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....ये तीनों ज्ञान व्यवसायात्मक नहीं है। व्यवसायी ज्ञान में वस्तु के निश्चित स्वरूप का भान होता है। संशय में एक से अधिक वस्तुओं के ज्ञान स्थिर नहीं होते, इसलिये संशय व्यवसायात्मक नहीं है। विपर्यय में एक वस्तु का ज्ञान यद्यपि स्थिर रूप में होता है, पर सत्य रूप में नहीं होता, इसलिये वह व्यवसायात्मक नहीं है । अनध्यवसाय में अस्थिर रूप से अर्थों का प्रकाशन नहीं है, और न वस्तु के केवल मिथ्यारूप का प्रकाशन है, परन्तु उसमें वस्तु के सत्य स्वरूप का प्रकाशन नहीं है, अतः अनध्यवसाय भी व्यवसायात्मक नहीं है । वस्तु के विशेष स्वरूप को प्रकाशित न करने के कारण संशय-विपर्यय और अनध्यवसाय ये तीनों ज्ञान प्रमाण नहीं हैं।
इस लक्षण में 'स्व और पर' पद प्रमाण के स्वरूप को प्रकाशित करते हैं । इन पदों से किसी अतिव्याप्ति का निवारण नहीं होता । विशेषण दो प्रकार के होते हैं व्याबर्तक और स्वरूपबोधक । जिस वस्तु को जानना चाहते है. उससे भिन्न वस्तु की प्रतीति को रोकने के लिये व्यावर्तक विशेषण होता है व्यावर्तक विशेषण न हो तो जो लक्ष्य नहीं है वह भी लक्ष्य के रूप में प्रतीत होने लगता है। व्यावतक विशेषण अलक्ष्य से लक्ष्य के भेद को प्रकट करता है। स्वरूप बोधक विशेषण केवल वस्तु के स्वरूप को प्रकाशित करता है । स्वरूप के बोधक विशेषण को 'स्वरूपोपरंजक' भी कहते हैं। कुछ लोग वस्तु के मिथ्या स्वरूपों की कल्पना कर लेते है स्वरूप बोधक विशेषण मिथ्यारूपों को दूर कर देता है और सत्य स्वरूप को प्रकट कर देता है । प्रकृत लक्षण के स्व