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तुदादिभ्यः
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तुदादिश्य:-III. 1.77
तुम -III. iv.9 . तुदादि धातुओं से (श' प्रत्यय होता है,कर्तृवाची सार्व- (वेदविषय में) तुमर्थ में (धातुसे से, सेन, असे, असेन, धातुक परे रहने पर)।
कसे, कसेन, अध्यै, अध्यैन्, कध्यै,कध्यैन्, शध्यै,शध्यैन्, तुनुधमक्षुतबोरुष्याणाम् - VI. lil. 132 तवै, तवेङ्, तथा तवेन् प्रत्यय होते हैं)।
त.न.घ.मक्ष. तङ, क.त्र. उरुष्य - इन शब्दों को तुमुन्... -III. iii. 10 '(ऋचा-विषय में दीर्घ हो जाता है)।
देखें- तुमुन्ण्वु लौ III. iii. 10 तुन्द.. - III. ii.5
तुमुन् - III. iii. 158 देखें - तुन्दशोकयोः III. ii. 5
(समान है कर्ता जिसका, ऐसी इच्छार्थक धातुओं के तुन्दशोकयो: - III. ii. 5
उपपद रहते धातु से) तुमुन् प्रत्यय होता है। तुन्द तथा शोक (कर्म) के उपपद रहते (यथासंङ्ख्य
तुमुन् -III. iii. 167 करके परिपूर्वक मृज तथा अपपूर्वक नुद् धातु से क प्रत्यय
(काल, समय, वेला शब्द उपपद रहते धातु से) तुमुन् होता है)।
प्रत्यय होता है। तुन्दादिभ्यः -- V. ii. 117
तुमुन्न्धु ली-III. 1.10 तुन्दादि प्रातिपदिकों से (मत्वर्थ में इलच तथा इनि और ।
(क्रियार्थ क्रिया उपपद में हो तो धातु से भविष्यत्काल ठन् प्रत्यय होते हैं)।
में) तुमुन् तथा ण्वुल् प्रत्यय होते हैं। तुन्दि..-v.ii. 139
...तुरायण.. - V. 1.72 देखें - तुन्दिबलि. V. ii. 139
देखें - पारायणतुरायणo v. i. 72 तुन्दिबलिवटे: - V. ii. 139
तुरुस्तुशम्यम: - VII. ii. 95 तुन्दि, बलि तथा वटि प्रातिपदिकों से (मत्वर्थ में भ तु, रु, ष्टुन, शम् तथा अम् धातुओं से उत्तर (हलादि प्रत्यय होता है)।
सार्वधातुक को विकल्प से ईट का आगम होता है)। ...तुपरम् - VIII. 1. 56
...तुर्याणि - II. ii.3 देखें - यद्धितुपरम् VIII. 1. 56
देखें- द्वितीयतृतीयचतुर्थ II. ii. 3 तुपश्यपश्यताहै: - VIII. 1. 39
...तुलाभ्यः - IV.iv.91 तु, पश्य, पश्यत, अह - इनसे युक्त (तिङन्त को पू- देखें - नौवयोधर्म V. iv.91 जा-विषय में अनुदात्त नहीं होता)।
...तुल्य.. - IV.iv.91 तुभ्य... - VII. ii. 95.
देखें - तार्यतुल्य० IV. iv. 91 देखें - तुभ्यमह्यौ VII. ii. 95
तुल्यक्रियः - III. 1. 87 तुभ्यमह्यौ -VII. ii.95
(कर्म के साथ अर्थात् कर्मस्थक्रिया के साथ) समान(युष्मद्, अस्मद् अङ्ग के मपर्यन्त भाग को क्रमशः) तुभ्य, क्रिया वाला (कर्ता कर्मवत् होता है)। मह्य आदेश होते हैं (डे विभक्ति के परे रहते)।
तुल्यम् - I. ii. 56 तुमर्थात् - II. ii. 15
(काल तथा उपसर्जन = गौण भी अशिष्य होते हैं) तुमुन् के समानार्थक (भाववाचक प्रत्ययान्त से भी तुल्य हेतु होने से अर्थात् पूर्वसूत्रोक्त लोकाधीनत्व हेतु चतुर्थी विभक्ति होती है)।
होने से।