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कर्तृकरणयोः
कर्तृकरणयो: - II. iii. 18 (अनभिहित) कर्ता और करण कारक में (तृतीया विभक्ति होती है)।
कर्तृकरणे -
कर्त्ता और करण कारक में (जो तृतीया, तदन्त सुबन्त का समर्थ कृदन्त सुबन्त के साथ बहुल करके समास होता है और वह समास तत्पुरुष संज्ञक होता है)।
II. i. 31
कर्तृकर्मणोः II. 1. 65
(अनभिहित) कर्त्ता और कर्म कारक में (कृत् प्रत्यय के प्रयुक्त होने पर षष्ठी विभक्ति होती है) । कर्तृकर्मणोः - III. 1. 127
(भू तथा कृञ् धातु से यथासङ्ख्य करके) कर्ता एवं कर्म उपपद रहते, (चकार से कृच्छ्र तथा अकृच्छ्र अर्थ में वर्तमान, ईषद् दुस् अथवा सु उपपद हों तो भी खल् प्रत्यय होता है)।
कर्त्तृयकि - VI. 1. 189
कर्ता में विहित यक् प्रत्यय के परे रहते (उपदेश में अजन्त धातुओं के आदि स्वर विकल्प से उदात्त हो जाते हैं) ।
कर्तृवेदनायाम् III. 1. 18
कर्त्ता सम्बन्धी अनुभव अर्थ में (सुख आदि कर्मवाचकों से क्यड़ प्रत्यय होता है)।
कर्तृस्थे - I. iii. 37
कर्ता में स्थित ( शरीरभिन्न कर्म के) होने पर भी णीव धातु से आत्मनेपद होता है)।
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कर्त्रभिप्राये - Iiii. 72
(स्वरितेत् तथा ञित् धातुओं से आत्मनेपद होता है, यदि क्रिया का फल) कर्ता को मिलता हो तो।
कत्र:
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III. iv. 43
कर्तृवाची (जीव तथा पुरुष) शब्द उपपद हों तो (यथासङ्ख्य करके नश् तथा वह् धातुओं से णमुल् प्रत्यय होता है)।
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कर्म - I. iii. 67
(अण्यन्तावस्था में जो कर्म, (वही यदि ण्यन्तावस्था में कर्ता बन रहा हो, तो ऐसी ण्यन्त धातु से आत्मनेपद होता है आध्यान उत्कण्ठापूर्वक स्मरण अर्थ को छोड़कर)।
149
कर्म - I. iv. 38
(उपसर्ग से युक्त क्रुध तथा द्रुह् धातु के प्रयोग में जिसके प्रति क्रोध किया जाये, उस कारक की) कर्म संज्ञा होती
है ।
कर्म - I. iv. 43
(दिव् धातु का जो साधकतम कारक, उसकी) कर्म (और करण) संज्ञा होती है।
कर्म - I. iv. 46
(अधिपूर्वक शीड, स्था और आस् का आधार जो कारक, उसकी) कर्मसंज्ञा होती है।
देखें
कर्म - I. iv. 49
(कर्ता को अपनी क्रिया के द्वारा जो अत्यन्त ईप्सित हो,
उस कारक की) कर्म संज्ञा होती है।
कर्म
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कर्मणः
1
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-III. ii. 89
सुकर्म० III. II. 89
IV. iv. 63
(अध्ययन में वर्तमान) कर्म (समानाधिकरणवाची प्रथमासमर्थ) प्रातिपदिक से (षष्ठ्यर्थ में ठक् प्रत्यय होता है)। कर्म... - V. 1. 99
देखें - कर्मवेषात् V. 1. 99
C
कर्म... - V. 1. 7
ii.
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देखें - पथ्यङ्गo Vii. 7 कर्मकर्तरि - 111. 1. 62
i.
कर्मकर्तृवाची (लु में त शब्द) परे रहते (अजन्त धातु से उत्तर च्लि को 'चिण्' आदेश होता है, विकल्प से) । कर्मणः
III. 1. 7
(इच्छा क्रिया के) कर्म का (अवयव समानकर्तृक धातु से इच्छा अर्थ में विकल्प करके सन् प्रत्यय होता है) | कर्मणः III. i. 15
कर्मकारकस्थ (रोमन्थ और तपस्) शब्द से ( आचरण अर्थ में विकल्प से क्यङ् प्रत्यय होता है)। कर्मण: - V. 1. 102
(चतुर्थीसमर्थ) कर्मन् प्रातिपदिक से (शक्त है' अर्थ में उकञ् प्रत्यय होता है)।
कर्मण: - V. iv. 36
(सन्देश सुनकर किये गये कार्य के प्रतिपादक) कर्मन् प्रातिपदिक से (स्वार्थ में अण् प्रत्यय होता है) ।