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मरणकण्डिका - ४२
दानदाता की कीर्ति जगत् में चिरस्थायी रहती है। दान से वैर का नाश हो जाता है और शत्रु भी मित्र बन जाते हैं। इसी प्रकार जिनके पास तपरूपी धन है उन्हें चक्रवर्ती और इन्द्र आदि भी नमस्कार करते हैं।
अनन्त पदार्थों को जानने वाला केवलज्ञान ही सुखमय है। अर्थात् सुख ज्ञान रूप ही है अत: वही आत्मा का यथार्थ हित है।
आत्मा और उसके हित का ज्ञान न होने से दोष उत्पन्न होते हैं हिताहितमज्जानानो, जीवो मुह्यति सर्वथा । मूढो गृह्णाति कर्माणि ततो भ्राम्यति संसृत्तौ ॥ १०३ ॥
अर्थ - जिसे आत्मा के हित एवं अहित का ज्ञान नहीं हुआ वह जीव मोहित होता है और उस मोह से वह अनन्त संसार में भ्रमण करानेवाले अशुभकर्मों का बन्ध कर लेता है ।। १०३ ॥
आत्महित के ज्ञान का उपयोग
हितादानाहित त्यागी, हिताहित-विबोधने ।
यतस्ततः सदा कार्य, हिताहित- विबोधनम् ।। १०४ ।।
अर्थ - जो भव्यजीव हित-अहित को जान लेता है, वह हित में प्रवृत्ति और अहित का त्याग करने में समर्थ हो जाता है, अतः सदा अपनी आत्मा के हित, अहित को जानने का प्रयत्न करना चाहिए ॥ १०४ ॥
जिनवचन के अध्ययन से अशुभ भावों का संबर होता है स्वाध्यायं पञ्चश: कुर्वस्त्रिगुप्तः पञ्च संवृतः । एकाग्रो जायते योगी, विनयेन समाहितः ॥ १०५ ॥
अर्थ- जो बाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और उपदेश रूप पाँच प्रकार का स्वाध्याय करता है, उसके पाँचों इन्द्रियों का निरोध होता है और तीन गुप्तियों का पालन होता है। वह विनय युक्त साधु एकाग्रचित्त अर्थात् ध्यान के योग्य होता है और ध्यान से संदर होता है || १०५ ॥
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प्रश्न स्वाध्याय से संवर कैसे होता है ?
उत्तर - गति में पहुँचते ही इस जीव को देह मिलता है, देह से इन्द्रियाँ बनती हैं, इन्द्रियों से विषयों का ग्रहण होता है और उससे रागद्वेष होते हैं। अर्थात् आस्रव होता है, किन्तु जो साधु विनयपूर्वक स्वाध्याय करते हैं उनकी पाँचों इन्द्रियाँ संवृत्त हो जाती हैं, मन अप्रशस्त रागादि के विकारों से रहित हो जाता है, वे वचन नहीं बोलते। अर्थात् रूक्ष, कठोर, कर्कश, झूठ, स्वप्रशंसा और पर निन्दा रूप वचन नहीं बोलते और शरीर से कोई भी पापरूप हिंसात्मक कार्य नहीं करते अर्थात् गुप्तियों का पालन करते हैं। जिससे अनुप्रेक्षादि रूप स्वाध्याय में मन एकाग्र हो जाता है अर्थात् प्रवृत्ति ध्यानरूप हो जाती है जिससे संवर होता है।
नवीन संवेग के उत्पन्न होने का क्रम
अदृष्टपूर्वमुच्चार्थमभ्यस्यति जिनागमम् ।
यथा यथा यतिर्धर्मे, प्रहृष्यति तथा तथा ॥ १०६ ॥