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च-II. iv. 18 (अव्ययीभाव समास) भी (नपुंसकलिङ्ग होता है)। च-II. iv. 24
(शाला अर्थ से भिन्न जो सभा,तदन्त नकर्मधारयभिन्न तत्पुरुष) भी (नपुंसकलिङ्ग में होता है)। च-II. iv. 28
हेमन्त और शिशिर शब्द) तथा (अहन और रात्रि शब्दों का द्वन्द्व समास में छन्द-विषय में पूर्ववत् लिङ्ग होता है)। च-II. iv. 31 (अर्धर्चादि शब्द पुंल्लिङ्ग) और नपुंसकलिङ्ग में होते
च-II. iii. 45
(लुबन्त नक्षत्रवाची शब्द में भी तृतीया) और (सप्तमी विभक्ति होती है)। च-II. iii.47 (सम्बोधन में) भी (प्रथमा विभक्ति होती है)। च-II. iii. 63
(यज धातु के करण कारक में) भी (वेद-विषय में बहुल करके षष्ठी विभक्ति होती है)। च-II. iii.67
(वर्तमान काल में विहित क्त प्रत्यय के प्रयोग में) भी (षष्ठी विभक्ति होती है)। च-II. iii. 68 .
(अधिकरण में विहित क्त-प्रत्ययान्त के योग में) भी (षष्ठी विभक्ति होती है)। च-II. iii: 73
(आशीर्वचन गम्यमान हो तो आयुष्य,मद्र,भद्र, कुशल, सुख, अर्थ, हित - इन शब्दों के योग में शेष विवक्षित होने पर विकल्प से चतुर्थी विभक्ति होती है)। चकार से पक्ष में षष्ठी भी होती है। च -II. iv.2 (प्राणी-अङ्गवाची, तूर्य = वाद्य अङ्गवाची तथा सेनाङ वाची शब्दों के द्वन्द्व को) भी (एकवद्भाव हो जाता है)। च-II. iv.9
(जिन जीवों का सनातन विरोध है.तद्वाची शब्दों का द्वन्द) भी (एकवत् होता है)। च-II. iv. 11
(गवाश्व इत्यादि शब्द यथापठित = कृतैकवद्भाव द्वन्द्वरूप) ही (साधु होते हैं)। च-II. iv. 13
(परस्पर विरुद्धार्थक अद्रव्यवाची शब्दों का द्वन्द्व) भी (विकल्प से एकवद् होता है)।
च-II. iv. 15 ' (अधिकरण का परिमाण कहने में जो द्वन्दू, वह) भी (एकवत् नहीं होता है)।
च-II. iv. 33
(अन्वादेश में वर्तमान एतद् के स्थान में अनुदात्त अश् आदेश होता है) और (वे त्र, तस् प्रत्यय भी अनुदात्त होते हैं)। च-II. iv. 38
(घन और अप आर्धधातुक के परे रहते) भी (अद धातु को घस्ल आदेश होता है)। च:-II. iv. 43 (आर्धधातुक लुङ् परे रहते) भी (हन् को वध आदेश हो जाता है)। च-II. iv. 47
(आर्धधातुक सन् प्रत्यय के परे रहते) भी (अबोधनार्थक इण् धातु को गमि आदेश हो जाता है)। च -II. iv. 48
(इङ् धातु को) भी (गम् आदेश होता है, आर्धधातुक सन् परे रहते)। च-II. iv. 51
(सन्परक, चङ्परक णिच् के परे रहते) भी (इङ को विकल्प से गाङ् आदेश होता है)। च-II. iv. 59 (गोत्रवाची पैलादि शब्दों से) भी (युवापत्य में विहित प्रत्यय का लुक होता है)। च - II. iv. 64 (गोत्र में विहित य और अञ् प्रत्ययों का) भी (तत्कृत बहुत्व में लुक् होता है,स्त्रीलिङ्ग को छोड़कर)।