Book Title: Jain Yog Siddhanta aur Sadhna
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Aatm Gyanpith
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग सिद्धान्त और साधना आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज प्रवचन भूषण श्री अमर मुनि संपादक SEONEnwateersonasy Vaneli Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज जैन योग सिद्धान्त और साधना Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व० आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज को जन्म शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में जैन योग : सिद्धान्त और साधना [ 'जैनागमों में अष्टांग योग' का परिष्कृत व परिवद्धित संस्करण ] लेखक जैनधर्म दिवाकर, जैन आगम रत्नाकर पूज्य आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज सम्प्रेरक-मार्गदर्शक __ शास्त्र-विशारद, पंडितरत्न श्री हेमचन्द्रजी महाराज के सुशिष्य नवयुगसुधारक, जैन विभूषण मुनि श्री पदमचन्दजी महाराज 'भंडारी' प्रधान सम्पादक प्रवचनभूषण श्री अमरमुनि सहयोगी सम्पादक श्रीचन्द सुराना 'सरस' डॉ० ब्रिजमोहन जैन प्रकाशक आत्म ज्ञानपीठ, मानसा मन्डी (पंजाब) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 जैन योग : सिद्धान्त और साधना [जैनागमों में अष्टांग योग का परिवद्धित संस्करण | - प्रथमावृत्ति : वीर निर्वाण संवत् २५०६ वि० सं० २०४० श्रावण ई० सन् १९८३ अगस्त D प्रकाशक : आत्म ज्ञानपीठ मानसा मंडी (पंजाब) 0 मुद्रक : श्रीचन्द सुराना के निर्देशन में एन० के० प्रिंटर्स, आगरा D प्राप्तिस्थान : भारतीय विद्या प्रकाशन I, U.B. जवाहरनगर, बेंगलो रोड दिल्ली-110007 - मूल्य: साधारण संस्करण ५०) रुपया मात्र पुस्तकालय संस्करण ८०) रुपया मात्र Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published at the auspicious occasion of the birth centenary of Rev. Acharya Sri Atmaramji Maharaj JAIN YOGA : THEORY & PRACTICE [ Thoroughly revised and enlarged edition of 'Jain Agamo me Astang Yoga' ] Writer Jain Dharm Divakar, Jain Agam Ratnakar Rev. Acharya Sri Atmaramji Maharaj Promotor & Guide Shastra Visharad, Pandit-ratna Sri Hemchandraji Maharaj's disciple Navayug sudharak, Jain-vibhushana Muni Sri Padam Chandji Maharaj Bhandari' Chief Editor Pravachan Bhusana Sri Amar Muni Asstt. Editors Srichand Surana 'Saras' Dr. Brij Mohan Jain Publishers Atma Gyanpitha, Mansa Mandi (Punjab) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Yoga : Theory & Practice [A thoroughly revised and enlarged edition of 'Jain Agamo me Astang Yoga'l O Publishers : Atma Gyanpitha Mansa Mandi (Punjab) O First Edition : Vir Nirvana Samvata 2509 August, 1983 Vikram Samvat 2040 Sravana Printing and designing supervision Srichand Surana 'Saras' 0 Printers : N. K. Printers, Agra O Contact Bhartiya Vidya Prakashan 1. V. B. Jawahar Nagar, Bunglow Road Delhi-110007 O Price : Rs. 58). Only Library Edition Rs. 80/- only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण जिन्होंने, श्रद्धय प्रज्ञापुरुष, जैन धर्मदिवाकर आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज के जीवन में, ज्ञान का दिव्य आलोक जगाया, उन परम श्रद्ध य, पंजाब प्रान्तीय पूज्य आचार्य श्री मोतीराम जी महाराज की पावन स्मृति में....... -अमरमुनि Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय स्व० आचार्य सम्राट श्री आत्माराम जी महाराज का जन्म शताब्दी वर्ष इस साल सम्पूर्ण भारत में मनाया जा रहा है। आचार्यश्री जैनजगत् के महान चमकते प्रभापुञ्ज सूर्य थे. जिनके दिव्य ज्ञान-दर्शन-चारित्र के आलोक से भारत के कोने-कोने में आलोक फैला, जागृति आई। आचार्यश्री जी ने जैन धर्म एवं साहित्य की महान सेवाएँ की, जिनका सम्पूर्ण जैन समाज को आज भी गौरव है। आचार्यश्री की कुछ महान कृतियाँ तो मान भी बेजोड़ हैं । गतवर्ष हमने 'जैन तत्त्व कलिका' नाम से आचार्यश्री की एक महान कृति प्रकाशित की थी । भारत के सुदूर क्षेत्रों में सर्वत्र उसका स्वागत हुआ। विद्वानों और जिज्ञासु पाठकों के लिए वह अतीव उपयोगी सिद्ध हुई। उस एक ही पुस्तक में संपूर्ण जैन धर्म, दर्शन का सार समाया हुआ है। • अब हम प्रस्तुत कर रहे हैं-आचार्यश्री की एक अन्य कृति, इस पुस्तक का मूल नाम है-“जैनागमों में अष्टांग योग" । यद्यपि यह कृति सूत्र रूप में लिखी गई है, संक्षिप्त में जैन आगमों के आधार पर योगमार्ग का विवेचन करते हुए पातंजल योगसूत्र के साथ इसकी तुलना की गई है। संक्षिप्त होने से पाठकों को समझने में कुछ कठिन तो जरूर है, किन्तु सार रूप में योगमार्ग का पूरा वर्णन इसमें समाया हुआ है । इस पुस्तक पर आचार्यश्री की स्वयं को प्रस्तावना-उपोद्घात है, जो बड़ी ही खोजपूर्ण और गम्भीर है। इस प्रस्तावना में संपूर्ण पुस्तक की आत्मा छिपी है । यह प्रस्तावना इसी पुस्तक में छप रही है। आज के युग में जहाँ अन्य क्षेत्रों में वैज्ञानिक शोधे हो रही हैं, योग के क्षेत्र में भी नये-नये अनुसन्धान और प्रयोग हो रहे हैं और योगविद्या का आज बहुत ही विस्तार हो रहा है । इसलिए यह आवश्यक था कि आचार्यश्री की उक्त कृति को आज की खोजों के साथ संतुलित करते हुए विस्तारपूर्वक प्रस्तुत किया जाय जिससे सर्वसाधारण योग के विषय को समझ सके और उस पर आचरण कर सके । नवयुग सुधारक भंडारी श्री पदमचन्द्र जी महाराज आज आत्म-परिवार के मुख सन्त हैं । आप आचार्य देव के प्रपौत्र शिष्य हैं। आगमों के गंभीर ज्ञाता, आचार्यश्री के शिष्य रत्न पं० श्री हेमचन्द्र जी महाराज के आप सुशिष्य हैं। आप बड़ी ही श्रद्धा और विवेक के साथ स्व० आचार्यश्री जी एवं पंडितरत्न श्री हेमचन्द्र महाराज की सेवा की । गुरुदेव का आशीर्वाद प्राप्त किया। इस वर्ष पं० श्री Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) हेमचन्द्र जी महाराज का भी स्वर्गवास हो गया। किन्तु उनकी विमल कीर्ति सशिष्य के रूप में आज भी जीवित है। श्री भंडारी जी महाराज की सद्प्रेरणा से उनके विद्वान शिष्य प्रवचनभूषण, हरियाणा केसरी श्री अमर मुनि जी महाराज ने स्व० आचार्य सम्राट के साहित्य का पुनरुद्धार करने का बीड़ा उठाया है।। 'जैन तत्त्व कलिका' के रूप में एक ग्रन्थ पिछले वर्ष प्रकाशित किया गया । अब यह प्रस्तुत है जैन योगः सिद्धान्त और साधना। प्रवचनभूषण श्री अमर मुनि जी महाराज ने स्वयं अथक परिश्रम करके तथा विद्वान संपादकों का सहयोग प्राप्त करके आचार्यश्री की कृति को एक नया और व्यापक रूप प्रदान किया है । जो हजारों पाठकों के लिए उपयोगी सिद्ध होगा। . इस ग्रन्थ के सम्पादन में प्रसिद्ध साहित्यकार श्रीचन्द्र जी सुराना एवं डा० ब्रिज मोहन जी जैन का सहयोग प्राप्त हुआ है। साथ ही प्रकाशन में दानवीर गुरुभक्त सेठ दीवानचन्दजी जैन (गीदड़बाहा) तथा धर्मप्रेमी गुरुभक्त दानवीर श्री धनपतराय जी जैन (श्री गंगानगर) ने अर्थ सहयोग प्रदान किया है, इसलिए संस्था की तरफ से दोनों उदार सहयोगियों को शतशः धन्यवाद । - हमें आशा है, आज का युग इस प्रकार के ग्रन्थों से विशेष लाभ उठाकर उपकृत होगा। भवदीय हाकमचन्द जैन मंत्री-आत्म ज्ञानपीठ. मानसा Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय भौतिक विद्या के क्षेत्र में वैज्ञानिकों ने अणु का विखण्डन करके अद्भुत और असीम शक्ति का स्रोत प्राप्त कर लिया । अणु का विखण्डन करके ही परमाणु बम और उद्जन बम जैसे शक्तिशाली बमों का निर्माण हुआ और जेट एवं राकेट जैसे तीव्र गति वाले यान संभव हुए । ___ आत्म-विद्या के क्षेत्र में ज्ञानियों ने आत्मा का विखण्डन नहीं, किन्तु जागरण करके इससे भी अनन्त गुनी अद्भुत और आश्चर्यकारी शक्ति का स्रोत प्राप्त किया है । अणु पुद्गल है, जड़ है। आत्मा चेतन है । जड़ से चेतन में अनन्त गुनी शक्ति है । अणु की असीम शक्ति का पता लगाने वाले वैज्ञानिक मानव के मस्तिष्क की शक्ति का भी अभी तक पूर्ण रहस्य नहीं जान सके । इसका मतलब यही हुआ कि अणु से भी आत्मा में अनन्त शवित का रहस्य छिपा है । मनुष्य ज्यों-ज्यों साधना व प्रयत्न करके आत्म-शक्तियों की जानकारी प्राप्त कर रहा है त्यों-त्यों उसके सामने आश्चर्यों और अजीबो-गरीब किस्सों का संसार प्रकट होता जा रहा है । आत्मा की इस असीम गुप्त शक्ति को जानने/प्राप्त करने का मार्ग क्या है ? योग ! मन, वचन, कर्म का आत्मा के साथ मिल जाना और आत्मा के अनुकूल चलना योग है। मनुष्य की भौतिक ऊर्जा जब आध्यात्मिक ऊर्जा के साथ मिल जाती है तो अनन्त शक्ति का रहस्य खुलने लगता है । यह मिलन ही योग है। विज्ञान प्रयोग में विश्वास करता है; अध्यात्म 'योग' में । विज्ञान शक्ति की खोज करता है, अध्यात्म शान्ति की। असीम शक्ति प्राप्त करके भी आज मनुष्य अशान्त है, दुखी है, और भयाक्रान्त है । इसलिए शक्ति की खोज छोड़कर वह शान्ति की खोज करना चाहता है। योग, शान्ति की खोज है । मन की दुर्भावनाएँ, भय, आशंका, लालसा, तनाव, चिन्ता इन सबसे मनुष्य आज पीड़ित है, दुखी है, और छटपटा रहा है कि इनसे छुटकारा मिले, शान्ति मिले । इसलिए वह शान्ति की खोज कर रहा है। . वास्तव में योगविद्या, जिसे जैन आगम अध्यात्मयोग (अज्झप्पयोग) कहते हैं और गीता इसे 'अध्यात्मविद्या' कहती है। अपने से अपने को जानने जगाने को विद्या है । यह संसार की प्राचीनतम विद्या है, और इसकी शोध एवं साधना का सम्पूर्ण श्रेय हमारी आर्यभूमि भारत को ही है। भारत में अगणित वर्षों पूर्व योगविद्या का विकास ही नहीं, किन्तु योग की सम्पूर्ण साधना का मार्ग भी प्रशस्त हो Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) चुका था । आज तो उस विद्या का बूँदभर ज्ञान ही हमारे पास रहा है । और हम उसको बहुत कुछ समझ रहे हैं...! अस्तु.... 'योग' जैन, बौद्ध या वैदिक नही है, न हिन्दू मुस्लिम है, न पाश्चात्य - पौर्वात्य है, योग तो योग है, आत्मविद्या है, किन्तु फिर भी 'योग' के साथ सम्प्रदाय या परम्परा का नाम प्राय: जुड़ा हुआ है । 'जैन योग' बोद्ध योग, वैदिक योग आदि नाम प्रचलित हैं । इसका कारण योग-साधना की प्रचलित मान्यताएँ तथा अनुभूत विधियां हैं। योग का लक्ष्य प्रायः समान होते हुए भी साधनाक्रम एवं विधि में काफी रहता है । पातंजल आदि हिन्दू ग्रन्थों में 'योग' साधना में हठयोग, प्राणायाम आदि अन्तर पर जहाँ बहुत बल दिया है, वहाँ जैन ग्रन्थों में – तपोयोग, भावनायोग तथा ध्यान-साधना पर ही योग की नींव खड़ी हुई है । बौद्धग्रन्थों में भी 'ध्यान' साधना पर ही योग का विशेष बल है । श्रमण परम्परा बाह्य-शुद्धि की अपेक्षा अन्तः शुद्धि पर अधिक बल देती है, इसलिए ' योगमार्ग' भी यहाँ अन्तर्मुखी साधना का ही एक पर्याय बन गया है । योग सम्बन्धी इन धारणाओं और परम्पराओं के कारण ही 'योग' शब्द के साथ 'जैन योग' विशेषण जोड़ा गया है, जिसके पीछे एक विशाल सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि है । मैं आशा करता हूँ, पाठक इस पृष्ठभूमि को समझ लेंगे तो उनके मन में विशेषण के प्रति किसी प्रकार की भ्रान्ति नहीं होगी । आज से लगभग ५० वर्ष पूर्व जैन परम्परा के बहुश्र ुत विद्वान, गंभीर विचारक श्रद्धेय आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज ने 'योग' पर एक विशिष्ट चिन्तन- परक ग्रन्थ तैयार किया था । उस समय आम लोगों में यह एक भ्रान्त धारणा बनी हुई थी कि 'योगविद्या' हिन्दू या वैदिक धर्म की ही मुख्य शाखा है, जैन धर्म को 'योग' नाम से कुछ लेना-देना नहीं है । इस भ्रान्ति का कारण साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह या अज्ञान ही माना जा सकता है । श्रद्धेय आचार्यश्री ने इस जन भ्रान्ति को तोड़ने का एक ऐतिहासिक प्रयास किया 'जैनागमों में अष्टांग योग' नामक कृति रचकर | आचार्यश्री ने इस छोटी-सी पुस्तक में जैन आगम, उनके परवर्ती टीका ग्रन्थ तथा हरिभद्र सूरि के योग सम्बन्धी चार महान ग्रन्थ, आचार्य शुभचन्द्र का ज्ञानार्णव आचार्य हेमचन्द्र कृत योगशास्त्र तथा उपाध्याय यशोविजय जी कृत योग दर्शन की व्याख्याएँ आदि के सन्दर्भ देकर पातंजल योग के साथ जैन परम्परा सम्मत योग का तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत किया है । इस गहन श्रमसाध्य और शोधपूर्ण पुस्तक में आचार्यश्री ने बड़ी उदार तथा व्यापक दृष्टि से योग के आठों अंगों का समन्वयप्रधान विवेचन- विश्लेषण करके यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि योग सम्बन्धी जो सिद्धान्त पातंजल योगदर्शन में विहित है वे सभी सिद्धान्त कुछ शब्दान्तर और कुछ अर्थान्तर के साथ जैन भागम ग्रन्थों में विद्यमान हैं । इस प्रकार 'योगविद्या' पर किसी अंकित करने का दुस्साहस और उनके उत्तरवर्ती एक सम्प्रदाय की मुद्रा Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यर्थ तथा असंगत है । उस युग में इस कृति का व्यापक प्रसार हुआ और योग सम्बन्धी धारणाओं में समन्वय सेतु तैयार हुआ। आज ५० वर्ष के अन्तराल में परिस्थितियां काफी बदल गईं। संप्रदायगत अभिनिवेश कम हुए हैं, लोगों में समन्वय व व्यापक दृष्टि से सोचने की आदत बनी है। फिर नई वैज्ञानिक खोजों ने भी योग की अनेक साधनाओं को विज्ञानसम्मत सिद्ध कर दिया है, और शरीर तथा मन की, आत्मा की असीम शक्ति के विषय में अनेक प्रयोग करके उसे प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त किया है । प्रस्तुत पुस्तक वास्तव में आचार्यश्री आत्माराम जी महाराज की 'जैनागमों में अष्टांग योग' पुस्तक का ही परिष्कृत स्वरूप है। हालांकि उसमें बहत संक्षेप में योगविद्या सम्बन्धी सूत्र दिये हैं, मैंने उनको विस्तार के साथ, सरल और व्यापक दृष्टि से प्रस्तुत कर दिया है। साथ ही इस अद्ध शताब्दी में हुई ज्ञान-विज्ञान की प्रगति को ध्यान में रखकर योग सम्बन्धी नये प्रयोग, विवेचन और अनुसन्धान को भी इस पुस्तक में स्थान दिया है । फिर भी इसका मूल आधार वही कृति है, और मेरा विचार नई कृति तैयार न करके उसे ही नया स्वरूप प्रदान करने का था, ताकि पाठक सरलता के साथ योगविद्या को समझ सके, ग्रहण कर सके और जीवन में आनन्द तथा शान्ति की प्राप्ति कर सके। शरीरविज्ञान, मनोविज्ञान, परा मनोविज्ञान तथा विज्ञान की अन्य शाखाओं पर हुए नये-नये प्रयोगों की चर्चा से मैंने इस पुस्तक को आम आदमी के लिए उपयोगी स्वरूप प्रदान करने की चेष्टा की है, मैं कितना सफल हुआ हूँ यह पाठक बतायेंगे। मेरे इस प्रयास के प्रेरणास्रोत तो उपप्रवर्तक नवयुग सुधारक मेरे श्रद्धय गुरुदेव श्री पदमचन्द्र जी महाराज ही है। उनकी प्रेरणा से ही मैं इस क्षेत्र में कुछ कर सका हूँ । जो कुछ हूँ, वह उन्हीं का उपकार मानता हूँ। साथ ही सेवाभावी श्री सुव्रत मुनि, श्री सुयश मुनि तथा सुयोग्य मुनि की सेवा और साहचर्य को भी स्मरण करता हूँ जिनके कारण मैं आत्म-समाधि का अनुभव कर रहा हूँ। मेरे प्रस्तुत कार्य में प्रसिद्ध विद्वान श्रीचन्द जी सुराना एवं डा० ब्रिजमोहनजी जैन सहयोगी रहे हैं अतः मैं उनके सहयोग को आत्मीय रूप प्रदान करता हुआ औपचारिकता से दूर रहकर कृतज्ञ भाव से लेता हूँ। मुझे विश्वास है परम श्रद्धेय आचार्य सम्राट की जन्म शताब्दी वर्ष के प्रसंग पर उनकी यह कृति हमारी श्रद्धा-भक्ति का प्रतीक भी होगी और पाठकों को आचार्य श्री की स्मृति कराती रहेगी। जैन स्थानक -अमर मुनि अशोक विहार, देहली-५२ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा-पुरुष आचार्यश्री आत्माराम जी महाराज परम श्रद्धेय आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज एक युगपुरुष थे। सम्पूर्ण जैन समाज में वे विशाल हृदय के प्रज्ञा मेधा के प्रज्वलित दीप की भांति प्रकाशकर थे । उनके जीवन में जैन धर्म, दर्शन, संस्कृति और सभ्यता साकार हुए थे। ऐसा लगता था कि उनका अणु-अणु, रोम-रोम ज्ञानमय था । बातचीत में वे बहुत ही पट, साथ ही विनोदप्रिय थे। अनुशासन में दृढ़ व दक्ष भी थे, साथ ही स्वयं अनुशासन का पालन करने के कठोर पक्षधर थे । आचार व्यवहार में सात्विक अति सहज होते हुए भी वे अपनी मर्यादा एवं नियमों के प्रति बड़े जागरूक व अति दृढ़ थे। संस्कृत-प्राकृत-पालि जैसी प्राचीन भाषाओं पर आपका असाधारण अधिकार था । जैन आगमों पर सरल हिन्दी में उच्चस्तरीय टीकाएँ लिखकर आपने प्राचीन आगम ज्ञान को युग की भाषा प्रदान की। आपका जन्म !वि० सं० १९३६ भाद्रपद शुक्ला द्वादशी को जालन्धर जिला के राहों ग्राम में हुआ था। क्षत्रिय कुल (चोपड़ावंश) के सेठ मनसाराम जी आपके पिता एवं श्री परमेश्वरी देवी माता थी। बचपन में माता-पिता का साया उठ गया । संघर्ष एवं कठिनाइयों में बचपन बीता । लुधियाना में जैनाचार्य श्री मोतीराम जी महाराज के चरणों में अचानक पहुँच गये । बस, पारस से भेंट हो गई तो सोना बनते क्या देर ! वैराग्य एवं विवेक के संस्कार जगे और जैन श्रमण बनने का सृदृढ़ संकल्प जग गया। वि० सं० १६५१ आषाढ़ शुक्ला ५ छतबनूड (पटियाला) में श्रद्धय श्री सालिगराम जी महाराज के सानिध्य में श्रमण दीक्षा ग्रहण की। इस प्रकार दीक्षागुरु बने श्री सालिगराम जी महाराज तथा विद्यागुरु बने आचार्य श्री मोतीराम जी महाराज। प्रखर प्रतिभा, तीव्र स्मरण शक्ति और दृढ़ अध्यवसाय के बल पर संस्कृतप्राकृत भाषा पर अधिकार प्राप्त किया। - जैन आगम, टीका, भाष्य तथा वेद, उपनिषद, महाभारत, गीता, स्मृति, आदि धर्म ग्रन्थों का गहन तुलनात्मक अध्ययन कर प्रगाध पाण्डित्य प्राप्त किया। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा-प्रदीप जैनागमरत्नाकर स्व0 आचार्य सम्राट श्री आत्माराम जी महाराज जन्म : वि० सं० १६३६ भाद्रपद सुदि १२ स्वर्गवास : सन् १६६१, ३१ जनवरी Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) वि० सं० १९६६ में पंजाब प्रान्त के उपाध्याय बने । वि. सं. २००३ में पंजाब संघ के आचार्य और फिर अपनी बहुमुखी योग्यता एवं लोकप्रियता के कारण वि. सं. २००६ अक्षय तृतीया को श्री वर्धमान स्थानकवासी श्रमणसंघ के प्रथम आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। वि. सं. २०१८ (ई. सन. १६६१) में शारीरिक अस्वस्थता ने जोर पकड़ा और ३१ जनवरी १६६१ को समता एवं समाधि पूर्वक नश्वर शरीर का त्याग किया। आपश्री की साधना बड़ी उच्चकोटि की व चमत्कारी थी । ज्ञान तो उससे भी प्रचण्ड चमत्कारी था । शताब्दियों में ही ऐसा कोई महान् आचार्य पैदा होता है, जो धर्म एवं समाज, राष्ट्र एवं विश्व सभी का आध्यात्मिक उत्कर्ष करने में समर्थ होता है। उस युगपुरुष महान आचार्य को शतशत नमन ! -विजयमुनि शास्त्री C0 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल-भावना जैन धर्म दिवाकर स्व. आचार्य सम्राट श्री आत्माराम जी महाराज ज्ञान एवं क्रिया के मूर्तिमन्त स्वरूप थे। जैन आगमों के गम्भीर ज्ञान के साथ ही भारतीय विद्याक्षेत्र में उनकी गहरी पेठ थी । साहित्य के विविध क्षेत्रों में उन्होंने जो नव सर्जन कर ज्ञान का आलोक फैलाया, वह युग-युग तक स्मरणीय रहेगा। स्व. आचार्य श्री जी की एक अमर कृति है "जैनागमों में अष्टांग योग"। इस लधु पुस्तक में बड़ी ही सुन्दर व सारपूर्ण शैली में भारतीय योग विद्या पर तुलनात्मक रूप से जो चिन्तन प्रस्तुत किया गया है वह पढ़ने में आज भी नवीन और मननीय लगता है-यही उनकी गंभीर विद्वत्ता की प्रत्यक्ष परिचायक है। वर्तमान में योग का विषय काफी ब्यापक एवं जीवनस्पर्शी हो गया है। पाठकों में योगविद्या के प्रति रुचि बढ़ी है। इस दृष्टि को ध्यान में रखकर भंडारी श्री पदमचन्द जी महाराज के सुशिष्य श्री अमर मुनि जी ने उक्त पुस्तक का जो नवीन परिवद्धित एवं परिष्कृत संस्करण तैयार किया है, वह वास्तव में ही सर्वजनोपयोगी सिद्ध होगा और श्रद्धेय आचार्य श्री के प्रति एक सच्ची श्रद्धाञ्जलि माना जायेगा.... पंचवटी, नासिक आचार्य आनन्द ऋषि 000 आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज अपने युग के महान् पुरुष थे। जैन आगमों के रहस्य वेत्ता और व्याख्याकार थे । वे समन्वय-मूलक विचारों के पक्षधर थे । अतः उनकी ज्ञान रश्मियां सदा ही समता एवं समन्वय का आलोक फैलाती रही। आचार्यश्री ज्ञानयोगी तो थे ही, किन्तु सच्चे कर्मयोगी भी थे । वे उच्च स्तर के साधक थे । योग विषय के पंडित ही नहीं, किंतु वे स्वयं योगी थे। इसलिए उनकी वाणी तथा लेखनी में आकर्षण तथा जीवनस्पशिता थी। आचार्यश्री का साहित्य आज भी उतना ही उपयोगी व रोचक लगता है । आचार्य श्री की एक सुन्दर कृति है'जैन आगमों में अष्टांगयोग' पंजाब के प्रसिद्ध सन्त तथा आचार्य श्री के प्रपौत्र शिष्य उपप्रवर्तक भंडारी श्री पदमचंद जी महाराज ने श्री अमर मुनि जी को प्रेरित कर आचार्यश्री की उक्त कृति का नवीन शैली में जो परिष्कृत-परिवद्धित स्वरूप तैयार करवाया है, वह जनजन के लिए उपयोगी तथा मार्गदर्शक बनेगा, ऐसा विश्वास है। श्री अमर मुनि ने जी अत्यधिक श्रम करके 'योग' पर जो इतना सुन्दर लेखन किया है, वह स्व. आचार्यश्री की गरिमा के अनुरूप ही है । मेरी हार्दिक मंगल कामना के साथ बधाई। मेडता सिटी -मुनि मिश्रीमल (श्रमणसूर्य प्रवर्तक श्री मरुधर केसरी जी महाराज) Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शुभाशंसा 0 भारतीय साधना-क्षेत्र में योग का महत्त्वपूर्ण स्थान है । यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तया समाधि-योग के ये प्रसिद्ध आठ अंग हैं, जिनमें दैहिक परिष्कार के साथ चित्तवृत्तियों की पवित्रता, एकाग्रता एवं निरोध का एक सुव्यवस्थित अभ्यासक्रम है। योग के इन आठ अंगों में अंतिम चार का अन्तर्जीवन-चिन्तन, मनन, ध्यान, निदिध्यासन आदि से सम्बन्ध है। मूलतः यह जीवन-शोधन का मार्ग है, असाम्प्रदायिक एवं सार्वजनीन है । यही कारण है, वैदिक परंपरा के साथ-साथ जैन तथा बौद्ध परंपरा मे भी जैन योग एवं बौद्ध योग के रूप में उन परंपराओं के विशिष्ट चिन्तन और अनुभूति-प्रसूत अभ्यासक्रम के साथ यह विकसि । हुआ। योग शब्द जिस अर्थ में महर्षि पतञ्जलि द्वारा गृहीत है, प्राचीन जैन वाङ्मय में, आगम-साहित्य में उसका उस अर्थ में प्रचलन नहीं रहा । जैन दर्शन में योग शब्द कायिक, वाचिक एवं मानसिक प्रवृत्तियों के अर्थ में है। जब साधना जगत् में चित्त वृत्तियों के परिष्कार, अन्तर्जीवन के सम्मार्जन, संशोधन, मन के नियमन आदि अर्थों में योग शब्द का प्रयोग बहव्याप्त हो गया, तब जैन आचार्यों ने भी जैनदर्शन सम्मत अध्यात्मसाधना क्रम को जैन योग के रूप में एक नया मोड़ दिया। अनेकानेक विषयों के महान् विद्वान् आचार्य हरिभद्र जैन जगत् के प्रथम आचार्य हैं, जिन्होंने योग शब्द की एक नूतन मौलिक व्याख्या दी । 'योग विशिका' में उन्होंने "मोक्खण जोयणाओ जोगो सम्वो वि धम्म वावारों" के रूप में योग की परिभाषा करते हुए जो बताया, उसका सार यह है कि धर्म-साधना के समग्न उपक्रम योग है। जैन योग पर आचार्य हरिभद्र, आचार्य हेमचन्द्र, आचार्य शुभचन्द्र, उपाध्याय यशोविजयजी आदि मनीषियों ने बड़ा महत्त्वपूर्ण साहित्य रचा। अष्टांग योग के रूप में महर्षि पतञ्जलि ने जो विवेचन किया है, जैन आगमों में विकीर्ण रूप में भिन्न-भिन्न स्थानों पर तप, संवर, ध्यान, प्रतिसंलीनता आदि के सन्दर्भ में कहीं संक्षिप्त विस्तृत प्रतिपादन हुआ है। हमारे वर्धमान स्थानक वासी जैन श्रमण संघ के प्रथम पट्टधर, अनेक शास्त्रों के पारगामी मनीषी आचार्य सम्राट, परम पूज्य स्व० श्री आत्माराम जी म. सा. न 'जैनागमों में अष्टांग योग' नामक पुस्तक की रचना कर इस सन्दर्भ में बड़ा महत्त्वपूर्ण कार्य किया। योग के आठों अंग आगम-साहित्य में कहाँ-कहाँ किस-किस रूप में वणित, विवेचित तथा व्याख्यात हुए हैं, इसका बहुत ही मार्मिक विश्लेषण उन्होंने किया, जो योग के तुलनात्मक, समीक्षात्मक अध्ययन एवं अनुसन्धान में रुचिशील जनों के लिए बड़ा Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) उपयोगी है। यह पुस्तक विद्वत्समाज में बहुत समादृत हुई । जिज्ञासु वृन्द इससे लाभान्वित हुए । इसे प्रकाशित हुए काफी समय हो गया है । इस समय यह प्राप्त भी नहीं है। हमारे श्रमण संघ के सुयोग्य, परम सेवाशील, वरिष्ठ संत भंडारी जी श्री पदमचन्द जी म० के विद्वान् अन्तेवासी, कुशल लेखक श्री अमर मुनि जी म० ने उपर्युक्त पुस्तक का एक बृहत् ग्रन्थ के रूप में परिष्कृत, परिवधित संस्करण तैयार कर बड़ा उत्तम कार्य किया है। योग के तुलनात्मक अध्ययन के साथ-साथ इदानीन्तन युग में प्रयोज्य साधना-पद्धतियों पर भी उन्होंने प्रकाश डाला है, जो श्लाघनीय है। ऐसा ग्रन्थ जन-जन के हाथों में पहुँचे, यह बड़े हर्ष का विषय है। इसके लिए मैं भंडारी श्री पदमचन्द जी म० को, जो श्री अमर मुनि जी के कृतित्व के प्रेरणा-स्रोत हैं तथा श्री अमर मुनि जी का, जो जीवन निर्माणात्मक. साहित्य-सर्जन में तन्मयतापूर्वक यत्नशील हैं, अपनी उत्तमोत्तम कृतियों द्वारा भारती का भंडार भर रहे हैं, हृदय से वर्धापित करता है। श्री अमर मुनि जी के श्लाघनीय प्रयत्नों से श्रमण संघ की गरिमा में चार चांद लगे हैं, मैं उनके संयम-संपृक्त श्रुतोपासनामय जीवन की उत्तरोत्तर समुन्नति की सत्कामना करता हूँ। नेमाणी बंगला, पंचवटी, नासिक -युवाचार्य मधुकर मुनि श्रावण-शुक्ला प्रतिपदा, वि० सं० २०४० Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवयुग सुधारक जैन विभूषण श्री भण्डारी पदमचन्द्र जी महाराज Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवामूर्ति महान सरलाात्मा उपप्रर्वतक : नवयुग सुधारक ....भंडारी श्री पदमचंद जी महाराज कुछ लोग अपने माता-पिता तथा गुरु के नाम से प्रसिद्ध होते हैं, तो कुछ लोग अपने ज्ञान व अध्ययन-डिग्री आदि के कारण । किंतु कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अपनी सेवा और उदारता के कारण ही प्रसिद्धि प्राप्त करते हैं । हमारे पूज्य गुरुदेव श्री पदमचंद जी महाराज अपनी उदारता, सेवाभावना के कारण समाज में प्रारंभ से ही 'भंडारी जी' के नाम से प्रसिद्ध हैं । आचार्य सम्राट श्री आत्माराम जी महाराज ने ही आपकी सेवा और सब के लिए, सब कुछ समर्पण की भावना को देखकर भंडारी नाम का प्यारा व सार्थक सम्बोधन दिया था। आचार्यश्री के प्रमुख शिष्य प्रकाण्ड पंडित और शान्तमूर्ति पंडित श्री हेमचन्द्र जी महाराज आपके दीक्षागुरू थे। प्रारंभ से ही आप गुरुदेव तथा दादागुरु आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज की सेवा में रहे । साधु-सन्तों की सेवा, उनके लिए हर समय एक सिपाही की तरह सेवा में तैयार रहते थे । आचार्यश्री की अन्तिम अवस्था में तो आपने उनकी अभूतपूर्व सेवा की जिसके कारण उन्हें परम शान्ति व समाधि अनुभव हुई। गुरुदेव श्री भंडारी जी महाराज ने राष्ट्रसंत आचार्य श्री आनन्द ऋषि जी म. राष्ट्रसंत श्री अमरमुनि जी, पं० गुरुदेव स्व० श्री हेमचन्द जी महाराज आदि महान सम्तों की बड़ी श्रद्धा व समर्पण वृत्ति से सेवा की है। आपश्री स्वभाव से बहुत ही सरल, निष्पह, नाम की कामना से दूर रहते हुए धर्म का प्रचार करते हैं । आपके सदुपदेश तथा प्रेरणा से आपश्री के सुयोग्य शिष्य श्री अमरमुनि जी महाराज के मार्गदर्शन से पंजाब एवं हरियाणा में स्थान-स्थान पर धर्मस्थानक, जैन हॉल, विद्यालय आदि का निर्माण हुआ है । आप श्री जी की प्रेरणा व प्रयत्न से पटियाला यूनीवर्सिटी में 'जैन चेयर' की स्थापना हुई जहाँ जैन धर्म, दर्शन व साहित्य पर विशेष शोध-अध्ययन चल रहा है । जैन शासन एवं श्रमण संघ की उन्नति-अभ्युदय में आपका योगदान इसी प्रकार दीर्घकाल तक मिलता रहे, और आप स्वस्थ एवं दीर्घजीवन प्राप्त करें-यही मंगल भावना है। प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्पादन प्रकाशन में मूल प्रेरणा स्रोत भी आप ही हैं। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु-परम्परा पंजाब प्रान्तीय पूज्य आचार्य श्री अमर सिंह जी महाराज महान ज्ञानयोगी पं० श्री मोतीराम जी महाराज गणावच्छेदक श्री गणपत राय जी महाराज गणावच्छेदक बाबा श्री जयराम दास जी महाराज प्रवर्तक श्री शालिगराम जी महाराज जैनधर्म दिवाकर आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज श्रु त विशारद पं० श्री हेमचन्द जी महाराज नवयुग सुधारक भंडारी श्री पदम चन्द जी महाराज प्रवचन भूषण हरियाण केसरी श्री अमर मुनि जी महाराज (१) श्री सुव्रत मुनि शास्त्री एम० ए० (२) श्री सुयश मुनि (३) श्री सुयोग्य मुनि . Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 888888888888883 832658233030 GEECHERE 8. EURE ORIN000000 變變變 प्रस्तुत ग्रन्थ के विद्वान सम्पादक प्रवचनभूषण श्री अमरमुनि जी महाराज दीक्षा : वि० सं० १९६३ भाद्रपद सुदि ५ वि० सं० २००८ भाद्रपदसुदि ५ क्वेटा (बिलोचिस्तान) सोनीपत (पंजाब) जन्म: Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणी के जादूगर : प्रवचनभूषण श्री अमर मुनि वक्ता वाग्देवता का प्रतिनिधि है। वक्ता की वाणी मुर्यों में प्राण फूक देती है तथा पापियों को पुण्यात्मा बना देती है । प्रवचनभूषण श्री अमर मुनि जी एक उच्च कोटि के सन्त-वक्ता हैं। वे कवि भी हैं, भक्ति की धारा में डुबकियाँ लगाने वाले सन्त हैं, और ऊँचे विचारक विद्वान तथा लेखक भी हैं। हृदय से बड़े सरल, सबका भला चाहने वाले, अत्यन्त मृदुभाषी और वह भी अल्पभाषी, देव-गुरु-धर्म-के प्रति अटल श्रद्धा-भक्ति रखने वाले, प्रसन्नमुख और आकर्षक व्यक्तित्व के धनी ऐसे सन्त हैं जिनके निकट एक बार आने वाला, बार बार उनसे मिलना चाहता है, बोलना चाहता है, सुनना चाहता है और पाना चाहता है उनका आशीर्वाद । वि. सं. १९६३, भादवा सुदि ५ तदनुसार ई० सन् १९३६ सितम्बर में क्वेटा (बलूचिस्तान) के सम्पन्न मल्होत्रा परिवार में आपका जन्म हुआ। आपके पिता श्री दीवानचन्द जी और माता श्री बसन्तीदेवी बड़े ही उदार और प्रभुभक्त थे। पूर्व जन्म के संस्कार कहिए या पुण्यों का प्रबल उदय, आप ११ वर्ष की लघु वय में आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज के चरणों में पहुँच गये और वैराग्य संस्कार जागृत हो उठे । आचार्यश्री ने अपनी दिव्य दृष्टि से आप में कुछ विलक्षणता देखी और जब आपकी भावना जानी तो अपने प्रिय सेवाभावी प्रशिष्य भंडारी श्री पदमचन्द जी महाराज को कहा-'भंडारी, इसे तुम सँभालो, यह तुम्हारी सेवा करेगा और नाम रोशन करेगा।" ११ वर्ष की आयु से ही आपने हिन्दी, संस्कृत और जैन धर्म का अध्ययन प्रारंभ कर दिया । १५ वर्ष की आयु में वि. सं. २००८ भादवा सुदि ५ को सोनीपत मंडी में जैन श्रमण दीक्षा ग्रहण करली । आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज के स्नेहाशीर्वाद एवं गुरुदेव श्री भंडारी जी महाराज की देख-रेख में आपने जैनधर्म, दर्शन, प्राकृत, संस्कृत, गीता, रामायण, वेद तथा भारतीय दर्शनों व धर्मों का गहरा अध्ययन किया। आप एक योग्य विद्वान, कवि और लेखक के रूप में प्रसिद्ध हुए। आपकी वाणी, स्वर की मधुरता और मोजस्विता तो अद्भुत हैं ही, प्रवचन शैली भी बड़ी ही रोचक, ज्ञानप्रद और सब धों की समन्वयात्मक हैं । हजारों जैन-जनेतर भक्त आपकी प्रवचन सभा में प्रतिदिन उपस्थित रहते हैं। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) आप समाज की शिक्षा एवं चिकित्सा आदि प्रवृत्तियों पर ज्यादा ध्यान देते हैं। जगह-जगह विद्यालय, गर्ल्स हाईस्कूल, वाचनालय, चिकित्सालय और सार्वजनिक सेवा केन्द्र तथा धर्मस्थानकों का निर्माण आपकी विशेष रुचि व प्रेरणा का विषय रहा है । पंजाब व हरियाणा में गांव-गांव में आपके भक्त और प्रेमी सज्जन आपके आगमन की प्रतीक्षा करते रहते हैं। आपश्री ने जैनधर्म दिवाकर आचार्य सम्राट श्री आत्माराम जी महाराज की जन्म शताब्दी वर्ष में उनकी स्मृति में जहाँ अनेक धर्मस्थानक, हाईस्कूल आदि की प्रेरणा दी है, वहाँ साहित्य के क्षेत्र में भी महान कार्य किया है। सूत्रकृतांग जैसे दार्शनिक आगम को दो भागों में सम्पादन-विवेचन किया, भगवती सूत्र जैसे विशाल सूत्र का (६ भाग) सम्पादन विवेचन किया है जो आगम प्रकाशन समिति व्यावर से प्रकाशित हो रहे हैं । आचार्य श्री की अमरकृति "जैन तत्त्व कलिका" विकास को भी आधुनिक शैली में सुन्दर रूप में संपादित किया है। और 'जैनागों में अष्टांग योग' का भी बहुत ही सुन्दर व आधुनिक ढंग का यह परिष्कृतपरिवधित संस्करण 'जैन योगः सिद्धान्त और साधना' के रूप में तैयार किया है। आप यश एवं पद की भावना से दूर रहकर समाज में धर्म तथा ज्ञान का प्रचार करने में ही रुचि रखते हैं। समाज ने आपको प्रवचन भूषण, श्र तवारिधि, हरयाणाकेसरी आदि पदों से सम्मानित किया है । गुरुदेव भंडारी श्री पदमचन्द जी महाराज के सान्निध्य में आप धर्म की यशःपताका फहराते रहें-यही शुभ कामना है। श्री ___ स्व० ज्ञानमहोदधि आचार्य प्रवर श्री आत्मा राम जी म० की जन्म शताब्दी वर्ष के संदर्भ में जैन योग : सिद्धांत और साधना नामक ग्रंथ का प्रकाशन किया जा रहा है । यह अत्यंत हर्ष का विषय है । उपरोक्त ग्रंथ से अध्यात्म विद्या योग के प्रेमी निश्चय ही नवीनतम मार्ग दर्शन प्राप्त करेंगे। जैन योग : सिद्धांत और साधना के लेखक तो आदरणीय है ही, साथ ही सम्प्रेरक, सम्पादक, एवं सहयोगी सम्पादक का परिश्रम भी सम्माननीय है। मुझे आशा है इस ग्रंथ के माध्यम से ध्यान एवं साधना प्रक्रिया में सजग रहने वाले मुमुक्षु वर्ग अधिकाधिक संख्या में लाभान्वित होंगे। -प्रवर्तक मुनि रमेश Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स . उपोद्घात योग का महत्त्व योगः कल्पतरुः श्रेष्ठो योगश्चिन्तामणिः परः । योगः प्रधानं धर्माणां योगः सिद्ध: स्वयं ग्रहः ॥ ३७॥ कुण्ठीभवन्ति तीक्ष्णानि मन्मथास्त्राणि सर्वथा। योगवर्मावृते चित्त तपश्छिद्रकराण्यपि ॥ ३६॥ अक्षरद्वयमप्येतच्छ्र यमाणं विधानतः । गीतं पापक्षयायोच्चर्योगसिद्ध महात्मभिः ॥ ४०॥ -योगबिन्दु, हरिभद्रसूरि भारत के लब्धप्रतिष्ठ जैन, बौद्ध और वैदिक-इन तीनों प्राचीन धर्मों का समान रूप से यह सुनिश्चित सिद्धान्त है कि मानव-जीवन का अन्तिम साध्य उसके आध्यात्मिक विकास की पूर्णता और उससे प्राप्त होने वाला प्रज्ञाप्रकर्षजन्य पूर्णबोध और स्वरूपप्रतिष्ठा-दूसरे शब्दों में-परमकैवल्य और निर्वाणपद है। उसकी प्राप्ति के जितने भी उपाय उक्त तीनों धर्मों में बतलाये गये हैं उनमें अन्यतम विशिष्ट उपाय 'योग' है । योग, यह प्राचीन आर्यजाति की अनुपम आध्यात्मिक विभूति है। इसके द्वारा अतीतकाल में आर्यजाति ने आध्यात्मिक क्षेत्र में जो प्रकर्ष प्राप्त किया उसका अन्यत्र दृष्टान्त मिलना यदि असम्भव नहीं तो दुर्लभ अवश्य है। भारत के परम मेधावी ऋषि-मुनियों ने स्वात्मानुभूति के लिये अपेक्षित प्रज्ञाप्रकर्ष अथवा अन्त हूँ ष्टि के सर्वतोभावी उन्मेष के विकास के लिये अपेक्षित बल का इसी योग-साधना के द्वारा उपार्जन किया था । योग का ही दूसरा नाम अध्यात्म-मार्ग या अध्यात्म-विद्या है । भगवद्गीता में इस अध्यात्मविद्या को ही सर्वश्रेष्ठ बतलाया है । अतः योग, यह मोक्ष-प्राप्ति का निकटतम उपाय होने से मुमुक्षु आत्माओं के लिए नितान्त उपादेय है । इसी दृष्टि को सन्मुख रखकर भारतीय धार्मिक महापुरुषों ने इसकी १. 'अध्यात्मविद्या विद्यानाम्। -अ० १०, श्लोक ३२ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपयोगिता को स्वीकार करते हुए अपने-अपने दृष्टिकोण से इसका पर्याप्त मात्रा में वर्णन किया है। इसके प्रमाण-सबूत-में जैन-धर्म के आगमादि, बौद्ध-धर्म के त्रिपिटकादि और वैदिक धर्म के उपनिषदादि ग्रन्थों के शतशः वाक्य उपस्थित किये जा सकते हैं । परन्तु यहाँ पर तो केवल जैन-धर्म के दृष्टिकोण से योग और उसके सुप्रसिद्ध यम-नियमादि अंगों का समन्वय-दृष्टि से विवेचन करना ही अभीष्ट है। इसलिये प्रस्तुत विषय में जैन-धर्म के प्राणभूत प्रामाणिक जैन-आगमों का ही अधिक मात्रा में उपयोग करना समुचित है। जैन-धर्म त्याग अथवा निवृत्तिप्रधान धर्म है, उसमें आरम्भ से लेकर अन्त तक निवृत्ति या त्याग मार्ग का ही उपदेश दिया गया है । उसकी-धर्म की-(अहिंसा, संयम और तप रूप') व्याख्या में योग और उसके सम्पूर्ण अंगों का समावेश हो जाता है तथा उसमें सावद्य-सपाप-प्रवृत्ति का त्याग और निरवद्य-निष्पाप-प्रवृत्ति का विधान होने से तदनुमोदित--जैनधर्मानुमोदित-प्रवृत्ति भी निवृत्तिमूलक ही है । अतः आत्मा-अनात्मा के विवेक से शून्य और रात्रिदिवा सांसारिक विषय-भोगों में ही आसक्त रहने वाले बहिर्मुख आत्माओं (जीवों) के लिये इस निवृत्तिप्रधान प्रशस्त योगरूप निर्ग्रन्थ-धर्म में कोई स्थान नहीं । उसमें अधिकार तो उन्हीं आत्माओं को प्राप्त है जो सांसारिक विषयभोगों में अनासक्त, कषायविजयी, तपोनिष्ठ और संयमशील हैं एवं जिन्होंने जीवन के परम साध्य मोक्ष-द्वार तक पहुंचने के लिए अपेक्षित आध्यात्मिक विकास की पूर्णता के साधनों का संग्रह करना प्रारम्भ कर दिया जो कि अन्यत्र योग अथवा योगांगों के नाम से विख्यात हैं और जिनका जैनागमों में बड़ी ही सुन्दरता से विवेचन किया १. 'धम्मो मंगलमुक्किळं, अहिंसा संजमो तवो' । -दशवैकालि कसूत्र १/१ २. मन, वचन और शरीर से हिंसक प्रवृत्ति का त्याग (अहिंसा), अहिंसादि पाँच यमों का यथाविधि पालन, चक्षु आदि पांचों इन्द्रियों की वश्यता, क्रोधादि चार कषायों का जय, मन वचन और काया के योग-व्यापार-नियमन-उस पर अंकूशता (संयम), ६ प्रकार का बाह्य और ६ प्रकार का आभ्यन्तर तप का अनुष्ठान .(तप); इस प्रकार अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म में योग के समस्त अंग संनिविष्ट हैं। इसके अतिरिक्त तप और संयम की आराधना से राग-द्वेष और तज्जन्य कर्मबन्धनों का छेदन करके यह आत्मा सर्वज्ञ और सर्वदर्शी बनता हुआ कैवल्य पद को प्राप्त कर लेता है। "पलिच्छिदिया णं निक्कम्मदंसी"-तपःसंयमाभ्यां रागादीनि बन्धनानि तत्कार्याणि वा कर्माणि छित्वा निष्कर्मदर्शी भवति, निष्कर्माणमात्मानं पश्यति तच्छीलश्च, निष्कर्मत्वाद्वा अपगतावरणः सर्वदर्शी सर्वज्ञानी च भवति । (आचारांग अ० ३, उ० २, सू० ४) इस प्रकार तप और संयम को, साक्षात् व परम्परा से मोक्ष का साधक होने से नामान्तर से योग ही कहना व मानना युक्तियुक्त है । इस विषय का सविस्तार वर्णन आगे किया जावेगा। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) गया है [ उसका दिग्दर्शन अन्यत्र इसी ग्रन्थ में कराया जावेगा ] | एवं इस त्यागप्रधान जैन धर्म के प्रचारक - भगवान् ऋषभदेव से लेकर महावीरस्वामी पर्यन्त तीर्थंकर नाम से प्रसिद्ध जितने भी महापुरुष हुए हैं वे सब परम त्यागी, परमतपस्वी, परम निर्मोही, परम ज्ञानी अतएव परम योगी थे । योग की उत्कृष्ट साधना द्वारा ही उन्होंने आध्यात्मिक विकास की पराकाष्ठारूप कैवल्य विभूति और स्वरूपप्रतिष्ठा का सम्पादन किया । गृह त्याग के पश्चात् बारह वर्ष से कुछ अधिक समय तक ध्यान -- समाधिरूप इस योगानुष्ठान - से ही चरम तीर्थंकर भगवान् महावीरस्वामी अहं द्— जगत्पूज्य, जिन - रागद्रष-विजेता, केवली - सर्वज्ञ - सर्वदर्शी और तीर्थंकरधर्मप्रवर्तक बने । आचार्य श्री हरिभद्रसूरि के वचनों में योग, सर्वश्र ेष्ठ कल्प वृक्ष, चिन्तामणि- रत्न, सर्व धर्मों में प्रधान और सिद्धिरूप मोक्ष का सुदृढ़ सोपान है । वास्तव में योग ही भयंकर भवरोग के समूलघात की रामबाण औषधि है । योग - शब्दार्थ शब्द-शास्त्र के नियमानुसार युज् धातु से घञ प्रत्यय के द्वारा योग शब्द निष्पन्न होता है । युज् नाम के दो धातु हैं - एक समाध्यर्थंकर दूसरा संयोगार्थक 3, अतः योग शब्द के व्युत्पत्तिलभ्य - (युक्तिः, योजनं युज्यते इति वा योगः ) समाध और संयोग ये दो अर्थ फलित होते हैं । इन दोनों ही अर्थों में योग शब्द प्रयुक्त किया देखा जाता है । समाधि अर्थ में वह साध्यरूप से निर्दिष्ट है और संयोग अर्थ में उसका साधनरूप से परिचय मिलता है। कारण कि समाधि अर्थात् आत्मा की विक्षेपरहित समभाव परिणतिरूप समाहित अवस्था में चित्त की विशिष्ट प्रकार की एकाग्रता अपेक्षित है, जो कि ध्यान-साध्य है और ध्यान-संयोग के बिना दुर्घट है । तात्पर्य कि समाधि के लिये अपेक्षित मानसिक स्थिरता की प्राप्ति प्रशस्त ध्यान के बिना नहीं हो सकती है और ध्यान में ध्येय वस्तु के साथ ध्याता के मन का सम्बन्ध भी अनिवार्य है, इसलिए समाधि के साधनभूत प्रशस्त ध्यान के सम्पादनार्थं ध्येय और ध्याता का परस्पर में संयुक्त होना - सम्बद्ध होना - संयोगरूप योग मे ही हो सकता है । योग के व्युत्पादन में उसके ध्यान और समाधि ये दो अर्थ फलित होते हैं । १. ' योगः कल्पतरुः श्र ेष्ठो, योगश्चिन्तामणिः परः । योगः प्रधानं धर्माणं, योग: सिद्ध: स्वयं ग्रहः' || ( योगबिन्दु, श्लो० ३७ ) २. युज समाधीः । ३. युजिर्योगे । ४. ( क ) योग: समाधिः, सोऽस्यास्ति इति योगवान् । ( उत्तराध्ययन सूत्र बृहद्वृत्ति ११ / १४ ) (ख) युज्यते वाऽनेन केवलज्ञानादिना आत्मेति योग: (ध्यानशतक की वृत्ति में श्री हरिभद्रसूरि ) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ') इनका निर्देश ध्यान-योग और समाधि-योग के नाम से किया जा सकता है । ध्यानयोग में प्रणिधानरूप मनःसमिति से चित्त की एकाग्रता का सम्पादन होता है और समाधि-योग में मनोगुप्ति के द्वारा उसकी स्थिरता सम्पन्न होती है-चित्त का निरोध सम्पन्न होता है; तत्पर्य कि मानसिक एकाग्रता ही व्यक्त होती है । संक्षेप में कहें तो चित्त की एकाग्रता परिणति-ध्यान और स्थिरता परिणाम-समाधि है। इस प्रकार इन दोनों का साध्य-साधनभाव कल्पित होता है । परन्तु इनके स्वरूप के विषय में कुछ अधिक परामर्श किया जाय तो इनकी --ध्यान-समाधि की-साध्य-साधनभेद से विभेद-कल्पना कुछ वास्तविक प्रतीत नहीं होती । वास्तव में तो समाधि, यह ध्यान की परिपक्कता अथच ध्यानाभ्यास से प्राप्त होने वाला चित्तवृत्ति का अस्पन्दनमात्र ही है । जैनसंकेतानुसार तो शुक्ल-ध्यान के पादचतुष्टय में ही समाधि का तिरोधान हो जाता है अतः समाधि, यह ध्यान की अवस्था विशेष ही है। सारांश कि समाध्यर्थक युज धातु से निष्पन्न योगार्थ में समाधि और ध्यान ये दोनों ही गभित हो जाते हैं। अब रहा संयोगार्थक योग शब्द, सो उसमें योग के वे समस्त साधन निर्दिष्ट हैं. जिनकी साधक को अपने अन्दर ध्यान अथवा समाधि की योग्यता प्राप्त करने के लिये आवश्यकता होती है । वे सभी आध्यात्मिक शास्त्र की योग-प्रणाली में सब साधन-योग या क्रिया-योग के नाम से अभिहित किये गये हैं। इस प्रक्रिया के अनुसार साध्य-साधनरूप में योग के समाधि और योग संयोग ये ही दो अर्थ फलित होते हैं। इनमें समाधि साध्य और योग साधन है। इस प्रकार योग और समाधि का पारस्परिक साध्य-साधनभाव संकलित होता है। __यहां पर इतना ध्यान रहे कि समाधि में जो साध्यत्व का निर्देश है वह सापेक्ष-अपेक्षाजन्य है, अर्थात् समाधि के उपायभूत यम-नियमादि की अपेक्षा से उसको साध्य कहा है और परमसाध्य मोक्ष की दृष्टि से तो वह भी मोक्ष का अन्तरंग साधन होने से साधन-कोटि में ही परिगणित है । इस परिस्थिति में संयोग और समाधि इन दोनों अर्थों में प्रतिबिम्बित होने वाले योग शब्द का निम्नलिखित अर्थ निष्पन्न होता है जिसके द्वारा आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त कर सके और जो आत्मा को उसके परम साध्य के साथ संयुक्त करके जोड़ दे, उसका नाम योग है। योग के इन दोनों मौलिक अर्थों में निसर्गत: मोक्ष-साधक धर्मानुष्ठान का ही निर्देश प्राप्त होता है। अतः मोक्ष-प्रापक समिति-गुप्ति' आदि साधारण जो आत्मा का धर्म व्यापार है वही इमी प्रकृत योगार्थ में भासित होता है। १. तदेतद ध्यानमेव चाभ्यस्यमानं कालक्रमेण परिपाफदशापन्नं समाधिरित्य भिधीयते—'ध्यानादस्पन्दनं बुद्धः समाधिर भिधीयते' इति स्कन्धाचार्योक्तिः । (पातञ्जलयोगदर्शन की टिप्पणी में स्वामी बालकराम) २. 'समितिगुप्तिसाधारणधर्मव्यापारत्वमेव योगत्वम्' । (पातंजल योगदर्शन, सूत्र १/२ की वृत्ति, उपाध्याय यशोविजयजी) Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) इसके अतिरिक्त योग के व्युत्पत्तिलभ्य समाधि और संयोग इन दोनों अर्थों का कुछ सूक्ष्म दृष्टि से अवलोकन किया जाय तो इनमें भेद और अभेद दोनों का आभास दृष्टिगोचर होगा । भेद और अभेद रूप दो विरोधी तत्त्वों का आभास और उनका समन्वय ये दोनों दृष्टिगोचर होंगे। इन दोनों बातों का विचार करने से योग का शब्दार्थ अधिक स्पष्ट हो जाता है। समाधि और संयोग ये दोनों योगरूप एक ही वस्तु के विभिन्न दो स्वरूप हैं । एक में समाधान प्रधान है, दूसरे में संयोजन मुख्य है । समाधान आत्मा की समाहित अवस्था समभाव-परिणति का परिचायक है, और संयोग यह साधक का अपने साध्य से मिलना है । एवं समाधान-समता--में अभेददृष्टि का ही प्राधान्य है जब कि संयोग में भेद-प्रधान विचारों का अनुसरण है। इस प्रकार व्युत्पत्ति-भेद के आधार पर अर्थ-भेद की कल्पना करने की जो दृष्टि है उसके अनुसार समाधि और संयोग में भी उक्त अर्थ-भेद की कल्पना से विभिन्नता प्रमाणित होती है परन्तु इसकी यह विभिन्नता चिरकालभाविनी नहीं, क्योंकि अपने मूलस्रोतउदगम-स्थान-योगरूप वस्तु के समीप आते ही उसके व्यापक स्वरूप में समन्वित हो जाती है । ऐसी परिस्थिति में योग शब्द की अर्थ-विचारणा में जो मार्ग लक्षित होता है उसके अनुसार योग शब्द का अधोलिखित अर्थ फलित होता है : मोक्ष-प्राप्ति के मुख्य और गौण, अन्तरंग या बहिरंग, ज्ञान-दृष्टि और आचार-दृष्टि से जितने भी अध्यात्मशास्त्र-निर्दिष्ट साधन हैं (जो साक्षात् या परम्परा से मोक्ष के उपाय हैं) उनका यथाविधि सम्यग् अनुष्ठान और उससे प्राप्त होने वाली आध्यात्मिक विकास की पूर्णता का ही नाम योग है। योग का यह मौलिक और अविसंबादि लक्षण प्रतीत होता है। इस प्रकार संयोग और समाधि इन दो रूपों में अविभक्तरूप से अभिव्यक्त होने वाली योग-वस्तु के आत्मीय स्वरूप-निर्णय में किसी प्रकार की भी त्रुटि नहीं आती। प्रत्युत संयोग और समाधि के भेदाभेद में उद्भव होने वाली विरोध-भावना को अपने गर्भ में लय करके अपनी व्यापकता का परिचय दिया है। यहाँ पर इस बात का उल्लेख कर देना भी अनुचित न होगा कि योग शब्द के संयोग और समाधि इन दोनों मौलिक अर्थों को ही सन्मुख रखकर कतिपय वैदिक विद्वानों ने उनकी जो सुन्दर और सारभित व्याख्या की है उससे भी हमारे पूर्वोक्त कथन का पूर्णरूप से समर्थन होता है।' इस प्रकार योग शब्द की मौलक व्याख्या में आत्मसमाधि और उसका साधक व्रत-नियमादिरूप धर्मानुष्ठान ये दोनों ही योग शब्द से संगृहीत किये गये हैं। १. समाधिमेव च महर्षयो योगं व्यपदिशन्ति-यदाहुः योगियाज्ञवल्क्याः , 'समाधिः समतावस्था, जीवात्मपरमात्मनोः । संयोगो योग इत्युक्तः, जीवात्मपरमात्मनोः' Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) आगम कथित योगार्थ यहाँ पर इतना अवश्य स्मरण रखना चाहिये कि मूल जैनागमों में योग शब्द का प्रयोग प्रायः मन, वचन और काया के व्यापार अर्थ में ही किया गया है अतः मानसिक, वाचिक और कायिक क्रिया ही योग है । वह कर्मबन्ध में हेतुभूत होने से आस्रव भी कहलाता है। इनमें अप्रशस्त पाप-बन्ध का और प्रशस्त पुण्य-बन्ध का कारण है । जैन-सिद्धान्त में आस्रवद्वार-कर्मबन्ध का हेतु-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, और योग-मन-वचन-काया का व्यापार, ये पांच माने हैं। प्रायः इन दो (योग एवं कषाय) पर ही पुण्य अथवा पाप रूप शुभाशुभ कर्म-बन्ध की तरतमता अवलम्बित है । जैन-संकेतानुसार कर्म-योग्य पुद्गलों अर्थात् कर्मरूप से परिणत होने वाले अणुओं का आत्म-प्रदेशों के साथ सम्बद्ध होना ही बन्ध है और उसमें मन, वचन और काया के योग-सम्बन्ध----की नितान्त आवश्यकता रहती है। कारण कि आत्मा की शुभाशुभ प्रत्येक प्रवृत्ति में इन्हीं तीनों-मन, वाणी और शरीर का किसी न किसी प्रकार से सम्बन्ध रहता है । इस प्रकार मानसिक, वाचिक और कायिक व्यापार के अर्थ में योग शब्द आगमों में प्रयुक्त हुआ है । और प्रस्तुत योग के अर्थ में आगमों में बहुधा ध्यान' या समाधि शब्द का उल्लेख किया गया है जिसका वर्णन आगे मिलेगा। योग की पातञ्जल व्याख्या वैदिक सम्प्रदाय के योगविषयक सर्वमान्य पातञ्जल दर्शन में योग का इति । अत एव स्कन्धादिषु–'यत्समत्वं द्वयोरत्र जीवात्मपरमात्मनोः, समष्टसर्वसंकल्पः समाधिरभिधीयते' । 'परमात्मात्मनोर्योऽयमविभागः परन्तप ! स एव तु परो योगः समासात कथितस्तव' ।। इत्यादिषु वाक्येषु योगसमाध्योः समानलक्षणत्वेन निर्देशः संगच्छते (योगभाष्यभूमिका स्वामि बालकरामकृत)। १. 'तिविहे जोए पण्णत्ते तंजहा-मणजोए वइजोए कायजोए'। छा०—त्रिविधः योगः प्रज्ञप्तः तद्यथा-मनोयोगः वाग्योगः कायायोगः । (ठाणांग सू० स्थान ३) २. 'पच आसवदारा पण्णत्ता तंजहा–मिच्छत्तं अविरई पमाया कसाया जोगा'। (समवायांग सम०५) छा०–पञ्च आस्रवद्वाराणि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-मिथ्यात्वमविरतिः प्रमादाः कषायाः योगाः। ३. जोगबन्ध कसायबन्धे (समवा: सम० ५) तात्पर्य कि कर्म का बन्ध योग से-मन, वचन, काया के व्यापार से और कषाय-क्रोध, मान, माया और लोभ से होता है। ४. नव (8) आगमों में प्रयुक्त होने वाले योग, प्रयोग, और करण-ये तीनों शब्द एक ही अर्थ में ग्रहण किये गये हैं ऐसी व्याख्याकारों की सम्मति है Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) समाधि अर्थ बतलाकर उसको-योग को-समाधिरूप माना है और चित्तवृत्ति निरोध उसका लक्षण किया है । तात्पर्य कि चित्त की जिस अवस्थाविशेष में प्रमाण विपर्ययादि वृत्तियों का निरोध होता है उस अवस्थाविशेष का नाम योग है। इस विषय का खुलासा इस प्रकार है : ___ 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' इस सूत्र में उल्लिखित चित्त शब्द से अन्त:करण अभिप्रेत है । सांख्ययोग-मत के अनुसार सारा विश्व त्रिगुणात्मक प्रकृति का परिणाम होने पर चित्त भी त्रिगुणात्मक सत्त्वरजस्तमोरूप है । परन्तु इतना स्मरण रहे किअन्य प्रकृति-परिणामों की अपेक्षा चित्त में सस्व गुण का अधिक उदय होता है। इस प्रकार सत्त्वादि गुणों की न्यूनता-अधिकता से चित्त की उच्चावच्च अनेक अवस्थाएं होती हैं जिन्हें भूमिकाओं के नाम से निदिष्ट किया गया है। चित्त की ऐसी भूमिकाएँ पांच मानी हैं-(१) क्षिप्त, (२) मूढ, (३) विक्षिप्त (४) एकाग्र और (५) निरुद्ध। क्षिप्त-अवस्था में रजोगुण के प्राधान्य से चित्त सदा चंचल-अस्थिर और बहिर्मुख बना रहता है, अतः सांसारिक विषय भोगों की ओर ही उसकी अधिकाधिक प्रवृत्ति होती है । मूढ़-अवस्था में तमोगुण की प्रधानता के कारण चित्त सदा विवेक-शून्य रहता है । हेयोपादेय अथवा कर्तव्याकर्तव्य का भान न होने से वह कभीकभी नहीं करने योग्य कार्यों में भी प्रवृत्त हो जाता है। तीसरी विक्षिप्त-अवस्था है। इसमें सत्त्वगुण की अधिकता से रजःप्रधान क्षिप्त-अवस्था की अपेक्षा चित्त (१) योग :---युज्यते जीवः कर्मभिर्येन-कम्मं जोगनिमित्तं वज्झइति' वचनात् युङ्क्त वा प्रयुक्त यं पर्यायं स योगो वीर्यान्तरायक्षयोपशमः जनितो जीवपरिणामविशेष इति ।"मनसा करणेन युक्तस्य जीवस्य योगो-वीर्यपर्यायो दुर्बलस्य यष्टिका द्रव्यवदुपष्टम्भकरोमनोयोग इति ।.."मनसो वा योगः करणकारणानमतिरूपी व्यापारो मनोयोगः । (२) प्रयोग:-मनःप्रभृतीनां व्याप्रियमाणानां जीबेन हेतुकर्तृ भूतेन यद्व्यापारणं प्रयोजनं स प्रयोगो मनसः प्रयोगो मनःप्रयोगः । (३) करणम्-क्रियते येन तत्करणं मननादिक्रियासु प्रवर्त्तमानस्यात्मनः उपकरणभूतः तथा तथा परिणामवत् पुद्गलसंघात इति भावः । तत्र मनसः एव करणं मनःकरणमिति । अथवा योगप्रयोगकरणशब्दानां मनःप्रभृतिकमभिधेयतया योगप्रयोगकरणसूत्रेष्वभि हितमिति नार्थभेदोऽन्वेषणीयः, त्रयाणामेषामेकार्थतया आगमे बहुशः प्रवृत्तिदर्शनात्' । (स्थानांग सूत्र ३ स्था० की वृत्ति) १. 'योगः समाधिः स च सार्वभौमश्चित्तस्य धर्मः' । २. 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' ।। ३. 'निरुध्यन्ते यस्मिन् प्रमाणादिवृत्तयोऽवस्थाविशेष चित्तस्य सोऽवस्थाविशेषो योगः' । (वाचस्पतिमिश्र) Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कभी-कभी स्थिरता को धारण करता है सर्वथा नहीं, यही इसमें विशेषता है। चित्त की ये तीनों ही अवस्थाएँ योग-समाधि के लिये अनुपयोगी होने से उपादेय नहीं हैं, इसलिये चित्त की एकाग्र और निरुद्ध ये दो अन्तिम अवस्थाएँ ही योगाधिकार में प्रवृत्त होने वाले मुमुक्षु पुरुष के लिये उपादेय मानी गई हैं, कारण कि इन्हीं दो भूमिकाओं में समाधि की प्राप्ति हो सकती है। जिस समय चित्त बाह्य वृत्तियों के रुक जाने पर एक ही विषय में एकाकार वृत्ति को धारण करता है तब उसको एकाग्र कहते हैं परन्तु इस अवस्था में कुछ अन्तरंग सात्त्विक वृत्तियाँ रहती हैं। उन सब वृत्तियों और तज्जन्य संस्कारों का भी जिस अवस्था में लय हो जाता है वह चित्त की निरुद्ध-अवस्था है । सारांश कि एकाग्रचित्त में बाह्य वृत्तियों का तिरोधान होता है और निरुद्धचित्त में सभी वृत्तियाँ विलीन हो जाती है। जैसे कि ऊपर बतलाया गया है, चित्त की इन पांच भूमिकाओं में पहले की क्षिप्त और मूढ़ ये दो तो समाधि के लिये सर्वथा अनुपयोगी हैं। तीसरी विक्षिप्त-भूमि कुछ-कुछ उपयोगी है और अन्त की दो सर्वथा उपादेय हैं। इन्हीं दोनों भूमियों में समाधि का उदय होता है । तथाच-इन भूमिकाओं के अनुरूप पहली दो में व्युत्थान (बहिर्मुखता), तीसरी में समाधि का आरम्भ, चौथो में एकाग्रता और पांचवीं में निरोध, इस प्रकार चित्त के चार परिणाम सम्भव होते हैं। इनमें सत्त्व के उत्कर्ष से चित्त की एकाग्रता लक्षण परिणत होने पर साधक आत्मा सद्भूत अर्थ का प्रकाश करती है-परमार्थभूत ध्येय वस्तु का साक्षात्कार करती है, चित्तगत क्लेशों को दूर करती है, कर्मबन्धनों को शिथिल और निरोध को अभिमुख करती है, इसी का नाम संप्रज्ञात-योग है । और वह वितर्कानुगत, विचारानुगत, आनन्दानुगत और अस्मितानुगत भेद से चार प्रकार का है। और सर्व प्रकार की चित्तवृत्तियों का सर्वथा निरोध असंप्रज्ञातयोग है। इस प्रकार योग को समाधिरूप मानकर उसके संप्रज्ञात, अप्रसंज्ञात ये दो भेद बतलाये हैं । और इन्हीं को क्रमशः सबीज और निर्बीज समाधि कहा है। चित्त की एकाग्र-दशा में ध्येय वस्तु का ज्ञान बना रहता है और मन को समाहित रखने के लिये किसी न किसी आलम्बन या बीज की आवश्यकता भी १. "विक्षिप्त-क्षिप्ताद्विशिष्ट, विशेषोऽस्थेमबहुलस्य कादाचित्कः स्थेमा ।' (तत्त्व-वैशा० टी० वाचस्पति मिश्र १-१) २. 'एकाग्रे बहिवृत्तिनिरोधः । निरुद्ध च सर्वासां वृत्तीनां संस्काराणां च ईत्यनयोरेव भूम्योर्योगस्य सम्भवः ।' (१-२ भोजवृत्तिः) ३. 'सम्यक् प्रज्ञायते क्रियते ध्येयं यस्मिनिरोधविशेष सः संप्रज्ञातः' अर्थात् जिसमें साधक को अपने ध्येय का भलीभाँति साक्षात्कार होता है उसका नाम संप्रज्ञात है । (१-१ टिप्पण-बालकरामस्वामी) Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) अवश्य रहती है, इसलिये संप्रज्ञात समाधि को सालम्बन या सबीज समाधि कहते हैं । परन्तु जब चित्त की समस्त वृत्तियाँ पूर्णरूप से निरुद्ध हो जाती हैं तब असंप्रज्ञात समाधि का आविर्भाव होता है । उसमें ध्याता - ध्यान - ध्येयरूप त्रिपुटि का विभिन्न रूप से ज्ञान नहीं होता और इसमें किसी भी वस्तु का आलम्बन न रहने से उसे निरालम्बन यो निर्बीज समाधि कहा गया है । असंप्रज्ञात- योग के भी भव - प्रत्यय और उपायप्रत्यय ये दो प्रकार बतलाये हैं । इनमें उपाय - प्रत्यय समाधि ही वास्तविक समाधि है । उसकी प्राप्ति श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा के लाभ से होती है । यह कथन योगसूत्र और उसके व्यासभाष्य के अनुसार किया गया है । यहाँ पर इतना अवश्य स्मरण रहे कि ' योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ' इस पातंजल सूत्र में सूत्रकार को वृत्तिनिरोध से क्लेशादिकों का नाश करने वाला निरोध ही अभीष्ट है । अन्यथा यत्किचित् वृत्तिनिरोध तो क्षिप्तादि भूमिकाओं में भी होता है परन्तु उसको इनकी योगरूपता कथमपि अभीष्ट नहीं । तब उक्त सूत्र का फलितार्थ यह हुआ कि - क्लेश-कर्म वासना का समूलनाशक जो वृत्तिनिरोध है, उसका नाम योग है । अन्यथा यों कहो कि - चित्तगतक्लेशादिरूप वृत्तियों का जो निरोध उसको योग कहते हैं । इस भाँति पातंजल योगदर्शन में योग को समाधिरूप मानकर उसकी उपर्युक्त व्याख्या की है जो साध्यरूप योग के स्वरूप को समझने में अधिक उपयोगी प्रतीत होती है । पातंजल योगव्याख्या का आगमानुसारित्व जैनागमों में दो प्रकार का धर्म बतलाया है- १. श्रुत-धर्म, २. चारित्रधर्म । श्रुत-धर्म में वह सम्पूर्ण तत्त्वज्ञान समाविष्ट है जिसके मनन से साध्यरूप १. ( क ) ' क्षिप्तं मूढं विक्षिप्तमेकाग्रं निरुद्धमिति चित्तभूमयः । तत्र विक्षिप्ते चेतसि विक्षेपोपसर्जनीभूतः समाधिर्न योगपक्षे वर्तते । यस्त्वेकाग्रे चेतसि सद्भूतमर्थं प्रद्योतयति - क्षिणोति च क्लेशान् कर्मबन्धनानि श्लथयति — निरोधाभिमुखं करोति स सम्प्रज्ञातो योगः इत्याख्यायते । स च वितर्कानुगतो विचारानुगतः आनन्दानुगतोऽस्मि - तानुगत इत्युपरिष्टात्प्रवेदिष्यामः । सर्ववृत्ति निरोध इत्य संप्रज्ञातः समाधिः । ( १ - १ ) (ख) 'श्रद्धावीर्य्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम्' । (१।२० ) २. 'तथा च यद्यपि योगः समाधिः स एव च चित्तवृत्तिनिरोधः स च सार्वभौमः सर्वासु क्षिप्तादिभूमिषु भवः, एवं च क्षिप्तादिष्वतिप्रसंगः तत्रापि हि यत्किञ्चिद्वृत्तिनिरोधसत्त्वात् तथापि यो निरोधः क्लेशान् क्षिणोति स एव योगः, स च संप्रज्ञातासंप्रज्ञातभेदेन द्विविधः इति नातिप्रसंग इत्यर्थः ' (यो० १-१ के टिप्पण में स्वा०बालकराम ) ३. 'दुविहे धम्मे पन्नत्ते तंजहा - सुयधम्मे चेव चारित धम्मे चेव' । ( स्थानांग सूत्र, स्थान २, उद्द े० १ सू०७२ ) Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) वस्तु-तत्त्व के यथार्थ स्वरूप का निश्चय होता है और चारित्र-धर्म के सम्यक् अनुष्ठान से उस साध्यरूप वस्तु-तत्त्व की उपलब्धि होती है । चारित्र-धर्म में द्वादश विध तप और भावना, १७ प्रकार का व्रतादिरूप संयम, क्षमा-मार्दवादि दशविध यति-धर्म और समिति-गुप्तिरूप आठ प्रवचन माताएं इत्यादि आचरणीय धार्मिक क्रियाएँ गभित हैं। इनमें सभी प्रकार के योग और उसके अंगों का समावेश हो जाता है । तथा आस्रव-निरोधरूप संवर में योग का उक्त लक्षण भली-भाँति गतार्थ हो जाता है । मन, वचन और काया के व्यापार को योग कहते हैं । उसी की आस्रव संज्ञा है, क्योंकि वह कर्म बाँधने में निमित्तभूत है। - जैन परिभाषा में वीर्यान्तरायरे कर्म के क्षयोपशम से होने वाला आत्मपरिणामविशेष-आत्मप्रदेशों का परिस्पन्दन-कम्पन व्यापार-योग कहलाता है। वह मन, वचन और काया के आश्रित होने से तीन प्रकार का है-मनोयोग, वचनयोम, और कायायोग । इस योगरूप आस्रव का निरोध ही संवर है जिसे पतञ्जलि मुनि ने अपनी परिभाषा में चित्तवृत्तिनिरोधरूप योग-लक्षण से व्यक्त किया है । जिस प्रकार चित्त की एकाग्रदशा में सत्त्व के उत्कर्ष से बाह्य वृत्तियों का निरोध, क्लेशों का क्षय, कर्मबन्धनों की शिथिलता, निरोधाभिमुखता और प्रज्ञाप्रकर्ष-जनित सद्भूतार्थ-प्रकाश के द्वारा धर्ममेध-समाधि की प्राप्ति होती है, उसी प्रकार जीवन के आध्यात्मिक विकास-क्रम में उत्तरोत्तर प्रकर्ष की प्राप्ति का एकमात्र साधन आस्रवों का निरोध है । यह जितने-जितने अंश में बढ़ेगा उतने-उतने ही अंश में आत्मगत शक्तियां विकसित होंगी। अन्त में आस्रव अथवा योगनिरोधरूप इसी संवर-तत्त्व के उत्कर्ष से ध्यानादि द्वारा आत्मगत मल-विक्षेप और आवरण का आत्यन्तिक विनाश होकर कैवल्य ज्योति का उदय होता है । जैन शास्त्रों में समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, चारित्र और तपरूप संवर-तत्त्व के सम्यक् अनुष्ठान से निष्कषायकषाय-मल से रहित आत्मा में मोहनीय कर्म के सर्वथा क्षय हो जाने से साथ ही ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म का भी ममूल घात होने पर कैवल्य-ज्योति का उदय होना माना है जिसको केवल-उपयोग कहते हैं। ऐसी आत्मा सर्वज्ञ और सर्वदर्शी कहलाती है। उसके इस निरावरण ज्ञान में सामान्य और विशेष रूप से विश्व के सम्पूर्ण पदार्थ करामलकवत् भासमान होते हैं। १. 'कम्म जोगनिमित्तं वज्झइ जोगबंधे, कसायबंधे।' २. 'वीर्यान्तरायक्षयोपशमजनितो जीवपरिणामविशेषः ॥' ३. 'मोहक्षयाद् ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् ।' (तत्त्वार्थ १०/१) ४. (क) 'मः सर्वज्ञः स सर्वविदिति ।' (ख) 'खीणमोहस्स णं अरहओ तत्तो कम्मंसा जुगवं खिज्जति तं जहानाणावरणिज्जं दंसणावरणिज्जं अंतरातियं ।' (स्थानांग स्था० ३, उ० ४) छा०-क्षीणमोहस्याहतः ततः कर्माशा युगपत् क्षपयन्ति, तद्यथा-ज्ञानावरणीयं दर्शनावरणीयमान्तरायिकम् । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) यहाँ पर इतना और भी ध्यान रहे कि पतंजलि के चित्तवृत्तिनिरोधरूप योग- लक्षण से चित्त के विषय में उसकी - ( १ ) सत्प्रवृत्ति, (२) एकाग्रता और ( ३ ) निरोध, ये तीन बातें ध्वनित होती हैं । इसका अभिप्राय यह है कि योग में अधिकार प्राप्त करने वाले साधक के लिए चित्त की एकाग्रता के सम्पादनार्थ यम-नियमादिरूप सत्कार्यों में प्रवृत्त होना परम आवश्यक है और चित्त की एकाग्रता से प्राप्त होने बाले संप्रज्ञात- योग में कुछ वृत्तियों का निरोध तो हो जाता है परन्तु सर्व वृत्तियों का सर्वथा निरोध-क्षय नहीं होता, अतः सर्ववृत्तिनिरोधरूप असंप्रज्ञात योग के लाभार्थ निरोधरूप परिणाम की आवश्यकता है। जैन - प्रक्रिया के अनुसार यह विषय मनः समिति और मनोगुप्ति के स्वरूप में गतार्थ हो जाता है । आगमों' में मनःसमिति और मनोगुप्त के स्वरूप का विवेचन करते हुए समिति - ( सं सम्यक् इति - प्रवृत्ति) से मन की सत्प्रवृत्ति और गुप्ति से मन की एकाग्रता और मनोनिरोध अर्थ का ग्रहण किया है । अत: समिति गुप्ति के इस निर्वचन से मन के प्रवृत्ति, स्थिरता और निरोध, ये तीन परिणाम विभाग हो जाते हैं । प्रथम विभाग में समाधि का आरंभ, दूसरे में समाधि की प्राप्ति और तीसरे में समाधि के फलरूप मोक्ष की उपलब्धि होती है । इसलिए योग की 'चित्तवृत्तिनिरोध' रूप पातंजल व्याख्या समिति - गुप्तिरूप आगम-सम्मत संवर-योग से वस्तुतः पृथक् नहीं है । हरिभद्रसूरि की योग- व्याख्या जैन आचार्य हरिभद्रसूरि ने आगमों के आधार पर योग की जो ब्याख्या और विषय विभाग तथा उसमें जिस विशिष्ट पद्धति का अनुसरण किया है वह दार्शनिक जगत् में बिल्कुल नई वस्तु है । योगविषयक आगमों की प्राचीन वर्णन - शैली को तत्कालीन परिस्थिति के अनुसार दार्शनिकरूप में परिवर्तित - बदल - कर योग का जो सुन्दर स्वरूप योगाभिलाषिणी जनता के समक्ष उपस्थित किया है वह उक्त १. (क) 'मणेण पावएण पावकं अहम्मियं दारुणं निस्संसं वहबंधपरिकिले सबहुलं मरण परिकले ससं किलिट्ठे न कयावि मणेण पावतेणं पावगं किचिविज्झायव्वं एवं • मणसमितियोगेण भावितो णं भवति अन्तरप्पा ' ( प्रश्नव्या० १ संवरद्वार) छा० - मनसा पापकेन पापकमधार्मिकं दारुणं नृशंसं वधबन्धन परिक्लेश बहुलं मरणभयपरिक्नेश संश्लिष्टं न कदापि मनसा पापकेन पापकं किंचिदपि ध्यातव्यमेवं मनः समितियोगेन भावितो भवत्यन्तरात्मा । (ख) 'मणगुत्तयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? म०- — जीवे एगग्गं जणयइ । चित्तणं जीवे मणगुत्त े संजमाराहए भवइ' । (उत्तराध्ययन सूत्र २९ । ५३ ) छा- मनोगुप्ततया नु भगवन् ! जीवः किं जनयति । मनोगुप्ततया जीवः ऐकाग्र्यं जनयति । एकाग्रचित्तो नु जीवः मनोगुप्तः संयमाराधको भवति । ( तत्र मनोनिरोधस्य प्रधानत्वाद् — व्याख्याकारः ) तात्पर्य कि मनोगुप्ति से मन की एकाग्रता और एकाग्रता से मन का निरोध होता है । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) आचार्य की लोकोत्तर प्रतिभा का ही भाभारी है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने सचमुच ही योगविषयक अपनी उदात्त कल्पना से जैन वाङमय में एक नवीन युग उपस्थित कर दिया है । इसके प्रमाण में उनके योगदृष्टिसमुच्चय, योगबिन्दु, योगविशिका आदि अनेक ग्रन्थ रत्न उपस्थित किये जा सकते हैं । योगदृष्टिसमुच्चय में आचार्य ने मित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्थिरा, कान्ता प्रभा और परा, इन दृष्टियों में योग के सम्पूर्ण प्रतिपाद्य विषय को विभक्त करके योग के प्रसिद्ध यमादि आठ अंगों का (प्रत्येक दृष्टि में प्रत्येक अंग का) बहुत ही सुन्दर एवं सारगर्भित विवेचन किया है । इसके अतिरिक्त योगबिन्दु में मोक्ष-प्राप्ति के अन्तरंग साधक धर्मव्यापार को योग बतलाकर उसके-(१) अध्यात्म, (२) भावना, (३) ध्यान, (४) समता, और (५) वृत्तिसंक्षय, ऐसे पांच भेद किये हैं। पातंजल दर्शन के संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात नाम के द्विविध योग को इन्हीं पाँच भेदों से अन्तर्मुक्त कर दिया है । आचार्य के इन पाँच योगभेदों का संक्षिप्त वर्णन नीचे दिया जाता है : १. अध्यात्मयोग-जैनागमों में मोक्षाभिलाषी आत्मा को अध्यात्मयोगीअध्यात्मयोग से युक्त होने की बार-बार चेतावनी दी है क्योंकि चारित्र-शुद्धि के लिये अध्यात्मयोग के अनुष्ठान की मुमुक्षु आत्मा को नितान्त आवश्यकता है। इसी हेतु से आचार्य ने सबसे प्रथम अध्यात्मयोग का निर्देश किया है । उचित प्रवृत्ति से अणुव्रत-महाव्रत से युक्त होकर मैत्री आदि चार भावनापूर्वक शिष्टवचनानुसारआगमानुसार-जो तत्त्वचिन्तन करना उसको अध्यात्मयोग कहते हैं । यहाँ इतना स्मरण रहे कि अध्यात्मयोग की यह उक्त व्याख्या देशविरति नाम के पाँचवे गुणस्थान को-पांचवीं भूमिका को प्राप्त हुए साधक को लक्ष्य में रखकर की गई है। कारण कि औचित्यपूर्वक-सम्यग्बोधपूर्वक व्रत-नियमादि के धारण करने की योग्यता इस पाँचवें गुणस्थान में ही प्राप्त होती है। यहाँ पर अध्यात्मयोगा १. 'अध्यात्म भावना ध्यानं, समता वृत्तिसंक्षयः । मोक्षण योजनाद्योगः, एष श्रेष्ठो यथोत्तरम्' । (३१) (योगबिन्दु-हरिभद्रसूरि) २. (क) अज्झप्पज्झाणजुत्त-(अध्यात्मध्यानयुक्त :) (प्रश्नव्या० ३. सं० द्वा.) 'अध्यात्मनि आत्मानमधिकृत्य आत्मालम्बनं ध्यानं चित्तनिरोधस्तेन युक्तः' इति व्याख्याकारः। (ख) 'अज्झप्पजोगसुद्धादाणे उवदिट्ठिए ठिअप्पा' । छा०--(अध्यात्मयोगशुद्धादान उपस्थितः स्थितात्मा) (सूत्रकृतांग, अध्ययन १६, सूत्र ३) ३. 'औचित्यावृत्तयुक्तस्य, वचनात्तत्त्वचिन्तनम् । मैत्र्यादिभावसंयुक्तमध्यात्म तद्विदो विदुः ॥३५७॥ (योगबिन्दुः। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५ ) के तत्त्वचिन्तनरूप लक्षण में दिये गये औचित्य, वृत्तसमवेतत्व, आगमानुसारित्व और मंत्री आदि भावनासंयुक्तत्व, ये चार विशेषण बड़े ही महत्व के हैं। इन पर विचार करने से अध्यात्मयोग का वास्तविक रहस्य भलीभाँति समझ में आ जाता है। मैत्री आदि चार-(मैत्री, करुणा, मुदिता, और उपेक्षा) भावनाओं (जिनका वर्णन आगे किया जाने वाला है) से भावित होने वाला साधक पुरुष-(१) मैत्रीभाव से-सुखी जीवों के प्रति होने वाली ईर्ष्या का त्याग करता है; (२) करुणा से-दीन दुःखी जीवों के प्रति उपेक्षा नहीं करता है; (३) मुदिता से --उसका पुण्यशाली जीवों पर से द्वष हट जाता है; और (४) उपेक्षाभावना से-वह पापी जीवों पर से राग-द्वष दोनों को हटा लेता है। तात्पर्य कि इन उक्त चार भावनाओं के अनुशीलन से साधक आत्मा में ईर्ष्या का नाश, दया का संचार और राग-द्वष की निवृत्ति सम्पन्न होती है । इस प्रकार अध्यात्मयोग के स्वरूप को समझकर उसे आत्मसात् करने पर पापों का नाश, वीर्य का उत्कर्ष, चित्त की प्रसन्नता, वस्तुतत्व का बोध और अनुभव का उदय' होता है । यह अध्यात्मयोग की फलश्रति है। इसके अतिरिक्त अध्यात्मयोग की एक और व्याख्या नीतिवाक्यामृत नाम के ग्रन्थ में उपलब्ध होती है जो कि उपर्युक्त व्याख्या से सर्वथा विलक्षण है। यथा-'आत्ममनोमरुत्तत्त्वसमतायोगलक्षणो ह्यध्यात्मयोगः' अर्थात् आत्मा-मनशरीरस्थ वायु और पृथिव्यादि तत्त्व इनकी समता-समान परिणाम-को अध्यात्मयोग कहते हैं । इस प्रकार का अध्यात्मयोग स्वरोदय ज्ञान में अधिक उपयोगी हो सकता है, प्रकृतयोग में यह कम उपयोगी है। २. भावनायोग–अध्यात्मयोग के अनन्तर अब भावनायोग का वर्णन प्राप्त होता है जिसका स्वरूप निर्वचन इस प्रकार है :-प्राप्त हुए अध्यात्म-तत्त्व का बुद्धिसंगत-विचारपूर्वक निरन्तर बार-बार अभ्यास-चिन्तन करने का नाम भावनायोग है। आगमों में भावनायोग की बड़ी महिमा वर्णन की है। सूत्रकृतांगसूत्र में लिखा. १. (क) 'सुखीयां दुखितोपेक्षां पुण्यद्वषमर्मिषु । रागद्वषो त्यजेन्नेता लब्ध्वाऽध्यात्म समाचरेत् ॥७॥ (ख) 'अतः पापक्षयः सत्त्वं शीलं ज्ञानं च शाश्वतम् । तथानुभवसंसिद्धममृतं ह्यद एव नु' ।।८॥ (योगभेदद्वात्रिंशिका-३० यशोविजयजी) (ग) 'मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावना तश्चित्तप्रसादनम् । (पातं० यो० १।३६) २. टीका-आत्मा चिद्रूपः, मनः प्रसिद्धं, मरुतः शरीरस्था वायवः, तत्त्वं पृथिव्यादि, तेषां सममेकहेलया समतालक्षणः स हि स्फुटमध्यात्मयोगः कथ्यते । ___३. 'अभ्यासोबुद्धिमानस्य, भावना बुद्धिसंगतः ।' ६ (यो० भे० द्वा०) Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है कि भावनायोग से जिसकी आत्मा शुद्ध हो गई है बह साधक, जल में नौका के समान है और जिस प्रकार किनारे लगने पर नौका को विश्राम मिलता है, उसी प्रकार साधक को भी सर्व प्रकार के दुःखों से छुटकारा मिलकर परम शांति का लाभ होता है । जिस प्रकार सतत अभ्यास और निरन्तर चिन्तन से ही समझा हुआ पदार्थ चित्त में स्थिर रह सकता है, उसी प्रकार अध्यात्मतत्त्व को हृदय-मन्दिर में स्थिर रखने के लिये उसका दीर्घ काल तक सत्कारपूर्वक सतत चिन्तन करना भी परम आवश्यक है । इस प्रकार के चिन्तन का नाम ही भावना है । इसलिये अध्यात्मयोग का बहुत कुछ तत्त्व भावनायोग पर ही निर्भर है। यहाँ पर बुद्धिसंगत चिन्तनरूप भावना के स्वरूप में चिन्तन के साथ जो दीर्घकाल आदि तीन विशेषण लगाये गये हैं, वे बड़े महत्व के हैं । अनादिकाल से यह आत्मा वभाविक संस्कारों-कर्मजन्य उपाधियों-से ओतप्रोत हो रही है। इन वैभाविक संस्कारों का विलय आत्मा के स्वाभाविक गुणों के उदय से हो सकता है, और आत्मगुणों का उदय अध्यात्मयोग की अपेक्षा रखता है । अत: उसका दीर्घकाल तक निरन्तर और सत्कारपूर्वक चिन्तन करना परम आवश्यक ठहरता है, जिससे कि अध्यात्मयोग के प्रभाव से लय को प्राप्त होने वाले वैभाविक संस्कारों का फिर से प्रादुर्भाव न होने पावे। और इसमें तो कुछ सन्देह ही नहीं कि श्रद्धापूर्वक लगन से किया जाना वाला कार्य ही फलप्रद होता है। यही बात महर्षि पतञ्जलि ने समाधि-प्राप्ति के लिए साधन रूप से उपादेय अभ्यास के विषय में कही है। अध्यात्मयोगी के लिए ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वैराग्य, ये पांच विषय भावना के हैं । इनकी भावना से वैभाविक संस्कारों का विलय, अध्यात्मतत्त्व की स्थिरता और आत्मगुणों का उदय होता है। इसके अतिरिक्त भावनायोग के प्रसंग में यद्यपि (१) अनित्य, (२) अशरण, (३) संसार, (४) एकत्व, (५) अन्यत्व, (६) अशुचि. (७) आस्रव, (८) संवर, (६) निर्जरा, (१०) लोक, (११) बोधिदुर्लभ और (१२) धर्म, इन बारह भावनाओं का वर्णन भी प्रसंगतः प्राप्त हो जाता है, परन्तु विस्तारभय से उसका वर्णन यहाँ स्थगित कर दिया गया है । १. 'भावणाजोगसुद्धप्पा, जले णावा व आहिया । नावा व तीरसंपन्ना, सव्वदुक्खा तिउट्टइ' ॥ (१५-५) छा०-भावनायोगशुद्धात्मा, जले नौरिवाहितः। नौरिव तीरसंपन्नः, सर्वदुःखात् त्रुटयति ॥ २. 'स तु दीर्घकालनरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढभूमिः'। (पातं० योग १-१४) 'बहुकालनरन्तर्येण आदरातिशयेन च सेव्यमानो दृढभूमिः-स्थिरीभवति' । (भोजवृत्तिः) ३. इसका अधिक विवेचन 'भावनायोग' नामक पुस्तक में देखना चाहिये । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) ३. ध्यानयोग-अब तीसरे ध्यानयोग का कुछ स्वरूप वर्णन किया जाता है : (क) स्थिर दीपशिखा के समान निश्चल और अन्य विषय के संचार से रहित केवल एक ही विषय का धारावाही प्रशस्त सूक्ष्म बोध जिसमें हो उसको ध्यान कहते हैं।' (ख) अन्तमुहर्त पर्यन्त एक ही विषय पर चित्त की सर्वथा एकाग्रता अर्थात् ध्येय विषय में एकाकारवृत्ति का प्रवाहित होना, उसका नाम ध्यान है। शीलांकाचार्य ने 'ज्झाणजोगं समाहट्ट' इस गाथा की व्याख्या करते हुए चित्तनिरोधलक्षण धर्मध्यानादि में मन, वचन, काया के विशिष्ट व्यापार को ही ध्यानयोग कहा है। (ध्यानम् -चित्तनिरोधलक्षणं धर्मध्यानादिकं तत्र योगो विशिष्टमनोवाक्कायव्यापारस्तं ध्यानयोगम्) । इस साधनयोग में ध्येयवस्तुविषयक एकाग्रता इतनी बढ़ जाती है कि साधकको उस समय ध्येय के अतिरिक्त अन्य का आंशिक विचार भी उद्भव नहीं होता । यह ध्यानरूप योगाग्नि जिस आत्मा में प्रज्वलित होती है उसका कर्मरूप मल (जो आत्मा के साथ चिरकाल से चिपका हुआ है) भस्म हो जाता है तथा उसके प्रकाश से रागादि अन्धकार दूर हो जाता है; चित्त सर्वथा निर्मल हो जाता है और मोक्षमन्दिर का द्वार सामने दिखाई देने लगता है । अधिक क्या कहें ध्यानयोग, यह आत्मा को उसके वास्तविक स्वरूप में प्रतिष्ठित करने का प्रबलतम साधन है । तथा यात्मस्वातन्त्र्य, परिणामों की निश्चलता और जन्मान्तर के आरम्भक कर्मों का विच्छेद, ये तीन ध्यानयोग के सुचारु फल हैं। ध्यान के भेदों और उनके स्वरूपों का, वर्णन अन्यत्र किया जावेगा । १. 'निवायसरणप्पदीपज्झाणमिव निप्पकंपे'। (प्रश्नव्या० संवद्वार ५) २. यह समग्र गाथा इस प्रकार है'ज्झाणजोगं समाहटु, कायं विउसेज्ज सव्वसो । तितिक्खं परमं नच्चा, आमोक्खाए परिवएज्जास' ॥(सूयगडंग अ०८, गा०२६) छा०-ध्यानयोगं समाहृत्य, कायं व्युत्सृजेत् सर्वशः ।। तितिक्षां परमां ज्ञात्वा, आमोक्षाय परिव्रजेत् ॥ ३. 'सज्झायसुज्झाणरयस्स ताइणो, अपावभावस्स तवे रयस्स । विसुज्झइ जंसि मलं पुरे कडं, समीरियं रुप्पमलं व जोइणा' । (दशवकालिक अध्य० ८ गा० ६३), छा०-स्वाध्यायसुध्यानरतस्य त्रायिणः, अपापभावस्य तपसि रतस्य । _ विशुध्यत्यस्य मलं पुराकृतं, समीरितं रूपमलमिव ज्योतिषा ॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) ४. समतायोग-ध्यान में अत्यन्तोपयोगी चौथा समतायोग है। अविद्याकल्पित इष्टानिष्ट पदार्थों में विवेकपूर्वक तत्त्वनिर्णय-बुद्धि से राग-द्वेषरहित होना अर्थात् पदार्थों में की जाने वाली इष्टत्व-अनिष्टत्व-कल्पना को केवल अविद्याप्रभव समझकर उनमें उपेक्षा धारण करना, समता कहलाती है। उसमें निविष्ट मन, वचन, काया के व्यापार का नाम समतायोग है । अविद्या अथवा मोह के वशीभूत हुआ यह जीव अमूक वस्तु को इष्ट और अमुक को अनिष्ट मानकर इष्ट वस्तु में राग और अनिष्ट में द्वष करने लगता है। सौभाग्यवश जब उसमें विवेक-ज्ञान का उदय होता है तब वह इष्ट और अनिष्ट के मर्म को समझ पाता है। विवेक-चक्षु के खुलते ही वह देखता है कि कल जिस वस्तु को उसने अनिष्ट-अप्रिय-जानकर तिरस्कृत किया था आज उसी को इष्ट -प्रिय-समझकर अपना रहा है, इसलिए वास्तव में कोई भी वस्तु स्वयं इष्ट किंवा अनिष्ट रूप नहीं। वस्तु में इष्टानिष्टत्व की भावना तो अविवेकप्रभव-अविद्या-कल्पित-है । इस अविद्या के सम्पर्क से ही आत्मा में पदार्थों के इष्टानिष्टत्व की कल्पना द्वारा हर्ष-शोक रूप विभाव-संस्कारों का उदय होता है जिससे वह आत्मा अपने को सुखी या दुःखी मानती है । वस्तुतः ये संस्कार न तो आत्मा के गुण हैं और न ही इनका उससे कोई वास्तविक सम्बन्ध है; आत्मा का वास्तविक रूप तो सत्, चित्, आनन्द, दर्शन, ज्ञान, और चारित्र है (सत्-दर्शन, चित्-ज्ञान और आनन्द-चारित्र है)। इस प्रकार के विवेक-ज्ञान के उदय से आत्मा में विचारवैषम्य का लय और समभाव का परिणमन होने लगता है। इस सत् परिणाम द्वारा किये जाने वाले तत्त्वचिन्तन को ही समतायोग कहते हैं। समता, यह आत्मा का निजी गुण है । इसके विकास से आत्मा बहत ऊँची भूमिका पर चढ़ जाती है। यहाँ इतना और भी समझ लेना चाहिए कि ध्यान और समता ये दोनों सापेक्ष अर्थात् एक दूसरे की अपेक्षा रखते हैं। समता के बिना १. 'अविद्याकल्पितेषूच्चरिष्टानिष्टेषु वस्तुषु । संज्ञानात्तव्युदासेन समता समतोच्यते ॥ ३६३ ॥ इसीलिये साधु को शास्त्रों में आदेश किया गया है कि वह जगत् के समस्त प्राणियों को समभाव से देखे और राग-द्वष के वशीभूत होकर किसी प्राणी का भी प्रिय अथवा अप्रिय न करे । यथा: (क) 'सव्वं जगं तु समयाणुपेही पियमप्पियं कस्सइ णो करेज्जा'। छा०-सर्वं जगत्तु समतानुप्रेक्षी प्रियमप्रियं कस्यचिन्न कुर्यात् । (सुयगडंग-अ० १०/७) (ख) 'पण्ण समत्ते सया जए, समताधम्ममुदाहरे मुणी।' छा०---प्रज्ञासमाप्तः सदा जयेत्, समताधर्म मुदाहरेन्मुनिः । अर्थात् बुद्धिमान् साधु कषायों को जीते और समभावपूर्वक धर्म का उपदेश (सूयगडंग अध्ययन २, उ० २, गा० ६) करे। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) ध्यान और ध्यान के बिना समता की पूर्णता नहीं होती। ये दोनों एक दूसरे के सहकार में ही विकास को प्राप्त होते हैं, इसलिये ध्यानयोग के साधक को समतायोग की विशेष आवश्यकता है । कारण कि ध्यानयोग में प्राप्त एकाग्रता की स्थिरता समतायोग के अनुष्ठान पर ही अधिक निर्भर है। समतायोगी की आगमों में बड़ी प्रशंसा की है; उसको संसार का पूज्य कहा है; क्योंकि वह राग-द्वेष की विषम भूमिका को उल्लंघन करके वीतरागता की समभूमिका पर आरूढ़ होने का परम सौभाग्य प्राप्त कर लेता है। इसके अतिरिक्त समता-योग निष्पन्न साधक को अनेक प्रकार की लब्धियाँ-सिद्धियाँ-प्राप्त हुई होती हैं, जिनका कि वह अपनी इच्छा के अनुसार जब चाहे प्रयोग कर सकता है। परन्तु समता का साधक योगी इन प्राप्त सिद्धियों के प्रलोभन में नहीं फंसता, वह इनकी वास्तविकता को समझता है। ये लब्धियां भी कैवल्य-प्राप्ति में विघ्नरूप ही हैं। इसलिए वह इनका उपयोग नहीं करता । तथा समतायोग से सूक्ष्मकर्मों का अर्थात् विशिष्टचारित्र-यथाख्यातचारित्र और केवल-उपयोग को आवृत करने वाले ज्ञानावरण, दर्शनावरण और मोहरूप कर्मों का क्षय और अपेक्षातन्तु (आशारूप डोर) का विच्छेद होता है । अपेक्षातन्तु के विच्छेद का तात्पर्य है कि समतानिष्पन्न योगी को संसार में किसी प्रकार के सुख को प्राप्त करने की अभिलाषा शेष नहीं रहती। इस प्रकार-१. लन्धियों में अप्रवृत्ति, २. सूक्ष्मकर्मों-ज्ञान, दर्शन, और चारित्र के प्रतिबन्धक ज्ञानावरण, दर्शनावरण और मोहरूप कर्मों का क्षय तथा ३. अपेक्षातन्तु का विच्छेद, ये तीन समतायोग के विशिष्ट फल हैं, जिनके आस्वादन से अमृतत्व की प्राप्ति होती है। ५. वृत्तिसंक्षय-योग-पूर्वोक्त चार योगों के बाद अब पांचवें वृत्ति-संक्षययोग का वर्णन प्राप्त होता है, जिसका संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है:-आत्मा में मन और शरीर के सम्बन्ध से उत्पन्न होने वाली विकल्परूप तथा चेष्टारूप वत्तियों का अपूनर्भावरूप से जो निरोध-आत्यन्तिक क्षय-समूलनाश-होना उसका नाम वत्तिसंक्षययोग है। यह आत्मा स्वभाव से ही निस्तरंग महान् समुद्र के समान १. "विआणिआ अप्पगमप्पएणं, जो रागदोसे हिं समो स पुज्जो' । छा०-विज्ञायात्मानमात्मना यो रागद्वषयोः समः स पूज्यः । (दशवै० अ०६/११) २. (क) 'अन्यसंयोगवृत्तीनां, यो निरोधस्तथा तथा । अपुनर्भावरूपेण स तु तत्संक्षयो मतः ॥ (योगबिन्दु, ३६६) वृत्ति-'इह स्वभावत एव निस्तरंगमहोदधिकल्पस्यात्मनो विकल्परूपाः परिस्पन्दनरूपाश्च वृत्तयः सर्वा अन्यसंयोगनिमित्ता एव । तत्र विकल्परूपास्तथाविधमनोद्रव्य संयोगात्, परिस्पन्दनरूपाश्च शरीरादिति । ततोऽन्यसंयोगे या वृत्तयः तासां यो निरोधः तथा तथा-केवलज्ञानलाभकालेऽयोगिकेवलिकाले च । अपुनर्भावरूपेणपुनर्भवनपरिहारस्वरूपेण । स तु-स पुन: तत्संक्षयो वृत्तिसंक्षयो मत इति ।' (पृ० ६३) Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) निश्चल है । जैसे वायु के सम्पर्क से उसमें तरंगें उठने लगती हैं, इसी प्रकार मन और शरीर के संयोगरूप वायु से उसमें-आत्मा में-संकल्प-विकल्प और परिस्पन्दन -चेष्टारूप नाना प्रकार की वृत्तिरूप तरंगें उठने लगती हैं । इनमें विकल्परूप वृत्तियों का उदय मनोद्रव्यसंयोग से होता है और चेष्टारूप वृत्तियाँ शरीरसम्बन्ध से उत्पन्न होती हैं । इन विकल्प और चेष्टा रूप वृत्तियों का समूलनाश ही वृत्तिसंक्षय है । यह वत्तिसंक्षय नामक योग कैवल्य-केवल-ज्ञान-की प्राप्ति के समय और निर्वाणप्राप्ति के समय साधक को उपलब्ध होता है । __यद्यपि वृत्ति निरोध अन्य ध्यानादि योगों में भी होता है, परन्तु सम्पूर्ण वृत्तियों का सर्वथा निरोध तो इसी योग में संभव है । इसमें इतना विवेक है किसयोगकेवलि-अवस्था में तेरहवे गुणस्थान में तो विकल्परूप वृत्तियों का समूल नाश होता है और चौदहवें गुणस्थान में-अयोगकेवलि-दशा में-अवशेष रही हुई चेष्टारूप वृत्तियां भी समूल नष्ट हो जाती हैं। अतः विकल्परूप वृत्तियों के सर्वथा निरोध से प्राप्त होने वाला वृत्तिसंक्षययोग, आत्मा की कैवल्य-प्राप्ति का फलरूप सर्वज्ञत्व, सर्वशित्व और जीवनमुक्त दशा का बोधक है। तथा अवशिष्ट चेष्टारूप वत्तियों के समूलघात से उत्पन्न होने वाला वृत्तिसंक्षय, उसकी-आत्मा कीनिर्वाण-प्राप्तिरूप है जिसे अन्य परिभाषा में विदेहमुक्ति कहते हैं। इस प्रकार वत्तिसंक्षययोग के-१. कैवल्य-प्राप्ति, २ शैलेशीकरण' और ३ मोक्षलाभ, ये तीन मल हैं, जिनमें मानव-जीवन के आध्यात्मिक विकास की पूर्णता पूर्णरूप से निष्पन्न होती है । तथा प्रथम के चार योगों में आध्यात्मिक उत्क्रान्ति उत्तरोत्तर अधिकाधिक होती चली जाती है परन्तु उसकी पराकाष्ठा तो इस वृत्तिसंक्षय नामक पाँचवें योग में ही उपलब्ध होती है । इस प्रकार आचार्य हरिभद्रसूरि ने मोक्ष-प्रापक (मोक्ष की प्राप्ति कराने वाला) धर्मव्यापार को योग का लक्षण मानकर उसके पूर्वोक्त पाँच भेद बतलाये हैं और उसका पूर्व सेवा से आरम्भ करके वृत्तिसंक्षय में पर्यवसान किया है। सारांश कि पूर्व सेवा से अध्यात्म, अध्यात्म से भावना, भावना से ध्यान और समता, एवं ध्यान और समता से वृत्तिसंक्षय और वृत्तिसंक्षय से मोक्ष की प्राप्ति कही; . (ख) 'विकल्पस्पन्दरूपाणां, वृत्तीनामन्यजन्मनाम् । ___अपुनर्भावतो रोधः, प्रोच्यते वृत्तिसंक्षयः' । (योगभेद द्वा. २५ उ. यशोविजयजी) १. योगों-मन, वचन, काया के व्यापारों-के निरोध से मेरु के समान प्राप्त होने वाली पूर्ण स्थिरता का नाम शैलेशीकरण है (शैलेशो मेरुस्तस्येव स्थिरता सम्पाद्यावस्था सा शैलेशी' औपपातिक सू० सिद्धाधिकार पृष्ठ-११३ अभयदेवसूरिः)। २. 'मुक्खेण जोयणाओ जोगो सम्वो वि धम्मवावारो' (मोक्षण योजनाद् योगः सर्वोऽपि धर्मव्यापार:) । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१ ) अतः वृत्तिसंक्षय ही मुख्य योग है और पूर्व सेवा से लेकर समता पर्यन्त के सभी धर्मव्यापार साक्षात् किंवा परम्परा से योग के उपायभूत होने से योग कहलाते हैं। तब इसका फलितार्थ यह हुआ कि जैन-संकेत के अनुसार वृत्तिसंक्षय और पातञ्जल दर्शन के सिद्धान्तानुसार असंप्रज्ञात ही मुख्य योग है। कारण कि इसी को हीवृत्तिसंक्षय किंवा असंप्रज्ञात को ही-मोक्ष के प्रति साक्षात्-अव्यवहित-कारणता प्रमाणित होती है। इसलिये साक्षात् मोक्षसाधक धर्मव्यापार इस जैनयोग लक्षण से किंवा 'चित्तवृत्तिनिरोध' रूप पातञ्जल योग लक्षण से लक्षित होने वाला वास्तविक योग वृत्तिसंक्षय या असंप्रज्ञात ही है । इसी योग में आध्यात्मिक विकास को पराकाष्ठा प्राप्त होती है। परन्तु इस अवस्था तक पहुंचने के लिये साधक को प्रथम और कई प्रकार के साधनों का अनुष्ठान करना पड़ता है । ये साधन भी मुख्य योग के साधक होने से योग नाम से अभिहित किये जाते हैं । प्रकृत में ये पूर्वोक्त अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता, ये चार हैं। महर्षि पतञ्जलि के योगलक्षण का अन्तर्भाव प्रथम जो यह कहा गया है कि आचार्य हरिभद्रसूरि ने योग के इन अध्यात्मादि पाँच भेदों में ही महर्षि पतञ्जलि के संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात योग को अन्तभुक्त करा दिया है, उसका सारांश इस प्रकार है: अध्यात्म, भावना, ध्यान और समता, इन चार योगों में तो संप्रज्ञात नामक योग का अन्तर्भाव होता है और वृत्तिसंक्षय नाम के पांचवें योगभेद में असंप्रज्ञात-योग का समावेश होता है । तात्पर्य कि संप्रज्ञात ध्यान और समता रूप' है तथा असंप्रज्ञात वृत्तिसंक्षयरूप है । संप्रज्ञात-समाधि में राजस तामस वृत्तियों का सर्वथा निरोध होकर केवल सत्त्वप्रधान प्रज्ञाप्रकर्षरूप वृत्ति का उदय होता है और असंप्रज्ञात-समाधि में सम्पूर्ण वृत्तियों का क्षय होकर शुद्ध समाधि से आत्मस्वरूप का अनुभव होता है । जैन संकेतानुसार यह असंप्रज्ञात समाधि दो प्रकार की है--सयोग केवलिकालभावी और अयोगकेवलिकालभावी। इनमें प्रथम तो विकल्प और ज्ञान रूप मनोवृत्तियों और उनके कारणभूत ज्ञानावरणादि कर्मों के निरोध-क्षय-से उत्पन्न होती है और दूसरी सम्पूर्ण शारीरिक चेष्टारूप वृत्तियों और उनके कारणभूत औदारिकादि शरीरों के क्षय से प्राप्त होती है । पहली में कैवल्य और दूसरी में निर्वाणपद की प्राप्ति होती है । इस प्रकार पतञ्जलि के संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात का उक्त अध्यात्मादि योगपञ्चक में अन्तर्भाव निष्पन्न हो जाता है। १. 'संप्रज्ञातोऽवतरति ध्यानभेदेऽत्र तत्त्वतः' । (१५, योगावतार द्वा०) २ 'असंप्रज्ञातनामा तु संमतो वृत्तिसंक्षयः । (२१ यो० द्वा.) ३. 'इह च द्विधाऽसंप्रज्ञातसमाधिः, सयोगकेवलिकालभावी अयोगकेवलिकालभावी च । तत्राद्यो मनोवृत्तीनां विकल्पज्ञानरूपाणां तद्बीजस्य ज्ञानावरणाद्युदयरूपस्य Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) इसके अतिरिक्त उपाध्याय यशोविजयजी ने तो अकेले वृत्ति संक्षययोग में ही इन दोनों संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात योगों का अन्तर्भाव कर दिया है। उनके विचारानुसार आत्मा की जो स्थूल-सूक्ष्म चेष्टाएँ हैं वे ही वृत्तियाँ हैं और उनका कारण कर्म-संयोग की योग्यता है, अतः आत्मा की स्थूल-सूक्ष्म चेष्टाएँ और उनके हेतुभूत कर्म-संयोग की योग्यता के अपगम अर्थात् ह्रास-क्रमशः हानि-को वृत्तिसंक्षय कहते हैं । यह वृत्तिसंक्षय ग्रन्थिभेद से आरम्भ होकर अयोगकेवली नाम के चौदहवें गुणस्थान में सम्पूर्ण होता है । इसमें आठवें (अप्रमत्त) से बारहवें (क्षीणमोह) गुणस्थान तक में प्राप्त होने वाले शुक्लध्यान के प्रथम के दो भेदों-पृथक्त्ववितर्क-सविचार तथा एकत्ववितर्क अविचार में संप्रज्ञात-योग का अन्तर्भाव हो जाता है। कारण कि -~-संप्रज्ञातयोग, निवितर्कविचारानन्दास्मिता निर्भासरूप ही है, अतः वह पर्यायरहित शुद्धद्रव्यविषयक शुक्लध्यान में अर्थात् एकत्ववितर्काविचार में अन्तभुक्त हो जाता है। और असंप्रज्ञात-योग केवलज्ञान की प्राप्ति से लेकर निर्वाण-प्राप्ति तक में आ जाता है । अर्थात् तेरहवें (सयोगी) और चौदहवें (अयोगी) गुणस्थान में असंप्रज्ञात-योग का अन्तर्भाव हो जाता है । इन दोनों गुणस्थानों में ज्ञानावरणादि चारों घाति-कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाने से उत्पन्न कैवल्य-केवलज्ञानदशा--में कर्म-संयोग की योग्यता है और उससे उत्पन्न होने वाली चेष्टारूप वृत्तियों का समूल नाश हो जाता है। यही सर्ववृत्तिनिरोधरूप असंप्रज्ञात-योग है । एवं उसको जो संस्कारशेष कहा गया है वह भवोपग्राही कर्म के सम्बन्धमात्र की अपेक्षा से समझना चाहिये । सारांश कि तेरहवें गुणस्थान में भवोपग्राही अर्थात् अघाती कर्म का सम्बन्धमात्र शेष रह जाता है । यही संस्कार है । उसी की अपेक्षा से असंप्रज्ञात-योग को संस्कारशेष कहा है, निरोधादुत्पद्यते । द्वितीयस्तु सकलाशेषकायादिवृतीनां तद्बीजानामौदारिकादिशरीररूपाणामत्यन्तोच्छेदात् सम्पद्यते' । (यो. वि. व्या. श्लोक. ४३१) १. द्विविधोऽप्ययमध्यात्मभावना-ध्यान-समता-वृत्तिक्षयभेदेन पञ्चधोक्तस्य योगस्य पञ्चभेदेऽवतरति । वृत्तिक्षयो हि आत्मनः कर्मसंयोगयोग्यतापगमः, स्थूल सूक्ष्मा ह्यात्मनश्चेष्टावृत्तयः तासां मूलहेतुः कर्मसंयोगयोग्यता, सा चाकरणनियमेन ग्रन्थिभेदे उत्कृष्टमोहनीयबन्धव्यवच्छेदेन तत्तद्गुणस्थाने तत्तत्प्रकृत्यात्यानीकबन्धव्यवच्छेदस्य हेतुना क्रमशोः निवर्तते । तत्र पृथक्त्ववितर्कसविचारैकत्ववितर्काविचाराख्यशुक्लध्यानभेदद्वये संप्रज्ञातः समाधिः वृत्त्यर्थानां सम्यग् ज्ञानात् "निर्वितर्क विचारानन्दास्मितानिर्भासस्तु पर्यायविनिमुक्तः शुद्ध दव्यध्यानाभिप्रायेन व्याख्येयः । "क्षपकणिपरिसमाप्तो केवलज्ञानलाभस्त्वसंप्रज्ञातः समाधिः, भावमनोवृत्तीनां ग्राह्य ग्रहणाकारशालिनीनामवग्रहादिक्रमेण तत्र सम्यक परज्ञानाभावात् । अत एव भावमनसा संज्ञाभावात् द्रव्यमनसां च तत्सद्भावात् केवली नोसंज्ञीत्युच्यते । संस्कारशेषत्वं चात्र भवोपग्राहिकर्मांशरूपसंस्कारापेक्षया व्याख्येयम् । मतिज्ञानभेदस्य संस्कारस्य तदा मूलत एव विनाशात् । इत्यस्मन्मत निष्कर्ष इति दिक्' । (पातञ्ज. यो. सू. वृत्ति १।१८) २. 'विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः' (यो. १/१८) अर्थात् सर्ववृत्ति Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समझना चाहिये । क्योंकि इस अवस्था में मतिज्ञान के भेदरूप संस्कार का मूल नाश हो जाता है अर्थात् वहाँ वृत्तिरूप भाव मन नहीं रहता । अथवा यों कहो कि वलज्ञान किंवा असंप्रज्ञात-समाधि के उपलब्ध होने पर वृत्तिरूप भाव मन की आवसकता ही नहीं रहती, मन के द्वारा विचार तो केवल मति और श्रत ज्ञान में ही या जाता है। बाकी के तीन–अवधि, मनःपर्यव और केवल-ज्ञानों में उसकी-मन पी. आवश्यकता ही नहीं रहती। इन तीन ज्ञानों में तो आत्मा को स्वयमेव ही-मन की सहायता के बिना-वस्तुतत्व के स्वरूप का यथार्थ भान होने लगता है और पौदहवें-अयोग-केलिगुणस्थान में मन, वचन, काया के स्थूल-सूक्ष्म समस्त योगोंयापारों के निरुद्ध हो जाने पर शैलेशीभाव से निर्वाणपद की प्राप्ति होती है। ही सर्ववृत्तिनिरोधरूप असंप्रज्ञात-समाधि की प्राप्ति के अनन्तर पतञ्जलिप्रोक्त रुषार्थशून्य गुणों का प्रतिप्रसव किंवा स्वरूपप्रतिष्ठारूप कैवल्य-मोक्ष-है। इस प्रकार वृत्तिसंक्षय की इस व्यापक व्याख्या में योग के समस्त प्रकारों को मन्वित किया गया है । वास्तव में विचार किया जाय तो महर्षि पतञ्जलि के चित्तवत्तिनिरोधरूप और हरिभद्रसूरि के वृत्तिसंक्षयरूप योगलक्षण में केवल वर्णन और संकेत शैली की बभिन्नता के अतिरिक्त तात्त्विक भेद कुछ भी नहीं है। उक्त योगपञ्चक का आगमसम्मत संवरपञ्चक में अन्तर्भाव तथा अध्यात्म से कर वत्तिसंक्षयपर्यन्त योग के उक्त पाँच भेदों का समवायांग सूत्र में बतलाये गये वर के १. सम्यक्त्व', २. विरति, ३. अप्रमत्तता, ४. अकषायता, और ५. अयोगित्व, न पाँचों भेदों में ही अन्तर्भाव हो जाता है । यथा-सम्यक्त्व और विरति में ध्यात्म और भावना का, अप्रमत्त और अकषाय भाव में ध्यान और समता का एवं योगित्व में वृत्तिसंक्षय का समावेश हो जाता है। इसलिये यह आगमसम्मत योग ही विशिष्ट स्वरूप है। समितिगुप्तिस्वरूप-विचारणा जैसे कि प्रथम भी कहा गया है—योग के स्वरूप के योग-निर्णय में मन की मिति और गुप्ति को सब से अधिक विशेषता प्राप्त है । उत्तके-योग के-चित्तवृत्तिरोध-लक्षण में जो अड़चन प्राप्त होती है उसका निराकरण भी समिति-गुप्ति के थार्थ स्वरूप को समझ लेने पर ही हो सकता है । समिति-मनःसमिति में मन की रोध के कारण परवैराग्य के अभ्यास से संस्कार शेषरूप चित्त की स्थिरता का नाम सिंप्रज्ञात-योग है-तात्पर्य कि असंप्रज्ञात-समाधि में निरुद्धचित्त की समस्त वृत्तियों का य हो जाने से संस्कार शेष रह जाता है। 'सर्ववृत्तिप्रत्यस्तसमये संस्कारशेषो रोधश्चित्तस्य समाधिरसंप्रज्ञातः ।' (व्यासभाष्य) १. 'पंच संवरदारा पण्णत्ता तंजहा–सम्मत्तं, विरई, अप्पमाया, अकसाया, योगया।' (५ समवाय, सूत्र १०) Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) शुभ-प्रवृत्तिप्रधान है और गुप्ति-मनोगुप्ति में मन की एकाग्रता और निरोध मुख्य है । इस प्रकार मन के विषय में समिति-गुप्ति द्वारा सत्प्रवृत्ति, एकाग्रता और निरोध, ये तीन विभाग प्राप्त होते हैं। इनमें अध्यात्म और भावनारूप प्रथम के दो योगों में तो सत्प्रवृत्तिरूप मनःसमिति का प्राधान्य रहता है और ध्यान तथा समता योग में एकाग्रतारूप मनोगुप्ति की मुख्यता है। एवं वृत्तिसंक्षय नाम के पांचवें योग में सम्यकनिरोधरूप मनोगुप्ति प्राप्त होती है । इस अवस्था में निरोधरूप गुप्ति को निम्नलिखित तीन भाव प्राप्त होते हैं : १. कल्पनाजाल से विमुक्त; २. समभाव में सुप्रतिष्ठित, और ३. स्वरूप में प्रतिबद्ध होना । मनोगुप्ति के ये तीनों ही भाव सयोग-केवली और अयोग-केवली नाम के तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में चरितार्थ होते हैं। इसी प्रकार योगारम्भ में सत्प्रवृत्तिरूप मनः समिति और संप्रज्ञात में एकाग्रता और असंप्रज्ञात में निरोधरूप मनोगुप्ति प्राप्त होती है । एवं निरोधरूप संस्कारशेष असंप्रज्ञात में कल्पना-जाल से निवत्ति और समभाव में प्रतिष्ठा प्राप्त होती है और गुणप्रतिप्रसव अथवा स्वरूपप्रतिष्ठारूप कैवल्य-मोक्ष-दशा में उसे मनोगुप्ति के निरोधलक्षण परिणाम का स्वरूप प्रतिबद्धता का लाभ होता है । अतः योग के स्वरूपनिर्णय में समिति और गुप्ति को सब से अधिक वैशिष्ट्य प्राप्त है । और वास्तव में देखा जाय तो समिति-गुप्ति यह योग का ही दूसरा नाम है । इसके स्वरूप में योग के सभी प्रकार के लक्षण समन्वित हो जाते हैं। योग का अधिकार इस प्रकार योग का विवेचन करने के अनन्तर अब उसके अधिकारी के विषय में भी कुछ विचार कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है। श्रद्धा-योगविषयक अधिकार प्राप्त करने वाले साधक में सब से प्रथम श्रद्धा का होना परम आवश्यक है । योगमार्ग के पथिक के लिये श्रद्धा से बढ़कर और कोई उत्तम पाथेय नहीं है। श्रद्धा, यह सारे सद्गुणों की जननी है। इसका आश्रय लेने वाले साधक में चित्तप्रसाद, वीर्य, उत्साह, स्मृति, एकाग्रता, समाधि और १. 'प्रवृत्तिस्थिरताभ्यां हि मनोगुप्तिद्वये किल । भेदाश्चत्वारो दृश्यन्ते तत्रान्त्यायां तथान्तिमः' ।। (२८ यो० भे० द्वा०) उपाध्याय यशोविजयजी ने मनोगुप्ति के ही शुभप्रवृत्ति और एकाग्रता ये दो विभाग करके अध्यात्म और भावना में शुभप्रवृत्तिरूप ध्यान और समतायोग में एकाग्रतारूप मनोगुप्ति मानकर वृत्ति संक्षय में उसका-मन का-सर्वथा निरोध स्वीकार किया है परन्तु इसकी अपेक्षा मन का आगमसम्मत समिति-गुप्ति द्वारा उक्त विभाग अधिक संगत प्रतीत होता है। २. 'विमुक्तकल्पनाजालं समत्वे सुप्रतिष्ठितम् । आत्मारामं मनश्चेति मनोगुप्तिस्त्रिधोदिता' ॥ (३० यो. भे. द्वा.) Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञाप्रकर्षादि साधन, उत्तरोत्तर अपने आप ही प्राप्त होते चले जाते हैं। माता के समान कल्याण करने वाली यह श्रद्धा साधक की रक्षा पुत्र की तरह करती है ( 'सा हि जननीव कल्याणी योगिनं पाति' व्या० भा० १-२० )। 'अन्तःकरण में विवेकपूर्वक वस्तुतत्त्व, ज्ञयपदार्थ के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करने की जो अभिरुचि-तीव्र अभिलाषा----उसका नाम श्रद्धा है । जैन-परिभाषा में इसको सम्यग्दृष्टि किंवा सम्यग्दर्शन के नाम से सम्बोधित किया गया है' ('तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यक् - दर्शनम्'-तत्वार्थ० ११२) इस सम्यग्दृष्टिरूप श्रद्धागुण की प्राप्ति, किसी साधक को तो स्वतः अर्थात् जन्मान्तरीय उत्तम संस्कारों के प्रभाव से अपने आप ही हो जाती है और किसी को सत्-शास्त्रों के अभ्यास अथवा योग्य गुरुजनों या उत्तम पुरुषों के सहवास से होती है। अस्तु, साधक की आत्मा में सत्यदृष्टि के उदय होते ही शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य, ये पांच सद्गुण' उसमें अपने आप ही आ उपस्थित होते हैं। तात्पर्य कि ये पाँचों, शुद्ध श्रद्धा किंवा सम्यग्दर्शन के परिचायक हैं । जहाँ पर ये होंगे वहाँ पर सम्यग्दर्शन अवश्य होगा अर्थात् साधक के हृदय की शुद्ध श्रद्धा को परखने के लिए ये पांचों सद्गुण कसौटी का काम देते हैं । जहाँ पर ये नहीं, वहाँ पर श्रद्धा नहीं किन्तु श्रद्धाभास है, सम्यग्दर्शन नहीं अपितु उसका ढोंग है । (१) सम-उदय हुए क्रोध, मान, माया आदि तीव्र कषायों का त्याग शम कहलाता है। (२) संवेग-मोक्ष विषयक तीव्र अभिलाषा का नाम संवेग है । (३) निर्वेद-सांसारिक विषय-भोगों में विरक्ति अर्थात् उनको हेय समझकर उनमें अनादरवृत्ति रखना निर्वेद है । (४) अनुकम्पा-दुःखी जीवों पर दया करना अर्थात् किसी प्रकार का स्वार्थ न रखते हुए दुःखी प्राणियों के दुःख को दूर करने की इच्छा और तदनुकूल प्रयत्न करने को अनुकम्पा कहते हैं ।। (५) आस्तिक्य-सर्वज्ञ-कथित पदार्थों में शंकारहित होना अर्थात् पूर्ण विश्वाश करना आस्तिक्य है। इन पाँच कारणों से आत्मगत सम्यक्त्व की पहचान होती है अर्थात् उसके अस्तित्व का बोध होता है । नोट-आगमों में स्पष्ट लिखा है कि संशयात्मा को समाधि की प्राप्ति नहीं १. 'कृपाप्रशमसंवेगनिर्वेदास्तिक्यलक्षणाः । ___गुणा भवन्तु यच्चित्त स स्यात् सम्यक्त्वभूषितः' । (गुणस्थान क्रमारोह श्लोक २१) २. 'श्रीसर्वज्ञप्रणीतसमस्तभावानामस्तित्वनिश्चयचिन्तनमास्तिक्यम् ।। (गुणस्थान क्रमारोह श्लोक २१ की वृत्ति) Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) होती। यथा-'वितिगिंछ समावण्णण अप्पाणणं णो लभति समाधि' (आचारांग अ० ५, उ० ५)-(छा.) विचिकित्सां समापन्न नाऽऽत्मना नो लभ्यते समाधिः )। त्याग-श्रद्धा के अतिरिक्त दूसरा गुण त्याग है। योग-मार्ग में प्रयाण करने वाले साधक में श्रद्धा की भांति त्याग-वृत्ति का होना भी परम आवश्यक है । जब तक हृदय में त्याग-वृत्ति की भावना जागृत नहीं होती तब तक योग में अधिकार प्राप्त होना दुर्घट है। त्याग-वृत्ति में एषणाओं का त्याग ही प्रधान' है । लोकेषणा, पुत्रषणा और धनादि की एषणा, ये तीनों ही एषणाएँ-इच्छाएँ योग-प्राप्ति में-- जीवन के आध्यात्मिक विकास में प्रतिबन्धक-विघ्नरूप-हैं। इससे योगविघातक विषय-कषायों को अधिक पोषण मिलता है । अतः योग के अधिकारी को इन एषणाओं का परित्याग अवश्य कर देना चाहिए । इनके परित्याग से सांसारिक विषयभोगों के उपभोग की लालसा के क्षीण हो जाने पर साधक को योगविषयक अधिकार स्वयमेव प्राप्त हो जाता है। ___ भावशुद्धि-योग-प्राप्ति का सब से अधिक आवश्यक उपाय भावशुद्धि है । इसके बिना साधक की कोई भी योगक्रिया सम्पन्न और फलप्रद नहीं हो सकती। क्रिया और भाव का शरीर और आत्मा जैसा सम्बन्ध है। क्रिया शरीर और भाव आत्मा है । आत्मा के बिना शरीर जैसे चेष्टाशून्य होकर किसी काम का नहीं रहता है, उसी प्रकार भावशून्य क्रिया भी निरर्थक अथच इच्छित फल को देने वाली नहीं हो सकती है । अन्तरंग आशय का ही दूसरा नाम भाव है। उसकी निर्मलता ही भावशुद्धि है। शुभ मध्यवसाय भी इसी का नामान्तर है । __ इस प्रकार शुद्ध श्रद्धा, त्यागवृत्ति, और भावशुद्धि, इन सद्गुणों के उपार्जन से साधक-जीव को योगाधिकार सम्प्राप्त होता है । अर्थात् वह योगसाधन का अधिकारी बन जाता है। योगप्राप्ति अथवा आध्यात्मिक विकास का आरंभ काल अविद्या या मोह के प्रभाव से जन्म-मरण की परम्परारूप संसार चक्र में घटिका-यन्त्र की भांति भ्रमण करते हुए इस जीवात्मा को कल्पनातीत समय व्यतीत हो चुका है जो कि शास्त्रीय परिभाषा में अनादि शब्द से व्यक्त किया गया है। इस कर्मसंयोगजन्य अनादिप्रवाहपतित आत्मा पर से सौभाग्यवश जब अविद्या अथवा मोह का प्रभाव कम होना आरम्भ होता है तभी से योगप्राप्ति अथवा आध्यात्मिक विकास के आरम्भ का बीजारोपण हो जाता है। और वह चरम-अन्तिम-पुद्गलपरावर्त जितना समय शेष रहने पर होता है । इससे प्रथम समय-(जिसमें यह आत्मा सदा अविकसित अवस्था में ही रहती है) अचरमपुद्गल-परावर्त कहलाता है। इसका तात्पर्य यह है कि आत्मा की इस जन्म-मरण-परम्परा के समाप्त होने में जब १. 'णो लोगस्से सणं चरे' -(आचा. अ० ४, उ. १, सू. २२६) । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७ ) अन्तिम पुद्गलपरावर्त जितना समय बाकी रह जाता है तब उसमें योगप्राप्ति या आध्यात्मिक विकास के क्रम का आरम्भ होता है । जो क्रमशः उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होता हुआ परिपूर्णता को प्राप्त होता है । यही योग-प्राप्ति का आरम्भिक काल है । योग-प्राप्ति की इस आरम्भिक दशा में ही आत्मा के ज्ञानादि स्वाभाविक गुणों में विकासोन्मुखता का प्रारम्भ हो जाता है जिसके कारण मोह से प्रभावित होने के स्थान में वह उसके ऊपर अपना प्रभाव जमाना आरम्भ कर देती है । अतएव उसकी प्रत्येक प्रवृत्ति प्राशस्त्य और ऊपर दर्शाये गये योगाधिकारी के गुणों से ओतप्रोत होती है । योगनिष्णात गुरु की आवश्यकता अब योग के विषय में सब से अधिक महत्त्वपूर्ण और विचारणीय जो बात है। उसकी ओर भी पाठकों का ध्यान आकर्षित किया जाता है । वह है सद्गुरु की प्राप्ति । यों तो व्यावहारिक और पारमार्थिक प्रत्येक विषय का यथार्थानुभव प्राप्त करने के लिये योग्य अनुभवी गुरु की आवश्यकता रहती ही है, परन्तु योग के विषय में तो योगनिष्णात गुरु की असाधारणरूप में आवश्यकता है । कारण कि योग साधना का विषय व्यावहारिक अनुभवरूप है जो मार्गदर्शक योगनिष्णात गुरुजनों के साहचर्य के बिना कथमपि उपलब्ध नहीं हो सकता । योग और उसके अंगों में प्राप्त होने वाले आसन, प्राणायाम, ध्यान और समाधि के व्यावहारिक स्वरूप का अनुभव तब तक हो सकता जब तक कि गुरु उसके तत्त्व का व्यावहारिक प्रयोगात्मक शिक्षण न दे के । इसके अतिरिक्त सद्गुरु के बिना किये जाने वाले योगानुष्ठान में लाभ की पेक्षा हानि की अधिक संभावना रहती है । आसन और मुद्रा का ज्ञान तो असागणरूप से गुरुजनों के व्यावहारिक शिक्षण की अपेक्षा रखता है । इसलिये योग की यासी आत्मा को योग निष्णात गुरुजनों का साहचर्यं सब से अधिक उपादेय है । उपसंहार योग - विषय में प्रवेश करने के लिये जिन उपयोगी विषयों का प्रथम ज्ञान होना आवश्यक है उनका यह संक्षिप्त वर्णन उपोद्घात के नाम से पाठकों के समक्ष उपस्थित कर दिया है । इस विषय में इतना और स्मरण रखना चाहिये कि समाहित प्रर्थात् एकाग्रचित्त वाले साधक को तो समाधियोग-ध्यानयोग ही अनुष्ठेय है और युत्थानचित्त-विक्षिप्तचित्त को प्रथम चित्त के मलविक्षेप को दूर करने के लिये क्रियायोग का अनुष्ठान करना पड़ता है । अतः समाधि और क्रियारूप से लक्षित होने वाले वध योग में समाहित और विक्षिप्त दोनों प्रकार के साधकों को मर्यादित अधिकार प्राप्त है । आशा है कि योगविषयक सक्षेपरूप से किये गये इस उपोद्घात से योग-विषय प्रवेश करने के लिये पाठकों को कुछ न कुछ सुविधा अवश्य प्राप्त होगी । - उपाध्याय जैनमुनि आत्माराम Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनन्दनम् मानव विश्व के जीव-जगत् का सर्वोत्तम प्राणी है। भारत के पुरातन धर्मशास्त्रों की दृष्टि में वह स्वर्ग के दैवी जीवन से भी महत्तर है । देव भी स्वर्गानन्तर मानव होने की आकांक्षा रखते हैं । ___ मानव बाहर में दृश्यमान केवल एक मृत्पिण्ड नहीं है। वह अनन्त चिच्छक्ति का स्रोत है । आध्यात्मिक, मानसिक तथा शारीरिक आदि अनेकानेक दिव्य सिद्धियों का अमृत निर्झर है वह । प्रश्न है-"यदि वस्तुतः सचमुच में मानव ऐसा ही है, तो फिर वह आज क्यों विपन्न स्थिति में से गुजर रहा है ? क्यों वह श्रीहीन, दीन एवं हीन हो रहा है ? आज कहां लुप्त हो गया है उसका वह देवाऽभिलषित देवाधिदेवत्व ? आज तो वह अमृतनिर्झर नहीं, विष निर्झर ही हो रहा है ।" । आज के मानव की दिव्य चेतना सर्वाधिक क्षोभ एवं आक्रोश में, भय एवं प्रलोभन में जी रही है। एक-से-एक नये प्रलयंकर शस्त्रों की होड़ लगी है, विज्ञान की नित नयी विनाशक आसुरी उपलब्धियों की खोज हो रही है । राजनैतिक दांवपेच, छल-प्रपंच, अराजकता एवं अव्यवस्था आदि से सामाजिक जीवन सब ओर चौपट हो रहा है। जाति, कुल, वंश, देश, प्रान्त, धर्म एवं अन्य विभेदों एवं श्रद्र स्वार्थों के रूप में आये दिन होने वाले वैर, विद्वष, घृणा, तिरस्कार, हत्या, चोरी, डकैती, भ्रष्टाचार, मुक्त कामुकता, बलात्कार आदि आसुरी-राक्षसीवृत्ति के सिवा आज के मानव के पास क्या बचा है देवत्व एवं मनुष्यत्व जैसा कल्याणम्-मंगलम् । आज मानव को न दिन में अमन-चैन है, न रात में । न घर में सुख-शान्ति है, न बाहर में । लगता है, एक दावानल जल रहा हैं और मानव जाति उसमें झुलसती जा रही है । सब ओर तनाव है, दबाव है। मन-मस्तिष्क नानाविध कुण्ठाओं से आक्रान्त है । उक्त सभी द्वन्द्वों एवं समस्याओं का एक ही समाधान है कि मानव अपने स्वरूप को भूल गया है, अतः उसे पुनः अपने मूल स्वरूप की स्मृति होनी चाहिए । मैं कौन हूँ और वह कौन है, जड़-चेतन से सम्बन्धित ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जिन के यथार्थ उत्तर में ही मनुष्य की महत्ता का समाधान है । अपने अन्तर् के सोये हुए देवत्व को जगाये बिना अन्य कोई गति नहीं है। मानवीय मूल्यों का जिस तीव्र गति से ह्रास हो रहा है, उसे यदि रोकना है और दृढ़ स्तर पर उनको पुनः प्रतिष्ठापित करना है, तो भौतिक वासनाओं एवं आकांक्षाओं के सघन तमस् से चेतना को मुक्त करना होगा। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) पुरातन अतीत में भी यथाप्रसंग इस दिशा में प्रयत्न होते रहे हैं । धर्म परम्पराओं ने कभी बहुत अच्छे निर्देशन दिये थे, मानव को मानव के रूप में मानवता के सत्पथ पर गतिशील होने के लिए । पर- लोक से सम्बन्धित नरक-स्वर्ग आदि के उत्तेजक एवं प्रेरणाप्रद उपदेश, व्रत, नियम, तप, पर्वाराधन आदि के ऐसे अनेक धार्मिक क्रियाकाण्ड रहे हैं, जिन्होंने मानव जाति को पापाचार से बचाया और स्वपरमंगल के कर्म पथ पर चलने के लिए प्रेरित किया है । किन्तु विगत कुछ दशाब्दियों में विज्ञानप्रधान युग परिवर्तन से मानव के चिन्तन में ऐसा कुछ मोड़ आया है कि वे पुराने धार्मिक क्रियाकलाप आज की मानसिक रुग्णता के निराकरण में कारगर उपाय साबित नहीं हो रहे हैं। आज का मानव परलोक से हटकर इहलोक में ही प्रत्यक्षतया कुछ मनोऽभिलषित भव्य एवं शुभ पा लेना चाहता है । यही कारण है कि आज प्रायः सब ओर योग का स्वर मुखरित हो रहा है । देश में ही नहीं, सुदूर विदेशों तक में योग के अनेक केन्द्र स्थापित हो रहे हैं, जहाँ योगासन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान और समाधि के प्रयोग किये जा रहे हैं। योग की प्राक्तन शास्त्रीय विधाओं के साथ अनेक नई विधाएं भी प्रचार पा रही हैं । योग, जैसा कि कुछ माधारण लोग समझते हैं, साधना के क्षेत्र में प्रस्तुत युग की कोई नई विधा नहीं है । योग भारतीय साधना में अन्यत्र कहीं का नवागत अतिथि नहीं; चिर पुरातन है । पुरातन युग में तप, जप, व्रत नियमादि के साथ योग भी सहयोगी रहता था। हर साधना को विकल्पमुक्त एवं अन्तर्निष्ठ करने के लिए एकाग्रता के प्रति गुरु का उद्बोधन निरन्तर चालू रहता था, फलतः साधक जल्दी ही अभीष्ट की भूमिका पर पहुँच जाता था । परन्तु मध्ययुग आते-आते साधक व्रत, नियम, तप, जप आदि बाहर के प्रदर्शनप्रधान स्थूल क्रियाकाण्डों में ही उलझकर रह गये । चिन्तन की सूक्ष्मता के अभाव में योग से सम्बन्धित साधना की सूक्ष्मता तिरोहित होती गई । साधक का मन साम्प्रदायिक बन गया और उसके फलस्वरूप कुछ बंध-बंधाये साम्प्रदायिक क्रियाकाण्डों की पूर्ति में ही वह सन्तुष्ट होकर बैठ गया । अतः आज के युग में योग साधना का कोई नया प्रयोग नहीं है अपितु विस्मृत हुए योग का पुनर्जागरण है । अनास्था के इस भयंकर दौर में अस्था की पुनः प्रतिष्ठा के लिए योग सर्वात्मना द्वन्द्वमुक्त एक सात्विक साधन है । योग अन्तरात्मा में परमात्मभाव को तो जगाता ही है, राग-द्वेषादि विकल्पों के कुहासे से आवृत चेतना को तो निरावरण करता ही है, साथ ही मानव के वैयक्तिक, सामाजिक दायित्वों को भी परिष्कृत करता है । चित्त का बेतुका दिशाहीन बिखराव ही समग्र द्वन्द्वों का मूल है । यह बिखराव व्यक्ति को किसी एक विचार, निर्णय एवं कर्म के केन्द्र पर स्थिर नहीं होने देता । मानव मन की स्थिति हवा में दिशाहीन इधर-उधर उड़ती रहने वाली कटी हुई पतंग के समान हो जाती है । अतः इसी सन्दर्भ में अनु Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५. ) त्तरयोगी वीतराग भगवान महावीर ने कहा था-'अणेग चित्त खलु अयं पुरिसे'-यह मनुष्य अनेकचित्त है, उसे एकचित्त होना चाहिए। यह एकचित्तता योग का ही सुपरिणाम है । योग साधना व्यक्ति को यथाप्रसंग शीघ्र एवं सही निर्णय पर पहुंचाती है । पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर सार्वजानिक निर्णयों के समय में भी प्रसन्नता के साथ अनेकों को एक दिशा देती है । मतभिन्नता में भी उद्विग्नता, खिन्नता एवं उत्त जना का उद्भव नहीं होने देती हैं, जिसके फलस्वरूप विग्रह, कलह, वैर तथा तज्जन्य हिंसा आदि की मानसिक विकृतियाँ परस्पर के पारिवारिक एवं सामाजिक सम्बन्धों को प्रदूषित नहीं कर पाती हैं । योग वस्तुतः व्यक्ति को देश एवं समाज का एक अच्छा विवेकशील सभ्य नागरिक बनाता है, साथ ही आध्यात्मिक दिशा में भी उसे विकास के उच्चतम शिखरों पर पहुंचाता है । प्रसन्नता है, महामहिम वाग्देवतावतार स्व० आचार्यदेव पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज की योग पर, एवं योग की युग-युगीन उपयोगिता एवं अपेक्षा पर, बहुत पहले ही सूक्ष्म दृष्टि पहुँच गई थी। योग के सन्दर्भ में उनकी महत्त्वपूर्ण सुकृति "जैनागमों में अष्टांग योग" मंगलमयी दृष्टि का सुफल है। स्व० आचार्यदेव केवल लेखन के ही शाब्दिक योगी नहीं थे, अपितु अन्तरात्मा की गहराई में उतरे हुए सहज स्वयंसिद्ध योगी थे । लम्बे समय तक ग्रामानुग्राम विहार एवं चातुर्मास आदि में आचार्यश्री के सर्वाधिक निकट सम्पर्क का सुयोग मुझे मिला है। मैंने देखा है उन्हें ध्यानमुद्रा में अन्तर्लीन समाधिभाव में । कितना स्वच्छ, निर्मल क्षीर सागरजैसा जीवन था उनका । उनका साधुत्व ऊपर से ओढ़ा हुआ साधुत्व नहीं था । वह था अन्तश्चेतना में समुद्भूत हुआ स्वतःसिद्ध साधुत्व । उनके मन, वाणी और कर्म सब पर योग की दिव्य ज्योति प्रज्वलित रहती थी। अतः योग के सम्बन्ध में आचार्यदेव की प्रस्तुत रचना शास्त्रीय आधारों पर तो है ही, साथ ही अनुभूति के आधार पर भी है । यही कारण है कि रचना केवल कागजों को ही स्पर्श करके न रह गई, अपितु उसने बिना किसी साम्प्रदायिक भेद-भावना के जन-जन के जिज्ञासु-मन को स्पर्श किया है । यही हेतु है कि प्रस्तुत रचना अपने परिवधित, परिष्कृत एक नवीन सुन्दर संस्करण के रूप में योग-जिज्ञासु जनता के समुत्सुक नयन एवं मन के समक्ष पुनः समुपस्थित है । ___ आचार्यश्री के ही अन्य अनेकों लेखों के विस्तृत चिन्तन के आधार पर ही प्रायः प्रस्तुत संस्करण परिवद्धित एवं परिष्कृत हुआ है । प्रस्तुत संस्करण के सम्पादन में आचार्यदेव के ही पौत्र शिष्य नवयुग सुधारक, जैन विभूषण, उपप्रवर्तक श्री भण्डारी पदमचन्द्रजी की प्रेरणा से उनके अपने ही यशस्वी शिष्यरत्न प्रवचनभूषण, श्रुतवारिधि श्री अमरमुनिजी का जो चिरस्मणीय महत्त्वपूर्ण योगदान है, तदर्थ मुनि श्री शत-शत साधुवादाह है । पूर्वज अग्रजनों का ऋण वैसे तो कभी मुक्त होता नहीं हैं; परन्तु जनमंगल के लिए उनकी दिव्य वाणी के प्रचार-प्रसार का यदि किसी भी Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंश में, कुछ भी प्रयत्न किया जाए, तो वह ऋण-मुक्ति नहीं तो ऋणमुक्ति के रूप में एक अनुकरणीय आदर्श श्रद्धांजलि तो अवश्य है ही। अतः मैं श्री अमरमुनिजी के यशस्वी भविष्य के लिए मंगलमूर्ति प्रभु महावीर के श्रीचरणों में अभ्यर्थना की प्रियमुद्रा में हूँ। साथ ही सम्पादन कला के मर्मज्ञ विश्र त मनीषी श्रीचन्दजी सुराना 'सरस' का योगदान भी प्रस्तुत संस्करण का स्पृहणीय अलंकरण है । अतः वे भी हृदय से धन्यवादाह हैं। पुस्तक तीन खण्डों में विभक्त है, और साथ में अन्य अनेक ज्ञानवर्धक परिशिष्ट भी हैं । एक प्रकार से जैन-जनेतर दोनों ही परम्पराओं के योग-सम्बन्धी चिन्तन का यह एक उप देय संकलन है । योग का स्वरूप, योग की पुरातन और नूतन प्रक्रियाएँ एवं विधाएँ, अन्तरंग तथा बहिरंग फलश्र तियाँ-प्रायः योग का सांगोपांग समग्र विवेचन इस एक ही पुस्तक में उपलब्ध है। इसीलिए मैं प्रस्तुत में योग-सम्बन्धी विधि-विधानों के विवेचन में अवतरित नहीं हुआ हूँ । जब पुस्तक में वह सब विवेच्य विषय उपलब्ध है, तब अलग से वही पिष्टपेषण करने से क्या लाभ है ? योग से सम्बन्धित जिज्ञासाओं की पूर्ति प्रस्तुत पुस्तक से सहज ही संभावित है । अतः मैं जिज्ञासु पाठकों को साग्रह निवेदन करूंगा कि वे आचार्यश्री की वाणी का लाभ उठाएँ, और जीवन को आध्यात्मिक एवं सामाजिक सभी पक्षों से परिष्कृत एवं माजित करें। देवत्व का अभाव नहीं है मानव में । अपेक्षा है केवल उस सुप्त देवत्व को जागृत करने की । और वह जागरण आचार्यश्री की प्रस्तुत महनीय कृति के अध्ययन, चिन्तन, मनन और तदनुरूप समाचरण से निश्चितरूपेण साध्य है। वीरायतन, राजगृह -उपाध्याय अमर मुनि १४ अगस्त १९८३ 00 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपूर्व भेट योग आत्म-साक्षात्कार की सर्वोत्तम विद्या है। जीवन को माँजने और संवारने की कला है। यह आधयात्मिक साधना का मेरुदण्ड है जिसके बिना भौतिक विज्ञान की प्रगति अधूरी है । भौतिक विज्ञान जिन प्रश्नों के सम्बन्धों में मौन है, योग उन सभी जटिल प्रश्नों का समाधान करता है। वह मानव को बहिमुखी से अन्तमुखी बनाता है, ममता के स्थान पर समता समुत्पन्न करता है, भोग के स्थान पर त्याग की भावना उबुद्ध करता है, वह आत्मा से परमात्मा, नर से नारायण बनाता है, अन्धकार से प्रकाश की ओर तथा असत् से सत् की ओर ले जाता हैं। योग स्वस्थ जीवन जीने की पद्धति है। वह तन और मन पर अनुशासन करता है जिससे शारीरिक और मानसिक तनाव नष्ट होते हैं और जीवन में सद्विचारों के सुगन्धित सुमन महकने लगते हैं । परम् आल्हाद का विष है कि स्वर्गीय आगम रत्नाकर आचार्य प्रवर आत्मारामजी महाराज का योग विषयक एक महान ग्रन्थ प्रकाश में आ रहा है । सम्पादकद्वय ने अपनी प्रकृष्ट प्रतिभा से ग्रन्थ का सम्पादन कर भारती भण्डार में अपूर्व भेंट दी है, तदर्थ वे धन्यवाद के पात्र हैं। मदनगंज, किशनगढ़ --उपाध्याय पुष्कर मुनि (अध्यात्मयोगी संत) 000 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक अवलोकन 'योग' वर्तमान विश्व का सर्वाधिक उपयोगी विषय है। विज्ञान के द्वारा नितनई उपलब्धियाँ प्राप्त करने के पश्चात भी मानव का अन्तर्मानस व्यथित है। उसे यह अनुभव हो रहा है कि जो उसे प्राप्त होना चाहिये था वह उसे आज तक प्राप्त नहीं हुआ है । भौतिक सुख-सुविधाओं के अम्बार लगने पर भी मन में शान्ति नहीं है । सामाजिक सुरक्षा और उच्च शैक्षणिक योग्यता प्राप्त करने के बावजूद भी अन्तर में गहरी रिक्तता है । आज का मानव शांति का पिपासु है, शांति के अभाव में वह स्वयं टूटता जा रहा है । आज जितने अविकसित देश-निवासी व्यक्ति व्यथित नहीं हैं उनसे कहीं अधिक पीड़ित हैं सभ्य और विकसित, शिक्षित देशों के निवासी। शारीरिक दृष्टि से नहीं अपितु मानसिक दृष्टि से वे संत्रस्त हैं; उनमें स्नायविक तनाव इतना अधिक है कि नशीली वस्तुओं का उपयोग करने पर भी नींद का अभाव है । वे जीवन से हताश-निराश होकर अब योग की ओर आकर्षित हुए हैं; उन्हें लग रहा है कि भोग से नहीं योग से ही हमें सच्ची शांति प्राप्त होगी। सचमुच योग जीवन का विज्ञान है; वह जीवन के छिपे हुए रहस्यों को खोजता है खोलता है। स्वस्थ जीवन, संतुलित मन और जागृत आत्मशक्तियों को अधिकाधिक विकसित करता है । संक्षेप में योग साधना की वह पद्धति है जिसमें आचार की पवित्रता, विचारों की निर्मलता, ध्यान की दिव्यता और तप की भव्यता है। योग का लक्ष्य है मनोविकारों पर विजय-वैजयन्ती फहरा कर आध्यात्मिक उत्क्रान्ति करना । भले ही परम्परा की दृष्टि से शब्दों में भिन्नता रही हो, भाषा और परिभाषा में अन्तर रहा हो, किन्तु जहाँ तक तथ्यों का प्रश्न है वहाँ कोई अन्तर नहीं है । उपनिषद् साहित्य का पर्यवेक्षण करने पर सहज ही ज्ञात होता है कि ब्रह्म के साथ साक्षात् कराने वाली क्रिया योग है, तो श्रीमद्गीताकार के अनुसार कर्म करने की कुशलता योग है । आचार्य पतञ्जलि के मन्तव्यानुसार चित्तवृत्तियों का निरोध ही योग है । बौद्ध दृष्टि से बोधिसत्व की उपलब्धि कराने वाला योग है तो जैन दृष्टि से आत्मा की शुद्धि कराने वाली क्रिया योग है । इस प्रकार आत्मा का उत्तरोत्तर विकास करने वाली साधना पद्धति योग के रूप में विश्रुत रही है। चित्त की वृत्तियाँ मानव को भटकाती हैं और योग चित्तवत्तियों की उच्छृखलता को नियंत्रित करता है । वह उन वृत्तियों को परिष्कृत और परिमार्जित करता है । जब योग सधता है तब विवेक का तृतीय नेत्र समुद्घाटित हो जाता है जिससे विकार और वासनाएँ नष्ट हो जाती हैं । उस साधक का जीवन पवित्र बन जाता है । यह स्मरण रखना होगा कि योग वाणी का विलास वहीं है और न कमनीय कल्पना की गगनचुम्बी उड़ान ही है और न ही दर्शन की पेचीदी पहेली है। यह Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो जीवन जीने का भाष्य है । योग वर्णनात्मक नहीं, प्रयोमात्मक है। योग साहित्य तो आज विपुल मात्रा में प्रकाशित हो रहा है पर योग साधना करने वाले सच्चे और अच्छे साधकों की कमी हो रही है । योग के नाम पर कुछ गलत साहित्य भी प्रकाश में आया है जो साधकों को गुमराह करता है। योग के नाम पर जिसमें भोग की ज्वालाएँ धधक रही हैं। दुःख है, हमारे देश में ऐसी जघन्य स्थितियाँ पनप रही हैं। योग की विशुद्ध परम्परा के साथ 'कितना घृणित खिलवाड़ हो रहा है । अभ्यास के द्वारा कुछ अद्भुत करिश्मे दिखा देना योग नहीं है । पेट पालने के लिए कुछ नट और मदारी भी ऐसा प्रयास करते है। योग तो आत्मिकसाम्राज्य को पाने का पावन पथ है । योग के सधते ही अन्तविकार अंधकार की तरह नौ-दो-ग्यारह हो जाते हैं । आन्तरिक अंगों के साथ आसन, प्राणायाम प्रभृति बाह्य अंगों की भी उपादेयता है । आज आवश्यकता है योग विद्या को विकसित करने की । अनुभवी के मार्ग-दर्शन के बिना योग में सही प्रगति नहीं हो सकती बिना गुरु के योग के गुर नहीं मिल सकते । महामहिम आचार्य प्रवर स्वर्गीय आत्माराम जी महाराज वाग्देवता के वरदपुत्र थे । वे जिस किसी भी विषय को स्पर्श करते तो उसके तलछट तक पहुंचते थे जिससे वह विषय मूर्धन्य मनीषियों को ही नहीं, सामान्य जिज्ञासुओं को भी स्पष्ट हो जाता । वे केवल शब्दशिल्पी ही नहीं थे अपितु कर्म शिल्पी एवं भावशिल्पी भी थे। "जैनागमों में अष्टांगयोग" आचार्य प्रवर की अद्भुत कृति है। उन्होंने जो कुछ भी लिखा है, अनुभूतियों के आलोक में लिखा है। यह ऐसी अमूल्य कृति है जो कभी भी पुरानी और अनुपयोगी नहीं होगी। योग के अनेक अज्ञात/अजाने रहस्य इस में उद्घाटित हुए हैं जो जिज्ञासु साधकों के लिए उपयोगी ही नहीं परमोपयोगी हैं । इस महान कृति को प्रकाश में लाने का श्रेय है-अमर मुनिजी को, जो एक प्रतिभासंपन्न, प्रवचन-कला-प्रवीण मुनि हैं। जब वे प्रवचन करते हैं तो श्रोता झूम उठते हैं। उनकी सम्पादन कला के साथ श्रीचन्द सुराना की की कलम ने कमाल दिखाया है। सुरानाजी कलम-कलाधर हैं। उनकी कलम का जादू ग्रन्थ के प्रत्येक पृष्ठ पर मुखरित हुआ है; अत: सम्पादक-द्वय साधुवाद के पात्र हैं । यह एक ऐसी ऐतिहासिक देन है जो युग-युग तक आलोक प्रदान करती रहेगी। जैन स्थानक, -देवेन्द्र मुनि शास्त्री मदनगंज-किशनगढ़ ५ सितम्बर १९८३ 00 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ● सादर अर्थ सौजन्य लाला श्री दीवानचन्द जैन मण्डी गीदड़बाहा (पंजाब) आप एक बहुत ही भावनाशील उदार हृदय के धर्मप्रेमी सज्जन हैं। समाज सेवा तथा धर्म कार्यों में सदा उदारतापूर्वक सहयोग प्रदान करते रहते हैं । आपके पिता जी का नाम लाला तेजराजजी जैन और माताजी का नाम भागवंतीदेवी जैन है । आपकी धर्मपत्नी श्रीमती शान्तीदेवी जैन बड़ी धार्मिक विचारों की हैं । आपके दो सुपुत्र हैं- श्री विनोदकुमार जैन एवं दीपककुमार जैन । गुरुदेव श्री भण्डारी जी महाराज तथा प्रवचनभूषण हरियाणा केसरी श्री अमरमुनिजी के प्रति आपकी गहरी श्रद्धा भक्ति है । इस पुस्तक प्रकाशन में आपने उदारतापूर्वक सहयोग प्रदान किया है । तदर्थं शत शत धन्यवाद । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मप्रेमी गुरुभक्त लाला धनपतराय जैन श्री गंगानगर (राजस्थान) 還變變變 आप बड़े ही सरल और धर्मप्रमो उदार गृहस्थ हैं। आपकी धर्मपत्नी एवं सुपुत्र आदि सभी, गुरुदेव श्री पदमचन्द जी महाराज 'भन्डारी' तथा प्रवचन भूषण श्रुतवारिधि हरियाणा केसरी श्री अमर मुनि जी महाराज के प्रति बहुत ही भक्ति भाव रखते हैं तथा धार्मिक एवं सामाजिक कार्यों में उदारतापूर्वक सहयोग देते रहते हैं। प्रस्तुत पुस्तक में उदार मन से आपने सहयोग प्रदान किया है। शत-शत धन्यवाद Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका [१] योग की सैद्धान्तिक विवेचना १-१०२ १. मानव शरीर और योग - मानव शरीर असीम शक्ति का स्रोत १, मस्तिष्क की रचना और अद्भुत क्षमता २, पशुओं में भी अतीन्द्रिय क्षमता ३, त्वचा की सामर्थ्य और महत्व ३, त्वचा की अद्भुत सामर्थ्य के उदाहरण ४, शरीर की अन्य अद्भुत विशेषताएं : चक्रस्थान और मर्मस्थान ५, चक्रस्थान, ग्लैण्ड्स और जूडो क्यूसोस की तुलनात्मक तालिका ७, पाँच कोष अथवा आवरण ७, (१) अन्नमय कोष ८, (२) प्राणमय कोष ८, (३) मनोमय कोष ६, (४) विज्ञानमय कोष ६, (५) अनन्दमय कोष ६, आध्यात्मिक साधना का लक्ष्य ६, योग की उपयोगिता ११, योग की आवश्यकता ११ । २. योग की परिभाषा और परम्परा १२-२१ __ योग शब्द की यात्रा १२, वैदिक साहित्य में योग शब्द १३, बौद्ध दर्शन में योग १५, जैन दर्शन में योग १६, जैन दर्शन का योग सम्बन्धी स्वतन्त्र चिन्तन १८ । ३. योग का प्रारम्भ २२--२६ योग के प्रारम्भकर्ता २३, पतंजलि का महत्व एवं कार्य २५, पातं. जल योगदर्शन का दार्शनिक आधार २६, पातंजल योगदर्शन पर अन्य दर्शनों का प्रभाव २६, बौद्धदर्शन का पातंजल योगदर्शन पर प्रभाव २६, पातंजल योग पर जैन दर्शन का प्रभाव २७, जैन योग की विशेषताएँ २८ । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. योग के विविध रूप और साधना पद्धति ३०-५५ गीतोक्त योग ३०, समाधियोग ३१, शरणागति योग ३१, राजयोग ३२, हठयोग ३२, नाथयोग ३३, भक्तियोग ३४, ज्ञानयोग ३५, कर्मयोग ३६, लययोग ३६, अस्पर्शयोग ३७, सिद्धयोग ३७, तन्त्रयोग ३८, वामकौल तन्त्रयोग (वाममार्ग) ३८, तारकयोग ४१, ऋजुयोग ४१, जपयोग ४१, जपयोग के प्रकार ४२, मंत्रयोग ४४, मन्त्रयोग के १६ अंग ४४, ध्यानयोग ४७, ध्यानयोग के प्रकार ४७, भेद ध्यानयोग के उत्तरभेद ४७, अभेद ध्यान ४७, सुरत शब्दयोग ४८, अरविन्द का पूर्णयोग ४८, योगमार्ग : पिपीलिका मार्ग और विहंगम मार्ग ४६, बौद्धयोग ५०, योग-वियोगअयोग ५१, भारतीयेतर दर्शनों में योग ५२, पाश्चात्य योग-मेस्मेरिज्म तथा हिप्नोटिज्म ५३ । ५. जैन योग का स्वरूप ५६-६२ योग का लक्षण ५६, मन की अचंचलता आवश्यक ६०, मन के प्रकार ६१, चित्त की भूमिकाएँ ६१, योग संग्रह ६२, गुरु का महत्त्व ६४, योगाधिकारी के भेद ६४, (१) चरमावर्ती साधक ६५, (२) अचरमावर्ती साधक ६५, आत्मविकास के क्रम में जीव की स्थितियाँ ६५, (१) अपुनबन्धक ६६, (२) सम्यग्दृष्टि ६६, (३) देशविरति ६६, (४) सर्वविरति ६६, चित्तशुद्धि के प्रकार ६७, योग के अनुष्ठान ६८, योग के पाँच भेद ६६, अन्य अपेक्षा से योग के तीन प्रकार ७०, योगदृष्टियाँ ७१, (१) मित्रादृष्टि ७१, (२) तारादृष्टि ७२, (३) बलाद्दष्टि ७२, (४) दीप्रादृष्टि ७२, (५) स्थिरादृष्टि ७३, भाव (आध्यात्मिक) प्राणायाम ७३, स्थिरादृष्टि के दो प्रकार ७४, (६) कान्तादृष्टि ७४, (७) प्रभादृष्टि ७५, (८) परादृष्टि ७६, योगियों के भेद ७६, (१) कुलयोगी ७७, (२) गोत्रयोगी ७७, (३) प्रवृत्तचक्रयोगी ७७, प्रवृत्तचक्रयोगी के गुण ७८, तीन योगावंचक ७८, (४) निष्पन्न योगी ७६, जैन योग और कुण्डलिनी ७१, आध्यात्मिक दृष्टि से जैन योग के भेद ८२, (१) आध्यात्मयोग ८२, (२) भावनायोग ८४, बारह वैराग्य भावनाएँ ८५, (३) ध्यानयोग ८६, (४) समतायोग ८७, (५) वृत्तिसंक्षय योग ८६, योग का महत्व ६१। ६. योगजन्य लब्धियाँ ६३-१०२. वैदिक योग में लब्धियाँ ६३, योगदर्शन सम्मत लब्धियाँ ६४, बौद्धदर्शन में लब्धियाँ ९५, जैनयोग और लब्धियाँ ६६, प्रवचनसारोद्धार में निरूपित २८ लब्धियों का परिचय ९७, लब्धियों के तीन वर्ग १०० । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७ ) [२] अध्यात्म योग साधना १. योग की आधारभूमि : श्रद्धा और शील [१] [गृहस्थयोगी के साधना सोपान] श्रद्धा का महत्व १०३, सम्यग्दर्शन शब्द का अर्थ १०३, सम्यग्दर्शन : स्वरूप और महत्व १०४, सम्यग्दृष्टि के पाँच बाह्य विशिष्ट लक्षण १०५, सम्यग्दर्शन के पच्चीस मल-दोष १०६, त्यागवृत्ति १०७. भावशुद्धि १०८, सम्यक्ज्ञान १०८, सम्यक्ज्ञान के दोष १०८ सम्यक्चारित्र १०६, सम्यक्चारित्र के दो भेद १०६, आगार चारित्र ११०, आगार चारित्र के दो भेद ११०, मार्गानुसारी के पैंतीस गुण ११०, गृहस्थ का विशेष धर्मं ११२, व्रतों का चार प्रकार का अतिक्रमण ११२, अणुव्रत ११३, (१) स्थूल प्राणातिपात विरमण ११३, भावहिंसा और द्रव्यहिंसा ११३, चार प्रकार की हिंसा ११४, इस व्रत के पाँच अतिचार ११४, (२) स्थूल मृषावादविरमण ११५, पाँच प्रकार के महान असत्य ११५, इस व्रत के पांच अतिचार ११५, (३) स्थूल अदत्तादानविरमण ११५, पाँच अतिचार ११६, (४) स्वदार संतोषव्रत ११६, पाँच अतिचार ११६, (५) इच्छा परिमाणव्रत ११६, पाँच अतिचार ११७, तीन गुणव्रत ११७, (१) दिक्परिमाणव्रत ११७, पाँच अतिचार ११८, (२) उपभोग परिभोगपरिमाणव्रत ११८, उपभोग - परिभोग सम्बन्धी छब्बीस वस्तुएं ११८, चौदह नियम ११६, पन्द्रह कर्मादान ११६, पाँच अतिचार १२०, (३) अनर्थदण्डविरमणव्रत १२०, अनर्थदण्ड के चार रूप १२०, पाँच अतिचार १२१, शिक्षाव्रत १२१, ( १ ) सामायिक व्रत १२१, पाँच अतिचार १२२, चार प्रकार की शुद्धि १२२, (२) देशावकाशिक व्रत १२३, पाँच अतिचार १२३ (३) पौषधोपवासव्रत १२३, पौषध में चार प्रकार का त्याग १२३, पाँच अतिचार १२४, (४) अतिथि संविभागवत १२४, पाँच अतिचार १२४, अन्तिम समय की साधना : संलेखना १२५, गृहस्थ साधक की योग साधना १२५, गृहस्थयोगी की विशिष्ट साधना प्रतिमा १२६ । २. योग की आधारभूमि : श्रद्धा और शोल [२] [गृहत्यागी श्रमण का योगाचार ] १०३ - ३१४ १०३ - १२७ श्रमण : सम्पूर्ण योग का आराधक १२८, साधु के मूल और उत्तर गुण १२८, साधु के सत्ताईस मूल गुण १२६, पाँच महाव्रत १३०, (१) अहिंसा महाव्रत : समत्वसाधना १३०, इस महाव्रत की पाँच भावनाएं १३१, (२) सत्य महाव्रत : योग का आधार १३२, पाँच भावनाएं १३२, (३) अचौर्य महाव्रत : अनासक्तियोग का प्रारम्भ १३३, पाँच भावनाएँ १३३, (४) ब्रह्मचर्य महाव्रत : चेतना का ऊर्ध्वारोहण १३४, पांच भावनाएँ १२८ - १४० Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८ ) १३५, (५) अपरिग्रह महाव्रत : निस्पृहयोग १३५, पाँच भावनाएँ १३६, श्रमण के अन्य आवश्यक गुण १३७, श्रमण गुण बनाम मोगमार्ग १४० । ३. विशिष्ट योग भूमिका-प्रतिमायोग साधना १४१-१५३ प्रतिमा का आशय १४१, (१) श्रावक प्रतिमा (गृहस्थयोगी की विशिष्ट साधना भूमिकाएँ) १४१, (१) दर्शन प्रतिमा (शुद्ध, अविचल एवं प्रगाढ़ श्रद्धा) १४२, (२) व्रत प्रतिमा (विरति की ओर बढ़ते चरण) १४३, (३) सामायिक प्रतिमा (योग साधना का प्रारम्भ) १४३, (४) पौषध प्रतिमा (अहोरात्रि की आम-साधना) १४४, (५) नियम प्रतिमा (विविध नियमों की साधना) १४४, (६) ब्रह्मचर्य प्रतिमा (चेतना का ऊर्ध्वारोहण) १४५, (७) सचित्त त्याग प्रतिमा (आहार संयम) १४५, (८) आरंभत्याग प्रतिमा (अहिंसायम की साधना) १४६, (९) प्रेष्य-परित्याग प्रतिमा (संवरयोग तथा सूक्ष्म अहिंसा यम की साधना) १४६, (१०) उद्दिष्टभक्तत्याग प्रतिमा (संवरयोग की साधना), १४७, (११)श्रमणभूत प्रतिमा (गृहस्थयोग साधना का अन्तिम सोपान) १४७, प्रतिमाओं की विशेष बातें १४८, (२) भिक्षु प्रतिमा (गृहत्यागी श्रमण की विशिष्ट साधना भूमिकाएं) १४८, (१) प्रथम प्रतिमा एवं इसका स्वरूप १४६, दूसरी, तीसरी, चौथी, पांचवीं, छठी और सातवीं प्रतिमाएं १५१, आगे की प्रतिमाएं : तप के साथ आसनजय १५१, आठवीं, नवीं, दसवीं, ग्यारहवीं प्रतिमा का स्वरूप १५१, बारहवीं प्रतिमा का स्वरूप १५२, सम्यगननुपालनता के तीन दुष्परिणाम १५२, सम्यगनुपालनता के तीन कल्याणकारी परिणाम १५२, प्रतिमायोग का महत्व १५३ । ४. जयणायोग साधना (मातृयोग) १५४–१६१ जयणायोग क्या है ? १५४, यतना का अभिप्राय १५४, अष्ट प्रवचन माता (तीन गुप्ति और पाँच समिति) १५५, गुप्तियाँ १५५, गुप्ति का लक्षण १५५, गुप्ति के भेद १५६, (१) मनोगुप्ति १५६, (२) वचनगुप्ति १५६, कायगुप्ति १५७, मनःसमिति १५७, वचन और काय समिति १५८, समिति १५८, समिति का लक्षण १५८, समिति के भेद १५८, (१) ईर्यासमिति १५८, इसका चार प्रकार से पालन १५८, (२) भाषा समिति १५६, इसका चार प्रकार से पालन १५६, (३) एषणा समिति १५६, इसका चार प्रकार से पालन १६०, (४) आदान-निक्षेपणा समिति १६०, इसके पालन के चार प्रकार १६०, (५) परिष्ठापनिका समिति १६०, स्थंडिल भूमि के चार प्रकार १६१, इस समिति के पालन के चार प्रकार १६१ । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) ५. परिमार्जनयोग-साधना (षडावश्यक) १६२-१७६ परिमार्जन की आवश्यकता १६२, परिमार्जन की विधि, आवश्यक १६२, आवश्यक, जैनयोग का अनिवार्य अंग १६३, आवश्यक साधना के छह अंग १६४, साधना का वैज्ञानिक क्रम १६४, (१) समतायोग बनाम सामायिक की साधना १६६, चार प्रकार की शुद्धि १६७, द्रव्यशुद्धि १६७, क्षेत्रशुद्धि १६७, कालशुद्धि १६७, भावशुद्धि १६७, (क) मनःशुद्धि १६८, (ख) वचनशुद्धि १६८ वचन के दो भेद अन्तर्जल्प और बहिर्जल्प (सूक्ष्म एवं स्थूल वचन योग) १६८, (ग) कायशुद्धि १६६, (२) चतुर्विंशतिस्तव : भक्तियोग का प्रकर्ष १६६, (३) वन्दना : समर्पणयोग १७०, (४) प्रतिक्रमण : आत्मशुद्धि का प्रयोग १७०, (५) कायोत्सर्ग : देह में विदेह साधना १७०, कायोत्सर्ग की विधि १७१, कायोत्सर्ग के लाभ १७१, (१) देहजाड्य शुद्धि १७१, (२) मतिजाड्यशुद्धि १७२, (३) सुख-दुःख तितिक्षा १७२, (४) अनुप्रेक्षा १७२, (५) ध्यान १७२, शारीरिक दृष्टि से कायोत्सर्ग के लाभ १७२, (६) प्रत्याख्यान : गुणधारण की प्रक्रिया १७३, प्रत्याख्यान के आठ विशिष्ट नियम १७४, षडावश्यक : सम्पूर्ण अध्यात्मयोग १७५ । ६. ग्रन्थिभेदयोग-साधना १७७-१८८ ग्रथि का अभिप्राय १७७, मानसिक ग्रन्थियाँ १७७, आत्मिक गुणों की अपेक्षा से ग्रन्थियों का दो भागों में वर्गीकरण १७७, ग्रन्थि और शल्य १७८, जैन मनोविज्ञान के अनुसार दो प्रकार की ग्रन्थियाँ १७८, (वैदिक परम्परा द्वारा मान्य तीन हृदय प्रन्थियाँ-(१) आगामी कर्म (२) संचित कर्म (३) प्रारब्ध कर्म अथवा ब्रह्मग्रन्थि, विष्णुग्रन्थि और रुद्रग्रन्थि तथा इन ग्रंथियों के भेदन की प्रक्रिया और परिणाम १७८-१८०). गन्थियाँ कैसे निर्मित होती हैं ? १७६, ग्रंथियों की अवस्थिति १८१, आधुनिक सभ्यता का उपहार : विभिन्न ग्रन्थियां १८२, ग्रथियों कारण हैं-दोहरे व्यक्तित्व की १८३, ग्रंन्थियों के मूल कारण और आधार १८४, ग्रन्थिभेदयोग की साधना १८६, ग्रन्थिभेद की प्रक्रिया एवं क्रम १८६, ग्रन्थिभेद साधना के परिणाम १८८ । ७. तितिक्षायोग-साधना १८६-१९६ तितिक्षा का अभिप्राय १८६, परीषहजय : समत्व की साधना १८६, उपसर्गविजय १६२, उपसर्ग और परीषह : श्रमण की तितिक्षा की कसोटी १६३, गृहस्थ साधक के जीवन में तितिक्षायोग १६३, तितिक्षायोग साधना का उत्कर्ष : दश श्रमणधर्म १६४, दश श्रमणधर्म और तितिक्षायोग १६५, तितिक्षायोग की निष्पत्तियाँ १६६ । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. प्रेक्षाध्यानयोग-साधना २००-२११ प्रेक्षाध्यान क्या है ? २००, प्रेक्षाध्यान का सूत्र २०१, प्रेक्षाध्यान की विधि एवं प्रकार २०३, (१) कायप्रेक्षा २०३, (२) श्वासप्रेशा २०५, (३) मानसिक संकल्प-विकल्पों की प्रेक्षा २०७, (४) कषायप्रेक्षा २०७, (५) अनिमेष-पुद्गल द्रव्य की प्रेक्षा २०८, वर्तमान क्षण की प्रेक्षा २०६, प्रेक्षाध्यान से साधक को लाभ २१० । ६. भावनायोग साधना २१२-२३० अनुप्रेक्षा का आशय २१२, बारह वैराग्य भावनाएँ २१३, ध्यान की अपेक्षा से भावनाओं का वर्गीकरण २१३, (१) अनित्यानुप्रेक्षा-शरीरासक्ति का त्याग २१३, अनित्य भावना की साधना के चार सूत्र २१४, (२) अशरण अनुप्रेक्षा-पर-पदार्थों से विरक्ति की साधना २१५, (३) संसार अनुप्रेक्षा-विरक्ति की ओर बढ़ते कदम २१६, (४) एकत्व अनुप्रेक्षा : संयोगों से विरक्ति २१७, (५) अन्यत्व भावना : भेदविज्ञान की साधना २१८, (६) अशुचि भावना : पावनता की ओर प्रयाण २१८, (७) आस्रव भावना : आन्तर् भावों का निरीक्षण २१६, (८) संवर भावना : मुक्ति की ओर चरणन्यास २२०, (९) निर्जरा भावना : आत्मशुद्धि की साधना २२१, धर्मभावना । आत्मोन्नति की साधना २२१, (११) लोक भावना : आस्था की शुद्धि २२१, (१२) बोधिदुर्लभ भावना : अन्तर्जागरण की प्रेरणा २२२, ज्ञान की जुगाली २२३, वैराग्य भावनाएं २२३. अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन से लाभ २२४, योगभावनाएं २२५, योग भावनाएं ध्यान को पुष्ट करने वाली २२६, (१) मैत्रीभावना : आत्मौपम्य भाव की साधना २२७, (२) प्रमोद भावना : गुण-ग्रहण की साधना २२७, (३) कारुण्य भावना : अभय की साधना २२८, (४) माध्यस्थ भावना : विपरीतता में समत्व (राग-द्वेष विजय की साधना) २२६, योग भावनाओं की फलश्रुति २३० । १०. (तपोयोग साधना १.) बाह्य तप : बाह्य आवरण-शुद्धि साधना २३१-२५७ तप का अभिप्राय २३१, तप के लक्षण २३२, तप का महत्व २३३ तप के विभिन्न प्रकार २३३, तप के दो प्रमुख भेद : बाह्य तप और आभ्यंतर तप २३४ विभाजन के कारण २३४, बाह्य तप भी निरर्थक नहीं २३५, बाह्य तप के लाभ २३५, बाह्य तप २३६, (१) अनशन तप : आत्म-आवरणों का शोधन २३६, अनशन तप के शारीरिक और मानसिक लाभ २३७, अनशन तप के भेद-प्रभेद २३८, (२) ऊनोदरी तप : इच्छा नियमन साधना २३६, ऊनोदरी तप के प्रकार २३६, (३) भिक्षाचरी तप : वृत्ति-संकुचन की साधना २४१, योग को अपेक्षा वृत्तिसंक्षेप नाम Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१ ) अधिक उपयुक्त २४२. (४) रस-परित्याग तप : अस्वाद वृत्ति की साधना २४२, रस-परित्याग तप की दो भूमिकाएँ २४३, (५) काय-क्लेश तप : काय-योग की साधना २४४, प्रमुख आसनों का वर्णन २४४, दो प्रकार के कष्ट सहना २४५, तेजस् शरीर की साधना २४६, भाव प्राणायाम २४७, कायक्लेश तप के कुछ प्रमुख लाभ २४७, (६) प्रतिसंलीनता तप : अन्तर्मुखी बनने की साधना २४७, प्रतिसंलीनता तप के विभिन्न नाम २४८, प्रतिमलीनता तप के चार भेद २४८, इन्द्रिय प्रतिसंलीनता तप की साधना २४८, इन्द्रिय प्रतिसंलीनता तप की साधना के दो प्रकार २४६, कषाय प्रतिसंलीनता तप २५०, कषाय प्रतिसंलीनता तप के चार भेद २५०, क्रोध के आवेग की उपशांति के व्यावहारिक उपाय २५१, मान, माया, लोभ की उपशांति के व्यावहारिक उपाय २५१, योग प्रतिसंलीनता तप २५१, योग प्रतिसंलीनता तप की भूमिकाएं २५२, मनोयोग की साधना २५२, वचनयोग की साधना २५३, काययोग की साधना २५३, विविक्तशयनासनसेवना २५३, विविक्तशयनासन सेवना का वैज्ञानिक आधार २५४, बाह्य तपों से तपोयोगी साधक को लाभ २५६ । ११. (तपोयोग साधना २) आभ्यन्तर तप : आत्मशुद्धि की सहज साधना २५८-२७० आभ्यंतर तप साधना का उद्देश्य २५८, (१) प्रायश्चित्त · पाप शोधन की साधना २५८, प्रायश्चित्त के भेद २६०, मिच्छामि दुक्कडं का रहस्य २६०, प्रायश्चित्त का लक्ष्य २६०, (२) विनय : अहं विसर्जन की साधना २६१, विनय के सात भेद २६१, ज्ञान विनय २६१, दर्शन विनय २६१, चारित्र विनय २६२, मनोविनय २६२, वचनविनय २६२, कायविनय २६२, लोकोपचारविनय २६२, (३) वैयावृत्य तप : समर्पण की साधना २६३, (४) स्वाध्याय तप : स्वात्म-संवेदनज्ञान की साधना २६४, स्वाध्याय के विभिन्न अर्थ २६४, स्वाध्याय के अंग अथवा भेद २६५, स्वाध्याय तप की फल श्र ति २६६, ध्यान तप : मुक्ति की साक्षात साधना २६७, (६) व्युत्सर्ग तप : ममत्व विसर्जन की साधना २६७, व्युत्सर्ग तप के भेद २६७, गण व्युत्सर्ग २६८, शरीर व्युत्सर्ग २६८, कायोत्सर्ग की साधना २६८, उपधि व्युत्सर्ग २६६, भक्तपान व्युत्सर्ग २६६, कषाय व्युत्सर्ग २७०, संसार व्युत्सर्ग २७०, कर्म व्युत्सर्ग २७० । १२. (तयोयोग साधना ३) ध्यानयोग साधना २७१-२६५ ___ मन की दो अवस्थाएँ २७१, ध्यान का लक्षण २७१, ध्यान साधना के प्रयोजन और उपलब्धियाँ २७२, मन की चंचलता के कारण २७४, ध्यान का काल-मान २७५, ध्यान की पूर्वपीटिका : धारणा २७६. आलम्बन Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की अपेक्षा से धर्मध्यान के तीन भेद २७७, धारणा और ध्यान में अन्तर २७८, ध्यान का महत्व २७८, ध्यान के भेद-प्रभेद २७६, आर्तध्यान के चार भेद २७६, रौद्र ध्यान २८१, रौद्रध्यान के चार भेद २८१, धर्मध्यान : मुक्ति साधना का प्रथम सोपान २८२, ध्यान के आठ अंग २८३, धर्मध्यान के आगमोक्त चार भेद १८४, आज्ञा विचय धर्मध्यान २८५, अपायविचय धर्मध्यान २८५, विपाकविचय धर्मध्यान २८५, संस्थान विचय धर्मध्यान २८५, धर्मध्यान के आलम्बन २८६, धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ २८६, ध्येय की अपेक्षा ध्यान के भेद २८७, योग की अपेक्षा से धर्मध्यान के भेद २८७, पार्थिवी धारणा २८८, आग्नेयी धारणा २८८, वायवी धारणा २८६, वारुणी धारणा २८६, तत्वरूपवती धारणा २८६, ध्यान-साधना की अपेक्षा से धर्मध्यान के भेद २६०, पिण्डस्थ ध्यान २९०, पदस्थ ध्यान २६०, रूपस्थ ध्यान २६१, रूपातीत ध्यान २६१, धर्मध्यान की फलश्रुति २६१, महाप्राणध्यान साधना २६१, श्र तकेवली आचार्य भद्रबाहु का दृष्टांत २६३, आचार्य पुष्यमित्र का दृष्टान्त २६३ । १३. शुक्लध्यान एवं समाधियोग २६६-३१३ शुक्लध्यान : मुक्ति की साक्षात साधना २६६, शुक्लध्यान का अधिकारी २६६, शुक्लध्यानी के लिंग २६७, शुक्लध्यान के आलम्बन २६८, शुक्लध्यान की अनुप्रेक्षाएँ २६६, कर्मग्रंथों की अपेक्षा शुक्लध्यान के अधिकारी २६६, शुक्लध्यान के भेद ३००, पृथक्त्ववितर्क सविचार शुक्लध्यान ३०१, एकत्ववितर्क अविचार शुक्लध्यान ३०२, सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाती शुक्लध्यान ३०३, समुच्छिन्न क्रियानिवृत्ति शुक्लध्यान ३०३, शुक्लध्यान और समाधि ३०४, शुक्लध्यान और समाधि की तुलना ३०५, जैन दर्शन के अनुसार मुक्ति साधना का क्रम ३१२ । [३] प्राण साधना ३१५-३६५ १. प्राण-शक्ति : स्वरूप, साधना, विकास और उपलब्धियाँ ३१५-३३१ सृष्टि में सर्वत्र व्याप्त प्राणशक्ति ३१५, प्राण के शास्त्रोक्त दश भेद ३१६, योग की अपेक्षा प्राणशक्ति एक ही है ३१६, प्राणशक्ति प्रवाह का केन्द्र ३१७, प्राणवायु और प्राण का सम्बन्ध ३१७, आसन-शुद्धि ३१८, विभिन्न आसनों के लक्षण ३१६, नाड़ी-शुद्धि ३२०, स्वर-विज्ञान द्वारा शारीरिक रोगों का उपचार ३२१, प्राणायाम ३२२, योगिक प्राणायाम में सुषुम्ना का महत्व ३२२, कुण्डलिनी शक्ति का ऊर्वारोहण और चक्रभेदन ३२५, कुण्डलिनी शक्ति की अवस्थिति ३२६, कुण्डलिनी शक्ति का का जागरण हठयोग और भावनायोग से ३२७, कुण्डलिनी जागरण के आसन ३२७, कुण्डलिनी शक्ति का वर्ण एवं दृश्यता ३२८, चक्रों (कमलों) Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के अनुप्राणन से उपलब्ध विशिष्ट शक्तियां ३२६, प्राणायाम का शरीर पर प्रभाव ३३०। २. लेश्था-ध्यान साधना ३३२-३४७ भावना तया रंग चिकित्सा सिद्धान्त ३३२, लेश्या है-भावधारा (कषाय धारा) ३३३, आभामंडल ३३४, लेश्याध्यान : प्राण शरीर-शुद्धि प्रक्रिया ३३६, लेश्याओं का वर्गीकरण ३३७, लेश्याध्यान और रंग चिकित्सा प्रणाली ३३८, कृष्णलेश्या और काला रंग ३३६, नीललेश्याध्यान और नीले रंग की साधना ३४०, कापोतलेश्याध्यान और हलके नीले रंग की साधना ३४१, तेजोलेश्यान और लाल (अरुण) रंग ३४२, पद्मलेश्याध्यान और पीत (सुनहरा) रंग ३४३, शुक्ल लेश्याध्यान और श्वेत वर्ण ३४४, जैन साहित्य में लेश्याओं का दृष्टान्त ३४५ । ३. प्राणशक्ति की अद्भुत क्षमता और शारीरिक-मानसिक स्वस्थता ३४८--३६३ मानव-शरीर में व्याप्त प्राणशक्ति ३४८, प्राणशक्ति की चमत्कारी , क्षमता ३४६, विचार संप्रेषण ३४६, शक्तिपात ३५०, प्राणशक्ति और मानसिक एवं शारीरिक स्वस्थता ३५१, मानसिक एवं शारीरिक रोग : कारण और उपचार ३५४, मन का स्वरूप एवं लक्षण ३५४, प्रोजीरिया : समयपूर्व वृद्धावस्था ३५५, सनाव ३५७, तनावमुक्ति के योगिक उपाय ३६०, शारीरिक व्याधियाँ ३६०, शारीरिक व्याधियों के उपचार के दृष्टान्त ३६०, प्राणशक्ति का महत्व और कार्यक्षमता ३६१ । ४. मंत्रशक्ति-जागरण ३६४-३७२ ध्वनि-प्रकंपनों की व्यापकता ३६४, शब्द के उच्चारण के प्रकार ३६५, मंत्र और महामंत्र ३६५, नवकार मंत्र का महामंत्रत्व ३६८, महामंत्र का साक्षात्कार एवं सिद्धि ३६६, मंत्रसिद्धि के लक्षण ३७०, मंत्रसिद्धि के आध्यात्मिक लक्षण ३७१, मानसिक लक्षण ३७०, शारीरिक लक्षण ३७१, मंत्रसिद्धि का अभिप्राय ३७१, मंत्रशक्ति का रहस्य ३७२ । ५. नवकार मंत्र की साधना ३७३-३६५ अद्भुत वैज्ञानिक संयोजन ३७३, महामंत्र के पदों के वर्ण संयोजन, वर्ण-विन्यास और तत्त्वों की विशेषता ३७३, णमो अरिहंताणं पद का वर्णविन्यास और विशेषताएँ ३७४, णमो सिद्धाणं पद का वर्ण विन्यास और विशेषताएं ३७५, णमो आयरियाणं पद का वर्ण विन्यास और विशेषताएँ ३७६, णमो उवज्झायाणं पद का वर्ण विन्यास और विशेषताएँ ३७६. णमो सव्वसाहूणं पद का वर्ण विन्यास और विशेषताएँ ३७७, साधना की विधि Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४ ) ३७७, णमो अरिहंताणं पद की साधना ३७७, णमो सिद्धाणं पद की साधना ३७९, णमो आयरियाणं पद की साधना ३८०, णमो उवज्झायाणं पद की साधना ३८१, णमो लोए सव्वासाहूणं पद की साधना ३८२, इन पांच पदों की साधना से साधक को लाभ ३८२, एक और विधि साधना की ३८३, 'नव पद' की साधना ३८४, 'नव पद' के पद (दो मत) ३८४, अन्तरात्मा में सिद्धचक्र ध्यान-साधना ३८८, कायोत्सर्गासन द्वारा ३८८, पद्मासन द्वारा ३८८, हृदयकमल पर ध्यान ३८६, चक्रों पर नवपद का ध्यान ३८६, ॐ की साधना ३८६, ॐ का निर्वचन ३६०, 'सोऽहं' की साधना ३६१, अहं की साधना ३६२, अहँ का पद विन्यास ३६२, अहँ की साधना विधि ३६३, अहं के जप-ध्यान से साधक को लाभ ३६४ । - परिशिष्ट 0 सन्दर्भ ग्रन्थ सूची _ विशिष्ट व्यक्ति नाम सूची _ विशिष्ट शब्द सूची Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ जैन योग सिद्धान्त और साधना योग की सैद्धान्तिक विवेचना १ - मानव शरीर और योग २ - योग की परिभाषा और परम्परा ३- योग का प्रारम्भ ४ - योग के विभिन्न रूप और साधना पद्धति ५ - जैन योग का स्वरूप ६ - योगजन्य लब्धियां 며 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ मानव शरीर और योग मानव-शरीर असीम शक्ति का स्रोत मानव का शरीर, यह छह फुट ऊँची काया, अनेक विचित्रताओं और विलक्षणताओं का भण्डार है। शक्ति का अजस्र और असीम स्रोत इसमें विद्यमान है। यह संसार का सबसे विलक्षण शक्ति केन्द्र (पावर हाऊस) है। जरूरंत है इस शक्ति को पहचानने और इसका उचित रूप से प्रयोग करने की। प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने जो शक्ति-सिद्धान्त प्रतिपादित किया है उसके अनुसार एक पुद्गल परमाणु से ३,४५,९६० कैलोरी (ऊर्जा) शक्ति उत्पन्न हो सकती है। वस्तुतः विज्ञान अभी तक निश्चित रूप से यह नहीं प्रमझ पाया है कि एक परमाणु के अन्दर यथार्थतः कितनी शक्ति है । फिर मी उक्त सन्दर्भ से आप यह अनुमान कर सकते हैं कि अनन्त पुद्गल परमागुओं से निर्मित इस शरीर में कितनी शक्ति हो सकती है ? एक अन्य वैज्ञानिक अनुमान के अनुसार ४५० ग्राम पुद्गल द्रव्य को यदि पूर्ण रूप से शक्ति में परिवर्तित किया जा सके तो उससे उतनी ही शक्ति (ऊर्जा) उत्पन्न होगी जितनी १४ लाख टन कोयला जलाने पर प्राप्त होती है। हमारा शरीर भी तो पुद्गल द्रव्य (Matter) से निर्मित है। कल्पना करिए ६० किलोग्राम भार वाले इस शरीर से कितनी शक्ति उत्पन्न हो सकती है। इसी शक्ति के कारण वेदों में इस शरीर को 'ज्योतिषा-ज्योतिः' कहा गया है। यदि आपका मन इस सारी शक्ति का उपयोग कर सके तो सोचिये वह क्या चमत्कार नहीं कर सकता। ___ मानव शरीर कोशिकाओं का एक महासागर ही है । इसमें ६ नील (६,००,००,००,००,००,०००) कोशिकाएँ हैं। शरीर के विभिन्न अंगों की कोशिकाएँ, एक-दूसरी से काफी भिन्न हैं । ये इतने सूक्ष्म आकार की होती हैं कि एक आलपिन की नोंक पर लगभग दस लाख कोशिकाएँ अवस्थित रह सकती हैं, लेकिन बड़ी कोशिकाओं का आकार शुतुमुर्ग के अण्डे के बराबर भी होता है। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग : सिद्धान्त और साधना मस्तिष्क की रचना और अद्भुत क्षमता यद्यपि मानव खोपड़ी का भार १३ किलोग्राम से अधिक नहीं होता; लेकिन इसमें ही १४ करोड़ कोशिका तन्त्र होते हैं तथा १४ अरब ५ लाख ज्ञान तन्तु मानव मस्तिष्क में अवस्थित होते हैं । इसका क्ष ेत्रफल लगभग २६ वर्ग इंच होता है । मस्तिष्क में दो रंग के द्रव्य होते हैं - ( १ ) धूसर ( पीले से कुछ गहरा रंग) रंग का, यह स्मृति तथा बुद्धि को नियन्त्रित करता है । जिस व्यक्ति के मस्तिष्क का यह द्रव्य अच्छा होता है, उसको बुद्धि भी अच्छी होती है । और (२) दूसरा द्रव्य है सफेद रंग का यह क्रिया का नियन्त्रण करता है । मस्तिष्क के तीन भाग हैं- एक, समस्त क्रिया-प्रक्रियाओं का संचालक है; दूसरा, मांस-पेशियों का नियन्त्रक है और तीसरा स्वचालित प्रक्रियाओं - साँस लेना, भोजन पचाना आदि क्रियाओं का नियन्त्रक है । अब जरा इस मस्तिष्क की कार्यक्षमता का अनुमान लगाइये । आँखें ही औसतन ५० लाख चित्र प्रतिदिन उतारती हैं । इसके अतिरिक्त ध्वनियों, गन्धों, स्पर्शो, स्वादों का महासागर हर समय मनुष्य के चारों ओर लहराता रहता है । यह सारा तूफान मस्तिष्क से ही तो टकराता है और मस्तिष्क इन सबको समझता है, जानता है और निर्णय करता है । इन सबके अलावा नईपुरानी स्मृतियाँ, अर्जित किया हुआ ज्ञान, इस जन्म और पिछले जन्मों के संस्कार, सुखद-दुःखद अनुभूतियाँ आदि सभी मस्तिष्क में ही संचित रहती हैं। यह सारा कार्य कितना श्रमसाध्य और उलझनभरा है ? किन्तु इन सब कार्यों को अपने १४ अरब ५ लाख ज्ञान तन्तुओं की सहायता से मस्तिष्क सुचारु रूप से नियमित सम्पन्न करता रहता है । समस्त अतीन्द्रिय क्षमताएँ भी मस्तिष्क में ही भरी होती हैं; दूसरे शब्दों में मस्तिष्क ही अतीन्द्रिय क्षमताओं का स्रोत है । सुना है आपने (१) नियेशन नाम की एक महिला किसी भी अज्ञात व्यक्ति की कोई वस्तु छूकर उस व्यक्ति का भूत, वर्तमान और भविष्य बता देती है, जो पूर्णरूप से सत्य होता है । (२) कुमारी एडम, दूरवर्ती वस्तुओं को इस प्रकार बता देती है मानो वह सामने खुली हुई पुस्तक को पढ़ रही हो । (३) कनाडा के मनःतत्व विशेषज्ञ डा० डब्ल्यु० जी० पेनफील्ड ने ऐसे विद्य ुदग्र (Electrode) की खोज कर ली है जिसका शरीर के किसी विशिष्ट स्थान की किसी विशिष्ट कोशिका के साथ सम्बन्ध जोड़ देने पर मनुष्य अपने Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव शरीर और योग ३ भूतकाल की घटनाओं को अपनी आँखों के सामने चित्रपट की भाँति प्रत्यक्ष देख सकता है। (४) रूसी वैज्ञानिक प्रो० एनाखीन ने एमीनोजाइन (Eminozine) नाम की ऐसो औषध का आविष्कार कर लिया है जो व्यक्ति को शारीरिक पीड़ा से छुटकारा दिला देती है । (५) एक ल्यूथिनियन लड़का विशिष्ट अतीन्द्रिय क्षमता का धनी है। वह किसी भी नई-पुरानी, जीवित-मृत भाषा यथा-इंगलिश, फ्रेन्च, लेटिन, ग्रीक आदि के शब्दों को उच्चारणकर्ता के साथ-साथ इस प्रकार बोलता जाता है मानो वह उन भाषाओं का विद्वान हो और उसे पहले से ही यह ज्ञात हो कि उच्चारणकर्ता आगे कौन सा शब्द बोलने वाला है। यह तो हुई मानव मस्तिष्क की बात, जिसके बारे में कहा जा सकता है कि मनुष्य तो संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणो है और उसका मस्तिष्क अत्यन्त ही विकसित तथा उच्चकोटि का है। लेकिन ऐसो हो अतीन्द्रिय क्षमताएँ चूहेबिल्ली आदि संज्ञी पंचेन्द्रिय प्राणियों में भी पाई जाती हैं। बांस में फल-फूल नहीं देखे जाते, इनकी जड़े ही बांसों की वृद्धि करती हैं । लेकिन ५० वर्ष बाद बांस में फूल आते हैं और उनमें फल भी निकलते हैं । ५० वर्ष में चूहे को भो ५० पोढ़ियाँ गुजर जाती हैं। लेकिन चूहे अपनी सुगन्ध विश्लेषण क्षमता और सूक्ष्मबुद्धि से उन फल-फूलों की विशेषता पहचान जाते हैं, कि इनके उपभोग से उनकी प्रजनन क्षमता कई गुना बढ़ जायगी, अतः वे इन फल-फूलों को बड़े चाव से खाते हैं। यह ज्ञान उन्हें किस प्रकार प्राप्त होता है, इस गुत्थी को जीवशास्त्री नहीं सुलझा सके हैं। इसी प्रकार की क्षमता बिल्ली में भी होती है, उसे भी आगे घटित होने वाली घटनाओं का पूर्वाभास हो जाता है। कुत्ते की गन्ध क्षमता से तो सभी परिचित हैं। वह चोर द्वारा स्पर्श की हुई भूमि, किसी वस्तु अथवा वस्त्र को ही सूधकर चोर पता लगा लेता है, चाहे चोर मीलों दूर चला गया हो अथवा चोरी की घटना को महीनों गुजर गये हों। इन पशुओं में ऐसो अतीन्द्रिय क्षमता कहाँ से उत्पन्न हई ? इन सब बातों का एक ही उत्तर है कि मस्तिष्क की रचना और ज्ञान तन्तु ऐसे अद्भुत हैं कि उनमें अनेक प्रकार को विलक्षण क्षमताएँ और शक्तियाँ भरी पड़ी हैं, जो मनुष्य को चमत्कृत कर देती हैं । किन्तु स्वयं मनुष्य इनसे अनजान-अपरिचित रहता है। त्वचा की सामर्थ्य और महत्त्व मस्तिष्क तो अनेक क्षमताओं और चमत्कारी शक्तियों का पुञ्ज है ही; Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ जैन योग : सिद्धान्त और साधना किन्तु त्वचा की सामर्थ्य और शक्ति भी कम नहीं है। इसका महत्व भी अत्यधिक है। ___मानव शरीर की चमड़ी का क्षेत्रफल लगभग २५० वर्ग फुट होता है और वजन ६ पौण्ड (लगभग २ किलो, ७५० ग्राम)। इसकी सबसे पतली तह आँखों पर होती है-लगभग '५ मिलीमीटर और सबसे मोटी तह पैर के तलवों में होती है-६ मिलीमीटर। साधारणतया इसकी मोटाई ३ से ३ मिलीमीटर होती है। इसमें अगणित छेद होते हैं। प्राचीन धर्म-शास्त्रों के अनुसार त्वचा में साढ़े तीन करोड़ रोम होते हैं। त्वचा शरीर के लिए एयर कण्डीशनर का काम करती है, अर्थात् जाड़ों में यह शरीर को गर्म रखती है और गर्मियों में ठण्डा । इसकी छह परतें होती हैं, जो विभिन्न कार्य करती हैं। त्वचा में इतनी अद्भुत क्षमताएँ भरी पड़ी हैं कि यदि उन्हें विकसित कर लिया जाय तो वह अन्य इन्द्रियों का काम भी कर सकती है। त्वचा के द्वारा देखा जा सकता है, सूघा जा सकता है, सुना जा सकता है, स्वाद लिया जा सकता है और स्पर्श तो उसका प्रमुख कार्य है ही। (१) मास्को में २२ वर्षीया कुमारी रोजा कुलेशोवा ने अपने दाहिने हाथ की तीसरी व चौथी अंगुली में दृष्टि शक्ति की विद्यमानता का परिचय दिया है । उसने अपनी आँखों पर पट्टी बँधवाकर वैज्ञानिकों के सामने अपनी इन दो अंगुलियों द्वारा समाचार-पत्र का एक पूरा लेख पढ़कर सुनाया और फोटो चित्रों को पहचाना।। (२) एक ६ वर्षीय लड़की में यह शक्ति और भी बढ़ी-चढ़ी है। यह लडकी खाऊब की श्रीमती ओलगा ब्लिजनोवा की पुत्री है। उसने आँखों पर पट्टी बँधी होने पर हाथ से छूकर शतरंज की काली सफेद गोटों को अलगअलग कर दिया, रंगीन कागजों की कतरन की रंग के अनुसार अलग-अलग ढेरी बना दी, रंगीन किताबों को पढ़ दिया । उसने बाँह, कन्धा, पीठ, पैर आदि शरीर के अन्य अवयवों से छूकर भी वैसे ही परिणाम प्रस्तुत किये। इतना ही नहीं, वह दस सेन्टीमीटर दूर रखी वस्तुओं के रंग आदि उसी प्रकार बता देती है, जैसे हम लोग खुली आँखों से बताते हैं। इन परीक्षणों से मनोविज्ञान शाखा के वरिष्ठ शोधकर्ता प्रो० कोन्स्टाटिन प्लातोनोव इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि-मानवीय चेतना-विद्युत की व्यापकता को देखते हुए इस प्रकार की अनुभूतियाँ अप्रत्याशित नहीं है । नेत्रों में जो शक्ति काम करती है, वही अन्यत्र ज्ञानतन्तुओं में काम करती है, उसे विकसित करने पर मस्तिष्क को वैसी ही जानकारी मिल सकती है, जैसी नेत्रों से मिलती है। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव शरीर और योग ५ । बात भी यही है, जैनदर्शन के अनुसार भी आत्मा को चैतन्यधारा सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है, क्षयोपशम भी सम्पूर्ण आत्मप्रदेशों में है, सिर्फ नवृत्ति के उपकरण, जिन्हें इन्द्रियाँ कहा जाता है, शरीर के विभिन्न स्थानों र केन्द्रित हैं, इसीलिए आत्मा उस इन्द्रिय-विशेष से तज्जन्य ज्ञान प्राप्त कर आता है । यदि त्वचा को अधिक संवेदनशील बनाया जा सके तो आत्मा त्वचा । ही अन्य सभी इन्द्रियों का ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम हो जायगा। __उपयुक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि मानव के भीतर असीम 'अगणित क्षमताएँ हैं, शक्तियाँ हैं; आवश्यकता है सिर्फ उन्हें पहचानने व कसित करने की। ___ शरीर से मन की शक्ति असीम है और मन से आत्मा की शक्ति अनन्त । इन शक्तियों को पहचानने व विकसित करने का साधन है, योग । योग द्वारा शरीर, मन एवं आत्मा की सुप्त शक्तियों का ज्ञान एवं का विकास किया जा सकता है। इसोलिए योग-साधना शक्ति जागरण [ मार्ग है। शरीर की अन्य अद्भुत विशेषताएं : चक्रस्थान और मर्मस्थान मांस, मज्जा, अस्थि, रक्त आदि के अतिरिक्त शरीर में कुछ अन्य भुत विशेषताएँ भी हैं। __हमारे शरीर में अनेक मर्मस्थान हैं, चक्र हैं । मर्मस्थान सात सौ हैं र चक्र सात हैं । मर्मस्थानों का चिकित्सा शास्त्र में विशेष उपयोग हुआ है, पान की एक्यूपन्चर चिकित्सा प्रणाली का आधार ये मर्मस्थान ही हैं । कों का महत्व यौगिक प्रक्रियाओं में हैं। । मर्मस्थानों पर ज्ञानतन्तु अधिक एकत्रित और सघन होते हैं । ये स्थान स्पर सम्बन्धित भी होते हैं । यही कारण है कि शरीर में किसी एक स्थान सुई चुभोने से दूसरे स्थान का दबन्द हो जाता है। हमारे यहाँ पहले कानों छेदने की प्रथा थी। उसका चिकित्साशास्त्रीय कारण यह था कि कानों छेदने से मनुष्य की मानसिक उत्त जना कम हो जाती थी, क्योंकि कानों निचला हिस्सा (कान की लौ, जहाँ स्त्रियाँ ईयर-रिंग आदि पहनती हैं) स्थान है और उसका मस्तिष्क के उत्त जनादायक तन्तुओं से सीधा Sanitidieo चक्रस्थान वे होते हैं जहाँ ज्ञान तन्तु उलझे होते हैं। चक्रस्थान, सूक्ष्म र (तैजसशरीर) में हैं (इसे कोई-कोई भावनाशरीर भी कहता है) किन्तु का आकार बनता है स्थूल शरीर (औदारिक शरीर) में । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ जैन योग : सिद्धान्त और साधना इस स्थिति को एक दृष्टान्त से समझिये। जैसे कोई वस्तु दर्पण के सामने रखी है और उसका आकार (प्रतिबिम्ब) उस दर्पण में बन रहा है; किन्तु वस्तु तो वहाँ है ही नहीं। ऐसी दशा में वैज्ञानिकों के सामने कठिनाई यह है कि वे उन चक्रस्थानों से प्रयोगों द्वारा वैसे ही परिणाम प्राप्त करना चाह रहे हैं, जैसे यौगिक ग्रन्थों में चक्र जागरण से बताये गये हैं। लेकिन वैसे परिणाम उन्हें प्राप्त नहीं हो पा रहे हैं। स्थिति बिल्कुल वैसी ही है जैसे कि एक नदी के तट पर खड़े वृक्ष पर एक मणिजटित मूल्यवान हार टंगा था, उसकी परछाईं जल में पड़ रही थी, मणियों की दीप्ति से नदी का वह स्थान जगमगा रहा था। उस चमक से विमोहित होकर कोई व्यक्ति पानी में हाथ-पैर मार कर उस हार को पाने का प्रयत्न करे, तो क्या वह सफब हो सकता है ? चक्रस्थानों का, योगशास्त्रों में 'कमल' नाम दिया है जैसे हृदय-कमल, नाभि-कमल आदि; जूडो (Judo) में क्यूसोस (Kyushos); और शरीरशास्त्री इन्हें ग्लेण्डस (Glands) कहते हैं। ग्लैंड्स (Ductless Glands) वे अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ हैं जिनका स्राव शरीर से बाहर नहीं निकलता, हारमोन के रूप में शरीर के अन्दर ही रक्त आदि में मिल जाता है। यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि चक्रों के जो स्थान और आकार योगाचार्यों ने बताये हैं, आज के शरीरशास्त्रियों ने जो स्थान और आकार ग्लैण्ड्स के माने हैं और जूडो पद्धति में जो स्थान एवं आकार क्यूसोस के स्वीकार किये गये हैं-वे तीनों समान हैं। तीनों की धारणा समान है। उसमें कोई विशेष अन्तर नहीं है । पृष्ठ ७ की तालिका से यह बात पूर्णतः स्पष्ट हो जायगी १. सात चक्रों के स्थान ये हैं (१) मूलाधार का सुषुम्ना का निचला सिरा, (२) स्वाधिष्ठान का मूलाधार से चार अंगुल ऊपर, (३) मणिपूर का नाभि, (४) अनाहत का हृदय, (५) विशुद्धि का कंठ, (६) आज्ञा का भ्र मध्य और (७) सहस्रार का मस्तिष्क (कपाल) में स्थित तालु अथवा ब्रह्मरन्ध्र । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव शरीर और योग ७ योगचक्र ग्लैण्ड्स जूडो क्यूसोस १। मूलाधार चक्र | पेल्विक फ्लेक्सस सुरगिने (Tsurigane) २ स्वाधिष्ठान चक्र एड्रीनल ग्लैण्ड माइओजो (Myojo) मणिपूर चक्र सोलार फ्लेक्सस सुइगेट्सु (Suigetsu) ४ अनाहत चक्र थाइमस ग्लैण्ड FUTETTE (Kyototsu) ५ विशुद्धि चक्र थाइराइड ग्लैण्ड हिचु (Hichu) आज्ञा चक्र पिट्यूटरी ग्लैण्ड । ऊतो (Uto) ७ | सहस्रार चक्र पिनिअल ग्लैण्ड Taust (Tendo) शरीर-वैज्ञानिक एवं मनोवैज्ञानिक इतना तो पता लगा चुके हैं कि इन ग्रन्थियों के स्राव विभिन्न प्रकार के आवेगों के कारण होते हैं। इन्हीं से मनुष्य का व्यक्तित्व बनता है तथा व्यक्तित्व में सन्तुलन आता है। दूसरे शब्दों में किसी मनुष्य के स्वभाव-निर्माण में इन ग्रन्थियों (Glands) और इनके स्रावों का महत्त्वपूर्ण योग होता है; किन्तु इन ग्रन्थियों का शक्ति स्रोत कहाँ है, इसका पता लगाने में वे अभी तक सफल नहीं हो सके हैं। यद्यपि आज के विज्ञान ने काफी प्रयोग किये हैं, खोजें की हैं, शरीर के प्रत्येक अवयव का विश्लेषण भी कर लिया है, और अपने अनुसन्धानों से संसार को चमत्कृत भी कर दिया है। फिर भी उनकी सारी खोजें और सारे प्रयास भौतिक धरातल तक ही सीमित हैं, आध्यात्मिक दृष्टि से उनसे कोई विशेष लाभ नहीं हुआ। इस दृष्टि से आज के विज्ञान के सभी प्रयास और प्रयोग दिशाशून्य हैं, न वे मनुष्य की आत्मा को सुख का मार्ग ही दिखा सकते हैं और न शान्ति ही दे सकते हैं; आज भी मानव की आत्मा सुख और शान्ति के लिए व्याकुल है, छटपटा रही है। इस छटपटाहट को मिटाकर मनुष्य को आत्मिक शान्ति अध्यात्म-योग ही दे सकता है। विज्ञान की सीमा यह है कि वह केवल भौतिक शरीर तक ही सीमित है, लेकिन भौतिक शरीर के भी सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम रूपों तक उसकी पहुँच नहीं है। शरीर की समस्त क्रियाओं का संचालक कौन है, वहाँ तक उसकी दृष्टि अभी नहीं पहँच सकी है। शरीर के संचालक मन, बुद्धि, प्राण आदि हैं और आत्मा तो सब का राजा है ही। इसीलिए भारतीय वैदिक मनीषियों ने पाँच प्रकार के शरीर अथवा आत्मा पर पाँच प्रकार के आवरण माने हैं। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ जैन योग : सिद्धान्त और साधना (१) अन्नमय कोष ___यह स्थूल भौतिक शरीर है; और है आत्मा का सबसे बाहरी आवरण। इसे अन्नमय कोष इसलिए कहा जाता है कि इसकी वृद्धि और स्थिरता भोजन पर ही निर्भर है। इसी में मांस, अस्थि, वसा आदि होते हैं। यह पूरण-गलन स्वभाव वाला है। जैनदर्शन में इसे औदारिक शरीर कहा गया है । (२) प्राणमय कोष यह आत्मा का दूसरा बाहरी आवरण है। इसी के द्वारा स्थूल भौतिक शरीर की क्रियाएं सम्पन्न होती हैं। प्राणमय कोष अथवा शरीर के अभाव में स्थूल शरीर शिथिल एवं निर्जीव हो जाता है । स्थूल शरीर पर इसका नियन्त्रण होता है। समस्त इन्द्रियाँ (स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र) शक्ति रूप से इसमें रहती हैं, स्थूल शरीर में तो उनकी अभिव्यक्ति मात्र होती है। __ सातों चक्रों का स्थान भी मूलतः यही शरीर है। इसका आधार वायु (प्राणवायु) है । श्वासोच्छ्वास इसकी प्रत्यक्ष क्रियाएँ हैं । योगी अपनी योगसाधना से इस शरीर को ही तेजस्वी बनाता है । जितने भी चमत्कार योगियों द्वारा दिखाये जाते हैं, वे सब इसी शरीर के फलस्वरूप होते हैं । आधुनिक योगी अथवा भगवान कहलाने वाले जो शक्तिपात करते हैं, वह भी इसी शरीर के चमत्कार हैं । सारांश में यह शरीर जीवनी शक्ति का आधार एवं प्रमाण है। जैनदर्शन में इसे तैजस् शरीर कहा गया है। (३) मनोमय कोष मनोमय कोष मन का स्थान है। इसमें मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार को अवस्थिति होती है। इस कोष अथवा शरीर का प्राणमय कोष तथा अन्नमय कोष दोनों पर नियन्त्रण रहता है। दूसरे शब्दों में ये दोनों ही शरीर मनोमय कोष से संचालित होते हैं। मनोविज्ञान की भाषा में कहा जाय तो मनोमय कोष चेतन और अवचेतन-दोनों प्रकार के मन का आधार है। राग-द्वेष, प्रिय-अप्रिय, ईर्ष्याद्रोह आदि के संवेग इसी मनोमय कोष में संचित रहते हैं और यहीं से उद्भूत होते हैं ! बुद्धि की मलिनता और निर्मलता भी इसी मनोमय कोष पर निर्भर रहती है। __ यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है कि बुद्धि की तीव्रता और मन्दता, Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव शरीर और योग ६ प्रखरता और तीक्ष्णता तो प्राणमय कोष पर निर्भर रहती है, यानी जिसका प्राणमय कोष जितना तेजस्वी होगा उसकी बुद्धि भी उतनी ही तीव्र होगी; लेकिन वह बुद्धि परोपकार, निर्माण आदि शुभ कार्यों में प्रवृत्त होगी अथवा अशुभ कार्यों में प्रवृत्त होकर पर-पीड़क बन जायेगी-यह मनोमय कोष पर निर्भर है। जिस व्यक्ति का मनोमय कोष जितना निर्मल होगा उसकी प्रवृत्तियाँ भी उतनी ही शुभ होंगी। (४) विज्ञानमय कोष विज्ञानमय कोष आत्मा पर चौथा आवरण है। यह और भी सूक्ष्म होता है। सूक्ष्मता की दृष्टि से यह उपयुक्त तीनों कोषों से अधिक सूक्ष्म होता है । विज्ञानमय कोष में अवस्थित बुद्धि सारग्राही बन जाती है। विज्ञानमय कोष में संकल्प-विकल्प और संवेगों की अवस्थिति नहीं होती, क्योंकि वे सब मन के कार्य हैं। (५) आनन्दमय कोष यह आत्मा का अन्तिम आवरण है और आत्मा के निकटतम सम्पर्क में है। यह आत्मा के आनन्दमय स्वरूप को ढकता है। यद्यपि यह पौद्गलिक है, किन्तु इतना सूक्ष्म है कि आत्मिक आनन्द को पूरी तरह आवृत नहीं कर पाता है। ये पाँचों प्रकार के कोष अथवा आत्मा के आवरण पौद्गलिक होते हुए भी उत्तरोत्तर सूक्ष्म हैं। आत्मा इन सबसे अलग चेतन द्रव्य है, वही इन सबका नियंता है । इस आत्मा को पहचानने व अनुभव करने के लिए योगसाधना ही एक मार्ग है। योग द्वारा आत्मा का दर्शन, स्वसंवेदन, आत्मानुभूति, आत्मा का ज्ञान और आत्मा का जागरण सम्भव होता है । आध्यात्मिक साधना का लक्ष्य योग साधना को ही आध्यात्मिक साधना कहा जाता है । आध्यात्मिक साधना का लक्ष्य है-शरीर और मन की शक्ति को जागृत करना। जैन आगमों का स्पष्ट आघोष है कि तप-साधना वही उचित है, जिसमें इन्द्रियों, शरीर और मन की शक्ति क्षीण न हो और चित्त में आकूलता न उत्पन्न हो, मन सहज रूप से ध्येय की ओर उन्मुख हो और समाधि की प्राप्ति हो । __आत्मिक साधना के नाम पर शरीर और इन्द्रियों को अत्यधिक कृश करके उन्हें अक्षम बना देना उपयुक्त नहीं है। यह निश्चित है कि शरीर के बिना आध्यात्मिक साधना नहीं हो सकती और दुर्बल शरीर से भी साधना होना सम्भव नहीं है । इसीलिए कहा गया है-'शरीरमाद्यं खलुधर्म साधनम्। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० जैन योग : सिद्धान्त और साधना अतः शरीर (तैजस्शरीर) की शक्ति को जागृत कर ऊर्ध्वगामी बनना आध्यात्मिक साधना का प्रथम लक्ष्य है। आध्यात्मिक साधना का दूसरा लक्ष्य है-मन की शक्ति को जाग्रत करना । मन असीम शक्ति का भण्डार है । जिस प्रकार पावर हाउस में विद्युत संचित रहती है, वहीं उसका उत्पादन होता है और वहीं से वह शक्ति तारों द्वारा सम्पूर्ण नगर में फैलती है, नगर के अणु-अण को प्रकाशित करती है। उसी प्रकार शरीर में मन एक पावर हाउस है। समस्त शक्ति मन में-अवचेतन और चेतन मन में संचित रहती है, वहीं उसका उत्पादन होता है और सम्पूर्ण शरीर में स्थित ज्ञानतन्तुओं-कोशिका समूह द्वारा वह सम्पूर्ण शरीर में फैलती है, शरीर को ऊर्जा, स्फूर्ति और क्रियाशक्ति से सम्पन्न करती है । जिस मनुष्य के मन की शक्ति जितनी जाग्रत होती है वह उतना ही ऊर्जस्वी, तेजस्वी और क्रियाशक्ति से सम्पन्न होता है। आधुनिक मनोवैज्ञानिकों का मत है कि मानव-मन में शक्ति का अक्षय कोष भरा पड़ा है। मनोवैज्ञानिकों के मतानुसार सम्पूर्ण मन का ६० प्रतिशत भाग चेतना की अतल गहराइयों में डूबा रहता है, यह मानव का अवचेतन मन है जो अव्यक्त रहता है और १० प्रतिशत ही चेतन मन है। यह चेतन मन भी अत्यधिक शक्तिशाली है। इसकी शक्ति का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि यह समस्त ब्रह्माण्ड को जानने की क्षमता रखता है । इस चेतन मन का ७ प्रतिशत ही मानव अभी तक उपयोग कर पाया है और इतनी शक्ति से ही तमाम वैज्ञानिक चमत्कार सम्भव हो सके हैं; तो जब चेतन मन ही पूर्ण रूप से सक्रिय हो जायगा, तब तो उसकी क्षमता और शक्ति का अनुमान लगाना भी कठिन हो जायेगा। अतः आध्यात्मिक साधना का लक्ष्य इस चेतन तथा अवचेतन मन को जागृत करके उसकी क्षमताओं और शक्तियों का विकास करना है । लेकिन मन और शरीर (इन्द्रियों सहित, क्योंकि इन्द्रियाँ भी तो शरीर में ही अवस्थित हैं) अनादिकालीन संस्कारों के प्रभाव से संसाराभिमुखी हैं, इनकी पंचेन्द्रिय-विषयों में सहज अभिरुचि है, यह स्वाभाविक रूप से विषयवासनाओं की ओर दौड़ते हैं, आत्मा की ओर इनका रुझान कम है। अतः साधक आध्यात्मिक साधना द्वारा शरीर और मन की शक्तियों को जागृत तो करता है, किन्तु उन पर आत्मा का नियन्त्रण रखता है। वह मन रूपो अश्व और शरीर रूपी रथ को बलवान और सुदृढ़ तो रखता है किन्तु बे-लगाम नहीं छोड़ता; कुशल रथी के समान वह लगाम अपने (आत्मा के) हाथों में रखता है; चेतना का नियन्त्रण इन दोनों पर स्थापित करता है। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव शरीर और योग ११ आध्यात्मिक साधना का लक्ष्य है-शरीर और मन की शक्तियों को जागृत करना और उन पर आत्मा का/चेतना का नियन्त्रण रखना। योग की उपयोगिता शरीर और मन की शक्तियों को जागृत करने के लिए योग एक सर्वाधिक उपयोगी साधन है अथवा दूसरे शब्दों में यों भी कहा जा सकता है कि योग के बिना उन शक्तियों को जागृत किया ही नहीं जा सकता, उन शक्तियों का जागरण असम्भव है। इसकी उपयोगिता आत्मिक तो है ही, शारीरिक भी अत्यधिक है। योगआसनों एवं प्राणायाम से शरीर सम्बन्धी विभिन्न प्रकार के रोग ठीक होते हैं, बल-वीर्य बढ़ता है और शरीर में चुस्ती एवं फुर्ती आती है । साथ ही मानसिक शक्तियाँ भी विकसित होती हैं, स्मृति-शक्ति प्रचण्ड होती है, बौद्धिक शक्ति और क्षमता में वृद्धि होती है। योग की आवश्यकता मानव जीवन में योग की आवश्यकता सदा-सदा से रही है। किन्तु आज और भी ज्यादा है । आज का मानव तनावों में जी रहा है। वह अन्दर से टूट रहा है। यह दशा निर्धनों की ही नहीं, ऐश्वर्यशालियों की भी है। अनेक प्रकार की चिन्ताएँ और भ्रान्तियाँ मानव को खोखला कर रही हैं, कचोट रही हैं। वैज्ञानिक अनुसन्धानों द्वारा उपलब्ध शक्तियों और साधनों का उपभोग करते हुए भी मानव अन्दर ही अन्दर त्रस्त है, भयभीत है; उसकी आत्मा छटपटा रही है। वह बेचैन है; क्योंकि उसकी शान्ति छिन चुकी है, सुख विलीन हो चुका है। इसीलिए वह योग और ध्यान शिविरों में जाता है कि उसके बेचैन मन और अकुलाती हुई आत्मा को शान्ति प्राप्त हो। आज योग की कितनी आवश्यकता है, यह योग और ध्यान शिविरों से जानी जा सकती है, जहाँ सैकड़ों व्यक्ति शिथिलीकरण की मुद्रा में और ध्यान मुद्रा में दिखाई देते हैं। ___अतः भूतकाल में योग जितना उपयोगी और आवश्यक था, उससे कहीं अधिक आज है और आने वाले कल के लिए यह आज से भी अधिक उपयोगी होगा। ___ अतः आइये, शरीर एवं मन की शक्तियों को जागृत करने वाली क्रिया का अनुसन्धान करें, मन को तनावों से मुक्त कर शान्ति और प्रसन्नता से भर देने वाली चमत्कारी शान्ति की साधना करें। 00 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ योग की परिभाषा और परम्परा १. योग शब्द की यात्रा ____ 'योग' शब्द संस्कृत की 'युज्' धातु से 'घन' प्रत्यय द्वारा निर्मित हुआ है। संस्कृत व्याकरण में 'युज' नाम की दो धातु हैं। उनमें से एक का अर्थ 'जोड़ना'' है और दूसरी का मनःसमाधि' अथवा मन की स्थिरता है। यदि सरल शब्दों में कहा जाय तो योग शब्द का अर्थ सम्बन्ध स्थापित करना तथा मानसिक, वाचिक एवं शारीरिक स्थिरता प्राप्त करना-दोनों ही हैं। इस प्रकार साधन और साध्य-दोनों ही रूप में 'योग' शब्द अर्थवान है। भारतीय दर्शनों में इस शब्द का प्रयोग इन दोनों ही रूपों में मिलता है। 'योग' शब्द का सम्बन्ध 'युग' से भी है जिसका ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि से प्रयोग काल मान से है । 'युग' का दूसरा अर्थ 'जोतना' भी है और इस अर्थ में इसका प्रयोग वैदिक साहित्य में कई स्थलों पर हुआ है। गणित शास्त्र में 'योग' का अर्थ 'जोड़' है । ___ भाषाशास्त्र की दृष्टि से विचार किया जाय तो 'योग' प्राचीन भारतीय आर्य भाषाओं (Indo-Aryan languages) के परिवार का है। यह जर्मनभाषा (German language) के जोक (Jock), ऍग्लो सेक्सन (Angle-Saxon) के गेओक (Geoc), इउक (Iuc), इओक (Ioc), ग्रीक (Greek) के जुगोन (Zugon), तथा लैटिन (Latin) के इउगम (Iugum) के समकक्ष तथा समानार्थक है। -हेमचन्द्र धातुमाला, गण ७. -हेमचन्द्र धातुमाला, गण ४. १ युजपी योगे। २ युजि च समाधौ । ३ दर्शन और चिन्तन, प्रथम खण्ड, पृ० २३०. ४ Yoga Philosophy, p. 43. Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग की परिभाषा और परम्परा १३ वैदिक साहित्य में योग शब्द प्राचीन साहित्य में सर्वप्रथम ऋग्वेद में 'योग' शब्द मिलता है, यहाँ इसका अर्थ 'जोड़ना' मात्र है।' ईसा पूर्व ७००-८०० तक निर्मित साहित्य में 'योग' शब्द 'इन्द्रियों को प्रवृत्त करना' इस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है तथा ई० पू० ५००-६०० तक रचित साहित्य में 'इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखना' इस अर्थ में 'योग' शब्द का प्रयोग हुआ है। उपनिषद् साहित्य में 'योग' पूर्णतः आध्यात्मिक अर्थ में प्रयुक्त हुआ मिलता है। कुछ उपनिषदों में योग और योग-साधना का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। मैत्रेयी और श्वेताश्वतर उपनिषदों में तो योग को विकसित भूमिका प्रस्तुत की गई है। यहाँ तक कि योग, योगोचित स्थान, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, कुण्डलिनी विविध प्रकार के मन्त्र, जप और जप की विधि आदि का विस्तृत विवरण इन उपनिषदों में प्राप्त होता है। इस प्रकार ऋग्वेद में 'जोड़ने' के अर्थ में प्रयुक्त शब्द 'योग' उपनिषद् १ (क) स घा नो योग आ भुवत् । -ऋग्वेद, १/५/३ (ख) स धीनां योगमिन्वति । -वही, १/१८/७ (ग) कदा योगो वाजिनो रासभस्य । -वही, १/३४/६ (घ) वाजयन्निव नू रथान् योगां अग्नेरूपस्तुहि । -वही, २/८/१ इत्यादि २ Philosophical Essays, p. 179. ३ (क) अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं मत्वा धीरो हर्ष-शोको जहाति । -कठोपनिषद १/२/१२ (ख) तां योग मितिमन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम् । अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययौ ।। -वही. २/३/११ (ग) तैत्तिरीयोपनिषद् २/१४ । ४ (१) योगराजोपनिषद्, (२) अद्वयतारकोपनिषद्, (३) अमृतनादोपनिषद्, (४) त्रिशिख ब्राह्मणोपनिषद, (५) दर्शनोपनिषद् (६) ध्यानबिन्दु उपनिषद्, (७) हंस, (८) ब्रह्मविद्या, (६) शाण्डिल्य, (१०) वाराह, (११) योगशिख, (१२) योगतत्व, (१३) योग चूड़ामणि, (१४) महावाक्य, (१५) योगकुण्डली, (१६) मण्डल ब्राह्मण, (१७) पाशुपत ब्राह्मण, (१८) नादबिन्दु, (१६) तेजोबिन्दु, (२०) अमृत बिन्दु, (२१) मुक्तिकोपनिषद्-इन २१ उपनिषदों में योग का ही वर्णन हुआ है। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ जैन योग : सिद्धान्त और साधना काल तक आते-आते शरीर, इन्दिय एवं मन को स्थिर करने की साधना के अर्थ में भी प्रयोग किया जाने लगा। महाभारत में योग के विभिन्न अंगों का विवेचन प्राप्त होता है। स्कन्दपुराण' में कई स्थानों पर योग की चर्चा है। भागवतपुराण में योग की चर्चा के साथ-साथ अष्टांग योग की व्याख्या, महिमा तथा योग से प्राप्त होने वाली अनेक लब्धियों का वर्णन किया गया है। योगवाशिष्ठ के छह प्रकरणों में योग के विभिन्न सन्दर्भो की व्याख्या आख्यानकों के माध्यम से हुई है और इनसे योग सम्बन्धी विचारों को पुष्टि की गई है। 'योग' शब्द इस समय तक आते-आते इतना व्यापक और प्रचलित हो गया कि गीता के अठारह अध्यायों के नाम ही योग पर रखे गये हैं, प्रत्येक अध्याय के अन्त में 'योग' शब्द आया है, जैसे-"ॐ तत्सदिति श्रीमद् भगवतगीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संवादेऽर्जुनविषादयोगे नाम प्रथमोऽध्यायः।" इसी प्रकार अठारह अध्यायों के नाम दिये गये हैं । गोता में अठारह प्रकार के योगों का वर्णन हुआ है। यह 'योग' शब्द की लोकप्रियता एवं व्यापक प्रसार का प्रमाण है। १ महाभारत के शान्तिपर्व, अनुशासन पर्व एवं भीष्म पर्व द्रष्टव्य हैं। २ स्कन्दपुराण, भाग १, अध्याय ५५ ३ भागवतपुराण ३/२८; ११/१५; १६-२०. ४ द्रष्टव्य---योगवाशिष्ठ के वैराग्य, मुमुक्षु व्यवहार, उत्पत्ति, स्थिति, उपशम और निर्वाण प्रकरण । ५ (१) ज्ञानयोग ३/३; १३/२४; (२) भक्तियोग १४/२६; (३) आत्मयोग १०/६८, ११/४७; (४) बुद्धियोग १०/१०, १८/५७; (५) सातत्ययोग १०/६, १२/१; (६) शरणागतियोग ६/३२-३४, १८/६४-६६; (७) नित्ययोग ६/२२; (८) ऐश्वरीययोग ६/५, ११/४, ह; (६) अभ्यासयोग ८/८, १२/६; (१०) ध्यानयोग १२/५२; (११) दुःख संयोग-वियोगयोग ६/२३; (१२) संन्यासयोग ६/२, ६/२८; (१३) ब्रह्मयोग ५/२१; (१४) यज्ञयोग ४/२८; (१५) आत्म-संयमयोग ४/२७; (१६) दैवयोग ४/२५; (१७) कर्मयोग ३/३, ५/२, १३/२४; (१८) समत्वयोग २/४८, ६/२६, ३३-इन अठारह प्रकार के योगों का उल्लेख एवं वर्णन गीता में हुआ है । इसीलिए श्रीमद्भगवद्गीता का दूसरा नाम 'योग शास्त्र' भी है । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग की परिभाषा और परम्परा १५ महर्षि पतंजलि रचित ग्रन्थ तो 'योगदर्शन' है ही; किन्तु न्याय दर्शन' में भी योग को उचित स्थान प्राप्त हुआ है । वैशेषिक दर्शन के प्रणेता कणाद ने भी यम-नियम आदि पर काफो जोर दिया है। ब्रह्मसूत्र के तीसरे अध्याय में आसन, ध्यान आदि योग के अंगों का वर्णन है, अतः इसका नाम ही साधनपाद है । सांख्यदर्शन में भी योग विषयक अनेक सूत्र हैं। तन्त्रयोग के अन्तर्गत आदिनाथ ने हठयोग सिद्धान्त की स्थापना की। इसका उद्देश्य यौगिक क्रियाओं द्वारा शरीर के अंग-प्रत्यंग पर प्रभुत्व तथा मन की स्थिरता प्राप्ति है । महानिर्वाण तन्त्र और षट्चक्र निरूपण ग्रन्थों में योग साधना का विस्तारपूर्वक वर्णन हुआ है। यह तो वैदिक परम्परा में योग शब्द तथा उसके विभिन्न अर्थों, सन्दर्भो और योग-साधना-सम्बन्धी-योग शब्द की यात्रा का संक्षिप्त विवरण है। इसके साथ ही बौद्धदर्शन में योग को क्या स्थिति रहो, यह भी समझना आवश्यक है। बौद्ध दर्शन प्राचीन श्रमण संस्कृति की ही एक धारा है। इसलिए यह निवृत्तिप्रधान है । यद्यपि बौद्ध चेतना अथवा आत्मा को क्षणिक मानते हैं, फिर भी उन्होंने ध्यान, समाधि आदि का वर्णन किया है। बौद्ध योग साधना का वर्णन 'विसुद्धिमग्गो', 'समाधिराज' 'अंगुत्तरनिकाय', दीघनिकाय, शाक्यो(श टीका आदि ग्रन्थों में है। वहाँ आहार (खान-पान), शील, प्रज्ञा, ध्यान आदि के रूप में योग साधना का वर्णन हुआ है। बौद्धों द्वारा प्रयुक्त विपश्यना ध्यान की पद्धति आधुनिक युग में अधिक प्रचलित हुई है। बोधित्व प्राप्त करने से पूर्व तथागत बुद्ध ने भी श्वासोच्छ्वासनिरोध १ (क) समाधिविशेषाभ्यासात् । -न्यायदर्शन ४/२/३६ (ख) अरण्यगुहापुलिनदिषु योगाभ्यासोपदेशः । -वही ४/२/४० (ग) तदर्थ यमनियमाभ्यासात्मसंस्कारो योगाच्वात्मविध्युपायैः ।। -वही ४/२/४६ २ अभिषेचनोपवास-ब्रह्मचर्य-गुरुकुलवास-वानप्रस्थ-यज्ञदान-प्रोक्षण-दिङ् नक्षत्र-मन्त्रकाल-नियमाश्चादृष्टाय । -वैशेषिक दर्शन ६/२/२; ६/२/८ ३ ब्रह्मसूत्र ४/१/७-११. ४ सांख्यसूत्र ३/३०-३४. ५ महानिर्वाण तन्त्र अध्याय ३; तथा Tantrik Texts में प्रकाशित षट्चक्रनिरूपण पृष्ठ ६०, ६१, ८२, ६० और ११४. Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ जैन योग : सिद्धान्त और साधना करने का प्रयास किया था, दूसरे शब्दों में प्राणायाम साधना की थी । उन्होंने स्वयं अपने शिष्य अग्गिवेसन से एक बार कहा --- मैं श्वासोच्छ्वास का निरोध करना चाहता था, इसलिए मैं मुख, नाक एवं कान (कर्ण) में से निकलते हुए साँस को रोकने का प्रयत्न करता रहा, उसके निरोध का प्रयत्न करता रहा । ' तथागत बुद्ध ने अपने अष्टांगिक मार्ग में समाधि को विशेष महत्त्व दिया । सही शब्दों में, समाधि तक पहुँचने के लिए ही बौद्धदर्शनसम्मत अष्टांग मार्ग में शेष सात अंगों का वर्णन हुआ है । समाधि को प्राप्त करने के लिए वहाँ ध्यान आवश्यक माना है । जैनदर्शन में योग भारतीय दर्शनशास्त्रों में जैनदर्शन का अपना एक विशिष्ट स्थान रहा है । जैसा कि हम आगे बतायेंगे - योगविद्या के प्रथम प्रणेता आदि तीर्थंकर ऋषभदेव (हिरण्यगर्भ) हैं, अत: जैन दर्शन में भी योग का महत्त्व अत्यन्त प्राचीन काल से मान्य रहा है । जैन दर्शन में 'योग' शब्द कई सन्दर्भों में प्रयुक्त हुआ है; यथा - संयम, निर्जरा, संवर आदि के अर्थ में; तथा एक दूसरे अर्थ में भी इसका प्रयोग मिलता है, यथा - मन-वचन-काय का व्यापार अर्थात् मनोयोग, वचनयोग और काययोग | 3 उत्तराध्ययन सूत्र, जो भगवान महावीर की अन्तिम वाणी है, उसमें योग शब्द का कई बार प्रयोग मिलता है । जोगव उवहाणं - योगवान । तथा उसी सूत्र में यह गाथा मिलती है वहणं वहमाणस्स कंतारं अइवत्तई । जोए वहमाणस्स, संसारो अइवत्तई ॥ अर्थात् — वाहन को वहन करते हुए भी बैल जैसे अरण्य को लांघ जाता है उसी प्रकार योग को वहन करते हुए मुनि संसार रूपी अरण्य को पार कर जाता है । यहाँ 'योग' शब्द संयम साधना के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । १ अंगुत्तरनिकाय ६३. २ मज्झिमनिकाय, दीघनिकाय, सामञ्ञफल सुत्त, बुद्धलीलासार संग्रह, पृष्ठ १२८; समाधिमार्ग (धर्मानन्द कोसाम्बी), पृष्ठ १५. उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन ११. ३ ४ उत्तराध्ययन सूत्र, २७ / २. Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग की परिभाषा और परम्परा १७ सूत्रकृतांग में भी 'जोगवं" शब्द आया है । यहाँ भी यह संयम अर्थ में et प्रयुक्त हुआ है और टीकाकार ने इसका अर्थ समाधि किया है । स्थानांग सूत्र में 'जोगवाही " शब्द समाधि में स्थिर अनासक्त पुरुष के लिए प्रयुक्त हुआ है । 3 इस प्रकार जैन आगमों में 'योग' शब्द अनेक स्थानों पर संयम और समाधि अर्थ में मिलता है; किन्तु इसका दूसरा सन्दर्भ भी है - मन-वचन-काय का व्यापार; इस अर्थ में भी इसका प्रयोग उत्तराध्ययन सूत्र, तत्त्वार्थ सूत्र आदि ग्रन्थों में उपलब्ध है; किन्तु वहाँ मन-वचन-काय के व्यापार को रोकने की प्रेरणा दी गई है । वहाँ यह निर्देशित है कि योगों के व्यापार से आस्रव होता है और उनके निरोध से संवर, जो मुक्ति के लिए आवश्यक सोपान है । इस प्रकार प्राचीन जैन साहित्य में 'योग' शब्द जहाँ संयम, ध्यान एवं तप के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है वहाँ मन-वचन-काय की प्रवृत्ति के अर्थ में भी । महर्षि पतंजलि ने योग को चित्तवृत्तियों का निरोध* बताया है जिसे जैन परिभाषा में 'मनःसंवर' कहा जा सकता है । आचारांग सूत्र, जो सबसे प्राचीन जैन आगम है, उसमें साधु (योगी) के लिए धूत अवधूत शब्दों का प्रयोग हुआ है, वैदिक एवं बौद्ध साहित्य में स्पष्टतः ये शब्द योगी के लिए प्रयुक्त होते रहे हैं । इस प्रकार जैनदर्शन में योग शब्द तप, ध्यान, संवर आदि के लिए प्रयुक्त होता रहा है । उपाध्याय यशोविजयजी ने समिति और गुप्ति की साधना को भी योग का अंग माना है । (देखें पा० यो० १ / २ की वृत्ति) १ जययं विहराहि जोगवं, अणुपाणा पंथा दुरुत्तरा । अणुसासणमेव पक्कम्मे, वीरेहिं सम्मं पवेदियं ॥ - सूत्रकृतांग, प्रथम श्रुतस्कन्ध, अध्ययन २, उद्देशक १, गा० ११ २ स्थानांगसूत्र, स्थान १० ३ (क) जोगपच्चवखाणेणं अजोगत्तं जणयइ । अजोगीणं जीवे नवं कम्मं न बंधड़ पुव्वबद्धं निज्जरेइ || (ख) जोगसच्चं जोगं विसोहेइ । (ग) मणसमाहरणाए णं एगग्गं जणयइ । ४ तत्वार्थ सूत्र ६ / १-२; ९/१ ५ योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः । ६ आचारांग १ / ६ /१८१ । - उत्तराध्ययन २६ / ३८ — उत्तराध्ययन २६ / ५३ - उत्तराध्ययन २६/५८ - पातंजल योगदर्शन १/२ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ जैन योग : सिद्धान्त और साधना जैन दर्शन का योग सम्बन्धी स्वतन्त्र चिन्तन सामान्यतः सभी जिज्ञासुओं, विद्वानों और यहाँ तक कि जैन विद्वानों के मस्तिष्क में प्रश्न गूंजते रहते हैं कि जैन दर्शन में 'योग' मान्य है या नहीं ? आचार्य हरिभद्र की योग सम्बन्धो रचनाओं से पहले जैन धर्म साहित्य में योग को क्या स्थिति थी ? क्या योग सम्बन्धी जैन मनीषियों तथा चिन्तकों का कोई स्वतन्त्र चिन्तन था ? इन प्रश्नों के सही समाधान को समझने के लिए ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को जानने की आवश्यकता है । वस्तुतः योग है क्या? योग एक साधना पद्धति का नाम है । भारत में प्राचीन काल में दो धार्मिक परम्पराएँ थीं-श्रमण और वैदिक । श्रमण परम्परा की ही एक शाखा बौद्ध परम्परा थी और मुख्य धारा थी जैन । इनके अतिरिक्त और भी अवान्तर परम्पराएँ थीं। इन सभी का उद्देश्य अथवा चरम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति था और इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सभी की अपनी-अपनी साधना पद्धतियाँ थीं और उन साधना-पद्धतियों के अलग-अलग नाम थे। बौद्ध परम्परा की सोधना-पद्धति का नाम अष्टांगमार्ग था । वैदिक दर्शनों में किसी ने भक्ति को तो किसी ने ज्ञान को; और किसी ने यज्ञयाग तथा कर्मकाण्ड को मुक्ति का साधन बताया। गीता ने फलाकांक्षा रहित अनासक्त कर्मयोग को मुक्ति का पथ स्वीकार किया। सांख्यदर्शन की साधना पद्धति अष्टांग योग है, जिसका सम्पूर्ण और विस्तृत विवेचन योगदर्शन के नाम से प्रसिद्ध है। इस दृष्टि से विचार किया जाय तो जैन परम्परा की साधना-पद्धति का नाम 'रत्नत्रय' है, इसे मोक्ष मार्ग भी कहा गया है। ये तीन रत्न हैंसम्यगदर्शन, सम्यज्ञान और सम्यक्चारित्र ।' चारित्र का ही एक अवान्तर भेद है तप और तप का एक भेद है ध्यान । साथ ही कर्मास्रवों को रोकने की प्रक्रिया को ‘संवर' द्वारा व्यक्त किया गया है। इस प्रकार जैन योग के दो मुख्य और महत्वपूर्ण सूत्र है-संवरयोग और तपोयोग । तप को पुष्ट करने और उसमें गहराई लाने के लिए बारह १ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । -तत्वार्थ सूत्र १/१ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग को परिभाषा और परम्परा १६ हावनाओं-अनुप्रेक्षाओं का विधान है, अतः भावनायोग' भी जैन योग का एक प्रमुख अंग है। संवर पाँच हैं-(१) सम्यक्त्व, (२) व्रत, (३) अप्रमाद, (४) अकषाय और (५) अयोग । ये पाँच ही साधना की भूमिकाएँ हैं । साधक उत्तरोत्तर इन भूमिकाओं पर पहुँचता है और ज्यों-ज्यों वह एक के बाद एक ऊँची अमिका को स्पर्श करता है, वह अपने लक्ष्य मोक्ष के नजदीक पहुँचता जाता है और अयोग अवस्था के बाद वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। है. जैन साधना पद्धति में तप के बारह भेद बताये गये हैं-छह बाह्य और छह अन्तरंग । अन्तरंग तपों में ध्यान एक विशिष्ट और महत्वपूर्ण तप है। ध्यान ही साधक की साधना का आदि, मध्य और अन्त है ।। - इस प्रकार जैन साधना का क्रम बनता है-ध्यानयोग, तपोयोग, संवरयोग एवं भावनायोग। । यद्यपि जैन आगमों में, योगदर्शन की भाँति प्रत्याहार, धारणा आदि शब्दों का उल्लेख नहीं हुआ है। किन्तु साधना पद्धति का स्पष्ट व्यवस्थित था सूक्ष्म विवेचन अवश्य प्राप्त होता है । उसका कारण यह है कि जैन म की साधना पद्धति स्वतन्त्र है, वह योगदर्शन अथवा किसी अन्य दर्शन से भावित नहीं है, उसकी अपनो स्वतन्त्र चिन्तन प्रणाली एवं साधना विधि है, सिलिए इसकी व्यवस्था भिन्न है। आचारांग सूत्र जैन धर्म का सबसे प्राचीन ग्रन्थ है। उसमें जैन साधना द्धति का बहुत ही मार्मिक और सूक्ष्म प्रतिपादन है। सूत्रकृतांग सूत्र, भगती सूत्र और ठाणांग (स्थानांग) सूत्र आदि आगमों में यत्र-तत्र आसन,२ भावणाजोग सुद्धप्पा, जले नावा व आहिया। नावा व तीर सम्पन्ना, सव्वदुवखा तिउति ॥ -सूत्रकृतांग, प्रथम श्र तस्कन्ध, अध्ययन १५, गाथा ५ विभिन्न प्रकार के आसनों के वर्णन हेतु देखिए-ठाणांग, सूत्र ३९६,४६०; बृहत्कल्प सूत्र; जीवाभिगम.३,४०६; भगवती १/११; प्रश्नव्याकरण १६१; आचारांग ३१२; विपाक ४६; कल्पसूत्र; सूत्रकृतांग २,२; ज्ञाता० १/१; उत्तराध्ययन ३०/२७; औपपातिक सूत्र, दशाथ तस्कंध आदि-आदि । इन आगमों में वीरासन, उत्कटिक आसन, दण्डासन, पद्मासन, गोदोहिका आसन, हंसासन, पर्यंकासन, अर्चपर्यंकासन, लगंडासन आदि अनेक आसनों का उल्लेख प्राप्त होता है । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० जैन योग : सिद्धान्त और साधना ध्यान आदि का वर्णन मिलता है । औपपातिक सूत्र में तो तपोयोग का बहुत ही व्यवस्थित वर्णन हुआ है। आगम साहित्य में जैन साधना विधि के बीज बिखरे हुए प्राप्त होते हैं। भगवान महावीर ने १२ वर्ष एवं छह महीने तक विविध आसन, ध्यान आदि की कठोर और दीर्घकालीन साधना की थी। दुर्भाग्य से आज वह विधि प्राप्त नहीं है, आसनों के नाममात्र का उल्लेख मिलता है। ग्रन्थों में उल्लेख है कि श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी ने बारह वर्ष की 'महाप्राण ध्यान-साधना' की थी । अन्य मुनियों के बारे में भी ऐसे उल्लेख प्राप्त होते हैं। 'सर्व संवर योग ध्यान साधना' का उल्लेख अन्य कई आचार्यों के बारे में मिलता है। किन्त आगमों में उल्लिखित इन ध्यानयोग साधनाओं का सम्पूर्ण विधिविधान एवं प्रक्रिया आज उपलब्ध नहीं है। नियुक्ति साहित्य में जनसाधना की प्रक्रियाओं का विस्तारपूर्वक निरूपण हुआ है। आचार्य भद्रबाहुरचित आवश्यकनियुक्ति में कायोत्सर्ग नाम का एक अध्ययन है, इसमें साधना प्रक्रिया का सांगोपांग वर्णन है। 'कायोत्सर्ग' योग की एक उच्चकोटि की भूमिका है। कायोत्सर्ग के उपरान्त मानसिक एकाग्रता की दूसरी भूमिका ध्यान है। ध्यान का विशद विवेचन जिनभद्रगणीरचित ध्यान शतक में प्राप्त होता है। देवनन्दि पूज्यपादरचित समाधि शतक और इष्टोपदेश आध्यात्मिक अनुभूतियों से भरे शास्त्र हैं। बृहत्कल्पभाष्य, व्यवहारभाष्य आदि ग्रन्थों में भी प्रसंगानुसार आसन, ध्यान आदि को चर्चा हुई है । विक्रम की आठवीं शताब्दी में जैन योग में एक नये अध्याय का सूत्रपात हुआ। इसके प्रारम्भकर्ता हैं श्री हरिभद्रसूरि। इनके मुख्य ग्रन्थ हैंयोगदृष्टिसमुच्चय, योगबिन्दु, योगशतक और योगविशिका। इन्होंने योग की प्रचलित पद्धतियों और परिभाषाओं के साथ समन्वय स्थापित किया और जैन योग को एक नई दिशा प्रदान की। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उनका योग-वर्गीकरण मौलिक है । इस रूप में वह न तो जैन आगमों में मिलता है और न अन्य योग-परम्पराओं से उन्होंने उधार ही लिया है । उन्होने योग के पांच' प्रकार बताये हैं-(१) अध्यात्म, (२) भावना, (३) १ अध्यात्म भावना ध्यानं, समता वृत्तिसंक्षयः । __ मोक्षण योजनाद् योगः, एष श्रेष्ठो यथोत्तरम् ॥ -योगबिन्दु ३१ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 107evidehi.M. योग की परिभाषा और परम्परा २१ ध्यान, (४) समता और (५) वृत्तिसंक्षय । इन पाँच अंगों में योग के आठ अंगों का समावेश हो जाता है। जैसे-अध्यात्म और भावना में-यम-नियम-आसनप्राणायाम, प्रत्याहार का, ध्यान में-धारणा व ध्यान का, समता व वृत्तिसंक्षम में समाधि का। वैसे प्रथम चार प्रकार-संप्रज्ञातयोग में तथा वृत्तिसंक्षय असंप्रज्ञातयोग (निर्बीज समाधि) में समाविष्ट हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने योग की आठ दृष्टियों का वर्णन भी किया है जो सर्वथा मौलिक और सर्वग्राही है। यहाँ तक, जैन योग सम्बन्धी विचारधारा पूर्णतया स्वतन्त्र रही, इस पर न हठयोग का प्रभाव पड़ा और न योगदर्शन का प्रभाव ही परिलक्षित होता है। . इसके उपरान्त योग सम्बन्धी प्रमुख ग्रन्थ हेमचन्द्राचार्य का योगशास्त्र तथा शुभचन्द्राचार्य का ज्ञानार्णव हैं। इन दोनों ही ग्रन्थों पर हठयोग का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। अष्टांग योग और तन्त्रशास्त्र का प्रभाव भी इन पर लक्षित होता है। आगमयुग का धर्मध्यान (संस्थानविचय धर्मध्यान) अब पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत इन चार भागों में विभक्त हो गया। कुण्डलिनी ध्यान चक्र आदि की चर्चा भी सम्मिलित कर ली गई और पार्थिवी आदि धारणाओं को भी स्थान प्राप्त हो गया। इसके उपरान्त जैन मुनियों ने अन्य भी अनेक योग सम्बन्धी ग्रन्थ लिखे हैं। इनमें उपाध्याय विनयविजयजी का शान्तसुधारस-~-भावनायोग की सुन्दर कृति है । उपाध्याय यशोविजयजी ने भी अध्यात्मोपनिषद्, अध्यात्मसार, योगावतार द्वात्रिंशिका आदि योग विषयक ग्रन्थों की रचना की। इस विवेचन से स्पष्ट है कि जैन योग की धारा योग सम्बन्धी अन्य धाराओं से मौलिक और स्वतन्त्र है। जैन दर्शनसम्मत ध्यानयोग, तपोयोग, संवरयोग, संयमयोग, अध्यात्मयोग, भावनायोग आदि ऐसे योग हैं जिनकी चर्चा योगदर्शन तथा अन्य योग परम्पराओं में या तो प्राप्त ही नहीं होती और यदि प्राप्त होती भी है तो बहुत ही कम । समिति और गुप्ति योग तथा भावनायोग और इसीप्रकार संवरयोग तो विशेष रूप से जैनधर्म की ही देन हैं। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ योग का प्रारम्भ योग का प्रारम्भ शान्ति को खोज से हुआ। शक्ति, सत्ता और धन के भार में दबा मानव जब भीतर से एक अकुलाहट, अतृप्ति और प्रतिद्वन्द्वी के भय की अनुभूति से बेचैन होकर कभी शान्त, एकान्त स्थान में बैठा होगा, बाह्य चिन्ताएँ छूट गई होंगी, मन स्थिर हुआ, अपने आप पर केन्द्रित हुआ, और भीतर में छुपे हुए शान्ति स्रोत से आप्लावित हो सहसा कुछ शीतलता, निर्भयता और परितृप्ति का अनुभव करने लगा तो वह चकित रह गया होगा, आज तक जो तृप्ति और शान्ति नहीं मिली, वह कुछ ही क्षणों में स्थिर और शान्त होकर बैठने से अनुभव हुई तो इस रहस्य की खोज में वह आगे बढ़ा। बाहर से भीतर में प्रविष्ट हुआ । शरीर एवं मन के केन्द्रों को टटोलने लगा, पहचानने लगा तो उसके सामने रहस्यों का संसार खुलने लगा, शान्ति का एक अजस्र स्रोत सा उमड़ने लगा और उसे लगो-शान्ति तो मेरे भीतर ही है। बाहर में अशान्ति है, भीतर में शान्ति है । वह बाहर से हटा, भीतर में मुड़ा; भोग से हटा, योग में जुटा । बस, यह शान्ति की खोज ही मनुष्य को योग की तरफ ले गई। 'योग' शान्ति का मार्ग और आन्तरिक शक्तियों को जानने, जगाने का फार्मूला बन गया। योग का प्रारम्भ कब हुआ? इसका उत्तर कठिन भी है, सरल भी। योग के प्रारम्भ का निश्चित काल व तिथि आज तक कोई नहीं खोज सका, किन्तु यह बहुत ही सरल व स्पष्ट बात है कि जब से मनुष्य ने शान्ति की खोज प्रारम्भ की तभी से योगविद्या का प्रारम्भ हुआ। __आज के उपलब्ध साहित्य, परम्परा और साक्ष्यों के आधार पर भगवान ऋषभदेव योगविद्या के आदि प्रवर्तक माने जाते हैं । जैन आगम ग्रन्थों के अनुसार इस अवसर्पिण। युग के वे प्रथम योगी व योगविद्या के प्रथम उपदेष्टा थे। उन्होंने सांसारिक (भौतिक) वासनाओं से व्याकुल, धन-सत्ता और शक्ति की प्रतिस्पर्धा में अकुलाते अपने पुत्रों को सर्वप्रथम 'सम्बोधि'१ १ सूत्रकृतांग १/२/१/१ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ योग का प्रारम्भ ( ज्ञानपूर्ण समाधि) का मार्ग बताया, जिसे आज की भाषा में 'योग मार्ग' कह सकते हैं । श्रीमद्भागवत में प्रथम योगीश्वर के रूप में भगवान ऋषभदेव का स्मरण किया गया है । वहाँ बताया है- भगवान् ऋषभदेव स्वयं नाना प्रकार की योगचर्याओं का आचरण करते थे । " महाभारतकार ने योगविद्या के प्रारम्भकर्ता हिरण्यगर्भ को माना है । साथ ही यह भी कहा है कि योगविद्या से पुरातन कोई विद्या तथा दर्शन नहीं है और हिरण्यगर्भ ही सबसे प्राचीन हैं । " ऋग्वेद में भी हिरण्यगर्भ की प्राचीनता प्रमाणित की गई है, तथा उनकी पुरातनता को स्वीकार करते हुए ऋग्वेद के ऋषि ने उनके स्तुति मन्त्र गाये हैं हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे, भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् । स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ कहा अर्थात् — हिरण्यगर्भ ही पहले उत्पन्न हुए थे । वे समस्त भूतों के स्वामी थे । उन्हीं ने इस पृथ्वी और स्वर्गलोक को धारण किया। उन अनिर्वचनीय देव की हम अर्चना करते हैं । श्रीमद्भागवत् ( ५ / ६ / १३), अद्भुत रामायण ( १५ / ६ ), वायुपुराण (४ /७८) आदि में भी इसी प्रकार के उल्लेख प्राप्त होते हैं कि हिरण्यगर्भ ही सबसे पुरातन हैं और उन्होंने ही योगविद्या का प्रारम्भ किया था । श्री नीलकण्ठ ने 'महानिति च योगेषु' सूत्र की टीका करते हुए स्पष्ट योगेषु एष महानिति प्रथमं कार्यम् । अर्थात् — उन हिरण्यगर्भ महाराज की यही 'महान् इति' है कि उन्होंने वेदों से भी पहले योगविद्या अथवा पराविद्या का प्रादुर्भाव किया था । इस प्रकार श्रमण (जैन) परम्परा के अनुसार भगवान ऋषभदेव योगविद्या के प्रारम्भकर्ता थे और वैदिक परम्परा के अनुसार हिरण्यगर्भः किन्तु १ (क) भगवान् ऋषभदेवो योगेश्वरः । (ख) नाना योगश्चर्याचरणे भगवान कैवल्यपतिॠषभः । २ हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता नान्यः पुरातनः । - ऋग्वेद १०/१२१/१ - श्रीमद्भागवत ५/४/३ - श्रीमद्भागवत ५/२/२५ - महाभारत १२ / ३४९/६५ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जैन योग : सिद्धान्त और साधना वस्तुतः ये दो महापुरुष न होकर एक ही थे; क्योंकि ऋषभदेव के अन्य नामों में एक नाम हिरण्यगर्भ भी था; जैसा कि महापुराणकार ने कहा है सैषा हिरण्मयो वृष्टिः धनेशेन निपातिता। विमोहिरण्यगर्भत्वमिव बोधयितुं जगत् ॥ __-महापुराण १२/६५ अर्थात्-जब भगवान ऋषभदेव गर्भ में आये तो धनपति कुबेर ने माता-पिता का भवन हिरण्य की वृष्टि करके भर दिया अतः वे (ऋषभदेव) जगत् में हिरण्यगर्भ के नाम से प्रख्यात हुए। अतः जैन और वैदिक दोनों ही परम्पराओं की मान्यता के अनुसार भगवान ऋषभदेव अपर नाम हिरण्यगर्भ योगविद्या के आदिप्रणेता हैं। भगवान ऋषभदेव द्वारा प्रदत्त यह योगविद्या सुदीर्घ काल तक चलती रही। इस बोच असंख्य लोग योग साधना करते रहे और संसार से मुक्ति प्राप्त करते रहे। योगियों की परम्परा का प्रमाण हमें मोहनजोदड़ो की खुदाई से प्राप्त मुद्राओं में मिलता है। वहाँ कायोत्सर्ग मुद्रा में एक ध्यानावस्थित योगी की मोहर (seal)१ प्राप्त हुई है। स्व० राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने इसे जैन तीर्थंकर की मूर्ति माना है। वे लिखते हैं-"मोहनजोदड़ो की खुदाई में प्राप्त मोहरों में से एक में योग के प्रमाण मिले हैं । एक मोहर में एक ओर वृषभ तथा दूसरी ओर ध्यानस्थ योगी हैं, जो जैन धर्म के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव हैं । उनके साथ भी योग को परम्परा लिपटी हुई है।" इसके अतिरिक्त पटना के निकट लोहानोपुर से प्राप्त नग्न कायोत्सर्ग स्थित मूर्ति से भी इस बात की पुष्टि होती है। ___ इस प्रकार योग, योगी और योग-प्रक्रियाएँ सुदीर्घकाल तक चलती रहीं। किन्तु एक विशेष बात यह हुई कि काल प्रवाह से 'योग' अनेक प्रकार की विद्याओं, विशेषकर आध्यात्मिक विद्याओं और मोक्षप्राप्ति के उपायों में प्रयुक्त होने लगा। अनेक प्रकार के योग प्रचलित हो गये; यथा-ईश्वरभक्तियोग, तन्त्रयोग, राजयोग, ज्ञानयोग आदि-आदि । १ Modern Review, August 1932, pp. 155-156. २ आजकल, मार्च १६६२, पृ० ८. ३ जैन साहित्य का इतिहास, पूर्वपीठिका, प्राक्कथन, पृष्ठ १०. Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग का प्रारम्भ २५ पतंजलि का महत्व एवं कार्य आज लिखित रूप में योग सम्बन्धी सबसे प्रसिद्ध, प्राचीन और व्यवस्थित ग्रन्थ पतंजलि का योगसूत्र अथवा योगशास्त्र है। पतंजलि ने अपना योगसूत्र ‘अथ योगानुशासनम्' सूत्र से प्रारम्भ किया है। यह उनके दर्शन का प्रथम सूत्र है । न तो स्वयं पतंजलि ही अपने को योगविद्या का प्रथम प्रणेता मानते हैं और न उनके योगसूत्र के भाष्यकार एवं टीकाकार ही ऐसा दावा करते हैं। स्वयं पातंजल योगसूत्र के भाष्यकार रामानुज, वृत्तिकार महादेव, वृन्दावन शुक्ल, शिवशंकर, सदाशिव, मणिप्रभा के रचयिता रामानन्द, पातंजल रहस्यकार राघवानन्द, पातंजल रहस्य प्रकाश के रचयिता राधानन्द, योगसूत्र के वैदिक वृत्तिकार स्वामी हरिप्रसाद प्रभृति मनीषी विद्वानों ने एक स्वर से स्पष्ट स्वीकार किया है कि महर्षि पतंजलि योगदर्शन के आदिप्रणेता नहीं है। इन सबका स्पष्ट अभिमत है कि योगदर्शन का विकास हैरण्यगर्भशास्त्र (हिरण्यगर्भ अपर नाम ऋषभदेव द्वारा प्रणीत योगविद्या) से हुआ है। महामहोपाध्याय डा० ब्रह्ममित्र अवस्थी' ने इस विषय पर अपना निष्कर्ष इन शब्दों में प्रगट किया है-"पतंजलि ने चित्तनिरोध-साधना के क्षेत्र में अपने समय में प्रचलित समस्त मान्यताओं अथा उपायों का संकलन मात्र कर दिया है, स्वीकृत सम्प्रदायों की सूचना मात्र दे दी है। प्राचीन काल (महाभारतकाल) में आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में जितने भी उपाय प्रचलित थे, उन्हें योग के नाम से अभिहित किया जाता था ।......" डा० राजाराम शास्त्री, कुलपति काशो विद्यापीठ, वाराणसी, ने अपने विचार इस प्रकार प्रगट किये हैं-"......"यहाँ यह प्रश्न उठता है कि पतंजलि-वर्णित ये उपाय परस्पर भिन्न हैं या अभिन्न ? यदि भिन्न हैं तो पतंजलि का पक्ष क्या है ?........ (पतंजलि को) विविध योग पद्धतियों का दार्शनिक समीक्षक (योग-मार्ग का प्रवर्तक) नहीं माना है । अर्थात् पतंजलि से पूर्व योग साधना के क्षेत्र में अनेक पद्धतियाँ प्रचलित थीं। ईश्वरभक्तियोग (ईश्वर-प्रणिधान), हठयोग (प्राणायाम), तन्त्रयोग (विषयवती प्रवृत्ति), पंचशिख का सांख्ययोग (विशोका प्रवृत्ति), जैनों का वैराग्य (वीतराग विषयता), बौद्धों का ध्यानयोग (स्वप्न आदि का आलम्बन) तथा भक्तियोग के १ महामहोपाध्याय डा० ब्रह्ममित्र अवस्थी : पातंजल योगशास्त्र : एक अध्ययन, पृ० २६३, प्रकाशक-इन्दु प्रकाशन, दिल्ली ७. २ वही, प्रस्तावना, पृष्ठ ६. Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ जैन योग : सिद्धान्त और साधना अन्य प्रकारान्तर जो आज किसी न किसी रूप में प्राप्त होते हैं, पतंजलि से पूर्ववर्ती हैं । पतंजलि ने इन सभी को संकलित किया है और उनकी पद्धतियों के विश्लेषण में न पड़कर उनकी दार्शनिक समीक्षा की है, योग साधना के दर्शन को प्रस्तुत किया है।' किन्तु संकलनकर्ता होने से पतंजलि का महत्व कम नहीं हो जाता। उनका कार्य महान है । उन्होंने इधर-उधर बिखरे हुए योग सम्बन्धी विचारों, मान्यताओं, सिद्धान्तों, प्रक्रियाओं तथा उनसे प्राप्त विशिष्ट शक्तियों-लब्धियों को संकलित किया और सुव्यवस्थित ढंग से सजाकर एक दर्शन का रूप दे दिया, सर्वजनोपयोगी बना दिया। इस दृष्टि से उन्हें योगदर्शनकार स्वीकार किया ही जाना चाहिए। बाद के मनीषियों ने योगदर्शनकार के गौरवपूर्ण पद से उन्हें उचित ही सम्मानित किया है। पातंजल योगदर्शन का दार्शनिक आधार जिस प्रकार भक्ति योग का आधार श्रीमद्भागवत है उसी प्रकार ज्ञान योग का आधार कपिलमुनि का सांख्यदर्शन है। दार्शनिक आधार अथवा पृष्ठभूमि के रूप में सांख्यदर्शन काफी प्रभावशाली रहा है। श्रीमद्भगवद् गीता का दार्शनिक आधार भी सांख्यदर्शन है। किन्तु योगदर्शन का तो दार्शनिक मेरुदण्ड ही सांख्यदर्शन है। यही कारण है कि योगदर्शन के साथ 'सांख्य' शब्द जुड़ ही गया और विद्वत् समाज में तथा दार्शनिक जगत में ‘सांख्य योग' के रूप में प्रसिद्ध हआ। आत्मा, परमात्मा आदि सम्बन्धी योगदर्शन की सभी मान्यताएँ सांख्यसम्मत ही हैं। पातंजल योगदर्शन पर अन्य दर्शनों का प्रभाव जैसा कि स्वाभाविक है, एक देश में पनपने वाली विचारधाराएँ परस्पर एक-दूसरे से प्रभावित होती ही हैं, फिर योगदर्शन तो तत्कालीन अध्यात्म साधनाओं के योग सम्बन्धी विचारों का संकलन है। अतः इस पर तो अन्य दर्शनों का प्रभाव होना सामान्य सी बात है। ईश्वरप्रणिधान आदि बातें वेदान्त की भक्तिमार्गीय शाखा का स्पष्ट प्रभाव है। इसी प्रकार अन्य दर्शनों का भी प्रभाव परिलक्षित होता है। महामहोपाध्याय डा० ब्रह्ममित्र अवस्थी योगदर्शन पर बौद्धदर्शन का प्रभाव अधिक मानते हैं । अपनी मान्यता के प्रमाणस्वरूप उन्होंने 'विपर्यय', 'विकल्प', 'प्रत्यय', कर्माशय' 'कर्मविपाक' आदि शब्दों का उल्लेख किया है जो दोनों ही दर्शनों में सामान्य रूप से प्रयुक्त हैं। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है । थोड़ा-बहुत प्रभाव बौद्धधर्म का योगशास्त्र पर हो सकता है। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग का प्रारम्भ २७ पातंजल योग पर जैन दर्शन का प्रभाव जैनधर्म-दर्शन का योगशास्त्र - पातंजल योग पर अत्यधिक प्रभाव दिखाई देता है | योगदर्शन में अनेक ऐसे शब्द प्रयुक्त हुए हैं जो अन्य किसी भी भारतीय दर्शन में नहीं पाये जाते । इस प्रभाव को समझने के लिए तीन वर्गों में विभाजित करना उचित है - ( १ ) शब्द - साम्य ( २ ) विषय - साम्य और (३) प्रक्रिया - साम्य । (१) शब्द साम्य -कुछ ऐसे शब्द हैं, जिनका प्रयोग विशेष रूप से जैन आगमों और जैन दर्शन में हुआ, अन्य जैनेतर दर्शनों में नहीं; तथा वे शब्द योगसूत्र तथा उसके भाष्य में ज्यों के त्यों प्रयुक्त हुए हैं । उनमें से कुछ शब्द उदाहरणस्वरूप निम्न हैं भवप्रत्यय', सवितर्क - सविचार - निर्विचार, महाव्रत, कृत कारितअनुमोदित, सोपक्रम - निरुपक्रम, वज्रसंहनन, केवली, ज्ञानावरणीय कर्म चरमदेह, आदि । १ (क) नन्दी सूत्र ७; स्थानांग सूत्र २ / १ / ७१; तत्वार्थ सूत्र १/२२ (ख) पातंजल योगसूत्र १ / १६ (क) स्थानांग सूत्र वृत्ति ४ / २ / २४७ ; तत्त्वार्थ सूत्र ९ / ४३-४४; ३ (ख) पातजल योगसूत्र २ / ३१ (क) दशवैकालिक, अध्ययन ४; तत्त्वार्थं सूत्र ६ / ६ (ख) पातंजल योगसूत्र २ / ३१ ५ (क) स्थानांग सूत्र ( वृत्ति) २ / ३ / ८५; तत्त्वार्थसूत्र ( भाष्य ) २ / ५२ ; (ख) पातंजल योगसूत्र ३ / २२ ६ (क) प्रज्ञापना सूत्र; तत्वार्थ सूत्र ( भाष्य ) ८ / १२ (ख) पातंजल योगसूत्र ३ /४६ ४ (ख) पातंजल योगसूत्र १ / ४२,४४ (क) स्थानांग ५ / २ / ३८६; तत्त्वार्थ सूत्र ७ /२ ७ (क) तत्वार्थ सूत्र ६ / १४ Τ (ख) पातंजल योगसूत्र ( भाष्य ) २ / २७ (क) उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन ३३, गाथा २; आवश्यक नियुक्ति, गाथा ८६३; तत्वार्थ सूत्र ८/५, १० /१ (ख) पातंजल योगसूत्र ( भाष्य ) २ / ५१ ६ (क) स्थानांग सूत्र ( वृत्ति) २ / ३ / ८५ ; तत्वार्थ सूत्र २ / ५२ (ख) पातंजल योगसूत्र ( भाष्य ) २/४ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ जैन योग : सिद्धान्त और साधना (२) विषय-साम्य-जैनदर्शन और योगसूत्र में विषय-निरूपण में भी काफी साम्य परिलक्षित होता है। जैसे पाँच यमों का वर्णन', सोपक्रम-निरुपक्रम कर्म का स्वरूप', आदि-आदि । (३) प्रक्रिया-साम्य- दोनों दर्शनों में प्रक्रिया-साम्य भी है। धर्म-धर्मी का स्वरूप-विवेचन त्रिगुणात्मक (उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य) लगभग एक-सा बताया गया है । सांख्यदर्शन की दार्शनिक पृष्ठभूमि से प्रभावित होकर योगदर्शन ने वस्तु को कूटस्थनित्य माना है। जबकि जैनदर्शन परिणामी-नित्य मानता है । सिर्फ इतना-सा ही अन्तर है, बाकी सब प्रक्रिया समान है। इस विवेचन और उद्धरणों से स्पष्ट है कि योगदर्शन सर्वाधिक प्रभावित जैनदर्शन से ही हुआ है । दार्शनिक पृष्ठभूमि को अलग रख दें (क्योंकि यह सांख्यदर्शन के आधार पर है) तो यम, योगविभूति, प्रक्रिया, योग से प्राप्त होने वाली लब्धियाँ आदि बातों में जैनदर्शन का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। जैन योग को विशेषताएं जैन योग का केन्द्रबिन्दु स्व-स्वरूपोपलब्धि है। जहाँ योग एवं अन्य दर्शनों ने जीव का ब्रह्म में लीन हो जाना, योग का ध्येय निश्चित किया है, वहाँ जैन दर्शन स्व-आत्मा की पूर्ण स्वतन्त्रता और पूर्ण विशुद्धि योग का ध्येय निश्चित करता है। जैन दृष्टि के अनुसार योग का अभिप्राय सिर्फ चेतना का जागरण ही नहीं है, वरन् चेतना का ऊर्वारोहण है । इसका कारण यह है कि जैनदर्शन ने आत्मा को स्वभावतः ऊर्ध्वगमन-स्वभावी माना है। ___ जैनदर्शन प्रत्येक वस्तु एवं विधा को द्रव्य और भाव दोनों दृष्टियों से देखता हैपरीक्षा करता है। इसीलिए प्राणायाम में यह श्वास-नियमन एवं १ (क) दशवकालिक सूत्र, अध्ययन ४ (ख) पातंजल योगसूत्र २/३१ २ (क) आवश्यकनियुक्ति ६५६, विशेषावश्यक भाष्य ३०६१, तत्वार्थसूत्र (भाष्य) २/५२ (ख) पातंजल योगसूत्र (भाष्य) एवं व्यास भाष्य ३/२२, ३ (क) तत्वार्थसूत्र ५/२६ (ख) पातंजल योगसूत्र ३/१३-१४ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग का प्रारम्भ २६ नियन्त्रण पर ही बल नहीं देता, वरन् भाव प्राणायाम भी बतलाता है । इसमें साधक को संकेत करता है कि वह पाप-कषाय आदि भावों का रेचन करे, शुद्ध भावों का कुम्भक करे और सद्गुणों का पूरण करे । संवरयोग और निर्जरायोग इसकी ऐसी विशिष्ट अवधारणाएँ हैं जो अन्यत्र प्राप्त नहीं होतीं। मन-वचन-काय की एकाग्रता साधक को आत्मा के सन्मुख कर देती है और साधक आत्मिक आनन्द में डूब जाता है। जैन योग आलम्बन में व्यक्त के साथ अव्यक्त को देखने की प्रेरणा देता है। यदि योग के प्रकारों की दृष्टि से देखें तो इसे राजयोग कह सकते हैं। क्योंकि इसमें भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग का सुन्दर, उचित और सन्तुलित समन्वय है। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ योग के विविध रूप और साधना पद्धति - - प्राचीन काल से ही 'योग' के प्रति जनता का आदर एवं आकर्षण रहा है। इसका एक कारण यह भी था कि 'योगविद्या' एक रहस्यमयी गूप्त विद्या मानी जाती थी और योगी को लोग बहत बड़ा तपस्वी, चमत्कारी और पहँचे हए साधक की दृष्टि से देखते थे। योग सामान्य आदमी के लिए कठोर माग था, इसलिए श्रद्धा का विषय बन गया। इस लोक-श्रद्धा का लाभ उठाकर विविध धर्म सम्प्रदाय अपने को योग से जोड़ने में लग गये। अपनी विचारधारा एवं आचार परम्परा को 'योग मार्ग' की संज्ञा देकर गौरव अनुभव करने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि जितने सम्प्रदाय थे, उतने ही योग मार्ग बन गये और प्रत्येक सम्प्रदाय का नेता स्वयं अपने को, योगी, योगेश्वर अथवा योगिराज कहलाने में गौरव अनुभव करता। उनकी साधना विधि, विचार सरणि एक स्वतन्त्र योग मार्ग बन गई। प्रस्तुत प्रसंग में हम इन विभिन्न साधना विधियों, विचार सरणियों का एक संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत कर रहे हैं, जो 'योग' संज्ञा से प्रसिद्ध हुए और विविध प्रकार को योग विधियों को प्रस्तावना कर सके । गीतोक्तयोग । यों तो गीता योगशास्त्र के नाम से भी प्रसिद्ध है किन्तु उसमें वैसे ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग का भी सुन्दर समन्वय मिलता है। इनके अतिरिक्त इसमें समत्वयोग और ध्यानयोग का भी वर्णन है। इन योगों के तीन मुख्य उद्देश्य माने गये हैं--(१) जीवात्मा का साक्षात्कार, (२) विश्वात्मा का साक्षात्कार और (३) ईश्वर का साक्षात्कार ।' गीता के प्रत्येक अध्याय के अन्त में 'ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवत्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन सम्वादे ..." .... .. ' यह वाक्य दिया गया है। इस वाक्य का अभिप्रेत गीता को योग ग्रन्थ प्रमाणित करना ही है। योग विषयक अनेक विचार गीता में संग्रहीत और समन्वित हैं। १ कल्याण, साधनांक, वर्ष १५, अंक १, पृष्ठ ५७५ । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के विविध रूप और साधना-पद्धति ३१ गीता में १८ अध्याय हैं, प्रत्येक अध्याय के विषय को एक स्वतन्त्र 'योग' की संज्ञा की गई है । अतः १८ प्रकार के योग उसमें बताये गये हैं। उनके नाम हैं-(१) समत्वयोग, (२) ज्ञानयोग, (३) कर्मयोग, (४) देवयोग, (५) आत्मसंयमयोग, (६) यज्ञयोग, (७) ब्रह्मयोग, (८) संन्यासयोग, (६) ध्यानयोग, (१०) दुःख संयोग-वियोगयोग, (११) अभ्यासयोग, (१२) ऐश्वरीययोग, (१३) नित्ययोग, (१४) शरणागतियोग, (१५) सातत्ययोग, (१६) बुद्धियोग, (१७) आत्मयोग और (१८) शक्तियोग । इन सभी योगों के लक्षण व वर्णन भी इनके नाम के अनुसार वहाँ दिये गये हैं। ____ अन्य विविध ग्रन्थों में योग के विभिन्न भेद एवं प्रकार इस तरह प्राप्त प्राप्त होते हैं : __ समाधियोग यह योग महर्षि पतंजलि के अष्टांगयोग के अन्तिम अंग 'समाधि' पर आधारित है। समाधियोग के अन्तर्गत सबोज और निर्बीज-दो प्रकार की समाधि मानी गई है, इसे 'सविकल्प' और 'निर्विकल्प समाधि' भी कहा गया है । तेजोबिन्दु उपनिषद् में जीवात्मा का परमात्मा में लीन हो जाना समाधि कहा गया है। इसो को पातंजल योगसूत्र में असंप्रज्ञात योग, निर्बीज समाधि, कैवल्य, चिति शक्ति, स्वरूप प्रतिष्ठा' आदि नामों से कहा गया है। शरणागतियोग यह गीताकार द्वारा प्रतिपादित है। इसका अभिप्राय यह है कि जो व्यक्ति अनन्यभाव से भगवान की शरण ग्रहण कर लेता है, उसे वे (भगवान) सभी पापों से मुक्त कर देते हैंअहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः। -गीता वास्तव में यह भक्तियोग का ही एक प्रकार है। इसमें भक्त अपने आपको-अपने सभी कार्यों को अपने भगवान के प्रति अर्पित कर देता है। इस योग का मूल लक्ष्य साधक को अभिमान अर्थात् मैं किसी कार्य को करता हूँ-इस अहं-कतृत्व भाव से मुक्त करना है। १ पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति । -पातंजल योगसूत्र ४/३४ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ जन योग : सिद्धान्त और साधना राजयोग राजयोग का अभिप्राय है-साधक द्वारा अपनी समस्त बाह्य एवं आन्तरिक प्रवृत्तियों को अनुशासित करना। इसके सम्बन्ध में गीता का यह श्लोक प्रचलित है युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु । युक्तस्वप्नावबोधस्य योगोभवति दुःखहा ।। -युक्त-उचित अथवा अनुशासित आहार, विहार, चेष्टा, कर्म, निद्रा एवं जागरण-इस प्रकार का योग सभी दुःखों का अन्त करने वाला है। इस प्रकार इस योग में साधक अपनी इन्द्रियों और मन को अनुशासित करके परमात्म तत्त्व में लगाता है। हठयोग हठयोग का उद्देश्य शारीरिक तथा मानसिक उन्नति है। इसकी मान्यता है कि सुदृढ़ और स्वस्थ शारीरिक अवस्था हो तभी इच्छाओं पर नियन्त्रण किया जा सकता है और मन शान्त हो सकता है, जो कि योग साधना के लिए अति आवश्यक है। हठयोग सिद्धान्त की चर्चा योगतत्त्वोपनिषद् तथा शांडिल्योपनिषद् में प्राप्त होती है । हठयोग के आदिप्रवर्तक शिव माने जाते हैं।' हठयोग का अभिप्राय है—सूर्य-चन्द्र, ईड़ा-पिंगला, प्राण-अपान का मिलन । 'ह' का अभिप्राय है-सूर्य और 'ठ' से अभिप्राय चन्द्र है। इस प्रकार 'हठ' का अर्थ हठयोग में सूर्य-चन्द्र संयोग माना गया है । षटकर्म, प्राणायाम, आसन, मुद्रा, प्रत्याहार, ध्यान और समाधि-ये हठयोग के सात अंग हैं। किन्तु इनमें से हठयोग की प्रक्रियाओं में आसन, मुद्रा और प्राणायाम का विशेष महत्व दिखाई देता है। हठयोग प्रदीपिका के अनुसार-इसका (हठयोग का) उद्देश्य आन्तरिक शरीर की शुद्धि करके राजयोग की ओर गमन करना है। वहाँ यह भी कहा गया है कि हठयोग के बिना राजयोग और राजयोग के बिना हठयोग सम्भव नहीं है। १ हठयोग प्रदीपिका १/१. २ हठयोग प्रदीपिका १/१; ३/५. ३ हठयोग प्रदीपिका २/२२. ४ घेरण्ड संहिता १/१०-११. ५ हठयोग प्रदीपिका २/७५. Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के विविध रूप और साधना-पद्धति ३३ हठयोग की मान्यता है कि नाड़ी शुद्धि होने के उपरान्त कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होती है तथा यह षट् चक्रों का भेदन करती हुई सहस्रार चक्र में पहुँचती है। इस दशा में साधक का चित्त निरालम्ब और मृत्यु के भय से रहित हो जाता है। यह योगाभ्यास का मूल है।' इसी दशा को केलाश भो कहा जाता है। वास्तविक स्थिति यह है कि नाड़ी शुद्धि के पश्चात् जब मन स्थिर होने लगता है, निरोधावस्था में पहुँच जाता है, तब राजयोग की सीमा प्रारम्भ होती है। हठयोग में आचार-विचार की शुद्धि पर भी अधिक बल दिया गया है । वहाँ अनेक यम-नियमों के पालन का विधान है। हठयोग का साधक यम-नियमों का पालन करता हुआ अपने शरीर की आन्तरिक शुद्धि, नाड़ी शुद्धि, प्राणायाम आदि के द्वारा करता है और फिर अपनी शक्ति को अन्तमुखी बनाकर सूक्ष्म शरीर को वश में करता है, तब चित्त निरोध करता है और तदुपरान्त ईश्वर का साक्षात्कार करता है। यह सम्पूर्ण पद्धति और प्रक्रिया ही हठयोग है। नाययोग नाथयोग का प्रारम्भ गोरखनाथ (१०वीं शताब्दी) ने किया है। इस सम्प्रदाय की ऐसी मान्यता है कि शिव ने मत्स्येन्द्रनाथ को योग की दीक्षा दी थी और मत्स्येन्द्रनाथ ने गोरखनाथ को। नाथपंथीय परम्परा में मुख्यतः ह नाथ' माने जाते हैं, वैसे ८४ नाथ भी माने जाते हैं। इस पंथ के अन्य कई नाम भी प्रचलित हैं, जैसे सिद्धमत, योग सम्प्रदाय, योग-मार्ग, अवधूत मत, अवधूत सम्प्रदाय आदि-आदि । १ भारतीय संस्कृति और साधना, भाग २, पृष्ठ ३६७. २ शिवसंहिता ५. ३ हठयोग प्रदीपिका १७-१८. dha Siddhant Paddhati and other Works of Nath Yogis, ___pp. 7 and 10 (ख) Gorakhnath and Kanfata Yogis, pp. 235-36. ५ गोस्वामी, प्रथम खण्ड, वर्ष २४, अं० १२, १९६०, पृ० १२ ६ कबीर की विचारधारा, पृ० १५३ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ जैन योग : सिद्धान्त और साधना यद्यपि नाथयोग की यौगिक प्रक्रियाएँ हिठयोग से मिलती-जुलती हैं; नाथयोग का अन्तिम साध्य अतः यह आत्मा का अमरत्व, किन्तु इनके अन्तिम साध्य में बहुत अन्तर है । शाश्वत आत्मा की अनुभूति प्राप्त करना है । नादमधु का आनन्द, शिवभक्ति के साथ समरसता उत्पन्न करता है | नाथयोग सम्प्रदाय में गुरु का महत्त्व अत्यधिक है । गुरु की कृपा से ही साधक संसार-बन्धन को तोड़कर शिव की प्राप्ति कर सकता है ।" नाथसिद्धान्तयोग द्वैताद्वैत विलक्षणी माना जाता है । इसका कारण यह है कि शिव न द्वैत हैं और न ही अद्वैत; वे तो अवाच्य और निरुपाधि हैं । वे द्वैतअद्वैत, साकार - निराकार से परे हैं । इस सम्प्रदाय में भी कुण्डलिनी शक्ति को विशेष महत्त्व दिया गया है । यह शक्ति सर्पाकार वृत्ति में सोई हुई रहती है तथा आत्म-संयम द्वारा जाग्रत होती है । जागने के बाद यह षट्चक्रों का भेदन करती हुई सहस्रार चक्र में जाकर शिव के साथ एक रूप हो जाती है । यह मिलन जीवात्मा का परमात्मा के साथ मिलन एवं एकरूप तथा लीन होने का प्रतीक है । इस नाथयोग सम्प्रदाय का ध्येय ही शिव और शक्ति का मिलन है । भक्तियोग भक्तियोग का अभिप्राय ईश्वर के प्रति अनन्य श्रद्धा और विश्वास है । इसमें भक्त अथवा साधक अपने इष्टदेव के प्रति पूर्णतया समर्पित होता है । मध्वाचार्य ने सुदृढ़ स्नेह को भक्ति बताया है । ब्रह्मसूत्रभाष्य' में १ ज्ञानेश्वरी (मराठी), प्रस्तावना, पृ० ४३ २ (क) एवं विधगुरोः शब्दात् सर्वचिन्ता विवर्जितः । स्थित्वा मनोहरे देशे योगमेव समभ्यसेत् ॥ - अमनस्कयोग १५ ) Siddha Siddhant Paddhati and other Works of Nath Yogis, PP. 54-80 अमनस्कयोग २५. ४ सन्तमत का सरभंग सम्प्रदाय, पृ० ४६. ५ शिवस्याभ्यन्तरे शक्तिः शक्तेरभ्यन्तरः शिवः । अन्तरं नैव जानीयाच्चंद्रचन्द्रिकयोरिव ॥ माहात्म्यज्ञानपूर्वस्तु सुदृढः सर्वतोऽधिकः । स्नेहो भक्तिरिति प्रोक्तः तया मुक्तिर्न चान्यथा ॥ ७ महत्त्वबुद्धिर्भक्तिस्तु स्नेहपूर्वाभिधीयते । तथैव व्यज्यते सम्यग् जीवरूपं सुखादिकम् || - सिद्ध सिद्धान्त पद्धति ४ / २६. - श्रीमन्महाभारत तात्पर्य निर्णय -- ब्रह्मसूत्रभाष्य Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के विविध रूप और साधना-पद्धति ३५ कहा गया है कि महत् बुद्धि भक्ति है, जो स्नेह से परिपूरित होती है, तथा यही जीव को सुख देने वाली है। श्री जयतीर्थ मुनीन्द्र' ने भक्ति का लक्षण बताते हुए कहा है कि-अपरिमित अनवद्य कल्याण गुणों के ज्ञान से उत्पन्न हुए अपने समस्त सम्बन्धी जनों तथा पदार्थों से ही क्या, प्राणों से भी कई गुना अधिक, हजारों विघ्न आने पर भी न टूटने वाले, अत्यधिक सुदृढ़ गंगा प्रवाह के समान अखण्ड प्रेम के प्रवाह को भक्ति कहते हैं। भक्ति के नौ प्रकार माने गये हैं-(१) श्रवण, (२) कीर्तन, (३) स्मरण, (४) पादसेवा, (५) अर्चन, (६) वन्दन, (७) दास्य, (८) सख्य और (8) आत्मनिवेदन। इस नौ प्रकार की भक्ति द्वारा साधक अपने इष्टदेव की अर्चना करता है। भक्तियोग में साधक की योग्यता तथा इष्ट में लीनता के आधार पर दो श्रेणी हो जाती हैं—पक्व भक्ति तथा अपक्व भक्ति । भक्ति द्वारा मोक्ष प्राप्ति के उपायों के रूप में भक्तियोग में चार सोपानों की चर्चा की गई है। प्रारम्भ में साधक अथवा भक्त की भक्ति अपक्व दशा में होती है। उसमें आस्तिक्य बुद्धि होती है, वह गुरु के पास भी जाता है, गुरु सेवा-भक्ति भी करता है, गुरु-मुख से सामान्यतया तत्वों का श्रमण-मनन भी करता है, किन्तु इस दशा में उसकी भक्ति अनन्य नहीं होती। दूसरे सोपान में तत्वों के प्रति उसकी रुचि बढ़ती है, वह तत्वों का निश्चय भी करता है; किन्तु भक्ति की अनन्यता में कमी रह जाती है। तीसरे सोपान पर पग रखते ही उसकी भक्ति अनन्य हो जाती है, वह इष्टदेव का ध्यान करने लगता है और उसे अपने इष्टदेव का साक्षात्कार भी हो जाता है। चौथे सोपान में उसकी अनन्यता पराकाष्ठा को पहुँच जाती है और भगवद्कृपा से उसे मुक्ति अथवा भगवान का धाम प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार भक्तियोग में योग के केवल एक ही अंग ध्यान के आश्रय. से मुक्ति मानो गई है। ज्ञानयोग यह विशेष रूप से सांख्यदर्शन द्वारा प्रतिपादित है। सांख्यदर्शन की मान्यता यह है कि पुरुष सदैव शुद्ध है, यह संसार प्रकृति का खेल है । पुरुष १ तत्र भक्तिर्नाम निरविधकानन्तानवद्यकल्याणगुणत्वज्ञानपूर्वकः स्वस्वात्मात्मीय समस्त वस्तुभ्योऽनेक गुणाधिकोऽन्तराय सहस्रणाप्य प्रतिबद्धो निरन्तर प्रेम प्रवाहः । –श्रीमन्न्यायसुधा Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ जैन योग : सिद्धान्त और साधना प्रकति के इस खेल में रस ले रहा है, इसीलिए वह अपने को बन्धनग्रस्त समझता है। यदि वह रस लेना छोड़ दे तो मुक्त हो जाय। इसके लिए उसे अपने और प्रकृति के स्वभाव का ज्ञान करना चाहिए । ज्ञान प्राप्त होते ही वह प्रकृति के खेल में रस लेना बन्द कर देगा और मुक्त हो जायगा। इसीलिए सांख्यकारिका माठरवृत्ति में कहा गया है पंचविशतितत्त्वज्ञो, यत्र कुत्राश्रमे रतः । जटो मुण्डी शिखी वाऽपि मुच्यते नात्र संशयः ॥ ज्ञानयोग योग के अन्य किसी अंग पर जोर नहीं देता। इसका अभिप्राय तो सिर्फ 'आत्मानं विद्धि' ही है। इसी से ज्ञानयोगी आत्मा को मुक्ति मानता है। ज्ञानयोग तीव्र बुद्धि द्वारा अविद्या को नाश करना आवश्यक मानता है और कहता है कि अविद्या के नाश होने पर आत्मा का स्वरूप परिलक्षित हो जाता है। कर्मयोग कर्मयोग का अभिप्राय गीता के अनुसार कर्म करने का कौशल है'योगः कर्मसु कौशलं' । यहाँ कर्म को कुशलता का अभिप्राय ईश्वरार्पण बुद्धि से अपना कर्तव्य किये जाना है। ईश्वरार्पण बुद्धि के कारण मनुष्य में कर्म करने का अर्थात्-'मैंने यह कार्य किया है', 'मैंने सफलता प्राप्त की है', या 'मैं विफल हो गया हूँ' ऐसा हर्ष-विषाद तथा अहंकार नहीं होता, फलस्वरूप कर्म करते हुए भी मनुष्य समत्व भाव में रहता है और इस समत्व के कारण वह मुक्त हो जाता है। लययोग लययोग की चर्चा नादबिन्दु, ब्रह्मबिन्दु, ध्यानबिन्दु, तेजोबिन्दु आदि उपनिषदों में प्राप्त होती है। वहाँ इसका काफी महत्व दिखाया गया है। लययोग का अभिप्राय यह है कि मनोबिन्दु, प्राणबिन्दु, अहंबिन्दु आदि बिन्द मात्र का और बिन्दु के बीजक रूप स्थूल, सूक्ष्म और अति स्थूल शब्द मात्र का स्वस्वरूपानुसन्धानपूर्वक संहार कर अर्थात् नादमय सारी भूमिकाओं को त्याग कर स्वरूप में स्थितिकर उसी में लीन हो जाना। यह मार्ग हठयोग की अपेक्षा सहज और सरल है । * नाद का अभिप्राय शब्द है । ऐसा माना जाता है कि सूक्ष्म शरीर के अन्दर स्थित अनाहत चक्र में अत्यन्त मधुर ध्वनि तरंगें सतत उठती रहती Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के विविध रूप और साधना-पद्धति ३७ हैं, उस ध्वनि को अनहद नाद कहा जाता है। योगी सिद्धासन से बैठकर और आँखों को अोन्मीलित करके दृष्टि को अन्तमुखी रखे तथा दायें कान से सदैव अन्तर्गत नाद को सुने । लययोग का मूलाधार प्रणव अथवा ॐ है। ॐ शब्द की रचना 'अ, उ, म्' इन तीन अक्षरों से हुई है। 'अ' मनोबिन्दु का सूचक है, 'उ' प्राणबिन्दु का और 'म्' अहंबिन्दु का।। योगी क्रमशः इन तीनों प्रकार के बिन्दुओं को गोपन करके तथा नाद सुनते-सुनते अपने स्वरूप में अवस्थित और लय हो जाता है, यही लययोग है। इस अवस्था में उसे अतीन्द्रिय और अनिर्वचनीय सुख का अनुभव होता है। अस्पर्शयोग अस्पर्शयोग का अभिप्राय है-पाप-पुण्य, कर्म-अकर्म आदि सभी सांसारिक प्रवृत्तियों से अलिप्त रहना। आनन्दगिरि ने अस्पर्शयोग को विशुद्ध अद्वैत बताया है। ___अस्पर्शयोग को चर्चा गौड़पाद ने की है। वे ही इस योग के आविष्कर्ता माने जा सकते हैं। — अस्पर्शयोग बहुत कुछ अंशों में गीताकार द्वारा प्रतिपादित अनासक्तियोग ही है। अनासक्तियोग में भी कर्म और उसके फल के प्रति आसक्ति नहीं रखी जाती। आसक्ति के अभाव में आशा-तृष्णा का क्षय हो जाता है और फिर मुक्ति सुलभ हो जाती है। किन्तु स्वयं गौड़पाद के शब्दों में ही अस्पर्शयोग योगियों के लिए भी दुर्दर्श हैअस्पर्शयोगो वै नाम, दुर्दशः सर्वयोगिभिः । -गौड़पादीय कारिका ३६ इस दुर्दर्शता का कारण यह है कि अनादिकालीन अविद्या, मोह तथा आशा-तृष्णा के संस्कार बड़ी कठिनाई से छूटते हैं। ____ अस्पर्शयोग वस्तुतः मन का सांसारिक प्रवृत्तियों में निलिप्त होने का नाम है। साधक सांसारिक प्रवृत्तियाँ तो करता है किन्तु उनमें लिप्त नहीं होता; उनके प्रति उसकी तनिक भी आसक्ति नहीं होती। सिद्धयोग सिद्धयोग, हठयोग से मिलता-जुलता है। इस योग में कुण्डलिनी को विशेष महत्त्व प्राप्त है। कुण्डलिनी के पास ही मूलाधार चक्र के समीप शक्ति Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ जैन योग : सिद्धान्त और साधना सर्पिणी के रूप में सुषप्ति अवस्था में है। साधक इसे प्राणायाम द्वारा जाग्रत करता है। जाग्रत होकर यह ऊपर को चढ़ती है और ब्रह्मरन्ध्र में स्थित शिव के साथ मिल जाती है। साधक सिद्ध हो जाता है । __ इसमें आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान-योग के इन अंगों को विशिष्ट महत्त्व प्रदान किया गया है । सम्पूर्ण साधना इन्हीं अंगों पर आधारित है। जन अनुश्रुति के अनुसार इस सम्प्रदाय के लूहिया आदि ८४ सिद्ध हुए हैं । तन्त्रयोग तन्त्रयोग काफी प्राचीन है। योगदर्शन जिस समय महर्षि पतंजलि द्वारा संकलित, संग्रहीत और लिपिबद्ध हुआ था उस समय भी तन्त्रयोग की प्रक्रियाएँ योगियों में प्रचलित थीं। तन्त्रयोग में योग-साधना के आठ अंग माने जाते हैं। वे ही अंग पतंजलि द्वारा अष्टांगयोग रूप में प्रचलित हुए हैं। वे अंग हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि । तन्त्रयोग में यम १० माने गये हैं-(१) अहिंसा, (२) सत्य, (३) अस्तेय, (४) ब्रह्मचर्य, (५) कृपा, (६) आर्जव, (७) क्षमा, (८) धृति, (६) मिताहार और (१०) शौच । इसी प्रकार नियम भी १० हैं-(१) तपः, (२) सन्तोष, (३) आस्तिक्य, (४) दान, (५) देव पूजा, (६) सिद्धान्त श्रवण (७) ह्री, (८) मति (६) जप और (१०) होम । यहाँ ह्री का अभिप्राय कुत्सित आचरण से मन में होने वाला कष्ट है। इन यम-नियमों के पालन से पहले साधक को काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर-इन छः शत्रुओं को वश में करना अनिवार्य है। शेष छह अग वही हैं, जो पतंजलि द्वारा प्रतिपादित हैं। मध्य युग तक आते-आते और विशेष रूप से बंगाल प्रान्त में, इस तन्त्र में 'वाम' और 'कौल' शब्द और जुड़ गये । वाममार्ग कि गुरु-परम्परा से गुप्त रखा गया' अतः जनता में वाम-कौल तन्त्रयोग के बारे में भाँति-भाँति १ प्रकाशात् सिद्धहानिः स्याद् वामाचारगतो प्रिये। अतो वाम पथं देवि, गोपायेत् मातृजारवत् ॥ -विश्वसार अर्थात् हे देवि ! वामाचार में साधन को प्रकाशित करने से सिद्धि की हानि होती है अतः वाममार्ग को माता के जार के समान गुप्त रखना चाहिए । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के विविध रूप और साधना-पद्धति ३६ के भ्रम फैल गये; किन्तु सत्य स्थिति ऐसी नहीं है । इसके लिए पहले 'वाम' और 'कौल' शब्दों का अर्थ समझ लेना उपयुक्त होगा कि ये शब्द वहाँ किस रूप में प्रयुक्त किये जाते हैं और इनका अभिप्राय क्या है ? 'वाम' शब्द का आशय बताते हुए दुर्गाचार्य ने कहा है ___ य एव हि प्रज्ञावन्तस्त एव हि प्रशस्या भवन्ति । -जो प्रज्ञावान (बुद्धिमान) हैं वे ही प्रशस्य हैं। प्रशस्य शब्द का अर्थ है प्रज्ञावान । प्रज्ञावान प्रशस्य योगी का नाम ही 'वाम' है। 'कौल' शब्द का अभिप्राय स्वच्छन्द शास्त्र में इस श्लोक द्वारा सूचित किया गया है कुलं शक्तिरिति प्रोक्तमकुलं शिव उच्यते । कुलाकुलस्य सम्बन्धः कोलमित्यभिधीयते ॥ -'कुल' शब्द शक्ति का वाचक है और 'अकूल' शब्द शिव का; तथा कुल और अकुल के सम्बन्ध को कौल कहा जाता है। वाममार्ग पर चलने का अधिकार प्रत्येक मनुष्य को प्राप्त नहीं, इसके लिए साधक में कुछ विशिष्ट गुणों का होना आवश्यक माना है । परद्रव्येषु योऽन्धश्च परस्त्रीषु नपुंसकः । परापवादे यो मुकः सर्वदा विजितेन्द्रियः ।। तस्यैव ब्राह्मणस्यात्र वामे स्यादधिकारिता । –मेरुतन्त्र -जो पर द्रव्य के लिए अन्धा है, परस्त्री के लिए नपुंसक है, दूसरों की निन्दा के लिए मूक यानी गूगा है और इन्द्रियों को अपने वश में रखता है-ऐसा ब्राह्मण वाममार्ग का अधिकारी होता है । तन्त्रयोग में मुख्य साधन दो माने गये हैं-भावना और कुल या कुण्डलिनी का ऊर्ध्व संचालन । भावना का महत्व प्रशित करते हुए कहा गया है भावेन लमते सर्व भावेन देवदर्शनं । . भावेन परमं ज्ञानं, तस्माद् भावावलम्बनं ॥ -रुद्रयामल बहु जापात् तथा होमात् कायक्लेशादिविस्तरैः। न भावेन विना देवो यन्त्रमन्त्रफलप्रवः ॥ -भाव चूडामणि Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० जैन योग : सिद्धान्त और साधना -भाव से सब कुछ प्राप्त होता है, भाव से ही देवदर्शन होता है और भाव से ही श्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त होता है, इसलिए भाव का आलम्बन लेना चाहिए। -कितना ही जप किया जाय, होम किये जायें और शरीर को कितना ही कष्ट दिया जाय; किन्तु भाव के बिना देव-यन्त्र-मन्त्र फल नहीं देते। ___ अतः इस भाव सिद्धान्त के अनुसार ही तमोगुणी के लिए पशु-भाव को, रजोगुणी के लिए वीर-भाव की तथा सतोगुणी साधक के लिए दिव्य-भाव की साधना तन्त्रयोग (वाममार्ग) में बताई गई है। ___ तन्त्रयोग (वाममार्ग) का दूसरा साधन है-कुण्डलिनी ! कुण्डलिनी क्या है, यह बताते हुए श्री जॉन वुडरफ ने कहा है Shortly stated Energy (Shakti) polarises itself into two forms, viz., Static or Potential (Kundalini) and Dynamic (Prana) the working forces of the body. -Sir John Woodraffe--Shakti & Shakta अर्थात्-संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि शक्ति दो रूपों में प्रकट होती है; यथा-(१) स्थिर रूप में कुण्डलिनी और (२) चल अथवा गत्यात्मक रूप में प्राण (श्वासोच्छ्वास)। श्री आर्थर एवलन के शब्दों में 'Kundalini is the static shakti. It is the individual bodily representive of the great Cosmic Power, which creates and sustains the universe. -Arthur Avalon-The Serpent Power अर्थात्-कुण्डलिनी स्थिर शक्ति है। यह उस महान विश्वव्यापिनी शक्ति का व्यष्टि शरीरस्थित रूप है, जो विश्व की रचना करती है और उसे धारण करती है। ___ आगे तन्त्रयोग (वाममार्ग) की साधना हठयोग के समान ही है। वाममार्ग भी यही मानता है कि सपिणी के आकार की शक्ति मूलाधार चक्र में सोई पड़ी है और जब साधक विभिन्न यौगिक प्रक्रियाओं द्वारा इसे जाग्रत कर देता है तो यह ऊर्ध्व दिशा की ओर गति करती हई ब्रह्मरन्ध्र स्थित सहस्रार चक्र स्थित शिव से मिलन कर लेती है । यही साधक की सिद्धि है। यम-नियम आदि इस सम्प्रदाय के वही हैं जो तन्त्रयोग और हठयोग Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के विविध रूप और साधना-पद्धति ४१ के हैं । हाँ, वाममार्ग ने एक विशेष बात यह कही है कि आधीरात का समय ध्यान और जप के लिए श्रेष्ठ होता है। तारकयोग तारकयोग का प्रचार निजानन्द सम्प्रदाय (प्रणामी धर्म) के आदि-- संस्थापक श्री देवचन्द्रजी तथा प्राणनाथ ने किया है। तारकयोग एक मन्त्रविशेष द्वारा प्राप्त ज्ञान को कहा गया है जिसमें ब्रह्मसाक्षात्कार का भेद बताया गया है। इसका मुख्य आधार प्रेम है । जहाँ तक सच्चा प्रेम उत्पन्न नहीं होता वहाँ तक तारकयोग सिद्ध नहीं होता। इस सम्प्रदाय की मान्यता है कि सच्चे प्रेम से ही मनुष्य बन्धन-मुक्त हो जाता है। . ऋजुयोग ऋजुयोग भक्तियोग के अन्तर्गत ही है। इसमें (ऋजुयोग में) मृदुता एवं सरलता अति आवश्यक है। ऋजुयोग के चार अंग हैं-(१) सत्संग, (२) भगवत् कथाश्रवण, (३) कीर्तन और (४) जप । ऋजुयोग की मान्यता है कि इन चारों अंगों अथवा इनमें से किसी भी एक अंग का सच्चे हृदय से पालन करने से ही निर्वाण प्राप्त किया जा सकता है। वस्तुतः ऋजुयोग सरल मार्ग है। इस पर ज्ञानी-अज्ञानी सभी चल सकते हैं, दुर्बल शरीर वालों को भी इस पथ पर चलने में कठिनाई नहीं होती। हठयोग एवं तन्त्रयोग के समान इसमें कोई जटिल यौगिक प्रक्रिया तथा विधिविधान नहीं है। जपयोग जपयोग एक अत्यन्त ही सरल और सिद्धिप्रद विद्या है । इसके बारे में यह उक्ति सर्वत्र प्रचलित है जपासिद्धिः जपासिद्धिः जपात् सिद्धिः न संशयः इसीलिए गीताकार ने गीता (१०/२५) में जप (यज्ञ) को अपनी विभूति बताया है। वैदिक युग में ऋषिगण वेदमन्त्रों का बार-बार-अनेक बार उच्चारण करते रहते थे, उनकी इस क्रिया को जप की संज्ञा दी जा सकती है। वेदोक्त गायत्री मन्त्र का प्रातः, संध्या और मध्यान्ह के समय जप किया ही जाता था। अतः कहा जा सकता है कि वैदिक युग में भी जप प्रचलित था। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ जन योग : सिद्धान्त और साधना . उपनिषद, स्मृति और पुराण युग में जप अथवा जपयोग के अनेक प्रमाण मिलते हैं । विभिन्न प्रकार के मन्त्रों का जप किया जाता था। जप का महत्व प्रदर्शित करते हुए मनुस्मृति में कहा गया है विधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुणैः। उपांशुः स्यायच्छतगुणः साहस्रो मानसः स्मृताः ॥ ये पाकयज्ञाश्चत्वारो विधियज्ञसमन्विताः । सर्वे ते जपयज्ञस्य कलां नाहन्ति षोडशीम् । -मनुस्मृति २/८५-८६ अर्थात्-दशपौर्णमासरूप कर्मयज्ञों की अपेक्षा जप यज्ञ दस-गुना श्रेष्ठ है; उपांशुजप सौ गुना और मानसजप सहस्रगुना श्रेष्ठ है। कर्मयज्ञ (दशपौर्णमास) ये जो चार पाकयज्ञ हैं-वैश्वदेव, बलिकर्म, नित्य श्राद्ध और अतिथि-सत्कार-ये जपयज्ञ की सोलहवीं कला (अंश) के बराबर भी नहीं हैं। यहाँ यह स्मरण रखना चाहिये कि नामस्मरण और जपयोग में बहुत बड़ा अन्तर है। नामस्मरण में तो केवल अपने इष्टदेव के नाम का रटनमात्र ही होता है किन्तु जपयोग में किसी मन्त्र का विधिपूर्वक तल्लीनता के साथ जप किया जाता है। जपयोग में आसनशुद्धि, मनशुद्धि, वचनशुद्धि, स्थानशुद्धि आदि कई प्रकार की शुद्धियाँ करने के बाद स्थिर आसन और स्थिर मन से जप किया जाता है। जप के कई प्रकार हैं (१) नित्यजप-यह जप का वह प्रकार है जो प्रतिदिन किया जाता है । प्रातः अथवा सन्ध्या या मध्यान्ह अथवा तीनों समय किसी इष्ट मन्त्र का जप, बिना किसी प्रकार की इच्छा या कामना के किया जाता है । जपयोगी की यह दैनिक चर्या का एक अंग ही होता है। (२) नैमित्तिकजप-यह जप किसी देव को प्रसन्न करने के लिए अथवा किसी प्रकार की कामनापूर्ति के लिए किया जाता है । इसी प्रकार से काम्यजप भी किया जाता है। (३) प्रायश्चित्तजप-प्रमादवश या अनजान में कोई पाप-दोष हो जाय तो उसकी शुद्धि अथवा दोष-परिहार के लिये किया जाने वाला जप प्रायश्चित्त जप कहलाता है। (४) अचलजप-यह एक आसन पर बैठकर स्थिर मन एवं स्थिर काय Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के विविध रूप और साधना-पद्धति ४३ से किया जाता है, इसमें जप संख्या भी निश्चित होती है जिसका अतिक्रमण नहीं किया जाता; साथ ही वह जप-साधना निश्चित समय में की जाती है। (५) चलजप-वामन पण्डित के अनुसार-आते-जाते, उठते-बैठते, खाते-पीते, करते-धरते, सोते-जागते जो मन्त्र-जप किया जाता है, वह चलजप कहलाता है । यह जप कोई भी व्यक्ति कर सकता है। इसमें कोई नियम अथवा बन्धन नहीं है । ऐसे जप से मनुष्य का जीवन सफल हो जाता है और उसे ऊर्ध्व गति की प्राप्ति होती है। (६) वाचिकजप-इस जप में मन्त्र का उच्चारण सस्वर किया जाता है, स्वर इतना उच्च होता है कि दूसरे भी सुन सकें। जपयोगी के लिए प्रारम्भिक अवस्था में यही जप सुगम होता है । आगे के जप श्रमसाध्य और अभ्याससाध्य हैं। __मानव के सूक्ष्म शरीर में षट्चक्र अवस्थित हैं, उनमें सस्वर-जप से ध्वनियन्त्रों की टकराहट द्वारा वर्णबीज शक्तियाँ जागृत हो उठती है। इससे जपयोगी को वासिद्धि भी प्राप्त हो सकती है। वाकशक्ति संसार की समूची शक्ति का तीसरा भाग है। इससे बड़े-बड़े काम हो सकते हैं। (७) उपांशुजप-इसे भ्रमर-जप भी कहा जाता है। भ्रमर के समान गुजारव करते हुए यह जप होता है। इसीलिए कुछ लोग इसे भ्रमर-जप कहते हैं। ___उपांशु-जप में जीभ एवं होठ नहीं चलते । आँखें झपी हुई रखते हुए जपयोगी श्वासोच्छ्वास के-प्राणवायु के संचार के सहारे मन्त्र की आवृत्ति करता रहता है । इससे प्राण-गति धीमी होने लगती है, दीर्घश्वास का अभ्यास हो जाता है । प्राण सूक्ष्म हो जाता है और स्वाभाविक कुम्भक होने लगता है, पूरक जल्दी होता है और रेचक धीरे-धीरे होता है । कुछ काल के अभ्यास के बाद साधक को पूरक के साथ ही वंशी की-सी ध्वनि सुनाई पड़ने लगती है, यही अनहद नाद है। उपांशुजप के द्वारा मूलाधार चक्र से लेकर भ्र भध्य स्थित आज्ञा चक्र के सभी चक्र स्वयमेव जाग्रत हो उठते हैं। इसका परिणाम आज्ञा चक्र पर विशेष रूप से दिखाई देता है। मस्तिष्क में भारीपन नहीं रहता । स्मरण शक्ति बढ़ती है। चित्त प्रफुल्लित रहता है। तैजस् शरीर एवं तैजस परमाणु शक्तिशाली हो जाते हैं। आन्तरिक तेज बढ़ता है। सांसारिक कामनाओं और इच्छाओं का विनाश हो जाता है। देव दर्शन होता है और दिव्य जगत प्रत्यक्ष होने लगता है। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ जैन योग : सिद्धान्त और साधना उपांशु-जप जपयोग में अत्यधिक महावपूर्ण है। (८) मानसजप-यह जपयोग का प्राण ही है। जपयोग में इसका सर्वाधिक महत्व है। जिस प्रकार उपांशु-जप प्राण (श्वासोच्छ्वास) के सहारे किया जाता है उसी प्रकार मानस जप मन के सहारे होता है । स्थूल और सूक्ष्म शरीर तो क्या जपयोगी इस जप में प्राण का आश्रय भी छोड़ देता है, वह मन के द्वारा ही जप करता है । इस क्रिया से मन आनन्दमय हो जाता है। साधक को अनिर्वचनीय आनन्द की प्राप्ति होती है। जपयोग में मानस-जप सर्वश्रेष्ठ है। इनके अतिरिक्त भी जप के अनेक भेद हैं, यथा-अखण्डजप-इसे साधक निरन्तर करता रहता है । अजपाजप, यह सहज जप है। श्वासोच्छ्वास के साथ ही यह जप होता रहता है। इसका एक उदाहरण 'सोऽहं' का जप है। श्वास लेते समय 'सो' की आवृत्ति होती है और छोड़ते समय 'ऽहं' की। इस रीति से दिन-रात में हजारों की संख्या में जप हो जाता है। जपयोग एक सरल योग है, जिसे सभी प्रकार के साधक कर सकते हैं, इसमें किसी भी प्रकार की बाधा नहीं है और न कोई क्रियाकाण्ड ही करना पड़ता है। योग की विशेष क्रियाओं और विधियों के ज्ञान तथा अभ्यास की भी कोई विशेष आवश्यकता नहीं होती। अतः यह सर्वजनसुलभ है । मन्त्रयोग __ संसार के सभी साहित्यों में मन्त्रों को बहुत महिमा बताई गई है। आदिम कबीलों से लेकर सभ्यता के चरम शिखर पर पहुँचे हुए मानव भी मन्त्र-शक्ति से प्रभावित हैं। जन सामान्य से लेकर वैज्ञानिकों और मनोवैज्ञानिकों तथा परामनोवैज्ञानिकों ने भी मन्त्र शक्ति का लोहा माना है। मनोवैज्ञानिक मन्त्र को auto suggestion कहते हैं तथा वे भी यह मानते हैं कि इससे मनुष्य को अतीव शक्ति प्राप्त होती है। जन-साधारण में तो यह धारणा व्याप्त ही है कि मन्त्रों में गुह्य शक्ति होती है और इस शक्ति से असम्भव को भी सम्भव बनाया जा सकता है। ___ यद्यपि यह सत्य है कि मन्त्रों में बहत शक्ति होती है किन्तु उस शक्ति को प्राप्त करने के लिए मन्त्रों की विधि तथा उनके अंगों का ज्ञान अति आवश्यक है । मन्त्रयोग के १६ अंग हैं। (१) भक्ति-यह मन्त्रयोग का प्रथम अंग है। इसमें मन्त्र के प्रति Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के विविध रूप और साधना-पद्धति ४५ साधक की पूर्ण भक्ति होनी चाहिये । भक्ति के दो भेद हैं- (१) वैधी और (२) रागात्मिका । वैधी भक्ति वह होती है जिसकी विधिपूर्वक साधना की जाती है । -इसके नौ भेद हैं, जिसे नवधा भक्ति' कहा जाता है । रागात्मिका भक्ति रस का अनुभव कराने वाली तथा आनन्द और शान्ति देने वाली होती है । ऐसी भक्ति करने वाला साधक लोक लाज आदि से निरपेक्ष हो जाता । मीरा की भक्ति ऐसी थी । ( २ ) शुद्धि - मन्त्रयोग का दूसरा अंग शुद्धि है । शुद्धि दो प्रकार की होती है - ( १ ) बाह्य शुद्धि और ( २ ) आन्तरिक शुद्धि । बाह्य शुद्धि में साधक शरीर, स्थान और दिशा - इन तीन वस्तुओं की शुद्धि करता है । शरीर की शुद्धि स्नान से, भूमि की शुद्धि भूमि को झाड़पौंछकर साफ करने से और दिशा की शुद्धि दिन में पूर्व या उत्तर दिशा में मुख करके बैठने तथा रात्रि को उत्तर- मुख बैठकर पूजा-अर्चा करने से होती है । आन्तरिक शुद्धि का अभिप्राय मन की शुद्धि से है । मन में से क्रोध, मान, माया, लोभ आदि विकारों को निकालकर उसे शुद्ध किया जाता है तथा उसमें भगवद् भक्ति आदि शुभ भाव ग्रहण किये जाते हैं । (३) आसन - यह मन्त्रयोग का तीसरा अंग हैं । पद्मासन, सिद्धासन, पर्यंकासन किसी भी आसन से साधक बैठे; किन्तु आवश्यक यह है कि आसन स्थिर और ऐसा होना चाहिए जिससे अधिक देर तक निराकुलतापूर्वक बैठा जा सके । (४) पंचांग सेवन - मन्त्रयोग का यह चौथा अंग है । प्रत्येक मन्त्र के पाँच अंग होते हैं । (१) बीज - इसमें सम्पूर्ण मन्त्र का सार निहित होता है किन्तु यह सस्वर उच्चारणीय नहीं होता । (२) मन्त्र - मन्त्र के अक्षर - यह सस्वर उच्चारणीय होता है । (३) ऋद्धि - यह मन्त्र का हार्द होता है । ( ४ ) यन्त्र - अंक - अक्षर समन्वित ज्यामितीय रेखामय आलेखन । (५) कवच - इन चारों अंगों को समन्वित करते हुए स्तोत्र, स्तव आदि । इन पाँचों अंगों का मन्त्रयोगी साधक को विधिवत् सेवन करना चाहिए । (५) आधार - मन्त्रयोगी साधक को अपना सम्पूर्ण आचार और साथ ही विचार भी शुद्ध और सात्विक रखने चाहिए । १ नवधा भक्ति के नौ भेदों का वर्णन भक्तियोग में किया जा चुका है । - सम्पादक Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ जैन योग : सिद्धान्त और साधना . (६) धारणा (Concentration)-यह दो प्रकार की होती है-(१) बहिर्धारणा और (२) आन्तर धारणा । बाहरी पदार्थों जैसे-मृत्तिका पिण्ड, चित्र आदि में धारणा करना, बहिर्धारणा कहलाता है। ____ अन्तर्जगत् अथवा मनोमय जगत् में धारणा करने को आन्तर धारणा कहते हैं । पार्थिवी, आग्नेयी, वारुणी, वायवी आदि धारणाएँ आन्तर धारणा के ही अन्तर्गत मानी जाती हैं। (७) दिव्य देश सेवन-धारणा की सिद्धि होने पर साधक का चित्त एकाग्रता की ओर उन्मुख होने लगता है, चित्तवृत्तियाँ शुद्ध होने लगती हैं। (८) प्राणक्रिया- इस अंग में मन्त्रयोगी प्राण (कुम्भक, पूरक, रेचक) के सहारे मन्त्र जाप करता है। (६) मुद्रा-यह ध्येय है। इसमें साधक अपने इष्टदेव अथवा गुरुदेव का कल्पना में चित्र बनाकर इनका ध्यान करता है। (१०) तर्पण-इस अंग में मन्त्रयोगी साधक कल्पना चित्र रूप इष्टदेव अथवा गुरु को श्रद्धाभक्तिपूर्वक कल्पना में ही वन्दन करता है। (११) हवन-इसमें मन्त्रयोगी साधक अपनी दुष्प्रवृत्तियों-काम-क्रोध, ईर्ष्या-द्वष आदि की आहुति देता है । (१२) बलि-मन्त्रयोगी साधक अपने विकारों का विसर्जन करके उनकी बलि देता है। (१३) याग–याग का अभिप्राय मानसिक अर्चा-पूजा है। (१४) जप-यह तीन प्रकार का है-(१) वाचिक, (२) उपांशु और (३) मानसिक । ये तीनों प्रकार के जप उत्तरोत्तर अधिक प्रभावशाली हैं। जप कर-माला अथवा नवकरवाली (माला) दोनों से किया जा सकता है। माला तुलसी, रुद्राक्ष, सूत अथवा मणियों की हो सकती है। कर-माला जप के भी ह्रीं आवर्त, ॐ आवर्त आदि अनेक प्रकार हैं। (१५) ध्यान-यह मन्त्र योग का पन्द्रहवाँ अंग है । इसमें साधक अपने इष्टदेव का ध्यान करता है। देव का रूप उसके दृष्टि पटल पर प्रत्यक्ष हो जाता है । मन को एकाग्र करने का एकमात्र उपाय ध्यान ही है । ध्यान ही मोक्ष-कर्मबन्धन से मुक्ति कारण है। (१६) समाधि-यह मन्त्र योग का सोलहवाँ तथा अन्तिम अंग है । जब साधक को अपने मन, जप मन्त्र तथा इष्टदेव का स्वतन्त्र बोध नहीं रहता Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के विविध रूप और साधना-पद्धति ४७ अर्थात् मन पूर्ण रूप से जप तथा इष्टदेव में लय हो जाता है, ध्याता, ध्येय और ध्यान एक रूप हो जाता है, इस अवस्था का नाम समाधि है। समाधि मन्त्र योग की उच्चतम स्थिति है। समाधि-प्राप्त मन्त्रयोगी साधक कृतकृत्य हो जाता है। __ इस प्रकार मन्त्रयोग के इन सोलह अंगों की पूर्णता से साधक मुक्ति प्राप्त कर लेता है। ध्यानयोग योगमार्ग में ध्यान का महत्व सर्वविदित है। ऐसा कोई भी योग का मार्ग नहीं जिसमें ध्यान की चर्चा और वह भी विशेष रूप से न हो। लेकिन ध्यानयोग में सिर्फ ध्यान का ही वर्णन हुआ है और इसी से मुक्ति मानी गई है। ध्यानयोग के अनुसार ध्यान के दो प्रकार हैं-(१) भेद ध्यान और (२) अभेद ध्यान । भेद ध्यान के उत्तरभेद अनेक हैं। (१) इष्टदेव का ध्यान-इस प्रकार के ध्यान में साधक अपने माने हुए इष्टदेव अथवा गुरु की मुद्रा का ध्यान करता है। (२) स्थूल ध्यान-इस ध्यान में भी साधक अपने इष्ट के स्थूल रूप का ध्यान करता है। (३) ज्योतिर्ध्यान-भकूटि के मध्य में और मन के ऊर्ध्व भाग में (अर्थात् सोमचक्र में) जो ज्योति विराजमान है उस ज्योति अथवा तेज का ध्यान करना। इस ध्यान से योगसिद्धि और आत्म-प्रत्यक्षता की शक्ति प्राप्त होती है। (४) सूक्ष्मध्यान-यह ध्यान शाम्भवी मुद्रा द्वारा किया जाता है। शाम्भवी मुद्रा में ध्यानयोगी भृकुटि के मध्य दृष्टि को स्थिर करके एकाग्र. चित्त से परमात्मा के दर्शन करता है। सूक्ष्म ध्यान में योगी की चित्तवृत्तियाँ अपने ध्येय पर स्थिर हो जाती हैं। ____ अभेद ध्यान-इस ध्यान में साधक किसी प्रकार का बाह्य आलंबन नहीं लेता। अद्धनिमीलित आँखें रखकर वह दृष्टि नासाग्र पर जमाता है तथा अपनी चित्तवृत्तियों को निष्पक्ष रूप से द्रष्टा मात्र होकर देखता है, दूसरे शब्दों में प्रेक्षाध्यान करता है। इस समय चित्त में जो भी काम, क्रोध, ईर्ष्या आदि के विकार तथा अन्य किसी प्रकार के विभाव दृष्टिगोचर हों, उन्हें Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ जैन योग : सिद्धान्त और साधना हटाता जाता है । इस प्रक्रिया के बाद जो कुछ भी भी बचता है, वह आत्मा का शुद्ध भाव है, उसी पर योगी अपना ध्यान केन्द्रित करता है। प्रारम्भ में उसके ध्यान में कुछ चंचलता रहती है, किन्तु दृढ़ अभ्यास से वह चंचलता भी मिट जाती है, मन स्थिर हो जाता है, मन और आत्मा का अभेद स्थापित हो जाता है और यह अभेद स्थापित होते ही अभेद ध्यान सिद्ध हो जाता है तथा योगी कृतकृत्य हो जाता है। सुरतशब्दयोग 'सुरतशब्दयोग' राधास्वामी सम्प्रदाय में प्रचलित योग साधना का पारिभाषिक नाम है । यहाँ सुरत शब्द आत्मा का प्रतीक है। राधास्वामी मत का ऐसा मन्तव्य है कि आत्मा की जोधारा प्रवाहित होती है, उसमें शब्द भी होता है, उस शब्द का आनन्द लेने का नाम ही सुरतशब्दयोग है । इस सम्प्रदाय में शब्द दो प्रकार के माने गये हैं-(१) आहत-जो दो वस्तुओं की टकराहट से उत्पन्न होते हैं, अर्थात् व्याघात से उत्पन्न होते हैं। और (२) अनाहत-जो बिना व्याघात के स्वतः ही उत्पन्न होते हैं । अनाहत शब्दों में सुरत अर्थात् ध्यान जोड़ने को ही सुरत-शब्द-योग कहा जाता है। हठयोग के समान ही इस सम्प्रदाय में भी मानव-शरीर के अन्दर षट् चक्र माने जाते हैं । साथ ही कमल और पद्मों की भी मान्यता है । सुरतशब्द-योग द्वारा इन चक्रों, पद्मों और कमलों को जाग्रत किया जाता है। इसके लिए वे सुमिरन और ध्यान को आवश्यक मानते हैं। सुमिरन से अभिप्राय एक विशेष बीजमन्त्र का अन्तर में जप या उच्चारण है और ध्यान से अभिप्राय अन्तर में चेतन स्वरूप का चिन्तन है । इनकी साधना करते-करते साधक शनैः शनैः राधास्वामी दयाल के स्थान को प्राप्त कर लेता है, दूसरे शब्दों में कृतकृत्य हो जाता है। अरविन्द का पूर्णयोग श्री अरविन्द घोष वर्तमान शताब्दी के प्रतिष्ठित योगी थे। उनके 'पूर्ण योग' का सार यह है कि मनुष्य जाति में ही भगवान को पाना और प्रगट करना है ।' यही अरविन्द की दृष्टि में योग द्वारा मानव जाति की सेवा है। इसके लिए साधक को कुछ विशेष नहीं करना है सिर्फ उसे मौन और शान्त रहकर भगवत् प्राप्ति के लिए उत्कंठ होना, भगवान की ओर उन्मुख होना, भगवदनुकूल होना और भगवान की दया को ग्रहण करना है। भगवान ही मार्गदर्शक हैं और वे ही सब कुछ करते हैं । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के विविध रूप और साधना पद्धति ૪૩ अरविन्द के अनुसार मानव को अपने मानस (Mind) को शुद्ध और विकसित करके अतिमानस ( Super mind) बनाना चाहिए जिससे वह भगवत्दया को अच्छी तरह ग्रहण कर सके । अरविन्द के योग और प्राचीन योगों में मूल अन्तर यह है कि प्राचीन योग तो मनुष्य की आत्मा को शुद्ध बनाकर ईश्वर में लय होने की प्रेरणा देते थे । दूसरे शब्दों में वे व्यक्तिवादी थे; जबकि अरविन्द समष्टिवादी हैं । उनका योग दिव्य जीवन ( Divine Life) का योग है । इनके पूर्णयोग के अनुसार मानवजाति विकास करके भगवद् अवतरण के प्रभाव से श्र ेष्ठतर और श्रेष्ठतम बने । पूर्णयोग द्वारा मानव जाति को यही सेवा उनका लक्ष्य हँ । श्री अरविन्द का योग, इसीलिए योग-मार्ग की लीक से हटकर, भगवद्प्राप्ति - सही शब्दों में भगवद्- कृपा प्राप्ति का योग है । पूर्ण योग से उनका अभिप्राय अतिमानस ( Super mind) दशा को प्राप्त करना है । एक शब्द में कहा जाय तो अरविन्द का पूर्णयोग प्राचीन भक्तियोग का ही आधुनिकीकरण है- आधुनिक मनोविज्ञान और विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में नये शब्दों में संसार के समक्ष रखा गया आध्यात्मिक योग और भक्तियोग का सम्मिश्रण है । योग-मार्ग : पिपीलिकामार्ग और विहंगममार्ग साधना जगत् में साधक को मुक्ति प्राप्त कराने वाले दो योग मार्ग मान्य हैं - ( १ ) पिपीलिकामार्ग और विहंगममार्ग | पिपीलिका मार्ग के उपदेष्टा हैं – वामदेव; और विहंगममार्ग का उपदेश दिया है शुकदेव ने । श्रीमद्भागवत् के अनुसार शुकदेव जी महाज्ञानी और विरागी महापुरुष थे । अतः उन्होंने ज्ञानमार्ग का उपदेश दिया । उनके ज्ञानमार्ग का अनुसरण करने वाला साधक सांख्ययोग समाधि द्वारा हृदय कमल के रक्तदल में ज्योतिष्मान् स्वरूप को जानकर अनायास ही चिर सुख शान्तिमय ब्रह्मानन्द सुखरूप मोक्ष को प्राप्त कर लेता है । एक शब्द में शुकदेव द्वारा उपदिष्ट विहंगम मार्ग ज्ञानमार्ग है । वामदेव महान योगी थे । अतः उन्होंने योगमार्ग का उपदेश दिया । यम-नियम- प्राणायाम आदि अष्टांग योगमार्ग बताया। उनके मार्ग के अनुसार निर्विकल्प समाधि दशा प्राप्त करके साधक मुक्त होता है । वेदान्त विज्ञों के मतानुसार योगमार्ग की अपेक्षा ज्ञानमार्ग श्रेष्ठ है, Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० जैन योग : सिद्धान्त और साधना क्योंकि इसमें पतन होने की सम्भावना नहीं है। जबकि योगी के पतित होने की सम्भावनाएं हैं। दूसरी विशेषता यह है कि ज्ञानमार्ग द्वारा मुक्ति शीघ्र प्राप्त हो सकती है। जबकि योगमार्ग द्वारा अनेक जन्म भी लग सकते हैं। तोसरी विशेषता यह है कि ज्ञानमार्ग सरल है और योगमार्ग कठिन; क्योंकि यौगिक प्रक्रियाएं काफी पेचीदी हैं। इन सब कारणों से योगमार्ग की अपेक्षा ज्ञानमार्ग श्रेष्ठ माना जाता है। बौद्ध-योग योग की परम्परा और आकर्षण से बौद्धधर्म-दर्शन भी अछूता नहीं रहा। इस दर्शन के भी अनेकों ग्रन्थों में योग सम्बन्धी वर्णन मिलता है। स्वयं तथागत बुद्ध ने भी ध्यान किया था। वे ज्ञान प्राप्ति के लिए वैदिक संन्यासियों के आश्रम में रहे और उन्होंने तीर्थंकर पार्श्व की परम्परा का अनुसरण करते हुए ध्यान साधना की। ध्यानयोग द्वारा ही उन्हें बोधिवृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था। बौद्धग्रन्थ 'ब्रह्मजाल सुत्त' तथा 'आटानटीय सुत्त' में भी इस विषय का कुछ वर्णन है। इनके अतिरिक्त 'मञ्जुश्री मूलकल्प', 'गुह्य समाजतन्त्र', 'साधनमाला', श्रीचक्रसंवर', 'सद्धर्म पुण्डरीक', 'सुखावतीव्यूहसूत्र', 'शमथयान अर्थात् 'समाधि' आदि अनेक ग्रन्थों में योग और यौगिक क्रियाओं का वर्णन हआ है। इन ग्रन्थों में 'गुह्यसमाज' योगिक वर्णन की दृष्टि से अधिक महत्त्वपूर्ण है। इस ग्रन्थ के अठारहवें अध्याय में बौद्धधर्म में प्रचलित योग साधनाओं तथा उनके उद्देश्य और प्रयोजन का वास्तविक परिचय दिया गया है। साथ ही इसी अध्याय में बौद्ध तन्त्र के पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या भी की गई है, जो बौद्धतन्त्र में सर्वाधिक प्रचलित हैं। ___'उपाय' शब्द की व्याख्या करते हुए उसके चार भेद बताये गये हैं (१) सेवा, (२) उपसाधन, (३) साधन और (४) महासाधन । इसमें सेवा के दो अवान्तर भेद हैं-(१) सामान्य सेवा और (२) उत्तम सेवा । सामान्य सेवा का दूसरा नाम 'वज्रचतुष्टय' दिया गया है और उत्तम सेवा को 'ज्ञान सुधा' कहा गया है। - वज्र चतुष्टय किसी देवता के साक्षात्कार की प्रक्रिया है। इसके चार सोपान हैं-(१) शून्यता प्रत्यय, (२) शून्यता का बीजमन्त्र के रूप से परिणाम, (३) बीजमन्त्र का देवता के आकार का बन जाना और (४) देवता का विग्रह रूप में प्रकट होना। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के विविध रूप और साधना-पद्धति ५१ 'उत्तम सेवा' में सिद्धि प्राप्त करने के लिए षडंगयोग का साधन किया जाता है। इन छह अंगों के नाम हैं-(१) प्रत्याहार, (२) ध्यान, (३) प्राणायाम, (४) धारणा, (५) अनुस्मृति और (६) समाधि।। __ स्पष्ट ही यह अष्टांग योग में उल्लिखित शब्द हैं, सिर्फ अनुस्मृति ही नया है तथा यम, नियम, आसन-अष्टांग योग के ये तीन अंग छोड़ दिये गये हैं। प्रत्याहार द्वारा द्वारा इन्द्रियों का निग्रह किया जाता है। रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान पर चित्त को एकाग्र करना ध्यान है। प्राणायाम का स्वरूप बौद्ध योग में भी लगभग वैसा ही है जैसा अष्टांग योग मे बताया गया है-अर्थात् प्रोणवायु का निरोध एवं नियमन । धारणा में साधक अपने इष्ट मन्त्र का हृदय कमल पर जाप करता है। धारणा के स्थिर होने पर साधक को निरभ्र आकाश के सदृश स्थिर प्रकाश का चिह्न दिखाई देता है । ___ अनुस्मृति उस पदार्थ के अनवच्छिन्न ध्यान को कहा जाता है, जिसके निमित्त योग साधना का प्रारम्भ किया गया है । इसका चिरकाल तक अभ्यास होने के बाद प्रतिभास (revelation) होने लगता है अर्थात् सृष्टि में स्थित समस्त पदार्थ एक पिंड के रूप में दिखाई देने लगते हैं। उस पिंड के समस्त बाह्य प्रपंचों पर ध्यान करने से समाधि रूप अलौकिक ज्ञान की प्राप्ति शीघ्र हो जाती है। सबसे विचित्र बात यह है कि साधक के लिए योग साधना करते हुए भी किसी प्रकार का खान-पान सम्बन्धी बन्धन नहीं बताया गया है। योग-वियोग-अयोग योग और योगमार्ग का एक अन्य अपेक्षा से भी वर्गीकरण किया गया है, वह है-योग-वियोग-अयोग । योग और वियोग (विवेक)-मार्ग में यद्यपि पारमार्थिक दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है। फिर भी व्यावहारिक भूमिका में इन दोनों में भेद है और उस भेद के अनुसार सिद्धि में भी अन्तर आ जाता है। __अनादि काल से जीव संसार में परिभ्रमण कर रहा है। इस संसारी दशा में उसमें स्थूल और सूक्ष्मभाव परस्पर एक-दूसरे से नीर-क्षीर के समान Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ जैन योग : सिद्धान्त और साधना मिले रहते हैं; अथवा यों कहें कि तिलों में तेल रहता है उसी प्रकार स्थूल भावों के अन्दर सूक्ष्म भाव भी निहित रहते हैं । इन सूक्ष्मभावों को स्थूल भावों से पृथक् करने के लिए क्रिया विशेष की आवश्यकता होती है । इस पृथक्करण क्रिया का नाम ही वियोग है । वियोग का अर्थ विवेक होता है । सांख्यदर्शन द्वारा अनुमोदित साधन प्रणाली इसी वियोग अथवा विवेक की ओर संकेत करती है । वेदान्त में जो पंचकोष (अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय कोष) विवेक है वह भी यह वियोग मार्ग ही है । सांख्यदर्शन के अनुसार योग का लक्ष्य है होकर शुद्ध रूप में स्थिर होना और जैन दर्शन के से मुक्त होकर स्वभाव में स्थिर होना । यही गमन है । 