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अनुवादे
अनुवादे -II. iv.3
(चरणवाचियों का जो द्वन्द्व, उसको) अनुवाद = अन्य प्रमाणों से ज्ञात अर्थ का शब्द से कथनमात्र गम्यमान होने पर (एकवद्भाव हो जाता है)। अनुविपर्यभिनिभ्यः - VIII. iii. 72
अनु, वि, परि, अभि तथा नि उपसगों से उत्तर (स्यन्दू धातु के सकार को मूर्धन्य आदेश होता है, यदि प्राणी का कथन न हो रहा हो तो)। अनुशतिकादीनाम् - VII. ii. 10
अनुशतिक इत्यादि अङ्गों के (पूर्वपद तथा उत्तरपद दोनों के अचों में आदि अच् को भी बित् णित् अथवा कित् तद्धित परे रहते वृद्धि होती है)। अनुसमुद्रम् - IV. iii. 10
समुद्र के समीप अर्थ में वर्तमान (जो द्वीप,उससे शैषिक यञ् प्रत्यय होता है)। अनुसम्परिभ्यः - I. III. 21
अनु, सम्, परि (तथा आङ्) उपसर्ग से उत्तर (क्रीड् धातु से आत्मेनपद होता है)। ...अनुस्वार... - I.1.57
देखें - पदान्तद्विवचनवरेयलोप० 1.1.57 अनुस्वारः - VIII. iii. 4 (रु से पूर्व वर्ण,जो अनुनासिक से भिन्न है, उससे परे) अनुस्वार आगम होता है, (संहिता में)। अनुस्वारः - VIII. iii. 23.
(पदान्त मकार को) अनुस्वार रहते, संहिता में)।
अनुस्वारस्य-VIII. iv. 57 • अनुस्वार को (यय प्रत्याहार परे रहते परसवर्ण आदेश होता है)। ...अनूङ् - VI. iii. 33
(एक ही अर्थ में अर्थात् एक ही प्रवृत्तिनिमित्त को लेकर कहा है पुंल्लिग अर्थ को जिस शब्द ने,ऐसे) ऊङ्-वर्जित (भाषितऍस्क स्त्री) शब्द के स्थान पर (पुंल्लिङ्गवाची शब्द के समान रूप हो जाता है)। अनूचान:-III. ii. 108
अनूचान(= कहा) शब्द निपातन से सिद्ध होता है। अनूर्ध्वकर्मणि -I. iii. 24
अनूर्ध्वकर्म(= ऊपर उठने) अर्थ में वर्तमान न हो तो (उत् पूर्वक स्था धातु से आत्मनेपद होता है)।
अनुच्छ:-III. 1.36
ऋच्छवर्जित (इजादि, गुरुमान् धातुओं) से (आम् प्रत्यय होता है,लौकिक विषय में,लिट् परे रहते)। अनृतः -VIII. 1.86 ऋकार को छोड़कर (वाक्य के अन्त्य गुरुसज्ञक वर्ण को एक-एक करके तथा अन्त्य के टि को भी प्राचीन आचार्यों के मत में प्लुत उदात्त होता है)। अनृषि -IV. 1. 104
(षष्ठीसमर्थ बिदादि प्रातिपदिकों से गोत्रापत्य में अब् प्रत्यय होता है, परन्तु इनमें) जो अनृषिवाची है, उनसे (अनन्तरापत्य में अज् होता है)। अनेकम् -II. 1. 24 (अन्य पदार्थ में वर्तमान) अनेक (सुबन्त परस्पर समास को विकल्प से प्राप्त होते है और वह समास बहुव्रीहि सजक होता है)। अनेकम् -VIII. 1.35
हि से युक्त साकाच) अनेक तिङन्तों) को (भी तथा अपि ग्रहण से एक को भी कहीं-कहीं अनुदात्त नहीं होता, वेद विषय में)। अनेकाच-VI. III. 42
(भाषितपुंस्क शब्द से उत्तर ङ्यन्त) अनेकाच शब्द को (हस्व हो जाता है; घ,रूप, कल्प, चेलट्, बुव, गोत्र, मत तथा हत शब्दों के परे रहते)। अनेकारः -VI. iv.82
(धातु का अवयव जो संयोग.वह पर्व नहीं है जिस इवर्ण के,तदन्त) अनेक अच्बाले अङ्गको (अच् परेरहते यणादेश होता है)। अनेकाल... -I.1.54
देखें - अनेकाल्शित् I. 1.54 अनेकाल्शित् -1.1.54 __ अनेकालादेश तथा शिदादेश (सम्पूर्ण षष्ठीनिर्दिष्ट के स्थान में होता है)। अनेते -VI. 1.3
(वर्णवाची शब्द के उत्तरपद में रहते वर्णवाची पूर्वपद को प्रकृतिस्वर हो जाता है),एत शब्द उत्तरपद में न हो तो। अनेन -v.ii. 85
(भुक्त क्रिया के समानाधिकरण वाले प्रथमासमर्थ श्राद्ध प्रातिपदिक से) इसके द्वारा' अर्थ में (इनि और ठन् प्रत्यय होते है)।