________________ (22) धन, कीर्ति और पुण्य के लोम से जो उपदेश होता है। वह स्वार्थोपदेश गिना जाता है / धनादि की अपेक्षा विना जो उपदेश होता है वह परमार्थोपदेश होता है। पिछला उपदेश तीर्थकर प्रभृति द्वारा दिया जाता है; क्योंकि श्री तीर्थंकरों को धन, यश या पुण्य की कुछ भी परवाह नहीं होती है। दीक्षा के पहिले एक वर्ष पर्यन्त तीर्थकर वार्षिक दान देते हैं / उस की संख्या तीन अरब, अठ्यासी करोड़, अस्सी लाख स्वर्ण मोहरे होती है / इतना दान देनेवाला दानवीर क्या कभी धन की आशा रख सकता है ? कदापि नहीं। जन्म से लेकर निर्वाण पर्यन्त चौसठ इन्द्र जिन का यश गाते हैं, वे तीर्थंकर महाराज क्या लौकिक यश की वांछा कर सकते हैं ? और जिन्होंने अतुल पुण्य के प्रभाव से तीर्थकर नामकर्म बांधा है उस को नष्ट करने ही के लिए जो आहार, विहार धर्मोपदेशादि कार्य करने में प्रवृत्त होते हैं, ऐसे पुरुषों के लिए क्या यह संभव होसकता है कि वे पुण्य की आकांक्षा करेंगे ? प्रायः देखा जाता है कि- संसार में कई सरागी पुरुष धनः के लिए उपदेश देते हैं; कई अपना यश फैलाने के लिए उपदेशपटु बनते हैं और व्याख्यान वाचस्पति आदि कीर्ति-सम्मानप्रसारिणी पदवियाँ प्राप्त कर अपने को कृतकृत्य मानते हैं और कई निस्पृही, त्यागी, वैरागी मुनि पुण्य की अभिलाषा से उपदेश करते हैं / यद्यपि मुनि भव्य जीवों के कल्याणार्थ उपदेश