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तिशय से तत्त्वभूत अर्थों का प्रकाशन करते हैं। तत्त्वार्थ का उपदेश वाक्य रूप है। इससे उपदेश के द्वारा वचनातिशय प्रकट होता है।
'ऐन्द्र वृन्दनतम्' इस विशेषण द्वारा भगवान् के पूजातिशय का प्रकाशन होता है। जिस भगवान् को समस्त इन्द्र प्रणाम करते हैं वे अति पूजनीय हैं। इन्द्रों के द्वारा पूजा होती है, इससे वे मनुष्यों के पूजनीय अर्थात् सिद्ध हो जाते हैं। मनुष्यों को अपेक्षा इन्द्रों में सद्गुण कहीं अधिक है । इन्द्र क्या. साधारण देव भी मनुष्य को अपेक्षा गुणों में बढे चढे हैं। देवों के अधिपति इन्द्र जब भगवान् के चरणों में शिर झुकाते हैं, तब मनुष्यों वा मनुष्यों के अधिपतियों का तो कहना ही क्या ? यहां पर जिन शब्द विशेष्य वाचक है। 'रागादि शत्रून् जितवान् इति जिनः ।' यह जिन शब्द को व्युत्पत्ति है। भगवान ने रागादि शत्रुओं को जीत लिया, इससे भगवान् के अपायापगम रूप अतिशय का प्रकाशन होता है। इस रीति से ज्ञानातिशय वचनातिशय, पूजातिशय और अपायापगमातिशय इन चारों अतिशयों का प्रतिपादन हुआ है।
ग्रंथकार ने प्रकृत ग्रंय को 'तर्क भाषा' नाम से कहा। तक भाषा का अर्थ है 'तर्क का प्रतिपादक वचन समूह' तय॑न्ते प्रमिति विषयी क्रियन्ते इति तर्काः, इस व्युत्पत्ति के अनुसार तर्क शब्द प्रमाण और प्रमेय का वाचक है। परंतु यहां तक शब्द का प्रयोग इस अर्थ को लेकर नहीं हुआ। यथार्थ ज्ञान के साधन को तर्क मानकर यहाँ तक शब्द का प्रयोग हुआ है। इस अर्थ में तर्क शब्द के अनेक प्रयोग मिलते हैं । गौतम और कपिल आदि के शास्त्रों के अनुसार प्रत्यक्ष अनुमान आदि प्रमाण तत्त्वज्ञान के साधन है। इसलिये गौतमोय आदि शास्त्रों