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क्षेत्र में अष्टाध्यायी के महत्त्व को देखते हुए अष्टाध्यायी पर एक विस्तृत एवं सर्वाङ्गपूर्ण कोश के निर्माण की आवश्यकता का अनुभव किया जाना स्वाभाविक है। ____ अनुमानतः २५०० वर्षों से संस्कृत-कोश-साहित्य के सृजन की परम्परा भारत में अव्याहत गति से चली आ रही है । इस अवधि में १५० से भी अधिक विभिन्न प्रकार के जैसे निघण्टु, पर्यायवाची कोश, समानार्थक, नानार्थक कोश, पारिभाषिक शब्द कोश, एकाक्षर कोश, व्यक्षर कोश, एवं त्र्यक्षरादि कोशों की रचना हुई। यह दुःख का विषय है कि इसका अधिकांश भाग अभी तक अप्रकाशित है, वह या तो मातृकाओं के रूप में विभिन्न ग्रन्थागारों में प्राप्त होता है, अथवा सर्वथा लुप्त हो गया है । आधे से कम ही अंश का कोश-साहित्य प्रकाशित मिलता है। वास्तव में ऐसी स्थिति में कोश-साहित्य को ऐतिहासिक दृष्टि से लिपिबद्ध करना कुछ दुष्कर ही है।
संस्कृत वाङ्मय में जिस विशाल कोश-साहित्य का सृजन हुआ है, वैसा विशाल कोश-साहित्य विश्व की किसी भाषा में नहीं है । विविधता और समृद्धि की दृष्टि से भी संस्कृत भाषा के कोश अनुपम
और अतुलनीय हैं । वैदिक काल में सर्वप्रथम संस्कृत कोशों की रचना का श्रीगणेश हुआ। कोशनिर्माण के प्रथम चरण में वैदिक संहिताओं के मन्त्रों में प्रयुक्त चुने हुए शब्दों का संकलन मात्र किया गया, उनको विभिन्न श्रेणियों में रखकर उनके व्युत्पत्तिलभ्य अर्थों का निर्देश किया गया है। कोशों की रचना का द्वितीय चरण लौकिक संस्कृत-साहित्य पर आधारित अमरकोश की रचना से आरम्भ होता है। अमरकोश की रचना से पूर्व व्याडि, वररुचि आदि कोशकार हुए; दुर्भाग्यवश उनकी रचनाएँ उपलब्ध न होने के कारण उनके बारे में अधिक कहना सम्भव नहीं है । अमरकोश के प्रणेता अमरसिंह ने स्वयं अपने पूर्ववर्ती कोशकारों के प्रति कृतज्ञता प्रकट की है, इसी से उन रचनाओं की प्रामाणिकता का पता चलता है। अमरसिंह का समय विद्वानों ने छठी शताब्दी ई० माना है।
अमरकोश के कुछ टीकाकार क्षीरस्वामी, सर्वानन्द, रघुनाथ चक्रवर्ती आदि मात्र कोशकार ही नहीं, अपितु वैयाकरण भी थे; उन्होंने शब्दों की व्युत्पत्ति देकर, उनके अर्थों का निर्देश कर कोशसाहित्य के विकास का तृतीय चरण आरम्भ किया। व्याकरण-सम्मत व्युत्पत्ति देने से शब्दों के अर्थ की प्रामाणिकता स्वतः सिद्ध हो जाती है। पूर्ववर्ती कोशकारों द्वारा दिए गए अर्थ प्रयोगों के ही आधार पर थे।.
कोश-साहित्य के विकास के चौथे चरण में पारिभाषिक शब्दकोशों की रचना हुई। यह धारा अमरसिंहविरचित लौकिक ,शब्दकोश के समानान्तर कोशरचना की धारा थी। आयुर्वेदशास्त्र के अन्तर्गत वनस्पतिशास्त्र पर रचित कुछ कोश अमरकोश से भी पहले के हैं, ऐसा अनुसन्धानकर्ताओं का मत है । धन्वन्तरिनिघण्टु, पर्यायरत्नमाला, शब्दचन्द्रिका आदि मूल रूप में पारिभाषिक शब्दकोश ही हैं, जिनमें आयुर्वेद से सम्बद्ध शब्दों के अतिरिक्त अन्य शब्दों का संग्रह ही नहीं है । ये सभी कोश छन्दोबद्ध थे, अतः उन्हें कण्ठस्थ करना सरल था।
कोश-साहित्य के पञ्चम चरण में नानार्थकोशों की रचना हुई । वैज्ञानिक सिद्धान्तों के आधार पर कोशों के निर्माण की दिशा में नानार्थ कोश प्रथम प्रयास है । इन कोशों में प्रयोगों के आधार पर एक ही