादि कर्त्ता हों तो वर्तमानकाल में वुञ् प्रत्यय होता है) । निनदीभ्याम् - VIII. iii. 89. नि तथा नदी शब्द से उत्तर (ष्णा शौचे' धातु के संकार को कुशलता गम्यमान हो तो मूर्धन्य आदेश होता है)। ... निन्दाम् - VIII. iv. 32 देखें - निसनिनिन्दाम् VIII. iv. 32 ... निफ्त... - III. iii. 99 देखें - समजo III. iii. 99 निपातस्य -VI. iii. 135 (ऋचा विषय में) निपात को (भी दीर्घ हो जाता है)। निपातः - I. 1. 14 (केवल जो एक ही अच्) निपात (है, उसकी प्रगृह्य संज्ञा होती है, आङ् को छोड़कर) । ... निपातम् - I. 1. 36 देखें - स्वरादिनिपातम् I. 1. 36 ... निपातयोः - III. iii. 4 देखें - यावत्पुरानिपातयोः III. iii. 4 निपाता: - 1. iv. 56 ( अधिरीश्वरे I. iv. 96 सूत्र से पहले-पहले निपात संज्ञा का अधिकार जाता है) । Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निपातः 337 ...निराकृञ्... निपातः - VIII. 1. 30 नियः -I. ill. 36 (यत्, यदि, हन्त, कुवित्, नेत्, चेत्, चण, कच्चित्, यत्र- (सम्मान, उत्सजन, आचार्यकरण, ज्ञान, विगणन, व्यय इन) निपातों से युक्त (तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता)। इन अर्थों में वर्तमान) णीज् धातु से (आत्मनेपद होता है)। निपानम् - III. iii. 74 निय - III. ii. 26 निपान (जलाधार) अभिधेय हो, तो आङ् पूर्वक हेञ् (अव तथा उद् पूर्वक) नी धातु से (कर्तृभिन्न कारक धातु से अप् प्रत्यय, सम्प्रसारण, वृद्धि भी निपातन से संज्ञा तथा भाव में घज प्रत्यय होता है)। करके आहाव शब्द सिद्ध करते हैं,कर्तृभिन्न कारक संज्ञा नियुक्त - IV. iv. 69 विषय में)। (सप्तमीसमर्थ प्रातिपदिक से) 'नियुक्त' अर्थ में (ढक ...निपुण... - II. 1. 30 प्रत्यय होता है)। देखें-पूर्वसदृशसमो० II. 1. 30 नियुक्तम् -IV. iv.66 ....निपुणानाम्-VII. iii. 30 देखें- शुचीश्वर VII. iii. 30 (प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से 'इसके लिये) नियमपूर्वक ... निपुणाभ्याम्-II. iii. 43 (दिया जाता है' विषय में ढक् प्रत्यय होता है)। देखें-साधुनिपुणाभ्याम् II. iii. 43 नियुक्ते - VI. ii. 79. ...निग्रहण.. - II. iii. 56 (अणन्त शब्द के उत्तरपद रहते) नियुक्त = धारण देखें-जासिनिग्रहण: II. 1. 56 करना,तद्वाची समास में (पूर्वपद को आधुदात्त होता है)। निप्रहण = चोट लगाना, नष्ट करना। ...नियोज्यौ - VII. II. 68 ..निभ्यः - VIII. iii. 72 देखें -प्रयोज्यनियोज्यौ VII. iii. 68 देखें-अनुविपर्यभिO VIII. iii. 72 निर्.. - III. iii. 28 ....निमन्त्रण... -III. iii. 161 देखें -विधिनिमन्त्रण III. iii. 161 देखें-निरभ्योः III. 1. 28 निमाने - V. 1.47 ...निर् -VIII. iii. 88 । (प्रथमासमर्थ सङ्ख्यावाची प्रातिपदिकों से 'इस भाग देखें - सुविनिर्दुW: VIII. iii. 88 का यह) मूल्य अर्थ में (मयट प्रत्यय होता है)। ...निर्... - VIII. iv.5 निमितम् -III. iii. 87 . देखें -प्रनिरन्तः VIII. iv. 5 'सब ओर से बराबर (निमित) अभिधेय (हो तो नि पूर्वक हन् धातु से अप्प्रत्यय,टि भाग का लोप तथा घ आदेश निरः - VII. ii. 46 निपातन करके निघ शब्द सिद्ध करते है)। निर् पूर्वक (कुषः अङ्ग से उत्तर वलादि आर्धधातुक को निमित्तम् -V.i.37 विकल्प से इट् आगम होता है)। (षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिकों से) निमित्त = 'कारण' अर्थ में । निरभ्योः -III. iii. 28 (यथाविहित प्रत्यय होते हैं, यदि वह कारण संयोग वा उत्पात हो तो)। निर्,अभि पूर्वक (क्रमशः पु एवं लू धातुओं से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है)। निमूल... - III. iv. 34 देखें - निमूलसमूलयोः III. iv. 34 ....निराकृत... - III. II. 136 निमूलसमूलयोः - III. iv. 34 देखें - अलंकृनिराकृञ् III. ii. 136 निमूल तथा समूल कर्म उपपद रहते (कष् धातु से णमुल् निराकृञ् = मना करना, प्रतिवाद करना, अस्वीकार ' प्रत्यय होता है)। करना। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुदकादीनि निरुदकादीनि - VI. 1. 184 निरुदकादि गणपठित शब्दों को ( भी अन्तोदात्त होता है)। निर्दिष्ट – 1.1.65 (सप्तमीविभक्ति से) निर्दिष्ट शब्द से (अव्यवहित पूर्व को ही कार्य होता है)। निर्धारणम् – II. iii. 41 निर्धारण अर्थात् जाति, गुण या क्रिया के द्वारा समुदाय से एक देश का पृथक्करण जिससे हो, उसमें भी षष्ठी और सप्तमी विभक्ति होती है) । निर्धारणे - II. ii. 10 जाति, गुण व क्रिया के द्वारा समुदाय से एकदेश के पृथक्करण अर्थ में (विद्यमान षष्ठ्यन्त सुबन्त का समर्थ सुबन्त के साथ समास नहीं होता) । निर्धारणे -V. iii. 92 (किम्, यत् तथा तत् प्रातिपदिकों से 'दो में से एक का) पृथक्करण' अर्थ में (डतरच् प्रत्यय होता है) । निर्निविभ्यः - VIII. iii. 76 निर, नि, वि उपसर्ग से उत्तर (स्फुरति तथा स्फुलति के सकार को विकल्प से मूर्धन्य आदेश होता है ) । निर्मिते - IV. iv. 93 (तृतीयासमर्थ छन्दस् प्रातिपदिक से) 'बनाया हुआ' अर्थ में (यत् प्रत्यय होता है)। निर्वाण: - VIII. ii. 50 (निस् पूर्वक वा धातु से उत्तर निष्ठा के तकार को नकार आदेश करके) निर्वाण शब्द (वायु अभिधेय न होने पर निपातित है ) । निर्वृत्तम् - IV. 1. 67 (तृतीयासमर्थ प्रातिपदिकों से) 'बनाया गया' अर्थ में ( यथाविहित प्रत्यय होता है, यदि उस शब्द से देश का नाम गम्यमान हो) । 338 निर्वृत्तम् - V. 1. 78 (तृतीयासमर्थ कालवाची प्रातिपदिक से) 'बनाया हुआ' अर्थ में (यथाविहित कञ् प्रत्यय होता है)। निविभ्याम् निर्वृत्ते - IV. iv. 19 (तृतीयासमर्थ अक्षद्यूतादिगणपठित प्रातिपदिकों से) 'उत्पन्न किया गया' अर्थ में ( ठक् प्रत्यय होता है)। निक्चने - I. iv. 75 (मध्य, पदे तथा निवचने शब्द (भी कृञ् के योग में विकल्प से गति और निपातसंज्ञक होते हैं)। निवाते - VI. ii. 8 (वातत्राणवाची तत्पुरुष समास में) निवात शब्द उत्तरपद रहते (पूर्वपद को प्रकृतिस्वर होता है) । निवात वायु से सुरक्षित । = ... निवास... - III. 1. 129 देखें - मानहविः III. 1. 129 निवास... - III. iii. 41 देखें - निवासचिति० III. iii. 41 निवास: -IV. ii. 68 (षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिकों से) निवास अर्थ में (देश का नाम गम्यमान होने पर यथाविहित प्रत्यय होता है) निवास: - IV. iii. 89 (प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है, यदि प्रथमासमर्थ) निवास हो तो । निवास: -IV. iii. 89 (प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है, यदि प्रथमासमर्थ) निवास हो तो । निवासचितिशरीरोपसमाधांनेषु - III. iii. 41 निवास, चिति जो चयन किया जाये, शरीर और राशि अर्थों में (चिञ् धातु से घञ् प्रत्यय होता है तथा चित्र के आदि चकार को ककारादेश हो जाता है) कर्तृभिन्न कारकसंज्ञा तथा भाव में)। = निवासे - VI. i. 195 (क्षय शब्द आद्युदात्त होता है) निवास अभिधेय होने पर । निविभ्याम् - VI. 1. 181 नि तथा वि उपसर्ग से उत्तर (अन्त शब्द को अन्तोदात्त नहीं होता) । Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निव्यभिभ्यः निव्यभिभ्यः - VIII. ii. 119 निवि तथा अभि उपसर्गों से उत्तर (सकार को अट् का व्यवधान होने पर वेद - विषय में विकल्प से मूर्धन्य आदेश नहीं होता। निश् - VI. 1. 61 (वेदविषय में निशा शब्द के स्थान में) निश् आदेश हो जाता है, (शस् प्रकार वाले प्रत्ययों के परे रहते)। ... निशा - III. II. 21 देखें - दिवाविभा III. ii. 21 निशा... - IV. iii. 14 देखें - निशाप्रदोषाभ्याम् IV. iff. 14 ... निशानाम् - II. Iv. 25 देखें - सेनासुराच्छाया० II. Iv. 25 निशाप्रदोषाभ्याम् - IV. ill. 14. निशा, प्रदोष (कालविशेषवाची) शब्दों से (भी विकल्प से ढञ् प्रत्यय होता है)। ....निश्चि... - III. iii. 58 देखें - ग्रहवृह० III iii. 58 ... निश्रेयस... - V. iv. 77 देखें - अचतुर V. Iv. 77 ... निक्त... - VIII. it. 61 देखें निषत्त = बैठा हुआ । - नसत्तनिक्तo VIII. 1. 61 ... निषद... - III. iii. 99 देखें - समजनिषद० III. iii. 99 निष्कात् - V. 1.30 (द्वि तथा त्रिशब्द पूर्ववाले) निष्कशब्दान्त द्विगुसञ्चक प्रातिपदिक से (तदर्हति'- पर्यन्त कथित अर्थों में उत्पन्न • प्रत्यय का विकल्प से लुक् होता है)। निष्कात् - Vii. 119 (शत शब्द अन्तवाले तथा सहस्र शब्द अन्त वाले) निष्क प्रातिपदिक से (भी 'मत्वर्थ' में ठञ् प्रत्यय होता है)। निष्कादिभ्यः (समास में वर्तमान न होने पर) निष्कादिक प्रातिपदिक से (तदर्हति' - पर्यन्त कथित अर्थों में ठक् प्रत्यय होता है)। - V. i. 20 339 निष्कुलात् - Viv. 62 ( अन्दर स्थित अवयवों के बाहर निकालने' अर्थ में वर्तमान) निष्कुल प्रातिपदिक से (कृञ् के योग में डाच् प्रत्यय होता है)। निष्कोषणे - V. iv. 62 अन्दर स्थित अवयवों के बाहर निकालने अर्थ में वर्तमान (निष्कुल प्रातिपदिक से कृञ् के योग में डाच् प्रत्यय होता है)। निष्टव... - III. i. 123 निष्ठा... देखें - निष्टर्यदेवहूय III. 1. 123 ... निष्ठयोः - VII. ii. 50 देखें - क्त्वानिष्ठयोः VII. ii. 50 निष्ठा - I. 1. 25 (क्त और क्तवतु प्रत्ययों की) निष्ठा सञ्ज्ञा होती है)। frost-I. ii. 19 (शीङ्, स्विद्, मिद्, विद् तथा घृष् धातुओं से परे सेट) निष्ठा = क्त तथा क्तवतु प्रत्यय ( कित् नहीं होता) । निष्ठा - II. 1. 36 निष्ठान्त शब्दरूप (बहुव्रीहि समास में पूर्व में प्रयुक्त होता है)। ... . निष्ठा... - II. iii. 69. देखें - लोकाव्ययनिष्ठा० II. III. 69 निष्ठा - III. 1. 102 (धातुमात्र से भूतकाल में) निष्ठासंज्ञक प्रत्यय होते हैं। निष्ठा - VI. 1. 199 (दो अचों वाले) निष्ठान्त शब्दों के (भी आदि को उदात्त होता है; सञ्ज्ञाविषय में, आकार को छोड़कर) । निष्ठा - VI. 1. 110 = क्त, (बहुव्रीहि समास में उपसर्ग पूर्व वाले) निष्ठान्त पूर्वपद को (विकल्प से अन्तोदात्त होता है)। निष्ठा... -VI. ii. 169 देखें - निष्ठोपमानात् VI. 1. 169 Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निष्ठातः 340 निष्ठातः -VIII. I. 42 (रेफ तथा दकार से उत्तर) निष्ठा के तकार को (नकारा- देश होता है तथा निष्ठा के तकार से पूर्व के दकार को भी नकारादेश होता है)। निष्ठायाम् - VI. 1. 12 (स्फायी धातु को) निष्ठा = क्त और क्तवतु प्रत्यय के परे रहते (स्फी आदेश हो जाता है)। निष्ठायाम् -VI. iv. 52 (सेट) निष्ठा परे रहते णि का लो निष्ठायाम् -VI. 1.60 (ण्यत् के अर्थ से भिन्न अर्थ में वर्तमान) निष्ठा के परे रहते (क्षि अङ्गको दीर्घ हो जाता है)। निष्ठायाम् -VI. iv.95 " (हलादि अङ्ग की उपधा को) निष्ठा परे रहते (हस्व हो जाता है)। निष्ठायाम् -VII. 1. 14 (टओश्वि तथा ईकार इत्सजक धातुओं को) निष्ठा परे रहते (इट् आगम नहीं होता)। निष्ठायाम् - VII. ii.. 47 (निर पूर्वक कुष् से उत्तर) निष्ठा को (इट् आगम होता निसः -VIII. 1. 102 निस् के (स को तपति परे रहते अनासेवन अर्थ में मूर्धन्य आदेश होता है)। निसमुपविष्य -1. iii. 30 नि, सम्, उप एवं वि उपसर्ग से उत्तर (हे धातु से आत्मनेपद होता है)। ....निस्तब्यौ - VIII. III. 114 देखें-प्रतिस्तव्यनिस्तब्यौ VIII. III. 114 निस्तब्ध = सुन्न हुआ, रोका हुआ, अच्छी तरह जोड़ना। निस... -VIII. iv. 32 देखें-निसनिक्षनिन्दाम् VIII. iv. 32 ... निसनिक्षानिन्दाम् - VIII. iv. 32 (उपसर्ग में स्थित निमित्त से उत्तर) निस,निक्ष तथा निन्द् धात के (नकार को विकल्प से णकारादेश होता है,कृत परे रहते)। ...नी... - III. II. 61 देखें- सत्सू० III. 1. 61 ...नी... - III. I. 182 देखें-दाम्नी III. 1. 182 . नी...-III. 1.37 · देखें - परिन्योः III. 1. 37 नीक् - VII. N.84 (वयु, संसु, ध्वंसु, अंशु, कस, पलं, पद, स्कन्दिर इन धातुओं के अभ्यास को यङ्तथा यङ्लक परे रहते) नीक आगम होता है)। नीचैः-I.ii. 30 नीचे भागों से उच्चरित(अच की अनुदात्त संज्ञा होती है)। नीणोः - III. iii. 37 (परि तथा नि उपपद रहते हुए यथासंख्य) नी तथा इण धातुओं से (कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में छूत तथा उचित आचरण के विषय में घञ्प्रत्यय होता है)। नीती-V. 1.77 'नीति' गम्यमान हो तो (भी उस अनुकम्पा से सम्बद्ध प्रातिपदिक से तथा तिङन्त से यथाविहित प्रत्यय होते हैं)। निष्ठोपमानात् - VI. II. 169 (बहुव्रीहि समास में) निष्ठान्त तथा उपमानवाची से उत्तर (स्वाङ्गमुख शब्द उत्तरपद को विकल्प से अन्तोदात्त होता ...निष्पत्रात् - V. iv. 61 देखें - सपत्रनिष्पत्रात् V.iv.61 निकावाणि: -V.iv.60 निष्पवाणि शब्द को भी कप का अभाव निपातन किया जाता है। निष्पवाणि = खड्डी से तुरन्त निकाला हुआ नया कपड़ा। निस्... - VIII. Iii. 76 देखें-निर्निविश्य VIII. 1.76 Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...नीभ्यः 341 ...नीभ्यः -VII. I. 116 देखें-नद्याम्नीभ्य: VII. I. 116 ...नील... - V.I. 42 देखें-जानपदकुण्ड IV.I. 42 नील-गहरा नीला रङ्ग। ...नु... -VI. 1. 132 देखें- तुनुघमा० VI. II. 132 नु = तुरन्त। नुक्-V.1.32 (अन्तर्वत,पतिवत् शब्दों से स्त्रीलिङ्ग में डीपप्रत्यय होता है तथा) डीप के साथ-साथ नुक् आगम भी हो जाता है। नुक्... -VII. iii. 39 देखें- नुम्लुको VII. lil. 39 नुक् - VII. iv. 85 (अनुनासिकान्त अङ्ग के अकारान्त अभ्यास को) नुक आगम होता है, (यङ् तथा यङ्लुक् परे रहते)। नुम्लुको-VII. III. 39 ' (ली तथा ला अङ्गको स्नेह = घृतादि पदार्थ के पिघ लना अर्थ में णि परे रहते विकल्प से क्रमश:) नुक तथा लुक् आगम होते हैं। नु - VI. iii. 73 . .. (उस लुप्त नकार वाले नञ् से उत्तर) नुट् का आगम होता है, (अजादि शब्द के उत्तरपद रहते)। नु -VII. 1.54 (हस्वान्त, नद्यन्त तथा आप् अन्तवाले आङ्ग से उत्तर आम् को) नुट् का आगम होता है। नुट्-VII. ii. 16 (वेद-विषय में अन् अन्तवाले शब्द से उत्तर मतप को) नुट् आगम होता है)। नुट् -VII. iv.71 . (अभ्यास के दीर्घ किये हुये आकार से उत्तर हल् वाले अङ्ग को) नुट् आगम होता है। ...तुझ्याम् – VI. 1. 170 देखें - हस्वनुभ्याम् VI. 1. 170 नुद.. - VIII. 1. 56 देखें - नुदविदोन्द० VIII. II. 56 नुदविदोन्दवानाहीभ्यः VIII. II. 56 नुद, विद, उन्दी, त्रैङ्, घा, ही- इन धातुओं से उत्तर निष्ठा के तकार को (विकल्प से नकारादेश होता है)। नुम् - VII. I. 58 (इकार इत्सज्जक है. जिसका, ऐसे धातु को) नुम् का आगम होता है)। नुम् - VII. 1. 80 (अवर्णान्त अङ्ग से उत्तर शी तथा नदी परे रहते शत्र प्रत्यय को विकल्प से) नुम् आगम होता हैं। नुम्... -VIII. iii. 58 देखें- नुम्विसर्जनीय. VIII. iii. 58 ....नम्... - VIII. iv.2 देखें - प्रतिपदिकान्तनम VIII. iv. 11 नुम्विसर्जनीयशळवाये -VIII. I. 58 नुम, विसर्जनीय तथा शर् प्रत्याहार का व्यवधान होने पर (भी इण तथा कवर्ग से उत्तरसकार को मूर्धन्य आदेश होता है)। ...नुम्व्य वाये- VIII. iv.2 देखें- अकुप्वाइO VIII. iv.2 7 VI. 1. 178 न से परे (भी झलादि विभक्ति विकल्प से उदात्त नहीं होती)। नृ-VI. iv.6.. नृ अङ्ग को (भी नाम् परे रहते वेदविषय में दोनों प्रकार से अर्थात् दीर्घ एवं अदीर्घ देखा जाता है)। ...नृतः -VII. ii. 57 देखें-कृतवृत. VII. 1.57 ...नृति... - I. ii. 89 देखें- पादम्यायमाझ्यस I. I.89 नृन् -VIII. III. 10 नृन् शब्द के (नकार को प परे रहते रु होता है)। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 342 ने-VIII. 1.3 ...नेषु - VII. III. 54 ना परे रहते (मुभाव असिद्ध नहीं होता)। -णिन्ने VII.11.54 ... . ने-I. iii. 17 ...नेष्ट... - VI. iv. 11 नि उपसर्ग से उत्तर (विम् धातु से आत्मनेपद होता है)। देखें - अप्तृन्त VI. in.11 . ने: - V. 1. 32 नोपधात् -I. 1. 23 नि उपसर्ग प्रातिपदिक से (नासिकासम्बन्धी झुकाव को (थकारान्त एवं फकारान्त) नकारोपध धातुओं से परे (जो कहना हो तो समाविषय में बिडच् तथा बिरीसच् प्रत्यय सेट कत्वा प्रत्यय,वह विकल्प करके कित नहीं होता है)। होते है)। नौ - III. ii. 48 ने: - VI. 1. 192 नि पूर्वक (वृ धातु से धान्यविशेष को कहना हो तो नि उपसर्ग से उत्तर (उत्तरपद को अन्तोदात्त होता है, कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में घञ्प्रत्यय होता है)। अप्रधान अर्थ में)। नौ-III. III.60 ने: - VIII. iv. 17 नि पूर्वक (अद् धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव। (उपसर्ग में स्थित निमित्त से उत्तर) नि के (नकार को में ण प्रत्यय भी होता है तथा अप् भी)। णकार आदेश होता है; गद, नद, पत, पद, घुसज्ञक,मा, नौ-III.LA . .. षो,हन,या,वा,द्रा,प्सा,वप,वह,शम,चि एवं दिह धातुओं के परे रहते भी)। नि पूर्वक (गद, नद,पठ तथा स्वन् धातुओं से विकल्प : से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में अप् प्रत्यय होता ...नेत्.. - VIII. 1. 30 है, पक्ष में घञ् होता है)। देखें - यद्यदि० VIII. 1. 30 नौ... - IV. 1.7 नेद... - V. 11.63 देखें-नौपच IV. iv.7 देखें- नेदसाधौ v. ii. 63 नौ... -IV.IN.91 नेदसाधौ-v.ii.3 देखें-नौवयोधर्मः M.iv.91 (अन्तिक तथा बाढ शब्दों को यथासङ्ख्य करके) नेद तथा साध आदेश होते हैं.(अजादि अर्थात इच्छन.ईयसन नाच-IN..7 प्रत्यय परे रहते)। (तृतीयासमर्थ) नौ तथा दो अच् वाले प्रातिपदिकों से ...नेदीयस्सु - VI. 1.21 (तरति' अर्थ में ठन् प्रत्यय होता है)। देखें-आकाशाबाधO VI. 1. 21 नौवयोधर्मविवमूलमूलसीतातुलाभ्यः - IV. iv. 91 ...नेभ्यः - IV.i.5 (तृतीयासमीनौ,वयस,धर्म,विष,मूल,मूल,सीता तुला -इन आठ प्रातिपदिकों से (यथासङ्ख्य करके तार्य तुल्य, देखें-ऋनेथ्य V.1.5 प्राप्य, वध्य, आनाम्य, सम,समित, सम्मित- इन आठ नेमधित -VII. iv. 45 अर्थों में यत् प्रत्यय होता है)। नेमधित शब्द वेदविषय में निपातन किया जाता है। च-VII.1.87 ...नेमा-1.1.32 (पथिन् तथा मथिन् अङ्ग के थकार के स्थान में) 'न्थ' देखें - प्रथमचरमतयाल्पार्थकतिपयनेमाः I. 1. 32 . __ आदेश होता है)। ...नेयेषु-v.i.9 . न्द्राः -VI.1.3 देखें-बाभक्षयति Vii.9 (अजादि के द्वितीय एकाच समुदाय के संयोग आदि में स्थित) न.द् तथार को द्वित्व नहीं होता)। Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यग्रोषस्य 343 पंक्तिविंशतित्रिंशव्यत्वारिंशत्पञ्चाशत्पष्टिक न्यग्रोधस्य - VII. iii. 5 केवल) न्यग्रोध शब्द के (अचों में आदि अच् को भी वृद्धि नहीं होती किन्तु उसके य से पूर्व को ऐकार आगम हो जाता है)। न्यक्वादीनाम् - VII. II. 53 न्यकु आदि गणपठित शब्दों के (चकार, जकार को भी कवर्ग आदेश होता है)। न्यधी - VI. 1.53 (वप्रत्ययान्त अबु धातु के परे रहते) नि तथा अधि को (भी प्रकृतिस्वर होता है)। न्यन्युपविषु-III. iii. 72 नि, अभि, उप तथा वि पूर्वक (हेज् धातु से कर्तभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में अप् प्रत्यय होता है,तथा ब को सम्प्रसारण भी हो जाता है)। ...न्याय.. -III, III. 122 देखें - अध्यायन्याय III. II. 122 - ....न्यायात् - IV. iv.92 देखें - धर्मपथ्यर्थ. V.IN.92 ...न्युयो - VII. Iii. 61 देखें - भुजन्युजौ VII. iii. 61 ... न्यू ल... -I.li.34 देखें - अजफ्यूलसामसु I. II. 34 न्यूड = ऋचाओं के उच्चारण में सोलह 'ओ' ध्वनिओं का समावेश।। ...न्यो: - III. 1. 141 खें-दुन्योः III. 1. 141 ...न्यो: -III. III. 29 देखें - उन्योः III. iii. 29 ...न्योः -III. 11.37 देखें- परिन्योः III. II. 37 ....न्यो:-III. M. 45 . देखें - अवन्योः II. II. 45 प-प्रत्याहारसूत्र XII : आचार्य पाणिनि द्वारा अपने बारहवें प्रत्याहार सूत्र में पठित द्वितीय वर्ण। पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्णमाला का उन्तालीसवां वर्ण। ५- VII. I. 43 (रुह अङ्गको विकल्प से णि परे रहते पकारादेश होता ...पक्व..-II.1.40 देखें - सिद्धशुष्कपक्व० II. I. 40 ..पक्व... - VI. il. 32 देखें-सिद्धशुष्क० VI. 1. 32 ...पक्ष... -IV. 1.79 देखें-अरोहणकशावW. IV. 1.79 पक्षात् - V. 1. 25 (षष्ठीसमर्थ) पक्ष प्रातिपदिक से (मूल' वाच्य हो तो ति. प्रत्यय होता है)। पक्षि.. - IV. iv. 35 देखें - पक्षिमत्स्यमृगान् IV. iv. 35 पक्षिमत्स्यमृगान् - IV. iv. 35 . द्वितीयासमर्थ) पक्षि,मत्स्य तथा मृगवाची प्रातिपदिकों से (मारता है'-अर्थ में उक् प्रत्यय होता है)। पक्ष्येषु-III. 1. 119 पक्ष्य अर्थात् पक्ष वाला- इस अर्थ में (ग्रह धातु से क्यप् प्रत्यय होता है)। पंक्ति... - V.i. 58 देखें - पंक्तिविंशतिः v.1.58 पंक्तिविंशतित्रिंशच्चत्वारिंशत्पञ्चाशत्वष्टिसप्तत्यशीतिनवतिशतम् - V.1.58 (तदस्य परिमाणम्' अर्थ में) पंक्ति, विंशति, त्रिंशत्, चत्वारिंशत्, पञ्चाशत्, षष्टि,सप्तति, अशीति, नवति तथा शतम् शब्द निपातन किये जाते है,जो-जो कार्य सूत्रों से सिद्ध न हों, वे निपातन से जानने चाहिये)। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 344 पम्याः पड़ोः - IV. 1. 68 पञ्चभ्यः -VII. 1.75 पङ्ग शब्द से (भी स्त्रीलिङ्ग में ऊङ् प्रत्यय होता है)। (कृ इत्यादि) पाँच = कृ, ग, दृङ्, धृङ,प्रच्छ धातुओं से ...पच... -III. 11.96 उत्तर (भी सन् को इट् आगम होता है)। देखें-वृषेक III. 11.96 पञ्चभ्यः - VII. iii. 98 पच-III. ii. 33 (रुदिर इत्यादि) पाँच अङ्गों से उत्तर (भी हलादि अपृक्त 'पच' धातु से (परिमाणवाचक कर्म उपपद रहने पर सार्वधातुक को ईट् आगम होता है)। 'खश्' प्रत्यय होता है)। पचमी-II.1.36 ...पचः - III. iii. 95 पञ्चमीविभक्त्यन्त (सुबन्त भय शब्द समर्थ सुबन्त के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होता है,और वह तत्पुरुष देखें-स्थागापापचः III. iii.95 समास होता है)। पच -VIII. ii. 52 पञ्चमी-II. iii. 10 'डुपचष् पाके' धातु से उत्तर (निष्ठा के तकार को वका- (कर्मप्रवचनीयसंज्ञक अप, आङ् और परि के योग में) रादेश होता है)। पञ्चमी विभक्ति होती है। पचति - V.1.51 पञ्चमी-II. Iii. 24 (द्वितीयासमर्थ प्रातिपदिक से 'सम्भव है', 'आहरण (कर्तृभिन्न हेतुवाची शब्द में ऋण वाच्य होने पर) पञ्चमी करता है और पकाता है' अर्थों में (यथाविहित प्रत्यय विभक्ति होती है। होते है)। पञ्चमी-II. 1. 28 ...पचादिभ्यः -III. 1. 134 (अनभिहित अपादान कारक में) पञ्चमी विभक्ति होती देखें - नन्दिग्रहि III. 1. 134 पञ्चमी-II. iii. 42 पच्यन्ते -v.i. 89 (जिस निर्धारण में विभाग किया जाये उसमें) पञ्चमी (तृतीयासमर्थ षष्टिरात्र प्रातिपदिक से) पकाया जाता है' विभक्ति होती है। अर्थ में (षष्टिक शब्द का निपातन किया जाता है)। ...पञ्चमी...-V.11.27 ...पच्यमानेषु - IV. III. 43 देखें-सप्तमीपञ्चमीov.iil. 27 देखें-साधुपुष्यत् IV. iii. 43 पचम्या-II.1.11 ...पञ्च... - VI. iii. 114 (अप, परि, बहिस्, अञ्चु-ये सुबन्त शब्द) पञ्चम्यन्त देखें - अविष्टाष्टO VI. ii. 114 (समर्थ सुबन्त) के साथ (विकल्प से समास को प्राप्त होते पञ्चद्... - V.i. 59 हैं,और वह अव्ययीभाव समास होता है)। पञ्चम्या : -V.iii.7 देखें- पञ्चदशती V. 1.59 पञ्चम्यन्त (किम्, सर्वनाम तथा बहु शब्दों) से (तसिल् पाद्दशती - V.1.59 प्रत्यय होता है)। पञ्चत् और दशत्-ये डति प्रत्ययान्त शब्द (तदस्य पञ्चम्या: - V. iv. 44 परिमाणम' विषय में वर्ग अभिधेय होने पर विकल्प से प्रति शब्द के योग में विहित) पञ्चमीविभक्त्यन्त प्रातिनिपातन किये जाते है)। पदिक से (विकल्प से तसि प्रत्यय होता है)। पचभ्यः -VII.1.25 पञ्चम्या: -VI. iii.2 (डतर आदि में है जिसके ऐसे सर्वादिगणपठित) पांच (स्तोकादियों से उत्तर) पञ्चमी विभक्ति का (उत्तरपद परे शब्दों से उत्तर (स और अम को अदड़ आदेश होता है)। रहते अलक होता है)। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 345 पञ्चम्या : -VII. I. 31 (युष्मद, अस्मद् अङ्ग से उत्तर) पञ्चमी विभक्ति के (भ्यस् के स्थान में अत् आदेश होता है)। पञ्चम्याः -VIII. iii. 51 (अधि के अर्थ में वर्तमान परि शब्द के परे रहते) पञ्चमी के (विसर्जनीय को सकारादेश होता है, वेद-विषय में)। पञ्चम्याम् -III. 1.98 (अगतिवाची) पञ्चम्यन्त उपपद रहते (जन्' धातु से भूतकाल में ड प्रत्यय होता है)। ...पञ्चम्यौ -II. iii.7 देखें - सप्तमीपञ्चम्यौ II. ii. 7 ...पञ्चानाम् - III. iv. 84 (बू धातु से परे जो लट् लकार, उसके स्थान में जो परस्मैपदसंज्ञक आदि के) पाँच आदेश, उनके स्थान में (क्रमशः पाँच ही णल, अतुस्, उस्, थल, अथुस, आदेश विकल्प से हो जाते हैं,साथ ही बू धातु को आह आदेश भी हो जाता है)। ...पञ्चाशत्... -V..58 देखें - पंक्तिविंशतिः V. 1. 58 ...पठ... -III. III. 64 देखें-गदनद III. 1.64 पण.. - V.I.34 देखें-पणपादमाष० V. 1. 34 पण = विनिमय करना, खरीदना, प्रशंसा करना। पणः -III. iii.66 (परिमाण गम्यमान होने पर) पण धातु से (नित्य ही कर्तृभिन्नकारक संज्ञा तथा भाव में अप् प्रत्यय होता है। पणपादमावशतात् - V.i. 34 (अध्यर्द्ध शब्द पूर्व वाले तथा द्विगुसज्ञक) पण, पाद, माष और शत शब्दान्त प्रातिपदिकों (से 'तदर्हति'- पर्यन्त कथित अर्थों में यत् प्रत्यय होता है)। ...पणि.. - III. 1. 28 देखें - गुप्यूपविच्छि III. 1. 28 ...पणितव्य... - III. 1. 101 देखें-गर्दापणितव्य III.1. 101 पणितव्य =बेचने योग्य। ....पणिन: - VI. iv. 165 देखें -गाथिविदथिVI. iv. 165 ...पणोः - II. 11.57 देखें - व्यवह्मणोः II. iii. 57 ...पण्य.. -III. I. 101 देखें-अवधपण्य III. 1. 101 पण्यकम्बलः -VI.ii. 42 'पण्यकम्बल' इस समास किये हुये शब्द के (पूर्वपद को प्रकृतिस्वर होता है)। पण्यकम्बल = बिकाऊ कम्बल। पण्यम् -IV.iv.51 (प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ में ठक् प्रत्यय होता है, यदि वह प्रथमासमर्थ) खरीदने योग्य हो। ...पण्यम् -VI. 1. 13 देखें - गन्तव्यपण्यम् VI. ii. 13 पत् -VI. iv. 130 (भसञक पाद शब्दान्त अङ्ग को) पत् आदेश हो जाता ...पत.. -III. I. 150 देखें- बुचक्रम्य III. II. 150 ....पत... -III. 1. 154 देखें- लषपत III. ii. 154 ...पत... -III. ii. 182 देखें -दाम्नी III. ii. 182 ...पत... -VII. iv. 54 देखें -मीमाधु० VII. iv. 54 ...पत... -VII. iv.84 देखें - कक्षुत्रंसु० VII. iv.84 ...पत... - VIII. iv. 17 देखें- गदनदO VIII. iv. 17 Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत 346 पतः-VII. v. 19 ....पत्योः - VI.i. 13 पत्लु अङ्ग को (अङ् परे रहते पुम् आगम होता है)। देखें - पुत्रपत्योः VI. 1. 13. ..पति... -III. 1. 158 ...पत्योः - VI. iii. 23 देखें - स्पृहिगृहिO III. ii. 158 देखें- स्वस्पत्योः VI. il. 23 ...पति...-III. iv. 56 पत्यौ-VI. ii. 18 देखें - विशिपतिपदि. III. iv. 56 (ऐश्वर्यवाची तत्पुरुष समास में) पति शब्द उत्तरपद रहते (पूर्वपद को प्रकृतिस्वर हो जाता है)। पति...- VII. iii. 53 फा.-IV.ii. 122 देखें - पतिपुत्र० VIII. lil. 53 . देखें - पत्राध्वर्युपरिषदः IV. 1. 122 पति -I.iv.8 ....फा..-.1.7 पति शब्द (समास में ही घिसज्ज्ञक होता है)। देखें-पथ्याङ्ग V. 1.7 ..पतित...-II.1.23 पत्र = रथ, कोई वाहन, घोड़ा, ऊँट। देखें - श्रितातीतपतित० II.1.23 फापूर्वात् - IV.in. 121 . ...पतित...-II.1.37 पत्रपूर्वात्-पत्रपूर्ववाले (षष्ठीसमर्थ रथ) शब्द से देखें - अपेतापोडमुक्तः II. 1. 37 (इदम्' अर्थ में अञ् प्रत्यय होता है)। पतिपुत्रपृष्ठपारपदपयस्पोषेषु - VIII. I. 53 . पत्राध्वर्युपरिषदः - IV. iii. 122 पति, पुत्र, पृष्ठ,पार, पद, पयस्, पोष- इन शब्दों के षष्ठीसमर्थ) पत्र. अध्वर्य परिषद प्रातिपदिकों से (भी परे रहते (वेद-विषय में षष्ठी विभक्ति के विसर्जनीय को सकारादेश होता है)। 'इदम्' अर्थ में अञ् प्रत्यय होता है)। पत्रे - III. 1. 121 ...पतिवतो: - IV. 1. 32 देखें- अन्तर्वत्पतिवतो: IV. 1. 32 पत्र अर्थात् वाहन को कहना हो तो (युग्यम् शब्द में युज् . धातु से क्यप् प्रत्यय और कुत्व निपातन से होता है)। पत्यन्त...-V.I. 127 देखें- पत्यन्तपुरोहिO V. 1. 127 पक्ष- IV. 1. 29 पत्यन्तपुरोहितादिभ्यः - V.I. 127 (सप्तमीसमर्थ पथिन् प्रातिपदिक से 'जात' अर्थ में वुन् प्रत्यय होता है तथा प्रत्यय के साथ-साथ पथिन को (पन्थ (षष्ठीसमर्थ) पति शब्द अन्त वाले तथा पुरोहितादि आदेश भी होता है)। प्रातिपदिकों से (भाव और कर्म अर्थों में यक प्रत्यय होता पथः -v.1.74 पत्युः -V.i.33 (द्वितीयासमर्थ) पथिन् प्रातिपदिक से (जाता है' अर्थ पति शब्द से (स्त्रीलिङ्ग में यज्ञसंयोग गम्यमान होने में ष्कन् प्रत्यय होता है)। पर डीप प्रत्यय होता है और नकार अन्तादेश भी हो पथ: -V. ii. 63 जाता है)। (सप्तमीसमर्थ) पथिन् प्रातिपदिक से (कुशल' अर्थ में ...पत्युत्तरपदात् - IV.1.85 वुन् प्रत्यय होता है)। देखें-दित्यदित्यादित्य V.I.85 पथः - V. iv. 72 ...पत्योः -III. 1. 52 (नञ् से परे जो) पथिन् शब्द,(तदन्त तत्पुरुष से समादेखें-जायापत्योः I. 1. 52 सान्त प्रत्यय विकल्प से नहीं होते)। Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..पथाम् -V.lv. 74 देखें क्यू पछि... - IV. 1. 85 देखें पतियो TV III. 85 ...पछि... - IV. Iv. 92 - देखें - धर्मपथ्यर्थ० IV. Iv. 92 VI. 74 पछि... - IV. Iv. 104 देखें - पण्यतिथिवसतिo IV. Iv. 104 पथि... - V. 1. 7 देखें - पथ्यगo Vii. 7 पथि... - VI. III. 103 देखें - पध्यक्षयोः VI. III. 103 पथि - VI. iii. 107 पथिन् शब्द उत्तरपद रहते (भी वेदविषय में कु को 'कव' तथा 'का' आदेश विकल्प करके होते हैं)। afa...-VII. i. 85 देखें - पथिमध्यo VII. 1. 85 पतियो - IV. iii 85 (द्वितीयासमर्थ प्रातिपदिक से जाने वाला) मार्ग तथा (जाने वाला) दूत कर्ता अभिधेय होने पर (यथाविहित प्रत्यय होता है)। पश्चिम - VI. 1. 193 पथिन् तथा मथिन् शब्द को (सर्वनामस्थान परे रहते आदि उदात्त होता है)। पथिमथ्य भुक्षाम् - VII. 1. 85 पथिन्, मचिन् तथा ऋभुक्षिन् इन अग़ को (स परे रहते आकारादेश होता है)। 347 पथ्यक्षयोः - VI. iii. 103 पथिन् तथा अक्ष शब्द उत्तरपद हो तो (कु शब्द को का आदेश होता है)। पथ्यङ्गकर्मपत्रपात्रम् - V. I. 7 (सर्व शब्द आदि में है जिनके, ऐसे द्वितीयासमर्थ) पथिन, अङ्ग, कर्म, पत्र तथा पात्र प्रातिपदिकों से (व्याप्त होता है' अर्थ में ख प्रत्यय होता है)। पथ्यतिथिवसतिस्वपतेः - IV. iv. 104 (सप्तमीसमर्थ) पथिन्, अतिथि, वसति, स्वपति प्रातिपदिकों से (साधु अर्थ में ठञ् प्रत्यय होता है)। वसति निवास । पद - III. 1. 119 देखें - पदास्वैरिo III. 1. 119 = ... पद... - III. ii. 154 देखें - लक्ष्पतo III. ii. 154 पद... - III. iii. 16 देखें - पदरुज III. iii. 16 पद् - VI. 1. 61 (वेदविषय में पाद शब्द के स्थान में) पद आदेश हो जाता है, (शस् प्रकार वाले प्रत्ययों के परे रहते ) । पद - VI. 1. 51 (पाद शब्द को) पद आदेश होता है, (आजि, आति, ग तथा उपहत उत्तरपद परे रहते ) । -VI. iii. 52 (अतदर्थ यत् प्रत्यय के परे रहते पाद शब्द को) पद् आदेश होता है। .. पद... - VII. Iv. 84 देखें वसु VII. I. 84 - ... पद... - VIII. iii. 53 देखें पतिपुत्र VIII. II. 53 पदः पदम् - .. पद... - VIII. iv. 17 देखें - गदनद० VIII. iv. 17 - -III. 1. 60 गत्यर्थक पद् धातु से उत्तर (च्लि को चिण् आदेश होता है, कर्तृवाची लुङ् 'त' शब्द परे रहते)। . पदः - III. ii. 150 देखें - जुचकम्य०] III. I. 150 पदम् - 1. Iv. 14 (सुबन्त एवं तिङन्त शब्दरूपों की) पदसंज्ञा होती है। पदम् - IV. iv. 87 (दृश्यसमानाधिकरण प्रथमासमर्थ) पद प्रातिपदिक से (सप्तम्यर्थ में यत् प्रत्यय होता है)। Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदम् पदम् - VI. 1. 152 (जिस एक पद में उदात्त या स्वरित विधान किया है, उसी के एक अच् को छोड़कर शेष ) पद (अनुदात्त अच् वाला हो जाता है। पदरुजविशस्पृशः - III. iii. 16 पद, रुज, विश तथा स्पृश धातुओं) से घञ् प्रत्यय होता है । पदविधिः - II. 1. 1 पदसम्बन्धी विधि = कार्य (समर्थों के आश्रित समझनी चाहिये। ... पदवी... - IV. iv. 37 देखें - माथोत्तरपदपदव्यo IV. iv. 37 पदव्यवाये - VIII. iv. 37 (निमित्त र ष तथा निमित्ती न के मध्य) पद का व्यवधान होने पर (भी नकार को णकार नहीं होता) । ... पदष्ठीव... - V. iv. 77 देखें - अचतुरo Viv. 77 पदष्ठीव = पैर और घुटने । पदस्य - VIII. 1. 16 (यह अधिकार सूत्र है । 'अपदान्तस्य मूर्धन्यः' VIII. i. 55 से पहले तक कहे हुये कार्य) पद के स्थान में (होते है, ऐसा अधिकार जानना चाहिये) । पदात् - VIII. 1. 17 (यह अधिकार सूत्र है, 'कुत्सने च सुप्यगोत्रादौ ' VIII. i. 69 से पहले-पहले कहे हुये कार्य) पद से उत्तरपद (के स्थान में होते हैं, ऐसा अधिकार जानना चाहिये) । .....पदादि... VI. i. 165 देखें - ऊडिदम् VI. 1. 165 पदादौ - VIII. ii. 6 पदादि (अनुदात्त) के परे रहते (उदात्त के स्थान में हुआ जो कारादेश, वह विकल्प करके स्वरित होता है)। ..पदाद्यो: - VIII. iii. 111 देखें - सात्पदाद्यो: VIII. iii. 111 पदान्त... - I. 1. 57 देखें - पदान्तद्विर्वचनवरेयलोपस्वरसवर्णानुस्वारदीर्घजश्चर्विधिषु I. 1. 57 348 ...पदाम् पदान्तद्विर्वचनवरेयलोपस्वरसवर्णानुस्वारदीर्घजश्चर्विधिषु - I. i. 57 पदान्त, द्विर्वचन, वरे, यलोप, स्वर, सवर्ण, अनुस्वार, दीर्घ, ज, चर्— इन विधियों में (परनिमित्तक अजादेश स्थानिवत् नहीं होता) । पदान्तस्य - VII. iii. 9 पद शब्द अन्त में है जिसके, (ऐसे श्वन् आदि वाले) अङ्ग को (जो ऐच् आगम एवं वृद्धिप्रतिषेध कहा है, वह विकल्प से नहीं होता) । पदान्तस्य - VIII. iv. 36 पद के अन्त के (नकार को णकार आदेश नहीं होता) । पदान्तस्य - VIII. iv. 58 पदान्त के (अनुस्वार को यय् परे रहते विकल्प से परसवर्णादेश होता है)। पदान्तात् - VI. 1. 73 (दीर्घ से उत्तर जो दकार है, उसके परे रहते दीर्घ को नित्य तुक् का आगम होता है, तथा) पदान्त (दीर्घ) से उत्तर (छकार परे रहते पूर्व पदान्त दीर्घ को विकल्प से तुक् आगम होता है, संहिता के विषय में)। पदान्तात् - VI. 1. 105 पदान्त (एङ् प्रत्याहार) से उत्तर (अकार परे रहते पूर्व, पर ...के स्थान में पूर्वरूप एकादेश होता है, संहिता के विषय में)। पदान्तात् - VIII. Iv. 34 - पदान्त ( षकार से उत्तर नकार को णकार आदेश नहीं होता । पदान्तात् - VIII. iv. 41 पदान्त (टवर्ग) से उत्तर (सकार और तवर्ग को षकार और टवर्ग नहीं होता, नाम् को छोड़कर) । पदान्ताभ्याम् - VII. iii. 3 पदान्त (यकार तथा वकार) से उत्तर (जित्, णित्, कित्. तद्धित परे रहते अङ्ग के अचों में आदि अच् को वृद्धि नहीं होती, किन्तु उन यकार, वकार से पूर्व तो क्रमशः ऐच् = ऐ, औ आगम होता 1 ... पदाम् - VII. Iv. 54 देखें - मीमाधुo VII. iv. 54 Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदार्थ.... पदार्थ... - I. iv. 95 देखें पदार्थसम्भावनान्यवसर्ग० 1. Iv. 95 - पदार्थसम्भावनान्ववसर्गगर्हासमुच्चयेषु पदार्थ = अप्रयुक्त पद का अर्थ, सम्भावन = सम्भावना व्यक्तकरना, अन्ववसर्ग कामचार अर्थात् करे या न करे, गर्हा = निन्दा तथा समुच्चय- इन अर्थों में ( अपि शब्द की कर्मप्रवचनीय और निपात संज्ञा होती है। पदास्वैरिवाह्मापक्ष्येषु - III. 1. 119 - = पद, अस्वैरी = पराधीन, बाह्या= बाहर, पक्ष्य = पक्ष में रहने वाले इन अर्थों में भी ग्रह धातु से क्यप् प्रत्यय होता है)। ... पदि... - III. iv. 56 देखें विशिपतिपदि० III. Iv. 56 - पदे - 1. iv. 75 (मध्ये), पदे (तथा निवचने) शब्द (भी कृञ् के योग में विकल्प से गति और निपातसंज्ञक होते है)। .. पदे - VI. II. 191 ii. देखें अकृत्पदे VI. 1. 191 - 1. Iv. 95 पदे - VI. ii. 7 (अपदेशवाची तत्पुरुष समास में) पद शब्द उत्तरपद रहते (पूर्वपद को प्रकृतिस्वर होता है ) । पदे. - VIII. iii. 21 (अवर्ण पूर्ववाले पदान्त य्. व् का उन्) पद के परे रहते (भी लोप होता है)। - पदे - VIII. iii. 47 (समास में अनुत्तरपदस्थ अधस् तथा शिरस् के विसर्जनीय को सकार आदेश होता है), पद शब्द परे रहते । .... पदेषु - III. II. 23 देखें - शब्दश्लोक० III. ii. 23 पदोत्तरपदम् - IV. iv. 39 पद शब्द उत्तरपदवाले (द्वितीयासमर्थ) प्रातिपदिक से (ग्रहण करता है'- अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है) । ... पनिभ्यः III. 1. 28 देखें - गुपूधूपविच्छिo III. 1. 28 349 पन्थ - IV. iii. 29 (सप्तमीसमर्थ पथिन् प्रातिपदिक से 'जात' अर्थ में वुन् प्रत्यय होता है तथा प्रत्यय के साथ-साथ पथिन् को) पन्च आदेश (भी) होता है। पन्यः - V. 1. 75 (द्वितीयासमर्थ पथिन् प्रातिपदिक से 'नित्य ही जाता है' अर्थ में ण प्रत्यय होता है, तथा) उस प्रत्यय के सन्नियोग से पथिन् को पन्थ आदेश हो जाता है। ... पयस्... - VIII. iii. 53 — देखें पतिपुत्र VIII. III. 53 पयस् = दूध, पानी, वर्षा । ..पवस - IV. 1. 157 पयसोः iv. देखें – गोपयसो: IV. iv. 157 ... - ... पर... - I. 1. 33 देखें पूर्वपरावरदक्षिणोत्तरापराधराणि 1. 1. 33 पर - दूर। पर... III. iv. 18 देखें - परावरयोगे III. iv. 18 पर... - IV. 1. 5 देखें - परावराधमोत्तo IV. 1. 5 पर... - V. iii. 29 देखें - परावराभ्याम् V. III. 29 परः - I. 1. 46 (अन्त्य अच् से) परे (मिदागम होता है)। पर: परः I. iv. 108 (वर्णों के) अतिशयित = अत्यन्त (समीपता की संहिता संज्ञा होती है)। परः - III. 1. 2 (जिसकी प्रत्यय संज्ञा की गई है, वह जिस धातु या प्रातिपदिक से विधान किया जावे, उससे परे होता है । (यह अधिकार भी पञ्चमाध्याय की समाप्ति तक जानना चाहिये) । - - VIII. iii. 4 परः (रु से पूर्व वर्ण, जो अनुनासिक से भिन्न है, उससे परे (अनुस्वार आगम होता है)। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परक्षेत्रे 350 परस्मैपदेषु : परक्षेत्रे - V. ii. 92 (क्षेत्रियच शब्द का निपातन किया जाता है), दूसरे क्षेत्र = शरीर में चिकित्सा किये जाने योग्य अर्थ में)। परम् -I. iv. 2 (विप्रतिषेध = तुल्यबलविरोध होने पर) बाद वाले सूत्र से कथित (कार्य होता है)। परम् - II. ii. 31 (राजदन्तादि-गणपठित शब्दों में उपसर्जन का) बाद में प्रयोग होता है। परम् - VIII. 1.2 (उस द्वित्व किये हुये के) पर वाले शब्द की (आमेडित सजा होती है)। ...परम...-II.1.60 देखें-सन्महत्परमो० II.1.60 परम = सबसे अधिक दूर,प्रमुख, सबसे अधिक ऊँचा, सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण। .....परमे... - VIII. iii.97 देखें - अम्बाम्बगोभूमि० VIII. ii. 97 ...परम्पर... - V.II. 10 देखें - परोवरपरम्पर० V. 1. 10 परयोः -III. 1. 39 देखें-द्विवत्परयोः III. 1.39 ...परयोः - VI.i. 81 देखें - पूर्वपरयो: VI. 1. 81 पररूपम् - VI. 1. 90 . (अवर्णान्त उपसर्ग से उत्तर एङ आदिवाले धात के परे रहते पूर्व,पर के स्थान में) पररूप एकादेश होता है। परवत् -II. iv. 26 पर = उत्तरपद के समान (लिङ्ग होता है. दन्द्र और तत्प- रुष का)। ...परशव्ययोः - IV. iii. 165 देखें - कंसीयपरशव्ययो: IV. iii. 165. परश्वधात् - IV. iv. 58 (प्रहरण समानाधिकरणवाची प्रथमासमर्थ) परश्वध प्रातिपदिक से (षष्ठ्यर्थ में ठञ् प्रत्यय होता है और चकार से ठक भी)। परश्वध = कुल्हाड़ी,कुठार। परसवर्ण: - VIII. iv. 57 (अनुस्वार को यय् प्रत्याहारस्थ वर्ण परे रहते) परसवर्ण आदेश होता है । परस्मिन् -I.1.56 परनिमित्तक (अजादेश, पूर्व को विधि करने में स्थानिवत् हो जाता है)। परस्मिन् – III. iii. 138 (भविष्यत्काल में) पहले भाग की (मर्यादा को कहना हो तो अनद्यतन की तरह प्रत्ययविधि विकल्प से नहीं होती, यदि वह कालविभाग अहोरात्रसम्बन्धी न हो तो)। परस्मैपदम् -I. iii. 78 (जिन धातुओं से जिस विशेषण द्वारा आत्मनेपद का विधान किया है, उनसे अवशिष्ट धातुओं से कर्तृवाच्य में) परस्मैपद होता है। परस्मैपदम् -I.iv.98 (लादेश) परस्मैपदसंज्ञक होते हैं। परस्मैपदम् -III.1.90 . (कुष और रक्षा धातुओं से कर्मवद्भाव में श्यन् प्रत्यय और) परस्मैपद होता है, (प्राचीन आचार्यों के मत में)। परस्मैपदानाम् - III. iv. 82 (लिट् लकार के) परस्मैपदसंज्ञक जो तिबादि आदेश, उनके स्थान में (यथासङ्ख्य करके णल,अतुस,उस्, थल, अथुस, अ,णल.व,म- ये आदेश हो जाते हैं)। . परस्मैपदेषु - II. iv.77 परस्मैपद परे रहते (गा,स्था,घुसज्ञक धातु,पा और भू - इन धातुओं से उत्तर सिच् का लुक होता है)। परस्मैपदेषु -III.1.55 (कर्तृवाची लु) परस्मैपद परे रहते (पुषादि,धुतादि और लदित् धातुओं से उत्तर च्लि को 'अङ्' आदेश होता है)। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्मैपदेषु 351 परावरयोगे परस्मैपदेषु - III. iv.97 परस्मैपदविषय में (लेट्-लकार-सम्बन्धी इकार का भी विकल्प से लोप हो जाता है)। परस्मैपदेषु - III. iv. 103 परस्मैपदविषयक (लिङ लकार को यासट का आगम होता है और वह उदात्त तथा द्वित् भी होता है)। परस्मैपदेषु - VII.1.1 परस्मैपदपरक (सिच के परे रहते इगन्त अङ्गों को वृद्धि होती है)। परस्मैपदेषु - VII. ii. 40 परस्मैपदपरक सिच् परे रहते भी वृ तथा ऋकारान्त धातुओं से उत्तर इट् को दीर्घ नहीं होता)। परस्मैपदेषु-VII. 1.58 (गम्ल धातु से उत्तर सकारादि आर्धधातुक को) परस्मैपद परे रहते (इट् का आगम होता है)। परस्मैपदेषु - VII. 1.71 . (ष्टुज.पुञ् तथा धूज् से उत्तर) परस्मैपद परे रहते (सिच् को इटु का आगम होता है)। परस्मैपदेषु - VII. iii. 76 (क्रमु अों को) परस्मैपदपरक (शित्) प्रत्यय परे रहते (दीर्घ होता है)। परस्य -I. 1. 33 __पर को कहा गया कार्य (उस पर वाले के आदि अल् के स्थान में होवे)। परस्य-VI. 1. 108 (ख्य् और त्य् से) परे (सि तथा ङस्) के (अकार के स्थान में उकार आदेश होता है, संहिता के विषय में)। परस्य - VI. iii.7 (जिस सज्ञा से वैयाकरण ही व्यवहार करते हैं,उसको कहने में) पर शब्द (तथा चकार से आत्मन शब्द) से उत्तर (भी चतुर्थी विभक्ति का अलुक् होता है)। परस्य-VII. iii. 22 पर (इन्द्र शब्द) के (अचों में आदि अच को वृद्धि नहीं होती)। परस्य-VII. iii. 27 (अर्ध शब्द से) परे (परिमाणवाची शब्द के अचों में आदि अकार को वृद्धि नहीं होती,पूर्वपद को तो विकल्प से होती है; जित, णित् तथा कित् तद्धित परे रहते)। परस्य-VII. iv.88 (चर् तथा फल् धातुओं से) पर के (अकार के स्थान में उकारादेश होता है; यङ् तथा यङ्लुक् परे रहते)। परस्य - VIII. ii. 92 (अग्नीध् के प्रेषण में पद के आदि को प्लुत होता है, तथा उससे) परे को (भी होता है.यज्ञकर्म में)। परस्य-VIII. iii. 118 (लिट् परे रहते षद् धातु के परवाले सकार को मूर्धन्य आदेश नहीं होता)। पराङ्गवत् - II.1.2 (आमन्त्रितसंज्ञक पद के परे रहते पूर्व के सुबन्त पद को) पर के अङ्ग के समान कार्य होता है,(स्वरविषय में)। पराजे: -I. iv. 26 परापूर्वक 'जि' धातु के (प्रयोग में जो सहन नहीं किया जा सकता, ऐसे कारक की अपादान संज्ञा होती है)। परादिः - VI. ii. 199 (वेदविषय में) उत्तरपद सक्थ शब्द के आदि को (बहुल करके अन्तोदात्त होता है)। ....पराभ्याम् -I. iii. 19 देखें-विपराभ्याम् I. iii. 19 ...पराभ्याम् -I. iii. 39 देखें - उपपराभ्याम् I. iii. 39 ....पराभ्याम् -1. iii.79 देखें-अनुपराभ्याम् I. iii. 79 ....पसार...-.iii. 32 देखें - सद्य:परुत्० V. iii. 32 परावरयोगे -III. iv. 20 जब पर का अवर के साथ या पूर्व का पर के साथ योग गम्यमान हो तो भी धातु से क्त्वा प्रत्यय होता है)। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परावराधमोत्तमपूर्वात 352 परिनिविश्यः परावराधमोत्तमपूर्वात् – IV. iii. 5 पर, अवर, अधम, उत्तम- ये शब्द पूर्व में हैं जिनके, ऐसे (अर्ध शब्द) से (भी शैषिक यत् प्रत्यय होता है)। परावराभ्याम् -v.ii. 29 (दिशा, देश तथा काल अर्थों में वर्तमान सप्तम्यन्त, पञ्चम्यन्त तथा प्रथमान्त) पर तथा अवर प्रातिपदिकों से (विकल्प से स्वार्थ में अतसुच् प्रत्यय होता है)। परि...-I. iii. 18 देखें-परिव्यवेभ्यः I. iii. 18 ...परि...-I. iv. 89 देखें - प्रतिपर्यनक I. iv.89 ...परि..-II.i. 11 देखें-अपपरिबहिरचकः II.i. 11 परि...-III. iii.37 देखें- परिन्योः III. iii. 37 परि.. -IV. iii. 61 देखें- पर्यनुपूर्वात् IV. iii. 61 परि...- V. iii.9 देखें - पर्यभिभ्याम् v. iii.9. परि...- VI. II. 33 देखें-परिप्रत्युपापा: VI. ii. 33 परि...-VIII. iii.70 देखें-परिनिविभ्य: VIII. iii. 70 ...परि...-VIII. iii. 72 देखें - अनुविपर्य० VIII. iii. 72 परिक्रयणे-I. iv.44 परिक्रयण में (जो साधकतम कारक, उसकी विकल्प से सम्प्रदान संज्ञा होती है, पक्ष में करण संज्ञा)। परिक्रयण = नियत समय तक वेतनादि द्वारा कर्ज चुकाना। परिक्लिश्यमाने -III. iv. 55 चारों ओर से क्लेश को प्राप्त (स्वाङ्गवाची द्वितीयान्त) शब्द उपपद हो तो (भी धातु से णमुल प्रत्यय होता है)। ....परिक्षिप..-III. 1. 142 देखें-सम्पृचानुरुध० - II. ii. 142 ...परिक्षिप.. - III. I. 146 देखें-निन्दहिंसक III. ii. 146 परिखाया: - V.i.17 (प्रथमासमर्थ) 'परिखा' प्रातिपदिक से (षष्ठ्यर्थ एवं सप्तम्यर्थ में ठञ् प्रत्यय होता है, यदि वह प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक स्यात् = 'सम्भव हो' क्रिया के साथ समानाधिकरणवाला हो तो)। परिचाय्य..-III. 1. 131 देखें - परिचाय्योपचाय्यः III. 1. 131 ..... परिचाय्योपचाय्यसमूह्याः -III. . 131 (अग्नि अभिधेय हो तो) परिचाय्य,उपचाय्य,समूह्यये शब्द निपातन किये जाते है। परिजय्य..-v.i.92 देखें-परिजय्यलण्यकार्य०V.i. 92 परिजय्यलण्यकार्यसुकरम् - V. 1. 92. (ततीयासमर्थ कालवाची प्रातिपदिकों से) परिजय्य = 'जीता जा सकता है',लभ्य = 'प्राप्त करने योग्य' कार्य = किया जा सके' तथा सुकरम् = सुगमता से किया जा सके- इन अर्थों में (यथाविहित ठञ् प्रत्यय होता है)। परिजातः -V. 1.67 (तृतीयासमर्थ सस्य प्रातिपदिक से) 'सब ओर से उत्पन्न' अर्थ में (कन् प्रत्यय होता है)। परिणा-II.i. 10 (सुबन्त) परि' के साथ (अक्ष.शलाका और संख्यावाचक शब्दों का अव्ययीभाव समास होता है)। ...परिदह...- III. ii. 142 देखें-सम्पृचानुरुप III. ii. 142 ...परिदेवि..-III. I. 142 देखें - सम्पृचानुरुध III. ii. 142 परिनिविण्यः -VIII. iii. 70 परि,नि तथा वि उपसर्ग से उत्तर (सेव,सित,सय,सिवु, सह, सुट आगम, स्तु तथा स्वा के सकार को मूर्धन्य . सत्यय .10 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिन्योः ___353 परिमाणिना आदेश होता है;सित शब्द से पहले-पहले; अव्यवाय एवं ..परिभ्यः - VIII. iii. 96 अभ्यासव्यवाय में भी)। देखें-विकुशमि० VIII. iii. 96 परिन्योः - II. iii. 37 ...परिभ्याम् -VI.i. 132 परि तथा नि उपपद रहते हुए (यथासंख्य नी तथा इण देखें-सम्परिभ्याम् VI. I. 132 धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में छूत तथा ...परिमाण... -II. iii. 46 उचित आचरण के विषय में घञ् प्रत्यय होता है)। देखें - प्रातिपदिकार्थलिङ्ग- II. iii. 46 परिपन्थम् - IV. iv. 36. ...परिमाण... -V.i. 38 (द्वितीयासमर्थ) परिपन्थ प्रातिपदिक से (बैठता है' तथा । देखें-असंख्यापरिमाण.v.i. 38 'मारता है' अर्थों में ठक् प्रत्यय होता है)। परिमाणम् -V.1.56 परिपन्धि ..-v.ii. 89 (प्रथमासमर्थ) परिमाणवाची प्रातिपदिकों से (षष्ठ्यर्थ देखें-परिपन्थिपरिपरिणौ v.ii. 89 में यथाविहित प्रत्यय होते हैं)। परिपन्धिपरिपरिणौ - V.ii. 89 ...परिमाणम् - VI. ii. 55 (वेदविषय में) परिपन्थिन् और परिपरिन् शब्दों का देखें-हिरण्यपरिमाणम VI. 1. 55 निपातन किया जाता है; (पर्यवस्थाता' = मार्ग का आरोधक वाच्य हो तो)। परिमाणस्य - VII. iii. 26 ....परिपरिणौ - V. ii. 89 (अर्ध शब्द से उत्तर) परिमाणवाची उत्तरपद के (अचों में आदि अच को वृद्धि होती है, पूर्वपद को तो विकल्प देखें - परिपन्थिपरिपरिणौ v. ii. 89 से होती है; जित,णित् तथा कित तद्धित प्रत्यय परे रहते)। ...परिपूर्वात् - V.i.91 परिमाणाख्यायाम् - III. iii. 20 देखें - सम्परिपूर्वात् V. 1. 91 (सब धातुओं से) परिमाण की आख्या= कथन गम्यपरिप्रत्युपापा - VI. ii. 33 मान होने पर (घञ् प्रत्यय होता है)। (पूर्वपदभूत) परि, प्रति, उप, अप – इन शब्दों को परिमाणात् - IV. ii. 153 (वय॑मान तथा दिन एवं रात्रि के अवयववाची शब्दों के (षष्ठीसमर्थ) परिमाणवाची प्रातिपदिकों से (क्रीतार्थ में परे रहते प्रकृतिस्वर हो जाता है)। कहे गये प्रत्ययविकार अवयव अर्थों में भी होते है)। ...परिप्रश्नयोः - III. iii. 110 ...परिमाणात् - V.i.9 देखें - आख्यानपरिप्रश्नयोः III. iii. 110 देखें - अगोपुच्छसंख्या० V. 1. 19 ....परिभिः - II. iii. 10 परिमाणान्तस्य -VII. iii. 17 देखें - अपाङ्परिभिः II. iii. 10 परिमाणवाची शब्द अन्त में है जिस अङ्ग के, उसके ....परिभू.. - III. ii. 157 (सङ्ख्यावाची शब्द से उत्तर उत्तरपद के अचों में आदि अच् को जित्, णित् तथा कित् तद्धित परे रहते वृद्धि होती देखें - जिदृक्षि० III. ii. 157 है, सञ्जा-विषय एवं शाण शब्द उत्तरपद को छोड़कर)। ...परिभ्यः -I. 1.21 परिमाणिना-II. 1.5 देखें - अनुसम्परिभ्यः I. iii. 21 परिमाणिवाचक शब्दों के साथ (कालवाचक सुबन्त ...परिभ्यः -I. iii. 83 समास को प्राप्त होते हैं और वह तत्पुरुष समास होता देखें - व्यापरिभ्यः० I. iii. 83 है)। Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमाणे परिमाणे - III. ii. 33 परिमाण-वाचक उपपद रहते (पच्' धातु से खश् प्रत्यय होता है)। परिमाणे III.1.66 परिमाण गम्यमान होने पर (पण् धातु से नित्य ही कर्तृभिन्न कारकसंज्ञा तथा भाव में अप प्रत्यय होता है)। परिमाणे -- IV. iii. 150 (षष्ठीसमर्थ सुवर्णवाची प्रातिपदिकों से) परिमाण जाना जाये तो विकार अभिधेय होने पर अण प्रत्यय होता है)। परिमाणे VII. 39 - ii. - (प्रथमासमर्थ) परिमाणसमानाधिकरणवाची (यत्, तत् तथा एतद् प्रातिपदिकों से षष्ठ्यर्थ में वतुप् प्रत्यय होता है)। परिमुखम् - IV. Iv. 29 (द्वितीयासमर्थ) परिमुख प्रतिपदिक से भी 'वर्तते' अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है)। परिमुख = मुंह के सामने । ... परिमुह... - I. III. 89 देखें - पादग्याड्यमाड्यस० I. iii. 89 ... परिमुह .. . - III. ii. 142 देखें - सम्पृचानुरुधo III. ii. 142 परिमृज... - III. 1. 5 ii. देखें - परिमृजापनुदो: III. ii. 5 परिमृजापनुदो: - III. ii. 5 354 (तुन्द तथा शोक कर्म उपपद रहते यथासङ्ख्य करके) परिपूर्वक मृज तथा अपपूर्वक नुद् धातु से (क प्रत्यय होता है) । ... परमे... - VIII. 1. 97 देखें अम्बाम्बo VIII. iii. 97 ...परिस्ट... - III. 1. 142 देखें - सम्पृचानुरुध० III. ii. 142 परिरट चीखना, चिल्लाना । ... - परिस्ट ... - III. ii. 146 देखें - निन्दहिंसo III. ii. 146 ... परिवद ... - III. I. 142 देखें - सम्पृचानुरुध० III. ii. 142 ...परिवादि... - III. 1. 146 देखें - निन्दहिंसo III. II. 146 परिवापणे Viv 67 ( मद्र प्रातिपदिक से कृञ् के योग में डाच् प्रत्यय होता है) मुण्डन वाच्य हो तो । परिवृद्धः - VII. 1. 21 ii. - परिवृढ शब्द (निष्ठा परे रहते स्वामी अर्थ को कहने में निपातन किया जाता है)। परिवृतः - IV. 1. 9 (तृतीयासमर्थ प्रातिपदिक से) 'ढका हुआ' इस अर्थ में (यथाविहित प्रत्यय होता है, यदि वह ढका हुआ रथ होतो)। परिवाजकयो - IV. 1. 149 देखें वेणुपरिव्राजकयो: IV. 149 परिषद - IV. 1. 122 ... परिव्यवेभ्यः - I. iii. 18 परि वि तथा अब उपसर्ग से उत्तर (टुक्रीञ् धातु से आत्मनेपद होता है)। ... देखें - पत्राध्वर्युपरिषदः IV. ii. 122 परिषदः - IV. iv. 44 परिस्कन्दः परिषदः परिषद - IV. iv. 101 (द्वितीयासमर्थ) परिषद् प्रातिपदिक से (समजेत होता है' अर्थ में ण्य प्रत्यय होता है)। परिषदः - V. ii. 112 देखें रजः कृष्याo K. BL. 112 परिस्... - III. ii. 142 देखें - सम्पृचानुरुध० III. ii. 142 परिस्कन्दः - VIII. iii. 75 ... (सप्तमीसमर्थ) परिषद् प्रातिपदिक से (साधु अर्थ में ण्य प्रत्यय होता है)। ... - - परिस्कन्द शब्द में मूर्धन्याभाव निपातन है, (प्राग्देशी यान्तर्गत भरतदेश के प्रयोग - विषय में) । - Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परी परी - I. iv. 87 देखें- अपपरी 1. Iv. 87 ... परी. I. iv. 92 देखें... - अधिपरी 1. Iv. 92 ... परुत् ... - V. iii. 22 देखें सद्य: पत्o Viii. 22 परीप्सायाम् 111.52 शीघ्रता गम्यमान हो तो (अपादान उपपद रहते धातु से णमुल् प्रत्यय होता है)। - - 1 परीप्सायाम् VIII. 1. 42 (पुरा शब्द से युक्त तिङन्त को भी) शीघ्रता अर्थ गम्यमान होने पर (अनुदात्त नहीं होता) । परे - I. iv. 81 (वेद-विषय में गति, उपसर्गसंज्ञक शब्द धातु से) पर में (तथा पूर्व में भी आते हैं। परेः - 1. iii. 82 परि उपसर्ग से उत्तर (मृष् धातु से परस्मैपद होता है)। परे: - VI. 1. 43 परि उपसर्ग से उत्तर (व्येञ् धातु को विकल्प करके सम्प्रसारण नहीं होता है)। - 355 परे: - VI. 1. 182 पर उपसर्ग से उत्तर (अभितोभावी तथा मण्डल शब्द को अन्तोदात्त नहीं होता) । परेः VIII. i. 5 (छोड़ने अर्थ में वर्तमान परि शब्द को (द्वित्व होता है)। :-VIII. ii. 22 परि के (रेफ को भी भ तथा अङ्क शब्द पर रहते विकल्प से लव होता है। परेः - VIII. iii. 74 परि उपसर्ग से उत्तर (भी स्कन्द् के सकार को विकल्प मूर्धन्य आदेश होता है)। परेद्यवि... - V. iil. 22 देखें - सद्य: परुत्o Viii. 22 परोक्षे - III. 1. 115 ii. (अनद्यतन) परोक्ष जो अपनी इन्द्रियों से न देखा गया हो, (ऐसे भूतकाल में वर्तमान धातु से लिट् प्रत्यय होता है)। पर्यादिभ्यः = परोवर... - V. II. 10 देखें - परोवरपरम्परo V. ii. 10 परोवरपरम्परपुत्रपौत्रम् - y. ii. 10 (द्वितीयासमर्थ) परोवर, परम्पर तथा पुत्रपौत्र प्रातिपदिकों से (अनुभव करता है' अर्थ में ख प्रत्यय होता है)। परौ - III. iii. 38 परि पूर्वक (इण् धातु से क्रम परिपाटी गम्यमान होने पर कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है) । परौ - III. iii. 45 (यज्ञविषय में) परिपूर्वक (मह् धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है ) । — परौ - III. iii. 55 तिरस्कार अर्थ में वर्तमान परिपूर्वक भू धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में विकल्प से घञ् प्रत्यय होता है, पक्ष में अप् प्रत्यय होता है) । परी - III. III. 84 परिपूर्वक (हन् धातु से करण कारक में अप् प्रत्यय होता है तथा हन् के स्थान में घ आदेश भी होता है) । परौ - VIII. iii. 51 (अधि के अर्थ में वर्तमान परि शब्द के परे रहते (पञ्चमी के विसर्जनीय को सकारादेश होता है, वेद (विषय में) । ...qui...- IV. i. 64 देखें - पाककर्णपर्ण० IV. 1. 64 ... पर्णात् - IV. II. 144 देखें कुकर्णपर्णात् IV. 1. 144 पर्पादिभ्यः IV. iv. 10 (तृतीयासमर्थ पर्यादि प्रातिपदिकों से (चरति' अर्थ में ष्ठन् प्रत्यय होता है)। पर्प = पहिए वाली कुर्सी । Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यनुपूर्वात् पर्यनुपूर्वात् - IV. 1. 61 परि, अनुपूर्वक (अव्ययीभावसंज्ञक ग्रामशब्दान्त सप्तमीसमर्थ प्रातिपदिक) से (भव' अर्थ में ठञ् प्रत्यय होता है) । पर्यभिभ्याम् - VIII. 9 परि तथा अभि शब्दों से (भी तसिल् प्रत्यय होता है)। पर्यवस्थातरि - Vii. 89 (वेद-विषय में परिपन्थिन्, परिपरिन् शब्दों का निपातन किया जाता है) पर्यवस्थाता मार्ग का अवरोधक वाच्य हो तो । = पर्याप्तिवचनेषु III. iv. 77 (सामर्थ्य अर्थवाले) परिपूर्णतावाची शब्दों के उपपद रहते (धातु से तुमन् प्रत्यय होता है)। पर्याय... - III. III. 111 देखें - पर्यायार्हणोंत्पत्तिषु III. III. 111 पर्यायार्हणोत्पत्तिषु - III. 111 = = पर्याय बारी, अर्ह सामर्थ्य, ऋण और उत्पत्ति अर्थों में (धातु से स्त्रीलिङ्ग भाव में विकल्प से ण्युच् प्रत्यय होता है)। quia-III. iii. 39 (वि और उप पूर्वक शीङ् धातु से ) पर्याय = बारी गम्यमान होने पर (कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है)। पर्यायेण - VII. iii. 31 (न से उत्तर यथायथ तथा यथापुर अङ्गों के पूर्वपद एवं उत्तरपद के अचों में आदि अच् को) पर्याय = बारी-बारी (वृद्धि होती है; जित् णित् तथा कित् तद्धित परे रहते) । पर्वत... - IV. 1. 103 .. 356 देखें- द्रोणपर्वत०] IV. 1. 103 पर्वतात् IV. II. 142 पर्वत शब्द से (भी शैषिक छ प्रत्यय होता है)। पर्वत - IV. 1. 91 (प्रथमासमर्थ) पर्वतवाची प्रातिपदिकों से वह इनका अभिजन' इस अर्थ में छ प्रत्यय होता है, आयुधजीवियों को कहने के लिए)। - पर्वत पर्वत अभिधेय हो तो (बहुव्रीहि समास में त्रिककुत् शब्द निपातन किया जाता है) । - V. iv. 147 ... पर्वादि... - V. iii. 117 देखें - पर्वादियौधेo Vill. 117 ... पलद... - IV. ii. 141 देखें - कन्थापलद० IV. ii. 141 पलद छत के उपयोग में। ...पलादि... - IV. 1. 109 देखें - प्रस्थोत्तरपदपलद्यादि० IV. II. 109 पललू... - VI. ii. 128 देखें पललसूप VI. II. 128 पलल = एक प्रकार की स्थलीय वनस्पति । पशौ - पललसूपशाकम् VI. II. 128 (मिश्रवाची तत्पुरुष समास में) पलल, सूप, शाक इन उत्तरपद शब्दों को (आद्युदात्त होता है)। पलाशादिभ्यः - IV. iii. 138 (षष्ठीसमर्थ) पलाशादि प्रातिपदिकों से (विकल्प से विकार, अवयव अर्थों में अञ् प्रत्यय होता है, पक्ष में औत्सर्गिक अण् होता है)। .....पलित... - II. 1. 66 देखें - खलतिपलितवलिन० II. 1. 66 ... पलित... - III. 11. 56 देखें - आयसुभग० III. 1. 56 ... पशाम् - VII. iv. 86 देखें - जपजभ० VII. iv. 86 .. पशु... - II. iv. 12 देखें - वृक्षमृगतृणo II iv. 12 पशुषु - III. iii. 69 (सम्, उत् पूर्वक अज् धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में, समुदाय से) पशुविषय प्रतीत हो (तो अप् प्रत्यय होता है। पशौ III. ii. 25 पशु कर्ता अभिधेय होने पर (दृति और नाथ कर्म उपपद रहते हृ धातु से इन् प्रत्यय होता है) । Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्च 357 पाणिय पाककर्णपर्णपुल,मूल,वाल से वीलिङ्ग में पश्च-V.iii.33 पश्च (तथा पश्चा शब्द भी वेद-विषय में)निपातन किये जाते हैं; (अस्ताति के अर्थ में)। पश्चा -v. iii. 33 (पश्च तथा) पश्चा शब्द (भी वेदविषय में) निपातन किये जाते हैं, (अस्ताति के अर्थ में)। ...पश्चात्... -II. 1.6 देखें-विभक्तिसमीपसमृद्धि II.1.6 ...पश्चात्... - IV. iii. 98 . देखें-दक्षिणापश्चात् IV..ii. 98 पश्चात् -v.ii. 32 पश्चात् शब्द का निपातन किया जाता है, (अस्ताति के अर्थ में)। ...पश्य.. - VII. iii. 78 देखें-पिबजिन VII. 1.78 ...पश्य... - VIII. I. 39 देखें-तुपश्यपश्यताहै: VIII.1.39 ....पश्यत... - VIII. 1.39 देखें -तुपश्यपश्यताहै: VIII. 1.39 . पश्यति-IV. iv. 46 (द्वितीयासमर्थ ललाट तथा कुक्कुटी प्रातिपदिकों से संज्ञा गम्यमान होने पर) 'देखता है'.- अर्थ में (ठक् प्रत्यय होता है)। पश्याङ्कः - VII. 1. 28 (न देखना' अर्थ में वर्तमान) ज्ञात अर्थ वाले धातुओं के योग में (भी युष्मद्, अस्मद् शब्दों को पूर्वसूत्रों द्वारा प्राप्त वाम,नौ आदि आदेश नहीं होते)। ...परवड़यो: - V. iii. 51 देखें-मानपश्वङ्गयो: V. iii. 51 पा... -I. iii. 89 देखें-पादम्याङ्यमाझ्यस I. iii. 89 ...पा..-III. iv.77 देखें-गातिस्थाधुपा० II. iv.77 पा.. - III. 1. 137 देखें - पात्रामा० III. I. 137 ...पा... -III. iii.95 देखें-स्थागापापच: III. iii. 95 ...पा.. - VI. iv.66 देखें-घुमास्था. VI. iv.66 पा.. - VII. iii. 78 देखें-पाघ्रामा० VII. iii. 78 पाक... -VI. 1.64 देखें-पाककर्णपर्ण IV.i.64 पाक... - V. ii. 24 देखें - पाकमूले V. ii. 24 पाककर्णपर्णपुष्पफलमूलवालोत्तरपदात् - IV. 1.64 पाक,कर्ण,पर्ण,पुष्प, फल,मल.वाल-ये शब्द यदि उत्तरपद में हों तो (जातिवाची) प्रातिपदिक से (स्त्रीलिङ्ग में ङीष् प्रत्यय होता है)। पाकमूले - Vii. 24 (षष्ठीसमर्थ पील्वादि तथा कर्णादि प्रातिपदिकों से यथासङ्ख्य करके) 'पाक' तथा 'मूल' अर्थ अभिधेय हो तो (कुणप् तथा जाहच प्रत्यय होते है)। पाके-V.iv.69 पकाना' विषय हो तो (शूल प्रातिपदिक से कृञ् के योग में डाच प्रत्यय होता है)। पाके - VI.i. 27 पाक अभिधेय होने पर (शतम शब्द का निपातन किया जाता है)। पानाध्यादृशः - III. 1. 137 पा.घा. ध्मा, धेट, दृशिर - इन धातुओं से (श प्रत्यय होता है)। पानाध्यास्थाम्नादाण्दृश्यर्तिसर्तिशदसदाम् - VII. il. 78 पा,घ्रा,ध्मा,ष्ठा,म्ना,दाण,दृशिर,ऋ,स,शद्लू,षद्लइन अङ्गों को शित् प्रत्यय परे रहते यथासंख्य करके पिब, जिघ्र, धम, तिष्ठ,मन, यच्छ, पश्य,ऋच्छ, धौ शीय,सीद आदेश होते है)। पाणिघ -III. ii. 55 देखें-पाणिघताडयौ III. ii. 55 Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिघताडयौ 358 पादपूरणे या होते है।। । - पाणिघताडयौ - III. II. 55 पात्रात् -V.1.67 पाणिघ, ताडप शब्दों में पाणि तथा ताड कर्म उपपद (द्वितीयासमर्थ) पात्र प्रातिपदिक से (समर्थ है' अर्थ में रहते हन् धातु से क प्रत्यय तथा हन् धातु के टि अर्थात् घन् और यत् प्रत्यय होते हैं)। अन् भाग का लोप एवं ह को घ निपातन किया जाता है, पात्रेसम्मितादयः -II.1.47 शिल्पी कर्ता वाच्य हो तो)। पात्रेसम्मित आदि शब्द (भी क्षेप गम्यमान होने पर ...पाणिन्धमाः -III. ii. 37 समुदाय रूप से तत्पुरुषसमासान्त निपातन किये जाते हैं। देखें-उग्रम्पश्येरम्मद III. 1. 37 पात्रेसम्मित- अधिकतर भोजन के समय उपस्थित। पाणी-I. iv.76 पाथस्... -IV. iv. 111 (हस्ते और पाणौ शब्द (उपयमन - विवाह-विषय में देखें-पाथोनदीभ्याम् IV. iv. 111 हों तो नित्य ही उनकी कृञ् के योग में गति और निपात .. पाथस् = जल, वायु, आहार। संज्ञा होती है)। पाथोनदीभ्याम् - IV. iv. 111 पाण्डुकम्बलात् - IV. 1. 10 (सप्तमीसमर्थ) पाथस् और नदी प्रातिपदिकों से (वेद(तृतीयासमर्थ) पाण्डुकम्बल प्रातिपदिक से (ढका हुआ विषय में ड्यण् प्रत्यय होता है)। जो रथ' अर्थ में इनि प्रत्यय होता है। पाद.. - VI. II. 197 देखें-पाहन VI. 1. 197 पाण्युपतापयो: - VII. I. 11 ....पाद...-V.1.34 (भुज तथा न्युब्ज शब्द क्रमशः) हाथ और उपताप अर्थ देखें-पणपादमाष० V.1.34 में निपातन किये जाते है)। पाद... -V.iv.1 उपताप = गर्मी, आंच,पीड़ा। देखें-पादशतस्य Viv.1 पाते -VI. II. 70 पाद... -V.iv.25 (श्येन तथा तिल शब्द को) पात शब्द के उत्तरपट रहते देखें-पादायोभ्याम् V. v. 25 (तथा य प्रत्यय के परे रहते मुम् आगम होता है। पादः-IV.1.8 पातौ - VIII. III. 52 पादन्त प्रातिपदिक से (स्त्रीलिङ्ग में विकल्प से डीप पा धातु के प्रयोग परे हों तो (भी पञ्चमी के विसर्जनीय प्रत्यय होता है)। को बहुल करके सकार आदेश होता है. वेद-विषय में)। पादः -VI. iv. 130 ...पात्र... - VIII. 11.46 (भसज्ञक) पादशब्दान्त अङ्गको (पत् आदेश हो जाता देखें-कृकमि० VIII. iii. 46 ...पादपात् -IV. iii. 118 ...पात्रम् -V. 1.7 देखें-शुद्राप्रमरवटर V.III. 118 देखें- पथ्यंगov.i1.7 पादपूरणम् -VI.1. 130 पात्रात् -V.i. 45 (स' के सु का लोप हो जाता है, अच् परे रहते; यदि (षष्ठीसमर्थ) पात्र प्रातिपदिक से (ष्ठन् प्रत्यय होता है, लोप होने पर) पाद की पूर्ति हो रही हो तो। 'खेत' अर्थ अभिधेय होने पर)। पादपूरणे - VIII. 1.7 ...पात्रात् -V.1.52 (प्र,सम्, उप तथा उत् उपसगों को पाद की पूर्ति करनी देखें - आढकाचितपात्रात् V. 1. 52 हो तो (द्वित्व हो जाता है)। Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पादम्याड्यमाझ्यसपरिमुहरुचिनृतिवदवसः 359 पारायण... पादम्याङ्यमाझ्यसपरिमुहरुचिनृतिवदवस: - I. Iii. 89 पा,दमि,आङ्पूर्वक यम,आपूर्वक यस,परिपूर्वक मुह, रुचि, नृति, वद, वस् - इन ण्यन्त धातुओं से परस्मैपद नहीं होता है। पादविहरणे-I. iii. 41 पादविहरण= टहलना अर्थ में वर्तमान (वि पूर्वक क्रम् धातु से आत्मनेपद होता है)। पादशतस्य -Vill.1 (सङ्ख्या आदि में है जिसके,ऐसे) पाद और शत शब्द अन्त वाले प्रातिपदिकों से (वीप्सा' गम्यमान हो तो वुन् प्रत्यय होता है तथा प्रत्यय के साथ-साथ पाद तथा शत के अन्त का लोप भी होता है)। पादस्य -V. iv. 138 उपमानवाचक हस्त्यादिवर्जित प्रातिपदिकों से उत्तर को पाद शब्द, उसका समासान्त लोप हो जाता है, बहुव्रीहि समास में)। पादस्य-VI. 1.51 पाद शब्द को (पद आदेश होता है; आजि, आति, ग तथा उपहत उत्तरपद परे रहते)। पादान्ते -VII. 1.57 (वेद-विषय में) ऋचा के पाद के अन्त में वर्तमान (गो शब्द से उत्तर आम् को नुट् का आगम होता है)। पादार्घाभ्याम् -V. iv. 25 पाद और अर्घ प्रातिपदिकों से (भी 'उसके लिये यह अर्थ में यत् प्रत्यय होता है)। पाइन्मूर्धसु - VI. ii. 197 (द्वि तथा त्रि से उत्तर) पाद, दत्, मूर्धन् इन शब्दों के उत्तरपद रहते (बहुव्रीहि समास में विकल्प से अन्तोदात्त होता है)। पानम् -VII. iv.1 (पूर्वपद में स्थित निमित्त से उत्तर) पान शब्द के (नकार को देश का अभिधान हो रहा हो तो णकारादेश होता ...पाप... - III. ii. 89 देखें - सुकर्म II. ii. 89 ...पाप... - IV. 1. 30 देखें-केवलमामक IV. 1. 30 पापम् -VI. ii.68 (शिल्पिवाची शब्द उत्तरपद रहते) पाप शब्द को (भी विकल्प से आधुदात्त होता है)। ...पापयोगात् -v. iv. 47 देखें-हीयमानपापयोगात् V. iv. 47 ...पापवत्सु-VI. I. 25 देखें-अज्यावम० VI. ii. 25 पापाणके -II.1.53 (कुत्सनवाची) पाप और अणक शब्द (कुत्सितवाचक सुबन्तों के साथ विकल्प से तत्पुरुष समास को प्राप्त होते है। ...पामादि... -V. 1. 100 देखें-लोमादिपामादिov. ii. 100 पायौ - VII. ill. 11 (स्वतवान शब्द के नकार को रु होता है),पायु शब्द परे रहते.। पाय्य... -III. I. 129 देखें - पाय्यसान्नाय्य III. I. 129 ...पारय.. - VI. ii. 122 देखें-कंसमन्य० VI. ii. 122 पाय्यसान्नाय्यनिकाय्यधाय्याः -III. 1. 169 पाय्य, सान्नाय्य, निकाय्य, धाय्य - ये शब्द (यथासङ्ख्य करके मान,हवि,निवास तथा सामधेनी अभिधेय हो तो निपातन किये जाते हैं। ...पार... -III. ii. 48 । देखें- अन्तात्यन्त III. ii. 48 ...पार... - VIII. iii. 53 देखें- पतिपुत्र० VIII. iii. 53 पारस्करप्रभृतीनि-VI. 1. 151 पारस्कर इत्यादि शब्दों में (भी सुट् आगम निपातन किया जाता है,संज्ञा के विषय में)। पारायण..-V.1.72 देखें-पारायणतुरायण V. 1.72 • पाप.. -II. 1.53 देखें-पापाणके II.1.53 Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारायणतुरायणचान्द्रायणम् 360 पिति पारायणतुरायणचान्द्रायणम् - V. 1.71 रमयामकः तथा विदामक्रन शब्द भी वेदविषय में विकल्प (द्वितीयासमर्थ) पारायण,तरायण तथा चान्द्रायण प्राति से निपातित होते है)। पदिकों से (बरतता है' अर्थ में यथाविहित ठन प्रत्यय ....पाश... -III.1.25 होता है)। देखें-सत्यापपाश III. I. 25 पाराशर्य... - IV.ii. 110 पाशप्-V.iii.47 देखें-पाराशर्यशिलालिभ्याम् IV.ii. 110 (निन्दा' अर्थ में वर्तमान प्रातिपदिकों से) पाशप प्रत्यय पाराशर्य = पाराशर की कृति । होता है। पाराशर्यशिलालिघ्याम् - IV. iii. 110 पाशादिभ्यः - IV. ii. 48 (तृतीयासमर्थ) पाराशर्य, शिलालिन् प्रातिपदिकों से (षष्ठीसमर्थ) पाशादि प्रातिपदिकों से (समूह अर्थ में य ... (यथासङ्ख्य करके भिक्षुसूत्र तथा नटसूत्र का प्रोक्त विषय प्रत्यय होता है)। कहना हो तो णिनि प्रत्यय होता है)। ...पिच्छादिभ्यः -v.ii. 100 ...पारि..-III. I. 138 देखें-लोमादिपामादिov.ii. 100 देखें-लिम्पविन्द III. 1. 138 ...पिटच्.. -v.ii. 33 पारे -II.1.17 देखें-इनपिटच्० V. 1. 33. (मध्य और) पार शब्द (षष्ठ्यन्त सुबन्त के साथ विकल्प पित् -III. iv.92 से अव्ययीभाव समास को प्राप्त होते हैं तथा समास के लोट सम्बन्धी उत्तमपुरुष को आट का आगम हो जाता सन्नियोग से इन शब्दों को) एकारान्तत्व भी निपातन से है और वह उत्तम पुरुष) पित् (भी) माना जाता है। हो जाता है। पितरामातरा-VI. ifi. 32 पारेवडवा - VI. ii. 42 पितरामातरा - यह शब्द (भी वेदविषय में) निपातन 'पारेवडवा' इस समास किये हुये शब्द के (पूर्वपद को किया जाता है। . प्रकृतिस्वर होता है)। पिता -I. 1.70 पारेवडवा = विपरीत दिशा में घोड़ी के समान।। (मात् शब्द के साथ) पितृ शब्द विकल्प से शेष रह .. पादियौधेयाभ्याम् - V.II. 117 'जाता है,मातृ शब्द हट जाता है)। (शस्त्रों से जीविका कमाने वाले पुरुषों के समूहवाची ...पितामहाः - VI. ii. 35 . पार्खादि तथा यौधेयादिगणपठित प्रातिपदिकों से (स्वार्थ देखें-पितृव्यमातुल० M..35 में यथासंख्य करके अण् तथा अञ् प्रत्यय होते हैं )। पिति-VI.1.69 पायन - V.ii.75 ___ (हस्वान्त धातु को) पित् (तथा कृत) प्रत्यय के परे रहते ततीयासमर्थ पार्श्व प्रातिपदिक से (चाहता है' अर्थ में। (तुक् का आगम होता है)। कन् प्रत्यय होता है)। - पिति -VI.i. 186 पाले -VI. 1. 78 भी,ही,भू, हु, मद,जन,धन,दरिद्रा तथा जागृ धातु के (गो, तन्ति, यव-इन शब्दों को) पाल शब्द परे रहते अभ्यस्त को पित् लसार्वधातुक परे रहते प्रत्यय से पूर्व (आधुदात्त होता है)। को उदात्त होता है। तन्ति = रस्सी,डोर। पिति-VII. 1.87 पावयाक्रियात् - III. 1. 42 (अभ्यस्तसज्ज्ञक अङ्ग की लघु उपधा इक को अजादि) पावयाक्रियात् शब्द वेदविषय में विकल्प से निपातित । पित् (सार्वधातुक) प्रत्यय के परे रहते (गुण नहीं होता)। है,(साथ ही अभ्युत्सादयामकः,प्रजनयामकः,चिकयामकः, Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पितुः 361 पुक् पितुः - IV. iii. 79 पिषः - III. iv. 38 (पञ्चमीसमर्थ) पितृ प्रातिपदिक से (आगत' अर्थ में यत् (स्नेहवाची करण उपपद हो तो) पिष् धातु से (णमुल् प्रत्यय होता है तथा चकार से ठञ् प्रत्यय होता है)। प्रत्यय होता है)। ..पितुर्थ्याम् - VIII. iii. 85 ...पिषाम् -II. iii. 56 देखें - मातुःपितुर्ध्याम् VIII. Iii. 85 देखें-जासिनिग्रहण II. iii. 56 ...पितृ... - IV. 1. 30 पिष्टात् - IV. iii. 143 देखें-वाय्यतुफिशुक्स: IV. 1. 30 (षष्ठीसमर्थ) पिष्ट प्रातिपदिक से (भी विकार अर्थ में ...पितृभ्याम् -VIII. Iii. 84 मयट् प्रत्यय होता है)। देखें-मातृपितृभ्याम् VIII. iii. 84 ...पिस... - III. ii. 175 पितृव्य..-IV. 1. 35 . देखें-स्थेशभास III..ii. 175 देखें-पितृव्यमातुल० IV. ii. 35 पी-VI.i. 28 पितृव्यमातुलमातामहपितामहाः -IV. ii. 35 (ओप्यायी धातु को निष्ठा के परे रहते विकल्प से) पी पितव्य. मातुल, मातामह और पितामह शब्द निपातन आदेश होता है। किये जाते है। ...पीड.. - III. iv. 49 पितृष्वसुः - IV. 1. 132 देखें-उपपीडरुधकर्षः III. iv. 49 पितृष्वस शब्द से (अपत्य अर्थ में छण् प्रत्यय होता ...पीडाम् -VIL. iv.3 देखें- प्राजभास0 VII. iv. 3 ...पितौ-III. 1. 4 ...पीयूक्षाभ्यः -VIII. iv.5 देखें - सुप्पितौ III. 1.4 देखें-प्रनिरन्त:o VIII. iv.5 ...पिपयों:-VII. iv.77 पीलायाः -IV.i. 118 :- देखें - अतिपिपयो: VII. iv.77 षष्ठीसमर्थ पीला प्रातिपदिक से (अपत्य अर्थ में ...पिपासा... -VII. iv. 34. विकल्प से अण् प्रत्यय होता है)। देखें-अशनायोदन्यः VII. iv. 34 पील्वादि... -V.ii. 24 पिब... -VII. Ili.78 देखें - पील्वादिकर्णादिभ्यः V. 1. 24 • देखें-पिबजिन VII. iii. 78 पील्वादिकर्णादिभ्यः -V.ii. 24. पिबजिघ्रधमतिष्ठमनयच्छपश्य धौशीयसीदा:-VII. (षष्ठीसमर्थ) पील्वादि तथा कर्णादि प्रातिपदिकों से iii. 78 (यथासङ्ख्य करके 'पाक' तथा 'मूल' अर्थ अभिधेय हो (पा.घा,ध्मा,ष्ठा,म्ना,दाण, दृशिर,ऋ,स,शद्ल,षद्ल तो कणप तथा जाहच प्रत्यय होते है)। -इन अङ्गों को शित् प्रत्यय परे रहते यथासङ्ख्य करके) पिब,जिघ्र,धम,तिष्ठ,मन,यच्छ,पश्य,ऋच्छ,धौ, पु... -VII. iv.80 शीय,सीद आदेश होते हैं। देखें-पुयण्ज्य परे VII. iv. 80 पिबते: - VII. iv. 4 ...पु... - VIII. iv.2 पा पाने अङ्ग की (उपधा का चङ्परक णि परे रहते । ही देखें - अट्कुप्वा VIII. iv.2 लोप होता है. तथा अभ्यास को ईकारादेश होता है)। पुक्-VII. lil..36 पिषः - III. iv. 35 (ऋ, ह्री, व्ली, री, क्नूयी, क्ष्मायी अङ्ग को तथा (शुष्क,चूर्ण तथा रूक्ष कर्म उपपद रहते) पिष धात से आकारान्त अङ्ग को णिच् परे रहते) पुक् आगम होता • (णमुल् प्रत्यय होता है)। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुगन्त... 362 पुंयोगात् पुगन्त.. - VII. ill.86 देखें - पुगन्तलघूपधस्य VII. iii. 86 पुगन्तलघूपधस्य-VII. 11.86 पुक परे रहने पर तत्समीपस्थ अङ्ग के इक् को तथा लघुसज्जक इक उपधा को (भी सार्वधातुक तथा आर्धधातुक प्रत्यय परे रहते गुण हो जाता है)। पुच्छ... -III. 1. 20 देखें-पुच्छभाण्डचीवरात् III. 1. 20 ...पुच्छ... -V.i. 19 देखें- अगोपुच्छ V.i. 19 पुच्छभाण्डचीवरात्-III. I. 20 . पुच्छ,भाण्ड,चीवर-इन (कमों) से (णि प्रत्यय होता है, क्रियाविशेष को कहने में)। ...पुञ्जि.. - VIII. iii. 97 देखें- अम्बाम्ब० VIII. iii. 97 पुण्यम् -VI. 1. 152 (सप्तम्यन्त से परे उत्तरपद) पुण्य शब्द को (अन्तोदात्त होता है)। ....पुण्यात् - V.iv.87 देखें - सवैकदेश V.iv.87 ....पुण्येषु-III. ii. 89 -सुकमे III. 1.89 ...पुत्र... -VIII. 1.53 देखें-पतिपुत्र VIII. Iii. 53 पुत्र -VI. ii. 132 (तत्पुरुष समास में पुंल्लिङ्गवाची शब्द से उत्तर) पुत्र शब्द उत्तरपद को (आधुदात्त होता है)। पुत्रपत्योः - VI. 1. 13 (ष्यङ् को सम्प्रसारण होता है),यदि पत्र तथा पति शब्द उत्तरपद हों तो (तत्पुरुष समास में)। ...पुत्रपौत्रम् -V.ii. 10 देखें - परोवरपरम्पर० V. ii. 10 पुत्रस्य -VIII. iv.47 (आक्रोश गम्यमान हो दो आदिनी शब्द परे रहते) पुत्र शब्द को द्वित्व नहीं होता)। पुत्रात् - V. 1. 39 (षष्ठीसमर्थ) पत्र प्रातिपदिक से (कारण' अर्थ में छ तथा यत् प्रत्यय होते हैं,यदि वह कारण संयोग वा उत्पात हो तो)। पुत्रान्तात् -IV.I. 159 (गोत्र से भिन्न वृद्धसंज्ञक) पुत्रान्त प्रातिपदिक से फिञ् प्रत्यय (पूर्वसूत्रविहित) परे रहते पर विकल्प से कुक् आगम होता है।। पुत्रे - VI. iii. 21 पुत्र शब्द उत्तरपद रहते (आक्रोश गम्यमान होने पर विकल्प करके षष्ठी का अलुक् होता है)। ...पुत्रौ-I. 1.68 देखें- प्रातृपुत्रौ I. ii. 68 ....पुनर्वसु... - IV. iii. 34 देखें-अविष्ठाफल्गुन्यनुo IV. iii.34 पुनर्वस्वोः - I. ii. 61 वेदविषय में पुनर्वसु (नक्षत्र) के (द्वित्व अर्थ में विकल्प से एकत्व होता है)। ....पुनर्वस्वोः - 1. ii. 63 देखें-तिष्यपुनर्वस्वो: I. 1.63 ...पुम्... -VI.i. 165 देखें-ऊडिदम् VI.i. 165 पुम् - VII. iv. 19 (पलू अङ्ग को अङ् परे रहते) पुम् आगम होता है। पुमः -VIII. 1.6 . (अम् प्रत्याहार परे है जिससे, ऐसे खय् के परे रहते) . पुम् को (रु आदेश होता है,संहिता में)। पुमान् -I. 1.67 पुंल्लिङ्ग शब्द (स्त्रीलिङ्ग शब्द के साथ शेष रह जाता है, यदि उन शब्दों में स्त्रीत्व पुंस्त्वकृत ही विशेष हो, अन्य प्रकृति आदि सब समान ही हो)। पुम्थ्यः -VI. 1. 132 (तत्पुरुष समास में) पुंल्लिङ्गवाची शब्दों से उत्तर (पुत्र शब्द उत्तरपद को आधुदात्त होता है)। पुंयोगात् - IV. 1.48 पुरुष के साथ सम्बन्ध होने के कारण (जो प्रातिपदिक स्त्रीलिङ्ग में वर्तमान हो तथा पुल्लिङ्ग को पहले कह चुका हो, ऐसे अदन्त अनुपसर्जन) प्रातिपदिक से (ङीष् प्रत्यय होता है)। Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुंवत् 363 ...पुरस पुंवत् -I. 1.66 पुंसि - VII. i. 111 (गोत्रप्रत्ययान्त स्त्रीलिङ्ग शब्द युवप्रत्ययान्न के साथ (इदम् शब्द के इद् रूप को) पुंल्लिङ्ग में (आ आदेश शेष रह जाता है और गोत्रप्रत्ययान्त शब्द को) पुंल्लिङ्ग होता है.स विभक्ति परे रहते)। के समान कार्य (भी) होता है,(यदि उन दोनों में वृद्धयुव । पुजि - VII. vi. 80 -प्रत्यय -निमित्तक ही वैरूप्य हो और सब समान हो)। (अवर्णपरक) पवर्ग,यण तथा जकार पर वाले (उवर्णान्त पुंवत् - VI. iil. 33 अभ्यास को इकारादेश होता है.सन परे रहते)। (एक ही अर्थ में अर्थात् एक ही प्रवृत्तिनिमित्त को लेकर भाषित= कहा है पुल्लिङ्ग अर्थ को जिसने,ऐसे ऊवर्जित पुर... - V. iii. 39 भाषितपुंस्क स्त्री शब्द के स्थान में) पुल्लिङ्गवाची शब्द के देखें -पुरषक: V. iii. 39 समान रूप हो जाता है; (पुरणी तथा प्रियादिवर्जित ...पुर... -V.iv..74 स्त्रीलिङ्ग समानाधिकरण उत्तरपद रहते)। देखें-ऋक्पूरब्यू: V. iv.74 पुंवत् -VI. 1.41 ...पुर... - IV. ii. 121 (कर्मधारय समास में तथा जातीय एवं देशीय प्रत्ययों देख-प्रस्थपुरov.ii. 121 के परे रहते ऊवर्जित भाषितपुंस्क स्त्री शब्द को) पुंव पुरः -I. iv.67 • भाव हो जाता है। (अव्यय) जो पुरस् शब्द,उसकी (क्रिया के योग में गति पुंक्द् - VII.1.74 ... और निपात संज्ञा होती है)। (तृतीया विभक्ति से लेकर आगे की विभक्तियों के परे लकर आग का विभक्तियों के पर पुरगा... -VIII. iv. 4 रहते भाषितपुंस्क नपुंसकलिङ्ग वाले इगन्त अङ्ग को देखें-पुरगामिश्रका VIII. iv.4 गालव आचार्य के मत में) पुंवद्भाव हो जाता है। पुरगामिश्रकासिधकाशारिकाकोटराग्रेभ्यः - VIII. iv. पुंस-VII. 1. 89 पुंस् अङ्ग के स्थान में (सर्वनामस्थान परे रहते असुङ् पुरगा, मिश्रका, सिध्रका, शारिका, कोटरा, अग्रे - इन आदेश होता है)। शब्दों से उत्तर (वन शब्द के नकार को णकारादेश होता ...पुंसाभ्याम् - IV.I.87 है, सञ्जाविषय में)। देखें - सीपुंसाभ्याम् IV. 1. 87 पुरघकः -v.ii. 39 पुंसि - II. iv. 29 (दिशा, देश. तथा काल अर्थों में वर्तमान सप्तम्यन्त, (रात्र, अह, अह - ये कृतसमासान्त शब्द) पुंल्लिङ्ग पञ्चम्यन्त तथा प्रथमान्त दिशावाची पूर्व,अधर तथा अवर में होते हैं। प्रातिपदिकों से असि प्रत्यय होता है और प्रत्यय के साथपुंसि-II. iv. 31 साथ इन शब्दों को यथासंख्य करके) पुर, अध् तथा अव् (अर्धर्च आदि शब्द) पुंल्लिङ्ग (और नपुंसकलिङ्ग में आदेश होते है। होते हैं। ....पुरन्दरौ-VI. iii. 68 पुंसि-III. Ili. 118 देखें-वाचंयमपुरन्दरौ VI. iii.68 (धातु से करण और अधिकरण कारक में) पुंल्लिङ्ग में (प्रायः करके घ प्रत्यय होता है, यदि समदाय से संज्ञा ...पुरश्चरण... -IV. iii. 72 पुर प्रतीत होती है)। देखें-द्वयब्राह्मण IV. iii. 72 पुंसि-VI.1.99 पुरस्... -III. 1. 18 (प्रथमयोः पूर्वसवर्णः सूत्र से किये हुये पूर्वसवर्ण दीर्घ देखें -पुरोऽप्रतो० III. II. 18 से उत्तर शस के अवयव सकार को नकार आदेश होता ...पुरस: - IV. 1. 98 है); पुंल्लिङ्ग में। देखें-दक्षिणापश्चात् IV. 1. 98 ' Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...पुरसोः 364 पुरोडाशे - ...पुरसो: - VIII. iii. 40 पुरुषः - VI. ii. 190 देखें - नमस्पुरसो: VIII. iii. 40 (अनु उपसर्ग से उत्तर अन्वादिष्टवाची) पुरुष शब्द को पुरस्तात् - V. iii. 68 (भी अन्तोदात्त होता है)। (किञ्चित् न्यून' अर्थ में वर्तमान सुबन्त से विकल्प से ...पुरुषयोः - III. iv. 43 बहुच प्रत्यय होता है और वह सुबन्त से) पूर्व में (ही होता देखें - जीवपुरुषयोः III. iv. 43 पुरुषहस्तिभ्याम् – V. ii. 38 पुरा-VIII. I. 42 (प्रथमासमर्थ प्रमाणसमानाधिकरणवाची) पुरुष तथा पुरा शब्द से युक्त तिडन्त को भी शीघ्रता अर्थ गम्य- हस्तिन् प्रातिपदिकों से (षष्ठ्यर्थ में अण् तथा द्वयसच, मान होने पर अनुदात्त नहीं होता)। दनच् और मात्रच प्रत्यय होते है)। ...पुराण.. - II.1.48 पुरुषात् - IV. 1. 24 देखें - पूर्वकालैकसर्वजरत् II. 1. 48 (प्रमाण अर्थ में वर्तमान जो) पुरुष शब्द,(तदन्त अनुपुराणप्रोक्तेषु - IV. ii. 105 पसर्जन द्विगुसंज्ञक प्रातिपदिक) से (तद्धित का लुक होने (तृतीयासमर्थ प्रातिपदिक से) पुराणप्रोक्त (ब्राह्मण और पर स्त्रीलिङ्ग में विकल्प से ङीप् प्रत्यय नहीं होता अर्थात् .. कल्प अभिधेय हो तो प्रोक्त अर्थ में णिनि प्रत्यय होता । विकल्प से हो जाता है)। . ...पुरुषाभ्याम् -V.i. 10 ...पुरानिपातयोः - III. 1.4 . देखें-सर्वपुरुवाभ्याम् V. 1. 10 देखें- यावत्पुरानिपातयोः III. ii. 4 - ....पुरुषायुष... - V. iv.78 पुरि -III. ii. 120 देखें- अचतुरविचतुर० V.iv.78 (स्म शब्द उपपदरहित) पुरा शब्द उपपद हो तो (अन पुरुष - VI. iii. 105 द्यतन भूतकाल में धातु से लुङ् प्रत्यय विकल्प से होता पुरुष शब्द उत्तरपद हो, तो (कु शब्द को विकल्प से का है,चकार से लट् भी होता है)। आदेश हो जाता है)। ....पुरीष... -III. ii. 65 पुरे -VI. 1.99 देखें-कव्यपुरीक० III. 1.65 पुर शब्द उत्तरपद रहते (प्राच्य भारत के देशों को कहने पुरी -IV. iii. 142 में पूर्वपद को अन्तोदात्त होता है)। . (षष्ठीसमर्थ गो प्रातिपदिक से भी) मल अभिधेय होने पुरोऽग्रतोऽग्रेषु - III. ii. 18 . पर (मयट् प्रत्यय होता है)। पुरस, अग्रतस्, अग्रे-ये अव्यय उपपद रहते (सृ धातु ...पुरीष्येषु -III. ii. 65 से ट प्रत्यय होता है)। देखें-कव्यपुरीष० III. ii. 65 पुरोडाः - VIII. ii. 67 ..पुरु.. -V.iv.56 पुरोडाः शब्द दीर्घ किया हुआ सम्बुद्धि में निपातित है। . देखें-देवमनुष्य V.iv.56 ...पुरोडाश: - III. ii. 71 ...पुरुदंस: -VII.i.94 देखें - ऋदुशनस्पुरुदंसोनेहसाम् VII. 1. 94 देखें-श्वेतवहोक्थशस्o III. ii. 71 ...पुरोडाशात् - IV. iii. 70 पुरुष.. -V.ii. 38 देखें-पौरोडाशपुरोडाशात् IV. iii. 70 देखें- पुरुषहस्तिभ्याम् V. 1. 38 पुरोडाशे - IV. ii. 145 ...पुरुष.. -V. iv.56 (षष्ठीसमर्थ व्रीहि प्रातिपदिक से) पुरोडाशरूप विकार देखें-देवमनुष्य v. iv.56 अभिधेय होने पर (मयट् प्रत्यय होता है)। Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...पुरोहितादिभ्यः 365 पूजायाम् ...पुरोहितादिभ्यः - V.i. 127 देखें-पत्यन्तपुरोहिताo V. 1. 127 पुकः -III. 1. 183 वह करण कारक हल् तथा सूकर का अवयव हो तो)। पुकः-III. ii. 185 पूज् धातु से (संज्ञा गम्यमान हो,तो करण कारक में इत्र प्रत्यय होता है, वर्तमानकाल में)। पुषः - III. iv. 40 (स्ववाची करण उपपद रहते) पुष धातु से (णमुल प्रत्यय होता है)। पुषादि... -III. 1.55 देखें - पुवादिधुतालुदित III. 1. 55 पुषादिधुताब्लदित - III. 1.55 पुषादि, द्युतादि तथा लुदित् धातुओं से उत्तर (च्लि को अङ् आदेश होता है,कर्तृवाची लुङ् परस्मैपद परे रहते)। पुष्करादिभ्यः - V.ii. 135 पुष्करादि प्रातिपदिकों से (मत्वर्थ' में इनि प्रत्यय होता है, देश वाच्य होने पर)। ...पुष्य.. -IV. 1.64 देखें - पाककर्णपर्ण IV.i.64 ....पुष्यत् - IV. iii. 43 देखें-साधुपुष्यत् M. iii. 43 पुष्य.. -III. 1. 116 .देखें-पुष्यसिद्धधौ III. I. 116 पुष्यसिद्धचौ-III.i. 116 (नक्षत्र अभिधेय हो तो अधिकरण कारक में) पुष्य और सिख्य शब्द क्यप् प्रत्ययान्त निपातन किये जाते हैं। ....पू...-III. iii. 49 देखें-अयतियौतिक III. iii. 49 ...पू.. -VIII. iv. 33 . देखें-भाभूपू० VIII. iv.33 पू:... -III. 1. 41 देखें-पू.सर्वयोः III. ii.41 पसर्वयोः -III. 1. 41 पुर तथा सर्व (कर्म) के उपपद रहते (ण्यन्त 'द' विदारणे धातु से तथा सह धातु से यथासंख्य करके खच् प्रत्यय होता है)। ...पूग... - V. ii. 52 देखें-बहुपूग० V. ii. 52 पूगात् -V.Ili. 112. (प्रामणी पर्व अवयव न हो जिसके ऐसे) पगवाची = अर्थ और काम में आसक्त पुरुषों के नानाजातीय और अनियत वृत्तिवाला समूह, तद्वाची प्रातिपदिकों से (ज्य प्रत्यय होता है,स्वार्थ में)। - पूगेषु – VI. ii. 28 पूगवाची = अर्थ और काम में आसक्त पुरुषों के नानाजातीय और अनियत वृत्तिवाला समूह,तद्वाची शब्द उत्तरपद रहते (कर्मधारय समास में कुमार शब्द को विकल्प से आधुदात्त होता है)। पूङ्... -III. ii. 128 देखें - पूड्यजोः III. ii. 128 ...पू... - VII. II. 74 देखें - स्मिपू० VII. 11. 74 पूड-I.ii. 22 'पूङ् पवने' धातु से परे (सेट निष्ठा तथा सेट् क्त्वा प्रत्यय भी कित् नहीं होता है)। पूड:- VII. ii. 51 पूङ् धातु से उत्तर (भी क्त्वा तथा निष्ठा को इट् आगम विकल्प से होता है)। पूड्यजोः -III. 1. 129 पूङ् तथा यज् धातुओं से (वर्तमान काल में शानन् प्रत्यय होता है)। पूजनात् - V. iv.69 पूजनवाची प्रातिपदिक से (समासान्त प्रत्यय नहीं होते)। पूजनात् - VIII. 1.67 पूजनवाची शब्दों से उत्तर (पूजितवाची शब्दों को अनुदात्त होता है)। पूजायाम् -I.iv.93 पूजा अर्थ में (सु शब्द कर्मप्रवचनीय और निपात-संज्ञक होता है)। पूजायाम् -II. ii. 12 पूजा अर्थ में (विहित क्त प्रत्ययान्त के साथ षष्ठ्यन्त सुबन्त का समास नहीं होता। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजायाम् पूजायाम् - VI. iv. 30 पूजा अर्थ में (अ अङ्ग की उपधा के नकार का लोप नहीं होता है। पूजायाम् -VII. i. 53 (अशु धातु से उत्तर) पूजा अर्थ में (क्त्वा तथा निष्ठा को इट् आगम होता है) । 366 पूजायाम् - VIII. 1. 37 ( यावत् और यथा से युक्त अव्यवहित तिङन्त को) पूजा विषय में (अननुदात्त नहीं होता अर्थात् अनुदात्त ही होता है)। पूजायाम् - VIII. 1. 39 (तु, पश्य, पश्यत, अह - इनसे युक्त तिङन्त को) पूजा-विषय में (अनुदात्त नहीं होता) । ... पूजार्थेभ्य: - III. 1. 188 देखें - मतिबुद्धि III. ii. 188 ... पूजि... - III. iii. 105 देखें - चिन्तिपूजिo III. iii. 105 पूजितम् - VIII. 1.67 (पूजनवाची शब्दों से उत्तर) पूजितवाची शब्दों को (अनुदात्त होता है)। पूज्यमानम् - II. 1. 61 पूज्यमानवाची (सुबन्त) शब्द (वृन्दारक, नाग, कुञ्जर इन समानाधिकरण सुबन्तों के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होता है और वह तत्पुरुष समास होता है)। पूज्यमानैः - II. 1. 60 (सत् महत्, परम, उत्तम, उत्कृष्ट- ये शब्द समानाधिकरण) पूज्यमानवाची (सुबन्त) शब्दों के साथ (विकल्प से समास को प्राप्त होते हैं और वह समास तत्पुरुषसंज्ञक होता है) । - .. पूत... - VI. ii. 187 देखें - स्फिगपूतo VI. ii. 187 पूतक्रतोः - IV. 1. 36 अनुपसर्जन पूतक्रतु प्रातिपदिक से (स्त्रीलिङ्ग में ङीप् प्रत्यय होता है तथा ऐकार अन्तादेश भी हो जाता है ) । पूतक्रतु = इन्द्र । ... पूति... - V. iv. 135 देखें - उत्पूतिo Viv. 135 पूरण... - II. ii. 11 देखें - - पूरणगुणसुहितार्थ II. 1. 11 पूरण... - V. i. 47 देखें - पूरणार्थात् V. 1. 47 पूरणगुणसुहितार्थसदव्ययतव्यसमानाधिकरणेन – II. ii. 11 पूरण प्रत्ययान्त, गुणवाची शब्द, सुहित तृप्ति अर्थ वाले, सत्सञ्ज्ञक प्रत्यय, अव्यय, तव्यप्रत्ययान्त तथा समानाधिकरणवाची शब्दों के साथ (षष्ठ्यन्त सुबन्त समास को प्राप्त नहीं होते) । ...पूरणयो: - VI. 1. 162 देखें - प्रथमपूरणयो: VI. 1. 162 .....पूरण्योः पूरणात् - Vii. 130 पूरण- प्रत्ययान्त शब्दों से ( अवस्था गम्यमान हो तो 'मत्वर्थ' में इनि प्रत्यय होता है) । . पूरणात् - V. iii. 48 ( भाग' अर्थ में वर्त्तमान) पूरणार्थक (तीय प्रत्ययान्त) प्रातिपदिकों से (स्वार्थ में अन् प्रत्यय होता है) । पूरणार्द्धात् - V. 1. 47 (प्रथमासमर्थ) पूरणवाची प्रातिपदिकों से तथा अर्ध प्रातिपदिक से (सप्तम्यर्थ में ठन् प्रत्यय होता है, यदि 'वृद्धि = व्याज के रूप में दिया जाने वाला द्रव्य, 'आय' = जमींदारों का भाग, 'लाभ' = मूल द्रव्य के अतिरिक्त प्राप्य द्रव्य, 'शुल्क' = राजा का भाग तथा 'उपदा' = घूस – ये 'दिया जाता है' क्रिया के कर्म हों तो) । पूरणी... - V. iv. 116. देखें - पूरणीप्रमाण्योः v. iv. 116 पूरणीप्रमाण्योः - Viv. 116 पूरण प्रत्ययान्त (जो स्त्रीलिङ्ग) शब्द तथा प्रमाणी अन्तवाले (बहुव्रीहि) से (समासान्त अप् प्रत्यय होता है) । पूरणे - V. ii. 48 (षष्ठीसमर्थ सङ्ख्यावाची प्रातिपदिकों से 'पूरण' अर्थ में (डट् प्रत्यय होता है)। ...पूरण्योः - VI. iii. 37 देखें - संज्ञापूरण्यो: VI. iii. 37 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूरयितव्ये .367 पूर्वपरयोः पूरयितव्ये - VI. iii. 58 पूर्व: - VI. 1. 131 जिसे पूरा किया जाना चाहिये,तद्वाची (एक = असहाय (ककार से) पूर्व (सुट् का आगम होता है),यह अधिकार हल् है आदि में) ऐसे शब्द के उत्तरपद रहते उदक शब्द है। के स्थान में विकल्प करके उद आदेश होता है)। पर्वकाल... -II. I. 48 ...पूरि... -III.i. 61 * देखें - पूर्वकालैकसर्वजरत II. I. 48. देखें-दीपजनबुध III.i. 61 पूर्वकाले - III. iv. 21 पूरेः - III. iv. 31 (दो क्रियाओं का एक कर्ता होने पर) उनमें से पूर्वकाल (चर्म तथा उदर कर्म उपपद रहते) ण्यन्त पूरी धातु से में वर्तमान (धातु से क्त्वा प्रत्यय होता है)। (णमुल् प्रत्यय होता है)। पूर्वकालैकसर्वजरत्पुराणनवकेवला: - II. I. 48 ...पूरोः - III. iv. 44 पूर्वकाल, एक, सर्व, जरत, पुराण, नव, केवल - ये देखें-शुषिपूरो: III. iv. 44. (सुबन्त) शब्द (समानाधिकरण सुबन्त के साथ विकल्प से ...पूर्ण... -VII. ii. 27 समास को प्राप्त होते है और वह समास तत्पुरुषसंज्ञक देखें-दान्तशान्तपूर्ण VII. ii. 27 होता है)। पूर्णात् - V. iv. 149 पूर्वत्र -VIII. ii.1 पूर्ण शब्द से उत्तर (काकद शब्द का विकल्प से समा (यह अधिकार सूत्र है। यहां से आगे अध्याय की सान्त लोप होता है, बहुव्रीहि समास में)। समाप्तिपर्यन्त) पूर्व-पूर्व की दृष्टि में अर्थात् सवा सात पूर्व... -I.i. 33 अध्याय में कहे गये सूत्रों की दृष्टि में (तीन पाद के सूत्र देखें - पूर्वपरावरदक्षिणोत्तरापराधराणि I. 1. 33 असिद्ध होते है)। पूर्व.. -II.i. 30 देखें - पूर्वसदृशसमोनार्थ. II. 1. 