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________________ xii अष्टाध्यायी में आठ अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में चार पाद हैं। सूत्रों की संख्या लगभग चार हज़ार है । अष्टाध्यायी प्रत्याहार-सूत्रों को आधार मानकर प्रणीत है । पाणिनि ने केवल वर्णों का प्रत्याहार ही नहीं बनाया अपितु प्रत्ययों का भी प्रत्याहार बनाया, जैसे- सुप् तिङ् आदि । अष्टाध्यायी में अधिकार-सूत्र-पद्धति को अपनाया गया है। निर्दिष्ट स्थानपर्यन्त अधिकारसूत्रों का अधिकार चलता है, जैसे- अङ्गस्य, पदस्य, धातो; आदि । लाघव को ही पुत्रोत्सव मानने वाले महावैयाकरण आचार्य पाणिनि ने गणपाठों का प्रयोग किया है। यदि एक ही कार्य अनेक शब्दों से होना है तो उन सभी शब्दों का एक गण बनाकर, प्रथम शब्द में आदि शब्द लगाकर सूत्र में निर्देश किया जाता है, जैसे‘नडादिभ्यः फक्’ । अष्टाध्यायी में गणों का निर्देश करने वाले लगभग २५८ सूत्र हैं । यद्यपि पाणिनि का प्रमुख उद्देश्य लौकिक संस्कृत का व्याकरण बनाना था तथापि वैदिक संस्कृत के व्याकरण की उपेक्षा नहीं की गई । पाणिनि ने वैदिक व्याकरण को भी पर्याप्त महत्त्व दिया है। लौकिक संस्कृत के लिए 'भाषायाम्' और वैदिक संस्कृत के लिए 'छन्दसि' शब्द का प्रयोग किया है। पाणिनि ने अनेक पारिभाषिक संज्ञाओं का प्रयोग किया है। कुछ संज्ञाएँ परम्परागत हैं, जैसे- आङ्, औङ् आदि; और कुछ संज्ञाएँ सर्वथा नई हैं जैसे नदी, घि आदि । पाणिनि ने अनुबन्ध - प्रणाली का भी वैज्ञानिक उपयोग किया. है । पाणिनि का व्याकरण 'अकालक' कहा जाता है । 'वर्तमानसमीप्ये वर्त्तमानवद्वा' इत्यादि सूत्रों के विश्लेषण से पता चलता है कि पाणिनि ने काल की अपेक्षा भाव को प्रमुखता दी है । पाणिनि ने काल को स्पष्ट रूप से शिष्य कहा है। पाणिनि की शैली की यह विशेषता है कि वह किसी विशेष युक्ति से सभी नियमों का विधान करते हैं। उत्सर्गापवाद-युक्ति, परबलीयस्त्व-युक्ति तथा नित्यकार्य-युक्ति पाणिनीय शैली की मौलिक विशेषताएँ हैं। सपादसप्ताध्यायी और त्रिपादी की परिकल्पना पाणिनि की अपूर्व प्रतिभा का परिचायक है। पाणिनि ने लोप की चार स्थितियों का आविष्कार किया है। वे चार स्थितियाँ हैं— लोप, लुक्, श्लु और लुप् । यद्यपि वाजसनेयि - प्रातिशाख्य में वर्ण के अदर्शन को लोप कहा गया है, किन्तु पाणिनि की मौलिकता यह है कि वह लोप को वर्ण तक सीमित न रखकर अदर्शन मात्र को लोप की संज्ञा दे देता है । यद्यपि परवर्ती आचार्यों का मत है कि पर्यायवाची शब्दों के प्रयोग में गौरवलाघवचर्चा नहीं की जानी चाहिए तथापि पाणिनि द्वारा प्रयुक्त 'विभाषा', 'विभाषितम्', 'अन्यतरस्याम्', 'वा', 'बहुलं' आदि पद कुछ निगूढ प्रयोजनों की ओर इंगित करते हैं जो कि अनुसन्धेय हैं ।. पाणिनि ने अष्टाध्यायी के पूरक ग्रन्थों के रूप में धातुपाठ, गणपाठ, उणादिकोश और लिङ्गानुशासन की भी रचना की । पाणिनि के व्याकरण में इन पाँचों उपदेश ग्रन्थों का अनिवार्य महत्त्व है, क्योंकि पाँच उपदेश ग्रन्थ पाणिनि के व्याकरण को पूर्ण बनाते हैं । पाणिनि के व्याकरण की चर्चा हो और कात्यायन तथा पतञ्जलि की चर्चा न हो, यह सम्भव ही नहीं है। क्योंकि कात्यायन और पतञ्जलि से अनुस्यूत होकर ही पाणिनि पूर्ण होता है । यही कारण है कि पाणिन्युत्तर-व्याकरण-परम्परा में पाणिनीय व्याकरण को 'त्रिमुनि व्याकरणम्' कहा गया है । कात्यायन ने अष्टाध्यायी के सूत्रों पर वार्त्तिकों की रचना की है । पतञ्जलि ने कात्यायन-कृत वार्तिकों का आश्रय लेते हुए अष्टाध्यायी की सर्वाङ्गीण एवं विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की, जो 'महाभाष्य' नाम से प्रसिद्ध है । कात्यायन ने अष्टाध्यायी के सूत्रों में आवश्यक परिवर्तन, परिवर्धन और संशोधन के लिए जो नियम बनाए हैं, उन्हें वार्त्तिक कहा जाता है। कात्यायनप्रणीत वार्त्तिकों की संख्या बताना कठिन है।
SR No.016112
Book TitleAshtadhyayi Padanukram Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAvanindar Kumar
PublisherParimal Publication
Publication Year1996
Total Pages600
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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