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में जो तर्क विषयक ग्रंथ हैं, उन में प्रमाणों का निरूपण हैं । जैन मत के अनुसार प्रत्यक्ष आदि प्रमाण हो यथार्थ ज्ञान के साधन नहीं हैं किन्तु नय और निक्षेप भी यथार्थ ज्ञान के साधन हैं । इसलिये प्रकृत तर्क भाषा नाम में 'तर्क' शब्द प्रमाण नय और निक्षेप इन तीनों का बोध कराता है ।
मूलम् -तत्र स्वपररुयवसायिज्ञानं प्रमाणम्स्वम् आत्मा ज्ञानस्यैव स्वरूपमित्यर्थः, परः तस्मादन्योऽर्थ इति यावत् तौ व्यवस्यति यथास्थितत्वेन निश्चिनोतीत्येवं शीलं स्वपरव्यवसायि ।
अर्थ - रव और पर का व्यवसाय अर्थात् निश्चय कराने वाला ज्ञान प्रमाण है । 'स्व' का अर्थ है आत्मा, अर्थात् ज्ञान का ही स्वरूप | 'पर' अर्थात् उससे भिन्न- 'अर्थ' इन दोनों के यथार्थरूप से निश्चित करना, जिसका स्वभाव है, वह ज्ञान प्रमाण है ।
विवेचना - ' तत्र स्वपरेति' पहले प्रमाण के सामान्य लक्षण को कहा है। स्व और पर का व्यवसाय कराने वाला ज्ञान प्रमाण है । स्व शब्द अपने स्वरूप का वाचक है। जहाँ जो अर्थ प्रतिपाद्य है, वहाँ उस अर्थ के स्वरूप का वाचक स्व शब्द होता है । प्रकृत वाक्य में मुख्य रुप से ज्ञान को कहा गया है । इस लिये यहां स्व शब्द ज्ञान के स्वरूप का वाचक है। जो ज्ञान स्व का अपने स्वरूप का और पर का निश्चय कराता है वह प्रमाण है । जब कोई ज्ञान होता है तब किसी न किसी विषय में होता है। न अकेला ज्ञान प्रतीत होता है न अकेला विषय | ज्ञान और विषय दोनों साथ साथ प्रकट होते हैं ।
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