30 पूर्वपदम् – VI. ii.1 . पूर्व.. - II. 1.57 (बहुव्रीहि समास में) पूर्वपद (प्रकृतिस्वर वाला होता देखें - पूर्वापरप्रथम II. I. 57 पूर्व... - II. ii.1 पूर्वपदस्य-VII. iii. 19 देखें-पूर्वापराधरो० II. ii.1 (हृद. भग.सिन्ध-ये शब्द अन्त में है जिन अङगों पूर्व... - V. iii. 39 के, उनके) पूर्वपद के (तथा उत्तरपद के अचों में आदि देखें.- पूर्वाधरा० v. iii. 39 अच् को भी जित, णित् तथा कित् तद्धित परे रहते वृद्धि ....पूर्व... -V.ili.111 होती है)। देखें -प्रत्नपूर्व०V iii. 111 पूर्व... -VI.i. 81 पूर्वपदात् - VIII. iii. 106 देखें-पूर्वपरयो: VI. 1.81 पूर्वपद में स्थित निमित्त से उत्तर (सकार को वेद-विषय पूर्व: -1.1.64 में कई आचार्यों के मत में मूर्धन्य आदेश होता है)। (अन्त्य अल से) पूर्व वाला (अल् उपधासंज्ञक होता है)। पर्वपदात -VIII. iv.3 पूर्व: - VI.i.4 (गकारभिन्न) पूर्वपद में स्थित निमित्त से उत्तर (जो इस प्रकरण में द्वित्व कहा है, उन दोनों में) जो पूर्व । संज्ञाविषय में नकार को णकारादेश होता है)। . है,वह (अभ्याससञक होता है)। पूर्वपरयोः - VI. 1. 81 पूर्वः - VI. 1. 103 (अक् प्रत्याहार से उत्तर अम् विभक्ति के परे रहते) 'पूर्व और पर दोनों के स्थान में (एक आदेश होगा', पूर्वरूप (एकादेश) होता है। यह अधिकृत होता है)। Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वपरावरदक्षिणोत्तरापराधराणि 368 पूर्वस्य । पूर्वपरावरदक्षिणोत्तरापराधराणि - I. 1. 33 . पूर्वविधौ -I. 1. 56 पूर्व, पर, अवर, दक्षिण, उत्तर, अपर, अधर शब्द (जस्- पूर्व को विधि करने में (परनिमित्तक आदेश स्थानिवत् सम्बन्धी कार्य में विकल्प से सर्वनामसंज्ञक होते हैं, यदि होता है)। संज्ञा से भिन्न व्यवस्था हो तो)। पूर्वसदृशसमोनार्थकलहनिपुणमिश्रश्लक्ष्णैः - II. 1. 30 पूर्वम् -II. 1.30 (तृतीयान्त सुबन्त का) पूर्व, सदृश, सम,ऊनार्थ,कलह, . . (समास में उपसर्जनसंज्ञक का) पूर्व प्रयोग होता है। निपुण, मिश्र, श्लक्ष्ण - इन (सुबन्तों) के साथ (विकल्प पूर्वम् - VI. i. 186 से समास हो जाता है और वह समास तत्पुरुषसंज्ञक होता (भी, ही, भू, हु, मद,जन, धन,दरिद्रा तथा जागृ धातु के अभ्यस्त को पित् लसार्वधातुक परे रहते प्रत्यय से) पूर्व ...पूर्वसवर्ण... - VII. 1. 39 को (उदात्त होता है)। देखें - सुलुक्० VII. 1. 39 पूर्वसवर्ण: - VI. 1. 98 पूर्वम् - VI.i. 213 (अक प्रत्याहार के पश्चात् प्रथमा और द्वितीया । (मतुप से) पूर्व (आकार को उदात्त होता है, यदि वह विभक्ति के अच् के परे रहते पूर्व,पर के स्थान में पूर्व) मत्वन्त शब्द स्त्रीलिङ्ग में समाविषयक हो तो)। जो वर्ण,उसका सवर्ण (दीर्घ एकादेश) हो जाता है। पूर्वम् - VI. ii. 83 पूर्वस्मिन् - III. iv.4 (ज' उत्तरपद रहते बहुत अच् वाले पूर्वपद के अन्त्य पूर्व के लोट-विधायक सूत्र में (जिस धातु से लोट् का अक्षर से) पूर्व को (उदात्त होता है)। विधान किया गया हो, पश्चात् उसी धातु का अनुप्रयोग पूर्वम् - VI. ii. 173 होता है)। (नञ् तथा सु से उत्तर उत्तरपद के कप् के परे रहते) पूर्वस्य -I.i.65 उससे पूर्व को (उदात्त होता है)। (सप्तमी विभक्ति से निर्देश किया हुआ.जो शब्द,उससे पूर्वम् - VI. 1. 174 अव्यवहित) पूर्व को कार्य होता है। (नज तथा स से उत्तर बहुव्रीहि समास में हस्वान्त उत्त पूर्वस्य - I. iv. 400 रपद में अन्त्य से) पूर्व को (उदात्त होता है,कप् परे रहते)। (प्रति एवं आपूर्वक श्रु धातु के प्रयोग में) पूर्व का (जो पूर्वम् - VIII.i.72 कर्ता, वह कारक सम्प्रदान-संज्ञक होता है)। किसी पद से) पूर्व (आमन्त्रितसञ्जक पद हो तो वह पर्वस्य -VI.ili. 110 आमन्त्रितपद अविद्यमान के समान माना जावे)। (ढ एवं रेफ को लोप हुआ है जिसके कारण, उसके परे पूर्वम् - VIII. ii. 98 रहते) पूर्व के (अण् को दीर्घ होता है)। (विचार्यमाण वाक्यों के पूर्ववाले वाक्य की टि को ही पूर्वस्य - VI. iv. 156 भाषाविषय में प्लुत उदात्त ोता है)। (स्थूल, दूर, युव, ह्रस्व, क्षिप्र, क्षुद्र-इन अङ्गों का पर पूर्ववत् - I. iii. 61 जो यणादि भाग,उसका लोप होता है; इष्ठन् इमनिच् और (सन प्रत्यय के आने से पूर्व जो धातु आत्मनेपदी रही ईयसुन परे रहते तथा उस यणादि से) पूर्व को (गुण होता हो,उससे सन्नन्त होने पर भी) पूर्व के समान (आत्मनेपद है)। होता है)। पूर्वस्य - VII. iii. 26 पूर्ववत् - II. iv. 27 (अर्ध शब्द से उत्तर परिमाणवाची उत्तरपद के अचों में पूर्व के समान (लिङ्ग होता है, अश्व और वडवा का आदि अच् को वृद्धि होती है) पूर्वपद को (तो विकल्प से द्वन्द्व समास करने पर)। होती है; जित्, णित् तथा कित् तद्धित परे Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वस्य 369 ..पूर्व पूर्वस्य - VII. ii. 44 ....पूर्वापर... - II. iv. 12 (प्रत्यय में स्थित ककार से) पूर्व (अकार) के स्थान में देखें - वृक्षमृगतृणधान्य II. iv. 12 (इकारादेश होता है, आप परे रहते; यदि वह आप सुप् पूर्वापराधरोत्तरम् - II. ii.1 से उत्तर न हो तो)। पूर्व, अपर, अधर, उत्तर-ये (सुबन्त) शब्द (एकद्रव्यपूर्वस्य -VIII. ii. 42 वाची अवयवी सुबन्त के साथ विकल्प से समास को . रेफ तथा दकार से उत्तर निष्ठा के तकार को नकारादेश प्राप्त होते हैं और वह तत्पुरुष समास होता है)। होता है, तथा निष्ठा के तकार से) पूर्व के (दकार को भी पूर्वापरप्रथमचरमजघन्यसमानमध्यमध्यमवीरा: - नकारादेश होता है)। II.i. 57 पूर्वस्य - VIII. I. 107 पूर्व, अपर, प्रथम, चरम, जघन्य, समान, मध्य, मध्यम, (दूर से बुलाने के विषय से भिन्न विषय में अप्रगृह्य- . वीर-ये (विशेषणवाची सुबन्त) शब्द (भी विशेष्यवाची सज्ञक एच् के) पूर्व के (अर्द्धभाग को प्लुत करने के प्रसङ्ग में आकारादेश होता है तथा उत्तरवाले भाग को इकार समानाधिकरण सुबन्तों के साथ विकल्प से तत्पुरुष समास उकार (आदेश होते हैं)। को प्राप्त होते हैं)। पूर्वस्य - VIII. iii. 2 पूर्वाण... - IV. iii. 24 (यहाँ से आगे जिसको रु विधान करेंगे, उससे) पूर्व के । देखें - पूर्वाणापराहणाभ्याम् IV. iii. 24 वर्ण को (तो विकल्प से अनुनासिक आदेश होता है ऐसा पूर्वाहण.. -IV. iii. 28 अधिकार इस रुत्व-विधान-प्रकरण में समझना चाहिये। देखें-पूर्वाहणापराहणाo Vifi. 28 पूर्वाणापराहणाभ्याम् – IV. iii. 24 पूर्वस्य - VIII. iv.60 (उत् उपसर्ग से उत्तर स्था तथा स्तम्भ को) पूर्वसवर्ण ' (कालवाची) पूर्वाण, अपराह्य शब्दों से (विकल्प से आदेश होता है)। ट्यु तथा ट्युल् प्रत्यय होते हैं तथा उनको तुट् आगम भी होता है)। पूर्वात् - V. ii. 86 'प्रथमासमर्थ पूर्व प्रातिपदिक से (इसके द्वारा' अर्थ में पूर्वाणापराणा मूलप्रदोषावस्करात्- IV. ill. 28 इनि प्रत्यय होता है)। पूर्वाण, अपराग, आर्द्रा, मूल, प्रदोष, अवस्कर (सप्त मीसमर्थ) प्रातिपदिकों से (जात अर्थ में वुन् प्रत्यय होता ....पूर्वात् - V. iv. 98 देखें - उत्तरमृगपूर्वात् V. iv. 98 पूर्वादिभ्यः - VII.1.16 पूर्वे - III. ii. 19 पूर्व है आदि में जिसके,ऐसे पूर्वादिगणपठित (नौ सर्व- (कर्तृवाची) पूर्व शब्द उपपद रहते (स्' धातु से 'ट' नामों) से उत्तर (डसि तथा ङि के स्थान में क्रमशः स्मात् प्रत्यय होता है)। तथा स्मिन् आदेश विकल्प से होते है)। पूर्वे -VI. ii. 22 पूर्वाधरावराणाम् – V. ii. 39 पूर्व शब्द उत्तरपद रहते (भूतपूर्ववाची तत्पुरुष समास (दिशा, देश तथा काल अर्थों में वर्तमान सप्तम्यन्त, में पूर्वपद को प्रकृतिस्वर हो जाता है)। पञ्चम्यन्त तथा प्रथमान्त दिशावाची) पूर्व,अधर तथा अवर ...पवेद्यस...-v.iii. 22 प्रातिपदिकों से (असि प्रत्यय होता है और प्रत्यय के देखें- सद्य:परुत v. iii. 22 साथ-साथ इन शब्दों को यथासंख्य करके पुर, अधू तथा ....पूर्वेषु-III. iv. 24 अव आदेश होते है)। देखें - अप्रथमपूर्वेषु III. iv. 24 Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 370 पूर्व: - Viv. 133 (तृतीयासमर्थ) पूर्व प्रातिपदिक से (किया हुआ' अर्थ में इन और य प्रत्यय होते हैं)। पूर्वी - VII. iii. 3 (पदान्त यकार तथा वकार से उत्तर जित.णित. कित तद्धित परे रहते अङ्ग के अचों में आदि अच् को वृद्धि नहीं होती, किन्तु उन यकार, वकार से) पूर्व (तो क्रमशः ऐच = ऐ और औ आगम होता है)। पूल्योः -III. iii. 28 (निर, अभि पूर्वक क्रमशः) पू.लू धातुओं से (कर्तृभिन्न कारक संज्ञाविषय तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है)। ...पूर्व.. - VI. ii. 142 देखें- अपृथिवीरुद्र ०VI. ii. 142 ...पूषन्... - VI. iv. 12 देखें-इन्हन्यूषार्यम्णाम् VI. iv. 12 ...पृ... -VI. iv. 102 देखें- शृणु VI. iv. 102 ...पृच्छति... -VI.i. 16 देखें- अहिज्याo VI... 16 पृतनाभ्याम् - VIII. iii. 109 पृतना तथा ऋत शब्द से उत्तर (भी सह धातु के सकार को वेद-विषय में मूर्धन्य आदेश होता है)। ...प्रतनस्य-VII. iv. 39 देखें-कव्यध्वर VII. iv.39 पृतना... -VIII. 1. 109 देखें-पृतनाभ्याम् VIII. ii. 109 पृथक्... -II. ii. 32 देखें- पृथग्विनानानाभि II. 11. 32 पृथग्विनानानाभि-II. 11. 32 पृथक, विना, नाना-इन शब्दों के योग में (ततीया म (तृताया विभक्ति विकल्प से होती है.पक्ष में पञ्चमी भी होती है)। ...पृथिवीभ्याम् - V. 1. 40 देखें-सर्वभूमिपृथिवीभ्याम् V. 1. 40 पृथिव्याम्-VI. iii. 29 पृथिवी शब्द उत्तरपद रहते (देवताद्वन्द्व में दिव शब्द को दिवस् आदेश होता है तथा चकार से द्यावा आदेश भी हो जाता है)। ....पृथु... - VI. ii. 168 देखें - अव्ययदिक्शब्द० VI. ii. 168 पृथ्वादिभ्यः - V.i. 121 (षष्ठीसमर्थ) पृथु आदि प्रातिपदिकों से (भाव' अर्थ में विकल्प से इमनिच् प्रत्यय होता है)। पृषोदरादीनि-VI. iii. 108 पृषोदर इत्यादि शब्दरूप शिष्टों के द्वारा जिस प्रकार उच्चरित है, वैसे ही साधु माने जाते हैं)। पृष्टप्रतिक्चने - III. ii. 120 पृष्टप्रतिवचन अर्थात् पूछे जाने पर जो उत्तर दिया जाये, . उस अर्थ में (ननु शब्द उपपद रहते सामान्य भूतकाल में . लट् प्रत्यय होता है)। पृष्टप्रतिवचने - VIII. ii. 93 पूछे गये प्रश्न के प्रत्युत्तर वाक्य में (वर्तमान हि शब्द को विकल्प करके प्लुत उदात होता है)। ....पृष्ठ.. -VI. ii. 114 देखें-कण्ठपृष्ठ. VI. ii. 114 ...पृष्ठ.. -VIII. iii. 53 . देखें-पतिपुत्र० VIII. iii. 53 ...पृ... -III. 1. 177 देखें- प्राजभास III. ii. 177 ....... - VIII. ii. 57 देखें- ध्याख्या VIII. ii. 57 पे-VIII. iii. 10 (नन शब्द के नकार को) प परे रहते (रु होता है)। पेषम् - VI. iii. 57 देखें-पेवासवाहन VI. iii. 57 पेषवासवाहनधिषु -VI. iii. 57 पेष, वास, वाहन तथा धि शब्द के उत्तरपद रहते (भी उदक शब्द को उद आदेश होता है)। - पेषम् = पीसना, चूरा करना। पैलादिभ्यः -II. iv. 59 पैल आदि शब्दों से भी (युवापत्य विहित प्रत्यय का लुक होता है)। पो: -III.1.98 (अकार उपधावाली) पवर्गान्त धातु से (यत् प्रत्यय होता Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 371 प्रकृत्या ...पो: - III. ii. 8 देखें- गापोः III. ii. 8 पोटा... -II. 1.64 देखें -पोटायुवतिस्तोक II.1.64 पोटायुवतिस्तोककतिपयगृष्टिधेनुवशावेहष्कयणीप्रवक्त- श्रोत्रियाध्यापकपूतः - II. 1. 64 (जातिवाची सबन्त शब्द) पोटा.यवति.स्तोक कतिपय. गृष्टि,धेनु,वशा,वेहद् वष्कयणी,प्रवक्तृ,श्रोत्रिय,अध्यापक, धूर्त-इन(समानाधिकरणसमर्थ सुबन्तों) के साथ(समास को प्राप्त होता है और वह तत्पुरुष समास होता है)। ...पोत... - VI. iv. 11 देखें- अप्तन्त VI. iv. 11 ...पोवेषु - VIII. iii. 53 देखें-पतिपुत्र VIII. iii. 53 ...पौ-VIII. iii. 37 देखें-क पौVIII. 1.37 पौर्णमासी - IV.ii. 20 (प्रथमासमर्थ) पौर्णमासी विशेषवाची प्रातिपदिक से को (अधिकरण अभिधेय होने पर यथाविहित अण प्रत्यय होता है)। .....पौर्णमासी... - V. iv. 110 देखें-नदीपौर्णमास्याo v. iv. 110 पौत्रप्रभृति - IV. 1. 162 पौत्र से लेकर (जो सन्तान उसकी गोत्रसंज्ञा होती है)। पौरोडाश:.'-IViii.70 देखें - पौरोडाशपुरोडाशात् IV. il. 70 पौरोडाशपुरोडाशात् - IV. iii. 70 (षष्ठी, सप्तमीसमर्थ) पौरोडाश, पुरोडाश प्रातिपदिकों से (भव और व्याख्यान अर्थों में ष्ठन् प्रत्यय होता है)। प्यायः -VI. 1. 128 ओप्यायी धातु को (निष्ठा के परे रहते विकल्प से पी आदेश होता है)। ..प्यायिभ्यः -III. 1.61 देखें-दीपजन III.1.61 ...प्यायी... - VIII. iv. 33 . देखें- भाभूपू0 VIII. iv. 33 ...प्र...-I. iii. 22 देखें -समवप्रविश्यः I.11.22 प्र..-I. iii. 42 देखें-प्रोपाभ्याम् I. iii. 42 प्र.. - I. iii. 64 देखें-प्रोपाभ्याम् I. iil.64 ...प्र... -III. 1. 180r देखें-विप्रसम्भ्यः III. ii. 180 ...प्र.. - V. 1. 29 देखें-सम्प्रोदश्च v.ii. 29 प्र..-v.iv. 129 देखें-प्रसम्भ्याम् V. iv. 129 प्र.. -VI. iv. 157 देखें - प्रस्थस्फO VI. iv. 157 प्र..-VIII.1.6 देखें-प्रसमुपोदः VIII.1.6 ...प्रकथन..-I.ili.32 दख देखें-गन्धनावक्षेपण I. Hi. 32 प्रकाशन... -I. iii. 23 देखें - प्रकाशनस्थेयाख्ययोः I. Iii. 23 प्रकाशनस्थयाख्ययोः - I. 1. 23 अपने अभिप्राय के प्रकाशन में तथा विवाद का निर्णय करने वाले को कहने अर्थ में (भी स्था धातु से आत्मनेपद होता है)। प्रकृतवचने - V. iv.21 (प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से) 'प्रभूत' अर्थ में (मयट प्रत्यय होता है)। प्रकृति -1. iv. 30 (जन्यर्थ के कर्ता का) जो प्रकृति = उपादान कारण है, वह (कारक अपादान-संज्ञक होता है)। प्रकृतौ - V.i. 12 (चतुर्थीसमर्थ विकृतिवाची प्रातिपदिक से) प्रकृति = उपादान कारण अभिधेय होने पर(हित' अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है,यदि वह उपादान कारण अपनी उत्तरावस्था जर विकृति के लिए हो तो)। प्रकृत्या-VI.I. 111 . (पाद के मध्य में वर्तमान अकार के परे रहते एङ को) प्रकृतिभाव हो जाता है। Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृत्या 372 प्रजामेधयोः प्रकृत्या -VI. il.1 प्रघणः - III. iii. 79 (बहुव्रीहि समास में पूर्वपद को) प्रकृतिस्वर हो जाता (गृह का एकदेश वाच्य हो तो) प्रघण (और प्रघाण) शब्द में प्र पूर्वक हन् धातु से अप् प्रत्यय और हन को धन प्रकृत्या -VI. il. 137 आदेश कर्तभिन्न कारक संज्ञा में (कर्म में)1 निपातन (भग उत्तरपद को तत्पुरुष समास में) प्रकृतिस्वर होता। किये जाते हैं। प्रघाण:-III. iii. 79 प्रकृत्या -VI. fii.74 (गृह का एकदेश वाच्य हो तो प्रघण और) प्रघाण शब्द (नघाट, नपात्, नवेदा, नासत्या, नमुचि, नकुल, नख, में प्र पूर्वक हन् धातु से अप् प्रत्यय और हन को घन नक्षत्र,नक्र,नाक-इन शब्दों में जो नब.उसे) प्रकृतिभाव आदेशाकर्तभिन्न कारक संज्ञा में (कर्म में निपातन किये हो जाता है। जाते हैं। ..प्रा.-II.M.90 प्रकृत्या -VI. ifi.82 देखें- यजयाक III. 1. 90 (आशीर्वाद विषय में सह शब्द को) प्रकृतिभाव हो जाता ...प्रच्छ:-1.ii.8 देखें-रुदविदमुषग्रहिस्वपिप्रच्छ: I. 1.8 प्रकृत्या - VI. iv. 163 ...प्रजन... -III. ii. 136 (भसञक एक अच् वाला अङ्ग) प्रकृति से रह जाता देखें- अलंकृञ् III. ii. 136 है; (इष्ठन्, इमनिच, ईयसुन् परे रहते)। प्रजनयाम् -III. I. 42 प्रकृष्टे - V. 1. 107 प्रजनयामकः, (अभ्युत्सादयामकः, चिकयामकः, रमयाप्रकर्ष में वर्तमान (जो प्रथमासमर्थ काल शब्द, उससे मक) शब्दों का छन्द विषय में विकल्प से निपातन किया षष्ठ्यर्थ में ठञ् प्रत्यय होता है)। गया है। प्रजने-III.1. 104 ....प्रगदिन्... - IV. 1.79 देखें- अरीहणकशाश्व IV. 1.79 'प्रथम गर्भग्रहण का (समय हो गया है', इस अर्थ में । प्रगाथेषु - IV. II. 54 उपसर्या शब्द का निपातन है। प्रजने-III. 1.71 (प्रथमासमर्थ छन्दोवाची प्रातिपदिकों से षष्ठ्यर्थ में - प्रजन= गर्भधारण अर्थ में वर्तमान (स धातु से अप यथाविहित अण् प्रत्यय होता है),प्रगाथों = जहां विभिन्न प्रत्यय होता है,कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में)। छन्दों की दो या तीन ऋचाओं का प्रथन किया जाता है, प्रजने -VI.1.54 के अभिधेय होने पर (यदि वह प्रथमासमर्थ छन्द आदि आरम्भ में हो)। प्रजन= गर्भधारण अर्थ में (वर्तमान वी धातु के एच के स्थान में विकल्प से आकारादेश हो जाता है.णिच परे प्रगृह्यम् -I.i. 11 रहते)। (ई,ऊ,ए,जिनके अन्त में हों,ऐसे जो द्विवचन शब्द हैं, प्रजा..-v.iv. 122 उनकी) प्रगृह्य संज्ञा होती है। देखें – प्रजामेधयोः V. iv. 122 ...प्रगृह्यः-VI.1. 121 प्रजामेधयो: - V. iv. 122 देखें- प्लुतप्रगृहा: VI... 121 (नज,दुस् तथा सु शब्दों से उत्तर जो) प्रजा और मेधा ...प्रगे... - IV. iii. 23 शब्द, (तदन्त बहुव्रीहि) से (नित्य ही समासान्त असिच देखें-सायचिरंपाहणे IV. 1.23 प्रत्यय होता है)। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रजो प्रजो: III. ii. 156 प्रपूर्वक जु धातु से (वर्तमानकाल में इनि प्रत्यय होता है । प्रज्ञा... - Vii. 101 देखें प्रज्ञा प्रज्ञादिभ्य - VIv. 38 प्रज्ञादि प्रातिपदिकों से भी स्वार्थ में अण् प्रत्यय होता है) । प्रज्ञाश्रद्धाचच्य प्रज्ञा, श्रद्धा तथा अर्चा प्रातिपदिकों से (मत्वर्थ में विकल्प सेण प्रत्यय होता है) । — • VIII. ii. 89 VII. 101 प्रणव: ( यज्ञकर्म में अन्तिम पद की टि को) प्रणव अर्थात् ओ३म् आदेश होता है (और वह प्लुत उदात्त होता है)। - - V. ii. 101 प्रणाय्य – IH. i. 128 - ... प्रणीय... - III. 1. 123 देखें - निष्टवर्यदेवहूक III. 1. 123 प्रति... - 1. iii. 59 देखें - प्रत्याङ्भ्याम् 1. III. 59 .... प्रति... - I. iii. 80 - देखें - अभिप्रत्यतिभ्य 1. III. 80 प्रति· - I. iv. 36 - (कुध दुह, ईर्ष्या, असूय -इन अर्थों वाली धातुओं के प्रयोग में जिसके ऊपर (कोप किया जाये, उस कारक की सम्प्रदान संज्ञा होती है)। प्रति... - I. iv. 40 देखें प्रत्याङ्भ्याम् I. Iv. 90 ... प्रति... - I. I. 41 देखें - अनुप्रतिगृणः 1. Iv. 41 373 प्रणाय्य शब्द निपातन किया गया है, (असंमत अर्थात् प्रतिजनादिष्य अपूजित अर्थ अभिषेय होने पर)। प्रति... - I. vi. 89 देखें - प्रतिपर्यनवः I. iv. 89 - प्रति... - III. 1. 118 देखें प्रत्यपिभ्याम् III. I. 118 - प्रति... - IV. iv. 28 देखें प्रत्यनुपूर्वम् IV. iv. 28 प्रति... - V. iv. 75 देखें प्रत्यन्वक्पूर्वात् Viv. 75 - ... प्रति... देखें - प्रत्युपापा: VI. ii. 33 fa:- I. iv. 91 प्रति शब्द (प्रतिनिधि और प्रतिदान विषय में कर्मप्रवचनीय और निपातसंज्ञक होता है)। - • VI. ii. 33 - प्रतिकण्ठ... - IV. Iv. 40 देखें प्रतिकण्ठार्थललामम् IV. Iv. 40 प्रतिकण्ठार्थललामम् IV. Iv. 40 (द्वितीयासमर्थ) प्रतिकण्ठ, अर्थ, ललाम प्रातिपदिकों से (भी 'ग्रहण करता है— अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है)। प्रतिकृतौ - - V. iii. 96 प्रतिमाविषयक (इव के) अर्थ में (वर्तमान प्रातिपदिक से कन् प्रत्यय होता है)। . - प्रतिनिधिप्रतिदानयोः - IV. iv. 99 (सप्तमीसमर्थ) प्रतिजन आदि शब्दों से (साधु अर्थ में खञ् प्रत्यय होता है)। — प्रतिज्ञाने - I. iii. 52 प्रतिज्ञा = स्वीकार करने अर्थ में सम् पूर्वक गृ धातु से आत्मनेपद होता है)। - ...प्रतिदानयोः 1. Iv. 91. देखें - प्रतिनिधिप्रतिदानयोः I. iv. 91 ... प्रतिदाने - II. ii. 11 देखें - प्रतिनिधिप्रतिदाने II. iii. 11 प्रतिना - 11.1.9 (मात्रा अर्थ में विद्यमान) प्रति शब्द के साथ (समर्थ सुबन्त का अव्ययीभाव समास होता है)। प्रतिनिधि... - I. Iv. 91 देखें - प्रतिनिधिप्रतिदानयोः 1. in. 91 प्रतिनिधि... - II. iii. 11 देखें प्रतिनिधिप्रतिदाने II III. 11 प्रतिनिधिप्रतिदानयोः - I. v. 91 प्रतिनिधि और प्रतिदान विषय में (प्रति शब्द की कर्म प्रवचनीय और निपात संज्ञा होती है)। Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिनिधिप्रतिदाने प्रतिनिधिप्रतिदाने - II. iii. 11 (जिससे) प्रतिनिधित्व और (जिससे) प्रतिदान हो (उससे भी कर्मप्रवचनीय के योग में 'पश्चमी' विभक्ति होती है)। मुख्य के सदृश को 'प्रतिनिधि' और दिये हुवे के प्रतिनिर्यातन को 'प्रतिदान' कहते हैं। प्रतिपथम् - IV. iv. 42 (द्वितीयासमर्थ) प्रतिपथ प्रातिपदिक से (आता है'अर्थ में ठन् तथा ठक् प्रत्यय होता है)। ... प्रतिपन्नाः देखें- अकृतमितo VI. II. 170 प्रतिपर्यनयः - Liv. 89 - VI. ii. 170 - प्रति, परि और अनु शब्द (लक्षण, इत्थंभूताख्यान, भाग और वीप्सा - इन अर्थों के द्योतित होने पर कर्मप्रवचनी और निपातसंज्ञक होते हैं)। - 374 प्रतिबन्धि - VI. 1. 6 (चिर तथा कृच्छ्र शब्द उत्तरपद रहते तत्पुरुष समास में) प्रतिबन्धिवाची, जो कार्य की सिद्धि को बांध देता है अर्थात् रोक देता है, तद्वाची पूर्वपद को (प्रकृतिस्वर होता है) । ... प्रतिभू... - II. III. 39 देखें - स्वामीश्वराधिपतिo II iii. 39 ...प्रतिभ्याम् - 1. III. 46 देखें - सम्प्रतिभ्याम् I. iii. 46 1 ... प्रतियत्न... - I. iii. 32 देखें - गन्धनावक्षेपणसेवनo I. iii. 32 प्रतियत्न... - VI. 1. 134 देखें प्रतियत्नवैकृत०] VI. I. 134 प्रतियत्नवैकृतवाक्याध्याहारेषु - VI. 1. 134 i. प्रतियत्न = किसी गुण को किसी अन्य गुण में परिवर्तित करना, वैकृत = विकृत या खराब होना तथा वाक्याध्याहार गम्यमान अर्थ को भी सहजता से समझाने के लिये शब्दों द्वारा उपादान कर देना अर्थ गम्यमान हो तो (कृ धातु के परे रहते उप उपसर्ग से उत्तर कार से पूर्व सुट् का आगम होता है, संहिता के विषय में) । - प्रतियत्ने II. iii. 53 प्रतियत्न- किसी गुण को किसी अन्य गुण में परिवर्तित करना गम्यमान होने पर (क धातु के कर्म कारक में शेष विवक्षित होने पर षष्ठी विभक्ति होती है)। प्रतियोगे - V. iv. 44 प्रति शब्द के योग में (विहित पञ्चमी विभक्ति अन्त वाले प्रातिपदिक से विकल्प से तसि प्रत्यय होता है)। ... प्रतिरूपयोः - VI. ii. 11 देखें सदृशप्रतिरूपयो: VI. II. 11 प्रतिश्रवणे - VIII. ii. 99 = प्रतिश्रवण स्वीकार करना तथा अच्छी तरह सुनने में प्रवृत्ति अर्थ में (वर्तमान वाक्य की टि को भी प्लुत उदात्त होता है)। ... प्रतिषीव्य... - III. 1. 123 देखें - निष्टवर्यदेवहूय० III. 1. 123 प्रतिषेधयोः - III. I. 18 प्रतिषेधवाची (अलं तथा खलु शब्द) उपपद रहते (प्राचीन आचार्यों के मत में धातु से क्त्वा प्रत्यय होता है) । * ...प्रती प्रतिष्कशः - VI. 1. 147 प्रतिष्कश शब्द में प्रति पूर्वक कश् धातु को सुट् आगम तथा उसी सुद के सकार को पत्व निपातन किया जाता है । = - सहायक, अग्रगामी, दूत। है । प्रतिष्कश प्रतिष्ठायाम् VI. 1. 141 प्रतिष्ठा अर्थ में (आस्पद शब्द में सुट् आगम निपातन किया जाता है)। - प्रतिष्णातम् - VIII. iii. 90 प्रतिष्णातम् में षत्व निपातन है, (धागा को कहने में) । प्रतिस्तव्य... - VIII. I. 114 देखें - प्रतिस्तब्धनिस्तब्धौ VIII. III. 114 प्रतिस्तव्यनिस्तब्धौ - VIII. II. 114 iii. प्रतिस्तब्ध, निस्तब्ध शब्दों में भी मूर्धन्याभाव निपातन ....प्रती - II. 1. 13 देखें- अभिप्रती II. 1. 13 Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..प्रतीच 375 प्रत्ययविधिः ...प्रतीचः - IV. ii. 100 प्रत्यपिभ्याम् -III. I. 118 देखें-धुप्रागपागुo IV. ii. 100 प्रति और अपि पूर्वक (ग्रह' धातु से क्यप् प्रत्यय होता प्रतीयमाने -1. iii.77 (समीपोच्चरित पद के द्वारा कर्वभिप्राय क्रियाफल के) प्रत्यभिवादे - VIII. 1.83 प्रतीति होने पर (धातु से आत्मनेपद होता है)। (अशूद्र-विषयक) प्रत्यभिवाद = अभिवादन करने के ...प्रतूर्त... - VIII. ii. 61 पश्चात् जिसका अभिवादन किया गया है. उसके द्वारा देखें-नसत्तनिषता० VIII. ii. 61 जो आशीर्वचन कहा जाता है, उस अर्थ में (वाक्य के प्रते: -v.iv.82 पद की टि को प्लुत होता है और वह प्लत उदात्त होता प्रति शब्द से उत्तर (उरस्-शब्दान्त प्रातिपदिक से समा- है)। सान्त अच् प्रत्यय होता है, यदि वह उरस शब्द सप्तमी प्रत्यय.. -VII. ii. 98 विभक्ति के अर्थवाला हो तो)। . देखें - प्रत्ययोत्तरपदयो: VII. ii. 98 प्रते: -VI.i. 25 प्रत्ययः -I. ii. 49 प्रति से उत्तर (भी श्यैङ् धातु को सम्प्रसारण हो जाता (एक = असहाय अल् वाला) प्रत्यय (अपृक्त-सजक है, निष्ठा के परे रहते)। होता है)। प्रते: - VI. 1. 137 प्रत्ययः -III.1.1 (उप तथा) प्रति उपसर्ग से उत्तर (कृ विक्षेपे' धातु के यहाँ से लेकर पञ्चमाध्याय की समाप्ति (V. iv. 160) परे रहते हिंसा के विषय में ककार से पूर्व सुट् आगम तक प्रत्यय संज्ञा का अधिकार होगा। - होता है, संहिता के विषय में)। ...प्रत्यययो: -VIII. ii. 58 प्रते: - VI. 1. 193 - देखें-भोगप्रत्यययो: VIII. ii. 58 प्रति उपसर्ग से उत्तर (तत्पुरुष समास में अश्वादिगण ..प्रत्यययो: - VIII. Iii. 59 पठित शब्दों को अन्तोदात्त होता है)। देखें-आदेशप्रत्यययो: VIII. iii. 59 प्रम...-.11 112 प्रत्ययलक्षणम् -I.i. 61 देखें - प्रत्मपूर्व० V. ill. 112 (प्रत्यय के लोप हो जाने पर) प्रत्ययलक्षण अर्थात् प्रत्यय प्रलपूर्वविश्वेमात् - V. 1. 112 को निमित्त मानकर जो कार्य पाता था, वह (उसके लोप . प्रल, पूर्व,विश्व, इम-इन प्रातिपदिकों से (इवार्थ में हो जाने पर भी हो जावे)। थाल् प्रत्यय होता है, वेदविषय में)। प्रत्ययलोपे-I.i.61 प्रत्यय के लोप हो जाने पर (उस प्रत्यय को निमित्त प्रल = पुराना, पहला। मानकर कार्य हो जाता है)। प्रत्यप्रथ..-IV.i. 171 प्रत्ययवत् -VI. iii. 67 देखें- साल्वावयवप्रत्यप्रथा IV. 1. 171 (खिदन्त उत्तरपद रहते इजन्त एकाच को अम् आगम प्रत्यनुपूर्वम् - IV. iv. 28 ' होता है और वह अम्) प्रत्यय के समान (भी माना जाता (द्वितीयासमर्थ) प्रति, अनुपूर्वक (जो ईप,लोम और कूल है। प्रातिपदिक-उनसे 'वर्तते हैं' अर्थ में ठक् प्रत्यय होता प्रत्ययविधिः -1. iv. 13 (जिस धातु या प्रातिपदिक से) प्रत्यय का विधान किया प्रत्यन्ववपूर्वात् – v. iii. 75 जाये, उस प्रत्यय के परे रहते उस धातु या प्रातिपदिक प्रति, अनु तथा अव पूर्ववाले (सामन् और लोमन् प्राति- का आदि वर्ण है आदि जिस समुदाय का, उस की अंग पदिक से समासान्त अच प्रत्यय होता है)। संज्ञा होती है)। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्ययस्थात् प्रत्ययस्थात् - VII. iii. 44 प्रत्यय में स्थित (ककार) से (पूर्व अकार के स्थान में इकारादेश होता है, आप् परे रहते, यदि वह आप् सुप् से उत्तर न हो तो)। प्रत्ययस्य • I. 1. 60 प्रत्यय के (अदर्शन की लुक्, श्लु, लुप् संज्ञायें होती 1 प्रत्ययस्य - I. lii. 6 (उपदेश में) प्रत्यय के (आदि में वर्तमान षकार की इत्सञ्ज्ञा होती है)। - III. iv. 1 प्रत्ययः (दो धातुओं के अर्थ का सम्बन्ध होने पर भिन्नकाल में विहित) प्रत्यय (भी कालान्तर में ) साधु होते हैं। - - प्रत्ययात् - III. 1. 35 देखें प्रत्ययात् -कास्प्रत्ययात् III. 1. 35 III. III. 102 प्रत्ययान्त धातुओं से (स्त्रीलिङ्ग कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में अ प्रत्यय होता है। - प्रत्ययात् - VI. 1. 186 (भी, डी, भू, हु, मद, जन, घन, दरिद्रा तथा जागृ धातु के अभ्यस्त को पितु ल सार्वधातुक परे रहते) प्रत्यय से (पूर्व को उदात्त होता है)। 376 प्रत्ययात् - VI. iv. 106 (संयोग पूर्व में नहीं है जिससे, ऐसा जो उकार, तदन्त) जो प्रत्यय, तदन्त अङ्ग से उत्तर भी हि का लुक् हो जाता है)। प्रत्ययादीनाम् - VII. 1. 2 प्रत्यय के आदि में (फू, द, ख. छ् तथा घ् को यथासङ्ख्य करके आयन्, ए, ई, ईय् तथा इय् आदेश होते है)। ...प्रत्ययार्थवचनम् - 1. 11. 56 देखें -प्रधानप्रत्ययार्थवचनम् 1. 11. 56 प्रत्यये - I. iv. 13 ( जिस धातु या प्रातिपदिक से प्रत्यय का विधान किया जाये, उस) प्रत्यय के परे रहते (उस धातु या प्रातिपदिक का आदि वर्ण है आदि जिसका, उस समुदाय की अङ्ग संज्ञा होती है। प्रत्यये VI. 1. 76 - (यकारादि) प्रत्यय के परे रहते (एच् के स्थान में संहिता के विषय में वकार अन्तवाले अर्थात् अव्, आव् आदेश होते हैं)। प्रत्ययोत्तरपदयोः - VII. ii. 98 प्रत्यय तथा उत्तरपद परे रहते (भी एकत्व अर्थ में वर्तमान युष्मद्, अस्मद् अङ्ग के मपर्यन्त भाग को क्रमशः त्व, म आदेश होते हैं) । ... प्रत्यवसानार्थ... - I. iv. 52 देखें गतिबुद्धिप्रत्यवसानार्थ० Liv. 52 ...प्रत्यवसानार्थेभ्य - III. Iv. 76 देखें - प्रौव्यगति०] III. I. 76 प्रथम... प्रत्याङ्भ्याम् - 1. lil. 59 प्रति तथा आङ् उपसर्ग से उत्तर (सन्नन्त श्रु धातु से आत्मनेपद नहीं होता है)। प्रत्याङ्भ्याम् I. Iv. 40 प्रति एवं आङ् उपसर्ग से उत्तर (श्रु धातु के प्रयोग में. पूर्व का जो कर्ता, वह कारक सम्प्रदानं संज्ञक होता है) प्रत्यारम्भे - VIII. 1. 31 (नह से युक्त तिङन्त को) प्रत्यारम्भ = होने पर (अनुदात्त नहीं होता। प्रत्येनसि - VI. 11. 27 पुनः आरम्भ प्रत्येनस् शब्द उत्तरपद रहते (कर्मधारय समास में कुमार शब्द को आदि उदात्त होता है)। प्रत्येनसि - VI. 1. 60 (षष्ठ्यन्त पूर्वपद राजन् शब्द को) प्रत्येनस् शब्द उत्तरपद रहते (विकल्प से प्रकृतिस्वर होता है)। ... प्रथ... - VII. iv. 95 देखें - स्मृत्यरo VII. Iv. 95 प्रथने - III. III. 33 (वि पूर्वक स्तु धातु से अशब्दविषयक) विस्तार को कहना हो तो कर्तृभिन्न कारक संज्ञाविषय तथा भाव में मन् प्रत्यय होता है। - प्रथम... - I. 1. 32 देखें प्रथमचरमतयाल्पार्धकतिपयनेमाः 1. 1. 32. Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम... प्रथम... - I. iv. 100 देखें – प्रथममध्यमोत्तमाः I. iv. 100 ... प्रथम... - II. 1. 57 देखें - पूर्वापरप्रथम II. 2. 57 ... प्रथम... - III. iv. 24 देखें- अप्रेप्रथमपूर्वेषु III. iv. 24 ... प्रथम... - IV. iii. 72 देखें - द्वयजद्वाह्मणo IV. iii. 72 प्रथम... - VI. ii. 162 देखें - प्रथमपूरणयो: VI. II. 162 प्रथम: - I. iv. 107 (मध्यम, उत्तम पुरुष जिन विषयों में कहे गये हैं, उनसे अन्य विषय में) प्रथम पुरुष होता है। 377 प्रथम - VI. ii. 56 (अचिरकाल सम्बन्ध गम्यमान हो तो) प्रथम पूर्वपद को (विकल्प से प्रकृतिस्वर होता है)। प्रथमचरमतयाल्पार्धकतिपयनेमा - I. 1. 32 प्रथम, चरम, तयप् प्रत्ययान्त शब्द, अल्प, अर्ध, कतिपय ' तथा नेम शब्दों (की भी जस्-सम्बन्धी कार्य में विकल्प • करके सर्वनाम संज्ञा होती है) । प्रथमपूरणयोः - VI. ii. 162 (बहुव्रीहि समास में इदम् एतत्, तद् शब्दों से परे क्रिया के गणन में वर्तमान) प्रथम तथा पूरण प्रत्ययान्त शब्दों hi (अन्तोदात्त होता है)। 1 प्रथममध्यमोत्तमाः - I. iv. 100 ( तिङ् प्रत्ययों के तीन-तीन के जुट क्रम से) प्रथम, मध्यम और उत्तम संज्ञक होते हैं)। प्रथमयोः - VI. i. 98 ( अक् प्रत्याहार के पश्चात् ) प्रथमा और द्वितीया विभक्ति के (अच् के) परे रहते (पूर्व पर के स्थान में पूर्व जो वर्ण, उसका सवर्णदीर्घ एकादेश होता है)। प्रथमयोः . - VII. 1. 28 (युष्मद् तथा अस्मद् अङ्ग से उत्तर ङे विभक्ति के स्थान में तथा प्रथमा एवं द्वितीया विभक्ति के स्थान में (अम् आदेश होता है)। प्रथमस्य - II. iv. 85 (लुडादेश) प्रथम पुरुष के (स्थान में क्रमशः डा, रौ और रस् आदेश होते हैं)। ...प्रदोषाभ्याम् प्रथमस्य - VI. 1. 1 प्रथम (एकाच् वाले समुदाय) को (द्वित्व हो जाता है) । प्रथमयोः - VII. i. 28 (युष्मद् तथा अस्मद् अङ्ग से उत्तर ङे विभक्ति के स्थान में तथा प्रथम एवं द्वितीया विभक्ति के स्थान में (अम् आदेश होता है)। प्रथमा - II. lii. 46 - (प्रातिपदिकार्थमात्र, लिङ्गमात्र, परिमाणमात्र और वचनमात्र में ) प्रथमा विभक्ति होती है। प्रथमा - VIII. 1. 58 (च तथा वा के योग में) प्रथमोच्चरित (तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता) । प्रथमात् - IV. 1. 82 (यहाँ से लेकर प्राग्दिशो विभक्तिः V. iii. 1 तक कहे जाने वाले प्रत्यय, समर्थों में) जो प्रथम, उनसे (विकल्प से होते हैं)। प्रथमानिर्दिष्टम् - I. 11.43 (समासविधान करने वाले सूत्रों में) जो प्रथमा विभक्ति से निर्दिष्ट पद, वह (उपसर्जन-संज्ञक होता है)। .. प्रथमाभ्यः - V. iii. 27 देखें - सप्तमीपञ्चमी० V. iii. 27 प्रथमाया - VII. it. 88 प्रथमा विभक्ति के (द्विवचन के परे रहते भी भाषाविषय युष्मद् अस्मद् को आकारादेश होता है)। में प्रथमाया - VIII. 1. 26 (विद्यमान है पूर्व में कोई पद जिससे, ऐसे) प्रथमान्त पद से उत्तर (षष्ठ्यन्त, चतुर्थ्यन्त तथा द्वितीयान्त युष्मद्, अस्मद् शब्दों को विकल्प से वाम्, नौ आदि आदेश नहीं होते) । प्रथमे - IV. i. 20 प्रथम (अवस्था) में (वर्तमान अनुपसर्जन अदन्त प्रातिपदिकों से स्त्रीलिङ्ग में ङीप् प्रत्यय होता है) । ... प्रदोष... - IV. 1. 28 देखें - पूर्वाहणापराहणार्द्रा० IV. Iii. 28 ... प्रदोषाभ्याम् - IV. iii. 14 देखें - निशाप्रदोषाभ्याम् IV. III. 14 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधान... 378 प्रमाणे -III. iv. 51 आयाम = लम्बाई गम्यमान हो तो भी सप्तम्यन्त तथा तृतीयान्त उपपद रहते धातु से णमुल् प्रत्यय होता है)। प्रमाणे -IV.i. 24 प्रमाण = लम्बाई अर्थ में वर्तमान (जो पुरुष शब्द,तदन्त अनुपसर्जन द्विगुसंज्ञक प्रातिपदिक से तद्धित का लुक होने पर स्त्रीलिङ्ग में विकल्प से ङीप प्रत्यय नहीं होता)। प्रमाणे-v.ii.37 (प्रथमासमर्थ) प्रमाण समानाधिकरणवाची (प्रातिपदिकों से षष्ठ्यर्थ में द्वयसच, दनच् और मात्र प्रत्यय होते प्रधान... -I.ii.56 देखें - प्रधानप्रत्ययार्थवचनम् I. I. 56 प्रधानप्रत्ययार्थवचनम् -1. ii. 56 . प्रधानार्थवचन एवं प्रत्ययार्थवचन (अशिष्य होते हैं, अर्थ में लोक के अधीन होने से)। प्रनिरन्तःशरेक्षुप्लक्षाप्रकार्घ्यखदिरपीयूचाभ्यः - VIII. iv.5 प्र, निर्, अन्तर, शर, इक्षु, प्लक्ष, आम्र, कार्घ्य, खदिर, पीयूक्षा-इन से उत्तर (वन शब्द के नकार को असक्षाविषय में भी तथा अपि-ग्रहण से सजा-विषय में भी णकार आदेश होता है)। प्रपूर्वस्य - VI. I. 23 प्र पूर्ववाले (स्त्यै धातु) को निष्ठा परे रहते सम्प्रसारण हो जाता है)। प्रभवः -I. iv. 31 (भू धातु के कर्ता का) जो प्रभव= उत्पत्ति स्थान, वह (कारक अपादान संज्ञक होता है)। प्रभवति-VII.83 (पञ्चमीसमर्थ प्रातिपदिक से)'प्रभवति' अर्थ में (यथाविहित प्रत्यय होता है)। प्रभवति = प्रथमतः उपलब्धि या निकास। प्रभवति-V.1. 100 (चतुर्थीसमर्थ सन्तापादि प्रातिपदिकों से) समर्थ है' = शक्त है अर्थ में (यथाविहित ठञ् प्रत्यय होता है)। ...प्रभा.. -III. 1. 21 देखें-दिवाविभा० III. ii. 21 ...प्रभृति... - VI. iii. 83 देखें-अमूर्धप्रभृत्य VI. I. 3. प्रभो -VII. 1. 21 , (परिवृढ शब्द निष्ठा परे रहते) स्वामी अर्थ को कहने में (निपातन किया जाता है)। प्रमद... -III. 11.68 देखें-प्रमदसम्मदौ III. iii. 68 प्रमदसम्मदौ-III. Ili. 68 (हर्ष अभिधेय होने पर) प्रमद और सम्मद (ये अप- प्रत्ययान्त शब्द निपातित किये जाते हैं, कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में)। प्रमाणे - VI. 1.4 प्रमाणवाची (तत्पुरुष समास) में (गाध तथा लवण शब्दों के उत्तरपद रहते पूर्वपद को प्रकृतिस्वर होता है)। गाध = तरणीय,उथला। प्रमाणे -VI. ii. 12 प्रमाणवाची (तत्पुरुष समास) में (द्विगु उत्तरपद रहते पूर्वपद को प्रकृतिस्वर होता है)। ....प्रमाणेषु - VI. 1. 140 देखें-सेवितासेवित VI.I. 140 ...प्रमाण्यो: -v.iv. 116 देखें-पूरणीप्रमाण्यो: V.iv. 116 प्रयच्छति - IV. iv. 30 . (द्वितीयासमर्थ प्रातिपदिक से) 'देता है' अर्थ में (ढक प्रत्यय होता है, यदि देय पदार्थ निन्दित हो)। प्रयाज.. -VII. iii. 62 . देखें-प्रयाजानुयाजी VII. 1.62 प्रयाजानुयाजौ - VII. iii. 62 . प्रयाज तथा अनुयाज शब्द (यज्ञ का अङ्ग हो तो निपातन किये जाते है)। प्रयुज्यमाने-VIII. ii. 101 (चित् यह निपात भी जब उपमा के अर्थ में) प्रयुक्त हो, तो (वाक्य के टि को अनुदात्त प्लुत होता है)। प्रयै-III. iv. 10 प्रय,(रोहिष्य, अव्यथिष्य) शब्द (वेदविषय में तुमर्थ में - निपातन किये जाते हैं)। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोजन... . 379 ....प्रशास्तृणाम् प्रयोजन.. -IV.ii. 55 ...प्रवृद्धेषु -VI. ii. 38 देखें-प्रयोजनयोधभ्यः IV. 1.55 देखें-बीहापराहण. VI. ii. 38 प्रयोजनम् -V.i. 108 प्रशस्यस्य -V. 1.60 प्रयोजन-समानाधिकरणवाची (प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक प्रशस्य शब्द के स्थान में (अजादि अर्थात् इष्ठन,ईयसुन से षष्ठ्यर्थ में यथाविहित ठञ् प्रत्यय होता है)। प्रत्यय परे रहते श्र आदेश होता है)। प्रयोजनयोधुभ्य: - IV.ii. 55 प्रशस्ये - IV: iv. 122 (प्रथमासमर्थ) प्रयोजन और योद्धा (के साथ समाना (षष्ठीसमर्थ रेवती,जगती तथा हविष्या प्रातिपदिकों से) धिकरण वाले)प्रातिपदिकों से (षष्ठ्यर्थ में समाम अभि प्रशस्य = प्रशंसा के योग्य अर्थ में (वैदिक प्रयोग में धेय हो तो यथाविहित अण प्रत्यय होता है)। यत् प्रत्यय होता है)। ...प्रयोजनात् -v.ii. 81 ...प्रशंसयोः -III. 1. 86 देखें-कालप्रयोजनात् v. ii. 81 देखें - गणप्रशंसयोः III. iii. 86 प्रयोज्य.. - VII. iii. 68 ...प्रेशसयोः -v.ii. 120 देखें - प्रयोज्यनियोज्यौ VII. iii. 68 देखें-आहतप्रशंसयो: V. ii. 120 प्रयोज्यनियोज्यौ-vii. iii. 68 प्रशंसायाम् - III. I. 133 प्रयोज्य तथा नियोज्य ण्यत् प्रत्ययान्त शब्द (शक्य अर्थ (अर्ह धातु से) प्रशंसा गम्यमान हो तो (वर्तमान काल में निपातन किये जाते हैं)। में शतृ प्रत्यय होता है)। . प्रलम्भने -1. iii. 69 प्रशंसायाम् - V. iii. 66 प्रलम्भन = ठगने अर्थ में (ण्यन्त गृधु, वचु धातुओं। ' 'प्रशंसा-विशिष्ट' अर्थ में (वर्तमान प्रातिपदिक तथा से आत्मनेपद होता है)। तिङन्त से स्वार्थ में रूपप प्रत्यय होता है)। ...प्रलयानाम् - VII. iii. 2 : : देखें-केकयमित्रयु० VII. iii.2 प्रशंसायाम् - V.iv.40 - ...प्रवक्त... -II.1.64, प्रंशसा-विशिष्ट अर्थ में (वर्तमान मद प्रातिपदिक से .देखें-पोटायुवतिस्तोक II.1.64 स्वार्थ में स तथा स्न प्रत्यय होते हैं)। ....प्रक्च...-VII. iii.66 प्रशंसायाम् -VI. ii.63 देखें-यजयाच VII. iii. 66 प्रशंसा गम्यमान हो तो शिल्पिवाची शब्द उत्तरपद रहते . ...प्रवचनीय..-III. iv. 68 राजन् पूर्वपद वाले शब्द को भी विकल्प से प्रकृतिस्वर देखें- भव्यगेय III. iv. 68 होता है)। ....प्रवति... - VII. iv. 81 प्रशंसायाम् - VII.1.66 देखें-स्त्रवतिशृणोति VII. iv. 81 प्रशंसा गम्यमान होने पर (उप उपसर्ग से उत्तर लभ ...प्रवय्ये-VI.i.80 अङ्ग को यकारादि प्रत्यय के विषय में नम आगम होता देखें- भय्यप्रवय्ये VI.1.80 प्रवाहणस्य-VII. iii. 28 प्रवाहण अङग के (उत्तरपद के अचों में आदि अच को प्रशंसावचने: -II.1.65 नित्य वृद्धि होती है,पूर्वपद को तो विकल्प से होती है, (जातिवाची सुबन्त) प्रशंसावाची (समानाधिकरण समर्थ ढ तद्धित प्रत्यय परे रहते)। सुबन्त) शब्दों के साथ (भी विकल्प से समास को प्राप्त प्रपखादीनाम् - VI. ii. 147 होता है और वह तत्पुरुष समास होता है)। प्रवृद्धादियों के (क्तान्त उत्तरपद को भी अन्तोदात्त होता ...प्रशास्तृणाम् -VI. iv. 11 देखें-अप्यन्त VI. iv. 11 Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्थातरः 380 प्रश्न... प्रश्न..-VIII. ii. 105 देखें- प्रश्नाख्यानयोः VIII. II. 105 प्रश्नाख्यानयोः-VIII. ii. 105 (वाक्यस्थ अनन्त्य एवं अपि' ग्रहणं से अन्त्य पद की टि को भी) प्रश्न एवं आख्यान= कथन उत्तर होने पर (स्वरित प्लुत होता है)। प्रश्नान्त... -VIII. 1. 100 देखें- प्रश्नान्ताभिपूजितयो: VIII. 1. 100 प्रश्नान्ताभिपूजितयोः - VIII. 1. 100 प्रश्नान्त = प्रश्न किये जाने वाले वाक्य का अन्तिम पद तथा अभिपूजित = प्रशंसा में विधीयमान प्लुत को अनुदात्त होता है)। प्रश्ने-III. ii. 117 (समीपकालिक) प्रष्टव्य (अनद्यतन परोक्ष भूतकाल) में (वर्तमान धातु से भी लङ् तथा लिट् प्रत्यय होते है)। प्रश्ने - VIII. 1. 32 (सत्यम् शब्द से युक्त तिङन्त को) प्रश्न होने पर (अनु- दात्त नहीं होता। ...प्रश्रथ..-VI.iv.29 देखें - अवोदैधौ० VI. iv. 29 प्रष्ठः - VIII. ii. 92 प्रष्ठ शब्द में षत्व निपातन है, (अप्रगामी अभिधेय हो तो)। प्रसमुपोदः -VIII. 1.6 प्र,सम,उप तथा उत् उपसर्गों को (पाद की पूर्ति करनी हो तो द्वित्व हो जाता है)। प्रसम्भ्याम् - V.iv. 129 (बहुव्रीहि समास में) प्र तथा सम् से उत्तर (जो जानु शब्द,उसके स्थान में समासान्त क्षु आदेश होता है)। प्रसहने -I. Ill. 33 प्रसहन = किसी को दबा लेना वा हरा देना अर्थ में (वर्तमान अधि उपसर्ग से युक्त कृ धातु से आत्मनेपद होता है)। प्रसित... -II. III. 44 देखें-प्रसितोत्सुकाभ्याम् II. iii. 44 प्रसिते - V.II. 66 (सप्तमीसमर्थ स्वाङ्गवाची प्रातिपदिकों से) 'तत्पर अर्थ में (कन् प्रत्यय होता है)। प्रसितोत्सुकाभ्याम् - II. iii. 44 प्रसित = प्रसक्त और उत्सुक शब्दों के योग में (तृतीया । और सप्तमी विभक्ति होती है)। ...प्रसूतैः-II. 11.39 देखें- स्वामीश्वराधिपति H. iil. 39 ...प्रसूभ्यः -III. ii. 157 देखें-जिदक्षिः III. ii. 157 प्रस्कण्य..-VI.i. 148 देखें-प्रस्कण्वहरिश्चन्द्रौ VI.1.148 प्रस्कण्वहरिश्चन्द्रौ - VI. 1. 148 प्रस्कण्व तथा हरिश्चन्द्र शब्द में सुट् का निपातन किया जाता है, (ऋषि अभिधेय हो तो)। ....प्रस्तार.. -IV. iv.72 देखें - कठिनान्तप्रस्तार• IV. iv. 72 प्रस्त्यः -VIII. ii. 54 प्रपूर्वक स्यै धातु से उत्तर (निष्ठा के तकार को विकल्प से मकारादेश होता है)। प्रस्थ.. - IV. ii. 121 देखें-प्रस्थपुरवहान्तात् IV. 1. 121 प्रस्थपुरवहान्तात् -IV. 1. 121 प्रस्थ, पुर, वह अन्तवाले जो (देशवाची वृद्धसंज्ञक) प्रातिपदिक,उनसे (भी शैषिक वुज प्रत्यय होता है)। प्रस्थस्फवहिगर्वपित्रब्दाधिवृन्दा: -VI. iv. 157 (प्रिय, स्थिर, स्फिर, उरु, बहुल, गुरु, वृद्ध, तृप्र, दीर्घ, वृन्दारक शब्दों के स्थान में क्रमशः प्र,स्थ, स्फ, वर, बहि, गर,वर्षि,त्रप,द्राधि,वृन्द-ये आदेश हो जाते हैं; इष्ठन्, इमनिच् तथा ईयसुन् परे रहते)। प्रस्थे -VI. ii. 87 प्रस्थ शब्द उत्तरपद रहते (कादिगणस्थ तथा वृद्धसज्ज्ञक शब्दों को छोड़कर पूर्वपद को आधुदात्त होता है)। प्रस्थोत्तरः... - Iv.ii. 109 देखें-प्रस्थोत्तरपदO IV.ii. 109 Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्थोत्तरपदपलच्चादिकोपधात् प्रस्थोत्तरपदपलद्यादिकोपधात् IV. II. 109 प्रस्थ शब्द उत्तरपद हो जिनका उन शब्दों से पलद्यादि गण के शब्दों से तथा ककार उपधावाले शब्दों से (अण् प्रत्यय होता है)। - प्रहरणम् - IV. ii. 56 (प्रथमासमर्थ) प्रहरण आयुध समानाधिकरण वाले प्रातिपदिकों से (सप्तम्यर्थ में ण प्रत्यय होता है, यदि ' अस्य' से निर्दिष्ट क्रीडा हो) । प्रहरणम् - IV. iv. 57 (प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ में ठक् प्रत्यय होता है, यदि वह प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक) शस्त्र हो । प्रहासे - I. iv. 105 2 परिहास गम्यमान होने पर भी मन्य है उपपद जिसका, ऐसी धातु से युष्मद् उपपद रहते, समान अभिधेय होने पर, युष्मद् शब्द का प्रयोग हो या न हो तो भी मध्यम पुरुष हो जाता है तथा उस मन् धातु से उत्तम पुरुष हो जाता है और उत्तम पुरुष को एकत्व भी हो जाता है)। प्रहासे - VIII. 1. 46 (एहि तथा मन्य से युक्त लडन्त तिङन्त को) हंसी गम्यमान हो तो (अनुदात्त नहीं होता) । प्राक् - 1. iv. 56 ( अधिरीश्वरे 1. iv. 96 सूत्र से पहले-पहले (निपात संज्ञा का अधिकार जाता है) । 381 प्राक् – II. 1. 3 - प्राक् - I..iv. 79 ( गति और उपसर्ग संज्ञक शब्द धातु से पहले (होते हैं) । ('कडाराः कर्मधारये ' II. ii. 38 से पहले-पहले (समास सञ्ज्ञा का अधिकार जायेगा) । प्राक् - IV. 1. 83 ( तेन दीव्यतिo IV. iv. 2 से पहले-पहले (अण् प्रत्यय का अधिकार है)। X-IV. iv. 1 (यहाँ से आरम्भ कर 'तद्वहति रथयुगप्रासङ्गम् ' सूत्र के) पहले-पहले (जो अर्थ निर्दिष्ट किये गये है, वहां तक ठक् प्रत्यय का अधिकार जानना चाहिये) । प्राक् - IV. iv. 75 (यहाँ से लेकर ‘तस्मै हितम् ' के) पहले कहे जाने वाले अर्थों में (अपवाद को छोड़कर सामान्यतया यत् प्रत्यय का अधिकार रहेगा । प्राक् - V. 1. 1 (यहाँ से आगे 'तेन क्रीतम् ' V. 1. 36 से) पहले (जितने अर्थ कहे गये हैं, उन सब अर्थों में छ प्रत्यय होता है)। प्राक् - V. 1. 18 = (यहाँ से आगे बति ‘तेन तुल्यं क्रिया चेद् वतिः’ से) पहले-पहले तक (ठञ् प्रत्यय अधिकृत होता है)। - प्राक् – Viii. 1 ...प्राच्... (यहाँ से आगे 'दिक्शब्देभ्यः सप्तमीपञ्चमी' V. iii. 27 सूत्र से पहले-पहले (जितने प्रत्यय कहे हैं, उन सबकी विभक्ति सञ्ज्ञा होती है) । प्राक् - Viii. 49 (भाग' अर्थ में वर्तमान पूरण प्रत्ययान्त एकादश संख्या से पहले-पहले (जो सङ्ख्यावाची शब्द, उनसे स्वार्थ में अन्) (प्रत्यय होता है, वेदविषय को छोड़कर। प्राक् - V. iii. 70 (इवे प्रतिकृती' vi. 96 सूत्र से पहले-पहले (क प्रत्यय अधिकृत होता है)। SINE-V. ill. 71 (अव्यय तथा सर्वनामवाची प्रातिपदिकों से एवं तिङन्त से इवार्थ से पहले-पहले अकच् प्रत्यय होता है और वह टि से पूर्व होता है) । प्राक् VIII. iii.63 (सित शब्द से पहले-पहले (अट् का व्यवधान होने पर तथा अपि-ग्रहण से अट् का व्यवधान न होने पर भी सकार को मूर्धन्य आदेश होता है)। - ... प्राशु - IV. 1. 75 देखें सौवीरसाल्क IV. 1. 75 - ... प्राच्... - IV. ii. 100 देखें - प्रागपागुo IV it. 100 Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचाम् 382 प्राच्य... प्राचाम् -I.1.74 (जिस समुदाय के अचों का आदि अच् एङ् हो,उसकी) पूर्वदेश को कहने में (वृद्धसंज्ञा होती है)। प्राचाम् -II. iv.60 प्राग्देश वालों के (गोत्रापत्य में विहित इज-प्रत्ययान्त से युवापत्य में विहित प्रत्ययों का लुक् होता है)। प्राचाम् -III. 1.90 प्राचीन आचार्यों के मत में (कुष् और रञ्ज धातु से कर्मवद्भाव में श्यन् प्रत्यय और परस्मैपद होता है)। प्राचाम् - III. iv. 18 (प्रतिषेधवाची अलं तथा खलु शब्द उपपद रहते) प्राचीन आचार्यों के मत में (धातु से क्त्वा प्रत्यय होता प्राचाम् -IV.i. 17 (अनुपसर्जन यजन्त प्रातिपदिकों से स्त्रीलिङ्ग में) प्राचीन आचार्यों के मत में (फ प्रत्यय होता है और वह तद्धित- संज्ञक होता है)। प्राचाम् -IV.1.43 (अनुपसर्जन शोण प्रातिपदिक से) प्राचीन आचार्यों के मत में (स्त्रीलिङ्ग में ङीष् प्रत्यय होता है)। प्राचाम् - IV. 1. 160 (अवृद्धसंज्ञक प्रातिपदिक से अपत्यार्थ में बहल करके फिन् प्रत्यय होता है);प्राचीन आचार्यों के मत में (अन्यत्र इ)। प्राच्यभरतेषु-IV.ii. 112 प्राच्य भरत गोत्रवाची (इजन्त दव्यच प्रातिपदिक से अण प्रत्यय नहीं होता)। प्राचाम् - IV. ii. 119 (उवर्णान्त वृद्धसंज्ञक) प्राग्देशवाची प्रातिपदिकों से (शैषिक ठ प्रत्यय होता है)। प्राचाम् - IV. ii. 122 प्राग्देशवाची (रेफ उपधावाले तथा ईकारान्त वृद्धसंज्ञक प्रातिपदिकों से शैषिक वुञ् प्रत्यय होता है)। प्राचाम् - IV. 1. 138 (कट शब्द आदि में है जिनके ऐसे) प्राग्देशवाची (प्राति- पदिकों से शैषिक छ प्रत्यय होता है)। प्राचाम् - V. iii. 80 (उप शब्द आदि वाले बहुत अच् वाले मनुष्यनामधेय प्रातिपदिक से नीति और अनुकम्पा गम्यमान होने पर अडच्. वुच तथा घन्, इलच् और ठच् प्रत्यय विकल्प से होते है), प्राग्देशीय आचार्यों के मत में)। प्राचाम् - V. iii. 94 . (एक प्रातिपदिक से भी अपने अपने विषयों में डतरच तथा डतमच् प्रत्यय होते हैं),प्राचीन आचार्यों के मत में। प्राचाम् - V. iv. 101 (खारी-शब्दान्त द्विगुसज्ञक तत्पुरुष से तथा अर्धशब्द से उत्तर जो खारी शब्द, तदन्त से समासान्त टच् प्रत्यय होता है), प्राचीन आचार्यों के मत में। प्राचाम् - VI. ii.74 प्राग्देश निवासियों की (जो क्रीडा, तद्वाची समास में अकप्रत्ययान्त शब्द के उत्तरपद रहते पूर्वपद को आधुदात्त होता है)। प्राचाम् -VI. . 99 (पुर शब्द उत्तरपद रहते) प्राच्य भारत के देशों को कहने में (पूर्वपद को अन्तोदात्त होता है)। प्राचाम् -VI. iii.9 प्राच्यदेशों (जो करों के नाम वाले शब्द, उनमें भी हलादि शब्द के परे रहते हलन्त तथा अदन्त शब्दों से उत्तर सप्तमी विभक्ति का अलुक होता है)। प्राचाम् - VII. Iii. 14 (दिशावाची शब्दों से उत्तर) प्राच्य देश में (वर्तमान याम तथा नगरवाची शब्दों के अचों में आदि अच् को तद्धित जित् णित् तथा किंत् प्रत्यय परे रहते वृद्धि होती है)। प्राचाम् - VII. iii. 24 . प्राच्य देश में (नगर अन्त वाला जो अङ्ग,उसके पूर्वपद तथा उत्तरपद के अचों में आदि अच को जित.णित तथा कित् तद्धित परे रहते वृद्धि होती है)। प्राचाम् - VIII. ii. 86 (ऋकार को छोड़कर वाक्य के अनन्त्य गुरु-सज्ज्ञक वर्ण को एक-एक करके तथा अन्त्य के टि को भी) प्राचीन आचार्यों के मत में (प्लुत उदात्त होता है)। प्राच्य... -II. iv. 66 देखें- प्राच्यभरतेषु II. iv. 66 Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राच्य... . 383 प्रातिलोम्ये प्राच्य.. - IV. 1. 176 देखें-प्राच्यभर्गादिO IV. 1. 176 प्राच्यभरतेषु - II. iv. 66 प्राच्य गोत्र और भरत गोत्र में विहित (इब प्रत्यय का बहुत अच् वाले प्रातिपदिक से उत्तर बहुत्व की विवक्षा में लुक् होता है)। प्राच्यभस्तेषु - VIII. iii. 75 (परिस्कन्द' शब्द में मूर्धन्याभाव निपातन है), प्राग्देशीयान्तर्गत भरतदेश के प्रयोग-विषय में)। प्राच्यभर्गादियौधेयादिभ्यः - IV. 1. 176 (क्षत्रियाभिधायी.जनपदवाची) प्राग्देशीय शब्द तथा भर्गादि,यौधेयादि शब्दों से (उत्पन्न जो तद्राजसंज्ञक प्रत्यय, उनका स्त्रीत्व अभिधेय हो तो लुक नहीं होता)। प्राणभृज्जाति... - V.i. 128 देखें- प्राणभृज्जातिवयोo V.i. 128 प्राणभृष्णातिवयोवचनोद्गात्रादिभ्यः - V.i. 128_ . (षष्ठीसमर्थ) जीवधारी, जातिवाची, अवस्थावाची तथा उदात्रादि प्रातिपदिकों से (भाव और कर्म अर्थों में अब प्रत्यय होता है)। प्राणि.. -II. iv.2 . देखें - प्राणितूर्यसेनाङ्गानाम् II. iv. 2 प्राणि.. - IV. iii. 132 देखें-प्राण्योषधिवक्षेभ्यः IV. iii. 132 प्राणि... -IV. iii. 151 देखें-प्राणिरजतादिभ्यः IV. iii. 151 प्राणितूर्यसेनाङ्गानाम् – II. iv. 2 प्राणी के अङ्गवाची, तूर्य = वाद्य अङ्गवाची तथा सेनाङ्गवाची शब्दों के (द्वन्द्व को भी एकवद्भाव हो जाता है)। प्राणिरजतादिभ्यः - IV. 1. 151 (षष्ठीसमर्थ) प्राणिवाची तथा रजतादिगण में पढ़े प्राति- पदिकों से विकार और अवयव अर्थों में अञ् प्रत्यय होता है)। प्राणिस्थात् - V.ii. 96 . प्राणिस्थ = प्राणी में स्थित,तद्वाची (आकारान्त) प्राति'पदिकों से मत्वर्थ' में विकल्प से लच प्रत्यय होता है। प्राणिस्थात् - V. ii. 128 (द्वन्द्व समास,रोग तथा निन्ध को कहने वाले) प्राणी में स्थित (अकारान्त) प्रातिपदिकों से (मत्वर्थ' में इनि प्रत्यय होता है)। प्राण्योषधिवृक्षेभ्यः - IV. iii. 132 (षष्ठीसमर्थ) प्राणिवाची, ओषधिवाची तथा वृक्षवाची प्रातिपदिकों से (अवयव तथा विकार अर्थों में यथाविहित प्रत्यय होता है)। प्रात् -I. iii. 81 प्र उपसर्ग से उत्तर (वह धातु से परस्मैपद होता है)। प्रात् -VI. I. 183 प्रउपसर्ग से उत्तर (अस्वाङ्गवाची उत्तरपद को सजाविषय में अन्तोदात्त होता है)। प्रातिपदिकम् - I.ii. 43 (अर्थवान् शब्दों की) प्रातिपदिक संज्ञा होती है, (धातु और प्रत्यय को छोड़कर)। प्रातिपदिकस्य -I. III. 47 (नपुंसकलिङ्ग में वर्तमान) प्रातिपदिक को (हस्व हो जाता ...प्रातिपदिकात् - Vi.1 देखें - झ्याप्प्रातिपदिकात् IV.i.1 प्रातिपदिकान्त.. - VIII. iv. 11 देखें - प्रातिपदिकान्तनुम्0 VIII. iv. 11 प्रातिपदिकान्तनुम्विभक्तियु - VIII. iv. 11 (पूर्वपद में स्थित निमित्त से उत्तर) प्रातिपदिक के अन्त में जो नकार तथा नुम् एवं विभक्ति में जो नकार,उसको (भी विकल्प से णकार आदेश होता है)। प्रातिपदिकान्तस्य -VIII. ii.7 प्रातिपदिक पद के अन्त में (नकार का लोप होता है)। प्रातिपदिकार्थ... -II. iii. 46 देखें - प्रातिपदिकार्थलिङ्ग II. iii. 46 प्रातिलोम्ये-v.iv. 64 'प्रतिकूलता' अर्थ गम्यमान हो तो (दु.ख प्रातिपदिक से कृञ् के योग में डाच् प्रत्यय होता है)। Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रादयः 384 प्रादयः -I. iv.58 प्राये -v.ii. 82 प्रादिगणपठित शब्द (निपातसंज्ञक होते हैं, तथा क्रिया (प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से सप्तम्यर्थ में कन् प्रत्यय के साथ प्रयुक्त होने पर वे उपसर्ग-सज्ञक होते हैं)। होता है, यदि वह प्रथमासमर्थ) बहुल करके (सञ्जाविषय ...प्रादयः -II. ii. 18 में अन्नविषयक हो तो)। देखें - कुगतिप्रादयः II. ii. 18 प्रायेण-III. ii. 118 ....प्रादुर्थ्याम् - VIII. iii. 87 (धातु से करण और अधिकरण कारक में पुंल्लिङ्ग में) देखें - उपसर्गप्रादुर्थ्याम् VIII. ii. 87 प्रायः करके (घ प्रत्यय होता है, यदि समुदाय से संज्ञा प्रतीत होती हो)। प्राध्वम् -I. iv.77 'प्राध्वम्' शब्द (बन्धन अर्थ में कृञ् के योग में नित्य ...प्रार्थनेषु - III. iii. 161 गति और निपात सञ्जक होता है)। देखें-विधिनिमन्त्रण III. 1. 161 ...प्रावीण्ययोः - IV. 1. 127 ...प्राप्त... -II.i. 23 देखें - कुत्सनप्रावीण्ययोः IV. ii. 127 देखें - श्रितातीतपतितः II. 1. 23 प्रावृट्.. - VI. iii. 14 . . . प्राप्त... - II. ii.4 देखें-प्रावृट्शरत् VI. iii. 14. देखें - प्राप्तापने II. II. 4 प्रावृट्शरत्कालदिवाम् - VI. iii. 14 ....प्राप्तकालेषु - III. iii. 163 प्रावृट्, शरत, काल, दिव् - इन शब्दों की (सप्तमी का देखें - प्रैवातिसर्ग III. iii. 163 'ज' उत्तरपद रहते अलुक होता है)। प्राप्तम् - V. 1. 103 प्रावृषः -IV. iii. 17 (प्रथमासमर्थ समय प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ में यथावि प्रावृष् प्रातिपदिक से (एण्य प्रत्यय होता है)। हित ठञ् प्रत्यय होता है,यदि वह प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक प्राप्त समानाधिकरण वाला हो तो। प्रावृष -IV. lil. 26 प्राप्तापने-II. 1.4 (सप्तमीसमर्थ) प्रावृष् प्रातिपदिक से (उत्पन्न हुआ' अर्थ में ठप प्रत्यय होता है)। प्राप्त, आपन्न -ये (सुबन्त) शब्द (भी द्वितीयान्त सुबन्त के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होते हैं और ....प्रासङ्गम् - IV.iv.76 देखें - रथयुगप्रासङ्गम् IV. iv.76 वह तत्पुरुष समास होता है)। प्राप्नोति -v.ii. 8 ....प्राणे... - IV. iii. 23 (द्वितीयासमर्थ आप्रपद प्रातिपदिक से) प्राप्त होता है' . देखें-सायंचिरंपाहणे IV. iii. 23 अर्थ में (ख प्रत्यय होता है)। प्रिय..-III. 1. 38 ...प्राप्य... - IV. iv. 91 देखें-प्रियवशे III. 1. 38 देखें - तार्यतुल्य IV. iv. 91 ...प्रिय...-III. ii. 44 ...प्राम् - VII. iv. 12 देखें-क्षेमप्रिय III. ii. 44 देखें-शदनाम् VII. iv. 12 प्रिय..-VI. iv. 157 प्रायभक -IV. iii.39 देखें-प्रियस्थिर०VI. iv. 157 (सप्तमीसमर्थ प्रातिपदिकों से) 'प्रायः करके होता है' प्रिय... - VIII. 1. 13 (अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है)। देखें- प्रियसुखयोः VIII. 1. 13 .. Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियः 385 प्रियः - IV. iv.95 प्र... -III. I. 149 (षष्ठीसमर्थ हृदय प्रातिपदिक से) प्रिय अर्थ में (यत देखें-पुसल्वः III. I. 149 प्रत्यय होता है)। पुसल्यः -III. I. 149 ...प्रिययोः -VI.ii. 15 पु, स,लू धातुओं से (समभिहार गम्यमान होने पर वुन् देखें-सुखप्रिययो: VI. ii. 15 प्रत्यय होता है)। प्रियवशे-III. I. 38 प्रे-III. 1.6 प्रिय तथा वश (कर्म) के उपपद रहते (वद् धातु से खच् प्रउपसर्ग पूर्वक (दा और ज्ञा धातु से कर्म उपपद रहते प्रत्यय होता है)। . 'क' प्रत्यय होता है)। प्रियसुखयो: - VIII. 1. 13 प्रे-III. ii. 145 प्रिय तथा सुख शब्दों को (कष्ट न होना' अर्थ द्योत्य : हो तो विकल्प करके द्वित्व होता है. एवं उसको कर्मधा- प्रपूर्वक (लप,स,द्रु,मथ, वद, वस् - इन धातुओं से रयवत् कार्य होता है)। तच्छीलादि कर्ता हों तो वर्तमानकाल में घिनुण प्रत्यय प्रियस्थिरस्फिरोरुबहुलगुरुवृद्धतृप्रदीर्घवृन्दारकाणाम् - होता है)। VI. iv. 157 प्रे-III. iii. 27 प्रिय,स्थिर,स्फिर,उरु,बहुल,गुरु, वृद्ध,तृप्र,दीर्घ,वृन्दा- प्रपूर्वक (दू,स्तु,स्नु धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा रक-इन अङ्गों को (यथासङ्ख्य करके प्र,स्थ,स्फ,वर, भाव में घञ् प्रत्यय होता है)। बंहि, गर, वर्षि,त्रप,द्राधि,वृन्द आदेश हो जाते हैं ; इष्ठन्, प्रे-III. iii. 32 इमनिच तथा ईयसुन् परे रहते)। ...प्रियात् - V. iv. 63 प्र पूर्वक (स्तृञ् आच्छादने धातु से यज्ञविषय को छोड़कर कर्तभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में घन प्रत्यय • देखें - सुखप्रियात् V. iv.63 होता है)। ....प्रियादिषु - VI. iii. 33 देखें - अपूरणीप्रियादिषु VI. ill. 33 प्रे-III. iii. 46 ...प्रियेषु - III. ii. 56 (प्राप्त करने की इच्छा गम्यमान हो तो) प्र पूर्वक (ग्रह देखें-आढ्यसुभग III. ii. 56 धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में घन प्रत्यय ...प्री... -III. I. 135 होता है। देखें-इगुपधज्ञा० III.i. 135 प्रे-III. iii. 52 प्रीती-VI. ii. 16 (वणिक् सम्बन्धी प्रत्ययान्त वाच्य हो तो) प्रपूर्वक (ग्रह प्रीति = लगाव गम्यमान हो तो (सुख तथा प्रिय शब्द धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में विकल्प से उत्तरपद रहते भी तत्पुरुष समास में पूर्वपद को प्रकृतिस्वर घञ् प्रत्यय होता है)। हो जाता है)। ...प्रेक्ष... -IV.ii.79 प्रीयमाण: -I. iv. 33 देखें - अरीहणकृशाश्व० [V.ii.79 (रुचि अर्थ वाली धातुओं के प्रयोग में) प्रीयमाण = प्रेष्य.. -II. iii. 61 प्रिय जिसको हो वह (कारक संप्रदानसजक होता है)। देखें-प्रेष्यब्रुवः II. iii. 61 ....... -I. iii. 86 ...प्रेष्य.. - VIII. ii. 91 देखें-बुधयुधनशजने I. iil.86 देखें-बूहिप्रेष्य VIII. 1.91 Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेष्यनुकः 386 ..प्साति... प्रेष्यबुवः -II. iii. 61 (देवता सम्प्रदान है जिसका, उस क्रिया के वाचक) प्र पूर्वक इष धातु तथा बू धातु के (कर्म हवि के वाचक शब्द से षष्ठी विभक्ति होती है)। प्रैष... -III. iii. 163 देखें - प्रैषातिसर्गः III. iii. 163 प्रैषातिसर्गप्राप्तकालेषु - III. ii. 163 प्रेषण करना,कामचारपूर्वक आज्ञा देना,समय आ जाना -इन अर्थों में (धातु से कृत्य प्रत्यय होते हैं तथा लोट भी होता है)। ....प्रेषेषु - VIII. ii. 104 देखें – क्षियाशी:प्रेषेषु VIII. ii. 104 प्रोक्तम् - IV. iii. 101 (ततीयासमर्थ प्रातिपदिक से) प्रोक्त = प्रवचन किया हुआ अर्थ में (यथाविहित प्रत्यय होता है)। प्रोक्तातु - IV.ii. 63 (द्वितीयासमर्थ) प्रोक्त प्रत्ययान्त प्रातिपदिक से (अध्येत, वेदित अर्थ में उत्पन्न प्रत्यय का लक हो जाता है। प्रोपाभ्याम् -I. iii. 42 . (समान अर्थ वाले) प्र तथा उप उपसर्ग से उत्तर (क्रम् धातु से आत्मनेपद होता है)। प्रोपाभ्याम् -I. iii. 64 (अयज्ञपात्र विषय में) प्र तथा उप पूर्वक (युजिर् योगे' धातु से आत्मनेपद हो जाता है)। ...प्रोष्ठपदाः - V. iv. 120 देखें - सुप्रातसुश्व० V. iv. 120 ...प्रोष्ठपदात् - IV. ii. 34 देखें – महाराजप्रोष्ठ० IV. ii. 34 ...प्रोष्ठपदानाम् -I. ii. 60 देखें - फल्गुनीप्रोष्ठपदानाम् I. 1.60 प्रोष्ठपदानाम् - VII. iii. 18 (जात' अर्थ में विहित जित.णित तथा कित तद्धित परे रहते) प्रोष्ठपद अङ्ग के (उत्तरपद के अचों में आदि अच को वृद्धि होती है)। ...प्लक्ष.. - VIII. iv.5 देखें-प्रनिरन्त: VIII. iv.5 प्लक्षादिभ्यः - IV. iii. 161. . (षष्ठीसमर्थ) प्लक्षादि प्रातिपदिकों से (फल के विकार और अवयव की विवक्षा होने पर अण् प्रत्यय होता है)। प्लक्ष = वटवृक्ष, गूलर का पेड़। ...प्लवति... - VII. iv. 81 देखें-स्त्रवतिशृणोति VII. iv.81 . प्लुत... - VI.i. 121 देखें - प्लुतप्रगृह्याः VI. i. 121 ....प्लुतः - I. ii. 27 देखें - ह्रस्वदीर्घप्लुतः I. ii. 27 . प्लुत: - VIII. ii. 82. (यह अधिकार सूत्र है, पाद की समाप्ति-पर्यन्त सर्वत्र । वाक्य के टि भाग को) प्लुत (उदात्त) होता है, (ऐसा अर्थ होता जायेगा। प्लुतप्रगृह्या: -VI. I. 121 प्लुत तथा प्रगृह्यसञक शब्द (अच् परे रहते नित्य ही प्रकृतिभाव से रहते हैं)। प्लुतौ - VIII. ii. 106 (ऐच के स्थान में जब प्लुत का प्रसङ्ग हो तो उस ऐच के अवयवभूत इकार, उकार) प्तुत होते हैं। ...प्लुवोः - III. i. 50 देखें - रुप्लुवोः III. iii. 50 ...प्लुवो: - VI. iv. 58 देखें- युप्लुवोः VI.iv.58 . प्वादीनाम् - VII. iii. 80 पूज् इत्यादि अगों को (शित् प्रत्यय परे रहते हस्व होता है)। ....प्वोः - VIII. iii. 37 देखें - कुप्वो: VIII. iii. 37 ...प्साति... - VIII. iv. 17 देखें - गदनदO VIII. iv. 17 Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 387 फ-प्रत्याहारसूत्र XI फले - IV. ii. 160 आचार्य पाणिनि द्वारा अपने ग्यारहवें प्रत्याहारसूत्र में फल अभिधेय हो (तो विकार और अवयव अर्थों में पठित द्वितीय वर्ण विहित प्रत्यय का लुक होता है)। पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्णमाला फलेग्रहि-III. ii. 26 का इकत्तीसवां वर्ण। फलेपहि शब्द (इन् प्रत्ययान्त) निपातन किया जाता है। फ... -VII. .2. ...फलो: - VII. iv. 87 देखें-फढख० VII.1.2 देखें-चरफलो: VII. iv. 87 फक्... -IV.i.91 . फल्गुनी... -I. ii. 60 देखें-फक्फिोः IV.i.91. देखें- फल्गुनीप्रोष्ठपदानाम् I. ii. 60 ...फक्... -IV.ii.79 ....फल्गुनी... - IV. il. 34 देखें-दुज्छण्कठo Vii. 79 देखें - अविष्ठाफल्गुन्यनु० IV. iii. 34 फक्-IV.1.99 फल्गुनीप्रोष्ठपदानाम् - I. ii. 60 (नडादि षष्ठ्यन्त प्रातिपदिकों से गोत्रापत्य में) फक् फलानी और प्रोष्ठपद (नक्षत्रों) के (द्वित्व अर्थ में भी प्रत्यय होता है। बहुवचन का प्रयोग विकल्प करके होता है)। फक्फिो : -1.1.91 ...फाण्ट.. -VII. ii. 18 (प्राग्दीव्यतीय अजादि प्रत्यय की विवक्षा में युवापत्य) देखें-क्षुब्यस्वान्तः VII. ii. 18 फक और फिज का विकल्प से लक होता है)। फाण्टाहृति... - IV.i. 150 फञ् - IN.i. 110 देखें- फाण्टाहतिमिमताभ्याम् IV.i. 150 (षष्ठीसमर्थ अश्वादि प्रातिपदिकों से गोत्रापत्य में) फब फाण्टातिमिमताभ्याम् -IV.i. 150 प्रत्यय होता है। . . (सौवीर विषय वाले) फाण्टाहृति तथा मिमत शब्दों से फढखयाम् - VII. 1.2 (अपत्यार्थ में ण तथा फिञ् प्रत्यय होते है)। (प्रत्यय के आदि के) फ,द,ख,छ् तथा घ् को (यथासङ् फाण्ट = काढ़ा, अर्क। ख्य करके आयन, एय, ईन्, ईय् तथा इय् आदेश होते ___...फान्तात् -I. ii. 23 देखें-थफान्तात् I. ii. 23 फणाम् -VI. iv. 125 फाल्गुनी... - IV.ii. 22 देखें-फाल्गुनीश्रवणाo IV. ii. 22 फण आदि (सात) धातुओं के (अवर्ण के स्थान में भी फाल्गुनीश्रवणाकार्तिकीचैत्रीभ्यः - IV. i. 22 विकल्प से एत्त्व तथा अभ्यासलोप होता है; कित् , ङित् . लिट् तथा सेट् थल परे रहते)। (प्रथमासमर्थ पौर्णमासी शब्द से समानाधिकरण वाले जो) फाल्गुनी,श्रवणा, कार्तिकी और चैत्री शब्द - उनसे ...फल... - Iv.i.64 (विकल्प से सप्तम्यर्थ में ठक प्रत्यय होता है.पक्ष में अण . देखें-पाककर्णपर्ण IV.i.64 होगा)। ...फल... -VI. iv. 122 फि - IV. 1. 154 देखें-तृफलOVI. iv. 122 तिकादि प्रातिपदिकों से अपत्य अर्थ में) फिञ् प्रत्यय ...फलक... -VI. ii. 101 होता है)। . देखें-हास्तिनफलक. VI. ii. 101 Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 388 ...फि... -IV. 1.79 देखें-दुज्छण्कठ०V.ii.79 ...फिजो: - IV. 1. 91 देखें-फक्फिो : IV.1.91 ...फिजौ-V.i. 150 देखें- णफिजौ IV.i. 150 फिन् -IV.1.160 (अवृद्धसंज्ञक प्रातिपदिक से अपत्यार्थ में बहुल करके) फिन् प्रत्यय होता है, (प्राच्य आचार्यों के मत में, अन्यथा इब)। फुल्ल... -VIII. 1.54 देखें-फुल्लक्षीब VIII. ii. 54. फुल्लक्षीवकृशोल्लाघा - VIII. ii. 54 (उपसर्ग से उत्तर न होने पर) फुल्ल, क्षीब, कृश तथा उल्लाघ शब्द निपातन किये जाते है। फे: - IV.i. 149 फिजन्त (वृद्धसंज्ञक) प्रातिपदिक (सौवीर गोत्रापत्य) से (कुत्सित युवापत्य को कहने में छ तथा ठक् प्रत्यय बहुल करके होता है)। फेनात् - V. 1. 99 फेन प्रातिपदिक से (मत्वर्थ में इलच् प्रत्यय और लच् प्रत्यय विकल्प से होते है)। ब-प्रत्याहारसूत्र x (तथा जो षष्ठी से निर्दिष्ट हो,वह करभ = ऊंट का छोटा भगवान् पाणिनि द्वारा अपने दशम प्रत्याहारसूत्र में बच्चा हो तो)। पठित द्वितीय वर्ण। बन्धने -I. iv.77 पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्णमाला (प्राध्वम्' शब्द की) बन्धन अर्थ में (कृञ् के योग में का छब्बीसवां वर्ण। नित्य गति और निपात संज्ञा होती है)। । ब... -V. 1. 138 बन्धने - IV. iv. 96 देखें-बभयुसov.ii. 138 (षष्ठीसमर्थ हृदय शब्द से) बन्धन अर्थ में (भी वेद बदा... - V. 1.9 देखें- बद्घाभक्षयति V. 1.9 अभिधेय होने पर यत् प्रत्यय होता है)। बद्धाभक्षयतिनेयेषु-v.i.9 । बन्धुनि-V.v.9 (द्वितीयासमर्थ अनुपद,सर्वान्न तथा आनय प्रातिपदिकों (जाति शब्द अन्त वाले प्रातिपदिक से) द्रव्य गम्यमान होतो (स्वार्थ में छप्रत्यय होता है)। से यथासङ्ख्य करके) 'सम्बद्ध'.'खाता है' तथा 'ले जाने हो तो (स्वार्थ में र योग्य' अर्थों में (ख प्रत्यय होता है)। बन्थुनि - VI. 1. 14 ...बघ.. -III. 1.6 बन्धु शब्द उत्तरपद हो तो (बहुव्रीहि समास में ष्यङ् देखें-मान्बधदान्शायः III. 1.6 को सम्प्रसारण होता है)। ...बध्नातिषु -VI. iii. 118 बन्धुनि - VI. ii. 109 देखें-इन्सिबमातिषु VI. iii. 18 (बहुव्रीहि समास में) बन्धु शब्द उत्तरपद रहते (नद्यन्त बन्यः -III. iv.41 पूर्वपद को अन्तोदात्त होता है)। (अधिकरणवाची शब्द उपपद हों तो) बन्ध धातु से। (णमुल् प्रत्यय होता है)। ...बन्युभ्यः -IV. 1.42 देखें-ग्रामजनबन्धु IV. ii. 42 बन्धनम् - V. ii. 79 (प्रथमासमर्थ शृङ्खल प्रातिपदिक से षष्ठयर्थ में कन ...बन्युपु-VI. iii. 84 प्रत्यय होता है), यदि वह प्रथमासमर्थ बन्धन बन रहा हो देखें-ज्योतिर्जनपदO VI. iii. 84 Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 389 बहुपूगगणसहस्य बन्ये-VI. ifi. 12 बन्ध शब्द उत्तरपद रहते (भी हलन्त तथा अदन्त शब्द से उत्तर सप्तमी का विकल्प करके अलुक् होता है)। ...बन्येषु -VI. ii. 32 • देखें-सिद्धशुष्क० VI. ii. 32 . ...बन्यैः - II.i. 40 देखें-सिद्धशुष्कपक्वबन्धैः II. I. 40 बभयुस्तितुतयसः - V. 1. 138 (कम तथा शम् प्रातिपदिकों से मत्वर्थ में) ब,भ,युस. ति, तु, त तथा यस् प्रत्यय होते हैं। बभूथ - VII. ii. 64 _ 'बभूथ' यह शब्द (वेदविषय में) इडभावयुक्त निपातन किया जाता है, (थल्.परे रहते)। ...बध्वोः - IV.i. 106 ... देखें - मधुबम्वोः IV. 1. 106 . . बर्हिषि-IV. iv. 119 (सप्तमीसमर्थ) बर्हिष् प्रातिपदिक से (दिया हआ' अर्थ में यत् प्रत्यय होता है, वेद-विषय में)। ...बर्हिस्... - VIII. iii. 97 देखें - अम्बाम्ब० VIII. 1.97 ...बल... -IV.ii.79 - देखें-अरीहणकशाश्व IV. 1.79 ...बलयोः - VII. ii. 20 देखें - स्थूलबलयोः VII. I. 20 बलादिभ्यः - V. Ii. 136 बलादि प्रातिपदिकों से विकल्प से 'मत्वर्थ' में मतप प्रत्यय होता है)। ...बलि... -II.. 35 देखें - तदर्थार्थबलिहित० II. 1. 35 ...बलि... - III. II. 21 देखें - दिवाविमाo III. ii. 21 ...बलि...-V.ii. 139 .देखें-तुन्दिबलिo V. ii. 139 ....बले-V.1.98 देखें-कामबले v.ii. 98 ....बले: - V.I. 13 देखें-छदिरुपधिबले: V.I. 13 'बशः -VIII. 11. 32 (धातु का अवयव जो एक अच् वाला तथा झपन्त उसके अवयव) बश् के स्थान में (भष् आदेश होता है; झलादि सकार तथा झलादि ध्व शब्द के परे रहते एवं पदान्त में। ....बहिर्... - II.1.11 देखें - अपपरिबहिस्चयः II. 1. 11 ...बहिाम्.-V. iv. 116 देखें - अन्तर्बहिर्थ्याम् V. iv. 116 बहियोग... -I.. 35 देखें - बहियोंगोपसंव्यानयोः I. 1. 35 बहु... -1.1.22 देखें-बहुगणक्तुडति 1.1.22 ....बहु...-III. 1. 21 देखें-दिवाविमा० III. 1. 21 बहु... -V. 1. 52 देखें-बहुपूग० V. ii. 52 बहु... -v.iv.42 देखें - बह्वल्पार्थात् V. iv. 42 बहु -VI. ii. 30 (द्विग समास में इगन्त,कालवाची,कपाल,भगाल तथा शराव शब्दों के उत्तरपद रहते) बहु शब्द (विकल्प करके प्रकृतिस्वर होता है)। बहुगणवतुडति-I.i. 22 बहु शब्द,गण शब्द,वतु प्रत्ययान्त तथा डति प्रत्ययान्त शब्दों की संख्या संज्ञा होती है)। बहुच - V. iii. 68 (किञ्चित् न्यून' अर्थ में वर्तमान सुबन्त से विकल्प से) बहुच प्रत्यय होता है (और वह सुबन्त से पूर्व में ही होता है)। बहुपूगगणसस्य -V.ii. 52 . षष्ठीसमर्थ बहु, पूग, गण, सङ्घ -इन को (पूरण' अर्थ में विहित डट् प्रत्यय के परे रहते तिथुक् आगम होता है)। Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुप्रजाः बहुप्रजा: - Viv. 123 (वेद-विषय में) असिच् प्रत्ययान्त बहुप्रजाः शब्द (बहुव्रीहि समास में) निपातन किया जाता है। 390 बहुभाषिणि - V. 1. 125 (वाच् प्रातिपदिक से 'मत्वर्थ' में आलच् और आटच् प्रत्यय होते है), 'बहुत बोलने वाला' अभिधेय हो तो । ... बहुभ्यः - V. iii. 2 देखें - किंसर्वनामo V. III. 2 .... बहुल... - VI. iv. 157 देखें - प्रियस्थिरo VI. iv. 157 बहुलम् - II. 1. 32 वे (कर्तृवाची और करणवाची जो तृतीयान्त सुबन्त, समर्थ कृदन्त सुबन्त के साथ) बहुल करके (समास को प्राप्त होते है और वह तत्पुरुष समास होता है) । बहुलम् -II. iii. 62 बहुल करके (चतुर्थी के अर्थ में षष्ठी विभक्ति होती है, वेद में)। बहुलम् - II. iv. 39 बहुल करके (अद् को घस्लृ आदेश होता है छन्द में, घञ् और अप् प्रत्यय के परे रहते) । बहुलम् - II. iv. 73 (वैदिक प्रयोग विषय में शप् का) बहुल करके (लुक् होता है)। बहुलम् - II. iv. 76 (जुहोत्यादि धातुओं से उत्तर) बहुल करके (शप् को श्लु होता है, वेद में)। बहुलम् - II. iv. 84 (अदन्त अव्ययीभाव से उत्तर सप्तमी और तृतीया के सुप् को) बहुल करके (अम् आदेश होता है)। बहुलम् - III. 1. 34 बहुल करके (धातु से सिप् प्रत्यय होता है, लेट् परे रहते। बहुलम् -III. i. 85 (वेदविषय में) बहुल करके (सब विधियों में परस्पर विनिमय हो जाता है)। बहुलम् - III. ii. 81 (अभीक्ष्णता अर्थात् पौनःपुन्य गम्यमान हो तो धातु से) बहुल करके (णिनि प्रत्यय होता है) । बहुलम् - III. ii. 88 (वेदविषय में कर्म उपपद रहते भूतकाल में हन् धातु से) बहुल करके (क्विप् प्रत्यय होता है) 1. -III. iii. 1 बहुलम् - प्रायः, जहाँ विहित है, उनके अतिरिक्त भी, विना विधान hi (धातुओं से उणादि प्रत्यय वर्तमान काल में) बहुल करके होते है । बहुलम् - III. iii. 108 ( रोगविशेष की संज्ञा में धातु से स्त्रीलिङ्ग में ण्वुल्' प्रत्यय) बहुल करके होता है। म् - III. iii. 113 बहुलम् - बहुलम् (कृत्यसंज्ञक प्रत्यय तथा ल्युट् प्रत्यय) बहुल अर्थों में होते हैं। -IV. i. 148 बहुलम् - (सौवीर गोत्र में वर्तमान वृद्धसंज्ञक प्रातिपदिकों से अपत्य अर्थ में) बहुल करके (ठक् प्रत्यय होता है, कुत्सन गम्यमान होने पर) । - IV. i. 160 बहुलम् - (अवृद्धसंज्ञक प्रातिपदिक से अपत्यार्थ में) बहुल करके (फिन् प्रत्यय होता है, प्राच्य आचार्यों के मत में, अन्यत्र इञ्) । बहुलम् - IV. iii. 37 (नक्षत्रवाची प्रातिपदिकों से जातार्थ में उत्पन्न प्रत्यय का) बहुल करके लुक् होता है। बहुलम् - IV. iii. 99 (प्रथमासमर्थ भक्तिसमानाधिकरणवाची गोत्र आख्यावाले तथा क्षत्रिय आख्या वाले प्रातिपदिकों से) बहुल करके (वुञ् प्रत्यय होता है)। बहुलम् - Vil. 122 (प्रातिपदिकों से वैदिक प्रयोग-विषय में) बहुल करके (मत्वर्थ' में विनि प्रत्यय होता है)। Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 391 बहुवचनस्य बहुलम् - V. iv.56 बहुलम् -VI. iv. 128 (द्वितीया तथा सप्तमी-विभक्त्यन्त देव,मनुष्य,पुरुष,पुरु (मघवा शब्द को) बहुल करके (तृ आदेश होता है)। तथा मर्त्य शब्दों से) बहुल करके (त्रा प्रत्यय होता है)। बहुलम् - VII. i. 8 बहुलम् -VI.1.33 (वेदविषय में झादेश अत् को) बहुल करके (रुट का (वेदविषयम में खेज् धातु को) बहुल करके (सम्प्रसारण आगम होता है)। हो जाता है)। बहुलम् -VII. 1. 10 बहुलम् -VI.1.68 (वेदविषय में अकारान्त अङ्ग से उत्तर) बहुल करके (शि का) बहुल करके (लोप हो जाता है,वेदविषय में)। (भिस् को ऐस् आदेश होता है)। बहुलम् -VI.1. 122 बहुलम् - VII. 1. 103 (आङ् को अच् परे रहते संहिता के विषय में) बहुल (वेदविषय में ऋकारान्त धातु अङ्ग को) बहुल करके करके (अनुनासिक आदेश होता है तथा उस अनुनासिक (उकारादेश होता है)। को प्रकृतिभाव भी हो जाता है)। बहुलम् - VII. II.97 बहुलम् - VI. 1. 129 (अस् तथा सिच से उत्तर हलादि अपृक्त सार्वधातुक (स्यः शब्द के सु का हल परे रहते) बहुल करके (लोप को) बहुल करके (ईट आगम होता है, वेदविषय में)। हो जाता है,संहिता के विषय में)। बहुलम् - VII. N.78 बहुलम् -VI.1. 172 (वेद-विषय में अभ्यास को) बहुल करके (श्लु होने पर (वेदबिषय में झ्यन्त शब्द से उत्तर) बहुल करके (नाम् इकारादेश होता है)। विभक्ति को उदात्त होता है)। बहुलम् - VIII. iii. 52 बहुलम् - VI. 1. 199 . (पा धातु के प्रयोग परे हों तो भी पञ्चमी के विसर्जनीय (वेदविषय में उत्तरपद के = सक्थ शब्द के आदि को) को) बहुल करके (सकार आदेश होता है, वेद-विषय में)। बहुल करके (अन्तोदात्त होता है)। ...बहुलात् - IV. iii. 34 बहुलम् -- VI. iil. 13 - देखें- अविष्ठफल्गुन्य० V. iii. 34 (तत्पुरुष समास में कृदन्त शब्द उत्तरपद रहते) बहुल . बहुवचनम् -I. II. 58 करकें (सप्तमी का अलुक् होता है)। (जाति को कहने में एकत्व को विकल्प करके) बहुत्व बहुलम् -VI. 11.62 हो जाता है। (ङ्यन्त तथा आबन्त शब्दों को संज्ञा तथा छन्द-विषय बहुवचनम् -I. iv. 21 में उत्तरपद परे रहते) बहुल करके (हस्व होता है)। (बहुतों को कहने की विवक्षा में) बहुवचन का प्रत्यय होता है। बहुलम् -VI. iii. 121 (षजन्त उत्तरपद रहते अमनुष्य अभिधेय होने पर उप बहुवचनविषयात् - IV. 1. 124 सर्ग के अण् को) बहुल करके (दीर्घ) होता है। (जनपद तथा जनपद अवधिवाची अवृद्ध तथा वृद्ध भी) बहुवचन-विषयक प्रातिपदिकों से (शैषिक वुज प्रत्यय होबहुलम् - VI. iv. 75 ता है)। . (लुङ,लङ्लु ङ् परे रहने पर वेदविषय में माङ्का योग बहुवचनस्य -I. ii. 63 होने पर अट्, आट् आगम) बहुल करके होते है (और माङ् का योग न होने पर भी नहीं होते)। (तिष्य तथा पुनर्वसु शब्दों के नक्षत्रविषयक द्वन्द्व-समास में) बहुवचन के स्थान में नित्य ही द्विवचन हो जाता है)। AN Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुवचनस्य 392 बहुवचनस्य-VIII. I. 21 बहुव्रीहौ -I.i. 28 (पद से उत्तर अपादादि में वर्तमान) जो बहुवचन बहुव्रीहि समास में (सर्वादियों की सर्वनाम संज्ञा नहीं (षष्ठ्यन्त, चतुर्थ्यन्त एवं द्वितीयान्त युष्मद् तथा अस्मद्) होती)। पद, उनको (क्रमशः वस् तथा नस आदेश होते है)। बहुव्रीहौ – II. ii. 35 ...बहुवचनानि -I.iv. 101 बहुव्रीहि समास में (सप्तम्यन्त और विशेषण का पूर्व देखें- एकवचन द्विवचनबहुवचनानि I. iv. 101 प्रयोग होवे)। बहुक्चने - IV. iii. 100 बहुव्रीहौ - V. iv.73 बहुवचनविषय में वर्तमान (जो जनपद के समान ही (बहु तथा गण शब्द जिसके अन्त में नहीं है, ऐसे क्षत्रियवाची प्रातिपदिक,उनको जनपद की भाँति ही सारे सङ्ख्येय अर्थ में वर्तमान) बहुव्रीहिसमासयुक्त प्रातिपकार्य हो जाते है)। दिक से (डच् प्रत्यय होता है)। . बहुवचने - VII. iii. 103 बहुव्रीहौ –v.iv. 113 (अकारान्त अङ्ग को) बहुवचन (झलादि सुप) परे रहते (स्वाङ्गवाची जो सक्थि तथा अक्षि शब्द, तदन्त प्राति-'' (एकारादेश होता है)। पदिक से समासान्त षच प्रत्यय होता है),बहुव्रीहि समास : बहुवचने-VIII. 1.81 में। (असकारान्त अदस् शब्द के दकार से उत्तर एकार के बहुव्रीहौ-VI.1.14 स्थान में ईकारादेश होता है एवं दकार को मकार भी होता बन्धु शब्द उत्तरपद हो तो) बहुव्रीहि समास में (ष्यङ् है) बहुत पदार्थों को कहने में। को सम्प्रसारण होता है)। बहुव्रीहिः - II. ii. 23 बहुव्रीहौ - VI. ii.1 बहुव्रीहि संज्ञा होती है, (शेष समास की) यह अधिकार बहुव्रीहि समास में (पूर्वपद को प्रकृतिस्वर होता है)। बहुव्रीहौ -VI. 1. 106 बहुव्रीहिवत् - VIII. 1.9 बहुव्रीहि समास में (समाविषय में पूर्वपद विश्व शब्द द्वित्व किये हुये एक शब्द को) बहुव्रीहि के समान कार्य ___को अन्तोदात्त होता है)। हो जाता है। बहुव्रीही - VI. I. 138 बहुव्रीहे:-V.I. 12 (शिति शब्द से उत्तर नित्य ही जो अबवच उत्तरपद, बहुव्रीहि समास में जो अबन्त प्रातिपदिक. उस) से उसको) बहुव्रीहि समास में (प्रकृतिस्वर होता है, भसत् (स्त्रीलिङ्ग में डीप् प्रत्यय नहीं होता)। शब्द को छोड़कर)। बहुव्रीहे: - IV.I. 25 बहुव्रीहौ -VI. ii. 162 बहुव्रीहि समास में वर्तमान (ऊयस्-शब्दान्त प्रातिप- बहवीहि समास में (इदम.एतत. तद से उत्तर क्रिया के दिक) से (स्त्रीलिङ्ग में ङीष् प्रत्यय होता है)। गणन में वर्तमान प्रथम तथा पूरण प्रत्ययान्त शब्दों को बहुव्रीहे: - IV.1.52 अन्तोदात्त होता है)। बहुव्रीहि समास में भी जो (क्तान्त अन्तोदात्त) प्रातिप बहुव्रीहौ-VI. 1. 196 दिक, उससे (स्त्रीलिङ्ग में ङीष् प्रत्यय होता है)। . बहुव्रीहि समास में (द्वि तथा त्रि से उत्तर पाद,दत.मूर्धन् बहुव्रीहौ -1.1.27 शब्दों के उत्तरपद रहते विकल्प से अन्तोदात्त होता है)। (दिक वाची पदों के) बहुव्रीहि समास में (सर्वादियों की सरल-1021 सर्वनाम सझा विकल्प से होती है)। बहत्व अर्थ की विवक्षा में (बहुवचन होता है)। Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 393 ...बाडानि बहुषु-II. iv. 62 बहवः - IV. iii. 67 बहत्व अर्थ में वर्तमान (स्त्रीलिङ्गभिन्न तद्राज का लुक (व्याख्यान और भव अर्थ में षष्ठी और सप्तमीसमर्थ) होता है, यदि वह बहुत्व तद्राज के द्वारा ही निष्पादित हो। बहुत अच् वाले (अन्तोदात्त व्याख्यातव्य-नाम) प्रातिपतो)। दिकों से (ठञ् प्रत्यय होता है)। बहुषु- V. iv. 22 बहक - V. iii. 78 'बहुत' अर्थ को कहने में (प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से बहुत अच् वाले (मनुष्यनामधेय) प्रातिपदिक से (अनु'तस्य समूहः' IV.ii. 22 के अधिकार में कहे हुए प्रत्ययों कम्पा से युक्त नीति गम्यमान होने पर ठच् प्रत्यय होता के समान प्रत्यय होते है तथा मयट प्रत्यय भी होता है)। है, विकल्प से)। बहूनाम् – V. iii. 93 बहुच -VI. 1.83 (जाति को पूछने विषय में किम्, यत् तथा तत् प्राति- (ज' उत्तरपद रहते) बहुत अच् वाले पूर्वपद के (अन्त्य पदिकों से) बहुतों में से (एक का निर्धारण गम्यमान हो अक्षर से पूर्व को उदात्त होता है)। तो विकल्प से डतमच् प्रत्यय होता है)। बच-VI. iii. 118 बहो: - V. iv. 20 (अजिरादियों को छोड़कर,मतुप परे रहते) बह्वच शब्दों . (आसन्नकालिक क्रिया की अभ्यावृत्ति के गणन अर्थ के (अण को दीर्घ होता है)। में वर्तमान) बहु प्रातिपदिक से (विकल्प से पा प्रत्यय बावपूर्वपदात् - V. iv. 64 .. होता है)। - (अध्ययन विषय में वृत्तकर्मसमानाधिकरणवाची प्रथबहो: - VI. 1. 175 मासमर्थ) बहुच् पूर्वपदवाले प्रातिपदिक से (षष्ठ्यर्थ में ' (उत्तरपदार्थ के बहुत्व को कहने में वर्तमान) बहु शब्द ठच प्रत्यय होता है)। से (न के समान स्वर होता है)। बहुङ्गात् - IV. II. 71 : बहो: - VI. iv. 158 (जिस मतुप के परे रहने पर) बहुत अच् वाला अङ्ग हो, (बहु शब्द से उत्तर इष्ठन्,इमनिच् तथा ईयसुन का लोप (उस मत्वन्त प्रातिपदिक से भी अब् प्रत्यय होता है)। होता है और उस) बहु शब्द के स्थान में (भ आदेश भी बह्वल्पार्थात् - V. iv. 42 होता है)। बहुत तथा थोड़ा अर्थ वाले (कारकाभिधायी प्रातिपबहवः - II. iv.65 दिकों से विकल्प से शस् प्रत्यय होता है)। बहुत अच् वाले शब्द से उत्तर (प्राच्य और भरत गोत्र बह्वादिभ्यः - IV. 1.45 में विहित 'इज्' प्रत्यय का तत्कृत बहुवचन में लुक होता बहु आदि प्रातिपदिकों से (भी स्त्रीलिङ्ग में विकल्प से ङीष् प्रत्यय होता है)। ...बहक्चः - IV. 1.56 ....बहुच..-V. iii. 129 देखें- क्रोडादिबक्यः IV. 1.56 देखें -छन्दोगौविथक V. 1. 129 पर - IV. 1. 72 ...बंहि.. -VI. iv. 157 बहल अच वाले प्रातिपदिकों से (कुएँ को कहना हो तो देखें-प्रस्थस्फOVI. iv. 157 चातुरर्थिक अब् प्रत्यय होता है)। ...बाढयोः -v.iit.63 बह -IV. 1. 108 देखें- अन्तिकबाढयोः V.1.63 (अन्तोदात्त) बहुत अच् वाले (उत्तर दिशा में होने वाले ...वाहानि - VII. II. 18 ग्रामवाची) प्रातिपदिकों से (भी अब् प्रत्यय होता है)। देखें-व्यस्वान्त VII. I. 18 Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 394 ....बाहु... -III. 1. 21 बिले - VI. 1. 102 देखें-दिवाविमा० III. ii. 21 बिल शब्द उत्तरपद रहते (कुसूल, कूप, कुम्भ,शालाबाहुल्ये -II. iv. 22 इन पूर्वपद-स्थित शब्दों को अन्तोदात्त होता है)। बाहुल्य = अधिकता गम्यमान होने पर (नकर्मधार- बिल्वकादिभ्यः -VI. iv. 153 यवर्जित -छायान्त तत्पुरुष नपुंसकलिङ्ग में होता है)। बिल्वकादि शब्दों से उत्तर (भसज्ज्ञक छ का लुक होता ...बाह्या...-III. 1. 119 देखें-पदास्वैरिo I.i. 119 बिल्वादिभ्यः - IV. iii. 133 बान्तात् - IV.i.67 (षष्ठीसमर्थ) बिल्वादि प्रातिपदिकों से (विकार और . बाहु शब्द अन्तवाले प्रातिपदिकों से (संज्ञाविषय में अवयव अर्थों में अन् प्रत्यय होता है)। स्त्रीलिङ्ग में ऊङ् प्रत्यय होता है)। ...बिस्त... - IV.i. 22 बाहादिभ्यः - IV.1.96 देखें - अपरिमाणबिस्ताov.i. 22 बाहु आदि प्रातिपदिकों से (भी 'तस्यापत्यम्' अर्थ में ...बीजात् -V.iv.58 " देखें-द्वितीयतृतीय० V. iv. 58 इब् प्रत्यय होता है)। ...बुद्धि.. -I. iv. 52 . विडच्.. - V. 1. 32 देखें-गतिबनित्यवसानार्थI. iv.52 देखें-बिडजिरीसची V. 1. 32 ...बुद्धि.. -III. 1. 188 बिडज्जिरीसची - V. 1. 32 देखें - मतिबुद्धि III. ii. 188 नि उपसर्ग प्रातिपदिक से 'नासिकासम्बन्धी झुकाव' बध..-I.ii. 86 को कहना हो तो सज्ञाविषय में) बिडच् तथा बिरीसच् देखें-बुधयुधनशजने I. iii. 86 प्रत्यय होते है। ....बुध.. -III.1.61 ...बिडाल..-VI. 1.72 . देखें-दीपजन III. 1. 61 देखें-गोबिडाल.VI. II. 72 बुधयुधनशजनेनुभ्यः -I. ii. 86 बिदादिभ्यः - IV.I. 104 बुध, युध, नश, जन, इछ, प्र, दु, स्नु - इन (ण्यन्त) (षष्ठीसमर्थ) विदादि प्रातिपदिकों से (गोत्रापत्य में अब् धातुओं से (परस्मैपद होता है)। प्रत्यय होता है, परन्तु इनमें जो अनृषिवाची है,उनसे अन बुभुक्षा... -VII. iv.34 न्तरापत्य में अञ् होता है)। देखें-बुभुक्षापिपासा VII. iv. 34 ..बिन्दु.. - VI. II. 59 बुभुक्षापिपासागर्थेषु - VII. iv. 34 देखें-मन्यौदन० VI. iii. 59 (अशनाय,उदन्य,धनाय शब्द क्रमश:) बुभुक्षा,पिपासा, बिभेते: - VI.i. 55 . गर्घ अर्थों में (निपातन किये जाते है)। (हेत जहां भय का कारण हो,उस अर्थ में वर्तमान) जिभी बहत्या-v.iv.6 धातु के (एच के स्थान में णिच परे रहते विकल्प से आत्व (ढकने' अर्थ में वर्तमान) बृहती प्रातिपदिक से (स्वार्थ होता है)। में कन् प्रत्यय होता है)। ....बिरीसची - V... 32 ...बोधात् -V.1. 107 देखें-बिडज्जिरीसचौ. . 32 देखें-कपिबोधात् IV.I. 107 ...बिल्वात् -IV. iii. 148 बोभूतु - VII. iv. 65 देखें-उत्वद्वद्धo IV. iii. 148 बोभूतु शब्द (वेद-विषय में) निपातन किया जाता है। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र .. 395 ...ब्राह्मणानि ब्राह्म:-VI. iv. 171 ब्राह्म शब्द में टिलोप निपातन किया जाता है, (अपत्य जाति अर्थ को छोड़कर)। ब्राह्मण.. - IV. 1. 106 देखें-ब्राह्मणकौशिकयोः IV. 1. 106 ब्राह्मण... -IV.ii. 41 देखें-ब्राह्मणमाणवक्र०V.ii.41 ...ब्राह्मण.. - IV. iii. 72 देखें-द्वयब्राह्मण IV. iii.72 ब्राह्मण... - IV. iii. 105 देखें-ब्राह्मणकल्पेषु IV. iii. 105 ब्राह्मण... -VI. ii. 58 देखें-ब्राह्मणकुमारयोः VI. 1.58 ब्राह्मणक... - V.ii.71 देखें - ब्राह्मणकोष्णिके v. in. 71 ब्राह्मणकल्पेषु-IV. iii. 105 (तृतीयासमर्थ प्रातिपदिक से पुराणप्रोक्त) ब्राह्मण और कल्प अभिधेय हो (तो प्रोक्त अर्थ में णिनि प्रत्यय होता ब्रह्म...-III. 1.87 देखें-ब्रह्मभ्रूण III. 1.87 ब्रह्म...-V.iv.78 देखें- ब्रह्महस्तिभ्याम् V. iv.78 ब्रह्मचर्यम् - V. 1. 93 (प्रथमासमर्थ कालवाची प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ में यथाविहित ठञ् प्रत्यय होता है); ब्रह्मचर्य गम्यमान होने पर)। ब्रह्मचारिणि-v.ii. 134 (वर्ण प्रातिपदिक से 'मत्वर्थ' में इनि प्रत्यय होता है); ब्रह्मचारी वाच्य हो तो। ब्रह्मचारिणि -VI. iii. 85 (चरण गम्यमान हो तो) ब्रह्मचारी शब्द के उत्तरपद रहते (समान शब्द को स आदेश हो जाता है)। ...ब्रह्मणः -V.1.7 देखें-खलपवमाष० .1.7 ब्रह्मणः -V.i. 135 (षष्ठीसमर्थ ऋत्विग विशेषवाची) ब्रह्मन् प्रातिपदिक से (भाव और कर्म अर्थों में त्व प्रत्यय होता है)। · ब्रह्मणः -V.iv. 104 ब्रह्मन् शब्दान्त (तत्पुरुष समास) से (समासान्त टच प्रत्यय होता है,यदि समास के द्वारा जनपद सम्बन्ध प्रतीत होता हो तो)। ...ब्रह्मणोः -1.1.38 देखें-देवब्रह्मणोः I. 1. 38 ब्रह्मभ्रूणवत्रेषु - III. 1. 87 ब्रह्म,भ्रूण,वृत्र (कम) उपपद रहते (हन धातु से भूतकाल में क्विप् प्रत्यय होता है)। भ्रूण = गर्भ, कलल। वृत्र = असुर, बादल, अन्धकार, शत्रु । ...ब्रह्मवाच.. -III. 1. 123 देखें-निष्टक्यदेवहूय III. 1. 123 ब्रह्महस्तिभ्याम् - V. iv. 78 ब्रह्म और हस्ति शब्द से उत्तर (जो वर्चस् शब्द,तदन्त प्रातिपदिक से समासान्त अच् प्रत्यय होता है)। 1:-VI. ii. 58 ब्राह्मण तथा कुमार शब्द उपपद रहते (कर्मधारय समास में पूर्वपद आर्य शब्द को विकल्प से प्रकृतिस्वर होता है)। ब्राह्मणकोष्णिके - V. 1.71 ब्राह्मणक और उष्णिक शब्द कन्-प्रत्ययान्त सज्ञाविषय में निपातन किये जाते है। ब्राह्मणक = अयोग्य,नीच या नाममात्र का ब्राह्मण । उष्णिक = मांड। ब्राह्मणकौशिकयो: - IV. 1. 106 (मधु तथा ब शब्दों से यथासंख्य करके) ब्राह्मण तथा कौशिक गोत्र वाच्य हो (तो या प्रत्यय होता है)। ब्राह्मणमाणववाडवात् -IV. 1.41 (षष्ठीसमर्थ) ब्राह्मण,माणव तथा वाडव प्रातिपदिकों से (यत् प्रत्यय होता है)। ...बाह्मणानि - IV. 1.65 देखें-छन्दोब्राह्मणानि IV. 1.65 Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..ब्राह्मणादिभ्यः 396 भक्तात् ....ब्राह्मणादिभ्यः - V.i. 123 ब्रुव-III. iv.84 देखें-गुणवचनब्राह्मणाov.i. 123 बू धातु से परे (लट् लकार के स्थान में जो परस्मैपदब्राह्मणे -II. 1. 60 संज्ञक आदि के पाँच - तिप, तस्, झि,सिप, थस् आदेश ब्राह्मणविषयक प्रयोग होने पर (व्यवहारार्थक 'दिव्' । उनके स्थान में क्रमशः - णल, अतुस, उस, थल, अथुस् धातु के कर्म कारक में द्वितीया विभक्ति होती है)। विकल्प से हो जाते हैं,साथ ही बू धातु को आह आदेश । ब्राह्मणे-v.i. 61 भी हो जाता है)। (परिमाण समानाधिकरण वाले प्रथमासमर्थ त्रिंशत् तथा बुक - VII. iii. 13 चत्वारिंशत् प्रातिपदिकों से षष्ठ्यर्थ में सक्षा के विषय बज अङ्ग से उत्तर (हलादि पित् सार्वधातुक को ईट् होने पर डण प्रत्यय होता है).ब्राह्मण ग्रन्थ अभिधेय हो आगम होता है)। तों। ...ब्रवोः -II. iii. 61 ...ब्राह्मणेषु - VI. ii. 69 देखें - प्रेष्यबुवोः II. iii. 61 देखें - गोत्रान्तेवासिo VI. ii. 69 ब्रूहि.. - VIII. ii. 91 ...बुव.. -VI. iii. 42 देखें - ब्रूहिप्रेष्य VIII. ii. 91 देखें - घरूप VI. iii. 42 ब्रूहिप्रेष्यत्रौषड्वौषडावहानाम् - VIII. 1. 91 बुवः -II. iv.53 . बूहि,प्रेष्य,श्रौषट्, वौषट्, आवह – इन पदों के (आदि । — 'बूज्' धातु को (वच् आदेश होता है, आर्धधातुक के को यज्ञकर्म में प्लुत उदात्त होता है)। विषय में)। भ-प्रत्याहारसूत्र VIII भकुर्छ राम् - VIII. ii. 79 आचार्य पाणिनि द्वारा अपने अष्टम प्रत्याहारसूत्र में रेफ तथा वकारान्त) भसज्जक एवं कुर, छुर् धातु की पठित द्वितीय वर्ण। (उपधा को दीर्घ नहीं होता)। पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्णमाला ...भक्तली-IV. 1. 53 का इक्कीसवां वर्ण। देखें - विधल्भक्तलौ IV. ii. 53. ...भ... - V.ii. 138 भक्ताख्याः – VI. I. 71 देखें-बभयुस्o v. ii. 138 अन्न की आख्यावाले शब्दों को (उस अन्न के लिये भ..-VIII. ii.69 जो पात्रादि, तवाची शब्द के उत्तरपद रहते आधुदात्त होता है)। देखें - भकुर्छ राम् VIII. 1. 69 भ:-V.ii. 139 भक्तात् - IV.iv.68 (तुन्दि, बलि तथा वटि प्रातिपदिकों से मत्वर्थ में) भ (प्रथमासमर्थ) भक्त प्रातिपदिक से (इसको नियतरूप से दिया जाता है', अर्थ में विकल्प से अण् प्रत्यय होता प्रत्यय होता है। है, पक्ष में ठक्)। तुन्दि = तोंद। भक्तात् - IV. iv. 100 बलि = आहुति, भेंट, दैनिक आहार। (सप्तमीसमर्थ) भक्त प्रातिपदिक से (साधु अर्थ में ण वटि = चींटी या जूं। प्रत्यय होता है)। Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...भक्ति ... 397 भय्यप्रवय्ये 1.62 ...भक्ति ... - III. ii. 21 ...भज... -VI. iv. 122 देखें-दिवाविमा० III. ii. 21 देखें-नृफलमज.VI. iv. 122 भक्तिः - IV. iii. 95 भज: -III. ii. 62 (प्रथमासमर्थ) भक्ति समानाधिकरण प्रातिपदिक से भज् धातु से (सुबन्त उपपद रहते सोपसर्ग हो या निरु(षष्ठ्यर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है)। पसर्ग,तो भी ण्वि प्रत्यय होता है)। ..भक्षयति... -v.ii.9 भञ्ज.. -III. ii. 161 देखें-बद्धाभक्षयति० V.ii.9 देखें- भाभासमिः III. ii. 161 ...भञ्ज... - VII. iv. 86 भक्षाः - IV.ii. 15 देखें-जपजभO VII. iv. 86 (सप्तमीसमर्थ प्रातिपदिक से 'संस्कार किया गया । भञ्जभासमिदः -III. ii. 161 अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है, यदि वह संस्कृत) भञ्ज, भास, मिद्-धातुओं से (तच्छीलादि कर्ता हों, भक्ष = खाद्य पदार्थ हो तो। तो वर्तमानकाल में घुरच् प्रत्यय होता है)। भक्षाः - IV. iv. 65. भोः -VI. iv. 33 (हित समानाधिकरण वाले) भक्ष्यवाची (प्रथमासमर्थ) भङ्ग अङ्ग के (नकार का भी विकल्प से लोप होता है. प्रातिपदिक से (षष्ठ्यर्थ में ठक् प्रत्यय होता है)। चिण् प्रत्यय परे रहते)। भक्ष्ये - VII.iii. 69 ...भद्र..-II. iii.73 . (भोज्यम् शब्द) भक्ष्य = खाद्य अभिधेय होने पर देखें - आयुष्यमद्रभद्र II. iii. 73 (निपातन किया जाता है)। ...भद्रपूर्वाया: - IV.i. 115 भक्ष्येण -II. 1. 35 देखें-संख्यासंभद्र० IV.i. 115 भक्ष्य = खाद्यवाचक (समर्थ सुबन्त) के साथ (मिश्री भम् -I. iv. 18 करणवाची तृतीयान्त सुबन्त विकल्प से समास को प्राप्त (सर्वनामस्थानभिन्न यकारादि अजादि स्वादि प्रत्ययों होता है और वह समास तत्पुरुष संज्ञक होता है)। के परे रहते पूर्व की) भ संज्ञा होती है। ....भग... - VII. iii. 19 भयहेतुः - I. iv. 25 देखें-हृद्भग VII. iii. 19 . (भय तथा रक्षा अर्थ वाली धातुओं के प्रयोग में) भय भगात् - IV. iv. 131 का जो हेतु है, वह (कारक अपादानसंज्ञक होता है)। (वेशस् और यशस् आदि वाले) भग शब्दान्त प्रातिप- भयन-II. I. दिक से (मत्वर्थ में थल प्रत्यय होता है. वेदविषय में)। (पञ्चम्यन्त सुबन्त) भय शब्द (समर्थ सुबन्त) के साथ (विकल्प से समास को प्राप्त होता है और वह तत्पुरुष ...भगाल... - VI. ii. 29 समास होता है)। देखें- इगन्तकाल. VI. ii. 29 ...भयेषु-III. ii. 43 ...भगो... -VIII. iii. 17 देखें- मेघर्तिभयेषु III. ii. 43 देखें- भोभगो० VIII. iii. 17 भय्य.. - VI.i. 80 ...भा ... -V.ii.4 देखें-भय्यप्रवय्ये VI.i. 80 देखें-तिलमाषोमाov.ii.4 भय्यप्रवय्ये-VI.i. 80 ...मंज... -IH. ii. 142 भय्य तथा प्रवय्य शब्द भी निपातन किये जाते है.(वेददेखें - सम्पचानुरुप III. ii. 142 विषय में)। Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...भर... 398 ...भर... - VII. ii. 49 देखें-इवन्तर्ध० VII. I. 49 ...भरतेषु - II. iv. 66 देखें-प्राच्यभरतेषु II. iv. 66 ...भरद्वाज... -IV.i. 117 देखें-वत्सभरद्वाजा IV.i. 117 भरिप्रत् - VII. iv. 65 भरिप्रत् शब्द वेदविषय में निपातन किया जाता है। भर्गात् - IV.i. 111 भर्ग शब्द से (गोत्र में फञ् प्रत्यय होता है, त्रिगर्त देश में उत्पन्न अर्थ वाच्य हो तो)। ...भर्गादि.. - IV.I. 176 देखें - प्राच्यभर्गादि० IV.i. 176 ...भर्सनेषु-VIII.i. 8 देखें-असूयासम्मति VIII.1.8 ...भव... - IV.i.48 देखें-इन्द्रवरुणभव IV.i. 48 भवः - IV. iii. 53 (सप्तमीसमर्थ प्रातिपदिक से) होने वाला' अर्थ में (यथाविहित प्रत्यय होता है)। भवतः -IV.ii. 114 (वृद्धसंज्ञक) भवत् शब्द से (शैषिक ठक् और छस् प्रत्यय होते है)। ...भवतिभ्याम् -I. ii. 6 देखें-इन्धिभवतिभ्याम् I. 1.6 भवते: - VII. iv.73 भू(अङ्ग) के (अभ्यास को अकारादेश होता है. लिट पो रहते)। भवनात्-IV. 1.87 . 'धान्यानां भवने.v.i.1 तक जिन अर्थों में प्रत्यय कहे गये हैं, उन सब अर्थों में (स्त्री तथा पंस शब्दों से यथासङ्ख्य करके नञ् तथा स्नञ् प्रत्यय होते हैं)। भवने -v.ii.1 (षष्ठीसमर्थ धान्य विशेषवाची प्रातिपदिकों से) उत्पत्ति- स्थान' अभिधेय हो तो (खजु प्रत्यय होता है, यदि वह उत्पत्तिस्थान खेत हो तो)। भववत् - IV. ii. 33 (कालविशेषवाची प्रातिपदिकों से 'सास्य देवता' विषय में) भवाधिकार के समान प्रत्यय होते हैं। भववत् - V.i.95 (सप्तमीसमर्थ कालवाची प्रातिपदिकों से 'दिया जाता है' और 'कार्य' अर्थों में) भव अर्थ के समान ही प्रत्यय हो जाते हैं। भविष्यत्... - II. iii. 70 देखें- भविष्यदाधमर्ण्ययोः II. iii. 70 . भविष्यति - III. iii.3 भविष्यत् काल (के अर्थ) में (उणादिप्रत्ययान्त गमी . आदि पद साधु होते हैं)। भविष्यति - III. iii. 136 (अवर प्रविभाग अर्थात् इधर के भाग को लेकर मर्यादा कहनी हो तो) भविष्यत्काल में (धातु से अनद्यतनवत् प्रत्ययविधि (नहीं होती)। भविष्यदाधमर्ययो: – II. iii. 70 भविष्यत् काल और आधमर्ण्य = ऋणविशिष्टकर्ता (विहित अक और इन् प्रत्ययान्तों के योग में षष्ठी विभक्ति नहीं होती। भवे-IV. iv. 110 (सप्तमीसमर्थ प्रातिपदिक से) भव = होने वाला अर्थ में (वेद-विषय में यत् प्रत्यय होता है)। भव्य.. - III. iv. 68 देखें- भव्यगेय III. iv.68 भव्यगेयप्रवचनीयोपस्थानीयजन्याप्लाव्यापात्या:-III. iv.68 भव्य,गेय,प्रवचनीय,उपस्थानीय,जन्य,आप्लाव्य और आपात्य शब्द (कर्ता में विकल्प से निपातन किये जाते भव्ये -v.ii. 104 (द शब्द से भी) पात्रत्व अभिधेय होने पर (द्रव्य पद यत् प्रत्ययान्त निपातन किया जाता है)। Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भव् भष् - VIII. ii. 37 . (एक अच् वाला तथा झषन्त धातु का अवयव जो उसके अवयव बश् के स्थान में) भव् आदेश होता है, (झलादि सकार तथा झलादि ध्व शब्द के परे रहते एवं पदान्त में) । ... भसोः - VI. iv. 98 देखें – पसिमसो: VI. Iv. 98 भा... - VII. 1. 47 देखें- भवैषा VII. I. 47 मस्त्रादिभ्यः - IV. iv. 16 (तृतीयासमर्थ) भस्त्रादिगणपठित प्रातिपदिकों से (हरति- अर्थ में ष्ठन् प्रत्यय होता है)। - भस्त्रैषाजाज्ञाद्वास्वा: - VII. iii. 47 भस्त्रा, एषा, अजा, ज्ञा, द्वा, स्वा – ये शब्द (नञ् पूर्ववाले हों तो भी न हों तो भी; इनके आकार के स्थान में जो अकार, उसको उदीच्य आचार्यों के मत में इत्व नहीं होता) । - VI. iv. 129 भस्य यह अधिकारसूत्र है, अध्याय की समाप्तिपर्यन्त जायेगा । - भस्य - VII. i. 88 (पथिन्, मथिन् तथा ऋभुक्षिन् भसबक अगों के (टि भाग का लोप होता है ) । भा... - VIII. iv. 33° देखें- भाभूपू० VIII. Iv. 33 ... भाग... - I. iv. 89 देखें- लक्षणत्वम्भूताख्यानभाग० 1. iv. 89 भाग... • IV. iv. 120 देखें - भागकर्मणी IV. Iv. 120 399 .. भागधेय... - IV. 1. 30 देखें केवलमामक० IV. 1. 30 भागात् - V. 1. 48 (प्रथमासमर्थ) भाग प्रातिपदिक से (सप्तम्यर्थ में यत् और उन् प्रत्यय होते हैं, यदि 'वृद्धि' ब्याज के रूप में दिया जाने वाला द्रव्य, 'आय' = जमींदारों का भाग, 'लाभ' मूल द्रव्य के अतिरिक्त प्राप्य द्रव्य, 'शुल्क' = = = राजा का भाग तथा 'उपदा' = घूस जाता है' क्रिया के वाच्य हो तो)। ... भाज... IV. i. 42 देखें – जानपदकुण्ड० IV. 1. 42 .. भाण्ड... -III. 1. 20 देखें - पुच्छभाण्डचीवरात् III. 1. 20 भाभूपूकमिगमिप्यायीवेपामु - VIII. iv. 33 - - ... भार... - VI. ii. 38 देखें - व्रीह्यपराहण० VI. ii. 38 उपसर्ग में स्थित निमित्त से उत्तर भा, भू, पूञ्, कमि, गमि, ओप्यायी तथा वेप् धातुओं से (विहित अच् से उत्तर कृत्स्थ नकार को णकार आदेश नहीं होता) । - कृकण = एक प्रकार का तीतर। भारद्वाजे ... भार... - VI. iii. 59 देखें - मन्थौदन० VI. iii. 59 ... भारत... - VI. ii. 38 देखें. - व्रीहयपराह्णo VI. 1. 38 भारद्वाजस्य VII. ii. 63 भारद्वाज आचार्य के मत में (तास परे रहते नित्य अनिट् ऋकारान्त धातु से उत्तर तास् के समान ही थल् को इडागम नहीं होता । - - IV. ii. 144 — भाव... ... भारिषु - VI. III. 64 देखें चिततूलभारिषु VI. 1. 64 ये 'दिया भारद्वाज देश में वर्तमान (जो कृकण तथा पर्ण प्रातिपदिक, उनसे शैषिक छ प्रत्यय होता है) । भारात् - V. 1. 49 (वंशादिगणपठित प्रातिपदिकों से उत्तर) जो भार शब्द, तदन्त (द्वितीयासमर्थ) प्रातिपदिक से (हरण करता है', 'वहन करता है' और 'उत्पन्न करता है' अर्थों में यथाविहित प्रत्यय होते हैं)। भाव... - I. ii. 21 देखें - भावादिकर्मणोः I. ii. 21 भाव... - I. iii. 13 देखें - भावकर्मणोः I. iii. 13 Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव... 400 भावी भाव.. -III.1.66 भावगर्हायाम् - III. 1. 24 देखें-भावकर्मणोः III.1.66 धात्वर्थ की निन्दा अभिधेय होने पर (लुप, सद, चर भाव... -VI. ii. 150 आदि धातुओं से नित्य 'यङ्' प्रत्यय होता है)। देखें-भावकर्मवचनः VI. ii. 150 ...भावयोः - III. ii. 45 भाव.. -VI. iv. 27 देखें-भावकरणयो: VI. iv. 27 देखें - करणभावयोः III. ii. 45. भाव... - VI. iv. 62 भावलक्षणम् - II. iii. 37 देखें - भावकर्मणो: VI. iv. 62 (जिसकी क्रिया से) क्रियान्तर लक्षित होवे, (उसमें भाव... - VII. I. 17 सप्तमी विभक्ति होती है)। खें-भावादिकर्मणोः VII. ii. 17 . भावलक्षणे-III. iv. 16 भाव.. -VIII. iv. 10 क्रिया के लक्षण में वर्तमान (स्था, इण् आदि धातुओं देखें - भावकरणयोः VIII. iv. 10 ..से वेदविषय में तुमर्थ में तोसुन् प्रत्यय होता है)। भावः -V.i. 118 भाववचना - III. iii. 11 (षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिक से) 'भाव' अर्थ में (त्व और , तल् प्रत्यय होते है)। (क्रियार्थ क्रिया उपपद हो तो भविष्यत्काल में धातु से) भाववाचक अर्थात् भाव को कहने वाले प्रत्यय (भी होते . भावकरणयोः -VI. iv. 27 भाववाची तथा करणवाची (घन के) परे रहते (भी रन धातु की उपधा के नकार का लोप होता है)। भाववचनात् - II. iii. 15 (तमन के समान अर्थ वाले) भाववचन = भाव को भावकरणयोः - VIII. iv. 10 कहने वाले प्रत्ययान्त से (भी चतुर्थी विभक्ति होती है)। (पूर्वपद में स्थित निमित्त से उत्तर) भाव तथा करण में (वर्तमान पान शब्द के नकार को विकल्प से णकार आदेश भाववचनानाम् - II. iii. 54 , होता है)। धात्वर्थ को कहने वाले घजादि-प्रत्ययान्त-कर्तृक भावकर्मणोः -I. 1. 13 (रुजार्थक धातुओं) के (कर्म में शेष विवक्षित होने पर भाववाच्य एवं कर्मवाच्य में (धातु से आत्मनेपद होता षष्ठी विभक्ति होती है, ज्वर धातु को छोड़कर)। भावादिकर्मणोः - I. ii. 21 भावकर्मणोः - III. 1.66 (उकार उपधा वाली धातु से परे) भाववाच्य तथा आदिभाववाची एवं कर्मवाची (लुङ् का त शब्द) परे रहते कर्म में (वर्तमान सेट् निष्ठा प्रत्यय विकल्प करके कित् (धातुमात्र से उत्तर च्लि को चिण आदेश होता है)। नहीं होता है। भावकर्मणोः -VI. iv. 62 भावादिकर्मणो: - VII. I. 17. भाव तथा कर्म-विषयक (स्य मिच मीयर और तास भाव तथा आदिकर्म में (वर्तमान आकार इत्सक के परे रहते उपदेश में अजन्त धातुओं तथा हन,ग्रह एवं धातुओं को निष्ठा परे रहते विकल्प से इट आगम नहीं दृश् धातुओं का चिण के समान विकल्प से कार्य होता __ होता)। है तथा इट् आगम भी होता है)। भावी-V.1.79 भावकर्मवचनः -VI. II. 150 द्वितीयासमर्थ कालवाची प्रातिपदिकों से 'सत्कारपूर्वक भाव तथा कर्मवाची (अन् प्रत्ययान्त उत्तरपद) को व्यापार','खरीदा हुआ','हो चुका' और) होने वाला'(कारक से उत्तर अन्तोदात्त होता है)। (इन अर्थों में यथाविहित ठञ् प्रत्यय होता है)। Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाने 401 'भाषितपुंस्कम् भावे - III. 1. 107 ....भाव्य... - III. I. 123 भाव में (अनुपसर्ग भू धातु से सुबन्त उपपद रहते क्यप देखें - निष्टक्र्यदेवहूय० III. 1. 123 प्रत्यय होता है)। ...भाष.. - VII. iv.3 भावे - III. Iii. 18 देखें - प्राजभास० VII. iv.3 भाव अर्थात् धात्वर्थ वाच्य होने पर (धातुमात्र से घञ् भाषायाम् - III. ii. 108 . प्रत्यय होता है)। लौकिक प्रयोग विषय में (सद, वस,श्रु- इन धातुओं भावे-III. iii.44 से परे भूतकाल में विकल्प से लिट् प्रत्यय होता है)। (अभिव्याप्ति गम्यमान हो तो धातु से) भाव में (इनुण भाषायाम् - IV. 1.62 प्रत्यय होता है)। (सखी तथा अशिश्वी- ये शब्द) भाषाविषय में (स्त्रीलिङ्ग भावे-III. iii. 75 में ङीष्-प्रत्ययान्त निपातन किये जाते है)। (उपसर्गरहित हे धातु से) भाव में (अप् प्रत्यय तथा भाषायाम-IVili. 140 सम्प्रसारण हो जाता है)। (षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिकों से भक्ष्यवर्जित. आच्छादनभावे-III. iii. 95 वर्जित विकार तथा अवयव अर्थों में) लौकिक प्रयोग(स्था, गा, पा, पच् धातुओं से स्त्रीलिङ्ग) भाव में विषय में (विकल्प से मयट् प्रत्यय होता है)। (क्तिन् प्रत्यय होता है) । भाषायाम् - VI. 1. 175 - भावे-III. iii. 98 (षट्सजक,त्रि तथा चतुर शब्द से उत्पन्न जो झलादि ' (वज तथा यज् धातुओं से स्त्रीलिङ्ग) भाव में (क्यप् विभक्ति, तदन्त शब्द का उपोत्तम) भाषाविषय में (उदात्त प्रत्यय होता है और वह उदात्त होता है)। होता है विकल्प से)। भावे - III. iii. 114 भाषायाम् -VI. iii. 19 (नपुंसकलिङ्ग) भाव में (धातुमात्र से क्त प्रत्यय होता (स्थ शब्द के उत्तरपद रहते भी) भाषा = लौकिक प्रयोग विषय में (सप्तमी का अलुक नहीं होता है)। । भावे-III. iv.69 (सकर्मक धातुओं से लकार कर्मकारक में होते हैं. भाषायाम् - VII. ii. 88 चकार से कर्ता में भी होते हैं और अकर्मक धातुओं से) (प्रथमा विभक्ति के द्विवचन के परे रहते भी) लौकिक भाव में होते हैं (तथा चकार से कर्ता में भी होते है)। प्रयोग विषय में (युष्मद्, अस्मद् को आकारादेश होता भावे-IV. iv. 144 भाषायाम् -VIII. ii. 98 (षष्ठीसमर्थ शिव,शम और अरिष्ट प्रातिपदिकों से वेद (विचार्यमाण वाक्यों के पूर्ववाले वाक्य की टि को ही) विषय में) भाव अर्थ में (भी तातिल प्रत्यय होता है)। भाषा-विषय में (प्लुत उदात्त होता है)। भावे-VI.ii. 25 भाषितपुंस्कम् - VII. . 74 (श्र, ज्य, अवम, कन् तथा पापवान् शब्द के उत्तरपद रहते कर्मधारय समास में) भाववाची पूर्वपद को (प्रकृति (तृतीया विभक्ति से लेकर आगे की अजादि विभस्वर होता है)। क्तियों के परे. रहते) भाषितस्क = एक ही अर्थ में अर्थात् एक ही प्रवृत्तिनिमित्त को लेकर कहा है पुंल्लिङ्ग भावेन -II. 1.37 अर्थ को जिस शब्द ने, ऐसे नपुंसकलिंग वाले (इगन्त) (जिसकी) क्रिया से क्रियान्तर लक्षित हो, उससे भी अंग को (गालव आचार्य के मत में पंवदभाव हो जाता सप्तमी विभक्ति होती है)। Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषितपुंस्कादनू 402 भियः भाषितपुंस्कादनूङ्-VI. ill. 33 भिक्षासेनादायेषु - III. ii. 17 एक ही अर्थ में अर्थात् एक ही प्रवृत्तिनिमित्त को लेकर भिक्षा, सेना, आदाय शब्द उपपद रहते (भी चर् धातु से कहा है पुंल्लिङ्ग अर्थ को जिस शब्द ने ऐसे कडवर्जित र प्रत्यय होता है)। भाषितपुंस्क (स्त्री शब्द) के स्थान में (पंल्लिङ्वाची शब्द भिक्षु... -IV. iii. 110 के समान रूप हो जाता है, पूरणी तथा प्रियादिवर्जित देखें-भिक्षुनटसूत्रयो: IV. iii. 110 - स्त्रीलिङ्ग समानाधिकरण उत्तरपद परे हो तो)। भिक्षुनटसूत्रयोः - IV. iii. 110 ...भास्... - III. ii. 21 (तृतीयासमर्थ पाराशर्य, शिलालि प्रातिपदिकों से देखें-दिवाविभा० III. 1. 21 यथासङ्ख्य करके) भिक्षुसूत्र तथा नटसूत्र का प्रोक्त विषय हो (तो णिनि प्रत्यय होता है)। ...भास... - III. ii. 161 भित्तम् - VIII. ii. 50 देखें- भञ्जमासमिदः III. ii. 161 भित्तम् शब्द में भिदिर् धातु से उत्तर क्त के नत्व का ....भास... - III. ii. 175 अभाव निपातन है, (यदि भित्तम् से टुकड़ा कहा जा रहा देखें - स्थेशभास III. ii. 175 हो तो)। ...भास... -III. ii. 177 ....भिद... -III. ii. 61 देखें-प्राजभास III. I. 177 देखें - सत्सू० III. ii. 61 भासन... -I. iii.47 ...भिदादिभ्यः - III. iii. 104 देखें- भासनोपसम्भाषा I. iii. 47 देखें-पिद्भिदादिभ्यः III. iii. 104 भासनोपसम्भाषाज्ञानयत्नविमत्युपमन्त्रणेषु -I. iii. 47 ...भिदि... - III. ii. 162 भासन = दीप्ति, उपसम्भाषा = सान्त्वना देना. ज्ञान. देखें - विदिभिदि० III. ii. 162 यल, विमति = विवाद करना, उपमन्त्रण = एकान्त में भिद्य... -III. I. 115 'सलाह करना-इन अर्थों में (वर्तमान वद धात से आत्म- देखें -भिद्योयो III. I. 115 नेपद होता है)। भिद्योद्ध्यौ -III.i. 115 भि-VII. iv. 48 (नदी अभिधेय हो तो कर्ता में) भिद्य और उद्ध्य शब्द (अप अङ्ग को) भकारादि प्रत्यय के परे रहते (तका क्यपत्ययान्त निपातन किये जाते हैं। रादेश होता है)। ...भिन्न... -VI. iii. 114 ...भिक्ष... - III. ii. 155 देखें - अविष्टाष्टOVI. iii. 114 भियः -III. ii. 174 देखें - जल्पभिक्ष० III. ii. 155 भी धातु से (तच्छीलादि कर्ता हो. तो वर्तमानकाल में ....भिक्ष: - III. ii. 168 क्रुक् तथा लुकन् प्रत्यय हो जाते है)। देखें - सनाशंस III. ii. 168 भिय: - VI. iv. 115 भिक्षा... -III. ii. 17 भी अङ्ग को (विकल्प करके इकारादेश होता है; हलादि देखें - भिक्षासेना III. ii. 17 कित् डित्, सार्वधातुक परे रहते)। भिक्षादिभ्यः - IV.ii. 37 भियः - VII. iii. 40 (षष्ठीसमर्थ) भिक्षादि प्रातिपदिकों से (समूह अर्थ में अण ___ जिभी भये' अङ्ग को (हेतुभय अर्थ में णि परे रहते षुक प्रत्यय होता है)। आगम होता है)। Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...भिस्.. . . 403 ...भिस्... - IV.i.2 भुज.. -VII. iii.61 देखें - स्वौजसमौट IV. 1.2 देखें - भुजन्युजौ VII. iii. 60 भिस: - VII. 1.9 भुजः -I. iii. 66 (अकारान्त अङ्ग से उत्तर) भिस् के स्थान में (ऐस् आदेश भुज् धातु से (आत्मनेपद होता है; अनवन = पालन होता है)। करने से भिन्न अर्थ में)। भी... -I.ili. 38 भुजन्युजौ - VII. iii. 61 देखें- भीम्यो : I. iii. 38 भुज तथा न्युब्ज शब्द (क्रमशः हाथ और रोग अर्थ में भी... -I.iv. 25 देखें- भीत्रार्थानाम् I. iv. 25 निपातन किये जाते हैं)। भी... -III. 1.39 भुवः - I. iv. 31 देखें- भीहीभृहुवाम् III. i. 39 'भू' धातु के (कर्ता का जो प्रभव = उत्पत्तिस्थान है, भी... -VI. 1. 186 उस कारक की अपादान संज्ञा होती है)। देखें- भीहीभृ० VI.i. 186 भुवः - III. 1. 107 भीत्रार्थानाम् -I. iv. 25 (अनुपसर्ग) भू धातु से (सुबन्त उपपद रहते क्यप् प्रत्यय भय तथा रक्षा अर्थ वाली धातुओं के (प्रयोग में जो होता है भाव अर्थ में। भय का हेतु, उस कारक की अपादान संज्ञा होती है)। भुवः - III. ii. 45 भीमादयः - III. iv. 74 . 'भू' धातु से (आशित सुबन्त उपपद रहते करण और भीमादि उणादिप्रत्ययान्त शब्द (अपादान कारक में भाव में 'खच्' प्रत्यय होता है)। निपातन किये जाते हैं)। भुवः - III. ii. 56 भीरो: - VIII. iii. 81 (व्यर्थ में वर्तमान अच्यन्त आढ्य, सुभग, स्थूल, भीरु शब्द से उत्तर (स्थान शब्द के सकार को मूर्धन्य पलित, नग्न, अन्ध, प्रिय-ये सुबन्त उपपद रहते कर्तृ आदेश होता है)। कारक में) भू धातु से (खिष्णुच् तथा खुकञ् प्रत्यय होते भीस्म्योः -1. iii. 68 (ण्यन्त) भी तथा स्मि धातुओं से (हेत = प्रयोजक कर्त्ता भुवः -III. ii. 138 से भय होने पर आत्मनेपद होता है)। भू धातु से (भी वेदविषय में तच्छीलादि कर्ता हो, तो भीहीभृहुमदजनधनदरिद्राजागराम् - VI.i. 186 । वर्तमान काल में इष्णुच् प्रत्यय होता है)। - भी, ह्री, भू, हु, मद,जन, धन, दरिद्रा तथा जागृ धातु के भुवः -III. ii. 179 (अभ्यस्त को पित् लसावर्धातुक परे रहते प्रत्यय से पूर्व को उदात्त होता है)। भू धातु से (संज्ञा तथा अन्तर = मध्य गम्यमान हो तो । वर्तमानकाल में क्विप् प्रत्यय होता है)। भीहीभृहुवाम् - III. 1. 39 भी, ही, भू, हु-इन धातुओं से (अमन्त्रविषयक लिट् । ...भुव: - III. iii. 24 परे रहते विकल्प से आम् प्रत्यय होता है तथा इनको देखें- श्रिणीभुवः III. iii. 24 श्लुवत् कार्य होता है)। भुवः -III. iii.55 भुक्तम् -V.ii. 85 तिरस्कार अर्थ में वर्तमान परिपर्वको भ धात से (कर्त___ 'भुक्त क्रिया के समानाधिकरण वाले (प्रथमासमर्थ श्राद्ध भिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में विकल्प से घञ् प्रत्यय प्रातिपदिक से 'इसके द्वारा' अर्थ में इनि और ठन् प्रत्यय होता है.पक्ष में अप होता है)। होते हैं)। हैं)। Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___404 . भूताधिकसंजीवमद्राश्मकज्जलम् भुक-III. iv.63 ... - VII. III. 88 (तूष्णीम् शब्द उपपद हो तो) भू धातु से (क्त्वा, णमुल देखें - भूसुवो: VII. ill. 88 प्रत्यय होते है)। ...भू.. -VIII. iv. 33 भुक-V.1.47 देखें-भाभूपूO VIII. iv. 33 वेद-विषय में अनुपसर्जन भू शब्दान्त प्रातिपदिक से भू-II. I. 52 भी स्त्रीलिङ्ग में नित्य ही डीष् प्रत्यय होता है। (अस् के स्थान में आर्धधातुक-विषय उपस्थित होने पर) . भुक -VI. iv.88 भू आदेश होता है। भअङ्ग को (वुक आगम होता है, लुङ् तथा लिट् भूकयोः - III. Iil. 127 अजादि प्रत्यय के परे रहते)। भूतथा कृञ् धातु से (यथासङ्ख्य करके कर्ता एवं कर्म .. भुवः-VIII. 1.71 उपपद रहते; चकार से कृच्छु, अकृच्छू अर्थ में वर्तमान (महाव्याहति) भुवस शब्द को (भी वेद-विषय में दोनों ईषद्,दुर.सु उपपद हों तो भी खल प्रत्यय होता है)। प्रकार से अर्थात् रु एवं रेफ दोनों ही होते है)। भूत..-VI. 1. 91 भुवनम् - VI. 1. 20 देखें-भूताधिक. VI. 1. 91 (ऐश्वर्यवाची तत्पुरुष समास में पति शब्द उत्तरपद रहते भूत - V. 1.79 . . पूर्वपद) भुवन शब्द को विकल्प से प्रकृतिस्वर हो जाता द्वितीयासमर्थ कालवाची प्रातिपदिकों से 'सत्कारपूर्वक : ' व्यापार खरीदा हुआ', 'हो चुका' (और होने वाला' - भुवि - III. 1. 12 इन अर्थों में यथाविहित ठञ् प्रत्यय होता है)। ... भवति के अर्थ में (भृश आदि अच्च्यन्त प्रातिपदिकों से भूतपूर्वे - V. ii. 18 'क्यङ् प्रत्यय होता है और हलन्तों का लोप भी)। 'भूतपूर्व' अर्थ में वर्तमान (गोष्ठ प्रातिपदिक से खञ् भू.. -I.1.1 प्रत्यय होता है)। देखें-भूवादयः I. I.1.. . भूतपूर्वे - V. iii. 53 ...पू.-III. 1. 154 'भूतपूर्व अर्थ में वर्तमान (प्रातिपदिक से चरट् प्रत्यय देखें - लपत III. 1. 154 होता है)। ...भू.-III. 1.96 देखें-वृषेषI. III.96 भूतपूर्वे - VI. ii. 22 भू.. -III. iii. 127 (पूर्व शब्द उत्तरपद रहते) भूतपूर्ववाची (तत्पुरुष समास) देखें- भूकृषोः III. 1. 127 में (पूर्वपद को प्रकृतिस्वर हो जाता है)। भू... -V.iv.50 भूतवत् -III. iii. 132 देखें-कृण्वस्तिक V.iv.50 भू.. -VI. 1. 19 (आशंसा गम्यमान होने पर धातु से) भूतकाल के समान देखें- भूवाक्V I. . 19 (तथा वर्तमानकाल के समान भी विकल्प से प्रत्यय हो भू.. -VI. iv.85 जाते है)। देखें- भूसधियो: VI. iv.85. आशंसा = इच्छा अभिलाषा, आशा। भू-VI. iv. 158 भूताधिकसंजीवमद्राश्मकज्जलम् -VI. .91 (बहु शब्द से उत्तर इष्ठन इमनिच् तथा ईयसुन का लोप होता है और उस बहु के स्थान में) भू आदेश (भी होता भूत, अधिक,संजीव,मद्र,अश्मन,कज्जल-इन पूर्वपदों को (अर्य शब्द उत्तरपद रहते आधुदात्त नहीं होता)। ii.18 Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 405 ...ति... - भूते - III. 1.84 यहाँ से लेकर 'वर्तमाने लट्' III. ii. 123 तक 'भूते' का अधिकार जाता है, अर्थात् वहाँ तक जितने प्रत्यय-विधान करेंगे, वे सब भूतकाल में होंगे, ऐसा जानना चाहिये। भूते-III. III.2 (उणादि प्रत्यय) भूतकाल (के अर्थ) में भी (देखे जाते भूते-III. III. 140 (लिङ् का निमित्त हेतुहेतुमत् हो तो क्रियातिपत्ति होने पर) भूतकाल में (भी धातु से लुङ् प्रत्यय होता है)। ...भूभ्यः -II. iv.77 देखें- गातिस्थाधुपा० II. iv.77 ...भूमि.. - VIII. iii.97 . देखें-अम्बाम्बVIII. 1.97 भूवाचिदिधिषु - VI. ii. 19 .: (ऐश्वर्यवाची तत्पुरुष समास में पति शब्द उत्तरपद रहते पूर्वपद) भू, वाक्,चित् तथा दिधिषू शब्दों को (प्रकृतिस्वर नहीं होता)। दिधिषू = पुनर्विवाहिता स्त्री, अविवाहित बड़ी बहन जिसकी छोटी बहन विवाहिता हो। भूवादयः -I. ill.1 भू जिनके आदि में है तथा वा धातु के समान जो क्रियावाची शब्द हैं,वे (धातु संज्ञक होते हैं)। . भूषणे-I. iv.63 भूषण = अलंकार करने अर्थ में (वर्तमान अलं शब्द क्रियायोग में गति और निपात संज्ञक होता है)। भूषणे - VI. i. 132 भूषण = अलंकार अर्थ में (सम् तथा परि उपसर्ग से उत्तर कृ धातु के परे रहते ककार से पूर्व सुट् का आगम होता है,संहिता के विषय में)। भूसुधियो: - VI. iv. 85 भू तथा सुधी अङ्ग को (यणादेश नहीं होता, अजादि सुप परे रहते)। भूसुवोः -VII. II. 88 भू तथा पूङ् अङ्ग को (तिङ् पित् सार्वधातुक परे रहते गुण नहीं होता)। ...... -III. 1. 39 देखें-पीहीमहुवाम् III. 1. 39 भू.. -III. 1.46 देखें - मृतृव० II 11. 46 4..-VI. 1. 186 देखें-भीही० VI. 1. 186 ...भू... -VII. 1. 13 देखें-कसभ० VII. ii. 13 ...... -II. iv.65 देखें - अभिभृगुकुत्स II. vi. 65 भृगु... -Vi. 102 देखें- भृगुवत्सापाo IV.I. 102 भृगुवत्साप्रायणेषु - IV. 1. 102 (शरद्वत, शुनक और दर्भ प्रातिपदिकों से यथासङ्ख्य) भृगु, वत्स और आरायण गोत्रापत्य वाच्य हों (तो फक प्रत्यय होता है)। ...भृज्जतीनाम् - VI.1.16 देखें - अहिज्या० VI.1.16 ... ..-III. I.99 देखें-समजनिषद III. 1. 99 भूषः-III. I. 112 भृञ् धातु से (क्यप् प्रत्यय होता है, असंज्ञाविषय में)। भूषाम् - VII. iv.76 भृज,माङ् और ओहाङ् धातुओं के (अभ्यास को इकारादेश होता है, श्लु होने पर)। भृत - V. 1.79 (द्वितीयासमर्थ कालवाची प्रातिपदिकों से 'सत्कारपूर्वक व्यापार') 'खरीदा हुआ',(हो चुका' और 'होने वाला' -इन अर्थों में यथाविहित ठञ् प्रत्यय होता है)। ...भृतयः - V.i.55 . देखें- अंशवस्नभृतयः V.1.55 ...भूति... -1.11.37 देखें-सम्माननोत्स11.37 Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भृत्वृजिधारिसहितपिदमः 406 भृतवृजिधारिसहितपिदम: - III. ii. 46 (संज्ञा गम्यमान हो तो कर्म अथवा सुबन्त उपपद रहते) भृ, त, वृ,जि, धारि, सहि, तपि, दम् -इन धातुओं से (खच् प्रत्यय होता है)। भृतौ - III. ii. 22 भृति = वेतन गम्यमान होने पर (क्रियार्थक कर्म शब्द उपपद रहते 'कृ' धातु से 'ट' प्रत्यय होता है)। भृशादिभ्यः - III. i. 12 (च्यन्तवर्जित) भृश आदि प्रातिपदिकों से (भवति अर्थ में क्यङ् प्रत्यय होता है और हलन्तों का लोप भी)। ...भृशेषु - VII. ii. 18 देखें-मन्थमनस० VII. ii. 18 ...भेषजात् - IV.i. 30 देखें-केवलमामक IV.i. 30 ...मेक्जात् - V. iv. 23 देखें-अनन्तावसथ० V. iv. 23 भो... - VIII. iii. 17 देखें-भोभगो० VIII. iii. 17 भोग... -VIII. ii. 58 देखें - भोगप्रत्यययो: VIII. ii. 58 भोगप्रत्यययोः -VIII. ii. 58 (वित्त शब्द में विद्लु लाभे धातु से उत्तर क्त प्रत्यय के नत्व का अभाव) भोग = उपभोग तथा प्रत्यय = प्रतीति अभिधेय होने पर (निपातित होता है)। ..मोगोत्तरपदात् -v.i.8 देखें - आत्मविश्वजन V.i.8 भोजने - VIII. iii. 69 (वि उपसर्ग से उत्तर तथा चकार से अप उपसर्ग से उत्तर) भोजन अर्थ में (स्वन् धातु के सकार को मूर्धन्य आदेश होता है, अव्यवाय एवं अभ्यासव्यवाय में भी)। भोज्यम् - VII. iii. 69 भोज्यम् शब्द (भक्ष्य अभिधेय होने पर निपातन किया जाता है)। भोभगोअघोअपूर्वस्य - VII. ii. 17 भो.भगो.अघो तथा अवर्ण पर्व में है जिस (रु) के,उस (रु के रेफ) को (यकार आदेश होता है, अश् परे रहते)। भौरिक्यादि... -IV.ii. 53 . देखें - भौरिक्यायेषु० IV. ii. 53 भौरिक्यायेषुकार्यादिभ्यः -IV.ii. 53 . . (षष्ठीसमर्थ) भौरिकि आदि तथा ऐषुकारि आदि शब्दों से (विषयो देशे' अर्थ में यथासङ्ख्य विधल और भक्तल् प्रत्यय होते है)। भौरिकि = राजकीय कोषाध्यक्ष का पुत्र । भ्यम् - VII. I. 30 (युष्मद, अस्मद् अङ्ग से उत्तर भ्यस के स्थान में) (अथवा अभ्यम्) आदेश होता है। . ...ध्यस्... - IV.i.2 देखें - स्वौजसमौट IV.i. 2 ...भ्यस्... - IV.1.2 देखें- स्वौजसमौट IV.i.2 भ्यसः - VII. I. 30 (युष्मद्, अस्मद् अङ्ग से उत्तर) भ्यस् के स्थान में (प्यम् अथवा अभ्यम् आदेश होता है)। ...भ्याम्... -IV.i.2 देखें- स्वौजसमौट V.1.2 ...भ्याम्... -IV.i.2 देखें -स्वौजसमौट IV. 1.2 ....भ्याम्... - IV.1.2 देखें- स्वौजसमौट IV.i.2. ...वो: -III. iv. 61 देखें-कृथ्वोः III. iv.61 ...प्रटच -V.ii. 31 देखें-टीटजाटच्० V. ii. 31 ...अमर... - IV. iii. 118 देखें-क्षुद्राप्रमरवटर० IV. iii. 118. ...प्रमु... - III. 1.70 देखें- प्राशलाश III. 1.70 ...प्रमु... -VI. iv. 124 देखें - प्रमु० VI. iv. 124 ...अस्ज... -VII. ii. 49 देखें-इवन्तर्ध० VII. 1.49 ...प्रस्ज... - VIII. 1. 36 देखें-वश्वस्ज. VIII. ii. 36 Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 407 (पूजित' अर्थ में वर्तमान) भ्रातृ-शब्दान्त (बहुव्रीहि) से (समासान्त कप् प्रत्यय नहीं होता है)। प्रातृ... -I.ii. 68 देखें - प्रातृपुत्रौ I. ii. 68 भ्रातृपुत्रौ -I.ii. 68 प्रातृ और पुत्र शब्द (यथाक्रम स्वस और दुहितृ शब्दों के साथ शेष रह जाते हैं,स्वसृ तथा दुहितृ शब्द हट जाते प्रस्ज: -VI. iv. 47 प्रस्ज् धातु के (रेफ तथा उपधा के स्थान में विकल्प से रम् आगम होता है, आर्धधातक परे रहने पर)। ...अंसु... -VII. iv.84 देखें-वञ्चत्रंसु० VII. iv. 84 प्राज... -III. ii. 177 देखें - प्राजभासं० III. ii. 177 भ्राज... - VII. iv.3 देखें- प्राजभास. VII. iv. 3 ...प्राज... -VIII. ii. 36 देखें - वश्चभ्रस्ज. VIII. ii. 36 भ्राजभासधुर्विद्युतोर्जिपृजुग्रावस्तुकः -III. ii. 177 प्राज़,भास.धुर्वी धुत ऊर्जप.ज.पावपर्वकष्टजन धातुओं से (तच्छीलादि कर्ता हों. वर्तमानकाल में क्विप प्रत्यय होता है। प्राजभासभाषदीपजीवमीलपीडाम् - VII. iv. 3 प्राज,भास,भाष,दीपी.जीव मील.पीड-डन अङगों की.(उपधा को चङ्परक णि परे रहते विकल्प से हस्व होता है)। प्रातरि - IV.i. 164 (बड़े) भाई के (जीवित रहते पौत्रप्रभति का जो अपत्य छोटा भाई, उसकी भी युवा संज्ञा हो जाती है)। प्रातुः - IV. 1. 144 प्रातृ शब्द से (अपत्य अर्थ में व्यत् तथा छ प्रत्यय होता प्राश... -III. .70 देखें- प्राशलाश III.i. 70 प्राशभ्लाशप्रमुक्रमुक्लमुत्रसित्रुटिलष: - III. I. 70 टुभ्राश,टुभ्लाश्ल, भ्रम,क्रम,क्लमु,सि,त्रुटि,लष् - इन धातुओं से (विकल्प से श्यन् प्रत्यय होता है.कर्तवाची सार्वधातुक परे रहते)। ...प्राष्ट्र... - VI. ii. 82 देखें-दीर्घकाश VI. ii. 82 ध्रुवः - IV. 1. 125 .प्रातिपदिक से (अपत्य अर्थ में ढक् प्रत्यय होता है). तथा भ्रू को (वुक का आगम भी होता है)। ....ध्रुवाम् - VI. iv. 77 देखें -श्नुधातु0 VI. iv.77 ...भ्रूण... -III. ii. 87 देखें-ब्रह्मभ्रूण III. ii. 87 ...प्रौणहत्य... - VI. iv. 174 देखें - दण्डिनायनहास्तिक VI. iv. 174 ...श्लाश... - III. 1.70 देखें-प्राशमलाश III. 1.70 धातुः - V. iv. 157 म्... -I.i. 38 देखें-मेजन्तः I. 1. 38 म्... -VI. iv. 107 - देखें-म्वो: VI. iv. 107 ...म्... - VII. ii.5 देखें-हम्यन्तक्षण VII. ii.5 म्... - VIII. ii. 65 देखें-म्वो: VIII. ii. 65 म-प्रत्याहारसूत्र VII भगवान् पाणिनि द्वारा अपने सप्तम प्रत्याहारसूत्र में पठित द्वितीय वर्ण। पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्णमाला का सोलहवां वर्ण। Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408 मान ...म:-III. 11.2 मट् -V. 1.49 देखें-हावामः III. 1.2 (सङ्ख्या आदि में न हो जिसके, ऐसे सङ्ख्यावाची म:-IV. 1.8 षष्ठीसमर्थ नकारान्त प्रातिपदिक से 'परण' अर्थ में विहित (मध्य प्रातिपदिक से) शैषिक म प्रत्यय होता है। डट् प्रत्यय को) मट् का आगम होता है। म:-V. ii. 108 महुक... - IV. iv.56 (घु तथा द्रु प्रातिपदिकों से ‘मत्वर्थ' में) म प्रत्यय होता देखें - मड्डकझर्झरात् IV. iv.56 महुकझर्झरात् - IV. iv.56 म:-VII. 1. 108 (शिल्पवाची प्रथमासमर्थ) मड़क, झर्झर प्रातिपदिकों से (इदम् अङ्ग को सु विभक्ति परे रहते) मकारादेश होता (विकल्प से षष्ठ्यर्थ में अण् प्रत्यय होता है)। मडुक = एक प्रकार का ढोल। झर्झर = ढोल, झांझ। म -VIII. 11.53 (क्षे धात से उत्तर निष्ठा के तकार को) मकाराटेश होता ...मणि... - VI. iii. 114 देखें-अविष्टाष्टO VI. iii. 114 मणौ -V. iv. 30 म:-VIII. 1.64 मणिविशेष में (वर्तमान लोहित प्रातिपदिक से कन् मकारान्त (धातुपद) को (नकारादेश होता है)। . प्रत्यय होता है,स्वार्थ में)। म-VIII. 1. 80 मण्डलम् - VI. I. 182 (असकारान्त अदस् शब्द के दकार से उत्तर जो वर्ण, (परि उपसर्ग से उत्तर अभितोभाविवाची पद तथा) उसके स्थान में उवर्ण आदेश होता है तथा दकार को) मण्डल शब्द को (अन्तोदात्त होता है)। मकारादेश (भी) होता है। ...मण्डार्येभ्यः -III. 1. 151 . म-VIII. 11.23 देखें - कुधमण्डार्थेभ्यः III. II. 151 (पदान्त) मकार को (अनुस्वार आदेश होता है; हल् परे मण्डूकात् -V.1.119 रहते,संहिता में)। मण्डूक प्रातिपदिक से (ढक् प्रत्यय होता है तथा विकल्प म-VIII. III. 25 से अण भी होता है)। (सम् के मकार को) मकारादेश होता है; (क्विप् प्रत्य मत.. -IN.iv.97 यान्त राज धातु के परे रहते)। देखें-मतजनहलात् IV. iv.97 ...मधु... - VI. iii. 132 ...मत... -VI. iii. 42 देखें-तुनुधम० VI. iii. 132 देखें-घरूप० VI. iii. 42 . ....मगध...-IV. 1. 168 . मतजनहलात् -IV. iv.97 देखें-दूयमगधo IV. 1. 168 (षष्ठीसमर्थ) मत, जन,हल प्रातिपदिकों से (यथासंख्य मघवा-VI. iv. 128 करके करण, जल्प,कर्ष अर्थों में यत् प्रत्यय होता है)। मघवन् अङ्ग को (बहुल करके तृ आदेश होता है)। मति... -III. Ii. 188 ...मघोनाम् - VI. iv. 133 देखें - मतिबुद्धि III. ii. 188 देखें-श्वयुवमघोनाम् VI. iv. 133 मतिः - IV. iv. 60 ...मडि...-VIII. iii.97 (प्रथमासमर्थ अस्ति,नास्ति,दिष्ट प्रातिपदिकों से इसकी) देखें-अम्बाम्ब० VIII. III.97 मति विषय में (ढक प्रत्यय होता है)। Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतिबुद्धिपूजार्थेभ्यः मतिबुद्धिपूजार्थेभ्य: . मत्यर्थक, बुद्ध्यर्थक तथा पूजार्थक धातुओं से (भी वर्तमानकाल में क्त प्रत्यय होता है)। - III. ii. 188 मतु... - VIII. iii. 1 देखें - मतुवसो: VIII. iii. 1 -IV. ii. 84 मतुप् ( यन्त, आबन्त प्रातिपदिक से नदी अभिधेय हो तो चातुरर्थिक मतुप् प्रत्यय होता है। मतुप् -IV. iv. 127 (उपधान मन्त्र समानाधिकरण प्रथमासमर्थ मतुबन्त मूर्धन् प्रातिपदिकं से ईटों के अभिधेय होने पर वेदविषय में) मतुप् प्रत्यय होता है ( तथा प्रकृत्यन्तर्गत जो मतुप् उसका लुक् हो जाता है)। मतुप् -V. ii. 94 ('है' क्रिया के समानाधिकरण वाले प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ तथा सप्तम्यर्थ में) मतुप् प्रत्यय होता है) । मतो: मतुप् -V. ii. 136 (बलादि प्रातिपदिकों से 'मत्वर्थ में) मतुप् प्रत्यय विकल्प से होता है, पक्ष में इनि । मतुप् -VI. i. 170 (अन्तोदात्तं ह्रस्व तथा नुट् से उत्तर) मतुप् प्रत्यय ( उदात्त होता है) । : मतुवसोः - VIII. III. 1 मत्वन्त तथा वस्वन्त पद को (संहिता में सम्बुद्धि परे रहते रु आदेश होता है) । - IV. ii. 71 - 409 (जिस मतुप के परे रहते बहुत अच् वाला अङ्ग हो ) उस मत्वन्त प्रातिपदिक से (भी अञ् प्रत्यय होता है) । मतो: IV. iv. 125 (उपधान मन्त्र समानाधिकरण प्रथमासमर्थ मतुबन्त प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ में यत् प्रत्यय होता है, यदि षष्ठ्यर्थ में निर्दिष्ट ईटें ही हों तथा) मतुप् का (लुक् भी हो जाता है, वेद-विषय में)। ...at: - V. iii. 65 देखें - विन्मतो: Viii. 65 मतो: - VI. 1. 213 मतुप् से (पूर्व आकार को उदात्त होता है, यदि वह मत्वन्त शब्द स्त्रीलिङ्ग में सञ्ज्ञाविषयक हो तो)। मतो: VIII. ii. 9 (मकारान्त एवं अवर्णान्त तथा मकार एवं अवर्ण उपधावाले प्रातिपदिक से उत्तर) मतुप् को (वकारादेश होता है, किन्तु यवादि शब्दों से उत्तर मतुप् को व नहीं होता) । मतौ - मतौ - IV. iv. 136 (प्रथमासमर्थ सहस्र प्रातिपदिक से) मत्वर्थ में (भी घ प्रत्यय होता है, वेद-विषय में) । मत्स्ये - V. ii. 59 (प्रातिपदिकमात्र से) मत्वर्थ में (छ प्रत्यय होता है, सूक्त और साम वाच्य हों तो) । मतौ - VI. iii. 118 (अजिरादियों को छोड़कर) मतुप् परे रहते (बह्रच् शब्दों के अणु को दीर्घ होता है, सञ्ज्ञाविषय में) । मतौ -VI. iii. 130 — (सोम, अश्व, इन्द्रिय, विश्वदेव्य • इन शब्दों को) मतुप् प्रत्यय परे रहते (दीर्घ हो जाता है, मन्त्र - विषय में) । मत्वर्थे – I. iv. 19 - मतुबर्थक प्रत्ययों के परे रहते (तकारान्त और सकारान्त शब्दों की भ संज्ञा होती है)। मत्वर्थे -IV. iv. 128 (मास और तनु प्रत्ययार्थ विशेषण हों तो प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से) मतुप् के अर्थ में (यत् प्रत्यय होता है)। ... मत्स्य... - IV. iv. 35 देखें - पक्षिमत्स्यमृगान् IV. Iv. 35 ... मत्स्यानाम् - VI. iv. 149 देखें - सूर्यतिष्यo VI. iv. 149 मत्स्ये - V. iv. 16 (विसारिन् प्रातिपदिक से स्वार्थ में अण् प्रत्यय होता है), मछली अभिधेय हो तो । विसारिन् फैलाने वाली, रेंगने वाली मछली । = Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...मथ... 410 मधु... - IV. 1. 106 देखें- मधुबध्वोः IV. 1. 106 मधुबध्वोः - IV. 1. 106 मधु तथा बभ्रु शब्दों से (यथासंख्य करके ब्राह्मण तथा कौशिक गोत्र वाच्य हों तो यञ् प्रत्यय होता है)। मघो: - IV. iv. 129 (प्रथमासमर्थ) मधु प्रातिपदिक से (मत्वर्थ में मास और तनु प्रत्ययार्थ विशेषण हों तो ब और यत् प्रत्यय होते है)। ...मथ.. -III. ii. 145 देखें- लपस III. ii. 145 ...मथाम् - III. ii. 27 देखें- वनसन III. ii. 27 ...मथि... - VII.i. 85 देखें- पथिमथिO VII.1.85 ...मद... - III. 1. 100 देखें- गदमद० III. 1. 100 ...मद... - VI.i. 186 देखें- भीहीभृ. VI.i. 186 मदः -III. iii.67 (उपसर्गरहित) मद् धातु से (कर्तभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में अप् प्रत्यय होता है)। ...मदाम् - VIII. 1. 57 देखें- ध्याख्यापृ० VIII. ii. 57 ...मद्र... -II. iii.73 देखें- आयुष्यमद्रभद्र II. iii. 73 मद्र.. -IV.ii. 130 देखें- मद्रवृज्योः IV. ii. 130 ...मद्र... -VI. ii.91 देखें- भूताधिक. VI. ii: 91 मद्रवृज्योः -IV. 1. 130 (देशविशेषवाची) मद्र तथा वृजि शब्दों से (शैषिक कन् प्रत्यय होता है)। मद्र = उस देश, उस देश का शासक, उस देश के वासी। वृजि = कतराना, परित्याग करना। मद्रात् -V.iv.67 मद्र प्रातिपदिक से (कब के योग में डाच् प्रत्यय होता है, मुण्डन वाच्य हो तो)। ...मद्रे-III. 1.44 देखें-क्षेमप्रिय III. 1.44 मद्रेश्य - IV. II. 107 (दिशापूर्वपद वाले) मद्रान्त प्रातिपदिक से (शैषिक अब् प्रत्यय होता है)। मधोः - IV. iv. 139 मधु प्रातिपदिक से (मयट के अर्थ में यत् प्रत्यय होता है.वेद-विषय में)। ...मध: - V.ii. 107 देखें- ऊपसुषिov.ii. 107 ...मध्यम.. -I.iv. 100 देखें- प्रथममध्यमोत्तमाः I. iv. 100 ...मध्यम... -II.1.57 देखें - पूर्वापरप्रथम II. 1. 57 मध्यमः -I. iv. 104 (युष्मद् शब्द के उपपद रहते समान अभिधेय होने पर युष्मद् शब्द का प्रयोग न हो या हो तो भी) मध्यम पुरुष होता है। मध्यात्-IV. 11.8 मध्य प्रातिपदिक से (शैषिक म प्रत्यय होता है)। मध्यात्-VI. iii. 10 मध्य शब्द से उत्तर (गुरु शब्द उत्तरपद रहते सप्तमी विभक्ति का अलुक् होता है)। मध्ये-I. iv.75 मध्ये (पदे तथा निवचने) शब्द (भी कब के योग में विकल्प से गति और निपात संज्ञक होते हैं)। मध्ये -II.1.17 (पार और) मध्य शब्द (षष्ठ्यन्त सुबन्त के साथ विकल्प से अव्ययीभाव समास को प्राप्त होते हैं तथा समास के सन्नियोग से इन शब्दों को) एकारान्तत्व भी निपातन से हो जाता है। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्वादिभ्यः 411 मध्वादिभ्यः - IV.ii. 85 मधु आदि प्रातिपदिकों से (भी चातुरर्थिक मतुप प्रत्यय होता है)। मन्... -V.ii. 137 देखें-मन्माभ्याम् V. ii. 137 मन्... - VI. ii. 151 देखें- मन्वितन्० VI. ii. 151 ...मन्... -VI. iv.97 देखें - इस्मन् VI. iv.97 ...मन... -III. iii.96 देखें-वृषेष III. iii.96 ...मन... - III. iii.99 देखें-समजनिषद III. iii. 99 ...मन... -VII. iii.78 • देखें-पिबजिन VII. iii. 78 मनः -III. ii.,82 मन् धातु से (सुबन्त उपपद रहते ‘णिनि' प्रत्यय होता मन: - IV.i. 11 मन अन्त वाले प्रातिपदिकों से (स्त्रीलिङ्ग में ङीप प्रत्यय नहीं होता)। ...मनस्... -v.iv. 51. - देखें - अर्मनस्० V. iv. 51 ...मनस्... -VII. ii. 18 देखें-मन्थमनस्o VII. ii. 18 मनसः -VI. iii.4 मनस् शब्द से उत्तर (सज्ञाविषय में तृतीया विभक्ति का उत्तरपद परे रहते अलुक् होता है)। ...मनसी-I. iv.65 देखें - कणेमनसी I. iv. 65 ...मनसी -1. iv.74 देखें-उरसिमनसी I. iv.74 मनसी -Vi. ii. 117 (सु से उत्तर मन् अन्तवाले) तथा अस् अन्तवाले उत्तरपद शब्दों को (बहुव्रीहि समास में आधुदात्त होता है, लोमन् तथा उषस् शब्दों को छोड़कर)। मनिन्... - III. ii.74 देखें-मनिन्क्वनिप्छ III. I. 74 मनिन्क्वनिव्वनिप: -III. ii.74 (आकारान्त धातुओं से सुबन्त उपपद रहते वेदविषय में) मनिन्, क्वनिप, वनिप् (तथा विच) प्रत्यय होते हैं। ...मनुष्य... - IV.ii. 38 देखें - गोत्रोक्षोष्ट्रो IV.ii. 38 मनुष्य.. - IV. ii. 133 देखें - मनुष्यतत्स्थयो: IV. ii. 133 ...मनुष्य.. - V. iv. 56 देखें -देवमनुष्य० v. iv.56 मनुष्यजाते: - IV.i. 65 (इकारान्त) मनुष्यजातिवाची (अनुपसर्जन) शब्द से (स्त्रीलिङ्ग में ङीष् प्रत्यय होता है)। . मनुष्यतत्स्थयो: - IV.ii. 133 मनुष्य तथा मनुष्य में स्थित कोई कर्मादि अभिधेय हो (तो कच्छादि प्रातिपदिकों से वज प्रत्यय होता है)। मनुष्यनाम्न: - V. iii. 78 (बहुत अच् वाले) मनुष्य नामधेय प्रातिपदिक से (अनुकम्पा से युक्त नीति गम्यमान होने पर विकल्प से ठच प्रत्यय होता है)। मनुष्ये - IV. i. 128 (अरण्य प्रातिपदिक से) मनुष्य अभिधेय हो तो (शैषिक वुञ् प्रत्यय होता है)। मनुष्ये - V. iii. 98 (सज्ञाविषय में विहित कन् प्रत्यय का) मनुष्य अभिधेय होने पर (लुप् हो जाता है)। ...मनुष्येभ्यः - IV. iii. 81 देखें - हेतुमनुष्येभ्य: IV. iii. 81 मनोः - IV. i. 38 ___ मनु शब्द से (स्त्रीलिङ्ग में विकल्प से ङीप् प्रत्यय,औकार अन्तादेश एवं ऐकार अन्तादेश भी हो जाता है और वह ऐकार उदात्त भी होता है)। Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 412 मन्माभ्याम् में। मनो: -IV.i. 161 मन्त्रे -VI. 1. 146 मनु शब्द से (जाति को कहना हो तो अञ् तथा यत् (हस्व से उत्तर चन्द्र शब्द उत्तरपद में हो तो सुट् का प्रत्यय होते हैं तथा) मनु शब्द को (षक का आगम भी आगम होता है), मन्त्रविषय में। हो जाता है)। मन्त्रे-VI.i. 204 ...मनोज्ञादिभ्यः - V.i. 132 (जष्ट तथा अर्पित शब्दों को) मन्त्रविषय में (नित्य देखें-द्वन्दूमनोज्ञादिभ्यः V.i. 132 ही आधुदात्त होता है)। मन्वितन्व्याख्यानशयनासनस्थानयाजकादिक्रीता: - मन्त्रे - VI. iii. 130 VI. ii. 151 (सोम, अश्व, इन्द्रिय,विश्वदेव्य-इन शब्दों को (कारक से उत्तर) मन् प्रत्ययान्त, क्तिन् प्रत्ययान्त, मतप प्रत्यय परे रहने पर दीर्घ हो जाता है) मन्त्रविषय व्याख्यान, शयन, आसन, स्थान, याजकादि तथा क्रीत शब्द उत्तरपद को (अन्तोदात्त होता है)। मन्त्रे-VI. iv. 53 ...मन्तात् -VI. iv. 137 मन्त्र-विषय में (इडादि तृच् परे रहते 'जनिता' यह देख-वमन्तात् VI. iv. 137 निपातन होता है)। ...मन्त्र... -III. ii. 22 मन्त्रेषु - VI. iv. 141 , देखें- शब्दश्लोक III. ii. 22 मन्त्र-विषय में (आङ् = टा परे रहते आत्मन् शब्द . ...मन्त्र..-III. 1.89 के आदि का लोप होता है)। देखें-सुकर्मपाप III. ii.89 मन्थ... -V.i. 109 मन्त्रः - IV. iv. 165 देखें - मन्थदण्डयो: V.i. 109 (उपधान) मन्त्र (समानाधिकरण प्रथमासमर्थ मतबन्त प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ में यत् प्रत्यय होता है. __...मन्थ.. - VI. ii. 122 देखें-कंसमन्य. VI. ii. 122 , यदि षष्ठयर्थ में निर्दिष्ट ईटें ही हों तथा मतप का लुक भी हो जाता है, वेद-विषय में)। मन्य... -VI. iii.59 देखें-मन्यौदन० VI. iii. 59 मन्त्रकरणे -I. iii. 25 मन्य... -VII. ii. 18 मन्त्रकरण = स्तुति अर्थ में प्रयुज्यमान (उपपूर्वक स्था देखें-मन्थमनस्० VII. ii. 18. । धातु से आत्मनेपद होता है)। ...मन्थिषु -VI..ii. 142 मन्त्रे-II. iv.80 देखें - अपृथिवीरुद्र० VI. ii. 142 मन्त्र-विषयक प्रयोग में (घस, हर, णश, वृ, दह, मन्यौदनसक्तबिन्दवज्रभारहारवीवधगाहेषु - VI. iii. आदन्त, वृच्, क, गम् और जन् धातुओं से विहित 59 'च्लि' का लुक हो जाता है)। मन्थ, ओदन, सक्तु, बिन्दु, वज्र, भार, हार, वीवध, गाह मन्त्रे-III. 1.71 - इन शब्दों के उत्तरपद रहते (भी उदक शब्द को उद वैदिक प्रयोग-विषय में (श्वेतवह, उक्थशस्, पुरो आदेश विकल्प करके होता है)। डाश्-ये शब्द ण्विन्प्रत्ययान्त निपातन किये जाते वीवध = बोझा ढोने के लिये भंगी, भोझा। मन्त्रे-III. 11.96 गाह = डुबकी लगाना, गहराई, आभ्यन्तर प्रवेश। मन्त्रविषय में (वृष, इष, पच, मन, विद, भू, वी,रा मन्माभ्याम् -V.ii. 137 धातुओं से स्त्रीलिङ्ग भाव में क्तिन् प्रत्यय होता है मन् अन्तवाले तथा म शब्दान्त प्रातिपदिकों (से मत्वर्थ और वह उदात्त होता है)। में इनि प्रत्यय होता है, सज्जाविषय में)। Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्यकर्मणि मन्यकर्मणि - II. iii. 17 मन् धातु के (प्राणिवर्जित) कर्म में (विकल्प से चतुर्थी विभक्ति होती है, अनादर गम्यमान होने पर) । मन्यतेः - I. iv. 105 (परिहास गम्यमान हो रहा हो तो भी मन्य है उपपद जिसका, ऐसी धातु से युष्मद् उपपद रहते समान अभिधेय होने पर युष्मद् शब्द का प्रयोग हो या न हो, तो भी मध्यम पुरुष हो जाता है तथा उस) मन् धातु से (उत्तम पुरुष हो जाता है और उस उत्तम पुरुष को एकत्व भी हो जाता है) । ... मन्ये - VIII. 1. 46 देखें – एहिमन्ये VIII. 1. 46 मन्योपपदे - I. iv. 105 (परिहास गम्यमान हो रहा हो तो भी) मन्य है उपपद जिसका, ऐसी धातु से (युष्मद् उपपद रहते समान अभिधेय होने पर युष्मद् शब्द प्रयोग हो या न हो, तो भी मध्यम पुरुष हो जाता है तथा उस मन् धातु से उत्तम पुरुष हो जाता है और उत्तम पुरुष को एकत्व भी हो जाता है)। म - IV. iv. 20 (तृतीयासमर्थ वित्र प्रत्ययान्त प्रातिपदिक से निर्वृत्त अर्थ में नित्य ही) मं प्रत्यय होता है । मपरे - VIII. III. 26 मकारपरक (हकार) के परे रहते (पदान्त मकार को विकल्प से मकारादेश होता है। 413 मपर्यन्तस्य - VII. 1. 91 (यहाँ से आगे 'प्रत्ययोत्तरपदयो' VII. ii. 98 तक सब आदेश) मकारपर्यन्त को कहेंगे । पूर्व - VI. Iv. 170 : ( अपत्यार्थक अणु के परे रहते वम्र्म्मन् शब्द के अन् को छोड़कर) जो मकार पूर्ववाला अन्, उसको ( प्रकृतिभाव नहीं होता)। ....ममकी - IV. 1. 3 देखें - तवकममकौ IV. iii. 3 ...ममौ - VII. 1. 96 देखें - तवममौ VII. 11. 96 मय: - VIII. iii. 33 मय् प्रत्याहार से उत्तर (उञ् को अच् परे रहते विकल्प सेवकारादेश होता है)। मयट् - IV. 1. 82 (पञ्चमीसमर्थ हेतु तथा मनुष्यवाची प्रातिपदिकों से आगत अर्थ में) मयट् प्रत्यय (भी) होता है। मयट् - IV. iii. 140 (षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिकों से भक्ष्य, आच्छादन से वर्जित विकार तथा अवयव अर्थों में लौकिक प्रयोगविषय में विकल्प से) मयट् प्रत्यय होता है । मयट् - V. ii. 47 (प्रथमासमर्थ सङ्ख्यावाची प्रातिपदिकों से 'इस भाग का यह मूल्य' अर्थ में) मयट् प्रत्यय होता है । मयट् - Viv. 21 (प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से 'प्रभूत' अर्थ में) मयट् प्रत्यय होता है। मयते - VI. in. 70 'मेङ् प्रणिदाने' अङ्ग को (विकल्प करके इकारादेश होता है, ल्यप् परे रहते) । मयूरव्यंसकादयः - II. 1. 71 मयूरव्यंसकादिगणपठित समुदायरूप शब्द (भी समानाधिकरण तत्पुरुषसंज्ञक निपातित है)। ये - IV. iv. 138 (सोम शब्द से) मयट् के अर्थ में (भी य प्रत्यय होता है)। ... मयौ VIII. 1. 22 देखें - तेमयौ VIII. 1. 22 - .... मर्या.... ... मर... - VI. ii: 116 देखें •जरमरo VI. ii. 116 - .... मरुत्वत्... - IV. ii. 31 देखें द्यावापृथिवीशना० IV. II. 31 - ... . मत्यैध्य - V. Iv. 56 देखें - देवमनुष्यo V. Iv. 56 मर्मृज्य - VII. Iv. 65 मर्मृज्य शब्द (वेद-विषय में) निपातन किया जाता है। ....मर्य... III.1.123 देखें निष्टवर्यदेवहूय III. 1. 123 - Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मर्यादा... मर्यादा... - II. 1. 12 देखें - मर्यादाभिविध्योः II. 1. 12 मर्यादाभिविध्योः - II. 1. 12 मर्यादा और अभिविधि अर्थ में (वर्तमान 'आङ्' का पञ्चम्यन्त के साथ विकल्प से अव्ययीभाव समास होता है)। मर्यादा = ( तेन विना) मर्यादा । अभिविधिः (तेन सह ) अभिविधिः । ... मर्यादावचन... - VIII. 1. 15 देखें- रहस्यमर्यादावचन० VIII. 1. 15 मर्यादावचने - 1. iv. 88 मर्यादा और अभिविधि अर्थ द्योतित होने पर (आङ् शब्द कर्मप्रवचनीय और निपात-संज्ञक होता है) मर्यादावचने III. iii. 136 (अवर प्रविभाग अर्थात् इधर के भाग को लेकर) मर्यादा कहनी हो (तो भविष्यत्काल में धातु से अनद्यतनवत् प्रत्ययविधि लुट् नहीं होता है)। = - ... मलिन... - V. ii. 114 देखें - ज्योत्स्नातमिस्रा० V. ii. 114 ... मलीमसाः - Vii. 114 देखें - - ज्योत्स्नातमिस्रा० VII. 114 ...मवाम् - VI. Iv. 20 देखें ज्वरत्वरo VI. iv. 20 मश् - VII. 1. 40 (अम् के स्थान में) मश् आदेश होता है, (वेद-विषय में) । ... मस्... - III. iv. 78 देखें • तिप्तस्झिo III. iv. 78 - 414 मसि - VII. 1. 46 (वेद-विषय में) मस् शब्द (इकार अवयववाला हो जाता है) । .... मस्कर.. देखें – मस्करमस्करिणौ VI. 1. 149 - मस्करमस्करिणौ - VI. 1. 149 मस्कर तथा मस्करिन् शब्द (यथासंख्य करके बांस तथा सन्यासी अभिधेय हो, तो) निपातन किये जाते हैं। - VI. i. 149 - ... मस्करिणौ - VI. 1. 149 देखें – मस्करमस्करिणौ VI. 1. 149 - मस्जि... - VII. 1. 60 देखें मस्जिनशो: VII. 1. 60 - मस्जिनशो: - VII. 1. 60 - 'टुमस्जो शुद्ध' तथा 'णश अदर्शने' धातुओं को (झलादि प्रत्यय परे रहते नुम् आगम होता है) । ... मस्तकात् - VI. iii. 11 देखें — ..... महत्... - II. 1. 60 देखें सन्महत्परमोo II. 1. 60 ... - अमूर्धमस्तकात् VI. I. 11 .... महत्... - VI. 1. 168 देखें - अव्ययदिक्शब्द० VI. ii. 168 महतः - VI. iii. 45 (समानाधिकरण उत्तरपद रहते तथा जातीय प्रत्यय परे रहते) महत् शब्द को (आकारादेश होता है)। .महतः VI. iv. 110 देखें - सान्तमहत: VI. iv. 110 — महाव्याहते: ... महदुद्भ्याम् - Viv. 105 देखें – कुमहद्भ्याम् V. iv. 105 महाकुलात् - IV. 1. 141 महाकुल प्रातिपदिक से (अञ् और खच् प्रत्यय विकल्प से होते है, पक्ष में ख)। महान् - VI. 1. 38 (व्रीहि, अपराह्ण, गुष्टि, इष्वास, जाबाल, भार, भारत, हैलिहिल, रौरव तथा प्रवृद्ध इन शब्दों के उत्तरपद रहते पूर्वपद) महान् शब्द को ( प्रकृतिस्वर होता है) । गृष्टि एक बार ब्याई हुई गौ । रौरव = = रुरु मृग की छाल का बना हुआ, डरावना । महाराज... - IV. ii. 34 देखें - महाराजप्रोष्ठo IV. ii. 34 महाराजप्रोष्ठपदात् - IV. ii. 34 (प्रथमासमर्थ देवतावाची) महाराज तथा प्रोष्ठपद प्रातिपदिकों से (षष्ठ्यर्थ में ठञ् प्रत्यय होता है) । महाव्याहते: VIII. ii. 71 महाव्याहृति (भुवस् शब्द) को (भी वेद-विषय में दोनों प्रकार से अर्थात् रु एवं रेफ दोनों ही होते हैं)। - Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 415 मार... ...महि.. -III. iv. 78 देखें-तिप्तस्मि० III. 1.78 महिष्यादिभ्यः -IV. 1.48 (षष्ठीसमर्थ) महिषी आदि प्रातिपदिकों से (न्याय्य व्यव. हार अर्थ में अण् प्रत्यय होता है)। महेन्द्राद् - IV. 1. 28 (प्रथमासमर्थ देवतावाची) महेन्द्र शब्द से (षष्ठ्यर्थ में घ,अण तथा छ प्रत्यय भी होते है)। ...महोक्ष.. - V. iv.77 . देखें-अचतुर०V.iv.77 ...मा... -VI. iv.66 देखें-घुमास्था0 VI. 1.66 ...मा...-VII. iv.40 देखें-तिस्यति० VII. iv. 40 ...मा... - VII. 1.54 देखें-मीमाधु०मा . .54 . ...मा... -VIII. iv. 17 देखें-मीमाधु०VII. iv. 17 ...मा: -1.11.4 देखें-तुस्माः I. 11.4 ...मा: -III. iv. 82 देखें-जलतुसुसं० III. iv. 82 माड-III. iv. 19 . (व्यतीहार = अदल बदल अर्थवाली) मेड धात से (उदीच्य आचार्यों के मत में क्त्वा प्रत्यय होता है)। .. माङ्-II. i. 175 माङ् शब्द उपपद हो तो (धातु से लुङ्,लिङ् तथा लोट प्रत्यय भी होते है)। माझ्योगे - VI. iv. 74 (लुङ्ल ङ् तथा लङके परे रहते जो अट्, आट् आगम कहे हैं, वे) माङ् के योग में (नहीं होते)। ....माड:-VI.1.72 देखें-आमाझेVI.1.72. ...माणव..-IV. 1.41 देखें-ब्राह्मणमाण IV. 1.41 माणद.-...11 देखें-माणवचरकाभ्याम् V.I. 11 ...माणव... -VI. 1.69 देखें-गोत्रान्तेवासिo VI. 1.69 माणक्चरकाभ्याम् -v.i. 11 (चतुर्थीसमर्थ) माणव तथा चरक प्रातिपदिकों से (हित' अर्थ में खञ् प्रत्यय होता है)। माणव = लड़का, छोटा मनुष्य। चरक = दूत,अवधूत। ...माण्डूकाभ्याम् -IV.I. 19 देखें-कौरव्यमाण्डूकाभ्याम् IV.I. 19 मात् -I.i. 12 (अदस् के) मकार से (ईदन्त, ऊदन्त और एदन्त की प्रगृह्य संज्ञा होती है)। मात् - VIII. 1.9 मकारान्त एवं अवर्णान्त (तथा मकार एवं अवर्ण उपधावाले) प्रातिपदिक से (उत्तर मतुप को वकारादेश होता है, किन्तु यवादि शब्दों से उत्तर मतुप को व नहीं होता)। मातरपितरौ - VI. ii. 31 (उदीच्य आचार्यों के मत में) मातरपितरौ यह शब्द निपातन किया जाता है। ...मातामह.. -IV. 1. 35 देखें-पितृव्यमातुल• IV. ii. 35 मातुः - IV.i. 115 (संख्या,सम् तथा भद्र पूर्व वाले) मातृ शब्द से (अपत्य अर्थ में अण् प्रत्यय होता है, साथ ही) मातृ शब्द को (उकार अन्तादेश भी हो जाता है)। मातुः... -VIII. 1.85 देखें - मातुः पितुर्थ्याम् VIII. iii. 85 मातुःपितुवा॑म् -VIII. iii. 85 मातुर तथा पितुर् शब्द से उत्तर (स्वस के सकार को समास में विकल्प करके मूर्धन्य आदेश होता है)। ...मातुल... -IV.1.48 देखें-इन्द्रवरुणभव V.1. 48 ...मातुल... -IV. 1.35 देखें-पितृव्यमातुलo IV.ii. 35 मात... - VIII. iii. 84 देखें- मातृपितृभ्याम् VIII. iii. 84 Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मातृपितृभ्याम् ...माभ्याम् मातृपितृभ्याम् - VIII. iii. 84 माद = नशा, हर्ष, अंहकार। मात तथा पित शब्द से उत्तर (स्वस शब्द के सकार को ...माध्वी... -VI. iv. 175 समास में मूर्धन्य आदेश होता है)। देखें-ऋव्यवास्त्व्य VI. iv. 175 मातृष्वसुः - IV. 1. 134 मान्... -III.i.6 पितृष्वस प्रातिपदिक को जो कुछ कहा है वह) मातृष्वस देखें - मान्बधदान्शान्भ्यः III. 1.6 शब्द को (भी होता है)। मान... -III. I. 129 ...मात्रच्..-IV.i. 15 देखें - मानहविर्निवास III. 1. 129 देखें-टिड्राण V.i. 15 मान... -V.ii. 51 ...मात्रच: -V.ii.37 देखें - मानपश्वगयो: V. iii. 51. देखें-द्वयसदन v. ii. 37 . मानपश्वङ्गयो: - V. iii. 51 मात्रा-I.ii.70 माप तथा पशु का अङ्ग (रूपी षष्ठ और अष्टम) प्राति-' मातृ शब्द के साथ (पितृ शब्द विकल्प से शेष रह जाता पदिकों से (यथासङ्ख्य करके कन् प्रत्यय तथा ज और है, मातृ शब्द हट जाता है)। अन प्रत्यय का विकल्प से लुक होता है तथा यथाप्राप्त मात्रा... -VI. ii. 14 अन् और अञ् भी होते है)। देखें- मात्रोपज्ञोपOVI. ii. 14 मानहविर्निवाससामिधेनीषु -III. 1. 129 मात्राथें-II.i.9 (पाय्य, सान्नाय्य, निकाय्य, धाय्या-ये शब्द यथामात्रा = बिन्द अथवा अल्प अर्थ में (वर्तमान प्रति संख्य करके) मान = तोलने का बाट,हविः, निवास तथा शब्द के साथ समर्थ सबन्त अव्ययीभाव समास को प्राप्त सामिधेनी = एक ऋचा अभिधेय होने पर (निपातन किये होता है)। जाते हैं)। मात्रोपज्ञोपक्रमच्छाये - VI. ii. 14 ...मानिनो: -VI. iii. 35 (नपुंसकवाची तत्पुरुष समास में) मात्रा,उपज्ञा,उपक्रम देखें-क्यड्मानिनो: VI. iii. 35 तथा छाया शब्द उत्तरपद हों तो (पूर्वपद को प्रकृतिस्वर ...मानुषीभ्यः - IV. 1. 103 होता है)। देखें-नदीमानुषीभ्यः IV.i. 103 उपज्ञा =अन्तःकरण में अपने आप उपजा ज्ञान, माने-IV. iii. 159 अविष्कार। (षष्ठीसमर्थ द्र प्रातिपदिक से) मानरूपी विकार अभिमाथोत्तरपद... - IV. iv. 37 धेय हो (तो वय प्रत्यय होता है)। देखें- माथोत्तरपदपदव्य IV. iv. 37 माथोत्तरपदपदव्यनुपदम् - IV. iv. 37 मान्तस्य - VII. ii. 34 (द्वितीयासमर्थ) माथ शब्द उत्तरपद वाले प्रातिपदिक से (उपदेश में उदात्त तथा) मकारान्त धात् को (चिण तथा तथा पदवी, अनुपद प्रातिपदिकों से (दौड़ता है' अर्थ में । जित् कृत् परे रहते जो कहा गया है, वह नहीं होता; ठक् प्रत्यय होता है)। आपूर्वक चम् धातु को छोड़कर)। . माथ = मन्थन, हत्या, मार्ग। मान्बधदान्शान्भ्यः - III. 1.6 माद...-VI. iii.95 मान,बध,दान् और शान् धातुओं से (सन् प्रत्यय होता देखें-मादस्थयो: VI. iii.95 है तथा अभ्यास के विकार को दीर्घ आदेश होता है)। मादस्थयो:-VI. iii. 95 ....माभ्याम् - V.ii. 137 माद तथा स्थ उत्तरपद रहते (वेद-विषय में सह शब्द देखें-मन्माभ्याम् V. 1. 137 को सघ आदेश होता है)। Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... मामक.... ... मामक... - IV. 1. 30 देखें - केवलमामक० IV. 1. 30 ... माया... - V. ii. 121 देखें - अस्मायामेवाo VII. 121 मायायाम् - IV. iv. 124 असुर की (षष्ठीसमर्थ असुर शब्द से वेद - विषय में अपनी माया अभिधेय होने पर (अण् प्रत्यय होता है)। ... मार्देया: - VI. ii. 107 देखें - हास्तिनफलक० VI. ii. 107 मालादीनाम् - VI. ii. 88 (प्रस्थ शब्द उत्तरपद रहते पूर्वपद) मालादि शब्दों को (भी आद्युदात्त होता है)। .. मालानाम् - VI. III. 64 देखें - इष्टकेषीकाo VI. iii. 64 ... माष... - V. 1. 7 देखें - खलयवमाक V. 1.7 माष... - V. 1. 34 देखें - पणपादमापo V. 1. 34 .... मा.... - V. ii. 4 देखें तिलमायो० VII. 4 - 'मास... - IV. Iv. 128 देखें - मासतन्वो IV. Iv. 128 .. मास... - V. 1. 57 देखें - शतादिमासo V.ii. 57 मासतन्वोः IV. iv. 128 मास और तनू प्रत्ययार्थ विशेषण हों तो (प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से मतुप् के अर्थ में यत् प्रत्यय होता है)। मासात् - V. 1. 80 (द्वितीयासमर्थ कालवाची) मास प्रातिपदिक से (अवस्था गम्यमान होने पर 'हो चुका' अर्थ में यत् और खज् प्रत्यय होते हैं)। -- 417 .....IV. lv. 67 देखें - ब्राणामांसौदनात् IV. 1. 67 मित् - I. 1. 46 मकार इत्संज्ञा वाला आगम (अचों में अन्तिम अच् से परे होता है)। मित... - III. 1. 34 देखें ...मित... - VI. II. 170 देखें - अकृतमितo VI. 1. 170 मिताम् VI. Iv. 92 - ... मित्र ... - VII. III. 2 मासू - VI. 1.61 देखें केकयमित्रयु VII. III. 2 (वेद-विषय में मास शब्द के स्थान में) मास् आदेश हो मित्राजिनयोः - VI. 1. 164 जाता है, (शस् प्रकार वाले प्रत्ययों के परे रहते)। मितनखे III. II. 34 मित्सव्लक अङ्ग की (उपधा को ह्रस्व होता है, णि परे रहते) । मितनखे III. ii. 34 से मित और नख (कर्म) उपपद हों तो (भी पच् धातु खश् प्रत्यय होता है)। मित्र... - V. iv. 150 देखें - मित्रामित्रयो Iv. 1.50 ... मित्र... - VI. II. 116 देखें - जरमरo VI. ii. 116 मित्र... - VI. ii. 165 देखें - मित्राजिनयो: VI. 1. 165 - मिट (सहा विषय में उत्तरपद) मित्र तथा अजिन शब्दों को (बहुव्रीहि समास में अन्तोदास होता है)। मित्रामित्रयोः - V. iv. 150 (सुहृद् तथा दुई शब्द कृतसमासान्त निपातन किये जाते हैं; यथासङ्ख्य करके) मित्र तथा अमित्र वाच्य हों तो । - मित्रे - VI. iii. 129 मित्र शब्द उत्तरपद रहते (भी ऋषि अभिधेय होने पर विश्व शब्द को दीर्घ हो जाता है)। मिथ्योपपदात् III. 71 मिथ्या शब्द उपपद वाले (ण्यन्त कृञ् धातु) से (अभ्यास अर्थ में आत्मनेपद होता है)। ...मिट - 111. II. 161 देखें - भजभासमिदः III. 1. 161 Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....मिदि... 418 મુબ . . . . ....मिदि... -I. 1. 19 मीढ्वान् - VI. 1. 12 देखें - शीविदिमिदिदिवदिधृषः I. II. 19 मीढ्वान् शब्द का (छन्द तथा भाषा में सामान्य करके) मिदेः - VII. ii. 82 निपातन किया जाता है। मिद् अङ्ग के (इक् को शित् प्रत्यय परे रहते गुण होता ...मीना - VIII. iv. 15 देखें-हिनुमीना VIII. iv. 15 ...मिनोति... - VI.I. 49 मीनाति... -VI.i.49 देखें-मीनातिमिनोति VI.1.49 देखें-मीनातिमिनोति VI.i.49 मीनातिमिनोतिदीडम् -VI.i. 49 ...मिप्... -III. iv.78 देखें-तिप्तस्झि० III. iv.78 . मीज डुमिन् तथा दीङ् धातुओं को (ल्यप् के परे रहते तथा एच के विषय में भी उपदेश अवस्था में ही आत्व ...मिपाम् -III. iv. 101 हो जाता है)। देखें-तस्थस्थमिपाम् III. iv. 101 मीनाते: - VII. iii. 81 ...मिमताभ्याम् - IV.i. 150 'मी हिंसायाम्' अङ्गों को (शित् प्रत्यय परे रहते वेद- . देखें- फाण्टाहतिमिमताभ्याम् IV. 1. 150 विषय में हस्व होता है)। ...मिश्र..-III. 30 देखें-पूर्वसदशसमो0 II.1.30 मीमाधुरभलभशकपतपदाम् - VII. iv. 34 ...मित्र.. -III.i. 21 मी, मा तथा घुसज्ञक एवं रभ, डुलभष, शक्ल, पत्लु देखें- मुण्डमिश्र III.i. 21 और पत् अङ्गों के (अच् के स्थान में इस आदेश होता है, सकारादि सन् परे रहते)। ...मिश्र.. - VI. iii. 55 देखें-घोषमिश्रOVI. iii. 55 ...मील... - VII. iv.3 . देखें- प्राजभास० VII. iv.3 , ...मिश्रका.. - VIII. iv. 4 . देखें-पुरगामिश्रका VIII. iv.4 मु-VIII. ii.3 मित्रम् - VI. ii. 154 (ना परे रहते) म भाव (असिद्ध नहीं होता)। (तृतीयान्त से परे उपसर्गरहित) मिश्र शब्द उत्तरपद को मुक्-VII. ii. 82 (भी अन्तोदात्त होता है, असन्धि गम्यमान हो तो)। (आन परे रहने पर अङ्ग के अकार को) मुक् आगम मिश्रीकरणम् - II. I. 35 होता है। . मिश्रीकरणवाची (ततीयान्त सबन्त भक्ष्यवाची सबन्त के ...मुक्त... -II.1.37 . साथ विकल्प से समास को प्राप्त होता है और वह समास देखें- अपेतापोढमुक्त० II. 1. 37 तत्पुरुषसंज्ञक होता है)। मुख... -I.i.8 .. मित्रे - VI. ii. 128 देखें- मुखनासिकाक्चनः I. 1.8 मुखनासिकावचनः-I.i.8 मिश्रवाची (तत्पुरुष समास) में (पलल, सूप, शाक कुछ मुख से, कुछ नासिका से (अर्थात् दोनों की सहाइन उत्तरपद शब्दों को आधुदात्त होता है)। यता से) बोले जाने वाले (वर्ण की अनुनासिक संज्ञा होती ...मिह... - III. ii. 182 देखें - दाम्नी III. 1. 182 मुखम् - VI. ii. 169 मी... - VII. iv.54 (अपना अङ्गवाची उत्तरपद) मुख शब्द को (बहुव्रीहि देखें-मीमाधु० VII. iv.54 समास में अन्तोदात्त होता है)। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखम् 419 होता है)। . में)। मुखम् -VI. 1. 185 मूर्धन्यः - VIII. ill. 55 (अभि उपसर्ग से उत्तर उत्तरपदस्थित) मुख शब्द को (अपदान्त को) मर्धन्य आदेश होता है. ऐसा अधिकार (अन्तोदात्त होता है)। पाद की समाप्तिपर्यन्त जाने)। ...मुखात् - IV. 1.58 ...मूर्धसु - VI. ii. 197 देखें-नखमुखात् IV. 1.58 देखें - पाहन्मूर्धसु VI. ii. 197 मुच - VII. iv.57 मूर्ती: - IV. iv. 127 (अकर्मक) मुच्ल धातु को विकल्प से गुण होता है, (उपधान मन्त्र समानाधिकरण प्रथमासमर्थ मतुबन्त) सकारादि सन् प्रत्यय परे रहते)। मर्धन प्रातिपदिक से (ईटों के अभिधेय होने पर वेद-विषय मुचादीनाम् - VII. 1. 59 में मतुप् प्रत्यय होता है तथा प्रकृत्यन्तर्गत जो मतुप,उसका (श प्रत्यय परे रहते) मुचादि धातुओं को (नुम् आगम । लुक् हो जाता है)। मूर्ती: - V.iv. 115 मुज..-III. I. 117 द्वि तथा त्रि शब्दों से उत्तर जो मूर्धन् शब्द,तदन्त प्रातिदेखें-मुअकल्क III. I. 117 पदिक से (समासान्त ष प्रत्यय होता है, बहुव्रीहि समास मुञ्जकल्कहलिषु -III.i. 117 (विपूय, विनीय और जित्य शब्दों का निपातन किया । ...मुष... -I. ii.8 जाता है; यथासंख्य करके) मुञ्ज = मूंज, कल्क = देखें-रुदक्दिमपहिस्वपिप्रच्छ: I. 1.8 ओषधि और हलि = बड़ा हल अभिधेय हो तो। ...मुष्क... - V. 1. 107 'मुण्ड.. -III. 1.21 देखें- ऊपसुषि० V.ii. 107 देखें - मुण्डमिश्र III. I. 21 ...मुष्टि.. - VI. ii. 168 , मुण्डमिश्रश्लक्ष्णलवणव्रतवखहलकलकृततूस्तेभ्यः - देखें - अव्ययदिवशब्दOVI.ii. 168 III.i.21 मुष्टौ-III. iii. 36 मुण्ड, मिश्र, श्लक्ष्ण, लवण, व्रत, वस्त्र, हल, कल, कृत, (सम्-पूर्वक ग्रह धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा तूस्त -इन (कों) से (करोति' अर्थ में णिच् प्रत्यय भाव में) मुट्ठी अर्थ में (घञ् प्रत्यय होता है)। होता है)। ...मुष्ट्योः -III. ii. 30 मुगात् - IV. iv. 25 देखें - नाडीमुष्ट्योः III. ii. 30 (तृतीयासमर्थ) मुद्र प्रातिपदिक से (मिला हुआ अर्थ में ...मुह... - VIII. ii. 33 अण् प्रत्यय होता है)। देखें-दहमुहO VIII. 1.33 मुम् - VI. iii. 66 - ...मूल... - IV.i.64 (अरुस्, द्विषत् तथा अव्यय-भिन्न अजन्त शब्दों को देखें - पाककर्णपर्ण IV. 1. 64 खिदन्त उत्तरपद रहते) मुम् आगम होता है। ...मूल... - IV. iii. 28 ....मूर्छि... - VIII. ii. 57 देखें- पूर्वाहणापराहणाov.ii. 28 देखें- ध्याख्यापृ० VIII. ii. 57 ...मूल... -IV.iv.91 मूर्ती – III. iii. 77 देखें-नौवयोधर्म V. iv.91 • मूर्ति (काठिन्य) अभिधेय हो (तो हन् धातु से अप प्रत्यय ...मूल... - VI. ii. 121 .. होता है तथा हन को घन आदेश भी हो जाता है)। देखें-कूलतीर० VI. ii. 121 Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलम् मूलम् - IV. iv. 88 (आबर्हि उत्पाटनीय समानाधिकरण प्रथमासमर्थ) मूल प्रातिपदिक से (षष्ठ्यर्थ में यत् प्रत्यय होता है)। .. मूले - V. 1. 24 देखें - पाकमूले V. II. 24 ... मृ... III. i. 59 देखें - कृप० III. 1. 59 ... मृग... - II. iv. 12देखें = - ... मृग... - V. Iv. 98 देखें उत्तरमृणपूर्वात् Viv. 98 मृग: - IV. iii. 51 वृक्षमगतृणधान्य II. Iv. 12. (सप्तमीसमर्थ कालवाची प्रातिपदिकों से) 'मृग (शब्द करता है' अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है)। ... मृगान् - IV. Iv. 35 देखें - .. मृज... - VIII. 1. 36 देखें - व्रश्चनस्जo VIII. 1. 36 मुजेः III.1.113 मृज् धातु से (विकल्प से क्यप् प्रत्यय होता है) । मृजे VII. 1. 114 मृज् अङ्ग के (इक् के स्थान में वृद्धि होती है)। पक्षिमत्स्यमृगान् IV. Iv. 35 मृड... - I. 1. 7 देखें - मृडमृदगुधकुषक्लिशवदवसः I. 11. 7 ....... - IV. 1. 48 देखें इन्द्रवरुणभव IV. 1. 48 - मृडमृदगुधकुषक्लिशवदवस 1. 11.7 - 'मृद्द सुखने', 'मुद क्षोदे', 'गुम रोषे', 'कुष निष्कर्षे, 'क्लिशू विबाधने', 'वद व्यक्तायां वाचि', 'वस निवासे', - इन धातुओं से परे ( क्त्वा प्रत्यय कित्वत् होता है)। - ... मृत - VI. 1. 116 देखें - जरमर० VI. ii. 116 - 420 .... मुद...] - 1. 11.7 देखें - मृडमृदगुधकुषक्लिशवदवसः 1. II. 7 V. iv. 39 मृद् प्रातिपदिक से ( स्वार्थ में तिकन् प्रत्यय होता है)। मृष - I. 1. 20 (क्षमा अर्थ में वर्तमान) मृष् धातु से परे (सेंट् निष्ठा प्रत्यय कितु नहीं होता है)। -I. iii. 82 (परि उपसर्ग से उत्तर) 'मृष्' धातु से (परस्मैपद होता है) । ...मृषि... - III. 25 देखें - तृषिमृषिकृशेः I. II. 25 ... मृषोध... - III. 1. 114. देखें- राजसूयसूर्य० III. 1. 114 मे - III. iv. 89 (लोडादेश जो) मिए उसके स्थान में (नि आदेश हो जाता है)। मेघ... - 111. 1. 43 देखें - मेघसिंचयेषु III. II. 43 मेघर्तिभयेषु - IIIII. 43 मेघ ऋति, भय इन (कर्मों) के उपपद रहते (कुञ धातु से खच् प्रत्यय होता है)। मैरेये ... मेघेभ्यः - III. 1. 17 देखें - शब्दवैरकलहा०] III. 1. 17 मेजर - LL. 38 मकारान्त तथा एबन्त (कृत्) शब्द (अव्ययसंज्ञक होते है)। ... मेघयो: - V. Iv. 122 देखें - प्रजामेधयो: Viv. 122 ... मेघा ... - V. ii. 121 देखें - अस्मायामेचाo VII. 121 ... मैत्रेय... - VI. iv. 174 देखें दाण्डिनायन VI. Iv. 174 .... मैथुनिकयो - IV. 1. 124 देखें वैरमैथुनिकयो: IV. ii. 124 — ... मैथुनेच्छा... - IV. 1. 42 देखें वृत्यमत्रावपनाo IV. 1. 42 • मैरेये - VI. 1. 70 मैरेय शब्द उत्तरपद रहते (उसके उपादानकारणवाची पूर्वपद को आद्युदात्त होता है)। Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरेय = एक प्रकार का मादक पेय । ...मो:-VIII. iv. 22 देखें-वमो: VIII. iv. 22 .मौ-VII. ii.97 देखें-त्वमौ VII. ii.97 ...मौ-VIII. I. 23 देखें-त्वामौ VIII. I. 23 ...म्ना.. - VII. iii. 78 देखें- पाघ्राध्या० VII. iii. 78 ...प्रद... -VII. iv.95 देखें - स्मृदृत्वर० VII. iv.95 प्रियते: -I. 1. 61 (लुङ, लिङ् लकार में. तथा शित् विषय में) 'मृङ्प्राणत्यागे' धातु से (आत्मनेपद होता है)। ...मुचु... -III. 1.58 देखें-स्तम्भु० III. 1. 58 ...म्लिष्ट..-VII. ii. 18 देखें- क्षुब्धस्वान्त० VII. ii. 18 ...म्लुचु... -III. 1.58 देखें-स्तम्भु III.1.58 म्वो: - VI. iv. 107 (असंयोग पूर्व उकारान्त प्रत्यय का विकल्प से लोप भी होता है),मकारादि तथा वकारादि प्रत्ययों के परे रहते। म्वोः -- VIII. I. 65 मकार तथा वकार परे रहते (भी मकारान्त धातु को नकारादेश होता है)। : - . य-प्रत्याहारसूत्र आचार्य पाणिीन द्वारा अपने बारहवें प्रत्याहारसूत्र में 'इत्सद्धार्थ पठित वर्ण। य..-I. iv. 18 देखें-यचि I. iv. 18 य...-VII. iil.3 . देखें-वाभ्याम् VII. iii. 3 य..-VIII. 1. 108 देखें -यौ VIII. ii. 108 य... -VIII. iii.87 देखें-क्च्य रः VIII. iii.87 य-प्रत्याहारसूत्र V आचार्य पाणिनि द्वारा अपने पञ्चम प्रत्याहारसूत्र में पठित द्वितीय वर्ण। पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्णमाला का ग्यारहवां वर्ण। ...य... -IV. 1.79 देखें -बुज्छण्कठOV.ii.79 य..-IV. 1. 94 देखें-यखौ IV. 1.94 य..-VI.1.156 देखें - ययतो: VI. 1. 156 य... -VII. iii. 46 देखें- यकपूर्वाया: VII. iii. 46 यः - III. ii. 152 यकारान्त धातुओं से (तच्छीलादि कर्ता हों तो वर्तमा- ' नकाल में युच् प्रत्यय नहीं होता है)। य-III. 1. 176 (यङन्त) 'या पापणे' धातु से (भी तच्छीलादि कर्ता हों, तो वर्तमानकाल में वरच् प्रत्यय होता है)। यः - IV. ii. 48 (षष्ठीसमर्थ पाशादि प्रातिपदिकों से समूह अर्थ में) य प्रत्यय होता है। यः -v.iv. 105 (सप्तमीसमर्थ सभा प्रातिपदिक से साधु अर्थ में) य प्रत्यय होता है। यः-IV. iv. 109 (सप्तमीसमर्थ सोदर प्रातिपदिक से 'शयन किया हआ' अर्थ में) य प्रत्यय होता है। Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यः-IV. iv. 137 यक् - VII. 1.47 (द्वितीयासमर्थ सोम प्रातिपदिक से 'अर्हति' अर्थ में) य (वेद-विषय में क्त्वा को) यक् आगम होता है। प्रत्यय होता है। ....यक्... - VII. iv. 28 य-v.i. 125 देखें-शयग्लिश VII. iv. 28 (षष्ठीसमर्थ सखि प्रातिपदिक से भाव और कर्म अर्थ ...यक: - IV. iii. 94 में) य प्रत्यय होता है। देखें-ढक्छण्डव्यक: IV. iii. 94 य-VI.1.37 यकन् -VI.1. 61 (लिट् लकार के परे रहते वय् धातु के) यकार को (सम्प्र- (वेदविषय में यकृत् शब्द के स्थान में) यकन् आदेश सारण नहीं होता है)। हो जाता है, (शस् प्रकार वाले प्रत्ययों के परे रहते)। य-VI. iv. 149 . यकपूर्वाया: - VII. ifi.46 (भसञक अङ्ग के उपधा) यकार का (लोप होता है; यकार तथा ककार पूर्ववाले (आकार) के स्थान में (जो ईकार तथा तद्धित के परे रहते; यदि वह य् सूर्य, तिष्य, प्रत्ययस्थित ककार से पूर्व अकार,उसके स्थान में उदीच्य.. अगस्त्य तथा मत्स्य-सम्बन्धी हो)। आचार्यों के मत में इकारादेश नहीं होता)। . य-VII. 1. 13 यकि -VI. iv. 44 (अकारान्त अङ्ग से उत्तर 'डे' के स्थान में) य आदेश (तनु अङ्गको विकल्प से) यक् परे रहते (आकारादेश होता है। होता है)। 2-VII. 1. 89 यक्विणी - III. 1.89 (कोई आदेश जिसको नहीं हुआ है, ऐसी अजादि यक और चिण (जो दह,स्नु और नम् को कर्मवद्भाव विभक्ति के परे रहते युष्मद, अस्मद् अङ्ग को) यकारा में कहे गये हैं, वे नहीं होते)। देश होता है। यखौ - Vii. 93 यः-VII. ii. 110 (इदम् के दकार के स्थान में) यकार आदेश होता है; ___ (पाम शब्द से) य और खञ् प्रत्यय होते हैं। (सु विभक्ति परे रहते)। यङ्-III. 1. 22 यः-VIII. iii. 17 (एकाच हलादि धातु से क्रिया के बार-बार होने या - (भो, भगो, अघो तथा अवर्ण पूर्व में है जिस रु के, उस अतिशय अर्थ में) यङ् प्रत्यय होता है.। रु के रेफ को) यकार आदेश होता है, (अश परे रहते)। यङ्... - VII. iv. 82 यक् - III. 1. 27 देखें- यङ्लुको: VII. iv. 82 यड-III. ii. 166 . (कण्डूज् आदि धातुओं से) यक् प्रत्यय होता है। (यज, जप, दश-इन) यडन्त धातुओं से (तच्छीलादि यक् - III. I. 67 कर्ता हो, तो वर्तमानकाल में ऊक प्रत्यय होता है)। . (धातु मात्र से) यक् प्रत्यय होता है,(भाव और कर्मवाची यडः -III. 1. 176 सार्वधातुक प्रत्यय परे रहते)। यडन्त (या प्रापणे) धातु से (भी तच्छीलादि कर्ता हों, यक्...-III.1. 89 देखें- यक्विणौ III. 1. 89 तो वर्तमानकाल में वरच् प्रत्यय होता है)। यक्-... 127 यड-V.1.74 (षष्ठीसमर्थ पति शब्द अन्तवाले तथा परोहितादि प्राति- यङन्त = ज्यङ् या व्यङ् अन्तवाले प्रातिपदिकों से पदिकों से भाव और कर्म अर्थों में) यक प्रत्यय होता है। (स्त्रीलिङ्ग में चाप् प्रत्यय होता है)। Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 423 यजयाचरुवप्रक्चर्च: यहः-II. iv.74 यच्चयत्रयोः -III. iii. 148 (अच् प्रत्यय के परे रहते) यङ्का (लक हो जाता है. (अनवक्तृप्ति = असम्भावना, अमर्ष = अक्षमा चकार से बहुल करके अच् परे न हो तो भी लुक हो जाता गम्यमान हो तो) यच्च, यत्र ये अव्यय उपपद रहते (धातु से लिङ्प्रत्यय होता है)। यडः-VII. iii.94 ...यच्छ... -VII. iii. 78 देखें-पिबजिन VII. iii. 78 यङ् से उत्तर (हलादि पित् सार्वधातुक को विकल्प से यच्यरः -VIII. iii. 87 ईट् आगम होता है)। (उपसर्ग में स्थित निमित्त से उत्तर तथा प्रादुस् शब्द से यङि-VI. I. 19 उत्तर) यकारपरक एवं अच्परक (अस् धातु के सकार को (जिष्वप, स्यम् तथा व्येन धातुओं को सम्प्रसारण हो मूर्धन्य आदेश होता है)। जाता है) यङ् प्रत्यय के परे रहते। यज.. -III. 1. 166 यङि-VII. iv. 30 देखें- यजजपदशाम् III. ii. 166 (कृतथा संयोग आदि वाले ऋकारान्त अङ्ग को) यङ् यज... -III. iii.90 देखें - यजयाच III. iii. 90 परे रहते (गुण होता है)। यज... -VII. iii.66 यङि-VII. iv.63 देखें- यजयाच VII. 11.66 (कुङ् अङ्ग के अभ्यास को) यङ् परे रहते (चवर्गादेश ...यज.. - VIII. II. 36 नहीं होता)। देखें-प्रश्वप्रस्ज.VIII. 1.36 यङि-VIII. 1. 20 यजः-III. ii. 72 - (गृ धातु के रेफ को) यङ परे रहते (लत्व होता है। यज् धातु से (अव उपपद रहते मन्त्र विषय में 'ण्विन' प्रत्यय होता है)। यङि-VIII. iii. 112 यजः -III. ii. 85 (इण तथा कवर्ग से उत्तर सिच के सकार को) यङ् परे यज् धातु से (करण उपपद रहते णिनि प्रत्यय होता है, रहते (सूर्धन्य आदेश नहीं होता)। भूतकाल में)। ...यो - VI.1.9 यजजपदशाम् -III. ii. 166 देखें-सन्यो : VI.i.9 यज,जप,दश् - इन (यडन्त) धातुओं से (तच्छीलादि ...यडो: -VI.I. 29 कर्ता हो तो वर्तमानकाल में ऊक प्रत्यय होता है)। देखें-लिड्यो : VI.1.29 यजध्वैनम् - VII. i. 43 यङ्लुको: - VII. iv. 82 (वेद-विषय में) 'यजध्वनम्' यह शब्द भी निपातन यङ् तथा यङ्लुक् के परे रहते (इगन्त अभ्यास को गुण किया जाता है। होता है)। यजयाचयतविच्छप्रच्छरक्ष:-III. iii. 90 यचि-I. iv. 18 यज.याच.यत.विच्छ प्रच्छ तथा रक्ष धातओं से (कर्त(सर्वनामस्थानभिन्न) यकारादि और अजादि (स्वादि)। भिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में नङ् प्रत्यय होता है)। प्रत्ययों के परे रहते (पूर्व की भसंज्ञा होती है)। यजयाचरुवप्रवचर्च: - VII. iii. 66 यच्च.. -III. iii. 148 यज,टुयाचु,रुच,प्रपूर्वक वच तथा ऋच्-इन अङ्गों देखें- यच्चयत्रयोः III. ii. 148 के (चकार, जकार को भी ण्य प्रत्यय परे रहते कवर्गादेश नहीं होता)। Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. यजादीनाम् ... ... यजादीनाम् - VI. 1. 15 देखें वचिस्वपिo VI. 1. 15 - यजुषि - VI. 113 यजुर्वेद-विषय में (एडन्त उरः शब्द को प्रकृतिभाव होता अकार परे रहते)। है, यजुषि VII. in. 38 (देव तथा सुम्न अङ्ग को क्यच् परे रहते आकारादेश होता है) यजुर्वेद की (काठक शाखा में)। - यजुषि - VIII. iii. 104 यजुर्वेद में (तकारादि युष्मद्, तत् तथा ततक्षुस् परे रहतेइण तथा कवर्ग से उत्तर सकार को कुछ आचार्यों के मत मूर्धन्य आदेश होता है)। यजेः - II. iii. 63 यज् धातु के (करण कारक में भी वेदविषय में बहुल करके षष्ठी विभक्ति होती है)। ... यजो: - III. 1. 103 देखें सुजो III. 1. 103 ... यजो: - III. 1. 128 देखें - जो III II 128 ... - III. iii. 94 देखें - व्रजयजो: III. ili. 94 यज्ञ... - V. 1. 70 देखें यज्ञर्विग्भ्याम् N. L. 70 यज्ञकर्मणि - Iii. 34 यज्ञकर्म में (उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित स्वरों को एकश्रुति हो जाती है जप, न्यूख आश्वलायन श्रौतसूत्रसामवेद के गान को पठित निगदविशेष तथा साम छोड़कर)। = यज्ञकर्मणि - VIII. 1. 88 (ये' शब्द को) यज्ञ की क्रिया में (प्लुत उदात्त होता है) । ... यज्ञपात्रप्रयोग... - VIII. 1. 15 देखें- रहस्यमर्यादा० VIII. 1. 15 यज्ञर्विग्भ्याम् - V. 1.70 424 (द्वितीयासमर्थ) यज्ञ तथा ऋत्विग् प्रातिपदिकों से (समर्थ है' अर्थ में यथासङ्ख्य करके घ तथा खञ् प्रत्यय होते हैं)। यज्ञसंयोगे III. ii. 132 से यज्ञ से संयुक्त अभिषव में वर्तमान (पुञ् धातु वर्तमान काल में शतृ प्रत्यय होता है) । यज्ञसंयोगे IV. 33 i. — (पति शब्द से स्त्रीलिङ्ग में) यज्ञसंयोग गम्यमान होने पर (ङीप् प्रत्यय होता है और नकार अन्वादेश भी हो जाता है) । - यज्ञाख्येभ्यः - V. 1. 94 (षष्ठीसमर्थ) यज्ञ की आख्यावाले प्रातिपदिकों से (भी 'दक्षिणा' अर्थ में उब प्रत्यय होता है)। यज्ञा - VII. 1. 62 (प्रयाज तथा अनुयाज शब्द) यज्ञ का अंग हों तो (निपातन किये जाते हैं। यज्ञे - III. iii. 31 यज्ञविषय में (सम्पूर्वक स्तु धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञाविषय में घञ् प्रत्यय होता है) । ... -III. iii. 47 यज्ञविषय में (परि पूर्वक मह धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है)।, यज्ञे VI. Iv. 54 यज्ञकर्म में (इडादि तृच् परे रहते 'शमिता' यह निपातन किया जाता है)। . यज्ञेभ्यः - IV. iii. 68 देखें तुज्ञेय IV. II. 68 1 यज् यञ्... - II. iv. 64 देखें- यजत्रो 11. Iv. 64 - यञ्... - IV. 1. 101 देखें यजिओ IV. 1. 101 यञ् - IV. 1. 105 (गर्गादि षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिकों से गोत्रापत्य में) यञ् प्रत्यय होता है। यञ् - IV. 1. 39 (षष्ठीसमर्थ केदार शब्द से) यन् प्रत्यय होता है (तथा वुञ् भी) । Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यञ्... यञ्... - IV. ii. 47 देखें- यच्छौ IV. II. 47 यज् - IV. iii. 10 (समुद्र के समीप अर्थ में वर्तमान जो द्वीप प्रातिपदिक, उससे) शैषिक यन् प्रत्यय होता है। . यञ्... - IV. iii. 126 देखें - अभ्याम् IV. III. 126 यञ्... - IV. iii. 165 देखें यजी IV. 1. 165 - यञ् – Viii. 118 - (अभिजित् विदभृत्, शालावत्, शिखावत्, शमीवत्, ऊर्णावत् तथा श्रुमत् सम्बन्धी जो अणु प्रत्ययान्त शब्द, उनसे स्वार्थ में) यञ् प्रत्यय होता है। 425 यत्र: - IV. i. 16 (अनुपसर्जन) यजन्त प्रातिपदिक से भी स्त्रीलिङ्ग में डीप प्रत्यय होता है)। यत्रञोः II. iv. 64 (गोत्र में विहित ) यञ् और अञ् प्रत्ययों का (भी तत्कृत बहुत्व में लुक् होता है, स्त्रीलिङ्ग को छोड़कर) । यञञौ - IV. iii. 165 - (षष्ठीसमर्थ कंसीय, परशव्य प्रातिपदिकों से विकार अर्थ में यथासङ्ख्य करके) यञ् और अम् प्रत्यय होते हैं, ((तथा प्रत्यय के साथ-साथ कंसीय और परशव्य का लुक् भी होता है)। यत्रि - VII. iii. 101 (अकारान्त अङ्ग को दीर्घ होता है), यञ् प्रत्याहार आदि वाले (सार्वधातुक प्रत्यय) के परे रहते। यत्रित्रोः IV. i. 101 " (गोत्र में विहित जो ) यञ् और इन् प्रत्यय, तदन्त से (भी 'तस्यापत्यम्' अर्थ में फक् प्रत्यय होता है)। यच्छौ - IV. ii. 47 (समूहार्थ में षष्ठीसमर्थ केश, अश्व प्रातिपदिकों से यथासङ्घ) यत्र और छ प्रत्यय होते हैं, (पक्ष में विकल्प से ढक् होता है। - यडुकञ – IV. 1. 140 - (अविद्यमान पूर्वपद वाले कुल शब्द से विकल्प से) यत् और ढञ् प्रत्यय होते हैं, (पक्ष में ख) । यड़कौ - IV. iv. 77 (द्वितीयासमर्थ धुर् प्रातिपदिक से 'ढोता है' अर्थ में) यत् और ढक् प्रत्यय होते हैं। यण् - VI. 1. 74. = (इक इ, उ, ऋ, लृ के स्थान में यथासङ्ख्य करके) यण्य्व्रल् आदेश होते हैं; (अच् परे रहते, संहिताविषय में) । यण - VI. Iv. 81 (इक् अङ्ग को) यणादेश होता है, (अच् परे रहते)। - ... यण्... - VII. iv. 77 देखें पुजि VII. Iv. 77 QUE - I. i. 44 यण् = य् र् ल् व् के स्थान में हुआ या होने वाला इक् = इ, उ, ऋ, लृ उसकी सम्प्रसारणसंज्ञा होती है)। यणः - VIII. ii. 4 - .. यत्... ... (उदात्त तथा स्वरित के स्थान में वर्तमान) यण से उत्तर (अनुदात्त के स्थान में स्वरित आदेश होता है)। यणादिपरम् - VI. I. 156 (स्थूल, दूर, युव, ह्रस्व, क्षित्र, क्षुद्र इन अों का) जो यणादि भाग, उसका (लोप होता है; इष्ठन् इमनिच् तथा ईयसुन परे रहते तथा उस यणादि से पूर्व को गुण होता है) । - - यण्वतः VIII. ii. 43 (संयोग आदि वाले आकारान्त एवं) यण्वान् धातु से उत्तर (निष्ठा के तकार को नकारादेश होता है)। यत्... - III. 1. 97 (अजन्त धातुओं से) यत् प्रत्यय होता है। .. यत्... III. ii. 21 देखें - दिवाविभा० III. I. 21 -I. iii. 67 (अण्यन्तावस्था में) जो (कर्म वही यदि ण्यन्तावस्था में कर्ता बन रहा हो तो ऐसी ण्यन्त धातु से आत्मनेपद होता है आध्यान उत्कण्ठापूर्वक स्मरण अर्थ को छोड़कर)। = Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यत् यत् - IV. 1. 137 (राजन् तथा श्वशुर प्रातिपदिकों से अपत्यार्थ में) यत् प्रत्यय होता है। यत्... देखें IV. i. 140 - - यड्डुकञी IV. 1. 140 यत् - IV. 1. 16 (सप्तमीसमर्थ शूल तथा उखा प्रातिपदिकों से 'सस्कृतं भक्षा' अर्थ में यत् प्रत्यय होता है। यत् - IV. ii. 30 (प्रथमासमर्थ देवतावाची वायु, ऋतु, पितृ तथा उषस् प्रातिपदिकों से षष्ठ्यर्थ में) यत् प्रत्यय होता है। यत् - IV. ii. 100 (दिव, प्राच अपा, उदच प्रतीच्― इन प्रातिपदिकों से शैषिक) यत् प्रत्यय होता है। यत् IV. 4 (अर्थ प्रातिपदिक से) शैषिक यत् प्रत्यय होता हैं। यत् - IV. iii. 54 (सप्तमीसमर्थ दिगादि प्रातिपदिकों से भव अर्थ में) यत् प्रत्यय होता है)। यत्... IV. iii. 64 देखें- यत्खौ IV. III. 64 — 426 यत् ... - IV. iii. 71 देखें- यदणौ IV. III. 71 यत् - IV. iii. 79 (पञ्चमीसमर्थ पितृ प्रातिपदिक से 'आगत' अर्थ में) यत् प्रत्यय होता है (तथा चकार से ढञ् प्रत्यय होता है)। यत् - IV. iii. 114 (तृतीयासमर्थ उरस् शब्द से एकदिक् अर्थ में) यत् प्रत्यय (तथा चकार से तसि प्रत्यय भी होता है। यत् - IV. iii. 120 (षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिक से 'इदम्' अर्थ में) यत् प्रत्यय होता है। -IV. iii. 157 (षष्ठीसमर्थ गो तथा पयस् शब्दों से विकार तथा अवयव अर्थों में) यत् प्रत्यय होता है। यत् - IV. iv. 75 (यहाँ से लेकर 'तस्मै हितम्' के पहले कहे जाने वाले अर्थों में सामान्येन यत् प्रत्यय का अधिकार रहेगा। यत् यत्... IV. iv. 77 देखें – यडुकौ IV. iv. 77 यत् - IV. iv. 116 (सप्तमीसमर्थ अग्र प्रातिपदिक से वेदविषयक भवार्थ में) यत् प्रत्यय होता है। यत् .... IV. iv. 130 देखें- यत्खौ IV. iv. 130 यत् - V. 1. 2 (उवर्णान्त तथा गवादिगण पठित प्रातिपदिकों से 'क्रीत' अर्थ से पहले पहले कहे हुये अर्थों में) यत् प्रत्यय होता है। यत् - V. 1. 6 (चतुर्थीसमर्थ शरीर के अवयववाची प्रातिपदिकों से 'हित' अर्थ में) यत् प्रत्यय होता है। यत् - V. 1.34 (अध्यर्द्ध शब्द पूर्ववाले तथा द्विगुसञ्ज्ञक पण, पाद, माष और शतशब्दान्त प्रातिपदिकों से 'तदर्हति' पर्यन्त कथित अर्थों में यत् प्रत्यय होता है। यत् - V. 1. 38 1 (सङ्ख्यावाची परिमाणवाची तथा अश्वादि प्रातिपदिकों को छोड़कर षष्ठीसमर्थ गो शब्द तथा दो अच् वाले प्रातिपदिकों से 'कारण' अर्थ में) यत् प्रत्यय होता है, (यदि वह कारण संयोग अथवा उत्पात हो तो)। यत् - V. 1. 48 = (प्रथमासमर्थ भाग प्रातिपदिक से सप्तम्यर्थ में) यत् प्रत्यय (तथा उन् प्रत्यय होते हैं, यदि 'वृद्धि' व्याज के रूप में दिया जाने वाला द्रव्य, 'आय' जमींदारों का भाग, 'लाभ' मूल द्रव्य के अतिरिक्त प्राप्य द्रव्य, 'शुल्क' = राजा का भाग तथा 'उपदा' 'दिया जाता है' क्रिया के कर्म हों तो) । यत् - V. 1. 64 = घूस - ये (द्वितीयासमर्थ शीर्षच्छेद प्रातिपदिक से 'नित्य ही समर्थ है' अर्थ में) यत् प्रत्यय (भी) होता है, (यथाविहित ढक् भी)। = Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 427 यत्खौ यत्... -V.i.80 देखें- यत्खनो v.i.80 यत् -V.1.99 (तृतीयासमर्थ कर्मन् तथा वेष प्रातिपदिकों से 'शोभित किया' अर्थ में) यत् प्रत्यय होता है। यत् - V.i. 101 (चतुर्थीसमर्थ योग प्रातिपदिक से 'शक्त है' अर्थ में) यत् प्रत्यय (तथा ठञ् प्रत्यय) होता है। यत् - V.i. 106 (प्रथमासमर्थ काल प्रातिपदिकों से षष्ठ्यर्थ में) यत् प्रत्यय होता है, (यदि वह प्रथमासमर्थ काल प्रातिपदिक प्राप्त समानाधिकरण वाला हो तो)। यत् - V.i. 124 (षष्ठीसमर्थ स्तेन प्रातिपदिक से भाव और कर्म अर्थ में) यत् प्रत्यय होता है (तथा स्तेन शब्द के न का लोप भी हो जाता है)। यत् -V.ii.3 (षष्ठीसमर्थ धान्यविशेषवाची यव, यवक, तथा षष्टिक प्रातिपदिकों से 'उत्पत्तिस्थान' अभिधेय हो तो) यत प्रत्यय होता है, (यदि वह उत्पत्तिस्थान खेत हो तो)। यत्... -V.ii. 16 देखें- यत्खौ v. ii. 16 यत्... - V.ii. 39 देखें- यत्तदेतेभ्यः V. ii. 39 ...यत्... -V.ii. 15 देखें-सर्वैकान्यov.ili. 15 ....यत्... -v.ili.92 देखें-किंयत्तदोः V. iii. 92 यत् -V.iii. 103 (शाखादि प्रातिपदिकों से इवार्थ में) यत प्रत्यय होता यत्... -VIII.i.30 देखें- यद्यदि० VIII. I. 30 यत्... -VIII. 1.56 देखें - यद्धितुपरम् VIII. I. 56 ....यत... -III. iii.90 देखें-यजयाच० III. iii. 90 यत: -II. iii.41 पत जिससे (निर्धारण हो, उससे भी षष्ठी और सप्तमी विभक्ति होती है)। यतः - VI. i. 207 (दो अचों वाले) यत्प्रत्ययान्त शब्दों को (आधुदात्त होता है,नौ शब्द को छोड़कर)। यति - VI. iii. 52 (अतदर्थ) यत् प्रत्यय के परे रहते (पाद शब्द को पद् आदेश होता है)। यति -VI. iv.65 (आकारान्त अङ्ग को ईकारादेश होता है), यत् प्रत्यय के परे रहते। ...यतो: -VI. ii. 156 देखें - ययतो: VI. ii. 156 ...यतौ-IV.i. 161 देखें-अव्यतौ IV.i. 161 ...यतौ-v.i.21 देखें- ठन्यतौ V.1.21 ....यतौ -v.i.97 देखें-णयतो V.i.97 यत्खनौ-V.1.80 (द्वितीयांसमर्थ कालवाची मास प्रातिपदिक से हो चुका' अर्थ में अवस्था गम्यमान होने पर) यत् और खञ् प्रत्यय होते हैं। यत्खौ -IV. iii.64 (सप्तमीसमर्थ वर्गान्त प्रातिपदिक से अशब्द प्रत्ययार्थ अभिधेय होने पर भव अर्थ में विकल्प से) यत् तथा ख प्रत्यय होते है। यत्खौ -IV.iv. 130 (ओजस प्रातिपदिक से मत्वर्थ में) यत् और ख प्रत्यय होते हैं; (दिन अभिधेय हो तो, वेद-विषय में)। यत् - V.iv. 24 (देवता शब्द अन्त वाले प्रातिपदिक से 'उसके लिये यह अर्थ में यत् प्रत्यय होता है। ...यत्... -VI. ill. 49 देखें-लेखयदण VI. III. 49 Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यत्खौ यखौ - V. ii. 16 (द्वितीयासमर्थ अध्वन् प्रातिपदिक से 'पर्याप्त जाता है' अर्थ में) यत् और ख प्रत्यय होते हैं। यत्तदेतेभ्यः - V. ii. 39 (प्रथमासमर्थ परिमाण समानाधिकरणवाची) यत्, तत् तथा एतद् प्रातिपदिकों से (षष्ठ्यर्थ में वतुप् प्रत्यय होता है) । ... यल... - I. iii. 47 देखें - भासनोपसम्भाषाo I. III. 47 यत्र - VI. 1. 155 जिस अनुदात्त के परे रहते (उदात्त का लोप होता है, उस अनुदात्त को भी आदि उदात्त हो जाता है)। ...कायुक्तम् - VIII. 1. 30 देखें पचादि० VIII. 1. 30 ... यत्रयोः - III. II. 148 देखें - यच्चायो III. III. 148 यत्समया II. i. 14 जिसका समीपवाची (अनु सुबन्त हो, उस लक्षणवाची सुबन्त के साथ विकल्प करके 'अनु' समास को प्राप्त होता है और वह अव्ययीभाव समास होता है)। - ... यथा.... - II. 1. 