'पुरुष' का प्रकृति से वियोग अनुसार विभाव (विकारों) योग से वियोग की ओर साधक इस वियोग मार्ग का अवलम्बन लेता हुआ, सूक्ष्म की ओर उन्मुख होता है और सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम स्थिति में पहुँच जाता है । योगी को जो स्थूल शरीर को छोड़कर सूक्ष्म शरीर द्वारा इधर-उधर भ्रमण की शक्ति प्राप्त होती है, वह इस वियोग के अवलम्बन के फलस्वरूप ही होती है । जब योगी सूक्ष्मतम स्थिति से भी और गहराई में पहुँच जाता है तो वह अयोग अवस्था में पहुँच जाता है । वहाँ वह आत्ममय हो जाता है, स्थूल और सूक्ष्म शरीर से भी अतीत हो जाता है । इस अवस्था को देहातीत अवस्था कहते हैं । इसका अभिप्राय यह नहीं है कि योगी के देह रहती ही नहीं है, वरन् इसका अभिप्राय यह है कि स्थूल और सूक्ष्म शरीर से जो उसकी सम्बद्धता थी, वह संयोग मात्र रह जाता है । वह देह के प्रति निर्मम (मोह रहित) हो जाता है । यहो अयोग दशा है । ऐसा योगो पूर्ण रूप से निर्लिप्त और जीवन्मुक्त होता हैं । जैन दर्शन के अनुसार योग साधक की यह अन्तिम स्थिति है और मुक्ति से पूर्व की । चतुदर्श गुणस्थानों में अन्तिम गुणस्थान 'अयोग गुणस्थान हैं' । भारतीयेतर दर्शनों में योग इसी प्रकार योग के संकेत जरथुस्त और ईसाई धर्म में भी प्राप्त होते हैं, यद्यपि इन धर्मों के ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से योग और यौगिक क्रियाओं का वर्णन नहीं हुआ किन्तु भगवत् भक्ति, आत्मस्वरूप का ज्ञान करने और सेवा आदि की प्रेरणा तो दी ही गई है और इस रूप में यह मानना उचित होगा कि ज्ञानमार्ग, कर्ममार्ग और भक्तिमार्ग के संकेत इन धर्मों में भी हैं । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के विविध रूप और साधना-पद्धति ५३ यह सत्य है कि वैदिक, बौद्ध तथा अन्य दर्शनों में योग का अभिप्राय आत्मा का परमात्मा से मिलन अथवा साहचर्य ही है। योग शब्द भारत में तो इतना अधिक प्रचलित हुआ कि आध्यात्मिक एवं भौतिक उन्नति की सभी साधनाएँ एवं क्रियाएँ योग नाम से अभिहित की गईं। प्रत्येक मत-सम्प्रदाय ने अपने नाम अथवा क्रियाओं के साथ योग शब्द जोड़ दिया। यही कारण है कि योम के अनेक भेद-प्रभेद हो गये और सभी ने अपनी मान्यता के अनुसार योग की परिभाषाएँ और लक्षण बना लिये। योग का उत्स सहस्र धाराओं में बह निकला। यह स्थिति आज भी समाप्त नहीं आधुनिक पाश्चात्य जगत में योग के प्रति बहत दिलचस्पी है। पाश्चात्य भौतिकता-प्रधान संस्कृति के फलस्वरूप उत्पन्न हुए तनावों, चिन्ताओं और मानसिक आवेगों से त्रस्त, संतप्त पश्चिमी जगत योग से शान्ति पाने का प्रयास कर रहा है। यही कारण है कि सारे संसार में योग शिविर खुल रहे हैं और वहाँ का मानव इनका समुचित आदर कर रहा है, दिलचस्पी ले रहा है। यह मानना भूल ही होगा कि इस बीसवीं शताब्दी से पहले पाश्चात्य जगत योग से पूर्णतया अनभिज्ञ ही था। भारत के अनेक धर्म प्रचारक प्राचीन काल में बाहर जाते रहे थे और वहाँ के लोग भी यहाँ आते रहे थे। बनियर, ट्रेवनियर आदि यात्री १६वीं शताब्दी में भारत आये और यहाँ के योगियों से उनका सम्पर्क भी हुआ तथा स्वयं उन्होंने अपनी आँखों से योगियों के चमत्कार देखे। उन्होंने अपने यात्रा संस्मरण भी लिखे और लोगों को जाकर सुनाये भी । उन वर्णनों को सुनकर यूरोपवासियों के हृदय में योग के प्रति दिलचस्पी होना स्वाभाविक था। पाश्चात्य योग-मेस्मेरिज्म तथा हिप्नोटिज्म मेस्मर नाम का एक व्यक्ति चिकित्साशास्त्र में बहुत निपुण था। वह आस्ट्रिया (यूरोप) के वियना (Vienna) नगर का निवासी था। एक बार वह किसी व्यक्ति का उपचार कर रहा था। अचानक उस रोगी के अंग से रक्त निकलने लगा। उस समय मेस्मर के पास खून रोकने का कोई साधन न था। उसने उस व्यक्ति के अंग पर हाथ फिराया तो उसका रक्त बन्द हो गया। इससे मेस्मर ने यह सिद्धान्त खोज निकाला कि अंगुलियों के अग्रभाग से विद्युत प्रवाह-अदृश्य शक्ति निकलती है जो रोगी में प्रविष्ट होकर रोग को दूर करती है। इस अदृश्य शक्ति का नाम उसने Animal Magnetism Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ जैन योग : सिद्धान्त और साधना (विद्युत प्रवाह) रखा। मेस्मर के नाम पर ही इस सिद्धान्त का नाम मेस्मेरिज्म पड़ गया। इसके बाद सन् १८४१ में मैनचेस्टर के डाक्टर बेड ने यह अनुभव किया कि किसी को प्रभावित करना या कृत्रिम निद्रा में लाना, सूचना शक्ति (Suggestion) पर निर्भर है । उन्होंने इस कृत्रिम निद्रा को Hypnosis नाम दिया। इसी के आधार पर इस विद्या का नाम Hypnotism पड़ गया। इन दोनों विधियों से अनेक रोगों के सफल उपचार हुए। फ्रान्स के प्रसिद्ध मनोविज्ञानशास्त्री फ्रायड (Freud) ने तो हिप्नोटिज्म के प्रयोग से अनेक विक्षिप्तों का उपचार कर दिया। यद्यपि ये दोनों विद्याएँ उस अर्थ में योग नहीं कही जा सकतीं जिस अर्थ में योग शब्द का प्रयोग भारत में हुआ है। किन्तु इन दोनों विद्याओं का सम्बन्ध सूक्ष्म अथवा तेजस् शरीर से है तथा इन शक्तियों के विकास के लिए चित्त की एकाग्रता आधारभूत है, इसलिए इन्हें आध्यात्मिक योग में नहीं तो भौतिक योग में तों परिगणित किया ही जा सकता है। मेस्मेरिज्म और हिप्नोटिज्म दोनों में ही प्रयोगकर्ता को अपनी आकर्षण शक्ति बढ़ानी आवश्यक है। आकर्षण शक्ति बढ़ाने की साधना एकान्त कमरे में की जाती है। वहाँ किसी बिन्दु पर टकटकी लगाकर दृष्टि साधना की जाती है । उस समय साधक मन में दृढ़तापूर्वक यह भावना करता है कि 'मेरी आँखों के ज्ञान-तन्तु बलवान हो रहे हैं। मेरे नेत्र आकर्षक और प्रभावशाली हो रहे हैं । मैं निर्भय हैं। सिर ऊँचा करके सबके सामने देख सकता हूँ। मेरी मनःशक्ति प्रबल है।' इस प्रकार की साधना का अभ्यास १५ मिनट से लेकर आधा घण्टे तक किया जाता है। फिर किसी रोगी का उपचार करने के लिए उसे मार्जन (Pass) दिया जाता है। इसके लिए हाथ की अंगुलियों के अग्रभाग से निकालने वाले विद्य त प्रवाह को तीव्र किया जाता है। वह भी मन की दृढ़ता, एकाग्रता तथा 'मेरी अंगुलियों के अग्र भागों से तीव्र विद्य त प्रवाह बाहर निकल रहा है। इस भावना से होता है। इसे आजकल के योगियों की भाषा में शक्तिपात भी कहा जाता है। ___ अतः स्पष्ट है कि हिप्नोटिज्म और मेस्मेरिज्म में प्रवीण होने के लिए प्रयोक्ता को लगभग उसी प्रकार की साधना करनी पड़ती है, जैसी कि योगियों को। हाँ, यह बात अवश्य है कि हिप्नोटिज्म और मेस्मेरिज्म का उद्देश्य न Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग के विविध रूप और साधना-पद्धति ५५ आत्मिक शुद्धि है, न आध्यात्मिक उन्नति; इसका लक्ष्य केवल भौतिकता है, शारीरिक एवं मानसिक स्वस्थता है। इसलिए इसे 'योग' मानने में आपत्ति हो सकती है। __ इस प्रकार योग के अनगिनत प्रकार हैं और विभिन्न रूपों में यह सर्वत्र प्रचलित है। योगमार्ग की इन विविध साधना पद्धतियों पर दृष्टिपात करने से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि जब तक मानव अपने अन्तःकरण में सुप्त शक्तियों को पहचानता नहीं है तब तक वह योगमार्ग में गति नहीं कर सकता। योग साधना की पृष्ठभूमि तभी बनती है जब संकल्प बल सुदृढ़ होता है, मानसिक एकाग्रता बढ़ती है और मनुष्य एक लक्ष्य व ध्येय के प्रति समर्पित हो जाता है। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ जैन योग का स्वरूप जैन मनीषियों ने योग पर बहुत ही गहराई और विशद दृष्टिकोण से चिन्तन किया है । न उन्होंने योग को वाम - कौल तन्त्र की तरह गुह्य बनाया और न हठयोग के समान देह-दण्ड एवं प्राणायाम को ही अत्यधिक महत्व दिया वरन् योग को एक सहज स्वभाव परिणति की क्रिया के रूप में स्वीकारा है । जैन धर्म मूलत: निवृत्तिप्रधान धर्म है, मुक्ति उसका लक्ष्य है और मुक्ति-प्राप्ति के लिए ध्यान को आवश्यक क्रिया मानता है । बिना धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान के मुक्ति सम्भव ही नहीं है । और ध्यान में चित्त की एकाग्रता तथा शरीर की स्थिरता आवश्यक ही है । इसीलिए ध्यान की विवेचना करते हुए योग पर भी विचार किया गया। दूसरे शब्दों में योग को ध्यान के अन्तर्गत माना गया है तथा इसे आध्यात्मिक विकास के लिए आवश्यक स्वीकार किया गया है । जैन धर्म में योग की परम्परा अति प्राचीन है । इसके प्रमाण वेद' और उपनिषदों में भी मिलते हैं । अन्य ऐतिहासिक तथा पुरातात्विक शोधों से भी इस तथ्य की पुष्टि होती हैं । योग का लक्षण योगदर्शनकार पतंजलि ने सिर्फ चित्तवृत्तियों के निरोध को ही योग की संज्ञा दी हैं; जबकि जैन मनीषियों ने योग की विविध दृष्टियों से व्याख्या की हैं | पंचसंग्रह में कहा गया हैं-समाधि, तप, ध्यान आदि ऋग्वेद १०/१३६/२ बृहदारण्यक उपनिषद् ४ / ३ / २२ (क) Modern Review, August 1932, pp. 155-56 (ख) जैन साहित्य का इतिहास, पूर्वपीठिका, प्राक्कथन, पृ० १० ४ पातंजल योग सूत्र १/२ ५ जोगो विरियं यामो उच्छाह परक्कमो तहा चेरठा । सति सामत्थं चिय जोगस्स हवन्ति पज्जाया ॥ २ ३ - पंचसंग्रह, भाग २, ४ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का स्वरूप ५७ शब्दों का उपयोग 'योग' के समान अर्थ में हुआ है और वीर्य, स्थान, उत्साह, पराक्रम, चेष्टा, शक्ति एवं सामर्थ्य शब्द प्रकारान्तर से योग के पर्यायवाची अथवा योग के अर्थ को व्यंजित करने वाले हैं । भगवती आराधना' में योग को वीर्य गुण की पर्याय माना गया है । वहाँ उसका आशय यही है कि वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से होने वाला आत्म-परिणामविशेष योग है । अर्थात् संसारी दशा में आत्मा के उत्साह आदि योग हैं। आत्म-प्रदेशों की चंचलता तथा उनके संकोच -विस्तार को भी योग कहा है । " जैन पारिभाषिक शब्द 'संवर' योग के समकक्ष आता है, क्योंकि योग में भी चित्तवृत्तियों का निरोध होता है और 'संवर' आत्मा के मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय आदि आस्रवों का निरोध है अर्थात् इन आस्रव रूप आत्म-परिणतियों के रोकने को संवर कहा है । योग का समाधि और ध्यान के अर्थ में प्रयोग तो जैन ग्रन्थों में अनेक स्थलों पर हुआ है | नियमसार, सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक आदि दिगम्बर ग्रन्थों में तो समाधि और ध्यान के अर्थ में योग का व्यवहार हुआ ही है; ११७८/११८७,४ १ योगस्य वीर्य परिणामस्य... | २ (क) विशेषावश्यक भाष्य ३५८ (ख) जीव पदेसाणं परिफन्दो संकोच विकोचब्भमण सरूवओ | - भगवती आराधना, ४ ३ झाणसंवर जोगे य । विवरीयाभिणिवेसं परिचत्ता जोण्ह कहिय तच्चेसु । जो जुजदि अप्पाणं णियभावो सो हवे जोगो ॥ — धवला १०/४,२,४, १७५ / ४३७ / ७ - अभिधान राजेन्द्र कोश, भाग ४, पृ० १६५० - नियमसार, गाथा १३६ (विपरीत अभिनिवेश का त्याग करके जो जिनकथित तत्त्वों में आत्मा को लगाता है, उसका वह निजभाव, योग है 1 ) ५ सर्वार्थसिद्धि ६ / १२ / ३३१/३ तथा गोम्मटसार कर्मकाण्ड ८०१ / १८० /१३ ६ निरवद्यस्य क्रियाविशेषस्यानुष्ठानं योगः समाधिः सम्यक् प्रणिधानमित्यर्थः । — तत्त्वार्थ राजवार्तिक ६/१२/८/५२२/३१ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग: सिद्धान्त और साधना किन्तु प्राचीनतम जैन आगमों सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन े, समवायांग, ठाणांग आदि अंग-आगम ग्रन्थों में भी ऐसे ही उल्लेख पाये जाते हैं । ५८ साथ ही जैनाचार्यों ने योग का निरुक्तिपरक अर्थ 'युजिर् योगे' भी स्वीकार करते हुए कहा है कि जो आत्मा को केवलज्ञान आदि परम सात्त्विक तथा ज्ञान चेतना के साथ जोड़ता है, वह योग है। आचार्य हरिभद्र ने कहा है कि योग आत्मा को मोक्ष से जोड़ता है, अर्थात् मोक्ष तक पहुँचाता है और योगी के सभी धर्म व्यापार योग के अन्तर्गत हैं । इसी लक्षण को और विस्तृत करते हुए उपाध्याय यशोविजयजी ने कहा हैसमितिगुप्तिधारणं धर्मव्यापारत्वमेव योजनम् । -- योगदर्शनवृति तथा इसीलिए वे समिति गुप्तिरूप योग को उत्तम मानते हैंयतः समितिगुप्तिनां प्रपंचौ योग उत्तमः | - योगभेद द्वात्रिंशिका, ३० क्योंकि समिति - गुप्ति से संयम की वृद्धि और चेतना की शुद्धि होती है और योग भी आत्मा को उसकी शुद्ध दशा को प्राप्त कराने वाला मार्ग है । अतः समिति - गुप्तिरूप योग से आत्मा को सिद्धावस्था प्राप्त होती है । वस्तुस्थिति यह है कि जहाँ योग समाधि' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, वहाँ वह साध्यरूप से निर्दिष्ट है; और जहाँ योजन, संयोजन अथवा संयोग अर्थ में योग का प्रयोग किया गया है, वहाँ वह साधन रूप निर्दिष्ट किया गया है । यह तथ्य सर्वविदित है कि बिना साधन के साध्य की प्राप्ति नहीं होती । १ सूत्रकृतांग १ / २ /१/११. २ उत्तराध्ययन ११ / १४; २७ / २ तथा देखिए उत्तरा० ११ / १४ की बृहद् वृतियोग: समाधिः, सोऽस्यास्ति इति योगवान् । ३ स्थानांग, १०. ४ युज्यते वाऽनेन केवलज्ञानादिना आत्मेति योगः । - हरिभद्रसूरिकृत — ध्यान शतक की वृत्ति ५ मोक्खेण जोयणाओ जोगो सव्वो वि धम्मवावारो । — योगविंशिका १ ६ तदेतद् ध्यानमेव चाभ्यस्यमानं कालक्रमेण परिपाकदशापन्नं समाधिरित्यभिधोयते— 'ध्यानादस्पन्दनं बुद्ध : समाधिरभिधीयते' इति स्कन्धाचार्योक्तिः । - पातंजल योगदर्शन की टिप्पणी - स्वामी बालकराम Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का स्वरूप ५६ समाधि आत्मा की विक्षेपरहित समभाव परिणति रूप समाहित अवस्था है, जिसमें चित्त की एक विशिष्ट प्रकार की एकाग्रता अपेक्षित होती है और यह चित्त की एकाग्रता ध्यान-साध्य है, ध्यान के बिना सम्भव ही नहीं है। इसीलिए जैन आचार्यों ने योग को मुख्यतः ध्यान के अन्तर्गत ही परिगणित किया है। __ ध्यान-योग में प्रणिधान रूप मनःसमिति से चित्त की एकाग्रता का सम्पादन होता है और समाधियोग में मनोगृप्ति द्वारा उसकी स्थिरता सम्पन्न होती है। वास्तव में, ध्यान की परिपक्वता और ध्यानाभ्यास से प्राप्त होने वाला चित्तवृत्ति का अस्पन्दन मात्र ही समाधि है। यदि योग शब्द के व्युत्पत्तिलभ्य समाधि और संयोग-दोनों अर्थों पर सूक्ष्म दृष्टि से गहराईपूर्वक विचार किया जाय तो इसमें अभेद और भेद दोनों ही दृष्टिगोचर होते हैं। किन्तु इन दोनों विरोधी तत्वों भेद और अभेद के सम्यक समन्वय से योग का अर्थ और भी स्पष्ट हो जायेगा। समाधि और संयोग-ये दोनों हो योग रूप एक हो वस्तु के दो पहलू हैं । समाधि में समाधान प्रधान है; और संयोग में संयोजन मुख्य है । समा. धान आत्मा की समाहित अवस्था-समभाव परिणति का परिचायक है; और संयोग-साधक को अपने साध्य से मिलाता है। समाधान अथवा समता में अभेद दृष्टि का ही प्राधान्य है जबकि संयोग में भेदप्रधान विचारों का अनुसरण है। किन्तु संयोगरूप भेद अवस्था न शाश्वत है और न चिरस्थायी; ज्योंव्यों साधक अपने लक्ष्य अथवा सिद्धि के समीप पहँचता जाता है, त्यों-त्यों भेद भी समाप्त होता जाता है; और लक्ष्य प्राप्ति होने पर तो पूर्णतया समाप्त हो ही जाता है। - इस भेद और अभेद-संयोग और समाधि-योग के इन दोनों अर्थों का समन्वय करते हुए जैन आचार्यों ने योग की परिभाषा अथवा लक्षण निश्चित करते हुए कहा है "मोक्ष प्राप्ति के मुख्य और गौण, अन्तरंग तथा बहिरंग, ज्ञानदृष्टि और आचार दृष्टि से जितने भी अध्यात्मनिर्दिष्ट साधन हैं (जो साक्षात या परम्परा से मोक्ष के उपाय हैं) उनका यथाविधि सम्यग अनुष्ठान और उससे प्राप्त होने वाली आध्यात्मिक विकास की पूर्णता का नाम योग है।" Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० जैन योग : सिद्धान्त और साधना वैदिक विद्वानों ने भी योग के संयोग और समाधि दोनों अर्थों का समन्वय करते हए जो सारगर्भित व्याख्या की है, उससे भी इसी तथ्य का समर्थन होता है। मोक्ष के साधन के रूप में जैन धर्म-दर्शन ने रत्नत्रय को ही सर्वोत्तम उपाय (योग) स्वीकार किया है। यह रत्न सम्यगदर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यकचारित्ररूप है। यह योग (उपाय) अथवा साधन शास्त्रों का उपनिषद् है, मोक्ष को देने वाला है, तथा समस्त विध्न-बाधाओं का उपशमन करने वाला है, अतः कल्याणकारी है। यह (योग) इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति कराने वाला कल्पवृक्ष एवं चिन्तामणि है। धर्मों में प्रधान यह योग सिद्धि-जीवन की चरम सफलता-मुक्ति का अनन्य हेतु है ।' ___ इस प्रकार जैन आचार्यों ने योग के लक्षण में साध्य अर्थात् समाधि और उस समाधि को प्राप्त कराने वाले साधन-दोनों का समन्वय किया है। मन के अचंचलता आवश्यक ___ योगसिद्धि के लिये यह आवश्यक है कि मन स्थिर रहे, एकाग्र हो, चंचल न रहे, उसकी चंचलता मिट जाय । अतः सर्वप्रथम मन को नियन्त्रण में करना आवश्यक है। मन के कारण ही इन्द्रियाँ चंचल होती है । इस प्रकार मन और इन्द्रियों की चंचलता एकोन्मुखता के मार्ग में भटकाव उत्पन्न करती समाधिमेव च महर्षयो योगं व्यपदिशन्ति-यदाहुः योगियाज्ञवल्क्याः --'समाधिः समतावस्था, जीवात्म-परमात्मनोः । संयोगो योग इत्युक्तः, जीवात्म-परमात्मनोः' इति । अतएव स्कन्धादिषु-'यत्समत्वं द्वयोरत्र, जीवात्म परमात्मनोः, समष्टसर्वसंकल्पः समाधिरभिधीयते ।' 'परमात्मात्मानोर्योऽयमविभागः परन्तप ! स एव तु परो योगः समासात् कथितस्तव ।' इत्यादिषु वाक्येषु योग समाध्योः समानलक्ष णत्वेन निर्देशः संगच्छते। -स्वामि बालकरामकृत-योगभाष्य भूमिका २ (क) सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्मः । -तत्वार्थ सूत्र १/१ (ख) ज्ञानदर्शनचारित्ररूपरत्नत्रयात्मकः । योगोमुक्तिपदप्राप्तानुपायः परिकीर्तितः ।। -योगप्रदीप ११३ ३ शास्त्रस्योपनिपद्योगो योगो मोक्षस्य वर्तनी । अपायशमनो योगो, योगकल्याणकारकम् ॥ - योगमाहात्म्य द्वात्रिंशिका, १ ४ योगः कल्पतरुः श्रेष्ठो योगश्चिन्तामणिः परः । योगः प्रधान धर्माणां योगः सिद्धः स्वयंग्रहः ।। -योगबिन्दु ३७. Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन योग का स्वरूप ६१ हैं और आत्मा के अपने स्वरूप की उपलब्धि में बाधक बनती है इसलिए चंचल मन को स्थिर करना योग की पहली शर्त है। मन के बारे में अध्यात्म कल्पद्रम में कहा गया है-मन की समाधि योग का हेतु तथा तप का निदान है, और मन को केन्द्रित करने के लिए तप आवश्यक है, अतः तप शिवशर्म का-मोक्ष का मूल कारण है।' मन के प्रकार जैन आचार्य हेमचन्द्र ने मन के चार प्रकार बताये हैं-(१) विक्षिप्त मन (२) यातायात मन (३) श्लिष्ट मन और (४) सुलीन मन । इसी प्रकार पातंजल योग के भाष्यकार ने भी चित्त की पाँच भूमिकाएं स्वीकार की हैं(१) क्षिप्त, (२) मूढ़, (३) विक्षिप्त, (४) एकाग्र और (५) निरुद्ध। ये भूमिकाएँ चित्त की अवस्थाएँ ही हैं। विक्षिप्त मन तो चंचल होता ही है किन्तु यातायात मन विक्षिप्त मन की अपेक्षा कम चंचल होता है। क्योंकि चंचलता योग में विघ्न रूप होती है, इसलिए योगी को इन दोनों प्रकार के मन पर नियन्त्रण स्थापित करना चाहिए। श्लिष्ट नाम का तीसरा मन स्थिरतायुक्त और आनन्दमय होता है तथा जब यह मन स्थिर हो जाता है तो चौथा सुलीन मन होता है। इसी प्रकार का वर्णन चित्त की भूमिकाओं का किया गया है । क्षिप्त मन रजोगुण प्रधान और चंचल होता है। मूढ़ चित्त तमोगुणप्रधान और आलसी योगस्य हेतुर्मनसः समाधिः परं निदानं तपसश्च योगः । तपश्च मूलं शिवशर्म आहुः मनःसमाधि भज तत्कथंचित् ।। -अध्यात्म कल्पद्र म ६/१५ २ इह विक्षिप्तं यातायातं श्लिष्ट तथा सुलीनं च ।। चेतश्चतुःप्रकारं तज्ज्ञ-चमत्कारि भवेत् ॥ -योगशास्त्र १२/२ ३ क्षिप्तं मूढं विक्षिप्तं एकाग्रं निरुद्ध चित्तस्य भूमयः चित्तस्य अवस्था विशेषाः । -भोजवृत्ति १/२ तथा योगभाष्य ४ योगशास्त्र (हेमचन्द्र) १२/३ ५ वही १२/४ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ जैन योग : सिद्धान्त और साधना तथा विवेकशून्य होता है । विक्षिप्त मन कभी - कभी स्थिर' भी हो जाता है । ये तीनों अवस्थाएँ योग-समाधि के लिए अनुपयोगी हैं । एकाग्रचित्त में स्थिर होने का गुण विकसित हो जाता है और निरुद्ध मन में सभी बाह्य वृत्तियों का अभाव हो जाता है । इसलिए अन्तिम दो अवस्थाएं योग साधना के लिए अनुकूल हैं । इसी प्रकार भागवत में भी मन की चार अवस्थाएं मानी गई हैं । प्रश्नोपनिषद् में भी इन अवस्थाओं का वर्णन किया गया है । योग संग्रह चारित्र विकास के लिए तथा योग साधना हेतु साधकों के लिए कुछ आवश्यक नियम-उपनियम तथा क्रियाओं को करने का विधान है, इन्हें जैन पारिभाषिक शब्दावली में योग संग्रह कहा गया हैं । इनका उल्लेख समवायांग सूत्र में मिलता है । ये योग संग्रह बत्तीस हैं । (१) आलोचना - गुरु के समक्ष अपने दोषों को स्वीकार करना । (२) निरपलाप - शिष्य के दोष दूसरों के सामने प्रगट नहीं करना । (३) व्रतों में स्थिरता - अंगीकृत व्रत - नियमों का आपत्तिकाल में भी परित्याग नहीं करना ! (४) अनिरपेक्ष तपोपधान - अन्य किसी की सहायता की अपेक्षा न करके तप करना । (५) शिक्षा - शास्त्रों का पठन-पाठन करना । (६) निष्प्रतिकर्मता - शरीर की सजावट तथा श्रृंगार न करना । (७) अज्ञातता - अपने द्वारा किए गये तप को गुप्त रखना । (८) अलोभता - लोभ न रखना । (e) तितिक्षा - परीषहों को समभावपूर्वक सहना । (१०) ऋजुभाव - भावों में सरलता रखना । तत्व वैशा० टीका - वाचस्पति मिश्र १ / १ २ भोजवृत्ति १ / २ ३ श्रीमद्भागवत ११/१३/२७ ४ प्रश्नोपनिषद् ५/६ ५ समवायांग सूत्र, ३२व समवाय Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का स्वरूप ६३ (११) शुचि-सत्य तथा संयम में वृद्धि करते रहना। (१२) सम्यग्दृष्टि-सम्यग्दृष्टि होना। (१३) समाधि-चित्त को एकाग्रता तथा समताभाव । (१४) आचार-आचार पर दृढ़ रहना । (१५) विनय-आत्म-परिणामों में विनम्रता रखना। (१६) धृतिमति-धैर्यपूर्ण मति । (१७) संवेग-मोक्ष विषयक तीव्र अभिलाषा । (१८) प्रणिधि-माया अथवा कपट रहितता। (१६) सुविधि-सदनुष्ठान । (२०) संवर-कर्मो के आगमन को रोकना। (२१) आत्मदोषोपसंहार-अपने दोषों का निरोध करना। (२२) सर्वकामविरति -सभी प्रकार की इच्छाओं से विरति रखना । (२३) मूलगुणसम्बन्धी प्रत्याख्यान । (२४) उत्तरगुणसम्बन्धी प्रत्याख्यान । (२५) व्युत्सर्ग-त्याग । (२६) अप्रमाद-प्रमाद न करना। (प्रमाद १५ प्रकार का है, उन सब प्रकार के प्रमादों का त्याग करना ।) (२७) लवालव-क्षण-प्रतिक्षण अपने स्वीकृत आचार का पालन करना। (२८) ध्यान-संवर योग तथा धर्म और शुक्ल ध्यान अर्थात् शुभ ध्यान करना। (२६) मारणांतिक उदय-मारणांतिक परीषह आने पर भी दुःख एवं क्षोभ नहीं करना। (३०) संग-त्याग-मन में असंग भाव रखना। (३१) प्रायश्चित्त करना। (३२) मारणांतिक आराधना-जीवन के अन्तिम समय की साधनाकाय और कषाय को कम करते हुए समभाव से निर्भय होकर मृत्यु का वरण करना। ये योग-संग्रह के बत्तीस सूत्र जैन योग की आधार-भूमि माने गये हैं। इनके पालन और सुदृढ़तापूर्वक सफल बनाने का उपदेश श्रमण और श्रावक Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ जन योग : सिद्धान्त और साधना दोनों को दिया गया है। इन आधार-भूमिकाओं के स्थिर हो जाने के उपरान्त श्रावक भी श्रमण के समान साधना कर सकता है। ___ योग-संग्रह को ही प्रकारान्तर से आचार्य हरिभद्र ने योगबिन्दु में पूर्वसेवा,' योग दृष्टिसमुच्चय में योग बीज और योगशतक में लौकिक धर्म पालन कहा है तथा स्पष्ट शब्दों में इनका पालन साधक के लिए आवश्यक बताया है। गुरु का महत्व साधक के लिए आवश्यक है कि वह पूर्वसेवा आदि प्रारम्भिक क्रियाओं के साथ-साथ गुरु का सत्संग भी करे। योगमार्ग में गुरु का महत्व सर्वाधिक है । क्योंकि सद्गुरु के अभाव में विषय तथा कषायों में वृद्धि होती है। गुरु द्वारा हो साधक को तत्त्वज्ञान की प्राप्ति तथा शास्त्रों का मर्म हृदयंगम होता है। इससे उसका आत्मविकास होता है। अतः संयम के पालन तथा उसमें उत्तरोत्तर उन्नति के लिए तथा तत्त्व ज्ञान की प्राप्ति हेतु गुरु की समीपता अति आवश्यक है। उन्हीं के उपदेश और प्रेरणा से योग साधना में सफलता प्राप्त होती है। गुरु सेवा आदि कृत्यों से लोकोत्तर तत्त्व की प्राप्ति होती है। यहाँ तक कि गुरु भक्ति मोक्ष का अमोघ साधन है। अतः गुरु का महत्व एवं स्थान जैन योग में अति उच्च माना गया है। योगाधिकारी के भेद आचार्य हरिभद्र ने योगबिन्दु में योग के अधिकारी साधकों की दो कोटियाँ बताई हैं-(१) अचरमावर्ती और (२) चरमावर्ती । १ योगबिन्दु १०६-११७ २ योगदृष्टिसमुच्चय २२-२३, २७-२८ ३ योगशतक २५-२६ ४ तावद् गुरुवचः शास्त्रं तावत् तावच्च भावनाः । कषायविषयर्यावद् न मनस्तरली भवेत् ।। ५ एवं गुरुसेवादि च काले सद्योगविघ्नवर्जनया । इत्यादिकृत्य करणं लोकोत्तर तत्त्वसम्प्राप्तिः ।। ६ गुरुभक्ति प्रभावन तीर्थकृद्दशनं मतम् । समापत्त्यादिभेदेन निर्वाणकनिबन्धनम् ॥ -योगसार ११६ -षोडशक ५/१६ -योगदृष्टिसमुच्चय ६४ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन योग का स्वरूप ६५ इनमें से अचरमावर्ती साधक पर तो मोह का गहन परदा छाया रहता है । उसकी प्रवृत्ति संसाराभिमुखी रहती है। वह धर्म-क्रियाएँ भी लौकिक-सुख एवं यश की कामना से करता है। इसीलिए वह लोकपक्तिकृतादर कहा गया है। ऐसा व्यक्ति क्षुद्रवृत्ति वाला, भयभीत, ईर्ष्यालु और कपटी होता है। ऐसे लोग चाहे यम-नियम आदि का पालन भी करें; किन्तु अंतःशुद्धि के अभाव में वे योगी नहीं हो सकते । जो लोग लौकिक हेतु अथवा आकर्षण के भाव से योग साधना एवं धार्मिक अनुष्ठान करते हैं, वे अध्यात्मयोगी कभी नहीं हो सकते। दूसरी कोटि के साधक चरमावर्ती हैं। वस्तुतः योग-साधना अथवा योगदृष्टि का प्रारम्भ यहीं से होता है। चरमावर्ती जीव स्वभाव से मृदु, शुद्ध तथा निर्मल होते हैं। चरम का अर्थ है-अन्तिम और आवर्त का अर्थ है-पुद्गलावर्त । पूद्गलावर्त एक जैन पारिभाषिक शब्द है जो समय की गणना के काम आता है; अर्थात् पुद्गलावर्त समय का एक विशेष परिमाण है। चरमावर्ती जीवों पर मोह का गाढ़ा पर्दा नहीं होता। मिथ्यात्व की मलिनता भी अत्यल्प रहती है। वे शुक्लपाक्षिक होते हैं, उनका प्रन्थिभेद भी हो चुका होता है। उनका बिन्दु मात्र संसार अवशिष्ट रहता है । चर. मावर्ती जीव सम्पूर्ण आन्तरिक भावों से परिशुद्ध होकर जिन धार्मिक क्रियाओं को करता है, उन साधनों को जैन दृष्टि से योग माना गया है । आत्म-विकास के क्रम में जीव की स्थितियाँ चरमावर्ती जीव आत्मोन्नति के मार्ग पर बढ़ते हुए जिन स्थितियों से १ देखिए-योगबिन्दु ७३, ८६-८७-८८, ६३ तथा योगसार प्राभृत ८/१८-२१ २ आत्मस्वरूप विचार १७३-७४ ३ नवनीताविकल्पस्तच्चरमावर्त इष्यते । अत्रैव विमलो भावो गोपेन्द्रोऽपि यदभ्यद्यात् ।। -योगलक्षण द्वात्रिशिका, १८ ४ योगबिन्दु ७२, ६६ ५ चरमावतिनो जन्तोः सिद्ध रासन्नता ध्र वम् । भूयांसोऽमी व्यतिक्रान्तास्तेष्वेको बिन्दुरम्बुधौ ।। -मुक्त्यद्वषप्राधान्य द्वात्रिंशिका २८ ६ योगलक्षणद्वात्रिंशिका, २२ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ जैन योग : सिद्धान्त और साधना गुजरता है, वे चार हैं - ( १ ) अपुनर्बन्धक, (२) सम्यग्दृष्टि, (३) देशविरति और (४) सर्वविरति । " अनबंधक स्थिति में मिथ्यात्व दशा में रहते हुए भी साधक विनय, दया, वैराग्य आदि सद्गुणों की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहता है ।" इस स्थिति में वह ग्रन्थिभेद करने में सक्षम होता है । यह ग्रन्थि मिथ्यात्व की होती है, जिसका वह भेदन करता है । ग्रन्थि-भेद के अनन्तर सम्यग्दृष्टि की स्थिति प्रारम्भ होती है । इसमें साधक सांसारिक प्रपंचों में रहता हुआ भी मोक्षाभिमुख होता है । दूसरे शब्दों में वह जीव संसार में रहते हुए भी अन्तरंग से मुक्ति के उपायों के. विषय में विचार किया करता है । यथार्थ तत्त्वों और देव गुरु-धर्म के प्रति उसकी श्रद्धा निश्चल होती है, उसकी दृष्टि शुद्ध और यथार्थग्राहिनी होती है । इसीलिए उसे भावयोगी भी कहा जाता है । 3 जब वह सम्यग्दृष्टि जीव अथवा भावयोगी अहिंसा, सत्य, अचौर्य, स्वदारसन्तोष और परिग्रहपरिमाण रूप अणुव्रत दिशा- परिमाण, उपभोगपरिभोग- परिमाण और अनर्थदण्डविरत रूप गुणव्रत; तथा सामायिक. देशाव"काशिक, प्रोषधोपवास और अतिथि संविभाग रूप शिक्षाव्रत ग्रहण कर लेता है तब उसकी स्थिति देशविति की हो जाती है, वह मोक्ष मार्ग की ओर एक कदम और आगे बढ़ा देता है । इसके उपरान्त वह और आगे बढ़कर सर्वविरति की भूमिका पर पहुँचता है । वहाँ वह हिंसा आदि सभी पापों का पूर्ण रूप से त्याग कर देता है और आत्मा में लीन रहता है । आत्म-साधना करते हुए वह कर्मों की निर्जरा करके सर्वज्ञ-सर्वदर्शी १ योगशतक १३-१६; योगबिन्दु १०२, १७७-७८, २५३,३५१-५२ २ भवाभिनन्दि दोषाणां प्रतिपक्षगुणैर्युतः । वर्द्धमान गुणप्रायो, पुनर्बन्धको मतः ॥ ३ भिन्नग्रन्थेस्तु यत् प्रायो मोक्ष चित्तं भवे तनु । तस्य तत्सर्व एवेह योगो योगो हि भावतः ॥ न चेह ग्रन्थिभेदेन पश्यतो भावमुत्तमम् । इतरेणाकुलस्यापि तत्र चित्तं न जायते ।। ४ योगबिन्दु ३५२-३५५ - योगबिन्दु १७८ - योगबिन्दु २०३, २०५ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ जैन योम का स्वरूप ६७ बन जाता है। यहाँ उसकी योग साधना पूर्ण हो जाती है। आगे अयोग अवस्था प्राप्त कर वह सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाता है। चित्त-शुद्धि के प्रकार जैन योग के अन्तर्गत धर्म-व्यापार के रूप में अष्टांग योग' का वर्णन भी हआ है। इसके क्रम में पाँच प्रकार की चित्त-शुद्धि का विवरण भी दिया गया है। इससे क्रिया शुद्धि होती है और इनको सही ढंग से पालन करने से साधक की प्रवृत्ति धार्मिक अनुष्ठानों की ओर हो जाती है। चित्त-शुद्धि के पाँच प्रकार हैं (१) प्रणिधान, (२) प्रवृत्ति (३) विघ्नजय, (४) सिद्धि और (५) विनियोग । (१) प्रणिधान-अपने आचार-विचार में अविचलित रहते हुए सभी जीवों के प्रति राग-द्वेष न रखनो, प्रणिधान नामक चित्त-शुद्धि है। स्वार्थी, दम्भी, दुराग्रही लोगों के प्रति भी साधक को दुर्भावना नहीं रखनी चाहिए। (२) प्रवृत्ति-इसमें साधक निर्दिष्ट योग साधनाओं में मन को प्रवृत्त करता है। दूसरे शब्दों में वह विहित अथवा गृहीत व्रत-नियमों तथा अनुष्ठानों का सम्यकतया पालन करता है। (३) विघ्नजय-व्रत-नियमों का पालन करते समय अथवा योग साधना के दौरान आने वाले विघ्नों, कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करना विघ्नजय क्रिया शुद्धि कहलोता है। (४) सिद्धि-सम्यग्दर्शन प्राप्त होने के साथ ही साधक को आत्मानुभव होने लगता है । समताभाव आ जाने से साधक का चित्त चन्दन के समान शीतल हो जाता है, कषायजन्य चंचलता अल्प रह जाती है । इसी को सिद्धि रूप चित्त-शुद्धि के नाम से अभिहित किया गया है। (५) विनियोग-सिद्धि के उपरान्त साधक का उत्तरोत्तर आत्म-विकास होता जाता है, उसकी धार्मिक वृत्तियों में दृढ़ता, क्षमता, ओज और तेज आ जाता है, उसकी सोधना ऊर्जस्वी हो जाती है । धार्मिक वृत्तियों में चित्त का १ योगप्रदीप ५१-५२ । २ प्रणिधिप्रवृत्तिविघ्नजयसिद्धिविनियोग भेदतः प्रायः । धर्म राख्यातः शुभाशयः पंचधाऽत्र विधो ।। -षोडशक ३/६ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ बन योष : सिद्धान्त और साधना लगना ही विनियोग चित्त-शुद्धि कहा जाता है। कल्याण भावनाओं की वृद्धि का प्रयत्न ही विनियोग है।' योग के अनुष्ठान योग-साधना की सिद्धि के लिए अनुष्ठान (क्रियाएँ) आवश्यक हैं, क्योंकि क्रिया के बिना सिद्धि की प्राप्ति सम्भव हा नहीं है। अनुष्ठान के पाँच प्रकार हैं-(१) विषानुष्ठान, (२) गरानुष्ठान, (३) अननुष्ठान, (४) तद्धतु अनुष्ठान, (५) अमृतानुष्ठान । इनमें से प्रथम तीन अनुष्ठान राग, मोह आदि भावों से युक्त होने के कारण लौकिक हैं, अतः मोक्षमार्ग की अपेक्षा असदनुष्ठान हैं। अन्तिम दो अनुष्ठानों में रागादि भावों का अल्प-अंश होता है तथा इन अनुष्ठानों में साधक की इच्छा संसार-सुखों की प्राप्ति की नहीं होती, अतः इन्हें सदनुष्ठान कहा जाता है। (१) विष-अनुष्ठान-इस अनुष्ठान को करते समय साधक की इच्छा सांसारिक सुखों को प्राप्त करने की होती है । यश, कीर्ति, इन्द्रिय-सुख, धन आदि की प्राप्ति उसका लक्ष्य होता है । राग आदि भावों की अधिकता के कारण यह अनुष्ठान विष-अनुष्ठान है, क्योंकि सांसारिक सुखों की इच्छा मोक्ष-प्राप्ति में विषतुल्य मानी गई है। (२) गरानुष्ठाल-'गर' शनैः शनैः मारने वाला विष होता है । जब साधक के हृदय में स्वर्ग-सुखों की अभिलाषा रहती है, तो उसके द्वारा किया जाने वाला अनुष्ठान गरानुष्ठान कहलाता है। क्योंकि स्वर्ग-सुखों की इच्छा भी स्वर्ग-सुख भोगने के बाद निम्न गतियों का कारण बनती है। (३) अननुष्ठान-जो धार्मिक क्रियाएँ अथवा अनुष्ठान बिना उपयोग के, विवेकहीन होकर गतानुगतिक रूप में, लोक परम्परा का पालन करते हुए, लोगों की देखा-देखी की जाती हैं, वे अननुष्ठान हैं । दूसरे शब्दों में इन्हें भावशून्य द्रव्य अनुष्ठान भी कहा जा सकता है। (४) तरतु अनुष्ठान-मोक्ष प्राप्ति की अभिलाषा से जो शुभ क्रियाएँधार्मिक व्रत-नियम आदि की जाती हैं, वे तद्धतु अनुष्ठान कहलाती हैं। १ षोडशक ३/७-११ २ विषं गरोऽननुष्ठानं तद्धतुरमृतं परम् । गुर्वादिपूजानुष्ठानमपेक्षादिविधानतः ।। -योगबिन्दु १५५ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का स्वरूप ६६ यद्यपि राग का अंश यहाँ भी विद्यमान रहता है। किन्तु प्रशस्त राग होने से वह परम्परा से मोक्ष का कारण है। इसलिए यह अनुष्ठान सदनुष्ठान है। (५) अमृतानुष्ठान-साधक की जो क्रियाएँ आत्म-भावपूरित और वैराग्य भाव से की जाती हैं, वे अमृतानुष्ठान हैं । इस अनुष्ठान साधक की वृत्ति-प्रवृत्ति मोक्षोन्मुखी होती है ।' योग के पांच भेव जैन योग में योग साधना के लिए पांच साधन स्वीकार किये गये हैं(१) स्थान, (२) ऊर्ण, (३) अर्थ, (४) आलम्बन और (५) अनालम्बन । इन साधनों के आधार पर योग के भी पाँच भेद हो जाते हैं। (१) स्थान-स्थान का अभिप्राय आसन है । आसनों के विषय में जैन आचार्यों का कोई विशेष आग्रह नहीं रहा है। बस, इतना ही है कि जिस किसी भी आसन से साधक अधिक देर तक ध्यानस्थ रह सके, चित्त और शरीर को स्थिर रख सके, वही आसन उसके लिए उचित है । वह कोई भी आसन हो सकता है, यथा-पद्मासन, सुखासन, सिद्धासन, खड्गासन आदिआदि। __(२) ऊर्ण-योग-साधना के दौरान सूत्र-संक्षिप्त शब्द समवाय का पाठ किया जाता है तथा उनके स्वर, मात्रा, अक्षर, ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत आदि का ध्यान रखकर जो उपयोगपूर्वक उच्चारण किया जाता है, उसे ऊर्ण कहा जाता है । इस साधन को वर्ण योग भी कह सकते हैं। (३) अर्थ—सूत्रों के अर्थ को समझना तथा उनका शुद्ध उच्चारण करना। (४) आलम्बन-मन की एकाग्रता के लिए बाह्य प्रतीकों का आलम्बन लेना। (५) अनावलम्बन-जब साधक बाह्य आलम्बनों को छोड़कर सिर्फ आत्मचिन्तन में लीन हो जाता है, तब अनालम्बन योग कहलाता है । इस स्थिति में साधक का मन एकाग्र हो जाता है और उसे आत्मस्वरूप की प्रतीति होने लगती है। अनावलम्बन योग की चरमावस्था में योग की प्रक्रिया सम्पूर्णता को प्राप्त हो जाती है। १ योगबिन्दु १५६-१६० २ योगविंशिका २ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० जैन योग : सिद्धान्त और साधना अन्य अपेक्षा से योग के तीन प्रकार आचार्य हरिभद्रसूरि ने अन्य अपेक्षा से योग के तीन प्रकार बताये हैं-(१) इच्छायोग, (२) शास्त्रयोग तथा (३) सामर्थ्ययोग ।' (१) इच्छायोग-इस योग में साधक की इच्छा तो अनुष्ठान (धार्मिक क्रियाएँ) करने की जाग्रत हो जाती है, किन्तु प्रमाद (आलस) के कारण वह उन धार्मिक क्रियाओं को कर नहीं पाता। इसलिए इसे विकल-असम्पूर्ण धर्मयोग-इच्छायोग कहा जाता है। (२) शास्त्रयोग-यथाशक्ति, प्रमादरहित, तीव्र बोधयुक्त पुरुष के आगम-वचन, शास्त्रज्ञान के कारण अविकल-अखण्ड-काल आदि की अविकलता-अखण्डता के कारण अविकल) सम्पूर्णयोग शास्त्रयोग कहा जाता है।' . (३) सामर्थ योग--इस योग का विषय शास्त्रज्ञान की मर्यादा से ऊपर उठा हुआ होता है। यह योग प्रातिभज्ञान (असाधारण प्रतिभा) अथवा असाधारण आत्म-ज्योति से उत्पन्न ज्ञान-आत्मानुभव या स्वसंवेदन के अद्भुत प्रकाश-अनन्य आत्मचिन्तन एवं तत्त्वचिन्तन से उत्पन्न होता है । यह योग आत्म-दीप्ति से युक्त होता है अतः यह सर्वज्ञता का साक्षात् कारण है। इसीलिए सामर्थ्ययोग को उत्तम योग कहा गया है। सामर्थ्ययोग दो प्रकार का है-(१) धर्मसंन्यासयोग और (२) योगसंन्यासयोग । धर्मसंन्यासयोग में क्षमा आदि क्षयोपशमजनित भाव होते हैं और साधक के मन में अत्यल्प रागभाव भी रहता है। इसमें आत्म-परिणामों में यत्किंचित् चंचलता भी रहती है । धर्मसंन्यासयोगी आत्मोन्नति करते-करते योगसंन्यासयोग तक पहुँचता है। वहाँ वह काययोग का भी पूर्णरूप से निरोध करके शैलेशी अवस्था को प्राप्त हो जाता है ।६ इसी का दूसरा नाम अयोग अवस्था अथवा सर्वसंन्यासयोग अवस्था है। इसी को वृत्तिसंक्षययोग भी कहा १ योग दृष्टिसमुच्चय, २ २ वही, ३ ३ वही, ४ वही, ८ ५ वही, ६ ६ वही, १० Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का स्वरूप ७१ है । इसी अवस्था में आत्मा मुक्ति प्राप्त करती है, आत्मा के सिवाय सब कुछ छूट जाता है । अतः यह अवस्था ही सर्वोत्तम योग है ।" योगदृष्टियाँ इन तीनों योगों - इच्छायोग, शास्त्रयोग और सामर्थ्ययोग का सीधा आधार लिये बिना, किन्तु उन्हीं से विशेष रूप से निःसृत, उसी भावधारा से उद्भुत दृष्टियाँ — योगदृष्टियाँ हैं । ये सामान्यतः आठ है - (१) मित्रा, (२) तारा, (३) बला, (४) दीप्रा, (५) स्थिरा, (६) कांता, (७) प्रभा और (८) परा । 2 संसारपतित दृष्टि - सामान्य दृष्टि अथवा ओघदृष्टि से ऊपर उठकर साधक इन योगदृष्टियों में पहुँचता है । (१) मित्राट - यह प्रथम योगदृष्टि है । इस दृष्टि के फलस्वरूप साधक के हृदय में प्राणिमात्र के प्रति मैत्री भाव बढ़ने लगता है । वह धार्मिक क्रियाओं को करता तो है किन्तु प्रथा के रूप में करता है । अहिंसा आदि का पालन वह चित्त की मलिनता कम करने की दृष्टि से नहीं; वरन् शुभ कर्मों की दृष्टि से करता है । उसकी विचारधारा यह होती है कि अहिंसा आदि के पालन से पुण्योपार्जन तो होगा ही । इसमें राग-द्व ेष हल्के होते हैं । दुःखी प्राणियों के प्रति दया व मैत्री के भाव जगते हैं । इसमें जो बोध होता हे वह चिनगारी के समान क्षणिक होता है । वह इष्ट-अनिष्ट और हेय - उपादेय का निर्णय नहीं कर पाता । मित्रादृष्टि में स्थित साधक पातंजल योगसूत्र में निर्दिष्ट योग के प्रथम अंग यम के प्रारम्भिक अभ्यास - इच्छादि यम (यम के अभ्यासगत भेद - इच्छायम, प्रवृत्तियम, स्थिरयम और सिद्धियम) को प्राप्त कर लेता है । अतः इस दृष्टि की तुलना पातंजल योग के प्रथम अंग 'यम' से की जा सकती है । साधक देवकार्य, गुरुकार्य, धर्मकार्य में अखेद भाव से लगा रहता है । १ योग दृष्टिसमुच्चय, ११ ( अतस्त्वयोगो योगानां योगः पर उदाहृतः 1 ) तथा अध्यात्मतत्त्व लोक ७/१२ २२ योगदृष्टिसमुच्चय, १२-१३ ३ वही, २१-४० ४ अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमः । - पातंजल योगसूत्र २ / ३० Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ जन योग : सिद्धान्त और साधना उसके खेद नाम का दोष टल जाता है । जो लोग देवकार्य आदि नहीं करते, उनके प्रति उसे मत्सर-द्वेष नहीं होता। (२) ताराष्टि'-तारादृष्टि में मित्रादृष्टि की अपेक्षा बोध कुछ अधिक स्पष्ट होता है। __ यहां पातंजल योग द्वारा निदिष्ट योग का द्वितीय अंग नियम सधता है-अर्थात् शौच, तप, सन्तोष, स्वाध्याय, तथा परमात्म-चिन्तन जीवन में फलित होते हैं । अतः इस दृष्टि की तुलना अष्टांग योग के दूसरे अंग 'नियम' से की जा सकती है। __ इस दृष्टि में स्थित साधक के हृदय में आत्महितकर प्रवृत्ति में अनूद्वग, उत्साह तथा तत्त्वोन्मुखी जिज्ञासा उत्पन्न होती है । (३) बेलादृष्टि--बलादृष्टि में सुखासनयुक्त दृढ दर्शन-सद्बोध प्राप्त होता है, परम तत्त्व-श्रवण करने की तीव्र इच्छा उत्पन्न होती है तथा योग साधना में चित्त-विक्षेप-दोष समाप्त हो जाता है। यहाँ पातंजल अष्टांग योग का तीसरा अंग 'आसन'४ सधता है। सुखासन का अभिप्राय उस आसन से हैं, जिसमें योगी सुखपूर्वक शान्ति से बैठ सके, उसके ध्यान में विक्षेप न हो और ध्यान में चित्त स्थिर रहे। बलादृष्टि के आजाने पर साधक की तष्णा कम हो जाती है। उसके जीवन में उतावलापन कम होकर स्थिरता बढ़ जाती है। वह अपने शुर्भ समारम्भमय उपक्रम में कुशलता प्राप्त करता जाता है। अपने अन्तर हृदय में उल्लास अनुभव करने लगता है और तत्त्वजिज्ञासा प्रबल होती है फलतः वह महान आत्मा अभ्युदय में संलग्न होता है। (४) दोप्रादृष्टि'—यहाँ प्राणायाम सधता है। यहाँ अन्तरतम में ऐसे प्रशांत रस का सहज प्रवाह बहता रहता है कि साधक का चित्त उसी में १ योगदृष्टिसमुच्चय, ४१-४८ २ शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः। -पातंजल योगसूत्र २/३२ ३ योगदृष्टिसमुच्चय, ४६-५६ ४ स्थिरसुखमासनम् । --पातंजल योगसूत्र २/४६ ५ योगदृष्टिसमुच्चय, ५७-५८ ६ तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः । -पातंजल योगसूत्र २/४६ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन योग का स्वरूप ७३ निमग्न हो जाता हैं, वह योग से हटता नहीं, अन्यत्र जाता नहीं। दोप्रादृष्टि में स्थित साधक केवल कानों से सुनता ही नहीं, वरन् हृदयंगम भी करता रहता है उसके अन्दर अन्तर्ग्राहकता का भाव उदित हो जाता है; किन्तु सूक्ष्म बोध अधिगत करना अभी शेष रह जाता है। __ वह साधक धर्म को अपने प्राणों से भी अधिक मानता है । वह सदाचार के प्रति निष्ठा ही नहीं रखना, वरन् उसको आचरण में भी लाता है। उसके चित्त की शांति बढ़ने लगती है। दीप्रादृष्टि में स्थित साधक को संसार के भोग खारे पानी के समान अप्रिय लगते हैं और तत्त्वश्रवण अमृत के समान । (५) स्थिराष्टि'-स्थिरादृष्टि में दर्शन (सम्यग्दर्शन) नहीं गिरने वाला अर्थात अप्रतिपाती हो जाता है। इसमें प्रत्याहार सधता है अर्थात् स्व-स्व विषयों के सम्बन्ध से विरत होकर इन्द्रियाँ चित्तस्वरूपाकार हो जाती हैं तथा साधक जो भी क्रिया-कलाप करता है, वह भ्रान्तिरहित, निर्दोष एवं सूक्ष्म बोधयुक्त होते हैं। विशेष-पातंजल योगसूत्र के समान जैन आचार्यों ने प्राणायाम को केवल श्वास-प्रश्वास-नियमन तक ही सीमित नहीं रखा है, वरन् उस पर गहराई से चिन्तन किया है। श्वास-प्रश्वासनिरोध या नियमन तो प्राणायाम का केवल भौतिक रूप है, केवल मात्र बाहरी। जैन आचार्यों ने प्राणायाम को केवल रेचक (श्वास को बाहर निकालना), पूरक (भीतर खींचना) और कुम्भक (अन्दर रोके रखना)--इतना नहीं माना, वरन् इसका अध्यात्मपरक रूप भी बताया है। रेचक (बाह्यभाव आत्म-विरोधो या परभावों को बाहर निकालना), पूरक (अन्तरात्मभाव-आत्मस्वरूपानुप्रत्यय को भीतर भरना) तथा कुम्भक (अन्ततम को आत्मचिन्तन, आत्मगुणों से आपूर्ण करना तथा उन भावों को स्थिर किये रहना)-यह भाव-प्राणायाम है। इस अध्यात्मपरक भाव प्राणायाम का मोक्षमार्ग में अत्यधिक महत्व है । इस भाव प्राणायाम के बिना मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। श्वासप्राणायाम से शरीर एवं चित्त की स्थिरता बढ़ती है और इस भाव-प्राणायाम से मन की निर्मलता तथा विशिष्ट आत्मानुभूति होती है । १ योगदृष्टि समुच्चय १५४-१६१ २ स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः । -पातंजल योगसूत्र २/५४ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ जन योग : सिद्धान्त और साधना इस दृष्टि में स्थित साधक की मिथ्यात्व ग्रंथि का भेदन हो जाता है, उसको सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो जाती है। परिणामस्वरूप उसे संसार के सभी सुख-भोग क्षणभंगुर मालूम होते हैं और वह आत्मा को ही उपादेय, अजर-अमर मानता है। स्थिरादृष्टि रत्नप्रभा के तुल्य (सदा एक समान ज्योति) देदीप्यमान रहती है। स्थिरादृष्टि दो प्रकार की होती है-(१) सातिचार और (२) निरतिचार । निरतिचार दृष्टि में अतिचार, दोष और विघ्न नहीं होते । उसमें होने वाला दर्शन (सम्यग्दर्शन) नित्य एक सा अवस्थित रहता है। जिस प्रकार निर्मल रत्नप्रभा सदा एक समान ही दीप्तिमयी रहती है, वैसी ही स्थिति इस निरतिचार स्थिरादृष्टि की होती है। कर्मग्रंथ की भाषा में इसे क्षायिक सम्यग्दर्शन कहा जाता है। सातिचार स्थिरादृष्टि में होने वाला दर्शन (सम्यग्दर्शन) अतिचार सहित होता है, वह एक-सा अवस्थित नहीं रहता, न्यूनाधिक भी होता रहता है । सातिचार स्थिरादृष्टि की स्थिति मलसहित रत्नप्रभा के समान होती है। जिस प्रकार मल के कारण रत्न की प्रभा कम-अधिक होती रहती है किन्तु मिटती नहीं; उसी प्रकार स्थिरादृष्टि में भी छोटे-मोटे दोष लगते रहते हैं; किन्तु इसकी दर्शन सम्बन्धी स्थिरता का नाश नहीं होता। कर्मग्रंथ की भाषा में यह क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन है, जिसमें चलमल-अगाढ़ दोष तो लगते रहते हैं; किन्तु सम्यक्त्व छूटता नहीं। . सम्यग्दर्शन का प्रारम्भ इसी पाँचवीं दृष्टि से होता है। जीव भेदविज्ञानी होकर आत्मा के स्वभाव और पर-भावों को, शरीर, धन-सम्पत्ति, पुत्र-पुत्री आदि को स्वयं से भिन्न मानने लगता है। (६) कान्तादृष्टि'-कान्तादृष्टि में साधक को अविच्छिन्न सम्यक् दर्शन रहता है । जिस प्रकार कान्ता (पतिव्रता स्त्री) घर के अन्य सभी काम करते हुए, उसका हृदय सदैव अपने पति में लगा रहता है, उसी प्रकार कान्तादृष्टि वाला योगी संसार के अन्य सभी कार्य करता है किन्तु उसका हृदय सदैव अपनी आत्मा में लगा रहता है, वह आत्मानुभव करता रहता है। १ योगदृष्टिसमुच्चय १६२-१६६ - Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का स्वरूप ७५ इस सतत आत्मानुभव का परिणाम यह होता है कि उस योगी की आत्मभावना अत्यन्त दृढ़ हो जाती है, वह सहजरूप से सतत आत्मभाव में रमा रहता है । वह सांसारिक भोग-उपभोगों को अनासक्त भाव से भोगता है, इसलिए उसके भोग आगे बन्धन तथा भवभ्रमण के हेतु नहीं होते, उनसे प्रगाढ़ कर्मबन्धन नहीं होता । उसके राग-द्वेष अत्यल्प होते हैं, हृदय हिम के समान शीतल हो जाता है, वृत्तियाँ बहुत कुछ उपशान्त हो जाती हैं। उपशम भाव से उसके व्यक्तित्व में ऐसी विशिष्टता उत्पन्न हो जाती है कि उसके सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्र, सदाचार का प्रभाव अन्य लोगों पर भी पड़ता है, उसके व्यक्तित्व की उत्कृष्टता अन्य लोगों के लिए भी प्रीतिकर होती है, वे लोग उसके प्रति द्वेष-भाव न रखकर प्रेम रखते हैं । कान्तादृष्टियुक्त योगी के अष्टांग योग का छठा अंग 'धारणा'" सधता है । धारणानिष्ठ हो जाने पर वह आत्मतत्त्व के अतिरिक्त अन्य विषयों में रस नहीं लेता । सूक्ष्म बोध उसे स्थिरादृष्टि में प्राप्त हो ही जाता है, अतः वह इस स्थिति में (कान्तादृष्टि में) आत्मतत्त्वविषयक चिन्तन, मनन, निदिध्यासनमूलक मीमांसा करता है, आत्मविचारणा और सद्गुणविचारणा में तल्लीन रहता है । इसके फलस्वरूप उसको आत्मा उत्कर्ष को प्राप्त होती है । उसका आत्महित - श्रेयस् उत्तरोत्तर सधता जाता ह । (७) प्रभावृष्टि – प्रभादृष्टि में प्रायशः ध्यान की प्रमुखता है । इस ट से सम्पन्न योगी प्रायः ध्याननिरत रहता है अर्थात् इसमें अष्टांग योग का सातवाँ अंग ध्यान - ध्येय में एकतानता - चित्तवृत्ति का एकाग्र भाव सफल होता है । ध्यान सोपानस्थित योगी यहाँ ऐसी स्थिति प्राप्त कर लेता है कि राग, द्वेष, मोहरूप - त्रिदोषजन्य भावरोग यहाँ उसके लिए बाधक नहीं बन पाते। वह तत्त्वानुभूति का गहरा रस अनुभव प्राप्त कर लेता है और सत्प्रवृत्तियों की ओर उसका सहज ही झुकाव हो जाता है । इस दृष्टि में स्थित साधक असंगानुष्ठान (सभी प्रकार के संग - आसक्ति या संस्पर्शरहित विशुद्ध आत्मानुचरण) को शीघ्र साध लेता है । -- पातंजल योगसूत्र ३ / १ - पातंजल योगसूत्र ३ / २ १ देशबन्धश्चित्तस्य धारणा । ३ योगदृष्टिसमुच्चय १७०, १७१,१७७ तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ जन योग : सिद्धान्त और साधना यह दृष्टि परम वीतराग भाव रूप स्थिति को प्राप्त कराने वाली है। इस दृष्टि वाले योगी की अन्तरवत्तियाँ प्रशान्तरसवाही हो जाती हैं। (८) पराष्टि'-यह योग की आठवीं और अन्तिम दृष्टि है। यह परा नाम की योगदृष्टि समाधिनिष्ठ होती है। यहाँ अष्टांग योग का आठवाँ अंग 'समाधि'२ (चित्त का ध्येयाकार रूप में परिणमन) सध जाता है। इसमें आसंग दोष (किसी एक ही योगक्रिया में आसक्ति) नहीं रहता। इस दृष्टि में संस्थित योगी शुद्ध आत्मतत्त्व, आत्मस्वरूप जिस प्रकार अनुभूति में आए वैसी प्रवृत्ति या आचरण में सहज रूप से गतिमान रहता है। उसके चित्त में किसी भी प्रकार की प्रवृत्ति करने की इच्छा, कामना या वासना नहीं रहती है । उसका चित्त प्रवृत्ति से ऊपर उठा हुआ होता है । इस दृष्टि में स्थित साधक आचार अथवा कल्प मर्यादा से भी ऊपर उठा हुआ होता है। किसी भी प्रकार के परम्परागत आचरण के अनुसरण का वहाँ प्रयोजन भी नहीं रहता। वह महान् योगी धर्मसंन्यास-शुद्ध दृष्टि से तात्त्विक आचरणमूलक, नैश्चयिक शुद्ध व्यवहारमय विशिष्ट योग-योगसंन्यास द्वारा अपने को कृतकृत्य कर लेता है। इसके उपरान्त वह योगी अयोग अवस्था प्राप्त करके मुक्त हो जाता है, मोक्ष स्थान में जा विराजता है । इन आठ योगदृष्टियों के विवेचन से स्पष्ट है कि पातंजल योग वणित समस्त अष्टांगयोग (योग के आठों अंग) इन योगदृष्टियों में समाहित हो जाते हैं। जैन योग की दृष्टि से आचार्य हरिभद्र द्वारा निरूपित ये योगदृष्टियाँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। इनमें जैन मोक्षमार्ग- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का सार निहित है । विस्तृत अध्ययन के जिज्ञासु उनके ग्रन्थों का परिशीलन करें। योगियों के भेद आचार्य हरिभद्र ने चार प्रकार के योगी बताये हैं—(१) कुलयोगी, (२) गोत्रयोगी, (३) प्रवृत्तचक्रयोगी और (४) निष्पन्नयोगी। Mr Mr १ योगदृष्टिसमुच्चय १७८-१८६ २ तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः । ३ योगदृष्टिसमुच्चय २०८ -पातंजल योगसूत्र ३/३ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का स्वरूप ७७ (१) कुलयोगी–जो योगियों के कुल में जन्मे हैं, जो प्रकृति से योगधर्मा हैं-योगमार्ग का अनुसरण करने वाले हैं, वे कुलयोगी' कहलाते हैं । वे कुलयोगी किसी से भी द्वष नहीं रखते, देव-गुरु-धर्म उन्हें स्वभाव से ही प्रिय होते हैं तथा ये दयालु, विनम्र, प्रबुद्ध और जितेन्द्रिय होते हैं। (२) गोत्रयोगी-आर्य क्षेत्र के अन्तर्गत भारत भूमि में जन्म लेने वाले मनुष्य भूमि भव्य कहे जाते हैं, इन्हें गोत्रयोगी भी कहा जाता है। इसका कारण यह है कि भारत भूमि में योग साधना के अनुकूल साधन, निमित्त आदि सहज ही उपलब्ध होते रहे हैं। किन्तु केवल भूमि की भव्यता और साधनों की सुलभता से ही योग साधना नहीं सधती, वह तो साधक की अपनो भव्यता, योग्यता और सुपात्रता से ही सिद्ध होती है। · गोत्रयोगी में ऐसी सुपात्रता नहीं होती। साधन सहज ही प्राप्त होने पर भी वह यम-नियम का पालन नहीं करता, उसकी प्रवृत्ति संसाराभिमुखी होती है । अतः ऐसे मनुष्य को योग का अधिकारी नहीं माना गया है । (३) प्रवृतपयोगी —जिस प्रकार चक्र के किसी भाग पर डंडा सटा कर घुमा देने से वह पूरा का पूरा धूमने लगता है, उसी प्रकार जिन मनुष्यों के किसी भी अंग से योग चक्र का स्पर्श होते ही, वे योग में प्रवृत्त हो जाते हैं, उन्हें प्रवृत्तचक्रयोगी कहा जाता है। १ योगदृष्टिसमुच्चय २१०,२११ २ वस्तुतः कुलयोगी शब्द विशिष्ट अर्थ लिये हुए है । साधारणतया ऐसा देखने में नहीं आता कि योगी का पुत्र भी योगी हो अथवा किसी की कुल परम्परा हो योगियों की रही हो । अतः कुलयोगी शब्द को साधनानिष्ठ, योगपरायण पुरुषों की परम्परा से सम्बद्ध माना जाना चाहिए। ऐसे साधक जन्म, वंशानुगति, वंश परम्परा से भिन्न-भिन्न भी हो सकते हैं। कुलयोगी शब्द से गुरु-शिष्य परम्परा का आशय भी लिया जा सकता है कि योगी गुरु का शिष्य भी योगी होता है। लोक में गुरु को पिता कहा भी जाता है । यद्यपि गुरु शिष्य का जनक (जन्म देने वाला पिता) नहीं होता किन्तु शिष्य के जीवन का निर्माण करने वाला, उसे सुसंस्कारी बनाने वाला गुरु ही होता है । इस अपेक्षा से भी कुलयोगी शब्द का आशय समझा जा सकता है। ३ योगदृष्टि समुच्चय २१० ४ योगदृष्टिसमुच्चय २१२ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ जैन योग : सिद्धान्त और साधना वे यम के चार भेदों में से इच्छायम और प्रवृत्तियम को साध चुके होते हैं तथा स्थिरयम और सिद्धियम को साधने में प्रयत्नशील रहते हैं । प्रवृत्तचक्रयोगी आठ गुणों से युक्त होता है । आठ गुण ये हैं(१) शुश्रूषा - सत् तत्त्व सुनने की तीव्र उत्कंठा । (२) श्रवण - अर्थ का मनन- - अनुसंधान करते हुए सावधानीपूर्वक तत्त्व सुनना । (३) सुने हुए को ग्रहण करना - अधिगृहीत करना । (४) धारण — ग्रहण किये हुए का संस्कार चित्त में जमाना । (५) विज्ञान - अवधारण करने के उपरान्त उसका विशिष्ट ज्ञान (विज्ञान) करना; प्राप्त बोध का दृढ़ संस्कार जमाना । (६) ईहा - चिन्तन, विमर्श, तर्क-वितर्क, शंका समाधान करना । (७) अपोह - तर्क-वितर्क, शंका-समाधान तथा चिन्तन मनन के उपरान्त बाधक अंश का निराकरण करना । (८) तत्वाभिनिवेश – अन्तःकरण में तत्त्व का निर्धारण करना । प्रवृत्तचक्रयोगी को तीनों अवंचकर स्वयं प्राप्त हो जाते हैं। तीन अवंचक ये हैं - (१) योगावंचक (२) क्रियाऽवंचक और (३) फलावंचक । जिसके दर्शन से कल्याण एवं पुण्य की प्राप्ति होती है, ऐसे सद्गुरुओं का सुयोग योगावंचक है । उनका बंदन सत्कार सेवा आदि क्रियाऽवंचक है । इन समस्त शुभ क्रियाओं का फल जो अमोघ होता है, उसकी प्राप्ति फलावंचक है । इन तीनों अवंचकों में सर्वप्रथम प्रवृत्त योगी योगावंचक प्राप्त करता है और फिर उसे शेष दोनों अवंचक भी प्राप्त हो जाते हैं । १ यमाश्चतुर्विधा इच्छाप्रवृत्तिस्थैर्यसिद्धयः । - योगभेद द्वात्रिंशिका २५ २ अवंचक का अभिप्राय सरलता ( वंचकतारहितता) है। जो कभी वंचना - प्रवंचना न करे, उलटा तिरछा न जाय कभी न चूके, बाण की तरह सीधा अपने लक्ष्य पर पहुँचे, उसे अवंचक कहा गया है । ३ योगदृष्टिसमुच्चय ३४. ४ आद्यावंचकयोगाप्त्या तदन्यद्वयलाभिनः । एतेऽधिकारिणो योगप्रयोगस्येति तद्विदः ॥ — योगदृष्टिसमुच्चय २१३ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का स्वरूप ७६ - प्रवृत्तचक्रयोगी अपनी आत्मा की उन्नति के लिए यम-नियमों का पालन करता है तथा राग-द्वेष पर विजय प्राप्ति के सोपानों को एक के बाद एक पार करता जाता है। (४) निष्पन्नयोगी-जिसका योग निष्पन्न हो चुका होता है अर्थात् पूर्ण हो गया होता है, वह निष्पन्नयोगी कहलाता है। ऐसा योगी सिद्धि के अति निकट होता है, इसलिए उसे धर्म-व्यापार की भी कोई जरूरत नहीं रहती । उसकी प्रवृत्ति सहज रूप में धर्ममय हो रहती है। जैन योग और कुण्डलिनी जहाँ तक कुण्डलिनी (The Primal Power or Serpent Power) का संबंध है, इसका उल्लेख प्राचीन जैन शास्त्रों में नहीं मिलता । आगमों में तो इसकी चर्चा है ही नहीं, आचार्य हरिभद्र सरि के योग ग्रन्थों में भी इसका उल्लेख नहीं है, जब कि हठयोग और तंत्रयोग का यह मुख्य विषय रहा है। आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र और शुभचन्द्राचार्य के ज्ञानार्णव में कुछ ऐसी यौगिक क्रियाओं और साधनाओं का वर्णन अवश्य प्राप्त होता है जिनका सम्बन्ध कुण्डलिनी से है । ___कुण्डलिनी का सर्वप्रथम उल्लेख मंत्रराजरहस्य' नामक ग्रंथ में मिलता है । नमस्कार स्वाध्याय में कुण्डलिनी के नवचक्र' बताये गये हैं(१) गुदा के मध्यभाग में आधार चक्र (२) लिंग मूल के पास स्वाधिष्ठान चक्र, (३) नाभि के पास मणिपूर चक्र, (४) हृदय के पास अनाहत चक्र, (५) कण्ठ के पास विशुद्धि चक्र, (६) घण्टिका के पास ललना चक्र, (७) भ्र चक्र के मध्य स्थित आज्ञा चक्र, (८) मूर्वा-तालु रंध्र में स्थित सहस्रार चक्र, (९) ब्रह्मरंध्र अथवा ऊर्ध्व भाग में स्थित सुषुम्ना चक्र । ___यद्यपि इन चक्रों का तथा कुण्डलिनी का उल्लेख परवर्ती जैन शास्त्रों में मिलता अवश्य है किन्तु ऐसा मालूम होता है कि कुण्डलिनी का जैन योग में कोई विशेष महत्व नहीं रहा । उसका कारण यह है कि जैन योग का १ यह ग्रंथ वि० सं० १३३३ में रचा गया है।-देखिए-जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, पृष्ठ ३१० २ गुदमध्य लिंगमूले नाभौ हृदि कण्ठघटिका भाले । . मूर्धन्यमूर्वे नवषटक (चक्र) ठान्ता पंच भाले युताः ।। -नमस्कार स्वाध्याय (संस्कृत) पृ० १२१ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० जैन गोग : सिद्धान्त और साधना लक्ष्य साधना में चमत्कार या प्रभाव पैदा करना नहीं होकर कर्म-मुक्तदशा को प्राप्त करना है । यहाँ साधना की चरम परिणति मोक्ष है। प्राचीन जैन योग प्रक्रिया का अनुशीलन करने पर यह स्पष्ट कह सकते हैं कि 'कुण्डलिनी योग', जैन योग में 'तेजोलेश्या' के नाम से व्यवहृत हुआ है। क्योंकि जैसा स्वरूप जैन आगमों में तेजोलेश्या का बताया गया है, वैसा ही स्वरूप कुण्डलिनी शक्ति का हठयोग के ग्रन्थों में हैं । जैन आगमों में भगवान महावीर के जीवन का एक प्रसंग वर्णित है। गोशालक ने भगवान महावीर से पूछा-भगवन् ! तेजोलेश्या की उपलब्धि कैसे हो सकती है ? भगवान महावीर ने बताया-जो साधक निरन्तर दो-दो उपवास करता है, पारणे के दिन मुट्ठी भर उड़द खाता है और चुल्लू भर जल पीता है तथा भुजा ऊपर उठाकर सूर्य की आतापना लेता है, उसे छह महीने में तेजोलेश्या की प्राप्ति हो जाती है।' तेजोलेश्या की प्राप्ति के दो साधन हैं--(१) जल और अन्न को अति सीमित मात्रा लेकर तपस्या करना तथा (२) सूर्य की आतापना लेना-सूर्य से शक्ति ग्रहण करना। वस्तुतः तेजोलेश्या का स्थान तेजस शरीर है। हठयोग विशारदों ने भी कुण्डलिनी का स्थान सूक्ष्म शरीर (Etheric body) माना है। जिस प्रकार तेजोलेश्या-सिद्ध योगी में अनुग्रह और निग्रह की शक्ति होती है, शाप और वरदान की असीम सामर्थ्य होती है वैसी कुण्डलिनी-सिद्ध योगी में भी होती है । तेजोलेश्या भी प्रचण्डशक्ति है और कुण्डलिनी-शक्ति भी ऐसी ही है। तेजोलेश्या योगी के शरीर से निकलती है तो सूर्य का सा तीव्र प्रकाश और अग्नि-सी दाह उत्पन्न करती है, वैसा ही प्रभाव कुण्डलिनी शक्ति का है-योगी कोटि सूर्यप्रभा के समान प्रकाश देखता है। तेजोलेश्या का एक दूसरा रूप भी है, वह है शीतल-लेश्या । जैन परम्परा के अनुसार वह उसी योगी को प्राप्त होती है जिसकी वासनाएँ (कषाय) क्षीण हो चुकी हैं। इसका प्रभाव शीतलतादायक होता है। हठयोग के ग्रन्थों के अनुसार भी जब वासना-मुक्त (passion proof) योगी की कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होकर सहस्रार चक्र में पहुँचती है और १ तेजोलेश्या का अभिप्राय यहाँ तेजोलब्धि है। २ भगवती सूत्र, शतक १५, सूत्र ७६ (अंगसुत्ताणि) । -सम्पादक Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१ जैन योग का स्वरूप शिव से उसका मिलन होता है तो वहाँ स्थित चन्द्र (शिवजी के मस्तक पर तथा सोमचक्र में चन्द्रमा स्थित माना गया है) से अमृत पाकर योगी को अनिर्वचनीय शीतलता और आनन्द की प्राप्ति होती है । इस विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है जैन योग में वर्णित तेजोलेश्या हठयोग - तन्त्रयोग आदि में कुण्डलिनी शक्ति के नाम से वर्णित हुई है । कुण्डलिनी का हठयोग में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है । इसे उपनिषदों में 'नचिकेत अग्नि' कहा गया है । चैनिक योग दोपिका में इसे श्री I' lohin द्वारा spirit fire (आत्मिक अग्नि) कहा गया है । मैडम ब्लेवेट्स्की ने इसकी गति ३४५००० मील प्रति सैकिण्ड बताई है । इसके बारे में हठयोग के ग्रन्थों में अनेक प्रकार की सावधानियाँ रखने का निर्देश है, उनमें प्रमुख है कि जब तक साधक की वासना का क्षय न हो जाय, वह passion-proof न हो जाय तब तक कुण्डलिनी को जगाने का प्रयत्न उसे नहीं करना चाहिए, अन्यथा कुण्डलिनी शक्ति नीचे की ओर प्रवाहित होकर वासनाओं और कषायों के आवेग के अत्यधिक बढ़ा सकती है । यही बात योगविद्या ( हठयोग ) विशारद श्री हडसन ( Hudson) ने अपनी पुस्तक Science of Seership में कही है Note that the actual arising of the tremendous force of Kundalini may only be safely attempted under the expert guidance of a Master of occult science-otherwise Kundalini may act downwards and intensify both the desire-nature and activity of sexual organs. यही कारण है कि प्राचीन जैन योग (आगम साहित्य तथा ईसा की दशवीं शताब्दी तक रचे गये जैन साहित्य) में कुण्डलिनी की कोई चर्चा प्राप्त नहीं होती । वास्तव में जैन योगियों ने कुण्डलिनी जागरण को अपना लक्ष्य कभी नहीं बनाया । इसका कारण यह है कि कुण्डलिनी शक्ति की जागरणा अधिकांश योगी भौतिक शक्तियों के प्रदर्शन, यश आदि की प्राप्ति के लिए करते हैं, जैसा कि गोशालक ने किया था । यह भी सर्वविदित है कि हठयोग, वामकौल तन्त्रयोग के कारण ही बंगाल में कितना व्यभिचार और भ्रष्टाचार फैला था । तब दूरदर्शी और भूत-भविष्य के ज्ञाता जैन योगी, चिन्तक तथा Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ जैन योग : सिद्धान्त और साधना मनीषी कुण्डलिनी जागरण जैसी दुष्परिणामकारी ( दुष्परिणामकारी इसलिए कि जिन साधकों की वासनाएँ क्षय नहीं हुई हैं, वे इस महाशक्ति का दुरुपयोग अपनी वासना तृप्ति और स्वार्थ सिद्धि के लिए करते हैं) शक्ति को प्राप्त करने का प्रयत्न कैसे करते ? यद्यपि उन्हें तेजोलेश्या शक्ति के रूप में कुण्डलिनी योग पूर्णतया ज्ञात था । आध्यात्मिक दृष्टि से जैन योग के भेद आध्यात्मिक दृष्टि से योग के बीज तथा विचार प्राचीन जैन आगमों में यत्र-तत्र प्राप्त होते हैं। आचार्य हरिभद्र सूरि ने अपने ग्रन्थ योगबिन्दु में आध्यात्मिक योग का बहुत ही सुन्दर तरीके से क्रमबद्ध वर्णन प्रस्तुत किया है । वहाँ उन्होंने मोक्ष प्राप्ति के अन्तरंग साधन को धर्म-व्यापार कहा है तथा उस धर्म - व्यापार को योग बतला कर उसके पाँच भेद किये हैं- (१) अध्यात्म, (२) भावना, (३) ध्यान, (४) समता और (५) वृत्तिसंक्षय ।' पातंजलयोग के संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात नाम के दो योग इन्हीं पाँच भेदों के अन्तर्गत आ जाते हैं । (१) अध्यात्मयोग जैन आगमों में मोक्षाभिलाषी आत्मा को अध्यात्मयोगी बनने की— योग से युक्त होने की प्रेरणा बार-बार दी गई है । इसका कारण यह है कि चारित्र-शुद्धि के लिए मुमुक्षु आत्मा को अध्यात्मयोग अनुष्ठान की नितान्त आवश्यकता होती है । यही कारण है कि आचार्य ने सर्वप्रथम अध्यात्मयोग का निर्देश मुमुक्षु साधक को दिया है । अध्यात्मयोग का लक्षण बताते हुए आचार्य ने कहा है उचित प्रवृत्ति से अणुव्रत - महाव्रत से युक्त होकर चारित्र का पालन करने के साथ-साथ मैत्री आदि भावनापूर्वक आगम वचनों के अनुसार तत्त्वचिन्तन करना, अध्यात्मयोग है । १ अध्यात्मं भावना ध्यानं, समता वृत्तिसंक्षयः । मोक्षण योजनाद् योगः, एष श्रेष्ठो यथोत्तरम् ॥ (क) अज्झप्पजोगसुद्धा दाणे उवदिट्ठिए ठिअप्पा | (ख) अज्झप्पज्झाणजुत्ते ( अध्यात्मध्यान युक्त) व्याख्याकार ने इस सूत्र की व्याख्या की हैअध्यात्मनि आत्मानमधिकृत्य आत्मालंबनं ध्यानं चित्तनिरोधस्तेन युक्तः । ३ औचित्याद्वृत्तयुक्तस्य वचनात् तत्त्वचिन्तनम् । मंत्र्यादिभाव संयुक्त मध्यात्मं तद्विदो विदुः ॥ - योगबिन्दु ३५८ — योगबिन्दु ३१ - सूत्रकृतांग १ / १६ / ३ - प्रश्नव्याकरण ३, संवरद्वार Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन योग का स्वरूप ८३ यहाँ अध्यात्मयोग के तत्त्वचिन्तनरूप लक्षण में दिये गये चार विशेषण-(१) औचित्य (सम्यग्बोधपूर्वक), (२) वृतसमवेतत्व, (३) आगमानुसारित्व और (४) मैत्री आदि भावना संयुक्तत्व, बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं । इन पर विचार करने से अध्यात्म का वास्तविक रहस्य भलीभाँति स्पष्ट हो जाता है। मैत्री आदि चार भावनाओं से भावित पुरुष अध्यात्मयोग की भावना को और भी अधिक दृढ़ करता है। (१) मैत्री भावना द्वारा वह अपने से अधिक सुखी व्यक्तियों के प्रति ईर्ष्या भाव का त्याग करता है। (२) करुणा भावना से वह दीन-दुःखी प्राणियों के प्रति उपेक्षा नहीं करता, वरन् उनको यथाशक्ति सहयोग देकर उनके कष्ट को मिटाने का प्रयास करता है, उनके साथ सहानुभूति रखता है। (३) मुदिता अथवा प्रमोद भावना से उसका पुण्यशाली जीवों से द्वाष हट जाता है तथा गुणियों के प्रति उसके प्रशंसा भाव जागते हैं, बह गुणानुरागी बनता है, गुण ग्रहण करता है। (४) उपेक्षा अथवा माध्यस्थ्य भावना द्वारा वह पापी, दुष्ट, दुराग्रही जीवों पर से राग-द्वष हटा लेता है। इन चार भावनाओं के अनुशीलन से अध्यात्मयोगी साधक की आत्मा में ईर्ष्या का नाश, दया का संचार, गुणानुराग तथा राग-द्वष को निवृत्ति सम्पन्न होती है और वह अध्यात्मयोग का सम्यक् प्रकार से आचरण करने में सक्षम बनता है। _इस प्रकार अध्यात्मयोग' के स्वरूप को समझकर जो व्यक्ति उसे आत्मसात् कर लेता है, उसके पापों का नाश, वीर्य का उत्कर्ष, चित्त की प्रसन्नता, वस्तुतत्त्व का बोध तथा आत्मानुभवरूप अमृत की प्राप्ति होती है।' यह अध्यात्मयोग की फलश्रुति है। १ (क) सुखीयां दुखितोपेक्षां पुण्यद्वषमर्मिषु । रागद्वषो त्यजेन्नेता लब्ध्वाऽध्यात्म समाचरेत् ॥७॥ -योगभेदद्वात्रिंशिका (ख) मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणांभावनातश्चित्त प्रसादनं । -पातंजल योगसूत्र १/३६ २ अतः पापक्षयः सत्वं शीलं ज्ञानं च शाश्वतम् । तथानुभवसंसिद्धममृतं ह्यदि एव तु ॥ -योगबिन्दु ३५९; तथा योगभेदद्वात्रिंशिका ८ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ जैन योग : सिद्धान्त और साधना (२) भावनायोग भावना योग का माहात्म्य आगमों में भी बताया गया है। सूत्रकृतांग सूत्र में कहा गया है जिस साधक की आत्मा भावनायोग से शुद्ध हो गई है, वह साधक जल में नौका (नाव) के समान है। और जिस प्रकार नाव को तट पर विश्राम प्राप्त होता है उसी प्रकार उस साधक को भी सभी प्रकार के दुःखों एवं कष्टों से छुटकारा प्राप्त हो जाता है तथा उसे परम शान्ति का का लाभ होता है।' भावनायोग का लक्षण बताते हुए कहा गया है-प्राप्त हुए अध्यात्मयोग का बुद्धिसंगत (विचारपूर्वक) बार-बार अभ्यास करना, चिन्तन करनाभावनायोग है। यह निश्चित है कि समझे हुए पदार्थ का जब बार-बार चिन्तन किया जाता है तभी वह मन-मस्तिष्क में स्थिर रह सकता है। इसी प्रकार अध्यात्मतत्त्व को भी हृदय में स्थिर रखने के लिए भावनाओं का चिन्तन अति आवश्यक है। वस्तुतः अध्यात्मयोग का बहुत कुछ तत्त्व भावनायोग पर ही निर्भर है। जैन आगमों में मोक्ष-प्राप्ति के चार मार्ग बताये गये हैं—दान, शील, तप और भाव । इन सब में भी भाव ही अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। भाव के बिना दान, शील और तप भी कार्यकारी नहीं हो पाते । सब क्रियाएँ फलहीन रह जाती हैं। पतंजलि ने भी समाधि-प्राप्ति के साधन रूप उपादेय अभ्यास के बारे में भी यही बात कही है। भावना के लिए आगमों में अणुवेक्खा (अनुप्रेक्षा) शब्द भी व्यवहृत हुआ है, जिसका अर्थ है बार-बार देखना-चिन्तन-मनन और अभ्यास करना । अध्यात्मयोगी के लिए ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वैराग्य-ये पाँच विषय भावना के हैं। इन विषयों की भावना करने से वैभाविक संस्कारों (कर्मजन्य उपाधियों) का विलय, अध्यात्म तत्त्व की स्थिरता और आत्मगुणों का उत्कर्ष होता है। १ भावणाजोग सुद्धप्पा, जले णावा व आहिया । णावा व तीर सम्पन्ना, सव्वदुक्खा तिउट्टई ।। -सूत्रकृतांग १/१५/५ २ अभ्यासो बुद्धिमानस्य, भावना बुद्धिसंगतः। -योगभेदद्वात्रिंशिका ३ स तु दीर्घकालनरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढभूमिः । -पातंजल योगसूत्र १/१४ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का स्वरूप ८५ भावनायोग के सन्दर्भ में बारह भावनाओं का भी वर्णन जैन शास्त्रों प्राप्त होता है । वे बारह भावना हैं (१) अनित्य भावना - - इसमें जीवन की अणभंगुरता - अनित्यता का चिन्तन किया जाता है । (२) अशरण भावना - इस भावना में साधक यह चिन्तन करता है कि संसार में धर्म के सिवाय अन्य कोई भी व्यक्ति या वस्तु प्राणी के लिए शरणभूत नहीं है । (३) संसार भावना – इसमें संसार की स्थिति और उसके दुःखमय स्वरूप का चिन्तन साधक करता है । (४) एकत्व भावना - इस भावना द्वारा साधक यह चिन्तन करता है कि वह अकेला ही जन्म ग्रहण करता है और अकेला ही मरता है, उसका कोई साथी नहीं है | इस भावना का आधार है - तुममेव तुमं मित्तं किं बहिया मित्तमिच्छसि ! हे आत्मन् ! तुम्हीं तुम्हारे मित्र हो, बाहर के किस मित्र को इच्छा करते हो, अर्थात् किसी भी मित्र या साथी की इच्छा मत करो । (५) अन्यत्व भावना – यह भावना साधक के हृदय में भेद विज्ञान जगाने वाली है । साधक यह चिन्तन करता है कि वह सबसे अलग है, जहाँ शरीर भी अपना नहीं, वहाँ अन्य परिजन स्त्री -पुत्र -धन आदि अपने कैसे हो सकते हैं । (६) अशुचि भावना - इस भावना में साधक शरीर की अशुचिता का चिन्तन करता है । इसके परिणामस्वरूप उसका अपने शरीर पर से ममत्व - भाव छूट जाता है । (७) आस्रव भावना - इस भावना द्वारा साधक कर्मों के आस्रव का चिन्तन करता है, फलस्वरूप वह कर्मास्रव को रोकने के लिए प्रयत्नशील होता है । (८) संवर भावना - इस भावना द्वारा साधक कर्मों के आस्रव को रोकता है । (६) निर्जरा भावना - साधक इस भावना द्वारा अपने पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा करता है, उनका क्षय अथवा नाश करता है । (१०) लोक भावना - इस भावना द्वारा साधक चिन्तन करता है कि मेरा आत्मा अनादि काल से इस लोक में भ्रमण कर रहा है, अब मुझे ऐसा Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ जैन योग : सिद्धान्त और साधना प्रयास करना चाहिए जिससे मेरा भवभ्रमण समाप्त हो जाय । वह अपनी आत्मा के भवभ्रमण को रोकने के लिए प्रयत्नशील होता है । (११) वोधिदुर्लभ भावना - इस भावना का हार्द सम्यक्ज्ञान, आत्मज्ञान की प्रतिष्ठा करना है । साधक यथार्थ ज्ञान का बार-बार अनुचिन्तन करता है । (१२) धर्म भावना - इस भावना द्वारा साधक धर्म के स्वरूप, उसके फल तथा माहात्म्य आदि के बारे में चिन्तन करके धर्म पर दृढ़ होता है । इन भावनाओं के बार-बार चिन्तन-मनन और अभ्यास से साधक का अध्यात्मयोग दृढ़ से दृढ़तर हो जाता है ।' इन बारह भावनाओं में से अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व और लोक - ये पांच भावनाएँ धर्मध्यान में परिगणित की गई हैं तथा अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर निर्जरा, बोधिदुर्लभ और धर्म- ये सात भावनाएँ शुक्लध्यान के अन्तर्गत परिगणित की गई हैं । इन भावनाओं के सतत चिन्तन से साधक को धर्मध्यान- शुक्लध्यान की प्राप्ति होती है । ३. ध्यानयोग ध्यान का वर्णन जैन आगमों में अनेक स्थलों पर हुआ है । प्रश्नव्याकरण सूत्र में ध्यान का लक्षण देते हुए कहा है- स्थिर दीपशिखा के समान निश्चल - निष्कम्प तथा अन्य विषय के संचार से रहित केवल एक ही विषय का धारावाही प्रशस्त सूक्ष्म बोध जिसमें हो, उसे ध्यान कहते हैं । " इसी का अनुसरण करते हुए आचार्य हरिभद्रसूरि ने कहा है शुभ प्रतीकों के आलम्बन पर चित्त का स्थिरीकरण - ध्यान कहा जाता है । वह ध्यान दीपक की लौ के समान ज्योतिर्मान तथा सूक्ष्म और अन्तः प्रविष्ट चिन्तन से समायुक्त होता है । १ भावनाओं के विस्तृत वर्णन के लिए 'भावना योग' (आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज) पुस्तक देखें । निव्वायस रयणप्पदीपज्झाणमिव निप्पकम्पे । -प्रश्नव्याकरण, २ ३ शुभकालम्बनं चित्तं ध्यानमाहुर्मनीषिणः । स्थिर प्रदीपसदृशं सूक्ष्माभोगसमन्वितम् ॥ संवर द्वार ५ योगबिन्दु ३६२ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का स्वरूप ८७ श्री शीलांकाचार्य ने 'ज्माणजोगं समाहटु'' इस गाथा की टीका करते हुए चित्तनिरोध लक्षण धर्मध्यानादि में मन-वचन-काया के विशिष्ट व्यापार को ही ध्यान योग कहा है। तत्त्वार्थ सूत्र में बताया गया है-अन्तमुहर्त पर्यन्त एक ही विषय पर चित्त की सर्वथा एकाग्रता अर्थात् ध्येय विषय में एकाकार वृत्ति का प्रवाहित होना ध्यान है। यही बात पतंजलि ने अपने योगसूत्र में कही है--जहाँ चित्त को लगाया जाय, उसी में वृत्ति का एक तार चलना ध्यान है। वस्तुतः ध्येय में चित्त का एकाकार हो जाना ही ध्यान ह । इस ध्यानयोग में साधक को ध्येयवस्तुगत एकाग्रता इतनी बढ़ जाती है कि उसको (साधक को) उस समय ध्येय के अतिरिक्त अन्य का किसी भी वस्तु का विचार भी नहीं आता। जिस आत्मा में यह ध्यानरूप योगाग्नि प्रज्वलित होती है उसका कर्मरूप मल (जो अनादिकाल से आत्मा के साथ चिपका हुआ है) भस्म हो जाता है। उसके प्रकाश से रागादि का अन्धकार विनष्ट हो जाता है, चित्त सर्वथा निर्मल हो जाता है तथा मोक्ष मन्दिर का द्वार दिखाई देने लगता है। __ध्यानयोग आत्मा को उसके वास्तविक स्वरूप में प्रतिष्ठित करने का प्रबलतम साधन है तथा आत्म-स्वातन्त्र्य, परिणामों की निश्चलता और जन्मान्तर से आत्मा के साथ सम्बद्ध कर्मों का विच्छेद-यह तीनों ध्यानयोग के फल हैं। ४. समतायोग समतायोग ध्यान में अत्यधिक उपयोगी होता है। अविद्या (मोह१ 'ज्झाणजोगं समाहट्ट' की पूरी गाथा इस प्रकार है जमाणजोगं समाहट्ट कायं विउसेज्ज सम्रसो । तितिक्खं परमं नच्चा आमोक्खाए परिवएज्जासि ॥-सूयगडंग १/८/२६ २ ध्यानम्-चित्तनिरोध लक्षणं धर्मध्यानादिकं तत्र योगोविशिष्टमनोवाक्कायव्यापा रस्तं ध्यानयोगम् । ३ ..."एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् । -तत्वार्थसूत्र ६/२७ ४ तत्र प्रत्ययकतानता ध्यानम् । --पातंजल योमसूत्र ३/२ ५ सज्झायसुज्झाणरयस्स ताइणो, अपावभावस्स तवे रयस्स । विसुज्झइ जंसि मलं पुरे कडं, समीरियं रुप्पमलं व जोइणा ॥ -दशवैकालिक, ८/६३ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ जैन योग : सिद्धान्त और साधना मूढ़ता) द्वारा कल्पित इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में विवेकपूर्वक तत्त्व निर्णय-बुद्धि से राग-द्वेष रहित होना अर्थात् पदार्थों में की जाने वाली इष्ट-अनिष्ट की कल्पना को केवल अविद्या का प्रभाव समझकर उनमें उपेक्षा धारण करना समता है। उसमें निविष्ट मन-वचन-काया के व्यापार का नाम समतायोग है। __ वस्तुतः संसार का कोई भी पदार्थ न इष्टरूप है और न अनिष्टरूप, यह संसार तो अहेयोपादेय-न ग्रहण करने योग्य और न छोड़ने योग्य है। इसमें और इसके सभी पदार्थों में जो जीव को हर्ष-शोक आदि की अनुभूति होती है, वह सब मोह का प्रभाव है, विभाव संस्कार हैं । ये संस्कार न तो आत्मा के गुण हैं और न ही आत्मा का इनके साथ कोई वास्तविक सम्बन्ध ही है । आत्मा का वास्तविक स्वरूप तो दर्शन-ज्ञान-चारित्रमय है। इस प्रकार के विवेक-ज्ञान से आत्मा में विचार-वैषम्य का नाश और समभाव का परिणमन होने लगता है। इस सत् परिणाम द्वारा किये जाने वाले तत्त्वचिन्तन का नाम ही समतायोग है। समत्व (राग-द्वषरहितता) आत्मा का निज गुण है। ध्यान और समता परस्पर सापेक्ष हैं। ध्यान के बिना समता की प्राप्ति नहीं हो सकती और समताभाव का प्रादुर्भाव हुए बिना ध्यान की सिद्धि नहीं हो सकती। ध्यानयोग के साधक को समतायोग अनिवार्य है और समतायोग के साधक को ध्यानयोग की आवश्यकता होती है। क्योंकि ध्यान में प्राप्त चित्त की एकाग्रता समतायोग के अभाव में स्थिर नहीं रह सकती। १ अविद्याकल्पितेषूच्चरिष्टानिष्टषु वस्तुषु । संज्ञानात् तद्व्युदासेन समता समतोच्यते ।। -योगबिन्दु ३६४ ___ इसीलिए आगमों में साधु को आदेश दिया गया है कि वह जगत् के समस्त प्राणियों को समभाव से देखे और राग-द्वष के वशीभूत होकर किसी भी प्राणी का प्रिय अथवा अप्रिय न करे । यथा(क) सव्वं जगं तु समयाणुपेही पियमप्पियं कस्सवि णो करेज्जा । -सूयगडंग १/१०/७ तथा(ख) पण्णसमत्त सया जये, समताधम्ममुदाहरे मुणी। -सूयगडंग १/२/२/६ अर्थात्-बुद्धिमान साधु (कषायों को) सदा जीते और समताधर्म का उपदेश दे। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का स्वरूप ८६ समतायोग से सूक्ष्म कर्मों का अर्थात् विशिष्ट चारित्र-यथाख्यात चारित्र और केवल उपयोग (केवलज्ञान-दर्शन) को आवृत करने वाले ज्ञानावरण, दर्शनावरण और मोहनीय कर्मों का नाश तथा अपेक्षा-तन्तु का छेद हो हो जाता है । अपेक्षा-तन्तु (आशा-डोर) का विच्छेद हो जाने का तात्पर्य यह है कि समतायोगी को किसी भी प्रकार के सांसारिक सुखों की अपेक्षा-इच्छा नहीं रहती। इसीलिए वह प्राप्त लब्धियों का उपयोग भी नहीं करता, क्योंकि उसे यश-कामना भी नहीं रहती। (१) लब्धियों में अप्रवृत्ति, (२) सूक्ष्म कर्मों (ज्ञान-दर्शन-चारित्र के प्रतिबन्धक ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय आदि कर्म) का क्षय और (३) अपेक्षातन्तु का विच्छेद-ये तीन समतायोग के विशिष्ट फल हैं, जिनके आस्वादन से आत्मा को अमृतत्व की प्राप्ति होती है। ५. बृत्तिसंक्षययोग वृत्तिसंक्षययोग आध्यात्मिक योग का अन्तिम सोपान है। इसका स्वरूप बताते हुए कहा गया है आत्मा में मन और शरीर के सम्बन्ध से उत्पन्न होने वाली विकल्परूप तथा चेष्टारूप वृत्तियों का अपुनर्भावरूप से जो निरोध-आत्यन्तिक क्षय-समूल नाश होता है, उसका नाम वृत्तिसंक्षययोग है। आत्मा स्वभाव से निस्तरंग सागर के समान निश्चल है । जैसे वायु के सम्पर्क से उसमें तरंगें उठती हैं, उसी प्रकार आत्मा में भी मन और शरीर के संयोग से संकल्प-विकल्प तथा अनेक प्रकार की चेष्टारूप वृत्तियाँ उठती रहती हैं। इनमें विकल्परूप वृत्तियाँ मनोद्रव्य के संयोग से उत्पन्न होती हैं और चेष्टारूप वृत्तियाँ शरीर-सम्बन्ध से उत्पन्न होती हैं । इन विकल्प और चेष्टारूप वृत्तियों का समूल नाश ही वृत्तिसंक्षययोग है। ___यह वृत्तिसंक्षय नाम का योग आत्मा को कैवल्य (केवलज्ञान-दर्शन) की प्राप्ति के समय तथा निर्वाण प्राप्ति के समय प्राप्त होता है। यद्यपि वृत्ति १ (क) अन्यसंयोगवृत्तीनां, यो निरोधस्तथा तथा । अपुनर्भावरूपेण स तु तत्संक्षयो मतः ।। -योगबिन्दु ३६६ (ख) विकल्पस्पन्दरूपाणां, वृत्तीनामन्यजन्मनाम् । अपुनर्भावतो रोध: प्रोच्यते वृत्तिसंक्षयः ।। -उपाध्याय यशोविजयकृत योगभेदद्वात्रिंशिका २५ २ योगबिन्दु व्याख्या श्लोक ४३१ । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. जैन योग : सिद्धान्त और साधना निरोध अन्य ध्यान आदि की अवस्था में भी आत्मा प्राप्त करता है, किन्तु वह आंशिक होता है। सम्पूर्ण वृत्ति-क्षय इसी योग में प्राप्त होता है। कैवल्य अवस्था में भी तेरहवें गुणस्थान (सयोगकेवली दशा) में विकल्परूप वृत्तियों का समूल नाश हो जाता है और चौदहवें गुणस्थान (अयोगकेवली दशा) में चेष्टारूप वृत्तियों का आत्यन्तिक क्षय होता है। इस प्रकार वृत्तिसंक्षययोग के कैवल्य प्राप्ति, शैलेशीकरण' और मोक्ष लाभ-ये तीन फल हैं। महर्षि पतंजलि द्वारा वर्णित सम्प्रज्ञातयोग-जिसमें राजस एवं तामस वृत्तियों का सर्वथा निरोध होकर केवल सत्त्वप्रधान प्रज्ञा-प्रकर्षरूप वृत्ति का उदय होता है, इन चार भेदों (अध्यात्म, भावना, ध्यान और समता) में सन्निहित है तथा असंप्रज्ञातयोग समाधि-जिसमें सम्पूर्ण वत्तियों का क्षय होने पर आत्मानुभवरूप समाधि प्राप्त होती है-वृत्तिसंक्षययोग के अन्तर्गत आ जाती है। इस प्रकार आध्यात्मिक योग द्वारा साधक शनैः शनैः आत्मोत्क्रान्ति करता हुआ मोक्ष अथवा निर्वाण पद को प्राप्त कर लेता है, चरम लक्ष्य उसे प्राप्त हो जाता है। आध्यात्मिक योग के अतिरिक्त जैनधर्म-दर्शन में 'तपोयोग का भी विशिष्ट स्थान है । साधक अपनी कषायों (क्रोध, मान, माया, लोभ आदि), वासनाओं और कर्मों को क्षय करने के लिए तथा मन एवं इन्द्रियों को वश में रखने के लिए विभिन्न प्रकार के तप करता है । जैन धर्म में तप का उद्देश्य आत्म-शुद्धि है। विभिन्न प्रकार के तपों से कर्मों का क्षय होकर आत्मा की निर्मलता उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है और धीरे-धीरे पूर्ण निर्मलता की स्थिति प्राप्त हो जाती है। जैन धर्म में योग के बीज प्राचीनतम आगमों में प्राप्त होते हैं । यद्यपि कहा जा सकता है कि वहाँ योग का विशद् विवेचन नहीं है। यह कुछ अंशों में १ शैलेशो मेरुस्तस्येव स्थिरता सम्पाद्यावस्था सा शैलेशी। -अभयदेवसूरि-औपपातिक सूत्र सिद्धाधिकार ___ अर्थात्-योगों-मन-वचन-काया के व्यापारों के निरोध से मेरु के समान प्राप्त होने वाली पूर्ण स्थिरता, शैलेशीकरण है। २ तपोयोग का विशद वर्णन 'तपोयोग' नामक अध्याय में किया गया है। -सम्पादक Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग का स्वरूप ई १ सत्य भी है । किन्तु योग के स्वरूप का निर्धारण तो बीज रूप में वहाँ हो ही चुका था । जैसा कि पिछले पृष्ठों के विवेचन से स्पष्ट है कि पातंजल योगसूत्र भी जैन आगमों में उल्लिखित योग सम्बन्धी वर्णन से काफी साम्य रखता है । इन योग - बीजों को ही बाद के जैन आचार्यों ने पल्लवित और विकसित किया है । जैन योग के स्पष्ट स्वरूप निर्धारण का श्रेय आचार्य हरिभद्र सूरि को है । इन्होंने अपने योगविषयक ग्रन्थों में योग दृष्टियों, आध्यात्मिकयोग, इच्छायोग, सामर्थ्ययोग, शास्त्रयोग आदि योग के अनेक प्रकारों का विस्तृत और सारगर्भित विवेचन करके जैन योग को, अन्य प्रचलित योगों से विशिष्टता प्रदान की । योग का महत्त्व योग का महत्त्व जिस प्रकार योगदर्शन तथा भारत के अन्य दर्शनोंयथा वेदान्त आदि तथा गीता, उपनिषद्, पुराण आदि साहित्य में स्वीकार गया है, उसी प्रकार जैन आचार्यों ने भी योग का महत्त्व स्वीकार किया है । इसे afra और पारलौकिक तथा शारीरिक और आत्मिक उन्नति का प्रबल हेतु माना है । मन और इन्द्रियों की चंचलता को मिटाने तथा उन्हें वश में रखने के लिए भी योग की उपयोगिता स्वीकार की गई है । वस्तुतः योग से चित्त की एकाग्रता सधती है और उससे ध्येय अथवा लक्ष्य में सफलता प्राप्त होती है । योग मानव-जीवन के लिए अत्यन्त ही उपकारी है । इसीलिए आचार्य हरिभद्र ने इसकी प्रशंसा की है तथा इसका महत्त्व इन शब्दों में बताया हैयोगः कल्पतरुः अष्ठो योगश्चिन्तामणिः परः । योगः प्रधानं धर्माणां योगः सिद्ध े स्वयं ग्रहः ||३७|| कुण्ठोभवन्ति तोक्ष्णानि मन्मथास्त्राणि सर्वथा । योग चिल तपश्छिद्रकराण्यपि ॥ ३६ ॥ अक्षरद्वयमप्येतत् श्रयमाणं विधानतः । गीतं पापक्षयायोच्चैर्योग सिद्धं महात्मभिः ॥४०॥ - योगबिन्दु अर्थात् - योग उत्तम कल्पवृक्ष है, उत्कृष्ट चिन्तामणि रत्न है - यह कल्पवृक्ष तथा चिन्तामणि के समान साधक की समस्त इच्छाओं को पूर्ण करता है । योग सभी धर्मों में प्रमुख है तथा सिद्धि - जीवन की चरम सफलता - मुक्ति का अनन्य हेतु है । योगरूपी कवच से जब चित्त (हृदय) आवृत (अच्छी प्रकार से सभी ओर से ढका हुआ) होता है तो काम (कामदेव) के जो तीक्ष्ण शस्त्र तप को Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ जैन योग : सिद्धान्त और साधना भी छिन्न-भिन्न कर देते हैं, वे योगरूपी कवच से टकराकर शक्तिशून्य तथा निष्प्रभावी हो जाते हैं। भाव यह है कि योगी कामविजेता बन जाता है। ____ यथाविधि सुने हुए-आत्मसात् किये हुए 'योग' रूप दो अक्षर भी सुनने वाले के पापों का नाश कर देते हैं । योग का महत्त्व इन शब्दों से भली-भाँति प्रगट हो जाता है । मोक्ष अथवा निर्वाण प्राप्ति के जितने भी साधन अथवा उपाय भारत के सभी मोक्षवादी दर्शनों ने प्रस्तुत किये हैं, उनमें योग सबसे सरल और प्रबल साधन है। यह कहना भी अत्युक्ति नहीं होगी कि चाहे ज्ञानमार्ग हो या भक्तिमार्ग अथवा कर्ममार्ग-जीव को मोक्ष-प्राप्ति के लिए योग की अतीव आवश्यकता होती है, मुक्ति के लिए योग एक प्रकार से अनिवार्य है। इसीलिए भक्तियोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग आदि शब्दों का प्रचलन हो गया। भारत के परम मेधावी ऋषि-मुनियों ने स्वात्मानुभूति के लिए अपेक्षित प्रज्ञाप्रकर्ष अथवा अन्तर्दृष्टि के सर्वतोभावी उन्मेष के विकास के लिए अपेक्षित बल का इसी योग-साधना के द्वारा उपार्जन किया था। वस्तुतः योग का ही दूसरा नाम अध्यात्म-मार्ग अथवा अध्यात्म-विद्या है। अध्यात्म-विद्या ही जैन धर्म में आध्यात्मिक योग के नाम से अभिहित हुई; और इस योग को मुक्ति-प्राप्ति का सफल उपाय बताया गया। ___ योग का महत्त्व इसी बात से परिलक्षित होता है कि सभी दर्शनों ने अपने नाम के साथ योग शब्द जोड़ लिया। इसका महत्त्व एवं उपयोगिता असंदिग्ध है। जैन योग का स्वरूप भी इसकी उपयोगिता पर आधारित है। इसी दृष्टि से अनेक प्रकार के योग आगमों में वर्णित किये गये हैं, जिनमें प्रथम मन-वचन-काय के व्यापार के अर्थ में तथा दूसरे संयम के अर्थ में 'योग' शब्द का उपयोग प्रमुख है । मन-वचन-काय के व्यापार का निरोध तथा संयम का पालन यही जैन योग का संक्षेप में स्वरूप है । इसी को विभिन्न प्रकार के योगों के नाम से कहा गया है। [ 0 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ योगजन्य लब्धियाँ योगी साधक यम, नियम, आसन, प्राणायाम, ध्यान, धारणा, तप आदि की साधना द्वारा योग की सिद्धि करता है, मोक्ष प्राप्ति का उपक्रम करता है । इस साधना द्वारा वह चिरकाल के संचित कर्मों का क्षय कर देता है।' यही उसका अभीष्ट लक्ष्य होता है। किन्तु इस कर्म-क्षय की आन्तरिक साधना के प्रभाव बाह्य भी होते हैं। योगी में अनेक विशिष्ट शक्तियाँ जाग्रत हो जाती हैं। ये विशिष्ट शक्तियाँ सामान्य जन के लिए दुर्लभ होती हैं इसलिए चमत्कारी प्रतीत होती हैं। अतः जन-साधारण इनकी ओर सरलता से आकृष्ट और प्रभावित हो जाता है। इन विशिष्ट शक्तियों को जैन आगम (श्वेताम्बर ग्रन्थों) में लब्धि' कहा गया है और दिगम्बर ग्रन्थों में ऋद्धि । पातंजल योगदर्शन में इन्हीं को विभूति कहा गया है और वैदिक पुराणों में सिद्धि । ये लब्धियाँ अलौकिक (मानसिक) शक्तियों से सम्पन्न और सामान्य मानवों को चकित करने वाली होती है। साधक इन लब्धियों द्वारा असम्भव कार्यों को भी सहज रूप से करने में सक्षम हो जाता है। ये सभी लब्धियाँ साधक को योग साधना के कारण प्राप्त होती हैं और योग साधना भारत की तीनों परम्पराओं-जैन, वैदिक और बौद्ध में मान्य है । अतः यौगिक लब्धियों का वर्णन जैन, बौद्ध, वैदिक तीनों परम्पराओं में प्राप्त होता है। वैदिक योग में लब्धियाँ वैदिक धर्म परम्परा में आध्यात्मिक ज्ञान और अध्यात्म साधना में उपनिषदों का महत्त्व सर्वोपरि है। श्वेताश्वतर उपनिषद में उल्लेख है कि १ क्षिणोति योगः पापानि, चिरकालाजितान्यति । प्रचितानि यथैधांसि, क्षणादेवाशुशुक्षणिः ।। २ गुणप्रत्ययो हि सामर्थ्य विशेषो लब्धिः । ३ पातंजल योगसूत्र, विभूतिपाद, सूत्र ३ ४ श्रीमद्भागवत् पुराण ११/१५/१ -योगशास्त्र १/७ - आव० मल० १ अ० Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ जैन योग : सिद्धान्त और साधना लब्धियों से नीरोगता, जरा-मरण का अभाव, शरीर का हल्कापन, आरोग्य, विषय-निवृत्ति, शरीर-कान्ति, स्वर-माधुर्य, मल-मूत्र की अल्पता आदि योगप्रवृत्ति से उपलब्ध होती है।' - श्रीमद्भगवद् गीता में तो गीताकार ने एक पूरे अध्याय में ही विभूतियों का वर्णन किया है। हठयोग के ग्रन्थों में भी अनेक प्रकार की सिद्धियों का वर्णन है। पौराणिक साहित्य में सिद्धियों के १८ प्रकार बताये हैं। इनमें से (१) अणिमा, (२) महिमा, (३) लघिमा-ये तीन शारीरिक सिद्धियाँ हैं। इन्द्रिय सिद्धि को 'प्राप्ति' कहा गया है। 'प्राकाम्य' नामक सिद्धि से साधक श्रत और दृष्ट पदार्थों को इच्छानुसार अनुभव कर लेता है। 'ईषिता' सिद्धि से साधक माया के कार्यों को प्रेरित करता है। 'वशिता' सिद्धि का धारक साधक प्राप्त भोगों में आसक्त नहीं होता। 'कामावसायिता' सिद्धि द्वारा साधक अपनी इच्छानुसार सुख की उपलब्धि करने में सक्षम हो जाता है। इनके अतिरिक्त (१) त्रिकालज्ञत्व, (२) अद्वन्द्वत्व (शीत-उष्ण, सुखदुःख आदि द्वन्द्वों से पराजित न होना), (३) परचित्त अभिज्ञान, (४) प्रतिष्टम्भ (अग्नि, सूर्य, जल, विष आदि की शक्ति को स्तम्भित कर देना, (५) अपराभव-ये पाँच सिद्धियाँ और हैं। ___ ये सभी सिद्धियाँ योगियों को प्राप्त होती हैं । योगदर्शनसम्मत लब्धियाँ योगदर्शन में जो यम, नियम, आसन, प्राणायाम आदि योग के आठ अंग बताये गये हैं, उनके बारे में कहा गया है कि इनकी साधना से आभ्यन्तर और बाह्य दोनों प्रकार की सिद्धियाँ (लब्धियाँ) योगी को प्राप्त होती हैं। . अष्टांग योग के प्रथम अंग यम से प्राप्त लब्धियों के बारे में उल्लेख है कि अहिंसाव्रत का पालन करने वाले योगी के सान्निध्य में व्याघ्र, सिंह आदि हिंसक पशु भी अपनी कर एवं हिंसक वृत्ति वैर-भाव को त्याग देते हैं। सत्यवती का वचन सदैव सत्य होता है, वह वरदान अथवा अभिशाप जो मुंह १ श्वेताश्वतर उपनिषषद् २/१२-१३ २ श्रीमद्भगदद्गीता, दशवां अध्याय ३ श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ११, अ० १५, श्लोक ३-५ ४ वही , श्लोक ६-७ ५ वही __, श्लोक ८ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगजन्य लब्धियाँ ६५ - से कह देता है, सत्य होता है । अस्तेय व्रत की प्रतिष्ठा से योगी के समक्ष निधान प्रगट हो जाते हैं अर्थात् भूमि के अन्दर तथा गुप्त स्थानों के निधान भी प्रगट हो जाते हैं । अपरिग्रह व्रत की साधना से योगी को पूर्वजन्मों का ज्ञान हो जाता है । ' इसी प्रकार अन्य अनेक लब्धियाँ नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार आदि योगांगों की साधना से प्राप्त हो जाती हैं । यहाँ तक कि सर्वज्ञता भी प्राप्त हो जाती है । योगदर्शन के विभूतिपाद में अनेक विभूतियों - लब्धियों का वर्णन हुआ है । उनमें कुछ ज्ञान विभूतियां है जिनका सम्बन्ध ज्ञान से है तथा कुछ शारीरिक विभूतियाँ शरीर सम्बन्धी हैं । उनमें से प्रमुख ये हैं- अतीतानागत ज्ञान, सर्वभूत-रुतज्ञान, परचित्त ज्ञान, पूर्वजाति ज्ञान, भुवन ज्ञान, तारा व्यूह ज्ञान, कायव्यूह ज्ञान, उपरान्त ज्ञान, और सिद्धदर्शन आदि ज्ञान - विभूतियाँ हैं तथा अन्तर्धान, परकाय प्रवेश, आकाशगमन, हस्तिबल, रूपलावण्य, कायसम्पत, क्षुत्पिपासानिवृत्ति और अणिमा, महिमा आदि का प्रादुर्भाव शारीरिक विभूतियाँ हैं । इन विभूतियों के पाँच प्रकार बताये हैं- (१) जन्म से होने वाली ( २ ) औषधि से होने वाली, (३) मंत्र से होने वाली ( ४ ) तप से होने वाली और (५) समाधि से प्राप्त होने वाली ।* बौद्ध परम्परा में लब्धियों को 'अभिज्ञा' कहा (लब्धियों) के वहाँ दो भेद किये गये हैं- (१) लौकिक ओर वहाँ वर्णन है कि समाहित आत्मा से दस प्रकार के इद्धि- विध योग्य चित्त उत्पन्न होता है, उससे अर्हत्मार्ग की सिद्धि होती है । इसे प्रातिहार्य भी कहा गया है और अतिशय एवं उपाय - सम्पदा भी । बौद्धदर्शन में लब्धियाँ गया है । अभिज्ञा (२) लोकोत्तर | ये दश भेद इस प्रकार हैं- (१) अधिष्ठान - अनेक रूप बनाने की क्षमता (२) विकुर्वण - विविध प्रकार की सेनाओं की निर्माण क्षमता (३) मनोमया -- १ पातंजल योगसूत्र २ / ३५-३६ २ पातंजल योगसूत्र २ / ४०-४६,४६,५३,५४, ३ / ५,१६,१७,१८ आदि ३ पातंजल योगसूत्र, विभूतिपाद ४ पातंजल योगसूत्र ४/१ ५ विशुद्धिमग्गो, मग्ग १ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ जैन योग : सिद्धान्त और साधना अन्य के मन में उठने वाले भावों का ज्ञान (४) ज्ञान विस्फार — अनित्य भावना (५) समाधि विस्फार — ध्यान से विघ्नों का नाश (६) आर्य ऋद्धि-- प्रतिकूल में अनुकूल संज्ञा ( ७ ) कर्म विपाकजा - आकाशगामिनी (८) पुण्यवती ऋद्धिचक्रवर्ती, वासुदेव आदि की ॠद्धि (९) विद्यामया ऋद्धि- विधाधरों का आकाश गमन का रूप दर्शन (१०) इज्झनठेन ऋद्धि-संप्रयोग विधि, शिल्प कार्य आदि में कुशलता । इनके अतिरिक्त अन्य अभिज्ञाओं का भी उल्लेख प्राप्त होता है । 'दिव्या सोत' से सभी प्रकार के शब्दों, पशु-पक्षियों की बोली आदि का परिज्ञान; 'परचित्त विज्ञानन' से दूसरे के मन का बोध; 'दिव्व चक्खु' से दिव्य दृष्टि की प्राप्ति; अधिक 'संयम' से लाघवता और आकाशगामिनी शक्ति की प्राप्ति; तथा 'पुब्वनिवासानुस्सती' से पूर्व जन्मों का ज्ञान प्राप्त हो हो जाता है ।" जैनयोग और लब्धियाँ । जैन योग में लब्धियों विस्तारपूर्वक वर्णन हुआ है योगशास्त्र और ज्ञानार्णव तक इन लब्धियों के वर्णन की चली आई है तथा अनेक प्रकार की लब्धियों का वर्णन ग्रन्थों में इनकी संख्या भी भिन्न-भिन्न है | अंग ग्रंथों से लेकर एक सुदीर्घ परंपरा हुआ है । विभिन्न भगवती सूत्र में अनेक स्थलों पर लब्धियों का वर्णन हुआ है । स्थानांग, 3 औपपातिक, प्रज्ञापना' में भी लब्धियों का वर्णन है । इनमें शारीरिक, मानसिक और आत्मिक सभी प्रकार की लब्धियाँ समाविष्ट हैं । लब्धियों की संख्या तिलोयपण्णत्ति में ६४, आवश्यक नियुक्ति में २८, षट्खण्डागम' में ४४, विद्यानुशासन में ४८, मन्त्रराजरहस्य में ५०, प्रवचन १ २ ३ ४ ५ प्रज्ञापना पद ६, सुत्र १४४ ६ द्रष्टव्य- विसुद्धिमग्गो का इद्विविध निद्देसो, पृष्ठ २६१ से २६५ भगवती ८ / २; ५/४/१८६; १४/७/५२१-५२२; ५/४/१६६; २/१०/१२०; ३/४/१६०, ३/५/१६१; १३ / ९ / ४९८ स्थानांग २ / २ ओपपातिक सूत्र २४ ८ ७ आवश्यक नियुक्ति ६९-७० षट्खण्डागम, खण्ड ४, १/६ श्रमण, वर्ष १९६५, अंक १-२, पृष्ठ ७३ & तिलोय पण्णत्ति, भाग १ / ४ / १०६७-९१ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ योगजन्य लब्धियां सारोद्धार' में २८ और विशेषावश्यकभाष्य' में २८ है । इनके वर्गीकरण में भी भिन्नता है । इनके अतिरिक्त हेमचन्द्र के योगशास्त्र और शुभचन्द्र रचित ज्ञानार्णव' में अनेक लब्धियों का वर्णन है और उनका विवेचन भी विस्तार से हुआ है । इन दोनों ग्रन्थों में लब्धियों का वर्णन चमत्कारिक शक्तियों के रूप में हुआ है, जैसे जन्म-मृत्यु का ज्ञान, शुभ-अशुभ शकुनों से भविष्य का ज्ञान अथवा होने वाली घटनाओं को जान लेना, काल ज्ञान, परकाय प्रवेश आदिआदि । प्रवचनसारोद्धार में निरूपित २८ लब्धियों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है (१) आमोसहि— इस लब्धि के प्रभाव से योगी के शरीर-स्पर्श मात्र से रोगी व्यक्ति स्वस्थ हो जाता है । तपस्वियों और योगियों के चरण-स्पर्श की परम्परा के पीछे यह भी एक कारण हो सकता है । (२) विप्पोसहि - योगी के मल-मूत्र में औषधि की शक्ति आ जाना । (३) खेलोसहि— योगी की श्लेष्मा में सुगन्धि तथा रोग निवारण क्षमता । (४) जल्लोसहि - योगी के कान, मुख, नाक आदि के मैल का औषधि रूप में परिणमित हो जाना । (५) सबोसहि - योगी के मल-मूत्र, नख-केश आदि सभी अंगों में सुगन्धि और रोग उपशमन की शक्ति । १ प्रवचनसारोद्धार २७० / १४६२ - १५०८ २ आमोसहि विप्पोसहि खेलोसहि जल्लोस हि चेव । सव्वसहि संभिन्ने ओहि रिउ विउलमइ लद्धी ।। १५०६ ॥ चारण आसीविस केवलियगणहारिणो य पुव्वधरा । अरहंत चक्कवट्टी बलदेवा वासुदेवा य ।।१५०७।। खीरमहुसप्पि आसव, कोट्ठय बुद्धि पयाणुसारी य । तह बीयबुद्धि तेयग आहारग सीयलेसा य ॥। १५०८ ।। वेउव्वदेहलवी अक्खीण महाणसी पुलाया य । परिणाम तववसेण एमाई हुति लद्धीओ ।। १५०६ ॥ ३ योगशास्त्र, प्रकाश ५ और ६ ४ ज्ञानार्णव, प्रकरण २६ - विशेषावश्य व भाष्य Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ जैन योग : सिद्धान्त और साधना (६) संमिन्नश्रोत–सम्पूर्ण शरीर से सुनने की क्षमता तथा सभी इन्द्रियों द्वारा एक-दूसरी इन्द्रिय का कार्य करने का सामर्थ्य । (७) अवधिलब्धि-अवधिज्ञान-रूपी (स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण वाले) पदार्थों के भूत-भविष्य और वर्तमान तीनों कालों की पर्यायों को जानने की क्षमता। (८) ऋजुमतिलब्धि-दूसरे के मनोगत विचारों को सामान्य रूप से जानने की योग्यता । यह लब्धि मनःपर्यवज्ञानी को प्राप्त होती है। (E) विपुलमतिलब्धि-यह लब्धि भी मनःपर्यवज्ञानी को प्राप्त होती है । इस लब्धि द्वारा योगी साधक दूसरों के मनोगत सूक्ष्म भावों को भी जान लेता है। (१०) चारणलब्धि-इस लब्धि के दो भेद हैं-(१) जंघा-चारण और (२) विद्याचारण । इस लब्धि वाले योगी को आकाश में गमनागमन करने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। (११) आशीविषलब्धि-इस लब्धिधारी योगी को शाप देने तथा अनुग्रह करने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। (१२) केवललब्धि-यह सर्वोत्कृष्ट लब्धि है। यह योगी को चार घातिया कर्मों (दर्शनावरण, ज्ञानावरण, मोहनीय और अन्तराय) के सर्वथा क्षय से प्राप्त होती है । इस लब्धि का धारक मनुष्य सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, वीतराग हो जाता है। वह तीनों लोकों और तीनों कालों की सब बातें जानता है। लोकालोक के सम्पूर्ण द्रव्य-पदार्थ-तत्त्व उसको हस्तामलकवत् हो जाते हैं। वह अनन्तवीर्य का धारक हो जाता है और अनन्त सुख में रमण करता है। (१३) गणधरलब्धि-इस लब्धि के धारक योगी को तीर्थंकर के प्रधान शिष्य गणधर पद की प्राप्ति होती है। (१४) पूर्वधरलब्धि-इस लब्धि का धारक साधक चौदह पूर्वो का ज्ञान अन्तमुहूर्त (४८ मिनट से कम समय) में प्राप्त कर लेता है। (१५) अर्हत्लग्धि-इस लब्धि द्वारा साधक को अर्हत् पद की प्राप्ति होती है। (१६) चक्रबर्ती लब्धि-इस लब्धि द्वारा मनुष्य को चक्रवर्ती पद की प्राप्ति होती है। चौदह रत्न, नव निधान और छह खण्ड पृथ्वी के स्वामी को चक्रवर्ती कहा जाता है । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगजन्य लब्धियाँ ६६ (१७) बलदेवलब्धि-बलदेव लब्धि के द्वारा बलदेव पद की प्राप्ति होती है। (१८) वासुदेवलब्धि-इस लब्धि द्वारा वासुदेव पद की प्राप्ति होती है । वासुदेव अद्धचक्री होते हैं। उनका राज्य तीन खण्ड पृथ्वी पर होता है। (१६) क्षीर-मधु-सपिरानवलब्धि-क्षीर का अर्थ है दूध, मधु का शहद और सर्पि का घी । इस लब्धि के धारक योगी के वचन दूध के समान मधुर, मधु के समान मीठे और घी के समान स्निग्ध हो जाते हैं। अर्थात् सुनने वालों को बहुत ही प्रिय लगते हैं। (२०) कोष्ठकलब्धि-जिस प्रकार कोष्ठागार में भरा अनान सुरक्षित रहता है, उसी प्रकार इस लब्धि के धारक साधक की स्मृति में गुरुमुख से निकले वचन संचित एवं सुरक्षित रहते हैं, वह उन वचनों को दीर्घकाल में भी नहीं भूलता। (२१) पवानुसारिणीलब्धि-इस लब्धि से सम्पन्न योगी श्लोक का एक ही पद सुनकर उसके आगे या पीछे के पदों को अर्थात् सम्पूर्ण श्लोक को जान लेता है। (२२) बीजबुद्धिलब्धि-इस लब्धि का धारक साधक किसी भी ग्रन्थ (शास्त्र), मन्त्र आदि का बीजाक्षर मात्र सुनकर अश्रु त पदों एवं अर्थों को भी जान लेता है। (२३) तेजोलब्धि-तेजोलब्धिसम्पन्न साधक का तेजस् शरीर इतना तीव्र और बलशाली होता है कि वह अपने शरीर से तेजोलेश्या निकाल . सकता है। तेजोलेश्या के पुद्गल अत्यधिक प्रकाशयुक्त और ज्वलनशील होते हैं। वे जिस स्थान पर प्रक्षिप्त होते (गिरते) हैं, उसे भस्म कर देते हैं। उत्कृष्ट तेजोलेश्यालब्धिसम्पन्न साधक १६ देशों (लगभग आधे से अधिक भारत देश) को भस्म कर सकता है। . (२४) आहारकलब्धि-यह लब्धि पूर्वधर साधकों को प्राप्त होती है। जब उन्हें किसी तत्त्व के विषय में शंका हो जाती है और समीप ही उनके गुरु, श्रु तकेवली अथवा तीर्थंकर नहीं होते, तब वे इस लब्धि का प्रयोग करते हैं। __इस लब्धि के प्रयोग से साधक आहारक समुद्घात करके अपने शरीर के दायें कन्धे से एक हाथ लम्बा पुतला निकालते हैं। वह पुतला तीर्थंकर भगवान के पास जाता है । तीर्थंकर के दर्शन करके लौट आता है और पुनः साधक के शरीर में समा जाता है । इस क्रिया से साधक की शंका का समाधान हो जाता है। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग : सिद्धान्त और साधना (२५) शीतललेश्यालब्धि - यह लब्धि तेजोलब्धि से विपरीत स्वभाव की होती है । तेजोलब्धि ज्वलनशील और भस्मक होती है; जबकि यह शीतलतादायक है | १०० इस लब्धि से सम्पन्न साधक किसी आर्तप्राणी अथवा तेजोलेश्या के कारण जलते हुए प्राणियों के प्रति करुणाशील होकर, इस लब्धि का प्रयोग करता है, भस्म होने से उनकी रक्षा करता है । यह लब्धि भी तैजस् शरीर से ही उत्पन्न होती है । किन्तु इसके परमाणु गोशीर्ष चन्दन अथवा हिम के समान शीतलतादायक और प्राणियों के लिए सुखदायी होते हैं । (२६) वैयिलब्धि - इस लब्धि के प्रभाव से साधक अपने अनेक रूप बना सकता है, तथा एक ही समय पर विभिन्न स्थानों पर दिखाई दे सकता है, एवं अन्य लोगों को विभिन्न प्रकार के दृश्य भी दिखा सकता है । (२७) अक्षीणमहानसलब्धि - इस लब्धि के प्रभाव से साधक सैकड़ोंहजारों व्यक्तियों को एक ही पात्र से भोजन कराके उनकी क्षुधा तृप्ति कर सकता है; फिर भी उस पात्र में भोजन उतना का उतना ही रहता है; वह भोजन तभी समाप्त होता है, जब साधक स्वयं भोजन करके तृप्त हो जाता है । (२८) पुलाकलब्धि - इस लब्धि से सम्पन्न साधक चक्रवर्ती की सेना को भी पराजित करने में सक्षम होता है । लब्धियाँ अनेक हैं और उनके विभिन्न रूप- स्वरूप तथा शक्ति-सामर्थ्य हैं । ये २८ लब्धियां तो लब्धियों का संक्षिप्त दिग्दर्शन मात्र है । वर्गीकरण की दृष्टि से इन लब्धियों के तीन वर्ग किये जा सकते हैं - ( १ ) ज्ञानलब्धियाँ, (२) शरीरलब्धियाँ तथा (३) पदलब्धियाँ । - इनमें क्रमश: – ७, ८, ६, १२, २०, २१, २२ ये ज्ञानलब्धियाँ हैं । शरीरलब्धियाँ हैं— १, २, ३, ४, ५, ६, १०, ११, १६, २३, २४, २५, २६, २७, २८ । पदलब्धियाँ हैं - १३, १४, १५, १६, १७, १८ । किन्तु इतना सत्य है कि ये सभी लब्धियाँ साधक को संयम और तपः साधना से प्राप्त होती हैं । लब्धियों की शक्तिरूप अवस्थिति साधक योगी के तेजस् शरीर में होती है और इनको अभिव्यक्ति बाहर होती है । वह अभिव्यक्ति ही अन्य लोगों को दिखाई देती है । जब भी योगी इन लब्धियों Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगजन्य लम्धियाँ १०१ का प्रयोग करता है तभी लोगों को उन लब्धियों और योगी की लब्धिसम्पन्नता का ज्ञान हो पाता है। लेकिन लब्धियों के प्रयोग के बारे में साधक को जैन शास्त्रों का स्पष्ट आदेश है कि वह इन लब्धियों का प्रयोग न करे । यदि कभी विवशतावश, अन्य प्राणियों के कष्ट निवारण हेतू अथवा संघ-रक्षा के लिए लब्धि का प्रयोग करना ही पड़े तो लब्धि-प्रयोग के बाद प्रायश्चित्त ग्रहण करना आवश्यक है, अन्यथा साधक विराधक बन जाता है। वस्तुस्थिति यह है कि यद्यपि साधक मोक्ष साधना के लिए संयम-तप की आराधना करता है और ऐसा ही आदेश उसे शास्त्रों में दिया गया है कि तपःकर्म की साधना केवल कर्मनिर्जरा के लिए करनी चाहिए, किसी भी लौकिक कामना से नहीं;१ फिर भी तपःसाधना के लौकिक फलस्वरूप साधक को ये लब्धियाँ प्राप्त हो ही जाती हैं। जैन दर्शन के अनुसार साधक को लब्धि प्राप्त करने के लिए कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं, वे तो प्रासंगिक फल के रूप में स्वतः प्राप्त हो जाती हैं। किन्तु इन आनुषंगिक फलों-लब्धियों का व्यामोह साधक की मोक्ष साधना में बाधक ही बनता है। अतः साधक को इस व्यामोह से दूर रहकर कर्मनिर्जरा एवं मोक्ष साधना में ही लीन रहना चाहिए। यहीं मत महर्षि पतंजलि का भी है, वे भी लब्धियों को मोक्ष साधना में व्यवधान मानते हैं। वस्तुतः लब्धियाँ योग साधना का बाह्य अंग हैं और जैन योग के अनुसार समस्त बाह्य भाव मोक्ष के-आत्म-शुद्धि के बाधक हैं, अतः लब्धियाँ भी मोक्ष साधना में बाधक ही हैं, साधक नहीं। इसलिए न तो इनकी प्राप्ति के लिए साधना करनी चाहिए और न ही इनका प्रयोग । १ दशवकालिक सूत्र ६/४ २ योगशतक, गाथा ८३-८५ ३ पातंजल योगसूत्र ३/३८-ते समाधावुपसर्गाः व्युत्थानेसिद्धयः। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंयतात्मा योगो, - दुष्प्राप्य इति मे मतिः। वश्यात्मना तु यतता, शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥ -मन को वश में न करने वाले पुरुष को योग की प्राप्ति होना बहुत कठिन है। उपाय से आत्मा को वश में करने वाला (साधक) योग को प्राप्त हो सकता है । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग सिद्धान्त और साधना अध्यात्म योग साधना १-योग की आधार भूमि : श्रद्धा और शील [१] (गृहस्थ योगी के साधना सोपान) २-योग की आधार भूमि : श्रद्धा और शील [२] (गृह त्यागी योगी का आचार) ३-विशिष्ट योग भूमिका : प्रतिमायोग साधना ४-जयणायोग साधना (मातृयोग) ५--परिमार्जनयोग साधना (षडावश्यक) ६-ग्रन्थि-भेदयोग साधना ७-तितिक्षायोग साधना ५--प्रेक्षाध्यानयोग साधना ६-भावनायोग १०-बाह्यतपः बाह्य आवरण शुद्धि साधना ११-आभ्यन्तर तपः आत्म शुद्धि की सहज साधना १२-ध्यान योग साधना १३-शुक्लध्यान और समाधियोग Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ योग की आधारभूमि : श्रद्धा और शील [१] [गृहस्थयोगी के साधना-सोपान] श्रद्धा का महत्त्व भव्यभवन के लिए जितना महत्त्व नींव का होता है, उतना ही महत्त्व कार्य में सफलता प्राप्ति के लिए श्रद्धा (अपने लक्ष्य के लिए आदरयुक्त आत्मविश्वास) का होता है। यदि किसी भव्य और उत्तंग भवन में उच्चकोटि की कलाकारी की गई हो, उसका कंगूरा स्वर्णनिर्मित हो, उसमें रत्न जड़े हों किन्तु उसकी नींव कमजोर हो, खोखली हो तो वह आकर्षक तो बहुत होगा किन्तु स्थायी न रह सकेगा। इसी प्रकार श्रद्धाविहीन आचार जन-जन को आकर्षित तो कर सकता है किन्तु होगा अन्दर से खोखला। वह स्थिर नहीं रह सकेगा, साधक को अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँचा सकेगा, ध्येय पर पहुंचने से पहले ही साधक भटक जायेगा, पतित हो जायगा। व्यावहारिक जीवन में जो स्थिति आत्मविश्वास की है, आध्यात्मिक जीवन में वही श्रद्धा की है। श्रद्धा का अभिप्राय अपने ध्येय के प्रति अविचल निष्ठा है । श्रद्धा को ही जैनदर्शन में सम्यक्दर्शन कहा गया है। 'सम्यग्दर्शन' शब्द का अर्थ 'दर्शन' शब्द जैन आगमों में दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। इसका एक - अर्थ है-'देखना' अर्थात् अनाकार ज्ञान'; और दूसरा अर्थ है-श्रद्धा । केवल श्रद्धा ही कार्यकारी नहीं होती; क्योंकि यह मिथ्या भी हो सकती है । श्रद्धा सम्यक् होनी चाहिए । अर्थात् सम्यग्दर्शन ही धार्मिक क्षेत्र में अपेक्षित है। सम्यक् शब्द लगते ही 'दर्शन' में एक विशेष प्रकार की चमक १ साकारं ज्ञानं अनाकारं दर्शनं । -तत्त्वार्थ राजावार्तिक, पृष्ठ ८६ २ (क) उत्तराध्ययन सूत्र २८/१५; (ख) तत्त्वार्थसूत्र (उमास्वाति) १/२; (ग) स्थानांग वृत्ति (अभयदेव सूरि) स्थान १; (घ) नियमसार-तात्पर्यवृत्ति ३ । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ जैन योग : सिद्धान्त और साधना --एक ज्योति आ जाती है, जिसके आलोक में साधक अपने पथ पर निर्बाध गति से बढ़ता जाता है. न कहीं उलझता है और न कहीं भटकता है। श्रद्धायुक्त दर्शन दिव्यदर्शन बन जाता है। व्याकरण की दृष्टि से सम्यक शब्द के तीन प्रमुख अर्थ हैं-प्रशस्त, संगत और शुद्ध । प्रशस्त विश्वास ही सम्यग्दर्शन है। प्रशस्त का एक अर्थ मोक्ष भी है । अतः मोझलक्ष्यी दर्शन हो सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन : स्वरूप और महत्व ___ सम्यग्दर्शन-तत्त्वसाक्षात्कार, आत्म-साक्षात्कार, अन्तर्बोधि, दृष्टिकोण, श्रद्धा, भक्ति आदि लक्षणात्मक या स्वाभाविक अर्थों को अपने आप में समेटे हुए है। यों सम्यग्दर्शन के अनेक लक्षण विभिन्न आचार्यों ने बताये हैं ; किन्तु उनमें से प्रमुख हैं प्रथम-यथार्थ तत्त्वश्रद्धा द्वितीय-देव-गुरु-धर्म पर दृढ़श्रद्धा तृतीय-स्व-पर का भेद दर्शन (भेदविज्ञान) चतुर्थ-शुद्ध आत्मा की रुचि-शुद्ध आत्मा का अनुभव । वे सभी लक्षण परस्पर भिन्न नहीं, अपितु विभिन्न अपेक्षाएँ लिए हुए हैं, एक ही सम्यग्दर्शन को विभिन्न अपेक्षाओं से देखा गया है । ये परस्पर एक-दूसरे से संबंधित हैं। जिसे यथार्थ तत्त्वश्रद्धा होगी, उसे स्व-पर का भेद-विज्ञान हो ही जायेगा और फिर उसे शुद्ध आत्मा की रुचि जगेगी तो उसे आत्मानुभव होगा ही, तथा आत्मा का अनुभव जब उसे अंतरंग में होगा तो बाह्यरूप से उसकी श्रद्धा सच्चे देव-धर्म-गुरु पर स्वयमेव ही जम जायेगी । अथवा यों भी कह सकते हैं कि जो तत्वों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर लेगा, उसे स्वयं ही देव-गुरुधर्म पर विश्वास जम जायेगा, फिर उसे स्व-पर का भेद-विज्ञान होकर आत्मअनुभव भी होगा। इन दोनों कथनों कोई भिन्नता नहीं, सिर्फ अपेक्षाभेद है। लेकिन आत्मिक उन्नति के लिए आत्मानुभवरूप सम्यग्दर्शन से बढ़कर अन्य कोई उत्तम पाथेय नहीं है। आत्मश्रद्धा; अपने निज के स्वरूप पर अटल विश्वास है । यह विश्वास, श्रद्धा अथवा सम्यग्दर्शन योग के साधक के लिए सर्वोत्तम साधन है। ___ सम्यग्दर्शन (श्रद्धा) समस्त गुणों का बोज है। इस श्रद्धा का आश्रय Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग की आधारभूमि : श्रद्धा और शील [१] १०५ लेने वाले साधक को चित्तप्रसाद, वीर्य, उत्साह, स्मृति, एकाग्रता, समाधि और प्रज्ञाप्रकर्ष आदि साधन अपने आप ही प्राप्त होते चले जाते हैं। इसका महत्त्व बताते हुए जैनागम आचारांग सूत्र में तो यहाँ तक कहा गया है सम्यग्दर्शी साधक पापों का बंध नहीं करता। योगसूत्र के व्यास भाष्य में इसे माता के समान रक्षिका बताते हुए कहा है माता के समान कल्याण करने वाली यह श्रद्धा साधक की रक्षा पुत्र के समान करती है, अर्थात् जिस तरह माता अपने पुत्र की रक्षा करती है, उसी तरह श्रद्धा भी साधक की रक्षा करती है। यह श्रद्धा अन्तःकरण में विवेकपूर्वक वस्तु तत्त्व, ज्ञेय पदार्थ के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान करने की तीव्र रुचि-तीव्र अभिलाषा रूप होती है।। सम्यग्दर्शन किसी आत्मा को स्वतः (जन्मान्तरीय उत्तम संस्कारों के प्रभाव से अपने आप ही) हो जाता है और किसी को परतः (सत्शास्त्रों के स्वाध्याय तथा सद्गुरुओं की सत्संगति से) प्राप्त होता है। सम्यग्दर्शन का अंकुरण होते ही व्यक्ति में आन्तरिक और बाह्य विशिष्ट लक्षणों का प्रादुर्भाव हो जाता है। अन्तरंग में उसकी रुचि तथा झुकाव आत्मा की ओर हो जाता है, परिणामस्वरूप उसे भौतिक सुख-साधन फीके व तुच्छ लगने लगते हैं; तथा बाह्य रूप से उसमें पांच लक्षण प्रगट हो जाते हैं-(१) सम, (२) संवेग, (३) निर्वेद, (४) अनुकम्पा और (५) आस्तिक्य । (१) सम (शम)-उदय में आये क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कषायभावों की उपशांति/शमन करना शम है। (२) संवेग-मोक्षविषयक तीव्र अभिलाषा उत्पन्न हो जाती है। (३) निर्वेद-सांसारिक विषय-भोगों के प्रति विरक्ति अर्थात् उनको हेय समझकर उनमें उपेक्षा का भाव जगना। १ समत्तदंसी ण करेइ पावं । -आचारांग १/३/२ २ सा हि जननीव कल्याणी योगिनं पाति । -योगसूत्र, व्यास भाष्य १/२० ३ कृपा-प्रशम-संवेगनिर्वेदा स्तिक्य लक्षणाः । गुणा भवन्तु यच्चित्ते स स्यात् सम्यक्त्वभूषितः ।। -गुणस्थान क्रमारोह, श्लोक २१ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ जैन योग : सिद्धान्त और साधना (४) अनुकम्पा-दुःखी जीवों पर दया, निःस्वार्थ भाव से उनके दुःख दूर करने की इच्छा और तदनुसार प्रयास करना । (५) आस्तिक्य–सर्वज्ञकथित तत्त्वों में किंचित् मात्र शंका न करके पूर्ण विश्वास रखना-अटल आस्था; अथवा आत्मा एवं लोक सत्ता में पूर्ण विश्वास करना। आस्तिक्य गुण का धारी पुरुष आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी होता है' अर्थात् इन सभी विषयों के बारे जैसा सर्वज्ञ ने कहा है, वैसा ही यथातथ्य विश्वास करता है। इन पाँच लक्षणों से आत्मगत सम्यक्त्व की पहचान होती है अर्थात् ये पांचों लक्षण सम्यग्दर्शन के परिचायक हैं। ये लक्षण व्यक्ति के लिए अपने सम्यक्त्व को परखने की कसौटी भी हैं। इस कसौटी पर कसकर साधक स्वयं अपनी पहचान भी कर सकता है कि वह सम्यक्त्वी है भी या नहीं। विशुद्ध सम्यग्दर्शन के लिए उसके २५ मल-दोषों का त्यागना आवश्यक है । ये पच्चीस दोष हैं मूढत्रयं मदश्चाष्टौ, तथा अनायतानि षट् । अष्टौ शंकादयश्चेति दृग्दोषाः पंचविंशतिः ॥ -उपासकाध्ययन २१/२४१ अर्थात्-तीन मूढ़ताएँ, आठ मद, छह अनायतन और आठ शंका आदि दोष-ये सम्यग्दर्शन के २५ मल अथवा दोष हैं जो सम्यक्त्व को मलिन करते हैं। - (१) तीन मूढ़ताएं-(क) देवमूढ़ता-रागी-द्वेषी देवों की पूजा-उपासना करना। (ख) गुरुमूढ़ता-निन्द्य आचरण वाले तथाकथित ढोंगी साधुओं, जिनमें परिग्रह आदि अनेक दोष हों, उन्हें गुरु मानना । (ग) शास्त्रमूढ़ता-काम-क्रोध आदि कषाय बढ़ाने वाले शास्त्रों को सत्शास्त्र मानना। इसका दूसरा नाम लोकमूढ़ता भी है, इसका आशय है कि लोगों की देखा-देखी गलत परम्पराओं का अनुकरण करना। (२) मद आठ हैं-(१) जातिमद, (२) कुलमद, (३) बलमद, (४) १ से आयावई, लोयावाई, कम्मावाई, किरियावाई। -आचारांग २/१/५ इस विषय के विस्तृत विवेचन के लिए देखिए-श्री जैन तत्व कलिका, (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), छठी कलिका, पृष्ठ १०५-२०२ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग को आधारभूमि : श्रद्धा और शील [१] १०७ लाभमद, (५) ज्ञानमद, (६) तपमद, (७) रूपमद, (८) ऐश्वर्यमद या प्रभुत्वमद । इन मदों को करना सम्यक्त्व में दोष लगाना है। (३) छह अनायतन-(१) मिथ्यादर्शन, (२) मिथ्याज्ञान, (३) मिथ्याचारित्र, (४) मिथ्यादृष्टि, (५) मिथ्याज्ञानी, (५) मिथ्याचारित्री-ये छह अनायतन कहलाते हैं । इनको त्याग देना चाहिए। ___ (४) आठ दोष हैं-(१) शंका, (२) कांक्षा, (३) विचिकित्सा, (४) मूढ़दृष्टित्व, (५) अनुपगृहन, (६) अस्थिरीकरण, (७) अवात्सल्य और (८) अप्रभावना । इन दोषों से सम्यक्त्व को मुक्त रखना आवश्यक है। ___ इन दोषों के विपरीत सम्यक्त्व के आठ गुण हैं-(१) निःशंकित्व, (२) निष्कांक्षित्व, (३) निविचिकित्सा, (४) अमूढ़दृष्टित्व, (५) उपबहण या उपगृहन, (६) स्थिरीकरण, (७) वात्सल्य और (८) प्रभावना। इन गुणों से सम्यक्त्व की चमक और बढ़ जाती है। किसी भी कार्य में सफलता प्राप्ति में शंका बहत बड़ी बाधा है। इससे व्यक्ति का मनोबल क्षीण हो जाता है और उसका पतन हो जाता है, इसीलिए आचारांग सूत्र में कहा गया हैवितिगिछा समावणेण अप्पाणं णो लमति समाधि । -आचारांग अ० ५, उद्देशक ५ -अर्थात्-संशयग्रस्त आत्मा को समाधि प्राप्त नहीं होती। इसलिए सम्यग्दर्शन को शुद्ध एवं दृढ़ बनाये रखने के हेतु इसके २५ मल-दोषों का टालना और गुणों को अपनाना अति आवश्यक है। त्याग-योग के साधक के लिए शुद्ध श्रद्धा (सम्यग्दर्शन) के अतिरिक्त दूसरा आवश्यक गुण त्याग है। जब तक साधक में त्यागवृत्ति का उदय नहीं होता वह योग के मार्ग पर आगे नहीं बढ़ सकता। त्यागवृत्ति-श्रद्धा का क्रियात्मक रूप है। त्यागवृत्ति में एषणाओं' का त्याग ही प्रधान है । एषणाएँ तीन हैं(१) लोकषणा, (२) पुत्रषणा और (३) धनादि की एषणा । इन तीनों ही एषणाओं का त्याग आवश्यक है क्योंकि इनसे योगविघातक विषय-कषायों को पोषण मिलता है। १ एषणा का अर्थ इच्छा, अभिलाषा है । २ णो लोगस्सेसणं चरे। -आचारांग अ० ४, उ०१, सूत्र २२६. Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ जन योग : सिद्धान्त और साधना भावशुद्धि-भाव शुद्धि के बिना साधक की कोई भी क्रिया सफल नहीं हो सकती । इसीलिए योग प्राप्ति के लिए भावशुद्धि आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है। क्रिया शरीर है और भाव आत्मा। जिस प्रकार आत्मा के अभाव में शरीर निर्जीव और जड़वत् रह जाता है उसी प्रकार भावहीन क्रिया भी शून्य और निष्फल रहती है। अन्तरंग आशय का नाम ही भाव है और इसी अंतरंग आशय की शुद्धि एवं निर्मलता ही भावशुद्धि है। इसी को शुभ और शुद्ध अध्यवसाय भी कहते हैं। इस प्रकार शुद्ध श्रद्धा, त्यागवृत्ति और भावशुद्धि-वे सद्गुण हैं, जिनके उपार्जन से व्यक्ति योग-मार्ग पर चलने का अधिकारी (पात्र) बन जाता है। शुद्ध श्रद्धा अथवा सम्यग्दर्शन जैन योग का सर्वप्रथम और महत्त्वपूर्ण आधार है, नींव है, जिस पर जैन योग का समूचा महल खड़ा है। सम्पूर्ण आचार, योगाचार इसी मूलभित्ति पर आधारित है। इसलिए इसका पालन अतिचार रहित करना चाहिए। सम्यग्दर्शन के पाँच अतिचार ये हैं-(१) शंका, (२) कांक्षा, (३) विचिकित्सा, (४) मिथ्यात्वियों की प्रशंसा और (५) मिथ्यात्वियों से अधिक सम्पर्क अथवा मिथ्यादृष्टियों का संस्तव ।' सम्यक्ज्ञान सम्यग्दर्शन के लिए जिन तत्त्वों पर श्रद्धान/विश्वास करना अपेक्षित है, उनको विधिवत् सही ढंग से जानना ही सम्यग्ज्ञान है। दूसरे शब्दों में, अनेक धर्मयुक्त 'स्व' तथा 'पर' पदार्थों को जानना ही सम्यग्ज्ञान है।' सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग्ज्ञान का होना असम्भव है। आत्मस्वरूप को जानना ही सम्यग्ज्ञान है। सम्यग्ज्ञान के तीन दोष हैं-(१) संशय, (२) विपर्यय तथा (३) अनध्यवसाय । अतः इन तीनों दोषों को दूर करके 'स्व' और 'पर' पदार्थों को जानना चाहिए। १ योगशास्त्र २/१७ २ उत्तराध्ययन सूत्र २८/३५-नाणेण जाणइ भावे। ३ स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् । -प्रमेयरत्नमाला १ ४ सम्यग्ज्ञानं कार्य सम्यक्त्वं कारणं वदन्ति जिनाः। ज्ञानाराधन मिष्टं सम्यक्त्वानन्तरं तस्मात् ॥ कारणकार्यविधानं समकालं जायनोरपि हि । दीपप्रकाशयोरिव सम्यक्त्वज्ञानयोः सुघटम् ।। -पुरुषार्थ सिद्ध युपाय ३३,३४ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग की आधारभूमि : बद्धा और शील [१] १०६. योग-मार्ग के साधक के लिए जितना सम्यग्दर्शन आवश्यक है, उतना सम्यग्ज्ञान भी है। जब तक वह तत्त्वों का यथार्थ स्वरूप नहीं जानेगा तब तक उसकी श्रद्धा शुद्ध कैसे हो सकती है। और जब तक श्रद्धा तथा ज्ञान शुद्ध नहीं होंगे तब तक उसका चारित्र (आचरण) भी कैसे शुद्ध हो सकता है । इसीलिए साधक को प्रेरणा दी गई है कि पहले ज्ञान से तत्त्वों को जाने, फिर उन पर श्रद्धा करे और तब आचरण करे और तप से आत्मा को परिशुद्ध-निर्मल करे। सम्यक्चारित्र सम्यग्दर्शन-ज्ञान के अनन्तर यह (सम्यक्चारित्र) जैन योग का दूसरा आधार है। सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन) की उपलब्धि और सम्यग्ज्ञान की आराधना के अनन्तर साधक का चारित्र सम्यक्चारित्र हो जाता है। इसका कारण यह है कि उसकी दृष्टि परिशुद्ध और यथार्थग्राहिणी बन जाती है। उसका ज्ञान यथार्थ वस्तुतत्त्व और उसके वास्तविक स्वरूप को जान लेता है। तब साधक जितनी भी योग-क्रियाएँ करता है, वे सब सम्यग्चारित्र बन जाती हैं। चारित्र का लक्षण बताते हुए कहा गया है असुहादो विणिवित्ति सुहे पावित्ति य जाण चारित्तं । अर्थात्-अशुभ से निवृत्ति और शुभ या शुद्ध में प्रवृत्ति करना, चारित्र है। ज्ञान को आचरण में लाना, यही चारित्रधर्म है तथा इसी का दूसरा नाम सम्यक्चारित्र है। सम्यक्चारित्र के दो भेद आगमों में श्रमण और श्रावक की अपेक्षा चारित्रधर्म अथवा सम्यकचारित्र के दो भेद किये गये हैं-(१) अनगारधर्म और (२) आगारधर्म ।२ अनगारधर्म श्रमण अथवा साधु का चारित्र है और आगारधर्म गृहस्थ का। १ नाणेण जाणइ भावे, दंसणेण य सद्दहे । चरित्तण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झई ॥ -उत्तराध्ययन २८/३५ २ चरित्तधम्मे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-अणगारचरित्तधम्मे, अगारचरित्तधम्मे चेव। -स्थानांग, स्थान २ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० जन योग : सिद्धान्त और साधना आगार-चारित्र आगार-चारित्र के भी गृहस्थ की भूमिका की अपेक्षा से दो भेद हैं(१) सामान्य गृहस्थधर्म और (२) विशेष गृहस्थधर्म । विशेष गृहस्थधर्म की पूर्व पीठिका सामान्य गृहस्थधर्म है। जिस प्रकार विशाल भवन बनाने से पहले भूमि समतल की जाती है और गहरी नींव खोदी जाती है उसी प्रकार विशेष गृहस्थधर्म ग्रहण करने से पहले सामान्य गृहस्थधर्म का पालन करना आवश्यक है। सामान्य गृहस्थधर्म के पालन से व्यक्ति मार्गानुसारी (धर्म तथा योग के मार्ग को अनुसरण करने योग्य) बनता है। मार्गानुसारी के ३५ गुण' शास्त्रों में बताये गये हैं। वे ये हैं (१) न्यायनीति से धन का उपार्जन करने वाला हो। (२) शिष्ट पुरुषों के आचार की प्रशंसा करने वाला हो। (३) अपने कुल और शील में समान; किन्तु भिन्न गोत्र में विवाह सम्बन्ध करने वाला। (४) पापों से डरने वाला-पापभीरु हो। (५) प्रसिद्ध देशाचार का पालन करने वाला हो। (६) निन्दक न हो-किसी भी और विशेष रूप से राजा तथा राज्यकर्मचारियों की निन्दा न करे। (७) एकदम खुले स्थान पर अथवा बिल्कुल ही गुप्त स्थान पर घर न बनाने वाला। (८) घर में बाहर निकलने के अनेक द्वार न रखना। (६) सदाचारी पुरुषों की संगति करना। (१०) माता-पिता की सेवा-भक्ति करना। (११) चित्त में क्षोभ उत्पन्न करने वाले अर्थात् झगड़े-टंटे के स्थान से दूर रहना। (१२) कोई भी निन्दनीय कार्य न करना। (१३) आय के अनुसार ही व्यय करना। १ (क) आचार्य हरिभद्र-धर्मबिन्दु, प्रकरण १ (ख) आचार्य हेमचन्द्र-योगशास्त्र १/४७-५६ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग को आधारभूमि : श्रद्धा और शील [१] १११ (१४) अपनो आर्थिक स्थिति के अनुकूल वस्त्र पहनना; आशय यह है कि विशेष तड़क-भड़क के वस्त्र न पहने, सामान्य किन्तु साफ वस्त्र पहने, वेश ऐसा हो कि गंभीरता की छाप पड़े। (१५) बुद्धि के आठ गुणों से युक्त होकर धर्म श्रवण करना। (१६) अजीर्ण होने पर भोजन न करना। (१७) नियत समय पर प्रसन्नचित्त होकर भोजन करना । (१८) धर्म से मर्यादित होकर अर्थ और काम पुरुषार्थ का सेवन करे अर्थात् अर्थार्जन एवं काम-सेवन में धर्म की मर्यादा का ध्यान रखे । (१६) दीन, असहाय, अतिथि और साधुजनों का यथायोग सत्कार करना। (२०) कभी दुराग्रह के वश में न हो अर्थात् दुराग्रही न बने । (२१) गुणग्राही हो, जहाँ से भी गुण मिले, उन्हें ग्रहण करे । (२२) देश-काल के प्रतिकूल आचरण न करे । (२३) अपनी शक्ति और सामर्थ्य को समझे, शक्ति होने पर ही किसी में हाथ डाले। (२४) सदाचारी तथा अपने से अधिक ज्ञानवान व्यक्तियों की विनय काम एवं भक्ति करे। . (२५) कर्तव्यपरायण हो अर्थात् जिनके पालन-पोषण का भार उसके ऊपर हो, उनका यथाविधि पालन-पोषण करे। (२६) दीर्घदर्शी हो अर्थात् आगे-पीछे का विचार करके कार्य करे। (२७) अपने हित-अहित एवं भलाई-बुराई को समझे । (२८) लोकप्रिय हो, अर्थात् अपने सदाचार और सेवाकार्य द्वारा जनता का प्रेम संपादन करे। (२९) कृतज्ञ हो-अपने प्रति किये गये उपकार को नम्रतापूर्वक स्वीकार करे। (३०) लज्जाशील हो-अनुचित कार्य करने में लज्जा का अनुभव करे। (३१) दयावान हो। (३२) सौम्य हो-चेहरे पर शांति और सौम्यता झलकती हो। