________________
.... तृण....
... तृण... - IV. 1. 79
देखें - अरीहणकृशाश्व० IV. 1. 79
... तृण ... - V. iv. 125
देखें - सुहरितo Viv. 125
तृणह: - VII. iii. 92
'गृह हिंसायाम्' अङ्ग को ( हलादि पित् सार्वधातुक परे रहते इम् आगम होता है)।
तृणे - VI. iii. 102
तृण शब्द उत्तरपद हो तो (भी कु को कत् आदेश होता
है, जाति अभिधेय होने पर) ।
.... तृतीय .... - II. ii. 3
देखें - द्वितीयतृतीयचतुर्थ० II. II. 3
... तृतीय ... - V. iv. 58
देखें - द्वितीयतृतीयo Viv. 58
तृतीया - II. 1. 29
'तृतीयान्त सुबन्त (तत्कृत गुणवाचक और अर्थ शब्द के साथ विकल्प से समान को प्राप्त होता है और वह तत्पुरुष समास होता है।
तृतीया
- II. iii. 3
(वेद-विषय में हु धातु के अनभिहित कर्म में) तृतीयाविभक्ति होती है, (चकार से द्वितीया विभक्ति भी होती है) ।
तृतीया - II. iii. 6
(अपवर्ग गम्यमान होने पर काल और अध्ववाचियों के अत्यन्त संयोग में) तृतीया विभक्ति होती है। तृतीया
305
- II. iii. 18
(अनभिहित कर्ता और करण कारक में) तृतीया विभक्ति होती है।
तृतीया - II. iii. 27
. (हेतु शब्द के प्रयोग में तथा हेतु के विशेषणवाची सर्वनामसञ्ज्ञक शब्द के प्रयोग में हेतु द्योतित होने पर) तृतीया विभक्ति होती है (और चकार से षष्ठी भी ) । तृतीया - - II. iii. 32
(पृथक्, विना, नाना — इन शब्दों के योग में विकल्प से) तृतीया विभक्ति होती है, (पक्ष में पचमी भी होती है)
1
तृतीया - II. iii. 44
(प्रसित और उत्सुक शब्दों के योग में) तृतीया विभक्ति होती है (तथा चकार से सप्तमी भी) ।
तृतीयाप्रभृतीनि
तृतीया - II. iii. 72
(तुल्यार्थक शब्दों के योग में, तुला और उपमा शब्दों को छोड़कर विकल्प से) तृतीया विभक्ति होती है, (पक्ष में षष्ठी भी)।
तृतीया... - II. iv. 85
देखें - तृतीयासप्तम्योः II. iv. 85
... तृतीया... - VI. ii. 2
देखें - तुल्यार्थतृतीया० VI. ii. 2
तृतीया - VI. ii. 48
(कर्मवाची क्तान्त उत्तरपद रहते) तृतीयान्त पूर्वपद को (प्रकृतिस्वर हो जाता है)।
तृतीयात् - V. iii. 84
(मनुष्यनामवाची शेवल, सुपरि, विशाल, वरुण तथा अर्यमा शब्द आदि में है जिनके ऐसे शब्दों के) तीसरे (अच्) के बाद (की प्रकृति का लोप हो जाता है, ठ तथा अजादि प्रत्ययों के परे रहते) ।
तृतीयादि: - VI. i162
(सप्तमीबहुवचन सु के परे रहते एक अच् वाले शब्द से उत्तर) तृतीयाविभक्ति से लेकर आगे की (विभक्तियों को उदात्त होता है) ।
तृतीयादिषु
I-VII. i. 74
तृतीया विभक्ति से लेकर आगे की (अजादि) विभक्तियों के परे रहते (भाषितपुंस्क नपुंसकलिङ्ग वाले अङ्ग को गालव आचार्य के मत में पुंवद्भाव हो जाता है)। तृतीयादिषु - VII. 1. 97
तृतीयादि (अजादि) विभक्तियों के परे रहते (क्रोष्टु शब्द को विकल्प से तृज्वत् अतिदेश होता है ) । तृतीयादौ - II. iv. 32
तृतीया आदि विभक्ति परे रहते (अन्वादेश में वर्तमान इदम् के स्थान में अनुदात्त अश् आदेश होता है)। तृतीयाप्रभृतीनि - IIii. 21
'उपदंशस्तृतीयायाम् ' III. iv. 47 से लेकर 'अन्वच्यानुलोम्ये' तक III. iv. 64 जो भी उपपद हैं, वे (अमन्त