6 देखें - विभक्तिसमीपसमृद्धि II. I. - यथा - II. 1. 7 'यथा' यह अव्ययपद (असादृश्य अर्थ में समर्थ सुबन्त के साथ समास को प्राप्त होता है और वह समास अव्ययीभाव सञ्ज्ञक होता है)। यथा... III. iv. 28 देखें - यथातथयो: III. iv. 28 - यथाकथाच... - V. 1. 97 देखें- यथाकथाचहस्ताभ्याम् V. 1. 97 यदाकदाचहस्ताभ्याम् - V. 1. 97 (तृतीयासमर्थ) यथाकथाच तथा हस्त प्रातिपदिकों से (यथासङ्ख्य करके ण और यत् प्रत्यय होते है, 'दिया जाता है' और 'कार्य' अर्थों में)। - - VII. iii. 31 428 यथातथ... देखें - यथातथयथापुरयो: VII. iii. 31 यथातथयथापुरयो: - VII. iii. 31 (न से उत्तर) यथातथ तथा यथापुर अगों के (पूर्वपद एवं उत्तरपद के शब्दों में आदि अच् को पर्याय से वृद्धि होती है; ञित् णित् तथा कित् तद्धित परे रहते ) । यथातथयोः III. iv. 28 - यथोपदिष्टम् यथा और तथा शब्द उपपद रहते (निन्दा से प्रत्युत्तर गम्यमान हो तो कृञ् धातु से णमुल् प्रत्यय होता है, यदि कृञ का अप्रयोग सिद्ध हो)। ... यथापुरयो - VII. III. 31 देखें- यथातथयथापुरयो: VII. I. 31 = ... यथाभ्याम् - VIII. 1. 36 देखें - यावद्यथाभ्याम् VIII. 1. 36 यथामुख... - V. ii. 6 देखें1- यथामुखसम्मुखस्य V. 11. 6 यथामुखसम्मुखस्य - V. 1. 6 षष्ठीसमर्थ यथामुख तथा सम्मुख प्रातिपदिकों से (दर्शन' शीशा अर्थ में ख प्रत्यय होता है)। यथायथम् - VIII. 1. 14 (यथास्वम् अर्थ में) यथायथ शब्द निपातन है तथा इसे कर्मधारयवत् कार्य भी होता है) । यथाविधि - III. Iv. 4 (पूर्व के लोट्- विधायक सूत्र में) जिस धातु से लोट् का विधान किया गया हो, पश्चात् उसी धातु का (अनुप्रयोग होता है। यथाविधि - III. Iv. 46 (कषादि धातुओं में ) यथाविधि (अनुप्रयोग होता है) अर्थात् जिस धातु से णमुल् का विधान करेंगे, उसका ही पश्चात् प्रयोग होगा । यथासङ्ख्यम् - L. III. 10 (सम सङ्ख्या वाले शब्दों के स्थान में पीछे आने वाले शब्द) यथाक्रम होते है। यथास्वे - VIII. 1. 14 यथास्वम् अर्थ में (यथायथम् शब्द निपातन है तथा इसे कर्मधारयवत् कार्य भी होता है) । यथोपदिष्टम् - VI. iii. 108 (पृषोदर इत्यादि शब्दरूप) शिष्टों के द्वारा जिस प्रकार उच्चरित हैं, वैसे ही साधु माने जाते है। Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदणी 420 .30 यदणी-IV. iii. 71 ...यन्त.. - VII. ii.5 (षष्ठी-सप्तमीसमर्थ व्याख्यातव्यनाम छन्दस प्रातिप- देखें -हम्यन्तक्षण VII. 1.5 दिक से भव और व्याख्यान अर्थों में) यत और अण यप् -V.i. 81 प्रत्यय होते हैं। (द्विगुसज्जक मासशब्दान्त प्रातिपदिक से आस्था यदि -III. ii. 113 अभिधेय हो तो 'हो चुका' अर्थ में) यप् प्रत्यय होता है। यप्-V.ii. 120 (स्मरणार्थक) यत् शब्द उपपद हो तो (अनद्यतन भूत (आहत और प्रशंसा अर्थों में वर्तमान रूप प्रातिपदिक काल में धातु से लुट् प्रत्यय नहीं होता)। से 'मत्वर्थ' में) यप् प्रत्यय होता है। यदि -III. iii. 168 यम् -I. iv. 32 (काल,समय, वेला और) यत् शब्द उपपद हो (तो धातु (करणभत कर्म के द्वारा) जिसको (अभिप्रेत किया जाये, से लिङ् प्रत्यय होता है)। उस कारक की सम्प्रदान संज्ञा होती है)। यदि-III. iv. 23 यम् -I. iv. 36 (समानकर्तावाले धातुओं में से पूर्वकालिक धात्वर्थ में (क्रुध,दूह, ईर्घ्य तथा असूय-इन अर्थों वाली धातुओं वर्तमान धातु से) यद् शब्द के उपपद होने पर (क्त्वा, के प्रयोग में) जिसके (ऊपर कोप किया जाये,उस कारक णमुल प्रत्यय नहीं होते,यदि अन्य वाक्य की आकाङ्क्षा की सम्प्रदान संज्ञा होती है)। न रखनेवाला वाक्य अभिधेय हो)। यम.. -I. iii. 28 ...यदि... - VIII. 1. 30 . देखें-यमहनः I. iii. 28 देखें- यद्यदिO VIII. I. 30 यम... -VII. ii. 73 '...यदो: - III. iii. 147 देखें- यमरमनमाताम् VII. II. 73 देखें-जातुयदोः III. iii. 147 यमः -I.ii. 15 यद्धितुपरम् -VIII. 1.56 (गन्धन अर्थ में वर्तमान) यम धातु से परे (आत्मनेपद __ यत्परक, हिपरक तथा तुपरक (तिङ को वेद-विषय में विषय में सिच् प्रत्यय कित्वत् होता है)। अनुदात्त नहीं होता)। यमः -I. iii. 56 यद्यदिहन्तकुविनेच्चेच्चण्कच्चिधत्रयुक्तम् - VIII. I. ___ (पाणिग्रहण अर्थ में वर्तमान उप पूर्वक) यम् धातु से 30 (आत्मनेपद होता है)। ... यत्, यदि,हन्त, कुवित्, नेत, चेत्, चण, कच्चित्, यत्र- यमः -I. iii. 75 इन निपातों से युक्त (तिडन्त को अनुदात्त नहीं होता)। (सम्, उत् एवं आङ् से उत्तर) यम् धातु से (आत्मनेपद यवृत्तात् - VIII. 1.66 होता है; क्रियाफल के कर्ता को मिलने पर, यदि ग्रन्थयद शब्द से घटित पद से अव्यवहित अथवा व्यवहित विषयक प्रयोग न हो तो) उत्तर (तिडन्त को नित्य ही अनुदात्त नहीं होता)। ...यमः -III. 1. 100 देखें- गदमदचरयमः III. 1. 100 यन् -IVii.41 यमः -III. ii. 40 (षष्ठीसमर्थ ब्राह्मण,माणव तथा वाडव प्रातिपदिकों से) यम् धातु से (वाक् कर्म उपपद रहते व्रत गम्यमान होने यन् प्रत्यय होता है। पर खच् प्रत्यय होता है)। यन् - IV.iv. 114 यमः -III. iii. 63 (सप्तमीसमर्थ सगर्भ,सयथ.सन्त-इन प्रातिपदिकों (सम्, उप,नि,वि उपसर्ग पूर्वक तथा विना उपसर्ग भी) से वेदविषयक भवार्थ में) यन् प्रत्यय होता है। यम् धातु से (कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में विकल्प से अप् प्रत्यय होता है) पक्ष में घञ्। Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यमरमनमाताम् यमरमनमाताम् - VII. ii. 73 यम, रमु णम तथा आकारान्त अङ्ग को (सक् आगम होता है तथा सिच् को परस्मैपद परे रहते इट् का आगम होता है। यमहनः - I. iii. 28 (आङ् उपसर्ग से उत्तर अकर्मक) यम् तथा हन् धातुओं से (आत्मनेपद होता है)। .. यमाम् - VII. iii. 77 देखें — - इयुगमियमाम् VII. I. 77 यमाम् - VIII. iv. 63 (हल् से उत्तर) यम् का (यम् परे रहते विकल्प से लोप होता है। यमि - VIII. iv. 63 (हल् से उत्तर यम् का) यम् परे रहते (विकल्प से लोप होता है)। ययतो - VI. II. 156 (गुणप्रतिषेध अर्थ में नल से उत्तर अतदर्थ में वर्तमान) जो य तथा यत् (तद्धित प्रत्यय, तदन्त उत्तरपद को (भी अन्त उदात्त होता है)। ययि - VIII. iv. 57 (अनुस्वार को) यय् प्रत्याहार परे रहते (परसवर्ण आदेश होता है)। यर: - VIII. iv. 44 - (पदान्त) यर् प्रत्याहार को (अनुनासिक परे रहते विकल्प से अनुनासिक आदेश होता है ) । य - Viv. 131 .(वेशस् और यशस् आदिवाले भग शब्दान्त प्रातिपदिक से मत्वर्थ में) यल प्रत्यय होता है, (वेदविषय में)। ... यलोप.... - I. 1. 57 देखें ... यव... देखें — - पदान्तद्विर्वचनवरे I. 1. 57 - 430 . IV. 1. 48 - ... यव... - V. 1. 7 देखें खलयवमाष० V. 1. 7 यव.. - V. ii. 3 देखें इन्द्रवरुणभवo IV. 1. 48 यवयवकo Vii. 3 ... यवक... - V. ii. 3 देखें - यवयवकo V. ii. 3 ... यवन... - IV. 1. 48 देखें - इन्द्रवरुणभवo IV. 1. 48 ... यवबुसात् - IV. II. 48 देखें - ... यवाभ्याम् - IV. iii. 146 देखें - तिलयवाभ्याम् IV. iii. 146 ... यवम् - VI. ii. 78 देखें - गोतन्तियवम् VI. ii. 78 यवयवकषष्टिकात् - V. ii. 3 कलाप्यश्वत्यo IV. iii. 48 (षष्ठीसमर्थ धान्यविशेषवाची) यव, यवक तथा षष्टिक प्रातिपदिकों से (उत्पत्तिस्थान' अभिधेय हो तो यत् प्रत्यय होता है, यदि वह उत्पत्तिस्थान खेत हो तो) । ... यवाग्वोः - IV. ii. 135 देखें- गोयवाग्वो: IV. II. 135 ....यश आदे. - IV. Iv. 131 देखें वेशीवशआदे IV. iv. 131 - ... यष्ट्यो - IV. Iv. 59 देखें शक्तियष्ट्यो: IV. Iv. 59 यसः - - यस्मात् III. i. 71 प्रयत्नार्थक यसु धातु से (उपसर्गरहित होने पर विकल्प से श्यन् प्रत्यय होता है, कर्तृवाची सार्वधातुक परे रहने पर)। ... यसः - V. ii. 138 देखें- बभस् VII. 138 यस्कादिभ्य - II. iv. 63 यस्क आदि गणपठित शब्दों से परे (स्त्रीवर्जित गोत्र में विहित प्रत्यय का बहुत्व की विवक्षा में लुक् होता है; यदि उस गोत्र- प्रत्यय के द्वारा किया बहुत्व हो तो)। यस्मात् - 1. Iv. 13 जिस (धातु या प्रातिपदिक) से (प्रत्यय का विधान किया जाये, उस प्रत्यय के परे रहते उस धातु या प्रातिपदिक का आदि वर्ण है आदि जिसका, उस समुदाय की अंग संज्ञा होती है)। यस्मात् - II. iii. 9 जिससे अधिक हो और जिसका सामर्थ्य हो, उसमें कर्मप्रवचनीय के योग में सप्तमी विभक्ति होती है)। Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यस्मात् 431 याप्ये ...याच्... - VII. I. 39 देखें -सुलुक्० VII. I. 39 ...याच... -III. iii. 90 देखें- यजयाच III. iii.90 ...याच... -VII. iii.66 देखें- यजयाच० VII. iii.66 ...याचिताभ्याम् - IV. iv.21 देखें - अपमित्ययाचिताभ्याम् IV. iv. 21 ...याजकादि... - VI. ii. 150 देखें-मन्वितन्० VI. ii. 150 याजकादिभिः -II. ii.9 याजक आदि गण-पठित सुबन्तों के साथ (भी षष्ठ्यन्त सुबन्त का समास होता है और वह तत्पुरुष समास होता यस्मात् - II. iii. 11 जिससे (प्रतिनिधित्व और जिससे प्रतिदान हो, उससे कर्मप्रवचनीय के योग में 'पञ्चमी' विभक्ति होती है)। यस्य-1.1.72 जिस समुदाय के (अचों में आदि अच वृद्धिसंज्ञक हो. उस समुदाय की वृद्धसंज्ञा होती है)। यस्य-I. iv. 39 (राध तथा ईक्ष धातुओं के प्रयोग में) जिसके विषय में (विविध प्रश्न हों,उस कारक की सम्प्रदान संज्ञा होती है)। यस्य-II.i. 15 जिसका विस्तारवाची अन है उस लक्षणवाची समर्थ सुबन्त के साथ भी अनु विकल्प से समास को प्राप्त होता है और वह अव्ययीभाव समास होता है)। यस्य -II. 1.9 (जिससे अधिक हो और) जिसका (सामर्थ्य हो, उसमें कर्मप्रवचनीय के योग में सप्तमी विभक्ति होती है)। यस्य - II. iii. 37 जिसकी (क्रिया से क्रियान्तर लक्षित होवे उसमें भी सप्तमी विभक्ति होती है)। यस्य - VI. iv. 49 (हल् से उत्तर) 'य' का (लोप होता है, आर्धधातुक परे रहते)। . यस्य - VI. iv. 148 • (भसज्ञक) इवर्णान्त तथा अवर्णान्त अङ्ग का (लोप होता है, ईकार तथा तद्धित के परे रहते)। यस्य - VII: ii. 15 जिस धातु को (कहीं भी इट् विधान विकल्प से किया गया हो, उसको निष्ठा के परे रहते इडागम नहीं होता)। ...या... -VII.i.39 देखें-सुलु VII. I. 39 या-VII. 1.80 (अकारान्त अङ्ग से उत्तर सार्वधातुक के) या के स्थान में (इय आदेश होता है)। या... -VII. iii. 45 देखें-यासयो: VII. iii. 45 ...याज्ञिक... - IV. iii. 128 देखें - छन्दोगौक्थिकयाज्ञिक० IViii. 128 याज्यान्तः -VIII. ii. 90 याज्या नाम की ऋचाओं के अन्त की (टि को यज्ञकर्म में प्लुत उदात्त होता है)। याट् - VII. iii. 113 (आबन्त अङ्ग से उत्तर डित् प्रत्यय को) याट् आगम होता है। ...यति... - VIII. iv. 17 देखें - गदनद० VIII. iv. 17 ...यातूनाम् -IV.iv. 121 देखें-रक्षोयातूनाम् IV. iv. 121 यादेः - VII. iii.2 (केकय,मित्रयु तथा प्रलय अङ्गों के) य् आदि वाले भाग को (इय आदेश होता है; जित, णित, कित् तद्धित परे रहते)। यापनायाम् - V. iv.60 'अतिक्रमण' अर्थ गम्यमान हो तो (समय प्रातिपदिक से डाच् प्रत्यय होता है, कृञ् के योग में)। याप्ये - V. iii. 47 'निन्दा' अर्थ में वर्तमान (प्रातिपदिकों से पाशप प्रत्यय होता है)। Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यावत् 432 युक्तः यावत् -II.1.8 'यावत्' यह (अव्ययपद अवधारण = इयत्तापरिच्छेद अर्थ में समर्थ सुबन्त के साथ अव्ययीभाव समास को प्राप्त होता है)। यावत्... -III. iii.4 देखें- यावत्युरानिपातयोः III. iii.4 यावत्... - VIII. I. 36 देखें-यावधथाभ्याम् VIII. 1.36 . यावति-III. iv. 30 यावत् शब्द उपपद रहते (विदल लाभे) तथा जीव प्राणधारणे धातुओं से णमुल् प्रत्यय होता है)। यावत्पुरानिपातयोः -III. lii. 4 यावत् तथा पुरा निपात उपपद हों तो (भविष्यत् काल में धातु से लट् प्रत्यय होता है)। यावयधाभ्याम् -VIII. 1. 36 यावत् तथा यथा से युक्त (तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता)। यावादिभ्यः - V. iv. 29 यावादि प्रातिपदिकों से (स्वार्थ में कन् प्रत्यय होता है)। याव = जो से तैयार किया गया आहार,लाख,लाल रंग। यासयो: - VII. Iii. 45 (प्रत्यय में स्थित ककार से पूर्व) या तथा सा के (अकार के स्थान में इकारादेश नहीं होता)। . यासुट् - III. iv. 103 (परस्मैपदविषयक लिङ् लकार को) यासुट का आगम होता है (और वह उदात्त तथा डिदत भी होता है)। यि-VI.1.16 यकारादि प्रत्यय के परे रहते (एच के स्थान में संहिता के विषय में वकार अन्तवाले अर्थात अव. आव आदेश होते है)। यि-VI. iv. 116 (ओहाक अङ्गका लोप होता है); यकारादि (कित.डित सार्वधातुक) परे रहते। यि-VII.i. 65 (आङ् से उत्तर) यकारादि प्रत्यय के विषय में (लम् अङ्ग को नुम् आगम होता है)। यि - VII. iv. 22 यकारादि (कित, डित) प्रत्यय परे रहते (शीङ् अङ्ग को . अयङ् आदेश होता है)। यि... - VII. iv. 53 देखें-यीवर्णयो: VII. iv. 53 यिट् -VI. iv. 159 (बहु शब्द से उत्तर इष्ठन् को) यिट् आगम. होता है, (तथा बहु शब्द को भू आदेश भी होता है)। .. यीवर्णयोः - VII. iv.53 (दीधीङ् तथा वेवीङ् अङ्ग का) यकारादि एवं इवर्णादि प्रत्यय के परे रहते (लोप होता है)। ....यु... -III. 1. 126 देखें - आसुयुवपि० III. 1. 126 यु... -III. iii. 32 देखें - युदुवः III. iii. 32 यु... - VI. iv. 58 देखें-युप्लुवोः VI. iv.58 यु... - VII.i.1 देखें - युवो: VII.i.1 ...यु... - VII. ii. 49 . देखें-इवन्त VII. 1. 49 युक्-VII. iii. 33 (आकारान्त अङ्ग को चिण तथा जित्, णित् कृत् प्रत्यय परे रहते) युक् आगम होता है। युक् - VII. il. 37 (शो, छो, षो, ह्वेज, व्ये, वे, पा - इन अङ्गों को णि परे रहते) युक् आगम होता है। युक्तः -V. 1.3 (नक्षत्रविशेषवाची तृतीयासमर्थ प्रातिपदिक से 'उन नक्षत्रों से) युक्त काल कहने में (यथाविहित अण प्रत्यय होता है)। Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्तम् 433 युधिकृतः युक्तम् -I. iv. 50 युच् - III. iii. 128 (जिस प्रकार कर्ता का अत्यन्त ईप्सित कारक क्रिया के (आकारान्त धातुओं से कृच्छ्र तथा अकृच्छ्र अर्थों में साथ युक्त होता है, उसी प्रकार कर्ता का न चाहा हुआ ईषद्, दुर, सु उपपद रहते) युच् प्रत्यय होता है। कारक क्रिया के साथ) युक्त हो,तो (उसकी भी कर्म संज्ञा ...युज... -III. 1.61 होती है)। . देखें- सत्सू III. 1. 61 युक्तवत् - I. ii. 51 ....युज... -III. ii. 142 (प्रत्ययलुप होने पर तदर्थ में लिङ्ग और वचन) प्रकृत्यर्थ देखें - सम्पृचानुरुध० III. ii. 142 के समान हों। ...युज... -III. ii. 182 देखें-दाम्नी III. ii. 182 युक्तारोह्यादयः – VI. ii. 81 ....युजि... -III. ii. 59 युक्तारोही आदि समस्त शब्दों का (भी आदिस्वर उदात्त । देखें-ऋत्विम्दधृक् III. 1.59 होता है)। युजे: -I. iii. 64 युक्ते - VI. ii. 66 (अयज्ञपात्र विषय में प्र तथा उपपूर्वक) 'युजिर योगे' - युक्तवाची समास में (भी पूर्वपद को आधुदात्त होता धातु से (आत्मनेपद हो जाता है)। युजे: - VII.1.71 ....युग... -IV.iv.76 (असमास में) युजि अङ्ग को (सर्वनामस्थान परे रहते देखें- रथयुगप्रासङ्गम् IV. iv.76 नुम् आगम होता है)। ....युगन्धराभ्याम् - IV. iv. 129 युट् - VI. iv. 63 देखें- कुरुयुगन्धराभ्याम् IV. iv. 129 __ (अजादि कित, डित् प्रत्ययों के परे रहते दीङ् धातु से युगपत् – VI. ii. 51 उत्तर) युट् का आगम होता है। (तवै प्रत्यय को अन्त उदात्त भी होता है तथा अव्यवहित युद्धे -III. Iii. 73 पूर्वपद गति को भी प्रकृतिस्वर) एक साथ (होता है)। युद्ध अभिधेय हो (तो आपूर्वक हेज् धातु को सम्प्रयुगपत् - VI. ii. 140 सारण तथा अप् प्रत्यय होता है)। (वनस्पत्यादि समस्त शब्दों में दोनों = पूर्व तथा उत्त- युद्धकः -III. iii. 23 रपद को) एक साथ (प्रकृतिस्वर होता है)। (सम् पूर्वक) यु,द्रु तथा दु धातुओं से (कर्तृभिन्न कारक युग्यम् -III. I. 121 संज्ञा तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है)। (वाहन को कहना हो तो) क्यप् प्रत्ययान्त युग्य शब्द __...युध.. -I. iii. 86 निपातन होता है। देखें - बुधयुधनशजने I. iii. 86 ...युध... - V.i. 120 युच् - III. ii. 148 देखें-अचतुरमंगल० V. 1. 120 '(अकर्मक,चलनार्थक और शब्दार्थक धातुओं से तच्छी युधि.. - III. ii. 95 लादि कर्ता हो, तो वर्तमान काल में) युच् प्रत्यय होता है। देखें- युधिकृतः III. ii. 95 यु -III. ill. 107 युधिकृषः-III. 1.95 (ण्यन्त धातुओं, आस् तथा श्रन्थ् धातुओं से स्त्रीलिङ्ग (राजन कर्म उपपद रहते) युध तथा कृञ् धातुओं से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में) युच् प्रत्यय होता है। (भतकाल में क्वनिप् प्रत्यय होता है)। Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... युधिभ्याम् ... युधिभ्याम् - VIII. III. 95 देखें – गवियुधिभ्याम् VIII. iii. 95 युप्लुवो: - VI. iv. 58 (वेद-विषय में) 'यु मिश्रणे' तथा 'प्लुङ् गती' धातु को (दीर्घ होता है, ल्यप् परे रहते ) । युव..... Viii. 64 देखें- युवास्पयो Viii 64 - ... युव... - VI. iv. 133 देखें- श्वयुवमघोनाम् VI. Iv. 133 ... युव... - VI. iv. 156 देखें - स्थूलदूरo VI. iv. 156 - युव.... VII. ii. 92 देखें- युवावौ VII. 1. 92 ..... युवति... - 11.1.64 देखें- पोटायुवतिस्तोक० II. 1. 64 434 युवा - II. 1. 66 युवन् शब्द (समानाधिकरणवाची खलति, पलित, वलिन और जरती इन सुबन्तों के साथ विकल्प से तत्पुरुष समास को प्राप्त होता है)। - .. युवादिभ्यः - V. 1. 130 देखें - हायनान्तयुवादिभ्य V. 1. 130 युवाल्पयो: - V. iii. 64 युव और अल्प शब्दों के स्थान में (विकल्प से कन् आदेश होता है; अजादि अर्थात् इष्ठन्, ईयसुन् प्रत्यय परे रहते । युवावी - - - VII. ii. 96 (द्विवचनविषयक युष्मद् अस्मद् अङ्ग के मपर्यन्त भाग के स्थान में क्रमशः) युव, आव आदेश हो जाते हैं। युवोः - VII. 1. 1 i. युष्पत्... - VIII. iii. 103 देखें पुष्पत्तत्ततक्षुःषु VIII. III. 103 युष्पत्... - VI. 1. 205 देखें- युष्मदस्मदो VI. 1. 205 - युष्मत्तत्ततक्षुः षु - VIII. iii. 103 (इण् तथा कवर्ग से उत्तर सकार को तकारादि) युष्मत्, तत् तथा ततक्षुस् परे रहते (मूर्धन्यादेश होता है, यदि वह सकार पाद के मध्य में वर्तमान हो तो) । युष्मद्... - IV. iii. 1 देखें- युष्मदस्मदो IV. III. 1 युष्मद्... - VII. 1. 27 देखें- युष्मदस्मद्भ्याम् VII. 1. 27 युष्मद्... - VII. ii. 86 देखें - युष्मदस्मदो: VII. ii. 86 - युष्मद् VIII. 1. 20 देखें - युष्मदस्मदो: VIII. 1. 20 युष्मदस्मदोः IV. iii. 1 युष्मद् तथा अस्मद् शब्दों से (खत्र तथा चकार से छ प्रत्यय विकल्प से होते हैं, पक्ष में औत्सर्गिक अण् होता है) । - युवा - IV. 1. 163 (पौत्रप्रभृति का जो अपत्य, उसकी पिता इत्यादि के है, डस् परे रहते ) । जीवित रहते) युवा संज्ञा (ही होती है)। युष्मदस्मदोः VI. i. 205 युष्मत् तथा अस्मद् शब्दों के (आदि को उदात्त होता - युष्मदि युष्मदस्मदोः - VII. II. 81 युष्मद् तथा अस्मद् अङ्ग को (आदेशरहित विभक्ति के परे रहते आकारादेश होता है) । युष्मदस्मदो: - VIII. 1. 20 (पद से उत्तर षष्ठ्यन्त चतुर्थ्यन्त तथा द्वितीयान्त अपादादि में वर्तमान) युष्मद् तथा अस्मद् शब्दों के स्थान में (क्रमशः वाम् तथा नौ आदेश होते हैं एवं उन आदेशों को अनुदात्त भी होता है)। - युष्मदस्मद्भ्याम् VII. 1. 27 युष्मत् तथा अस्मत् अङ्ग से उत्तर (डस् के स्थान में अश् आदेश होता है)। (अङ्गसम्बन्धी) यु तथा वु के स्थान में (यथासङ्ख्य युष्पदि - I. Iv. 104 करके अन तथा अक आदेश होते है)। युष्मद् शब्द के उपपद रहते (समान अभिधेय होने पर युष्मद् शब्द का प्रयोग न हो या हो तो भी मध्यम पुरुष होता है। Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युष्याक... युष्माक... - IV. iii.2 यूय... - VII. ii. 3 देखें - युष्माकास्माको IV. iii. 2 देखें - यूयवयौ VII. ii. 93 युष्पाकास्माको - IV. i. 2 यूयवयौ-VII. 1. 93 (उस खञ् तथा अण् प्रत्यय के परे रहते युष्मद् अस्मद् (जस विभक्ति परे रहते युष्मद् अस्मद् अङ्गके मपर्यन्त के स्थान में यथासङ्ख्य) युष्माक, अस्माक आदेश होते भाग को क्रमशः) यूय, वय आदेश होते हैं। यूषन् -VI.i. 61 . युस् - V. it. 123 (ऊर्णा प्रातिपदिक से मत्वर्थ' में) युस् प्रत्यय होता है। (वेदविषय में यूष शब्द के स्थान में) यूषन् आदेश हो जाता है,(शस प्रकार वाले प्रत्ययों के परे रहते)। ...युस्... -v.. 138 ये - VI. 1.60 देखें-बभयुस० V.ii. 138 युस् - V. ii. 140 यकारादि (तद्धित) के परे रहते (भी शिरस् को शीर्षन् (अहम् तथा शुभम् प्रातिपदिकों से मत्वर्थ में) यस आदेश हो जाता है)। प्रत्यय होता है। ये - VI. iii. 86 यू-I. iv.3 (तीर्थ शब्द उत्तरपद हो तो) य प्रत्यय परे रहते (समान ईकारान्त तथा ऊकारान्त (स्त्रीलिङ्गको कहने वाले शब्द शब्द को स आदेश हो जाता है)। नदीसझक होते हैं)। ये-VI. iv. 43 . ...यूति... - III. ii. 97 यकारादि (कित, ङित्) प्रत्ययों के परे रहते (जन, सन, • देखें - ऊतियूति. III. iii. 97 खन अङ्गों को विकल्प से आकारादेश हो जाता है)। यून-IV.i.77 ये - VI. iv. 109 यवन शब्द से (स्त्रीलिङ्ग में ति प्रत्यय होता है और वह यकारादि प्रत्यय परे रहते (भी कृ अङ्ग से उत्तर उकार तद्धित होता है)। प्रत्यय का नित्य ही लोप होता है)। यूना -I. 1.65 ये-VI. iv. 168 युवा प्रत्ययान्त शब्द के साथ (वृद्ध = गोत्रप्रत्ययान्त (भाव तथा कर्म से भिन्न अर्थ में वर्तमान) यकारादि शब्द शेष रह जाता है,यदि वृद्ध-युव-प्रत्ययनिमित्तक ही (तद्धित) के परे रहते भी (अन्नन्त भसजक अङ्गको प्रकृभेद हो तो)। तिभाव हो जाता है)। .. यूनि-II. iv. 58 ये - VIII. ii. 88 (ण्यन्त गोत्रप्रत्ययान्त, तद्धितवाची गोत्रप्रत्ययान्त) ऋषि __'ये' शब्द को (यज्ञ की क्रिया में प्लुत उदात्त होता है)। वाची गोत्रप्रत्ययान्त तथा जित्प्रत्ययान्त युवा अपत्य में विहित (अण और इबू का लुक होता है)। येन-I.i.71 यूनि - IV. 1. 90 जिस विशेषण से (विधि की जाये.वह विशेषण अन्त (प्राग्दीव्यतीय अजादि प्रत्यय की विवक्षा में) युवा अर्थ में है जिसके, उस विशेषणान्त समुदाय का ग्राहक होता में उत्पन्न प्रत्यय का (लुक हो जाता है)। है और अपने स्वरूप का भी)। यूनि - IV. 1. 94 येन -I. iv. 28 युवापत्य की विवक्षा होने पर (गोत्र से ही युवापत्य में . (व्यवधान के कारण) जिससे छिपना चाहता हो, उस प्रत्यय हो, अनन्तरापत्य या प्रथम प्रकृति से नहीं, स्त्री कारक की अपादान संज्ञा होती है)। अपत्य को छोड़कर)। Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ येन येन - II. iii. 20 जिस (विकृत अङ्ग) के द्वारा (अङ्गी का विकार लक्षित हो, उसमें तृतीया विभक्ति होती है) । येन - III. iii. 116 जिस कर्म के (संस्पर्श से कर्त्ता को शरीर सुख उत्पन्न हो, ऐसे कर्म के उपपद रहते भी धातु से ल्युट् प्रत्यय होता है)। येषाम् – 11. Iv. 9 -- जिन जीवों का (सनातन विरोध है. तहाची शब्दों का द्वन्द्व भी एकवत् होता है)। ...यो. - VI. 1. 64 देखें व्यो] VI. 1. 64 - ... यो. - VIII. iii. 18 देखें • व्यो: VIII. iii, 18 - योगप्रमाणे - Iii. 55 सम्बन्ध को प्रमाणवाचक मानकर यदि संज्ञा हो तो (भी उस सम्बन्ध के हट जाने पर उस संज्ञा का अंदर्शन होना चाहिये, पर वह होता नहीं है अर्थात् पञ्चालादि संज्ञायें जनपद - विशेष की हैं, सम्बन्धनिमित्तक नहीं ) । योगात् - V. 1. 101 436 (चतुर्थीसमर्थ) योग प्रातिपदिक से (शक्त है' अर्थ में यत् और उन प्रत्यय होते हैं। योगाप्रख्यानात् - 1. ii. 54 निवासादि सम्बन्ध की अप्रतीति होने से (लुब्विधायक सूत्र भी नहीं कहे जा सकते) । योजनम् V. 1. 73 - (द्वितीया समर्थ) योजन प्रातिपदिक से (जाता है' अर्थ में यथाविहित ठञ् प्रत्यय होता है ) । ....योदयृभ्यः - IV. ii. 55 देखें प्रयोजनयोदयध्य IV. II. 55 - ... योनिसम्बन्धेभ्यः - VI. iii. 22 देखें विद्यायोनिo VI. III. 22 ... योनिसम्बन्धेभ्यः - IV. 1. 77 देखें विद्यायोनिसम्बन्येभ्यः IV. 1. 77 .... योपधात् - IV. 1. 120 देखें धन्ययोपधात् IV. 1. 120 योपधात् V. 1. 131 - - (षष्ठीसमर्थ) यकार उपधा वाले (गुरु है उपोत्तम जिसका, ऐसे) प्रातिपदिक से (भाव और कर्म अर्थों में वुन प्रत्यय होता है)। यौ - II. iv. 57 (आर्धधातुक) युच् प्रत्यय परे रहते (अज् को वी आदेश होता है। ... यौ - IV. iv. 133 देखें - इनयौ IV. iv. 133 - ... यौगपद्य... - II. 1. 7 देखें विभक्तिसमीपसमृद्धि 11.1.7 ..... यौति ..... - III. III. 49 देखें - श्रयतियौतिo III. III. 49 खौ - ... यौधेयादिभ्य - IV. 1. 176 *** देखें - प्राच्यभर्गादि० IV. 1. 176 .. यौधेयादिभ्यः - V. iii. 117 देखें - पार्वादियांचे० . . 117 व्याभ्याम् VII. III. 3 (पदान्त) यकार तथा वकार से उत्तर (जित्, णित्, कित् तद्धित परे रहते अङ्ग के अचों में आदि. अच् को वृद्धि नहीं होती, किन्तु उन यकार, वकार से पूर्व तो क्रमशः ऐ और औ आगम होते है) । zat: - VI. iv. 77 (रंतु प्रत्ययान्त अङ्ग तथा इवर्णान्त, उवर्णान्त (धातु एवं भ्रू शब्द) को (इङ, उवङ् आदेश होते हैं, अच् परे रहते) । खौ - VIII. ii. 108 ; (उनके अर्थात् प्लुत के प्रसंग में एच के उत्तरार्ध को जो इकार, उकार पूर्व सूत्र से विधान कर आये हैं उन इकार उकार के स्थान में क्रमशः) य्. व् आदेश हो जाते है; (अच् परे रहते, सन्धि के विषय में) । Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 437 राक्ष... र्-प्रत्याहारसूत्र XII आचार्य पाणिनि द्वारा अपने तेरहवें प्रत्याहारसूत्र में इत्सद्धार्थ पठित वर्ण। र... - VIII. ii. 76 . देखें-वों: VIII. 1.76 र... -VI. iv. 47 देखें- रोपघयोः VI. iv. 47 र - प्रत्याहारसूत्र V आचार्य पाणिनि द्वारा अपने पञ्चम प्रत्याहारसूत्र में पठित चतुर्थ वर्ण। पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्णमाला का तेरहवां वर्ण। । र-IV.i.7 (वमन्त प्रातिपदिकों से स्त्रीलिङ्ग में डीप् प्रत्यय होता है, तथा उस वमन्त प्रातिपदिक को) रेफ अन्तादेश भी होता ' ...... -IV. 1.79 देखें-दुच्छण्कठ० IV. ii. 79 . र.. -V. iii.4 देखें- रथो: V.iii.4 ....... -VII. 1.2 ' देखें- बान्तस्य VII. il.2 र... -VIII. 1.42 देखें-रदाभ्याम् VIII. ii. 42 र..-VIII. iv.1 देखें - रषाभ्याम् VIII. iv.1 र... -VIII. iv. 45 देखें- रहाभ्याम् VIII. iv. 45 र:-III. ii. 167 (णम, कपि, मिङ्, नपूर्वक जसु, कमु, हिंस, दीपी - इन धातुओं से वर्तमानकाल में तच्छीलादि कत्तो हो तो) र प्रत्यय होता है। --V.ii. 107 . (ऊप.सषि मष्क तथा मधु प्रातिपदिकों से 'मत्वर्थ' में) र प्रत्यय होता है। र:-v.ii. 88 (छोटा' अर्थ गम्यमान हो तो कुटी, शमी और शुण्डा प्रातिपदिकों से र प्रत्यय होता है। र-VI. iv. 161 (हल् आदि वाले भसञक अङ्ग के लघु ऋकार के स्थान में) र आदेश होता है; (इष्ठन, इमनिच तथा ईयसुन परे रहते)। स-VII. ii. 100 (तिस, चतसृ अङ्गों के ऋकार के स्थान में अजादि विभक्ति परे रहते) रेफ आदेश होता है। ...: -VIII. 1. 15 देखें - इर: VIII. ii. 15 र:-VIII. ii. 18 (कृप् धातु के) रेफ को (लकारादेश होता है)। र -VIII. 1.69 (अहन् को) रेफ आदेश होता है, (सुप् परे न हो तो)। २-VIII. iii. 14 (पद के) रेफ का (रेफ परे रहते लोप होता है)। रक्तम् -IV.ii.1 (समथों में जो प्रथम तृतीयासमर्थ रङ्ग विशेषवाची प्रातिपदिक,उससे) 'रंगा गया' इस अर्थ में (यथाविहित प्रत्यय होता है)। रक्ते - V. iv. 32 'रंगा हजा' अर्थ में (वर्तमान लोहित प्रातिपदिक से कन प्रत्यय होता है)। ...रक्षः-III. 11.90 देखें- यजयाच० III. iii. 90 रक्षति -IV.iv. 33 (द्वितीयासमर्थ प्रातिपदिक से) रक्षा करता है' - अर्थ में (ढक प्रत्यय होता है)। रक्षस्... - IV. iv. 121 देखें- रक्षोयातूनाम् IV. iv. 121 ...रवि... -III. ii. 27 देखें-वनसन III. 1.27 Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 438 पर... ...रक्षितैः - II.i. 35 युग = जुआ,जोड़ा । प्रासङ्ग = जुआ,बैलों के लिये। देखें - तदर्थार्थबलिहित० II. 1. 35 रथवदयोः -VI. iii. 101 रक्षोयातूनाम् - IV. iv. 121 रथ तथा वद शब्द उत्तरपद हों तो (भी कु को कत् (षष्ठीसमर्थ) रक्षस् तथा यातु प्रातिपदिकों से (हननी आदेश होता है)। अर्थ में यत् प्रत्यय होता है)। रथाङ्गम्- VI. . 144 रक्षस् = भूत, प्रेत, पिशाचा। यातु = याची, हवा, (अपस्कर शब्द सुट्सहित निपातन किया जाता है) यदि समय। उससे रथ का अवयव कहा जा रहा हो तो। रङ्क- IV. ii. 99 ...रथात् -IV. ii.49 रङ शब्द से (मनुष्य अभिधेय न हो तो अण् और ष्फक् देखें-खलगोरथात् IV. ii. 49 प्रत्यय होते हैं)। रथात् - IV. iii. 120 ...रज... - III. ii. 142 (षष्ठीसमर्थ) रथ प्रातिपदिक से (इदम' अर्थ में यत् । देखें - सम्पृचानुरुध III. ii. 142 प्रत्यय होता है)। रज कृष्यासुतिपरिषदः - V.ii. 112 रथो: - V. iii. 4 रजस्, कृषि, आसुति तथा परिषद् प्रातिपदिकों से.. (इदम शब्द के स्थान में) रेफादि तथा थकारादि प्रत्ययों (मत्वर्थ' में वलच् प्रत्यय होता है)। के परे रहते (यथासङ्ख्य करके एत तथा इत आदेश होते रजस् = धूल, कण, आसुति. अर्क, काढ़ां। . ...रजतादिभ्यः - IV. iii. 152 रदाभ्याम् -VIII. ii. 42 देखें-प्राणिरजतादिभ्य: IV. iii. 152 रेफ तथा दकार से उत्तर (निष्ठा के तकार को नकारादेश रजस्... - V. ii. 112 होता है तथा निष्ठा के तकार से पूर्व के दकार को भी देखें- रजःकृष्याo v. ii. 112 नकारादेश होता है)। ...रजसाम् -V.iv.51 रधादिभ्य: - VII. ii. 45 देखें-अरुर्मनस्० V. iv. 51 ...रजोः -III.1.90 रधादि धातुओं से उत्तर (भी वलादि आर्धधातुक को देखें-कुषिरजोः III. 1. 90 विकल्प से इट् आगम होता है)। रजेः-VI. iv. 26 रधि... - VII. I. 61 रङ्ग अङ्ग की (उपधा के नकार का भी.लोप होता है, देखें - रधिजभो: VII. I. 61 शप परे रहते)। रधिजभोः -VI.i. 61. रथ... - IV. iv. 76 (अजादि प्रत्यय परे रहते) 'रध हिंसासंराध्योः तथा जभ देखें- रथयुगप्रासङ्गम् IV. iv.76 गात्रविनामे अङ्ग को (नुम् आगम होता है)। रथ... - VI. iii. 101 रधे: - VII.i.62 देखें- रथवदयो:VI. iii. 101 (लिड् भिन्न इडादि प्रत्यय परे रहते) रथ् अङ्ग को (नुम् रथ: - IV. ii.9 आगम नहीं होता। (ततीयासमर्थ प्रातिपदिक से ढका हुआ' अर्थ में यथा- . रन्-III. iv. 105 विहित प्रत्यय होता है, यदि वह ढका हुआ) रथ हो तो। लिादेश जो झ.उसको) रन आदेश होता है। रथयुगप्रासङ्गम् - IV. iv.76 रपर... - VIII. iii. 110 (द्वितीयासमर्थ) रथ,युग,प्रासङ्ग प्रातिपदिकों से (ढोता देखें - रपरसपिO VIII. iii. 110 है' अर्थ में यत् प्रत्यय होता है)। Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रपरः 439 ...रलोपे-VI. iii. 110 रपर-I.i.50 (ऋवर्ण के स्थान में यदि अण होना हो, तो वह साथ ही) र परे वाला होता है। रपरसृपिसृजिस्मृशिस्पहिसवनादीनाम् - VIII. i. 110 रेफ परे है जिससे,उस सकार को तथा सप.सज.स्पृश. स्पृह एवं सवनादि गणपठित शब्दों के (सकार को इण (सकार का इण् तथा कवर्ग से उत्तर मूर्धन्य आदेश नहीं होता)। ...रपि.. -III. I. 126 देखें - आसुयुवपि III. 1. 126 ...रभ... - VII. iv. 54 देखें- मीमीघु. VII. iv. 54 रः -VII.1.63 (शप तथा लिट्वर्जित अजादि प्रत्ययों के परे रहते) 'रभ राभस्ये' अङ्ग को (नुम् आगम होता है)। रम् -VI. iv.47 . (प्रस्न धातु के रेफ तथा उपधा के स्थान में विकल्प से) रम् आगम होता है, (आर्धधातुक परे रहने पर)। ...रम... -VII. ii. 73 देखें- यमरमनमाताम् VII. ii. 73 रमः -I. iii. 83 (वि, आङ् एवं परि पूर्वक) रम् धातु से (परस्मैपद होता रश्मौ -III. iii. 53 . घोड़े की लगाम वाक्य हो (तो भी प्र पूर्वक ग्रह धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है,पक्ष में अप होता है)। रषाभ्याम् - VIII. iv.1 " रेफ तथा षकार से उत्तर (नकार को णकारादेश होता है, एक ही पद में) ...रस... - V.i. 120 देखें - अचतुरमङ्गल. V.. 120 ...रसः -II. iv.85 देखें-डारौरसः II. iv. 85 रसादिभ्यः - V.ii.95 (प्रथमासमर्थ) रसादि प्रातिपदिकों से (भी 'मत्वर्थ' में मतुप् प्रत्यय होता है)। ....रहस्... - V. iv. 51 देखें-अर्मनस्० V. iv. 51 रहस: -V.iv.81 (अनु,अव तथा तप्त शब्द से उत्तर) रहस-शब्दान्त प्रातिपदिक से (समासान्त अच् प्रत्यय होता है)। रहस्य.. -VIII.i. 15 देखें - रहस्यमर्यादाO VIII. I. 15 रहाभ्याम् -VIII. iv. 45 (अच से उत्तर वर्तमान) रेफ और हकार से उत्तर (यर् को विकल्प से द्वित्व होता है)। ...राग... - VI.1.210 देखें - त्यागराग० VI. i. 210 ...राग... -VI. iii. 98 देखें- आशीरास्था. VI. iii. 98 रागात् - IV. ii. 1 (समर्थों में जो प्रथम तृतीयासमर्थ) रङ्गविशेषवाची प्रातिपदिक.उससे (रंगा गया' अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है)। राज... - IV.i. 137 देखें-राजश्वशुरात् IV.i. 137 - - रमयामक: -III. I. 42 रमयामकः शब्द का विकल्प से छन्द में निपातन किया जाता है, साथ ही अभ्युत्सादयामकः,प्रजनयामकः,चिक- यामकः, पावयांक्रियात् तथा विदामक्रन पद भी वेद में विकल्प से निपातित किये जाते हैं)। रमि... - III. ii. 13 देखें- रमिजपोः III. ii. 13 रमिजपो: - III. ii. 13 (स्तम्ब और कर्ण सुबन्त उपपद रहते) रम तथा जप धातुओं से (अच् प्रत्यय होता है)। रल -I. ii. 26 (इकार, उकार उपधावाली) रलन्त (एवं हलादि) धातुओं से परे (सेट् सन् और सेट क्त्वा प्रत्यय विकल्प से कित नहीं होते)। Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...राज.. 440 ...राज... -IV. 1.38 देखें-गोत्रोक्षोष्ट्रो ... 38 राज.. -V.iv.91 देखें- राजाहसखिभ्यः V.iv.91 ...राज... -VIII. 1. 36 देखें-प्रश्वभ्रस्ज. VIII. 1. 36 राजदन्तादिषु-II. ii. 31 राजदन्त आदि गणपठित शब्दों में (उपसर्जन का पर प्रयोग होता है)। राजनि-III. 1.95 'राजन' (कर्म) उपपद रहते (युध् और कृ धातुओं से 'क्वनिप्' प्रत्यय होता है, भूतकाल में)। ...राजन्य.. - IV. ii. 38 देखें-गोत्रोक्षोष्टो V. 1. 38 राजन्यबहुवचनद्वन्द्वे-VI. 1. 34 क्षत्रियवाची जो बहुवचनान्त शब्द,उनका द्वन्द्व (अन्धक तथा वृष्णि वंश को कहने में वर्तमान हो तो (पूर्वपद को प्रकृतिस्वर होता है)। ...राजन्यात् -v.ili. 114 देखें- अब्राह्मणराजन्यात् V. ifi. 114 राजन्यादिभ्यः -IV.ii. 52 (षष्ठीसमर्थ) राजन्यादि प्रातिपदिकों से (विषयो देशे' अर्थ में वुञ् प्रत्यय होता है)। राजन्वान् - VIII. II. 14 राजन्वान् शब्द (सौराज्य गम्यमान होने पर निपातन है)। ...राजपुत्र.. -IV. 1. 38 देखें- गोत्रोक्षोष्ट्रो० IV. 1. 38 राजश्वशुरात् - IV. 1. 137 राजन् तथा श्वशुर प्रातिपदिकों से (अपत्यार्थ में यत् प्रत्यय होता है)। राजसूय... -III. I. 114 देखें - राजसूयसूर्य० III. i. 114 राजसूयसूर्यमृयोधरुच्यकुप्यकृष्टपच्याव्यथ्याः -III. I.. 114 राजसूय, सूर्य, मृषोद्य, रुच्य, कृप्य, कष्टपच्य, अव्यथ्य - ये शब्द क्यपप्रत्ययान्त निपातन हैं। राजा... -II. iv.23 देखें - राजामनुष्यपूर्वा II. iv. 23. .. राजा-VI.ii.59 (ब्राह्मण तथा कुमार शब्द उपपद रहते कर्मधारय समास में) राजा शब्द को (भी विकल्प से प्रकृतिस्वर होता है)। राजा-VI. ii. 63 (प्रशंसा गम्यमान हो तो शिल्पिवाची शब्द उत्तरपद रहते) राजन् पूर्वपद वाले शब्द को (भी विकल्प से प्रकृतिस्वर होता है)। ...राजा... - VI. ii. 133 देखें - आचार्यराज. VI. ii. 133 ...राजाम्.. -III. ii.61 देखें- सत्सू० III. ii. 61 राजामनुष्यपूर्वा - II. iv. 23 (नकर्मधारयवर्जित) राजा और अमनुष्य पूर्वपदवाला (सभाशब्दान्त तत्पुरुष नपुंसकलिङ्ग में होता है)। राजाह-सखिभ्यः -V.iv.91 राजन, अहन् तथा सखिशब्दान्त प्रातिपदिकों से (समासान्त टच प्रत्यय होता है, तत्पुरुष समास में)। ... राजि-VIII. iii. 25 (सम् के मकार को मकारादेश होता है,क्विप् प्रत्ययान्त) राजृ धातु के परे रहते। राज-IV. 1. 139 राजन् शब्द से (शैषिक छ प्रत्यय होता है तथा उसको क अन्तादेश भी होता है)। राज्यम् - VI. ii. 130 (कर्मधारयवर्जित तत्पुरुष समास में उत्तरपद) राज्य शब्द को (आधुदात्त होता है)। ....राट्.. - VI. 1. 176 देखें-गोश्वन VI.i. 176 ...राटो: -VI. iii. 127. देखें-वसुराटोः VI. iii. 127 रात् - VI. iv. 21 रेफ से उत्तर (छकार और वकार का लोप हो जाता है. क्वि तथा झलादि अनुनासिकादि प्रत्ययों के परे रहते)। Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 441 रात् - VIII. 11. 24 (संयोग अन्त वाले) रेफ से उत्तर (सकार का लोप होता रात्र.. - II. iv. 29 देखें- रात्रानाहाः II. iv. 29 ...रात्रावयवाः -II. I. 44 . देखें- अहोरात्रावयवाः II. I. 44 ...रात्रावयवषु-VI. ii. 33 देखें-वर्ण्यमानाहोरात्रा6 VI. ii. 33 रात्रानाहा: -II. iv.29 रात्र,अह्न, अह-इन कृतसमासान्त शब्दों को (पुल्लिङ्ग होता है)।रात्र, अह्न, अह ये कृतसमासान्त निर्दिष्ट है। रात्रि... -v.i.86 देखें- राज्यहः संवत्सरात् V.i.86 ...रात्रि.. -VI. iii. 84 देखें-ज्योतिर्जनपद० VI. iii. 84 ...रात्रिन्दिव... - V. iv. 77. देखें-अचतुर० V.iv.77 ...रात्रे-II. iv.28 'देखें- अहोरात्रे II. iv. 28 रात्रे: - IV.i. 31 रात्रि शब्द से (भी स्त्रीलिङ्गविवक्षित होने पर संज्ञा तथा छन्द-विषय में, जस् विषय से अन्यत्र डीप् प्रत्यय होता - इन अर्थों में विकल्प से ख प्रत्यय होता है)। राधः -VI. iv. 123 (हिंसा अर्थ में वर्तमान) राध अङ्ग के (अवर्ण के स्थान में एकारादेश तथा अभ्यासलोप होता है; कित.डित लिट परे रहते तथा सेट् थल परे रहते)। राधि... -I.iv. 39 देखें - राधीक्ष्योः I. iv. 39 राधीक्ष्योः -I. iv. 39 राध तथा ईक्ष धातु के (प्रयोग में जिस के विषय में विविध प्रश्न हों,उस कारक की सम्प्रदान संज्ञा होती है)। रायः - VII. ii. 85 रै अङ्ग को (हलादि विभक्ति परे रहते आकारादेश हो जाता है)। राष्ट्र... - IV. 1. 92 देखें - राष्ट्रावारपारात् IV. 1. 92 राष्ट्रावारपारात् - IV. 1. 92 राष्ट्र तथा अवारपार शब्दों से (शैषिक जातादि अर्थों में यथासङ्ख्य करके घ और ख प्रत्यय होते हैं)। अवारपार = समुद्र। रि-VII. iv. 51 रेफादि प्रत्यय के परे रहते (भी तास् और अस् के सकार का लोप होता है)। रि-VIII. iii. 14 (पद के रेफ का) रेफ परे रहते (लोप होता है।। ...रिको-VII. iv.91 देखें-रुनिको VII. iv.91 रिक्तगुरु-VI.1.42 'रिक्तगुरु' इस समास किये हुये शब्द के (पूर्वपद को प्रकृतिस्वर होता है)। रिक्त - VI. 1. 202 रिक्त शब्द में (विकल्प से आधदात्तत्व होता है)। रिङ्- VII. iv. 28 (ऋकारान्त अङ्ग को श, यक् तथा यकारादि सार्वधातक-भिन्न लिङ्ग परे रहते) रिङ् आदेश होता है। रात्रे: - V. iv. 87 (अंहर,सर्व,एकदेश वाचक शब्द,सङ्ख्यात तथा पुण्य शब्दों से उत्तर तथा सङ्ख्या और अव्ययों से उत्तर भी) जो रात्रि शब्द, तदन्त (तत्पुरुष) से (समासान्त अच् प्रत्यय होता है)। रात्रे: -VI. iii. 71 (कदन्त उत्तरपद रहते) रात्रि शब्द को (विकल्प करके मुम् आगम होता है)। रात्र्यह संवत्सरात् -V..86 (द्वितीयासमर्थ) रात्रि-शब्दान्त,अहन-शब्दान्त तथा संव- त्सर-शब्दान्त (द्विगुसज्ञक प्रातिपदिकों से भी 'सत्कारपू. र्वक व्यापार, खरीदा हुआ','हो चुका' तथा 'होने वाला' Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिति 442 रुदविदमुषग्रहिस्वपिप्रच्छः . रिति -VI.i. 211 ...रुच... - VII. iii. 66 रेफ इत् वाले शब्द के (उपोत्तम को उदात्त होता है)। देखें-यजयाच०VII. iii.66 . रुनिको-VII. iv.91. ...रिष: - VII. ii. 48 . . देखें-इवसहO VII. ii.48 (ऋकार उपधा वाले अङ्ग के अभ्यास को) रुक, रिक रिषण्यति - VII. iv. 96 (तथा चकार से रीक् आगम होते हैं, यङ्लुक् में)। (दुरस्युः, द्रविणस्युः, वृषण्यति),रिषण्यति -ये क्यात्ययान्त शब्द (वेद-विषय में) निपातित किये जाते हैं। देखें- पादम्यायमाझ्यस० I. iii. 89 ...रुचि... -III. ii. 136 ...री... - VII. iii. 36 देखें - अलंकृञ् III. ii. 136 देखें - अर्तिही VII. iii. 36 ...रुचि... -VI. iii. 115 रीक् - VII. iv. 90 देखें-नहिवृति० VI. iii. 115. (ऋकार उपधा वाले अङ्ग के अभ्यास को भी यङ् तथा ....रुच्य.. -III. 1. 114 यङ्लुक् में) रीक् आगम होता है। देखें - राजसूयसूर्य III. i. 114 रीङ्-VII. iv. 27 रुच्यर्थानाम् -I. iv. 33 (ऋकारान्त अङ्ग को कृत्-भिन्न एवं सार्वधातुक-भिन्न । रुचि अर्थ वाले धातुओं के (प्रयोग में प्रीयमाण कारक यकार तथा चि परे हो तो) रीङ आदेश होता है। की सम्प्रदान संज्ञा होती है)। • रीश्वरात् -I. iv.56 ...रूज... - III. iii. 16 'अधिरीश्वरे I. iv. 86 सूत्र से (पहले-पहले निपात देखें- पदरुज III. iii. 16 संज्ञा का अधिकार जाता है)। रुजानाम् -II. iii. 54 ...रु..-VII. iii. 95 (धात्वर्थ को कहने वाले घजादिप्रत्ययान्त-कर्तृक) रुजादेखें- तुरुस्तु० VII. ii. 95 र्थक धातुओं के (कर्म में शेष विवक्षिन होने पर षष्ठी रु-VIII. iii.1 विभक्ति होती है,ज्वर धातु को छोड़कर)। (मत्वन्त तथा वस्वन्त पद को संहिता में सम्बुद्धि परे रुजि... -III. 1. 31 रहते वेद-विषय में) रु आदेश होता है। देखें-रुजिवहो: III. ii. 31 रु..-III. iii. 50 रुजिवहो: - III. ii. 31 देखें - रुप्लुवोः III. iii. 50 (उत् पूर्वक) रुज् तथा वह धातुओं से (कूल कर्म उपपद रु-III. ii. 159 रहते खश् प्रत्यय होता है)। (दा, धेट, सि,शद,सद् - इन धातुओं से तच्छीलादि ,_ कर्ता हो. तो वर्तमानकाल में) रु प्रत्यय होता है। (शी असे उत्तर झ के स्थान में हआ जो अत आदेश. रु -VIII. ii. 66 ' उसको) रुट आगम होता है। (सकारान्त पद को तथा सजुष पद को) रु आदेश होता रुद... -I.1.8 देखें-रुदक्दिमुषग्रहिस्वपिप्रच्छ: I. ii. 8 रु-VIII. ii.74 रुदविदमुषग्रहिस्वपिप्रच्छः - I. ii. 8 (धात्ववयवभूत पदान्त सकार को सिप परे रहते विकल्प 'रुदिर अश्रुविमोचने', 'विद ज्ञाने', 'मुष स्तेये', 'ग्रह से) रु आदेश होता है। उपादाने'.'जिष्वप शये'.'प्रच्छ ज्ञीप्सायाम्'-इन धातुरुक्...-VII. iv.91 ओं से परे (सन् और क्त्वा प्रत्यय कित्वत् होते हैं)। देखें-रुनिको VII. iv.91 Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रुदः • VII. iii. 98 रुदिर (इत्यादि पाँच) धातुओं से उत्तर ( भी हलादि अपृक्त सार्वधातुक को ईट् आगम होता है ) । रुदादिभ्यः - VII. ii. 76 रुदादि (पाँच) धातुओं से उत्तर (वलादि सार्वधातुक को इट् आगम होता है)। .. रुद्र... - IV. 1. 48 देखें - इन्द्रवरुणभव० IV. 1. 48 ... रुद्र... - VI. ii. 142 देखें- अपृथिवीरुद्र० VI. 1. 142 ... रुघ... - IH. iv. 49 देखें - उपपीडरुधकर्षः III. Iv. 49 रुधः - III. 1. 64 आवरणार्थक रुधिर् धातु से उत्तर (चिल के स्थान में चिण आदेश नहीं होता, कर्मकर्तृवाची 'त' शब्द परे रहते) । रुथादिभ्यः III. 1. 78 रुधादि धातुओं से उत्तर (श्नम् प्रत्यय होता है, कर्तृवाची सार्वधातुक परे रहने पर) । सप्रमुवोः III. iii.50 (आङ् पूर्वक) रु तथा प्लु धातुओं से (कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में विकल्प से घञ् प्रत्यय होता है)। - रुमण्वत् - VIII. ii. 12 रुमण्वत् शब्द का निपातन किया जाता है। रुव: - - III. iii. 22 (उपसर्ग उपपद रहने पर) रु धातु से (घञ् प्रत्यय होता है, कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में)। ...रुष... - VII. ii. 48 देखें - इषसह० VII. ii. 48 रुषि... - VII. ii. 28 देखें- रुष्यमत्वरo VII. 1. 28 रुय्यमत्वरसंघुषास्वनाम् VII. II. 28 रूषि, अम, त्वर, सम् पूर्वक घुष तथा आहपूर्वक स्वन् अङ्ग को (निष्ठा परे रहते विकल्प से इट् आगम नहीं होता) । 443 ... रुह... - III. iv. 72 देखें - गत्यर्थाकर्मक० III. Iv. 72 रुहः - VII. iii. 43 रुह् अङ्ग को (विकल्प से णि परे रहते णकारादेश होता है) । III. i. 59 ...रुहिभ्यः देखें - कृमृह० III. 1. 59 ..रुहो: - V. iv. 45 देखें- अहीयरुहो Viv. 45 - ....रूक्षेषु- - III. iv. 35 देखें - शुष्कचूर्णरूक्षेषु III. iv. 35 ... रूप... - III. 1. 25 देखें - सत्यापपाशरूप० III. 1. 25 ... रूप... - VI. iii. 42 देखें - घरूपo VI. iii. 42 ...रूप... - VI. iii. 84 देखें- ज्योतिर्जनपद० VI. III. 84 ....रूप्योत्तरपदात् रूपप् - V. iii. 66 (प्रशंसा - विशिष्ट अर्थ में (वर्तमान प्रातिपदिक तथा तिडन्त से स्वार्थ में) रूपप् प्रत्यय होता है। रूपम् - I. 1. 67 (इस व्याकरणशास्त्र में शब्द के अपने) स्वरूप का (महण होता है. उसके अर्थ या पर्यायवाची शब्दों का नहीं, शब्दसंज्ञा को छोड़कर) । - रूपात् - V. ii. 120 (आहत और प्रशंसा अर्थों में वर्तमान रूप प्रातिपदिक से (मत्वर्थ में यप् प्रत्यय होता है ) । रूप्य - V. iii. 54 (भूतपूर्व' अर्थ में षष्ठीविभक्त्यन्त प्रातिपदिक से) रूप्य प्रत्यय (और चरट् प्रत्यय होते हैं) । रूप्यः IV. iii. 81 (पञ्चमीसमर्थ हेतु तथा मनुष्यवाची प्रातिपदिकों से आगत अर्थ में विकल्प से) रूप्य प्रत्यय होता है। .... रूप्योत्तरपदात् - IV. 1. 105 देखें - तीररूप्योत्तरo IV. ii. 105 Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 444 रे-VI. iv.76 ...रोचनात् -IV.ii.2 (इरे के स्थान में वेदविषय में बहुल करके) रे आदेश देखें - लाक्षारोचनात् IV. ii. 2 होता है। रोणी - IV. 1.77 रेवती... - IV. iv. 122 रोणी तथा रोणी अन्तवाले प्रातिपदिक से (चातरर्थिक देखें- रेवतीजगतीहo IV. iv. 122 अण् प्रत्यय होता है)। रेवतीजगतीहविष्याभ्यः - IV. iv. 122 रोपधयो: - VI. iv. 47 (षष्ठीसमर्थ) रेवती,जगती तथा हविष्या प्रातिपदिकों से (प्रस्ज् धातु के) रेफ तथा उपधा के स्थान में (विकल्प (प्रशस्य अर्थ में वैदिक प्रयोग में यत् प्रत्यय होता है)। सेरम् आगम होता है, आर्धधातुक परे रहने पर)। रेवत्यादिश्य-V.i. 146 रेवती आदि शब्दों से (अपत्य अर्थ में ठक् प्रत्यय होता रोपधेतोः - IV. ii. 122 (प्राग्देशवाची) रेफ उपधावाले तथा ईकारान्त (वृद्धरैवतिकादिभ्यः - IV. iil. 130 संज्ञक) प्रातिपदिकों से (शैषिक वुञ् प्रत्यय होता है)। (षष्ठीसमर्थ) रैवतिकादि प्रातिपदिकों से (इदम्' अर्थ । 'अर्थ रोमन्थ..-III.i. 15 में छ प्रत्यय होता है)। देखें-रोमन्थतपोभ्याम् III.i. 15 रो: -VI. 1. 109 रोमन्थतपोभ्याम् - III.i. 15 (अप्लुत अकार से उत्तर अप्लत अकार परे रहते) रु के । सोनस रोमन्थ तथा तप (कर्म) से (यथासंख्य करके वर्तन और . (रेफ को उकार आदेश होता है, संहिता के विषय में)। चरण अर्थ में क्यङ् प्रत्यय होता है)। रोग... -VIII. Iti. 16 रोहिण्यै -III. iv. 10 रु के रेफ को सुप् परे रहते विसर्जनीय आदेश होता (प्रय), रोहिष्य (तथा अव्यथिष्यै) शब्द (वेदविषय में तुमर्थ में निपातन किये जाते हैं)। रोग..- IV. iii. 13 ......... - VI. I. 165 देखें-रोगातपयोः IV. iii. 13 देखें-अडिदम् VI.i. 165 रोगाख्यायाम् -III. 1. 198 ..-II. iv.85 रोगविशेष की संज्ञा में (धातु से स्त्रीलिङ्ग में ण्वुल प्रत्यय देखें-डारौरस II. iv. 85 बहुल करके होता है)। ...रौरव... -VI. 1.38 रोगात् - . iv.49 देखें-व्रीह्यपराहण. VI. ii. 38 (चिकित्सा' गम्यमान हो तो रोगवाची शब्द से परे(भी वो: - VIII. 1.76 जो षष्ठी, तदन्त प्रातिपदिक से विकल्प से तसि प्रत्यय रेफान्त तथा वकारान्त जो (धातु पद) उसकी (उपधा इक होता है)। को दीर्घ होता है)। रोगातपयोः - IV. ii. 13 हिल -V. iii. 16 (कालविशेषवाची शरत् शब्द से) रोग तथा आतप (सप्तम्यन्त इदम् प्रातिपदिक से) हिल् प्रत्यय होता है। अभिधेय हो तो (ठ प्रत्यय विकल्प से होता है)। हिल् - V. iii. 21 रोगे -v.ii. 81 (सप्तम्यन्त किम्, सर्वनाम और बहु प्रातिपदिकों से) (कालवाची तथा प्रयोजनवाची प्रातिपदिकों से) 'रोग' हिल प्रत्यय (विकल्प से) होता है; (अनद्यतन कालविशेष अभिधेय हो तो (कन् प्रत्यय होता है)। को कहना हो तो)। ...रोगेषु-VI. iii. 50 . ...हिलौ-v.ii. 20 देखें-शोकष्योगेषु VI. 11. 50 देखें-दाहिलो V. 1. 20 Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 445 लघुप्रयत्नतः ल-प्रत्याहारसूत्र XIV आचार्य पाणिनि द्वारा अपने चौदहवें अर्थात अन्तिम प्रत्याहारसूत्र में इत्सज्ञार्थ पठित वर्ण । ल... - VII. 1.2 'देखें-बान्तस्य VII. ii.2 ल-प्रत्याहारसूत्र VI भगवान् पाणिनि द्वारा अपने छठे प्रत्याहारसूत्र में पठित वर्ण। पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी में पठित वर्णमाला का चौदहवां वर्ण। . ल... -I.ii.8 . . देखें-लशकु I. iii. 8 ल... -II. iii.69 देखें-लोकाव्ययनिष्ठा0 II. iii.69 लः -I. iv.98 __ लादेश (परस्मैपदसंज्ञक होते हैं)।। ल: -III. iv.69. (सकर्मक धातुओं से) लकार (कर्मकारक में होते हैं चकार से कर्ता में भी होते है और अकर्मक धातुओं से भाव में होते है तथा चकार से कर्ता में भी होते है)। लः -VIII. ii. 18 - (कृप धातु के रेफ को) लकारादेश होता है। लक्षण... -I. iv. 89 देखें-लक्षणेत्यम्भूताख्यानभाग I. iv. 89 लक्षण... - III. ii. 126 देखें- लक्षणहेत्वोः III. ii. 126 ...लक्षण...-IV.i.70 देखें-संहितशफलक्षण IV.i. 70 ...लक्षण... -IV.i. 152 देखें-सेनान्तलक्षण IV.i. 152 लक्षणस्य-VI. iii. 114 . कर्ण शब्द उत्तरपट रहते विश अपन पक्षन मणि भिन्न छिन्न, छिद्र, स्रुव, स्वस्तिक - इन शब्दों को छोड़कर) लक्षणवाची शब्दों के (अण् को दीर्घ होता है, संहिता के विषय में)। ...लक्षणात् - VI. ii. 112 देखें-वर्णलक्षणात् VI. ii. 112 लक्षणे-I.iv.83 लक्षण द्योतित हो रहा हो तो (अनु शब्द कर्मप्रवचनीय और निपातसंज्ञक होता है)। लक्षणे -III. ii. 52 लक्षणवाची (कर्ता) अभिधेय होने पर (जाया और पति कर्म उपपद रहते 'हन' धातु से 'टक' प्रत्यय होता है)। लक्षणेन - II.i. 13 लक्षण चिह्न वाची (सुबन्त) के साथ (आभिमुख्य अर्थ में वर्तमान अभि और प्रति का विकल्प से समास होता है और वह अव्ययीभावसंज्ञक होता है)। ...लक्षणेषु - IV.iti. 126 देखें-संघाइकलक्षणेषु IV. iii. 126 ...लग्न... - VII. ii. 18 देखें-क्षुब्धस्वान्त VII. ii. 18 लघु-I. iv. 10 (हस्व अक्षर की) लघु संज्ञा होती है। लघुनि - VII. iv. 93 (चङ्परक णि के परे रहते अङ्ग के अभ्यास को) लघु धात्वक्षर परे रहते (सन के समान कार्य होता है.यदि अङ्ग के अक् प्रत्याहार का लोप न हुआ हो तो)। लघुपूर्वात् - V. 1. 130 (षष्ठीसमर्थ) लघु = ह्रस्व अक्षर पूर्व में है जिसके, ऐसे (इक् = इ, उ,ऋ,ल अन्तवाले) प्रातिपदिक से (भी भाव और कर्म अर्थों में अण प्रत्यय होता है)। लघुपूर्वात् - VI. iv.56 लघु = ह्रस्व अक्षर है पूर्व में जिससे, ऐसे वर्ण से उत्तर (णि के स्थान में ल्यप् परे रहते अयादेश हो जाता है)। लघुप्रयत्लतरः - VIII. iii. 18 (भोः,भगो,अघो तथा अवर्ण पूर्व वाले पदान्त के वकार, यकार को) लघुप्रयत्नतर आदेश होता है, (शाकटायन यकार का) लघुप्रयलतर आदश हाता ह, ( आचार्य के मत में)। उच्चारण में तालु आदि स्थान तथा जिह्वामूलादि की शिथिलता अर्थात् जिसके उच्चारण में थोड़ा बल पड़े, वह लघुप्रयत्नतर कहलाता है। Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...लघूपधस्य 446 ...लघूपधस्य-VII. iii. 86 लट् - III. ii. 122 देखें-पुगन्तलघूपधस्य VII. iii. 86 (वर्तमान काल में विद्यमान धातु से) लट् प्रत्यय होता लयोः -VI. iv. 161 (हल् आदिवाले भसञ्ज्ञक अङ्ग के) लघु (ऋकार) के लट् - III. iii. 4 स्थान में (र आदेश होता है; इष्ठन्, इमनिच तथा ईयसुन्। (यावत् तथा पुरा निपातों के उपपद रहने पर भविष्यत परे रहते)। काल में धातु से) लट् प्रत्यय होता है। लघोः -VII.i.7 (हलादि अङ्ग के) लघु (अकार) को (परस्मैपदपरक लट् -III. iii. 142 इडादि सिच् के परे रहते विकल्प से वृद्धि नहीं होती)। (निन्दा गम्यमान हो तो अपि तथा जातु उपपद रहते लघो: - VII. iv. 94 धातु से) लट् प्रत्यय होता है। (चङपरक णि के परे रहते अङ्ग के) लघु अभ्यास को लटः -III. ii. 128 (लघुधात्वक्षर परे रहते दीर्घ होता है)। (धातु से) लट् के स्थान में (शतृ तथा शानंच आदेश लङ्-III. ii. 111 होते हैं, यदि अप्रथमान्त के साथ उस लट् का सामाना(अनद्यतन भूतकाल में धातु से) लङ् प्रत्यय होता है। धिकरण्य हो)। लङ्-III. ii. 116 लटः - III. iv. 83 (ह,शश्वत् - ये शब्द उपपद हों तो धातु से अनद्यतन (विद् ज्ञाने धातु से) लडादेश (तिप् आदि) जो परस्मैपरोक्ष भूतकाल में) लङ् प्रत्यय होता है (और चकार से पदसंज्ञक,उनके स्थान में (क्रमशः णल्, अतुस, उस्, थल, लिट भी होता है)। अथुस्, अ,णल्,व,म-9 आदेश विकल्प से होते है)। लड्-III. iii. 176 लप... - III. ii. 145 (स्म शब्द अधिक है जिससे,उस माङ् शब्द के उपपद देखें-लपसुद्० III. ii. 145 , रहते धातु से) लङ् (तथा लुङ प्रत्यय होते हैं)। लपसूद्रुमथवदवस: - III. ii. 145 ...लङ्... -III. iv.7 (प्र पूर्वक) लप, सृ,द्रु,मथ,वद, वस्- इन धातुओं से देखें - लुङ्लङ्लिटः III. iv.7 (तच्छीलादि कर्ता हों तो वर्तमानकाल में घिनुण प्रत्यय ...लङ्... - VI. iv. 71 होता है)। देखें-लुड्लड्ल ङ्घ VI. iv.71 ...लपि... - III. I. 126 लङ - III. iv. 111 देखें - आसुयुवपि III. 1. 126 (आकारान्त धातुओं से उत्तर) लङके स्थान में (जो झि आदेश, उसको जुस आदेश होता है, शाकटायन के मत ...लब्ध... - IV. iii. 38 देखें-कृतलब्ध IV. iii. 38 लब्धा - IV. iv. 84 लड्व त् -III. iv.85 (द्वितीयासमर्थ धन और गण प्रातिपदिकों से) प्राप्त करने (लोट् लकार को) लङ् के समान कार्य हो जाते हैं। वाला अभिप्रेत हो (तो यत् प्रत्यय होता है)। लच् - V. ii. 96 ...लभ... - VII. iv. 54 (प्राणिस्थवाची आकारान्त प्रातिपदिकों से 'मत्वर्थ' में देखें-मीमाधु० VII. iv. 54 विकल्प से) लच प्रत्यय होता है। लभे: -VII. 1.64 लट् -III. ii. 118 (शप् तथा लिट्वर्जित अजादि प्रत्ययों के परे रहते) . (परोक्ष अनद्यतन भूतकाल में वर्तमान धातु से स्म शब्द ___ 'डुलभष् प्राप्तो' अङ्ग को (भी नुम् आगम होता है)। उपपद रहते) लट् प्रत्यय होता है। में ही)। Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1447 ...लासेव मारकक्कुद तथा कुक्कुल अर्थ में ढक ...लभ्य.. - V.1.92 लप... -III. ii. 154 देखें- परिजव्यलभ्य V.1.92 देखें-लवपत III. ii. 154 ललाट... - IV. iv. 46 ...लप -III. 1.70 देखें- ललाटकुक्कुट्यो IV. iv. 46 देखें-प्राशालाश III. 1.70 ललाटकुक्कुट्यो - IV. iv. 46 लषः -III. ii. 144 (द्वितीयासमर्थ) ललाट तथा कुक्कुटी प्रातिपदिकों से (अपपूर्वक तथा चकार से विपूर्वक) लष् धातु से (भी (संज्ञा गम्यमान होने पर 'देखता है' - अर्थ में ढक् घिनुण प्रत्यय होता है)। प्रत्यय होता है)। . लषपतपदस्थाभूतपहनकमगमशृभ्यः -III. ii. 154 ...ललाटात् -IV. 1.65 लष, पत, पद, स्था, भू. वृष, हन, कम, गम तथा शूदेखें-कर्णललाटात् IV. iii. 65 इन धातुओं से (तच्छीलादि कर्ता हो.तो वर्तमान काल में ...ललाटयोः - III. II. 36 उकञ् प्रत्यय होता है)। देखें-असूर्यललाटयोः III. 1. 36 ...लस... -III. ii. 143 ...ललामम् - IV. iv.40 देखें - कवलस III. ii. 143 देखें -प्रतिकण्ठार्थललामम् IV. iv. 40 लसार्वधातुकम् – VI. i. 180 ...लवण.. -III. I. 21 (तासि प्रत्यय, अनुदात्तेत् धातु, डित् धातु तथा उपदेश देखें-मुण्डमिश्र III. 1. 21 में जो अवर्णान्त- इनसे उत्तर) लकार के स्थान में जो ...लवण.. -1.1. 120 . सार्वधातुक प्रत्यय,वे (अनुदात्त होते हैं; हुङ् तथा इङ् धातु देखें-अचतुरमङ्गल.V.i. 120 - को छोड़कर)। ...लवणयोः -VI. 1.4 ...लसेभ्यः -V.i. 120 देखें-गाधलवणयो: VI. 1.4 देखें-अचतुरमडल. .i. 120 लवणात् - IV. iv. 24 लस्य - III. iv.77 (ततीयासमर्थ) लवण प्रातिपदिक से 'मिला हुआ' अर्थ (यहाँ से आगे जो कार्य कहेंगे,वे) लकार के स्थान में में उत्पन्न प्रत्यय का लुक होता है)। (हुआ करेंगे)। लवणात् - IV. iv. 52 लाक्षा... - IV.it (प्रथमासमर्थ) लवण प्रातिपदिक से (इसका बेचना' । अर्थ में ठंञ् प्रत्यय होता है)। देखें - लाक्षारोचनात् IV. ii. 2 लाक्षारोचनात् - IV. ii. 2 ...लवणानाम् -VII. I. 51 (ततीयासमर्थ रागविशेषवाची) लाक्षा तथा रोचना देखें - अश्वक्षीर० VII.1.51 प्रातिपदिकों से (रंगा गया' अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है)। लवने-VI.i. 135. काटने के विषय में (कृ विलेपे धातु के परे रहते उप लाक्षा = लाख,लाल रंग। उपसर्ग से उत्तर ककार से पूर्व सुट् का आगम होता है, रोचना = उज्ज्वल आकाश, सुन्दर स्त्री, एक प्रकार संहिता के विषय में)। का पीला रंग। लशकु-I. iii.8 ...लाभ... - V.i. 46 (उपदेश में प्रत्यय के आदि में वर्तमान) लकार,शकार । देखें- वृद्ध्यायलाभ० V.1.46 और कवर्ग (इत्सज्जक होते है. तद्धित को छोड़कर)। ...लासेषु - VI. iii. 49 ....लय... -III. II. 150 देखें - लेखयदण्लासेषु VI. iii. 49 देखें-जुचक्रम्प III. II. 150 Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ला स लि-VIII. iv. 59 (तवर्ग के स्थान में) लकार परे रहते (परसवर्ण आदेश होता है)। लिड...-I. I. 11 देखें-लिङ्सिचौ I. ii. 11 लिङ्-III. 1.9 (दो घडी से ऊपर के भविष्यत्काल को कहना हो तो लोडर्थलक्षण में वर्तमान धातु से) लिङ्ग प्रत्यय (भी. विकल्प से होता है, साथ में लट् भी)। लिङ्-III. iii. 134 (आशंसावाची शब्द उपपद हो तो धातु से) लिङ् प्रत्यय होता है। लिङ्-III. iii. 143 (गर्दा गम्यमान हो तो कथम् शब्द उपपद रहते विकल्प से) लिङ् प्रत्यय होता है (तथा चकार से लट् प्रत्यय भी होता है)। लिङ्...-III. 1. 144 देखें-लिड्लटो III. iii. 144 लिङ्-III. iii. 147 (अनवक्तृप्ति = असम्भावना तथा अमर्ष = सहन न करना अभिधेय हो तो जातु तथा यद् उपपद रहते धातु से) लिङ्ग प्रत्यय होता है। लिङ्-III. iii. 152 (उत, अपि समानार्थक उपपद हों तो धातु से) लिङ् प्रत्यय होता है। लिङ् - III. iii. 156 (हेत और हेतुमत् अर्थ में वर्तमान धातु से) लिङ प्रत्यय (विकल्प से होता है)। लिङ्... - III. iii. 157 देखें-लिङ्लोटौ III. iii. 157 लिङ्-III. iii. 159 (समानकर्तृक इच्छार्थक धातुओं के उपपद रहते धातु से) लिङ् प्रत्यय भी होता है। लिङ्-III. iii. 161 (आज्ञा देना, निमन्त्रण, आमन्त्रण,सत्कारपूर्वक व्यवहार करना, सम्प्रश्न, प्रार्थना अर्थों में धातु से) लिङ् प्रत्यय होता है। लिङ्-III. iii. 164 (प्रैष = प्रेरणा देना, अतिसर्ग = कामचारपूर्वक आज्ञा देना तथा प्राप्तकाल = समय आ जाना अर्थ गम्यमान हों तो मुहर्त्तभर से ऊपर के काल के कहने में धात से) लिङ् प्रत्यय होता है (तथा चकार से यथाप्राप्त कृत्यसंज्ञक एवं लोट् प्रत्यय होते हैं)। लिङ्-III. iii. 168 (काल, समय, वेला और यत् शब्द भी उपपद हो तो धातु से) लिङ् प्रत्यय होता है। .. लिङ्-III. ifi. 172 (शक्यार्थ गम्यमान हो तो धातु से) लिङ् प्रत्यय होता है,(तथा चकार से कृत्यसंज्ञक प्रत्यय भी होते हैं)। .. लिइ... -III. iii. 173 देखें-लिङ्लोटौ III. iii. 173 लिङ्-III. iv. 116 (आशीर्वाद अर्थ में जो) लिङ (वह आर्धधातुकसंज्ञक होता है)। लिइ... -VII. ii. 42 देखें-लिङ्सिचो: VII. ii. 42. लिङः -III. iv. 102 लिङ के आदेशों को (सीयुट् आगम होता है)। लिङः - VII. ii. 79 (सार्वधातुक में) लिङ् लकार के (अनन्त्य सकार का लोप होता है)। लिडथे - III. iv.7 (वेदविषय में) लिङ् के अर्थ में (विकल्प से लेट् प्रत्यय होता है और वह परे होता है)। लिङि-II. iv. 42 (आर्धधातुक) लिङ् के परे रहते (हन् को वध आदेश होता है)। लिङि-III.i. 86 __ आशीर्वादार्थक लिङ् परे रहते (धातु से अङ् प्रत्यय होता है, छन्दविषय में)। लिङि-VI. iv.67 कित.डित) लिङ् (आर्धधातुक) परे रहते (घु, मा, स्था, गा.पा, हा तथा सा- इन अङ्गों को एकारादेश हो जाता Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिहि 440 लिटि लिङि-VII. ii. 39 लिट्-III. 1. 105 (वृ तथा ऋकारान्त धातुओं से उत्तर इट् को) लिङ् परे (वेदविषय में भूतकाल सामान्य में धातुमात्र से) लिट् रहते (दीर्ष नहीं होता। प्रत्यय होता है)। लिङि -VII. iv. 24 लिट् -III. ii. 115 (उपसर्गों से उत्तर 'इण् गतौ' अङ्ग को यकारादि कित्, (अनद्यतन परोक्ष भूतकाल में वर्तमान धातु से) लिट् डित) लिङ् परे रहते (हस्व होता है)। प्रत्यय होता है। ...लिडोः -I. iii. 61 लिट् -III. ii. 171 - देखें-लुलिडो: I. 11.61 (आत् = आकारान्त,ऋ = ऋकारान्त तथा गम,हन, ...लिड्छ-VII. iv. 28 जन् धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हो तो वेदविषय में देखें-शयग्लिक्षु VII. iv. 28 वर्तमानकाल में कि तथा किन प्रत्यय होते हैं और उन ...लिङ्ग.. -II. iii. 46 कि,किन् प्रत्ययों को) लिट् के समान कार्य होता है। देखें -प्रातिपदिकार्थलिग II. iii. 46 लिट् -III. iv. 115 लिङ्गम् -II. iv. 26 . लिडादेश जो तिबादि. उनकी (भी आर्धधातुक संज्ञा लिङ्ग (पर के समान होता है, द्वन्द्व और तत्पुरुष का)। होती है)। लिनिमित्ते -II. iii. 139 लिट....-VI.i.29 (भविष्यत्काल में) लिङ्गका निमित्त होने पर क्रिया का देखें-लिड्यो : VI.1.29 उल्लंघन अथवा सिद्ध न होना गम्यमान हो तो घातु से लिट: -III. 1. 106 लुङ् प्रत्यय होता है)। . (वेदविषय में भूतकाल में विहित) लिट के स्थान में लिड्लटौ-III. iii. 144 (विकल्प से कानच् आदेश होता है)। . (किंवृत्त उपपद हो तो गर्दा गम्यमान होने पर धातु से) ...लिट: - III. iv.7 लिङ् तथा लुट् प्रत्यय होते हैं। देखें - लुङ्लड्लिटः III. iv.7 लिलोटौ - III. iii. 157 लिट: -III. iv. 81 (इच्छार्थक धातुओं के उपपद रहते) लिङ् तथा लोट् लिट् के स्थान में (जो त और झ आदेश, उनको प्रत्यय होते हैं। यथासङ्ख्य करके एश् तथा इरेच आदेश होते है)। लिङ्लोटौ - III. il. 173 ...लिटाम् -VIII. iii. 78 (आशीर्वादविशिष्ट अर्थ में वर्तमान लिङ तथा देखें-पीध्वंलुटिलटाम् VIII. iii. 78 लोट् प्रत्यय होते हैं। लिटि-II. iv.40 लिङ्सिचो: - VII. ii. 42 (अद् को विकल्प से घस्लु आदेश होता है) लिट् के (वृ तथा ऋकारान्त धातुओं से उत्तर आत्मनेपदपरक) परे रहते। लिङ् तथा सिच को विकल्प से इट् आगम होता है)। लिटि - II. iv. 49 लिसियो -I.ii. 10 ___(आर्धधातुक) लिट् परे रहते (इङ् को गाङ् आदेश होता (इक के समीप जो हल् उससे परे) लिङ् और सिच् है)। प्रत्यय (आत्मनेपदविषय में कित्वत् होते है)। लिटि-II. iv.55 लिट्-1.11.5. (आर्धधातक) लिट परे रहने पर (चक्षिक को विकल्प से (असंयोगान्त धातु से परे अपित) लिट् प्रत्यय (कित्वत् ख्या आदेश होता है)। ' होता है)। Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिटि fafe-III. i. 35 लिट् परे रहते (कास् धातु और प्रत्ययान्त धातुओं से आम् प्रत्यय होता है, अमन्त्रविषय में) । लिटि - III. 1.40 450 लिट् परे रहते (आम् प्रत्यय के बाद कृञ् = कृ तथा भू, अस् का भी अनुप्रयोग होता है)। लिटि - VI. 1. 8 लिट् लकार के परे रहते (धातु के अवयव अनभ्यास प्रथम एकाच् एवं अजादि के द्वितीय एकाच् को द्वित्व होता है। लिटि - VI. 1. 17 (दोनों के अर्थात् वचि स्वपि यजादि तथा महिज्यादियों के अभ्यास को सम्प्रसारण हो जाता है, ) लिट् लकार के परे रहते । लिटि - VI. 1. 37 लिट् लकार के परे रहते (वय् धातु के यकार को सम्प्रसारण नहीं होता है। लिटि - VI. 1. 45 (उपदेश में एजन्त व्येञ् धातु को आकारादेश नहीं होता है) लिट् लकार के परे रहते। लिटि - VI. iv. 12 (लिट् परे रहते जिस अब के आदि को आदेश नहीं हुआ है, उसके असहाय हलों के बीच में वर्तमान जो अकार, उसको एकारादेश तथा अभ्यासलोप हो जाता है; कित्, ङित्) लिट् परे रहते । लिटि - VII. ii. 13 (कृ.सू. भू, वृ. स्तु. . सु श्रुइन अगों को) लिट् प्रत्यय परे रहते (इट् आगम नहीं होता) । faf-VIL. iv. 9 (देह रक्षणे' धातु को) लिट् लकार परे रहते (दिगि आदेश होता है)। लिटि - VII. iv. 68 (व्यथ् अङ्ग के अभ्यास को) लिट् परे रहते (सम्प्रसारण होता है। लिटि - VIII. iii. 118 लिट् परे रहते (षद् धातु के सकार को मूर्धन्य आदेश नहीं होता) । ... लिटो : - VI. iv. 88 देखें - लुलिटो: VI. Iv. 88 ... लिटो : - VII. 1. 63 देखें- अशब्लिटो VII. 1. 63 ... लिटो : - VII. iii. 57 देखें - सन्लिटो: VII. III. 57 लिड्यो : - VI. 1. 29 लिवि..... लिट् तथा यङ् के परे रहते (भी ओप्यायी धातु को पी आदेश होता है)। लिति - VI. 1. 187 लित् प्रत्यय के परे रहते (प्रत्यय से पूर्व को उदात्त होता है)। लिपि... - 111. 1. 53 देखें - लिपिसिचिह्नः III. 1. 53 ... लिपि ... - III. ii. 21 देखें - दिवाविभा०] III. I. 21 लिपिसिचिह्न - III. 1. 53 लिप, सिच तथा ह्वेञ्ं से (भी चिल के स्थान में अ आदेश होता है, कर्तृवाची लुङ् परे रहने पर ) । लिप्सायाम् - III. iii. 6 प्राप्त करने की इच्छा या प्रार्थना की अभिलाषा गम्यमान होने पर (किंवृत्त उपपद हो तो भविष्यत्काल में धातु से विकल्प से लट् प्रत्यय होता है)। लिप्सायाम् - III. 1. 46 प्राप्त करने की इच्छा गम्यमान हो तो न पूर्वक मह धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है)। लिप्स्यमानसिद्धौ - III. iii.7 चाहे जाते हुए अभीष्ट पदार्थ से सिद्धि गम्यमान हो तो (भी भविष्यत्काल में धातु से विकल्प से लट् प्रत्यय होता है) । ... लिब... - III. ii. 21 देखें - दिवाविभा० III. ii. 21 Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिम्प.. 451 लुक लुक् -II. iv. 58 (ण्यन्त गोत्रप्रत्ययान्त,क्षत्रियवाची गोत्रप्रत्ययान्त.ऋषिवाची गोत्रप्रत्ययान्त तथा जित् गोत्रप्रत्ययान्त शब्द से युवापत्य में विहित अण् और इब् प्रत्ययों का) लुक् हो जाता है। लुक् -IV.i. 88 प्रारदीव्यतीय अर्थों में विहित अपत्य अर्थ से भिन्न द्विगुसम्बन्धी जो तद्धित, उसका) लुक होता है। लुक् -IV.i. 90 (प्राग्दीव्यतीय अजादि प्रत्यय की विवक्षा में युवा अर्थ में उत्पन्न प्रत्यय का) लुक् हो जाता है। लुक्-IV.i. 109 (आङ्गिरस गोत्रापत्य में जो यज् प्रत्यय, उसका स्त्री अभिधेय हो तो) लुक हो जाता है। लुक् -IV.i. 173 . (क्षत्रियाभिधायी,जनपदवाची जो कम्बोज शब्द,उससे अपत्यार्थ में विहित तद्राजसंज्ञक प्रत्यय का) लुक् हो जाता लिम्प.. -III. 1. 138 देखें-लिम्पविन्द० III. I. 138 लिम्पविन्दयारिपारिवेधुदेजिचेतिसातिसाहिन्यः - III. 1. 138 (उपसर्गरहित) लिप उपदेहे, विदल लाभे तथा णिच- त्ययान्त घृज् धारणे,पृ पालनपूरणयोः, विद चेतनाख्याननिवासेषु,उद्पूर्वक एज़ कम्पने,चिती संज्ञाने,साति (सौत्र) तथा षह मर्षणे-इन धातुओं से (भी श प्रत्यय होता है)। लियः -I. 1.70 (ण्यन्त) ली' धातु से (आत्मनेपद होता है; सम्मानन, शालीनीकरण और प्रलम्भन अर्थ में)। सम्मानन = पूजन। शालीनीकरण = अभिभवन, दबाना।। प्रलम्भन = ठगना। ....लिह...-III. 1. 141 देखें-श्याव्यय III. 1. 141 ...लिह...-VII. iii. 73 देखें-दुहदिहO VII. Iii. 73 लिह-III. ii. 32 'लिह' धातु से (वह और अभ कर्म उपपद रहते 'ख' प्रत्यय होता है)। वह = कन्धा । अन = बादल। ली...-VII. . 39 देखें-लीलो: VII. iii. 39 लीयते: - VI. 1. 50 ली धातु को (ल्यप परे रहते तथा एच के विषय में विकल्प से उपदेश अवस्था में ही आत्त्व हो जाता है)। लीलो: -VII. iii. 39 ली तथा ला अङ्गको (स्नेह = घतादि पदार्थ के पिघलना अर्थ में णि परे रहते विकल्प से क्रमशः नुक तथा लुक आगम होते है)। लुक्..-1.1.60 देखें-लुकालुलुपः I.i. 60 लुक्-I.ii. 49 (तद्धित के लक हो जाने पर उपसर्जन स्वीप्रत्यय का) लुक् = अदर्शन हो जाता है। लुक् - IV.ii. 63 (द्वितीयासमर्थ-प्रोक्त प्रत्ययान्त प्रातिपदिक से अध्येतृ-वेदित-विषयक प्रत्यय का) लुक हो जाता है। लुक्-IV. iii. 34 (श्रविष्ठा,फल्गुनी,अनुराधा,स्वाति,तिष्य,पुनर्वसु,हस्त, विशाखा, अषाढा तथा बहुल प्रातिपदिकों से जातार्थ में उत्पन्न प्रत्यय का) लुक् होता है। लुक्-IV. iii. 107 (कठ और चरक शब्द से उत्पन्न प्रोक्त प्रत्यय का छन्द विषय में) लुक् होता है। (फल अभिधेय हो तो विकार) और अवयव अर्थों में विहित प्रत्यय का) लुक् होता है। लुक् - IV. iii. 165 (षष्ठीसमर्थ कंसीय, परशव्य प्रातिपदिकों से विकार अर्थ में यथासङ्ख्य करके यञ् और अञ् प्रत्यय होते हैं तथा प्रत्यय के साथ साथ कंसीय और परशव्य का) लुक (भी) होता है। Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लुक् लुक्-VI. iv. 104 (चिण से उत्तर प्रत्यय का) लुक होता है। लुक् - VI. iv. 153 (बिल्वकादि शब्दों से उत्तर भसञक छ का) लुक् होता । लुक् -IV. iv. 24 (तृतीयासमर्थ लवण प्रातिपदिक से मिला हुआ अर्थ में उत्पन्न प्रत्यय का) लुक् होता है। . लुक्-IV.in.79 द्वितीयासमर्थ एकधुर प्रातिपदिक से 'ढोता है' अर्थ में ख प्रत्यय तथा उसका) लोप होता है। लुक्-IV. iv. 125 (उपधान मन्त्र समानाधिकरण प्रथमासमर्थ मतबन्त प्रातिपदिक से षष्ठयर्थ में यत प्रत्यय होता है, यदि षष्ठयर्थ में निर्दिष्ट ईंटें ही हों तथा मतुप का) लुक् (भी) हो जाता है, (वेदविषय में)। लुक् -v.i. 28 (अध्यर्द्ध शब्द पूर्व हो जिसके उससे तथा द्विगु-सञक प्रातिपदिक से 'तदर्हति'-पर्यन्त कथित अर्थों में उत्पन्न प्रत्यय का) लुक होता है, (सञ्जाविषय को छोड़कर)। लुक्...-.1.54 देखें-लुक्खौ v.1.54 लुक्-V.1.87 द्वितीयासमर्थ वर्ष-शब्दान्त द्विगुसज्ञक प्रातिपदिकों से 'सत्कारपूर्वक व्यापार', 'खरीदा हुआ', 'हो चुका' तथा 'होने वाला'-इन अर्थों में विकल्प करके ख प्रत्यय तथा विकल्प से) प्रत्यय का लुक् होता है। लुक्-V.1.60 (अध्याय' और 'अनुवाक' अभिषेक होने पर मत्वर्थ में विहित छ प्रत्यय का) लुक् हो जाता है। लुक् -V.ii.77 (ग्रहण क्रिया के समानाधिकरणवाची पूरण-प्रत्ययान्त प्रातिपदिक से स्वार्थ में कन् प्रत्यय होता है तथा विकल्प से) पूरण प्रत्यय का लुक भी हो जाता है। लुक् - V. iii. 30 (दिशा, देश और काल अर्थों में वर्तमान सप्तम्यन्त, पञ्चम्यन्त तथा प्रथमान्त अधातु बन्सवाले दिशावाची प्रातिपदिकों से उत्पन्न अस्ताति प्रत्यय का) लुक होता लुक् - VII. I. 22 (षट्सङ्घक से उत्तर जश, शस् का) लुक होता है। ...लुक्...- VII. 1. 39 देखें-सुलुक० VII. I. 39 ... लुक्-VII. iii. 73 (दुह प्रपूरणे,दिह उपचये,लिह आस्वादने, गुहू संवरणे- . इन धातुओं के क्स का विकल्प से) लुक् होता है, (दन्त्य अक्षर आदि वाले आत्मनेपद-सजक प्रत्ययों के परे रहते)। लुकि - VII. II. 89 (उकारान्त अङ्ग को) लुक् हो जाने पर (हलादि पित् सार्वधातुक परे रहते वृद्धि होती है)। (ऋकार उपधावाले अंङ्ग के अभ्यास को रुकु, रिक् तथा चकार से रीक आगम होता है। यडलक में। ...लकोः -VII. iv. 82 देखें-यालुको: VII. iv.32 ...लुको - V. 1.51 .. देखें-कन्तुको V. 11.51 ....लुकौ - VII. ii. 39 देखें-नुम्लुको VII. iii. 39 लुक्खौ -.1.54 (द्वितीयासमर्थ द्विगुसज्ञक कुलिजशब्दान्त प्रातिपदिक से 'सम्भव है', अवहरण' करता है तथा पकाता है' अर्थों में) प्रत्यय का लुक,ख प्रत्यय (तथा ष्ठन् प्रत्यय होते है)। लु लुलुफ-I.1.60 लक, श्ल, लुप संज्ञायें (प्रत्यय के अदर्शन की होती लुक्-V. 1.65 विन और मतुप प्रत्ययों का) लुक होता है; (अजादि अर्थात् इष्ठन् ईयसुन् प्रत्यय परे रहते)। लुङ... - I. lil. 61 देखें-लुङ्लिो : I. ii. 61 Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लुङ्... लुङ्... II. iv. 37 देखें सुनोः II. Iv. 37 - - लुङ्.. - II. iv. 50 देखें सुलझे 11. Iv. 50 - लुङ् - III. ii. 110 · (सामान्य भूतकाल में वर्तमान धातु से ) तुङ् प्रत्यय होता है। लुङ् - III. ii. 122 (स्मशब्दरहित पुरा शब्द उपपद हो तो अनद्यतन भूतकाल में धातु से लुङ् प्रत्यय (विकल्प से) होता है, (चकार से लट् भी होता है)। लुङ् - III. iii. 175 (माइ शब्द उपपद हो तो धातु से) लुङ, लिङ, लोट्) प्रत्यय भी होते है। लुङ् ... - III. Iv. 7 देखें - लुलिटः III. 1. 7 453 लुङ् ... - VI. iv. 71 देखें - लुडल VI. I. 71 लुड् .. - VI. iv. 87 देखें- लुलिटो VI. iv. 87 ..लुङ् .. VIII. iii. 78 देखें- पीलुलिटाम् VIII. III. 78 लुङि - Iiii 91 (युतादि धातुओं से) लुङ् लकार में (विकल्प से परस्मैपद होता है)। लुङि – II. Iv. 43 (आर्धधातुक) लुङ् परे रहते भी हन् को वध आदेश होता है)। लुङि - II. iv. 45 (आर्धधातुक) लुङ् परे रहते (इण् को गा आदेश होता है) । लुङि - HI. 1. 43 लुङ् परे रहते (धातु से च्लि प्रत्यय होता है)। लुक्लालिट - III. iv. 6 (वेदविषय में धात्वर्थसम्बन्ध होने पर विकल्प से) लुङ, लङ् तथा लिट् प्रत्यय होते हैं। लाल - VI. I. 71 लुङ, लक्ष् तथा लद के परे रहते (अङ्ग को अट् का आगम होता है और वह अट् उदात्त भी होता है)। लुङ्लिङोः - 1. iii. 61 लुङ, लिङ् लकार में (तथा शित् विषय में जो 'मृङ् प्राणत्यागे' धातु उससे आत्मनेपद होता है)। लुलिटो - VI. Iv. 88 (भू अङ्ग को वुक् आगम होता है) लुङ् तथा लिट् (अजादि) प्रत्यय के परे रहते । सुड्डो - IIiv. 50 लुछ और लुङ् परे रहते (इए को गाइ आदेश विकल्प से होता है)। लुप् लुड्सनो - II. iv. 37. सुद्ध और सन् (आर्धधातुक) परे रहते (अद् को घस्लृ आदेश होता है)। ...लुखि...] - 1. II. 24 देखें वचितः I. II. 24 - लुट् - III. 1. 15 (अनद्यतन भविष्यत्काल में धातु से) लुट् प्रत्यय होता है ( और वह आगे होता है) । लुट् - VIII. 1. 29 (पद से उत्तर) लुडन्त ( तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता)। लुट - II. iv. 85 लुट् लकार के (प्रथम पुरुष के स्थान में क्रमशः डा, रौ और स् आदेश होते हैं) । लुटि - I. iii. 93 लुट् लकार में (एवं स्य, सन् प्रत्ययों के होने पर भी कृपू धातु से विकल्प से परस्मैपद होता है)। ...लुटोः •III. 1. 33 देखें - लुलुटोः III. 1. 33 - ... लुण्ठ... - III. ii. 155 देखें- जल्पभिक्ष० III. II. 155 लुप् - Iii. 54 लुब्विधायक सूत्र - जनपदे लुप् वरणादिभ्यश्च इत्यादि (भी विहित नहीं किये जा सकते, निवासादि Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लुप् सम्बन्ध के अप्रतीत होने से ) । लुप् – IV. ii. 4 (पूर्वसूत्र से नक्षत्रवाची शब्दों से विधान किये गये प्रत्यय का यदि सामान्यतया नक्षत्रयोग कहना हो तो) लुप् होता है। लुप् - IV. ii. 80 (झ्यन्त आवन्त प्रातिपदिक से देशसामान्य में जो चातुरर्थिक प्रत्यय, उसका प्रान्तविशेष को कहना हो तो) लुप् जाता है। लुप् - IV. iii. 163 (षष्ठीसमर्थ जम्ब प्रातिपदिक से फल अभिधेय होने पर विकारावयव अर्थों में विहित प्रत्यय का विकल्प से) लुप् (भी) होता है। लुप्... - V. ii. 105 देखें सुबलची VII. 105 -V. iii. 98 (संज्ञाविषय में विहित कन् प्रत्यय का मनुष्य होने पर) लुप् हो जाता है। - लुप... - III. 1. 24 देखें - लुपसदचर० III. 1. 24 - 454 ..लुपः I. 1. 60 देखें- लुक्स्लुलुप 1.1.60 लुपसदवरजपजभदादशगृभ्य III. 1. 24 लुप, सद, चर, जप, जभ, दह, दश, गुइन धातुओं से (भाव की निन्दा अर्थात् धात्वर्थ की निन्दा में ही यङ् प्रत्यय होता है)। - अभिधेय - gfa - I. ii. 51 प्रत्यय के लुप् अर्थात् अदर्शन होने पर उस प्रत्यय के अर्थ में लिङ्ग और संख्या प्रकृत्यर्थ के समान हों) । लुपि - II. iii. 45 लुबन्त (नक्षत्रवाची शब्द से (तृतीया और सप्तमी विभक्ति होती है। लुबिलची Vii. 105 (सिकता तथा शर्करा प्रातिपदिकों से 'देश' अभिधेय हो तो) लुप् और इलच् प्रत्यय (तथा अण् प्रत्यय विकल्प से होते हैं, मत्वर्थ में) । योगे - V. 1. 126 (बहुव्रीहि समास में) व्याध का सम्बन्ध होने पर (दक्षिणेर्मा' शब्द अनिच्-प्रत्ययान्त निपातन किया जाता है)। .. लुभ... - VII. ii. 48 'देखें - इषसहलुभo VII. 1. 48 लुभः - VII. 1. 54 (व्याकुल करने अर्थ में वर्तमान) लुभ् धातु से उत्तर (क्त्वा तथा निष्ठा को इट् आगम होता है)। लद लुमता - I. 1. 62 = लुमान् लुक्, श्लु, लुप् शब्दों से (प्रत्यय का अदर्शन हुआ हो तो उसके परे रहते जो अङ्ग, उस अङ्ग को जो प्रत्यय-लक्षण कार्य प्राप्त हों, वे नहीं होते) । ... लू... - III. ii. 184 देखें- अर्तिलूधू० III. 1. 184 लू... - III. 1. 33 देखें- लुलुटोः 111.1.33 लृङ् - III. iii. 139 (भविष्यत्काल में लिङ् का निमित्त होने पर क्रिया का उल्लंघन अथवा सिद्ध न होना गम्यमान हो तो धातु से) लृङ् प्रत्यय होता है। ..st: - II. iv. 50 देखें - लुडलुडो IIiv. 50 ... लृङ्क्षु - VI. iv. 71 देखें - लुड्लङ् VI. iv. 71 लृट् - III. 1. 112 (अभिज्ञावचन अर्थात् स्मृति को कहने वाला कोई शब्द उपपद हो तो धातु से अनद्यतन भूतकाल में) लुट् प्रत्यय होता है। लृट् - III. iii. 13 (धातु से केवल भविष्यत्काल में तथा क्रियार्थ क्रिया उपपद रहने पर भी भविष्यत्काल में) लृट् प्रत्यय होता है। लृट् - III. iii. 133 (शीघ्रवाची शब्द उपपद हो तो आशंसा गम्यमान होने पर धातु से) लुट् प्रत्यय होता है। लृट् – III. Iii. 146 (अनवक्लुप्ति तथा अमर्ष गम्यमान हों तो किंकिल तथा अस्ति अर्थ वाले पदों के उपपद रहते धातु से) लृट् प्रत्यय होता है।" Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 455 .. . लोट् लट् -III. iii. 151 लेट: -III. iv.94 (यदि का प्रयोग न हो तो यच्च, यत्र से भिन्न शब्द लेट् लकार को (अट आट आगम पर्याय से होता है)। उपपद हो तो चित्रीकरण गम्यमान होने पर धातु से) लृट् लेटि-III. 1. 34 प्रत्यय होता है। । लेट् परे रहते (धातु से बहुल करके सिप होता है)। लट् - VII. I. 47 लेटि - VII. ii. 70 (एहि तथा मन्ये से युक्त) लडन्त तिङन्त को (हँसी गम्यमान हो तो अनुदात्त नहीं होता)। (घुसज्ञक अङ्ग का) लेट् परे रहते (विकल्प से लोप होता है)। लट् - VIII. 1.51 ...लो: - VII. iii. 39 (गति अर्थवाले धातुओं के लोट् लकार से युक्त)लुडन्त देखें - लीलो: VII. iil. 39 (तिडन्त को अनुदात्त नहीं होता, यदि कारक सारा अन्य न हो तो)। . लोक...-v.i. 43 देखें - लोकसर्वलोकात् v. i. 43 लुटः -III. iii. 14. लोकसर्वलोकात् -V. 1.43 (भविष्यत्काल में विहित जो) लट्, उसके स्थान में । (सप्तमीसमर्थ) लोक तथा सर्वलोक प्रातिपदिकों से (सत्संज्ञक शत,शानच प्रत्यय विकल्प से होते हैं)। (प्रसिद्ध' अर्थ में ठञ् प्रत्यय होता है)। ...लटी-III.11.144 लोकाव्ययनिष्ठाखलर्थतनाम् -II. iil. 69 देखें -लिङ्लटौ III. III. 144 ल अर्थात् लकारस्थानी शतृ शानच् आदि, उ, उक, ....लदित - III. 1.55 अव्यय, निष्ठा, खलर्थ और तन प्रत्ययान्तों के योग में देखें-पुपादिधुताच्o III. I. 55 (षष्ठी विभक्ति नहीं होती)। ललुटोः - III. 1. 33 लोट् -III. iii. 162 (धातु से)ल = लृट,लङ् तथा लुट् परे रहते (यथासंख्य - करके स्य तथा तास प्रत्यय हो जाते है)। (विधि,निमन्त्रण,आमन्त्रण, अधीष्ट,सम्प्रश्न,प्रार्थना अ थों में) लोट् प्रत्यय (भी) होता है। ले: - II. iv. 80 लोट् -III. 1. 165 (घस, हर, णश,व, दह, आदन्त, वृच, कृ, गम् और जन् से विहित) फिल का (लुक् होता है, मन्त्रविषयक प्रयोग (औषादि अर्थ गम्यमान हों तो मुहर्त भर से ऊपर के होने पर)। काल के कहने में स्म शब्द उपपद रहते धातु से) लोट् प्रत्यय होता है। , लेख..-VI. iii. 49 देखें-लेखयदण VI. iii. 49 लोट् - III. iv.2 लेखयदण्लासेषु - VI. iii. 49 (क्रिया का पौन:पन्य गम्यमान हो तो धात से धात्वर्थ सम्बन्ध होने पर सब कालों में) लोट् प्रत्यय हो जाता है (हृदय शब्द को हृत् आदेश होता है; लेख, यत्, अण् (और उस लोट् के स्थान में सब पुरुषों तथा वचनों में हि तथा लास परे रहते। । और स्व आदेश नित्य होते हैं तथा त, ध्वम भावी लोट लास = खेलना, कूदना, प्रेमालिङ्गन, स्त्रियों का नाच, के स्थान में विकल्प से हि.स्व आदेश होते है)। रसा। लोट् - VIII. 1. 52 लेट् -III. iv.7 - (वेदविषय में लिङ् के अर्थ में धातु से विकल्प से) लेट (गत्यर्थक धातुओं के लोडन्त से युक्त) लोडन्त (तिडन्त . प्रत्यय होता है (और वह परे होता है)। को भी अनुदात्त नहीं होता, यदि कारक सारे अन्य न हों तो)। Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . लोट 456 लोपः । लोट् - VIII. iv. 16 (उपसर्ग में स्थित निमित्त से उत्तर) लोडादेश (आनि के नकार को णकारादेश होता है)। लोटः-III. iv.2 क्रिया का पौनपन्य गम्यमान हो तो धात से धात्वर्थ सम्बन्ध होने पर सब कालों में लोट प्रत्यय हो जाता है और उस) लोट् के स्थान में हि और स्व आदेश नित्य होते हैं तथा त, ध्वम् भावी लोट् के स्थान में विकल्प से हि,स्व आदेश होते है)। लोट: -III. iv.85 लोट् लकार को (लङ्ग के समान कार्य हो जाते है। ...लोटौ - III. . 157 देखें-लिङ्लोटौ III. ii. 157 ...लोटौ-III. iii. 173 देखें-लिङ्लोटौ III. 1. 173 लोडर्थलक्षणे-III. 11.8 करो.करो.ऐसा प्रेरित करना- यह लोट का अर्थ यदि गम्यमान हो तो (भी धातु से भविष्यत् काल में विकल्प से लट् प्रत्यय होता है)। लोपः-1.1.59 (विद्यमान के अदर्शन की) लोप संज्ञा होती है। लोप-I.11.9 (उस इत्सझक वर्ण का) लोप = अदर्शन होता है। लोप-III. I. 12 (भृश आदि अच्च्यन्त प्रातिपदिकों से भूधात के अर्थ में क्यङ् प्रत्यय होता है और भूशादि में विद्यमान हलन्तों के हल का) लोप (भी) होता है। लोप -III. iv. 97 (परस्मैपदविषय में लेट-लकार-सम्बन्धी इकार का भी विकल्प से) लोप हो जाता है। लोप -V.. 133 (अपत्यार्थ में आये हुए ढक् प्रत्यय के परे रहते पितृष्वस शब्द का) लोप हो जाता है। लोप -v.iv.1 (सङ्ख्या आदि में है जिसके.ऐसे पाद और शत शब्द अन्तवाले प्रातिपदिकों से वीप्सा गम्यमान हो तो वुन प्रत्यय होता है तथा प्रत्यय के साथ-साथ पाद और शत के अन्त का) लोप (भी) हो जाता है। लोपः-v.iv.51 (सम्पद्यते के कर्ता में वर्तमान अरुस, मनस, चक्षुस्, चेतस्, रहस् तथा रजस् शब्दों के अन्त्य का) लोप (भी कृ, भू तथा अस्ति के योग में) हो जाता है (तथा च्चि प्रत्यय भी होता है)। . लोप: - V. iv. 138 (उपमानवाचक हस्त्यादिवर्जित प्रातिपदिकों से उत्तर जो पाद शब्द,उसका समासान्त) लोप हो जाता है, (बहुव्रीहि समास में) लोप: - V. iv. 146 (बहुव्रीहि समास में ककुभ-शब्दान्त का समासान्त) लोप होता है, (अवस्था गम्यमान होने पर)। लोपः - VI.1.64 (वकार और यकार का वल् परे रहते) लोप होता है।' लोप: - VI. iv. 21 (रेफ से उत्तर छकार और वकार का) लोप हो जाता है; (क्वि तथा झलादि अनुनासिकादि प्रत्ययों के परे रहते)। लोप-VI. iv. 37 . (अनुदात्तोपदेश और जो अनुनासिकान्त उनके तथा वन् एवं तनोति आदि अङ्गों के अनुनासिक का) लोप होता है; (झलादि कित्, ङित् प्रत्ययों के परे रहते)। लोप - VI. iv. 45 (क्तिच् प्रत्यय परे रहते सन् अङ्गको आकारादेश हो जाता है तथा विकल्प से इसका) लोप भी होता है। लोपः -VI. iv. 48 (अकारान्त अङ्गका आर्धधातुक परे रहते) लोप हो जाता लोप: - VI. iv.64 (इडादि आर्धधातुक तथा अजादि कित.डित् आर्धधातुक प्रत्ययों के परे रहते आकारान्त अङ्ग का) लोप होता है। लोप: - VI. iv.98 (गम, हन,जन,खन,घस्-इन अङ्गों की उपधा का) लोप हो जाता है; (अभिन्न अजादि कित, डित् प्रत्यय परे रहते)। Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 457 लोमादि.... लोपः - VI. iv. 107 पृतना= सेना, युद्ध। असंयोगपूर्व जो उकार, तदन्त इस प्रत्यय का भी लोपः -VII. iv.50 विकल्प से लोप होता है,मकारादि तथा वकारादि प्रत्ययों (तास तथा अस् धातु के सकार का सकारादि आर्धधाके परे रहते। तुक के परे रहते) लोप होता है। लोपः -VI. iv. 118 लोप: - VII. iv. 58 '(ओहाक् अङ्ग का) लोप होता है; (यकारादि कित्, ङित् (यहाँ सन् परे रहते जो कार्य कहा है, अर्थात् जो इस्, सार्वधातुक परे रहते)। ईत का विधान किया है, उनके अभ्यास का) लोप होता लोप: - VI. iv. 147 (कद्र शब्द को छोड़कर जो उवर्णान्त भसज्जक अङ्ग लोप - VIII. II. 23 उसका ढ तद्धित प्रत्यय परे रहते) लोप होता है। लोप: - VI. in. 158 (संयोग अन्तवाले पद का) लोप होता है। (बहु शब्द से उत्तर इष्ठन्, इमनिच् तथा ईयसुन् का) लोप: - VIII. Iii. 19 लोप होता है (और उस बहु के स्थान में भ आदेश भी। (अवर्ण पूर्व वाले पदान्त यकार, वकार का शाकल्य ' होता है)। आचार्य के मत में) लोप होता है। लोप-VII.1.41 लोप: - VIII. IN.63 (वेद-विषय में आत्मनेपद में वर्तमान तकार का) लोप (हल से उत्तर यम् का यम् परे रहते विकल्प से) लोप हो जाता है। होता है। लोप - VII. I. 88 लोपे - VI. 1. 130 (पथिन्, मथिन् तथा ऋभुक्षिन् भसञक अङ्गों के टि भाग का) लोप होता है। (स्यः के सु का लोप होता है अच् परे रहते, यदि) लोप लोप-VII. 1. 90 होने पर (पाद की पूर्ति हो रही हो)। ' (शेष विभक्ति के परे रहते युष्मद, अस्मद् अङ्ग का) लोपे - VIII. 1. 45 लोप होता है। (किम् शब्द का) लोप होने पर (क्रिया के प्रश्न में अनुलोप - VII. II. 113 पसर्ग तथा अप्रतिषिद्ध तिङ्को विकल्प करके अनुदात्त (ककाररहित इदम् शब्द के इद् भाग का हलादि नहीं होता। विभक्ति परे रहते) लोप होता है। ...लोम...-III. 1. 25 लोपः -VII. iii. 70 देखें- सत्यापपाशo III. 1. 25 (घुसज्ञक अङ्ग का लेट् परे रहते विकल्प से) लोप होता ....लोम...- IV. iv. 28 देखें - ईपलोमकूलम् IV. iv. 28 लोए - VII. iv. 4 लोमसु- VII. II. 29 (पा पाने' अङ्ग की उपधा का चङ्परक णि परे रहते) — लोम विषय में (हष् धातु को निष्ठा परे रहते इट् आगम लोप होता है (तथा अभ्यास को ईकारादेश होता है)। विकल्प से नहीं होता है)। लोप - VII. iv. 39 लोमादि.... - V. 1. 100 (कवि, अध्वर, पृतना- इन अङ्गों का) लोप होता है; देखें - लोमादिपामादि० V. 1. 100 (क्यच् परे रहते,पादबद्धमन्त्र के विषय में)। Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोमादिपामादिपिच्छादिभ्यः 458 लोमादिपामादिपिच्छादिभ्यः -- V. ii. 100 . लोमादि, पामादि तथा पिच्छादि-इन तीन गणपठित प्रातिपदिकों से (मत्वर्थ में यथासंख्य करके विकल्प से श,न तथा इलच् प्रत्यय होते है)। ...लोग्न: - V.iv.75 देखें - सामलोम्न: V. iv.75 लोग्न: -V.iv. 117 (अन्तर् तथा बहिस् शब्दों से उत्तर भी) जो लोमन् शब्द, तदन्त (बहुव्रीहि) से (समासान्त अप् प्रत्यय होता है)। लोहितात् - V. iv. 30 (मणि-विशेष में वर्तमान) लोहित प्रातिपदिक से (कन् प्रत्यय होता है, स्वार्थ में)। लोहितादि....-III. i. 13 देखें-लोहितादिडाज्य: III. I. 13 लोहितादि...- IV. 1. 18 देखें - लोहितादिकतन्तेभ्यः IV. 1. 18 लोहितादिकतन्तेभ्यः - IV.i. 18 (अनुपसर्जन यजन्त) लोहित से लेकर कत पर्यन्त प्रातिपदिकों से (स्त्रीलिङ्ग विषय में ष्फ प्रत्यय होता है; सब आचार्यों के मत में और वह तद्धितसंज्ञक होता है)। लोहितादिडाज्यः - III. 1. 13 (अळ्यन्त) लोहित आदि तथा डाच्यत्ययान्त शब्दों से (भवति अर्थ में क्यष् प्रत्यय होता है)। ल्यप् - II. iv. 36 (अद् को जग्ध् आदेश होता है) ल्यप् परे रहते (तथा तकारादि कित् आर्धधातुक के परे रहते)। ल्यप् -VII. 1.37 - (नञ् से भिन्न पूर्व अवयव है जिसमें, ऐसे समास में क्त्वा के स्थान में) ल्यप आदेश होता है। ल्यपि-VI. 1.40 ल्यप् के परे रहते (भी वेञ् धातु का सम्प्रसारण नहीं होता है)। ल्यपि -VI.1.49 (मीज,डुमिञ् तथा दीङ् धातुओं को) ल्यप् के परे रहते (तथा एच के विषय में भी उपदेश अवस्था में ही आत्व हो जाता है)। ल्यपि - VI. iv.38 (अनुदात्तोपदेश,वनति तथा तनोति आदि अङ्गों के अनुनासिक का लोप) ल्यप् परे रहते विकल्प करके होता है। ल्यपि - VI. iv. 56 (लघु है पूर्व में जिससे, ऐसे वर्ण से उत्तर णि के स्थान ' ' में) ल्यप् परे रहते (अयादेश हो जाता है)। ल्यपि -VI. iv. 69. . (घु, मा, स्था, गा, पा, हा तथा सा अङ्गों को) ल्यप् परे. रहते (जो कुछ कहा है, वह नहीं होता)। .. ल्यु...-III. 1. 134 देखें - ल्युणिन्यचः III. 1. 134 ल्युट -III. iii. 115 (नपुंसकलिङ्ग भाव में धातु से) ल्युट् प्रत्यय (भी) होता ...ल्युटः-III. iii. 111 . देखें - कृत्यल्युटः III. iii. 111. ल्युणिन्यचः - III. I. 134 (नन्द्यादि, ग्रह्यादि तथा पचादि धातुओं से यथासंख्य करके) ल्यु,णिनि तथा अच् प्रत्यय होते हैं। खान्तस्य -VII. ii. 2 . (अकार के समीप वाले) रेफान्त तथा लकारान्त अङ्ग के (अकार के स्थान में ही वृद्धि होती है.परस्मैपदपरक सिच् परे हो तो)। ...ल्कः -III. 1. 149 देखें-प्रसल्वः III.i. 149 Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 459 क-VII. iii. 41 (स्फायी वृद्धौ' अङ्ग को णि परे रहते) वकारादेश होता -प्रत्याहारसूत्र XI आचार्य पाणिनि द्वारा अपने ग्यारहवें प्रत्याहारसूत्र में इत्सद्धार्थ पठित वर्ण। व... - VI.1.64 . देखें-व्यो: VI. 1.64 ... -VIII. 1. 18 देखें-व्योः VIII. 1. 18 व-प्रत्याहारसूत्र v आचार्य पाणिनि द्वारा अपने पञ्चम प्रत्याहारसूत्र में पठित तृतीय वर्ण। पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्णमाला का बारहवां वर्ण। ...... -III. iv.82 देखें-णलतुसुस्० III. iv. 82 ६.. -III. iv.91 . देखें-वामौ III. iv.91 - व..-VI. iv. 137 देखें-वमौ VI. iv. 137 व..-VIII. iv. 22 देखें-बमो: VIII. in 22 4-v.ii.40 "(प्रथमासमर्थ परिमाणसमानाधिकरणवाची किम् तथा इदम् प्रातिपदिकों से षष्ठ्यर्थ में वतुप् प्रत्यय होता है और उस वतुप के) वकार के स्थान में (घकार आदेश हो जाता है)। 4-v.ii. 109 (केश प्रातिपदिक से मत्वर्थ में विकल्प से) व प्रत्यय होता है। -VI.1. 