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वैदिककालीन समाज में जैसे जैसे वेद-मन्त्रों का महत्व बढ़ता गया वैसे वैसे मन्त्रों के शुद्ध उच्चारण,शुद्ध अर्थज्ञान तथा शुद्ध शब्दज्ञान पर बल दिया जाने लगा। परिणामतःशुद्ध उच्चारणज्ञान के लिए शिक्षा ग्रन्थ, शुद्ध अर्थज्ञान के लिए निरुक्त और शुद्ध शब्दज्ञान के लिए व्याकरण ग्रन्थं आदि वेदाङ्गों का आविर्भाव हुआ। वैदिक काल में पुष्पित व्याकरण-परम्परा ब्राह्मण काल में पल्लवित हुई। मैत्रायणी संहिता में छः विभक्तियों का उल्लेख मिलता है। ऐतरेय ब्राह्मण में वाणी के सात भागों (विभक्तियों) का उल्लेख मिलता है । गोपथ ब्राह्मण में व्याकरण के ऐसे पारिभाषिक शब्दों का उल्लेख' प्राप्त होता है, जिनका पाणिनीय व्याकरण में प्रयोग होता है।
ब्राह्मण काल के बाद वेद की प्रत्येक शाखा के लिए प्रातिशाख्य नामक व्याकरण-ग्रन्थों का प्रणयन हुआ। प्रातिशाख्यों में व्याकरण का प्रारम्भिक रूप मिलता है । इस प्रकार संस्कृत-व्याकरण-परम्परा का विधिवत् आरम्भ प्रातिशाख्यों से माना जा सकता है। प्रातिशाख्यों के बाद व्याकरण-परम्परा निरन्तर समृद्ध होती गई । लगभगई. पू. पांचवीं शती में आचार्य पाणिनि के आविर्भाव से व्याकरण-परम्परा की समृद्धि चरमोत्कर्ष पर पहुँची । फलतः पाणिनि और संस्कृत-व्याकरण दोनों एक दूसरे के पर्याय हो । गये।
पाणिनि से पूर्व अनेक वैयाकरण हो चुके थे। स्वयं पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी में दस आचार्यों का नामोल्लेख किया है- आपिशलि, काश्यप, गार्ग्य, गालव, चाक्रवर्मण, भारद्वाज, शाकटायन, शाकल्य, सेनक और स्फोटायन । पाणिनि-पूर्व व्याकरणों के सम्बन्ध में भर्तृहरि के वाक्यपदीय से हमें एक तथ्य उपलब्ध होता है। भर्तृहरि के अनुसार व्याकरण दो प्रकार के होते थे- अविभाग और सविभाग। अविभाग व्याकरण वह है जिसमें प्रकृति-प्रत्ययादि के विभाग की कल्पना से रहित शब्दों का पारायण मात्र हो । महाभाष्यकार पतञ्जलि के अनुसार अविभाग व्याकरण को शब्दपारायण कहा जाता था। बृहस्पति द्वारा प्रोक्त व्याकरण तथा व्याडि का संग्रह ग्रन्थ अविभाग-व्याकरण के प्रतिनिधि हैं। सविभाग व्याकरण वह है जिसमें प्रकृति-प्रत्ययादि के विभाग की कल्पना की गई हो। तैत्तिरीय संहिता तथा महाभाष्य में उल्लिखित विभाग की कल्पना को स्पष्ट करने का प्रथम श्रेय आचार्य इन्द्र को ही जाता है । इन्द्र से पहले केवल अविभाग व्याकरण का ही प्रचलन था। ऋक्तन्त्र में उल्लेख है कि इन्द्र ने अपनी व्याकरण की शिक्षा भरद्वाज को दी। ऐन्द्र व्याकरण आजकल अनुपलब्ध है किन्तु इसका उल्लेख जैन शाकटायन व्याकरण,लावतारसूत्र, यशस्तिलकचम्पू तथा अलबरुनी के भारतयात्रावर्णन में मिलता है । तिब्बतीय अनुश्रुति के अनुसार ऐन्द्र व्याकरण का परिमाण २५ सहस्र श्लोक था जबकि पाणिनीय व्याकरण का परिमाण एक सहस्र श्लोक है । सम्भवतः इन्द्र का व्याकरण दक्षिण में लोकप्रिय रहा होगा, क्योंकि तमिल भाषा के व्याकरण 'तोल्काप्पियम्' पर इन्द्र के व्याकरण का पर्याप्त प्रभाव है।
ऐन्द्र व्याकरण के बाद भरद्वाज, काशकृत्स्न,आपिशलि, शाकटायन आदि आचार्यों के द्वारा प्रणीत व्याकरणों का उल्लेख उपलब्ध होता है। आपिशलि और शाकटायन के व्याकरणों का सर्वाधिक उल्लेख मिलता है किन्त पाणिनीय व्याकरण के सर्वग्रासी प्रभाव के कारण समस्त पाणिनिपर्व व्याकरण काल-कवलित हो चुके हैं । यत्र तत्र उल्लिखित पाणिनिपूर्व व्याकरणों के कुछ सूत्र ही आज उपलब्ध होते हैं। पाणिनिपूर्व व्याकरणों का अध्ययन करने पर पता चलता है कि पाणिनि से पूर्व ऐन्द्र व्याकरण