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भाने
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'भाषितपुंस्कम्
भावे - III. 1. 107
....भाव्य... - III. I. 123 भाव में (अनुपसर्ग भू धातु से सुबन्त उपपद रहते क्यप देखें - निष्टक्र्यदेवहूय० III. 1. 123 प्रत्यय होता है)।
...भाष.. - VII. iv.3 भावे - III. Iii. 18
देखें - प्राजभास० VII. iv.3 भाव अर्थात् धात्वर्थ वाच्य होने पर (धातुमात्र से घञ् भाषायाम् - III. ii. 108 . प्रत्यय होता है)।
लौकिक प्रयोग विषय में (सद, वस,श्रु- इन धातुओं भावे-III. iii.44
से परे भूतकाल में विकल्प से लिट् प्रत्यय होता है)। (अभिव्याप्ति गम्यमान हो तो धातु से) भाव में (इनुण भाषायाम् - IV. 1.62 प्रत्यय होता है)।
(सखी तथा अशिश्वी- ये शब्द) भाषाविषय में (स्त्रीलिङ्ग भावे-III. iii. 75
में ङीष्-प्रत्ययान्त निपातन किये जाते है)। (उपसर्गरहित हे धातु से) भाव में (अप् प्रत्यय तथा भाषायाम-IVili. 140 सम्प्रसारण हो जाता है)।
(षष्ठीसमर्थ प्रातिपदिकों से भक्ष्यवर्जित. आच्छादनभावे-III. iii. 95
वर्जित विकार तथा अवयव अर्थों में) लौकिक प्रयोग(स्था, गा, पा, पच् धातुओं से स्त्रीलिङ्ग) भाव में विषय में (विकल्प से मयट् प्रत्यय होता है)। (क्तिन् प्रत्यय होता है) ।
भाषायाम् - VI. 1. 175 - भावे-III. iii. 98
(षट्सजक,त्रि तथा चतुर शब्द से उत्पन्न जो झलादि ' (वज तथा यज् धातुओं से स्त्रीलिङ्ग) भाव में (क्यप्
विभक्ति, तदन्त शब्द का उपोत्तम) भाषाविषय में (उदात्त प्रत्यय होता है और वह उदात्त होता है)।
होता है विकल्प से)। भावे - III. iii. 114
भाषायाम् -VI. iii. 19 (नपुंसकलिङ्ग) भाव में (धातुमात्र से क्त प्रत्यय होता
(स्थ शब्द के उत्तरपद रहते भी) भाषा = लौकिक
प्रयोग विषय में (सप्तमी का अलुक नहीं होता है)। । भावे-III. iv.69
(सकर्मक धातुओं से लकार कर्मकारक में होते हैं. भाषायाम् - VII. ii. 88 चकार से कर्ता में भी होते हैं और अकर्मक धातुओं से)
(प्रथमा विभक्ति के द्विवचन के परे रहते भी) लौकिक भाव में होते हैं (तथा चकार से कर्ता में भी होते है)। प्रयोग विषय में (युष्मद्, अस्मद् को आकारादेश होता भावे-IV. iv. 144
भाषायाम् -VIII. ii. 98 (षष्ठीसमर्थ शिव,शम और अरिष्ट प्रातिपदिकों से वेद
(विचार्यमाण वाक्यों के पूर्ववाले वाक्य की टि को ही) विषय में) भाव अर्थ में (भी तातिल प्रत्यय होता है)।
भाषा-विषय में (प्लुत उदात्त होता है)। भावे-VI.ii. 25
भाषितपुंस्कम् - VII. . 74 (श्र, ज्य, अवम, कन् तथा पापवान् शब्द के उत्तरपद रहते कर्मधारय समास में) भाववाची पूर्वपद को (प्रकृति
(तृतीया विभक्ति से लेकर आगे की अजादि विभस्वर होता है)।
क्तियों के परे. रहते) भाषितस्क = एक ही अर्थ में
अर्थात् एक ही प्रवृत्तिनिमित्त को लेकर कहा है पुंल्लिङ्ग भावेन -II. 1.37
अर्थ को जिस शब्द ने, ऐसे नपुंसकलिंग वाले (इगन्त) (जिसकी) क्रिया से क्रियान्तर लक्षित हो, उससे भी अंग को (गालव आचार्य के मत में पंवदभाव हो जाता सप्तमी विभक्ति होती है)।