38 . (इस वय के यकार को कित लिट प्रत्यय के परे रहते विकल्प से) वकारादेश (भी) हो जाता है। 4-VII. III. 38 (कंपाना' अर्थ में वर्तमान) वा धातु को (णि परे रहते बुक आगम होता है)। क-VIII. ii.9 (यकारान्त एवं अवर्णान्त तथा मकार एवं अवर्ण उपधावाले प्रातिपदिक से उत्तर मतुप को) वकारादेश होता है, किन्तु यवादि शब्दों से उत्तर मतुप को नहीं होता)। २-VIII. ii. 52 'डुपचष् पाके' धातु से उत्तर निष्ठा के तकार को) वकारादेश होता है। क-VIII. iii. 33 (मय प्रत्याहार से उत्तर उ को अच् परे रहते विकल्प करके) वकारादेश होता है। ...वक्ति... -III. . 52 देखें-अस्यतिवक्ति III. I. 52 ...वक्त्र... -IV. 1. 125 - देखें-कच्छाग्नि IV.ii. 125 व -VII. iii. 67 (शब्द की सजा न हो तो) वच् अङ्ग को (ण्य परे रहते कवर्गादेश नहीं होता)। वचः-VII. iv. 20 वच् अङ्ग को (अङ् परे रहते उम् आगम होता है)। ...वचन... -VI. iii. 84 देखें-ज्योतिर्जनपद० VI. iii. 84 ...क्वनमात्रे -II. iii. 46 . . देखें - प्रातिपदिकार्थलिग II. I. 46 ...वचने-I.ii. 51 देखें- व्यक्तिवचने I. ii. 51 वचि... -VI.i. 15 देखें-वचिस्वपियजादीनाम् VI. I. 15 वचिः -II. iv.53 (बूज को आर्धधातुक के विषय में) वचि आदेश होता Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचिस्वपियजादीनाम् 460 वत्स ... वतण्डात् - IV. 1. 108 वतण्ड शब्द से (भी आङ्गिरस गोत्र को कहना हो तो यञ् प्रत्यय होता है)। वतिः - V.i. 114 (तृतीयासमर्थ प्रातिपदिकों से 'समान' अर्थ में) वति प्रत्यय होता है; (यदि समानता क्रिया की हो तो)। ...वतु... -I.1.22 देखें-बहुगणवतुडति I.i. 22 वतप-v.ii. 39 (प्रथमासमर्थ परिमाणसमानाधिकरणवाची यत्, तत् तथा एतद् प्रातिपदिकों से षष्ठ्यर्थ में) वतुप् प्रत्यय होता वचिस्वपियजादीनाम् -VI.I. 15 - वच, जिष्वप् तथा यजादि धातुओं को (कित् प्रत्यय के परे रहते सम्प्रसारण हो जाता है)। ...वन... - VI. iii. 59 देखें-मन्यौदन VI. iii. 59 वचि.. -I. ii. 24 देखें-वञ्चिलुज्यतः I. ii. 24 वञ्चिलुच्यतः -1. ii. 24 वच, लुञ्च, ऋत् -इन धातुओं से परे (भी सेट् क्त्वा प्रत्यय विकल्प करके कित नहीं होता है)। वच... - VII. iv.84 देखें-वञ्चुत्रंसु० VII. iv.84 कञ्चुलंसुध्वंसुभ्रंशुकसपतपदस्कन्दाम् - VII. iv.84 वक्षु, स्रंसु, ध्वंसु, अंशु, कस, पत्लु,पद, स्कन्दिर् -इन धातुओं के (अभ्यास को यङ् तथा यङ्लुक परे रहते नीक आगम होता है)। को: - VII. iii. 63 (गति अर्थ में वर्तमान) वचु अङ्ग को (कवर्गादेश नहीं होता)। ...कञ्चयोः -I. iii. 69 देखें-गृधिवञ्च्योः I. 11.69 ...क्ट... - V.I. 120 देखें - अंचतुरमङ्गल० V. 1. 120 ...क्टम् - VI. ii. 82 देखें-दीर्घकाशo VI. 1.82 ...क्टेः-v.ii. 139 देखें-तुन्दिबलि० V.ii. 139 ...क्टर...-Nili. 118 देखें- क्षुद्राभ्रमर IV. iii. 118 ...वडवी-II. iv. 26 देखें - अश्ववडवौ II. iv. 26 वणिजाम् -III. ill. 52 वणिक्सम्बन्धी तत्त्व प्रत्ययान्त का वाच्य हो (ले प्र पूर्वक ग्रह धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में विकल्प से घञ् प्रत्यय होता है)। ...वतुषु -VI. iii. 88 देखें - दृक्दृश्वतुषु VI. iii. 88 . वते: -v.i. 18 (यहाँ से आगे) वतेः = 'तेन तुल्यं क्रिया चेदतिः सूत्र से पहले पहले तक (ठञ् प्रत्यय अधिकृत होता है)। वतोः - V.I. 23 वतप्रत्ययान्त सङ्ख्यावाची प्रातिपदिक से (तदर्हति'पर्यन्त कथित अर्थों में कन् प्रत्यय होता है तथा उस कन् को विकल्प से इट् आगम होता है)। वतो: - V. ii. 53 वतुप-प्रत्ययान्त प्रातिपदिक को (पूरण' अर्थ में विहित डट् प्रत्यय के परे रहते तिथुक् आगम होता है)। ...वत्स... -IV.i. 102 . देखें- भृगुवत्साग्रा० IV. 1. 102 वत्स.. -IV.i. 117 देखें-वत्सभरद्वाजा IV.i. 117 ...वत्स... -IV.ii. 38 देखें-गोत्रोझोष्टो IV. 1. 38 वत्स.. -V. 1. 98 देखें- वत्सांसाभ्याम् V. 1. 98 वत्स... - V. 11.90 देखें-वत्सोमा0 v. iii. 90 Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वत्सभरद्वाजात्रिषु वत्सभरद्वाजात्रिषु – IV. 1. 117 ( विकर्ण, शुङ्ग, छगल शब्दों से यथासङ्ख्य करके) वत्स, भरद्वाज और अत्रि अपत्यविशेष को कहना हो (तो अण् प्रत्यय होता है)। वत्सरान्तात् - V. 1. 90 वत्सर शब्दान्त ( द्वितीयासमर्थ) प्रातिपदिकों से (सत्कारपूर्वक व्यापार', 'खरीदा हुआ', 'हो चुका' तथा 'होने वाला' अर्थों में छ प्रत्यय होता है. वेदविषय में)। वत्सशाल... - IV. iii. 36 देखें - वत्सशालाभिजिo IV. iii. 36 वत्सशालाभिजिदश्वयुक्शतभिषज IV. ill. 36 वत्सशाल, अभिजित् अश्वयुज्, शतभिषज् प्रातिपदिकों से (जातार्थ में उत्पन्न प्रत्यय का विकल्प से लुक् होता है) । वत्सांसाभ्याम् - VII. 98 वत्स और अंस प्रातिपदिकों से (मत्वर्थ' में यथासङ्ख्य करके काम तथा बल अर्थ गम्यमान हो तो लच् प्रत्यय होता है)। अंस = भाग, कन्धा । ... वत्सेभ्यः - VI. ii. 168 देखें - अव्ययदिक्शब्द० VI. II. 168 वत्सोक्षाश्वर्षभेभ्यः - V. iii. 90 वत्स, उक्षन्, अश्व, ऋषभ इन प्रातिपदिकों से (अल्पता' द्योतित हो रही हो तो ष्टरच् प्रत्यय होता है)। ऋषभ सांह, श्रेष्ठ, संगीत का स्वर, सूअर या मगरमच्छ की पूंछ । .. वद... - I. ii. 7 देखें 461 मृडमृदगुधकुषक्लिशवदवसः III. 7 .. वद... - I. iii. 89 देखें पादभ्याइयमायस० 1 lii. 89 ... वद... - III. ii. 145 देखें - प० III. 145 - वद... VII. ii. 3 देखें - वदंब्रज० VII. I. 3 वदः - I. iii. 47 ( भासन, उपसम्भाषा, ज्ञान, यल, विमति तथा उपमन्त्रण अर्थों में) वद धातु से (आत्मनेपद होता है)। भासन = चमकना, छुतिमान । उपसम्भाषा = - वार्त्तालाप, मैत्रीपूर्ण अनुरोध । । विमति = मूर्ख, असहमति, अरुचि । उपमन्त्रण = सम्बोधित करना, उकसाना । वदः - I. iii. 73 (अप उपसर्ग से उत्तर) वद् धातु से (आत्मनेपद होता है, क्रियाफल के कर्ता को मिलने पर - III. i. 106 वदः वद् धातु से (उपसर्गरहित होने पर सुबन्त उपपद रहते क्यप् प्रत्यय होता है; चकार से यत् प्रत्यय भी होता है)। - - वदः -III. ii. 38 वद् धातु से (प्रिय और वश कर्म उपपद रहते 'खच्' प्रत्यय होता है)। ... वदयोः - VI. III. 101 देखें- रचक्दयोः VI. III. 101 वदव्रजहलन्तस्य - VII. ii. 3 वद, व्रज तथा हलन्त अगों के (अच् के स्थान में वृद्धि होती है, परस्मैपदपरक सिच् के परे रहते)। ... मंदि... - III. iv. 16 देखें स्वेण्कृञ्o III. iv. 16 .... वदेषु - I. Iv. 68 देखें - गत्यर्थवदेषु I. Iv. 68 वध - II. iv. 42 (हन् धातु को) वध आदेश होता है, (आर्धधातुक लिङ् परे रहते) । वध: - III. iii. 76 (अनुपसर्ग हन् धातु से भाव में अप् प्रत्यय होता है तथा प्रत्यय के साथ ही हन् को) वध आदेश भी हो जाता है । वन... - IV. iv. 91 - तार्यतुल्यo IV. iv. 91 - ..वध्य... देखें ...वध्योः VII. iii. 35 देखें - जनिवध्योः VII. iii. 35 III. 1. 27 - वन... देखें - वनसन० III. 1. 27 -- Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन... 462 वन... -VI. iii. 116 देखें-वनगिर्यो: VI. iii. 116 वनः -IV.i.7 वन अन्त वाले प्रातिपदिकों से (स्त्रीलिङ्ग में डीप प्रत्यय होता है, तथा उस वनन्त प्रातिपदिक को रेफ अन्तादेश भी होता है)। वनगियों: - VI. iii. 116 वन तथा गिरि शब्द उत्तरपद रहते (यथासंख्य करके कोटरादि एवं किंशुलकादि गणपठित शब्दों को सञ्जाविषय में दीर्घ होता है)। ...वनति... - VI. iv. 37 देखें- अनुदात्तोपदेशवनति VI. iv. 37 वनम् - VI. ii. 136 वनवाची (उत्तरपद कुण्ड) शब्द को (तत्पुरुष समास में आधुदात्त होता है)। वनम् -VI. ii. 178 (समासमात्र में उपसर्ग से उत्तर उत्तरपद) वन शब्द को (अन्तोदात्त होता है)। वनम् - VIII. iv. 44 (पुरगा, मिश्रका, सिध्रका, शारिका, कोटरा, अग्रे-इन शब्दों से उत्तर) वन शब्द के (नकार को णकारादेश होता है, सञ्जाविषय में)। वनसनरक्षिमथाम् - III. ii. 27 (वेदविषय में) वन, षण, रक्ष,मथ - इन धातुओं से (कर्म उपपद रहते इन् प्रत्यय होता है)। ...वनस्पतिभ्यः -VIII. iv.6 देखें- ओषधिवनस्पतिभ्य: VIII. iv. 6 वनस्पत्यादिषु - VI. ii. 140 वनस्पति आदि समस्त शब्दों में (दोनों = पूर्व तथा उत्तरपद को एक साथ प्रकृतिस्वर होता है)। ...वनिप: -III. ii.74 देखें-मनिन्क्वनिप् III. ii. 74 ...वनो: -VI. iv.41 देखें-विड्वनो: VI. iv. 41 ...वन्द... -VI. I. 208 देखें-ईडवन्दOVI.1 208 वन्दिते - V. iv. 157 'पूजित' अर्थ में (वर्तमान प्रात-शब्दान्त बहुव्रीहि से समासान्त कप् प्रत्यय नहीं होता है)। ...वन्द्यो : -III. ii. 173 देखें-शृवन्द्योः III. ii. 173 ...वपति... - VIII. iv. 17 देखें- गदनदO VIII. iv.17 ...वपि... -III. 1. 126 देखें-आसुयुवपि III.I. 126 वप्रत्यये - VI. ii. 52 (इक अन्त में नहीं है जिसके, ऐसे गतिसञक को) वप्रत्ययान्त (अञ्जु धातु) के परे रहते (प्रकृतिस्वर होता है)। . वप्रत्यये - VI. iii. 91 (विष्वग् तथा देव शब्दों के तथा सर्वनाम शब्दों के टिभाग को अद्रि आदेश होता है) वप्रत्ययान्त (अनु धातु) के परे रहते। विष्वग् = सर्वव्यापक भागों में अलग-अलग करने वाला। ...वम.. -III. ii. 157 देखें -जिदृक्षिIII. ii. 157 वमन्तात् - VI. iv. 137 वकार तथा मकार अन्त में है जिसके, ऐसे (संयोग) से उत्तर (तदन्त भसज्ज्ञक अन् के अकार का लोप नहीं होता)। वमिति -VII. ii. 34 . वमिति शब्द वेदविषय में इडागमयुक्त निपातित होता वमो: - VIII. iv. 22 (उपसर्ग में स्थित निमित्त से उत्तर अकार पूर्ववाले हन धातु के नकार को विकल्प से) व तथा म परे रहते (णकार आदेश होता है)। वय: - IV. iii. 159 (षष्ठीसमर्थ द्र प्रातिपदिक से मानरूपी विकार अभिधेय हो तो) वय प्रत्यय होता है। द्रु = लकड़ी, वृक्ष,शाखा। Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 463 वरुणस्य वयः-VI.i.37 (लिट् लकार के परे रहते वय् धातु के (यकार को सम्प्रसारण नहीं होता है)। ...वयस्... - IV. iv.91 देखें-नौवयोधर्म IV. iv. 91 ...वयस्... - VI. iii. 64 'देखें-ज्योतिर्जनपद० VI. iii. 64 वयसि-III. ii. 10 आय गम्यमान होने पर (भी कर्म उपपद रहते हब धातु से 'अच्' प्रत्यय होता है)। वयसि -IV.i. 20 (प्रथम) अवस्था में वर्तमान (अनुपसर्जन) अदन्त प्राति- पदिकों से स्त्रीलिङ्ग में डीप् प्रत्यय होता है)। वयसि -v.i. 80 . (द्वितीयासमर्थ कालवाची मास प्रातिपदिक से) अवस्था गम्यमान होने पर(हो चुका' अर्थ में यत् और खञ् प्रत्यय होते है)। . वयसि -v.ii. 130 (पूरणप्रत्ययान्त शब्दों से) अवस्था गम्यमान हो तो (मत्वर्थ' में इनि प्रत्यय होता है)। वयसि -V.iv. 141 (सङ्ख्यापूर्ववाले तथा सु-पूर्व वाले दन्त शब्द को समा'सान्त दत आदेश होता है; (बहुव्रीहि समास में)। वयसि - VI. 1.95 अवस्था गम्यमान हो तो (कुमारी शब्द उपपद रहते पूर्वपद् को अन्तोदात्त होता है)। वयस्यासु - IV. iv. 127 (उपधानमन्त्र-समानाधिकरण प्रथमासमर्थ मतुबन्त मूर्धन् प्रातिपदिक से) वयस्या = वयस् शब्द वाला मन्त्र उपधा में मन्त्र है जिनका, ऐसे (ईटों) के अभिधेय होने पर (मतुप् प्रत्यय होता है तथा प्रकृत्यन्तर्गत जो मतुप,उसका लुक् हो जाता है)। ...वयि... -VI.i. 16 देखें- ग्रहिज्या० VI. 1. 16 वयिः-II. iv.41 (वे के स्थान में लिट् आर्धधातुक परे रहते) वयि आदेश होता है। ...वयोवचन...-III. ii. 129 देखें-ताच्छील्यवयोवचन III. 1. 129 ...वयोवचन...-v.i. 128 देखें-प्राणभृज्जातिवयो० V. 1. 128 ...वयौ...- VII. ii. 93 देखें- यूयवयौ VII. ii. 93 ...वर..-VI. iv. 157 देखें-प्रस्थस्फ० VI. iv. 157 वरच-III. ii. 175 (ष्ठा,ईश,भास,पिस,कस्- इन धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हों. तो वर्तमान काल में) वरच प्रत्यय होता है। वरणादिभ्य:- IV. ii. 81 वरणादि प्रातिपदिकों से (विहित जो चातुरर्थिक प्रत्यय, उसका भी लुप होता है)। ...वरतन्तु...-IV. iii. 102 देखें- तित्तिरिवरतन्तMili 102 ...वरात्..- VI. iii. 15 . देखें-वर्षक्षरशरवरात् VI. iii. 15 ...वराह... - IV. ii. 79 देखें- अरीहणकृशाश्व० IV. ii. 79 ...वराहेभ्यः - V. iv. 145 देखें- अग्रान्त० V. iv. 145 ...वरिवस्... - III. 1. 19 देखें-नमोवरिवश्विाड III.i. 19 वरीवृजत् - VII. iv. 65 वरीवृजत शब्द (वेद-विषय में) निपातन किया जाता ...वरुण... - IV.i.48 देखें-इन्द्रवरुणभव IV.i. 48 ...वरुण... - V. iii. 84 देखें-शेवलसुपरि० v. iii. 84 ...वरुणयो: - VI. iii. 26 देखें-सोमवरुणयो: VI. iii. 26 वरुणस्य-VII. iii. 23 (दीर्घ से उत्तर भी) वरुण शब्द के (अचों में आदि अच को वृद्धि नहीं होती)। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 464 वरुत -VII. ii. 34 वरुत शब्द (वेदविषय में) इडभावयक्त निपातन किया जाता है। वरूत-VII. ii.34 वरूतृ शब्द वेदविषय में इडभावयुक्त निपातित है। वख्वी : -VII. ii. 34 वरूत्रीः शब्द (वेदविषय में) इडभावयुक्त निपातन किया जाता है। ...वरे... -I.1.57 देखें- पदान्तवरेयलोपस्वरसवर्णानुस्वार० 1.1.57 वर्गान्तात् - IV. iii. 63 (सप्तमीसमर्थ) वर्ग अन्तवाले प्रातिपदिक से (तत्र भवः' अर्थ में छ प्रत्यय होता है)। वर्ग-v.i. 59 (पञ्चत और दशत-ये तिप्रत्ययान्त शब्द 'तदस्य परि- माणम' विषय में) वर्ग अभिधेय होने पर विकल्प से निपातन किये जाते है)। वर्यादयः -VI. ii. 131 (कर्मधारयवर्जित तत्पुरुष समास में उत्तरपद) वर्यादि शब्दों को (भी आधुदात्त होता है)। वर्चस: - V. iv.78 (ब्रह्म और हस्ति शब्द से उत्तर) जो वर्चस् शब्द,तदन्त प्रातिपदिक से (समासान्त अच् प्रत्यय होता है)। वर्चस्के -VI.1.143 अन्न का कचरा अभिधेय हो.तो (अवस्कर शब्द में सट आगम निपातन किया जाता है)। वर्जने -I. iv. 87 छोड़ना अर्थ की प्रतीति होने पर (अप,परि शब्दों की कर्मप्रवचनीय और निपात संज्ञा होती है)। वर्जने - VIII.1.5 छोड़ने अर्थ में (वर्तमान परि शब्द को द्वित्व होता है)। वर्ण्यमान... -VI. ii. 33 देखें-वर्ण्यमानाहोरात्रा० VI. ii. 33 वय॑मानाहोरात्रावयवेषु -VI. I. 33 (पूर्वपदभूत परि,प्रति,उप,अप-इन शब्दों को) वर्णमान = जो छोड़ा जा रहा है तथा दिन एवं रात्रि के अवयववाची शब्दों के परे रहते (प्रकतिस्वर हो जाता है। ...वर्ण... -III.i. 23 देखें-सत्यापपाशo III. 1.23 . ....वर्ण... -IV.i. 42 देखें-कृत्यमत्रावपना IV.i.42. वर्ण... -V.i. 123 देखें-वर्णदृढादिभ्यः V. 1. 122 वर्ण...-VI.ii. 112 देखें-वर्णलक्षणात् VI. ii. 112 ...वर्ण... -VI. 1.84 देखें-ज्योतिर्जनपद VI. ii. 84 वर्ण: -II. . 68 वर्णविशेषवाची (सुबन्त वर्णविशेषवाची समानाधिकरण सुबन्त के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होता है और वह समास तत्पुरुषसंज्ञक होता है)। वर्ण:-VI. 1.3 (वर्णवाची शब्द के उत्तरपद में रहते) वर्णवाची पूर्वपद को (तत्पुरुष समास में प्रकृतिस्वर हो जाता है)। वर्णलक्षणात् - VI. ii. 112 (बहुव्रीहि समास में) वर्णवाची तथा लक्षणवाची से परे (उत्तरपद कर्ण शब्द को आधुदात्त होता है)। वर्णात् - IV.1.39 वर्णवाची (अदन्त अनुपसर्जन अनुदात्तान्त तकार उपधा वाले) प्रातिपदिकों से विकल्प से स्त्रीलिङ्ग में डीप् प्रत्यय तथा तकार को नकारादेश हो जाता है)। वर्णात् - V.i. 134 वर्ण प्रातिपदिक से (मत्वर्थ' में इनि प्रत्यय होता है, ब्रह्मचारी वाच्य हो तो)। वर्णदृढादिभ्यः - V.1122 (षष्ठीसमर्थ) वर्णवाची तथा दृढादि प्रातिपदिकों से (भाव' अर्थ में ष्यब तथा इमनिच प्रत्यय होते है। ...वर्णान्तात् - V.ii. 132 देखें-धर्मशीलov.ii. 132 वणे-v.iv. 31 नित्यधर्मरहित) वर्ण अर्थ में (वर्तमान लोहित प्रातिपदिक से भी स्वार्थ में कन् प्रत्यय होता है)। Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णेन 465 - वर्षात् तो)। वर्णेन -II.i. 68 ...वर्ति... -III. iv. 39 (वर्ण विशेषवाची सबन्त) वर्णविशेषवाची (समानाधि- देखें-वर्तिग्रहो: III. iv. 39 करण सुबन्त) शब्द के साथ (विकल्प से समास को प्राप्त वर्तिग्रहो: -III. iv. 39 होता है और वह समास तत्पुरुषसंज्ञक होता है)। (हस्तवाची करण उपपद हो तो) वर्त्ति तथा ग्रह धातुओं वर्णेषु -VI. ii.3 से (णमुल् प्रत्यय होता है)। वर्णवाची शब्द के उत्तरपद में रहते (वर्णवाची पूर्वपद वर्तिचरो: -III. 1. 15 , को प्रकृतिस्वर हो जाता है, एत शब्द उत्तरपद में न हो वर्ति और चर अर्थ में (यथासंख्य करके रोमन्थ और तप कर्म से क्यङ् प्रत्यय होता है)। वर्णी - IV.ii. 102 ....वर्ध... - IV. iii. 148 वर्ण नाम वाले (देशविषयक कन्था प्रातिपदिक से वुक् देखें-उत्वद्वर्धo IV. iii. 148 प्रत्यय होता है)। . ...वर्म... - III. . 25 वर्तते - IV. iv. 27 देखें- सत्यापपाश III. 1. 25 (तृतीयासमर्थ ओजस्, सहस, अम्भस् प्रातिपदिकों से) ...वर्मती... - IV. iii. 94 । 'व्यवहार करता है' अर्थ में (ठक् प्रत्यय होता है)। देखें-तूदीशलातुर० IV. iii.94 वर्तमानवत् - III. iii. 131 ...वर्याः -III.i. 101 (वर्तमान के समीप अर्थात निकट के भत निकट के देखें - अवधपण्य० III. 1. 101 : भविष्यत काल में वर्तमान धातु से) वर्तमान काल के वर्ष... - VI. iii. 15 समान (विकल्प से प्रत्यय होते हैं)। देखें- वर्षक्षरशरवरात् VI. iii. 15 वर्तमानसामीप्ये -III. iii. 131 वर्षक्षरशरवरात् – VI. iii. 15 वर्तमान के समीप अर्थात् निकट (के भूत, निकट के वर्ष, क्षर, शर, वर-इन शब्दों से उत्तर (सप्तमी का ज उत्तरपद रहते विकल्प से अलक होता है)। भविष्यत् काल के समान विकल्प से प्रत्यय होते है)। वर्षप्रतिबन्थे - III. iii. 51 वर्तमाने -II. iii. 67 वर्षा का समय हो जाने पर भी वर्षा का न होना गम्यमान . वर्तमान काल में (विहित क्त प्रत्यय के योग में षष्ठी हो (तो अव पूर्वक ग्रह धातु से कर्तभिन्न कारक संज्ञा तथा विभक्ति होती है)। भाव में विकल्प करके घञ् प्रत्यय होता है)। वर्तमाने - HI. ii. 122 वर्षप्रमाणे -III. iv. 32 वर्तमान काल में (विद्यमान धातु से लट् प्रत्यय होता वर्षा का प्रमाण = मापन गम्यमान हो (तो कर्म उपपद रहते ण्यन्त पूरी धातु से णमुल् प्रत्यय होता है, तथा इस वर्तमाने -III. iii. 160 पूरी धातु के ऊकार का लोप विकल्प से होता है)। (इच्छार्थक धातुओं से) वर्तमान काल में (विकल्प से वर्षस्य-VII. iii. 16 लिङ् प्रत्यय होता है, पक्ष में लट्)। (सङ्ख्यावाची शब्द से उत्तर) वर्ष शब्द के (अचों में वर्तयति - v.i.71 आदि अच् को जित, णित् तथा कित् तद्धित प्रत्यय परे (द्वितीयासमर्थ पारायण, तुरायण तथा चान्द्रायण प्राति- रहते वृद्धि होती है,यदि वह तद्धित प्रत्यय भविष्यत् अर्थ पदिकों से) बरतता है' अर्थ में (यथाविहित ठञ् प्रत्यय __ में न हुआ हो तो)। होता है)। वर्षात् -V.1.87 वर्ति... -III. 1. 15 (द्वितीयासमर्थ) वर्ष-शब्दान्त (द्विगुसज्ञक) प्रातिपदिक - देखें-वर्तिचरो: III. 1. 15 से (सत्कारपूर्वक व्यापार', खरीदा हुआ', हो चुका' तथा Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षाभ्यः 466 वसति . 'होने वाला'-इन सब अर्थों में विकल्प करके ख प्रत्यय वशम् - IV. iv. 86 और प्रत्यय का विकल्प से लुक होता है)। (द्वितीयासमर्थ) वश प्रातिपदिक से (प्राप्त हुआ अर्थ में वर्षाभ्यः -VIII. 18 यत् प्रत्यय होता है)। वर्षा प्रातिपदिक से (शैषिक ठन प्रत्यय होता है)। ...वशा... -II. 1.64 वर्षाभ्यः -VI. iv.84 देखें-पोटायुवतिस्तोक० II.1.64 वर्षाभू इस अङ्ग को (भी अजादि सुप् परे रहते यणादेश वशि-VII. 1.8 होता है)। वशादि (कृत) प्रत्यय परे रहते (इट का आगम नहीं ...वर्षि... -VI. iv. 157 होता)। देखें-प्रस्थस्फOVI. iv. 157 ...वशे-III. ii. 38 वर्षिष्ठे-VI.i. 114 देखें-प्रियवशे III. ii. 38 वर्षिष्ठे पद (यजुवेंद में पठित होने पर अकार परे रहते वषट्कारः -I. ii. 35 प्रकृतिभाव से रहता है)। वषट्कार = वौषट् शब्द (यज्ञकर्म में विकल्प से उ ततर होता है, पक्ष में एकश्रुति हो जाती है)। वलच -IV. ii. 88 (शिखा शब्द से चातुरर्थिक) वलच् प्रत्यय होता है। और ... वषट्योगात् - II. iii. 16 . देखें-नमःस्वस्तिस्वाहा. II. iii. 16 वलच् - V. ii. 112 ...वष्कयणी... - II. I. 64 (रजस, कृषि, आसुति तथा परिषद् प्रातिपदिकों से) ((जस्, कृषि, आसुति तथा पारषद प्रातिपदिका स) देखें-पोटायुवतिस्तोक० II. 1.64 वलच् प्रत्यय होता है,(मत्वर्थ में)। ...वष्टि...-VI.i.16 ...वलजान्तस्व -VII. iii. 25 देखें -ग्रहिज्या०VI.i. 16 देखें-जंगलधेनु० VII. iii. 25 ...वस्... - III. iv. 78 वलादेः - VII. 1. 35 देखें-तिप्तस्झि० III. iv.78 वल् प्रत्याहार आदि में है जिसके, ऐसे (आर्धधातुक) वस्... - VIII. 1. 21 को (इट का आगम होता है)। . देखें-वस्नसौ VIII. 1.21 ...वस...-III. ii. 108 वलि-VI.1.64 देखें-सदवस III. ii. 108 (वकार और यकार का) वल परे रहते (लोप होता है)। ...वस... -III. iv. 72 ...वलिन...-II. 1.66 देखें- गत्यर्थाकर्मक III. iv. 72 देखें-खलतिपलित II.1.66 ...वसः -I.ii.7 वले -VI. iii. 117 देखें-मृडमृदगुधकुषक्लिशवदवस: I. ii.7 वल परे रहते (पूर्व अण् को दीर्घ हो जाता है,सञ्ज्ञा को ...वस: -I. iii. 89 कहने में)। देखें-पादण्याड्यमाड्यस0I. iii. 89 ...वस: -I. iv. 48 ववर्थ-VII. 1.64 देखें-उपान्वध्यावस: I. iv. 48.. 'ववर्थ' यह शब्द थल परे रहते (वेदविषय में) इडभाव ...वस: -III. ii. 145 युक्त निपातन किया जाता है। देखें-लपसद III. ii. 145 वश -VI. I. 20 वसति-IV. iv.73 वश् धातु को (यङ् प्रत्यय के परे रहते सम्प्रसारण नहीं . (सप्तमीसमर्थ निकट प्रातिपदिक से) 'बसता है' अर्थ होता)। में (ढक् प्रत्यय होता है)। Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...वसति... 467 वस्नद्रव्याभ्याम् ...वसति... -IV. iv. 104 वसुधित -VII. iv. 45 देखें-पथ्यतिथिV.iv. 104 वसुधित शब्द वेदविषय में निपातन किया जाता है। वसति... -VII. 1. 52 वसुराटो: - VI. iii. 127 देखें-वसतिक्षुधोः VII. II. 52 क्सतिक्षुषोः - VII. ii. 52 वसु तथा राट् उत्तरपद रहते (विश्व शब्द को दीर्घ हो जाता है)। वस् तथा क्षुध् धातु के (क्त्वा तथा निष्ठा प्रत्यय को वसुत्रंसुध्वंस्वनडुहाम् -VIII. 1.71 इट् आगम होता है)। (सकारान्त) वस्वन्त पद को तथा स्रंस,ध्वंसु एवं अनडुह ...वसनात् -V.i. 27 देखें-शतमानविंशति० V.I. 27 पदों को (दकारादेश होता है)। वसन्तात् -IV. iii. 20 वसो: - IV. iv. 140 (कालवाची) वसन्त प्रातिपदिक से (भी वेदविषय में ठब। वसु प्रातिपदिक से (समूह तथा मयट के अर्थ में यत् प्रत्यय होता है। प्रत्यय होता है, वेद-विषय में)। ...वसन्तात् -IVii.46 वसोः - VI. iv. 131 देखें-ग्रीष्मवसन्तात् IV. iii. 46 (भसज्जक) वस्वन्त अङ्ग को (सम्प्रसारण होता है)। वसन्तादिभ्यः -IV. 1.62 ...वसो: - VIII. I.1 वसन्तादि प्रातिपदिकों सs 'तदधीते तद्वेद' अर्थों में देखें-मतुक्सो : VIII. Iii.1 ढक् प्रत्यय होता है)। ....वस्ति... - IV. iii. 56 ...वसि... -VIII..ii. 60. देखें-दृतिकुक्षिकलशिo IV. 11.56 देखें-शासिवसि० VIII. iii.60 वस्ते: -V.1. 101 . ...वसिष्ठ.. -II.iv.65 वस्ति प्रातिपदिक से (इव का अर्थ घोतित हो रहा हो देखें- अत्रिभृगुकुत्स II. iv.65 तो ढब् प्रत्यय होता है)। वसीयः -v.iv.80 वस्ति = निवास,उदर, मूत्राशय । .. देखें-वसीय श्रेयस: V. iv. 80. . ...क्स...-III.1.21 वसीय श्रेयस: - V. iv.80 देखें-मुण्डमिन III. 1. 21 (श्वस् शब्द से उत्तर) वसीयस् और श्रेयस् शब्दान्त वस्न...-IV.iv. 13 प्रातिपदिकों से (समासान्त अच् प्रत्यय होता है)। देखें-वस्नक्रयविक्रयात् IV. iv. 13 वसु... -VI. iii. 127 वस्न... -V.1.50 . देखें-वसुराटोः VI. I. 127 देखें-वस्नद्रव्याभ्याम् V.1.50 वसु-VII. 1.67 ...वस्न... -V.1.55 (कृतद्विर्वचन एकाच धातु तथा आकारान्त एवं घस् धातु देखें- अंशवनभृतयः V.i.55 से उत्तर) वसु को (इट का आगम होता है)। वस्नक्रयविक्रयात् - IV. iv. 13 (तृतीयासमथ) वस्न, क्रयविक्रय प्रातिपदिकों से (ठन वसु... -VIII. 1.72 प्रत्यय होता है)। देखें- वसुलंसु० VIII. ii. 72 वस्नद्रव्याभ्याम् - V. 1. 50 वसुः-VII. 1. 36 (विद् ज्ञाने' धातु से उत्तर शतृ के स्थान में) वसु आदेश (द्वितीयासमर्थ) वस्न और द्रव्य प्रातिपदिकों से (हरण करता है', 'वहन करता है' और 'उत्पन्न करता है' अर्थों होता है। में यथासङ्ख्य ठन् और कन् प्रत्यय होते है)। Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्नसौ 468 वस्नसौ-VIII. 1.21 वहे - VI. iii. 120(पद से उत्तर अपादादि में वर्तमान जो बहुवचन में (पीलु शब्द को छोड़कर जो इगन्त शब्द पूर्वपद,उनको) षष्ठ्यन्त, चतुर्थ्यन्त एवं द्वितीयान्त युष्मद् तथा अस्मद् वह शब्द के उत्तरपद रहते (दीर्घ होता है)। पद,उनको क्रमश:) वस तथा नस आदेश होते हैं। पीलु = बाण, अणु,कीडा.हाथी। . .. वह... -III. ii. 32 वह = वहन करने वाला,बैल के कन्धे, घोड़ा, हवा। . देखें-वहाधे III. ii. 32 ...वहो: - III. ii. 31 ...वह... -III. iii. 119 देखें -रुजिवहोः III. ii. 31 देखें-गोचरसञ्चर III. iii. 119 ...वहो: - III. iv. 43 वहः -I. iii. 81 देखें-नशिवहोः III. iv. 43 (प्र उपसर्ग से उत्तर) वह धातु से.(परस्मैपद होता है)। ....वहो: - VI. iii. 111 वहः -III. ii. 64 देखें-सहिवहो: VI. iii. 11: वह धातु से (भी सबन्त उपपद रहते छन्दविषय में 'वि' वह्यम् -III. I. 102 प्रत्यय होता है)। 'वह्यम्' पद वह धातु से (करणकारक में) यत् प्रत्ययान्त वहति - IV. iv. 76 निपातन है)। (द्वितीयासमर्थ रथ.युग.प्रासङ्ग प्रातिपदिकों से) 'ढोता वंशादिभ्यः - V.i. 49 है' अर्थ में (यत् प्रत्यय होता है)। वंशादिगणपठित प्रातिपदिकों से उत्तर (जो भारशब्द, तदन्त द्वितीयासमर्थ प्रातिपदिक से 'हरण करता है', 'वहन वहति - V.1.49 करता है' और 'उत्पन्न करता है' अर्थों में यथाविहित (वंशादिगणपठित प्रातिपदिकों से उत्तर जो भार.शब्द, प्रत्यय होते है)। तदन्त द्वितीयासमर्थ प्रातिपदिक से 'हरण करता है) वहन वंश्ये - IV.i. 163 करता है' (और 'उत्पन्न करता है' अर्थों में यथाविहित (पौत्रप्रभृति का जो अपत्य, उसकी) पिता इत्यादि के प्रत्यय होते है)। (जीवित रहते युवा संज्ञा ही होती है)। ...वहति..-VIII. iv. 17 वंश्येन - II. I. 18 देखें- गदनदO VIII. iv. 17 वंश्यवाचक अर्थात् विद्याप्रयुक्त अथवा जन्मप्रयुक्त वहते:-IV. iv.1 वंश में उत्पन्न पुरुषों के अर्थ में वर्तमान सुबन्त के साथ (यहाँ से लेकर) 'तद्वहति रथयुगप्रासङ्गम्' से (पहले (संख्या-वाचकों का विकल्प से समास होता है और वह पहले जो अर्थ निर्दिष्ट किये गये हैं,वहाँ तक ठक् प्रत्यय अव्ययीभाव समास होता है)। का अधिकार समझना चाहिये)। वा-I.i. 43 ...वहान्तात् -IV.ii. 122 (निषेध और) विकल्प (की विभाषासंज्ञा होती है)। देखें-प्रस्थपुरवहान्तात् IV. ii. 122 वा-I. ii. 13 वहाने-III. ii. 32 वह तथा अघ्र (कर्म) उपपद रहते लिह धात से खश (गम् धातु से परे झलादि लिङ् और सिच आत्मनेपद प्रत्यय होता है)। विषय में) विकल्प से (कित्वत् होते हैं)। अभ्र = बादल, वायु-मण्डल। वा-I.ii. 23 ...वहि... -III. iv.78 (नकारोपध थकारान्त और फकारान्त धातु से परे सेट देखें - तिप्तस्झि० III. iv. 78 क्त्वा प्रत्यय) विकल्प करके (कित् नहीं होता है)। Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 469 वा-I. 1. 35 वाला हो, उससे इच्छा अर्थ में सन् प्रत्यय) विकल्प से (यज्ञकर्म में वषट्कार अर्थात् वषट् शब्द) विकल्प से होता है। (उदात्ततर होता है, पक्ष में एकश्रुति हो जाती है)। वा-III. 1. 31 वा -I. iii. 43 (आय आदि प्रत्यय आर्धधातुक विषय में विकल्प से (उपसर्गरहित क्रम् धातु से) विकल्प से (आत्मनेपद होता होते हैं)। है)। वा-III.1.57 वा -I. iii.90 (इर्' इत् वाली धातुओं से उत्तर च्लि के स्थान में) (क्यष् प्रत्ययान्त धातु से) विकल्प करके (परस्मैपद हो- विकल्प से (अङ् आदेश होता है,कर्तृवाची परस्मैपद लुङ् ता है)। परे रहते)। वा-I. iv.5 वा-III. 1.70 (इयङ्-उवङ्स्थानी स्त्री की आख्यावाले ईकारान्त, (टुप्राश,टुम्लाश, प्रमु,क्रम,क्लमु,सि,त्रुटि तथा लष् उकारान्त शब्दों की आम् परे रहते) विकल्प से (नदी- धातुओं से कर्तृवाची सार्वधातुक परे रहते) विकल्प से सज्जा नहीं होती,स्त्रीं शब्द को छोड़कर)। (श्यन् प्रत्यय होता है)। वा-I. iv.9 वा-III. 1. 94 . (वेदविषय में षष्ठ्यन्त से युक्त पति शब्द) विकल्प से (इस धात्वधिकार में असमानरूपवाले अपवाद प्रत्यय) (घिसजक होता है)। विकल्प से (बाधक होते हैं, 'स्त्री' अधिकार में विहित वा-II.1.17 प्रत्ययों को छोड़कर)। (पार और मध्य शब्दों का षष्ठ्यन्त सुबन्त के साथ) ...वा... -III. 1.2 विकल्प से (अव्ययीभाव समास होता है तथा समास के देखें-हावामः III. 1.2 सन्नियोग से इन शब्दों को एकारान्तत्व भी निपातन से वा-III. ii. 106 हो जाता है)। (वेदविषय में भूतकाल में विहित लिट् के स्थान में) वा-II. 1. 37 विकल्प से (कानच आदेश होता है)। (आहिताग्न्यादि-गणपठित निष्ठान्त शब्दों का बहुव्री- वा-III. 1. 14 हिसमास में) विकल्प से (पूर्व में प्रयोग होता है)। - (भविष्यकाल में विहित जो लुट्, उसके स्थान में सवा-II. iii. 71 त्संज्ञक शतृ और शानच् प्रत्यय) विकल्प से होते हैं। (कृत्यप्रत्ययान्तों के प्रयोग में) विकल्प से (षष्ठी होती वा-III. iii. 62 है,न कि कर्म में)। (उपसर्गरहित स्वन तथा हस् धातुओं से कर्तृभिन्न वा-II.iv.55 कारक संज्ञा तथा भाव में) विकल्प से (अप् प्रत्यय होता (आर्धधातुक लिट् परे रहते चक्षिङ् धातु को) विकल्प से (ख्याब् आदेश होता है)। वा-III. iii. 131 (वर्तमान के समीप अर्थात् निकट के भूत, निकट के वा-II. iv. 57 भविष्यत् काल में वर्तमान धातु से वर्तमान काल के (अज धातु को) वी आदेश होता है, (औणादिक युच् समान) विकल्प से (प्रत्यय होते है)। आर्धधातुक प्रत्यय के परे रहते)। वा -III. iii. 141 वा-III.1.7 (उताप्योः समर्थयोलिङ्' से पहले पहले जितने सूत्र हैं, (इच्छाक्रिया के कर्म का अवयव जो धातु, इच्छाक्रिया उनमें लिङ् का निमित्त होने पर क्रिया की अतिपत्ति में का समानकर्तृक अर्थात् इष् धातु के साथ समान कर्ता- भूतकाल में) विकल्प से (लङ् प्रत्यय होता है)। Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 470 । वा-III. iv.2 वा-IV.I. 118 (क्रिया का पौनःपुन्य गम्यमान हो तो धातु से धात्वर्थ (षष्ठीसमर्थ पीला प्रातिपदिक से अपत्य अर्थ में) सम्बन्ध होने पर सब कालों में लोट प्रत्यय हो जाता है, विकल्प से (अण प्रत्यय होता है)। और उस लोट् के स्थान में हि और स्व आदेश नित्य होते वा-IV. 1. 127 हैं, तथा त, ध्वम्-भावी लोट् के स्थान में) विकल्प से (हि, स्व आदेश होते है)। (कुलटा शब्द से अपत्य अर्थ में ढक प्रत्यय होता है. तथा कुलटा को) विकल्प से (इनङ आदेश भी होता है)। वा-III. iv.68 (भव्य, गेय, प्रवचनीय, उपस्थानीय, जन्य, आप्लाव्य वा - IV.i. 131 और आपात्य शब्द कर्ता में) विकल्प से निपातन किये (क्षुद्रावाची प्रकृतियों से अपत्य अर्थ में) विकल्प से जाते है)। (दक् प्रत्यय होता है)। वा-III. iv.. वा- Iv.i. 165 (विद ज्ञाने घात से लडादेश तिप आदि जो परस्मैपद- (भाई से अन्य सात पीढियों में से कोई पद तथा आयु संज्ञक, उनके स्थान में क्रमशः णल, अतुस्, उस्, थल, दोनों से बूढ़ा व्यक्ति जीवित हो तो पौत्रप्रभृति का जो अथुस्, अ,णल, व,म-नौ आदेश) विकल्प से होते अपत्य, उसके जीते ही) विकल्प से (युवा संज्ञा होती है, पक्ष में गोत्र संज्ञा)। . . वा-III. iv. 8 वा - IV. ii. 82 (पूर्वसूत्र से जो लोट् को हि विधान किया है, वह वेद- (शर्करा शब्द से उत्पन्न चातुरर्थिक प्रत्यय का) विकल्प विषय में) विकल्प से (अपित होता है)। से (लुप होता है)। वा-III. iv.96 वा - IV. iii. 30 (लेट-सम्बन्धी जो एकार, उसके स्थान में ऐकारादेश) (सप्तमीसमर्थ अमावस्या प्रातिपदिक से 'जात' अर्थ में विकल्प से होता है, (आत ऐ' सूत्र के विषय को वुन् प्रत्यय) विकल्प से होता है। . छोड़कर)। वा-IV. iii. 36 वा-IV.i. 38 (वत्सशाल, अभिजित्, अश्वयुज, शतभिषज् प्रातिप(मनु शब्द से स्त्रीलिङ्ग में) विकल्प से (डीप प्रत्यय और दिकों से जातार्थ में उत्पन्न प्रत्यय का) विकल्प से (लुक औकार एवं ऐकार अन्तादेश भी हो जाता है और वह हो जाता है)। ऐकार उदात्त भी होता है)। वा - IV.ii. 127 वा-IV.i.44 (षष्ठीसमर्थ गोत्रप्रत्ययान्त शकल शब्द से) विकल्प से (उकारान्त गुणवचन प्रातिपदिक से स्त्रीलिङ्ग में) विकल्प (अण् प्रत्यय होता है,पक्ष में वुजू होता है)। से (ङीष् प्रत्यय होता है)। वा-IV. iii. 138 वा-IV.i. 53 (षष्ठीसमर्थ पलाशादि प्रातिपदिकों से) विकल्प से (अस्वाङ्ग जिसके पूर्वपद में है, ऐसे अन्तोदात्त क्तान्त (विकार, अवयव अर्थों में अञ् प्रत्यय होता है, पक्ष में बहुव्रीहि समासवाले प्रातिपदिक से) विकल्प से (स्त्रीलिङ्ग। में डीष् प्रत्यय होता है)। औत्सर्गिक अण् होता है)। वा- IV. 1. 82 वा- IV. iii. 140 (यहाँ से लेकर 'प्राग्दिशो विभक्तिःvi तक कहे (षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिकों से भक्ष्य, आच्छादनवर्जित जाने वाले प्रत्यय,समथों में जो प्रथम उनसे) विकल्प से विकार तथा अवयव अर्थों में लौकिक प्रयोगविषय में) विकल्प से (मयट् प्रत्यय होता है)। होते हैं। Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा वा - IV. iii. 155 (षष्ठीसमर्थ उमा तथा ऊर्जा प्रातिपदिक से) विकल्प से (विकार अवयव अर्थों में वुम् प्रत्यय होता है)। वा - IV. iii. 162 (षष्ठीसमर्थ जम्मू प्रातिपदिक से विकार, अवयव अर्थों में फल अभिधेय हो तो) विकल्प से (अण् प्रत्यय होता है)। वा - IV. iv. 45 (द्वितीयासमर्थ सेना प्रातिपदिक से 'इकट्ठा होता है'अर्थ में) विकल्प से (ण्य प्रत्यय होता है, पक्ष में ढक् प्रत्यय होता है)। वा - V. 1. 23 (वतुप्रत्ययान्त सङ्ख्यावाची प्रातिपदिक से 'तदईति - पर्यन्त कथित अर्थों में कन् प्रत्यय होता है तथा उस कन् को) विकल्प से (इट् आगम होता है)। वा - V. 1. 35 (अध्यर्द्धशब्द पूर्व वाले तथा द्विगुसज्जाक शानशब्दान्त प्रातिपदिक से 'तदर्हति — पर्यन्त कथित अर्थों में) . विकल्प से (यत् प्रत्यय होता है)। वा - V. 1. 59 (पञ्चत् और दशत्-ये तिप्रत्ययान्त शब्द तदस्य परिमाणम्' विषय में 'वर्ग' अभिधेय होने पर) विकल्प से (निपातन किये जाते हैं) । वा. - V. 1. 85 (द्वितीयासमर्थ समाशब्दान्त द्विगुसञ्चक प्रातिपदिक से 'सत्कारपूर्वक व्यापार', 'खरीदा हुआ', 'हो चुका' तथा 'होने वाला' अर्थों में) विकल्प से (ख प्रत्यय होता है)। वा - V. 1. 121 (षष्ठीसमर्थ पृथ्वादि प्रातिपदिकों से 'भाव' अर्थ में इमनिच् प्रत्यय) विकल्प से होता है। वा - V. it. 43 (प्रथमासमर्थ द्वि तथा त्रि प्रातिपदिकों से षष्ठ्यर्थ में विहित तयप् प्रत्यय के स्थान में) विकल्प से (अयच आदेश होता है। 471 al-V. ii. 77 (ग्रहण क्रिया के समानाधिकरण पूरणप्रत्ययान्त प्रातिपदिक से स्वार्थ में कन् प्रत्यय होता है तथा) विकल्प से (पूरण प्रत्यय का लुक भी हो जाता है)। वा वा - V. 1. 93 (इन्द्रियम् शब्द का निपातन किया जाता है, जीवात्मा का चिह्न, जीवात्मा के द्वारा देखा गया, जीवात्मा के द्वारा सृजन किया गया, जीवात्मा के द्वारा सेवित ईश्वर के द्वारा दिया गया- इन अर्थों में) विकल्प से 1 वा - V. iii. 13 (वेदविषय में सप्तम्यन्त किम् शब्द से) विकल्प से (ह प्रत्यय भी होता है)। वा - V. iii. 78 (बहुत अच् वाले मनुष्यनामधेय प्रातिपदिक से अनुकम्पा गम्यमान होने पर) विकल्प से (ठच् प्रत्यय होता है, पक्ष में क)। वा - V. iii. 93 (जाति को पूछने विषय में किम् यत् तथा तत् प्रातिपदिकों से बहुतों में से एक का निर्धारण गम्यमान हो तो) विकल्प से उतमच् प्रत्यय होता है। वा - V. Iv. 133 (साविषय में धनुष्-शब्दान्त बहुव्रीहि को) विकल्प से (समासान्त अनङ् आदेश होता है)। वा - VI. 1. 73 (दीर्घ से उत्तर जो छकार, उसके परे रहते दीर्घ को तुक् का आगम होता है तथा पदान्त दीर्घ से उत्तर छकार परे रहते पूर्व पदान्त दीर्घ को) विकल्प से (तुक् आगम होता है, संहिता के विषय में) । वा - VI. 1. 89. (सुबन्त अवयव वाले ऋकारादि धातु के परे रहते अवर्णान्त उपसर्ग से उत्तर, पूर्व-पर के स्थान में संहिता के विषय में, आपिशलि आचार्य के मत में) विकल्प से (वृद्धि एकादेश होता है)। वा - VI. 1. 96 (आम्रेडित सबक जो अव्यक्तानुकरण का अत् शब्द उसे इति परे रहते पररूप एकादेश नहीं होता, किन्तु जो उस आम्रेडित का अन्त्य तकार, उसको विकल्प से (ररूप होता है, संहिता के विषय में)। वा - VI. 1. 102 (दीर्घ से उत्तर जस् तथा इच् प्रत्याहार परे रहते वेदविषय में पूर्व-पर के स्थान में पूर्वसवर्ण दीर्घ एकादेश) विकल्प से होता है। Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 472 वा वा-VI.i. 145 (विष्किर-इस में ककार से पूर्व सुट का) विकल्प से (निपातन किया जाता है, पक्षी को कहा जा रहा हो तो)। वा-VI.i. 190 (सेट् थल् परे रहते इट् को) विकल्प से (उदात्त होता है एवं चकार से प्रकृतिभूतशब्द के आदि अथवा अन्त को होता है)। वा-VI. ii. 20 (ऐश्वर्यवाची तत्पुरुष समास में पति शब्द उत्तरपद रहते पूर्वपद भुवन शब्द को) विकल्प से (प्रकृतिस्वर हो जाता वा-VI. iv.62 (भाव तथा कर्मविषयक स्य,सिच,सीयुट् और तास् के परे रहते उपदेश में अजन्त धातुओं तथा हन, ग्रह एवं दृश् धातुओं को चिण के समान) विकल्प से (कार्य होता है, इट् आगम भी होता है)। वा-VI. iv. 68 (खु, मा, स्था, गा, पा, हा तथा सा -इन से अन्य जो संयोग-आदिवाला आकारान्त अङ्ग, उसको कित, डित् लिङ् आर्धधातुक परे रहते) विकल्प से (एकारादेश होता वा-VI. ii. 171 (जातिवाची, कालवाची तथा सखादियों से उत्तर जात शब्द उत्तरपद को) विकल्प से (अन्तोदात्त होता है.बहतीहि समास में)। वा-VI. iii. 50 . (शोक,ष्य तथा रोग के परे रहते हृदय शब्द को हृत् आदेश) विकल्प करके (होता है)। वा-VI. iii. 55 (घोष, मिश्र तथा शब्द उत्तरपद रहते पाद शब्द को) विकल्प करके (पद् आदेश होता है)। वा-VI. iii. 81 (जिस समास के सारे अवयव उपसर्जन है, तदवयव सह शब्द को) विकल्प से (स आदेश होता है)। वा-VI. iv.9 (वेदविषय में नकारान्त अङ्ग के षकारपूर्व उपधा अच को सम्बुद्धिभिन्न सर्वनामस्थान के परे रहते) विकल्प से (दीर्घ होता है)। वा-VI. iv. 38 (अनुदात्तोपदेश, वनति तथा तनोति आदि अङ्ग के अनुनासिक का लोप, ल्यप् परे रहते) विकल्प करके (होता है)। वा-VI. iv.61 (क्षि अङ्ग को अण्यदर्थ निष्ठा के परे रहते आक्रोश तथा दैन्य गम्यमान होने पर) विकल्प से (दीर्घ होता है)। वा-VI. iv.80 (अम् तथा शस् विभक्ति परे रहते स्त्री शब्द. को) . विकल्प से (इयङ् आदेश होता है)। वा-VI. iv.91 (चित्त के विकार अर्थ में दोष अङ्ग की उपधा को णि .. परे रहते) विकल्प से (सकारादेश होता है)। वा-VI. v. 124 (ज, प्रमु, त्रस् -इन अङ्गों के अकार के स्थान में एत्व तथा अभ्यासलोप) विकल्प से (होता है; कित.डित लिट तथा सेट् थल् परे रहते)। , वा-VII.1.16 (पूर्व है आदि में जिसके, ऐसे गणपठित नौ सर्वनामों से उत्तर डसि तथा डि के स्थान में क्रमशः स्मात् तथा स्मिन् आदेश) विकल्प से होते हैं)। . वा-VII. 1.79 (अभ्यस्त अङ्ग से उत्तर जो शत प्रत्यय, तदन्त नपुंसक शब्द को) विकल्प से (नुम् आगम होता है)। वा-VII. 1.91 (उत्तमपुरुष-सम्बन्धी णल् प्रत्यय) विकल्प से णित्-वत् होता है)। वा-VII. I. 27 (दम, शम्, पूरी, दस, स्पश, छद् तथा ज्ञप्-इन ण्यन्त धातुओं को) विकल्प से (अनिट्त्व तथा णिलक निपातन से होकर पक्ष में दान्त, शान्त, पूर्ण, दस्त, स्पष्ट,छत्र,ज्ञप्त प्रयोग बनते है)। Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा . 473 . वा-VII. ii. 38 वा-VII. iv.37 (वृ तथा ऋकारान्त धातुओं से उत्तर इट् को) विकल्प (अकर्मक मुच्लू धातु को) विकल्प से (गुण होता है, से (लिट् भिन्न वलादि आर्धधातुक परे रहते दीर्घ होता सकारादि सन् प्रत्यय परे रहते)। है)। वा-VII. iv. 81 वा-VII. ii.41 ___ (सु,श्रु,द्रु,पुङ, प्लुङ, च्युङ्-इनके अवर्णपरक यण (वृ तथा ऋकारान्त धातुओं से उत्तर सन् आर्धधातुक परे है जिससे, ऐसे होनेवाले उवर्णान्त अभ्यास को) को) विकल्प से (इट् आगम होता है)। विकल्प से (इकारादेश होता है)। वा-VII. ii. 44 ...वा... - VIII. 1.24 (स्व शब्दोपतापयोः 'धूङ् प्राणिगर्भविमोचने', 'धूङ देखें - चवाहा० VIII. 1. 24 प्राणिप्रसवे', 'धूज कम्पने' तथा ऊदित् धातुओं से उत्तर वा-VIII. 1.6 वलादि आर्धधातुक को) विकल्प से (इट् आगम होता (पदादि अनुदात्त के परे रहते उदात्त के साथ में हुआ जो एकादेश, वह) विकल्प करके (स्वरित होता है)। वा-VII. ii. 56 . वा - VIII. II. 33 (उकार इत्सञ्जक धातुओं से उत्तर क्त्वा प्रत्यय को) (दुह जिघांसायाम','मुह वैचित्ये','ष्णुह उद्भिरणे','ष्णिह विकल्प से (इट आगम होता है)। प्रीतौ'-इन धातुओं के हकार के स्थान में) विकल्प से वा - VII..in. 26 (षकारादेश होता है, झल् परे रहते या पदान्त में)। (अर्ध शब्द से उत्तर परिमाणवाची उत्तरपद के अचों में वा-VIII. 1.63 , आदि अच् को वृद्धि होती है, पूर्वपद को तो (विकल्प से (नश् पद को) विकल्प से (कवर्गादेश होता है)। (होती है; बित, णित् तथा कित तद्धित परे रहते)। वा-VIII. 1.74 वा-VII. iii. 70 (सकारान्त पद् धातु को सिप् परे रहते) विकल्प से (रु (घुसज्ञक धातुओं के आकार का लेट् परेरहते) विकल्प आदेश होता है)। से (लोप होता है)। वा-VIII. iii.2 वा-VII. Ill.73 (यहाँ से जिसको रु विधान करेंगे, उससे पूर्व के वर्ण ('दुह प्रपूरणे', 'दिह उपचये', 'लिह आस्वादने', 'गुहू को तो) विकल्प से (अनुनासिक आदेश होता है, ऐसा संवरणे"-इन धातुओं के क्स का) विकल्प से (लुक् अधिकार इस रुत्व-विधान के प्रकरण में समझना होता है. दन्त्य अक्षर आदि वाले आत्मनेपद-सजक चाहिये। प्रत्ययों के परे रहते)। वा-VIII. iii. 26 वा-VII. iii. 94 (मकारपरक हकार के परे रहते पदान्त मकार को) (यङ्स उत्तर हलादिपित् सावधातुक का इट् आगम) विकल्प से (मकारादेश होता है)। विकल्प से (होता है)। वा-VIII. iii. 33 . वा-VII. iv.6 (मय प्रत्याहार से उत्तर उञ् को अच् परे रहते) विकल्प .. (घा गन्धोपादाने अङ्ग की उपधा को चङ्परक णि परे करके (वकारादेश होता है)। रहते) विकल्प से (इकारादेश होता है)। वा-VIII. iii. 36 वा - VII. iv. 12 (श, दु तथा पृ अङ्गों को लिट् परे रहते) विकल्प से विसर्जनीय को) विकल्प से (विसर्जनीय आदेश होता (हस्व होता है)। है,शर परे, रहते)। Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 474 वाचंयमपुरन्दरी वा-VIII. iil. 49 वा-VIII. iv.55 (प्र.तथा आमेडित को छोड़कर कवर्ग तथा पवर्ग परे (अवसान में वर्तमान झलों को) विकल्प करके (चर हो तो वेदविषय में विसर्जनीय को) विकल्प से (सकारादेश होता है)। वा-VIII. iv.58 वा-VIII. Ill. 54 (पदान्त के अनुस्वार को यय् परे रहते) विकल्प से . (इडा शब्द के षष्ठीविभक्ति के विसर्जनीयको) विकल्प (परसवर्णादेश होता है)। से (सकार आदेश होता है; पति, पुत्र,पृष्ठ,पार,पद,पयस, ...वाक्... - VI. I. 19 पोष शब्दों के परे रहते)। देखें-भूवाक्V I. 1. 19. वा-VIII. III.69 वाकिनादीनाम् - IV.I. 158 (परि,नि तथा वि उपसर्ग से उत्तर सिवादि धातुओं के (गोत्रभिन्न वृद्धसंज्ञक) वाकिन आदि प्रातिपदिकों से ... सकार को अट् के व्यवधान होने पर भी विकल्प से (उदीच्य आचार्यों के मत में अपत्यार्थ में फिज प्रत्यय .. (मूर्धन्य आदेश होता है)। तथा कुक का आगम होता है)। वाक्यस्य -VIII. ii. 82 वा-VIII. iii. 100 (अगकार से परे नक्षत्रवाची शब्दों से उत्तर सकार को (यह अधिकार सूत्र है, पाद की समाप्तिपर्यन्त सर्वत्र) वाक्य के (टि भाग का प्लुत उदात्त होता है, ऐसा अर्थ एकार परे रहते सजा-विषय में) विकल्प से (मर्धन्य आदे होता जायेगा। श होता है)। वाक्यादेः - VIII.1.8. वा-VIII. 1. 119 वाक्य के आदि के (आमन्त्रित को द्वित्व होता है, यदि ' नि.वि तथा अभि उपसगों से उत्तर अट का व्यवधान वाक्य से असूया,सम्मति,कोप.कुत्सन एवं भर्त्सन गम्यहोने पर वेदविषय में) विकल्प से (मूर्धन्य आदेश नहीं __मान हो रहा हो तो)। ...वाक्याध्याहारेषु - VI. 1. 134 वा-VIII. iv. 10 देखें-प्रतियल VI.L. 134 (पूर्वपद में स्थित निमित्त से उत्तर भाव तथा करण में ...वाल्मन्स.. - V. iv. 77. वर्तमान पान शब्द के नकार को) विकल्प से (णकार आदे- देखें-अचतुर0 V. iv.77 श होता है। वाच - V. 1. 124 वा-VIII. iv. 22 वाच प्रातिपदिक से (मत्वर्थ' में ग्मिनि प्रत्यय होता (उपसर्ग में स्थित निमित्त से उत्तर अकार पूर्ववाले हन् है)। धातु के नकार को) विकल्प से (व तथा म परे रहते णकार ल्प सत्व तथाम पर रहत णकार वाचः -V. iv.35 र आदेश होता है)। (सन्देश वाणी' अर्थ में वर्तमान) वाच् प्रातिपदिक से वा - VIII. iv. 32 (स्वार्थ में ठक् प्रत्यय होता है)। (उपसर्ग में स्थित निमित्त से उत्तर निस, निक्ष तथा निन्द् । नामत सउत्तरानस,निक्ष तथा निन्द् वाचंयम... -VI. 1. 68 धातु के नकार को) विकल्प से (णकारादेश होता है)। देखें - वायमपरन्टरी VI. I. AR वा-VIII. iv. 44. .. वाचंयमपुरन्दरी - VI. iii. 68 (पदान्त यर प्रत्याहार को अनुनासिक परे रहते) विकल्प वाचंयम तथा पुरन्दर शब्दों में (भी) पूर्वपदों को अम् से (अनुनासिक आदेश होता है)। आगम निपातन किया जाता है। होता)। Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याचि anfa-III. ii. 40 वाक् (कर्म) उपपद रहते (यम् धातु से 'खच्' प्रत्यय होता है, व्रत गम्यमान होने पर)। ... वाडवात् - IV. ii. 41 देखें - ब्राह्मणमाणवo IV. ii. 41 वाणिजे - VI. ii. 13 वाणिज शब्द उत्तरपद रहते (तत्पुरुष समास में गन्तव्यवाची तथा पण्यवाची पूर्वपद को प्रकृतिस्वर हो जाता है)। वात... - V. ii. 129 देखें - वातातीसाराभ्याम् VII. 129 वातातीसाराभ्याम् VII. 129 - बात तथा अतीसार प्रातिपदिकों से (मत्वर्थ' में इनि प्रत्यय होता है तथा इन शब्दों को कुक् आगम भी होता है) । ...वाति... - VIII. I. 17 देखें - गदनद० VIII. iv. 17 ... वादयः - I. iii. 1 देखें - भूवादयः I. iii. 1 ...वादि.. - VI. iv. 126 ... देखें - शसदद० VI. iv. 126 वान्तः - VI. 1. 76 ( यकारादि प्रत्यय के परे रहते एच के स्थान में संहिताविषय में) वकार अन्तवाले अर्थात् अव आव् आदेश होते हैं। वान्नावौ - VIII. 1. 20 (पद से उत्तर षष्ठ्यन्त चतुर्थ्यन्त तथा द्वितीयान्त युष्मद् एवं अस्मद् शब्दों के स्थान में क्रमशः) वाम् और नौ आदेश होते हैं तथा उन आदेशों को अनुदात्त भी होता है)। वाप: - V. 1. 44 (षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिकों से) 'ख़त' अर्थ अभिधेय हो तो (यथाविहित प्रत्यय होते हैं)। . वाभ्याम् - III. iv. 91 देखें सवाभ्याम् III. iv. 91 - .. वाध्याम् - VII. III. 2 देखें - य्वाभ्याम् VII. iii. 2 475 वाम्... VIII. 1. 20 देखें - वान्नावौ VIII. 1. 20 वामदेवात् - - IV. 1. 8 (तृतीयासमर्थ) वामदेव प्रातिपदिक से (देखा गया साम' अर्थ में ड्यत् और ड्य प्रत्यय होते हैं)। .....वामादेः IV. i. 70 देखें वामौ - III. iv. 91 (सकार, वकार से उत्तर लोट्-सम्बन्धी एकार के स्थान में यथासङ्ख्य करके) व और अम् आदेश हो जाते हैं। ...वाम्योः - VI. ii. 40 देखें - सादिवाम्यो VI. II. 40 वायु... - IV. ii. 30 देखें संहितशफ० IV. 1. 70 ... वायोगे - VIII. 1. 59 देखें- चवायोगे VIII. 1. 59 वातुपिनुस - IV. 30 (प्रथमासमर्थ देवतावाची) वायु ऋतु पितृ तथा उपस् प्रातिपदिकों से (षष्ठ्यर्थ में यत् प्रत्यय होता है)। वारणार्थानाम् – 1. Iv. 27 रोकने अर्थ वाली धातुओं के प्रयोग में (जो इष्ट पदार्थ, उस कारक की अपादान संज्ञा होती है)। वायुषि IV. II. 30 ..... वालोत्तरपदात् - IV. 1. 64 देखें - पाककर्णपर्ण० IV. 1. 64 - ... वाव - VIII. 1. 64 देखें वैवाय VIII. 1. 64 .....वाशिनायनि... - VI. in. 174 देखें - दाण्डिनायनहास्तिo VI. iv. 174 - वाष्प... - III. 1. 16 देखें वाप्पोमध्याम् III. 1. 16 वाष्पोष्मभ्याम् – III. 1. 16 - वाष्प और ऊष्म (कर्म) से (उद्वमन अर्थ में क्यङ् प्रत्यय होता है)। - ... वास... - VI. lii. 17 देखें शयवासवासिषु VI. III. 17 .. वास... - VI. iii. 57 देखें - पेवंवासo VI. Iii. 57 Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...वासिषु 476 ...विकस्ताः ...वासिषु -VI. iii. 17 देखें-शयवासवासिषु VI. iii. 17 वासी-IV. iv. 107 (सप्तमीसमर्थ समानतीर्थ प्रातिपदिक से) रहने वाला अर्थ में (यत् प्रत्यय होता है)। वासुदेव... - IV. iii. 98 . देखें - वासुदेवार्जुनाभ्याम् IV. ii. 98 वासुदेवार्जुनाभ्याम् – IV. iii. 98 (प्रथमासमर्थ भक्तिसमानाधिकरणवाची) वासुदेव तथा अर्जुन शब्दों से (षष्ठ्यर्थ में वुन् प्रत्यय होता है)। ...वास्तोष्पति... - IV. ii. 31 देखें - द्यावापृथिवीशुना० IV.ii. 31 ...वास्त्व... - VI. iv. 175 देखें-ऋव्यवास्त्व्य.VI. iv. 175 ...वास्त्व्य .. -VI. iv. 175 देखें-ऋव्यवास्त्व्य० VI. iv 175 वाहः - IV. 1.61 वाहन्त (अनुपसर्जन) प्रातिपदिक से (स्त्रीलिङ्ग में वेदविषय में ङीष् प्रत्यय होता है)। वाह - VI. iv. 132 (भसज्ञक वाह अन्तवाले अङ्ग को (सम्प्रसारणसञक ऊठ होता है)। ...वाहन... -VI. iii.57 देखें-पेवास. VI. iii. 57 वाहनम् - VIII. iv.8 (आहितवाची पूर्वपदस्थ निमित्त से उत्तर) वाहन शब्द के (नकार को णकारादेश होता है)। वाहीकग्रामेभ्यः - IV.ii. 116 वाहीक देश के जो ग्राम,तद्वाची (वृद्धसंज्ञक) प्रातिपदिक से (भी शैषिक ठञ् और जिठ् प्रत्यय होते हैं)। वाहीकेषु - V. iii. 114 वाहीक देशविषय में (शस्त्र से जीविका कमाने वाले पुरुषों के समूहवाची प्रातिपदिकों से स्वार्थ में ज्यट् प्रत्यय होता है, ब्राह्मण और राजन्य को छोड़कर)। ...वि.. -I. iii. 18 देखें-परिव्यवेण्यः 11.18 वि...-I. iii. 19 देखें-विपराभ्याम् I. iii. 19 वि... -I. iii. 83 देखें - व्याड्यरिभ्य: I. 11. 83 वि... -II. iii. 57 देखें - व्यवहपणोः II. iii. 57 वि... -III. ii. 180 देखें-विप्रसम्भ्यः III. ii. 180 वि... -III. iii. 39 देखें-व्यूपयोः III. iii. 39 ...वि... -III. iii. 82 देखें- अयोविद्रुषु III. iii. 82 वि... - V.ii. 27 देखें-विनभ्याम् V.ii. 27 ...वि... - VI. iii. 109 देखें-संख्याविसाय. VI. iii. 109 ...वि... -VIII. iii. 72 देखें-अनुविपर्य० VIII. iii. 72 ...वि... - VIII. iii. 88 देखें -सुविनिर्दुर्थ्य: VIII. iii. 88 वि... - VIII. iii. 96. देखें-विकुशमि० VIII. iii.96 ...वि...-VIII. iii. 119 देखें-निव्यभिभ्य: VIII. iii. 119 विकर्ण... -IV.i. 117 देखें-विकर्णशङ्ग IV.i. 117. विकर्ण... - IV. 1. 124 देखें-विकर्णकुषीतकात् IV.i. 124 विकर्णकुषीतकात् – IV. 1. 124 विकर्ण तथा कुषीतक शब्दों से (काश्यप अपत्यविशेष को कहना हो तो ढक् प्रत्यय होता है)। विकर्ण = एक कुरुवंशी राजकुमार। विकर्णशुङ्गच्छगलात् - IV. 1. 117 विकर्ण,शङ्ग,छगल शब्दों से (यथासङ्ख्य करके वत्स, भरद्वाज और अत्रि अपत्य-विशेष कहना हो तो अण् प्रत्यय होता है)। ...विकस्ताः -VII. 1. 34 देखें- ग्रसितस्कभित० VII. 1. 34 Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकारः ...विद... विज-I. 1.2 'ओविजी भयसञ्चलनयोः' धातु से परे (इडादि प्रत्यय डित्वत् होते हैं)। विजायते-v.1. 12 (द्वितीयासमर्थ समांसमाम प्रातिपदिक से) 'बच्चा देती है' अर्थ में (ख प्रत्यय होता है)। विट्-III. 1.67 - सुबन्त उपपद रहते जन,सन,खन,क्रम और गम् धातुओं से वैदिक प्रयोग में विट प्रत्यय होता है। विकारः -IV. iii. 131 (षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिक से) विकार अर्थ में (यथाविहित प्रत्यय होता है)। ...विकारे -VI. iii. 38 देखें- अरक्तविकारे VI. ill. 38 विकुशमिपरिभ्यः -VIII. iii. 96 वि,कु,शमि तथा परि से उत्तर (स्थल शब्द के सकार को मूर्धन्य आदेश होता है)। विकृतः - V. 1. 12 (चतुर्थीसमर्थ) विकृतिवाची प्रातिपदिक से (उपादानकारण अभिधेय हो तो 'हित' अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है, यदि वह उपादानकारण अपने उत्तरावस्थान्तर विकृति के लिये हो तो)। विक्रियः -III. ii. 83 वि पूर्वक क्रीज्' धातु से (कर्म उपपद रहते 'इनि' प्रत्यय होता है, भूतकाल में)। विख्ये-III. iv. 11 (दृशे) विख्ये शब्द (भी वेदविषय में तमन के अर्थ में) निपातन (किये जाते हैं)। ...विगणन... -I. iii. 36 देखें - सम्माननोत्सा I. iii. 36 ...विचति... - VI. i. 16 देखें-हिज्या० VI. 1. 16 ....विचतुर...-.iv.77 देखें - अचतुरविचतुर० V. iv. 77 विचार्यमाणानाम् - VIII. ii. 97 विचार्यमाण = जिसके बारे में विचार करना हो, उस पदार्थ को विषय बनाने वाले वाक्य की (टि को प्लुत . उदात्त होता है)। .....विच्छ... -III. iii. 90 देखें - यजयाच III. iii. 90 ....विच्छि... -III. I. 28 देखें- गुपूधूपविच्छि० III. 1. 28 विच -III. 1.73 . (यज्' धातु से वेदविषय में) विच प्रत्यय होता है। देखें-विड्वनो: VI. iv. 41 विड्वनो: -VI. iv. 41 विट् तथा वन् प्रत्यय परे रहते (अनुनासिकान्त अङ्गों को आकारादेश होता है)। ...वितस्त्योः - VI. II. 31 . देखें-दिष्टिवितस्त्योः VI. 1.31 क्ति - V.il. 27 (तृतीयासमर्थ प्रातिपदिक से) 'ज्ञात' अर्थ में (चचप और चणप् प्रत्यय होते हैं)। क्तिः -VIII. ii. 58 वित्त शब्द में विद्ल लाभे धातु से उत्तर क्त प्रत्यय के नत्व का अभाव, भोग तथा प्रत्यय अभिधेय होने पर निपातित है। ...विद...-I.ii.8 देखें - रुदक्दिमुषग्रहिस्वपिप्रच्छ: I. ii. 8 ...विद.. -III. 1. 38 देखें-उवविदजागृभ्यः III. I. 38 ...विद... -III. ii.61 देखें-सत्सू० III. 1.61 ...विद... -III. iii.96 देखें-वृषेष III. iii. 96 ...विद.. -III. iii.99 देखें - समजनिषद III. 1.99 ....विद... -VII. II. 68 देखें - गमहन० VII. II. 68 Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 478 ...विद... - VIII. ii. 56 देखें- नुदविदोन्दO VIII. ii. 56 विदः - III. iv. 83 विद् ज्ञाने धातु से (लडादेश तिप् आदि जो परस्मैपदसंज्ञक, उनके स्थान में क्रमश: णल, अतुस. उस्, थल, अथुस,अ,णल.व,म आदेश विकल्प से होते है)। ...विदथि.. - VI. iv. 165 देखें- गाथिविदथिO VI. iv. 165 ...विदभृत्... - V.ii. 118 देखें- अभिजिद्ov.iii. 118 विदाइकुर्वन्तु - III. 1. 41 'विदाकुर्वन्तु' (यह शब्द विकल्प से) निपातन किया जाता है। विदामक्रन् - III. I. 42 विदामक्रन शब्द वेदविषय में विकल्प से निपातन होता है.(साथ ही अभ्युत्सादयामकः,प्रजनयामकः, चिकया- मकः, रमयामकः तथा पावयांक्रियात् पद भी वेदविषय में विकल्प से निपातित होते है)। विदि... - III. I. 162 देखें-विदिभिदि० III..ii. 162 विदितः -V.i. 42 (सप्तमीसमर्थ सर्वभूमि तथा पृथिवी प्रातिपदिकों से) प्रसिद्ध' अर्थ में भी (यथासङ्ख्य करके अब और अण् प्रत्यय होते हैं)। विदिभिदिच्छिदेः -III. ii. 162 विद, भिदिर, छिदिर् -इन धातुओं से (तच्छीलादि कर्ता हों, तो वर्तमानकाल में करच प्रत्यय होता है)। ...विदिभ्यः - III. iv. 109 देखें-सिजभ्यस्तविदि० III. iv. 109 विदूरात् - IV. ii. 84 (पञ्चमीसमर्थ) विदूर शब्द से (प्रभवति' अर्थ में ज्य प्रत्यय होता है)। विदेः - VII. 1. 37 'विद् ज्ञाने' धातु से उत्तर (शतृ के स्थान में वसु आदेश होता है)। ...विदोः -III. iv. 20 देखें-दृशिक्दिोः III. V. 20 .... ....विद्यमानपूर्वात् - IV.i. 57 देखें-सहनविद्यमान IV.i.57 : - विद्या... - IV. iii. 77 देखें-विद्यायोनिसंबन्थेभ्यः IV. iii.77 विद्या... -VI. iii. 22 देखें -विद्यायोनिसंबन्धेभ्यः VI. iii. 22 विद्यायोनिसम्बन्धेभ्यः - IV. iii. 77 विद्यासम्बन्धवाची, योनिसम्बन्धवाची (पञ्चमीसमर्थ) प्रातिपदिकों से (आगत अर्थ में वुञ् प्रत्यय होता है)। विद्यायोनिसम्बन्येभ्यः - VI. iii. 22 ... विद्याकृत सम्बन्धवाची एवं योनिकृत सम्बन्धवाची (ऋकारान्त) शब्दों से उत्तर (षष्ठी का उत्तरपद के परे रहते अलक होता है)। विधल्... -IV. ii. 53 देखें-विधल्मक्तलौ IV.ii. 53 विधल्भक्तलौ - IV. ii. 53 (षष्ठीसमर्थ भौरिकि आदि तथा ऐषुकारी आदि शब्दों से 'विषयो देशे' अर्थ में यथासङ्ख्य) विधल और भक्तल् प्रत्यय होते है। विधार्थे - V.i. 42 क्रिया के प्रकार अर्थ में वर्तमान (सङ्ख्यावाची प्रातिपदिकों से धा प्रत्यय होता है)। विधि... - III. iii. 161 देखें-विधिनिमन्त्रण III. iii. 161 विधिः -I.i.71 (जिस विशेषण से) बिधि की जाये,(वह,विशेषण अन्त में है जिसके, उस विशेषणान्त समुदाय का ग्राहक होता . है और अपने स्वरूप का भी)। विधिनिमन्त्रणामन्त्रणाधीष्टसम्प्रश्नप्रार्थनेषु - III. il. 11 आज्ञा देना, निमन्त्रण, आमन्त्रण,सत्कारपूर्वक व्यवहार करना, संप्रश्न, प्रार्थना अर्थों में (लिङ्ग प्रत्यय होता है)। विधु... - III. ii. 35 देखें-विध्वरुषः III. 1. 35 Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधूनने 479 विप्रलापे विधूनने - VII. iii. 38 ...विन्द.. - III. 1. 138 'कंपाना' अर्थ में (वर्तमान वा धातु को णि परे रहते तोमरते देखें-लिम्पविन्द III. I. 138 जुक् आगम होता है)। . विन्द.. - III. iv. 30 देखें-विन्दजीवोः III. iv. 30 विध्यति - IV. iv. 83 विन्दजीवोः -III. iv. 30 (द्वितीयासमर्थ प्रातिपदिक से) 'बींधता है' अर्थ में (यदि । (यावत् शब्द उपपद रहते) विदल (लाभे) तथा जीव धनुष करण न हो तो यत् प्रत्यय होता है)। (प्राणधारणे) धातुओं से (णमुल प्रत्यय होता है)। विध्वरुषोः - III. ii. 35 विन्दुः -in. ii. 1691 विधु और अरुस् (कर्म) उपपद हों तो (तुद धातु से खश् । विद् धातु से तच्छीलादि अर्थों में वर्तमान काल में उ प्रत्यय होता है)। प्रत्यय तथा विद् को नुम् का आगम करके विन्दु शब्द विन... -V. 1.65 का निपातन किया जाता है। देखें-विन्मतो: V.ii.65 विन्मतो: - V.ii.65 विनश्याम् - v.ii. 27 विन और मतुप प्रत्ययों का (लक होता है, अजादि वि तथा नज प्रातिपदिकों से (प्रथम भाव' अर्थ में अर्थात इष्ठन.ईयसुन प्रत्यय परे रहते)। यथासङ्ख्य करके ना तथा नञ् प्रत्यय होते हैं)। विपराभ्याम् -I. iii. 19 विनयादिभ्यः -V.iv.34 वि एवं परा उपसर्ग से उत्तर (जि' धातु से आत्मनेपद विनयादि प्रातिपदिकों से (स्वार्थ में ढक् प्रत्यय होता होता है। है)। विपाश:-IVil.73 ...विना...-II. ill. 32 विपाट् नदी के किनारे पर जो कुएँ है, उनके अभिधेय देखें-पृथग्विनानानाभिः II. iii. 32 होने पर भी अब प्रत्यय होता है)। ....विनाश.. -III. ii. 146 विपूय.. -III. 1. 117 . देखें -निन्दहिस० III. ii. 146 देखें-विपूयविनीय III. I. 117 विनि... -v.ii. 102 देखें-विनीनी v.ii. 102 . विपूयविनीयजित्या: - III. 1. 117 विपय विनीय और जित्य शब्दों का निपातन किया विनिः-V. 1. 121 जाता है; (यथासंख्यं करके मुञ्ज = मूंज, कल्क = (अस् अन्तवाले एवं माया,मेधा तथा स्रज् प्रातिपदिकों ओषधि की पीठी और हलि = बड़ा हल अर्थों में)। से 'मत्वर्थ में) विनि प्रत्यय होता है। विप्रतिषिद्धम् - II. iv. 13 विनीनी-v.ii. 102 र परस्पर विरुद्धार्थक (अद्रव्यवाची) शब्दों का (द्वन्द्व भी (तपस तथा सहस्त्र प्रातिपदिकों से 'मत्वर्थ' में विकल्प से एकवद् होता है)। यथासङ्ख्य करके) विनि तथा इनि प्रत्यय होते है)। विप्रतिषेधे-I.iv.2 विनियोगे - VIII. I. 61 " (अह' इससे युक्त प्रथम तिङन्त को) विनियोग = . विप्रतिषेध = तुल्यबलविरोध होने पर (क्रम में बाद अनेक प्रयोजन के लिये प्रैष = प्रेरणा (तथा चकार से वाला सूत्र कार्य करता है)। क्षिया = धर्मोल्लंघन) गम्यमान होने पर अनुदात्त नहीं विप्रलापे -I. iii. 50 होता। परस्पर-विरुद्ध कथन रूप (स्पष्टवाणी वालों के सह ...विनीय.. -III.i. 117. उच्चारण) अर्थ में (वर्तमान वद् धातु से विकल्प से आत्म. देखें-विपूयविनीय III. 1. 117 नेपद होता है)। Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विप्रश्न 480 विभाषा विप्रश्न: -I.iv.39 (राध और ईक्ष धात् के प्रयोग में जिसके विषय में विविध प्रश्न हों.वह (कारक सम्प्रदान-संज्ञक होता है)। विप्रसम्भ्यः -III. ii. 180 (संज्ञा गम्यमान न हो, तो) वि,प्र तथा सम्पूर्वक (भूधातु से डु प्रत्यय होता है, वर्तमानकाल में)। विभक्ति ... -II.i.6 देखें - विभक्तिसमीपसमृद्धि II. 1.6 विभक्तिः -I. iv. 103 (तिडों व सुपों के तीन-तीन की) विभक्ति संज्ञा (भी) हो जाती है। विभक्ति -V.iti.1 (यहाँ से आगे 'दिक्शब्देभ्यः सप्तमीपञ्चमी.' v. iii. 27 सत्र से पहले पहले जितने प्रत्यय कहे हैं, उन सबकी) विभक्ति सज्जा होती है। विभक्तिः -VI.i. 162 (सप्तमीबहुवचन सुप के परे रहते एक अच् वाले शब्द से उत्तर तृतीया विभक्ति से लेकर आगे की) विभक्तियों को (उदात्त होता है)। ...विभक्तिषु-VIII. iv. 11. देखें-प्रातिपदिकान्तनुम्विभक्तिषु VIII. iv. 11 विभक्ते -II. iii. 42 जिस (निर्धारण) में विभाग किया जाये, उसमें (पञ्चमी विभक्ति हो जाती है)। विभक्तौ -. iii.8 विभक्ति में (वर्तमान अन्तिम तवर्ग,सकार और मकार की इत्सजा नहीं होती)। विभक्तौ - VII. i. 73. (इक अन्त वाले नपुंसक अङ्ग को अजादि) विभक्ति परे रहते (नुम् आगम होता है)। विभक्तौ - VII. ii. A (अष्टन् अङ्ग को) विभक्ति परे रहते (आकारादेश हो जाता है)। ...विभज्योपपदे -V. iii. 57 देखें - द्विवचनविभज्यो० V. iii. 57 ...विभा... - III. ii. 21 देखें-दिवाविभा० III. 1.21 विभाषा-1.1.26 (दिशावाची बहुव्रीहि समास में सर्वादियों की सर्वनाम संज्ञा) विकल्प से होती है)। विभाषा -I.i. 31 (द्वन्द्व समास में सर्वादियों की सर्वनामसंज्ञा जस्सम्बन्धी कार्य में) विकल्प से (नहीं होती)। विभाषा -1.1.43 (निषेध और विकल्प की) विभाषा संज्ञा (होती है)। विभाषा -I. ii.3 .(ऊर्गुज् आच्छादने' धातु से परे इडादि प्रत्यय) विकल्प' करके (ङित्वत् होता है)। विभाषा -1.1.16 - (उपयमन अर्थ में वर्तमान यम् धातु से परे आत्मनेपद विषय में सिच् प्रत्यय) विकल्प करके (कित्वत् होता है)। विभाषा-1. ii. 26 . (वेदविषय में तीनों स्वरों को) विकल्प से (एकश्रुति हो जाती है)। विभाषा -1. iii. 50 (परस्परविरुद्ध कथन रूप व्यक्तवाणी वालों के सह उच्चारण अर्थ में वर्तमान वद् धातु से) विकल्प से (आत्मनेपद होता है)। विभाषा-I.ii.77 (समीपोच्चरित पद के द्वारा कर्चभिप्राय क्रियाफल के प्रतीत होने पर विकल्प करके (धातु से आत्मनेपद होता विभाषा -I. iii. 85 (अकर्मक उपपूर्वक रम धात से) विकल्प करके (परस्मैपद होता है)। विभाषा -I.iv.69 (छिपने अर्थ में तिरः शब्द की कृञ् धातु के योग में) विकल्प से (गति और निपात संज्ञा होती है)। विभाषा-I. iv.97 (अधि शब्द की कृज के परे) विकल्प से (कर्मप्रवचनीय और निपात संज्ञा होती है)। Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाषा विभाषा - II. 1. 11 (अप, परि, बहिस्, अनु - ये सुबन्त पञ्चम्यन्त समर्थ सुबन्त के साथ) विकल्प से (समास को प्राप्त होते हैं और वह अव्ययीभाव समास होता है)। विभाषा - IIIII. 17 (अनादर गम्यमान होने पर मन् धातु के प्राणिवर्जित कर्म में) विकल्प से (चतुर्थी विभक्ति होती है)। विभाषा - II. iii. 25 विकल्प से (पञ्चमी विभक्ति होती है, स्त्रीलिङ्गवर्जित गुणरूप हेतु में) । विभाषा - 11. III. 58 •II. iii. उपसर्गसहित दिव् धातु के कर्म कारक में) विकल्प से (षष्ठी विभक्ति होती है)। विभाषा (वृक्ष, मृग, तृण, धान्य, व्यञ्जन, पशु, शकुनि, अश्ववडव, पूर्वापर, अधरोत्तरवाची शब्दों का द्वन्द्व) विकल्प से (एकवद्भाव को प्राप्त होता है)। - II. iv. 12 विभाषा - 11. Iv. 16 (अधिकरण के परिमाण का समीप अर्थ कहना हो तो द्वन्द्वसमास में) विकल्प से (एकवद् होता है) । विभावा – II. iv. 25 - (नकर्मधारयवर्जित सेना, सुरा, छाया, शाला, निशाशब्दान्त तत्पुरुष) विकल्प से (नपुंसकलिङ्ग में होता है)। विभाषा - II. iv. 50 (इड् धातु को) विकल्प से (गाङ् आदेश होता है, लुङ् तथा लृङ् लकार परे रहते) । विभाषा II. Iv. 78 (ना, धेट, शा, छा एवं सा धातुओं से परे) विकल्प करके (परस्मैपद परे रहते सिच् का लुक् हो जाता है)। विभाषा III. 1. 20 (कृ तथा वृष् धातुओं से) विकल्प से (क्यप् प्रत्यय होता わ - विभावा III. 1. 49 ( तथा टुओश्वि धातुओं से चिल के स्थान में चड् आदेश) विकल्प से होता है, कर्तृवाची लुक् परे रहते)। 481 विभाषा - III. 1. 113 (मृज् धातु से विकल्प से (क्यप् प्रत्यय होता है)। विभाषा III. 1. 139 - विभाषा (अनुपसर्ग हुधाञ् और डुदाञ् धातुओं से) विकल्प से (श प्रत्यय होता है)। विभाषा III. 1. 143 i. (ग्रह धातु से) विकल्प से (ण प्रत्यय होता है)। विभाषा III II. 114 (अभिज्ञावचन शब्द उपपद हो तो यत् का प्रयोग हो या न हो, तो भी अनद्यतन भूतकाल में धातु से लृट् प्रत्यय) विकल्प से होता है, यदि प्रयोक्ता साकांक्ष हो तो)। विभाषा - III. ii. 121 - - (पृष्टप्रतिवचन अर्थ में धातु से न तथा नु उपपद रहते सामान्य भूतकाल में) विकल्प से (लट् प्रत्यय होता है) । पृष्टप्रतिवचन = पूछे जाने पर दिया जाने वाला उत्तर । विभाषा - III. iii. 5 (कदा तथा कर्हि उपपद हों, तो धातु से भविष्यत्काल में) विकल्प से (लट् प्रत्यय होता है) । विभाषा - III. iii. 50 (आइ पूर्वक रु तथा प्लु धातुओं से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में) विकल्प से (घञ् प्रत्यय होता है)। विभाषा III. iii. 110 (उत्तर तथा प्रश्न गम्यमान होने पर धातु से स्त्रीलिङ्ग कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में) विकल्प से (इब् प्रत्यय होता है तथा चकार से ण्वुल् भी होता है)। विभाषा - III. III. 1.38 (भविष्यत्काल में पहले भाग की मर्यादा को कहना हो तो अनद्यतन की तरह प्रत्ययविधि) विकल्प से (नहीं होती, यदि वह कालविभाग अहोरात्रसम्बन्धी न हो तो)। विभाषा - III. III. 140 (गर्दा गम्यमान हो तो कथम् शब्द उपपद रहते) विकल्प से (लिङ् प्रत्यय होता है तथा चकार से लट् प्रत्यय भी होता है)। विभाषा - III. iii. 155 (सम्भावन अर्थ के कहने वाला धातु उपपद हो तो यत् शब्द उपपद न होने पर सम्भावन अर्थ में वर्तमान धातु Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाषा 482 विभाषा.. से) विकल्प से (लिङ् प्रत्यय होता है, यदि अलम् शब्द विभाषा – IV. iv. 113 का अप्रयोग सिद्ध हो)। (सप्तमीसमर्थ स्रोतस् प्रातिपदिक से वेदविषय में भविभाषा-III. iii. 160 वार्थ में) विकल्प से (ड्यत ड्य - दोनों प्रत्यय होते हैं)। (इच्छार्थक धातुओं से वर्तमान काल में) विकल्प से विभाषा - V.1.4 (लिङ् प्रत्यय होता है, पक्ष में लट)। । (हविविशेषवाची तथा अपूप' इत्यादि प्रातिपदिकों से. विभाषा-III. iv. 24 क्रीत अर्थ से पूर्व पूर्व पठित अर्थों में) विकल्प से (यत् (अग्रे,प्रथम,पूर्व उपपद हों तो समानकर्तृक पूर्वकालिक प्रत्यय होता है)। धातु से) विकल्प से (क्त्वा,णमुल प्रत्यय होते हैं, पक्ष में । विभाषा-V.i. 28 लडादि लकार होते है)। (अध्यर्द्ध शब्द पूर्व में है जिसके, ऐसे तथा द्विगुसज्ञक विभाषा-V.I.34 कार्षापण एवं सहस्र-शब्दान्त प्रातिपदिक से 'तदर्हति'जिसके पूर्व में कोई शब्द विद्यमान हो, ऐसे पति- पर्यन्त कथित अर्थों में उत्पन्न प्रत्यय का) विकल्प से (लुक् . शब्दान्त अनुपसर्जन प्रातिपदिक को स्त्रीलिङ्ग में ङीप् होता है। प्रत्यय विकल्प से हो जाता है, तथा नकारादेश भी हो विभाषा - V.ii. 4 जाता है, (डीप् न होने पर नकारादेश भी नहीं)। (षष्ठीसमर्थ धान्यविशेषवाची तिल, माष, उमा, भङ्गा विभाषा-IV.ii. 22 और अणु प्रातिपदिकों से) विकल्प करके (यत् प्रत्यय (प्रथमासमर्थ पौर्णमासी शब्द से समानाधिकरणवाले होता है, यदि इनका उत्पत्तिस्थान खेत वाच्य हो तो)।: फाल्गुनी,श्रवणा, कार्तिकी और चैत्री शब्दों से सप्तम्यर्थ में) विकल्प से (ढक प्रत्यय होता है.पक्ष में अण)। विभाषा -V.11.29 विभाषा-IV. ii. 117 (दिशा. देश और काल अर्थों में वर्तमान सप्तम्यन्त, . (उशीनर देश में जो वाहीक ग्राम वृद्धसंज्ञक हैं. उनसे) पञ्चम्यन्त तथा प्रथमान्त पर तथा अवर प्रातिपदिकों से). विकल्प से (ठञ् तथा जिल् शैषिक प्रत्यय होते है)। विकल्प से (स्वार्थ में अतसुच् प्रत्यय होता है)। विभाषा-IV.ii. 129 विभाषा - V. iii. 42 (कुरु तथा युगन्धर जनपदवाची शब्दों से) विकल्प से (सप्तमी, पञ्चमी,प्रथमान्त दिशा, देश तथा कालवाची (शैषिक वुञ् प्रत्यय होता है)। अवर शब्द को अस्तात् प्रत्यय परे रहते) विकल्प से (अव् विभाषा-IV. ii. 143 आदेश होता है)। (अमनुष्य अभिधेय हो तो पर्वत शब्द से) विकल्प से विभाषा - V.iii. 68 (छ प्रत्यय होता है, पक्ष में अण)। (किञ्चित् न्यून' अर्थ में वर्तमान सुबन्त से) विकल्प से विभाषा-IV. iii. 13 (बहुच् प्रत्यय होता है और वह सुबन्त से पूर्व में ही होता (कालविशेषवाची शरत् शब्द से रोग तथा आतप अभिधेय हो तो ठञ् प्रत्यय) विकल्प से होता है)। विभाषा - V.iv.8 विभाषा-IV. iii. 24 (दिशावाची स्त्रीलिङ्ग न हो तो अञ्चति उत्तरपदवाले (कालवाची पर्वाह्न अपराह्न शब्दों से) विकल्प से (ट्यु प्रातिपदिक से स्वार्थ में) विकल्प से (ख प्रत्यय होता है)। तथा ट्युत् प्रत्यय होते हैं, उन प्रत्ययों को तुट् आगम भी होता है)। विभाषा-v.iv. 10 विभाषा-IV. iv. 17 (स्थान-शब्दान्त प्रातिपदिक से) विकल्प से (छ प्रत्यय (तृतीयासमर्थ विवध तथा वीवध प्रातिपदिकों से) होता है, यदि समान स्थान वाले सदृश व्यक्ति द्वारा स्थानान्त प्रतिपाद्य तत्त्व अर्थवत हो तो)। विकल्प से (ष्ठन् प्रत्यय होता है)। Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाषा 482 विभाषा विभाषा - v. iv. 15 विभाषा - VI. i. 118 (जिस बहुव्रीहि से समासान्त प्रत्यय का विधान नहीं (सर्वत्र = छन्द तथा भाषा विषय दोनों में,गो शब्द के किया है, उससे) विकल्प करके (कप् प्रत्यय होता है)। पदान्त एङ को) विकल्प से (अकार परे रहते प्रकृतिभाव विभाषा - V. iv. 20 होता है)। (आसन्नकालिक क्रिया के अभ्यावृत्ति के गणन अर्थ में विभाषा-VI. 1. 130 वर्तमान बहु प्रातिपदिक से) विकल्प से (धा प्रत्यय होता (लिट् तथा यङ् के परे ग्रहते टुओश्वि धातु को) विकल्प . से (सम्प्रसारण हो जाता है)। विभाषा -V. iv. 52 विभाषा-VI.i. 175 (कृ,भूतथा अस् धातु के योग में सम् पूर्वक पद् धातु (षट्सज्ञक,त्रि तथा चतुर् शब्द से उत्पन्न जो झलादि के कर्ता में वर्तमान प्रातिपदिक से 'सम्पूर्णता' गम्यमान विभक्ति शब्द का उपोत्तम) विकल्प से (भाषाविषय में हो तो) विकल्प से (साति प्रत्यय होता है)। उदात्त होता है)। विभाषा - V. iv. 72 विभाषा -VI. . 202 (नञ् से परे जो पथिन् शब्द,तदन्त तत्पुरुष से समासान्त । (रिक्त शब्द में) विकल्प से (आधुदात्तत्व होता है)। प्रत्यय) विकल्प से (नहीं होता)। विभाषा-VI.i. 209 विभाषा -V.. 130 . (वेणु तथा इन्धान शब्दों के आदि को) विकल्प से (ऊर्ध्व शब्द से उत्तर जो जानु शब्द,उसको) विकल्प से (उदात्त होता है)। (समासान्त शु आदेश होता है, बहुव्रीहि समास में)। विभाषा - VI. ii. 67 विभाषा-V. iv. 144 (अध्यक्ष शब्द उत्तरपद रहते पूर्वपद को) विकल्प से . (श्याव तथा अरोक शब्दों से उत्तर दन्त शब्द को) (आधुदात्त होता है)। विकल्प से (समासान्त दतृ आदेश होता है, बहुव्रीहि विभाषा -VI. 1. 161 समास में)। (न से उत्तर तृप्रत्ययान्त एवं अन्न, तीक्ष्ण तथा शुचि श्याव = पीला; उत्तरपद शब्दों को) विकल्प से (अन्तोदात्त होता है)। अरोक = मैला, गन्दा। विभाषा-VI. 1. 164 विभाषा - V. iv. 149 (वेदविषय में संख्या शब्द से परे स्तन शब्द को बहतीहि (पूर्ण शब्द से उत्तर काकुद शब्द का) विकल्प से (समा समास में) विकल्प से (अन्तोदात्त होता है)। सान्त लोप होता है, बहुव्रीहि समास में)। विभाषा - VI. ii. 196 विभाषा -VI.i. 27 (तत्पुरुष समास में उत्पुच्छ शब्द को) विकल्प से (अन्तो(अभि तथा अव पूर्व वाले श्यैङ् धातु को निष्ठा परे दात्तत्व होता है)। रहते) विकल्प से (सम्प्रसारण होता है)। विभाषा-VI.1.43 विभाषा - VI. iii. 12 (परि उपसर्ग से उत्तर व्ये धातु को विकल्प करके (बन्ध शब्द उत्तरपद रहते भी हलन्त तथा अदन्त शब्द (सम्प्रसारण नहीं होता है)। से उत्तर सप्तमी का) विकल्प करके (अलुक् होता है)। विभाग-VI. 1. 50 विभाषा - VI. ii. 15 (ली धातु को ल्यप् परे रहते तथा एच् के विषय में) (वर्ष, क्षर, शर,वर - इन शब्दों से उत्तर सप्तमी का ज 'विकल्प से (उपदेश अवस्था में ही आत्व हो जाता है)। उत्तरपद रहते) विकल्प से (अलुक् होता है)। Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाषा 484 विभाषा विभाषा -VI. iii. 23 विभाषा - VI. iv. 57 (स्वस तथा पति शब्द के उत्तरपद रहते विद्या तथा (आप से उत्तर ल्यप परे रहते) विकल्प से (णि के स्थान योनि-सम्बन्धवाची ऋकारान्त शब्दों में उत्तर षष्ठी का) में अयादेश होता है)। विकल्प से (अलुक होता है)। विभाषा-VI. iv. 137 विभाषा-VI. iii. 48 (ङि तथा शी विभक्ति परे रहते अन् के अकार का (सबको अर्थात् द्वि,अष्टन् तथा त्रि को जो कुछ भी कह लोप) विकल्प से (होता है)। आयें है, वह चत्वारिंशत् आदि सङ्ख्या उत्तरपद रहते, विभाषा -VI. iv. 162 बहुव्रीहि समास तथा अशीति को छोड़कर) विकल्प करके (ऋतु अङ्ग के हलादि,लघु ऋकार के स्थान में) विकल्प से (र आदेश होता है,वेदविषय में; इष्ठन् इमनिच,ईयसुन् विभाषा-VI. iii.71 परे रहते)। (कृदन्त उत्तरपद रहते रात्रि शब्द को) विकल्प करके (मुम् आगम होता है)। विभाषा - VII.1.7 विभाषा - VI. iii. 87 (विद् अङ्ग से उत्तर झ् के स्थान में हुआ जो अत् आदेश, (उदर शब्द उत्तरपद रहते य् प्रत्यय परे हो तो समान उसको) विकल्प से (रुट आगम होता है)। शब्द को) विकल्प करके (स आदेश हो जाता है)। विभाषा - VII. 1. 69 विभाषा - VI. ii. 99 (लम् अङ्ग को चिण् तथा णमुल प्रत्यय परे रहते) .. (अर्थ शब्द उत्तरपद हो तो अषष्ठीस्थित तथा अतृतीया- विकल्प से (तुम् आगम होता है)। स्थित अन् शब्द को) विकल्प करके (दुक आगम होता विभाषा-VII.1.97 (तृतीयादि अजादि विभक्तियों के परे रहते क्रोष्टु शब्द विभाषा -VI. iii. 105 को) विकल्प से (तृज्वत् अतिदेश होता है)। (पुरुष शब्द उत्तरपद हो तो) विकल्प से (कु शब्द को विभाषा-VII. 1.6 का आदेश हो जाता है)। (ऊर्गुञ् अङ्ग को परस्मैपदपरक इडादि सिच् परे रहते) विभक्तौ - VI. iii. 131 विकल्प से (वृद्धि नहीं होती)। . . (मन्त्र-विषय में प्रथमा से भिन्न) विभक्ति के परे रहते विभाषा-VII. II. 15 (ओषधि शब्द को भी दीर्घ हो जाता है)। (जिस धातु को कहीं भी इट् विधान) विकल्प से किया विभाषा-VI. iv. 17 गया हो,उसको निष्ठा के परे रहते इडागम नहीं होता)। (तन अङ्ग की उपधा को झलादि सन् परे रहते) विकल्प से (दीर्घ होता है)। विभाषा-VII. I. 17 विभाषा-VI. iv. 32 (भाव तथा आदिकर्म में वर्तमान आकार इत्सज्जक (जकारान्त अङ्ग के तथा नर धातुओं को निष्ठा परे रहते) विकल्प से (इट आगम नहीं करके (नहीं होता)। होता)। विभाषा - VI. iv. 43 विभाषा - VII. 1.65 (यकारादि कित, ङित् प्रत्ययों के परे रहते अन, सन, (सज् तथा दृशिर् अङ्ग के थल् को) विकल्प से (इट् खन् अङ्गों को) विकल्प से (आकारादेश हो जाता है)। आगम नहीं होता)। विभाषा -VI. iv. 50 विभाषा-VII. 1.68 (हल् से उत्तर 'क्य' का) विकल्प से (लोप होता है, (गम्ल, हन, विद्ल, विश् - इन अङ्गों से उत्तर वसु आर्धधातुक परे रहते)। को) विकल्प से (इट आगम होता है)। नकार का लोप) विकल्प चातुजा काटना पर रहत) विकल Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाषा 485 ...विभ्यः विभाषा-VII. iii. 58 (अभ्यास से उत्तर जि अङ्गको) विकल्प से (कवर्गादेश होता है, सन् तथा लिट् परे रहते)। विभाषा-VII. iii. 90 (हलादि पित सार्वधातुक परे रहते 'ऊर्गुब आच्छादने . धातु को) विकल्प से (वृद्धि होती है)। विभाषा - VII. iii. 115 . (द्वितीया तथा तृतीया शब्द से उत्तर डित् प्रत्यय को) विकल्प से (स्याट् आगम होता है तथा द्वितीया, तृतीया शब्द को स्याट के योग में हस्व भी हो जाता है)। विभाषा-VII. iv. 44 . (ओहाक अंजको) विकल्प से वेदविषय में क्त्वा प्रत्यय परे रहते 'हि' आदेश होता है)। विभाषा-VII. iv.97 वेष्ट तथा चेष्ट अङग के अभ्यास को णि परे रहते) विकल्प से (अकारादेश होता है)। विभाषा-VIII.1.27 (विद्यमान है कोई पद पूर्व में जिससे, ऐसे प्रथमान्त पद से उत्तर षष्ठ्यन्त,चतुर्थ्यन्त तथा द्वितीयान्त युष्मद् अस्मद् शब्दों को) विकल्प से (वाम नौ आदि आदेश नहीं होते)। विभाषा - VIII. I. 41 (अहो शब्द से युक्त तिङन्त को पूजा-विषय से शेष - विषयों में) विकल्प करके (अनुदात्त नहीं होता)। विभाषा-VIII. I. 45 (किंम् शब्द का लोप होने पर क्रिया के प्रश्न में अनुपसर्ग तथा अप्रतिषिद्ध तिङन्त को) विकल्प करके (अनुदात्त नहीं होता)। विभाषा-VIII. 1.50 (अविद्यमानपूर्व आहो, उताहो शब्दों से युक्त तिडन्त को अनन्तर से शेष विषय में) विकल्प करके (अनुदात्त नहीं होता)। विभाषा-VIII. 1.63 - (चादियों के लोप होने पर प्रथम तिडन्त को) विकल्प करके (अनुदात्त नहीं होता)। विभाषा-VIII. ii. 21 (अजादि प्रत्यय परे रहते गृ धातु के रेफ को) विकल्प करके (लत्व होता है)। विभाषा-VIII. ii.93 (पछे गये प्रश्न के प्रत्युत्तर वाक्य में वर्तमान हि शब्द को) विकल्प करके (प्लत उदात्त होता है)। विभाषा-VIII. ii. 79 (डण से परे इट से उत्तर षीध्वम,लुङ तथा लिट् के धकार को) विकल्प से (मूर्धन्य आदेश होता है)। विभाषा-VIII. iv.9 (ओषधिवाची तथा वनस्पतिवाची पूर्वपद में स्थित निमित्त से उत्तर वन शब्द के नकार को) विकल्प करके (णकार आदेश होता है)। विभाषा-VIII. iv. 18 (उपसर्ग में स्थित निमित्त से उत्तर,जो उपदेश में ककार तथा खकार आदि वाला नहीं है एवं षकारान्त भी नहीं है, ऐसे शेष धातु के परे रहते नि के नकार को) विकल्प से (णकारादेश होता है)। विभाषा-VIII. iv. 29 (ण्यन्त धातु से विहित जो कत प्रत्यय.उसमें स्थित जो अच से उत्तर नकार, उसको उपसर्ग में स्थित निमित्त से उत्तर विकल्प से (णकार आदेश होता है)। विभाषितम्- VII. iii. 25 (जङ्गल, धेनु, वलज अन्तवाले अङ्ग के पूर्वपद के अचों में आदि अच को वृद्धि होती है तथा इन अङ्गों का उत्तर) विकल्प से (वृद्धिवाला होता है; जित्, णित् तथा कित् तद्धित परे रहते)। विभाषितम् - VII. 1. 53 (गत्यर्थक धातुओं के लोडन्त से युक्त उपसर्गरहित एवं उत्तमपुरुषवर्जित जो लोडन्त तिङन्त; उसे) विकल्प करके (अनुदात्त नहीं होता, यदि कारक सभी अन्य न हों तो)। विभाषितम् - VIII. 1.74 (विशेषवाची समानाधिकरण आमन्त्रित परे रहते सामान्यवचन आमन्त्रित को) विकल्प से (अविद्यमानवत होता ...विभ्यः -I.lil. 22 देखें -समवप्रविश्य: I. iii. 22 ...विभ्यः -I. iii. 30 देखें-निसमुपविभ्यः I. iii. 30 Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 486 विशेषणम् ..विश्यः -VII. 1. 24 देखें-सन्निविभ्यः VII. ii. 24 ...विश्य: - VIII. iii.70 देखें-परिनिविभ्य: VIII. iii. 70 ...विभ्य: - VIII. iii.76 देखें-निनिविभ्यः VIII. iii. 76 ...विभ्याम् -I. iii. 27 देखें-उद्विभ्याम् I. iii. 27 ...विभ्याम् - V.iv. 148 देखें - उद्विभ्याम् V. iv. 148 ...विभ्याम् -VI. . 181 देखें-निविभ्याम् VI. ii. 181 ...विमति... -I. iii. 47 देखें - भासनोपसम्भाषा० I. iii. 47 विमुक्तादिभ्यः -v.ii.61 विमुक्तादि प्रातिपदिकों से (अध्याय' और 'अनुवाक' अभिधेय हों तो मत्वर्थ में अण प्रत्यय होता है)। विमोहने - VII. ii. 54 व्याकुल करने अर्थ में (वर्तमान लुभ धातु से उत्तर क्त्वा तथा निष्ठा को इट् आगम होता है)। विराम: -I. iv. 109 विराम = वर्णोच्चारण के अभाव की (अवसान संज्ञा होती है)। ...विरिब्ध...-VII. 1. 18 देखें-क्षुब्धस्वान्त० VII. ii. 18 विरोधः -II. iv.9 विरोध - वैर (जिनका स्वाभाविक है. तद्वाची शब्दों का द्वन्द्व एकवद् होता है)। विवधात् - IV. iv. 17 (तृतीयासमर्थ) विवध प्रातिपदिक से (विकल्प से ष्ठन प्रत्यय होता है)। विवध = बोझा ढोने के लिये जूआ,मार्ग,अनाज का संग्रह,घड़ा। ...विविच्... -III. ii. 142 देखे-सम्पृचानुरुध III. ii. 142 ...तिश... -III. iii. 16 देखें- पदरुज III. iii. 16 विश: -I. iii. 17 (नि उपसर्ग से उत्तर) 'विश्' धातु से (आत्मनेपद होता ...विश: -I. iv. 47 देखें-अभिनिविशः I. iv. 47 विशस्तृ - VII. 1.34 विशस्तृ शब्द वेदविषय में इडभावयुक्त निपातित है। विशाखयोः -I. ii. 62 विशाखा (नक्षत्र) के (द्वित्व अर्थ में भी विकल्प करके एकवचन होता है, छन्द विषय में)। ...विशाखा... - IV. iii. 34 देखें- अविष्ठाफल्गुन्य० IV. iii.34 विशाखा... -V.. 109 देखें - विशाखाषाढात् V.i. 109 विशाखाषाढात् - V. 1. 109 (प्रयोजन समानाधिकरणवाची प्रथमासमर्थ) विशाखा तथा आषाढ प्रातिपदिकों से (यथासङ्ख्य करके मन्थ = मथन का साधन तथा दण्ड अभिधेय होने पर षष्ठयर्थ में . अण् प्रत्यय होता है)। ...विशाम् - VII. ii. 68 देखें- गमहन0 VII. ii. 68 ...विशाल... -v.iii. 84 देखें- शेवलसुपरि० . iii. 84 विशि... -III. iv.56 देखें-विशिपतिपदिO III.iv.56 विशिपतिपदिस्कन्दाम् -III. iv. 56 (व्याप्यमान तथा आसेव्यमान गम्यमान हों तो द्वितीयान्त उपपद रहते) विशि, पति, पदि तथा स्कन्द धातुओं से (णमुल प्रत्यय होता है)। विशिष्टलिङ्गः-II. iv.7 भिन्न लिङ्ग वाले (नदीवाचकों और ग्रामवर्जित देशवाचियों का द्वन्द्व एकवद् होता है)। . विशेष: -I.ii. 65 (वृद्ध = गोत्र प्रत्ययान्त शब्द युवा प्रत्ययान्त के साथ शेष रह जाता है,यदि वृद्ध-युव-प्रत्ययनिमित्तक ही) भेद हो तो। विशेषणम् -II..56 विशेषणवाचक (सुबन्त) शब्द (समानाधिकरण विशेष्यवाची सुबन्त शब्द के साथ बहुल करके समास को प्राप्त होता है और वह तत्पुरुषसंज्ञक होता है)। Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषणानाम् विशेषणानाम् 1.11.52 (प्रत्यय के लुप् होने पर उस लुबर्थ के) विशेषणों में (भी लिङ्ग और संख्या प्रकृत्यर्थ के समान हो जाते हैं, जाति के प्रयोग से पूर्व ही ) । ... विशेषणे - II. ii. 35 देखें - सप्तमीविशेषणे 11. 11. 35 विशेषवचने - VIII. 1. 74 विशेषवाची (समानाधिकरण आमन्त्रित) परे रहते (सामान्यवचन आमन्त्रित को विकल्प से अविद्यमानवत् होता है। विशेष्येण 11.1.56 (समानाधिकरण) विशेष्यवाचक (सुबन्त) शब्द के साथ (विशेषणवाची सुबन्त का बहुल करके तत्पुरुष समास होता है। ...fafs... -III. ii. 157 देखें - जिदृक्षि० III. ii. 157 ... विश्व... - VIII. 111 देखें - प्रनपूर्वo Viii. 111 विश्वजन... - VI. 8 देखें आत्मविश्वजन V. 1. 8 ...विश्वदेव्यस्य - VI. iii. 130 देखें सोमाश्वेन्द्रियo VI. III. 130 - विश्वम् - VI.. ii. 107 (बहुव्रीहि समास में सचाविषय में पूर्वपद) विश्व शब्द को (अन्तोदात्त होता है)। - विश्वस्य - VI. iii. 127 (वसु तथा राट् उत्तरपद रहते) विश्व शब्द को (दीर्घ हो जाता है)। विष... ....... - IV. Iv. 91 देखें नौवयोधर्मo IV. Iv. 91 - विषय: - IV. ii. 51 (षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिक से) विषय अर्थ में (यथाविहित प्रत्यय होता है, यदि वह विषय देश हो । .. विषु - III. 1. 63 देखें समुप० 111. 111. 63 - 487 . विषु - III. iii. 72 देखें - न्यभ्युपविषु III. iii, 72 विष्किरः - VI. 1. 145 विष्किर इस में ककार से पूर्व सुद (विकल्प से) निपातन किया जाता है, (पक्षी को कहा जा रहा हो तो) । विष्टरः - VIII. iii. 93 (वृक्ष तथा आसन वाच्य हो तो) विष्टर शब्द में (षत्व निपातन है)। विष्वक्... - VI. III. 91 देखें विष्वग्देवयो: VI. iii. 91 विष्वग्देवयोः - VI. iii. 91 विष्वग् एवं देव शब्दों के (तथा सर्वनाम शब्दों के टिभाग को अद्रि आदेश होता है, वप्रत्ययान्त अशु धातु के परे रहते ) । ... विसर्जनीय... - VIII. III. 58 देखें विसर्जनीय VIII. I. 58 विसर्जनीयः - VIII. III. 15 (रेफान्त पद को खर् परे रहते तथा अवसान में) विसर्जनीय आदेश होता है, (संहिता में ) । विसर्जनीयः VIII. iii. 35 (शर्पारक खर के परे रहते विसर्जनीय को) विसर्जनीय आदेश होता है। विसर्जनीयस्य VIII. iii. 34 (खर् परे रहते) विसर्जनीय को (सकार आदेश होता है)। विसारिण: विसारिन् प्रातिपदिक से (स्वार्थ में अण् प्रत्यय होता है, मछली अभिधेय हो तो) । - - - - विंशतिकात् V. iv. 16 - विस्तात् - V. 1. 31 (द्वि तथा त्रि शब्द पूर्ववाले) विस्तशब्दान्त द्विगुसक प्रातिपदिक से (भी 'तदर्हति' - पर्यन्त कथित अर्थों में उत्पन्न प्रत्यय का विकल्प से लंक होता है)। विस्पष्टादीनि - VI. ii. 24 गुण को कहने वाले शब्दों के उत्तरपद रहते) विस्पष्टादि पूर्वपद को (तत्पुरुष समास में प्रकृतिस्वर होता है)। faryifa... - V. i. 24 देखें विंशतित्रिंशद्भ्याम् V. 1. 24 ...विंशति... - V. 1. 58 देखें पंक्तिविंशतिo V. 1. 58 ....विंशतिक... - V. 1. 27 देखें - शतमानविंशतिक० V. 1. 27 विंशतिकात् - V. 1. 32 (अर्ध्यर्द्ध शब्द पूर्ववाले तथा द्विगुसञ्ज्ञक विंशतिकशब्दान्त प्रातिपदिक से (तदर्हति पर्यन्त कथित अर्थों में खप्रत्यय होता है)। Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विंशतित्रिंशद्भ्याम् 488 विंशतित्रिंशद्भ्याम् - V.i. 24 ...वीराः- III. iii.96 विंशति तथा त्रिंशद् प्रातिपदिकों से (तदर्हति'-पर्यन्त देखें-वृषेक III. 1.96 कथित अर्थों में ड्युन् प्रत्यय होता है, सञ्जाभिन्न विषय ...वी? - VI. I. 120 में)। देखें-वीरवीयों VI. I. 120 ...विंशत: - V. 1. 46 ...वीवध- VI. iii.59 देखें-शदन्तर्विशते: V.ii. 46 देखें-मन्थौदन VI. iii. 59 विंशत: -VI. iv. 142 वुक्-IV. 1. 125 (भसज्ज्ञक) विंशति अङ्ग के (ति का डित् प्रत्यय परे (धू प्रातिपदिक से अपत्य अर्थ में ढक् प्रत्यय होता है रहते लोप होता है)। तथा 5 को) वुक् का आगम भी होता है। विंशत्यादिभ्यः -V. 1.56 वु -IV. 1. 120 (षष्ठीसमर्थ) सङ्ख्यावाची विंशति आदि प्रातिपदिकों (वर्गु नाम वाले देशविषयक कन्था प्रातिपदिक से) वुक् से (पूरण अर्थ में विहित डट् प्रत्यय को विकल्प से तमट् । प्रत्यय होता है। आगम होता है)। बुक् -VI. iv.88 वी-II. iv.56 (भू अङ्ग को) वुक् आगम होता है, (लुङ् तथा लिट् (अज धातु के स्थान में घ और अपवर्जित आर्धधातुक अजादि प्रत्यय के परे रहते)। . परे रहते) वी आदेश होता है। ...वुचौ -v.ii. 80 ...वीणा... - III. 1.25 देखें-अडचुचौ v. iii. 80 . .. देखें-सत्यापपाश III. 1.25 दुब्-III. I. 146 ...वीणा.. -VI. 1. 187 (निन्द, हिंस, क्लिश,खाद,वि + नाश, परि + क्षिप, देखें-स्फिगपूत VI. I. 187 परि +रट, परि + वादि, वि + आ + भाष तथा वीणायाम् -III. iii. 65 असूय - इन धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हों तो वीणा विषय होने पर (नी पूर्वक तथा अनुपसर्ग भी वर्तमानकाल में) वुञ् प्रत्यय होता है। क्वण् धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में विकल्प दुष्-IV. il. 38 से अप् प्रत्यय होता है,पक्ष में घज)। (षष्ठीसमर्थ गोत्रवाची शब्दों से तथा उक्षन, उष्ट्र, उरभ्र, ...वीप्सयो: - VIII. 1.4 राजन, राजन्य, राजपुत्र, वत्स, मनुष्य तथा अज शब्दों से देखें - नित्यवीप्सयो: VIII. I. 4 समूह अर्थ में) वुज प्रत्यय होता है।' ...वीप्सासु-I. iv. 89 दुष्- IV. ii. 52 देखें - लक्षणेत्यम्भूताख्यानभागवीप्सासु I. iv. 89 (षष्ठीसमर्थ राजन्यादि प्रातिपदिकों से 'विषयो देशे' . वीयते: -VI.1.53 अर्थ में) वुञ् प्रत्यय होता है। (प्रजन अर्थ में वर्तमान) वी धातु के (एच के स्थान में विकल्प से आकारादेश हो जाता है,णिच परे रहते)। दुष्... - IV. 1. 79 वीर... -VI. II. 120 देखें-बुज्छकठजिल• IV. ii. 79 देखें-वीरवीयाँ VI. II. 120 दुष्- IV. ii. 120 वीरवीयौँ - VI. ii. 120 (देश में वर्तमान धन्ववाची तथा यकार उपधावाले (बहुव्रीहि समास में स से उत्तर) वीर तथा वीर्यशब्दों वृद्धसंज्ञक प्रातिपदिकों से शैषिक) वुञ् प्रत्यय होता है। को (भी वेदविषय में आधुदात्त होता है)। दुष् - IV. ii. 133 ...वीरा: -II.1.57 (मनुष्य या मनुष्य में स्थित कोई कर्मादि अभिधेय हो देखें - पूर्वापरप्रथमचरम० II. 1. 57 तो कच्छादि प्रातिपदिकों से) वुज प्रत्यय होता है। Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 489 न् करके) वुज, छण, क, ठच, इल, स, इनि,र, ढ, ण्य,य, फक, फिज, इब, ज्य, ककु, ठक चातुरर्थिक प्रत्यय होते वुन् -III. 1.149 (प्र.स,लू धातुओं से समभिहार गम्यमान होने पर) वुन् प्रत्यय होता है। वुन्-IV. 1.60 (द्वितीयासमर्थ क्रमादि प्रातिपदिकों से अध्ययन तथा जानने का कर्ता अभिधेय होने पर) वुन् प्रत्यय होता है। वुन्-VIII. 28' (सप्तमीसमर्थ पूर्वाह्ण, अपराग, आर्द्रा, मूल, प्रदोष, अवस्कर प्रातिपदिकों से 'जात' अर्थ में) वुन् प्रत्यय होता दुष्-V. iii. 27 (सप्तमीसमर्थ शरद् प्रातिपदिक से जात अर्थ में संज्ञाविषय होने पर) वुज प्रत्यय होता है। कुष् - IV. II. 45 (सप्तमीसमर्थ आश्वयुजी प्रातिपदिक से बोया हुआ अर्थ में) वुञ् प्रत्यय होता है। आश्वयुजी = आश्विन मास की पूर्णिमा। दुष् - N. II. 49 (सप्तमीसमर्थ कालवाची ग्रीष्म और अवरसम प्रातिप- दिकों से देयमृणे' अर्थ में) वुब् प्रत्यय होता है। | अथ म) वुत् प्रत्यय होता है। दुष्-IV.lil.77 (विद्यासम्बन्धवाची एवं योनिसम्बन्धवाची पञ्चमीसमर्थ प्रातिपदिकों से आगत अर्थ में) वुञ् प्रत्यय होता है। दुश् - IV. 1. 