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अपात् -I. 11.63
अपि: -I. iv. 95 अप उपसर्ग से उत्तर (वद धातु से क्रियाफल के कर्ता को मिलने की स्थिति में आत्मनेपद होता है)। वन, अन्ववसर्ग अर्थात् कामचार = करे या न करे, गर्दा अपात् -VI.i. 137
अर्थात् निन्दा तथा समुच्चय अर्थों में कर्मप्रवचनीय और अप उपसर्ग से उत्तर (चार पैर वाले बैल आदि तथा
निपातसंज्ञक होता है)। मोर आदि पक्षी का कुरेदना अभिप्राय हो तो उस विषय अपि-I. iv. 104 में,ककार से पूर्व सुट् आगम होता है,संहिता में)। (युष्मद शब्द के उपपद रहते समान अभिधेय होने पर अपात् - VI. ii. 186
युष्मद् शब्द का प्रयोग न हो) या हो तो भी (मध्यम पुरुष अप उपसर्ग से उत्तर (भी उत्तरपदस्थित मुख शब्द को होता है)। अन्तोदात्त होता है)।
अपि-III.i. 84 अपादादौ - VIII. I. 18
(वेद विषय में श्ना के स्थान में शायच् आदेश) भी (यहाँ से आगे 'तिङि चोदात्तवति' VIII. 1.71 तक होता है तथा पूर्वप्राप्त शानच होता ही है)। जो कुछ कहेगें, वहाँ) पाद के आदि में न हो तो (सारा अपि-III. II. 61 अनुदात्त होता है, ऐसा अधिकार समझना चाहिये। (सोपसर्ग होने पर भी तथा निरुपसर्ग होने पर) भी (सत, अपादानम् - I. iv. 24
सू,द्विष,गुह,दुह,युज,विद,भिद,छिद,जि,नी,राजू धातुओं (क्रिया में अपाय = अलग होने पर जो निश्चल रहे,उस से सबन्त उपपद रहते क्विप् प्रत्यय होता है)। कारक की) अपादान संज्ञा होती है।
अपि-III. 1.75. अपादाने-II. iii. 28.
(आकारान्त धातुओं से भिन्न धातुओं से) भी (मनिन, (अनभिहित) अपादान कारक में (पञ्चमी विभक्ति होती
क्वनिप, वनिप् तथा विच प्रत्यय देखे जाते है)।
अपि-III. 1. 101 अपादाने -III. iv. 52
- (पर्वसत्रों में जिनके उपपद रहते जन धातु से ड प्रत्यय (शीघ्रता गम्यमान हो तो) अपादान उपपद रहते (धातु
का विधान किया है, उनसे अन्य कोई उपपद हो तो) भी से णमुल् प्रत्यय होता है)।
(जन् धातु से ड प्रत्यय देखा जाता है)। अपादाने-III. iv.74
अपि -III. ii. 178 (भीमादि उणादिप्रत्ययान्त शब्द) अपादान कारक में
(अन्य धातुओं से) भी (तच्छीलादि कर्ता हो,तो वर्तमा(निपातन किये जाते है)।
नकाल में क्विप् प्रत्यय देखा जाता है)। अपादाने -v.iv. 45
अपि-III. iii.2 अपादान कारक में (भी जो पञ्चमी. तदन्त से विकल्प से तसिप्रत्यय होता है,यदि वह अपादान कारक हीय तथा
(उणादि प्रत्यय धातु से भूतकाल में) भी ( देखे जाते रुह सम्बन्धी न हो तो)। अपाये -I. iv. 24
अपि-III. iii. 130 (क्रिया में) अपाय = अलग होने पर (जो अचल रहे,उस
(वेद विषय में गत्यर्थक धातुओं से अन्य धातुओं से) भी कारक की अपादान संज्ञा होती है)।
(कृच्छ्राकृच्छ्र अर्थ में ईषदादि उपपद रहते युच प्रत्यय देखा अपारलौकिके -VI. I. 48
जाता है)। (पिधु हिंसासंराध्योः धातु यदि) अपारलौकिक = इह
अपि... -III. iii. 142 लौकिक अर्थ में वर्तमान हो तो (उसके एच के स्थान में
देखें-अपिजात्वोः III. iii. 142 णिच् परे रहते आकारादेश हो जाता है)।
अपि -III. iii. 145 अपि-I. iv. 80
(किंवृत्त उपपद न हो या) किंवृत्त उपपद हो तो भी (धातु (वेद विषय में गति और उपसर्ग-संज्ञक शब्द धातु से
से काल-सामान्य में सब लकारों के अपवाद लिङ् तथा पर में तथा पूर्व में) भी (आते है)।
लृट् प्रत्यय होते हैं,असम्भावना तथा सहन न करना गम्यमान हो तो)।