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नित्यम्
'विशेष: 'नित्यम्' का ग्रहण विषय के नियम के लिये है कि गत्यर्थकों से नित्य ही कुटिल अर्थ में होवे, क्रिया के समभिहार में नहीं । नित्यम् - III. 1. 66
(परिमाण गम्यमान होने पर पण् धातु से) नित्य ही (कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में विकल्प से अप् प्रत्यय होता है, पक्ष में घञ्) ।
नित्यम् - III. Iv. 99
(ङित् लकार-सम्बन्धी उत्तम पुरुष के सकार का) नित्य (लोप हो जाता है)। नित्यम् -
-IV. i.29
(अन्नन्त उपधालोपी बहुव्रीहि समास में संज्ञा तथा छन्द विषय में) नित्य ही (स्त्रीलिङ्ग में ङीप् प्रत्यय होता है) । नित्यम् - IV. 1. 35
(सपल्यादियों में जो पति शब्द, उसको ङीप् प्रत्यय तथा नकारादेश स्त्रीलिङ्ग में ) नित्य ही हो जाता है। नित्यम् - IV. 1.46
(बह्लादि अनुपसर्जन प्रातिपदिकों से वेद-विषय में) नित्य ही (स्त्रीलिङ्ग में ङीष् प्रत्यय होता है)।
नित्यम् - IV ill. 142
(भक्ष्य और आच्छादनवर्जित विकार और अवयव अर्थों में षष्ठीसमर्थ वृद्धसंज्ञक तथा शरादि प्रातिपदिकों से लौकिक प्रयोगविषय में) नित्य ही ( मयट् प्रत्यय होता है। नित्यम् : - IV. Iv. 20
(तृतीयासमर्थ क्त्रिप्रत्ययान्त प्रातिपदिक से निर्वृत्त अर्थ में) नित्यं ही (मप् प्रत्यय होता है)। नित्यम् - V. 1. 63
(द्वितीयासमर्थ छेदादि प्रातिपदिकों से) 'नित्य ही समर्थ हैं' (अर्थ में यथाविहित ठक् प्रत्यय होता है)। नित्यम्
-V. i. 75
(द्वितीयासमर्थ पथिन् प्रातिपदिक से) 'नित्य ही (जाता है) अर्थ में (ण प्रत्यय होता है तथा उस प्रत्यय के सन्नियोग से पथिन् को पन्थ आदेश हो जाता है)। नित्यम् - V. 1. 88
(चित्तवान् = चेतन प्रत्ययार्थ अभिधेय होने पर द्वितीयासमर्थ वर्षशब्दान्त द्विगुसच्छक प्रातिपदिकों से 'सत्का
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नित्यम्
रपूर्वक व्यापार' 'खरीदा हुआ' 'हो चुका' तथा 'होने वाला' - इन अर्थों में उत्पन्न प्रत्यय का) नित्य ही (लुक् होता है।
नित्यम् - V. II. 44
(प्रथमासमर्थ उभ प्रातिपदिक से उत्तर षष्ठ्यर्थ में) नित्य ही (तयप् के स्थान में अग्रच् आदेश होता है और वह अयच् आद्युदात्त होता है)।
नित्यम् - V. 1. 57
(षष्ठीसमर्थ शतादि प्रातिपदिकों से तथा मास, अर्द्धमास और संवत्सर प्रातिपदिकों से 'पूरण' अर्थ में विहित डट् प्रत्यय को तमट् का आगम) नित्य ही हो जाता है। नित्यम्
- V. ii. 118
(एक शब्द जिसके पूर्व में हो तथा गो शब्द जिसके पूर्व में हो, ऐसे प्रातिपदिक से 'मत्वर्थ' में) नित्य ही (ठञ् प्रत्यय होता है)।
नित्यम् - V. Iv. 122
(नञ, दुस् तथा सु शब्दों से उत्तर जो प्रजा और मेघा शब्द, तदन्त बहुव्रीहि से) नित्य ही (समासान्त असिच् प्रत्यय होता है।
नित्यम् - VI. 1. 56
(हेतु जहाँ भय का कारण हो, उस अर्थ में वर्त्तमान ष्मिङ् धातु के एच के स्थान में णिच् परे रहते) नित्य ही (आत्व हो जाता है)।
नित्यम् - VI. 1. 121
(प्लुत तथा प्रगृह्य सञ्ज्ञक शब्द अच् परे रहते) नित्य ही ( प्रकृतिभाव से रहते है) ।
नित्यम् - VI. 1. 191
(कार इत्सञ्ज्ञक तथा नकार इत्संज्ञक प्रत्ययों के परे रहते) नित्य ही (आदि को उदात्त होता है)। नित्यम् - VI. 1. 204
(जुष्ट तथा अर्पित शब्दों को मन्त्रविषय में) नित्य ही (आद्युदात्त होता है)।
नित्यम् - VI. iv. 108
(वकारादि, मकारादि प्रत्यय परे रहते कृ अङ्ग से उत्तर उकार प्रत्यय का) नित्य ही (लोप हो जाता है)।