99 (प्रथमासमर्थ भक्तिसमानाधिकरणवाची गोत्र आख्या वाले तथा क्षत्रिय आख्या वाले प्रातिपदिकों से बहल करके) वुड् प्रत्यय होता है। दुश् - IV. II. 117 (तृतीयासमर्थ कुलालादि प्रातिपदिकों से संज्ञा गम्यमान होने पर कृत अर्थ में) वुञ् प्रत्यय होता है। कुष्-IV. iii. 125 (षष्ठीसमर्थ गोत्रवाची तथा चरणवाची प्रातिपदिकों से 'इदम्' अर्थ में) वुज् प्रत्यय होता है। कुष् - IV. II. 154 (षष्ठीसमर्थ उष्ट प्रातिपदिक से विकार और अवयव अर्थों में) वुज् प्रत्यय होता है। दुष्-V.I. 131 (षष्ठीसमर्थ यकार उपधावाले गुरु है उपोत्तम जिसका, ऐसे प्रातिपदिक से भाव और कर्म अर्थों में) वुज् प्रत्यय होता है। पुछकठजिलसेनिरडण्ययफक्फिविष्यकक्ठकः - IV.11.79 (अरीहण, कृशाश्व,ऋषि, कुमुद,काश, तृण,प्रेक्ष,अश्म, सखि, संकाश, बल, पक्ष, कर्ण, सुतकम, प्रगदिन, वराह, कुमुद आदि सत्रह गणों के प्रातिपदिकों से यथासङ्ख्य आर्द्रा = छठा नक्षत्र । अवस्कर = विष्ठा, गुह्यदेश, गर्द । वुन् -IV. 1. 48 (सप्तमीसमर्थ कालवाची कलापि, अश्वत्थ, यव, बुस शब्दों से) वुन् प्रत्यय होता है, (देयमणे' विषय में)। कलापि = मोर, कोयल, अंजीरवृक्ष । अश्वत्थ = पीपल का पेड़। वुन् - IV. 1. 98 (प्रथमासमर्थ भक्तिसमानाधिकरणवाची वासुदेव तथा अर्जुन शब्दों से षष्ठ्यर्थ में) वुन् प्रत्यय होता है। छन् – IV. II. 124 (षष्ठीसमर्थ द्वन्द्वसंज्ञक प्रातिपदिक से 'इदम्' अर्थ में वैर, मैथुनिक अभिधेय हों तो) वुन् प्रत्यय होता है। मैथुनिक = वुन् -V.1.62 (गोषदादि प्रातिपदिकों से मत्वर्थ में 'अध्याय' और 'अनुवाक' अभिधेय हों तो) वुन् प्रत्यय होता है। बुन् - V. iv.1 (सङ्ख्या आदि में है जिसके, ऐसे पाद और शत शब्द अन्तवाले प्रातिपदिकों से वीप्सा गम्यमान हो तो) वुन् प्रत्यय होता है (तथा प्रत्यय के साथ-साथ पाद और शत के अन्त का लोप भी हो जाता है)। Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 490 ...... - II. iv.80 ....वृङ-HI. ii. 155 देखें - घसरणश II. iv. 80 देखें-जल्पभिक्ष० III. ii. 155 ....... -III. 1. 109 ...वृच्-II. iv. 80 देखें- एतिस्तु III. 1. 109 देखें - घसहरणशo II. iv. 80 व... -III. ii. 46 ...वृज्योः - IV.ii. 130 देखें-भृतवृ० III. ii. 46 देखें- मद्रवृज्यो: IV. ii. 130 वृ-III. iii. 48 वृणोते: -III. iii. 54 (नि पूर्वक) वृ धातु से (धान्यविशेष को कहना हो तो (आच्छादन अर्थ में प्र पूर्वक) वृञ् धातु से (कर्तृभिन्न कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है)। ___ कारक संज्ञा तथा भाव में विकल्प से घञ् प्रत्यय होता है, ...... -III. iii. 58 पक्ष में अप् होता है)। देखें- ग्रहवृद० III. iii. 58 ..वृति... - VI. iii. 115 ....... - VII. ii. 13 देखें- नहिवृति० VI. iii. 115 देखें- कृसभृ० VII. ii. 13 वृ... - VII. ii. 38 ...वृतु... -III. ii. 136 देखें-वृत: VII.ii. 38 देखें - अलंकृञ् III. 1. 136 . वृक... - V. iv. 41 वृत्तम् - IV. iv. 63 देखें-वृकज्येष्ठाभ्याम् V. iv.41 (अध्ययन में) वर्तमान (कर्म समानाधिकरणवाची प्रथवृकज्येष्ठाभ्याम् - V.iv.41 मासमर्थ प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ में ठक प्रत्यय होता है)। (प्रशंसाविशिष्ट' अर्थ में वर्तमान) वक तथा ज्येष्ठ वृत्तम् - VII. ii. 26 प्रातिपदिकों से (यथासंख्य करके तिल तथा तातिल प्रत्यय भी होते हैं, वेदविषय में)। (अध्ययन को कहने में निष्ठा के विषय में) ण्यन्त वृति धातु का वृत्त शब्द निपातन किया जाता है। वकात् -V. iii. 115 (अस्त्रों से जीविका कमाने वाले पुरुषों के समूहवाची, वृत्ति... -I. ill. 38 देखें - वत्तिसर्गतायनेषु I. iii. 38 वृक प्रातिपदिक से (स्वार्थ में टेण्यण् प्रत्यय होता है)। वृत्ति... - IV. 1. 42 वृक्ष.. -II. iv. 12 देखें - वृत्यमत्रावपना IV. 1. 42 देखें-वृक्षमृगतृणधान्य II. iv. 12 वृत्तिसर्गतायनेषु -I. iii. 38 वृक्ष..- VIII. Iii. 93 वृत्ति = अनुरोध = विना रुकावट के चलना.सर्ग= देखें-वृक्षासनयो: VIII. iii. 93 उत्साह, तायन = विस्तार - इन अर्थों में (वर्तमान क्रम वृक्षमृगतृणधान्यव्यञ्जनपशुशकुन्यश्ववडवपूर्वापराघरोत्त- धात से आत्मनेपद होता है)। राणाम् -II. iv. 12 कृत्यमत्रावपनाकृत्रिमात्राणास्थौल्यवर्णानाच्छादनायोवि- . वृक्ष, मृग, तृण, धान्य, व्यञ्जन, पश.शकुनि और वडव. कारमैथुनेच्छाकेशवेशेषु - IV. 1. 42 पूर्वापर, अधरोत्तरवाची शब्दों का (द्वन्द्व विकल्प से एक (जानपद इत्यादि 11 प्रातिपदिकों से यथासंख्य करके) वभाव को प्राप्त होता है)। वृत्ति, अमत्रादि ग्यारह अर्थों में (स्त्रीलिङ्ग में ङीष प्रत्यय वृक्षासनयो: -VIII. iii.93 होता है)। वृक्ष तथा आसन वाच्य हो तो (विष्टर शब्द में षत्व ....कत्रेषु-III. 1.87 निपातन है)। देखें-ब्रह्मभ्रूण III. II. 87 ...वृक्षेभ्यः -IVill. 132 वृद्ध...-IV.i. 169 देखें-प्राण्योपधिवक्षेभ्यः IV. 1. 132 देखें - वृद्धत्कोसला• IV. 1. 169 . Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृद्ध... ... 491 वृद्ध्यायलाभशुल्कोपदाः वृद्ध... -IV. iii. 141 देखें-वृद्धशरादिभ्यः IV. iii. 141 ...वृद्ध... - VI. iv. 157 देखें-प्रियस्थिर० VI. iv. 157 वृद्ध -I. ii. 65 वृद्ध = गोत्रप्रत्ययान्त शब्द (युवा प्रत्ययान्त शब्द के साथ शेष रह जाता है, यदि वृद्ध-युवप्रत्ययनिमित्तक ही भेद हो तो)। वृद्धम् -1.1.72 (जिस समुदाय के अचों) में आदि अच् वृद्धिसंज्ञक हो, उस समुदाय की) वृद्ध संज्ञा होती है। वृद्धशरादिभ्यः - IV. iii. 141 (भक्ष्य और आच्छादनवर्जित विकार और अवयव अर्थों में षष्ठीसमर्थ) वृद्धसंज्ञक तथा शरादि प्रातिपदिकों से (लौकिक प्रयोगविषय में नित्य ही मयट प्रत्यय होता है)। वृद्धस्य-v.ii. 62 . वृद्ध शब्द के स्थान में (भी अजादि अर्थात् इष्ठन्, ईयसुन् प्रत्यय परे रहते ज्य आदेश होता है)। वृद्धात - IV.i. 148 (सौवीर गोत्र में वर्तमान) वृद्धसंज्ञक प्रातिपदिकों से (अपत्य अर्थ में बहल करके तक प्रत्यय होता है कसन गम्यमान होने पर)। . वृद्धात् - IV.i. 157 (गोत्र से भिन्न जो) वृद्धसंज्ञक प्रातिपदिक, उससे (उदीच्य आचार्यों के मत में फि प्रत्यय होता है)। वृद्धात् - IV.ii. 113 वृद्धसंज्ञक प्रातिपदिक से (शैषिक छ प्रत्यय होता है)। वृद्धात् - IV. ii. 119 (उवर्णान्त) वृद्धसंज्ञक (प्राग्देशवाची) प्रातिपदिकों से (शैषिक ठञ् प्रत्यय होता है)। वृद्धात् -IV. ii. 140 - (अक,इक अन्त वाले तथा खकार उपधावाले जो देशवाची) वृद्धसंज्ञक प्रातिपदिक, उनसे (शैषिक छ प्रत्यय होता है)। वृद्धि... -v.i.46 देखें-वृद्ध्यायलाभ V.i. 46 वृद्धि -I.i.1 (आ, ऐ, औ की) वृद्धि संज्ञा होती है। वृद्धि -I.i.72 (जिस समुदाय के अचों में आदि अच) वृद्धिसंज्ञक = आ,ऐ, औ में से कोई हो, (उस समुदाय की वृद्ध संज्ञा होती है)। वृद्धि -VI.i. 85 (अवर्ण से उत्तर जो एच तथा एच परे रहते जो अवर्ण, इन दोनों पूर्व-पर के स्थान में) वृद्धि (एकादेश) होता है। वृद्धि - VII. ii.1 (परस्मैपदपरक सिच के परे रहते इगन्त अङग को) वद्धि होती है। वृद्धि -VII. iii. 89 (उकारान्त अङ्ग को लुक हो जाने पर हलादि पित् सार्वधातुक परे रहते) वृद्धि होती है। वृद्धि - VII. iii. 114 (मृज् अङ्ग के इक् के स्थान में) वृद्धि होती है। वृद्धिनिमित्तस्य-VI. iii. 38 वृद्धि का कारण है जिस तद्धित में, ऐसा तद्धित यदि रक्त तथा विकार अर्थ में विहित न हो तो तदन्त स्त्री शब्द को भी पुंवद्भाव नहीं होता। ..वृद्धी -I.i.3 देखें - गुणवृद्धी I.1.3 वृद्धत्कोसलाजादात् - Vi. 169 (क्षत्रियाभिधायी, जनपदवाची), वृद्धसंज्ञक, इकारान्त तथा कोसल और अजाद प्रातिपदिकों से (अपत्य अर्थ में ज्यङ् प्रत्यय होता है)। ...वृद्धोक्ष... - V. iv.77 देखें - अचतुर० V. iv.77 वृद्धौ... - VI. iii. 27 (देवताद्वन्द्व में) वृद्धि किया गया शब्द उत्तरपद में हो. तो (अग्नि शब्द को ईकारादेश होता है)। वृद्ध्यायलाभशुल्कोपदा: -v.i.46 (प्रथमासमर्थ प्रातिपदिकों से सप्तम्यर्थ में यथाविहित प्रत्यय होते हैं) यदि 'वृद्धि' = ब्याज के रूप में दिया Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृद्भ्यः जाने वाला द्रव्य, 'आय' = जमींदारों का भाग, 'लाभ' = द्रव्य, 'शुल्क' राजा का ये (दिया जाता है' क्रिया ये (दिया जाता है' क्रिया = मूलद्रव्य के अतिरिक्त प्राप्य भाग तथा 'उपदा' घूस के कर्म हो तो)। वृद्भ्यः - I. iii. 92 वृतादि धातुओं से (विकल्प से परस्मैपद होता है. स्य और सन् प्रत्ययों के परे होने पर) । वृद्भ्यः - VII. 1. 59 वृतु इत्यादि (चार) धातुओं से उत्तर (सकारादि आर्धधातुक को परस्मैपद परे रहते इट् का आगम नहीं होता) | ... वृधु ... III. ii. 136 देखें- अलंकृञ् III. 1. 136 - = ....वृन्दाः - VI. iv. 157 - देखें - प्रस्थस्फo VI. iv. 157 वृन्दारक... - 11.1.61 देखें वृन्दारकनागकुञ्जरैः II. 1. 61 वृन्दारकनागकुञ्जरैः II. 1. 61 · - (पूज्यमानवाची सुबन्त) वृन्दारक, नाग, कुञ्जर इन (समानाधिकरण सुबन्त शब्दों के साथ (विकल्प से समास को प्राप्त होता है और वह तत्पुरुष समास होता है)। ... वृन्दारकाणाम् - VI. Iv. 157 देखें प्रियस्थिर० VI. Iv. 157 - - वृष्य - VI. I. 102 देखें - ० VI. I. 102 ... वृश्चति... - VI. 1. 16 देखें - प्रहिज्या० VI. 1. 16 - वृष... - III. iii. 96 देखें वृक्पच III. 1. 96 ... वृष... -III. ii. 154 देखें - लचपत० III. 1. 154 - ... वृष... - V. iv. 145 देखें - अग्रान्तo Viv. 145 .. वृष... - VII. 1. 51 देखें - अश्वक्षीर० VII. 1. 51 वृषण्यति - VII. iv. 37 - (दुरस्यु, द्रविणस्य) वृषण्यति (रिषण्यति ये) शब्द क्यच्प्रत्ययान्त (वेदविषय में) निपातित (किये जाते हैं)। 492 वृषाकपि... - IV. 1. 37 देखें वृषाकप्यग्नि० IV. 1. 37 वृषाकप्यग्निकुसितकुसीदानाम् - IV. 1. 37 वृषाकपि, अग्नि, कुसित, कुसीद इन अनुपसर्जन प्रातिपदिकों को (स्त्रीलिङ्ग में उदात्त ऐकारादेश हो जाता है तथा डीप् प्रत्यय होता है)। - वृषादीनाम् वृषादि शब्दों के (भी आदि को उदात्त होता है)। .. वृषि... - VI. iii. 115 देखें नहिवृति०] VI. III. 115 वृषेषपचमनविदभूवीराः - III. iii. 96 - (मन्त्रविषय में) वृष, इष, पच, मन, विद, भू, ची तथा रा धातुओं से (स्त्रीलिङ्ग भाव में क्तिन् प्रत्यय होता है और वह उदात्त होता है)। वृष्णो - VI. 1. 197 .. वृषो: - III. 1. 120 देखें कृषोः III. 1. 120 - - ... वृष्णि... - IVI. 114 देखें ऋयन्धकवृष्णि IV. 1. 114 .. वृष्णिषु - VI. 1. 34 ... देखें — - अन्धकवृष्णिषु VI. 1. 34 - VI. i. 114 'वृष्णो' पद (यजुर्वेद में पठित होने पर अकार परे रहते प्रकृतिभाव से रहता है)। वृतः - VII. ii. 38 वृ तथा ऋकारान्त धातुओं से उत्तर (इट् को विकल्प से लिद्भिन्न क्लादि आर्धधातुक परे रहते दीर्घ होता है)। वे: - I. iii. 34 ( शब्द कर्म वाले) वि उपसर्ग से उत्तर (कृञ् धातु से आत्मनेपद होता है)। वे: - I. iii. 41 वि उपसर्ग से उत्तर (पादविहरण अर्थ में वर्तमान क्रम् धातु से आत्मनेपद होता है)। के - V. II. 28 वि उपसर्ग प्रातिपदिक से (स्वार्थ में शालच् तथा शङ्कटच् प्रत्यय होते हैं)। 1 वे: - VI. 1. 65 (अपृक्तसञ्ज्ञक) वि का (लोप होता है)। Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 493 वे: -VIII. iii.69 समर्थ प्रातिपदिक से) 'जानता है' अर्थ में (यथाविहित वि उपसर्ग से उत्तर (तथा चकार से अव उपसर्ग से अण् प्रत्यय होता है)। उत्तर भोजन अर्थ में स्वन् धातु के सकार को मूर्धन्य ...वेदि...-III. I. 138 आदेश होता है,अड्व्यवाय एवं अभ्यासव्यवाय में भी)। देखें-लिम्पविन्द III.. 138 वे:-VIII. iii. 73 वेदिः - V. iv.84 वि उपसर्ग से उत्तर (स्कन्दिर् धातु के सकार को निष्ठा । (द्विस्तावा तथा त्रिस्तावा शब्द का निपातन किया जाता परे न हो तो विकल्प से मर्धन्य आदेश होता है। है) यज्ञ की वेदि अभिधेय हो तो। के -VIII. iii.77 ...वेपाम् - VII. iii. 37 देखें-शाच्छासा० VII. iii.37 वि उपसर्ग से उत्तर (स्कन्भु धातु के सकार को नित्य ...वेपाम् - VIII. iv. 33 वाम ही मूर्धन्य आदेश होता है)। देखें-भाभूपू०VIII. iv. 33 वेजः -II. iv. 41 ...वेलासु-III. 1. 167 वेज के स्थान में (विकल्प से वयि आदेश होता है; लिट् देखें - कालसमयवेलासु III. iii. 167 आर्धधातुक परे रहते)। ...वेवी... -I..6 वेज - VI... 39 देखें-दीधीवेवीटाम् I. 1.6 ...वेव्योः वे धातु को (लिट् परे रहते सम्प्रसारण नहीं होता है)। - VII. iv. 53 देखें-दीधीवेव्योः VII. iv.53 वेणु... - VI.i. 149 वेशन्त.. - IV. iv. 112 देखें - वेणुपरिव्राजकयो: VI. 1. 149 देखें-वेशन्तहिमक्याम् IV. iv. 112 वेण... - VI..209 वेशन्तहिमवद्भ्याम् -IV. iv. 112 - देखें-वेण्विन्धानयोः VI.i. 209 (सप्तमीसमर्थ) वेशन्त और हिमवत् प्रातिपिदकों से वेणुपरिव्राजकयो: - VI. 1. 149 (वेदविषय में 'भव' अर्थ में अण प्रत्यय होता है)। . (मस्कर तथा मस्करिन् शब्द यथासङ्ख्य करके) बांस वेशस्... -Viv. 131 . तथा सन्यासी अभिधेय हों तो (निपातन किये जाते हैं)। देखें-वेशोयशादेः VI. iv. 131 वेण्विन्यानयोः - VI.1. 209 वेशोयशादे -IV. iv. 131 वेण तथा इन्धान शब्दों के (आदि को विकल्प से उदात्त वेशस और यशस आदि वाले (भग शब्दान्त) प्रातिपहोता है)। दिक से (मत्वर्थ में यल् प्रत्यय होता है; वेदविषय में)। वेतनादिभ्यः - IV. iv. 12 ...वेषात् - V.i.99 (तृतीयासमर्थ) वेतनादि प्रातिपदिकों से (जीता है' देखें-कर्मवेषात् V. 1.99 इस अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है)। वेष्टि.. -VII. iv.9 ...वेतसेभ्यः -IVii. 86 । । देखें-वेष्टिचेष्ट्योः VII. iv.96 देखें-कुमुदनडवेतसेभ्यः IV.ii. 86 वेष्टिचेष्ट्योः -VII. iv.96 क्तेः - VII.i.7 वेष्ट तथा चेष्ट अङ्ग के (अभ्यास को णि परे रहते . विट् अङ्ग से उत्तर (झ के स्थान में हुआ जो अत् आकारादेश होता है)। आदेश,उसको विकल्प से रुट का आगम होता है)। ...वेहद... -II.1.64 वेद-IV.ii. 58 देखें-पोटायुवतिस्तोक II.1.64 (द्वितीयासमर्थ प्रातिपदिक से 'अध्ययन करता है' अर्थ वै... - VIII.1.64 ' में यथाविहित अण प्रत्यय होता है, इसी प्रकार द्वितीया- देखें-वैवाव VIII.1.64 Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...वैकृत... 494 व्यक्तिक्चने ...वैकृत... - VI.i. 134 ...वो: - VII.i.1 देखें - प्रतियत्नवैकृत० VI. 1. 134 देखें-युवो: VII.i.1 वैयाकरणाख्यायाम् - VI. iii.7 ...वो: - VIII. ii. 65 जिस सज्जा से वैयाकरण ही व्यवहार करते हैं उसको देखें - म्यो: VIL 65 कहने में (पर शब्द तथा चकार से आत्मन् शब्द से उत्तर ...वो: -VIII. ii.76 चतुर्थी विभक्ति का अलुक होता है)। देखें-वो: VIII. 1.76 ...वैयाघ्रात् -IV.ii. 12 वौ-III. ii. 143 देखें-द्वैपवैयाघात् IV. ii. 12 वि पूर्वक (कष, लस, कत्थ, सम्भ् -इन धातुओं से वैयात्ये - VII. ii. 19 तच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमान काल में घिनुण प्रत्यय (जिधृषा प्रागल्भ्ये' तथा 'शसुओं हिंसायाम्' धातु से होता है)। निष्ठापरे रहते) अविनीतता गम्यमान होने पर (इट् आगम के नहीं होता)। विपूर्वक (क्षु तथा श्रु धातुओं से कर्तृभिन्न कास्क संज्ञा , ...वैर... -III. I. 17 तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है)। देखें- शब्दवैरकलहा0 III. I. 17 ...वैर... - III. ii. 23 वौ-III. iii. 33 देखें- शब्दश्लोक III. ii. 23 वि पूर्वक (स्तृञ् धातु से अशब्दविषयक विस्तार कहना वैर... - IV. iii. 124 हो तो कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में घञ् प्रत्यय देखें - वैरमैथुनिकयो: IV. iii. 124 होता है)। वैरमैथुनिकयो: - IV. iii. 124 ...वौ-VIII. ii. 108 (षष्ठीसमर्थ द्वन्द्वसंज्ञक प्रातिपदिक से 'इदम' अर्थ में) देखें- यो VIII. ii. 108 वैर, मैथुनिक अभिधेय हो (तो वन प्रत्यय होता है)। ...वौषट्... - VIII. ii.91 देखें- ब्रूहिप्रेष्य वैवाव-VIII.1.64 VIII. ii. 91 - वै तथा वाव से युक्त (प्रथम तिडन्त को भी विकल्प व्यः - VI.i. 42 . से वेदविषय में अनुदात्त नहीं होता)। 'व्येञ् धातु को (भी ल्यप् परे रहते सम्प्रसारण नहीं होता ...वैशम्पायनान्तेवासिभ्यः - IV. iii. 104 देखें - कलापिवैशम्पा० IV. iii. 104 व्यः - VI. I. 45 ...वैश्ययो: -III. . 103 (उपदेश में एजन्त) व्येञ् धातु को लिट् लकार के परे देखें -स्वामिवैश्ययोः III. I. 103 रहते आकारादेश नहीं होता है)। वैश्वदेवे - VI. ii. 39 व्यक्तवाचाम् -I. iii. 48 वैश्वदेव शब्द उत्तरपद रहते (पूर्वपदस्थित क्षुल्लक तथा स्पष्टवाणी वालों के (सहोच्चारण अर्थ में वर्तमान वद् महान् शब्द को प्रकृतिस्वर होता है)। धातु से आत्मनेपद हो जाता है)। क्षुल्लक = नीच व्यक्ति ... -I. 1.51 ...वो: -VI. iv. 19 देखें- व्यक्तिवचने I. ii. 51 देखें-च्छ्वो : VI. iv. 19 व्यक्तिवचने -I. ii. 51 ...वो: -VI. iv.77 (प्रत्यय के लुप हो जाने पर उस प्रत्यय के अर्थ में) देखें - वो: VI. iv.77 व्यक्ति = लिङ्ग तथा वचन = संख्या (प्रकृत्यर्थ में ...वो: - VI. iv. 107 समान हों)। देखें-म्वोः VI. iv. 107 Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ...व्याख्यान... ...व्यज...-III. HI. 119 देखें-गोचरसञ्चार III. iii. 119 ...व्यान... -II. iv. 12 देखें-वृक्षमगतृणधान्य II. iv. 12 व्यज्ञानम् - II. I. 33 (तृतीयान्त) व्यानवाची सुबन्त (अन्नवाची समर्थ सुबन्त के साथ विकल्प से तत्पुरुष समास को प्राप्त होता व्यशनैः-N.iv. 26 (तृतीयासमर्थ) व्यञ्जनवाची प्रातिपदिकों से (ऊपर से डाला हुआ' अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है)। व्यत् - IV.i. 144 (प्रात शब्द से अपत्य अर्थ में) व्यत् (तथा छ) प्रत्यय होता है। व्यत्ययः -III. 1.85 (वेदविषय में सभी विधियाँ) व्यतिगमन या व्यतिहार = परस्पर एक दूसरे के स्थान में (बहुल करके हो जाती ....व्ययतीनाम् - VII. ii. 66 . देखें - अत्यतिव्ययतीनाम् VII. II. 66 .व्ययेषु -I. 1. 36 देखें-सम्माननोत्सर्ग1. ii. 36 ...व्यवसर्गयो: -v.iv.2 देखें-दण्डव्यवसर्गयो: V. iv.2 व्यवस्थायाम् -I.1.33 (पूर्व, पर, अवर, दक्षिण, उत्तर, अपर, अधर शब्दों की . जस्-सम्बन्धी कार्य में विकल्प से सर्वनाम संज्ञा होती है, यदि संज्ञा से भिन्न) व्यवस्था हो तो। व्यवहरति - IV. iv.72 (सप्तमीसमर्थ कठिन शब्द अन्त वाले,प्रस्तार तथा संस् थान प्रातिपदिकों से) 'व्यवहार करता है' अर्थ में (ठक प्रत्यय होता है)। व्यवहिता -I. iv. 89 (वे गति और उपसर्ग-संज्ञक शब्द वेद में) व्यवधान से (भी) होते हैं। व्यवह.. -II. 1.57 देखें- व्यवहपणोः II. ii. 57 व्यवहपणो: -II. iii. 57 (समान अर्थ वाली) वि और अव उपसर्ग पूर्वक 'ह' धातु तथा 'पण' धातु के (कर्मकारक में षष्ठी विभक्ति होती है)। व्यर्थ -VII. iv.68 व्यथ् अङ्ग के (अभ्यास को लिट् परे रहते सम्प्रसारण होता है)। व्यथ.. -III. iii. 61 - देखें-व्यवजयोः III. 1.61 व्यकापोः -III. iii.61 (उपसर्गरहित) व्यध् तथा जप् धातुओं से (कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में अप् प्रत्यय होता है)। ...व्यथा.. -III. 1. 141 देखें-श्याव्य III. 1. 141 ...व्यधि..-VI. I. 16 देखें - अहिज्या० VI.i. 16. ...व्यधि... -VI. iii. 115 देखें - नहिवृतिः VI. iii. 115 व्यन् - IV.i. 145 (प्रातृ शब्द से सपल अर्थात् शत्रु वाच्य हो तो) व्यन् प्रत्यय होता है। ...व्यापाय...-III. 1. 146 देखें-निन्दर्हिस III. 1. 146 व्यवायिनः - VI. ii. 166 व्यवधायकवाची शब्द से उत्तर (उत्तरपद अन्तर शब्द को बहुव्रीहि समास में अन्तोदात्त होता है)। ...व्या... -VII. 1.37 देखें-शाच्छासा० VII. iii. 37 व्याख्यातव्यनाम्नः-IV. iii. 66 (षष्ठीसमर्थ) व्याख्यान किये जाने योग्य जो प्रातिपदिक, उनसे (व्याख्यान अभिषेय होने पर यथाविहित प्रत्यय होता है तथा सप्तमीसमर्थ व्याख्यातव्यनामवाची शब्दों से 'भव' अर्थ में भी यथाविहित प्रत्यय होता है)। ...व्याख्यान... -VI.ii. 151 देखें- मन्वितन VI. ii. 151 Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्याने 496 व्याख्याने -IV.ii.66 व्युष्टादिभ्यः -V.i. 96 (षष्ठीसमर्थ व्याख्यान किये जाने योग्य जो प्रातिपदिक (सप्तमीसमर्थ) व्युष्टादि प्रातिपदिकों से (दिया जाता है' हैं,उनसे) व्याख्यान अभिधेय होने पर (यथाविहित प्रत्यय और 'कार्य' अर्थों में अण् प्रत्यय होता है)। होता है तथा सप्तमीसमर्थ व्याख्यातव्यनामवाची शब्दों ..व्यद्धि:.-II.1.7 से भवार्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है)। देखें-विभक्तिस्मीपसमृद्धिo II.i.7 व्याघ्रादिभिः -II.1.55 ...व्येबाम् - VI.i. 19 (साधारणधर्मवाची शब्द के प्रयोग न होने पर उपमेय- देखें - स्वपिस्यमि० VI.i. 19 वाची सुबन्त का समानाधिकरण) व्याघ्र आदि (सुबन्त) व्योः - VI.1.64 शब्दों के साथ (विकल्प से समास होता है और वह ___ वकार और यकार का (वल् परे रहते लोप हो जाता तत्पुरुष समास होता है)। व्याङ्परिभ्यः - 1. ii. 83 व्योः - VIII. iii. 18 वि,आएवं परि उपसर्ग से उत्तर (रम् धातु से परस्मैपद होता है)। (भो, भगो,तथा अवर्ण पूर्ववाले पदान्त के) वकार तथा . . यकार को (लघु प्रयलतर आदेश होता है अश् परे रहते, व्याप्नोति-v.ii.7 शोकटायन आचार्य के मत में)। (सर्व शब्द आदि में है जिनके,ऐसे द्वितीयासमर्थ पथिन्, अङ्ग, कर्म,पत्र तथा पात्र प्रातिपदिकों से) 'व्याप्त होता व्रज... - III. iii. 94 देखें-वजयजोः III. iii. 94 है' अर्थ में (ख प्रत्यय होता है)। ...व्रज... - III. iii. 119 व्याप्यमान...-III. iv.56 देखें - गोचरसञ्चर III. iii. 119 देखें-व्याप्यमानासेव्यमा० III. iv.56 ....वज... - VII. ii.3 व्याश्रये-V.iv. 48 देखें-क्दव्रज VII. ii.3 'भिन्न भिन्न पक्षों का आश्रयण' गम्यमान हो तो (षष्ठीविभक्त्यन्त प्रातिपदिक से विकल्प से तसि प्रत्यय होता व्रजयजो: -III. iii. 98 व्रज तथा यज् धातुओं से (स्त्रीलिङ्ग भाव में क्यप् प्रत्यय व्याहरति-IV. iii. 51 होता है और वह उदात्त होता है)। (सप्तमीसमर्थ कालवाची प्रातिपदिकों से 'मृग) शब्द ...व्रज्योः - VII. iii. 60 करता है' अर्थ में (यथाविहित प्रत्यय होता है)। देखें - अजिव्रज्यो: VII. iii. 60 व्याहतार्थायाम् -V.iv. 35 ...व्रत-III. I. 21 "प्रकाशित वाणी' अर्थ में (वर्तमान वाच् प्रातिपदिक से देखें - मुण्डमिश्र III.i. 21 स्वार्थ में ठक् प्रत्यय होता है)। . व्रते-III. ii. 40 ...व्युत्क्रमण.. - VIII. it 15 व्रत गम्यमान होने पर (वाक कर्म उपपद रहते यम् धातु देखें- रहस्यमर्यादा० VIII. I. 15 से खच प्रत्यय होता है)। व्युपधात् -I.ii. 26 व्रते -III. ii. 80 (रलन्त एवं हलादि) धातुओं से परे (सेट् सन् और सेट व्रत = शास्त्र से नियम गम्यमान हो तो (सुबन्त उपपद क्त्वा प्रत्यय विकल्प से कित् नहीं होते हैं)। रहते धातु से णिनि प्रत्यय होता है)। व्युपयोः -III. 11.39 व्रते-IV. 1. 14 वि तथा उप पूर्वक (शी धातु से पर्याय गम्यमान होने (सप्तमीसमर्थ स्थण्डिल प्रातिपदिक से सोनेवाला पर कर्तभिन्न कारक संज्ञाविषय तथा भाव में घञ् प्रत्यय अभिधेय हो तो) व्रत गम्यमान होने पर (यथाविहित प्रत्यय होता है)। होता है)। Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वश्व... 497 व्रश्च...-VIII. ii. 36 देखें-वश्वप्रस्ज.VIII. 1.36 वश्वप्रस्जसजमजयजराजप्राजच्छशाम् - VIII. ii. 36 ओवश्चू, प्रस्ज, सृज, मजूष, यज, राजू, टुभ्राज-इन धातुओं को तथा छकारान्त एवं शकारान्त धातुओं को (भी झल् परे रहते एवं पदान्त में षकारादेश होता है)। ...तश्च्यो : - VII. ii. 55 देखें-जनश्च्यो : VII. ii. 55 वात... -v.ii. 113 देखें-वातच्को : V. iii. 113 वातच्यो : - V. iii. 113 व्रात = शस्त्रोपजीवी लोगों का संघ, तद्वाची प्रातिप- दिकों तथा फञ्-प्रत्ययान्तो से (स्वार्थ में ज्य प्रत्यय होता है,स्त्रीलिङ्ग को छोड़कर)। वातेन -V. 1. 21 तृतीयासमर्थ वात प्रातिपदिक से (जीता है' अर्थ में खञ् प्रत्यय होता है। व्रीहि... -HI. I. 148 देखें-व्रीहिकालयोः III. 1. 148 व्रीहि...-v.ii.2 देखें-व्रीहिशाल्यो: V. ii. 2 व्रीहि...-VI. ii. 38 देखें-बीहपराहण. VI. ii. 38 व्रीहिशाल्यो: - V.ii. 2 (षष्ठीसमर्थ धान्यविशेषवाची) व्रीहि तथा शालि प्रातिपदिकों से (उत्पत्तिस्थान' अभिधेय हो तो ठक् प्रत्यय होता है, यदि वह उत्पत्तिस्थान क्षेत्र हो तो)। व्रीहे: - IV. iii. 145 (षष्ठीसमर्थ) व्रीहि प्रातिपदिक से (पुरोडाशरूप विकार अभिधेय होने पर मयट प्रत्यय होता है)। व्रीहापराहणगृष्टीष्वासजाबालभारभारतहैलिहिलरौरवप्रवधु-VI. II. 38 व्रीहि, अपराण, गष्टि, इष्वास, जाबाल, भार, भारत, हेलिहिल, रौरव, प्रवृद्ध शब्दों के उत्तरपद रहते (पूर्वपद महान् शब्द को प्रकृतिस्वर होता है)। ब्रह्मादिभ्यः - V.ii. 116 ब्रीह्यादि प्रातिपदिकों से (भी 'मत्वर्थ' में इनि तथा ठन् . प्रत्यय होते है, विकल्प से)। ...क्ली... - VII. ii. 36 देखें - अर्तिहीक्ली० VII. iii. 36 ...श... -Iiii.8 देखें- लशकु I. ill.8 श-III. ii. 100 (कृञ् धातु से स्त्रीलिङ्ग में कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में)श प्रत्यय होता है (तथा चकार से क्यप भी होता श् - प्रत्याहारसूत्र x भगवान् पाणिनि द्वारा अपने दशम प्रत्याहारसूत्र में इत्सद्धार्थ पठित वर्ण। श-VI. iv. 19 देखें-शूठ VI. iv. 19 श्... - VIII. iv. 39 देखें - श्चुना VIII. iv. 39 श्... - VIII. iv. 39 देखें - श्चु: VIII. iv. 39 श-प्रत्याहारसूत्र XIII आचार्य पाणिनि द्वारा अपने तेरहवें प्रत्याहारसूत्र में पठित प्रथम वर्ण। ... पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्णमाला का चालीसवां वर्ण। ...श.. - IV. ii.79 देखें-दुग्छण्कठO IV. 1.79 श.. -V.ii. 100 देखें-शनेलच V. 1. 100 श... -VIII. iv.28 देखें - शयग्लिच VIII. iv. 28 श -III. 1.77 (तुदादि धातुओं से कर्तृवाची सार्वधातुक परे रहने पर) श प्रत्यय होता है। Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 498 शतमान... .. श:-III. I. 137 शकुनौ - VI. 1. 145 (पा,घा, ध्मा, धेट् और दृश् धातुओं से) श प्रत्यय होता (विष्किर-इस में ककार से पूर्व सुट् विकल्प से निपा तन किया जाता है) पक्षी को कहा जा रहा हो तो। श: -VIII. iv. 62 ...शकृतोः - III. ii. 24 (झय प्रत्याहार से उत्तर) शकार के स्थान में (अट् परे देखें-स्तम्बशकृतो: III. ii. 24 रहते विकल्प से छकार आदेश होता है)। शक्ति ... - IV. iv.59 देखें-शक्तियष्ट्योः IV. iv. 59 ...शक... -VII. iv.54 देखें-मीमाधु० VII. iv. 54 शक्तियष्ट्योः - IV. iv. 59 . शकटात् -IV. iv.80 (प्रथमासमर्थ प्रहरणसमानाधिकरणवाची) शक्ति तथा (द्वितीयासमर्थ) शकट प्रातिपदिक से (ढोता है' अर्थ में यष्टि प्रातिपदिकों से (षष्ठ्यर्थ में ईकक् प्रत्यय होता है)। अण् प्रत्यय होता है)। ...शक्तिषु - III. ii. 129 देखें-ताच्छील्यवयोवचन III. ii. 129 शकन् - VI.i. 61 . (वेदविषय में शकृत् शब्द के स्थान में) शकन् आदेश शक्तौ -III. ii. 54 हो जाता है, (शस् प्रकार वाले प्रत्ययों के परे रहते)। शक्ति गम्यमान होने पर (हस्ति और कपाट कर्म उपपद रहते 'हन्' धातु से टक प्रत्यय होता है)। शकलम् - VIII. ii. 59 शक्याथे - VI. 1.78 (भित्तम् शब्द में भिदिर् धातु से उत्तर क्त के नत्व का अभाव निपातन है, यदि भित्तम् से) टुकड़ा कहा जा रहा (क्षय्य और जय्य शब्द निपातन किये जाते है). शक्य हो तो। = सकने योग्य अर्थ में। शकलात् - IV. iii. 127 शक्याथे-VII. iii. 68 (षष्ठीसमर्थ गोत्रप्रत्ययान्त यजन्त) शकल शब्द से (प्रयोज्य तथा नियोज्य ण्यत् प्रत्ययान्त शब्द) शक्य = (विकल्प से अण् प्रत्यय होता है, पक्ष में वुज होता है)। सकने योग्य अर्थ में (निपातन किये जाते हैं)। । शकि... -III.199 ...शकटचौ - V. ii. 28 देखें-शकिसहोः I. 199 देखें-शालच्छड्कटचौ v.ii. 28 शकि-III. iii. 172 ...शकु... - VIII. iii.97 . शक्यार्थ गम्यमान हो तो धातु से लिङ्ग प्रत्यय होता है। देखें - अम्बाम्ब० VIII. iii. 97 तथा चकार से कृत्यसंज्ञक प्रत्यय भी होते है)। शण्डिकादिभ्यः - IV. iii. 92 शकि-III. iv. 12 (प्रथमासमर्थ) शण्डिकादि प्रातिपदिकों से (इसका अभिजन' अर्थ में ज्य प्रत्यय होता है)। शक्नोति धातु उपपद हो तो वेदविषय में धातु से णमुल तथा कमुल् प्रत्यय होते हैं)। शत... - V. ii. 119 शकिसहो: - III. 1. 99 देखें-शतसहस्त्रान्तात् V.ii. 119 शक्ल तथा षह मर्षणार्थक धात से (भी यत प्रत्यय होता ...शतभिषजः -IV. iii. 37 देखें-वत्सशालाभिजिo Viii.37 ...शकुनि... -II. iv. 12 ...शतम् -v.i. 58 देखें-वृक्षमृगतृणधान्य II. iv. 12 देखें-पंक्तिविंशतिov.i. 58 ...शकुनिषु -VI.i. 137 . शतमान... -V.i.27 देखें-चतुष्पाच्छकुनिषु VI.i. 137 देखें- शतमानविंशतिकov.i.27 Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतमानविंशतिकसहस्रवसनात् 499 शप... शतमानविंशतिकसहस्रवसनात् - V.. 27 शतमान, विंशतिक, सहस्र तथा वसन प्रातिपदिक से (तदर्हति'-पर्यन्त कथित अर्थों में अण प्रत्यय होता है)। शतसहस्रान्तात् - V.ii. 119 शतशब्द अन्तवाले तथा सहस्र शब्द अन्त वाले (निष्क प्रातिपदिक से भी 'मत्वर्थ' में ठक प्रत्यय होता है)। ...शतस्य-V.iv.1 देखें-पादशतस्य V. iv. 1 शतात् -V.1.21 शत प्रातिपदिक से (तदर्हति'-पर्यन्त कथित अर्थों में ठन और यत् प्रत्यय होते हैं,यदि सौ अभिधेय न हो तो)। ...शतात् - V.i. 34 देखें-पणपादमाष० V.i.34 शतादि... - V. ii. 57 देखें-शतादिमासov.ii. 57. शतादिमासार्द्धमाससंवत्सरात् -v.ii. 57 (षष्ठीसमर्थ) शतादि प्रातिपदिकों से तथा मास, अर्द्ध- मास और संवत्सर प्रातिपदिकों से (पूरण' अर्थ में विहित डट् प्रत्यय को तमट का आगम नित्य ही हो जाता है)। शतुः -VI. 1. 167 (नमरहित अन्तोदात्त) शतप्रत्ययान्त शब्द से परे (नदीसञ्जक प्रत्यय तथा अजादि सर्वनामस्थानभिन्न विभक्ति को उदात्त होता है)। शतुः - VII. . 37 . (विद ज्ञाने' धात से उत्तर शत के स्थान में (वस आदेश होता है)। . शतुः - VII. 1.78 . (अभ्यस्त अङ्ग से उत्तर) शतृ को (नुम् आगम नहीं होता है)। शत... - III. ii. 124 देखें- शतृशानचौ III. ii. 124 शत-III. ii. 130 .. (इङ् तथा ण्यन्त धृङ् धातु से वर्तमान काल में) शत प्रत्यय होता है,(यदि जिसके लिये क्रिया कष्टसाध्य न हो, • ऐसा कर्ता वाच्य हो तो)। शतृशानचौ-III. 1. 124 (धातु से लट् के स्थान में) शतृ तथा शानच आदेश होते हैं, (यदि अप्रथमान्त के साथ उस लट् का सामानाधिकरण्य हो)। ...शद... - III. ii. 159 देखें-दाघेट III. ii. 159 ...शद... -VII. iii. 78" देखें- पानामा० VII. iii. 78 शदन्त... -Vii.46 देखें-शदन्तविंशत: v. ii. 46 शदन्तविंशते: - V.ii. 46 (अधिक समानाधिकरणवाची) शत शब्द अन्त में है जिसके, ऐसे तथा विंशति प्रातिपदिक से (भी सप्तम्यर्थ । में ड प्रत्यय होता है)। ...शदन्ताया-v.i. 22 देखें- अतिशदन्तायाः V.1.22 शः -I. iii. 60 शित सम्बन्धी) 'शदल शातने' धातु से (आत्मनेपद होता है। शदेः - VII. iii. 42 (अगति अर्थ में वर्तमान) शदल शातने' अङ्गको (तकारादेश होता है,णि परे रहते)। ...शध्यै... -III. iv.9 देखें - सेसेनसे III. iv.9 ...शध्यन्... -II. iv.9 देखें - सेसेनसे० .III. iv.9 शनेलचः -V.ii. 100 (लोमादि,पामादि तथा पिच्छादि-इन तीन गणपठित प्रातिपदिकों से यथासंख्य करके विकल्प से) श,न तथा इलच् प्रत्यय होते हैं, मत्वर्थ' में। शप् -III. I. 68 (धातु से) शप् प्रत्यय होता है.(कर्तृवाची सार्वधातक परे रहते)। शप... - VII. 1.81 देखें-शश्यनो: VII.i. 81 Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 500 ...शमि... शब्दश्लोककलाहगाथावरचाटुसूत्रमन्त्रपदेषु - II. II. . 23 शब्द,श्लोक,कलह, गाथा,वैर,चाटु,सूत्र, मन्त्र,पदइन (कर्मो) के उपपद रहते (कृञ् धातु से ट प्रत्यय नहीं होता)। शब्दसज्ञायाम् -VIII. 11.86 (अभि तथा निस् से स्तन धातु के सकार को) शब्द की सञ्ज्ञा गम्यमान हो तो (विकल्प से मूर्धन्य आदेश हो जाता है)। शप-II. 1.72 शप् का (लुक होता है, अदादियों से परे)। ...शपाम् -I. iv. 34 देखें-श्लाघहाइस्थाशपाम् I. iv.34 शपि-VI. iv.25 (दंश, सञ्ज, वजाइन अङ्गों की उपधा नकार का लोप होता है) शप प्रत्यय परे रहते। शश्यनोः - VII.1.81 शप और श्यन का (जो शत प्रत्यय उसको नित्य ही नुम् आगम होता है)। ...शफ... -V.1.70 देखें -संहितशफलक्षण IV. 1.70 शब्द... - III.1.17 देखें- शब्दवैरकलहाo III.1.17 शब्द..-III. 1. 23 देखें - शब्दश्लोक III. II. 23 शब्द.. - IV. iv. 34 देखें - शब्ददर्दुरम् IV. iv. 34 ...शब्दकर्म... - I. iv. 52 देखें- गतिविनत्यवसानार्थI. .52 शब्दकर्मणः -I. 1. 34 शब्दकर्मवाले (वि उपसर्ग) से उत्तर (कन धात से आत्मनेपद होता है)। शब्ददर्दुरम् - IV. iv. 34 द्वितीयासमर्थ) शब्द और दर्दुर प्रातिपदिकों से (करता है- अर्थ में ठक प्रत्यय होता हैं)। दर्दुर = मेंढक, बादल, वाद्य, पहाड़। ...शब्दप्रादुर्भाव... - II.1.7 देखें-विभक्तिसमीपसमृद्धि II.1.1 शब्दवैरकलहाकण्वमेवेभ्यः - III. 1. 17 शब्द, वैर, कलह, अभ्र,कण्व,मेष - इन (कर्म) शब्दों से (करण अर्थ में क्यङ्प्रत्यय होता है)। अभ्र = बादल, आकाश, अबरक,शून्य। कण्व = एक ऋषि। (व्याकरण शास्त्र में) शब्द के (अपने रूप का ग्रहण होता. है.उसके अर्थ अथवा पर्यायवाची शब्दों का नहीं,शब्द- . संज्ञा को छोड़कर)। शब्दानुशासनम् - (यहां से) लौकिक तथा वैदिक शब्दों का अनुशासन ... = उपदेश आरम्भ करते हैं। शब्दार्थप्रकृतौ - VI. ii. 80 शब्दार्थवाली प्रकृति है जिन (णिनन्त) शब्दों की,उनके उत्तरपद रहते (ही उपमानवाची पूर्वपद को आधुदात्त होता डा . ...शब्दार्थात् -III. I. 148 देखें-चलनशब्दार्थात् III. I. 148 ...शब्देषु-VI. 11.55 देखें-घोषमिश्र०VI.III.55 . ...शम्... -IV.iv. 143 देखें-शिवशमरिष्टस्य IV. iv. 143 शमाम् - VII. iil.74 शम् इत्यादि (आठ) अङ्गों को (श्यन् परे रहते दीर्घ होता है)। शमि-III. ii. 14 शम् उपपद रहते (धातुमात्र से संज्ञा-विषय में अच प्रत्यय होता है)। ....शमि.. - VII. Iii. 95 देखें-तुरुस्तु. VII. II. 95 ....शमि... - VIII. iii. 96 देखें-विकुशमि० VIII. 11.96 . " ... Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शमिता 501 शरि . शमिता - VI. iv. 54 ...शर... -VI. iii. 15 (यज्ञकर्म में) इडादि तच परे रहते 'शमिता' पद निपातन देखें-वर्षक्षरशरवरात् VI. iii. 15 किया जाता है। ...शर... - VIII. iv.5 शमिति -III. ii. 141 देखें-प्रनिरन्त: VIII. iv.5 शमादि (आठ) धातुओं से (तच्छीलादि कर्ता हों तो शर: - VIII. iv. 48 वर्तमानकाल में घिनुण प्रत्यय होता है)। . (अच् परे रहते) शर् प्रत्याहार को (द्वित्व नहीं होता)। ...शमी... - V. iii. 88 ...शरत्... - VI. iii. 14 देखें-कुटीशमीov.iii. 88 देखें - प्रावृट्शरत VI. iii. 14 ...शमीवत्... - V. iii. 118 शरत्प्रभृतिभ्यः -V. iv. 107 देखें- अभिजिद V. iii. 118 (अव्ययीभाव समास में वर्तमान) शरदादि प्रातिपदिकों ...शम्ब... - V. iv. 58 से (समासान्त टच् प्रत्यय होता है)। देखें -द्वितीयतृतीय० V. iv. 58 शरदः - IV. iii. 12 शम्या : - IV. iii. 39 (कालवाची) शरत् शब्द से (श्राद्ध अभिधेय हो, तो (षष्ठीसमर्थ) शमी प्रातिपदिक से (विकार और अवयव शैषिक ठञ् प्रत्यय होता है)। अर्थों में ट्लञ् प्रत्यय होता है)। शरदः - IV. iii. 27. शमी = एक वृक्ष, फली, सेम। (सप्तमीसमर्थ) शरद् प्रातिपदिक से (जात अर्थ में संज्ञाशय... - IV. iii. 17 विषय होने पर वुञ् प्रत्यय होता है)। देखें-शयवासवासिषु VI. iii. 17 शरद्वच्छनकदर्भात् – IV.i. 102 शयग्लिक्षु - VII. iv. 28 शरद्वत्, शुनक और दर्भ- इन प्रातिपिदकों से (ऋकारान्त अङ्ग को) श, यक तथा (यकारादि सार्वधा (यथासङ्ख्य करके भृगु, वत्स.आग्रायणगोत्रस्थ वाच्य हो तुकभिन्न) लिङ् परे रहते (रिङ् आदेश होता है)। तो फक् प्रत्यय होता है)। ....शयन... - VI.ii. 151 शुनक = भृगुवंशीय ऋषि, कुत्ता। देखें - मन्वितन्० VI. ii. 151 शयवासवासिषु - VI. iii. 17 शरदत्... -IV.i. 102 देखें-शरद्वच्छनक० ... 102 शय,वास तथा वासिन् शब्दों के उत्तरपद रहते (काल ...शरादिभ्यः - IV. iii. 141 वाचियों से भिन्न शब्दों से उत्तर सप्तमी का विकल्प से देखें-वृद्धशरादिभ्य: IV. iii. 141 अलुक् होता है)। शरादीनाम् -VI. iii. 119 शयित: - IV. iv. 108 शरादि शब्दों को (भी सञ्जाविषय में मतुप परे रहते (सप्तमीसमर्थ समानोदर प्रातिपदिक से) 'शयन किया। दीर्घ होता है)। हुआ' अर्थ में (यत् प्रत्यय होता है तथा समानोदर शब्द के ओकार को उदात्त होता है)। ...शरावेषु - VI. ii. 29. शयितरि - IV. ii. 14 देखें- इगन्तकाल. VI. ii. 29 (सप्तमीसमर्थ स्थण्डिल प्रातिपदिक से) सोने वाला शरि -VIIL iii. 28 अभिधेय हो (तो व्रत गम्यमान होने पर यथाविहित प्रत्यय (पदान्त उकार तथा णकार को यथासङ्ख्य करके होता है)। विकल्प से कुक तथा टुक् आगम होते हैं। शर प्रत्याहार स्थण्डिल = भूखण्ड,बंजर भूमि,सीमा। परे रहते)। Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 502 शसददवादिगुणानाम् शरि - VIII. il. 36 (विसर्जनीय को विकल्प से विसर्जनीय आदेश होता है)शर परे रहते। ...शरीर... -III. iii. 41 देखें-निवासचिति III. iii. 41 शरीरसुखम् -III. lil. 116 (जिस कर्म के संस्पर्श से कर्ता को) शरीर का सुख उत्पन्न हो, (ऐसे कर्म के उपपद रहते भी धातु से ल्युट् प्रत्यय होता है)। .. शरीरावयवात् - IV. ill. 55 (सप्तमीसमर्थ) शरीर के अवयववाची प्रातिपदिकों से (भी 'भव' अर्थ में यत् प्रत्यय होता है)। शरीरावयवात् -V.1.6 (चतुर्थीसमर्थ) शरीर के अवयववाची प्रातिपदिकों से (हित अर्थ में यत् प्रत्यय होता है)। ' शर्करादिश्य -V.III. 107 शर्करादि प्रातिपदिकों से (अण् प्रत्यय होता है, इवार्थ शलः -III.1.45 शलन्त (जो इगुपध और अनिट् धातु उस) से (च्लि के स्थान पर क्स आदेश होता है, लुङ् परे रहते)। .. ...शलाका... -II.1. 10 देखें-अक्षशलाकासंख्याः II.i. 10 ....शलातुर... - IV. ili. 94 देखें - तूदीशलातुर IV. ii. 94 शलालुनः - IV.iv.54 (प्रथमासमर्थ) शलालु प्रातिपदिक से (इसका बेचना' विषय में विकल्प से ष्ठन् प्रत्यय होता है)। ...शश्वत: -III. I. 116 देखें - हशश्वत: III. ii. 116 शवसर्-प्रत्याहार सूत्र XIII श.प.स वर्णों को पढ़कर भगवान् पाणिनि ने रेफ इत् किया है प्रत्याहार बनाने के लिये। इससे ५ प्रत्याहार बनते हैं-खर,चर, झर, यर और शर्। ...शस् - IV.1.2 देखें - स्वौजसमौट IV.1.2 शस् - V. iv. 42 (बहुत तथा थोड़ा अर्थ वाले कारकाभिधायी प्रातिपदिकों से विकल्प से) शस् प्रत्यय होता है। ...शस... -III. II. 182 देखें-दाम्नी III. II. 182 . शस... - VI. iv. 126 देखें-शसददOVI. iv. 126 शस: -VI.1.99 (प्रथमयोः पूर्वसवर्णः सूत्र से किये हुये पूर्वसवर्णदीर्घ से उत्तर) शस् के अवयव सकार को (नकार आदेश होता है, पुंल्लिङ्ग में)। शसः -VII. I. 21 (युष्मद, अस्मद् अङ्ग से उत्तर) शस् के स्थान में (नकारादेश होता है)। शसददवादिगुणानाम् -VI. iv. 126 शस, दद, वकार आदिवाले एवं गुण-ऐसा उच्चारण करके गुणादेश स्वरूप जो (अकार),उसके स्थान में (एत्त्व तथा अभ्यासलोप नहीं होता; कित, ङित् लिट् एवं पल परे रहते)। ...शर्कराभ्याम् - V.II. 104 देखें-सिकताशर्कराभ्याम् V. 1. 104 शर्कराया -N.I.2 शर्करा शब्द से (उत्पन्न चातुरर्थिक प्रत्यय का विकल्प से लुप होता है)। शपरे - VIII. II. 35 शरपरक (खर के परे रहते विसर्जनीय को विसर्जनीय आदेश होता है)। शपूर्वा: - VII. iv. 61 शर प्रत्याहार का कोई वर्ण पूर्व में है जिस (खय प्रत्या- हार) के, ऐसे (अभ्यास का खय् शेष रहता है)। ...शर्व... -1.1.48 देखें-इन्द्रवरुण V.1.48 ...शयवाये- VIII. II. 58 देखें- नुम्विसर्जनीय VIII. II. 58 Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शसि 503 ...शाणयोः शसि -VI.1. 161 शाकटायनस्य-VIII. ili. 18 (चतुर् शब्द को अन्तोदात्त होता है) शस् के परे रहते। (भो,भगो, अघो तथा अवर्ण पर्ववाले पदान्त के वकार, ...शसी -VII. ii. 19 यकार को लघु प्रयलतर आदेश होता है शाकटायन आचार्य के मत में। देखें-षिशसी VII. I. 19 ...शसो: - VI.i.90 शाकटायनस्य-VIII. iv. 49 देखें-अम्शसो: VI.i.90 (तीन मिले हुये संयुक्त वर्णों को) शाकटायन आचार्य ...शसो: -VI. iv.82 के मत में (द्वित्व नहीं होता)। देखें- अम्शसो: VI. iv. 82 ...शाकम् - VI. ii. 128 ...शसोः -VII. 1. 20 देखें-पललसूप० VI. ii. 128 देखें-जश्शसो: VII. I. 20 शाकल्यस्य-I.1.16 शसभृतिषु-VI. 1. 61 शाकल्याचार्य के अनुसार (अवैदिक 'इति' शब्द के परे (वेदविषय में पाद, दन्त, नासिका, मास, हृदय, निशा, 'सम्बद्धि' संज्ञा के निमित्तभूत ओकार की प्रगृह्य संज्ञा असूज,यूष,दोष, यकृत,शकृत,उदक,आस्य-इन शब्दों होती है)। के स्थान में यथासंख्य करके पद्, दत्, नस, मास, हृत, शाकल्यस्य-VI.1. 123 निश, असन, यूषन, दोषन्, यकन, शकन्, उदन, आसन् -ये आदेश हो जाते हैं) शस् प्रकार वाले प्रत्ययों के परे (असवर्ण अच् परे रहते इक् को) शाकल्य आचार्य के रहते)। मत में (प्रकृतिभाव हो जाता है तथा उस इक के स्थान में हस्व हो जाता है)। ...शंभ्याम् -V. 1. 138 देखें-कंशंभ्याम् V. ii. 138 शाकल्यस्य-VIII. III. 19 .....शंस... -VI.1.208 (अवर्ण पूर्ववाले पदान्त यकार, वकार का) शाकल्य . देखें -ईडवन्द० VI. I. 208 आचार्य के मत में (लोप होता है)। शंस्तु-VII. II.34 शाकल्यस्य - VIII. iv.50 शंस्तु शब्द (वेदविषय में) इडभावयुक्त निपातित है। शाकल्य आचार्य के मत में (सर्वत्र अर्थात् त्रिप्रभृति ...शा... - II. iv. 78 अथवा अत्रिप्रभृति सर्वत्र द्वित्व नहीं होता)। - देखें-घ्राधेट्शाच्छासः II. iv. 78 शाखादिभ्यः - V. 1. 103 शा-VI. iv. 35 शाखादि प्रातिपदिकों से (इवार्थ में यत् प्रत्यय होता - (शास् अङ्ग के स्थान में हि परे रहते) शा आदेश होता है)। । शाच्छासासाव्यावेपाम् -VII. I. 37 शा... - VII. lil. 37 शो, छो, षो, हेज, व्येज, वेब,पाइन अङ्गों को (णि देखें-शाच्छासाOVII. 11.37 परे रहते युक् आगम होता है)। शा... -VII. iv.41 शाच्छो: - VII. iv. 41 देखें-शाच्छो : VII. iv. 41 शो तथा छो अङ्गको विकल्प करके इकारादेश होता शाकटायनस्य-III. iv. 111 है,तकारादि कित् प्रत्यय परे रहते)। (आकारान्त धातुओं से उत्तर लङ् के स्थान में जो झि आदेश, उसको जुस् आदेश होता है) शाकटायन के मत ___...शाणयोः - VII. III. 17 देखें- असंज्ञाशाणयोः VII. II. 17 ' में (ही)। Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाणाद् 504 शाश्वतिक: शाणाद् - V.1.35 (अध्यर्द्ध पूर्व वाले तथा द्विगसज्जक) शाण शब्दान्त प्रातिपदिक से (तदर्हति'-पर्यन्त कथित अर्थों में विकल्प से यत् प्रत्यय होता है)। शात् - VIII. iv. 43 शकार से उत्तर (तवर्ग को श्चुत्व नहीं होता)। ...शादात् - IV. ii. 87 देखें-नडशादात् IV. 1.87 शान -III. 1.83 (हलन्त से उत्तर श्ना के स्थान में 'हि' परे रहते) शानच आदेश होता है। ...शानचौ-III. 1. 124 देखें- शतृशानचौ III. ii. 124 शानन् - III. il. 128 (पूङ तथा यज् धातुओं से वर्तमानकाल में) शानन् प्रत्यय होता है। ...शान्त... - VII. il. 27 देखें-दान्तशान्त० VII. 1.27 ...शान्य -III.1.6 देखें-मान्बधदान्शान्यः III. 1.6 ...शाम् - VIII. il. 36 देखें-प्रश्वप्रम VIII. II. 36 ...शाम्यति -VIII. Iv.17 देखें-गदनदOVIII. iv. 17 शायच् - III.1.84 (श्ना के स्थान में, वेदविषय में) शायच् आदेश होता है (तथा शानच् भी होता है)। शारदे -VI. 1.9 (अनार्तववाची) शारद शब्द उत्तरपद परे रहते (तत्पुरुष समास में पूर्वपद को प्रकृतिस्वर हो जाता है)। अनार्तव = असामयिक। ...शारिका... - VIII. iv. 4 देखें-पुरगामिश्रकाO VIII. iv.4 ...शारिकुक्ष... -V.iv. 120 देखें-सुप्रातसुश्व० V. iv. 120 शार्गरवादि... -IV.1.73 देखें-शारवाचकIV.i.73 शारिवाधरः-IV.1.73 (अनुपसर्जन जातिवाची) शार्ङ्गरवादि तथा अजन्त प्रातिपदिकों से (स्त्रीलिङ्ग में डीन् प्रत्यय होता है)। शालच्... -V.ii. 28 देखें-शालच्छड्कटचौ v.ii. 28 शालच्छड्कटचौ - V.ii. 28 - (वि उपसर्ग प्रातिपदिक से) शालच तथा शङ्कटच् प्रत्यय होते हैं। ...शालम् - VI. ii. 102 देखें-कुसूलकूप० VI. ii. 102 ..शाला.. - II. iv. 25 देखें - सेनासुराल II. iv. 25 ...शाला... -VI. ii. 120 देखें - कूलतीर० VI. ii. 120 शालायाम् - VI. ii. 86 शाला शब्द उत्तरपद रहते (छात्रि आदि शब्दों को आधु- ।। दात्त होता है)। शालायाम् - VI. ii. 123 (नपुंसकलिङ्ग वाले) शालाशब्दान्त (तत्पुरुष समास) में (उत्तरपद को आधुदात्त होता है)। ...शालावत्... - V. 1. 118 . देखें - अभिजिद्ov. ii. 118. शालीन...-v.ii. 20 देखें-शालीनकौपीने V.ii. 20 शालीनकौपीने - V. ii. 20 शालीन तथा कौपीन शब्द (यथासङ्ख्य करके अधृष्ट' तथा 'अकार्य' वाच्य हों तो) निपातन किये जाते हैं। ....शालीनीकरणयोः -I. iii. 70 देखें-सम्माननशालीनीकरणयोः I. iii.70 ...शाल्योः - V.ii.2 देखें-व्रीहिशाल्यो: V.ii.2. शाश्वतिकः - II. iv. 8 स्वाभाविक (विरोध है जिनका,तद्वाची सुबन्तों का द्वन्द्व . एकवद् होता है)। Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासः 505 शिल्पिनि शास-VI. iv.34 शास् अङ्ग की (उपधा को इकारादेश हो जाता है; अङ् तथा हलादि कित, ङित् प्रत्यय परे रहते)। शासि... - VIII. iii. 60 देखें-शासिवसिघसीनाम् VIII. iii. 60 शासिवसिघसीनाम् - VIII. Ill. 60 (इण तथा कवर्ग से उत्तर) शासु,वस् तथा घस् के (सकार को भी मूर्धन्य आदेश होता है)। ...शासु... -III. 1. 109 देखें-एतिस्तु III. 1. 109 ....शासु... - VII. iv.2 देखें-अग्लोपिशास्वृदिताम् VII. iv.2 ...शास्ति... - III.i. 36 । देखें-सर्तिशास्त्य III.i.36 शास्त- VII. 1. 34 शास्तु शब्द (वेदविषय में) इडभावयुक्त निपातित है। शि-I.i.41 - जस् और शस के स्थान में 'जश्शसोः शिः से विहित शि आदेश (की सर्वनाम स्थान संज्ञा होती है)। शि-VIII. iill. 31 (पदान्त नकार को) शकार परे रहते (विकल्प से तक आगम होता है)। शि:-VII. 1. 20 (नपुंसकलिङ्ग वाले अङ्ग से उत्तर जश् और शस् के स्थान में) शि आदेश होता है। ...शिखात् -v.ii. 113 देखें-दन्तशिखात् V. 1. 113 शिखाया -IV. ii. 88 शिखा शब्द से (चातुरर्थिक वलच् प्रत्यय होता है)। ...शिखावत् -v.iii. 118 देखें-अभिजिद्ov.iii. 118 ....शित् -1.1.54 देखें - अनेकाल्सित् I. 1.54 ...शित् -III.iv. 113 देखें-तिशित् III. iv. 113 शितः -I. ii. 60 शित् सम्बन्धी (शल शातने' धातु) से (आत्मनेपद होता है)। शिति -VII. iii. 753 (ष्ठिवु, क्लमु तथा चमु अङ्गों को) शित् प्रत्यय परे रहते (दीर्घ होता है)। शितः - VI.ii. 138 शिति शब्द से उत्तर (नित्य ही जो अबतच उत्तरपद, उसको बहुव्रीहि समास में प्रकृतिस्वर होता है, भसत् शब्द को छोड़कर)। ...शिरसी-VIII. iii. 47 देखें-अधशिरसी VIII. iii. 47 शिलायाः -V. iii, 102 शिला शब्द से (इवार्थ में ढ प्रत्यय होता है)। ...शिलालिभ्याम् - IV. 1. 110 देखें-पाराशर्यशिलालिभ्याम् IV. iii. 110 शिल्पम् - IV.iv.55 (प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से 'इसका) शिल्प' अर्थ में (ढक् प्रत्यय होता है)। शिल्पिनि-III. 1. 145 शिल्पी कर्जा अभिधेय होने पर (धातु से 'धुन' प्रत्यय होता है)। शिल्पिनि - III. 1.55 शिल्पी कर्ता अभिधेय होने पर (पाणिष और ताडप शब्द का निपातन किया जाता है)। शिल्पिनि -VI. ii. 62 शिल्पिवाची शब्द उत्तरपद रहते (पाम पूर्वपद को विकल्प से प्रकृतिस्वर होता है)। शिल्पिनि-VI. ii. 68 शिल्पिवाची शब्द उत्तरपद रहते (पाप शब्द को भी विकल्प से आधुदात्त होता है)। शिल्पिनि - VI. 1.76 शिल्पिवाची समास में (भी अणन्त उत्तरपद रहते पूर्वपद को आधुदात्त होता है. यदि वह अण् कृञ् से परे न हो तो)। Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिव... 506 शिव.. - IV. iv. 143 देखें-शिवशमरिष्टस्य IV. iv. 143 शिवशमरिष्टस्य -IV. iv. 143 . (षष्ठीसमर्थ) शिव, शम् और अरिष्ट प्रातिपदिकों से (करनेवाला' अर्थ में स्वार्थ में तातिल् प्रत्यय होता है)। शिवादिभ्यः -V.I. 112 शिवादि प्रातिपदिकों से (तस्यापत्यम्' अर्थ में अण् प्रत्यय होता है)। ...शिशिरी-II. iv. 28 देखें-हेमन्तशिशिरौ II. iv. 28 शिशुक्रन्द... -IV. iii. 88 देखें-शिशुक्रन्दयमसम० IV. iii. 88 शिशुक्रन्दयमसभद्वन्द्वेन्द्रजननादिभ्यः - IV. iii. 88 शिशुक्रन्द, यमसभ, द्वन्द्ववाची तथा इन्द्रजननादिगणप- ठित शब्दों से (अधिकृत्य कृते ग्रन्थे' अर्थ में छ प्रत्यय होता है)। ...शिंशपा.. -VII. iii.1 देखें-देविकाशिंशपO VII. iii.1 शी-VII. 1. 13 (अकारान्त सर्वनाम अङ्ग से उत्तर जस के स्थान में) स उत्तर जस् क स्थान म) शी आदेश होता है। शी... - VII.1.79 देखें-शीनद्यो: VII.1.79 शीइ.. -I. ii. 19 देखें-शीविदिमिदिदिवदिषः I. ii. 19 ...शी... -I.iv.46 देखें - अधिशीस्थासाम् I. iv. 46 ...शी.. -III. iii. 99 . देखें-समजनिषद III. 1.99 ...शीइ... - III. iv. 72 देखें- गत्यर्थाकर्मक III. iv. 72 शीड.... - VII. 1.6 शीङ् अङ्ग से उत्तर (झकार के स्थान में हुआ जो अत् आदेश, उसको रुट का आगम होता है)। शीड... - VII. iv. 21 शीविदिमिदिक्ष्विदिपः -1. ii. 19. शीङ्,जिष्विदा, जिमिदा, जिक्ष्विदा, जिधृषा. - इन धातुओं से परे (सेट निष्ठा प्रत्यय कित् नहीं होता है)। शीत... -v.ii.72 देखें-शीतोष्णाभ्याम् V. ii.72 शीतोष्णाभ्याम् - V.ii. 72 (द्वितीयासमर्थ) शीत तथा उष्ण प्रातिपदिकों से (करने वाला' अभिधेय हो तो कन् प्रत्यय होता है)। शीनद्योः - VII. 1. 80 (अवर्णान्त अङ्ग से उत्तर) शी तथा नदी परे रहते (शतृ प्रत्यय को विकल्प से नुम् आगम होता है)। . ' ...शीय... - VII. iii. 78 देखें-पिबजिघ्र VII. iii. 78. . . शीर्ष शीर्ष... -V.1.64 -visa . देखें - शीर्षच्छेदात् V. 1.64 शीर्षच्छेदात् - V.i.64 (द्वितीयासमर्थ) शीर्षच्छेद प्रातिपदिक से 'नित्य ही समर्थ है' अर्थ में यत् प्रत्यय भी होता है, यथाविहित ठक भी)। शीर्षन-VI.i.59 . वेदविषय में) शीर्षन शब्द का निपातन किया जाता ..शीर्षयोः -III. 1. 48 . देखें - कुमारशीर्षयोः III. ii. 48 . ...शील... -v.ii. 132 देखें-धर्मशीलov.ii. 132 शीलम् - IV.iv.61 (प्रथमासमर्थ) शील (समानाधिकरणवाची) प्रातिपदिक से (षष्ठ्यर्थ में ठक् प्रत्यय होता है)। शुक्राद् - IV. 1. 25 प्रथमासमर्थ शुक्र शब्द से (षष्ठ्यर्थ में घन् प्रत्यय होता है, सास्य देवता' अर्थ में)। ....शुग... - IV.i. 117 देखें-विकर्णशुग V.i. 117 ..शुच... - III. ii. 150 को (सार्वधातुक परे रहते गुण होता है)। देखें-जुचक्रम्य III. ii. 150 Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुचि... 507 शूलोखात् शुचि... - VII. iii. 30 देखें - शुचीश्वर० VII. iii. 30 ...शुचिषु - VI. ii. 161 देखें-तृन्नन्न VI. ii. 161 शुचीश्वरक्षेत्रज्ञकुशलनिपुणानाम् - VII. iii. 30 (नञ् से उत्तर) शुचि,ईश्वर,क्षेत्रज,कुशल,निपुण-इन शब्दों के (अचों में आदि अच् को वृद्धि होती है, तथा पूर्वपद को विकल्प से होती है; जित, णित, कित् तद्धित परे रहते)। ...शुण्डाभ्यः -V.ili.88 देखें-कुटीशमीo v. iii. 88 शुण्डिकादिभ्यः - VI. iii. 76 (पञ्चमीसमर्थ) शुण्डिकादि प्रातिपदिकों से (आया हुआ' अर्थ में अण् प्रत्यय होता है)। ...शुद्ध... -.iv. 145 . देखें- अग्रान्तo v. iv. 145 शुन: - V.iv.96 • (अति शब्द से उत्तर) श्वन शब्दान्त (तत्पुरुष) से (समा सान्त टच् प्रत्यय होता है)। ...शुनक... - IV.i. 102 देखें-शरद्वच्छुनकo Iv.i. 102 ...शुनासीर... -IV.ii.31 देखें-द्यावापृथिवीशुनासीर IV.ii. 31 ...शुभमों: - V. ii. 140 देखें - अहंशुभमो: V. ii. 140 ...शुभ्र... - V.iv. 145 देखें - अग्रान्तo V. iv. 145 शुभ्रादिभ्यः - IV.i. 123 शुभ्रादि प्रातिपदिकों से (भी अपत्य अर्थ में ढक प्रत्यय होता है)। शुल्क... -v.i. 46 देखें - वृद्ध्यायलाभO V.i. 46 शुषः - VIII. ii. 51 'शष शोषणे' धातु से उत्तर (निष्ठा के तकार को ककारादेश होता है)। शषि... -III. iv.44 देखें - शुषिपूरोः III. iv. 44 शुषिपूरोः -- III. iv. 44 (कर्तवाची ऊर्ध्व शब्द उपपद हो तो) शषि शोषणे (तथा पूरी आप्यायने) धातु से (णमुल प्रत्यय होता है)। ....शुष्क... -II.1.40 देखें-सिद्धशुष्कपक्वबन्धैः II. 1.40 शुष्क... - III. iv. 35 देखें- शुष्कचूर्णरूक्षेषु III. iv. 35 शुष्क... - VI.i. 200 देखें - शुष्कघृष्टौ VI. 1. 200 ....शुष्क... - VI. ii. 32 देखें-सिद्धशुष्क० VI. ii. 32 शुष्कचूर्णरूक्षेषु - III. iv. 35 शुष्क, चूर्ण तथा रूक्ष कर्म उपपद रहते (पिष् धातु से णमुल् प्रत्यय होता है)। शुष्कघृष्टौ - VI.i. 100 शुष्क तथा धृष्ट शब्दों को (आधुदात्त होता है)। शूट – VI. iv. 19 (च्छ और व् के स्थान में यथासङ्ख्य करके) श और ऊ आदेश होते हैं,(अनुनासिकादि प्रत्यय परे रहते तथा क्वि एवं झलादि कित,डित प्रत्ययों के परे रहते)। शूद्राणाम् -II. iv. 10 (अबहिष्कृत) शूद्रवाचकों का (द्वन्द्व एकवद् होता है)। .. शूर्प... - VI. ii. 123 देखें-कंसमन्थ. VI. ii. 123 शूर्पात् - V.i. 26 शर्प प्रातिपदिक से (तदर्हति-पर्यन्त कथित अर्थों में विकल्प से अञ् प्रत्यय होता है)। शूल... - IV.ii. 17 देखें-शूलोखात् IV. ii. 17 शूलात् - V.iv.65 (पकाना' विषय हो तो) शल प्रातिपदिक से (कब के योग में डाच् प्रत्यय होता है)। शूलोखात् - IV. ii. 16 (सप्तमीसमर्थ) शूल तथा उख प्रातिपदिकों से (संस्कृतं भक्षाः' अर्थ में यत् प्रत्यय होता है)। Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 508 शूल = नोकदार हथियार शिव का त्रिशूल। उख = पतीली, देगची। १-III.1.74 आदेश होता है,(श्रु धातु के स्थान में और श्नु प्रत्यय भी, कर्तृवाची सार्वधातुक परे रहने पर)। श... - III. ii. 173 देखें - शृवन्योः III. . 173 श...-VII. iv. 12 देखें-शदनाम् VII. iv. 12 शङ्खलम् - V.ii. 79 प्रथमासमर्थ शङखल प्रातिपदिक से (षष्ठ्य र्थ में कन् प्रत्यय होता है. यदि वह प्रथमासमर्थ बन्धन बन रहा हो, तथा जो षष्ठी से निर्दिष्ट हो वह करभ = ऊंट का छोटा बच्चा हो ता)। शृङ्गम् -VI. ii. 115 (अवस्था गम्यमान होने पर तथा सज्ञा और उपमा विषय में बहुव्रीहि समास में उत्तरपद श्रृङ्गशब्द को (आधुदात्त होता है)। ...शृङ्गात् - IV.i.55 देखें - नासिकोदरौष्ठ IV. 1.55 ...शृङ्गिण... -v.ii. 114 देखें-ज्योत्स्नातमित्राov.ii. 114 ...शृणु... - VI. iv. 102 देखें-श्रुशृणु० VI. iv. 102 ...शृणोति... - VII. iv.81 देखें - सुवतिशृणोति० VII. iv. 81 शृतम् -VI.i. 27 (पाक अभिधेय होने पर) शृतम् शब्द का निपातन किया निपातन किया जाता है। शृदृप्राम् - VII. iv. 12 . श, द तथा पृ अङ्गों को (लिट् परे रहते विकल्प से हस्व होता है)। ...शृभ्यः - III. ii. 154 देखें- लषपत III. ii. 154 शे-I.i. 13 (सुपां सुलुक 06-1-39 से सुपों के स्थान में विहित) शे आदेश (की प्रगृह्य सज्ञा होती है)। शे-VI. iii. 54 (ऋचा-सम्बन्धी पाद शब्द को) श परे रहते (पद आदेश होता है)। ....शे... - VII. I. 39 देखें - सुलुक० VII. I. 39. . शे-VII. 1.59 श प्रत्यय परे रहते (मुचादि धातुओं को नुम् आगम होता है)। शे: -VI.i.68 शि का (बहुल करके वेदविषय में लोप होता है)। ...शेक...-VIII. iii.97 आस न होते. -III. I. 15 शीङ् धातु से (अधिकरण सुबन्त उपपद रहते अच् प्रत्यय होता है)। शेते: - III. iii. 39 (वि तथा उप पूर्वक) शीङ् धातु से (पर्याय गम्यमान होने पर कर्तभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में घन प्रत्यय होता है)। शेवल... - V. 1.4 देखें - शेवलसुपरि० V. ii. 84 शेवलसुपरिविशालवरुणार्यमादीनाम् - V. ii. 84 (मनुष्यनामवाची) शेवल, सुपरि, विशाल, वरुण तथा अर्यमा शब्द आदि में है जिनके, ऐसे शब्दों के (तीसरे अच् के बाद की प्रकृति का लोप हो जाता है, तथा अजादि प्रत्ययों के परे रहते)। शेषः -I. iv. 71 (नदीसज्ञा से) अवशिष्ट (हस्व इकारान्त,उकारान्त शब्द घिसंज्ञक होते हैं, सखि शब्द को छोड़कर)। शेषः - II. ii. 23 उपर्युक्त से अन्य शेष है;शेष की (बहव्रीहि संज्ञा होती है; यह अधिकार है)। शेषः - III. iv. 114 ति, शित् से शेष बचे, (धातु से विहित जो प्रत्यय. उनकी आर्धधातुक संज्ञा होती है)। Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 509 शौनकादिया. शेष: - VII. iv.60 (अभ्यास का आदि हल) शेष रहता है। शेवस्य - VI. iii. 43 (नदीसज्जक) पूर्वसूत्र से शेष शब्दों को (विकल्प करके ह्रस्व होता है;घ,रूप,कल्प, चेलट, बुव, गोत्र,मत तथा हत शब्दों के परे रहते)। शेषात् -1. iii.78 जिन धातओं से जिस विशेषण द्वारा आत्मनेपद का विधान किया; उनसे) अवशिष्ट धातुओं से (कर्तृवाच्य में परस्मैपद होता है)। शेषात् - V. iv. 154 जिस बहुव्रीहि से समासान्त प्रत्यय का विधान नहीं किया है; वह शेष,उससे विकल्प करके समासान्त कप् प्रत्यय होता है)। शेष-I. iv. 107 (मध्यम, उत्तम पुरुष जिन विषयों में कहे गये हैं,उनसे) अन्य विषय में (प्रथम पुरुष होता है)। शेवे-II. iii. 50. शेष = स्वस्वामिभावादि सम्बन्धों में (षष्ठी विभक्ति होती है)। कर्मादियों से तथा प्रातिपदिकार्थ से भिन्न स्वस्वामिभावादि सम्बन्ध शेष है। शेषे - III. iii. 13 (धात से) क्रियार्थ क्रिया उपपद रहने पर या न होने पर (भी भविष्यकालार्थक लट प्रत्यय होता है)। . शेषे -III. iii. 151 (यदि का प्रयोग न हो और) यच्च, यत्र से भिन्न शब्द उपपद हो (तो चित्रीकरण गम्यमान होने पर धातु से लृट् प्रत्यय होता है)। शेषे-IV.ii.91 (तस्यापत्यम' से चातुरर्थिक-पर्यन्त जो अर्थ कहे जा चुके हैं) उनसे शेष अर्थ में (उनमें आगे के कहे हुए प्रत्यय हुआ करेंगे)। शेषे -VII. ii. 90 शेष विभक्ति के परे रहने पर (युष्मद, अस्मद् अङ्ग का लोप होता है)। शेवे - VIII. 1.41 (आहो शब्द से युक्त तिङन्त को पूजा-विषय से) शेष विषयों में (विकल्प करके अनुदात्त नहीं होता)। शेषे - VIII. 1. 50 (अविद्यमानपर्व आहो उताहो शब्दों से युक्त तिङन्त को) अनन्तर से शेष विषय में विकल्प करके अनुदात्त नहीं होता)। शेपे-VIII. iv. 18 (उपसर्ग में स्थित निमित्त से उत्तर.जो उपदेश में ककार तथा खकार आदि वाला नहीं हैं एवं षकारान्त भी नहीं है,ऐसे) शेष धातु के परे रहते (नि के नकार को विकल्प से णकारादेश होता है)। शोक... - VI. iii. 50 देखें - शोकष्यजोगेषु VI. iii. 50 . शोकयोः - III. ii.5 . देखें - तुन्दशोकयोः III. ii. 5 शोकष्यब्रोगेषु- VI. iii. 50 शोक, ष्यञ् तथा रोग के परे रहते (हृदय शब्द को हत् आदेश विकल्प करके होता है)। शोणात् - IV.i. 43. (अनुपसर्जन) शोण प्रातिपदिक से (प्राचीन आचार्यों के मत में स्त्रीलिङ्ग में ङीष प्रत्यय होता है)। शौ-VI. iv. 12 (इन्प्रत्ययान्त,हन, पूषन, अर्यमन्-इन अङ्गों की उपधा को) शि विभक्ति के परे रहते (ही दीर्घ होता है)। ...शौचिवृक्ष.. - IV.i. 81 देखें - दैवयज्ञिशौचिवृक्षि० IV.i. 81 शौण्डैः - II.i. 39 (सप्तम्यन्त सुबन्त) शौण्ड इत्यादि (समर्थ सुबन्तों) के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होता है और वह तत्पुरुष होता है)। शौनकादिभ्यः - IV. iii. 106 (तृतीयासमर्थ) शौनकादि प्रातिपदिकों से (प्रोक्तविषय में छन्द अभिधेय होने पर णिनि प्रत्यय होता है)। Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 510 श्याव... श्चुः - VIII. iv. 39 (शकार और चवर्ग के योग में सकार एवं तवर्ग के स्थान में) शकार तथा चवर्ग आदेश होते हैं। श्चुना-VIII. iv. 39 शकार और चवर्ग के योग में (सकार और तवर्ग के स्थान में शकार और चवर्ग होते है)। शन... -VI. iv. 111 देखें-श्नसोः VI. iv. 111 श्न -III. 1.83 श्ना के स्थान में (हलन्त से उत्तर शानच आदेश होता है', 'हि' परे रहते)। नम् - II. 1.87 (रुषादि धातुओं से) श्नम् प्रत्यय होता है, (कर्तृवाची सार्वधातुक परे रहने पर)। नसो: - VI. iv. 111 श्नम् प्रत्यय तथा अस् धातु के (अकार का लोप होता है; कित, ङित् सार्वधातुक परे रहते)। स्ना-III. 1. 81 (क्री आदि धातुओं से कर्तवाची सार्वघातक परे रहने पर) श्ना प्रत्यय होता है। ना... -VI. iv. 112 देखें-श्नाभ्यस्तयोः VI. iv. 112 स्नात् - VI. iv. 23 श्न से उत्तर (नकार का लोप हो जाता है)। श्माभ्यस्तयोः -VI. iv. 112 . श्ना तथा अभ्यस्तसज्जक के (आकार का लोप होता है; कित,डित् सार्वधातुक परे रहते)। मु... -VI. iv.77 देखें-सुधातुभुवाम् VI. iv.77 श्नः -III. 1.73 (स्वादिगण की धातुओं से कर्तृवाची सार्वधातुक परे रहते) श्नु प्रत्यय होता है। नुः -III. I. 82. (स्तम्भु, स्तुम्भु, स्कम्भु, स्कुम्भु और स्कुञ् धातुओं से कर्तवाची सार्वधातुक परे रहने पर) श्नु प्रत्यय होता है (तथा स्ना प्रत्यय भी होता है। श्वधातुश्रुवाम् -VI. iv.77 श्नु प्रत्ययान्त अङ्ग तथा (इवर्णान्त,उवर्णान्त) धातु एवं धू शब्द को (इयङ्,उवङ् आदेश होते हैं;अच परे रहते)। ....श्नुवो: - VI. iv. 87 देखें-हुश्नुवो: VI. iv. 87. श्य: -VI.i. 124 (तरल पदार्थ के काठिन्य तथा स्पर्श अर्थ में वर्तमान) श्यैङ् धातु को (सम्प्रसारण हो जाता है, निष्ठा के परे रहते)। श्यः - VII. ii. 47 श्यैङ धातु से उत्तर (निष्ठा के तकार को नकारादेश होता है, स्पर्श अर्थ को छोड़कर)। श्यन् - I. 1. 69 (दिवादिगण की धातुओं से) श्यन् प्रत्यय होता है,(कर्तृवाची सार्वधातुक परे रहते)। श्यन् - III. 1. 90 (कुष और रख धातुओं से कर्मवद्भाव होने पर) श्यन् प्रत्यय (तथा परस्मैपद भी) होता है, (प्राचीन आचार्यों के मत में)। श्यनि -VII. iii. 71 (ओकारान्त अङ्ग का) श्यन् परे रहते (लोप होता है)। श्यनि-VII. iii.74 (शम् इत्यादि आठ अङ्गों को) श्यन् परे रहते (दीर्घ होता है)। .....श्यनो: -VII.i.81 देखें-शपश्यनो: VII.i..81 श्या.. -III. 1. 141 देखें - श्याद्व्यय III. 1. 141 श्याव्यधास्तुसंस्वतीणवसावहलिहश्लिषश्वसः - III. i. 141 श्यैङ्, आत् = आकारान्त, व्यध, आङ् और संपूर्वक और सु, अतिपूर्वक इण, अवपूर्वक षो, अवपूर्वक हु, लिह, श्लिषु,श्वस्-इन धातुओं से (भी ण प्रत्यय होता है)। श्याव... - V. iv. 144 देखें-श्याचारोकाभ्याम् V. iv. 144 Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्यावारोकाभ्याम् .00 श्यावारोकाभ्याम् - V. iv. 144 श्रवण... -IV. .5 श्याव तथा अरोक शब्दों से उत्तर (दन्त शब्द को . देखें-श्रवणाश्वत्थाभ्याम् IV. 1.5 विकल्प से दतृ आदेश होता है, बहुव्रीहि समास में)। ...श्रवण... - IV. 1. 23 श्याव = कपिश, गहरे भूरे रंग का। देखें-फाल्गुनीश्रवणाo IV.ii. 23 अरोक = कान्तिहीन, मलिन,धुंधला। श्रवणाश्वत्थाभ्याम् -IV. 1.5 (ततीयासमर्थ नक्षत्रवाची) श्रवण तथा अश्वत्थ शब्दों श्येन.. - VI. ii. 70 देखें-श्येनतिलस्य VI. iii. 70 से (युक्तः कालः अर्थ में विहित प्रत्यय का संज्ञाविषय में सर्वत्र लुप् होता है)। श्येनतिलस्य-VI. iii.70 श्येन तथा तिल शब्द को (पात शब्द के उत्तरपद रहते अविष्ठा.. - IV. iii. 34 देखें - अविष्ठाफल्गुन्यनु० IV. iii. 34 तथा ज प्रत्यय के परे रहते मुम् आगम होता है)। श्रविष्ठाफल्गुन्यनुराधास्वातितिष्यपुनर्वसुहस्तविशाखाषा...श्यो: - VI. iv. 136 ढाबहुलात् - IV. iii. 34 देखें-डिश्यो : VI. iv. 136 श्रविष्ठा, फल्गुनी, अनुराधा,स्वाति,तिष्य,पुनर्वसु.हस्त, अ.. -VI.ii. 25 विशाखा, अषाढा तथा बहुल प्रातिपदिकों से (जातार्थ में देखें-अज्यावमO VI. ii. 25 उत्पन्न प्रत्यय का लुक् होता है)। -v. iii. 60 (प्रशस्य शब्द के स्थान में अजादि अर्थात् इष्ठन्,इयसुन् ...प्राणा... -IV.1.42 देखें-क्त्यमत्रावपना IV. 1. 42 प्रत्यय के परे रहते) श्र आदेश होता है। प्राणा.. - IV. iv.67 'अज्यावमकन्यापवत्सु-VI. ii. 25 देखें-श्राणामांसौदनात् IV. iv.67 श्र,ज्य, अवम,कन् तथा पापवान् शब्द के उत्तरपद रहते श्राणामांसौदनात् - IV. iv. 67 (कर्मधारय समास में भाववाची पूर्वपद को प्रकृतिस्वर प्रथमासमर्थ) श्राणा तथा मांसौदन प्रातिपदिकों से होता है)। (इसको नियत रूप से दिया जाता है' अर्थ में टिठन ...श्रद्धा... -V.ii. 101 प्रत्यय होता है)। देखें-प्रज्ञाश्रद्धाov.ii. 101 श्रातः -I.. 35 ..श्रद्धाभ्यः -III. ii. 158 (वेदविषय में) श्राताःशब्द का निपातन किया जाता है। देखें-स्पहिगृहिO III. ii. 158 ...अन्य -III. iii. 107 श्राद्धम् - V.i.85 देखें-ण्यासश्रन्यः III. iii. 107 (भुक्त क्रिया के समानाधिकरण वाले) प्रथमासमर्थ ब्रमणादिभिः - II.i. 69 श्राद्ध प्रातिपदिक से (इसके द्वारा' अर्थ में इनि और ठन प्रत्यय होते हैं)। (कुमार शब्द समानाधिकरण) श्रमण आदि (समर्थ सुबन्त) शब्दों के साथ (विकल्प से समास को प्राप्त होता श्राद्ध - IV. iii. 12 है और वह समास तत्पुरुषसंज्ञक होता है)। (कालवाची शरत् शब्द से) श्राद्ध अभिधेय हो तो अयति... -III. iii. 49 (शैषिक ठञ् प्रत्यय होता है)। देखें-अयतियौतिक III. iii. 49 ...श्रि.. - IIL.1.48 प्रयतियौतिपूद्रुक - III. il. 49 देखें-णिश्रिद्स्नुभ्यः III. I. 48 (उत् पूर्वक) श्रि, यु, पू तथा तु धातुओं से (कर्तृभिन्न नि.. - III. III. 24 कारक संज्ञा तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है)। देखें-त्रिणीभुक III. III. 24 Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रि... श्र... - VII. ii. 11 देखें - युक: VII. ii. 11 ...fa... VII. ii. 49 देखें- इवन्त०] VII. 1. 49 त्रिणी – III. iii. 24 (उपसर्गरहित) श्रि, णी तथा भू धातुओं से (कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है)। - श्रित... - II. 1. 23 देखें - श्रितातीतपतितगता० II. 1. 23 तिम् - VI. 1.35 (वेदविषय में) श्रितम् शब्द का निपातन किया जाता है । श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नैः (द्वितीयान्त सुबन्त) श्रित, अतीत, पतित, गत, अत्यस्त, प्राप्त, आपन्न – इन (समर्थ सुबन्तों) के साथ (विकल्प से समास को प्राप्त होता है और वह समास तत्पुरुषसंज्ञक होता है) । श्री ... - VII. 1. 56 देखें - श्रीग्रामण्यो : VII. 1. 56 श्रीग्रामण्यो - VII. 1. 56 - .. श्रु... - I. iii. 57 देखें - ज्ञाश्रुस्मृदृशाम् I. iii. 57 II. 1. 23 श्री तथा ग्रामणी अङ्ग के (आम् को वेदविषय में नुट् का आगम होता है)। श्रु... - VI. iv. 102 देखें मुख० VI. Iv. 102 .... श्रुतयोः - VI. ii. 148 देखें- दत्तलुतयो: VIII. 148 बुक - 1. iii. 59 - 512 (प्रति, आङ् पूर्वक सन्नन्त) श्रु धातु से (आत्मनेपद नहीं होता है)। शुक्र - I. iv. 40 (प्रति एवं आ उपसर्ग से उत्तर धातु के प्रयोग में पूर्व का जो कर्ता, वह कारक सम्मदानसंज्ञक होता है)। श्रुवः - III. 1. 74 श्रु धातु से उत्तर (श्नु प्रत्यय होता है और 'श्रु' को - आदेश भी कर्तृवाची सार्वधातुक परे रहते )। " ... श्रुवः – III. ii. 108 देखें ... श्रुवः देखें - - - सदवस० III. ii. 108 III. iii. 25 ... श्रुवः - VII. ii. 13 देखें - कसम० VII. ii. 13 III. iii. 25 ... श्रुमदण: - V. iii. 118 देखें- अभिजि० Viii. 118 श्रुणुपकवृभ्यः - VI. Iv. 102 श्रु, श्रृणु, पृ, कृ तथा वृ से उत्तर (वेदविषय में हि को धि. आदेश होता है)। jare:- 111. ii. 173 शु तथा वदि धातुओं से (तच्छीलादि कर्ता हों तो वर्त मान काल में आरु प्रत्यय होता है ) । श्रेण्यादयः - 11.1.58 श्रेणि आदि (सुबन्त) शब्द (कृत आदि समानाधिकरण सुबन्त शब्दों के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होते हैं और वह समास तत्पुरुषसंज्ञक होता है)। .. श्रेयसः - V. iv. 80 देखें - वसीय श्रेयस् V. Iv. 80 .....श्रेयसाम् VII. III. 1 देखें- देविकाशिंशपाo VII. III. 1 iii. - - .....श्रोत्रिय... - 11. 1. 64 देखें- पोटायुवतिस्तोक II. 1. 64 श्रोत्रिय - V. 84 (वेद को पढ़ता है' अर्थ में) श्रोत्रियन् शब्द का निपातन किया जाता है। VIII. ii. 91 ... औषड्डू... देखें बूहिप्रेष्य VIII. 1. 91 युकः - VII. ii. 11 त्रि तथा उगन्त धातुओं को (कित् प्रत्यय परे रहते इट् आगम नहीं होता) । Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...लक्षण... ... श्लक्ष्ण... - III. 1. 21 देखें - मुण्डमिश्रo III. 1. 21 ... श्लक्ष्णैः - II. 1. 30 देखें पूर्वसदृशसमो० 11. 1. 30 - श्लाघ... - I. iv. 34 देखें - श्लाघस्वाशपाम् 1. Iv. 34 श्लाघहुड्स्थाशपाम् - I. iv. 34 श्लाम, हुइ, स्था तथा शप् धातुओं के प्रयोग में जो जनाये जाने की इच्छा वाला है, उस कारक की सम्प्रदान संज्ञा होती है)। - श्लाघा... - V. 1. 133 देखें श्लाघात्याकारतदवेतेषु V. i. 133 = (षष्ठीसमर्थ गोत्रवाची तथा चरणवाची प्रातिपदिकों से) 'श्लाघा' = प्रशंसा करना, 'अत्याकार' अपमान करना तथा 'तदवेत' = उससे युक्त इन विषयों में (भाव और कर्म अर्थों में वुञ् प्रत्यय होता है) । श्लाघात्याकार० V. 1. 133 .....ल... - III. 1. 141 देखें श्याद्व्य० III. 1. 141 - -- 513 ... प्रलय... - III. Iv. 72 देखें लिए 111.1.46 श्लिष् धातु से उत्तर (चिल के स्थान में क्स आदेश होता है; आलिङ्गन अर्थ में लुङ् परे रहने पर) । - गत्यर्थाकर्मक० III. iv. 72 - ... श्लु... I. i. 70 देखें - लुक्श्लुलुपः I. 1. 70 :- II. iv. 75 श्लु आदेश होता है, (शप के स्थान में जुहोत्यादि धातुओं से उत्तर) । श्लुक्त् - III. 1. 39 (भी, ही . हु इन धातुओं से अमन्त्रविषयक लिट् परे रहते विकल्प से आम् प्रत्यय होता है तथा इनको ) श्वत् कार्य अर्थात् श्लु के परे होने पर जो कार्य होने चाहियें, वे भी हो जाते हैं। ....श्लोक... - III. 1. 25 देखें - सत्यापपाशo III. 1. 25 ... श्लोक... - III. 1. 23 देखें - शब्दश्लोक० III. II. 23 श्लौ - VI. 1. 10 श्लु के परे रहते (धातु के अनभ्यास अवयव प्रथम एका तथा अजादि के द्वितीय एकाच को द्वित्व होता है) । yet - VII. iv. 75 (निजिर् इत्यादि तीन धातुओं के अभ्यास को) श्लु होने पर. (गुण होता है)। श्व... - IV. 1. 95 देखें – श्वास्यलंकारेषु IV. II. 95 श्व... - VI. iv. 133 देखें- श्वयुवमघोनाम् VI. Iv. 133 श्वगणात् - IV. iv. 11 (तृतीयासमर्थ) श्वगण प्रातिपदिक से (ठञ् तथा ष्ठन् प्रत्यय होते हैं। ... श्वठ... - VI. 1. 210 देखें - त्यागरागo VI. 1. 210 श्वश्वा ... श्वन्... - VI. 1. 176 देखें गोश्वन् VI. 1. 176 - श्वयते: - VII. iv. 18 दुओश्वि अङ्ग को (अह परे रहते अकारादेश होता है)। श्वयुवमघोनाम् VI. I. 133 — भसक श्वन्, युवन् मघवन् अङ्ग को तद्धितभिन्न प्रत्यय परे रहते सम्प्रसारण होता है)। श्वशुरः - I. ii. 71 श्वशुर शब्द (श्वश्रू शब्द के साथ विकल्प से शेष रह जाता है, श्वश्रू शब्द हट जाता है)। ... श्वशुरात् - IV. 1. 137 देखें – राजश्वशुरात् IV. 1. 137 - श्वश्र्वा - I. 1. 71 श्व शब्द के साथ (श्वशुर शब्द विकल्प से शेष रह जाता है, श्वश्रू शब्द हट जाता है)। Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... श्वस III. i. 141 देखें - श्यादव्यय III. 1. 141 - ... श्वसः - IV. it. 104 देखें ऐषमोहा IV. 1. 104 श्वसः - IV. iil. 15 (कालविशेषवाची) श्वस् प्रातिपदिक से (विकल्प से उन् प्रत्यय होता है तथा उस प्रत्यय को तुट् का आगम भी होता है। - ..श्वस... VII. ii. 5 देखें हम्यन्तक्षण VII. II. 5 श्वसः - V. iv. 80 श्वस् शब्द से उत्तर (वसीयस् तथा श्रेयस्-शब्दान्त प्रातिपदिकों से समासान्त अच् प्रत्यय होता है)। - प् प्रत्याहारसूत्र IX भगवान पाणिनि द्वारा अपने नवम प्रत्याहारसूत्र में इत्स ज्ञार्थ पठित वर्ण । धू... - VIII. iv. 40 देखें टुना VIII. iv. 40 - घ्... - VIII. iv. 40 देखें टु VIII. Iv. 40 - घ - प्रत्याहारसूत्र XIII में आचार्य पाणिनि द्वारा अपने तेरहवें प्रत्याहार सूत्र पठित द्वितीय वर्ण । 514 पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्णमाला का इकतालीसवां वर्ण । ....... - VII. 1. 5 देखें - हम्यन्तक्षणo VII. ii. 5 शिव... - VII. ii. 14 देखें वीदि VII. 1. 14 ष ... श्विभ्यः - III. 1. 58 देखें – - श्वीदितः श्वेतवह... - III. 1. 71 श्वादे: - VII. iii. 8 देखें श्वेतवहोक्यशस् III. 1. 71 श्वन् आदि वाले अङ्ग को (इञ् प्रत्यय परे रहते जो श्वेतवहोक्वशस्पुरोडाशः 111. 1. 71कुछ कहा है, वह नहीं होता) । श्वास्यलङ्कारेषु - IV. II. 95 (कुल, कुक्षि तथा ग्रीवा शब्दों से यथासङ्ख्य करके) श्वन् असि तथा अलङ्कार अभिधेय होने पर (जातादि अर्थों में ढक प्रत्यय होता है)। अश्वि तथा ईकार इत्सञ्ज्ञक धातुओं को (निष्ठा परे रहते इट् आगम नहीं होता) । श्वे - VI. i. 130 (लिट् तथा यङ् के परे रहते) दुओश्वि धातु को (विकल्प से सम्प्रसारण हो जाता है)। - घ... स्तम्भु० III. 1. 58 VII.ii. 14 (वैदिक प्रयोगविषय में) श्वेतवह, उक्यशस्, पुरोडाश् शब्द विन्प्रत्ययान्त निपातन किये जाते हैं। श्वेतवा: - VIII. ii. 67 श्वेतवाः शब्द दीर्घ किया हुआ सम्बुद्धि में निपातित है। - देखें ... घ... - V. iv. 106 देखें चुदषहान्तात् V. Iv. 106 ष - Viv. 115 (द्वि तथा त्रि शब्दों से उत्तर जो मूर्धन् शब्द, तदन्त प्रातिपदिक से समासान्त) व प्रत्यय होता है, (बहुवीहि समास में) । - 1 VIII. ii. 41 — पढो VIII. 1. 41 प. - I. 1. 6 (उपदेश में प्रत्यय के आदि में वर्तमान) पकार (इत्संज्ञक होता है)। पः - VI. 1. 62 (धातु के आदि में) षकार के स्थान में (उपदेश अवस्था में सकार आदेश होता है)। Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क - VIII. 1. 36 (ओव्रश्चू, भ्रस्ज, सृज, मृजूष, यज, राजू, दुभाजु – इन धातुओं को तथा छकारान्त एवं शकारान्त धातुओं को भी झल परे रहते एवं पदान्त में) षकारादेश होता है। क - VIII. iii. 39 (इण् से उत्तर विसर्जनीय को) षकारादेश होता है; (अपदादि कवर्ग, पवर्ग से परे रहते)। षच् - V. Iv. 113 (स्वाङ्गवाची जो सक्थि तथा अक्षि शब्द, तदन्त से समासान्त षच् प्रत्यय होता है, (बहुव्रीहि समास में) 515 षट् - I. 1. 23 ( चकारान्त और नकारान्त संख्यावाची शब्दों की) घट् संज्ञा होती है)। षद् ... - IV. 1. 10 देखें - षट्स्वस्वादिभ्य IV. 1. 10 षट्... - V. 1. 51 देखें षट्कतिo V. II. 51 षट् - VI. 1. 6 (जक्ष् तथा जक्षादिक) छः धातुओं की (अभ्यस्त संज्ञा होती है। - षट् ... - VI. 1. 173 देखें - त्रिचतुर्भ्यः VI. 1. 173 R-VI. ii. 135 (अत्राणिवाची षष्ठ्यन्त शब्द से उत्तर) पूर्वोक्त छः काण्डादि उत्तरपद शब्दों को भी आद्युदास होता है)। षट् ... - VII. 1. 55 देखें - षट्चतुर्भ्यः VII. 1. 55 षट्कतिकतिपयचतुराम् VII. 51 (षष्ठीसमर्थ) षट्, कति, कतिपय तथा चतुर् प्रातिपदिकों से (पूरण' अर्थ में विहित डट् प्रत्यय के परे रहते थुक् आगम होता है)। षट्चतुर्भ्यः - VII. 1. 55 षट्सञ्ज्ञक तथा चतुर् शब्द से उत्तर (भी आम् को नुट् का आगम होता है)। षट्चतुर्घ्य VI. 1. 173 - षट्सञ्ज्ञक शब्दों से तथा त्रि, चतुर् शब्दों से उत्तर (हलादि विभक्ति उदात्त होती है)। षट्स्वस्त्रादिभ्यः - IV. 1. 10 षट्संज्ञक प्रातिपदिकों से तथा स्वस्नादि प्रातिपदिकों से (स्त्रीलिङ्ग में विहित प्रत्यय नहीं होता)। षड्भ्यः - VII. 1. 22 षट्सञ्ज्ञक से उत्तर (जश्, शस् का लुक् होता है)। पढो: - VIII. ii. 41 पूर्वहन्यृतज्ञाम् धकार तथा ढकार के स्थान में (क आदेश होता है, सकार परे रहते) । षणि - VIII. iii. 61 (अभ्यास के इण् से उत्तर स्तु तथा ण्यन्त धातुओं के आदेश सकार को ही) षत्वभूत सन् परे रहते (मूर्धन्य आदेश होता है)। षण्मासात् - V. 1. 82 षण्मास प्रातिपदिक से (अवस्था अभिधेय हो तो 'हो 'चुका' अर्थ में ण्यत् और यप् प्रत्यय होते हैं तथा औत्सर्गिक ठञ् प्रत्यय भी)। . VI. 1. 83 पत्व... देखें - कवतुको: VI. 1. 83 षत्वतुको: - VI. 1. 83 धत्व और तुक् विधि करने में (एकादेश असिद्ध होता है) । - पूर्व... - VI. Iv. 135 देखें पूर्वहन् VI. in. 135 पपूर्वस्य VI. Iv. 9 - (वेदविषय में नकारान्त अङ्ग के उपधाभूत) षकार है पूर्व में जिससे, ऐसे (अच् को सम्बुद्धिभिन्न सर्वनामस्थान के परे रहते विकल्प से दीर्घ होता है)। पूर्वह धृतराज्ञाम् - VI. iv. 135 " कार पूर्व में है जिसके ऐसा जो (अन्) तदन्त तथा हन् एवं धृतराजन् भसञ्छक अग के (अन् के अकार का लोप होता है, अण् परे रहते) । Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 516 पट्याः ...वष्टि... - VI. 58 षष्ठी -II. iii. 38 देखें-पंक्तिविशति० V.1.58 (जिसकी क्रिया से क्रियान्तर लक्षित हो, उसमें अनादर पष्टिका - V.1.89 गम्यमान होने पर) षष्ठी विभक्ति होती है (तथा चकार (ततीयासमर्थ षष्टिरात्र प्रातिपदिक से) षष्टिक शब्द का। से सप्तमी भी)। निपातन किया जाता है.(पकाया जाता है' अर्थ में)। षष्ठी-II. iii. 50 ...वष्टिकात् -v.ii.3 (कर्मादियों से और प्रातिपदिकार्थ से भिन्न स्वस्वामिदेखें - यवयवकov.ii.3 भाव-सम्बन्ध आदि की विवक्षा होने पर) षष्ठी विभक्ति पष्टिरात्रेण -V.i.89 होती है। ततीयासमर्थ षष्टिरात्र प्रातिपदिक से (पकाया जाता है। षष्ठी -VI. ii. 60 अर्थ में षष्टिक शब्द का निपातन किया जाता है)। षष्ठ्यन्त (पूर्वपद राजन् शब्द को प्रत्येनस शब्द उत्तरपद . षष्ट्यादेः-v.ii. 58 रहते विकल्प से प्रकृतिस्वर होता है)। (षष्ठीसमर्थ सङ्ख्या आदि में न हो जिनके ऐसे षष्ठी... - VIII. 1. 20 सङ्ख्यावाची) षष्टि आदि प्रातिपदिकों से (भी 'पूरण' देखें - षष्ठीचतुर्थी. VIII. I. 20 . अर्थ में विहित डट् प्रत्यय को नित्य ही तमट का आगम षष्ठीचतुर्थीद्वितीयास्थयो: - VIII. 1. 20 होता है)। (पद से उत्तर) षष्ठ्यन्त, चतुर्थ्यन्त तथा द्वितीयान्त (अपषष्ठ.. -V.ifi.50 दादि में वर्तमान युष्मद् तथा अस्मद् शब्दों के स्थान में देखें- षष्ठाष्टमाभ्याम् V. iii. 50 क्रमशः वाम् तथा नौ आदेश होते हैं एवं उन आदेशों को अनुदात्त भी होता है)। षष्ठाष्टमाभ्याम् - V. iii. 50 'भाग' अर्थ में वर्तमान) षष्ठ और अष्टम शब्दों से (ज षष्ठीयुक्तः - I. iv.9 तथा अन् प्रत्यय होते हैं; वेदविषय को छोड़कर)। षष्ठ्यन्त शब्द से युक्त (पति शब्द छन्द-विषय में षष्ठी-I. I. 48 विकल्प से घिसञ्जक होता है)। (इस शास्त्र में) षष्ठी विभक्ति.(यदि अन्य किसी से पठ्या -II.1.16 सम्बद्ध नहीं हो तो स्थान के साथ सम्बन्धवाली होती है)। षष्ठ्यन्त (सुबन्त) के साथ (पार और मध्य शब्द का षष्ठी -II. 1.8 (विकल्प से अव्ययीभाव समास होता है तथा समास के सन्नियोग से इन शब्दों को एकारान्तत्व भी निपातन से षष्ठ्यन्त सुबन्त (समर्थ के साथ समास को प्राप्त होता हो जाता है)। है और वह तत्पुरुष समास होता है)। षष्ठ्या : - V. iii. 54 षष्ठी -II. iii. 26 (भूतपूर्व' अर्थ में) षष्ठीविभक्त्यन्त प्रातिपदिक से (हेतु शब्द के प्रयोग और हेतु द्योत्य होने पर) षष्ठी (रूप्य और चरट् प्रत्यय होते हैं)। विभक्ति होती है । षष्ठ्या : - V. iv. 48 षष्ठी -II. ii. 30 (भिन्न भिन्न पक्षों का आश्रयण गम्यमान हो तो) षष्ठी(अतसच के अर्थ वाले प्रत्यय के योग में) षष्ठी विभक्त्यन्त प्रातिपदिक से विकल्प से तसि प्रत्यय होता विभक्ति होती है। षष्ठी-II. 11.34 षष्ठ्या : - VI. iii. 20 (दार्थक और अन्तिकार्थक शब्दों के योग में विकल्प (आक्रोश गम्यमान होने पर उत्तरपद परे रहते) षष्ठी . से) षष्ठी विभक्ति होती है.(पक्ष में पञ्चमी भी)। विभक्ति का (अलुक होता है)। Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ्याः षष्ठ्याः VIII. iii. 53 (पति, पुत्र, पृष्ठ, पार, पद, पयस, पोष इन शब्दों के परे रहते वेदविषय में) षष्ठी विभक्ति के (विसर्जनीय को सकारादेश होता है)। - घाकन् - III. ii. 155 (जल्प, भिक्ष, कुट्ट, लुण्ठ, वृड् इन धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हों तो वर्तमान काल में) षाकन् प्रत्यय होता है। घात् - VIII. iv. 34 (पदान्त) षकार से उत्तर ( नकार को णकार आदेश नहीं होता)। वान्तस्य षकारान्त (नश् धातु) के (नकार को णकारादेश नहीं होता) । - • VIII. iv. 35. ... .. षाभ्याम् - VIII. iv. 1 देखें - वाभ्याम् VIII. iv. 1 वि. - VIII. iv. 42 (तवर्ग को) षकार परे रहते (ष्टुत्व नहीं होता) । विद III.104 देखें विभिदादिभ्यः 111. II. 104 - 517 विट्. - IV. L. 40 देखें - विद्वौरादिभ्यः IV. 1. 40 षिौरादिभ्यः - IV. 1. 40 पित् प्रातिपदिकों से तथा गौरादि प्रातिपदिकों से भी स्त्रीलिङ्ग में ङीष प्रत्यय होता है)। विभिदादिभ्यः - IIIIII. 104 पकार इत्संज्ञक है जिनका ऐसी धातुओं से तथा भिदादिगणपठित धातुओं से (स्त्रीलिङ्ग में अङ् प्रत्यय होता है, कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में)। .. षीध्वम्... - VIIi. iii. 78 देखें - षीध्वंलुलिटाम् VIII. iii. 78 षीध्वं लुलिटाम् - VIII. iii. 78 षुक् - IV. 1. 161 (मनु शब्द से जाति को कहना हो तो अन् तथा यत् प्रत्यय होते हैं तथा मनु शब्द को) षुक् आगम भी हो जाता है । षुक् - IV. iii. 135 (षष्ठीसमर्थ त्रपु और जतु प्रातिपदिकों से अणू प्रत्यय होता है तथा इन दोनों को) धुक् आगम भी होता है। धुक् - VII. iii. 40 (जिभी भये' अङ्ग को हेतुभय अर्थ में णि परे रहते) बुक् आगम होता है। ... पुञ्... - III. iii. 99 देखें - समजनिषद० III. iii. 99 ष्ठन् ... षुभ्यः - VIII. iv. 26 देखें - धातुस्योरुयुभ्यः VIII. . 26 - (इन् प्रत्याहार अन्तवाले अङ्ग से उत्तर) षीध्वम्, लुङतथा लिट् के (धकार को मूर्धन्य आदेश होता है) । -V. L. 74 (द्वितीयासमर्थ पथिन् प्रातिपदिक से 'जाता है' अर्थ में) कन् प्रत्यय होता है। ष्टरच् - V. lii. 90 (छोटा' अर्थ गम्यमान हो तो कासू तथा गोणी प्रातिपदिकों से) ष्टरच् प्रत्यय होता है । g:-VIII. iv. 40 (पकार और टवर्ग के योग में सकार और तवर्ग के • स्थान में) षकार और टवर्ग आदेश होते हैं। ष्ट्रन् - III. 1. 181 (घा धातु से कर्मकारक में) ष्ट्न् प्रत्यय होता है, (वर्तमान काल में) । .... ष्ठचौ - IV. iv. 31 देखें ष्टष्ठवौ IV. Iv. 31 - ष्ठन् - IV. iii. 70 (षष्ठीसप्तमीसमर्थ पौरोडाश, पुरोडाश व्याख्यातव्यनाम प्रातिपदिकों से 'भव' और 'व्याख्यान' अर्थों में) ष्ठन् प्रत्यय होता है)। ष्ठन् - IV. iv. 10 (तृतीयासमर्थ पर्णादि प्रातिपदिकों से 'चरति' अर्थ में) ष्ठन् प्रत्यय होता है। Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 518 ष्ठन्-IV. iv. 16 ष्णान्ता -1.1.23 (ततीयासमर्थ भस्वादिगणपठित प्रातिपदिकों से 'हरति' षकारान्त और नकारान्त (संख्यावाची) शब्दों (की षट् अर्थ में) ष्ठन् प्रत्यय होता है। संज्ञा होती है)। ष्ठन्... - IV. iv. 31 ...णिहाम् - VIII. I. 33 देखें- ठन्ष्ठचौ IV. iv. 31 देखें - दुहमुह० VIII. ii. 33 छन् - IV.iv. 53 ...ष्णुह... - VIII. ii. 33 (प्रथमासमर्थ किशरादि प्रातिपदिकों से 'इसका बेचना' देखें-द्हमुहO VIII. ii. 33. अर्थ में) ष्ठन् प्रत्यय होता है। क: - IV.i. 17 ष्ठन् -V.1.45 (अनुपसर्जन यजन्त प्रातिपदिकों से स्त्रीलिङ्ग में प्राचीन (षष्ठीसमर्थ पात्र प्रातिपदिक से 'श्वेत' अर्थ अभिधेय आचार्यों के मत में) ष्क प्रत्यय होता है (और वह तद्धित हो तो) ष्ठन् प्रत्यय होता है। होता है)। छन् - V.i. 53 फक्-IV.ii. 98 (द्विगुसंज्ञक द्वितीयासमर्थ आढक, आचित तथा पात्र (कापिशी शब्द से शैषिक) फक् प्रत्यय होता है। प्रातिपदिक से 'सम्भव है', 'अवहरण करता है' तथा ध्यङ्-IV.i.78 'पकाता है' अर्थों में) ष्ठन् प्रत्यय (भी) होता है। (गोत्र में विहित ऋष्यपत्य से भिन्न अण् और इब् प्रत्यय छन्ष्ठचौ - IV. iv. 31 अन्त वाले उपोत्तम गुरुवाले प्रातिपदिकों को स्त्रीलिङ्ग में) द्वितीयासमर्थ कुसीद तथा दशैकादश प्रातिपदिकों से ष्यङ् आदेश होता है। 'निन्दित वस्तु को देता है'-अर्थ में यथासङ्ख्य करके) यडः - VI. i. 13 . ष्ठन् और ष्ठच् प्रत्यय होते हैं। ष्ठल् - IV. iv.9 ष्यङ् को (सम्प्रसारण होता है, यदि पुत्र तथा पति शब्द उत्तरपद हों तो, तत्पुरुष समास में)। (ततीयासमर्थ आकर्ष प्रातिपदिक से 'चरति' अर्थ में) ...व्य.. - VI. iii. 50 . ष्ठल् प्रत्यय होता है। देखें-शोकष्यत्रोगेषु VI. iii. 50 , ष्ठल-IV. iv.74 ष्य -V.I. 122 (सप्तमीसमर्थ आवसथ प्रातिपदिक से 'बसता है (षष्ठीसमर्थ वर्णवाची तथा दृढादि प्रातिपदिकों से अर्थ में) ष्ठल् प्रत्यय होता है। 'भाव' अर्थ में) ष्यञ् तथा इमनिच् प्रत्यय होते हैं। आवसथ = आवास,विश्राम-स्थल,छात्रावास। वुन् -III. I. 145 ष्ठित्... - VII. iii. 75 . शिल्पी कर्ता अभिधेय हो तो धातुमात्र से) घुन् प्रत्ययः देखें-ष्ठियुक्लमुचमाम् VII. iii. 75 होता है। ष्ठियुक्लमुचमाम् - VII. iii. 75 ष्ठिवु,क्लमु तथा चम् अङ्गों को (शित् प्रत्यय परे रहते दीर्घ होता है। Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 519 ....स्.. -I.ili.4 देखें-तुस्मा: 1. iii.4 स्... -VIII. ii. 29 देखें-स्को: VIII. ii. 29 स्.... -VIII. ii.37 देखें - स्वोः VIII. I. 37 स्... - VIII. iv.39 देखें-स्तो: VIII. iv.39 स-प्रत्याहारसूत्र XIII पठित तृतीय वर्ण। पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्णमाला का बयालीसवां वर्ण। स... -III. iv.91 देखें-सवाभ्याम् III. iv. 91 स... -V.iv.40 देखें-सस्नो v. iv. 40 स... - VIII. 1. 67. देखें- ससजुषः VIII. ii. 67 स -I. 11.67 (अण्यन्तावस्था में जो कर्म) वही (यदि ण्यन्तावस्था में) कर्ता बन रहा हो तो ऐसी ण्यन्त धातु से आत्मनेपद होता है,आध्यान = उत्कण्ठापूर्वक स्मरण अर्थ को छोड़कर)। स:-I. iv. 32 .. (करणभूत कर्म के द्वारा जिसको अभिप्रेत किया जाये) वह कारक (सम्प्रदानसंज्ञक होता है)। स-1. iv.52 (गत्यर्थक, बुद्ध्यर्थक, भोजनार्थक तथा शब्दकर्मवाली और अकर्मक धातुओं का जो अण्यन्तावस्था में कर्ता) वह (ण्यन्तावस्था में कर्मसंज्ञक हो जाता है)। स-II. iv. 17 (जिसको पूर्व में एकवद्भाव कहा है) वह (नपुंसकलिंग वाला होता है)। ...स-II. iv. 78 देखें- घाघेट्शाच्छास II. iv.78 स-III. iv.98 (लेट्-सम्बन्धी उत्तमपुरुष के) सकार का (लोप विकल्प . से हो जाता है)। सः -IV.ii.54 प्रथमासमर्थ [छन्दोवाची प्रातिपदिकों से षष्ठ्यर्थ में यथाविहित (अण) प्रत्यय होता है, प्रगाथों के अभिधेय होने पर,यदि वह प्रथमासमर्थ छन्द आदि आरम्भ में हो]। स:-IV.ii. 89 प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से (षष्ठ्यर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है, यदि प्रथमासमर्थ निवास हो तो)। स: - V.i.55 प्रथमासमर्थ प्रातिपदिकों से (षष्ठ्यर्थ में यथाविहित प्रत्यय होते हैं, यदि वह प्रथमासमर्थ भाग, मूल्य तथा वेतन समानाधिकरण वाला हो तो)। स:-v.il.78 प्रथमासमर्थ प्रातिपदिकों से (षष्ठयर्थ में कन प्रत्यय होता है, यदि वह प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक ग्राम का मुखिया हो तो)। . स-v.1.6 (सर्व शब्द के स्थान में विकल्प से) स आदेश होता है, (ढकारादि प्रत्यय के परे रहते)। स:-VI.1.62 (धातु के आदि में षकार के स्थान में आदेश अवस्था में) सकार आदेश होता है। स-VI.i. 130 'स' के (सु का अच् परे रहते लोप होता है,यदि लोप होने पर पाद की पूर्ति हो रही हो तो)। स: -VI. 1.77 (सह शब्द को) स आदेश होता है, (उत्तरपद परे रहते, सञ्जाविषय में)। . स:-VII. ii. 106 (त्यदादि अंगों के अनन्त्य तकार और दकार के स्थान में सु विभक्ति परे रहते) सकारादेश होता है। स-VII. iv.49 सकारान्त अङ्ग को (सकारादि आर्धधातुक के परे रहते तकारादेश होता है)। स:-VIII. Iii. 34 (खर परे रहते विसर्जनीय को) सकार आदेश होता है। स -VIII. II. 38 (अपदादि कवर्ग तथा पवर्ग परे रहते विसर्जनीय को) सकारादेश होता है। Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स स VIII. iii. 56 (सह धातु के साहूरूप) सकार को (मूर्धन्य आदेश होता है) । स. - VIII. iit. 62 (अभ्यास के इण से उत्तर ण्यन्त ञिष्विदा, ष्वद तथा पह धातुओं के सकार को) सकारादेश होता है, (पत्वभूत सन् परे रहते भी)। सक् - VIL II. 73 (यम, रमु णम तथा आकारान्त अङ्ग को) सक आगम होता है (तथा सिच् को परस्मैपद परे रहते इट् आगम होता है)। सकर्मकात् - 1. III. 53 (उत् उपसर्ग से उत्तर) सकर्मक (चर् धातु) से (आत्मनेपद होता है)। सकृत् - Viv. 19 (एक शब्द के स्थान में) सकृत् आदेश होता है (तथा सुच् प्रत्यय होता है, "क्रियागणन' अर्थ में)। .. सक्त... - VII. 1. 18 ... देखें - मन्यमनस् VII. ii. 18 .. सक्तु... - VI. iii. 59 ... देखें मन्वौदन] VI. III. 59 सक्थम् - VI. ii. 198 (क्र अन्त में 'नहीं' है जिसके, ऐसे अक्रान्त शब्द से उत्तर) सक्थ शब्द को (भी विकल्प से अन्तोदात्त होता है, बहुव्रीहि समास में) । सक्थि... - V. iv. 113 देखें व्यणो Viv. 113 - 520 ... सक्थि... - VII. 1. 75 देखें- अस्थिदपि VII. 1. 