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...शमि...
शब्दश्लोककलाहगाथावरचाटुसूत्रमन्त्रपदेषु - II. II. . 23
शब्द,श्लोक,कलह, गाथा,वैर,चाटु,सूत्र, मन्त्र,पदइन (कर्मो) के उपपद रहते (कृञ् धातु से ट प्रत्यय नहीं होता)। शब्दसज्ञायाम् -VIII. 11.86
(अभि तथा निस् से स्तन धातु के सकार को) शब्द की सञ्ज्ञा गम्यमान हो तो (विकल्प से मूर्धन्य आदेश हो जाता है)।
शप-II. 1.72
शप् का (लुक होता है, अदादियों से परे)। ...शपाम् -I. iv. 34
देखें-श्लाघहाइस्थाशपाम् I. iv.34 शपि-VI. iv.25 (दंश, सञ्ज, वजाइन अङ्गों की उपधा नकार का लोप होता है) शप प्रत्यय परे रहते। शश्यनोः - VII.1.81
शप और श्यन का (जो शत प्रत्यय उसको नित्य ही नुम् आगम होता है)। ...शफ... -V.1.70
देखें -संहितशफलक्षण IV. 1.70 शब्द... - III.1.17
देखें- शब्दवैरकलहाo III.1.17 शब्द..-III. 1. 23
देखें - शब्दश्लोक III. II. 23 शब्द.. - IV. iv. 34
देखें - शब्ददर्दुरम् IV. iv. 34 ...शब्दकर्म... - I. iv. 52
देखें- गतिविनत्यवसानार्थI. .52 शब्दकर्मणः -I. 1. 34
शब्दकर्मवाले (वि उपसर्ग) से उत्तर (कन धात से आत्मनेपद होता है)। शब्ददर्दुरम् - IV. iv. 34
द्वितीयासमर्थ) शब्द और दर्दुर प्रातिपदिकों से (करता है- अर्थ में ठक प्रत्यय होता हैं)।
दर्दुर = मेंढक, बादल, वाद्य, पहाड़। ...शब्दप्रादुर्भाव... - II.1.7
देखें-विभक्तिसमीपसमृद्धि II.1.1 शब्दवैरकलहाकण्वमेवेभ्यः - III. 1. 17
शब्द, वैर, कलह, अभ्र,कण्व,मेष - इन (कर्म) शब्दों से (करण अर्थ में क्यङ्प्रत्यय होता है)।
अभ्र = बादल, आकाश, अबरक,शून्य। कण्व = एक ऋषि।
(व्याकरण शास्त्र में) शब्द के (अपने रूप का ग्रहण होता. है.उसके अर्थ अथवा पर्यायवाची शब्दों का नहीं,शब्द- . संज्ञा को छोड़कर)। शब्दानुशासनम् -
(यहां से) लौकिक तथा वैदिक शब्दों का अनुशासन ... = उपदेश आरम्भ करते हैं। शब्दार्थप्रकृतौ - VI. ii. 80
शब्दार्थवाली प्रकृति है जिन (णिनन्त) शब्दों की,उनके उत्तरपद रहते (ही उपमानवाची पूर्वपद को आधुदात्त होता
डा
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...शब्दार्थात् -III. I. 148
देखें-चलनशब्दार्थात् III. I. 148 ...शब्देषु-VI. 11.55
देखें-घोषमिश्र०VI.III.55 . ...शम्... -IV.iv. 143
देखें-शिवशमरिष्टस्य IV. iv. 143 शमाम् - VII. iil.74
शम् इत्यादि (आठ) अङ्गों को (श्यन् परे रहते दीर्घ होता है)। शमि-III. ii. 14
शम् उपपद रहते (धातुमात्र से संज्ञा-विषय में अच प्रत्यय होता है)। ....शमि.. - VII. Iii. 95
देखें-तुरुस्तु. VII. II. 95 ....शमि... - VIII. iii. 96
देखें-विकुशमि० VIII. 11.96
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