________________
द्वे वचसी महर्षि पाणिनि-विरचित अष्टाध्यायी भारतीय चिन्तन से प्रसूत प्रज्ञा का चरमोत्कर्ष है । महर्षि ने अपनी तपःप्रसूत साधना की सुदृढ़ आधारशिला पर प्रज्ञा-प्रासाद का निर्माण किया और अन्तर्दृष्टि-प्रसूत चिन्तन को आमे आने वाले युगों के लिए भाषा की अनवद्यता-हेतु हमें एक निकषोत्पल उपहृत किया।
पाणिनि की अष्टाध्यायी के अध्येताओं की एक सुदीर्घ परम्परा है । आधुनिक भाषा-वैज्ञानिकों ने भी मनोयोगपूर्वक पाणिनि-परम्परा से जुड़कर ज्ञानधारा में अवगाहन करने का शुभारम्भ किया है। सर्वशास्त्रोपकारक होने के कारण पाणिनि-अष्टाध्यायी के सम्बन्ध में सामग्री का संश्लेषण और विश्लेषण भी कई प्रकार से सुधीजनों के सामने प्रस्तुत हुआ है । प्रस्तुत कोष पाणिनि-अध्ययन-परम्परा के प्रति एक अभिनव अवदान-रूप है। ...
मेरे प्रिय प्रोफेसर अवनीन्द्र कुमार व्याकरणशास्त्र में कृतभूरि-परिश्रम हैं । इन्होंने पाणिनि-कोष को अपने चिन्तन के परिपाक से एक नूतन दृष्टि दी है। इस तरह के प्रयास पाणिनि के अध्ययन की परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखने में तथा सुधी अध्येता को अनेकधा "दुर्व्याख्याविषमूर्च्छित” होने से बचा लेते हैं । वस्तुतः कोष-ग्रन्थों में प्रयुक्त पद सुधी अध्येता के सम्मुख स्फटिकवत् अपना परिचय प्रस्तुत कर देते हैं। भगवत्पाद पतञ्जलि व्याख्यान को 'विशेषप्रतिपत्ति' का हेतु मानते हैं-"व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिः व्याख्यान में प्रत्येक सत्र का पदच्छेद यदि सन्दर्भ-सहित सहज प्राप्त हो जाय तो वह सबोध हो जाता है. इसे ही व्याख्यान का प्रथम रूप माना गया है। पद से पदार्थ का बोध सहज होता है । मित्रवर प्रो. अवनीन्द्र कुमार ने समस्तपदों का विग्रह प्रस्तुत करके व्याख्यान के तीसरे चरण को भी अपनी इस कोष-ग्रन्थ में पूरा किया है। इनके कोष के उपरिनिर्दिष्ट तीन वैशिष्ट्य इनकी प्रज्ञा से प्रसूत “त्रिरत्नस्वरूप” हैं। प्राचीन ग्रन्थकारों ने “बालानां सुखबोधाय" रूप में आकर-ग्रन्थों के रहस्य को समझाने में बहुत प्रयास किया है। उसी दिशा में प्राचीन परम्परा के प्रति समर्पित प्रो. कुमार ने आधुनिक प्रगत अध्ययन के परिप्रेक्ष्य में इस कोष का निर्माण करके सरस्वती के प्रांगण में अपने बुद्धि-वैभव की क्रीडा का दिग्दर्शन कराया है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि इनका यह बुद्धिविलास सुधी-समुदाय में समादृत होगा। शब्द-ब्रह्म के उपासक के रूप में इनकी साधना और अधिक फलवती हो । परमपिता परमात्मा से यही कामना करता हूँ।
वसन्त पञ्चमी २४ जनवरी १९९६
प्रो. वाचस्पति उपाध्याय
कुलपति श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय
संस्कृत विद्यापीठ नई दिल्ली-११००१६