75 सक्छन् - V. Iv. 98 (उत्तर, मृग और पूर्व शब्दों से उत्तर तथा उपमानवाची शब्दों से उत्तर भी) जो सक्धि शब्द, तदन्त (तत्पुरुष) से (समासान्त टच् प्रत्यय होता है ) । यक्ष्णोः - V. Iv. 113 (स्वाङ्गवाची) जो सक्थि और अक्षि शब्द, तदन्त से (समासान्त षच् प्रत्यय होता है, बहुव्रीहि समास में) । ... सक्थ्यो: - V. iv. 121 देखें - हलिसक्थ्यो: V. iv. 121 ... सखि... - IV. 1. 79 देखें अरीहणकृशाश्क IV. II. 79 - संख्यया ... सखिभ्यः - Viv. 91 देखें – राजाहः सखिभ्यः V. Iv. 91 सखी - IV. 1.62 सखी (तथा अशिश्वी ये) शब्द (भाषा-विषय में स्त्रीलिङ्ग में डी-प्रत्ययान्त निपातन किये जाते हैं)। सख्यम् - VI. 22 (साप्तपदीनम्' शब्द का निपातन किया जाता. मित्रता वाच्य हो तो । सख्युः - V. 1. 125 (षष्ठीसमर्थ) सखि प्रातिपदिक से (भाव और कर्म अर्थ में य प्रत्यय होता है)। सख्युः - VII. 1. 92 (संबुद्धि परे नहीं है जिससे ऐसे) सखि शब्द से उत्तर (सर्वनामस्थान विभक्ति णित्वत् होती है)। , सगतिः - VIII. 1. 68 (पूजनवाचियों से उत्तर) गतिसहित विशन्त को (तथा गतिभिन्न तिङन्त को भी अनुदात्त होता है ) । सगर्भ... IV. iv. 114 देखें - सगर्भसयू० IV. iv. 114 सगर्भसयूथसनुतात् - IV. Iv. 1143 - (सप्तमीसमर्थ) सगर्भ, सयूथ, सनुत – इन प्रातिपदिकों से (वेदविषयक भवार्थ में यन् प्रत्यय होता है) । स्कूलादिभ्य IV. 1. 74 सङ्कलादि प्रातिपदिकों से भी चातुरर्थिक अञ् प्रत्यय होता है। .... सकाश... - IV. 1. 79 देखें - अरीहणकृशाश्व० IV. II. 79 संख्या - 11. II. 25 13310 (संख्येय में वर्तमान) सङ्ख्या के साथ (अव्यय, आसन्न, अंदूर, अधिक और संख्या का विकल्प से समास होता है और वह बहुव्रीहिसञ्ज्ञक होता है) । Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...सख्यस्य 521 सङ्ख्यायाः ...सङ्ख्यस्य-VII. iii. 15 प्रत्यय होता है तथा प्रत्यय के साथ-साथ पाद और शत देखें - सम्वत्सरसंख्यस्य VII. iii. 15 के अन्त का लोप भी हो जाता है)। सख्या -I.i. 22 सङ्ख्यादेः - V. iv. 89 (बहु,गण शब्दों की तथा वतु प्रत्ययान्त और डति प्रत्य सङ्ख्या आदि वाले (तत्पुरुष समास में समाहार में यान्त शब्दों की) संख्या संज्ञा होती है। वर्तमान अहन) शब्द को (अह्न आदेश नहीं होता)। , ...सख्याः -II. 1. 10 सङ्ख्यापरिमाणे-v.ii. 41 देखें-अक्षशलाकासङ्ख्याः II. 1. 10 सडख्या -II.i. 18 सङ्ख्या के परिमाण अर्थ में वर्तमान (प्रथमासमर्थ किम् प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ में डति तथा वतुप् प्रत्यय होते हैं (एक, द्वि, त्रि आदि) संख्यावाचक शब्द (वंश्यवाची तथा उस वतुप के वकार के स्थान में पकार आदेश होता सुबन्तों के साथ विकल्प से अव्ययीभाव समास को प्राप्त होते है)। सङ्ख्यापूर्वः - II. I. 51 ...सख्या ... -ii. 1.21 देखें-दिवाविमा० III. ii. 21 संख्या पूर्व में है जिसके.ऐसा समास (तद्धितार्थ-विषय संख्या .. - IV.i. 26 में उत्तरपद परे रहते समाहार वाच्य होने पर 'द्विगु' संज्ञक 'देखें-संख्याव्ययादेः IV.i. 26 होता है)। संख्या .. - IV. 115 संख्याया-.1.22 देखें-संख्यासंभद्र IV. 1. 115 सङ्ख्यावाची प्रातिपदिक से (तदर्हति-पर्यन्त कथित ...संख्या ... - V.I. 19 अर्थों में कन् प्रत्यय होता है,यदि वह सङ्ख्यावाची प्रातिदेखें- अगोपुच्छसंख्याov.i. 19 पदिक ति-शब्दान्त एवं शत-शब्दान्त न हो तो)। संख्या ... -V. iv.43 सङ्ख्याया: - V.i. 57 :- देखें-संख्यैकवचनात् V. iv. 43 (परिमाण समानाधिकरण वाले प्रथमासमर्थ) संख्यासङ्ख्या ... -V.iv.86 वाची प्रातिपदिक से (सक्षा,सङ्घ,सूत्र तथा अध्ययन के देखें-संख्याव्ययादे: V. iv.86 प्रत्ययार्थ होने पर षष्ठ्यर्थ में यथाविहित प्रत्यय होते है)। सख्या ... -v.iv. 140 देखें-संख्यासुपूर्वस्य V. iv. 140 संख्यायाः -v.ii. 42 सङ्ख्या -VI. ii. 35 (अवयव' अर्थ में वर्तमान प्रथमासमर्थ) सङ्ख्यावाची (द्वन्द्व समास में) सङ्ख्यावाची पूर्वपद को (प्रकृतिस्वर ___प्रातिपदिक से (षष्ठ्यर्थ में तयप् प्रत्यय होता है)। प्रातपादक स (षष्ठ्यथ म तयप् प्रत्यय होता है)। सङ्ख्याया: - V.ii. 47 संख्या ... -VI. iii. 109 (प्रथमासमर्थ) सङ्ख्यावाची प्रातिपदिकों से (इस भाग देखें-संख्याविसाय. VI. iii. 109 का यह मूल्य है' अर्थ में मयट् प्रत्यय होता है)। ....सङ्ख्याः - II. ii. 25 सख्यायाः -v. iii. 42 देखें- अव्ययासन्नादूरा० II. ii. 25 (क्रिया के प्रकार में वर्तमान) सङ्ख्यावाची प्रातिपदिकों ...सख्यात... - V.iv.87 से (धा प्रत्यय होता है)। देखें-सवैकदेशov.iv. 87 सख्यादेः - V.Ill.1 सङ्ख्याया: - V.iv. 17 सङ्ख्या आदि में हो जिसके,ऐसे (पाद् और शत शब्द (क्रिया के बार बार गणन' अर्थ में वर्तमान) . अन्त वाले) प्रातिपदिकों से (वीप्सा गम्यमान हो तो वन सङ्ख्यावाची प्रातिपदिकों से (कृत्वसुच् प्रत्यय होता है)। Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्ख्यायाः 522 सङ्ख्यायाः +v.iv.59 संख्येये-II. ii. 25 (गुण शब्द अन्त वाले) सङ्ख्यावाची प्रातिपदिकों से संख्येय = जिसकी गणना की जाये- अर्थ में वर्त(भी कृञ् के योग में कृषि अभिधेय हो तो डाच प्रत्यय मान (संख्या के साथ अव्यय,आसन्न,अदूर, अधिक और होता है)। संख्या समास को प्राप्त होते हैं और वह समास बहुसंख्यायाः -VI. ii. 163 व्रीहिसञ्जक होता है)। संख्या शब्द से उत्तर (स्तन शब्द को बहतीहिसमास में सङ्ख्येये-V.iv.7 अन्तोदात्त होता है)। (बहु तथा गण शब्द जिसके अन्त में नहीं हैं, ऐसे) सख्याया-VII. iii. 15 सङ्ख्येय अर्थ में (वर्तमान बहुव्रीहिसमासयुक्त प्रातिपसङ्ख्यावाची शब्द से उत्तर (संवत्सर शब्द के तथा ___दिक से डच् प्रत्यय होता है)। सङ्ख्यावाची शब्द के अचों में आदि अच् को भी जित, सङ्ख्यैकवचनात्- V. iv. 43 णित् तथा कित् तद्धित परे रहते वृद्धि होती है)। सङ्ख्याची प्रातिपदिकों से तथा एक अर्थ को कहने सङ्ख्यायाम् -VI. iii.46 वाले प्रातिपदिकों से (भी वीप्सा द्योतित हो रही हो तो (द्वि तथा अष्टन् शब्दों को आकारादेश होता है। विकल्प से शस् प्रत्यय होता है)। सङ्ख्या उत्तरपद हो तो; (बहुव्रीहि समास तथा अशीति सङ्ग-VIII. lil.80 . उत्तरपद को छोड़कर)। (समास में अङ्गलि शब्द से उत्तर) सङ्ग शब्द के (सकार .. सङ्ख्याविसायपूर्वस्य-VI. 1. 109 को मूर्धन्य आदेश होता है)। संख्या,वि तथा साय पूर्व वाले (अ) शब्द को (विकल्प ...सङ्गत....- V.i. 102 करके अहन् आदेश होता है, ङि परे रहते)। देखें- अचतुरमङ्गल० V. 1. 120 संख्याव्ययादेः- IV.i. 26 सङ्गतम्-III. 1. 105 संख्या आदि वाले तथा अव्यय आदि वाले (ऊधस सङ्गत = सङ्गति अर्थ में (अजयम' शब्द का कर्तृवाच्य शब्दान्त बहुव्रीहि समास युक्त) प्रातिपदिक से (डीप प्रत्यय __ में निपातन है, नञ् पूर्वक जृष् धातु से)। होता है)। समामे- IV. ii. 53. सङ्ख्याव्ययादेः- V. iv. 86 (प्रथमासमर्थ प्रयोजन और योद्धा के साथ समानाधिसङ्ख्या तथा अव्यय आदि में है, जिस (अङ्गलि करण वाले प्रातिपदिकों से षष्ठ्यर्थ में).समाम = युद्ध शब्दान्त तत्पुरुष समास के, तदन्त) प्रातिपदिक से (समा अभिधेय हो (तो यथाविहित अण प्रत्यय होता है)। सान्त अच् प्रत्यय होता है)। सङ्क...-III. iii. 86-. . संख्यासंभद्रपूर्वाया:- IV.i. 115 देखें- सोधौ III. iii. 86 संख्या,सम् तथा भद्र पूर्व वाले (मातृ) शब्द से (अपत्य सड़..-IV. iii. 126 अर्थ में अण प्रत्यय होता है,साथ ही मातृ शब्द को उकार देखें-सालक्षणेषु IV. iii. 126 अन्तादेश भी हो जाता है)। ...स...V. 1.57 सङ्ख्यासुपूर्वस्य-v.iv. 140 देखें- संज्ञासङ्घसूत्रा0 V.i. 57 सङ्ख्यावाची शब्द पूर्ववाले तथा सु शब्द पूर्ववाले ...सहस्य-V.ii. 52 (पाद) शब्द का (समासान्त लोप हो जाता है)। देखें-बहुपूगo V. 1. 52 ...सख्ये-II. 1. 48 ...सङ्घष... - VII. ii. 28 देखें- दिक्सङ्ख्ये II. . 48 देखें-रुष्यमत्वरO VII. I. 28 Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 523 सनायाम सङ्थे - III. iii. 42 सज्ञा...-V.i.57 (ऊपर नीचे स्थित न होने वाला) संघ = समह वाच्य देखें-संज्ञासङ्घसूत्रा० V. 1.57 हो (तो भी चिज् धातु से घञ् प्रत्यय होता है तथा आदि सज्ञा...-VI. ii. 113 चकार को ककारादेश हो जाता है.कर्तभिन्न कारक संज्ञा देखें-संज्ञोपम्ययो: VI. ii. 113 तथा भाव में)। सज्ञा...-VI.ili.37 सड्योद्घौ-III. ii. 86 देखें-संज्ञापूरण्यो : VI. iii. 37 संच और उद्घ शब्द (यथासंख्य करके गण तथा सज्ञा ...-VI. 1.62 देखें-संज्ञाछन्दसोः VI. iii. 62 . प्रशंसा गम्यमान होने पर निपातन किये जाते हैं.कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में)। ...सज्ञा...- VIII. 1.2 देखें-सुप्स्वरO VIII. 1.2 ...सजुक-VIII. ii.67 सज्ञाछन्दसो:-:IV.i. 29 देखें-ससजुषः VIII. ii. 67 (अन्नन्त उपधालोपी बहुव्रीहि समास से) संज्ञा तथा ...सचर..-III. iii. 119 देखें-गोचरसञ्चरo III. iii. 119 छन्द-विषय में (नित्य ही स्त्रीलिङ्ग में डीप् प्रत्यय होता ...सञ्चाय्यौ-III. 1. 130 देखें-कुण्डपाय्यसञ्चाय्यौ III. 1. 130 सज्ञाछन्दसो:-VI.ili. 62 ...सझ..-VI. iv.25 (ङ्यन्त तथा आबन्त शब्दों को) सजा तथा छन्दविषय देखें-दंशस VI. iv. 25 में) उत्तरपद परे रहते बहुल करके हस्व होता है)। ....सच..-VIII. iii.65 सज्ञान्तरयोः-III. 1. 179 देखें-सुनोतिसुवति VIII. iii.65 (भू धातु से) संज्ञा तथा अन्तर= मध्य गम्यमान हो तो सातम्- V.ii. 36 (वर्तमान काल में क्विप् प्रत्यय होता है)। (प्रथमासमर्थ) संजात समानाधिकरण (तारकादि प्राति- सनापूरण्यो:- VI. ii. 37 . 'पदिकों से षष्ठ्यर्थ में इतच् प्रत्यय होता है)। सज्ज्ञावाची तथा पूरणीप्रत्ययान्त (भाषितपुंस्क स्त्री ...सञ्जीव..- VI. ii. 91 शब्दों) को (भी पुंवद्भाव नहीं होता)। . देखें-भूताधिक. VI. ii. 91 सप्नाप्रमाणत्वात-I.ii. 53 सज्ञ-II.ifi. 22 लौकिक व्यवहार के अधीन होने से (उपर्युक्त युक्तसम् पूर्वक 'ज्ञा' धातु के (अनभिहित कर्म कारक में वद्भाव पूरी तरह से शासित नहीं किया जा सकता)। विकल्प से तृतीया विभक्ति होती है)। सजायाम्-II.1.20 ...संज्ञयो:-v.iv.94 संज्ञाविषय में (अन्य पदार्थ गम्यमान होने पर भी सुबन्त देखें-जातिसंज्ञयो: V. iv.94 का नदीवाचियों के साथ विकल्प से अव्ययीभाव समास सज्ञा-I.iv.1 होता है)। .. (कडारा: कर्मधारये' II. 1.38 इस सत्र तक एक) संज्ञा सज्ञायाम-II.1.43 होती है, यह अधिकार है)। संज्ञा-विषय में (सप्तम्यन्त सुबन्त का समर्थ सुबन्तों के सज्ञा...-III. 1. 179 साथ तत्पुरुष समास होता है)। देखें-संज्ञान्तरयोः III. 1. 179 सज्ञायाम् -II. I. 49 संज्ञा...- IV.i.29 (दिशावाची और संख्यावाची सुबन्त समानाधिकरण समर्थ सुबन्त के साथ) संज्ञाविषय में (समास को प्राप्त . देखें- संज्ञाछन्दसो: IV. 1.29 होते हैं और वह समास तत्पुरुषसञक होता है)। Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सब्ज्ञायाम् 524 सज्ञायाम् सज्ञायाम् -II. iv. 20 संज्ञा-विषय में (न तथा कर्मधारयवर्जित कन्थान्ततत्पुरुष नपुंसकलिङ्ग में होता है, यदि वह कन्था उशीनर जनपद-सम्बन्धी हो तो)। सज्ञायाम्-III. ii. 14 संज्ञा-विषय में (शम्' उपपद रहते धातु मात्र से अच्' प्रत्यय होता है)। सज्ञायाम्-III. ii. 46 संज्ञाविषय में (भू, तु, वृ, जि, धू, सह, तप और दम् धातुओं से यथासम्भव सुबन्त अथवा कर्म उपपद रहते 'खच्' प्रत्यय होता है)। सज्ञायाम्-III. ii. 88 संज्ञाविषय में (उपसर्ग उपपद रहते भी 'जन्' धातु से 'ड' प्रत्यय होता है, भूतकाल में)। सज्ञायाम्-III. ii. 185 (पूज् धातु से) संज्ञा गम्यमान हो तो (करण कारक में इत्र प्रत्यय होता है, वर्तमान काल में)। सप्तायाम्-III. iii. 19 (कर्तृभिन्न कारक में भी धातु से) संज्ञाविषय में (घञ् प्रत्यय होता है)। सज्ञायाम्-III. iii.99 . संज्ञाविषय में (सम् पूर्वक अज,नि पूर्वक पद तथा पत, मन,विद,षुज,शी, भृज,इण धातुओं से स्त्रीलिङ्ग में कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में क्यप् प्रत्यय होता है और वह उदात्त होता है)। सज्ञायाम्-III. iii. 109 संज्ञाविषय में (धातु से स्त्रीलिङ्ग में कर्तभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में ण्वुल प्रत्यय होता है)। सज्ञायाम्-III. iii. 118 (धातु से करण और अधिकरण कारक में पुंल्लिङ्ग में प्रायः करके घ प्रत्यय होता है, यदि समुदाय से) संज्ञा प्रतीत होती है। सज्ञायाम्-III. iii. 174 (आशीर्वाद-विषय में धातु से क्तिच् और क्त प्रत्यय भी होते हैं, यदि समुदाय से) संज्ञा प्रतीत हो। सजायाम्-III. iv. 42 संज्ञाविषय में (बन्ध धातु से णम् सज्ञायाम् - Iv.i.58 (नखशब्दान्त तथा मखशब्दान्त प्रातिपदिकों से) संज्ञा विषय में (स्त्रीलिङ्ग में ङीष् प्रत्यय नहीं होता है)। सज्ञायाम्- IV. 1.67 (बाहु अन्त वाले प्रातिपदिकों से) संज्ञाविषय में (स्त्रीलिङ्ग में ऊङ् प्रत्यय होता है)। सजायाम्-IV. 1.72 संज्ञाविषय हो तो (लोक में भी कद् और कमण्डलु शब्दों से स्त्रीलिङ्ग में ऊङ् प्रत्यय होता है। सजायाम्-IV. .5 (तृतीयासमर्थ नक्षत्रवाची श्रवण तथा अश्वत्थ शब्दों से 'युक्तः कालः' इस अर्थ में विहित प्रत्यय का) संज्ञाविषय में (सर्वत्र लुप् होता है)। सजायाम्- IV. iii. 27 (सप्तमीसमर्थ शरद प्रातिपदिक से जात अर्थ में) संज्ञाविषय होने पर (वुञ् प्रत्यय होता है)। . सजायाम्- IV. iii. 117 (तृतीयासमर्थ कुलालादि प्रातिपदिकों से) संज्ञा गम्यमान होने पर (कृत अर्थ में वुञ् प्रत्यय होता है)। सजायाम्- IV. iii. 144 (षष्ठीसमर्थ पिष्ट प्रातिपदिक से) संज्ञाविषय में (विकार अर्थ में कन् प्रत्यय होता है)। सजायाम्- IV. iv. 46 द्वितीयासमर्थ ललाट तथा कुक्कुटी प्रातिपदिकों से) संज्ञा गम्यमान होने पर(देखता है'- अर्थ में ठक प्रत्यय होता है)। कुक्कुटी = दम्भ, पाखण्ड । सजायाम् - IV. iv. 82 (द्वितीयासमर्थ जनी प्रातिपदिक से) संज्ञा गम्यमान होने पर (ढोता है' अर्थ में यत् प्रत्यय होता है)। जनी = वधू। Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सज्ञायाम् 525 सज्ञायाम् सज्ज्ञायाम् - IV. iv.89 सजायाम्-v.ii. 113 सज्ञाविषय में (धेनुष्या शब्द स्त्रीलिङ्ग में निपातन किया (दन्त तथा शिखा प्रातिपदिकों से 'मत्वर्थ' में) सज्जाजाता है)। विषय में वलच् प्रत्यय होता है)। धेनुष्या = दुग्धादि के द्वारा ऋण उतारने के लिये। सज्ञायाम्- V. ii. 137 उत्तमर्ण को दी जाने वाली गाय । (मन् अन्तवाले तथा म शब्दान्त प्रातिपदिकों से 'मत्वर्थ' सजायाम्-V.1.3 में इनि प्रत्यय होता है) सञ्जाविषय में। नाम अर्थ में (कम्बल प्रातिपदिक से भी 'क्रीत' अर्थ से सजायाम्-V. 1.75 - पहले पहले पठित अर्थों में यत् प्रत्यय होता है)। (निन्दित' अर्थ में वर्तमान प्रातिपदिक से स्वार्थ में कन सजायाम्- V. 1.61 प्रत्यय होता है) संज्ञा गम्यमान होने पर। (परिमाण समानाधिकरण वाले प्रथमासमर्थ त्रिंशत् तथा सज्ञायाम्-V.11.87 चत्वारिंशत् प्रातिपदिकों से षष्ठ्यर्थ में) सज्ञा का विषय (छोटा' अर्थ में वर्तमान प्रातिपदिक से) सज्ञा गम्यमान होने पर (डण् प्रत्यय होता है, ब्राह्मण ग्रन्थ अभिधेय हो हो तो (कन् प्रत्यय होता है)। तो)। सक्षायाम्-V. iii.97 सज्ञायाम्-V. ii. 23 (इवार्थ गम्यमान हो तो) संज्ञाविषय में (भी कन् प्रत्यय (हैयङ्गवीन शब्द का निपातन किया जाता है) सञ्जा- होता है)। विषय में)। .. सज्ञायाम्-V.iv. 118 सज्ञाविषयम्- V. 1. 30 (नासिका-शब्दान्त बहुव्रीहि से समासान्त अच् प्रत्यय (अव उपसर्ग प्रातिपदिक से 'नासिकासम्बन्धी झुकाव होता है) सञ्जाविषय में (तथा नासिका शब्द के स्थान में को कहना हो तो) समाविषय में (टीटच. नाटच तथा नस आदेश भी हो जाता है,यदि वह नासिका शब्द स्थूल प्रटच् प्रत्यय होते हैं)। शब्द से उत्तर न हो तो)। सज्ज्ञायाम्-v.i.71 सज्ञायाम्-V.iv. 137 (ब्राह्मणक तथा उष्णिक शब्द कन्-प्रत्ययान्त निपातन सज्जाविषय में (धनुष-शब्दान्त बहुव्रीहि को विकल्प से किये जाते हैं) सञ्जाविषय में। समासान्त अनङ् आदेश हो " सज्ञायाम्-- V. ii. 82 सजायाम्-V.iv. 143 (प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से सप्तम्यर्थ में कन प्रत्यय (बहुव्रीहि समास में अन्यपदार्थ यदि स्त्री वाच्य हो तो होता है, यदि वह प्रथमासमर्थ बहुल करके) सञ्जाविषय दन्त शब्द के स्थान में दत आदेश हो जाता है) सज्जामें (अन्नविषयक हो तो)। विषय में। सज्ञायाम-V. 1.91 सज्ञायाम्-V.iv. 155 (साक्षात् प्रातिपदिक से देखने वाला' वाच्य हो तो) सद्भाविषय में (बहुव्रीहि समास में कप् प्रत्यय नहीं सज्ञाविषय में (इनि प्रत्यय होता है)। होता है)। सज्ञायाम्- V. ii. 110 सज्ज्ञायाम्-VI. 1. 151 (गाण्डी तथा अजग प्रातिपदिकों से मत्वर्थ' में व प्रत्यय (पारस्कर इत्यादि शब्दों में भी सुट आगम निपातन होता है) संज्ञाविषय में। किया जाता है) संज्ञा के विषय में। गाण्डीव = अर्जुन का बाण। सज्ञायाम् -VI. 1. 198 अजगव = शिव का धनुष। (उपमानवाची शब्द को) सज्ञाविषय में (आधदात्त होता Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सक्षायाम् 526 सज्ञासायसूत्राध्ययनेषु सज्ञायाम् -VI.1.213 (मतुप से पूर्व आकार को उदात्त होता है, यदि वह मत्वन्त शब्द स्त्रीलिङ्ग में) सञ्जाविषयक हो तो। सजायाम्-VI. ii. 77 सज्जाविषय में (भी अणन्त उत्तरपद रहते पर्वपद को आधुदात्त होता है, यदि वह अण् कृत्र से परे न हो तो)। सज्ञायाम्- VI. 1. 94 (गिरि तथा निकाय शब्द उत्तरपद रहते) सञ्जाविषय में (पूर्वपद को अन्तोदात्त होता है)। . सजायाम्- VI. ii. 106 (बहुव्रीहि समास में) सज्जाविषय में (पूर्वपद विश्व शब्द को अन्तोदात्त होता है)। सज्ञायाम्- VI. II. 129 समाविषय में (कुल,सूद स्थल, कर्ष-इन उत्तरपद शब्दों को तत्पुरुष समास में आधुदात्त होता है)। .. कूल = किनारा, तालाब। सूद = रसोइया, कुंआ, कर्ष = रेखा खीचना, घसीटना, हल जोतना। सज्ञायाम्- VI. I. 146 (गति, कारक तथा उपपद से उत्तर क्तान्त उत्तरपद को अन्तोदात्त होता है। सञ्जाविषय में (आचितादि शब्दों को छोड़कर)। आचित = पूर्ण, भरा हुआ, ढका हुआ। सज्ञायाम्-VI. ii. 159 (नञ् से परे आक्रोश गम्यमान हो तो) सञ्जाविषय में (वर्तमान उत्तरपद को अन्तोदात्त होता है)। सप्तायाम्- VI. I. 165 सज्जाविषय में (उत्तरपद मित्र तथा अजिन शब्दों को बहुव्रीहि समास में अन्तोदात्त होता है)। सप्ज्ञायाम्-VI. ii. 183 (प्र उपसर्ग से उत्तर अस्वागवाची उत्तरपद को) सज्जाविषय में (अन्तोदात्त होता है)। अजिन = पशुचर्म। सज्ञायाम्-VI. 1.4 (मनस् शब्द से उत्तर) सञ्जाविषय में (तृतीयाविभक्ति का उत्तरपद परे रहते अलुक् होता है)। सज्ज्ञायाम्-VI. iii.8 (हलन्त तथा अकारान्त शब्द से उत्तर) सज्जाविषय में (सप्तमी विभक्ति का उत्तरपद परे रहते अलुक होता है)। सज्ज्ञायाम्-VI.ili.56. (उदक शब्द को उद आदेश होता है) सज्ञा विषय में, (उत्तरपद परे रहते)। सजायाम्-VI. iii.77 (सह शब्द को स आदेश होता है, उत्तरपद परे रहते) . सञ्जाविषय में। सनायाम्- VI. iii. 116 (वन तथा गिरि शब्द उत्तरपद रहते यथासंख्य करके . . कोटरादि एवं किंशुलकादि गणपठित शब्दों को) सज्जा... विषय में (दीर्घ होता है)। सजायाम्- VI. iii, 124 (अष्टन् शब्द को उत्तरपद परे रहते) सञ्जाविषय में (दीर्घ होता है)। सज्ञायाम्-VI. iii. 128 (नर शब्द उत्तरपद रहते) सज्ञाविषय में (विश्व शब्द को दीर्घ होता है)। सज्ज्ञायाम्-VIII. ii. 11 सञ्जाविषय में (मतुप् को वकारादेश होता है)। सजायाम्- VIII. iii. 99 (गकारभिन्न इण तथा कवर्ग से उत्तर सकार को एकार परे रहते) सञ्जाविषय में (मूर्धन्य आदेश होता है)। सजायाम्- VIII. iv.3 (गकारभिन्न पूर्वपद में स्थित निमित्त से उत्तर) सजाविषय में (नकार को णकारादेश होता है)। सज्ञासयसूत्राध्ययनेषु -v.i. 57 (परिमाण समानाधिकरणवाले प्रथमासमर्थ सङ्ख्यावाची प्रातिपदिकों से) सज्जा, सच = समूह, सूत्र तथा अध्ययन के प्रत्ययार्थ होने पर (यथाविहित प्रत्यय होते है)। Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोपाययोः 527 सदर.. सज्ञौपम्ययोः -VI. ii. 113 सज्जा तथा उपमा विषय में (वर्तमान जो बहुव्रीहि.वहाँ भी उत्तरपद कर्ण शब्द को आधुदात्त होता है)। सझालो:-VI. iv. 42 (जन,सन,खन-इन अङ्गों को आकारादेश हो जाता है; झलादि) सन् तथा झलादि (कित्, ङित्) परे रहते।। ...सवर..-III. 1. 142 देखें- सम्पचानुरुप III. 1. 142 स्थण्डिलात्-IV.ii. 14 (सप्तमीसमर्थ) स्थण्डिल प्रातिपदिक से (सोने वाला अभिधेय हो तो व्रत गम्यमान होने पर यथाविहित प्रत्यय होता है)। सत्...-I.iv.72 . देखें-सदसती I. iv. 72 सत्...-II. 1.60 देखें-सन्महत्परमो० II. 1.60 ....सत्...-II. ii. 11 देखें- पूरणगुणसुहितार्थ II. ii. 11 सत्-III. ii. 127 (वे शतृ तथा शानच् प्रत्यय) सत् संज्ञक होते हैं। सत्-III. iii. 14 (भविष्यकाल में विहित जो लूट,उसके स्थान में) सत्संज्ञक शतृ और शानच् प्रत्यय (विकल्प से होते हैं)। सत्सूद्विषद्रुहदुहयुजविदमिदच्छिदजिनीराजाम्-III. II. अगद = नीरोग,स्वस्थ। सत्यात-v.inks सत्य प्रातिपदिक से (शपथ वाच्य न हो तो कब के योग में डाच प्रत्यय होता है)। सत्याप..-III. 1.25 देखें- सत्यापपाश III. 1. 25 सत्यापपाशरूपवीणातूलश्लोकसेनालोमत्वववर्मवर्णचूर्णचुरादिभ्यः -III.1.25 सत्याप,पाश,रूप,वीणा,तूल.श्लोक,सेना.लोम.त्वच, वर्म,वर्ण,चूर्ण इन शब्दों तथा चुरादि गण में पढ़ी धातुओं से (णिच् प्रत्यय होता है)। सद्.-III. 1. 61 देखें-सत्स० III. 1.61 ...सद...-III.1.24 देखें-लुपसदचर III. 1.24 सद...-III. 1. 108 देखें-सदवस III. II. 108 ...सद -III. 1. 159 देखें-दाबेट II. 1. 159 सदवसत्रुक-III. 1. 108 (लौकिक प्रयोग विषय में) सद,वस,श्रु-इन धातुओं से परे (भूतकाल में लिट् प्रत्यय होता है)। सदसती-I. iv. 62 सत और असत् शब्द (यदि यथासंख्य करके आदर तथा अनादर अर्थ में वर्तमान हों तो उनकी क्रियायोग में गति और निपात संज्ञा होती है)। ...सदाम् -VII. Mi.78 देखें-पानाध्या VII. lil. 78 सदिः -VIII. iii. 66 (प्रतिभिन्न उपसर्गस्थ निमित्त से उत्तर) षदल धातु के (सकार को मूर्धन्य आदेश होता है, अव्यवाय एवं अभ्यास के व्यवाय में भी)। ...सदृश..-II.1.30 देखें-पूर्वसदशसमोनार्थ II. 1. 30 61 . सद्, स, द्विष, दुह, दुह, युज, विद,भिद, छिद,जि, नी, राजू धातुओं से (सोपसर्ग हों तो भी तथा निरुपसर्ग हों तो भी सबन्त उपपद रहते क्विप प्रत्यय होता है)। सत्य..-VI.ili.69 देखें-सत्यागदस्य VI. 1.69 . . सत्यम्-VIII. 1. 32 सत्यम् शब्द से युक्त (तिङन्त को प्रश्न होने पर अनुदात्त नहीं होता। सत्यागदस्य-VI. 1.69 कार शब्द उत्तरपद रहते) सत्य तथा अगद शब्द को . (मुम् आगम हो जाता है)। सदश.. -VI.11.11 पद हत) सत्य तथा अगद शब्दको देखें-सदनजतिल्पयो VI.1.11 Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदशातिरूपयोः 528 सनि सदशातिरूपयो: - VI. I. 11 सन्..-VI.1.9 सदृश तथा प्रतिरूप शब्द उत्तरपद रहते (सादृश्यवाची देखें- सन्यो : VI.1.9 तत्पुरुष समास में पूर्वपद प्रकृतिस्वर होता है)। सन्..-VI.1.31 सदेः- VIII. iii. 118 देखें-संशो : VI.1.31 सन्...- VI. iv. 42 (लिट् परे रहते) षद् धातु के (परवाले सकार को मूर्धन्य देखें-सालो: VI. iv. 42 आदेश नहीं होता। सन्...- VII. iii. 57 ..सदेशेषु - VI. II. 23 देखें-सन्लिटो: VII. iii.57 देखें- सविधसनीड VI. ii. 23 ...सन...-III. 1.27 सब...-V.11.22 देखें- वनसन III. ii. 27 देखें- सद्य-परुतv.iil. 22 ...सन...-III. ii.67 सापरुत्परायवमापरखव्ययपूर्वधुरन्यधुरन्यतरधुरितरपुर- देखें-जनसन III. 1.67 परेधुरघरेधुरुपयेधुरुत्तरेछुः - V. iii. 22 (सप्तम्यन्त प्रातिपदिकों से कालविशेष में) सद्यः, परुत्, ...सन...-VI. iv. 42 परारि, ऐषमस्, परेद्यवि, अद्य, पूर्वेद्युः, अन्येयुः, अन्यतरेधुः, देखें- जनसनखनाम् VI. iv. 42 इतरेयः, अपरेद्यः, अधरेयः उभयेद्यः तथा उत्तरेद्यः शब्दों का सन-I. iii. 56 निपातन किया जाता है। (ज्ञा, श्रु, स्मृ, दृश् -इन धातुओं के) सन्नन्त से परे सब-VI. 1.95 - (आत्मनेपद होता है)। (माद तथा स्थ उत्तरपद रहते वेदविषय में सह शब्द को) सनः-I. iii. 62 सघ आदेश होता है। (सन प्रत्यय आने के पूर्व जो धातु आत्मनेपदी रही हो. . सधिः -VI. iii. 94 उससे) सन्नन्त से (भी पूर्ववत् आत्मनेपद होता है)। (सह शब्द को) सध्रि आदेश होता है,(वप्रत्ययान्त अञ्ज सन- VI. iv. 45 धातु के उत्तरपद रहते)। (क्तिच् प्रत्यय परे रहते) सन् अङ्ग को (आकारादेश सन्-I. 1.8 हो जाता है तथा विकल्प से इसका लोप भी होता है)। (रुद,विद,मुष,ग्रह,स्वप तथा प्रच्छ-इन धातुओं से सनाधन्ता-III. I. 32 परे) सन् (और वत्त्वा) प्रत्यय (कित्वत् होते हैं)। सन् आदि प्रत्यय अन्त में हैं जिनके,ऐसे समुदाय (धातुसन्-I. 1. 26 संज्ञक होते है)। (इकार, उकार उपधावाली रलन्त एवं हलादि धातुओं ...सनाम्-VII. 1. 49 से परे सेट) सन् प्रत्यय (और सेट् क्त्वा प्रत्यय विकल्प देखें-इवन्तर्घO VII. 1. 49 से कित् नहीं होते)। सनाशंसभिक्ष:-III. ii. 168 सन्...-II. iv.51 सन्नन्त धातुओं से तथा आपूर्वक शसि एवं भिक्ष देखें-संश्चडझे II. iv.51 धातुओं से (तच्छीलादि कर्ता हों, तो वर्तमानकाल में उ सन्-III. 1.5 प्रत्यय होता है)। (गुप्, तिज और कित् धातुओं से स्वार्थ में) सन् प्रत्यय सनि - II. iv. 48 होता है। (आर्धधातुक) सन् परे रहते (भी अबोधनार्थक इण को सन्...-III. II. 168 देखें-सनाशंस III. II. 168 गम् आदेश होता है)। Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 529 सनि-VI. iv. 16 ...सनो:-I. 1.92 (अजन्त अङ्ग तथा हन एवं गम् अङ्ग को झलादि) देखें-स्यसनो: I. iil. 92 सन् परे रहने पर (दीर्घ होता है)। ...सनो:-II. iv. 37 सनि-VII. ii. 12 देखें- लुड्सनो: II. iv. 37 (ग्रह, गुह तथा इगन्त अङ्ग को) सन प्रत्यय परे रहते ...सनो:- VIII. iii. 117 (इट का आगम नहीं होता है)। देखें-स्यसनो: VIII. iii. 117 सनि-VII. ii. 41 सनोते:- VIII. iii. 108 वृतथा ऋकारान्त धातुओं से उत्तर सन् आर्धधातुक को (अनकारान्त) सन् धातु के (सकार को वेदविषय में विकल्प से इट् आगम होता है)। मूर्धन्य आदेश होता है)। सनि-VII. ii. 49 सन्तापादिभ्यः-v.i. 100 (इव अन्त में है जिनके, उनसे तथा ऋधु वृद्धौ','प्रस्ज (चतुर्थीसमर्थ) सन्तापादि प्रातिपदिकों से (शक्त है' पाके', 'दम्भु दम्भे" श्रिज् सेवायाम्"स्वृ शब्दोपतापयो, अर्थ में यथाविहित ठञ् प्रत्यय होता है)। 'य मिश्रणे', 'ऊर्ण आच्छादने', 'भृ''भरणे',ज्ञपि,सन् सन्धिवेलादि...- IV. iii. 16 -इन धातुओं से) उत्तर सन् को (विकल्प से इट् आगम देखें-सन्धिवेलाचतुनक्षत्रेभ्यः IV. iii. 16 होता है)। सन्धिवेलातुनक्षत्रेभ्यः- IV. iii. 16 सनि- VII. ii. 74 सन्धिवेलादिगण पठित शब्दों से, ऋतुवाची एवं नक्ष(स्मिङ्, पू,ऋ, अन, अशू-इन अङ्गों के) सन् को अजू, अशू इन अङ्गा का सन्का . त्रवाची शब्दों से (अण् प्रत्यय होता है)। (इट् आगम होता है)। सन्नतर:-I.ii. 40 सनि-VII. iv. 54 (मी,मा, तथा घुसज्ञक एवं रभ, डुलभष, शक्ल, पत्ल (उदात्तपरक तथा स्वरितपरक अनुदात्त को) सन्नतर= और पद अगों के अच के स्थान में इस आदेश होता अनुदात्ततर (आदेश हो जाता है)। है, सकारादि) सन् के परे रहते। सन्निकर्ष:-I. iv. 108 सनि-VII. iv.79 - (वर्षों के अतिशयित) समीपता की (संहिता संज्ञा होती । सन् परे रहते (अकारान्त अभ्यास को इत्व होता है)। सनिससनिवांसम्-VII. ii. 69 सन्निविश्य:- VII. ii. 24 - 'सनिससनिवांसम्- यह शब्द निपातन किया जाता सम,नि तथा वि उपसर्ग से उत्तर (अर्दु धातु को निष्ठा परे रहते इट् आगम नहीं होता)। ...सनीड...-VI. ii. 23 सन्महत्परमोत्तमोत्कृष्टाः-II. 1. 60 देखें- संविधसनीड VI. ii. 23 सत्,महत्, परम,उत्तम, उत्कृष्ट -ये शब्द (समानाधि...सनुतात्- IV. iv. 114 करण पूज्यवाची सुबन्तों के साथ विकल्प से समास को देखें-सगर्भसयूथ IV. iv. 114 प्राप्त होते हैं और वह तत्पुरुष समास होता है)। सनुम-VIII. iv. 31 सन्यडो: -VI.i.9 (उपसर्ग में स्थित निमित्त से उत्तर इच आदि वाला) जो सन्नन्त तथा यङन्त धातु के (अभ्यास अवयव प्रथम नुम-सहित (हलन्त धातु) उससे विहित (जो कृत् प्रत्यय, एकाच तथा अजादि के द्वितीय एकाच को द्वित्व होता तत्स्थ नकार को अच् से उत्तर णकार आदेश होता है)। है)। Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्वत् सन्वत् - VII. Iv. 93 (चङ्परकणि के परे रहते अङ्ग के अभ्यास को लघु धात्वक्षर परे रहते) सन् के समान कार्य होता है, (यदि अङ्ग के अक् प्रत्याहार का लोप न हुआ हो तो)। सन्लिटो:- VII. iii. 57 (अभ्यास से उत्तर जि अङ्ग को) सन् तथा लिट् परे रहते (कवर्गादेश होता है)। 530 सपने - IV. 1. 145 (प्रातृ शब्द से) सपत्न अर्थात् शत्रु वाच्य हो (तो व्यन् प्रत्यय होता है)। सपल्यादिषु - IV. 1. 35 सपल्यादियों में (जो पति शब्द उससे स्त्रीलिङ्ग ङीप् प्रत्यय तथा नकारादेश नित्य ही में हो जाता है) 1 सपत्र... - Viv. 61 देखें- सपत्रनिष्पत्रात् V. iv. 61 पत्रनिष्पत्रात् - Viv. 61 सपत्र तथा निष्पत्र प्रातिपदिकों से (अपीडन' गम्यमान हो तो कृञ् के योग में डाच् प्रत्यय होता है) । सपिण्डे - IV. 1. 165 (भाई से अन्य) सात पीढियों में से कोई (पद तथा आयु दोनों में बूढ़ा व्यक्ति जीवित हो तो पौत्रप्रभृति का जो अपत्य उसके जीते ही विकल्प से युवा संज्ञा होती है, पक्ष में गोत्रसंज्ञा) । पूर्वपदात् - V. 1. 111 विद्यमान है पूर्वपद जिसके, (ऐसे प्रयोजन समानाधिकरणवाची प्रथमासमर्थ समापन प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ में छ प्रत्यय होता है)। पूर्वस्य - IV. 1. 34 जिसके पूर्व में कोई शब्द विद्यमान हो, (ऐसे पतिशब्दान्त अनुपसर्जन) प्रातिपदिक को (स्त्रीलिङ्ग में ङीप् प्रत्यय विकल्प से हो जाता है, ङीप् न होने पर नकारादेश भी नहीं होगा) । पूर्वात् - V. 11.87 विद्यमान है पूर्व में कोई शब्द जिस (पूर्व) प्रातिपदिक ऐसे (प्रथमासमर्थ पूर्व) शब्द से (भी 'इसके द्वारा' अर्थ में इन प्रत्यय होता है)। सपूर्वाया:- VIII. 1. 27 विद्यमान है पूर्व में कोई (पद) जिससे, ऐसे (प्रथमान्त पद) से उत्तर (षष्ठ्यन्त, चतुर्थ्यन्त तथा द्वितीयान्त युष्मद् अस्मद् शब्दों को विकल्प से वाम्, नौ आदि आदेश नहीं होते) । ... सप्तति... - V. 1. 58 देखें- पंक्तिविंशतिo V. 1. 58 सप्तन:- V. 1. 60 सप्तमी (परिमाण समानाधिकरणवाले) प्रथमासमर्थ सप्तन् प्रातिपदिक से (षष्ठ्यर्थ में अज् प्रत्यय होता है, वेदविषय में, वर्ग अभिधेय होने पर) । सप्तमी - II. 1. 39 सप्तमीविभक्त्यन्त सुबन्त (शौण्ड इत्यादि समर्थ सुबन्तों के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होता है और वह तत्पुरुष समास होता है)। सप्तमी... - II. 1. 35 देखें- सप्तमीविशेषणे II. ii. 35 सप्तमी... - II. iii. 7 देखें- सप्तमीपञ्चम्यौ II. iii. 7 सप्तमी - II. iii. 9 ( जिससे अधिक हो और जिसका ईश्वरवचन हो, उस कर्मप्रवचनीय के योग में) सप्तमी विभक्ति होती है। सप्तमी - II. iii. 36 (अनभिहित अधिकरण कारक में और दूरार्थक तथा अन्तिकार्थक शब्दों से) सप्तमी विभक्ति होती है। सप्तमी - II. iii. 43 (साधु और निपुण शब्द के योग में) सप्तमी विभक्ति होती है, (यदि प्रति का प्रयोग न हो और अर्चा गम्यमान होतो) । सप्तमी... - V. iii. 27 देखें- सप्तमीपञ्चमीप्रथमाभ्य: V. iii. 27 ... सप्तमी... - VI. ii. 2 देखें - तुल्यार्थतृतीयाo VI. il. 2 सप्तमी - VI. 11. 32 (सिद्ध, शुष्क, पक्व तथा बन्ध शब्दों के उत्तरपद रहते अकालवाची) सप्तम्यन्त पूर्वपद को प्रकृतिस्वर होता है) । Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमी.... सप्तमी... - VI. 1. 65 देखें- सप्तमीहारिणौ VI. II. 65 531 सप्तमीपञ्चमीप्रथमाच्यः - V. 1. 27 (दिशा, देश और काल अर्थों में वर्तमान) सप्तम्यन्त, पञ्चम्यन्त तथा प्रथमान्त (दिशावाची) प्रातिपदिकों से (वार्थ में अस्तातिप्रत्यय होता है)। सप्तमीपञ्चम्यौ - II. iii. 7 (दो कारकों के बीच में जो काल और मार्ग, तद्वाची शब्दों में) सप्तमी और पञ्चमी विभक्ति होती है। सप्तमीविशेषणे - II. II. 35 सप्तम्यन्त पद तथा विशेषण (बहुव्रीहि समास में पूर्व प्रयुक्त होते हैं। सप्तमीस्थम् - III. 1. 92 (धातो:' सूत्र के अधिकार में) सप्तमीविभक्ति में स्थित पद की (उपपद संज्ञा होती है) । सप्तमीस्वात् - Viv. 82 (प्रति शब्द से उत्तर ठरस-शब्दान्त प्रातिपदिक से समासान्त अच् प्रत्यय होता है, यदि वह उरस् शब्द) सप्तमी विभक्ति के अर्थवाला हो तो । सप्तमीहारिणौ - VI. ii. 65 (हरण शब्द को छोड़कर धर्म्यवाची शब्दों के परे रहते) सप्तम्यन्त तथा हारिवाची पूर्वपद को (आद्युदात्त होता है)। हारि = आकर्षक, मोहक । सप्तम्यर्थे I. 1. 18 सप्तमी के अर्थ में ईकारान्त, उकारान्त शब्दरूप की प्रगृह्य संज्ञा होती है)। सप्तम्या:- V. iii. 10 (किम् सर्वनाम तथा बहु) सप्तम्यन्त प्रातिपदिकों से ( प्रत्यय होता है)। सप्तम्या:- VI. it. 152 सप्तम्यन्त से परे ( उत्तरपद पुण्य शब्द को अन्तोदात्त होता है। सप्तम्या - VI. 1. 8 हलन्त तथा अकारान्त शब्द से उत्तर सप्तमी विभक्ति का (उत्तरपद परे रहते अलुक् होता है, सञ्ज्ञाविषय में) । सप्तम्याम्- III II. 87 सप्तम्यन्त उपपद रहते (जन्' धातु से 'ड' प्रत्यय होता है भूतकाल में। सप्तम्याम् III. Iv. 49 (तृतीयान्त तथा सप्तम्यन्त उपपद हो तो (उपपूर्वक पीड, कथ तथा कं धातुओं से भी णमुल् प्रत्यय होता है)। ... सप्तम्यो:- 11. Iv. 85 देखें- तृतीयासप्तम्योः II. Iv. 85 ... सप्तम्योः - V. iv. 56 देखें - द्वितीयासप्तम्यो: V. Iv. 56 - सप्तानाम् VI. Iv. 125 (फण् आदि) सात धातुओं के (अवर्ण के स्थान में भी विकल्प से एत्त्व तथा अभ्यासलोप होता है; कित्, ङित् लिट् तथा सेट् थल परे रहते)। सम् सभा - II. iv. 23 (नव्कर्मधारयवर्जित राजा और अमनुष्य पूर्वपदवाला) सभा-शब्दान्त (तत्पुरुष नपुंसकलिंग में होता है)। सभायाः - IV. iv. 105 (सप्तमीसमर्थ) सभा प्रातिपदिक से (साधु अर्थ में य प्रत्यय होता है)। सभायाम् - VI. II. 98 (नपुंसकलिङ्ग वाले समास में) सभा शब्द उत्तरपद रहते (पूर्वपद को अन्तोदात्त होता है) । .. सम्... - I. 1. 21 ... देखें - अनुसंपरिष्यः I. I0. 21 सम्... - I. iii. 22 देखें समवप्रविभ्यः 1. III. 22 ... सम्... - I. iii. 30 देखें - निसमुपविष्य III. 30 सम्... - I. iii. 46 देखें - सम्प्रतिंभ्याम् I. iii. 46 #I.iii. 575 देखें- समुदाय I. III. 75 सम्... - III. iii. 63 देखें- समुपo III. iii. 63 Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्... सम्... - III. 1. 69 देखें- समुदो: III. iii. 69 .... सम्... - IV. 1. 115 देखें- संख्यासंभव IV. 1. 115 सम्... - V. 1. 28. देखें- सम्प्रोदश्व Vii. 28 .... सम्... - V. Iv. 79 देखें अवसमन्येभ्यः V. iv. 79 सम्... - VI. 1. 132 देखें - सम्परिभ्याम् VI. 1. 132 सम्... - VII. 1. 24 देखें - सन्निविष्यं VII. ii. 24 ... सम्... - VIII. 1. 6 देखें- प्रसमुपोदः VIII. 1. 6 ... सम... - II. 1. 30 देखें- पूर्वसदृशसमोनार्थ II. 1. 30 ... सम... - IV. Iv. 91 देखें - तार्यतुल्यo IV. iv. 91 सम: - I. 111.29 सम् उपसर्ग से उत्तर (अकर्मक गम् तथा ऋच्छ् धातुओं से आत्मनेपद होता है)। सम्:- I lil. 53 सम् उपसर्ग से उत्तर (गृ धातु से आत्मनेपद होता है, स्वीकार करने अर्थ में) । सम: - I iii. 54 से (तृतीया विभक्ति से युक्त) सम्-पूर्वक (चर् धातु) (आत्मनेपद होता है)। सम:- 1. 111.65 सम् उपसर्ग से उत्तर (क्ष्णु तेजने' धातु से आत्मनेपद होता है)। सम:- VI. 1. 92 सम् को (समि आदेश होता है, व-प्रत्ययान्त अञ्जु धातु के उत्तरपद रहते । सम: - VIII. 1. 5 सम् को (रु होता है, सुट् परे रहते, संहिता-विषय में) । 532 सम:- VIII. iii. 25 सम् के (मकार को मकारादेश होता है, क्विप्-प्रत्ययान्त राजू धातु के परे रहते । समर्थाभ्याम् समज... - III. iil. 99 देखें- समजनिषदo III. iii. 99 समजनिषदनिपतमनविदशीत्रिणः - III. III. 99 (सञ्ज्ञाविषय में) सम्-पूर्वक अज, निपूर्वक सद, तथा पत, मन, विद, षुञ, शीङ, भृञ तथा इण् धातुओं से (स्त्रीलिङ्ग में कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में क्यप् प्रत्यय होता है)। ... समम् - VI. ii. 121 देखें - कूलतीर VI. ii. 121 ... समय... - III. iii. 167 देखें - कालसमयवेलासु III. 1. 167 समय:- V. 1. 103 (प्रथमासमर्थ) समय प्रातिपदिक से (षष्ठ्यर्थ में यथाविहित ठञ् प्रत्यय होता है, यदि वह प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक प्राप्त समानाधिकरणवाला हो तो)। समयात् - Viv. 60 ( बिताना' अर्थ गम्यमान हो तो) समय प्रातिपदिक से ( भी डाच् प्रत्यय होता है, कृञ् के योग में) । समर्थ:- II. 1. 1 (पदों की विधि) समर्थ = परस्पर सम्बद्ध अर्थ वाले (पदों की होती है)। समर्थयो: :- II. iii. 57 समानार्थक व्यवह और पण् धातुओं के (कर्म कारक में शेष विवक्षित होने पर षष्ठी विभक्ति होती है) । समर्थयो:- III. iii. 152 समानार्थक (उत, अपि) उपपद हों तो (धातु से लिङ् प्रत्यय होता है)। समर्थानाम् – IV. 1. 82 [यहाँ से लेकर 'प्राग्दिशो विभक्तिः' (5.3.1) तक कहे जाने वाले प्रत्यय] समर्थों में (जो प्रथम, उनसे विकल्प से होते हैं। समर्थाभ्याम् – IIII. 42 - समान = तुल्य अर्थ वाले (प्र तथा उप उपसर्ग) से उत्तर (क्रम् धातु से आत्मनेपद होता है)। Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्थाभ्याम् समर्थाभ्याम् - -VIII. i. 65 समान अर्थ वाले (एक तथा अन्य) शब्दों से युक्त (प्रथम तिङन्त को विकल्प से वेदविषय में अनुदात्त नहीं होता) । ... समर्याद... - VI. ii. 23 1. देखें - सविधस्नीso VI. ii. 23 समवप्रविभ्यः- 1. iii. 22 सम्, अव, प्र तथा वि उपसर्ग से उत्तर (स्था धातु से आत्मनेपद होता है) । समवायान् - IV. iv. 43 (द्वितीयासमर्थ) समूहवाची प्रातिपदिकों से (समवेत होता है'- अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है ) । समवाये - VI. 1. 133 समुदाय अर्थ में (भी कृ धातु परे हो तो सम् तथा परि से उत्तर ककार, से पूर्व सुट् का आगम होता है, संहिता के विषय में) । ... समः - VIII. iii. 88 देखें - सुपिसूतिसमा: VIII. iii. 88 ... समान... - II. 1. 57 देखें - पूर्वापरप्रथम II. 1. 57 ... समान... - IV. 1. 30 देखें- केवलमामकo IV. 1. 30 समानकर्तृकयोः - III. iv. 21 दो क्रियाओं का एक कर्ता होने पर (उनमें से पूर्वकाल में वर्तमान धातु से क्त्वा प्रत्यय होता है) । समानकर्तृका - III. 1. 4 (इच्छा क्रिया के कर्म का अवयव), जो इच्छा क्रिया का समानकर्तृक अर्थात् इष् धातु के साथ समान कर्ता वाला हो, उस (धातु) से (विकल्प करके सन् प्रत्यय होता है) । समानकर्तृकेषु - III. iii. 158 533 समान है कर्ता जिसका, ऐसी (इच्छार्थक) धातुओं के उपपद रहते (धातु से तुमुन् प्रत्यय होता है)। समानकर्मकाणाम् - III. iv. 48 (अनुप्रयुक्त धातु के साथ) समान कर्मवाली (हिंसार्थक ) धातुओं से भी तृतीयान्त उपपद रहते णमुल् प्रत्यय होता है)। समानाधिकरणे समानतीर्थे - IV. iv. 107 (सप्तमीसमर्थ) समानतीर्थ प्रातिपदिक से (रहने वाला' अर्थ में यत् प्रत्यय होता है)। समानपदे - VIII. iv. 1 (रेफ तथा षकार से उत्तर नकार को णकारादेश होता है) एक ही पद में। समानपादे - VIII. iii. 9 (दीर्घ से उत्तर नकारान्त पद को अट् परे रहते पादबद्ध मन्त्रों में रु होता है, यदि निमित्त तथा निमित्ती दोनों) एक ही पाद में हों। समानशब्दानाम्- IV. iii. 100 (बहुवचनविषय में वर्तमान जो जनपद के) समान ही (क्षत्रियवाची प्रातिपदिक, उनको जनपद की भांति ही सारे कार्य हो जाते हैं)। समानस्य - VI. iii. 83 (वेदविषय में) समान शब्द को (स आदेश हो जाता है; मूर्धन्, प्रभृति, उदर्क उत्तरपद न हों तो)। समानाधिकरण... - VI. iii. 45 देखें- समानाधिकरणजातीययो: VI. iii. 45 समानाधिकरण:- I. ii. 42 समान है अधिकरण = आश्रय जिनका, ऐसे पदों वाला (तत्पुरुष कर्मधारयसंज्ञक होता है)। समानाधिकरणजातीययो: - VI. iii. 45 समानाधिकरण उत्तरपद रहते तथा जातीय प्रत्यय परे रहते (महत् शब्द को आकारादेश होता है)। समानाधिकरणे - I. iv. 104 (युष्मद् शब्द के उपपद रहते) समान अभिधेय होने पर (युष्मद् शब्द का प्रयोग न हो या हो तो भी मध्यम पुरुष होता है)। समानाधिकरणे - VI. iii. 33 (एक ही अर्थ में अर्थात् एक ही प्रवृतिनिमित्त को लेकर भाषित = कहा है पुँल्लिङ्ग अर्थ को जिस शब्द ने, ऐसे ऊङ्वर्जित भाषितपुंस्क स्त्री शब्द के स्थान में पुंल्लिङ्गवाची शब्द के समान रूप हो जाता है, पूरणी तथा प्रियादिवर्जित स्त्रीलिङ्ग) समानाधिकरण उत्तरपद परे हो तो । Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समानाधिकरणे समानाधिकरणे - VIII. 1. 73 समान अधिकरण वाला (आमन्त्रित) पद परे हो, तो (उससे पूर्ववाला आमन्त्रित पद अविद्यमानवत् न हो) । समानाधिकरणेन - II. 1. 48 सुबन्त पूर्वकाल, एक, सर्व, जरत्, पुराण, नव, केवल शब्द) समानाधिकरण (सुबन्त) के साथ (विकल्प से समास को प्राप्त होते हैं और वह समास तत्पुरुषसंज्ञक होता है)। ... समानाधिकरणेन - II. 1. 11 देखें- पूरणगुणसुहितार्थ II. II. 11. समानाम् - III. 10 बराबर सङ्ख्या वाले शब्दों के स्थान में (पीछे आने वाले शब्द यथाक्रम होते हैं)। समानोदरे - IV. iv. 108 (सप्तमीसमर्थ) समानोदर प्रातिपदिक से (शयन किया हुआ' अर्थ में यत् प्रत्यय होता है तथा समानोदर शब्द के ओकार को उदात्त होता है)। समापनात् - V. 1. 111 (विद्यमान है पूर्वपद जिसके, ऐसे प्रयोजन समानाधिकरणवाची प्रथमासमर्थ) समापन प्रातिपदिक से (षष्ठ्यर्थ में छ प्रत्यय होता है)। समाया - V. 1. 84 (द्वितीयासमर्थ) समा प्रातिपदिक से (सत्कारपूर्वक व्यापार', 'खरीदा हुआ', 'हो चुका' तथा 'होने वाला' - इन अर्थों में ख प्रत्यय होता है)। समास - II. 1. 3 (प्रकृत सूत्र से आगे 'कडारा: कर्मधारये ' से पूर्व विहित अव्ययीभावादि की) 'समास' संज्ञा होती है। यह अधिकार है। 534 समासतौ - III. Iv. 50 सन्निकटता गम्यमान हो तो (तृतीयान्त तथा सप्तम्यन्त उपपद रहते धातु से णमुल् प्रत्यय होता है)। समासस्य - VI. 1. 27 समास का (अन्त उदात्त होता है)। ... समास - I. 11. 46 देखें - कृतद्धितसमासाः I. II. 46 समांसमाम् समासात् - V. iil. 106 (इवार्थ विषय है जिसका, ऐसे) समास में वर्तमान प्रातिपदिक से (भी इवार्थ में छ प्रत्यय होता है) । . समासान्ता: - Viv. 68 (यहाँ से आगे कहे जाने वाले प्रत्यय) समास के एकदेश होंगे। समासे - 1. II. 43 समासविधायक सूत्रों से (जो प्रथमा विभक्ति से निर्दिष्ट पद, वह उपसर्जनसंज्ञक होता है)। समासे - I. iv. 8 (पति शब्द) समास में (ही विसञ्ज्ञक होता है)। समासे - VI. ii. 178 समासमात्र में (उपसर्ग के बाद उत्तरपद वन शब्द को अन्तोदात्त होता है)। समासे - VII. 1. 37 (न से भिन्न पूर्व अवयव है जिसमें, ऐसे) समास में (क्त्वा के स्थान में ल्यप् आदेश होता है) । समासे - VIII. iii. 45 (अनुत्तरपदस्थ इस्, उस् के विसर्जनीय की) समासविषय में (नित्य ही षत्व होता है; कवर्ग, पवर्ग परे रहते) । समासे - VIIL IH. 80 समास में (अङ्गुलि शब्द से उत्तर सङ्ग के सकार को मूर्धन्य आदेश होता है)। I समाहारः - I. 1. 31 समाहार = उदात्त, अनुदात्त उभयगुणमिश्रित (अच् की स्वरित संज्ञा होती है)। .... समाहारे - II. 1. 50 देखें - तद्धितार्थोत्तरपदo II. 1. 50 समाहारे - V. iv. 107 समाहार द्वन्द्व में वर्तमान (चवर्गान्त, दकारान्त तथा षकारान्त शब्दों से समासान्त टच् प्रत्यय होता है)। समांसमाम् - V. II. 12 (द्वितीयासमर्थ) समांसमाम् प्रातिपदिक से (बच्चा देती है', अर्थ में ख. प्रत्यय होता है)। Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समि समि - III. 1. 7 सम्-उपसर्गपूर्वक (ख्या धातु से कर्म उपपद रहते 'क' प्रत्यय होता है)। समि - III. iii. 23 सम्-पूर्वक (यु, द्रु तथा दु धातुओं से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा' तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है)। समि - III. iii. 31 (यज्ञविषय में) सम्पूर्वक (स्तु धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञाविषय में घञ् प्रत्यय होता है)। 535 समि- VI. iii. 93 (सम्को) समि आदेश होता है, (वप्रत्ययान्त अनु धातु के उत्तरपद रहते । ... समित... - IV. Iv. 91 'देखें - तार्यतुल्यo IV. Iv. 91 ... समीप... - II. 1. 6 देखें - विभक्तिसमीपसमृद्धि II. 1. 6 समि - III. iii. 36 सम्पूर्वक (ग्रह धातु से कर्तृभिन्न संज्ञा तथा भाव में मुट्ठी .समूलयो:- III. Iv. 34 अर्थ होने पर में घञ्प्रत्यय होता है) । समीपे - II. iv. 16 (अधिकरण के परिमाण का) समीप अर्थ कहना हो तो (द्वन्द्व समास में विकल्प से एकवद्भाव होता है)। ... समुच्चयेषु - I. Iv. 95 देखें- पंदार्थसम्भावनान्ववसर्गo I. Iv. 95 समुच्चारणे - I. 1. 48 (स्पष्ट वाणी वालों के) सहोच्चारण = एक साथ उच्चारण करने अर्थ में (वर्तमान वद् धातु से आत्मनेपद होता है) । समुदाय - I. iii. 75 सम्, उत् एवम् आङ् उपसर्ग से उत्तर (यम् धातु से ग्रन्थ-विषयक प्रयोग न हो तो क्रियाफल के कर्ता को मिलने पर आत्मनेपद होता है) । समुदो:- III. III. 69 सम् उत् पूर्वक (अज् धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में, समुदाय से पशुविषय प्रतीत हो तो अप् प्रत्यय होता है)। समुद्र... - IV. iv. 118 देखें- समुद्राभ्रात् IV. iv. 118 समुद्राप्रात् - IV. iv. 118 (सप्तमीसमर्थ) समुद्र और अभ्र प्रातिपदिकों से (वेदविषयक भवार्थ में घ प्रत्यय होता है)। समुपनिविषु - III. 1. 63 सम्, उप, नि, वि उपसर्गपूर्वक (तथा विना उपसर्ग भी यम् धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में विकल्प से अप् प्रत्यय होता है, (पक्ष में घञ्) । समूल... - III. Iv. 36 देखें- समूलाकृतजीवेषु III. iv. 36 सम्पदा देखें - निमूलसमूलयो: III. Iv. 34. समूलाकृतजीवेषु - III. Iv. 36 समूल, अकृत तथा जीव कर्म उपपद हों तो (यथासङ्ख्य करके हन्, कृव् तथा ग्रह धातुओं से णमुल् प्रत्यय होता है)। समूह - IV. 1. 36 (समर्थों में जो षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिक, उससे) समूह अर्थ को कहना हो (तो यथाविहित प्रत्यय होता है) । समूहवत् - Viv. 22 ('बहुत' अर्थ को कहने में प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से) 'तस्य समूह:' IV. ii. 36 के अधिकार में कहे हुए प्रत्ययों के समान प्रत्यय होते हैं (तथा मयट् प्रत्यय भी होता है)। समूह - IV. Iv. 140 (वसु प्रातिपदिक से) समूह (तथा मयट) के अर्थ में (यत् प्रत्यय होता है, वेदविषय में)। ....समूहाः - III. 1. 131 देखें- परिचाय्योपचाय्यo III. 1. 131 ... समृद्धि... - II.1.7 देखें- विभक्तिसमीपसमृद्धि II. 1. 7 ... सम्पत्ति... - II. 1. 7 देखें - विभक्तिसमीपसमृद्धि II. 1. 7 सम्पदा - Viv. 53 ( अभिव्याप्ति' गम्यमान हो तो कृ, भू तथा अस् धातु . के योग में तथा) सम्-पूर्वक पद धातु के योग में (भी विकल्प से साति प्रत्यय होता है)। Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पचकर्तरि सम्पकर्तरि -V. iv. 50 (कृ, भू तथा अस् धातु के योग में अभूततद्भाव गम्यमान होने पर) सम् पूर्वक पद् धातु के कर्ता में (वर्तमान प्रातिपदिक से च्चि प्रत्यय होता है)। सम्परिपूर्वात् - V. 1.91 (द्वितीयासमर्थ) सम् तथा परि पूर्व वाले (वत्सरशब्दान्त प्रातिपदिकसे 'सत्कारपूर्वक व्यापार', 'खरीदा हुआ', 'हो 'चुका' तथा 'होने वाला' इन अर्थों में ख तथा छ प्रत्यय होते हैं)। सम्परिभ्याम् - VI. 1. 131 (भूषण अर्थ में) सम् तथा परि उपसर्ग से उत्तर (कृ धातु परे रहते, कार से पूर्व सुट् का आगम होता है, संहिता के विषय में)। सम्पादि... - VI. ii. 155 देखें- संपाधार्ह VI. I. 155 सम्पादिनि - V. 1. 98 536 (तृतीयासमर्थ प्रातिपदिक से) 'शोभित किया' अर्थ में (यथाविहित ठञ् प्रत्यय होता है)। सम्पाद्यर्हहितामर्था: - VI. II. 155 (गुण के प्रतिषेध अर्थ में वर्तमान नञ् से उत्तर) संपादि, अर्ह, हित, अलम् अर्थ वाले (तद्धितप्रत्ययान्त उत्तरपद को अन्तोदात्त होता है)। सम्पूच... - III. II. 142 देखें - सम्पृचानुरुष III. 1. 142 सम्पृचानुरुधाङ्यमाङ्यसपरिसृसंसृजपरिदेविसंज्वरपरिक्षिपपरिष्टपरिवदपरिदहपरिमुहदुषद्विषद्रुहदुहयुजाक्रीडविविचत्यजरजभजातिचरापचरामुवाध्याहनः - III. ii. 142 सम्पूर्वक पृची सम्पर्के, अनुपूर्वक रुधिर् आवरणे, आङ्पूर्वक यम उपरमे, आङ्पूर्वक यसु प्रयत्ने, परिपूर्वक सृ गतौ, सम्पूर्वक सृज विसर्गे, परिपूर्वक देवृ प्रयत्ले, सम् पूर्वक ज्वर रोगे, परिपूर्वक क्षिप प्रेरणे, परिपूर्वक रट परिभाषणे, परिपूर्वक वद, परिपूर्वक दह भस्मीकरणे, परिपूर्वक मुह वैचित्ये, दुष वैकृत्ये, द्विष अप्रीतौ, द्रुह् जिघांसायाम्, दुह प्रपूरणे, युजिर योगे अथवा युज समाधौ, पूर्वक क्रीड विहारे, विपूर्वक विचिर् पृथग्भावे, त्यज हानौ, र रागे, भज सेवायाम, अतिपूर्वक चर गतौ, अप सम्प्रसारणम् पूर्वक चर, मुष स्तेये, अभि, आङ् पूर्वक हन् – इन धातुओं से भी तच्छीलादि कर्ता हों तो वर्तमान काल में घिनुण् प्रत्यय होता है)। सम्प्रतिभ्याम् - Iiii. 46 सम् एवं प्रति उपसर्ग से युक्त (ज्ञा धातु से आत्मनेपद होता है, उत्कण्ठा-पूर्वक स्मरण अर्थ न हो तो) सम्प्रदानम् - I. iv. 32 रणभूत कर्म के द्वारा जिसको अभिप्रेत किया जाये, वह कारक) सम्प्रदानसंज्ञक होता है। सम्प्रदानम् - I. iv. 44 (परिक्रयण में जो साधकतम कारक, उसकी विकल्प से) सम्प्रदान संज्ञा होती है। सम्प्रदाने - II. iii. 13 (अनभिहित) सम्प्रदान कारक में (चतुर्थी विभक्ति होती है) । सम्प्रदाने - III. iv. 73 (दाश और गोष्न कृदन्त शब्द) सम्प्रदान कारक में ( निपातन किये जाते हैं)। ... सम्प्रश्न... - III. iii. 161 देखें- विधिनिमन्त्रण III. iii. 161 सम्प्रसारणम् - I. 1. 44 (य के स्थान में हुए या होने वाले इक् की) संप्रसारण संज्ञा होती है)। सम्प्रसारणम् - III. iii. 72 (नि, अभि, उप तथा वि पूर्वक ह्वेञ् धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में अप् प्रत्यय होता है तथा हेञ् को) सम्प्रसारण भी होता है। सम्प्रसारणम् - Vii. 55 (षष्ठीसमर्थ त्रि प्रातिपदिक से 'पूरण' अर्थ में तीय प्रत्यय होता है तथा प्रत्यय के साथ-साथ त्रि को ) सम्प्रसारण भी हो जाता है। सम्प्रसारणम् - VI. 1. 13 (ष्य को सम्प्रसारण होता है, (यदि पुत्र तथा पति शब्द उत्तरपद हों तो, तत्पुरुष समास में) । Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्प्रसारणम् 537 सम्भूते सम्प्रसारणम् -VI.1. 32 (सन्परक,चङ्परक णि के परे रहते ह्वेज् धातु को) सम्प्र- सारण हो जाता है सम्प्रसारणम्-VI.1.37 (सम्प्रसारण के परे रहते) सम्प्रसारण नहीं होता है। समासारणम्-VI. iv. 131 (भसजक वस्वन्त अङ्ग को) सम्प्रसारण होता है। समप्रसारणम्-VII. iv.67 (घुत दीप्तौ' तथा ण्यन्त स्वपि अङ्ग के अभ्यास को) सम्मसारण होता है। . सम्प्रसारणस्य-VI. ill. 138 सम्प्रसारणान्त (पूर्वपद) के (अण् को उत्तरपद परे रहते दीर्घ होता है)। सम्मप्रसारणात्- VI. 1. 104 सम्प्रसारणसञक वर्ण से उत्तर (अच् परे हो तो भी पूर्व, पर के स्थान में पूर्वरूप एकादेश होता है)। समासारणे-VI.1.37 · सम्प्रसारण के परे रहते (सम्प्रसारण नहीं होता है)। समोदश्व-v.1.29 सम्, प्र, उत् तथा वि -इन उपसर्ग प्रातिपदिकों से (कटच् प्रत्यय होता है)। सम्बुद्धि-II. III. 48 (आमन्त्रित प्रथमा के एकवचन की) सम्बुद्धि संज्ञा होती सम्बुद्धौ- VII. I. 11 सम्बुद्धि परे रहते (चतुर् तथा अनडुह अङ्गों को (अम् आगम होता है)। सम्बुद्धौ- VIII. iii.1 (मत्वन्त तथा वस्वन्त पद को संहिता में) सम्बुद्धि परे रहते (वेदविषय में रु आदेश होता है)। सम्बुद्धौ- VII. il. 167 सम्बुद्धि परे रहते (भी आबन्त अङ्ग को सकारादेश होता है)। ...सम्बुद्ध्यो :- VIII. ii.8 देखें-डिसम्बुद्ध्योः VIII. ii. 8 सम्बोधने-II. iii. 47 सम्बोधने = आभिमुख्यकरण में (भी प्रथमा विभक्ति होती है)। सम्बोधने-III. ii. 125 सम्बोधन विषय में (भी धातु से लट् के स्थान में शत, . शानच् आदेश होते है। सम्भवति-V.1.51 (द्वितीयासमर्थ प्रातिपदिक से) 'सम्भव है' (अवहरण करता है' और 'पकाता है' अर्थों में यथाविहित प्रत्यय होता है)। ....सम्भावन...-1..95 देखें-पदार्थसम्भावनान्ववसर्ग I. V.95 सम्भावनवचने-- III. Ill. 155 सम्भावन अर्थ के कहने वाला (धातु) उपपद हो तो (यत् शब्द उपपद न होने पर सम्भावन अर्थ में वर्तमान धात से विकल्प से लिङ् प्रत्यय होता है,यदि अलम् शब्द का अप्रयोग सिद्ध हो)। सम्भावने-III. II. 154 (पर्याप्तिविशिष्ट) सम्भावन अर्थ में वर्तमान (धातु से लिङ् प्रत्यय होता है,यदि अलम् शब्द का अप्रयोग सिद्ध हो रहा हो)। सम्भूते - IV.II. 41 (सप्तमीसमर्थ प्रातिपदिक से) सम्भव अर्थ में (यथाविहित प्रत्यय होता है)। सम्बु- V.1.68 (एन्त तथा हस्वान्त प्रातिपदिक से उत्तर हल् का लोप होता है, यदि वह हल्) सम्बुद्धि का हो तो। सम्बुद्धी-I.1.16 (आचार्य शाकल्य के अनुसार, वैदिकेतर 'इति' शब्द के परे) सम्बुद्धि' संज्ञा के निमित्तभूत (ओकार की प्रगृह्म संशा होती है)। सम्बु-. 1. 33 (दूर से) सम्बोधन = बुलाने में (वाक्य एकश्रुति हो जाता Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 538 .. . ...सम्भ्यः -III. II. 180 ...सरजस...- V. iv.77 देखें-विप्रसम्य:III. II. 180 देखें- अचतुर0 V. iv.77 ....सम्भ्याम्-V.iv. 129 ...सरसाम्- V. iv.94 देखें-प्रसम्भ्याम् V. iv. 129 देखें- अनोश्मायःo V. iv.94 ..सम्मति...- VIII.1.8 सरीसृपतम्-VII. iv.65 देखें-असूयासम्मति VIII.1.8 सरीसृपतम् शब्द वेदविषय में निपातन किया जाता है। ...सम्मति...-VIII. 1. 103 देखें- असूयासम्मतिः VIII. ii. 103 सरूपाणाम्-I. 1.63 ...सम्मदौ-III. III.68 समान रूप वाले शब्दों में से (एक शेष रह जाता है, देखें-प्रमदसम्मदौ III. Iii. 68 . अन्य हट जाते हैं, एक विभक्ति के परे रहते)। सम्मानन...-1.1.36 सख्ये-II. 1. 27 देखें-सम्माननोत्सझनाचार्य 1. 11. 36 समान रूप वाले से (सप्तम्यन्त तथा तृतीयान्त सुबन्त सम्मानन..-1.11.70 . 'इदम्' = यह, इस अर्थ में समास को प्राप्त होते हैं और देखें-सम्माननशालीनीकरणयोः I. 11.70 वह समास बहुव्रीहिसजक होता है)। सम्माननशालीनीकरणयो:-1.11.70 ....सर्ग...-I. 11. 38 सम्मानन = पूजन, शालीनीकरण = दबाना (तथा देखें-वत्तिसर्गतायनेषु I. iii. 38 प्रलम्भन = ठगना) अर्थ में (ण्यन्त ली धातु से आत्मनेपद सर्ति..-III.i.56 होता है)। देखें- सतिशास्त्यः II. 1. 56 सम्माननोत्सझनाचार्यकरणज्ञानभृतिविगणनव्ययेषु-I. ...सति..- VII. iii. 78 iil.36 देखें- पाघ्राध्या. VII. iii. 78 सम्मानन = पूजा,उत्सजन = उछालना, आचार्यकरण ...सतिभ्यः-III. ii. 163 = आचार्यक्रिया, ज्ञान = तत्त्वनिश्चय, भूति = वेतन, देखें-इनश III. il. 163 विगणन = अणादि का चुकाना,व्यय = धर्मादि कार्या सर्तिशास्त्यतिथ्य-III.1.56 में व्यय करना-न अर्थों में वर्तमान (णी धातु से स = गत्यर्थक,शासु तथा ऋ धातु से उत्तर (भी चिल आत्मनेपद होता है)। को अङ् आदेश होता है, कर्तृवाची लुङ्, परस्मैपद परे ...सम्मितेषु- IV. iv.91 रहते)। देखें- तार्यतुल्य Viv.91 सर्ते:-III. 1. 18 सम्मिती-V.iv. 135 सृ धातु से (पुरस्, अग्रतस् और अग्र उपपद रहते 'ट' (ततीयासमर्थ सहन प्रातिपदिक से) तुल्य अभिधेय हो । प्रत्यय होता है)। तो (ष प्रत्यय होता है)। सतें:-III. lil.71 ...सम्मुखस्य-v.1.6 देखें- यथामुखसम्मुखस्य V. 1.6 (प्रजन अर्थ में वर्तमान) स धातु से (अप् प्रत्यय होता ...सयूथ...-IV. iv. 114 है, कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में)। देखें- सगर्भसयूथ IV. iv. 114 ...सर्व...-II. 1. 48 ...सयो:-VII. 1.45 देखें- पूर्वकालैकसर्वजरत्o II. 1. 48 देखें-यासयो: VII. 11.45 - सर्व... -III. . 42 ...सर...- VII. II.9 देखें-तितु VII. 1.9 देखें- सर्वकूलाHo III. ii. 42 Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...सर्व... ... सर्व ... - III. 1. 48 देखें- अन्तात्त्यन्तo III. ii. 48 सर्व.... देखें - सर्वदेवात् IV. iv. 142 . - IV. iv. 142 सर्व... - V. 1. 10 देखें - सर्वपुरुवाभ्याम् V. 1. 10 सर्व... - V. iii. 15 देखें- सर्वेकान्यo V. iii. 15 सर्व... - V. iv. 87 देखें - सर्वैकदेशo Viv. 87 ... सर्व... - VII. iii. 12 देखें - सुसर्वार्थात् िVII. iii. 12 सर्वकूलाप्रकरीषेषु - III. ii. 42 सर्व, कूल, अभ्र, करीष—इन (कर्मों) के उपपद रहते (कष् धातु से खच् प्रत्यय होता है) । सर्वचर्मण:- Vali. 5 (तृतीयासमर्थ) सर्वचर्मन् प्रातिपदिक से (किया हुआ' अर्थ में ख तथा खञ् प्रत्यय होते हैं) । सर्वत्र - IV. 1. 18 (अनुपर्सजन यञन्त लोहित से लेकर कत पर्यन्त प्रातिपदिकों से स्त्रीलिङ्ग - विषय में ष्फ प्रत्यय होता है) सब आचार्यों के मत में (और वह तद्धितसंज्ञक होता है) । सर्वत्र - IV iii. 22 539 (हेमन्त प्रातिपदिक से) वैदिक तथा लौकिक प्रयोग में (अण् तथा ठञ् प्रत्यय होते है तथा उस अण् के परे रहने पर हेमन्त शब्द के तकार का लोप भी होता है) । सर्वत्र - VI. 1. 118 सर्वत्र छन्द तथा भाषाविषय दोनों में (गो शब्द के पदान्त एङ्को विकल्प से अकार परे रहते प्रकृतिभाव होता है)। सर्वत्र = - VIII. iv. 50 . (शाकल्य आचार्य के मत में) सर्वत्र अर्थात् त्रिप्रभृति अथवा अत्रिप्रभृति सर्वत्र (द्वित्व नहीं होता) । सर्वदेवात् - IV. Iv. 142 सर्व और देव प्रातिपदिकों से (वेदविषय में स्वार्थ में तातिल् प्रत्यय होता है)। सर्वनाम्नः सर्वधुरात् IV. iv. 78 (द्वितीयासमर्थ) सर्वधुर प्रातिपदिक से (ढोता है' अर्थ में ख प्रत्यय होता है)। ...सर्वनाम... - .-V. iii. 2 देखें- किंसर्वनामo V. iii. 2 सर्वनामस्थानम् - I. 1. 42 (शि' की) सर्वनामस्थान संज्ञा होती है। ...सर्वनामस्थानयो: - VII. iii. 110 देखें - डिसर्वनामस्थानयो: VII. iii. 110 सर्वनामस्थाने - VI. 1. 193 = नपुं (पथिन् तथा मथिन् शब्द को) सर्वनामस्थान सकलिंगभिन्न सुट् [ सु, औ, जस्, अम्, ट्] परे रहते (आदि उदात्त होता है)। सर्वनामस्थाने - VI. iv. 8 (सम्बुद्धिभिन्न) सर्वनामस्थान विभक्ति परे रहते (भी नकारान्त अङ्ग की उपधा को दीर्घ हो जाता है) । सर्वनामस्थाने - VII. 1. 70 (धातुवर्जित उक् इत्सञ्ज्ञक है जिनका ऐसे अङ्ग को तथा अनु धातु को) सर्वनामस्थान परे रहते (नुम् आगम होता है)। सर्वनामस्थाने - VII. 1. 86 (पथिन्, मथिन् तथा ऋभुक्षिन् अङ्गों के इक् के स्थान में अकारादेश होता है) सर्वनामस्थान परे रहते । सर्वनामानि - I. 1. 26 (सर्वादिगणपठित शब्दों की) सर्वनाम संज्ञा होती है। सर्वनाम्नः - II. III. 27 (हेतु शब्द के प्रयोग में तथा हेतु के विशेषणवाची) सर्वनामसञ्ज्ञक शब्द के (प्रयोग में हेतु द्योतित होने पर तृतीया और षष्ठी विभक्ति होती है)। सर्वनाम्नः - VI. iii. 10 सर्वनामसञ्ज्ञक शब्दों को (आकारादेश होता है; दृक् दृश, तथा वतुप् परे रहते) । सर्वनाम्नः - VII. 1. 14 (अकारान्त) सर्वनाम अङ्ग से उत्तर ('ङे' के स्थान में स्मै आदेश होता है) 1 Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वनाम्नः 540 सर्वेषाम् सर्वनाम्न: - VII. 1.52 ....सर्वलोकात्- V.i. 43 (अवर्णान्त) सर्वनाम से उत्तर (आम को सट का आगम देखें-लोकसर्वलोकात Vin. होता है)। सर्वस्य-1.1.54 सर्वनाम्नः- VII. iii. 115 (अनेकाल् एवं शिदादेश) सम्पूर्ण (षष्ठीनिर्दिष्ट) के स. (आबन्त) सर्वनाम अङ्ग से उत्तर (डित् प्रत्यय को स्याट् आगम होता है तथा उस आबन्त सर्वनाम को ह्रस्व सर्वस्य-v.ii. 6 भी हो जाता है)। सर्व शब्द के स्थान में (स आदेश विकल्प से होता है. ...सर्वनाम्नाम्- V. iii. 72 दकारादि प्रत्यय के परे रहते)। देखें- अव्ययसर्वनाम्नाम् V. ii. 72 सर्वस्य- VI. 1. 185 सर्वपुरुषाभ्याम्-v.i. 10 (सुप् परे रहते) सर्व शब्द के (आदि को उदात्त होता (चतुर्थीसमर्थ) सर्व तथा पुरुष प्रातिपदिकों से (हित' है)। अर्थ में यथासंख्य ण तथा ढञ् प्रत्यय होते हैं)। सर्वस्य- VIII.1.1 सर्वभूमि..-v.i. 40 (यहाँ से आगे 'पदस्य' VIII. i. 16 तक सूत्र से पहलेदेखें- सर्वभूमिपृथिवीभ्याम् V.i. 40 पहले जो भी कहेंगे, वहाँ) सब के स्थान में द्वित्व होता सर्वभूमिपृथिवीभ्याम्-v.i.40 है,ऐसा अर्थ होगा। यह अधिकारसूत्र है)। (षष्ठीसमर्थ) सर्वभूमि तथा पृथिवी प्रातिपदिकों से सर्वादीनि -I.1.27 (यथासङ्ख्य करके अण तथा अञ् प्रत्यय होते हैं 'कारण' ___सर्वादिगणपठित शब्दों (की सर्वनाम संज्ञा होती है)। टिम अर्थ में, यदि वह कारण संयोग वा उत्पात हो तो)। सर्वादः- V. 1.7 सर्वम्- IV. i. 100 सर्व शब्द आदि में है जिनके,ऐसे (द्वितीयासमर्थ पथिन, (बहुवचनविषय में वर्तमान जो.जनपद के समान ही। अङ्ग, कर्म, पत्र तथा पात्र प्रातिपदिकों से 'व्याप्त होता क्षत्रियवाची प्रातिपदिक, उनको जनपद की भांति ही) है' अर्थ में ख प्रत्यय होता है)। प्रकृति,प्रत्यय आदि सारे कार्य हो जाते है)। ....सर्वान..-.1.9 सर्वम्- VI. . 93 देखें- अनुपदसर्वान्न v.i.9 (गुणों की सम्पूर्णता अर्थ में वर्तमान पूर्वपद) सर्व शब्द सर्वान्यत्- VIII. I. 31 र को (अन्तोदात्त होता है)। (गति अर्थ वाले धातुओं के लोट् लकार से युक्त लुडन्त सर्वम्- VI. iii. 105 तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता, यदि कारक) सारा अन्य (उत्तरपदस्य' VII. ii. 10 सूत्र के अधिकार में कही (न हो तो)। हई जो वृद्धि,उस वृद्धि किये हुये शब्द के परे रहते) सर्व सर्वेभ्यः-III. iii. 20 शब्द (तथा दिक् शब्द पूर्वपद को अन्तोदात्त होता है)। सब धातुओं से (परिमाण की आख्या गम्यमान हो तो सर्वम्- VIII. 1. 18 घञ् प्रत्यय होता है)। (यहाँ से आगे 'तिङि चोदात्तवति' VIII. 1.71 तक सर्वेषाम् -VI. 1. 48 जो कुछ कहेंगे, वहाँ पाद के आदि में न हो तो) सारा सबको अर्थात दि.आपन तथा त्रिको (जो कछ भी कह (अनुदात्त होता है.ऐसा अधिकार जानना चाहिये)। आए हैं, वह चत्वारिंशत् आदि सङ्ख्या उत्तरपद रहते ...सर्वयोः-III. 1. 41 बहुव्रीहि समास तथा अशीति को छोड़कर विकल्प करके देखें-पू.सर्वयोः III. 1.41 हो)। Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वेषाम् 541 सर्वेषाम् – VII. iii. 100 (अद् अङ्ग से उत्तर हलादि अपृक्त सार्वधातुक को) सभी आचार्यों के मत में (अट् आगम होता है)। सर्वेषाम्- VIII. iii. 22 (भो भगो.अघो तथा अवर्ण पूर्ववाले पदान्त यकार का हल् परे रहते) सब आचार्यों के मत में (लोप होता है। सर्वैः-I. 1.72 . (त्यदादि शब्दरूप) सबके साथ अर्थात् त्यदादियों के साथ या त्यदादि से अन्यों के साथ भी (नित्य ही शेष रह जाता है, अन्य हट जाते हैं)। सर्वैकान्यकियत्तदः- V. ii. 15 (सप्तम्यन्त) सर्व,एक, अन्य, किम्, यत् तथा तत् प्रातिपदिकों से (काल अर्थ में दा प्रत्यय होता है)। सलोप-II. 1. 11 (उपमानवाची सुबन्त कर्ता से आचार अर्थ में विकल्प से क्यङ् प्रत्यय होता है तथा सकारान्त शब्दों के) सकार का लोप (भी विकल्प से) होता है। सलोप:- VII. 1.79 . (सार्वधातुक में लिङ् लकार के अन्त्य) सकार का लोप . होता है। ...सवनादीनाम्- VIII. iii. 110 देखें- रपरसफिO VIII. iii. 110 सवर्णम्-1.1.9 - (मख में होने वाले स्थान और प्रयत्न तुल्य हों जिनके, ऐसे वर्गों की परस्पर) सवर्ण संज्ञा होती है। ...सवर्ण...-1.1.57 देखें- पदान्तद्विर्वचनवरे० 1.1.57 सवर्णस्य-I.i. 68 . (अण एवं उदित) अपने सवर्ण का (भी ग्रहण कराते हैं. प्रत्यय को छोड़कर)। सवणे-VI.1.97 (अक प्रत्याहार से उत्तर) सवर्ण (अच्) परे हो तो (पूर्व और पर के स्थान में दीर्घ एकादेश होता है, संहिता के . विषय में)। सवर्णे- VIII. iv.64 (हल् से उत्तर झर् का विकल्प से लोप होता है) सवर्ण (झर) परे रहते। सवाभ्याम्-III. iv.91 सकार, वकार से उत्तर (लोट-सम्बन्धी एकार के स्थान में यथासङ्ख्य करके व और अम् आदेश हो जाते है)। सविध...- VI. ii. 23 . देखें-सविधसनीड VI. ii. 23 सविधसनीडसमर्यादसवेशसदेशेषु-VI. ii. 23 सविध, सनीड,समर्याद,सवेश,सदेश-इन शब्दों के उत्तरपद रहते (सामीप्यवाची तत्पुरुष समास में पूर्वपद को प्रकृतिस्वर होता है)। ....सवेश...-VI. ii. 23 देखें- सविधसनीड VI. ii. 23 ...सव्य..-VIII. iii.97 देखें- अम्बाम्ब VIII. iii.97 ससजुफः- VIII. ii. 66 सकारान्त पद तथा सजुष पद को (रु आदेश होता है। ससूव-VII. iv.74 ससूव (यह शब्द वेदविषय में निपातन किया जाता है)। सस्थानेन-V.iv. 10 (स्थानशब्दान्त प्रातिपदिकों से विकल्प से छ प्रत्यय होता है) यदि सस्थान= सदृश व्यक्ति से स्थानशब्दान्त प्रतिपाद्य अर्थवत् हो तो। सस्नौ-v.iv.40 (प्रशंसा-विशिष्ट अर्थ में वर्तमान मद प्रातिपदिक से)स तथा स्न प्रत्यय होते हैं। सस्य-VIII. ii. 24 (संयोग अन्त वाले रेफ से उत्तर) सकार का (लोप होता है)। सस्येन-v.ii. 68 ततीयासमर्थ सस्य प्रातिपदिक से (सब ओर से उत्पन्न अर्थ में कन् प्रत्यय होता है)। सह -I.1.60 (आदिवर्ण अन्त्य इत्संज्ञक वर्ण के साथ मिलकर दोनों के मध्य में स्थित वर्णों का तथा अपने स्वरूप का भी ग्रहण कराता है)। Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -542 सह-II.1.4 (सुबन्त के) साथ (समर्थ सुबन्त का समास होता है) यह अधिकार है। सह-II. ii. 28 (तुल्य योग में वर्तमान 'सह' अव्यय तृतीयान्त सबन्त) के साथ (समास को प्राप्त होता है और वह समास बहु- व्रीहिसंज्ञक होता है)। ...सह...-III. ii. 136 देखें- अलंकृञ् III. ii. 136 ...सह...-III. ii. 184 देखें- अर्तिलूथ III. ii. 184 सह..-IV.i.57 देखें-सहनविद्यमानo IV. 1.57 ...सह...- VII. ii. 48 देखें-इवसहO VII. ii. 48 ...सह...- VIII. iii. 70 देखें-सेवसितo VIII. iii. 70 सह-III. ii.63 सह धातु से (सुबन्त उपपद रहते छन्दविषय में 'वि' प्रत्यय होता है)। सहनश्विद्यमानपूर्वत्- IV.i.57 . सह, नज, विद्यमान शब्द पर्व में हो (और स्वाइवाची उपसर्जन अन्त में हो जिनके, उन प्रातिपदिकों से भी स्त्रीलिङ्ग में ङीष् प्रत्यय नहीं होता)। सहयुक्ते-II. iii. 19 'सह' = साथ अर्थ के योग में (अप्रधान में ततीया विभक्ति होती है)। ...सहस्...- V. iv. 27 देखें-ओजसहोम्भसा IV. iv. 27 ...सहस्...- VI. iii. 3 देखें- ओजसहोम्भस्o VI. iii. 3 सहस्य-VI. 1.77 सह शब्द को (स आदेश होता है, उत्तरपद परे रहते; सञ्जाविषय में)। सहस्य-VI. 11.94 सह शब्द को (सध्रि आदेश होता है, वप्रत्ययान्त अजु के उत्तरपद रहते)। ...सहस्त्र...-V.i.27 देखें-शतमानविंश V.1.27 . . ...सहस्त्रान्तात्-V.ii. 119 देखें- शतसहस्रान्तात् V. ii. 119 . ...सहस्त्राभ्याम्-V.1.29 . देखें-कार्षापणसहस्राभ्याम् V.i.29 ...सहस्राभ्याम्- V. ii. 102 देखें- तप:सहस्राभ्याम् V. ii. 102 सहस्रेण-IV. iv. 135 (तृतीयासमर्थ) सहस्र प्रातिपदिक से (तुल्य अभिधेय होने पर घ प्रत्यय होता है)। ...सहाम्- VIII. iii. 116 देखें-स्तम्भुसिवुसहाम् VIII. iii. 116 ...सहि...-III. ii. 46 . देखें-भृतृवृ० III. ii. 46 सहि...-VI. iii. 111 देखें- सहिवहो: VI. iii. 111 ...सहि...-VI. iii. 115 देखें-नहिवृतिळ VI. iii. 115 सहिवहो:- VI. iii. 111 (ढकार और रेफ का लोप होने पर) सह तथा वह धात के (अवर्ण को ओकारादेश होता है)। ...सहीनाम्- VIII. iii. 62 . देखें-स्विदिस्वदिसहीनाम् VIII. ii. 62 सहे-III. 1.86 सह शब्द उपपद रहते (भी ‘युध्' और 'कृञ्' धातु से 'क्वनिप्' प्रत्यय होता है, भूतकाल में)। सहे:- VIII. iii. 56 सह धातु के (साड् रूप के सकार को मूर्धन्य आदेश होता है)। सहे:- VIII. lil. 109 (पृतना तथा ऋत शब्द से उत्तर भी) सह धातु के (सकार को वेदविषय में मूर्धन्य आदेश होता है)। ....सहो:-III. 1.99 देखें-शकिसहोः III.1.99 Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 543 संवत्सराग्रहायणीभ्याम् ...सहो: -III. 1. 41 संयोगादेः-VII. 1.43 देखें-दारिसहोः III. 1.41 संयोग है आदि में जिसके, ऐसे (ऋकारान्त धातु) से संयस-III.1.72 उत्तर (भी आत्मनेपदपरक लिङ् सिच् को विकल्प से इट सम् उपसर्गपूर्वक यस् धातु से (भी श्यन् प्रत्यय विकल्प आगम होता है)। से होता है, कर्तवाची सार्वधातुक परे रहते)। संयोगादेः- VII. iv. 10 ...संयुक्त...-VI. II. 133 संयोग आदि में है जिनके.ऐसे (ऋकारान्त) अङ्ग को देखें- आचार्यराज VI. ii. 133 (भी गुण होता है,लिट् परे रहते)। संयुक्ते-IN. iv. 90 संयोगादेः-VIII. 1.43 (तृतीयासमर्थ गृहपति शब्द से) संयुक्त = जुड़ा अर्थ संयोग आदि वाले (आकारान्त एवं यण्वान्) धातु से में (ज्य प्रत्यय होता है,सञ्जाविषय में)। .. उत्तर (निष्ठा के तकार को नकारादेश होता है)। ...संयोगायो:- VII. iv. 29 संयोग...- V.i.37 देखें- अर्तिसंयोगायो: VII. iv. 29 देखें-संयोगोत्पातौ v.i. 37 संयोगायो:- VIII. ii. 29 संयोग:-I.1.7 (पद के अन्त में तथा झल् परे रहते) संयोग के आदि (व्यवधानरहित = जिनके बीच में अच् न हों, ऐसे दो में (सकार तथा ककार का लोप होता है)। या दो से अधिक हलों की) संयोग संज्ञा होती है। संयोगान्तस्य- VII. ii. 23 संयोगस्य-VI. iv. 10 संयोग अन्तवाले पद का (अन्त्यलोप होता है)। (सकारान्त) संयोग का (और महत् शब्द का जो नकार, संयोगे-I.iv. 11 उसकी उपधा को दीर्घ होता है, सम्बुद्धिभिन्न सर्वनाम संयोग के परे रहते (हस्व अक्षर की गुरु संज्ञा होती 'स्थान विभक्ति के परे रहने पर)। संयोगात्- VI. iv. 137 . संयोगोत्पातौ-v.1.37 (वकार तथा मकार अन्त में है जिसके, ऐसे) संयोग से (षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिकों से 'कारण' अर्थ में यथाविहित उत्तरं (तदन्त भसज्ञक अङ्ग के अकार का लोप नहीं हो प्रत्यय होते हैं) यदि वह कारण संयोग= सम्बन्ध वा ता)। . . उत्पात = झगड़ा हो तो। संयोगादयः- VI. 1.3 संवत्सर...- Iv.iii. 50 (अजादि के द्वितीया एकाच समुदाय के) संयोग आदि देखें-संवत्सराग्रहायणीभ्याम् IV. iii. 50 में स्थित (न.द् तथा र् को द्वित्व नहीं होता)। संवत्सर...-VII. Ili. 15 संयोगादि- VI. iv. 166 देखें-संवत्सरसंख्यस्य VII. iii. 15 संवत्सरसङ्ख्यस्य-VII. iii. 15 , संयोग आदि में है जिस (इन्) के, उसको (भी अण् (सङ्ख्यावाची शब्द से उत्तर) संवत्सर शब्द के तथा परे रहते प्रकृतिभाव हो जाता है)। सङ्ख्यावाची शब्द के (अचों में आदि अच को भी बित. संगा-VI. 1.68 णित् तथा कित् तद्धित परे रहते वृद्धि होती है)। (मा, स्था, गा,पा, हा तथा सा से अन्य) जो संयोग संवत्सराप्रहायणीभ्याम-IV. 1.50 आदि वाला आकारान्त अङ्ग, उसको (कित्, ङित् लिङ्: (सप्तमीसमर्थ कालवाची) संवत्सर तथा आग्रहायणी आर्धधातुक परे रहते विकल्प से आकारादेश होता है)। प्रातिपदिकों से (ढ तथा वुञ् प्रत्यय होते है)। शब्द का जो नका स्थान निको दीर्घ होता है Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...संवत्सरात् 544 ...संवत्सरात्-V.1.86 देखें- राज्यहस्संवत्सo V. 1.86 ...संवत्सरात्-V.1.57 देखें- शतादिमास V. 1.57 संशयम्-V.i.72 (द्वितीयासमर्थ) संशय प्रातिपदिक से (प्राप्त हो गया' अर्थ में यथाविहित ठत्र प्रत्यय होता है)। संश्चडो:-II. iv. 51 सन-परक,चपरक (णिच) परे रहते भी (इङ् को गाङ् आदेश विकल्प से होता है)। संश्चडो:- VI. 1. 31 सन्परक तथा चङ्परक (णि) के परे रहते (भी टुओश्वि धातु को विकल्प से सम्प्रसारण हो जाता है)। संसनिष्यदत्-VII. iv.65 संसनिष्यदत शब्द वेदविषय में निपातन किया जाता ...संस्तु...-III.i. 141 देखें-श्याव्यधाo III.i. 141 ...संहारा:-III. iii. 122 देखें- अध्यायन्याय III. iii. 122 संहित...- IV.i.70 देखें- संहितशफलक्षण IV.i. 70 संहितशफलक्षणवामादेः- IV.i.70 संहित, शफ, लक्षण, वाम आदि वाले (ऊरु उत्तरपद) प्रातिपदिकों से (भी स्त्रीलिङ्ग में ऊङ् प्रत्यय होता है)। संहिता-I. iv. 108 (वर्णों की अतिशयित समीपता की) संहिता संज्ञा होती .. ...संसृज..-III. 1. 142 देखें-सम्पचानुरुध III. ii. 142 संसृष्टे-IV.iv. 22 (तृतीयासमर्थ प्रातिपदिक से) मिला हुआ अर्थ में (ठक प्रत्यय होता है)। संस्कृतम्- IV. 1. 15 (सप्तमीसमर्थ प्रातिपदिक से) संस्कार किया गया' अर्थ में (यथाविहित प्रत्यय होता है. यदि वह संस्कृत पदार्थ संहितायाम्-I.ii. 39 संहिताविषय में (स्वरित से उत्तर अनुदात्तों को एकश्रुति होती है)। संहितायाम्-VI.i.70 दात्तं पदमेकवर्जम्' VI. 1. 152 सूत्रपर्यन्त कथित कार्य) संहिता के विषय में होंगे। , संहितायाम्- VI. ii. 113 ‘संहितायाम्' यह अधिकारसूत्र है, पाद की समाप्तिपर्यन्त जायेगा। संहितायाम्-VIII. 1. 108 (उनके अर्थात प्लत करने के प्रसङग में एच के उत्तरार्ध को जो इकार, उकार पूर्वसूत्र से विधान कर आये हैं, उन इकार, उकार के स्थान में क्रमशः य, व् आदेश हो जाते हैं, अच् परे रहते) सन्धि के विषय में। सा-I. iii. 55 तृतीया विभक्ति से युक्त सम-पूर्वक दाण धातु से भी आत्मनेपद होता है, यदि) वह तृतीया (चतुर्थी के अर्थ में हो तो)। सा-II. iii. 48 वह (सम्बोधन में विहित प्रथमा आमन्त्रित'-संज्ञक होती हो)। संस्कृतम्-IV.iv.3 (तृतीयासमर्थ प्रातिपदिक से) 'संस्कार किया हुआ'अर्थ में (ढक् प्रत्यय होता है)। संस्कृतम्- IV. iv. 134 (ततीयासमर्थ अप प्रातिपदिक से) संस्कृत अर्थ में (यत् प्रत्यय होता है, वेदविषय में)। ...संस्थानेषु-IV.iv.72 देखें- कठिनान्तप्रस्तार• IV.iv.72 संस्पर्शात्- II. II. 116 (जिस कर्म के) संस्पर्श से (कर्ता को शरीर का सुख उत्पन्न हो, ऐसे कर्म के उपपद रहते भी धातु से ल्युट् प्रत्यय होता है)। सा-IV.ii. 20 प्रथमासमर्थ (पौर्णमासी विशेषवाची प्रातिपदिक से सप्तम्यर्थ = अधिकरण अभिधेय होने पर यथाविहित अण् प्रत्यय होता है)। Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सा T-IV. ii. 23 प्रथमासमर्थ प्रातिपदिकों से (षष्ठ्यर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है, यदि वह प्रथमासमर्थ देवताविशेषवाची प्रातिपदिक हो) । सा - IV. ii. 57 प्रथमासमर्थ (क्रियावाची घञन्त प्रातिपदिक से सप्तम्यर्थ में प्रत्यय होता है)। ... सा... - VII. iii. 37 देखें- शाच्छासाo VII. iii. 37 ... साकल्य... - II. 1. 6 देखें - विभक्तिसमीपसमृद्धि II. 1. 6 साकल्ये - III. iv. 29. सम्पूर्णविशिष्ट (कर्म) उपपद हो (दृशिर् तथा विद् धातुओं से णमुल् प्रत्यय होता है)। साकांक्षे - III. ii 114 (स्मरणार्थक शब्द उपपद हो तो यत् का प्रयोग हो या न हो तो भी अनद्यतन भूतकाल में धातु से लृट् प्रत्यय विकल्प से होता है) यदि प्रयोक्ता साकांक्ष हो । साक्षात् - Vii. 91 साक्षात् प्रातिपदिक से (देखने वाला वाच्य हो तो सञ्ज्ञाविषय में इनि प्रत्यय होता है)। साक्षात्प्रभृतीनि - I. iv. 73 साक्षात् इत्यादि शब्द (भी कृ के योग में विकल्प से गति और निपातसंज्ञक होते हैं)। ... साक्षि... - II. iii. 39 देखें- स्वामीश्वराधिपतिo II iii. 39 साड :- VIII. iii. 56 (सह् धातु के) सारूप के (सकार को मूर्धन्य आदेश होता है)। साठा - VI. iii. 112. (साढ्यै, सावा तथा) साढा - (ये) शब्द (वेद में निपातन किये जाते है)। 545 साढ्यै — VI. iii. 112 साढ्यै, (सावा तथा साढा-ये) शब्द (वेद में निपातन किये जाते है। सावा - VI. iii. 112 (साढ्यै) साढ्वा (तथा साढा-ये) शब्द (वेद में निपा तन किये जाते हैं) । सात्... - .. - VIII. iii. 111 देखें- सात्पदाद्यो: VIII. iii. 111 ... साति... - III. 1. 138 - देखें - लिम्पविदo III. 1. 138 साधकतमम् ... साति... - III. iii. 97 देखें - ऊतियूतिo III. iii. 97 साति - V. iv. 52 (कृ, भू तथा अस् धातु के योग में सम् पूर्वक पद् धातु के कर्ता में वर्तमान प्रातिपदिक से 'सम्पूर्णता' गम्यमान हो तो विकल्प से) साति प्रत्यय होता है। सात्पदाद्यो:- VIII. iii. 11.1 (इण् तथा कवर्ग से उत्तर) सात् तथा पद के आदि के (सकार को मूर्धन्य आदेश नहीं होता) । ... सात्यमुग्रि... ... - IV. 1. 81 देखें- दैवयज्ञिशौचिवृक्षिo IV. 1. 81 साद... - VI. 1. 41 देखें- सादसादिo VI. ii. 41 सादसादिसारथिषु - VI. ii. 41 साद, सादि तथा सारथि शब्दों के उत्तरपद रहते (पूर्वपद गो शब्द को प्रकृतिस्वर हो जाता है)। सादि.. .. - VI. ii. 40 देखें- सादिवाग्यो: VI. ii. 40 ... सादि... - VI. ii. 41 देखें- सादसादिo VI. ii. 41 सादिवाम्यो:- VI. ii. 40 सादि तथा वामि शब्द उत्तरपद रहते (पूर्वपद उष्ट्र शब्द को प्रकृतिस्वर होता है)। ... सादृश्य... - II. 1. 6 देखें - विभक्तिसमीपसमृद्धि II. 1. 6 सादृश्ये - VI. II. 11 (सदृश तथा प्रतिरूप शब्द उत्तरपद रहते) सादृश्यवाची (तत्पुरुष समास) में (पूर्वपद प्रकृतिस्वर होता है)। साधकतमम् - I. iv. 42 (क्रिया की सिद्धि में) जो सब से अधिक सहायक है, वह (कारक करणसंज्ञक होता है)। Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु... 546 ...सामीप्ययोः साधु... -II. iii.43 सामः- VI. 1. 33 देखें-साधुनिपुणाभ्याम् II. iii. 43 (युष्मद् तथा अस्मद् अङ्ग से उत्तर) साम् के स्थान में साधु...-IV. iii. 43 (आकम् आदेश होता है)। देखें- साधुपुष्यत् IV. iii. 43 सामर्थे- VIII. iii. 44 साधुः- IV. iv. 98 (सप्तमीसमर्थ प्रातिपदिक से) साधु = कुशल अर्थ को (इस् तथा उस् के विसर्जनीय को विकल्प से षकारादेश कहने में (यत् प्रत्यय होता है)। होता है। सामर्थ्य होने पर (कवर्ग, पवर्ग परे रहते)। साधुनिपुणाभ्याम्- II. iii. 43 सामलोम्न:- V. iv.75 साधु और निपुण शब्दों के योग में (सप्तमी विभक्ति (प्रति,अनु तथा अव पूर्ववाले) सामन् और लोमन् प्रातिहोती है, अर्चा गम्यमान होने पर; यदि 'प्रति' का प्रयोग . पदिको से (समासान्त अच् प्रत्यय होता है)। : न किया गया हो तो)। ...सामसु-I. ii. 34 साधुपुष्यत्पच्यमानेषु- IV. i. 43 देखें- अजपन्यूखसामसु I. ii. 34 (कालवाची सप्तमीसमर्थ प्रातिपदिकों से) साघ, पुष्यत. सामान्यवचनम्-VIII. 1.74 पच्यमान अर्थों में (यथाविहित प्रत्यय होता है)। (विशेषवाची समानाधिकरण आमन्त्रित परे रहते) सामा न्यवचचन (आमन्त्रित) को विकल्प से अविद्यमानवत हो...साधौ-v.il. 63 ता है)। देखें- नेदसाधौ v.il.63 सान्त..-VI. iv. 10 सामान्यवचनैः- II. 1.54 देखें-सान्तमहतःVI. iv. 10 साधारण धर्मवाची (सुबन्त) शब्दों के साथ (उपमानसान्तमहत:-VI. iv. 10 वाचक सुबन्तों का विकल्प से समास होता है और वह सकारान्त (संयोग का) और महत् शब्द का (जो नकार, तत्पुरुष समास होता है। उसकी उपधा को दीर्घ होता है। सम्बद्धिभिन्न सर्वनाम- सामान्याप्रयोगे-II.1.55 स्थान विभक्ति के परे रहने पर)। सामान्य = उपमान और उपमेय के साधारण धर्मवाचक ...सान्नाय्य..-III. 1. 129 शब्द का प्रयोग न होने पर (उपमितवाची सुबन्त का समादेखें- पाय्यसान्नाय्य III. 1. 129 नाधिकरण व्याघ्रादियों के साथ विकल्प से तत्पुरुष समास साप्तपदीनम्- V. ii. 22 होता है)। . 'साप्तपदीनम्' शब्द का निपातन किया जाता है, मित्रता सामि-II. 1. 26 वाच्य हो तो)। 'सामि' यह अव्यय (क्तान्त समर्थ सुबन्त के साथ साभ्यासस्य- VIII. iv. 20 विकल्प से समास को प्राप्त होता है और वह तत्पुरुष समास होता है)। (उपसर्ग में स्थित निमित्त से उत्तर) अभ्याससहित (अन धातु) के (दोनों नकारों-अभ्यासगत तथा उत्तरवर्ती को ...सामिधेनीषु-III. 1. 129 णकार आदेश होता है)। देखें-मानहविर्निवास III. 1. 129 साम-IV.II.7 सामिवचने- V. iv.5 अर्धवाची शब्द उपपद हों तो (क्तप्रत्ययान्त प्रातिपदिक (तृतीयासमर्थ प्रातिपदिकों से) 'साम (वेद) को [ देखा', इस अर्थ में यथाविहित (अण) प्रत्यय होता है।। से कन् प्रत्यय नहीं होता)। साम...-V.iv.75 ....सामीप्ययोः - III. II. 135 देखें-सामलोम्न: V.iv.75 देखें- क्रियाप्रबन्यसामीप्ययोः III. iii. 135 Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामीप्ये 547 साल्यावयवात्यप्रथकलकूटाश्मकात् सामीप्ये -VI. 1. 23 सार्वधातुके-III. 1. 67 (सविध,सनीड समर्याद,सवेश,सदेश-इन शब्दों के सार्वधातुक प्रत्यय परे रहते (भाव और कर्मवाची धातु उत्तरपद रहते) सामीप्यवाची (तत्पुरुष समास) में (पूर्वपद मात्र से 'यक' प्रत्यय होता है)। को प्रकृतिस्वर होता है)। सार्वधातुके- VI. iv. 87 सामीप्ये- VIII. I.7 (ह तथा श्नु प्रत्ययान्त अनेकाच अङ्ग का.संयोग पर्व (उपरि अधि, अघस -इन शब्दों को) समीपता अर्थ में नहीं है जिससे.ऐसा जो उवर्ण.उसको अजादि) सार्वकहना हो तो द्वित्व होता है)। धातुक प्रत्यय परे रहते (यणादेश होता है)। ...साम्न-V.ii. 59 सार्वधातुके-VI. iv. 110 देखें-सूक्तसाम्नः V.ii. 59 (उकार प्रत्ययान्त कृ अङ्ग के स्थान में उकारादेश हो साम्प्रतिके-IV.ili.9 . जाता है; कित्, डिस्) सार्वधातुक परे रहते। (मध्य शब्द से) साम्प्रतिक अर्थ गम्यमान हो (तो शैषिक - सार्वधातुके- VII. 1.76 .. अप्रत्यय होता है)। (रुदादि पाँच धातुओं से उत्तर वलादि) सार्वधातुक को साम्प्रतिक = वर्तमान काल सम्बन्धी उचित । (इट् आगम होता है)। सायम्..- IV. iii. 23 देखें- सायंचिरंपाहणे IV. iii. 23 सार्वधातुके-VII. ill. 87 सायंचिरंपाहणेप्रगेऽव्ययेभ्यः- IV. iii. 23 (अभ्यस्तसजक अङ्ग की लघु उपधा इक् को अजादि (कालवाची) सायं चिरं प्राणे प्रगे तथा अव्यय प्राति पित् सार्वधातुक परे रहते (गुण नहीं होता)। पदिकों से (ट्यु तथा ट्युत् प्रत्यय होते हैं तथा इन प्रत्ययों सार्वधातुके- VII. it. 95 को तुट का आगम भी होता है)। (तु, रु,ष्टुञ् शम तथा अम धातुओं से उत्तर हलादि) ...सायपूर्वस्य-VI. iii. 109 सार्वधातुक को (विकल्प से ईट् आगम होता है)। देखें-संख्याविसाय VI. iii. 109 सार्वधातुके- VII. iv. 21 . ....सारथिषु-VI. ii. 41 . (शीङ् अङ्ग को) सार्वधातुक परे रहते (गुण होता है)। देखें-सादसादिOVI. ii. 41 . ...साल्व...-IV, ii. 75 ...सारव...-VI. iv. 174 देखें-सौवीरसाल्व IV. ii. 75 देखें-दाण्डिनायन VI. iv. 174 साल्वात्-IV.ii. 134 सार्वधातुक...-VII. iii. 84 साल्व शब्द से (अपदाति अर्थात् पैरों से निरन्तर न देखें-सार्वधातुकार्धधातु0 VII. iii. 84 चलने वाला मनुष्य तथा मनुष्यस्थ कर्म अभिधेय हो तो सार्वधातुकम्- I.ii. 4 शैषिक वुञ् प्रत्यय होता है)। (पदभिन्न) सार्वधातुक प्रत्यय (ङित्वत् होते हैं)। साल्वावयव...- IV.i. 171 सार्वधातुकम्- III. iv. 113 देखें-साल्वावयवप्रत्यय IV.i. 171 ' (धातु से विहित तिङ् तथा शित् प्रत्ययों की) सार्वधातुक साल्वावयवप्रत्यप्रथकलकूटाश्मकात् - IV.i. 171 संज्ञा होती है। (क्षत्रियाभिधायी जनपदवाची) साल्व = एक विशेष ..सार्वधातुकयो:- VII. iv. 25 देखें-अकृत्सा क्षत्रियनाम के अवयववाची तथा प्रत्यपथ, कलकूट एवं VII. iv. 25 अश्मक प्रातिपदिकों से (अपत्य अर्थ में इञ् प्रत्यय होता सार्वधातुकार्धधातुकयो:- VII. iii. 84 है)। सार्वधातुक तथा आर्धधातुक प्रत्यय परे रहते (इगन्त प्रत्यग्रथ = नया, दुहराया हुआ, विशुद्ध । . अङ्गको गुण होता है)। 171 अश्मक प्रति अवयवदानाका साल Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साल्वेय.. 548 अश्मक = दक्षिण में एक देश.उस देश के निवासी। सिन्-I. 1. 14 साल्वेय.. - IV.i.167 (हन् धातु से परे) सिच् प्रत्यय (आत्मनेपदविषय में देखें-साल्वेयगान्धारिष्याम् IV. 1. 167 कित्वत् होता है)। साल्वेयगान्धारिभ्याम्-IV. 1. 167 सिच्- III. 1. 44 (जनपदवाची क्षत्रियाभिधायी साल्वेय तथा गान्धारि (च्लि के स्थान में) सिर शब्दों से (भी अपत्य अर्थ में अञ् प्रत्यय होता है)। सिच..-III. iv. 107. ...साववर्ण...-VI.1.176 देखें-सिजभ्यस्त III. iv. 107 देखें- गोश्व VI. 1. 176 ...सिच...-VI. iv.62 ...साहसिक्य..-I. II. 32 देखें- स्यसि VI. iv. 62 देखें- गन्धनावक्षेपणसेवन I. M. 32 ...सिच..-III. ii. 182 ...साहिण्य-III.1. 138 देखें-दाम्नी III. ii. 182 देखें-लिम्पविन्द III. 1. 138 : ...सिच..-VIII. iii.65 माहान्-VI.1.12 देखें- सुनोतिसुवतिo VII. iii. 65 साहान् शब्द (छन्द तथा भाषा में सामान्य करके) निपा- सिच-II. iv.77 तन किया जाता है। .. सिच् का (लुक् होता है; गा, स्था, षु सञ्जक, पा और ...सि...-III. 1. 159 भू-इन धातुओं से उत्तर परस्मैपद परे रहते)। देखें-दाधेट III. 1. 159 सिव- VI. 1. 181 ...सि..-VI.1.66 • सिच् अन्त वाला शब्द (विकल्प से आधुदात्त होता है)। देखें-सुतिसि.VI.1.66 ...सिच-VII. 11.96 ...सि...-VII. 1.9 देखें- अस्तिसिचः VII. iii. 96 , देखें-तितु VII. 1.9 सिक- VIII. iii. 112 सि-VII. iv. 49 (डण तथा कवर्ग से उत्तरी सिच के (सकार को यङ परे (सकारान्त अङ्ग को) सकारादि (आर्धधातुक) के परे रहते मुर्धन्य आदेश नहीं होता)।. रहते (तकारादेश होता है)। ...सिचि..-III.1.53 सि-VIII. 1.41 देखें-लिपिसिचिह्न III. 1.53 (षकार तथा ढकार के स्थान में क आदेश होता है मिति सकार परे रहते। (परस्मैपदपरक) सिच के परे रहते (इगन्त अङ्ग को सि-VIII. 1. 29 वृद्धि होती है)। (डकारान्त पद से उत्तर) सकारादि पद को विकल्प से सिचि- VII. ii. 40 धु का आगम होता है। (परस्मैपदपरक) सिच् परे रहते (भी वृ तथा ऋकारान्त सिकता..-V. 1. 104 धातुओं से उत्तर इट् को दीर्घ नहीं होता)। देखें-सिकताशर्कराभ्याम् V. 1. 104 सिचि-VII. 1.71 सिकताशर्कराभ्याम्-V. 1. 104 (असू धातु से उत्तर) सिच को (इट का आगम होता सिकता तथा शर्करा प्रातिपदिकों से (भी 'मत्वर्थ' में। अण प्रत्यय होता है। ...सिचो: - VII. II. 42 देखें-लिङ्सिचो: VII. II. 42 Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...सिची 549 सिवादीनाम् ...सिचौ-1. ii. 11 देखें-लिङ्सिचौ I. ii. 11 सिजभ्यस्तविदिश्या-III. iv. 109 सिच से उत्तर, अभ्यस्तसंज्ञक से उत्तर तथा विद् धातु से उत्तर (भी झि को जुस आदेश होता है)। ...सित...-VIII. 1.70 देखें-सेवसितO VIII. iii. 70 सितात्- VIII. Iii.63 सित शब्द से (पहले-पहले अट् का व्यवधान होने पर तथा अपि ग्रहण से अट का व्यवधान न होने पर भी सकार को मूर्धन्य आदेश होता है)। सिति-I. iv.6 सित् प्रत्यय के परे रहते (भी पूर्व की पद संज्ञा होती सिद्ध...-II. 1.40 . देखें-सिद्धशुष्कपक्वबन्यैः II. 1. 40. सिद्ध...-VI. 1. 32 • देखें- सिखशुष्क० VI. II. 32 ...सिद्ध..-VI. iii. 18 देखें- इन्सिबमातिषु VI. i. 18 सिद्धशुष्कपक्वबन्धेषु- VI. ii. 32 सिद्ध, शुष्क, पक्व तथा बन्ध शब्दों के उत्तरपद रहते (कालभिन्नवाची सप्तम्यन्त पूर्वपद को प्रकृतिस्वर होता ...सिद्ध्यो -III. 1. 116 देखें-पुष्यसिद्ध्यो III. 1. 116 सिध्मादिभ्यः-v.ii.97 सिध्मादि प्रातिपदिकों से (भी 'मत्वर्थ' में विकल्प से लच् प्रत्यय होता है)। सिध्यते:- VI.i. 48 विधु हिंसासंराध्योः धातु के (एच के स्थान में णिच् परे रहते आकारादेश हो जाता है.यदि वह धातु पारलौकिक अर्थ में वर्तमान न हो तो)। ...सिधका...-VIII.INA देखें-पुरगामिश्रका VIII. iv. 4 सिन्धु...- IV. iii. 32 देखें- सिन्ध्वपकराभ्याम् IV. iii. 32 सिन्यु...- IV. iii.93 देखें-सिन्युतक्षशिलादिभ्यः IV. iii. 93 सिन्धुतक्षशिलादिभ्यः- IV. iii. 93 (प्रथमासमर्थ) सिन्ध्वादि तथा तक्षशिलादिगणपठित शब्दों से (यथासंख्य करके अण तथा अञ् प्रत्यय होते हैं, 'इसका अभिजन' - ऐसा कहना हो तो)। ...सिन्ध्यन्ते- VII. iii. 19 देखें- हद्भगसिन्थ्वन्ते VII. iii. 19 सिन्ध्वपकाराभ्याम् -IV. iii. 32 (सप्तमीसमर्थ) सिन्धु तथा अपकर शब्दों से (जातार्थ में कन् प्रत्यय होता है)। सिप्-III. I. 34 (लेट् लकार परे रहते धातु से बहुल करके) सिप् प्रत्यय होता है। . ...सिप..-III. iv. 78 देखें-तिप्तस् िIII. iv. 78 सिपि-VIII. 1.74 (सकारान्त पद धातु को) सिप परे रहते (विकल्प से रु आदेश होता है)। सिवादीनाम् - VIII. iii. 71 (परि, नि तथा वि उपसर्ग से उत्तर) सिवादि धातुओं के (सकार को अट् के व्यवधान होने पर भी विकल्प से मूर्धन्य आदेश होता है)। सिद्धशंकपक्वबन्धैः-II.1.40 सिद्ध, शुष्क, पक्व, बन्ध –इन (समर्थ सुबन्त) शब्दों के साथ (भी सप्तम्यन्त सुबन्त का विकल्प से समास होता है और वह तत्पुरुष समास होता है)। सिद्धाप्रयोगे-III. iii. 154 . (पर्याप्तिविशिष्ट सम्भावना अर्थ में वर्तमान धात से लिङ्प्रत्यय होता है,यदि अलम शब्द का) अप्रयोग सिद्ध हो रहा हो। सिळपयोग- III. iv. 27 (अन्यथा, एवं, कथं, इत्थम् शब्दों के उपपद रहते कृञ् धातु से ण्वुल प्रत्यय होता है.यदि क का) अप्रयोग सिद्ध हो। . Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 550 सुखादिया सु...-VII.1.68 दाम् VII. 1. 68 ..सु...-VII. 1.9 VILL9 ...सि.. - VIII. 1.70 देखें-सेवसित VIII. 1.70 ...सि..- VIII. IH. 116 देखें-स्तम्भूसिवसहाम् VIII. III. 116 ...सिंह...-VI. II. 72 देखें-गोविडाल.VI. 1.72 ...सीता...-V..91 देखें-नौक्योधर्म IV.v.91 ...सीदा-VII. HI.78 देखें-पिजिन VII. III. 78 ...सीरनाम..-VI. 1. 187 देखें-स्किंगपूत. VI. II. 187 ...सीरात्-IV.III. 123 देखें-हलसीरात् IV. 1. 123 ...