________________
होता है । इन्द्रिय और अर्थ का सन्निकर्ष ज्ञानरूप नहीं है । इस लक्षण का ज्ञानपद सन्निकर्ष को अप्रमाण कहता है । मूलम् - संशयविपर्ययानध्यवसायेषु तद्वारणाय व्यवसायिपदम |
अर्थ- संशय विपर्यय और अनध्यवसाय में अतिव्याप्ति का निवारण करने के लिये व्यवसायि पद है ।
विवेचना - संदेह विपर्यय और अनध्यवसाय ज्ञानरूप हैं । इन में भी ज्ञान का और अर्थ का स्वरूप प्रकट होता है । परन्तु ये ज्ञान व्यवसायरूप नहीं हैं । जो ज्ञान किसी वस्तु के निश्चित स्वरूप को प्रकाशित करता है वह व्यवसायात्मक कहा जाता है संशय आदि तीनों ज्ञानों में वस्तु का निश्चित स्वरूप नहीं प्रतीत होता । इस लिये ये व्यवसायात्मक नहीं हैं । जिस ज्ञान में अस्थिर अनेक कोटियों का ज्ञान हो उसको संशय कहते हैं । व्यवसायी ज्ञान किसी एक अर्थ को ही प्रकाशित करता है । उसमें अनेक अर्थ अस्थिर रूप से नहीं प्रतीत होने इसलिये 'संशय' व्यवसायी नहीं है ।
जिस ज्ञान में एक विपरीत कोटि का भान हो उसको विपर्यय कहते हैं । यह भी वस्तु के सत्य स्वरूप को नहीं प्रकाशित करता. अतः व्यवसायी नहीं है । विपरीत स्वरूप का प्रकाशक होने के कारण 'विपर्यय' भी व्यवसायात्मक नहीं है ।
जो ज्ञान किसी वस्तु को अस्पष्टरूप से प्रकाशित करता है, वस्तु के किसी निश्चित स्वरूप को नहीं प्रकट करता वह अनव्यवसाय है | चलते चलते किसी वस्तु के स्पर्श होने का ज्ञान - होता है। जिसका स्पर्श हुआ है उसके निश्चित स्वरूप की प्रतीति नहीं होती । इस ज्ञान को अनध्यवसाय कहते हैं ।