सीरात्-IV.iv.81 देखें-हलसीरात् IV.iv81 सीयुद्-III. V. 102 (लिङ् के आदेशों को) सीयुट् आगम होता है। ...सीयुट्..-VI. 15.62 देखें-स्यसि VI. iv.62 सु...-III. I.89 देखें-सुकर्म III. 1.9 सु..-III. II. 103 देखें- सुययोः III. II. 103 सु..-IV.1.2 देखें- स्वौजसमौट IV. 1.2 सु...-V. iv. 125 देखें-सुहरित V. iv. 125 ...सु...-v.iv. 135 देखें-उत्पूतिo v. iv. 135, सु...-VI.1.66 देखें-सुतिसि VI.1.66 सु...-VI. 1. 145 देखें- सूपमानात् VI. II. 145 सु...-VII.1.23 .देखें-स्वमो: VII.1.23 सु...-VII.1.39 देखें-सुलक VII. 1.39 देखें-तितु VII. 1.9 -VII. 1.72 देखें-स्तुसुधूश्य: VII. 1.72 सु...-VII. . 12 देखें- सुसर्वार्धात् VII. Iii. 12 सु...-VIII. 1.88 देखें- सुविनिर्दुर्घ्य: VIII. II. 88 .. सुः-I.iv.93 सु शब्द (कर्मप्रवचनीय और निपातसंज्ञक होता है,पूजा .. अर्थ में)। ...सुकरम्-V.1.92 देखें- परिजय्यलभ्यः V. 1. 92 . सुकर्मपापमापुण्येषु-II. 1. 89 सु, कर्म,पाप, मन्त्र, पुण्य -इन (कमों) के उपपद रहते (कृ धातु से भूतकाल में क्विप् प्रत्यय होता है)। ...सुख..-II.1.35 देखें-तदर्थार्थवलिहित II.1.35 सुख...-V.in.63 देखें-सुखप्रियात् V. . 63 सुख..-VI. 1. 15 . देखें- सुखप्रिययो: VI. II. 15 सुखप्रिययो:-VI. II. 15 . हितवाची तत्पुरुष समास में) सुख तथा प्रिय शब्द उत्तरपद रहते (पूर्वपद को प्रकृतिस्वर हो जाता है)। सुखप्रियात्- V. iv. 63 (अनुकूलता' अर्थ में वर्तमान) सुख तथा प्रिय प्रातिपदिकों से (कृञ् के योग में डाच् प्रत्यय होता है)। . ..सुखयो:- VIII. 1. 13 देखें-प्रियसुखयोः VIII. 1. 13 सुखादिभ्यः - III.1.18 सुख आदि (कर्मवाचियों) से (अनुभव अर्थ में क्यङ् प्रत्यय होता है,यदि वे सुख आदि वेदयिता-कर्ता सम्बन्धी हों तो अर्थात् जिसको सुख हो, अनुभव करने वाला भी वही हो)। Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखादिन्य 551 ...सुट..- VIII. 1.70 देखें-सेवसित VIII. 1.70 सुटि-VIII. ill.s • (सम् को रु होता है) सुट् परे रहते (संहिता-विषय में)। ...सुतङ्गम...- IV. 1.79 देखें-अरीहणकशाश्क IV. 1.79 सुतिसि-VI.1.66 - (हलन्त,ङ्यन्त तथा आबन्त दीर्घ से उत्तर) सु,ति तथा सि (का जो अपृक्त हल.उसका लोप होता है)। ...सुदिव..-V.iv. 120 देखें- सुप्रातसुखसुदिक V. iv. 120 सुदुर्ध्याम्- VII. 1.68 किवल) सु तथा दुर् उपसर्गों से उत्तर (लभ् धातु को खल् तथा घञ् प्रत्यय परे रहते नुम् आगम नहीं होता सुखादिष्य - V. 1. 131 सुखादि प्रातिपदिकों से (भी 'मत्वर्थ' में इनि प्रत्यय होता है)। ...सुखादिश्य-VI. 1. 170 देखें-जातिकाल.VI. 1. 170 -सुखार्थ...- II. ii. 73 देखें- आयुष्यमद्रम II. III. 73 सुच-v..18 (क्रिया के बार-बार गणन' अर्थ में वर्तमान सङ्ख्यावाची द्वि, त्रि तथा चतुर प्रातिपदिकों से) सुच प्रत्यय होता है। ...सुचतुर..-V.v.77 -देखें- अचुतर0 V. iv.77 सुर-III. II. 80 . पुज् धातु से (सोम' कर्म उपपद रहते 'क्विप्' प्रत्यय होता है, भूतकाल में)। सुष-III. 1. 132 (यज्ञ से संयुक्त अभिषव में वर्तमान) पुज् धातु से (वर्तमान काल में शत प्रत्यय होता है)। सुष- VIII. III. 107 . (पूर्वपद में स्थित निमित्त से उत्तर) सु निपात के (सकार . को वेदविषय में मूर्धन्य आदेश होता है)। सुषि-VI. II. 133 (गन्त शब्द को) सुब् परे रहते (ऋचा-विषय में दीर्घ हो जाता है, संहिता में)। सुर-1.1.42 (नपुंसकलिङ्ग से भिन्न जो सुट प्रत्याहार-स.औ.जस. - अम, औट् -(उसकी सर्वनाम स्थान संज्ञा होती है)। सुद-III. iv. 107 लिक्सम्बन्धी तकार और थकार को) सुट् का आगम होता है। सुर-VL.I. 131 (ककार से पूर्व) सुट् का आगम होता है, यह अधिकार आदेश होता है)। सुधातः - IV.1.97 सुधात शब्द से (तस्यापत्यम्' अर्थ में इञ् प्रत्यय होता है तथा सुधात शब्द को (अका आदेश भी होता है)। सुधित- VII. iv. 45 सुधित शब्द वेदविषय में निपातन किया जाता है। ...सुधियोः - VI. iv.82 देखें-भूसुधियोः VI. iv.a2 सुनोति... - VIII. II. 65 देखें-सुनोतिसुवति VIII. 1.65 सुनोतिसुवतिस्यतिस्तौतिस्तोपतिस्थासेनवसेवासियसलास्वाम् -VIII..ll1.65. (उपसर्गस्थ निमित्त से उत्तर) सुनोति, सुवति, स्यति, स्तौति,स्तोभति, स्था, सेनय,सेध, सिच, सज, स्वइनके (सकार को मूर्धन्यादेश होता है, अट् के व्यवधान में भी तथा स्थादियों के अभ्यास के व्यवधान में एवम् अभ्यास को भी)। सुनोते.-VIII. 1. 117 (स्य तथा सन् परे रहते) पुज् धातु के (सकार को मूर्धन्य आदेश नहीं होता)। सुप.. -I.iv. 14 देखें-सुप्तिान्तम् .. 14 सुद-VII.1.52 (अवर्णान्त सर्वनाम से उत्तर आम को सट का आगम होता है। Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुप् , 552 सुपिसूतिसमाः aa सुप्-II.1.2 (आमन्त्रितसञक पद के परे रहते पूर्व के) सुबन्त पद को (पर के अङ्ग के समान कार्य होता है,स्वरविषय में)। सुप् -II.i.9 सबन्त पद (मात्रा अर्थ में वर्तमान प्रति के साथ अव्य- यीभाव समास को प्राप्त होता है)। सुप्... -III.1.4 देखें - सुष्पितौ III. 1.4 ...सुप्-IV.1.2 देखें- स्वौजस्मौट IV.i.2 सुप्... - VIII. 1.2 देखें-सुपवर VIII. ii.2 सुपः-I.iv. 102 सपों के (तीन-तीन की एक-एक करके एकवचन,द्विव- चन और बहुवचन संज्ञा हो जाती है)। सुप -II. iv.71 (धातु और प्रातिपदिक के अवयव) सुप् का (लुक् हो जाता है)। ...सुप-II. iv.82 देखें- आप्सुफः II. iv. 82. सुपः-III.1.8 . (इच्छा करने वाले के आत्मसम्बन्धी इच्छा के) सुबन्त (कम) से (इच्छा अर्थ में विकल्प से क्यच प्रत्यय होता सुपि-III.i. 106 सुबन्त उपपद रहते (उपसर्गरहित क्यप् प्रत्यय होता है, चकार से यत् प्रत्यय भी होता है)। सुपि-III. ii.4 सबन्त उपपद रहते (स्था धात से 'क' प्रत्यय होता है। सुपि-III. ii. 68 (अजातिवाची) सुबन्त उपपद हो, तो (ताच्छील्य = . 'ऐसा उसका स्वभाव है',गम्यमान होने पर सब धातुओं . से णिनि प्रत्यय होता है)। सुपि- VI. i. 89 सुबन्त अवयव वाले (ऋकारादि धात) के परे रहते (अवर्णान्त उपसर्ग से उत्तर पूर्व-पर के स्थान में संहिता के विषय में आपिशलि आचार्य के मत में विकल्प से वद्धि एकादेश होता है)। . सुपि - VI. 1. 185 सुप् परे रहते (सर्व शब्द के आदि को उदात्त होता है)। सुपि-VI. iv. 83. (धातु का अवयव संयोग पूर्व नहीं है जिस उवर्ण के, तदन्त अनेकाच् अङ्ग को अजादि) सुप परे रहते (यणादेश होता है)। सुपि-VII. iii. 101 (अकारान्त अङ्ग को यादि) सुप् परे रहते (भी दीर्घ होता है)। सुपि-VIII. I. 69 (गोत्रादि-गण-पठित शब्दों को छोड़कर निन्दावाची) सुबन्त शब्दों के परे रहते (भी गति संज्ञासहित एवं गति संज्ञारहित दोनों तिङन्तों को अनुदात्त होता है)। सुपि - VIII. iii. 16 (रु के रेफ को) सुप् परे रहते विसर्जनीय आदेश होता सुप-V.li.68 (किञ्चित् न्यून' अर्थ में वर्तमान) सुबन्त से (विकल्प से बहुच् प्रत्यय होता है और वह सुबन्त से पूर्व में ही होता ...सुपरि... - V. 1. 84 देखें-शेवलसुपरिo v. iii. 84 सुपा-II.1.4 सुबन्त के साथ (समर्थ सुबन्त का समास होता है) यह अधिकार है। सुपाम्- VII. 1. 39 सुपों के स्थान में (स.लक.पूर्वसवर्ण आ.आत.शे.या. डा,ड्या, याच, आल् आदेश होते हैं, वेदविषय में)। सुपि... - VIII. iii. 88 देखें - सुपिसूतिसमा: VIII. iii. 88 सुपिसूतिसमा - VIII. ii. 88 (सु, वि, निर् तथा दुर से उत्तर) सुपि, सूति तथा सम के (सकार को मूर्धन्यादेश होता है)। . Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...सुपूर्वस्य 553 सुसर्वार्थात् ...सुपूर्वस्य - V. iv. 140 ...सुरा... -II. iv.25 . देखे-संख्यासुपूर्वस्य V. iv. 140 देखें- सेनासुरादाया. II. iv. 25 सुप्तिङन्तम् - I. iv. 94 सुलुक्पूर्वसवर्णाच्छेयाडाड्यायाजाल- VII.i. 39 सुबन्त तथा तिडन्त शब्दरूप (पदसंज्ञक होते हैं)। (सुपों के स्थान में) सु, लुक, पूर्वसवर्ण, आ, आत.शे. सुप्पितौ-III.1.4 या,डा,ड्या,याच,आल् आदेश होते हैं, वेद-विषय में)। • सु आदि प्रत्यय और पित् = जिनके प् की इत्संज्ञा है, सुलोप:- VI. I. 128 वे प्रत्यय (अनुदात्त होते है)। (ककार जिनमें नहीं है, तथा जो नञ्-समास में वर्तमान सुप्रात... - V. iv. 120 नहीं हैं, ऐसे एतत् तथा तत् शब्दों के) सु का लोप हो देखें- सुप्रातसुश्क. V. iv. 120 जाता है, (हल् परे रहते, संहिता के विषय में)। सुप्रातसुश्वसुदिवशारिकुशचतुरस्त्रैणीपदाजपदप्रोष्ठपदा:- सुलोप- VII. ii. 107 v. iv. 120 (अदस् अङ्ग को सु परे रहते औ आदेश तथा) सु का सुप्रात, सुश्व, सुदिव,शारिकुक्ष, चतुरश्र, एणीपद, अज लोप होता है। पद, प्रोष्ठपद-बहुव्रीहि समास वाले ये शब्द (अच्प्रत्ययान्त निपातन किये जाते हैं)। ...सुवति...- VIII. 1.65 देखें- सुनोतिसुवतिVIII. Iii. 65 सुस्वरसम्शातुम्विधिषु- VIII. 1.2 सुवास्त्वादिभ्यः - Vi.76 सुप्-विधि, स्वरविधि, सञ्जाविधि तथा (कृत-विषयक) . सुवास्तु आदि प्रातिपदिकों से (चातुरर्थिक अण प्रत्यय तुक की विधि करने में (नकार का लोप असिद्ध होता होता है)। सुविनिर्दुW: - VIII. II.88 सुब्रह्मण्यायाम्-I. I. 37 सुब्रह्मण्यानामक निगदविशेष में (एक श्रुति नहीं होती, सु, वि, निर् तथा दुर् से उत्तर (सुपि, सूति तथा सम के किन्तु उस निगद में जो स्वरित,उसको उदात्त तो हो जाता सकार को मूर्धन्यादेश होता है)। ...सुवो:- VII. iii. 88 'देखें- भूसुवो: VII. iii. 88 ..सुभग...-III. 1.56 देखें-आयसुभग III. 1.56 ...सुश्व.. - V. iv. 120 ....सुंज्य-V. iv. 121 देखें- सुप्रातसुश्क V. iv. 120 देखें-नन्दुःसुभ्यः V. iv. 121 सुपामादिषु-VIII. Ill. 38 ..सुभ्याम् -VI. II. 172 सुषामादि शब्दों में (वर्तमान सकार को भी मूर्धन्य आदेदेखें-नसुभ्याम् VI. 1. 172 श होता है)। ..सुमङ्गल..-IV.i. 30 ....सुपि.. - V. ii. 107 देखें- केवलमामक IV.I. 30 देखें-उपसुषिःv.ii. 107 -सुम्नयो:-VII. iv. 38 ...सुषु-III. Iii. 126 देखें-देवसुम्नयोः VII. iv. 38 सुयो -III. 1. 103 देखें-ईप:सुषु III. iii. 126 सुसर्वार्थात् - VII. III. 12 पुल तथा यज् धातु से (भूतकाल में वनिप् प्रत्यय होता स,सर्व तथा अर्ध शब्द से उत्तर (जनपदवाची उत्तरपद शब्द के अचों में आदि अच् को जित, णित् तथा कित् ...सुरभिय-V.N. 135 .... .. तद्धित प्रत्यय परे रहते वृद्धि होती है)। देखें-अपूतिः .. 135 Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुहरितवणसोमेश्यः 554 तो)। सुहरिततृणसोमेभ्यः - V.in. 125 ...सूत्रान्तात्-IV. 1.59 बहदीहि समास में) स.हरित तण तथा सोम शब्दों से देखें-क्रतक्थादिOV.1.59 उत्तर (जम्मा शब्द अनिच्यत्ययान्त निपातन किया जाता सूद...-III. II. 153 . देखें- सूददीपदीक्षIII. 1. 153 ... ...सुहितार्थ.-II. I. 11 ....सूद..-VI. 1. 129 देखें-कूलसूदO VI. 1. 129. . देखें-पूरणगुणसुहितार्थ II. ii. 11 सूददीपदीक्ष-III. ii. 153 सुहृद्...- V. iv. 150 देखें- सुहृदुईदौ v. iv. 150 षूद,दीपी,दीक्ष धातुओं से (भी तच्छीलादि कर्ता हों तो सुहहुईदौ-V.iv. 150 वर्तमान काल में युच् प्रत्यय नहीं होता)। ....सूप...-VI. ii. 128 .. सुहृद् तथा दुईद् शब्द (कृतसमासान्त निपातन किये देखें-पललसूफVI.ii. 128.. जाते हैं, यथासङ्ख्य करके मित्र तथा अमित्र वाच्य हों सूपमानात्-VI. ii. 145 सु तथा उपमानवाची से उत्तर (क्तान्त उत्तरपद को ...सू...-III. 1.61 देखें- सत्सIII. 1.61 . अन्तोदात्त होता है)। . ...सू..-III. 1. 184 ...सूयति..-VII. Ii. 44 देखें- अतिलू III. 1. 184 देखें- स्वरतिसूति VII. . 44 ...सूरमसात्-IV.i. 168 ...सूकरयो:-III. 1. 183 देखें-यमगध IV.I. 168 देखें- हलसूकरयोः III. II. 183 ...सूर्त...- VIII. 1.61 सूक्त...-v.1.59 देखें-नसत्तनिफ्ताo VIII. ii. 61.. देखें- सूक्तसाम्नो: V. 1. 59 ...सूर्य... - III. . 114 सूक्तसाम्नो:- V. 1. 59 देखें- राजसूयसूर्य III. 1. 114 .. (प्रातिपदिकमात्र से मत्वर्थ में छ प्रत्यय होता है। सूक्त सूर्य...-VI. iv. 149 और साम = सामवेद के मन्त्र का गान वाच्य हो तो। देखें- सूर्यतिष्य VI. iv. 149 ..सूति..- VII. II. 34 सूर्यतिव्यागस्त्यमत्स्यानाम्-VI.iy. 149 देखें-स्वरतिसूतिo VII. ii. 34 (भसज्ञक अङ्ग के उपधा यकार का लोप होता है, ...सूति...-VIII. iii. 88 ईकार तथा तद्धित के परे रहते, यदि वह य) सूर्य, तिष्य, देखें-सुपिसूतिसमा: VIII. 1. 88. अगस्त्य तथा मत्स्य-सम्बन्धी हो। ...सूत्र..-III. I. 23 ...स्...-III.1.149 देखें-शब्दश्लोक III. II. 23 देखें-पुसृल्यः III.1. 149 ...सू...-III. II. 145 ...सूत्र..-V.1.57 देखें-लपसूद III. ii. 145 देखें-संज्ञासंघसूत्रा0 V.1.57 ...स...-IIL. I. 150 सूत्रम्- VIII. ill. 90 देखें-जुचक्रम्य III. ii. 150 (प्रतिष्णातम' में षत्व निपातन है धागा को कहने में। स-III. 160 सूत्रात्- IV. i. 64 देखें- सूघस्यदः III. ii. 160 (द्वितीयासमर्थ ककार उपधावाले) सत्रवाची प्रातिप- स-mill. 17 दिकों से (भी 'तदधीते तद्वेद' अर्थ में उत्पन्न प्रत्यय का सूधातु से (चिरस्थायी कर्ता वाच्य हो तो घब प्रत्यय लुक हो जाता है)। होता है)। 4 0 . . ., Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 555 ...स... -VII. 1. 13 देखें-कृस VII. 1. 13 सघस्यद-III. ii. 160 स,घसि, अद् धातुओं से (तच्छीलादि कर्ता हों तो वर्तमानकाल में क्मरच् प्रत्यय होता है)। ...सृज..- VIII. 1. 36 देखें-वश्वभ्रस्ज VIII. ii. 36 सजि..-VI.i.57 देखें- सृजिदृशोः VI. 1.57 सृजि...-VII. ii. 65 देखें-सजिदृशो: VII. 1.65 ...सृजि... - VIII. iii. 110 देखें- रपरसूफि ViII. iii. 110 सजिदृशोः - VI.i. 57 सज और दशिर धात् को (कित् भिन्न झलादि प्रत्यय परे हो तो अम् आगम होता है)। सजिदशो: - VII. I. 65 सज तथा दशिर अङग के (थल को विकल्प से इट आगम नहीं होता)। - सृपि... - III. iv. 17 . देखें-सृपितृदोः III. iv. 17 ...पि...- VIII. iii. 110 देखें- रपरसृफिO VIII. iii. 110 से-VII. 1.77 (ईश ऐश्वर्ये' धातु से उत्तर) 'से' -इस (सार्वधातुक) को (इट् आगम होता है)। से:-III. iv. 87 (लोडादेश जो) सिप, उसके स्थान में (हि आदेश होता है और वह अपित् भी होता है)। सेट्-I.ii. 18 सेट् = इड्युक्त (क्त्वा प्रत्यय कित् नहीं होता है)। सेटि-VI.i. 190 सेट् (थल) परे रहते (इट को विकल्प से उदात्त होता है एवं चकार से आदि तथा अन्त को विकल्प से होता है)। सेटि-VI. iv. 52 सेट् (निष्ठा) परे रहते (णि का लोप हो जाता है)। मेडि 121 सेट् (थल) परे रहते (भी अनादेशादि अङ्ग के दो असहाय हलों के मध्य में वर्तमान जो अकार,उसके स्थान में एकार आदेश हो जाता है तथा अभ्यास का लोप होता सृपितृदोः- III. iv. 17 (भावलक्षण में वर्तमान) सृपि तथा तृद् धातुओं से (वेदविषय में तुमर्थ में कसुन् प्रत्यय होता है)। से...-III. iv.9 देखें-सेसेनसे III. iv.9 से-III. iv. 80 टित् लकारों (लट्, लि, लु, लट्, लेट्, लोट्) के स्थान में जो थास् आदेश, उसके स्थान में से आदेश हो जाता ...सेघ...- VIII. 1.65 देखें-सुनोतिसुवतिo VIII. 1.65 सेघते:- VIII. iii. 113 (गति अर्थ में वर्तमान) 'षिधु गत्याम्' धातु के (सकार को मूर्धन्य आदेश नहीं होता)। ....सेन्...-III. .9 देखें-सेसेनसे III. iv.9 सेनकस्य-v.iv. 112 (अव्ययीभाव समास में वर्तमान गिरिशब्दान्त प्रातिपदिक से भी समासान्त टच प्रत्यय विकल्प से होता है) सेनक आचार्य के मत में। ...सेनय... -VIII. 11.65 देखें- सुनोतिसुवतिO VIII. III. 65 सेना... - II. iv. 25 देखें-सेनासुराच्छायाo II. iv. 25 ..सेना... -III. 1. 25 देखें- सत्यापपाश III. 1. 25 से- VII. I. 57 (कृती, वृती, उच्छदिर, उतृदिर, नृती -इन धातुओं से उत्तर सिच भिन्न सकारादि (आर्धधातुक) को विकल्प से इट् का आगम होता है)। Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... सेना... ... सेना... - III. ii. 17 देखें - भिक्षासेनाo III. ii. 17 .... सेनाङ्गानाम् - II. iv. 2 देखें - प्राणितूर्यसेनाङ्गानाम् II. iv. 2 सेनान्त... - IV. 1. 152 देखें - सेनान्तलक्षणo IV. 1. 152 सेनान्तलक्षणकारिभ्य: - IV. 1. 152 सेना अन्त वाले प्रातिपदिकों से, लक्षण शब्द से तथा कार = शिल्पीवाची प्रातिपदिकों से (भी अपत्यार्थ में ण्य प्रत्यय होता है) । सेनाया: - IV. iv. 45 (द्वितीयासमर्थ) सेना प्रातिपदिक से (इकट्ठा होता है'अर्थ में विकल्प से ण्य प्रत्यय होता है, पक्ष में ढक्) । सेनासुराच्छायाशालानिशानाम् - II. iv. 25 (नञ्कर्मधारयवर्जित) सेना, सुरा, छाया, शाला, निशाशब्दान्त (तत्पुरुष विकल्प से नपुंसकलिङ्ग में होता है)। सेव... - VIII. iii. 70 देखें- सेवसितo VIII. iii. 70 ... सेवन... - I. iii. 32 देखें- गन्धनाव क्षेपणसेवनo I. iii. 32 सेवसितसयसिवु सहसुट्स्तुस्वञ्जाम् VIII. iii. 70 556 (परि, नि तथा वि उपसर्ग से उत्तर) सेव, सित, सय, सिवु, सह, सुट, स्तु तथा स्व के (सकार को मूर्धन्य आदेश होता है, सित शब्द से पहले-पहले अड्-व्यवाय एवं अभ्यास- व्यवाय में भी होता है)। सेवित... - VI. 1. 140 देखें- सेवितासेवितo VI. 1. 140 ...से ... - VII. 1. 9 देखें - तितुo VII. 1. 9 सेसेनसेऽसेक्सेक सेनध्यै अध्यैन्क ध्यैकध्यैन्शध्यैशध्यैन्तवैतवेतवेन: - III. iv. 9 (वेदविषय में तुमर्थ में धातु से) से, सेन, असे, असेन, क्से, कसेन, अध्यै, अध्यैन, कध्यै, कध्यैन्, शध्यै, शध्यैनन्, तवै तवे, तवेन् प्रत्यय होते हैं। ... सैन्धवेषु - VI. ii. 72 देखें - गोबिडालo VI. ii. 72 सो: - VI. ii. 117 सु से उत्तर (मन् अन्त वालें तथा अस् अन्त वाले उत्तरपद शब्द को बहुव्रीहि समास में आद्युदात्त होता है, लोमन् तथा उषस् शब्दों को छोड़कर) । सो - VI. ii. 195 उपसर्ग से उत्तर (उत्तरपद को तत्पुरुष में अन्तोदात्त होता है, निन्दा गम्यमान हो तो)। सोढ - VIII. iii. 115 सोढ़ के (सकार को मूर्धन्यादेश नहीं होता) । सोमात् सोढम् – IV. iii. 52 (प्रथमासमर्थ कालवाची) सहन किया समानाधिकरण प्रातिपदिक से (षष्ठ्यर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है)। सोदरात् - IV. iv. 109 (सप्तमीसमर्थ) सोदर प्रातिपदिक से (शयन किया हुआ' अर्थ में य प्रत्यय होता है ) । सोपसर्गम् - VIII. 1. 53 (गत्यर्थक धातुओं के लोडन्त से युक्त) उपसर्गरहित (एवम् उत्तमपुरुषवर्जित जो लोडन्त तिङन्त, उसे विकल्प करके अनुदात्त नहीं होता, यदि कारक सभी अन्य न हों तो) । सोम... - VI. iii. 26 देखें - सोमवरुणयो: VI. iii. 26 सोम... - VI. iii. 130 देखें - सोमाश्वेन्द्रियo VI. iii. 130 सोमम् - IV. iv. 137 (द्वितीयासमर्थ) सोम प्रातिपदिक से (अर्हति' अर्थ में य प्रत्यय होता है) । सोमवरुणयो: - VI. iii. 26 (देवतावाची द्वन्द्व समास में) सोम तथा वरुण शब्द उत्तरपद रहते (अग्नि शब्द को ईकारादेश होता है) । ... सोमाः - VIII. iii. 82 देखें- स्तुत्स्तोमसोमा: VIII. iii. 82 सोमात् - IV. 1. 29 (प्रथमासमर्थ देवतावाची) सोम शब्द से (षष्ठ्यर्थ में 'ट्यण्' प्रत्यय होता है)। Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमाश्वेन्द्रियविश्वदेव्यस्य 557 स्तनः सोमाश्वेन्द्रियविश्वदेव्यस्य -VI. iii. 130 सोम, अश्व,इन्द्रिय,विश्वदेव्य-इन शब्दों को (मतुप् प्रत्यय परे रहते दीर्घ हो जाता है, मन्त्र विषय में)। सोमे-III. ii. 90 'सोम' (कर्म) उपपद रहते (षुञ् धातु से 'क्विप्' प्रत्यय होता है, भूतकाल में)। सोमे- VII. ii. 33 रतसब्द वदावषयम) सामवाच्य होने पर(निपातन किया जाता है)। ...सोमेश्य-v.iv. 125 देखें-सुहरितo V. iv. 125 ...सौ-I. iv. 19 देखें-तसौ I. iv. 19 सौ -VI.i. 162 (सप्तमीबहुवचन) सु के परे रहते (एक अच् वाले शब्द से उत्तर तृतीया विभक्ति से लेकर आगे की विभक्तियों को उदात्त होता है)। सौ - VI. iv. 13 . (सम्बुद्धिभिन्न) सु विभक्ति परे रहते (भी इन,हन, पूषन, तथा अर्थमन् अङ्गों की उपधा को दीर्घ होता है)। सौ - VII. I. 82 सु परे रहते (अनडुह् अङ्ग को नुम् आगम होता है)। सौ-VII. 1. 93 (सखि अङ्ग को सम्बुद्धिभिन्न) सु परे रहते (अनङ् आदेश होता है)। सौ--VII. 1. 94 'सु विभक्ति परे रहते (युष्मद, अस्मद अङ्ग के मपर्यन्त भाग को क्रमशः त्व तथा अह आदेश होते है)। सौ-VII. iii. 107 (त्यदादि अङ्गों के अनन्त्य तकार तथा दकार के स्थान म) सु विभक्ति परे रहते (सकारादेश होता है)। सी-VIII. 110 (इदम् के दकार के स्थान में यकार आदेश होता है) सु विभक्ति के परे रहते। सौवीर... - IV.1.75 देखें-सौवीरसाल्क IV.1.75 सौवीरसाल्वप्राक्षु - IV. ii. 75 (स्त्रीलिङ्गवाची) सौवीर, साल्व तथा पूर्वदेश अभिधेय होने पर (ड्यन्त, आबन्त प्रातिपदिकों से चातुरर्थिक अञ् प्रत्यय होता है)। सौराज्ये - VIII. ii. 14 (राजन्वान शब्द) सौराज्य = अच्छे राजा का कर्म गम्यमान होने पर (निपातन है)। ...स्कन्दाम-III. iv.56 देखें-विशिपतिपदि III. iv. 56 ...स्कन्दाम् -VII. iv. 84 देखें-वचुलंसु० VII. iv.84 स्कन्दि... -VI. iv. 31 देखें- स्कन्दिस्यन्दो: VI. iv. 31 स्कन्दिस्यन्दो:- VI. iv. 31 स्कन्द तथा स्यन्द् के (नकार का लोप क्त्वा प्रत्यय परे रहते नहीं होता)। स्कन्द-VIII. iii. 73 (वि उपसर्ग से उत्तर) स्कन्दिर धातु के (सकार को निष्ठा परे न हो तो विकल्प से मूर्धन्य आदेश होता है)। ...स्कभित..-VII. ii. 34 देखें- ग्रसितस्कभितo VII. il. 34 स्क माते:- VIII. iii. 76 (वि उपसर्ग से उत्तर) स्कन्भु धातु के (सकार को नित्य ही मूर्धन्य आदेश होता है)। ...स्कम्भु...-III. 1. 82 देखें-स्तम्भुस्तुम्भुo III.i. 82 ...स्कुञ्यः -III. 1.82 . देखें-स्तम्भुस्तुम्भु III. 1. 82 ...स्कुम्भु...-III. 1.82 देखें-स्तम्भुस्तुम्भु III. 1.82 स्को : - VIII. ii. 29 (पद के अन्त में तथा झल परे रहते संयोग के आदि के) सकार तथा ककार का (लोप होता है)। स्तन: -VI. ii. 163 (संख्या शब्द से उत्तर) स्तन शब्द को (बहुव्रीहि समास में अन्तोदात्त होता है)। Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 558 स्तनः -VIII. iii. 86 स्तम्भुस्तुम्भुस्कम्भुस्कुम्भुस्कुज्य-III.1.82 (अभि तथा निस् से उत्तर) स्तन् धातु के (सकार को स्तम्भु,स्तम्भु,स्कम्भु,स्कुम्भु तथा स्कुञ्-इन धातुओं शब्द की सज्ञा गम्यमान हो तो विकल्प से मूर्धन्य आदेश से (श्नु प्रत्यय तथा श्ना प्रत्यय भी होता है, कर्तृवाची होता है)। सार्वधातुक परे रहते)। ...स्तम्भो :- VIII. iv.60 . ...स्तनयोः-II. 1. 29 देखें- स्थास्तम्भो: VIII. iv.60 देखें-नासिकास्तनयोः III. 1. 29 ...स्ता ... -III. . 123. स्तन्म:- VIII. iii. 67 देखें-निष्टयदेवहूय III. I. 123 (उपसर्गस्थ निमित्त से उत्तर) स्तन्मु के (सकार को मूर्धन्य ...स्ताव्य.. -III. I. 123 आदेश होता है, अट् के व्यवाय एवं अभ्यास के व्यवाय देखें-निष्टक्र्यदेवहूय० III. 1. 123 .. में भी)। ...स्तु...-III. 1. 109 ...स्तभित...- VII. ii. 34 देखें- एतिस्तु III. 1. 109 देखें- ग्रसितस्कभित० VII. ii. 34 ....स्तु... -III. ii. 182 स्तम्ब..-III. I. 13 देखें-दाम्नीo III. ii. 182 . देखें-स्तम्बकर्णयोः III. ii. 13 ...स्तु... -III. iii. 27 . स्तम्ब..-III. 1. 24 देखें-दुस्तुनुवः III. iii. 27 देखें-स्तम्बशकतोः III. ii. 24 ...स्तु... -VII. I. 13 स्तम्बकर्णयोः-III. 1. 13 देखें-कृस VII. ii. 13 स्तम्ब तथा कर्ण (सबन्त) उपपद रहते (क्रमशः रम तथा ...स्तु...-VIII. iii. 70 जप् धातु से अच् प्रत्यय होता है)। देखें-सेवसित VIII. iii. 70 - स्तु...-VII. ii. 72. स्तम्बशकतो:-III. II. 24 देखें-स्तुसुधूभ्यः VII. ii. 72 ... स्तम्ब तथा शकृत् (कर्म) के उपपद रहते (कृज् धातु से ...स्त...-VII. III.95 इन् प्रत्यय होता है)। देखें- तुरुस्तु0 VII. iii. 95 स्तम्ब = तृण,पास। स्तुत्...-VIII. iii. 82 शकृत् = विष्ठा। देखें- स्तुत्स्तोमसोमाः VIII. iii. 82 स्तम्बे-III. Iii. 3 स्तुत्स्तोमसोमा:- VIII. iii. 82 स्तम्ब शब्द उपपद रहते हुए (करण कारक में हन् धातु (अग्नि शब्द से उत्तरास्तत.स्तोम तथा सोम के (सकार से क प्रत्यय तथा अप् प्रत्यय भी होता है और अप्प्रत्यय को समास में मूर्धन्य आदेश होता है)। परे रहने पर हन् को धन आदेश भी हो जाता है)। स्तुत...- VIII. iii. 105 ...स्तम्भु... -III.1.58.-- देखें-स्तुतस्तोमयो: VIII. ill. 105 देखें-स्तम्भु III.1.58 स्तुतस्तोमयो:-VIII. II. 105 स्तम्भु...- VIII. III. 116 (इण तथा कवर्ग से उत्तर) स्तुत तथा स्तोम के (स को देखें-स्तम्भुसिवुसहाम् VIII. II. 116 वेदविषय में कई आचार्यों के मत में मूर्धन्य आदेश होता स्तम्भुसिवुसहाम्-VIII. III. 116 स्तम्भु,पिवु तथा वह धातु के (सकार को चङ् परे रहते ...स्तुम् ... -III. 1.82 मूर्धन्य आदेश नहीं होता)। देखें-स्तम्भुस्तुम्भु III. 1. 82 Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 559 . . स्तोम:- VIII. II. 83 (ज्योतिस् तथा आयुस् शब्द से उत्तर) स्तोम शब्द के (सकार को समास में मूर्धन्य आदेश होता है)। ...स्तोमयो:- VIII. II. 105 देखें-स्तुतस्तोमयोः VIII. iii. 105 स्तौति...-VIII. 1.61 देखें-स्तौतिण्यो: VIIJ. II. 61 ...स्तौति...-VIII. ill. 65 देखें-सुनोतिसुवतिः VIII. 1.65 स्तौतियोः - VIII. I.1 (अभ्यास के इण से उत्तर) स्तु तथा ण्यन्त धातुओं के (आदेश सकार को ही षत्वभूत सन् परे रहते मूर्धन्य आदेश होता है)। स्त्यः - VI. . 23 (प्र-पूर्ववाले) स्त्यै धातु को (निष्ठा परे रहते सम्प्रसारण हो जाता है)। स्तुकः -III. ii. 31 (यज्ञविषय में सम्पूर्वक) स्तु धातु से (कर्तृभिन्न कारक संज्ञा विषय में घञ् प्रत्यय होता है)। स्तुसुधूश्य-VII. 1.71 टुज, षुब् तथा धूज् धातु से उत्तर (परस्मैपद परे रहते सिच् को इट् का आगम होता है)। ...स्तृ...- VII. iv.95 देखें- स्मदत्वरo VII. iv.95 स्तेनात्...-v.i. 124 . (षष्ठीसमर्थ) स्तेन प्रातिपदिक से (भाव और कर्म अर्थ में यत् प्रत्यय होता है तथा स्तेन शब्द के न का लोप भी हो जाता है)। स्तो:- VIII. iv. 39 . (शकार और चवर्ग के योग में) सकार और तवर्ग के स्थान में (शकार और चवर्ग आदेश होते है)। स्तोक...-II.i. 38 देखें- स्तोकान्तिकदूरार्थ. II. 1. 38 ...स्तोक...-II.1.64 देखें-पोटायुवतिस्तोक II.1.64 स्तोक... - II. iii. 33 देखें-स्तोकाल्पकृच्छ्र II. iii. 33 . स्तोकादिभ्यः-VI. iii. 23 स्तोकादियों से उत्तर (पञ्चमी विभक्ति का उत्तरपट परे · रहते अलुक् होता है)। स्तोकान्तिकदूरार्धकृच्छ्राणि-II. 1. 38 ' स्तोक = अल्प,अन्तिक = निकट तथा दूर अर्थ वाले (पञ्चम्यन्त सुबन्त) तथा कृच्छू-ये (पञ्चम्यन्त सुबन्त) शब्द (समर्थ क्तान्त सुबन्त के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होते हैं और वह तत्पुरुष समास होता है)। स्तोकाल्पकृच्छ्रकतिपयस्य-II. iii. 33 (असत्ववाची) स्तोक, अल्प, कृच्छू, कतिपय -इन । शब्दों से (करण कारक में तृतीया और पञ्चमी विभक्ति होती है)। . ...स्तोपति.-VIII. iii. 65 • देखें-सुनोतिसुवतिO VIII. iii. 65 ...स्तोम...- VIII. I.82 ' देखें- स्तुत्स्तोमसोमः VIII. 1. 82 स्व-III. iii. 32 (प्र-पूर्वक) स्तृञ् आच्छादने धातु से (यज्ञविषय को छोड़कर कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है)। खिया-I. ii. 67 (पॅल्लिङ्ग शब्द) स्त्रीलिङ्ग शब्द के साथ (शेष रह जाता है, स्त्रीलिङ्ग शब्द हट जाता है, यदि उन शब्दों में स्त्रीत्व पुंस्त्वकृत ही विशेष हो, अन्य प्रकृति आदि सब समान ही हों)। खिया:-VI. iii. 33 (एक ही अर्थ में अर्थात् एक ही प्रवृत्तिनिमित्त को लेकर भाषित = कहा है पुंल्लिङ्ग अर्थ को जिस शब्द ने, ऐसे ऊवर्जित भाषितपुंस्क) स्त्री शब्द के स्थान में (पुल्लिङ्गवाची शब्द के समान रूप हो जाता है,पूरणी तथा प्रियादिवर्जित स्त्रीलिङ्ग समानाधिकरण परे हो तो)। खियाः-VI. iv.79 स्वी शब्द को (अजादि प्रत्यय परे रहते इयङ् आदेश होता है)। खियाम् -III. iii. 43 (क्रिया का अदल-बदल गम्यमान हो तो) स्त्रीलिङ्ग में (धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञाविषय तथा भाव में णच प्रत्यय होता है)। Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खियाम् 560 ...स्थ.. खियाम्- VII. i. 99 (त्रि तथा चतुर अङ्गको) स्त्रीलिङ्ग में क्रमशः तिसृ,चतसृ आदेश होते हैं, विभक्ति परे रहते)। ....खियो:-I.ii. 48 देखें- गोस्त्रियोः I. ii. 48 स्त्री- I. 1.66 (गोत्रप्रत्ययान्त) स्त्रीलिङ्ग शब्द (युवप्रत्ययान्त के साथ शेष रह जाता है और उस स्त्रीलिङ्ग गोत्रप्रत्ययान्त शब्द को पुंवत् कार्य भी हो जाता है, यदि उन दोनों शब्दों में वृद्धयुवप्रत्ययनिमित्तक ही वैरूप्य हो तो)। खियाम् -III. ii.94 (धातुमात्र से) स्त्रीलिङ्ग में (कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में क्तिन् प्रत्यय होता है)। . खियाम्- IV.1.3 (यहाँ से आगे कहे हुए प्रत्यय,प्रातिपदिकों से) स्त्रीलिङ्ग अर्थ में हुआ करेंगें। खियाम्-IV. 1. 109 (आङ्गिरस गोत्रापत्य में उत्पन्न जो यञ् प्रत्यय,उसका) स्त्री अभिधेय हो (तो लुक हो जाता है)। खियाम्- IV. 1. 174 (क्षत्रियाभिधायी जनपदवाची जो अवन्ति, कुन्ति तथा कुरु शब्द, उनसे भी उत्पन्न जो तद्राज प्रत्यय, उनका) स्त्रीलिङ्ग अभिधेय हो (तों लुक् हो जाता है)। खियाम्-V.iv. 14 (णात्ययान्त प्रातिपदिक से स्वार्थ में अब प्रत्यय होता है) स्त्रीलिङ्ग में। खियाम्- V. iv. 143 (बहुव्रीहि समास में अन्य पदार्थ) यदि स्त्री वाच्य हो तो (दन्त शब्द के स्थान में दतृ आदेश हो जाता है, सजा- विषय में)। खियाम्- V. iv. 152 (बहुव्रीहि समास में इन अन्त वाले शब्दों से समासान्त कप् प्रत्यय होता है) स्त्रीलिङ्ग-विषय में। खियाम्- VI. 1. 213 (मतुप से पूर्व आकार को उदात्त होता है, यदि वह मत्वन्त शब्द) स्त्रीलिङ्ग में (सञ्जाविषयक हों)। खियाम्-VI. iii. 33 (एक ही अर्थ में अर्थात् एक ही प्रतिनिमित्त को लेकर भाषित = कहा है पुंल्लिङ्ग अर्थ को जिस शब्द ने.ऐसे ऊड़वर्जित भाषितपुंस्क स्त्री शब्द के स्थान में प- *ल्लिङ्गवाची शब्द के समान रूप हो जाता है. पूरणी तथा प्रियादिवर्जित) स्त्रीलिङ्ग (समानाधिकरण) उत्तरपद परे हो तो)। स्त्रियाम्-VII. 1.96 स्त्रीलिङ्ग में वर्तमान (क्रोष्ट शब्द को भी तजन्त शब्द के समान अतिदेश हो जाता है)। . (तरुणों से रहित ग्रामीण पशुओं (शेष रह जाता है, पुमान् हट जाते हैं)। स्त्री... - IV.i.87 देखें-स्त्रीपुंसाभ्याम् IV. 1.87 ....स्त्रीपुंस...- V. iv. 77 देखें- अचतुर0 V. iv.77 स्त्रीपुंसाभ्याम्- IV. 1.87 (धान्यानां भवने' V.ii. 1 से पूर्व कहे गये अर्थों में) स्त्री तथा पुंस शब्दों से (यथासंख्य नसथा स्नञ् प्रत्यय होते हैं)। खीभ्यः-IV.I. 120 स्त्रीप्रत्ययान्त प्रातिपदिकों से (अपत्य अर्थ में ढक् प्रत्यय होता है)। स्त्रीषु- IV. ii. 75 स्त्रीलिङ्गवाची (सौवीर, साल्व तथा पूर्वदेश अभिधेय होने पर यन्त और आबन्त प्रातिपदिकों से चातुर्थिक अब् प्रत्यय होता है)। ...खो:-III. II. 120 देखें- तस्वोः III. iii. 120 स्थ्याख्यौ-I.iv.3 (इकारान्त तथा ऊकारान्त) स्त्रीलिङ्गको कहने वाले शब्द (नदीसज्ज्ञक होते हैं)। ...स्थ... - VI. iv. 157 देखें-प्रस्थस्फO VI. iv. 157 Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 561 स्थानान्त... स्थ: -I. iii. 22 सम, अव.प्र तथा वि पूर्वक स्था धात से (आत्मनेपद होता है)। स्थ:-III. 1.4 स्था धातु से (सुबन्त उपपद रहते 'क' प्रत्यय होता है)। स्थ-III. 1.77 (सोपसर्ग या निरुपसर्ग) स्था धातु से (सुबन्त उपपद रहते क और क्विप् प्रत्यय होते है)। ...स्थ-III. 1. 139 . देखें- ग्लाजिस्थ III. 1. 139 स्थ-VIII. 1.97 (अम्ब, आम्ब, गो, भूमि, सव्य, अप, द्वि, त्रि, कु, शेकु, शडकु, अङगु,मडि, पुञ्जि,परमे,बर्हिस.दिवि तथा अग्निइन शब्दों से उत्तर) स्था धातु के (सकार को मूर्धन्य आदेश होता है)। ..स्थयो:-VI. 1. 95 . देखें-मादस्थयोः VI. 1.95 - '...स्थल..-IV.1.42 . देखें-जानपदकुण्डV.. 42 . ...स्थल..-VI. ii. 129 देखें-कूलसूदO VI. 1. 129 स्थलम्-VIII. III. 17 (वि,कु,शमि तथा परि से उत्तर) स्थल शब्द के (सकार को मूर्धन्य आदेश होता है)। स्थविरतरें-IV.i. 165 (भाई से अन्य सात पीढ़यों में से कोई) पद तथा आयु दोनों से बूढ़ा व्यक्ति (जीवित हो तो पौत्रप्रभृति का जो अपत्य, उसके जीते ही विकल्प से युवा संज्ञा होती है; पक्ष में गोत्रसंज्ञा)। स्था...-Li.17 . देखें- स्थाव्यो: I. 1. 17 ..स्वा.. -I. iv. 34 देखें-शलाबहनुहस्थाशपाम् I. iv.34 ...स्वा.-1..46 देखें-अधिशीइस्थासाम् I. iv.46 ..स्वा...-II. r.m देखें- गातिस्थाधुपा II. iv.77 ...स्था...-III. ii. 154 देखें-लपपत III. 1. 154 स्था...-III. 1.175 देखें-स्थेशमास III. 1. 175 स्था..-III. 11.95 देखें-स्थागापापच III. iii.95 स्था..- III. iv. 16 - देखें- स्वेण्क III. iv. 16 ...स्था..-III. iv.72 देखें- गत्यर्थाकर्मक III. iv.72 ...स्था...-VI. iv.66 देखें-घुमास्थाo VI. iv.66 ...स्था...- VII. ill. 78 देखें-पाघ्राध्या०VII. 1.78 ...स्था...-VIII. 11.65 देखें- सुनोतिसुवति० VIII. 1. 65 स्था...-VIII. Iv.60 देखें- स्थास्तम्भोः VIII. iv.60 स्थागापापक-III. 11.95 स्था, गा, पा, पच् धातुओं से (स्त्रीलिङ्ग भाव में क्तिन् प्रत्यय होता है)। स्थाप्यो:-I.1.16 स्था और घुसंज्ञक धातुओं से परे (सिच् कित्वत् होता है और इकारादेश भी हो जाता है)। स्थादिषु-VIII. Iii. 64 (सित से पहले-पहले) स्था इत्यादियों में (अभ्यास का व्यवधान होने पर भी मूर्धन्य आदेश होता है तथा अभ्यास के सकार को भी मूर्धन्य आदेश होता है)। ...स्थान...- VI. 1. 151 देखें- मन्वितन्. VI. II. 151 ...स्थान..-VI. 1.84 देखें-ज्योतिर्जनपदOVI. ii. 84 स्थानम्... -VIII. iii. 31 (भीरु शब्द से उत्तर) स्थान शब्द के (सकार को समास में मूर्धन्य आदेश होता है)। स्थानान्त... -VII. 35 देखें- स्थानान्तगोशाल N. III. 35 Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानान्तगोशालखरशालात् 562 ....स्थेयाख्ययोः स्थानान्तगोशालखरशालात् – IV. iii. 35 ...स्थिर...- VI. iv. 157 स्थान अन्त वाले.गोशाल एवं खरशाल प्रातिपदिकों देखें-प्रियस्थिरo VI. iv. 157 से (भी जातार्थ में उत्पन्न प्रत्यय का लुक् होता है)। स्थिर:- VIII. 1. 93 स्थानान्तात्-v. iv. 10 (गवि तथा युधि से उत्तर) स्थिर शब्द के (सकार को स्थानशब्दान्त प्रातिपदिक से विकल्प से छ प्रत्यय होता मूर्धन्य आदेश होता है)। है, यदि सस्थान = तुल्य से स्थानान्त अर्थवत् हो तो)। स्थिरे-III. iii. 17 स्थानिनः -II. iii. 14 (स धातु से) चिरस्थायी कर्ता वाच्य होने पर (पञ् प्रत्यय (क्रियार्थ क्रिया उपपद में है जिसके,ऐसी) अप्रयुज्यमान होता है)। धातु के (अनभिहित कर्मकारक में चतुर्थी विभक्ति होती ...स्थूल...-III. ii. 56 देखें- आढ्यसुभग III. ii.56 स्थानिनि-1. iv. 104 ...स्थूल... - VI. ii. 168 (युष्मद शब्द के उपपद रहते समान अभिधेय होने पर देखें- अव्ययदिक्शब्दO VI. ii. 168 युष्मद् शब्द का प्रयोग न हो (या हो तो भी मध्यम पुरुष स्थूल...- VI. iv. 156 होता है)। देखें-स्थूलदूर० VI. iv. 156 स्थानिवत्-I.i.55 स्थूल... - VII. ii. 20 (आदेश) स्थानी के सदृश माना जाता है.(वर्णसम्बन्धी देखें- स्थूलबलयोः VII. ii. 20 कार्य को छोड़कर)। स्थूलदूरयुवहस्वक्षिप्रक्षुद्राणाम्-VI. iv. 156 स्थाने-1.1.49 स्थूल, दूर, युव, हस्व, क्षिप्र, क्षुद्र-इन अङ्गों का (पर - स्थान में प्राप्यमाण (आदेशों में जो स्थानी के सबसे जो यणादिभाग,उसका लोप होता है; इष्ठन.इमनिच तथा अधिक समान हो, वह आदेश हो)। ईयसुन् परे रहते तथा उस यणादि से पूर्व को गुण होता स्थाने-VII. ii. 46 (यकार तथा ककार पूर्व वाले आकार के स्थान में (जो स्थूलबलयो:- VII. ii. 20 प्रत्ययस्थित ककार से पूर्व अकार,उसके स्थान में उदीच्य (दृढ शब्द निष्ठा परे रहते) स्थूल = मोटा तथा बलवान् आचार्यों के मत में इकारादेश नहीं होता)। अर्थ में (निपातन किया जाता है) स्थानेयोगा-I.1.48 स्थूलादिभ्यः- V. iv.3 (यदि अष्टाध्यायी में अनियतयोगा षष्ठी कहीं हो तो स्थूलादि प्रातिपदिकों से (प्रकार-वचन' गम्यमान हो उसे) स्थान के साथ योग = सम्बन्ध वाला मानना तो कन् प्रत्यय होता है)। चाहिये। स्थे-VI. 1. 19 ...स्थाम्- VII. iv.40 - स्थ शब्द के उत्तरपद रहते (भी भाषाविषय में सप्तमी देखें-धतिस्यति VII. iv. 40 का अलुक् नहीं होता है)। स्थालीबिलात्-v.i.69 (द्वितीयासमर्थ) स्थालीबिल प्रातिपदिक से (समर्थ है। स्थेण्कृज्वदिचरिहुतमिजनिभ्यः -III. iv. 16 अर्थ में छ और यत् प्रत्यय होते हैं)। (क्रिया के लक्षण में वर्तमान) स्था, इण, कृववदि,चरि, स्थालीबिल = पकाने वाले पात्र का भीतरी हिस्सा।। हु,तमि तथा जनि धातुओं से (वेदविषय में तोसुन प्रत्यय स्थास्तम्भो:- VIII. iv.60 होता है)। (उत् उपसर्ग से उत्तर) स्था तथा स्तम्भ को (पर्वसवर्ण ...स्थेयाख्ययोः -I. iii. 23 आदेश होता है)। देखें-प्रकाशनस्थेयाख्ययोः I. 1. 23 : Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेशभासपिसकस: स्थेशभासपिसकसः - III. ii. 175 स्था, ईश, भास, पिस्, कस् इन धातुओं से (तच्छीलादि कर्ता हों तो वर्तमानकाल में वरच् प्रत्यय होता है)। .. स्थौल्य ... - IV. 1. 42 देखें - वृत्यमत्रावपना० IV. 1. 42 वो:- VIII. li. 37 (धातु का अवयव जो एक अच् वाला तथा झषन्त, उसके स्थान में भष् आदेश होता है, झलादि) सकार तथा (झलादि) ध्व शब्द के परे रहते ( एवं पदान्त में) । ...sit- IV. i. 87 देखें-स्नाते:- VIII. iii. 89 (नि तथा नदी शब्द से उत्तर) 'ष्णा शौचे' धातु के (सकार को कुशलता गम्यमान हो तो मूर्धन्य आदेश होता है)। IV. 1. 87. स्नात्व्यादय:- VII. 1. 49 स्नात्वी इत्यादि शब्द (भी वेदविषय में निपातन किये जाते हैं)। . - III. 1. 89 ....सु... देखें- दुहस्नुनमाम् III. 1. 89 सु... - VII. ii. 36 देखें- स्नुक्रमो: VII. ii. 36 सुकमो:- VII. 1. 36 स्नु तथा क्रम् धातुओं के (वलादि आर्धधातुक को इट् आगम होता है, यदि स्तु तथा क्रम् आत्मनेपद के निमित्त न हों तो)। स्नेहविपातने - VII. iii. 39 (ली तथा ला अङ्ग को) स्नेह = घृतादि पदार्थों के पिघलने अर्थ में (णि परे रहते विकल्प से क्रमशः नुक् तथा लुक् आगम होता है)। ...-V. iv. 40 देखें- सस्नौ Viv. 40 स्पर्धायाम् - I. iii. 39 563 . स्पर्शयो:- VI. 1. 24 देखें- द्रवमूर्तिस्पर्शयो: VI. 1. 24 स्फिगपूतवीणाञ्जो वकुक्षिसीरनामनाम ... स्पशाम् - VII. Iv. 95 देखें - स्मृदृत्वर VII. iv. 95 ... स्पष्ट... - VII. 1. 27 देखें- दान्तशान्तo VII. ii. 27 स्पृश: - III. ii. 58 स्पृश् धातु से (उदकभिन्न सुबन्त उपपद रहते 'क्विन्' प्रत्यय होता है)। ... स्पृश: - III. iii. 16 देखें- पदरुजo III. iii. 16 ... स्पृशि... - VIII. iii. 110 देखें- रपरसृपि VIII. iii. 110 स्पृहि ... - III. ii. 158 देखें - स्पृहिगृहि III. ii. 158 ... स्पृहि ... - VIII. iii. 110 देखें- परस्पo VIII. iii. 110 स्पृहिगृहिपतिदयिनिद्रातन्द्रा श्रद्धाभ्यः - III. ii. 158 स्पृह, गृह, पत, दय, नि और तत्पूर्वक द्रा, श्रत् पूर्वक डुधाञ् - इन धातुओं से ( तच्छीलादि कर्ता हों तो वर्तमानकाल में आलुच् प्रत्यय होता है)। स्पृहे:- I. iv. 36 स्पृह धातु के (प्रयोग में ईप्सित जो है, वह कारक सम्प्रदानसंज्ञक होता है)। स्फाय :- VI. 1. 22 स्फायी धातु को (निष्ठा परे रहते स्फी आदेश हो जाता है)। . स्फाय:- VII. iii. 41 'स्फायी वृद्धौं' अङ्ग को (णि परे रहते वकारादेश होता है । स्फिग... - VI. ii. 187 देखें - स्फिगपूतo VI. ii. 187 स्फिगपूतवीणाञ्जोध्वकुक्षिसीरनामनाम -VI. ii. 187 (अप उपसर्ग से उत्तर) स्फिग, पूत, वीणा, अञ्जस् अध्वन्, स्पर्धा करने अर्थ में (आङ्पूर्वक ह्वेञ् धातु से आत्मनेपद कुक्षि तथा हल के वाची शब्दों को एवं नाम शब्द को होता है)। (भी अन्तोदात्त होता है) 1 स्फिग = कूल्हा । पूत = पवित्र, योजनाकृत, आविष्कृत । Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...स्फिर... 564 स्मोतरे अञ्जस् = सीधा। अध्वन् = मार्ग,समय, आकाश, साधन। . कुक्षि = कोख, पेट, गर्भाशय, गर्त,खाड़ी। ...स्फिर... -VI. iv. 157 देखें-प्रियस्थिरo VI. iv. 157 स्फी-VI.i. 22 (स्फायी धातु को निष्ठा के परे रहते) स्फी आदेश हो जाता है। स्फुरति...-VI.1.46 देखें- स्फुरतिस्फुलत्योः VI. 1. 46 . स्फुरति...- VIII. iii. 764 देखें-स्फुरतिस्फुलत्यो: VIII. 1.76 स्फुरतिस्फुलत्यो:-VI.1.46 स्फुर् तथा स्फुल् धातुओं के (एच् के स्थान में घञ् प्रत्यय के परे रहते (आकारादेश हो जाता है)। स्फुरतिस्फुलत्यो:- VIII. III. 76 (निर,नि,वि उपसर्ग के उत्तर) स्फुरति तथा स्फुलति के (सकार को विकल्प से मूर्धन्यादेश होता है)। ...स्फुरो:- VI. 1.53 देखें-चिस्फुरो: VI.i. 53 ...स्फुलत्यो:-VI.I. 46 . देखें- स्फुरतिस्फुलत्यो: VI. 1.46 ...स्फुलत्यो:- VIII. Iii. 76 देखें-स्फुरतिस्फुलत्यो: VIII. 1.76 स्फोटायनस्य-VI.i. 119 (अच् परे रहते गो को अवङ् आदेश विकल्प से होता है) स्फोटायन आचार्य के मत में। स्मयते:-VI..56 (हेत जहाँ भय का कारण हो,उस अर्थ में वर्तमान) मिङ धातु के (एच के विषय में णिच् परे रहते नित्य ही आत्व हो जाता है)। स्मात्..- VII. 1. 15 देखें-स्मास्मिनो VII. I. 15 स्मास्मिनौ-VII. 1. 15 (आकारान्त अङ्ग से उत्तर असि तथा ङि के स्थान में क्रमशः) स्मात् तथा स्मिन् आदेश होते हैं। ...स्मि...-III. 1. 167 देखें- नमिकम्पि III. 1. 167 स्मि...-VII. ii.74 देखें- स्मिपूड VII. ii. 74 ..स्मिनौ- VII. 1. 13 . देखें- स्मास्मिनौ VII. 1. 13 स्मिपूज्ज्व शाम्- VII. ii. 74 स्मिङ्, पूङ,ऋ, अङ्ग, अशू -इन अङ्गों के (सन् को इट् आगम होता है)। ...स्मृ...-I. iii. 57 देखें-ज्ञाश्रुस्मृदशाम् I. iii. 57 स्म...- VII. iv.95 देखें-स्मृदत्वर VII. iv. 95 स्मृदृत्वरप्रथमदस्तृस्पशाम्- VII. iv. 95. स्म, द, जित्वरा, प्रथ, प्रद, स्तन, स्पश् -इन अङ्गों के .. (अभ्यास को चङ्परक णि परे रहते अकारादेश होता है)। स्मे-III. II. 118 (परोक्ष अनद्यतन भूतकाल में वर्तमान धातु से) स्म शब्द उपपद रहते (लट् प्रत्यय होता है)। , स्मे-III. iii. 165 . औष, अतिसर्ग और प्राप्तकाल अर्थ गम्यमान हों तो मुहूर्त भर से ऊपर के काल को कहने में) स्म शब्द उपपद रहते (धातु से लोट् प्रत्यय होता है)। प्रैष = भेजना, आदेश, उन्माद । अतिसर्ग = स्वीकृति, अनुमति, पृथक करना। प्राप्तकाल = समयानुकूल यथाऋतु । , (अकारान्त सर्वनाम अङ्ग से उत्तर के के स्थान में) स्मै आदेश होता है। स्मोत्तरे - III. ill. 176 स्म शब्द अधिक है जिससे,उस (माङ् शब्द) के उपपद रहते (धातु से लङ् तथा लुङ् प्रत्यय होते है)। हमेशात Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 565 स्त्रवति... ...स्यो ...स्यो : -I. iil. 38 स्यसनो:-VIII. iii. 117 देखें-भीस्योः I. iii. 38 स्य तथा सन् प्रत्यय के परे रहते (पत्र धातु के सकार स्य..-I. iii. 92 . को मूर्धन्य आदेश नहीं होता)। देखें-स्यसनोः I. iii. 92 स्यसिसीयुट्तासिषु- VI. iv. 62 स्य.. -III. 1.33 देखें-स्यतासी III. I. 33 (भाव तथा कर्मविषयक) स्य, सिच, सीयुट् और तास् स्य..-VI. iv. 62 के परे रहते (उपदेश में अजन्त धातुओं तथा हन,ग्रह एवं देखें-स्यसिसीयुटOVI. iv. 62 दृश् धातुओं को चिण् के समान विकल्प से कार्य होता स्य..-VIII. iii. 117 देखें-स्यसनो: VIII. iii. 117 ...स्या:-VII.i. 12 स्य-VI.i. 129 देखें-इनात्स्या : VII.i. 12 स्य शब्द के (स का वेदविषय में हल परे रहते बहुल स्याट्-VII. iii. 114 करके लोप हो जाता है,संहिता के विषय में)। (आबन्त सर्वनाम अङ्ग से उत्तर ङित् प्रत्यय को) स्याट स्यतासी-III. 1. 33 आगम होता है (तथा उस आबन्त सर्वनाम को हस्व भी (धातु से लू = लुट्, लुङ् तथा लुट् परे रहते यथासंख्य हो जाता है)। करके) स्य तथा तास् प्रत्यय हो जाते हैं। स्यात्-I. ii. 55 ...स्यति... - VII. iv. 40 (सम्बन्ध को प्रमाण मानकर संज्ञा करें तो भी उसके देखें-धतिस्यति VII. iv. 40 अभाव होने पर उस संज्ञा का अदर्शन) होना चाहिये.(पर ...स्यति... -VIII. iii.65 वह होता नहीं है)। देखें- सुनोतिसुवतिO VIII. iii.65 स्यात्-v.i. 16 ...स्यति... -VIII. iv. 17 - देखें-गदनदO VIII. iv. 17 (प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक से षष्ठ्यर्थ में तथा प्रथमासस्यदः -VI, iv. 28 मर्थ प्रातिपदिक से सप्तम्यर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता (वेग अभिधेय होने पर घञ् परे रहते) स्यद शब्द निपा है) यदि वह प्रथमासमर्थ प्रातिपदिक स्यात् = 'सम्भव हो', क्रिया के साथ समानाधिकरण वाला हो तो। तन किया जाता है। स्यन्दते- VIII. iii. 72 स्ये- VII. ii.7 - (अनु, वि,परि, अभि, नि उपसर्गों से उत्तर) स्यन्द धात् (ऋकारान्त तथा हन् धातु के) स्य को (इट् आगम होता के (सकार को मूर्धन्य आदेश होता है, यदि प्राणी का है)। . कथन न हो रहा हो तो)। ...स्त्रक्... -III. 1.59 . ...स्यन्दो:-VI. iv. 31 देखें-ऋत्विग्दधक III. ii.59 . देखें-स्कन्दिस्यन्दो: VI. iv.31 ...स्वज:-v.ii. 121 "...स्यमि.. - VI.i. 19 देखें- अस्मायामेधाov.ii. 121 देखें- स्वपिस्यमि. VI. i. 19 ...स्त्रम्भ:- III. 1. 143 स्यसनो:-I. 1. 92 देखें-कवलस III. ii. 143 स्य और सन प्रत्ययों के होने पर (वतादि धातओं से स्रवति... - VII. iv. 81 विकल्प करके परस्मैपद होता है)। देखें-स्त्रवतिणोति० VII. iv.81 Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवतिगृणोतिद्रवतिप्रवतिप्लवतिव्यवतीनाम् 566 स्वपि.. स्ववतिशृणोतिद्रवतिप्रवतिप्लवतिव्यवतीनाम् - VII. स्वतवान्- VIII. iii. 11 iv.81 स्वतवान् शब्द के (नकार को रु होता है,पायु शब्द परे स्नु, थ, द्रु,गुङ, प्लुङ, च्युङ्-इनके (अवर्णपरक यण रहते)। परे है जिससे, ऐसे होने वाले उवर्णान्त अभ्यास को। ...स्वदि...- VIII. iii. 62 विकल्प से इकारादेश होता है)। देखें-स्विदिस्वदिO VIII. iii. 62 ...स्रंसु... -VII. iv.84 ...स्वचा..-II. iii. 16 देखें-कलंसु० VII. iv.84 देखें-नम:स्वस्तिस्वाहा. II.ili. 16 ..स्वंसु... - VIII. ii. 72 स्वन... -III. iii.62 देखें- वसुलंसुo VIII. 1.72 देखें-स्वनहसोः III. iii.62 ...त्रिवि.. -VI. iv.20 ...स्वनः-III. iii. 64 देखें-ज्वरत्वरVI. iv. 20 देखें-गदनदO III. ili.64 ......-VII. 1. 13 स्वनः-VIII. iii.69 देखें-कसVII. 1. 13 (वि उपसर्ग से उत्तर तथा चकार से अव उपसर्ग से ...सुभ्य-I. 11.86 उत्तर भोजन अर्थ में) स्वन् धातु के (सकार को मूर्धन्य देखें- बुधयुधनशजने I. iii. 86 आदेश होता है, अड्व्यवाय एवं अभ्यासव्यवाय में भी)। ...सुभ्यः -III. 1. 48 स्वनहसो:-III. III. 62 देखें-णित्रिनुभ्यः III. 1.48 (उपसर्गरहित) स्वन और हस् धातुओं से (कर्तृभिन्न ...तुक-III. III. 27 कारक संज्ञा तथा भाव में विकल्प से अप् प्रत्यय होता देखें-दुस्तुनुकः III. iii. 27 ...सुव.. -VI. ili. 114 देखें- अविष्टाष्टO VI. iii. 114 स्वमो:-VII.i. 23. स्रोतस- IV. iv. 113 (नपुंसकलिङ्गवाले अङ्ग से उत्तर) सु और अम् का (लुक् (सप्तमीसमर्थ) स्रोतस् प्रातिपदिक से (वेदविषय में भ- होता है)। वार्थ में ड्यत्, ड्य दोनों प्रत्यय विकल्प से होते है)। स्वप-III. M. 91 स्वकरणे-I. 1.56 "जिष्वप् शये' धातु से (भाव में नन् प्रत्यय होता है)। स्वकरण = पाणिग्रहण अर्थ में (वर्तमान उपपर्वक यम ...स्वपते:- Viv. 104 धातु से आत्मनेपद होता है)। देखें- पथ्यतिथिक्सतिस्वपते: IV. iv. 104 ...स्वाम् -VI. iv. 25 स्वपादि...-VI.1. 182 देखें-दंशस VI. iv. 25 देखें- स्वपादिहिंसाम् VI.i. 182 ...स्वाम-VIII. 1.65 , स्वपादिहिंसाम्- VI.i. 182 देखें-सुनोतिसुवतिO VIII. 11.65 स्वपादि धातुओं के तथा हिंस् धातु के (अजादि अनिट ...स्वाम-VIII. Iii.70 लसार्वधातुक परे हो तो विकल्प से आदि को उदात्त हो देखें-सेवसितo VIII. III. 70 जाता है)। स्वतन्त्रः-I.iv.54 क्रिया की सिद्धि में स्वतन्त्र रूप से विवक्षित (कारक ...स्वपि...-1.11.8 की कर्ता संज्ञा होती है)। देखें-रुदक्दिमुषप्रहिस्वपिप्रच्छ: 1.1.8 ...स्वतवसाम्-VII.1.83 स्वपि.. -III. 1. 172 देखें-दक्स्व कo VII.I.83 देखें-स्वपितृवोः III. II. 172 Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...स्वपि... ...स्वपि... - VI. 1. 15 देखें- वचिस्वपिo VI. 1. 15 Kafa...- VI. i. 19 देखें... - स्वपिस्यमिo VI. 1. 19 स्वपितृषोः - III. 1. 172 स्वप् तथा तृष् धातुओं से ( तच्छीलादि कर्ता हो, तो वर्तमानकाल में नजिङ् प्रत्यय होता है)। 1 स्वपिस्यमिव्येआम् - VI. 1. 19 ञिष्वप् स्यमु तथा व्येञ् धातुओं को (यङ् प्रत्यय के परे रहते सम्प्रसारण हो जाता है)। स्वम् - I. 1. 34 स्व शब्द (की जस्-सम्बन्धी कार्य में विकल्प से सर्वनाम संज्ञा होती है, ज्ञाति तथा धन की आख्या को छोड़कर) । ज्ञाति = पिता, भाई आदि । स्वम् - I. 1. 67 (इस व्याकरणशास्त्र में शब्द के) अपने (रूप का ग्रहण होता है, उस शब्द के अर्थ का नहीं और न ही पर्यायवाची शब्दों का, शब्दसंज्ञा को छोड़कर) । स्वम् - IV. Iv. 123 षष्ठीसमर्थ असुर प्रातिपदिक से) 'अपना' - इस अर्थ में (यत् प्रत्यय होता है, वेदविषय में) । स्वम् - VI. 1. 17 (स्वामिन् शब्द उत्तरपद रहते तत्पुरुष में) स्ववाची पूर्वपद को (प्रकृतिस्वर हो जाता है)। स्वयम् - II. 1. 24 'स्वयम्' यह अव्यय ( क्तान्त समर्थ सुबन्त के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होता है और वह तत्पुरुष समास होता है। ... स्वर... - I. 1. 57 देखें- पदान्तद्विर्वचनवरेयलोप० I. 1. 57 ... स्वर... - VII. 1. 18 1. देखें- मन्यमनस् VII. 1. 18 ... स्वर... - VIII. 1. 22 देखें- सुस्वर VIII. 1. 22 567 स्वरति... - VII. 1. 44 देखें- स्वरतिसूतिo VIL. II. 44 स्वरतिसूतिसूयतिधूजूदितः - VII. 1. 44 'स्वृ शब्दोपतापयोः', 'सूङ् प्राणिगर्भविमोचने', 'षूङ् प्राणिप्रसवे, 'धूञ् कम्पने' तथा ऊदित् धातुओं से उत्तर (वलादि आर्धधातुक को विकल्प से इट् आगम होता है)। Tarifa... - I. i. 36 देखें- स्वरादिनिपातम् I. 1. 36 स्वरादिनिपातम् - I. 1. 36 स्वरादिगणपठित शब्दों की तथा निपातों (की अव्यय संज्ञा होती है)। ... स्वरितयोः स्वरित... - I. iii. 72 देखें- स्वस्तित्रितः I. 1. 72 स्वरितः- 1. ii. 31 (समाहार = उदात्त, अनुदात्त उभयगुणमिश्रित अच् की) स्वरित संज्ञा होती है। स्वरितः - VIII. II. 4 (उदात्त और स्वरित के स्थान में वर्तमान यण् से उत्तर अनुदात्त के स्थान में) स्वरित आदेश होता है। स्वरितः - VIII. 1. 6 ( पदादि अनुदात्त के परे रहते उदात्त के साथ में हुआ जो एकादेश, वह विकल्प करके) स्वरित होता है। स्वरितः - VIII. iv. 65 (उदात्त से उत्तर अनुदात्त को) स्वरित होता है स्वरितत्रितः - Iiii. 72 स्वरित इत् वाली तथा ञकार इत् वाली धातुओं से (आत्मनेपद होता है, यदि उस क्रिया का फल कर्ता को मिलता हो तो)।' ... स्वरितपरस्य - I. ii. 40 देखें- उदात्तस्वरितपरस्य I. 1. 40 स्वरितम् - VI. 1. 179 (तकार इत्सञ्ज्ञक है जिसका, उसको) स्वरित होता है। स्वरितम् - VII. 1. 103 (आम्रेडित परे रहते, पूर्वपद की टि को) स्वरित (प्लुत) होता है; (असूया, सम्मति, कोप तथा कुत्सन गम्यमान होने पर)। ' ... स्वरितयोः -VIII. ii. 4 देखें- उदात्तस्वरितयो: VIII. II. 4 Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वस्तिस्य 568 स्वाङ्गात् स्वरितस्य-I.1.37 (सुबह्मण्या नाम वाले निगद में एकश्रुति नहीं होती, किन्तु उस निगद में वर्तमान) स्वरित को. (उदात्त तो हो जाता है)। स्वरितात्-I. 1.39 स्वरित स्वर से उत्तर (अनुदात्तों को एकति होती है संहिता-विषय में)। स्वरितेन-III. 11 स्वरितचिह्न से (अधिकारसूत्र ज्ञात होता ...स्वरितोदयम्-VIII. iv.60 देखें-उदात्तस्वरितोदयम् VIII. iv. 60 स्वरे-II.1.2 स्वर कर्तव्य होने पर (आमन्त्रित परे रहते सुबन्त पर अज के समान होता है)। ...स्ववस्... -VII.1.83 देखें-दवस्वका VII. 1.83 स्वसा-VIII. iii. 84 (मातृ तथा पितृ शब्द से उत्तर) स्वस शब्द के (सकार को समास में मूर्धन्य आदेश होता है)। स्वसुः- IV. 1. 143 स्वस प्रातिपदिक से (अपत्यार्थ में छ प्रत्यय होता है)। स्वस्... -I. 1. 68 देखें-स्वसहितभ्याम् I. ii. 68 स्व स... -VI. ill. 23 देखें- स्वस्पत्योः VI. ill. 23 ...स्वस्... - VI. iv. 11 देखें- अप्तन्तच्० VI. iv. 11 स्वसदुहितभ्याम्-I.ii. 68 , (प्रात और पुत्र शब्द यथाक्रम) स्वस और दुहित शब्दों के साथ (शेष रह जाते हैं। स्वस. दहित शब्द हट जाते ...स्वस्ति... -II. iii. 16 देखें-नमःस्वस्तिस्वाहा II. 11.16 ...स्वस्तिकस्य-VI. iii. 114 देखें-अविष्टाष्टO VI. iii. 114 ...स्वस्त्रादिभ्यः- IV. 1. 10 देखें-क्ट्स्वस्त्रादिभ्यः IV.I. 10 ...स्वा...-VII. iii. 47 देखें- भखैषा० VII. III 47. स्वागतादीनाम्-VII. iii.7 स्वागत इत्यादि शब्दों को (भी जो कुछ कहा है, वह नहीं होता)। स्वाङ्गम्-VI. ii. 167 अपने अङ्गवाची (उत्तरपद मुख शब्द को बहुव्रीहि-. समास में अन्तोदात्त होता है)। स्वाङ्गम्-VI. II. 177 (बहुव्रीहि-समास में उपसर्ग से उत्तर पशुवर्जित ध्रुव) स्वाङ्ग को (अन्तोदात्त होता है)। पशु = कुठार, शास्त्र, गणेश एवं परशुराम का वि- ' शेषण। स्वाङ्गात्-IV..54 स्वाङ्वाची. (उपसर्जन. असंयोग उपधावाले अदन्त । प्रातिपदिक) से (स्त्रीलिङ्ग में विकल्प से डीष प्रत्यय होता स्वाङ्गात्- V. iv. 113 स्वाङ्गवाची (जो सक्थि तथा अक्षि शब्द, तदन्त) से समासान्त षच् प्रत्यय होता है,बहुव्रीहि समास में)। सक्थि = जंघा, हड्डी, गाड़ी का धुरा अक्षि = आंख,दो की संख्या। स्वागात्-VI. iii. 11 (मूर्धन् तथा मस्तकवर्जित हलन्त एवम् अदन्त) स्वाङ्गवाची शब्दों से उत्तर (सप्तमी का कामभिन्न शब्द उत्तरपद रहते अलुक् होता है)। स्वाङ्गात् -VI. ill. 39 स्वाङ्गवाची शब्द से उत्तर (भी ईकारान्त स्त्रीशब्द को पुंवद्भाव नहीं होता)। स्वस्पत्योः -VI. Iii. 23 स्वस तथा पति शब्द के उत्तरपद रहते (विद्या तथा योनि-सम्बन्धवाची ऋकारान्त शब्दों से उत्तर षष्ठी का विकल्प से अलुक् होता है)। Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वात... 569 स्वौजसमौट्छष्टाध्याम्पिस्केभ्याम्भ्यस्खसि० स्वाले... - III. iv. 54 स्वामिनि - VI. 1. 17 (अधुव) स्वाङ्गवाची (द्वितीयान्त शब्द) उपपद रहते स्वामिन् शब्द उत्तरपद रहते (तत्पुरुष-समास में स्ववाची (धातु से णमुल् प्रत्यय होता है)। पूर्वपद को प्रकृतिस्वर हो जाता है)। स्वाङ्गे-III. iv. 61 स्वामिवैश्ययो:-III. I. 103 (तस्प्रत्ययान्त) स्वाङ्गवाची शब्द उपपद हो तो (कृ, भू स्वामी और वैश्य अभिधेय हों तो (अर्य शब्द ऋधातु धातुओं से क्त्वा, णमुल् प्रत्यय होते है)। से यत्प्रत्ययान्त निपातन है)। स्वागे-v.iv. 159 स्वामी... - II. Il. 39 'स्वाग' में वर्तमान (नाडीशब्दान्त तथा तन्त्रीशब्दान्त देखें- स्वामीश्वराधिपति II. III. 39 बहुव्रीहि से समासान्त कप् प्रत्यय नहीं होता है। स्वामीश्वराधिपतिदायादसाक्षिप्रतिभूप्रसूतैः-II. il. 39 स्वामी, ईश्वर, अधिपति, दायाद, साक्षी, प्रतिभू, प्रसूत नाडी = किसी पौधे का पोला डंठल। -इन शब्दों के योग में (षष्ठी और सप्तमी विभक्ति तन्त्री = डोरी, स्नायु, तात, पूंछ। होती है)। स्वाङ्गेभ्यः-v.il.66 ...स्वाहा... -II. ill. 16 (सप्तमीसमर्थ) स्वाङ्गवाची प्रातिपदिकों से (तत्पर'. देखें-नमःस्वस्तिस्वाहा II. I. 16 अर्थ में कन् प्रत्यय होता है)। स्वित्- VIII. ii. 102 ...स्वाति... - Iv.ili. 34 'उपरि स्विदासीत्' इसकी (टि को भी प्लुत अनुदात्त देखें- अविष्ठाफल्गुन्यनु० IV. iii. 34 होता है)। स्वादिष्य-III. 1.73 ...स्विदि...-I. 1. 19 . षुञ् आदि धातुओं से (श्नु प्रत्यय होता है, कर्तृवाची । देखें-शीस्विदिमिदिक्ष्विदिषः I. 1. 19 सार्वधातुक परे रहते)। ...स्विदि... - VIII. ii. 62 स्वादिषु-I. iv. 17 देखें- स्विदिस्वदि.VIII. III. 62 (सर्वनामस्थान-भिन्न) स आदि प्रत्ययों के परे रहते (पूर्व स्विदिस्वदिसहीनाम-VIII. III. 62 की पद संज्ञा होती है)। . __ (अभ्यास के इण से उत्तर ण्यन्त) बिष्विदा, वद तथा स्वादुमि-III. iv. 26 षह धातुओं के (सकार को सकारादेश ही होता है,षत्वभूत स्वादुवाची शब्दों के उपपद रहते (समानकर्तृक पूर्व- सन् के परे रहते भी)। कालिक कृञ् धातु से णमुल प्रत्यय होता है)। ....स्थ...- VII. II. 49 ...स्वान्त... - VII. ii. 18 देखें-इवन्तर्घOVII. 1.49 देखें-शुब्यस्वाल VII. ii. 18 स्वे-III. iv. 40 स्वाये:-VI.i. 18 स्ववाची (करण) उपपद रहते (पुष् धातु से णमुल प्रत्यय णिजन्त स्वप् धातु को (चङ् प्रत्यय के परे रहते सम्प्र होता है)। सारण हो जाता है)। ...स्वी...-III. iv.2 ...स्वाप्योः - VII. iv.67 देखें-हिस्वी III. iv.2 देखें-तिस्वाप्यो: VII. iv. 67 स्वौजसमौट्छष्टाभ्याम्भिस्केभ्याम्भ्यस्डसिभ्याम्भ्यस्सोस्वामि..-III. I. 103 साप्छ्योस्सुप् - IV. 1.2 देखें-स्वामिवैश्ययोः III. 1. 103 सु,ओ,जस्,अम, औद,शस.टा,न्याम,भिस,के,भ्याम, स्वामिन-v.1. 126 भ्यस्, ङसि, भ्याम्, भ्यस्, जस, ओस्, आम, डि, ओस, 'स्वामिन् शब्द आमिन्प्रत्ययान्त निपातन किया जाता सुप-२१ प्रत्यय (सभी ड्यन्त,आवन्त तथा प्रातिपदिकों से होते हैं। है; (मत्वर्ष में, ऐश्वर्य गम्यमान हो तो)। Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 570 हू... - VII. ii.5 है- VIII. iv. 61 देखें-हम्यन्तक्षण VII. ii.5 (झय् प्रत्याहार से उत्तर) हकार को विकल्प से पूर्वसवर्ण ह-प्रत्याहारसूत्र V आदेश होता है)। आचार्य पाणिनि द्वारा अपने पञ्चम प्रत्याहारसूत्र में ...हतिषु- VI. iii. 53 पठित प्रथम वर्ण। देखें-हिमकाविहतिषु VI. iii. 53 पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्णमाला ...हतेषु-VI. iii. 42 . का दसवाँ वर्ण। देखें-घरूप VI. iii. 42 ह-प्रत्याहारसूत्र XIV हन्..-III. iv. 36 आचार्य पाणिनि द्वारा अपने चौदहवें तथा अन्तिम देखें-हकृज्यहः III. iv. 36 प्रत्याहारसूत्र में पठित वर्ण। ...हन्... - VI. iv. 12 पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित वर्णमाला देखें-इन्हन्पूषाo VI. iv. 12 का वर्ण। ....हन...-III. ii. 154 देखें- लषपत III. 1. 154 ह...-III. ii. 116 देखें-हशश्वतो: III. I. 116 ...हन... -III. ii. 171 देखें-आदृगम III. ii. 171 ह-v.ill. 13 ...हन... -VI..iv. 16 (वेदविषय में सप्तम्यन्त किम् शब्द से विकल्प से) ह देखें- अज्झनगमाम् VI. iv. 16 - प्रत्यय (भी) होता है। ...हन...-VI. iv. 62 ह-VIII. 1.60 देखें- अज्झन VI. iv. 62 इसस युक्त प्रथमातडन्त विभाक्त का क्षिया ...हन...-VI.iv.98 गम्यमान होने पर अनुदात्त नहीं होता)। देखें-गमहन VI.iv.98 F-III. 1. 148 ...हन्... - VI. iv. 135 गत्यर्थक ओहाइ और त्यागार्थक ओहाक धात से देखें-पूर्वहन VI. iv. 135 (वीहि और काल अभिधेय हो तो 'ण्युट' प्रत्यय होता ...हन... - VII. 1. 68 देखें-गमहन VII. ii.68 हन-I. ii. 14 है-V.Iii. 11 (सप्तम्यन्त इदम् प्रातिपदिक से) ह प्रत्यय होता है। हन धातु से परे (सिच प्रत्यय आत्मनेपद विषय में F-VII. 1.54 कित्वत् होता है)। (हन घात के) हकार के स्थान में (कवर्गादेश होता है: ...हन:-1.11.28 जित्, णित् प्रत्यय तथा नकार परे रहते)। देखें- यमहनI. iii. 28 ह-VII. iv. 52 हनः-II. iv. 42 (तास् और अस् के सकार को) हकारादेश होता है. हन् धातु को (वध आदेश होता है, आर्धधातुक लिङ् (एकार परे रहते)। परे रहते)। है-VIII. II. 31 हन: -III. 1. 108 हकार के स्थान में (ढकार आदेश होता है, झल परे रहते (अनुपसर्ग) हन् धातु से (सुबन्त उपपद रहते भाव में या पदान्त में)। __क्यप् प्रत्यय और तकारान्तादेश होता है)। . Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 571 हनः -III. I. 49 ...हन्ति ... -VIII. iv. 17 (आशीर्वचन गम्यमान होने पर) हन् धातु से (कर्म उप- देखें- गदनदO VIII. iv. 17 पद रहते ड प्रत्यय होता है)। हन्ते:-VI. iv. 36 हन-III. 1.86 हन् अङ्ग के स्थान में (हि परे रहते ज आदेश होता 'हन्' धातु से (कर्म उपपद रहते भूतकाल में 'णिनि' प्रत्यय होता है)। हन्ते:-VII. iii. 54 हनः-III. 1.76 हन् धातु के (हकार के स्थान में कवर्गादेश होता है; (अनुपसर्ग) हन् धातु से (भाव में अप् प्रत्यय होता है. जित्, णित् प्रत्यय तथा नकार परे रहते)। तथा साथ ही हन् को वध आदेश भी हो जाता है)। हन्ते:- VIII. iv. 21 हनः-III. iv. 37 (उपसर्ग में स्थित निमित्त से उत्तर अकार पूर्व है जिससे, (करण कारक उपपद हो तो) हन् धातु से (णमुल् प्रत्यय ऐसे) हन धातु के (नकार को णकारादेश होता है)। होता है)। हयवस्ट् - प्रत्याहारसूत्र V हन-VII. iii. 32 हय,वर वर्णों का उपदेश कर अन्त में टकार को इत् - हन् अङ्ग को (तकारादेश होता है; चिण तथा णमुल किया है, प्रत्याहार बनाने के लिए। इससे एक प्रत्याहार बनता है - अट्। प्रत्यय को छोड़कर जित्, णित् प्रत्यय परे रहते)। हननी-IV. iv. 121 ..हयो:- VIII. ii. 85 देखें-हैहयो: VIII. 1.85 (षष्ठीसमर्थ रक्षस तथा यात प्रातिपदिकों से) हननी अर्थ हरति-IV.iv. 15 में (यत् प्रत्यय होता है)। (ततीयासमर्थ उत्सङ्गादि प्रातिपदिकों से) 'स्थानान्तर रक्षस् = पिशाच,बेताल। प्राप्त करता है' - अर्थ में (ठक प्रत्यय होता है)। यातु = यात्रा, हवा, समय, भूतप्रेत,राक्षस। हननी = जिसके द्वारा हनन किया जाए। . हरति-v.i. 49 . (वंशादिगणपठित प्रातिपदिकों से उत्तर जो भार शब्द, ...हनो:- VII. 1.70 तदन्त द्वितीयासमर्थ प्रातिपदिक से) 'हरण करता है'. देखें- ऋद्धनो: VII. ii. 70 (वहन करता है' और 'उत्पन्न करता है' अर्थों में यथाहन्कृष्यह-III. iv. 36 विहित प्रत्यय होते है)। . (समूल,अकृत तथा जीव कर्म उपपद हों तो यथासङ्ख्य हरते:-III. 1.9 .. करके) हन्, कृञ् तथा ग्रह धातुओं से (णमुल् प्रत्यय होता (अनुद्यमन = पुरुषार्थ से कार्य को सम्पादित न करना अर्थ में वर्तमान) हृञ् धातु से (कर्म उपपद रहते अच ...हन्त... -VIII.1.30 प्रत्यय होता है)। • देखें- यद्यदिO VIII. 1. 30 हरते:-III. 1. 25 हन्त-VIII. I. 54 'ह' धातु से (दृति' तथा 'नाथ' कर्म उपपद रहते पशु . हन्त से युक्त (सोपसर्ग उत्तमपुरुषवर्जित लोडन्त तिङन्त अभिधेय होने पर 'इन्' प्रत्यय होता है)। को भी विकल्प से अनुदात्त नहीं होता)। दृति = मशक, मछली,खाल, धौंकनी। fat– N. iv. 35 नाथ = प्रभु, पति,बैल की नाक में डाली रस्सी। द्वितीयासमर्थ पक्षी, मत्स्य तथा मृगवाची प्रातिपदिकों ...हरित... -V.iv. 125 से) मारता है - अर्थ में (ठक् प्रत्यय होता है)। देखें-सुहरितov.iv. 125 Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरितादिश्य हलदन्तात् हरितादिभ्यः -IV.i. 100 हल:-III.i. 12 (अजन्त) हरितादि प्रातिपदिकों से (अपत्य अर्थ में फक् (अळ्यन्त भृशादि शब्दों से भूभातु के अर्थ में क्यङ् प्रत्यय होता है)। प्रत्यय होता है और उन भृशादि शब्दों में विद्यमान) हलन्त ...हरिश्चन्द्रौ-VI.1.148 शब्दों के हल् का (लोप भी होता है)। देखें-प्रस्कण्वहरिश्चन्द्रौ VI.1. 148 हल-III. 1.83 हरीतक्यादिश्य-IV. iii. 164 हलन्त से उत्तर (श्ना के स्थान में परे रहते)। (षष्ठीसमर्थ) हरीतकी आदि प्रातिपदिकों से (विकार अवयव अथों में विहित प्रत्यय का फल अभिधेय होने हल-III. iii. 103 पर भी लुप होता है)। हलन्त,(जो गुरुमान् धातु) उनसे (भी स्त्रीलिङ्गकर्तभिन्न हरीतकी = हर्र का पेड़। कारक संज्ञा तथा भाव में अप्रत्यय हो जाता है)। हल:-III. iii. 121 ह-III. iii. 68 हलन्त धातुओं से (भी संज्ञाविषय होने पर करण तथा हर्ष अभिधेय होने पर (प्रमद और सम्मद -ये अप्- अधिकरण कारक में पुंल्लिङ्ग में प्रायः करके घञ् प्रत्यय प्रत्ययान्त शब्द निपातित किये जाते हैं, कर्तृभिन्न कारक होता है)। संज्ञा तथा भाव में)। हल-VI. iv.2 हल्-I.ili.3 (अङ्ग के अवयव) हल् से उत्तर (जो सम्प्रसारण का (उपदेश में वर्तमान अन्तिम) हल् = समस्त व्यञ्जन । अण, तदन्त अङ्ग को दीर्घ होता है)। वर्ण (इत्सजक होता है)। हल-VI. iv. 24 हल्... - VI. 1.66 (इकार जिनका इत्सज्ज्ञक नहीं है, ऐसे) हलन्त अङ्ग देखें-हलइयाण्य: VI.1.66 की (उपधा के नकार का लोप होता है; कित्, डित् प्रत्ययों हल्-VI.1.66 के परे रहते)। (हलन्त ड्यन्त तथा आवन्त दीर्घ से उत्तर स.ति और हल-VI.in.49 सि का जो अपृक्त) हल, (उसका लोप होता है)। हल से उत्तर (य' का लोप होता है, आर्धधातुक परे रहते)। हल्... -VI. HI.8 देखें-हलदन्तात् VI. iii. 8 हल-VI. iv. 150 ...हल... -III. I. 21 हल से उत्तर (भसज्ज्ञक अङ्ग के उपधाभत तद्धित के देखें-मुण्डमिश्र III. I. 21 यकार को भी ईकार परे रहते लोप होता है)। हल... -III. ii. 183 हल:- VIII. iv. 30 (इच उपधा वाले) हलादि (धात) से विहित (जो कृत देखें- हलसूकरयोः III. ii. 183 प्रत्यय, तत्स्थ जो अच् से उत्तर नकार,उसको भी उपसर्ग . हल... -IVil. 123 में स्थित निमित्त से उत्तर विकल्प से णकारादेश होता है)। देखें- हलसीरात् IV. iii. 123 हल-VIII. iv.63 हल...-IV. iv.81 हल् से उत्तर (यम् का यम् परे रहते विकल्प से लोप देखें- हलसीरात् IV. iv. 81 होता है)। हल:-I.1.7 हलदन्तात् -VI. iii. 8 व्यवधानरहित (जिनके बीच में अच् न हों, ऐसे) दो हलन्त तथा अकारान्त शब्द से उत्तर (सज्जाविषय में या दो से अधिक हलों की (संयोग संज्ञा होती है)। सप्तमी विभक्ति का उत्तरपद परे रहते अलुक् होता है)। Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 573 हलि ...हलन्तस्य - VII. ii.3 देखें-बदवज VII. 1.3 हलन्तात्-I. ii. 10 (इक् के) समीप जो हल्, उससे परे (भी झलादि सन् कित्वत् होता है)। .हलसीरात्- IV. iii. 123 (षष्ठीसमर्थ) हल और सीर शब्दों से (इदम्' अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है)। हल = खेत जोतने का प्रधान उपकरण, लांगल। सीर = हल,सूर्य, आक का पौधा। हलसीरात्- IV.iv.81 (द्वितीयासमर्थ) हल और सीर प्रातिपदिकों से (ढोता है' अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है)। हलसूकरयो:-III. ii. 183 (पूज् धातु से करण कारक में ष्ट्रन् प्रत्यय होता है, यदि वह करण कारक) हल तथा सूकर का अवयव हो तो। ...हलात्-IV. iv.97 देखें- मतजनहलात् IV. iv.97 • हलादिः-VI.i. 173 (षट्सजक शब्दों से उत्तर तथा त्रि,चतुर शब्दों से उत्तर) हलादि विभक्ति (उदात्त होती है)। हलादिः - VII. iv. 60 (अभ्यास का) आदि हल् (शेष रहता है)। हलादेः-I. ii. 26 (इकार, उकार उपधावाली;रलन्त एवं) हलादि धातुओं से परे (सेट् सन् और सेट् क्त्वा प्रत्यय विकल्प से कित् नहीं होते हैं)। हलादेः- III. I. 22 . हलादि (जो एकाच धातु, उस) से (पुनः पुनः होने या अतिशयता व्यक्त होने पर यङ् प्रत्यय होता है)। हलादेः-III. ii. 149 हल् आदि वाली (अनुदात्तेत्) धातुओं से (तच्छीलादि कर्ता हों तो वर्तमानकाल में यच प्रत्यय होता है)। हलादेः- VI. iv. 161 (भसज्जक) हल आदि वाले अङ्ग के (लघु ऋकार के स्थान में र आदेश होता है; इष्ठन. इमनिच तथा ईयसुन परे रहते)। हलादेः- VII. ii.7 हलादि अङ्ग के (लघु अकार को परस्मैपदपरक इडादि सिच के परे रहते विकल्प से वृद्धि नहीं होती)। हलादौ- VI. 1.7 (प्राच्य देशों के जो करों के नाम वाले शब्द,उनमें भी) हलादि शब्द के परे रहते (हलन्त तथा अदन्त शब्दों से परे सप्तमी विभक्ति का अलक होता है)। हलि... -v.iv. 121 देखें-हलिसक्थ्यो : V. iv. 121 हलि-VI.i. 128 (ककार जिनमें नहीं है तथा जो न समास में वर्तमान नहीं है, ऐसे एतत् तथा तत् शब्दों के सु का लोप हो जाता है। हल् परे रहते,(संहिता के विषय में)। हलि-VI. iv.66 (घुसज्जक, मा, स्था, गा, पा, ओहाक त्यागे तथा षो अन्तकर्मणि -इन अङ्गों को) हलादि (कित, डित) प्रत्ययों के परे रहते (ईकारादेश होता है)। हलि-VI. iv. 100 (घस तथा भस् अङ्ग की उपधा का वेदविषय में लोप होता है) हलादि (तथा अजादि कित, डित) प्रत्यय परे रहते)। हलि-VI. iv. 113 (श्नान्त अङ्ग एवं घुसज्ञक को छोड़कर जो अभ्यस्तसजक अङ्ग उनके आकार के स्थान में ईकारादेश होता है। हलादि (कित, डिन्त् सार्वधातुक) परे रहते। हलि-VII. ii. 89 रै अङ्ग को) हलादि (विभक्ति) परे रहते (आकारादेश हो जाता है)। . हलि - VII. I. 113 (ककाररहित इदम् शब्द के इद् भाग का) हलादि विभक्ति परे रहते (लोप होता है)। Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 574 हलि-VII. 1.81 (उकारान्त अङ्ग को लुक् हो जाने पर) हलादि (पित् सार्वधातुक) परे रहते (वृद्धि होती है)। . हलि- VIII. ii. 77 हल परे रहते (भी रेफान्त एवं वकारान्त धात का जो इकु, उसको दीर्घ होता है)। हलि-VIII. iii. 22 (भो,भगो,अघो तथा अवर्ण पूर्ववाले पदान्त यकार का) हल् परे रहते (सब आचार्यों के मत में लोप होता है)। हलिसक्थ्यो :- Viv. 121 (नज,दुस् तथा सु शब्दों से उत्तर जो) हलि तथा सक्थि शब्द,तदन्त (बहुव्रीहि) से (समासान्त अच प्रत्यय विकल्प से होता है)। ...हलिषु-III. 1. 117 देखें-मुझकल्क III. 1. 117 ...हलो:-III. 1. 125 देखें-ऋहलोः III. I. 125 ...हलो:- VI. iv. 34 देखें- अहलो: VI. iv. 34 ...हलौ-I. 1. 10 देखें- अहालौ I. 1. 10 हलङ्याय-VI.1.66 हलन्त, ड्चन्त तथा आबन्त (दीर्घ) से उत्तर (स.ति.सि का जो अपृक्त हल, उसका लोप होता है)। हलपूर्वात्-VI.1.168 हल पूर्व में है जिसके, (ऐसा जो उदात्त के स्थान में यण) उससे परे (नदीसञक प्रत्यय तथा अजादि सर्वनाम स्थानभिन्न विभक्ति को उदात्त होता है)। ...हकि...-III. I. 129 - देखें- मानहविर्निवास III. I. 129 हकि...-.1.4 देखें-हविरपूपादिभ्यः V.i.4 हविरपूपादिश्य-v.i.4 हवि विशेषवाची तथा 'अपप' इत्यादि प्रातिपदिकों से (क्रीत अर्थ से पूर्व पूर्व पठित अर्थों में विकल्प से यत् प्रत्यय होता है)। हविष-II. i. 69 (देवता सम्प्रदान है जिसका, उस क्रिया के वाचक प्र पूर्वक इष धातु तथा बू धातु के कम) हवि के वाचक शब्द से (षष्ठी विभक्ति होती है)। ...हविष्याभ्यः-IV. iv. 122 देखें-रेवतीजगतीहविष्याभ्य: IV. iv. 122 . हव्ये-III. ii. 66 हव्य (सुबन्त) उपपद रहते (वेदविषय में वह धातु से ज्युट् प्रत्यय होता है, यदि 'वह' धातु पद के उत्तर अर्थात् मध्य में वर्तमान न हो तो)। हव्य = आहुति, आहुति के रुप में दिया जाने वाला . द्रव्य,घी। हशश्वतो:- III. ii. 116 ह,शश्वत् -ये शब्द उपपद हों तो (धातु से अनद्यतन परोक्ष भूतकाल में लङ् प्रत्यय होता है और चकार से . लिट भी होता है)। हशि-VI.i. 110 हश प्रत्याहार के परे रहते (भी अकार से उत्तररु के रेफ को उकार आदेश होता है, संहिता के विषय में)। ...हसो:-III. ii. 62 देखें- स्वनहसोः III. iii. 62 ...हस्त..- IV. iii. 34 देखें-अविष्ठाफल्गुन्यनु IV. iii. 34 हस्तात्- V. ii. 133 हस्त शब्द से (मत्वर्थ में इनि प्रत्यय होता है.जाति वाच्य हो तो)। हस्तादाने-III. iii. 40 (चोरी से भिन्न) हाथ से ग्रहण करना गम्यमान हो (तो चिञ् धातु से कर्तृभिन्न कारक और भाव में घज प्रत्यय होता है)। ...हस्ताभ्याम्-v.i.97 देखें- यथाकथाचहस्ताभ्याम् V.i.97 हस्ति ... -III. ii. 54 देखें- हस्तिकपाटयोः III. ii. 54 ...हस्ति... - IV. ii. 46 देखें-अचितहस्ति .1.46 Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्तिकपाटयोः 575 हस्तिकपाटयोः - III. 1.54 हस्ती तथा कपाट (कर्म) उपपद रहते (शक्ति गम्यमान हो, तो हन् धातु से टक् प्रत्यय होता है)। ...हस्तिभ्याम्-V. 1. 38 देखें-पुरुषहस्तिभ्याम् V. ii. 38 ...हस्तिभ्याम्- V. iv. 78 देखें- ब्रह्महस्तिभ्याम् V. iv.78 हस्ते-I. iv.76 (हस्ते तथा) पाणौ शब्द विवाह विषय में हों तो नित्य ही उनकी कृञ् के योग में गति और निपात संज्ञा होती . हस्ते-III. v. 39 हस्तवाची करण उपपद हो तो (वर्ति तथा ग्रह धातुओं से णमुल् प्रत्यय होता है)। ...हा.. - VIII. I. 24 देखें-चवाहा VIII. I. 24. ....हान्तात्-v.iv. 106 देखें-चुदवहान्तात् V. iv. 106 ...हाभ्याम्- VIII. iv. 45 देखें- रहाभ्याम् VIII. iv. 45 , हायनान्त... - V.I. 129 देखें- हायनान्तयुवादिभ्यःv.i. 129 हायनान्तयुवादिश्य:- V. 1. 129 . (षष्ठीसमर्थ) हायन अन्तवाले तथा युवादि प्रातिपदिकों से (भाव और कर्म अर्थों में अण् प्रत्यय होता है)। ...हायनान्ता-IV.I. 27 देखें-दामहायनान्तात् IV.i. 27 ...हार... -VI. iii.59 . देखें- मन्यौदन VI.li.59 ...हारिणौ-vi. ii. 65 देखें-सप्तमीहारिणौ VI. 1.65 हारी-v.ii. 69 (द्वितीयासमर्थ अंश प्रातिपदिक से) 'हरण करने वाला' अर्थ में (कन् प्रत्यय होता है)। '...हास...-VI.1.210 . ... देखें- त्यागराग VI.1.240 हास्तिन..-VI. 1. 101 देखें-हस्तिनफलक VI.H. 101, हास्तिनफलकमाया-VI. I. 101 हास्तिन, फलक तथा मायदन पूर्वपद शब्दों को (पुर शब्द उत्तरपद रहते अन्तोदात नहीं होता। हास्तिन = हस्तिनापुर का नाम ।' ... फलक = पट्ट,शिला,चपटी सतह,ढाल,पत्र,नितम्ब । ...हास्तिनायन... - VI. iv. 174 देखें-दाण्डिनायनास्तिov. iv. 174 हि... -III. iv.2 देखें-हिस्वी III. iv.2 हि-III. iv. 87 (लोडादेश जो सिप, उसके स्थान में) हि आदेश होता है (और वह अपित् भी होता है)। हि-VIII.1.34 हि शब्द से युक्त (तिङन्त को भी अनुकूलता गम्यमान होने पर अनुदात्त नहीं होता। . ...हि... -VIII.1.56.... ....... देखें- यद्धिपरम् VIII.1.56 हि-VII. iv. 42 (डुधाञ् अङ्ग को) हि आदेश होता है, (तकारादि कित् प्रत्यय के परे रहते)। ...हित... -II.1.35 देखें- तदर्थार्थवलिहितः II. 1. 35 . . देखें-संपाधहVI. 1. 15s हितम्- IV. iv. 65 हित (समानाधिकरणवाले भक्ष्यवाची प्रथमासमर्थ) प्रातिपदिक से (षष्ठ्यर्थ में ढक प्रत्यय होता है)। हितम्-v.i.5 (चतुर्थीसमर्थ प्रातिपदिक से) हित' अर्थ में (यथाविहित प्रत्यय होता है)। हितात् - IV. iv. 75 यहाँ से लेकर 'तस्मै हितम्' से पहले (कहे जाने वाले अर्थों में सामान्येन यत् प्रत्यय का अधिकार रहेगा)। . ...हित...-VI.1.15 Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 576 हिते-VI. 1. 15 हितवाची (तत्पुरुष समास) में (सुख तथा प्रिय शब्द उत्तरपद रहते पूर्वपद को प्रकृतिस्वर हो जाता है)। ...हिते-III.73 . देखें- आयुष्यमद्रभा II. Iii. 73 हिनु...-VIII. iv. 15 देखें-हिनुमीना VIII. iv. 15 हिनुमीना-VIII. iv. 15 (उपसर्ग में स्थित निमित्त से उत्तर) हिनु तथा मीना के (नकार को णकार आदेश होता है)। ...हिम..-IV.i. 48. देखें-इन्द्रवरुणभक IV. 1.48 . हिम...-VI. ii. 53 देखें-हिमकाषिहतिष VI. . 53 हिमकाविहतिषु- VI. ii. 53 हिम,कापिन,हति-इनके उत्तरपद रहते (भी पाद शब्द को पद् आदेश होता है)। हति = हत्या,प्रहार, त्रुटि,गुणा। ...हिमवद्भ्याम्-IV.iv. 112 देखें-वेशन्तहिमवद्भ्याम् M.v. 112 ...हिमश्रथा-VI. 1.29. देखें-अवोधोयVI. iv. 29 . ...हिरण्मयानि-VI. iv. 174 ... देखें-दाण्डिनायन VI. iv. 174 हिरण्य.. -VI.ii. 55 देखें-हिरण्यपरिमाणम् VI. ii. 55 हिरण्यपरिमाणम्-VI.H.55 हिरण्य और परिमाण दोनों अर्थों को कहने वाले पूर्वपद को (धन शब्द उत्तरपद रहते विकल्प से प्रकृतिस्वर होता .... हिंस... -III. ii. 146 देखें-निन्दहिंस. II. I. 146 ....हिंस.. -III. 1. 167 . देखें-नमिकम्पि III. 1. 167 - - ...हिंसाम्-VI.i. 182 देखें-स्वपादिहिंसाम् VI.i. 182 हिंसायाम्-II. iii. 56 हिंसा अर्थ में विद्यमान (जस.नि प्र पूर्वक हन. ण्यन्त नट एवं क्रथ तथा पिष् -इन धातुओं के कर्म में शेष । विवक्षित होने पर षष्ठी विभक्ति होती है)। .. हिंसायाम्-VI. 1. 137 (उप तथा प्रति उपसर्ग से उत्तर कृ विक्षेपे धातुं के परे ... । के विषय में (ककार से पूर्व सुट् आगम होता है,संहिता के विषय में)। हिंसायाम्-VI. iv. 123 हिंसा अर्थ में वर्तमान (राध अङ्ग के अवर्ण के स्थान में : एकारादेश तथा अभ्यासलोप होता है; कित, ङित् लिट् तथा सेट् थल परे रहते)। हिसार्थानाम्-III. iv. 48 (अनुप्रयुक्त धातु के साथ समान कर्मवाली) हिंसार्थक धातुओं से (भी तृतीयान्त उपपद रहते णमुल् प्रत्यय होता ....हिंसाधेश्य-I. 1. 15 देखें- गतिहिंसार्थेभ्यः I. iii. 15 हीने-I. iv.85 न्यून की प्रतीति होने पर (अनु कर्मप्रवचनीय और निपातसज्ञक तसंज्ञक होता है)। हीयमान... -V.iv.47 देखें-हीयमानपापयोगात् V.iv.47 हीयमानपापयोगात्-v.iv. 47 . हीयमान तथा पाप शब्द के साथ सम्बन्ध है जिन शब्दों का, तदन्त शब्दों से परे (भी जो तृतीया विभक्ति, तदन्त से तसि प्रत्यय विकल्प से होता है, यदि वह तृतीया कर्ता में न हई हो तो)। ....... -III. iv. 16 देखें-स्थेण्कर III. iv. 16 ...हिरण्यात्-v.1.65 देखें-बनहिरण्यात् V.1.65 हिस्वी-III. iv.2 . (क्रिया का पौनमुन्य गम्यमान हो तो धात्वर्थ-सम्बन्ध होने पर धातु से सब कालों में लोट् प्रत्यय हो जाता है और उस लोट् के स्थान में) हि और स्व आदेश (नित्य होते हैं तथा त, ध्वम्-भावी लोट् के स्थान में विकल्प से) हि,स्व आदेश होते हैं। Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 577 हत्... -VII. I. 19 देखें - हृद्भग VII. II.19 हृदयस्य-INiv.95 (षष्ठीसमर्थ) हृदय प्रातिपदिक से (प्रिय अर्थ में यत् प्रत्यय होता है)। हृदयस्य-VI. iii. 49 - हृदय शब्द को (हृद् आदेश होता है; लेख, यत्, अण, तथा लास परे रहते)। हृद्भगसिन्यन्ते- VII. II. 19. हृद, भग, सिन्धु ये शब्द अन्त में है जिन अगों के, उनके (पूर्वपद के तथा उत्तरपद के अचों में आदि अच् को भी जित्, णित् तथा कित् तद्धित परे रहते वृद्धि होती .....-VIL.i. 186 देखें- भीही० VI.i. 186 हु...-VI. iv. 87 देखें-हुश्नुवो: VI. iv.87 हु...- VI. iv. 101 देखें-'हुझलण्यः VI. iv. 101 हुझल्ल्य -VI. iv. 101 हु तथा झलन्त से उत्तर (हलादि हि के स्थान में घि आदेश होता है)। ...हुवाम्-III.1.39 देखें-भीहीभृहुवाम् III. I. 39 हुश्नुवो:- VI. iv. 87 हु तथा श्नुप्रत्ययान्त (अनेकाच) अङ्ग का (संयोग पूर्व में नहीं है जिससे ऐसा जो उवर्ण, उसको अजादि सार्वधातुक प्रत्यय परे रहते यणादेश होता है)। .. हूते-VIII. ii. 84 (दूर से) बुलाने में (जो प्रयुक्त, उसकी टि को भी प्लुत उदात्त होता है)। हूते- VIII. ii. 107 (दूर से) बुलाने के विषय से भिन्न) विषय में (अप्रगह्यसञक ऐच के पूर्वार्द्ध भाग को प्लुत करने के प्रसङ्ग में आकारादेश होता है तथा उत्तरवाले भाग को इकार, उकार आदेश होते है)। है..-I.in 53 देखें-हकोः I. iv.53 हकोः -I.iv.53 हब एवं कृञ् धातु का (अण्यन्त अवस्था का जो कर्ता, वह ण्यन्त अवस्था में विकल्प से कर्मसंज्ञक होता है)। हत्-VI.. 61 (वेदविषय में हृदय शब्द के स्थान में) हृत् आदेश हो बाता है, (शस प्रकार वाले प्रत्ययों के परे रहते)। हत्-VI. 1.49 (हृदय. शब्द को) हुत् आदेश होता है; (लेख, यत्, अण् तथा लास परे रहते)। . लास = कूदना,प्रेमालिान,लियों का नाच,रस। हवे:-VII. 1. 29: (लोम विषय में) हष् धातु को निष्ठा परे रहते इट् आगम विकल्प से नहीं होता है)। . हे-VIII. iii. 26 (मकारपरक) हकार के परे रहते (पदान्त मकार को विकल्प से मकारादेश होता है)। हे:-VI. iv. 101 (हु तथा झलन्त से उत्तर हलादि) हि के स्थान में घि आदेश होता है)। हे:-VI. iv. 105 (अकारान्त अङ्ग से उत्तर) हि का (लुक हो जाता है)। हे:- VII. Iii. 56 'हि गतौ' धातु के (हकार को कवर्गादेश होता है, चङ् परेन हो तो)। हे:- VIII. 1. 93 (पछे गये प्रश्न के प्रत्यत्तर वाक्य में वर्तमान) हि शब्द को विकल्प करके प्लुत उदात्त होता है)। ...हेति...-III. 1.97. . देखे-ऊतियूति III. II.97 हेत...-IN. I. 20. . . देखें-हेतुताकील्यI. .201. Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 578 हैहेप्रयोगे (कम असहत कृपास) हावाप्रप ...त्विा :-IIL.ii.126 . हेतु... - III. III. 156 हेतुहेतुमतो:- III. iii. 156 देखें- हेतुहेतुमतोः II. III. 156 हेतु और हेतुमत् अर्थ में वर्तमान (धातु से लिङ् प्रत्यय हेतु... -IN. Ill. 81 . विकल्प से होता है)। देखें-हेतुमनुव्येभ्यः IV. 1. 81 . हेतौ-II. iii. 23 हेतु-I. iv.55 फलसाधनयोग्य पदार्थ = हेतु में (तृतीया विभक्ति . (उस स्वतन्त्र कर्ता का जो प्रयोजन कारक,उसकी) हेतु होती है)। संज्ञा (तथा कर्तृसंज्ञा) होती है। हेतौ-v.ii. 26 'हेतु' अर्थ में वर्तमान (तथा प्रकारवान्' अर्थ में वर्तमान हेतुताच्छील्यानुलोम्येषु-III. ii. 20 किम् प्रातिपदिक से धा प्रत्यय होता है, वेदविषय में)। (कर्म उपपद रहते कृञ् धातु से) हेतु, ताच्छील्य = तत्स्वभावता और आनुलोम्य = अनुकूलता गम्यमान हो . देखें- लक्षणहेत्वोः III. 1. 126 तो (ट प्रत्यय होता है)। ...हेप्रयोगे-VIII. 1. 85 ... हेतुप्रयोगे-II. ill. 26 देखें-हैहेप्रयोगे VIII. 1.85 हेमन्त...-II. Iv.28 हेतु शब्द के प्रयोग करने पर (हेतु द्योत्य हो तो षष्ठी देखें-हेमन्तशिशिरौ II.iv28 - विभक्ति होती है)। हेमन्तशिशिरी-II. iv. 28 हेतुभये-I. ill. 68 हेमन्त व शिशिर (के द्वन्द्व-समासान्त का पूर्ववत् लिङ्ग (लकारवाच्य) कर्ता से भय होने पर (ण्यन्त भी तथा स्मि होता है, वेदविषय में)। धातुओं से आत्मनेपद होता है)। हेमन्तात्-IV. . 21 हेतुपये-VI. 1. 35 (कालवाची) हेमन्त शब्द से (भी वेदविषय में ढञ् प्रत्यय हेतु जहाँ भय का कारण हो,उस अर्थ में वर्तमान बिभी होता है)। धातु के एच् के स्थान में णिच् प्रत्यय परे रहते विकल्प है...-VIII. II. 85 से आत्व हो जाता है)। देखें-हैहेप्रयोगे VIII. 1.85 हेतुभये- VII. iii. 40 है... - VIII. 1.85 (जिभी भये' अङ्गको) हेतुभय अर्थ में (णि परे रहते देखें- हैहयो: VIII. II. 85 हैयङ्गवीनम्-v.ii. 23 क् आगम होता है)। हैयङ्गवीन शब्द का निपातन किया जाता है, (सज्जाहेतुमति-III. I. 26 विषय में)। हेतुमत् अभिधेय होने पर(भी धातु से णिच् प्रत्यय होता ...हैलिहिल... -VI. I. 38 देखें-बीहापराहण-VI. II. 38 स्वतन्त्र कर्ता का प्रयोजक हेतु' होता है। उस हेतु का हैहयो:- VIII. II. 85 व्यापार हेतुमत् । (है. तथा हे के प्रयोग होने पर जो दूर से बुलाने में हेतुमतो:- Im. II. 156 प्रयुक्त वाक्य, उसमें) है तथा हे को (ही प्लुत उदात्त होता देखें-हेतुहेतुमतोः III. I. 156 हैहेप्रयोगे -VIII. 1.85 हेतुमनुष्येभ्यः- IV. iii. 81 . है तथा हे के प्रयोग होने पर (जो दूर से बुलाने में (पञ्चमीसमर्थ) हेतु तथा मनुष्यवाची प्रातिपदिकों से प्रयुक्त वाक्य, उसमें है तथा हे को ही प्लुत उदात्त होता (आगत' अर्थ मे विकल्प से रूप्य प्रत्यय होता है)। Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 579 हस्व... -I. ii. 27 देखें-हस्वदीर्घप्लुतः .ii. 27. हुस्व.. -VI.i. 170 देखें-हस्वनुड्भ्याम् VI. 1. 170 ...हस्व... - VI. iv. 156 देखें- स्थूलदूOVI. iv. 156 ह्रस्व.. -VII.1.54 देखें-हस्वनधाय VII. I.54 हस्क-1. 1.46 (नपुंसकलिङ्ग में वर्तमान प्रातपिदिक को) हस्व हो जाता हो-II. 11.3 - ''पात के (अनभिहित कर्म में द्वितीया तथा ततीया विभक्ति होती है, वेदविषय में)। ..हो-VII. 1. 104 देखें-तिहो VII. 1. 104 ..हो.-VIL.iv.62 देखें-कुहोVII. iv.62 ...होत... -VI. iv. 11 देखें-अप्तन्त VI. iv. 11 मेवार-V.1.134 (षष्ठीसमर्थ) ऋत्विविशेषवाची प्रातिपदिकों से (भाव और कर्म अर्थों में छ प्रत्यय होता है)। है-II.1.83 हि परे रहते (हलन्त से उत्तर श्ना के स्थान में शानच आदेश होता है)। हौ-VI. iv. 35 (शास् अङग के स्थान में) हि परे रहते (शा आदेश हो ' जाता है)। हो- VI. iv. 117 (ओहाक् अङ्ग को विकल्प से आकारादेश होता है तथा इकार आदेश भी विकल्प से होता है) हि परे रहते। है-VI.V. 119 (सक अङ्गएवम् अस को एकारादेश तथा अभ्यास '' का लोप होता है) हि (डित) परे रहते। .....-IN.34 देखें-श्लाघस्थाशपाम् I. iv.34 हम्यन्तक्षणश्वसजागृणिश्व्येदिताम्-VII. iv.5 हकारान्त,मकारान्त तथा यकारान्त अङ्गों को एवं क्षण, श्वस.जाग.णि.श्वि तथा एदित अङ्गों को (परस्मैपद-परक इडादि सिच् परे रहते वृद्धि नहीं होती)। ...यस्.. -IV.ii. 104 देखें-ऐक्मोह:o IV. 1. 104 ...हो.-VII. 1.35 देखें-तुहो: VII.1.35 ...हदोत्तरपदात्-V. 1. 141 देखें-कन्यापलद V.II. 141 हुस्व-I. iv.6 हस्व (स्व्याख्य इकारान्त, उकारान्त) शब्द (तथा इयङ्, उवङ्-स्थानी ईकारान्त ऊकारान्त स्त्र्याख्य शब्द भी डित् प्रत्यय के परे रहते विकल्प से नदीसंज्ञक होते हैं)। हस्व-VL.I. 128 (असवर्ण अच् परे हो तो इक को शाकल्य आचार्य के मत में प्रकृतिभाव हो जाता है तथा उस इक के स्थान में) ह्रस्व (भी) हो जाता है। हस्क-VI. iii. 42 (भाषितपुंस्क शब्द से उत्तर ङ्यन्त अनेकाच शब्द को) हस्व हो जाता है; (ष,रूप, कल्प, चेलद, बुव, गोत्र, मत तथा हत शब्दों के परे रहते)। हस्क-VI. iii.60 (डी अन्त में नहीं है जिसके, ऐसा जो इक अन्तवाला शब्द,उसको गालव आचार्य के मत में विकल्प से) हस्व होता है, (उत्तरपद परे रहते)। ह्रस्व-VI. Iv.72 मित्सजक अङ्ग की उपधा को) हस्व होता है,णि परे रहते। हस्व-VI. iv.94 (खच्परक णि परे रहते अङ्ग की उपधा को) हस्व होता हस्व-VII. 1.80 (पूज् इत्यादि अङ्गों को शित् प्रत्यय परे रहते) हस्व होता है। Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्क ह्रस्वः - VII. iii. 107 (अम्बा = मां अर्थ वाले अगों को तथा नदीसलक अङ्गों को सम्बुद्धि परे रहते) ह्रस्व हो जाता है। ह्रस्व- VIL III. 114 (आवन्त सर्वनाम अङ्ग से उत्तर ङित् प्रत्यय को स्याट् आगम होता है तथा उस आबन्त सर्वनाम को) ह्रस्व भी हो जाता है। ह्रस्व- VII. in. 1 (चङ्परक णि के परे रहते अङ्ग की उपधा को) ह्रस्व होता है। -VII. iv. 12 (शू, दृ तथा पृ अङ्ग को लिट् परे रहते विकल्प से) ह्रस्व होता है। हस्य- VII. . 23 (उपसर्ग से उत्तर 'ऊह वितकें' अङ्ग को यकारादि कि, ङित् प्रत्यय परे रहते) ह्रस्व होता है। -VII. iv. 59 (अङ्ग के अभ्यास को) हस्व होता है। ह्रस्वदीर्घप्लुतः III. 27 (ठकाल, ऊकाल तथा उ3काल अर्थात् एकमात्रिक, द्विमात्रिक तथा त्रिमात्रिक अच् की यथासंख्य करके) हस्व, दीर्घ और प्लुत संज्ञा होती है। ह्रस्वनद्याप - VII. 1. 54 ह्रस्वान्त, नद्यन्त तथा आप् अन्तवाले अङ्ग से उत्तर (आम् को नुट् का आगम होता है)। हस्वनुभ्याम् VI. I. 170 - ( अन्तोदात्त) हस्वान्त तथा नुट् से उत्तर ( मतुप् प्रत्यय उदात्त होता है)। हस्यम् - 1. Iv. 90 ह्रस्व अक्षर (लघुसञ्ज्ञक होता है)। 580 . ह्रस्वस्य - VII. III. 108 ह्रस्वान्त अङ्ग को सम्बुद्धि परे रहते गुण होता है)। ...हस्यात् - VI. 1. 67 देखें - एड्स्वात् VI. 1. 67 ह्रस्वात् - VI. 1. 146 ह्रस्व शब्द से उत्तर (चन्द्र शब्द उत्तरपद हो तो सुटु का आगम होता है, मन्त्रविषय में संहिता में)। हस्वात् VIII II 27 ह्रस्वान्त (अङ्ग) से उत्तर (सकार का झल् परे रहते लोप होता है। हस्वात् - VIII III. 32 ह्रस्व पद से उत्तर (जो डम्, तदन्त पद से उत्तर अच् को नित्य ही डमुट् आगम होता है)। हस्वात् VIIL III. 101 ह्रस्व (इण्) से उत्तर सकार को तकारादि तद्धित के परे रहते मूर्धन्य आदेश होता है)। ह्रस्वादेशे -1.1.47 ह्रस्वादेश के करने में (ए स्थान में इक् हस्वान्ते - VI. II. 174 = ..हीभ्यः = इ, उ, ऋ, लृ ही होता है। (नम् तथा सु से उत्तर बहुव्रीहि समास में) हस्वान्त उत्तरपद में (अन्त्य से पूर्व को उदात्त होता है)। ....... - III. 1. 39 देखें - भीहीभृहुवाम् III. 1. 39 ....डी ... - VI. 1. 186 देखें- पीडी VI. 1. 186 हस्वस्य - V. 1. 69 ह्रस्वान्त धातु को (पित् तथा कृत् प्रत्यय के परे रहते हीभ्यः : तुक् का आगम होता है। ए. ओ. ऐ. औ के हवे - V. 1. 86 'छोटा' अर्थ में (वर्तमान प्रातिपदिक से यथविहित प्रत्यय होते हैं)। ...ही ... - VII. iii. 36 देखें - अतिहीo VIL. III. 36 ... ह्रीभ्यः - VIII. 11. 56 देखें नुदविदोन्द VIII. 1. 56 Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरु 581 हरु -VII. . 31 (हवृकौटिल्ये' धातु को निष्ठा परे रहते वेदविषय में) हरु आदेश होता है। हादः-VI. iv.95 ह्राद् अङ्गकी (उपधा को निष्ठा परे रहते हस्व हो जाता ह-I. iii. 30 (नि,सम,उप तथा वि उपसर्गपूर्वक) (धातु से (आत्मनेपद होता है)। ...:-III.1.53 देखें-लिपिसिचिहः III.i. 53 हू-III. iii. 72 . (नि, अभि, उप तथा वि पूर्वक) हेज् धातु से (कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में अप् प्रत्यय होता है तथा हे को सम्प्रसारण भी हो जाता है)। -VI. I. 32 . (सन्परक चङ्परक णि के परे रहते) हे धातु को (सम्प्र- सारण हो जाता है तथा अभ्यस्त का निमित्त जो हृञ् धातु, ___ उसको भी सम्प्रसारण हो जाता है)। ...हर... -II. iv. 80 देखें-घसरणश० II. iv. 80 हरित-VII. ii. 33 हरित शब्द वेदविषय में सोमवाच्य होने पर) निपातन किया जाता है। हरेः-VII. ii. 31 हवृ कौटिल्ये धातु को (निष्ठा परे रहते वेदविषय में हरु आदेश होता है)। हा... -III. 1.2 देखें-हावामः III. 1.2 ...हा... -VII. iii.37 देखें-शाच्छासाo VII. ifi. 37 हावाम: -III. 1.2 ह्वेज,वेज,माङ्-इन धातुओं से (भी कर्म उपपद रहते अण् प्रत्यय होता है)। nererer Page #600 -------------------------------------------------------------------------- _