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग : सिद्धान्त और साधना (३३) परोपकार करने में उद्यत रहे । दूसरों पर उपकार करने का अवसर आने पर पीछे न हटे । ११२ (३४) काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य - इन छह आन्तरिक शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाला हो । (३५) इन्द्रियों को अपने वश में रखे । यद्यपि इनमें से कुछ गुण ऐसे भी हैं, जो सिर्फ लोक-जीवन से ही सम्बन्धित हैं, प्रत्यक्ष रूप से इनका धर्म व योगमार्ग से कोई सम्बन्ध नहीं दिखाई देता किन्तु विशेष श्रावक-धर्म की सुदृढ़ पृष्ठभूमि के लिए इनका पालन करना भी आवश्यक है । इसका कारण यह है कि जीवन एक अखण्ड वस्तु है । धर्मस्थानक में कुछ और घर तथा व्यापारिक संस्थान में कुछ — इस प्रकार का दोहरा आचरण तो ढोंग और पाखण्ड का सेवन हो जायेगा । परिणामस्वरूप उसका समग्र आचरण पतित हो जायगा और पतित आचरण वाला मनुष्य कभी भी आध्यात्मिक दृष्टि से उच्च श्र ेणी पर नहीं चढ़ सकता । अतः श्रावक बनने के लिए, विशेष गृहस्थधर्म की भूमिका तक पहुँचने के लिए इन मार्गानुसारी के ३५ गुणों को धारण करना आवश्यक है । तभी योगमार्ग पर चलने की क्षमता आ सकती है । गृहस्थ का विशेष धर्म सामान्य गृहस्थधर्म का पालन करने के साथ-साथ सद्गृहस्थ को आत्मिक सुख की प्राप्ति के लिए विशेष गृहस्थधर्म की ओर उन्मुख हो जाना चाहिए। यह विशेष गृहस्थधर्म ही योग की आधारभूमि है । विशेष गृहस्थधर्म श्रावक के बारह व्रत रूप है । उसे इन व्रतों का पालन निरतिचार रूप से करना चाहिए। उनका ( व्रतों का ) अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। जैन आगमों में चार प्रकार का अतिक्रमण बताया गया है (१) अतिक्रम - व्रत को उल्लंघन करने का मन में ज्ञात या अज्ञात रूप से विचार आना । (२) व्यतिक्रम - व्रत का उल्लंघन करने के लिए प्रवृत्ति करना । (३) अतिचार - आंशिक रूप से व्रत का उल्लंघन करना । (४) अनाचार - व्रत का पूर्णरूप से छूट जाना । इनमें अतिक्रम, व्यतिक्रम और अतिचार तो व्रतों के दोष हैं । अनाचार तो व्रत का सर्वथा उल्लंघन है ही; यह तो श्रावक करता ही नहीं; किन्तु Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग की आधारभूमि : श्रद्धा और शील [१] ११३ उसे अपने स्वीकृत व्रतों में तनिक भी दोष नहीं लगाना चाहिए, निर्दोष रूप से व्रतों का पालन करना चाहिए। श्रावक के बारह व्रत ये हैं-(१) पाँच अणुव्रत, (२) तीन गुणव्रत और (३) चार शिक्षावत । श्रावक इन सभी व्रतों को दो करण और तीन योग से ग्रहण करता है। योग तीन हैं-मन, वचन और काया तथा करण भी तीन हैं—कृत, कारित, अनुमोदना । इनमें श्रावक अनुमोदना का त्यागी नहीं हो पाता।' अणुव्रत श्रावक के अणुव्रत पाँच हैं—(१) स्थूल प्राणातिपातविरमण, (२) स्थूल मृषावादविरमण, (३) स्थूल अदत्तादानविरमण, (४) स्वदार-सन्तोष व्रत (५) स्थूल परिग्रहपरिमाण व्रत अथवा इच्छा परिमाण व्रत । (१) स्थल प्राणातिपातविरमण इसका दूसरा नाम अहिंसाणुव्रत है। इसमें श्रावक स्थूल अथवा त्रस जीवों की हिंसा का त्याग करता है। ___ संसार में स्थावर और त्रस अथवा सूक्ष्म और स्थूल दो प्रकार के जीव हैं। पृथ्वीकाय, जलकाय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय-ये पाँचों प्रकार के जीव स्थावर कहलाते हैं। गृहस्थ श्रावक इन स्थावरकाय के जीवों की हिंसा का त्याग नहीं कर पाता, क्योंकि गार्हस्थिक तथा सामाजिक जीवन सूचारु रूप से बिताने के लिए वह इन जीवों की हिंसा से बच नहीं सकता है; फिर भी वह इनकी हिंसा भी कम से कम अर्थात् मर्यादित रूप से ही करता है। श्रावक त्रस जीवों की हिंसा का त्यागी होता है। उसमें भी वह निरपराधी त्रस जीवों की हिंसा का ही त्याग कर पाता है, अपराधी जीवों की हिंसा का त्याग नहीं कर पाता। हिंसा के प्रमुख रूप से दो भेद हैं-(१) भाव-हिंसा और (२) द्रव्यहिंसा । मन-वचन-काय में राग-द्वेष आदि कषायों की वृत्ति भाव-हिंसा है और कषायों की तीव्रता के आवेश में बहकर अपने को अथवा दूसरे को कष्ट देना, पीडित करना द्रव्याहिंसा है। श्रावक इन दोनों प्रकार की हिंसाओं का यथाशक्ति त्याग करता है। हिता १ श्रावकधर्म के विशेष अध्ययन हेतु पढ़ें-जन तत्त्व कलिका : अष्टम कलिका (आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज) Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ जैन योग : सिद्धान्त और साधना श्रावकाचार की अपेक्षा से हिंसा के चार भेद किये गये हैं-(१) आरम्भी, (२) उद्योगी, (३) विरोधी और (४) संकल्पी। गृहस्थ द्वारा घर-गृहस्थी के आरम्भ में जो हिंसा हो जाती है, वह आरम्भी हिंसा है, तथा उद्योग, व्यापार-धन्धे में होने वाली हिंसा उद्योगी है। किसी विरोधी या अपराधी जीव को भी दण्ड देना गृहस्थ के लिए जरूरी है, यह विरोधी हिंसा है; किन्तु दण्ड भी बदले की भावना से नहीं देना चाहिए, सुधार की भावना रखनी चाहिए। ये तीन प्रकार की हिंसाएँ गृहस्थ के लिए मजबूरी हैं, करनी ही पड़ती हैं, इसलिए वह इन तीन प्रकार की हिंसाओं का त्याग नहीं कर सकता, सिर्फ संकल्पी हिंसा का त्याग करता है। संकल्पी हिंसा का आशय है-किसी भी निरपराधी त्रस जीव (द्वीन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पाँच इन्द्रिय वाले जीव) की संकल्पपूर्वक, जानबूझकर राग-द्वेष-कषायों के आवेश में आकर हिंसा करना। ऐसी हिंसा का त्याग श्रावक कर देता है। यद्यपि श्रावक अपने अहिंसाणुव्रत का पालन यथाशक्ति शुद्ध रूप से करने का प्रयास करता है, फिर भी कुछ दोष अथवा अतिचार लगने की सम्भावना तो रहती हो है। अतः उन दोषों-अतिचारों से बचना चाहिए। अहिंसाणुव्रत के पाँच अतिचार' ये हैं (१) बन्ध-इसका अर्थ बन्धन है। किसी प्राणी को रस्सी आदि से बाँधना, उसे उसके अभीष्ट स्थान पर जाने से रोकना, अपने अधीनस्थ कर्मचारी को निर्दिष्ट समय के बाद भी रोके रखना आदि । शारीरिक, आर्थिक, सामाजिक आदि सभी प्रकार के अनुचित और दवाबपूर्ण बन्धन इस अतिचार में परिगणित होते हैं। (२) वध-वध का अर्थ यहाँ प्राणघात नहीं है, क्योंकि अहिंसाणवती श्रावक किसी को जान से तो मार नहीं हो सकता। वध का अभिप्राय है किसी त्रस प्राणी को चाबुक, डडे आदि से पीटना, उस पर अनावश्यक आर्थिक भार डालना, किसी की लाचारी का अनुचित लाभ उठाना, अनैतिक ढंग से शोषण करना आदि। ऐसी सभी प्रवृत्तियाँ जिनसे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से त्रस प्राणियों का दिल दुखता हो, उनकी हिंसा होती हो, वह वध नाम का अतिचार है। (३) छविच्छेद–किसी भी त्रस प्राणी का अंग-उपांग काट देना, आजी १ उपासकदशांग, अध्ययन १ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग को आधारभूमि : श्रद्धा और शील [१] ११५ विका का संपूर्ण रूप से अथवा आंशिक रूप से नाश कर देना, धन्धा, रोजगार बन्द करा देना, उचित पारिश्रमिक से कम देना-सभी छविच्छेद नाम के अतिचार हैं। (४) अतिभारारोपण-बैल, घोडा, ऊँट आदि पशुओं तथा कुली आदि पर उनको शक्ति से अधिक भार लादना, उनकी शक्ति से अधिक काम लेना अतिभारारोपण है। (५) भक्तपानविच्छेद-अपने अधीनस्थों को समय पर भोजन-पानी न देना, समय पर वेतन न देना आदि; जिससे अभावों के कारण उन्हें कष्ट हो। __ (२) स्थूल मृषावादविरमण इसका दूसरा नाम सत्याणुव्रत है। सत्य बात को अपने स्वार्थ या द्वेषवश बदल देना, कुछ का कुछ कह देना, ऐसी बात कहना जिससे किसी का दिल दुखे, उसकी हानि हो-यह सब असत्य है। ऐसा असत्य सत्याणुव्रती श्रावक नहीं बोलता।। इस व्रत में श्रावक पाँच महान असत्यों का त्याग कर देता है-(१) कन्यालीक-कन्या अर्थात् मनुष्यों के सम्बन्ध में झूठ बोलना, (२) गवालीकपशुओं के बारे में झठ बोलना, (३) भूम्यालीक-भूमि, खेत, मकान आदि के बारे में झूठ बोलना (४) न्यासापहार-किसी की रखी हुई धरोहर को झूठ बोलकर हड़प जाना, (५) कूट साक्षी-झूठी गवाही देना। इस व्रत के पाँच अतिचार हैं-(१) सहसाभ्याख्यान-बिना अच्छी तरह जाने-समझे तथा सोचे-विचारे किसी पर झूठा दोष लगा देना, (२) रहस्याख्यान-किसी को गुप्त बात प्रगट कर देना, (३) स्वदारमंत्रभेद-अपनी स्त्री की गुप्त बात प्रकट कर देना, (४) मषोपदेश-किसी को अनाचार तथा झूठ बोलने की शिक्षा देना, गलत सलाह देना, (५) कूटसाकी-झठी गवाही देना। (३) स्थूल अदत्तादानविरमण इसे अचौर्याणवत भी कहा जाता है। श्रावक इसमें स्थूल चोरी का त्याग करता है । स्थूल चोरी के अनेक भेद हैं, यथा-सेंध लगाना, गाँठ काटना, ठगी, राहजनी आदि । जिस क्रिया में अनुचित उपायों से दूसरे का धन, जमीन आदि का अपहरण किया जाता है, वह सब स्थूल चोरी है । । तस्करी आदि चोरी के ही रूप हैं। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ जैन योग : सिद्धान्त और साधना इसके पाँच अतिचार हैं-(१) स्तेनाहृत-चोरी का माल खरीदना या रखना, (२) तस्कर प्रयोग-चोरों को चोरी करने के लिए उकसाना, उन्हें चोरी के नये-नये तरीके बताना, (३) विरुद्ध राज्यातिक्रम-राज्य के नियमों का उल्लंघन करना, जैसे-कर-चोरी, चुंगी-चोरी आदि, (४) कूटतुला कूटमान तोल-माप के झठे पैमाने रखना, कम तोलना, कम नापना आदि, (५) तत्प्रतिरूपक व्यवहार-अच्छी वस्तु में बुरी वस्तु की अथवा अधिक कीमत वाली वस्तु में कम कीमत की वस्तु मिला देना। (४) स्वदारसन्तोषव्रत इस व्रत में श्रावक अपनी विवाहिता स्त्री के अतिरिक्त अन्य सभी स्त्रियों के साथ मैथुन (अब्रह्मचर्य) का त्याग कर देता है। इस व्रत के पाँच अतिचार हैं-(१) इत्वरिकापरिग्रहोतागमन-कामसेवन के अभिप्राय से किसी अन्य स्त्री (वेश्या, विधवा, Society girl, Callgirl, रखैल (Kept) आदि-जिनका कोई स्वामी अथवा पति न हो) को लोभ देना. (२) अपरिग्रहीतागमन-किसी अविवाहित अथवा कुमारी कन्या को कामबुद्धि से प्रलोभित करना आदि,' (३) अनंगक्रीड़ा-काम-सेवन के अंगों के अलावा अन्य अंगों से काम-तृप्ति करना, यथा-हस्तमैथुन, गुदामैथुन आदि; (४) परविवाहकरण-अपने पुत्र-पुत्रियों और आश्रितों का विवाह करना तो श्रावक का सामाजिक दायित्व माना जाता है, इसलिए करना ही पड़ता है किन्तु श्रावक को अन्य लोगों के विवाह के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए, यह अतिचार है, (५) काम-भोगतोवाभिलाषा-काम-भोग की अधिक लालसा रखना। (५) इच्छापरिमाण व्रत परिग्रह का सर्वथा त्याग गृहस्थ के लिए सम्भव नहीं है, क्योंकि उसे अपने तथा अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए, बच्चों की शिक्षा के लिए तथा समाज में अपनी मान-मर्यादा बनाये रखने के लिए और अतिथियों के सत्कार तथा साधुओं को दान देने के लिए आवश्यक साधन, धन तथा सामग्री जुटानी पड़ती है। इसलिए वह अपनी मर्यादा तथा स्थिति के अनुसार १ इत्वरिकापरिग्रहीतागमन और अपरिगृहीतागमन-ये दोनों साधन जुटाने तक ही अतिचार रहते हैं, यदि व्यक्ति उनके साथ काम-सेवन कर लेता है, तब तो अनाचार हो जाता है और व्रत भंग हो जाता है । २ काम-भोग से अभिप्राय पाँचों इन्द्रियों के भोग से है। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग को आधारभूमि : श्रद्धा और शोल [१] ११७ इच्छाओं को सीमित करता है और तदनुसार बाह्य परिग्रह का परिमाण करता है। इच्छा को भाव-परिग्रह कहा गया है और धन-साधन आदि को द्रव्यपरिग्रह । श्रावक इन दोनों का ही परिमाण करता है। परिग्रहपरिमाणवत के पाँच अतिचार हैं-(१) क्षेत्रवास्तु परिमाणातिक्रम-क्षेत्र (खुली जमीन, यथा-खेत, बगीचे, भूमि आदि) और वास्तु (Covered area-मकान, दूकान आदि) इनका जितना परिमाण किया हो, उसे बढ़ा लेना-अधिक कर लेना, (२) हिरण्य-सुवर्ण परिमाणातिक्रम-सोनेचाँदी (बने हुए जेबर, आभूषण, बर्तन, व अन्य उपकरण आदि) का जितना परिमाण किया हो, उसे बढ़ा लेना, (३) धन-धान्य परिमाणातिक्रम-धन (रुपया, पैसा, करन्सी नोट, शेयर, बैंक में जमा राशि आदि) धान्य (अनाज, दाल आदि) के परिमाण को बढ़ा लेना, (४) द्विपद-चतुष्पद परिमाणातिक्रम-द्विपद (दास-दासी; दो पैर वाले पक्षी-तोता-मैना-मोर आदि), चतुष्पद (गाय, बैल, घोड़ा, हाथी आदि; इसी में आधुनिक युग में मोटर, साइकिल, स्कूटर आदि की गणना की जाती है) के परिमाण का अतिक्रमण करना; (५) कुप्य परिमाणातिक्रम-घर अथवा व्यापार में उपयोग में आने वाले फर्नीचर, बर्तन, पलंग, मेज, कुर्सी, आलमारी आदि की जितनी मर्यादा निश्चित की हो, उसे बढ़ा लेना। तीन गुणव्रत गुणव्रत उन्हें कहा जाता है जो पाँचों अणुव्रतों की रक्षा करते हैं, उनमें स्वीकृत की हुई मर्यादाओं को और भी संकुचित करते हैं तथा अणुव्रतों के गुणों में वृद्धि करते हैं । ये संख्या में तीन हैं। (१) दिक्परिमाण व्रत पाँचवें अणव्रत-परिग्रह परिमाणवत में धन-सम्पत्ति की मर्यादा की जाती है और इस दिशा परिमाण व्रत में गमनागमन की मर्यादा निश्चित की जाती है। यह मध्यलोक तो असंख्यात योजन विस्तृत है ही; किन्तु यह जाना हुआ विश्व भी काफी बड़ा है और मनुष्य इसमें स्वाथमूलक प्रवृत्तियाँ करता ही रहता है। आजकल वैज्ञानिक साधनों के उपलब्ध होने से कभी आसमान की ऊँचाइयों को छूता है तो कभी समुद्र की गहराइयों को नापता है, उसके गमनागमन की कोई सीमा ही नहीं रही। इस व्रत में सुश्रावक गमनागमन की सीमा निश्चित करता है और अपनी निश्चित सीमा से बाहर Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८. जैन योग : सिद्धान्त और साधना किसी भी प्रकार की स्वार्थमूलक प्रवृत्ति नहीं करता। वह दशों दिशाओं में अपने गमनागमन की सीमा निश्चित कर लेता है। __ इस गुणव्रत का महत्त्व इतना अधिक है कि निश्चित किये हुए क्षेत्र से बाहर के लिए वह त्रस और स्थावर-दोनों प्रकार के जीवों की घात से विरत हो जाता है। उसके अहिंसाणुव्रत में गुणात्मक वृद्धि हो जाती है। __ इसके पाँच अतिचार हैं—(१) ऊर्ध्वदिशा में मर्यादा का अतिक्रमण, (२) अधोदिशा में मर्यादा का अतिक्रमण, (३)तिरछी दिशा (चारों दिशाओं और चारों विदिशाओं में) में मर्यादा का अतिक्रमण करना (४) क्षेत्र वृशि-असावधानी या भूल से मर्यादा को बढ़ा लेना अथवा किसी एक दिशा के परिमाण को कम करके दूसरी दशा में मर्यादा बढ़ा लेना, (५) स्मृति अन्तर्धान-किसी दिशा में श्रावक गमन कर रहा हो, किन्तु निश्चित की हुई मर्यादा को भूल जाय, भ्रम में पड़ जाय; फिर भी आगे बढ़ता रहे तो यह स्मृति अन्तर्धान नाम का अतिचार होता है । (२) उपभोग-परिमोगपरिमाण व्रत जो वस्तु एक बार ही उपयोग में आवे, जैसे-भोजन, पानी, आदि, वह उपभोग कहलाती है और जिसका बार-बार उपयोग किया जा सके, जैसेवस्त्र, आभूषण, फर्नीचर, मकान, कार, स्कूटर आदि, वह परिभोग कहलाती है। श्रावक इन उपभोग-परिभोग की वस्तुओं को मर्यादित करता है।। ___ यद्यपि परिग्रहपरिमाण अणव्रत में श्रावक इन वस्तुओं की मर्यादा कर लेता है, किन्तु इस व्रत में वह उस मर्यादा को और भी संकूचित करता है । इससे उसके जीवन में सरलता और सादगी का संचार होता है तथा महारंभ, महापरिग्रह और महातृष्णा से वह मुक्त हो जाता है। आगम' में उपभोग-परिभोग सम्बन्धी २६ वस्तुओं के नाम निर्देश किये गये हैं (१) शरीर आदि पोंछने का अंगोछा आदि, (२) दाँत साफ करने का मंजन, टूथपेस्ट आदि (३) फल (४) मालिश के लिए तेल आदि (५) उबटन के लिए लेप आदि, (६) स्नान के लिए जल, (७) पहनने के वस्त्र, (८) विलेपन के लिए चन्दन, (६) फूल, (१०) ओभरण, (११) धूप-दीप, (१२) पेय, (१३) पक्वान्न, (१४) ओदन, (१५) सूप-दाल, (१६) घृत आदि विगय, (१७) शाक, (१८) माधुरक (मेवा), (१६) जेमन-भोजन के पदार्थ, (२०) पीने का १ उपासकाध्ययन, अध्ययन १ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग की आधारभूमि : बद्धा और शील [१] ११६ पानी, (२१) मुखवास, (२२) वाहन, (२३) उपानत ( जूते आदि), (२४) शय्यासन (२५) सचित्त वस्तु, (२६) खाने के अन्य पदार्थ | t इन २६ पदार्थों की मर्यादा श्रावक जीवन भर के लिए करता है । इसके अतिरिक्त वह प्रतिदिन अपनी मर्यादा को और संकुचित करता है । इसके लिए वह प्रतिदिन १४ नियमों का चिन्तवन करके अपनी शक्ति के अनुसार उन्हें ग्रहण करता है । चौदह नियम --- ( १ ) सचित्त - पृथ्वीकाय, वनस्पतिकाय आदि के सेवन की मर्यादा, (२) द्रव्य - खाद्य पदार्थों की संख्या निश्चित करना, (३) विजय - घी, दूध, दही, तेल गुड़ — ये पदार्थ विगय हैं, इनमें से कुछ अथवा सभी पदार्थों का त्याग करना, (४) उपानह — जूते-मोजे आदि पहनने की यर्यादा, (५) ताम्बूल - पान-सुपारी इलायची आदि की मर्यादा, (६) वस्त्र - वस्त्र पहनने की मर्यादा, (७) कुसुम - पुष्प, इत्र, सुगन्धित पदार्थों की सीमा, (८) वाहन - सवारी आदि की मर्यादा, (६) शयन - शय्या एवं स्थान की मर्यादा, (१०) विलेपन – केसर, चन्दन आदि शरीर पर विलेपन की जाने वाली वस्तुओं की मर्यादा, (११) ब्रह्मचर्य नियम - ब्रह्मचर्य पालन का नियम लेना, (१२) विशा परिमाण -- दसों दिशाओं में गमनागमन का नियम, (१३) स्नान - नियम -स्नान का त्याग अथवा स्नान हेतु जल का परिमाण, (१४) भक्त – आहार- पानी तथा अन्य खाद्य पदार्थों का वजन निश्चित करना । ये चौदह नियम श्रावक एक अहोरात्र ( २४ घन्टे ) के लिए लेता हैअर्थात् एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक । श्रावक को उपभोग - परिभोग पदार्थों को प्राप्त करने के लिए कोई न कोई धन्धा या रोजगार करना ही पड़ता है; किन्तु सुश्रावक ऐसा व्यापार अथवा आजोविका का साधन अपनाता है, जिसमें कम से कम हिंसा हो । कुछ धन्धे ऐसे हैं जिनमें महारम्भ- महापरिग्रह होता है । उनसे अधिक गाढ़े और चिकने कर्मों का बँध होता है । ऐसे रोजगारों को कर्मादान कहा गया है । सुश्रावक इन कर्मादानों को आजीविका हेतु नहीं अपनाता । कर्मादान पन्द्रह हैं | कर्मादान -- ( १ ) अंगार कर्म - लकड़ी से कोयले बनाकर बेचने का व्यवसाय, (२) वन कर्म - जंगलों को ठेके पर लेकर वृक्षों को काटने का व्यवसाय, (३) शकट कर्म – अनेक प्रकार के गाड़ी, गाड़े, मोटर, ट्रक, रेलवे के इन्जन, डिब्बे, स्कूटर आदि वाहन बनाकर बेचना, (४) भाटक कर्म – पशु तथा वाहन Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० जैन योग : सिद्धान्त और साधना आदि किराये पर देना तथा बड़े-बड़े मकान आदि बनवाकर किराये पर देना, (५) स्फोटकर्म - सुरंग आदि का निर्माण करने का व्यवसाय, (६) दन्तवाणिज्य - हाथी दाँत, पशुओं के नख, रोम, सींग आदि का व्यापार ( ७ ) लाक्षा वाणिज्य - लाख का व्यापार ( लाख अनेक त्रस जीवों की उत्पत्ति का कारण है, अत: इस व्यवसाय में अनन्त त्रस जीवों का घात होता है ) ( 5 ) रस वाणिज्य – मदिरा, सिरका आदि नशीली वस्तुएँ बनाना और बेचना, (2) विष वाणिज्य - विष, विषैली वस्तुएँ, शस्त्रास्त्र का निर्माण और विक्रय (१०) केश वाणिज्य -बाल व बाल वाले प्राणियों का व्यापार (११) यन्त्र-पीड़न कर्म - बड़े-बड़े यन्त्रों - मशीनों को चलाने का धन्धा, (१२) निलच्छन कर्म — प्राणियों के अवयवों को छेदने और काटने का कार्य, (१३) दावाग्निदान कर्म-वनों में आग लगाने का धन्धा (१४) सरोहदतड़ागशोषणता कर्म-सरोवर, झील, तालाब आदि को सुखाने का कार्य, (१५) असतोजनपोषणता कर्म - कुलटा स्त्रियों-पुरुषों का पोषण, हिंसक प्राणियों (बिल्ली, कुत्ता आदि) का पालन और समाज विरोधी तत्त्वों को संरक्षण देना आदि कार्य । इनसे मिलते-जुलते अन्य ऐसे व्यवसाय जिनमें महारम्भ - महापरिग्रह होता है, उन्हें भी सुश्रावक नहीं करता । इस व्रत के पाँच अतिचार हैं- (१) सचित्ताहार - सचित्त वस्तुओं की मर्यादा का उल्लंघन करना ( २ ) सचित्त प्रतिबद्धाहार - जिस सचित्त वस्तु का त्याग कर रखा है, उससे स्पर्श की हुई अन्य सचित्त वस्तु का आहार (३) अपक्वाहार - बिना पके फल आदि, कच्चे शाक इत्यादि खा लेना (४) दुष्पषवाहार - जो वस्तु आधी पकी हो अथवा अधिक पक गई हो उसको खा लेना (५) तुच्छौषधिमक्षण - जिन वस्तुओं में खाने का अंश कम हो और फेंकने का अधिक, उन वस्तुओं का आहार करना । (३) अनर्थदण्डविरमण व्रत श्रावक की अपेक्षा से पाप कर्म के दो भेद किये गये हैं- ( १ ) अर्थदण्ड और (२) अनर्थदण्ड । अर्थदण्ड तो प्रयोजनवश किया जाता है । स्वयं के अथवा परिवार के पालन-पोषण के लिए जो सावद्य प्रवृत्तियाँ (पाप प्रवृत्तियाँ) की जाती हैं, वे अर्थदण्ड हैं । किन्तु इनके अतिरिक्त ऐसी पाप प्रवृत्तियाँ जिनसे लाभ तो कुछ नहीं होता और व्यर्थ का पाप बँधता है, उन्हें अनर्थदण्ड कहते हैं । इसमें श्रावक उन बेकार की पाप प्रवृत्तियों का त्याग करता है । अनर्थदण्ड - निष्प्रयोजन हिंसा अथवा पाप के चार रूप हैं(१) अपध्यानाचरित - चिन्ता और क्रूर विचारों से होने वाली हिंसा | चिन्ता Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग की आधारभूमि : श्रद्धा और शील [१] १२१ आर्तध्यान है और क्र र विचार रौद्रध्यान । इन विचारों से व्यर्थ की हिंसा होती है। (२) प्रमादाचरित-शुभ कार्यों में आलस्य करना, असावधानीपूर्वक विभिन्न प्रकार की प्रवृत्ति करना और अशुभ कार्यों को करना। (३) हिंस्रप्रदान-ऐसे उपकरण किसी को देना जिन से हिंसा की जा सके। (४) पापकर्मोपदेश-हिंसा, झठ, चोरी आदि पापों का लोगों को उपदेश देना, नये-नये उपाय सुझाना, प्रेरणा देना। अनर्थदण्डविरमण व्रत में साधक इन चारों प्रकार के पाप कर्मों का त्याग कर देता है। अनर्थदण्डविरमण के पाँच अतिचार हैं-(१) कन्दर्प-विकार बढ़ाने वाले वचन बोलना, सुनना या वैसी चेष्टाएँ करना । (२) कौत्कुच्य-भांडों के समान हाथ-पैर फेंकना, नाक-मुंह-आँख आदि मटकाना, विकृत चेष्टाएँ करना। (३) मौखर्य-वाचालता, बढ़ा-चढ़ाकर बातें करना, अपनी शेखी बघारना । (४) संयुक्ताधिकरण-बिना आवश्यकता के ही हिंसक हथियारों का संग्रह करना, बन्दूक और कारतूस तथा तीर और कमान आदि को संयुक्त करके रखना । (५) उपभोग-परिमोगातिरेक-उपभोग-परिभोग की वस्तुओं और सामग्री का आवश्यक से अधिक संग्रह करना । शिक्षाव्रत शिक्षा का अभिप्राय अभ्यास है। जिस प्रकार विद्या का बार-बार अभ्यास किया जाता है, उसी प्रकार जिन व्रतों का पुनः-पुनः अभ्यास किया जाता है वे शिक्षाव्रत कहलाते हैं। शिक्षाव्रतों की विशेषता यह है कि वे बार-बार ग्रहण किये जाते हैं और पुनः-पुनः उनका अभ्यास किया जाता है। इनकी काल मर्यादा जीवन भर की नहीं होती। शिक्षानत चार हैं। (१) सामायिक व्रत सामायिक शब्द 'सम+आय+इक' इन तीन शब्दों के योग से बना है । 'सम' का अर्थ समता है और 'आय' का अर्थ लाभ है । जिस क्रियाविशेष से समताभाव की उपलब्धि होती है, आत्मा में शान्ति तथा कषायों के आवेगों उपशमन होता है, उसे सामायिक कहते हैं। - सामायिक व्रत का धारी साधक सभी जीवों (त्रस और स्थावर) पर समभाव रखता है। जब तक वह सामायिक करता है, सभी प्रकार की Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जैन योग : सिद्धान्त और साधना सावद्य (पापमय) प्रवृत्तियों का त्याग कर देता है और निरवद्य (शभ) प्रवृत्ति करता है। इस व्रत का अभ्यास करते-करते श्रावक का सम्पूर्ण जीवन समतामय हो जाता है। इस व्रत का काल एक बार में एक मुहूर्त (४८ मिनट) है । साधक अपनी सुविधा और क्षमता के अनुसार एक दिन में अपनी इच्छा के मुताबिक कितनी भी सामायिकें कर सकता है। सामायिक व्रत के पाँच अतिचार हैं-(१) मनोदुष्प्रणिधान-मन में बुरे या अशुभ विचार आना । (२) वचन दुष्प्रणिधान-वचन का दुरुपयोग करना, कठोर अथवा असत्य भाषण करना। (३) काय दुष्प्रणिधान-शरीर से सावध प्रवृत्ति करना, स्थिर न रखना। (४) स्मृत्यकरण-सामायिक की स्मृति न रखना, समय पर न करना। (५) अनवस्थितता-सामायिक को अस्थिर होकर करना, अथवा शीघ्रता से करना, निश्चित विधि के अनुसार न करना। निर्दोष सामायिक के लिए चार प्रकार की शुद्धि आवश्यक है। इन शुद्धियों का साधक विशेष रूप से ध्यान से रखता है। (१) द्रव्य-शुद्धि-सामायिक के उपकरण, साधक का अपना शरीर, वस्त्र आदि साफ और शुद्ध हों। श्वेत रंग निर्मलता और सात्त्विकता का प्रतीक है, इसका प्रभाव मन पर भी पड़ता है, उसमें भी निर्मल भाव आते हैं, अतः श्वेत वस्त्र धारण करके ही सामायिक करनी चाहिए। (२) क्षेत्र-शुद्धि-सामायिक का स्थान साफ हो, वहाँ गन्दगी आदि न हो, डांस-मच्छर आदि की बाधा न हो, कोलाहल न हो। दूसरे शब्दों में शांत, एकान्त एवं स्वच्छ स्थान में सामायिक करनी चाहिए। (३) काल-शुद्धि-दिन और रात के किसी भी समय सामायिक की जा सकती है। समय के लिए कोई विशेष नियम नहीं है, फिर भी साधक को चाहिए कि सामायिक के लिए ऐसा समय चुने, जिसमें घर-गृहस्थी तथा व्यापार सम्बन्धी किसी काम से बाधा न पड़े, मन स्थिर रह सके । इसलिए प्रातःकाल का समय सामायिक के लिए अधिक उपयुक्त रहता है। (४) भाव-शुद्धि-सामायिक साधना में भावशुद्धि अति आवश्यक और महत्त्वपूर्ण है। भाव के बिना कोई भी क्रिया फलदायी नहीं होती। सामा. यिक भी लौकिक इच्छा, कामना से नहीं करनी चाहिए; इसका ध्येय साधक को आत्मशुद्धि रखना चाहिए। इन चार प्रकार की शुद्धियों से सामायिक की साधना में तेजस्विता आती है। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग की आधारभूमि : श्रद्धा और शील [१] १२३ (२) देशावकाशिक व्रत यह दूसरा शिक्षाव्रत है । इसमें छठे दिशा परिमाण व्रत में ग्रहण की हुई मर्यादाओं को और भी संकुचित किया जाता है । उदाहरणस्वरूप, किसी ने पूर्व दिशा में जाने की जीवन भर की सीमा १०० किलोमीटर रखी; किन्तु इतनी दूर वह प्रतिदिन जाता नहीं । अतः इस व्रत में वह इस सीमा को और कम, यथा - २,४,५ किलोमीटर तक घटा सकता है । इस व्रत के पाँच अतिचार हैं- (१) आनयन प्रयोग - मर्यादित क्षेत्र से बाहर की वस्तुएँ मँगवाना । (२) प्रेष्य प्रयोग - मर्यादित क्षेत्र से बाहर किसी वस्तु को भेजना । ( ३ ) शब्दानुपात - मर्यादित क्षेत्र से बाहर स्वयं तो न जाना किन्तु शब्द - संकेत द्वारा काम निकाल लेना । (४) रूपानुपात - अपना रूप दिखा कर मर्यादा से बाहर क्षेत्र में कोई काम करवाना । ( ५ ) पुद्गल प्रक्षेप-मर्यादित क्षेत्र से बाहर कंकर आदि फेंककर अपना अभिप्राय प्रगट करके कार्य करवाना | (३) पौषधोपवास व्रत पौषध का अर्थ है - अपनी आत्मा को पोषना - खुराक देना, यह पोषना धर्माचार्य के समीप धर्मस्थानक में ही सम्भव होता है; और उपवास का अर्थ है - भोजन का त्याग । उपवासपूर्वक धर्मस्थान में रहकर आत्मचिन्तन, धर्मध्यान करना पौषधोपवास है । यह एक अहोरात्र ( २४ घन्टे - पहले दिन के सूर्योदय से दूसरे दिन के सूर्योदय तक) का होता है । यह दूज, पंचमी, अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा - पर्व तिथियों के दिन किया जाता है । २ अष्टमी और २ चतुर्दशी ( शुक्ल पक्ष की और कृष्ण पक्ष की ) तथा १ अमावस्या और १ पूर्णिमा - इस प्रकार एक मास में छह पौषध करने का शास्त्रों में विधान मिलता है । पौषध में श्रावक चार प्रकार का त्याग करता है - ( १ ) शृंगार- विलेपन, स्नान आदि (२) अब्रह्मचर्य (३) आहार आदि (४) घर तथा व्यापार सम्बन्धी सभी सांसारिक कार्य । द्रव्य और पौषध व्रत में गृहस्थ साधक नियमित काल मर्यादा तक भाव से आत्म-साधना, स्वाध्याय, ध्यान आदि धार्मिक क्रियाएँ करता है । इससे उसके द्रव्य-रोग ( शरीर सम्बन्धी रोग) तथा भाव - रोगों (कर्मों) का नाश होता है । साधक की आत्मा निर्मल होती है, आत्म-शक्ति बढ़ती है, ध्यान (धर्मध्यान) की योग्यता आती है और परीषह ( अकस्मात आने वाले शारीरिक एवं मानसिक कष्ट) सहने की क्षमता बढ़ती है । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग : सिद्धान्त और साधना इस व्रत के पाँच अतिचार हैं - ( ५ ) अप्रत्यवेक्षित दुष्प्रत्यवेक्षित शय्या संस्तारक - बैठने के स्थान को भली-भाँति न देखना । (२) अप्रत्यवेक्षित दुष्प्रत्यवेक्षित उच्चार- प्रस्रवण भूमि - मल-मूत्र त्याग करने की भूमि को भली-भाँति न देखना । (३) अप्रमाजित दुष्प्रमाजित शय्या - संस्तारक- - बैठने के स्थान की भलीभाँति प्रमार्जना ( सफाई स्वच्छता) न करना । (४) अप्रमाजित दुष्प्रमार्जित उच्चर- प्रात्रवण भूमि - मल-मूत्र त्याग करने के स्थान की भली-भाँति प्रमार्जना न करना । (५) सम्यक् अननुपालनता - पौषधोपवास का भली-भाँति पालन न करना, आत्मध्यान, स्वाध्याय आदि के बजाय सांसारिक बातों का चिन्तन करना, संकल्प-विकल्प और राग-द्वेष करना । (४) अतिथि संविभाग व्रत नैतिकतापूर्ण तरीकों से उपार्जित धन से उपलब्ध सामग्री में से अतिथि के लिए समुचित विभाग करना अतिथि संविभाग है । सद्गृहस्थ का यह बारहवाँ और अन्तिम व्रत है । १२४ अतिथि वह होता है, जिसके आने की कोई निश्चित तिथि न हो । ऐसे अतिथि उत्कृष्ट तो निग्रन्थ श्रमण-साध्वी होते हैं और मध्यम व्रतधारी तथा सम्यक्त्वी श्रावक होते हैं । इनके अतिरिक्त अन्य दीन-हीन- अपंग अभावग्रस्त व्यक्ति भी होते हैं, जिनकी आवश्यकतापूर्ति भी सद्गृहस्थ अपना सहयोग देकर करता है । निर्ग्रन्थ साधु-साध्वियों को वह भक्तिभावपूर्वक औषध, पथ्य, आहारवस्त्र आदि का दान देता है और श्रावक-श्राविकाओं का स्वागत-सत्कार वह साधर्मिक बन्धु मानकर करता है तथा उनकी आवश्यकतानुसार अपनी शक्ति सामर्थ्य के मुताबिक सहयोग देता है । इनके अतिरिक्त वह सभी प्राणियों को अनुकम्पा भाव से दान देता है । इस प्रकार सद्गृहस्थ दान की गंगा बहाता है । सामाजिक दृष्टि से तो यह व्रत महत्त्वपूर्ण है ही; किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से भी इसका महत्त्व कम नहीं है; क्योंकि इसके द्वारा मनुष्य में त्यागवृत्ति आती है, उसकी धन साधन-सामग्री आदि अपने अधिकार की वस्तुओं में मोह-ममता कम होती है, आसक्ति छूटती है । इससे धर्म- मार्ग निर्बाध रूप से चलता है । श्रमण-श्रमणी की अनिवार्य आवश्यकताएं सद्गृहस्थ द्वारा पूरी हो जाने से वे अपनी संयम यात्रा निश्चिन्ततापूर्वक पूरी करते हैं । इस व्रत के पाँच अतिचार हैं - ( १ ) सचित्त निक्षेप-अचित्त आहार को Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग की आधारभूमि : श्रद्धा और शील [१] १२५ सचित्त वस्तु में डालकर रखना (२) सचित्त पिधान-सचित्त वस्तु से ढककर रखना । (३) कालातिक्रम-समय पर दान न देना, असमय के लिए कहना। (४) परव्यपदेश-दान न देने की भावना से अपनी वस्तु को पराई कह देना। (५) मत्सरता-ईर्ष्या व अहंकार की भावना से दान देना । ये श्रावक के बारह व्रत हैं। अन्तिम समय की साधना : संलेखना गृहस्थ साधक जीवन भर व्रतों की आराधना-साधना करता है। किन्तु उसकी साधना कितनी सफल हुई है, उसके अन्तर्मन में कितना समताभाव आया है, इसकी कसौटी यह अन्तिम साधना-संल्लेखना है। जिस प्रकार विद्यार्थी के वर्ष भर के अध्ययन की कसौटी उसकी वार्षिक परीक्षा है, वैसी ही स्थिति साधक के जीवन में संल्लेखना की है। संल्लेखना मृत्यु का साहसपूर्वक एक मित्र की भाँति स्वागत करने के समान है । जब गृहस्थ साधक को यह विश्वास हो जाता है कि उसका अन्तिम समय निकट आ गया है, उसे परलोक के लिए प्रयाण करना है तो वह काय और कषाय को कम करता है। काय को कृष करने का अर्थ है-काया से ममत्वभाव को दूर करना। इनके लिए वह आहार आदि का शनैः-शनैः त्याग करता जाता है और कषाय को वह अपने हृदयस्थित समताभाव द्वारा कम करता रहता है। इस प्रकार वह अपने आपको परलोकगमन के लिए तैयार कर लेता है । इस साधना से शुभ परिणामों में उसकी मृत्यु होती है और वह उच्चगति पाता है। इस व्रत के पाँच अतिचार हैं-(१) इहलोकाशंसा-प्रयोग-इस लोक में राजा, सेठ आदि बनकर (मरने के बाद अगले जन्म में) सुख भोगू । (२)परलोकाशंसा प्रयोग-मृत्यु के उपरान्त आगामी भव में स्वर्ग के सुख भोगने की इच्छा। (३) जीविताशंसा प्रयोग-यश-कीर्ति आदि की प्राप्ति के लोभ में अधिक समय तक जीवित रहने की इच्छा। (४) मरणाशंसा प्रयोग–अनशन आदि अथवा शारीरिक कष्टों से घबड़ाकर मृत्यु की इच्छा करना । (५) कामभोगाशंसा प्रयोग-आगामी जन्म में कामभोग (सांसारिक सुख) पाने की तीव्र अभिलाषा। गृहस्थ की योग साधना गृहस्थ साधक के पाँच अणुव्रत मूलगुण कहलाते हैं और सात उत्तर गण (३ गुणवत और ४ शिक्षाक्त) हैं । मूलगुणों के रूप में वह योग के प्रथम Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ जैन योग : सिद्धान्त और साधना अंग-यम की साधना करता है और उत्तरगणों के रूप में अष्टांगयोग के द्वितीय अंग नियम की । सामयिक और पौषधोपवास व्रतों में तो वह आसन, प्राणायाम, ध्यान आदि योग के अन्य अंगों की भी साधना करता है, उन सोपानों पर भी अपने कदम रखता है। सामायिक के अन्तर्गत वह छह आवश्यक-(१) समताभाव, (२) चतुर्विंशतिस्तव, (३) गुरुवन्दन, (४) प्रतिक्रमण, (५) कायोत्सर्ग और (६) प्रत्याख्यान करता है। इनमें कायोत्सर्ग तो ध्यान ही है, क्योंकि इसमें ध्यान की आराधना-साधना की जाती है। और समताभाव-यही तो योग का लक्ष्य है; योग, विशेष रूप से अध्यात्मयोग का लक्ष्य ही समताभाव की पूर्णरूपेण प्राप्ति है। इसी प्रकार पौषध में भी साधक तप-ध्यान-आत्मचिन्तन आदि स्थिर आसन से करता है। वह स्वाध्याय आदि के रूप में तप की साधना करता है। इन सभी (बारह) व्रतों का वास्तविक उद्देश्य तो मन-वचन-काय की वृत्तियों को सीमित करना-निरोध करना है और चित्तवृति का निरोध ही तो योग साधना का एक मात्र लक्ष्य और केन्द्रबिन्द्र है। इसीलिए गृहस्थ साधक को भी भारत की सभी परंपराओं में गृहस्थयोगी कहा गया है। गृहस्थयोगी साधक जब अपने ग्रहण किये हुए यम-नियमों (बारहव्रत) की साधना में परिपक्व हो जाता है, उनका निरतिचार निर्दोष पालन करने लगता है और वह देखता है कि उसका बल-वीर्य उत्थान आदि अभी उचित परिमाण में है तब वह विशिष्ट साधना की ओर उन्मुख होता है। गृहस्थयोगी की विशिष्ट साधना-प्रतिमा श्रावक की यह विशिष्ट साधना जैन आगमों तथा शास्त्रों में प्रतिमा के नाम से कही गई है। प्रतिमा का आशय-प्रतिज्ञाविशेष, व्रतविशेष, तपविशेष अथवा अभिग्रहविशेष है। साधक अपना गृहस्थ तथा समाज-सम्बन्धी समस्त दायित्व छोड़कर (पुत्रादि को देकर) धर्म-स्थानक में जाकर, तथा संसार से यथाशक्ति निलेप रहकर इन प्रतिमाओं की साधना-आराधना करता है। गृहस्थयोगी की प्रतिमाएं ग्यारह (११) हैं (१) दर्शन, (२) व्रत, (३) सामायिक, (४) पौषध, (५) नियम, (६) ब्रह्मचर्य, (७) सचित्तत्याग, (८) आरम्भत्याग, (६) प्रेष्य परित्याग अथवा परिग्रह परित्याग, (१०) उद्दिष्टभक्तत्याग तथा (११) श्रमणभूत । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग को आधारभूमि ; श्रद्धा और शोल [१] १२७ इन प्रतिमाओं की साधना' करते समय गृहस्थ साधक योगी के समान हो जाता है, उसके आचार-विचार और व्यवहार में विशिष्टता आ जाती है, उसकी आत्मगति ऊर्जस्वी हो जाती है, उत्कृष्ट भावों से आराधना करने पर उत्तम साधक को विशिष्ट लब्धियाँ भी प्राप्त हो जाती हैं, जैसे कि आनन्द श्रावक को अवधिज्ञान (clairvoyance) प्राप्त हुआ था। अतः गृहस्थ साधक वस्तुतः गृहस्थयोगी ही होता है। १ इन प्रतिमाओं की साधना विधि आदि का विशेष वर्णन प्रतिमायोग पृष्ठ १४१ १५३ में किया गया है। - इस संपूर्ण अध्याय में वणित श्रावकाचार के आधार ग्रंथ ये हैं-(१) उपासकदशांग सूत्र (गणधर सुधर्मा प्रणीत-द्वादशांग वाणी का सप्तम अंग), (२) स्थानांगसूत्र (तृतीय अंगसूत्र), (३) धर्म बिन्दु (हरिभद्रसूरि), (४) योगशास्त्र (आचार्य हेमचन्द्र) (५) नीति वाक्यामृत (सोमदेव सूरि) (६) आवश्यक सूत्र (७) तत्त्वार्थ सूत्र (उमास्वाति), (८) योगशतक, (६) उपासकाध्ययन, (१०) समीचीन धर्मशास्त्र, (११) पुरुषार्थ सिद्ध युपाय, (१२) रत्नकरंड श्रावकाचार, (१३) वसुनन्दि श्रावकाचार, (१४) चारित्रसार, (१५) सागार धर्मामृत, (१६) अमितगति श्रावकाचार आदि-आदि । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ योग की आधारभूमि : श्रद्धा और शील [२] [गृह-त्यागी श्रमण का योगाचार] जब गृहस्थयोगी (श्रावक) अपने व्रतों का समुचित पालन करने का अभ्यस्त हो जाता है तब उसकी वैराग्य भावना और भी दृढ़ हो जाती है, यह संसार और सांसारिक सम्बन्ध उसे भारभूत और बन्धन प्रतीत होने लगते हैं, वह गृहस्थयोगी की भूमिका से ऊपर उठकर संसारत्यागी श्रमण बन जाता है। अहिंसा आदि जिन व्रतों और नियमों का वह आंशिक रूप से पालन करता था, श्रमण बनकर वह उन अहिंसादि व्रतों का पूर्ण रूप से पालन करने लगता है। धमण : सम्पूर्ण योग का आराधक ___ श्रमण (साधु) अध्यात्मप्रधान जैन संस्कृति का मूल आधार और केन्द्रबिन्दु है। उसी के नाम पर जैन संस्कृति तथा निग्रन्थ धर्म, श्रमण संस्कृति और श्रमण धर्म कहा जाता है। उसका सम्पूर्ण आचार-विचार और व्यवहार योगमय होता है। उसके संयम का दूसरा नाम योग ही है । यह योग श्रमण के जीवन का मूल मन्त्र है। संसारत्यागी और आत्मचिन्तक होने के कारण वह योग के सभी मार्गों का सम्यक् रूप से पालन करने में सक्षम होता है। योगसिद्धि के लिए श्रमण चर्या सहायक और आधारभूत है । उसके बाह्य और आन्तरिक सम्पूर्ण जीवन में योग साकार होता है। श्रमण की सम्पूर्ण चर्या, उसके गुणों, व्रतों आदि सब में योग की झलक स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। साधु के मूल और उत्तर गुण साधु में कुछ विशिष्ट गुण होने आवश्यक हैं; सिर्फ वेष, लिंग, जाति आदि के आधार पर कोई साधु नहीं कहला सकता है । साधु गुणों के कारण होता है और उसकी प्रतीति का आधार भी गुण हो हैं । गुणों को धारण १ (क) नाणदंसणसम्पन्न, संजमे य तवे रयं । एवं गुण समाउत्त, संजय साहुमालवे ॥ -दशवै० अ० ७, गा० ४६ (ख) गुणेहि साहू अगुणेहि असाहू। -दशव० अ० ६, उ० ३, गा० ११ : Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग को आधारभूमि : श्रद्धा और शील [२] १२६ करने से ही श्रमण छह काया के प्रतिपालक होते हैं और अपनी आत्मा का उद्धार करते हैं। ___ आगमों में साधु के सत्ताइस गुण' बताये गये हैं, तथा उनके उत्तरगुण सत्तर हैं। साधुओं के सत्ताइस (२७) गुण ये हैं (१-५) पाँच महाव्रतों [(१) सर्व प्राणातिपातविरमण, (२) सर्व मृषावाद-विरमण, (३) सर्व अदत्तादानविरमण, (४) सर्व मैथुनविरमण और (५) सर्व परिग्रहविरमण] का पालन । (६-१०) पंचेन्द्रियनिग्रह (श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना और स्पर्शन)इन पांच इन्द्रियों को विषयाभिमुख न होने देना। (११-१४) चतुर्विध कषाय-विवेक (क्रोध, मान, माया, लोभ)-इन चार कषायों पर विजय प्राप्त करना। (१५) भावसत्य, (१६) करणसत्य, (१७) योगसत्य, (१८) क्षमा, (१६) विरागता (२०) मन-समाहरणता, (२१) वाक्-समाहरणता, (२२) कायसमाहरणता, (२३) ज्ञानसम्पन्नता, (२४) दर्शनसम्पन्नता, (२५) चारित्रसम्पन्नता, (२६) वेदना समाध्यासना, (२७) मारणान्तिक समाध्यासना। कुछ प्रकरण ग्रन्थों में दूसरी अपेक्षा से भी साधु के २७ गुण बताये हैं। वे इस प्रकार हैं (१-५) पाँच महाव्रत, (६-११) जीवकायसंयम (पृथ्वीकाय, जलकाय, वायुकाय, तेजस्काय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय का संयम) (१२-१६) पंचेन्द्रियनिग्रह, (१७) लोभनिग्रह, (१८) क्षमा, (१६) भावविशुद्धि, (२०) प्रतिलेखना विशुद्धि, (२१-२२) संयम-योगयुक्ति, (२३) कुशलमन-उदीरणा, अकूशलमन-निरोध, (२४) कुशल वचन उदीरणा, अकुशल वचन निरोध, (२५) १ (क) सत्तावीस अणगार गुणा पण्णत्ता । -समवायांग, २७वा समवाय (ख) पंच महव्वय जुत्तो पंचेन्दियसंवरणो, चउविह कसाय मुक्को तओ समाधारणीया । तिसच्चसम्पन्न तिओ खंति संवेगरओ, वेयणमच्चुभयगयं साहु गुण सत्तावीसं ॥ २ पिण्डविसोही समिई भावणा पडिमा य इन्दियनिरोहो । पडिलेहण गुत्तीओ अभिग्गहा चेव करणं तु ॥ -ओधनियुक्ति भाष्य, पृ० ६ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० जैन योग : सिद्धान्त और साधना कुशल काय उदीरणा, अकुशल काय निरोध, (२६) शीतादि पीड़ा सहन, (२७) मारणान्तिक उपसर्ग सहन । __किन्तु इन २७ गुणों का अन्तर्भाव समवायांगसूत्र कथित २७ गुणों में हो जाता है। पाँच महावत साधु के सर्वप्रथम और अति आवश्यक व्रत-पाँच महाव्रत हैं । श्रमण सर्वविरत होता है, वह तीन करण (कृत, कारित, अनुमोदना) और तीन योग (मन-वचन-काया) से व्रत लेता है। इसीलिए उसके अहिंसा आदि व्रत महाव्रत कहलाते हैं । महाव्रत पाँच हैं-(१) अहिसा महाव्रत, (२) सत्य महाव्रत, (३) अदत्तादान व्रत, (४) ब्रह्मचर्य महाव्रत, (५) अपरिग्रह महाव्रत ।' ये श्रमण के मूलव्रत हैं, और अष्टांगयोग की भाषा में इन्हें 'यम' कहा जाता है। __ महर्षि पतंजलि के अनुसार महाव्रत जाति-देश, काल (वेष, सम्प्रदाय निमित्त) आदि की सीमाओं से मुक्त एक सार्वभौम साधना है।' (१) अहिंसा महाव्रत : समत्व साधना इसका आगमोक्त नाम 'सर्वप्राणातिपातविरमण' है । हिंसा का लक्षण देते हुए तत्त्वार्थसूत्रकार ने कहा है प्रमत्तयोगात् प्राणव्यारोपणं हिंसा -प्रमाद से अपने या दूसरों के प्राणों को घात करना हिंसा है। और श्रमण इस हिंसा का त्याग तीन करण और तीन योग कर देता है, वह अहिंसा का पूर्ण रूप से पालन करता है। यद्यपि भाषा की दृष्टि से अहिंसा निषेधात्मक शब्द है किन्तु इसका विधेयात्मक रूप भी है और वह है-प्राणि-रक्षा, जीव-दया, अभयदान, सेवा, क्षमा, मैत्री, आत्मौपम्य भाव आदि। श्रमण निषेधात्मक रूप से किसी भी प्राणी की हिंसा किसी भी प्रकार से न करता है, न कराता है और न अनुमोदना करता है-मन से, वचन से काया से । साथ ही वह अहिंसा के विधेयात्मक रूप का भी पालन करता है-जीव-दया, विश्वकल्याण भावना तथा अपने उपदेशों और उज्ज्वल चारित्र से प्रेरणा देकर लोगों को धर्म की ओर उन्मुख करके। १ उत्तराध्ययन सूत्र २१/१२ २ जाति-देश-काल-समयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम्। -योगदर्शन २/३१ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन योग की आधारभूमि : श्रद्धा और शील [२] १३१ अहिंसा महाव्रत का साधक जीव मात्र के प्रति करुणाशील एवं निवैर हो जाता है। अहिंसा के स्वरूप को समझने के लिए प्राणों को जानना आवश्यक है। क्योंकि प्राणों को हानि पहुँचाना ही हिंसा है और प्राणरक्षा ही अहिंसा है । प्राण दस प्रकार के हैं (१) श्रोत्रेन्द्रिय प्राण, (२) चक्षुरिन्द्रिय प्राण, (३) घ्राणिन्द्रिय प्राण, (४) रसनेन्द्रिय प्राण, (५) स्पर्शेन्द्रिय प्राण, (६) मनोबल प्राण, (७) वचनबल प्राण, (८) कायबल प्राण, (६) श्वासोच्छ्वास प्राण, (१०) आयु प्राण । इन प्राणों को धारण करने वाले जीव को प्राणी कहते हैं। प्राणी के किसी भी एक अथवा सभी प्राणों को घात करना हिंसा है। श्रमण आजीवन द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से संपूर्ण हिंसा का त्याग कर देता है । यही उसका अहिंसा महाव्रत है। अष्टांगयोग में 'अहिंसा' यम का पहला भेद है, इस प्रकार श्रमण अहिंसा महाव्रत का पालन करके योग-मार्ग पर आगे बढ़ता है। वस्तुतः अहिंसा योग का आधार है, और इस महाव्रत का पालन करके श्रमणयोगी योग की आधारभूमि को ही मजबूत बनाता है । अहिंसा महाव्रत की स्थिरता के लिए श्रमण-योगी पाँच भावनाओं का अनुपालन करता है। ये भावनाएं हैं (१) ईर्यासमिति भावना-स्वयं को या अन्य किसी भी प्राणी को तनिक भी कष्ट या पीड़ा न हो, इसलिए जीवों की रक्षा करते हुए देख-भालकर या पूजणी से पूजकर मार्ग चलना। (२) मनोगुप्ति भावना-मन को सदा शुभ और शुद्ध ध्यान में लगाये रखना; गुणी और ज्ञानी जनों के प्रति प्रमोद भाव और अधर्मी-पापी जनों के प्रति दया भाव-कल्याण भाव रखना। (३) एषणा समिति भावना-वस्त्र, पात्र, आहार, स्थान आदि वस्तुओं की गवेषणा, ग्रहणषणा, परिभोगैषणा-इन तीन एषणाओं में दोष न लगने देना, निर्दोष वस्तु के उपयोग का ध्यान रखना। (४) आदान निक्षेपणा समिति भावना-वस्त्र, पात्र, शास्त्र, आहार, १ अहिंसाप्रतिष्ठायां तत् सन्निधौ वैरत्यागः। -योगदर्शन २/३५ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ जैन योग : सिद्धान्त और साधना पानी आदि किसी वस्तु को उठाते, रखते या छोड़ते समय प्रमाणोपेत दृष्टि से प्रतिलेखना-प्रमार्जन-पूर्वक ग्रहण करना, रखना, छोड़ना । (५) आलोकित पान-भोजन भावना-भोजन-पान की वस्तु को भलीभाँति देखकर लेना तथा सदैव देख-भालकर, स्वाध्याय आदि करके, गुरुआज्ञा प्राप्त करके, संयमवृद्धि के लिए शांत एवं समत्व भाव से स्तोक मात्र आहार ग्रहण करना। (२) सत्यमहाव्रत : योग का आधार इसका आगमोक्त नाम 'सर्वमृषावावविरमण' है। सत्य, योग का प्रकाश दीप है। श्रमणयोगी की सम्पूर्ण चर्या, साधना और उपासना यहाँ तक कि उसके जीवन के अणु-अणु में प्रकाश एवं तेजस्विता सत्य ही देता है। श्रमणयोगी हृदय में सत्य का दीपक सदैव प्रज्वलित रखता है। श्रमणयोगी बिल्कुल भी असत्याचरण नहीं करता। सत्य तथ्य को प्रगट करता है और सदा हित-मित-प्रिय वचन बोलता है। इस प्रकार वह वचन योग की साधना करता है तथा अष्टांगयोग के प्रथम अंग यम के द्वितीय भेद सत्य की त्रिकरण-त्रियोग से साधना करता है और सत्य में ही स्थिर रहता है। सत्य महाव्रत में स्थिर रहने की पाँच भावनाएं हैं (१) अनुवीचि भाषण-निर्दोष, मधुर और हितकर वचन बोलना, कटु सत्य न बोलना तथा शीघ्रता और चपलता से बिना विचार किये न बोलना। (२) क्रोधवश भाषण वर्जन-क्रोध के आवेश में न बोलना । क्योंकि क्रोध की तीव्रता में मुंह से कठोर वचन निकल जाते हैं, जिससे सुनने वाले का दिल दुःखी होता है। (३) लोभवश भाषण वर्जन-लोभ के वशीभूत होकर भी झूठ बोला जाता है, अतः लोभ के उदय में साधु को भाषण करना-बोलना नहीं चाहिए। (४) भयवश भाषण वर्जन-मिथ्याभाषण का भय भी एक प्रमुख १ आचारांग द्वितीय श्र तस्कन्ध, अध्ययन १५, सूत्र ७७८ २ वही, सू ०-८१-८२ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग को आधारभूमि : श्रद्धा और शील [२] १३३ कारण है, अतः साधु के सामने जब भय का कारण उपस्थित हो तब उसे भाषण का त्याग करके मौन धारण कर लेना चाहिए। (५) हास्यवश भाषण वर्जन-हँसी-मजाक में भी मुह से झूठ वचन निकल जाने की सम्भावना रहती है। अतः साधु को हास्य नोकषाय के उदय में भाषण का त्याग करके मौन धारण करना चाहिए । इन भावनाओं द्वारा श्रमणयोगी विशेष स्थितियों में मौन धारण करके योग के मौन अंग (भाषण वजनता) की साधना करता है। महर्षि पतंजलि ने कहा है-सत्य में दृढ़ स्थिति हो जाने पर साधक की वाणी सत्य क्रिया-अर्थात् शाप, वरदान, आशीर्वाद देने में पूर्ण सक्षम हो जाती है। (३) अचौर्य महावत : अनासक्तियोग का प्रारम्भ इसका आगमोक्त नाम 'सव्वाओ अविनादाणाओ विरमणं'-'सर्व अवतादान विरमण' है। 'बिना दिये हुए किसी भी अनिवार्य आवश्यकता की वस्तु को न लेना' यह इस महाव्रत का निषेधात्मक रूप है। इसका विधेयात्मक रूप फलित होता है कि श्रमणयोगी को अपने लिए आहार-पानी आदि सभी अनिवार्य आवश्यकता की वस्तुएँ उन वस्तुओं के स्वामी द्वारा सहर्ष दिये जाने पर ही ग्रहण करनी चाहिए। इस महाव्रत की पाँच भावनाएँ ये हैं, जो इसको (अचौर्य महाव्रत को) स्थिरता प्रदान करती हैं। (१) सोच-समझकर वस्तु-स्थान माधि की याचना-साधु को भलीभाँति विचार करके ही वस्तु या स्थान के स्वामी से आवश्यक वस्तुओं की याचना करनी चाहिए। (२) गुरु-आज्ञा से आहार-श्रमणयोगी विधि-पूर्वक लाये हुए आहार को भी पहले गुरु को दिखाये और फिर उनकी अनुमति प्राप्त होने पर भोजन करे। इसके अतिरिक्त गुरु, वृद्ध, रोगी, तपस्वी, ज्ञानी और नवदीक्षित मुनि की वैयावृत्य न करना, सेवा से जी चुराना भी चोरी है। अतः श्रमणयोगी सेवा का अवसर आने पर पीछे न हटे, जी न चुरावे। १ सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम् । -योगदर्शन २/३६ २ आचारांग, द्वितीय श्र तस्कन्ध, अध्ययन १५, सूत्र ७८४ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ जन योग : सिद्धान्त और साधना (३) परिमित पदार्थ ग्रहण करना-श्रमण को स्थान, आहार, उपकरण आदि ग्रहण करते समय अपनी मर्यादा का ध्यान रखना चाहिए । दूसरे शब्दों में मर्यादा से अधिक पदार्थों को ग्रहण न करे। (४) बार-बार पदार्थों की मर्यादा ग्रहण करना-श्रमण को अपने स्वीकृत अभिग्रह की मर्यादा को बार-बार ग्रहण करके और भी संकुचित करते रहना चाहिए। (५) सार्मिक अवग्रह याचन-सांभोगिक साधुओं से आवश्यकता होने पर पात्र, उपकरण, वसति आदि की याचना करनी चाहिए।' इन भावनाओं से श्रमणयोगी अपनी वृत्तियों को और भी संकुचित करता है। याचना से उसमें विनम्रता और निरभिमानता आती है, तथा वस्तुओं के प्रति आसक्ति भाव कम होता है। साधक का मन जब वस्तुमात्र के प्रति अनासक्त हो जाता है तो जगत् का समस्त वैभव, गुप्त खजाने उसके लिए मिट्टी तुल्य हो जाते हैं तथा इस अनासक्ति योग की चरम स्थिति में पृथ्वी के समस्त रत्न उसके समक्ष प्रकट हो जाते हैं।' (४) ब्रह्मचर्य महावत : चेतना का ऊर्वारोहण ब्रह्मचर्य की साधना योग के लिए आधार-बिन्दु है, बिना ब्रह्मचर्य की साधना किये योग-मार्ग पर एक भी कदम आगे रखना असंभव है । जब तक योगी ब्रह्मचर्य की साधना नहीं करता, वह ऊर्ध्वरेता नहीं बन सकता। उसकी साधना का तेजोबिन्दु ब्रह्मचर्य ही है, इसी से उसकी तपःसाधना में तेज बढ़ता है और तेजस् शरीर बलवान बनता है, उसमें चमक और प्रकाश की किरणें प्रस्फुटित होती हैं। सर्वविरत श्रमणयोगी नवकोटि और नवबाड़ सहित पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करता है। उसके त्रियोग (मन-वचन-काया) ब्रह्मचर्य में ही स्थित रहते हैं, अब्रह्म सम्बन्धी विचार भी उसके अन्तर्मानस में नहीं उठते । वह सर्वतोभावेन ब्रह्मचर्य में लीन रहता है और उसकी रक्षा के लिए सदैव सन्नद्ध रहता है। १ आवश्यकचूर्णि में इन पांच भावनाओं का क्रम दूसरी प्रकार से दिया गया है। -देखिए-आवश्यकचूणि, प्रतिक्रमणाध्ययन, १४३-१४७ २ अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम् । -योगदर्शन २/३७ ३ योगदर्शन २/३८ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग को आधार भूमि : श्रद्धा और शील [२] १३५ ब्रह्मचर्य महावत की स्थिरता के लिए पाँच भावनाएँ हैं (१) रागपूर्ण स्त्री-कथा त्याग-श्रमणयोगी स्त्री सम्बन्धी कथा या वार्ता नहीं करता और न सुनता ही है। (२) मनोहर अंगों के अवलोकन का त्याग-श्रमणयोगी स्त्रियों के कामवर्धक और मनोहर अंगों की ओर दृष्टि-निक्षेप भी नहीं करता। (३) पूर्व रति-स्मरण त्याग-श्रमण ने अपने गृहस्थ जीवन में (दीक्षा ग्रहण करने से पूर्व) जो स्त्री-सम्बन्धी सुख भोगे हों, उनका उसे स्मरण नहीं करना चाहिए। (४) प्रणीत रस भोजन वर्जन-श्रमण का कर्तव्य है कि वह कामवर्धक, रसीले, स्वादिष्ट और गरिष्ठ आहार का त्याग करे। क्योंकि ऐसे आहार से चित्त चंचल हो जाता है। साथ ही आहार की मात्रा भी कम रखे, अधिक आहार भी विकारवर्द्धक होता है। (५) शयनासन वर्जन-स्त्री-पशु-नपुसक आदि के द्वारा स्पर्शित आसन शय्या आदि का साधु उपयोग न करे। यदि उस आसन-शय्या आदि का उपयोग करना विवशता ही हो तो उनके उठने के एक मुहर्त बाद उसका उपयोग कर सकता है, किन्तु सामान्यतः उपयोग नहीं करना चाहिए। (५) अपरिग्रह महावत : निस्पृह योग परिग्रह का आशय यहाँ भाव और द्रव्य परिग्रह दोनों से है। साधक श्रमण को निग्रंथ कहते हैं और ग्रंथ का अभिप्राय परिग्रह है । निग्रंथ अपरिग्रही होता है। उसके अन्तर्मन में निर्ममत्व होता है। बाह्य धार्मिक उपकरणों में तो उसका ममत्व होता ही नहीं; किन्तु वह अपने शरीर के प्रति भी मोह-ममत्व नहीं रखता। परिग्रह अथवा ममत्व भाव अशांति का कारण होता है और अशांत चित्त कभी एकाग्र नहीं हो सकता और जिस साधक का चित्त एकाग्र न हो सके वह योग साधना कैसे कर सकता है । अतः अपरिग्रह योग साधना में सहायक होता है। पातंजल दर्शन के व्याख्याकार महर्षि व्यास का कथन है कि अपरिग्रह की भावना सुदृढ़ होने पर साधक के चित्त की चंचलता एवं कलुषता धुल जाती है, मन निर्मल जल प्रवाह की भांति शान्त हो जाता है १ आचारांग, द्वितीय श्रु तस्कंध, अध्ययन १५, सूत्र ७८६-८७ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ जैन योग : सिद्धान्त और साधना और शान्त चित्त में पूर्वजन्मों की स्मृति उभरने लगती है । अपरिग्रह भाव से भावित मन पूर्वजन्म - जातिस्मरण बोध को प्राप्त होता है । ' जैन आगमों में भी वैराग्य या निर्वेद में लीन होने पर अनेक भव्यों को जातिस्मरण ज्ञान की उत्पत्ति के उदाहरण मिलते हैं । श्रमण भी योग साधना के लिए दीक्षा लेता है । वह अपनी योग साधना अपरिग्रह महाव्रत का पालन करके आगे बढ़ाता है । २ इस महाव्रत की पाँच भावनाएँ हैं— (१) श्रोत्रेन्द्रिय रागोपरति - प्रिय अप्रिय, कोमल-कठोर शब्दों को सुनकर श्रमण उसमें राग-द्वेष न करे । (२) चक्षुइन्द्रिय रागोपरति - सुन्दर-असुन्दर, सुरूप - कुरूप आदि चक्षु इन्द्रियों से देखे जाने वाले विभिन्न प्रकार के रूपों में साधु को राग-द्वेष नहीं करना चाहिए । (३) घ्राणेन्द्रिय रागोपरति--सुगन्ध- दुर्गन्ध आदि में साधु राग-द्वेष न करे । (४) रसनेन्द्रिय रागोपरति - साधु को विभिन्न प्रकार के रसों में राग-द्वेष न करके उनसे उदासीन रहना चाहिए । (५) स्पर्शनेन्द्रिय रागोपरति - साधु को अपने जीवन में शीत - उष्ण, हल्का - भारी आदि अनेक प्रकार के स्पर्श का अनुभव होता है; किन्तु उसे उनमें राग-द्वेष न करके मन में शान्ति बनाये रखनी चाहिए । इस प्रकार श्रमणयोगी पाँच महाव्रतों का पालन इन पच्चीस (२५) भावनाओं (प्रत्येक महाव्रत की पाँच-पाँच भावनाएँ ) के साथ करता है और परिणामस्वरूप अपने चित्त में शान्ति ( राग-द्वेष न करने के कारण ) बनाये रखता है । इन पाँच यमों का महत्त्व उसके जीवन में अत्यधिक है, ये उसके मूल गुण हैं और योग के प्रथम सोपान हैं । श्रमण अपने स्वीकृत महाव्रतों द्वारा योग की साधना करता है और आत्म शान्ति की दिशा में आगे बढ़ता है । श्रमणाचार की अपेक्षा पांच महाव्रत श्रमण के मूलव्रत हैं तथा शेष बाईस गुण उसके अन्य गुण हैं । १ योगदर्शन, भाष्य २ / ३६ २ आचारांग, द्वितीय श्र तस्कन्ध अध्ययन १५ सूत्र ७८८ ७६१ . Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग की आधारभूमि : श्रद्धा और शील [२] १३७ योग की अपेक्षा पांच महाव्रतों को 'यम' की संज्ञा दी जाती है और शेष २२ गुणों को 'नियम' (योग के दूसरे अंग ) की कोटि में परिगणित किया जा सकता है । श्रमण के अन्य आवश्यक गुण ये हैं (६ १०) पंचेन्द्रियनिग्रह ( इन्द्रिय- प्रत्याहार ) - श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना और स्पर्शन - ये पाँच इन्द्रियाँ हैं । ये अपने-अपने विषयों की ओर दौड़ती हैं । इन्हें इनके विषयों से हटाकर आत्मा में लगाना ही इन्द्रियनिग्रह है । ( ११-१४) चतुविध कषाय विवेक (शान्ति योग) - कषाय चार हैं- क्रोध, मान, माया और लोभ । इन कषायों के आवेग में बहकर ही मनुष्य भाँतिभाँति के पाप और अकरणीय कार्य करता है । श्रमणत्व ग्रहण किया हुआ योगी, इन कषायों के आवेग का दमन नहीं, परिमार्जन करता है, जिससे उसकी चित्तविशुद्धि होती है, आत्मा पर से राग-द्वेष का मल दूर होता है, आत्मज्योति प्रगट होती है । (१५) मावसत्य - अपने अन्तःकरण से आस्रवों (हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह) को दूर करके, धर्मध्यान- शुक्लध्यान द्वारा शुद्ध आत्मिक भावों का अनुप्रेक्षण करके, आत्मभावों में सत्य की स्फुरणा करना, भाव सत्य कहलाता है । श्रमणयोगी भावसत्य द्वारा अपनी अन्तरात्मा की तथा चित्त की विशुद्धि करता है । (१६) करणसत्य -- करण का आशय है- जिस अवसर पर जो क्रिया करने योग्य हो, उसे उसी अवसर पर करना । संपूर्ण धार्मिक क्रियाओं को सत्य रूप में और अवसर के अनुकूल करना चाहिए। करणसत्य भाव-सत्य में सहायक है । करण के सत्तर' प्रकार हैं । इन्हें यथाविधि करना ही करणसत्य है । करण के सत्तर भेद ये हैं-अशन आदि ४ प्रकार की पिंडविशुद्धि, ५ समिति, १२ भावना, १२ भिक्षु प्रतिमा, ५ इन्द्रिय-निरोध, २५ प्रकार का प्रतिलेखन, ३ गुप्तियाँ, ४ प्रकार का अभिग्रह | ( १७ ) योगसत्य - मन-वचन काया - इन तीनों योगों को श्रमणयोगी शम, दम, उपशम और आत्म-साधना में लगाता है, यही उसका योगसत्य ही १ पिंडविसोही, समिई, भावणा, पडिमाय इंदियनिरोहो । पडिलेहणं गुत्तीओ अभिग्गहा चेव करणं तु ॥ १२ भिक्षु प्रतिमाओं का वर्णन 'प्रतिमा योग' में देखिए । - ओघनियुक्तिभाष्य -सम्पादक Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ जैन योग : सिद्धान्त और साधना इस प्रकार इन तीनों योगों में सरलता और सत्य ओत-प्रोत हो जाता है, और योगी अपनी आध्यात्मिक साधना में सफलता की ओर बढ़ता है । (१८) क्षमा-यह योगी का विशिष्ट लक्षण है । कैसी भी क्रोध उत्पन्न करने वाली स्थिति-परिस्थिति हो, किन्तु वह क्षमा रखता है, क्रोध नहीं करता; क्योंकि क्रोध आत्म-साधना के मार्ग में बहुत बड़ा रोड़ा है। (१६) विरागता-आध्यात्मिक योग-मार्ग में आगे बढ़ने के लिए विरागता-सांसारिक भोगों से वैराग्य अति आवश्यक है। वैराग्य के बिना वह योग-मार्ग पर एक कदम भी नहीं रख सकता, उसकी रुचि ही योग की ओर न होगी। (२०) मनःसमाहरणता-मन की अकुशल प्रवृत्ति को रोककर उसे कुशल प्रवृत्ति (शुभ-भावों) में लगाना मनःसमाहरणता है। समाहरण का अभिप्राय मन को अन्य वृत्तियों से रोककर किसी एक वृत्ति पर स्थिर करना है । यह मका प्रत्याहार है, जो योग का एक आवश्यक अंग है। श्रमणयोगी मनःसमाहरण द्वारा मनःप्रत्याहार की साधना करता है। (२१) वाक्समाहरणता-यह वचन का प्रत्याहार है। वाक् को स्वाध्याय आदि में लगाना, अथवा मौन रहना वाक्समाहरणता है। (२२) कायसमाहरणता-शरीर को स्थिर एवं अचंचल रखना, कायसमाहरणता है। इस गुण से योगी को आसन-सिद्धि में सहायता प्राप्त होती है। (२३) ज्ञानसम्पन्नता-श्रमण को जितना भी अधिक सम्भव हो सके, ज्ञान का उपार्जन करके ज्ञानसम्पन्नता का गुण अजित करना चाहिए। (२४) दर्शनसम्पन्नता—अपने सम्यग्दर्शन को दृढ़ रखना, उसकी सुरक्षा करना श्रमण का दर्शनसम्पन्नता नाम का गुण है। (२५) चारित्रसम्पन्नता (सम्पूर्ण योग की साधना)-चारित्र का लक्षण बताते हुए कहा गया है कि जिसके द्वारा कर्मों का चय (संचय) रिक्त हो, उसे चारित्र कहते हैं। चारित्र के पाँच भेद हैं-(१) सामायिक, (२) छेदोपस्थापना, (३) परिहार-विशुद्धि, (४) सूक्ष्म-संपराय, (५) यथाख्यात ।' (१) सामायिक चारित्र-जिससे सावद्ययोग से निवृत्ति हो, राग-द्वेष की १ उत्तराध्ययन सूत्र २८/३२-३३ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग को आधारभूमि : श्रद्धा और शील [२] १३६ उपशान्ति हो, ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप समत्व की उपलब्धि हो, उसे सामायिक चारित्र कहा जाता है। ___ इस चारित्र द्वारा श्रमण समत्वयोग की भूमिका पर आरूढ़ हो जाता है। (२) छेदो पस्थापनीय चारित्र-नव-दीक्षित साधु-साध्वी सर्वप्रथम सामायिक चारित्र ग्रहण करता है। उसे ग्रहण करने के जघन्य (कम से कम) ७ दिन, मध्यम ३ मास और उत्कृष्ट ६ मास के पश्चात् जब वह प्रतिक्रमण भली-भाँति सीख जाता है, तब गुरुदेव द्वारा पाँच महाव्रतारोपण रूप जो चारित्र दिया जाता है, वह छेदोपस्थापनीय चारित्र कहलाता है । इसमें पूर्वपर्याय का व्यवच्छेद करके उत्तरपर्याय का स्थापन-महाव्रतों का आरोपण किया जाता है, इसलिए इस चारित्र को छेदोपस्थापनीय चारित्र कहते हैं। (वर्तमान युग में इसे बड़ी दीक्षा कहा जाता है।) (३) परिहारविशुद्धि चारित्र-दोष लग जाने पर अथवा बिना ही दोष लगे, कर्ममल को दूर करने के लिए तथा आत्मा की शुद्धि के लिए जो विशिष्ट साधना की जाती है, उसे परिहारविशुद्धि चारित्र कहा जाता है । (४) सूक्ष्मसम्पराय चारित्र-इस चारित्र में लोभ कषाय को सूक्ष्म किया जाता है। (५) यथाख्यात चारित्र-इस चारित्र में कषायों का पूर्ण नाश हो जाता है, तथा आत्मा के स्वाभाविक गुण प्रगट हो जाते हैं । यह चारित्र श्रमण के चारित्रसम्पन्नता की पूर्णता और उत्कृष्ट स्थिति है। इस प्रकार श्रमणयोगी सामायिक चारित्र अथवा समता की साधना से प्रारम्भ करके शनैः-शनैः ऊपर की ओर चढ़ता हआ समताभाव की पूर्णता अथवा यथाख्यात चारित्र प्राप्त कर लेता है, अरिहन्त बन जाता है, जीवन-मुक्त हो जाता है और योग-मार्ग के उच्चतम बिन्दु पर पहुँच जाता है। (२६) वेदना समाध्यासना-श्रमणयोगी किसी भी प्रकार की पीड़ा, कष्ट, वेदना आदि को समभावपूर्वक सहता है, राग-द्वष आदि कषाय भाव नहीं करता । वस्तुतः वेदना समाध्यासना श्रमण की तितिक्षा की परीक्षा हैं । इन कष्टों को शास्त्रीय भाषा में परीषह कहा गया है। इन परीषहों पर श्रमणयोगी समताभाव से विजय प्राप्त करता है। शास्त्रों में इन परीषहों की संख्या २२ बताई गई है Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० जन योग : सिद्धान्त और साधना (१) क्षुधा, (२) पिपासा, (३) शीत, (४) उष्ण, (५) दंशमशक, (६) अचेल, (७) अरति, (८) स्त्री, (९) चर्या, (१०) निषद्या, (११) शय्या, (१२) आक्रोश, (१३) वध, (१४) याचना, (१५) अलाभ, (१६) रोग, (१७) तृणस्पर्श, (१८) जल्ल (पसीना), (१६) सत्कार-पुरस्कार, (२०) प्रज्ञा, (२१) अज्ञान, (२२) अदर्शन ।' (२७) मारणान्तिक समाध्यासना-मारणान्तिक वेदना, कष्ट एवं उपसर्ग-परीषह को भी समभाव से सहन करना, मारणान्तिक समाध्यासना कहलाता है। श्रमणयोगी मृत्युतुल्य कष्ट को भी पूर्ण शान्ति और आत्मभाव में रमण करते हुए सहता है। ये श्रमण के २७ गुण हैं जिनका पालन श्रमण के लिए अनिवार्य है। श्रमण-गुण बनाम योग-मार्ग यदि गहराई से विचार किया जाय तो सम्पूर्ण श्रमणाचार योग-मार्ग ही हैं। अहिंसा महाव्रत द्वारा वह समत्वयोग की साधना करता हैं। सत्य तो योग का आधार है ही। ब्रह्मचर्य द्वारा वह अपनी चेतना का ऊर्ध्वारोहण करता है तथा अपरिग्रह महाव्रत की साधना तो निस्पृह योग की साधना ही है। इसी प्रकार पांचों इन्द्रियों का निग्रह–इन्द्रियों का प्रत्याहार है तथा कषायों के आवेग को रोकना शान्ति योग है जो अध्यात्मयोग का एक आवश्यक पहलू है। योगसत्य द्वारा श्रमण अपने मन-वचन-काय तीनों योगों को वश में करता है । वेदना समाध्यासना द्वारा वह तितिक्षा भाव की वृद्धि करके 'लययोग' की उच्चतम सीमा तक पहुँचता है तो चारित्र सम्पन्नता द्वारा अर्हन्त अथवा जीवन-मुक्त की स्थिति प्राप्त करता है। इस प्रकार श्रमणयोगी अपने श्रमणाचार (महाव्रत यानी मूलव्रत और उत्तरवतों की साधना) द्वारा सम्पूर्णयोग की साधना करता है। 00 १ उत्तराध्ययन सूत्र-परीषह विभक्ति, दूसरा अध्ययन । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ विशिष्ट योग-भूमिका-प्रतिमायोग-साधना प्रतिमा का आशय जब साधक अपने द्वारा स्वीकृत एवं अंगीकृत व्रत-नियमों, मूलव्रत, उत्तरव्रत, यम-नियमों का पालन भली-भाँति करने लगता है और उनके पालन में परिपक्व हो जाता है तो वह आगे अपने चरण विशिष्ट साधना की ओर बढ़ाता है। इस विशिष्ट साधना में वह दृढ़तापूर्वक विशेष नियम ग्रहण करता है और उनका सम्यक् परिपालन करता है, किसी भी भयंकर से भयंकर और विपरीत स्थिति में वह अपने स्वीकृत नियम से विचलित नहीं होता। ऐसे विशिष्ट नियम गृहस्थ साधक भी ग्रहण करता है और संसारत्यागी श्रमण-साधक भी। दोनों ही अपनी-अपनी मर्यादा के अनुसार प्रतिज्ञा ग्रहण करते हैं। मर्यादा एवं व्रत तथा योग्यता, क्षमता के आधार पर दोनों के ही नियम और प्रतिज्ञाएं अलग-अलग होती हैं। इन विशिष्ट नियमों और साधना पद्धति का नाम ही 'प्रतिमायोग' है। । प्रतिमा का अभिप्राय है-प्रतिज्ञा-विशेष, व्रत विशेष,' तप-विशेष; विशेष साधना पद्धति एवं कोई दृढ़ कठोर संकल्प । प्रतिमाओं के दो भेद हैं-(१) श्रावक-प्रतिमा और (२) श्रमणप्रतिमा। (१) श्रावक प्रतिमा (गृहस्थयोगी की विशिष्ट साधना भूमिकाएं) जिस प्रकार किसी ग्यारह (११) मंजिल के भवन की सबसे ऊँची मंजिल पर पहुँचने के लिए सोपानों को पार किया जाता है, उसी प्रकार गृहस्थयोगी भी अपने श्रावकधर्म के चरम शिखर तक पहुँचने के लिए ११ १ (क) प्रतिमापतिपत्तिः प्रतिज्ञति यावत्। -स्थानांग वृत्ति, पत्र ६१ (ख) प्रतिमा-प्रतिज्ञा अभिग्रहः । -वही, पत्र १८४ . Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ जैन योग : सिद्धान्त और साधना प्रतिमाओं की साधना करता है। ये ११ प्रतिमाएँ उसकी साधना की भूमिकाएं हैं, जो उत्तरोत्तर उसका आत्मिक विकास करती हैं, उसकी आत्मा का योग--संयोग आत्मिक गुणों से कराती हैं। ये गृहस्थ साधक के आत्मिक विकास के सोपान हैं और हैं विशिष्ट साधना भूमिकाएँ । इन साधना भूमिकओं की साधना करते हुए उसमें आत्म-गुणों के विषय में अत्यधिक श्रद्धा और दृढ़ता जाग्रत होती है। ये साधना भूमिकाएँ-प्रतिमाएं क्रमशः ११ हैं-(१) दर्शन, (२) व्रत, (३) सामायिक, (४) पौषध, (५) नियम, (६) ब्रह्मचर्य, (७) सचित्तत्याग, (८) आरम्भत्याग, (8) प्रेष्य-परित्याग अथवा आरम्भ परित्याग, (१०) उद्दिष्टभक्तत्याग और (११) श्रमणभूत । (१) दर्शन प्रतिमा (शुद्ध, अविचल एवं प्रगाढ़ श्रद्धा) इस प्रतिमा की नींव शुद्ध, अविचल, निर्मल और प्रगाढ़ सम्यग्दर्शन है। इसकी आराधना अविरत सम्यग्दृष्टि करता है । इसके लिए किसी भी व्रत को धारण करना आवश्यक नहीं है। सिर्फ निर्दोष' सम्यग्दर्शन होना अनिवार्य है। यह प्रतिमा गृहस्थयोगी की योग-मार्ग पर आगे बढ़ने की प्रथम और आधारभूत भूमिका है। इसमें वह अपने निज धर्म (आर्हत धर्म और निर्ग्रन्थ प्रवचन) तथा देव-गुरु-धर्म पर दृढ़ श्रद्धा रखता है। यह सम्यग् श्रद्धा ही योग की प्रथम भूमिका है। किन्तु इस प्रतिमायोग का धारी किसी भी प्रकार के व्रत नियमों का पालन करने की स्थिति में नहीं होता। इस प्रतिमा का लक्षण बताते हुए कहा गया है जो गृहस्थयोगी संसार व शरीर के भोगों से विरक्त हो, जिसका सम्यग्दर्शन शुद्ध हो, जिसको केवल पंच परमेष्ठी ही शरण हो, तथा सत्य मार्ग का ग्रहण करने वाला हो, वह दर्शन प्रतिमा का धारी दार्शनिक योगी होता है। ___ इस भूमिका पर अवस्थित गृहस्थयोगी की श्रद्धा इतनी प्रगाढ़ और १ सम्यग्दर्शन के मल अथवा दोष २५ हैं-(१) शंका आदि ८ दोष, (२) आठ मद, (३) छह अनायतन और (४) तीन मूढ़ता । २ सव्वधम्मरुइ यावि भवति । तस्स णं बहूई सीलवय गुणवय पच्चवखाण पोस होववासाइं नो सम्मपट्ठवित्ताइं भवन्ति । -आयारदसा ६/१७, पृ० ५४ ३ रत्नकरण्डश्रावकाचार १३७ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्टयोग भूमिका-प्रतिमायोग-साधना १४३ निर्मल होती है कि देव-दानव-मानव आदि कोई भी उसे उसकी श्रद्धा से विचलित नहीं कर सकते; कितनी भी प्रतिकूल एवं कष्टमय परिस्थितियाँ सामने आ जायें किन्तु वह अपनी श्रद्धा को नहीं छोड़ता; प्राणों की बाजी लगाकर भी अपनी श्रद्धा पर अटल रहता है । भय एवं प्रलोभन उसे विचलित नहीं कर सकते। (२) व्रत प्रतिमा (विरति की ओर बढ़ते चरण) - इस प्रतिमा में गृहस्थयोगी श्रावक व्रतों का पालन करता है । योगमार्ग की दृष्टि से यह प्रतिमा 'यम' के अन्तर्गत है। गृहस्थयोगी इस प्रतिमा को धारण करने पर मूल व्रतों (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह) का पालन सम्यक प्रकार से करता है । उत्तर-व्रतों (नियमों-गुणव्रत और शिक्षाव्रतों) की भी साधना करता है।' ____इस प्रतिमा को धारण करने वाला श्रावक योग-मार्ग पर अपने सुदृढ़ चरण बढ़ा देता है। (३) सामायिक प्रतिमा (योग-साधना का प्रारम्भ) इस प्रतिमा का धारी गृहस्थयोगी, योग-साधना प्रारम्भ कर देता है। वह अपने सम्पूर्ण बल, वीर्य, उत्साह और उल्लास के साथ दो घड़ी (४८ मिनट) तक सामायिक-समताभाव की साधना करता है। सामायिक करते समय वह सामायिक के छह अंगों-(१) समताभाव, (२) चतुर्विंशतिस्तव, (३) गुरुवन्दन, (४) प्रत्याख्यान, (५) कायोत्सर्ग और (६) प्रतिक्रमण की सम्यग् आराधना करता है। समताभाव द्वारा वह राग-द्वाष पर विजय प्राप्त करने का प्रयास करता है, तथा अपनी आत्मा का अनुभव करता है। चतुर्विशतिस्तव और गुरुवन्दन तो भक्तियोग हैं ही । कायोत्सर्ग द्वारा देह से ममत्व त्याग करके ध्यान करता है । प्रत्याख्यान द्वारा वह अपनी सांसारिक भोगेच्छाओं को सीमित करता है-जो विरतियोग की साधना है और प्रतिक्रमण में वह अपने दोषों की आलोचना करके उनको पुनः न लगने देने का दृढ़ निश्चय करता है। इस प्रकार श्रावक की सामायिक प्रतिमा पूर्ण रूप से योग के अन्तर्गत १ (क) आयारदसा, छठी दशा, सूत्र १८, पृष्ठ ५५ (ख) विंशतिका १०/५ (ग) रत्नकरण्ड श्रावकाचार १३८ . Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ जैन योग : सिद्धान्त और साधना आती है, क्योंकि सामायिक साधना ही आत्मसाधना है और आत्मसाधना ही योग का लक्ष्य है, आदि है और अन्त है । यही कारण है कि सामायिक प्रतिमा का महत्त्व गृहस्थयोगी श्रावक के जीवन में अत्यधिक है । इस प्रतिमा का स्वरूप और लक्षण' तथा माहात्म्य अनेक ग्रन्थों में बताया गया है । (४) पौषध प्रतिमा ( अहोरात्र की आत्म - साधना ) -- जब गृहस्थयोगी में विरक्ति भाव और आत्म-साधना की रुचि विशेष प्रबल हो जाती है तो वह दो घड़ी समय से बढ़ाकर एक रात्रि - दिन (२४ घंटे) तक आत्म-साधना और धर्मध्यान करने लगता है । लेकिन चूँकि गृहस्थ को पारिवारिक और सामाजिक दायित्व भी निभाने पड़ते हैं, इसलिए वह अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमावस्या - इन छह पर्व दिनों में अवश्य धर्मस्थान में जाकर, अन्न-पान आदि सभी प्रकार के आहार का त्याग करके तथा समस्त पारिवारिक, सामाजिक गतिविधियों को छोड़, गुरु के सान्निध्य में, यदि वे स्थानक में उपस्थित हों, २४ घण्टे तक धर्म- जागरणा करता है, आत्म-चिन्तन-मनन, स्वाध्याय, धर्मध्यान आदि में समय व्यतीत करता है, यह पौषध प्रतिमा है । इस प्रतिमा का धारी गृहस्थयोगी और भी योगनिष्ठ हो जाता है । (५) नियम प्रतिमा ( विविध नियमों की साधना ) इस प्रतिमा को धारण करके गृहस्थयोगी विभिन्न प्रकार के नियमों को ग्रहण करता है, उनकी परिपालना सम्यक् रूप से करता है । इस प्रतिमा के पाँच नियम मुख्य हैं - ( १ ) स्नान नहीं करना (२) रात्रि में चारों प्रकार के आहार का त्याग अथवा सूर्य के प्रकाश में ही चारों प्रकार का आहार ग्रहण करना, (३) मुकुलीकृत रहना अर्थात् धोती को लांग नहीं लगाना, १ (क) आयारदसा, छठी दशा, सूत्र १६ 1) रत्नकरंड श्रावकाचार, १३६ (क) आयारदसा, छठी दशा, सूत्र २० (ख) रत्नकरंड श्रावकाचार १४० (ग) श्रावकाचार संग्रह, भाग ४, प्रस्तावना, पृ० ८३ (घ) धर्म रत्नाकर, श्लोक ३२-३३, पू० ३३६ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्ट योग भूमिका -- प्रतिमायोग-साधना १४५ (४) दिन में पूर्ण रूप से ब्रह्मचर्य का पालन करना, तथा रात्रि में भी अब्रह्म सेवन की मर्यादा करना और (५) एक रात्रि की प्रतिमा का भी भाँति पालन करना ।" जीव-रक्षा की भावना से प्रस्तुत प्रतिमाधारी गृहस्थ सचित्त जल का उपयोग बिल्कुल भी नहीं करता । इस प्रकार साधक, इस प्रतिमा द्वारा योग-साधना के मार्ग पर चलता हुआ, संसार से और भी विरक्त होता है । ब्रह्मचर्य की साधना योग के लिए अति आवश्यक है; क्योंकि निर्वीर्य अथवा भोग द्वारा वीर्य को नाश कर देने वाला व्यक्ति योग की साधना में चमक नहीं ला सकता । वीर्य की शक्ति के द्वारा ही तो कुण्डलिनी शक्ति सुषुम्ना नाड़ी में होकर ऊर्ध्व गति करती है, चेतना का ऊर्ध्वारोहण होता है । योगी की साधना ऊर्जस्वी और तेजस्वी बनती है । गृहस्थयोगी इस प्रतिमा की साधना द्वारा अपनी चेतना अथवा जीवनी शक्ति का ऊर्ध्वकरण करके योग-साधना करता है । इस प्रतिमा में साधक मन-वचन-काया, इन तीनों योगों से पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करता है, यहाँ तक कि ऐसा हास्य-विनोद भी नहीं करता जिसके कारण ब्रह्मचर्य में दूषण लगने की भी सम्भावना हो ।" (६) ब्रह्मचर्य प्रतिमा ( चेतना का ऊर्ध्वारोहण ) आहार का संयम योग का एक आवश्यक अंग है । आहार जितना ही अधिक निर्दोष (हिंसा आदि दोषों से रहित ) और सात्विक होगा, साधक का मन उतना ही अधिक आत्म-साधना में रमण कर सकेगा । आयारदसा, छठी दशा, सूत्र २१, पृष्ठ ५८ (क) आयारदसा, छठी दशा, सूत्र २२, पृष्ठ ५६-६० (ख) विंशतिका, १० / ६-११ ३ आयारदसा, छठी दशा, सूत्र २३, पृष्ठ ६० इस प्रतिमा में गृहस्थ साधक सभी प्रकार के सचित्त आहार-जल आदि सभी प्रकार के भोज्य पदार्थों का त्याग कर देता है । इस प्रकार वह आहार १ २ (७) सचित्तत्याग प्रतिमा (आहार - संयम ) Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ जैन योग : सिद्धान्त और साधना सम्बन्धी संयमन और नियमन करके अपनी इच्छाओं का निरोध करता है तथा अहिंसा की साधना में आगे बढ़ता है । (८) आरम्भ त्याग प्रतिमा ( अहिंसा यम की साधना ) आरम्भ शब्द जैन धर्म का एक पारिभाषिक शब्द है । इसका अभिप्राय - हिंसात्मक क्रिया-कलाप । मन से किसी प्राणी को दुःख पहुँचाने अथवा हनन करने का विचार मानसिक आरम्भ है | जिससे किसी का हृदय तिलमिला उठे, पीड़ित हो जाय, ऐसे वचन बोलना वाचिक आरम्भ है । शारीरिक क्रियाओं, लकड़ी, शस्त्र आदि से किसी प्राणी को पीड़ित करना, डराना, धमकाना आदि शारीरिक आरम्भ है । हिंसात्मक होने के कारण वह घर एवं व्यापार सम्बन्धी कार्य अथवा आरम्भ नहीं करता । इस प्रतिमा की साधना करने वाला साधक इन आरम्भों को स्वयं नहीं करता; किन्तु पुत्र आदि तथा सेवक वर्ग से आरम्भ कराने का त्यागी नहीं होता । ' साधक स्वयं स्थूल प्राणियों की हिंसा न करके अहिंसा-यम की साधनाआराधना करता है । (६) प्रेष्य परित्याग प्रतिमा ( संवरयोग तथा सूक्ष्म अहिंसा यम की साधना ) प्रस्तुत प्रतिमा में साधक अहिंसा यम की ओर भी सूक्ष्म आराधना करता है । वह घर एवं व्यापार सम्बन्धी कार्य किसी अन्य (पुत्र, सेवक आदि) से भी नहीं करवाता है ।" यहाँ तक कि वह वायुयान, जलयान, स्थलयान (मोटर कार, स्कूटर, ट्र ेन, रिक्शा, बैलगाड़ी आदि ) किसी भी प्रकार के वाहन का प्रयोग स्वयं नहीं करता और दूसरों से भी नहीं कराता । वाहनों का प्रयोग करने-कराने का त्याग वह इसलिए करता है कि वाहनों से स्थूल १ (क) आयारदसा, छठी दशा, सूत्र २४, पृष्ठ ६१ (ख) विंशतिका १० / १४ (ग) आचार्य सकलकीर्ति ने इस आठवीं प्रतिमा में ही वाहनों का प्रयोग करने तथा कराने का त्याग माना है । - देखिए प्रश्नोत्तर श्रावकाचार, श्लोक १०७ आयारदसा, छठी दशा, सूत्र २५, पृष्ठ ६१. Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्ट योग भूमिका-प्रतिमायोग-साधना १४७ एवं सूक्ष्म प्राणियों की अधिक हिंसा होती है । वह सावधानीपूर्वक पूर्ण पदयात्री रहता है। इस प्रकार वह और भी गहराई से तथा सूक्ष्मदृष्टिपूर्वक अहिंसा यम की साधना करता है तथा अपना अधिकांश समय संवरयोग में व्यतीत करता है । इस प्रतिमा के साधक के जीवन में संवरयोग (निवृत्ति) प्रमुख हो जाता है। (१०) उद्दिष्टभक्त-त्याग प्रतिमा (संवर योग की साधना) इस प्रतिमा में गृहस्थयोगी साधक हिंसा से और भी विरत हो जाता है, वह निरन्तर स्वाध्याय और ध्यान में लीन रहता है। वह अपने निमित्त बने आहार को भी नहीं खाता, इसका कारण यह है कि भोजन बनाने में जल, अग्नि, वायु, वनस्पति काय के जीवों की हिंसा तो होती ही है, और वह अपने लिए किंचित् भी हिंसा कराना नहीं चाहता। इस प्रकार वह सूक्ष्महिंसा का त्याग करने में भी प्रयत्नशील रहता है तथा अहिंसा यम की अधिक से अधिक साधना करता है। वह अपने बालों का छुरे से मुण्डन कराता है। चोटी सिर्फ इसलिए रखता है कि वह गृहस्थ का चिन्ह है और अभी वह साधक गृहस्थ ही है, गृहत्यागी नहीं बना है। साथ ही वह वचनयोग का संवर भी करता है। भाषा का पूर्ण विवेक रखता है। कोई प्रश्न पूछे जाने पर यदि वह जानता है तो कहता है 'मैं जानता हूँ और यदि नहीं जानता तो कहता है-'मैं नहीं जानता।' इस प्रकार वह मन-वचन-काय-तीनों योगों को वश में करके संवर योग तथा ध्यान-स्वाध्याय आदि के द्वारा ध्यानयोग एवं तपोयोग की साधना में दत्तचित्त रहता है। (११) श्रमणभूत प्रतिमा (गृहस्थयोग साधना का अन्तिम सोपान) प्रस्तुत प्रतिमा गृहस्थ साधक की योग-साधना का अन्तिम सोपान है। इस प्रतिमा को धारण करके वह घर से निकल जाता है और धर्मस्थानक में अथवा सन्त-श्रमणों के साथ रहता है। १ आयारदसा, छठी दशा, सूत्र २६, पृष्ठ ६२ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ जैन योग : सिद्धान्त और साधना वह भिक्षा द्वारा प्राप्त भोजन करता है । केशलोंच करता है और यदि शक्ति न हो तो छुरे (उस्तरे से) मुण्डन भी करा सकता है । उसका वेष और आचार श्रमण जैसा होता है, इसीलिए इस प्रतिमा का नाम श्रमणभूत प्रतिमा है । इस प्रतिमा के बाद वह श्रमण बन जाता है ।" इस प्रतिमा को धारण करने वाला साधक यम-नियमों का पालन करता हुआ स्वाध्याय, ध्यान, समाधि आदि योग क्रिया-प्रक्रियाओं की साधना करता है । उसका जीवन पूर्ण योगी का जीवन होता है । प्रतिमाओं की विशेष बातें । गृहस्थ प्रतिमाओं की साधना क्रमशः होती है । साधक पहली, दूसरी, तीसरी तथा इसी प्रकार क्रमशः ग्यारहवीं प्रतिमा तक शनैः शनैः उन्नति करता है | ये गृहस्थ साधक की साधना की भूमिकाएँ अथवा सोपान हैं । जिस प्रकार सीढ़ी चढ़ने के लिए पहले पहली सीढ़ी पर पैर रखा जाता है, फिर दूसरी पर; उसी प्रकार इन प्रतिमाओं की भी साधना की जाती है । साधक पहली प्रतिमा की साधना में परिपक्व होने के बाद ही दूसरी प्रतिमा धारण करता है । उत्तरोत्तर प्रतिमाओं की साधना करते समय वह पिछली प्रतिमाओं में किये गये अभ्यास को छोड़ नहीं देता, वरन् सुदृढ़तापूर्वक करता रहता है । इन प्रतिमाओं में से प्रथम प्रतिमा का कालमान या साधना काल १ मास का, दूसरी प्रतिमा का २ मास का, तीसरी प्रतिमा का ३ मास का, चौथी प्रतिमा का ४ मास का, पाँचवीं प्रतिमा का ५ मास का, छठी प्रतिमा का ६ मास का, सातवीं प्रतिमा ७ मास का, आठवीं प्रतिमा का मास का, नवीं प्रतिमा का मास का, दसवीं प्रतिमा का १० मास का, और ग्यारहवीं प्रतिमा का ११ मास का है । प्रतिमाओं की साधना करते हुए गृहस्थ साधक योगनिष्ठ होता जाता है और अन्तिम प्रतिमा में तो वह योगी ही बन जाता है । इसीलिए प्रतिमाओं की साधना को योग साधना तथा प्रतिमायोग माना जाता है । (२) भिक्षु प्रतिमा ( गृहत्यागी श्रमण की विशिष्ट साधना भूमिकाएं) जिस प्रकार गृहस्थ साधक की ११ साधना भूमिकाएँ हैं, उसी प्रकार आयारदसा, छठी दशा, सूत्र २७, पृष्ठ ६३ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्टयोग भूमिका-प्रतिमायोग-साधना १४६ संसार-त्यागी श्रमण की भी १२ साधना भूमिकाएँ अथवा प्रतिमाएँ हैं। श्रमणयोगी विशिष्ट साधना करने के लिए इन प्रतिमाओं को ग्रहण करता है। इन प्रतिमाओं की साधना में वह विशिष्ट अभिग्रह और नियम ग्रहण करता है तथा उनका यथाविधि दृढ़तापूर्वक पालन करता है। इन प्रतिमाओं अथवा प्रतिमायोग की साधना में वह आहार-नियमन, शरीर-नियमन, वाक एवं मन वशीकरण तथा आसन आदि योग के लगभग सभी अंगों की साधना करता है। मन-वचन-काय-तीनों योगों को वश में रखता है। अतः योग की दृष्टि से ये प्रतिमाएँ श्रमण-जीवन में अति महत्त्वपूर्ण हैं। १. प्रथम प्रतिमा श्रमणयोगी की प्रथम प्रतिमा १ मास की है । इस प्रतिमा के आराधन काल में श्रमण शारीरिक संस्कार और शरीर के ममत्व भाव से रहित होता है, वह शरीर के प्रति उदासीन हो जाता है। ___ वह देव, मनुष्य और तिर्यंच (पशु-पक्षी) सम्बन्धी जितने भी उपसर्ग, कष्ट एवं पीड़ा आते हैं, उन्हें सम्यक् प्रकार से सहन करता है, उपसर्ग करने वाले के प्रति मन में तनिक भी द्वष नहीं लाता वरन् उसे उपकारी ही मानता है कि वह कर्म-निर्जरा में सहायक बन रहा है। वह अपने मन में तनिक भी दैन्य भाव नहीं लाता अपितु वीरतापूर्वक समताभाव से उन कष्टों को झेलता है। वह आहार के विषय में इतना सन्तोषी हो जाता है कि एक दत्ति (एक अखण्ड धारा से जितना भी आहार तथा पानी साधु के पात्र में श्रावक या दाता दे) अन्न की और एक दत्ति पानी की लेता है और उसी में सन्तोष कर लेता है । भिक्षा के लिए वह दिन में एक ही बार जाता है और वह भी विशिष्ट नियमों एवं विधि के साथ। वह एक गाँव में दो रात्रि से अधिक निवास नहीं करता। भाषा तथा वाणी का वह इतना संयम कर लेता है कि वह -(१) याचनी (दूसरे से वस्त्र पात्र आदि माँगना), (२) पृच्छनी (शंका-समाधान के लिए गुरुदेव से प्रश्न पूछना अथवा किसी से मार्ग पूछना), (३) अनुज्ञापिनी (गुरु से गोचरी आदि की आज्ञा लेना अथवा शय्यातर-गृहस्वामी से स्थान की आज्ञा लेना) और (४) पृष्ठ व्याकरणी (किसी व्यक्ति द्वारा किये Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० मैन पोन : सिद्धान्त और साधना गये प्रश्न का उत्तर देना)-इन चार प्रकार की भाषाओं को बोलने के अतिरिक्त सर्वथा वचनालाप का त्याग कर देता है। वह वृक्ष मूल में, चारों ओर से खुले स्थान में अथवा उद्यान में बने लतामण्डप में, शिला अथवा काष्ट (लकड़ी का पाट) पर ही रात बिता देता है। वह शरीर के प्रति इतना विरक्त हो जाता है कि जिस उपाश्रय-धर्मस्थानक अथवा स्थान पर वह ठहरा हो, उसमें किसी प्रकार आग आदि का उपद्रव हो जाये तो वहाँ से बाहर नहीं निकलता। यदि गमन करते समय उसके पैर में काँटा, काँच आदि चुभ जाय तो उसे निकालता नहीं, उसी दशा में इर्यासमितिपूर्वक गमन करता है । इसी प्रकार आँख में गिरे कंकड़, तिनके आदि को नहीं निकालता। जहाँ भी सूर्यास्त हो जाय-दिन का चौथा प्रहर समाप्त हो जाय, वहीं, वह पूरी रात के लिए ठहर जाता है, चाहे वह स्थान भयानक वन हो, पर्वत हो या नगर-ग्राम का बाह्य भाग हो। चाहे शीतकाल में वहाँ बर्फीली हवाएं चल रही हों अथवा हिंसक पशुओं की गर्जनाएं हो रही हों। वह सचित्त पृथ्वी पर न चलता है, न बैठता है और न नींद लेता है। यदि मार्ग में गमन करते समय सिंह आदि कोई हिंसक पशु सामने आ जाये तो वह एक कदम भी पीछे नहीं हटता, इतना निर्भय होता है वह । किन्तु साथ ही इतना दयालु भी होता है कि गाय आदि सामने आ जाये तो उसे मार्ग देने के लिए चार कदम पीछे हट जाता है। यानी अपनी प्राण-रक्षा के निमित्त वह एक कदम भी पीछे नहीं रखता किन्तु दूसरों की सुविधा के लिए पीछे हट जाता है। वह शरीर के ममत्व और देहाध्यास से इतना दूर होता है कि शीतनिवारण के लिए धूप में अथवा ग्रीष्म ऋतु में धूप से बचने लिए छाया में जाने की इच्छा भी नहीं करता। इस प्रकार कठोर नियमों का पालन करते हुए वह प्रथम प्रतिमा की साधना करता है।' इस सम्पूर्ण प्रतिमा में वह मन-वचन-काय–तीनों योगों को वश में रखकर संवर एवं ध्यानयोग की साधना में रत रहता है। १ आयारदसा, सातवीं दशा, सूत्र १-२५, पृ० ६७-७६ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्ट योग भूमिका --- प्रतिमायोग-साधना १५१ दूसरी प्रतिमा में वह दो दत्ति अन्न की और दो दत्ति पानी की ग्रहण करता है तथा प्रथम प्रतिमा के सभी नियमों को यथारीति पालन करता है । इसका कालमान दो मास का है । तीसरी प्रतिमा का काल तीन मास का है । प्रथम प्रतिमा के सभी नियमों का पालन करते हुए वह तीन दत्ति अन्न की और तीन दत्ति पानी की लेता है । चौथो, पाँचवीं, छठी और सातवीं प्रतिमाओं का कालमान क्रमशः चार, पाँच, छह और सात मास है तथा दत्ति संख्या भी क्रमशः चार, पाँच, छह और सात है । ' इन सातों प्रतिमाओं में संसारत्यागी श्रमण योग की विभिन्न क्रियाप्रक्रियाओं की और विशेष रूप से समत्वयोग की साधना करता है । वह सभी प्रकार के मानसिक-शारीरिक तथा आधिदैविक, आधिभौतिक कष्टों को समभाव से सहता हुआ आत्म-साधना में लीन रहता है । आगे की प्रतिमाएँ : तप के साथ आसन जय आठवीं प्रतिमा में संसारत्यागी श्रमण साधक एक दिन का निर्जल उपवास (चतुर्थ भक्त) ग्रहण करके ग्राम अथवा नगर के बाहर उत्तानासन, पार्श्वसन अथवा निषद्यासन द्वारा कायोत्सर्ग में स्थिर रहता है । मल-मूत्र की बाधा यदि हो तो प्रतिलेखित भूमि पर मल-मूत्र त्याग कर पुनः अपने स्थान आकर कायोत्सर्ग में लीन हो जाता है । उस समय उस पर कैसा भी उपसर्ग आवे किन्तु वह अपने ध्यान से विचलित नहीं होता । इस प्रतिमा का काल एक सप्ताह का है । tat प्रतिमा भी सात दिन-रात अथवा एक सप्ताह की है । इस प्रतिमा के आराधन काल में साधक दण्डासन, लकुटासन या उत्कटुकासन से कायोत्सर्ग एवं ध्यान-साधना में लीन रहता है । दसवीं प्रतिमा भी सात दिन-रात की है । इसके आराधना काल में साधक गोदोहनिकासन, वीरासन और आम्रकुब्जासन से कायोत्सर्ग तथा आत्म- ध्यान करता है । ग्यारहवीं प्रतिमा एक अहोरात्र (२४ घण्टे - प्रथम दिन के सूर्योदय से लेकर दूसरे दिन के सूर्योदय तक) की है । इस प्रतिमा के आराधना काल में आयारदसा, सातवीं दशा, सूत्र २६- ३१, पृष्ठ ७९-८० १ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ जैन योग : सिमान्त और साधना साधक दो दिन का निर्जल उपवास (षष्ठ भक्त-बेला) करता है। ग्राम अथवा नगर के बाह्य भाग में दोनों पैरों को संकुचित कर तथा दोनों भुजाओं को जानु पर्यन्त लम्बी करके (खड्गासन) कायोत्सर्ग करता है। इन सभी प्रतिमाओं (आठवों से लेकर ग्यारहवीं तक) में साधक संवर और ध्यानयोग तथा तपोयोग (अनशन तप की अपेक्षा से) की साधना करता हुआ आसन-जय भी करता है। ___ बारहवीं प्रतिमा भिक्षु की, यद्यपि एक रात्रि की है। किन्तु है बड़ी कठिन तथा साथ ही बहुत ही महत्त्वपूर्ण भी है। इसकी सम्यक् साधना साधक को आत्मोन्नति के चरम शिखर तक पहुंचा देती है तो थोड़ी सी भी असावधानी आत्मिक, मानसिक एवं शारीरिक रूप से अति भयंकर दुष्परिणाम भी लाती है, साधक को पतन के गर्त में भी गिरा देती है। इस प्रतिमा की साधना, साधक अष्टम भक्त (तीन दिन का चारों प्रकार के आहार का त्याग-तेला) की तपस्या द्वारा करता है । वह ग्राम या नगर के बाह्यभाग में जाकर दोनों पैरों को संकुचित कर तथा भुजाओं को जानु पर्यन्त (जंघा तक) लम्बी करके कायोत्सर्ग में स्थिर होता है । उस समय शरीर को थोड़ा सा आगे झुकाकर, एक पुद्गल पर दृष्टि रखते हुए नेत्रों को अनिमेष रखता है तथा सम्पूर्ण इन्द्रियों को गुप्त रखता हैं। दूसरे शब्दों में उसका संपूर्ण शरीर, इन्द्रियाँ एवं मन ध्येय में लीन हो जाते हैं, ध्याता और ध्येय एकाकार हो जाते हैं। __ वह सम्पूर्ण रात्रि इसी प्रकार साधना करते हुए व्यतीत करता है । इस एक रात्रि की प्रतिमा को सम्यक प्रकार से न पालन करने वाले श्रमणयोगी को अहितकर, अशुभ, अस्वार्थ्ययकर, दुखद भविष्य वाले और अकल्याणकर—ये तीन परिणाम भोगने पड़ते हैं (१) मानसिक उन्माद अथवा पागलपन, (२) अतिदीर्घ समय तक भोगे जाने वाले रोग और आतंक, तथा (३) केवलीप्रज्ञप्त धर्म से भ्रष्ट हो जाना। इस प्रकार वह साधक आध्यात्मिक, मानसिक और शारीरिक-तीनों प्रकार से पतित हो जाता है तथा कष्ट एवं पीड़ा में अपना जीवन व्यतीत करता है। केवलीप्रज्ञप्त धर्म से पतित होने का परिणाम तो उसे अनेक जन्मों तक दुर्गतियों और दुर्योनियों में उत्पन्न होकर भोगना पड़ता है, उसका संसार अतिदीर्घ हो जाता है, अथवा यों समझिये कि वह सागर के तट पर आकर पुनः भंवर में पड़कर डूब जाता है। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्ट योग भूमिका - प्रतिमायोग-साधना १५३ इसके विपरीत यदि श्रमणयोगी इस प्रतिमा का सम्यक् रूप से पालन करने में सफल होता है तो इसका परिणाम उसके लिए अतीव हितकर, शुभ, सामर्थ्यंकर, कल्याणकर एवं सुखद होता है । उसे तीन प्रकार की महान और अद्वितीय विशिष्ट उपलब्धियाँ प्राप्त होती हैं (१) अवधिज्ञान की उपलब्धि, (२) मनः पर्यवज्ञान की प्राप्ति; और (३) केवलज्ञान की प्राप्ति । साधक को जब केवलज्ञान की उपलब्धि हो जाती है तो फिर बाकी ही क्या रहता हैं, उसे अपने ध्येय की प्राप्ति ही हो जाती है, योगमार्ग की यहाँ सार्थकता ही हो जाती है । जिस लक्ष्य को लेकर साधक योग की साधना का प्रारम्भ करता है, वह लक्ष्य उसे हस्तगत हो जाता है । प्रतिमायोग की साधना गृहस्थ साधक सुदृढ़ श्रद्धा (सत्यतथ्य के प्रति प्रगाढ़ विश्वास ) के साथ प्रारम्भ करता है | श्रद्धायोग के साथ ज्ञानमार्ग का सम्बल लेकर वह दृढ़तापूर्वक क्रियायोग पर कदम बढ़ाता है तथा यम-नियमों की साधना करता हुआ वह क्रिया-योग का अवलम्बन लेता हुआ श्रमण - गृहत्यागी एवं संसारत्यागी श्रमण की भूमिका तक पहुँचता है, उसका लक्ष्य श्रमण बनकर ज्ञान, संयम और चारित्र की साधना में पूर्ण रूप से लीन हो जाना होता है । और श्रमण का लक्ष्य होता है कैवल्य प्राप्त करके सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जाना । वह अपनी प्रतिमाओं का प्रारम्भ शरीर और इन्द्रियों को संयमित करते हुए तपोयोग तथा ध्यानयोग की साधना-आराधना करता है; आसन - जय करके शरीर की क्षमताओं को बढ़ाता है तथा परीषह-उपसर्ग सहन करके समताभाव एवं तितिक्षा की साधना करता है, अन्तिम प्रतिमा में तो वह सम्पूर्ण योग का अवलम्बन लेता है, मन एवं इन्द्रियों को ध्येय में स्थिर करके स्वयं ध्येयाकार बनता है और अपने लक्ष्य - कैवल्य के प्राप्त कर लेता है । इस प्रकार इन प्रतिमाओं की साधना 'प्रतिमायोग' है; क्योंकि इस साधना में प्रारम्भ से अन्त तक योग के विभिन्न अंगों की साधना स्वयमेव ही हो जाती है । विभिन्न प्रकार के यम-नियम तो गृहस्थ और संसार त्यागी श्रमण की प्रारम्भिक प्रतिमाओं में ही साधित किये जाते हैं | श्रावक सामायिक प्रतिमा में योग के सभी अंगों, जैसे—आसन, ध्यान आदि की साधना करता है; तथा श्रमण तो अपनी अन्तिम प्रतिमा में निर्विकल्प समाधि तक पहुँच जाता है, तभी तो उसे कैवल्य की प्राप्ति होती है । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ जयणायोग साधना (मातृयोग) - जयणायोग, जैनयोग का एक विशिष्ट योग है। इसमें न प्राणायाम की विशिष्ट क्रियाओं की आवश्यकता होती है और न आसनसिद्धि पर ही अधिक बल प्रदान किया जाता है। साधक इस योग की प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों ही अवस्थाओं में साधना कर सकता है । इस साधना में सतत जागरूकता अपेक्षित है। साधक असद् प्रवृत्तियों से स्वयं को बचाता हुआ यतनाशील या सावधान रहे, सहज समाधिपूर्वक जीवन यात्रा सम्पन्न करे, इसीलिए इसे जयणायोग अथवा सहजयोग की संज्ञा से अभिहित किया गया है। सहजयोग में मन-वचन-काय-इन तीनों योगों को वश में करके इन्हें शुभ एवं शुद्ध प्रवृत्तियों में लगाया जाता है, तथा साधक हर समय-प्रवृत्ति करते समय भी सावधान रहता है । वह अपनी सम्पूर्ण क्रियाएँ यतनापूर्वक करता है । प्रवृत्ति करते समय उसका मूल मन्त्र होता है जयं चरे, जयं चिठे, जयमासे, जयं सये । जयं भुजतो भासन्तो, पावकम्मं न बंधई ॥ यतनापूर्वक चलने, बैठने, सोने, खाने आदि सभी क्रियाएँ करते हुए साधक को पाप कर्म का बंध नहीं होता है । यतना का ही दूसरा नाम समिति है और मन-वचन-काय को वश में रखना गुप्ति है, अतः सहजयोग समिति-गुप्ति-अष्ट प्रवचन माता रूप होता है। यद्यपि इन अष्ट प्रवचन माताओं की पूर्ण रूप से सफल साधना तो श्रमण साधक ही कर पाता है। किन्तु गृहस्थ साधक भी अपनी योग्यता, क्षमता और परिस्थिति के अनुसार इनका पालन करने का प्रयत्न करता है। अष्ट प्रवचन माता में तीन गुप्ति (मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति) तथा पाँच समिति (ईर्या समिति, भाषा समिति, एषणा समिति, आदान-निक्षेपण समिति और परिष्ठापनिका समिति) का समावेश होता हैं। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयगायोग साधना (मातृयोग) १५५ समिति-गुप्तियों की साधना करते हुए सहज ही-स्वाभाविक रूप से, बिना विशेष प्रयत्न किये ही योग के सभी अंगों को साधना हो जाती है तथा साधक अपने लक्ष्य-सिद्धि को प्राप्त कर लेता है। अष्ट प्रवचन माता (तीन गुप्ति और पांच समिति) मन की अथवा चित्त की विशुद्धि आत्मिक विकास में अतीव सहायक है । विशुद्धता से ही मन एकाग्र होता है और आत्मा अपने लक्ष्य-मोक्ष तक पहुँचता है। किन्तु मन की विशुद्धि के लिए अशुभ प्रवृत्तियों का शमन तथा शुभ एवं शुद्ध प्रवृत्तियों का आचरण अनिवार्य है। शुभ और शुद्ध प्रवृत्तियों के आचरण एवं अशुभ प्रवृत्तियों के उपशमन के लिए समितियों तथा गुप्तियों का विधान किया गया है। गुप्तियां मन-वचन-काय की अशुभ प्रवृत्तियों को रोकती हैं और समितियाँ शुभ चारित्र की प्रवृत्ति के लिए हैं।' गुप्तियों से मन-वचन-काय की स्थिरता-एकाग्रता प्राप्त होती है और समितियों द्वारा शुभ प्रवृत्तियों की ओर उन्मुख होने-शुभाचरण का पालन करने का अभ्यास प्रबल होता है । अतः इन दोनों का संयुक्त नाम अष्ट प्रवचन माता है। ये अष्ट प्रवचन माता (गुप्ति और समिति) श्रमणयोगी का वह योग है, जो उसे मोक्ष महल तक पहुँचाने में समर्थ है। श्रमणाचार को अपेक्षा तो इनका महत्त्व है ही, किन्तु योग-मार्ग की दृष्टि से भी इनका महत्त्व अत्यधिक है। इनकी परिपालना श्रमणयोगी के लिए आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है क्योंकि ये श्रमण के महाव्रतों का माता की तरह रक्षण एवं पोषण करती हैं। गुप्तियाँ गुप्ति का लक्षण-सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान पूर्वक त्रियोग (मन-वचन१ एयाओ पंच समिइओ, चरणस्स य पवत्तणे । गुत्ती नियत्तणे वुत्ता, असुभत्येसु सव्वसो॥ -उत्तराध्ययन २५/२३ २ (क) अट्ठ पयणमायाओ, समिई गुत्ती तहेव य । पचेव य समिईओ, तओ गुत्तीओ आहिया ।। -उत्तराध्ययन २४/१ (ख) एताश्चारित्रगात्रस्य, जननात्परिपालनात् । संशोधनाच्च साधूनां, मातरोष्टी प्रकीर्तिता ।। -योगशास्त्र १/४५ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ जैन योग : सिवान्त और साधना काय) का निरोध करके अपने-अपने मार्ग में (आत्म-भाव अथवा आध्यात्मिक भाव में) स्थापित करना गुप्ति' है। सामान्यतः मन-वचन-काय की प्रवृत्ति संसाराभिमुखी और राग-द्वेष आदि कषायों की ओर रहती है। गुप्तियों द्वारा श्रमणयोगी कषायरूपी वासनाओं से अपनी आत्मा की रक्षा (गोपन) करता है। ___गुप्ति के भेद-गुप्ति के तीन प्रकार हैं-(१) मनोगुप्ति (२) वचनगुप्ति और (३) कायगुप्ति । (१) मनोगुप्ति-राग-द्वष आदि कषायों की ओर प्रवृत्त मन को रोकना मनोगुप्ति है। इसे और स्पष्ट करने के लिए कह सकते हैं कि संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ की प्रवृत्तियों की ओर जाते हुए मन को मनोगुप्ति द्वारा रोका जाता है । मन को असद् एवं अशुभचिन्तन से बचाना मनोगुप्ति है । (२) वचनगुप्ति-वचनगुप्ति का साधक श्रमणयोगी या तो मौन का अवलम्बन लेता है अथवा बोलता भी है तो सत्य-वचन ही उसके मुख से निकलते हैं। असत्य न बोलना तथा मौन रहना वचन गुप्ति है। साधक ऐसे सत्य वचन भी नहीं बोलता जिनसे सुनने वाले को दुःख और पीड़ा हो, क्योंकि ऐसे वचन सत्य होते हुए भी हिंसाकारी होने से त्याज्य हैं । इसीलिए कहा गया है-असत्य, कठोर, आत्मश्लाघी वचन बोलने से सुनने वालों के मन को चोट पहुँचती है, उन्हें पीड़ा का अनुभव होता है, इसलिए वाचना, पृच्छता, प्रश्नोत्तर आदि में भी विवेक रखना (सीमित और नपे-तुले शब्द बोलना) तथा अन्यत्र भाषा का निरोध करना-मौन रहना, न बोलना वचनगुप्ति १ (क) सम्यग्दर्शनज्ञानपूर्वक त्रिविधयोगस्य शास्त्रोक्त विधिनास्वाधीन-मार्ग व्यवस्थापनरूपत्वं गुप्ति सामान्यस्य लक्षणम् । -आर्हत्दर्शन दीपिका ५/६४२ (ख) वाक्कायचित्तजाऽने कसावधप्रतिषेधकं । त्रियोगरोधकं वा साद्यत्तद्गुप्तित्रयं मतम् ॥ -ज्ञानार्णव १८/४ २ सद्ध नगरं किच्चा, तवसंवरमग्गलं । खंति निउणपागारं, तिगुत्त दुप्पधंसयं ।। -उत्तराध्ययन ६/२० ३ जा रागादिणियत्ती मणस्स जाणाहि तं मणोगुत्ति । -मूलाराधना ६/११८७ ४ संज्ञादिपरिहारेण यन्मौनस्यावलम्बनं । वाग्वृत्तं संवृत्तिर्वा या सा वाग्गुप्तिरिहोच्यते ।। -योगशास्त्र १/४२ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयायोग साधना (मातृयोग) १५७ है ।' दूसरे शब्दों में वाणी- विवेक, वाणी-संयम और वाणी निरोध ही वचन-गुप्त है । (३) काय गुप्ति - संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवृत्त काययोग का निरोध करना काय गुप्ति है, साथ ही सोते-जागते, उठते-बैठते, खड़े होते तथा लंघन - प्रलंघन करते समय तथा इन्द्रियों के व्यापार में काययोग का निरोध कायगुप्ति है । आगमों में मनोगुप्ति के साथ-साथ मनः समिति का वर्णन भी किया गया है । वहाँ समिति शब्द का निर्वचन इस प्रकार किया गया है— 'संसम्यक्, इति – प्रवृत्ति' अर्थात् सम्यक् प्रवृत्ति ही समिति है । मन की सत्प्रवृत्ति को मनःसमिति माना गया है और मनोगुप्ति से मन का निरोध द्योतित किया गया है | १ वाचन् पृच्छन् प्रश्नव्याकरणादिष्वपि सर्वथा वाङ निरोधरूपत्वं, सर्वथा भाषानिरोधरूपत्वं वा वाग्गुप्तेर्लक्षणं । - आर्हतुदर्शन दीपिका ५ / ६४४ ठाणे निसीयणे चेव, तहेव य तुयट्टणे । उल्लंघणपल्लंघणे, इन्दयाण य जुञ्जणे ॥ संरम्भसमारम्भे, आरम्भम्मि तहेव य ।" कायं पवत्तमाणं तु, नियत्तज्ज जयं जई ॥ ३ (क) मणेण पावएणं पावकं अहम्मियं दारुणं निस्संसं वहबंधपरिकिले सबहुलं मरणभयपरिकिलेससंकिलिट्ठ त कयावि मणेण पावतेणं पावगं किंचिविज्झायव्वं मणसमिति योगेण भावितो णं भवति अन्तरप्पा | -- उत्तराध्ययन सूत्र २४ / २४-२५ - प्रश्नव्याकरण सूत्र, संवरद्वार (ख) मणगुत्तीए णं भते ! किं जणयइ ? मत्तीए णं जीवे एगग्गं जणयइ । एगग्गं चित्त े णं जीवे मणगुत्ते संजमाराहए भवइ । — उत्तराध्ययन सूत्र २६ / ५३ ( तत्र मनोनिरोधस्य प्रधानत्वाद – व्याख्याकारः । ) तात्पर्य यह है कि मनोगुप्ति से ग्रता से मन का निरोध होता है । मन की एकाग्रता और एका तथा मन से किसी भी प्रकार के पाप का चिन्तवन न करना, मनःसमिति है । फलित यह है कि मन का निरोध निवृत्ति है और पाप का चिन्तन न करके शुभ-शुद्ध का चिन्तन प्रवृत्ति है । इन दोनों के ही अवलम्बन से योगमार्ग की पूर्णता होती है । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ जैन योग : सिद्धान्त और साधना जिस प्रकार मनःसमिति का वर्णन आगमों में प्राप्त होता है, उसी का अनुसरण करते हुए वचन-समिति और काय-समिति का अभिप्राय साधक योगी समझ लेता है। ___इस प्रकार मन-वचन-काय-योग निवृत्ति ही नहीं; अपिपु सत्प्रवृत्ति भी योगमार्ग में अपेक्षित है। श्रमणयोगी चित्त को एकाग्र करके सिर्फ उसका निरोध ही नहीं करता, अपितु उसे धर्मध्यान और शक्लध्यान में प्रवृत्त भी करता है, क्योंकि मन कभी खाली नहीं रहता, कुछ-न-कुछ प्रवृत्ति करते रहना उसका स्वभाव है। अतः श्रमणयोगी के योग में निवृत्ति और प्रवृत्ति का उचित सामंजस्य रहता है । वह इन गुप्ति और समितियों (मन-वचन-काय को ध्यानयोग की अपेक्षा से) को अशुभ से हटाकर शुभ और शुद्ध में प्रवृत्त करके उनका योग (संयोग) आत्म-परिणामों के साथ करता है। यही मनवचन-काय-समिति-गुप्ति की योगी के योग-मार्ग और साधक जीवन में उपयोगिता तथा महत्त्व है। इस योग-मागे का अनुसरण करके वह अपने जीवन के चरम लक्ष्य की ओर बढ़ता है और उसे प्राप्त कर लेता है। समिति समिति का लक्षण-समिति द्वारा श्रमणयोगी अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति सम्यक रूप से करता है तथा अपने द्वारा स्वीकृत चारित्र का भली-भांति पालन करता है। समिति के भेद-समितियाँ पाँच हैं-(१) ईर्या समिति, (२) भाषा समिति, (३) एषणा समिति, (४) आदान-निक्षेपण समिति और (५) परिष्ठापनिका समिति । (१) ईर्या समिति-ईर्या समिति विशेष रूप से काया से सम्बन्धित है । गमनागमन सम्बन्धी जितनी क्रियाएँ हैं, सभी ईर्या समिति के अन्तर्गत परिगणित की जाती हैं। यतनापूर्वक सावधानी से गमन-आगमन सम्बन्धी क्रियाएँ करना ईर्या समिति है।' ईर्या समिति का पालन ४ प्रकार से होता है -(१) मालम्बन-साधक १ (क) मग्गुज्जोदुपओगालम्बण सुद्धीहिं इरियदो मुणिणो । सुत्ताणुवीचि भणिदा इरिया समिदि पवणम्मि ।।--मूसाराधना ६/११६१ (ख) उत्तराध्ययन २४/४ (ग) ज्ञानार्णव १८/५-७ २ उत्तराध्ययन २४/५-८ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयणायोग साधना (मातृयोग) १५६ के लिए रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र) ही अवलम्बन है। (२) काल-दिन में अर्थात् सूर्य के प्रकाश में देखकर चलना, रात्रि में लघुनीति या बड़ी नीति के लिए पूजणी (या रजोहरण) से पूजकर गमन करना तथा रात्रि को विहार न करना (३) मार्ग-उन्मार्ग में गमन न करना क्योंकि उन्मार्ग में जीवों की अधिक विराधना की आशंका रहती है (४) यतना-यह चार प्रकार से की जाती है-(क) द्रव्य से-भूमि को देखकर चलना, (ख) क्षेत्र से गाड़ी को धूसरी प्रमाण अथवा अपने शरीर प्रमाण या ३ हाथ प्रमाण भूमि को देखकर चलना (ग) काल खे-दिन में देखकर और रात्रि में पूँजणी से पूजकर चलना (घ) भाव से-गमन करते समय सिर्फ गमन में ही उपयोग रखे, न स्वाध्याय करे, न किसी से वार्तालाप करे और न मार्ग में होने वाले शब्दों आदि की ओर ही ध्यान दे । मन को गमन क्रिया में एकान करके चले। (२) भाषा समिति-क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, मुखरता, विकथा आदि आठ दोषों से रहित यथासमय, परिमित और निर्दोष भाषा बोलना, श्रमणयोगी की भाषा समिति है।' __ इसका पालन भी चार प्रकार से किया जाता है-(१) द्रव्य सेसोलह (१६) प्रकार को भाषा न बोलना-(१) कर्कश, (२) कठोर, (३) हिंसाकारी, (४) छेदक, (५) भेदक, (६) पीड़ाकारी, (७) सावध, (८) मिश्र, (९) क्रोधकारक, (१०) मानकारक, (११) मायाकारक, (१२) लोभकारक, (१३-१४) राग-द्वषकारक, (१५) मुख-कथा (अविश्वसनीय-सुनीसुनाई बात) और (१६) चार प्रकार की विकथा। (२) क्षेत्र से-मार्ग में चलते समय बात-चीत न करना (३) काल से-एक प्रहर रात्रि व्यतीत हो जाने के बाद उच्च स्वर से न बोलना (४) भाव से-राग-द्वेष रहित अनुकूल, सत्य, तथ्य, शुद्ध एवं निर्दोष वचन बोलना।' (३) एषणा समिति-आहार आदि की गवेषणा, ग्रहणषणा तथा परिभोगेषणा में आहार आदि के सभी दोषों का निवारण करना एषणा समिति है। १ (क) उत्तराध्ययन २४/९-१० (ख) योगशास्त्र १/३७ २ (क) उत्तराध्ययन २४/११ (ख) ज्ञानार्णव १०/११ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० जैन योग : सिद्धान्त और साधना इसके पालन के चार प्रकार हैं-(१) द्रव्य से-४७ दोषों (४२ आहार के और ५ मण्डल के) अथवा इनके सहित ६६ दोषों से रहित आहार आदि का सेवन करना । (२) क्षेत्र से–२ कोस (४ मील अथवा ६ किलोमीटर) से आगे (अधिक दूर तक) ले जाकर आहार-पानी का सेवन न करना (३) काल सेदिन के प्रथम प्रहर में लाया हुआ आहार उसी दिन के अन्तिम प्रहर में सेवन न करना । (४) भाव से-संयोजना आदि मण्डल दोषों से दूर रहकर आहार आदि का उपभोग करना। (४) आदान-निपेक्षण समिति-आदान का अर्थ लेना अथवा उठाना है और निपेक्षण का अर्थ रखना है । सामान्य और विशेष दोनों प्रकार के उपकरणों को आँखों से प्रतिलेखना करके तथा प्रमार्जन करके लेना और रखना आदान-निक्षेपण समिति है। साधु के धार्मिक उपकरण दो प्रकार के होते हैं-(१) अवग्रहिकसदा उपयोग में आने वाले जैसे-रजोहरण आदि और (२) प्रयोजनवशः उपयोग में आने वाले । इनमें से प्रथम प्रकार के उपकरणों को सामान्य और द्वितीय प्रकार के उपकरणों को विशेष कहा जाता है । - इस समिति का पालन भी चार प्रकार से किया जाता है। (१) द्रव्य से-भांड-उपकरण आदि यतनापूर्वक ग्रहण करे और रखे, उन्हें जोर-जोर से ऊपर से न पटके । (२) क्षेत्र से-किसी गृहस्थ के घर में रखकर अन्यत्र विहार न करे; क्योंकि ऐसा करने से उपकरणों की प्रतिलेखना नहीं हो पाती। (३) काल से-प्रातः और सन्ध्या-दोनों प्रकार के उपकरणों की विधिपूर्वक प्रतिलेखना करे। (४) भाव से-उपकरणों को अपनी धर्मयात्रा में सिर्फ सहायक माने, उन पर ममत्व और मूर्छा न करे। (५) परिष्ठापनिका समिति-जीव-जन्तु (त्रस और स्थावर) रहित प्रासुक भूमि पर मल-मूत्र, श्लेष्म, कफ आदि का विसर्जन करना, परिष्ठापनिका या व्युत्सर्ग समिति है। यह विसर्जन स्थंडिल भूमि में किया जाता है । स्थंडिल भूमि चार १ उत्तराध्ययन २४/१२ २ योगशास्त्र १/३९ ३ (क) उत्तराध्ययन २४/१५ (ख) सामार्णव १८/१४ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयगायोग साधना (मातृयोग) १६१. प्रकार की होती है-(१) अनापात असंलोक, (२) अनापात संलोक, (३) आपात असंलोक और (४) आपात संलोक ।' इस समिति का पालन भी चार प्रकार से किया जाता है-(१) द्रव्य से-विषम, दग्ध, बिल, गड्ढा, अप्रकाशित स्थान में न परठे। (२) क्षेत्र सेपरिष्ठापन क्षेत्र के स्वामी की और यदि उस स्थान का कोई स्वामी न हो तो शक्रन्द्र की आज्ञा लेकर उक्त वस्तुओं को परठे। (३) काल से-दिन में अच्छी तरह देखकर और रात्रि में पूजणी से पूजकर परठे। (४) भाव से--शुभशुद्ध उपयोगपूर्वक परठे। परठने जाते समय 'आवस्सहि-आवस्सहि' कहे और परठने के बाद 'वोसिरे-वोसिरे' कहे तथा वहाँ से लौटकर 'इरियावहिया' का प्रतिक्रमण करे। __ इस प्रकार समितियों द्वारा श्रमणयोगी अपनी सम्पूर्ण प्रवृत्तियों को सावधानी तथा विवेकपूर्वक करता है। इन प्रवृत्तियों के समय भी वह शुभ भावों में रमण करता है और योग-मार्ग का अवलम्बन करता है। उसकी यह प्रवृत्तियां भी मोक्ष-मार्ग में साधक ही होती हैं। .. १ उत्तराध्ययन ३५/१६ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ परिमार्जनयोग साधना (षडावश्यक) परिमार्जन अथवा परिष्कार श्रमसाध्य साधना है। आप किसी स्थान अथवा वस्तु को लीजिए । यदि सावधानी से उसका परिमार्जन न किया जाय तो उस पर मैल की परतें जम जायेंगी, उस वस्तु की स्वच्छता तो समाप्त होगी ही, वह वस्तु ही विनष्ट हो जायेगी। - आपने हीरा (diamond) तो देखा ही होगा ? कितनी चमक होती है उसमें ! किन्तु यदि उसको भी सावधानीपूर्वक पौंछा न जाय, उसका उचित रीति से परिमार्जन न किया जाय तो मैल के कारण, धूल-मिट्टी जमने से उसकी चमक कम हो जायेगी। हमारी आत्मा भी विशुद्ध हीरे के समान है, इसके निज गुणों की चमक, उसका प्रकाश भी अद्भुत है किन्तु उस पर हमारे ही किये (प्रवृत्तियों) कर्मों का, दोषों का आवरण पड़ा है, मैल जम गया है और वह मैल नित्यप्रति, हर घड़ी और यहाँ तक कि प्रतिक्षण जमता ही जायेगा; यदि उसका परिमार्जन न किया गया तो।। बाह्य एवं भौतिक वस्तुओं का तो परिमार्जन सरल है, उसमें न इतनी सूक्ष्म दृष्टि की आवश्यकता होती है और न इतने विवेक की । वस्तु ली और किसी कपड़े या डस्टर (Duster) से साफ कर दी; किन्तु आत्मा तो अत्यन्त सूक्ष्म पदार्थ है, इतना सूक्ष्म कि इन्द्रियों और मन की पकड़ में ही नहीं आता; और उसमें लगने वाले दोष तथा कर्म भी सूक्ष्म ही हैं । अतः आत्म-परिमार्जन व्यक्ति के लिए एक साधना बन जाता है । यह साधना है तो बहुत ही सूक्ष्म किन्तु साथ ही है बहुत आवश्यक । ___ साधक चाहे गृहस्थ श्रावक हो अथवा गृहत्यागो श्रमण; जो मुक्ति को प्राप्त करना चाहता है और अपने लक्ष्य की ओर गतिशील है, उसे अपनी जीवन-शुद्धि और दोष-परिमार्जन अवश्य और नित्य-प्रति करना चाहिए । इस .. दोष-परिमार्जन और जीवन शद्धि को ही आवश्यक कहा गया है। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमाननयोग साधना १६३ जैन योग साधना का प्रमुख और अनिवार्य अंग आवश्यक है। यह अवश्य ही किया जाना चाहिए।' यह आत्मा को दुगुणों से हटाकर सद्गुणों के अधीन करता है, सद्गुणों को आत्मा में स्थापित करता है। यह गुणों से शून्य आत्मा को गुणों से युक्त करता है। यह गुणों को आधार भूमिआपाश्रय (आध्यात्मिक समता, विनय आदि अनेक गुणों आधार) है। योग-मार्ग के साधक को अन्तष्टिसम्पन्न होना अनिवार्य है और अन्तष्टिसम्पन्न साधक का लक्ष्य आत्मा का परिमार्जन और परिष्कार होता है, इसी दोष-परिमार्जन की प्रक्रिया से ही तो वह अपने लक्ष्य मुक्ति की प्राप्ति करता है। इसीलिए गृहस्थ साधक तथा गृहत्यागी साधक-दोनों ही प्रकार के साधक अपनी-अपनी योग्यता, क्षमता, शक्ति और भूमिका के अनुसार आवश्यक की साधना करते हैं । आवश्यक की साधना उसके छह अंगों की साधना द्वारा की जाती है। दूसरे शब्दों में, आवश्यक के छह अंग हैं। इसीलिए इसे षडावश्यक कहा जाता है। - आवश्यक साधना के छह अंग ये हैं १ अवश्यं कर्तव्यमावश्यकम् । श्रमणादिभिरवश्यम् उभयकालं क्रियते इति भावः । -आवश्यक मलयगिरिवृत्ति २. गुणानांवश्यमात्मानं करोतीति ज्ञानादिगुणानाम् आसमन्ताद् वश्या इन्द्रिय कषा यादिर्भाव-शत्रवो यस्मात् तत् आवश्यकम् । -आवश्यक मलयगिरिवृत्ति ३। ज्ञानादिगुण-कदम्बकं मोक्षो वा आसमन्तादवश्यं क्रियतेऽनेन इत्यावश्यकम् । -आवश्यक मलयगिरि वृत्ति ४ आपाश्रयो वा इदं गुणानाम् प्राकृतशैल्या आवस्सयं । ५. समण सावणेण य, अवस्स कायव्वयं हवइ जम्हा ।। अन्नो अहो-निसस्स य, तम्हा आवस्सयं नाम ॥ -आवश्यक वृत्ति, गा० २ ६ अनुयोगद्वार सूत्र में इनके नाम ये हैं-(१) सावद्ययोग विरति (सामायिक) (२) उत्कीर्तन (चतुर्विशतिस्तव) (३) गुणवत् प्रतिपत्ति (गुरु उपासना अथवा वन्दना) (४) स्खलित निन्दना (प्रतिक्रमण-पिछले पापों की आलोचना) (५) व्रणचिकित्सा (कायोत्सर्ग-ध्यान-शरीर से ममत्व त्याग) और (६) गुणधारण (प्रत्याख्यान-भविष्य के लिए विभिन्न प्रकार के त्याग तथा नियम ग्रहण करना आदि)। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जन योग : सिद्धान्त और साधना (१) सामायिक-समभाव की साधना। (२) चतुर्विंशतिस्तव-तीर्थंकर देव की स्तुति ।' (३) वन्दन-सद्गुरुओं को नमन-नमस्कार। (४) प्रतिक्रमण-दोषों की अलोचना । (५) कायोत्सर्ग-शरीर के प्रति ममत्व त्याग एवं ध्यान । (६) प्रत्याख्यान-आहार तथा कषाय (क्रोध आदि) का त्याग । साधना का वैज्ञानिक क्रम षडावश्यक के इन सभी अंगों का क्रम बहुत ही सोच-विचारकर वैज्ञानिक ढंग से रखा गया है । इस क्रम से साधना करने पर साधक उत्तरोत्तर उन्नति करता जाता है। साथ ही अपने दोषों का परिमार्जन करके आत्मशुद्धि के सोपान पार करता है। सर्वप्रथम वह सामायिक में समत्वभाव की साधना करता है। समत्व भाव आने पर वह विषम भावों का विसर्जन करता है। विषम भावों के विसर्जन से उसकी चित्तवृत्ति स्वच्छ हो जाती है। तब वह अपने हृदयासन पर वीतराग तीर्थंकर देवों को विराजमान करता है, उनकी स्तुति द्वारा उनके गुणों को अपने जीवन में उतारने का प्रयास करता है, गुणों में लीन होता है। भगवान महावीर ने कहा है-धम्मो सुखस्स चिडू-धर्म शुद्ध हृदय में ही स्थित हो सकता है, अतः वह सामायिक की साधना द्वारा हृदय भूमि को स्वच्छ बनाता है और चतुर्विशतिस्तव द्वारा वीतराग के गुणों को धारण करता है, तत्पश्चात् गुणी साधकों की वन्दना करता है, उनके प्रति भक्ति से विभोर हो जाता है। इस प्रकार वह भक्तियोग की साधना करता है। भक्ति से उसके हृदय में नम्रता तथा सरलता आती है। सरलता आने पर वह अपने कृत दोषों, जो जाने-अनजाने अथवा विवशता के कारण हो गये हों, उनकी आलोचना करता है। __ क्योंकि यह सर्वज्ञात तथ्य है कि सरल व्यक्ति अपने दोषों को पहचान सकता है और सच्चे हृदय से उनकी आलोचना कर सकता है। अपनी भूलों को जानने और उनकी आलोचना करके अपने अन्तर में स्वच्छता और शुद्धता लाने की प्रक्रिया ही प्रतिक्रमण है। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमाननयोग साधना १६५ भूलों को पहचानने और उनकी आलोचना करके स्वच्छ होने के उपरान्त अन्तरशुद्धि में स्थिर रहना आवश्यक है, अन्यथा प्रतिक्रमण की प्रक्रिया गज-स्नान के समान ही रह जायगी, कि एक क्षण पहले स्नान किया और दूसरे ही क्षण शरीर पर धूल डाल ली। अतः अन्तरशुद्धि में स्थिर रहने के लिए साधक कायोत्सर्ग की साधना करता है। ___कायोत्सर्ग में साधक अपने तन-मन को स्थिर करता है, देह से ममत्व और देहाध्यास का त्याग करता है, देहातीत भावना में रमण करते हुए स्थिरवृत्ति का अभ्यास करता है और ध्यान की साधना करता है। अतः कायोत्सर्ग में स्थित साधक आसन, ध्यान आदि योगांगों की साधना करता हुआ स्थिरयोग में आता है। स्थिरवृत्ति की साधना के उपरान्त वह तपोयोग पर अपने चरण रखता है । अनशन (आहार त्याग), कषाय-नोकषाय, अठारह पापस्थानकों का त्याग करके तपोयोग की साधना करता है; क्योंकि इच्छाओं का निरोध करना ही तो तप है (इच्छानिरोधस्तपः) और वह प्रत्याख्यान द्वारा अपनी शारीरिक, भौतिक और सांसारिक इच्छाओं पर ही तो अंकुश लगाता है, उन्हें यथाशक्ति कम करता है। षडावश्यक की सम्पूर्ण साधना में वह संवरयोग में ही लीन रहता है; क्योंकि इस काल में वह मन-वचन-काया तथा कृत-कारित-अनुमोदन (त्रियोग-त्रिकरण)' से किंचित् भी आस्रवों का सेवन नहीं करता। षडावश्यक का यह क्रम साधना की दृष्टि से इतना वैज्ञानिक और श्रावक (गृहस्थयोगी) की सामायिक दो करण (कृत और कारित) तथा तीन योग (मन-वचन-काय) से होती है। गृहस्थ होने के कारण वह अनुमति का त्याग नहीं कर पाता । मान लीजिए, वह सामायिक में बैठा है, उस समय भी उसके पुत्र तथा सेवक आदि कारखाना अथवा व्यापार चला रहे हैं, घर में पत्नी पुत्र-वधुएँ आदि गृह कार्य कर रही हैं। ये व्यापार और घर सम्बन्धी कार्य सावध कार्य हैं और उनमें उसकी (गृहस्थ साधक की) संवासानुमति (auto matically understood accordance) होती ही है, इसीलिए वह अनुमतित्यागी नहीं हो पाता । इसके अतिरिक्त उसकी सामायिक का समय ४८ मिनट होता है, शक्ति और शारीरिक एवं परिस्थिति की अनुकूलता के अनुसार वह अधिक समय तक भी सामायिक कर सकता है। किन्तु साधु की सामायिक जीवन भर के लिए होती है । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ जैन योग : सिद्धान्त और साधना कार्य-कारण की श्रृंखला पर अवस्थित है कि साधक उत्तरोत्तर प्रगति करता हुआ अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होता जाता है । प्रत्येक साधना के लिए यह आवश्यक है कि वह भावपूर्वक हो, साधक उसमें तन्मय हो जाय, तभी साधना फलवती होती है, साधक के जीवन में चमक आती है; साथ ही यह भी जरूरी है कि वह विधिपूर्वक की जाय, अविधि से नहीं । यह बात षडावश्यक की साधना के बारे में भी सत्य है । डावश्यक के सभी अंगों की साधना साधक किस प्रकार करके अपनी आत्मा को उन्नति की ओर अग्रसर कर सकता है, इसका ज्ञान साधक को आवश्यक है । अतः इनकी विधि, लगने वाले सम्भावित दोषों आदि का संक्षिप्त विवेचन यहाँ दिया जा रहा है । समतायोग बनाम सामायिक की साधना सामायिक की साधना पाप कार्यों से सर्वथा निवृत्ति की साधना है । यह एक विशुद्ध साधना है । इसमें साधक को चित्तवृत्तियाँ तरंग रहित सरोवर के समान पूर्ण शान्त रहती हैं । वह अपने शुद्धात्मस्वरूप में अवस्थित रहता है । चित्तवृत्तियों के शान्त रहने से उसके संवरयोग सधता है और आत्मभाव में स्थित होने से निर्जरायोग । संवर और निर्जरायोग की यदि पूर्ण और उत्कृष्ट साधना हो जाय तो साधक मोक्ष भी प्राप्त कर लेता है ।" शब्द सामायिक में लीन साधक करोड़ों जन्मों के कर्मों को नष्ट कर लेता है ।" ऐसे उत्तम फलदायक सामायिक की साधना भी शुद्ध रूप में की जानी चाहिए । शुद्ध सामायिक के लिए साधक को सभी प्राणियों पर समभाव १ सामायिक विशुद्धात्मा सर्वथा घातिकर्मणः क्षयात् केवलमाप्नोति लोकालोकप्रकाशकम् || - हरिभद्र : अष्टक प्रकरण ३०/१ २ तिब्वतवं तवमाणे जं नवि निव्वट्टइ जम्मकोडीहि । तं समभाविआचित्तो, खवेइ कम्मं खणण ॥ ३ (क) जो समो सव्वभूएसु तसेसु थावरेसु य । तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलि भासियं ॥ (ख) अनुयोगद्वार १२८ (ग) नियमसार, गाथा १२६ -आवश्यक नियुक्ति, माथा ७६६ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमार्जनयोग साधना १६७ रखना आवश्यक है । तथा अपनी आत्मा को तप, संयम और नियम में रखना चाहिए। शद्धि के लिए शास्त्रों में भी विवेचन किया गया, वहाँ (१) द्रव्य-शद्धि (२) क्षेत्र शुद्धि, (३) काल-शुद्धि तथा (४) भाव शुद्धि-शुद्धि के ये चार प्रकार बताये गये हैं। (१) द्रव्य-शुद्धि से अभिप्राय आसन, आदि की शुद्धि है। जिस आसन पर अवस्थित होकर साधक सामायिक की साधना करता है, उसका उसे भली भांति प्रमार्जन कर लेना आवश्यक है, उसके धर्मोपकरण भी शुद्ध, सादा और स्वच्छ हों, उसके वस्त्र आदि भी स्वच्छ और श्वेत होने अनिवार्य हैं। श्वेत रंग शांति, सद्भावना और सात्विकता का परिचायक है, इसके संयोग से साधक के मनोभावों में भी शुद्धता आती है। अतः द्रव्यशद्धि सामायिक साधना की पहली और प्राथमिक शुद्धि है। (२) क्षेत्र-शुद्धि-साधक को अपनी सामायिक साधना के लिए सर्वथा एकान्त, निरुपद्रव स्थान चुनना चाहिए। स्थान ऐसा हो, जहाँ डांस-मच्छर आदि की बाधा न हो, कोलाहल और भीड़ का शोर न हो, ध्यान में विघ्न पड़े, ऐसे कारण वहाँ न हों । ऐसा स्थान उपाश्रय, धर्मस्थानक, नगर और ग्राम के बाह्य भाग तथा वन में कहीं भी हो सकता है। (३) काल-शुद्धि-सामायिक साधना के लिए साधक को काल का ध्यान रखना चाहिए। समय ऐसा होना चाहिए जब कि ज्यादा कोलाहल न हो। ऐसा समय प्रातः और सन्ध्या का होता है। प्रातःकाल मनुष्य का तन-मन प्रफुल्लित रहता है, न तन में आलस्य रहता है और न मन में जड़ता । उस समय मन शान्त रहता है, उसमें संकल्प-विकल्पों के तूफान नहीं उमड़ते। फिर भी साधक अपनी योग्यता और क्षमता के अनुसार यह निर्णय कर सकता है कि वह कब सामायिक की साधना करे, जिससे चित्त चंचल न हो और वह सरलता से शान्तिपूर्वक समत्व की साधना कर सके। . (४) मावशुद्धि-भावशुद्धि से अभिप्राय है-मन-वचन-काय की शुद्धि १ (क) जस्स सामाणिओ अप्पा संजमे नियमे तवे । तस्स सामायि होइ, इइ केवलि भासियं ॥ -आवश्यकनियुक्ति, गाथा ७६८ (ख) अनुयोगद्वार १२७, (ग) नियमसार, गाथा १२७. Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ जैन योग : सिद्धान्त और साधना तथा एकाग्रता एवं निश्चलता । मन-वचन-काय–त्रियोग को अपेक्षा से भाव शुद्धि तीन प्रकार से की जाती है। — (क) मनःशुद्धि-मनःशुद्धि का आशय है-मन में अशुभ विचारों का न आना। मन बड़ा चंचल है, इसकी शक्ति भी अत्यधिक है। गति भी आशातीत है । आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधानों के अनुसार ही विचारों की गति (मन का वेग) २२,६५,१२०, मील प्रति सेकण्ड है; जब कि अन्य किसी भी भौतिक पदार्थ की गति इतनी तीव्र नहीं है। यह मन सदा ही संकल्प-विकल्पों और तर्क-वितर्कों के जाल में उलझा रहता है, तरह-तरह की उधेड़-बुन किया करता है, कभी निश्चल बैठता ही नहीं । इसकी गति को और संकल्प-विकल्पों के जाल को रोकना बहुत कठिन है। यहाँ साधक के लिए निर्देश है कि वह मन की शद्धि करे, उसे मारने का प्रयास न करे । क्योंकि मन तो कभी मरता ही नहीं, उसका तो आत्मा में, आत्म-परिणामों में लय होता है, वह (भाव-मन) आत्मा की अथाह और अनंत सता में विलीन हो जाता है। सामायिक साधक मनःशुद्धि द्वारा मन को आत्मभाव में लोन करता है, अशुभ-भावों की ओर जाते हुए मन को शुद्ध और शुभ भावों की ओर मोड़ता है, यही उसकी मनःशुद्धि है। (ख) वचन-शुद्धि-वचन के दो भेद हैं-(१) अन्तर्जल्प और (२) बहिजल्प । बहिर्जल्प तो तब होता है जब वचन अथवा ध्वनि प्राणी के शरीर के ध्वनियन्त्रों से टकराती हुई जिह्वा, कंठ, तालु, दन्त, मूर्धा आदि के संस्पर्श एवं संयोग से शब्द अथवा ध्वनि रूप में बाहर निकलती है। ऐसी ही ध्वनि मनुष्य को स्वयं अथवा दूसरों को सुनाई देती है। किन्तु अन्तर्जल्प सिर्फ अन्दर ही रह जाता है, ध्वनियन्त्रों का संयोग करते हुए बाहर नहीं निकलता। इसकी ध्वनि न साधक को स्वयं सुनाई देती है, न अन्य लोगों को । अन्तर्जल्प मनोविचारों के बाद की स्थिति, उनकी अपेक्षा कुछ स्थूल होता है। _साधारण शब्दों में अन्तर्जल्प को सूक्ष्म वचनयोग और बहिर्जल्प को स्थूल वचनयोग कहा जा सकता है। स्थूल वचनयोग की शुद्धि तो सामायिक में साधक करता ही है, वह अप्रिय, कठोर, कर्कश शब्द नहीं बोलता; किन्तु वास्तविक रूप में उसकी वचन-शुद्धि तभी होती है जब वह अन्तर्जल्प अथवा सूक्ष्म वचनयोग की शुद्धि कर लेता है। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमार्जनयोग साधना १६६ साधक स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकार के वचनयोग को शुद्धि के लिए प्रयत्नशील रहता है। इस प्रकार को वचन शुद्धि से वह शुद्ध सामायिक की साधना-आराधना करता है। (ग) काय शुद्धि-काय-शुद्धि का अभिप्राय काय-संयम है। सामायिक का साधक किसी भी एक आसन से स्थिर होकर बैठता है। वास्तविकता यह है कि काय-शरीर के अस्थिर होने से वचनयोग भी अस्थिर हो जाता है और इसके परिणामस्वरूप मनोयोग भी चंचल हो जाता है । साथ ही काय-शुद्धि द्वारा साधक आसन-जय भी करता है । ___इन सभी प्रकार की शुद्धियों के साथ-साथ वह मन-वचन-काय-योग की स्थिरता, अचंचलता और एकाग्रता की सिद्धि करके सामायिक की शुद्ध साधना करता है। सामायिक साधना का सबसे महत्त्वपूर्ण परिणाम साधक के जीवन में यह होता है कि उसका संपूर्ण जीवन और व्यवहार ममतामय हो जाता है, उसकी राग-द्वेष की वृत्तियाँ उपशान्त हो जाती हैं, उसे आन्तरिक प्रसन्नता का अनुभव होता है। (२) चतुर्विशतिस्तव : भक्तियोग का प्रकर्ष यह षडावश्यक का दूसरा अंग है। षडावश्यक के प्रथम अंग सामायिक में साधक समस्त सावद्य योगों का त्याग कर देता है। किन्तु मन बड़ा चंचल है, उसे किसी न किसी आलम्बन की आवश्यकता पड़ती ही है। उसे किसी श्रेष्ठ ध्येय में लगाना आवश्यक है; अन्यथा वह इन्द्रिय-विषयों की ओर- अशुभ भावों की ओर दौड़ लगाने लगता है। साथ ही यह भी एक तथ्य है कि जब तक साधक साधकावस्था में है, उसकी साधना पूर्ण नहीं हुई है तब तक उसे आलम्बन आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है। आत्म-साधक के लिए वीतराग देव ही सर्वश्रेष्ठ आलम्बन हैं, क्योंकि उसका ध्येय भी तो वीतरागता प्राप्त करना है, वह स्वयं वीतराग ही तो बनना चाहता है, उसकी साधना का आदि-मध्य-अन्त सब कुछ वीतरागता ही तो है और तीर्थंकर देव वीतरागता के चरमोत्कर्ष हैं। अतः साधक उनका आलम्बन लेता है, उनकी स्तुति करता है और उनके गुणों को बारबार स्मरण करके उन्हें अपने मन-मस्तिष्क में धारण करता है, उनका उज्ज्वल आदर्श सदैव अपने समक्ष रखकर उन जैसा वीतराग बनने का प्रयत्न करता है। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० जैन योग : सिद्धान्त और साधना - वीतराग देवों (तीर्थंकरों) की स्तुति करने से साधक को अनेक प्रकार के लाभ होते हैं। उसकी श्रद्धा परिमार्जित होती है और सम्यक्त्व शद्ध होता है। वीतराग-स्तुति से साधक आलम्बनयोग और भक्तियोग की साधना में परिपक्व होता है। (३) वन्दना : समर्पणयोग देव के उपरान्त दूसरा स्थान गुरु का होता है । गुरु के निर्देशन में ही साधक अपनी साधना को सम्यक् रूप में परिपूर्ण कर पाता है । अतः गुरु का उसके जीवन-निर्माण में महत्त्वपूर्ण हाथ होता है तथा उसके ऊपर उनका महान् उपकार होता है, गुरु के उपदेश ही उसके साधक-जीवन की प्रेरणा और सम्बल होते हैं। अतः साधक सर्वात्मना गुरु के प्रति समर्पित होता है तथा भक्ति-भावपूर्वक उनकी वन्दना करता है। उन्हें मंगल और कल्याण रूप समझता है। इस प्रकार साधक गुरु-वन्दन एवं गुरु भक्ति द्वारा भक्तियोग की साधना तो करता ही है साथ ही समर्पणयोग की भी साधना करता है। इससे वह अपने अहंकार का विसर्जन कर देता है तथा उसका हृदय-मानसभूमि, सरल और शुद्ध हो जाती है। (४) प्रतिक्रमण : मात्म-शुद्धि का प्रयोग यद्यपि साधक अपनी साधना में सदा जागरूक और सावधान रहने का प्रयत्न करता है। फिर भी अनादिकालीन लगे हुए राग-द्वषों, विषय-कषायों के आवेगों के कारण दोष लगने की सम्भावना रहती ही है। इन दोषों की आलोचना करके आत्म-शुद्धि करना ही प्रतिक्रमण है। । दूसरे शब्दों में प्रतिक्रमण आत्म-शुद्धि की साधना है, अशुभ से शुभ में लौटने की साधना है, जीवन को मांजने की कला है। इसीलिए आत्मदृष्टि से जागरूक साधक दिन में दो बार-प्रातःकाल एवं सायंकाल प्रतिक्रमण करता है। अपनी असावधानी से लगे दोषों की आलोचना करके, आत्म-शुद्धि का प्रयास करता है। इस प्रकार प्रतिक्रमण आत्म-शुद्धि तथा जीवन-शोधन की श्रेष्ठ प्रक्रिया है। (५) कायोत्सर्ग : देह में विवेह साधना कायोत्सर्ग में साधक अपने शरीर के ममत्व का त्याग करता है । वह Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमार्जनयोग साधना १७१ शरीर से आत्मा को पृथक् मानता हुआ भेदविज्ञान की साधना में आगे बढ़ता है। भेदविज्ञान की साधना दृढ़ हो जाने पर उसमें कष्ट और परीषह सहन करने की क्षमता बढ़ जाती है, क्योंकि उसकी धारणा बन जाती है कि ये कष्ट और पीड़ाएँ शरीर को हो रहे हैं। मुझे यानी मेरी आत्मा को नहीं; और यह शरीर तो विनश्वर है ही । इस प्रकार देह में विदेह अवस्था सिद्ध होती है। ___साधक को कायोत्सर्ग की साधना द्वारा आत्मा के शाश्वत स्वभाव और अमरत्व का पूर्ण विश्वास हो जाता है और यह विश्वास ही देहाध्यासत्याग के रूप में प्रगट होता है । कायोत्सर्ग में साधक सर्वप्रथम देहका शिथिलीकरण करता है । तनावों से मुक्त होकर सम्पूर्ण स्नायुमण्डल को ढीला करता है । साथ ही वह मुद्रा अथवा आसन का भी अभ्यास करता है। वह या तो खड्गासन से कायोत्सर्ग करता है अथवा सुखासन, पद्मासन और अद्धपद्मासन से करता है। तीनों ही दशाओं में उसका आसन तथा आसनस्थित शरीर निश्चल रहता है। इसके उपरान्त वह दीर्घश्वास द्वारा लयबद्ध श्वास का अभ्यास करता है। दीर्घश्वास से शरीर और शरीर के अवयव शीघ्र ही शिथिल हो जाते हैं। दीर्घश्वास के साथ धीमे श्वास का अभ्यास साधक करता है। दूसरे शब्दों में, वह श्वास को सूक्ष्म करता है । सूक्ष्म श्वास मन की एकाग्रता में सहायक होता है और उससे साधक तन-मन में शान्ति व शीतलता अनुभव करता है। तदुपरान्त वह श्वास की गति के साथ लोगस्स या 'नवकार मन्त्र' की साधना प्रारंभ करता है । एक 'लोगस्स' का ध्यान २५ श्वासोछ्वास में तथा ६ बार नवकार मंत्र का ध्यान २७ श्वासोच्छ्वास में किया जाता है। इस प्रक्रिया द्वारा वह ध्यानयोग की साधना करता है। कायोत्सर्ग में आसन, प्राणायाम और ध्यान-योग के इन तीन अंगों की साधना एक साथ सिद्ध होती है। आचार्य भद्रबाहु ने कायोत्सर्ग से होने वाले अनेक लाभ बताये हैं, उनमें से प्रमुख ये हैं (१) बेहनाड्य शुद्धि-कायोत्सर्ग से शरीर में श्लेष्म आदि दोष दूर होते हैं और ये शारीरिक दोष ही देह की जड़ता के कारण हैं। अतः कायोत्सर्ग की साधना द्वारा देह की जड़ता दूर होती है। शरीर में स्फूर्ति आ जाती है। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग : सिद्धान्त और साधना (२) मतिजाय शुद्धि — कायोत्सर्ग में मन की प्रवृत्ति केन्द्रित हो जाती है, चित्त एकाग्र होता है, उससे बुद्धि की जड़ता समाप्त हो जाती है । मेधा में प्रखरता आती है । १७२ (३) सुख-दुःख तितिक्षा - कायोत्सर्ग में साधक को देह और आत्मा की पृथक्ता का पूर्ण विश्वास हो जाता है, अतः उसका देह के प्रति ममत्वभाव कम होने लाता है । इसलिए उसमें सुख-दुःख सहन करने की क्षमता बढ़ जाती है । (४) अनुप्रेक्षा - कायोत्सर्ग में स्थित साधक अनुप्रेक्षाओं का अभ्यास स्थिरतापूर्वक करता है । इससे मन केन्द्रित होता है । शुभध्यान का सहज ही अभ्यास हो (५) ध्यान — कायोत्सर्ग में है ।" यदि शरीरशास्त्र की दृष्टि से विचार किया जाय तो भी कायोत्सर्ग शारीरिक स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक है । बात यह है कि मानसिक एवं शारीरिक तनाव के कारण ही अनेक शारीरिक तथा मानसिक व्याधियाँ - समुत्पन्न होती हैं। क्योंकि तनाव के कारण शरीर में कुछ विशेष रासायनिक परिर्वतन हो जाते हैं । (१) स्नायुओं की शर्करा एसिड में परिवर्तित हो जाती है, परिणामतः स्नायुओं में शर्करा कम हो जाती है । इससे चक्कर आने लगते हैं । (२) लैक्टिक एसिड स्नायुओं में इकट्ठी हो जाती है । इससे पाचन क्रिया बिगड़ती है । (३) लैक्टिक एसिड बढ़ जाने से शरीर में गर्मी बढ़ जाती है । (४) स्नायुतंत्र में थकान महसूस होने लगती है । (५) रक्त में प्राणवायु की मात्रा कम हो जाती । इससे दुर्बलता या घुटन अनुभव होती है । कायोत्सर्ग में साधक जो अपने शरीर का शिथिलीकरण करता है और साथ ही दीर्घ तथा लयबद्ध श्वासोच्छ्वास की क्रिया करता है एवं शुभ (१) (क) देहमइ जडसुद्धी सुहदुक्ख तितिक्खिया अणुप्पेहा | झes सुहं झाणं एगग्गो काउसगम्मि ॥ - कायोत्सर्ग शतक, गाथा १३ (ख) मणसो एग्गत्तं जणयइ, देहस्स हणइ जडुत्त । काउसग्गगुणा खलु सुहदुह मज्झत्थया चेव ॥ - व्यवहारभाष्य पीठिका, गाथा १२५ (ग) प्रयत्न विशेषतः परमलाघवसंभवात् । -वही वृत्ति Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमार्जनयोग साधना १७३ भावों का ध्यान करता है, उससे उसे तनाव से मुक्ति' मिल जाती है, उसके कारण उसके शरीर में निम्न रासायनिक परिवर्तन होते हैं (१) स्नायुओं की एसिड पुनः शर्करा में परिवर्तित हो जाती है । (२) स्नायुओं में लैक्टिक एसिड का जमाव बहुत कम हो जाता है । (३) लैक्टिक एसिड के कम होने से शरीर की गर्मी भी कम हो जाती है, परिणामस्वरूप शान्ति का अनुभव होता है । (४) स्नायु तंत्र की थकान मिट जाती है और साधक को ताजगी का अनुभव होता है, उसकी देहजाड्य शुद्धि और मतिजाड्य शुद्धि होती है । शरीर में स्फूर्ति और मन-मस्तिक में ताजगी आती है तथा मन-मस्तिष्क के अधिक सक्षम होने से बुद्धि में तीव्रता आती है । (५) रक्त में प्राणवायु (ऑक्सीजन) की मात्रा बढ़ आती है । इस प्रकार कायोत्सर्ग को साधना साधक के लिए मानसिक एवं शारीरिक - दोनों ही रूप में उपयोगी और लाभप्रद होती है । आध्यात्मिक साधक के लिए इसकी सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि क्रोध आदि कषायों की उपशान्ति है, कषायों की उपशान्ति से उसकी चित्तवृत्ति अधिक विशुद्ध बनती है । (६) प्रत्याख्यान : गुणधारण की प्रक्रिया साधक द्वारा अवश्य करणीय षडावश्यक का अन्तिम अंग प्रत्याख्यान है । इसमें साधक अशुभ योगों से निवृत्ति और शुभ योगों में प्रवृत्ति करता है, वह व्रत नियम आदि गुणों को धारण करता है । व्रत रूपी सद्गुणों के धारण से संयम सधता है, संयम से नये कर्मों का आगमन (आस्रव) का निरोध हो जाता है और आस्रवनिरोध से १ आधुनिक युग में देश-विदेश में जो विभिन्न योगियों द्वारा ध्यान शिविर लगाये जाते हैं, उनमें कायोत्सर्ग के एक ही अंग सिर्फ शिथिलीकरण की साधना की जाती है । आज का तनावग्रस्त और तनावों में जीने वाला मानव भी उन शिविरों की ओर आकर्षित सिर्फ इसीलिए होता है कि उसे कुछ समय के लिए तनावों से मुक्ति मिल जाती है, शान्ति का अनुभव होता है । किन्तु षडावश्यक के अन्य अंगों के अभाव तथा निश्चित ध्येय - आत्मोन्नति की ओर लक्ष्य न होने से ये ध्यान शिविर आध्यात्मिक योग की दृष्टि से विशेष उपयोगी सिद्ध नहीं होते । --सम्पादक Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ जन योग : तिवान्त और साधना तृष्णा का अन्त हो जाता है । तृष्णा के अन्त से अनुपम उपशम भाव उत्पन्न होता है और उससे प्रत्याख्यान विशुद्ध होता है। प्रत्याख्यान की विशुद्धि और उपशम भाव की उपलब्धि से चारित्रधर्म की आराधना होती है । चारित्रधर्म से कर्मों की निर्जरा होती है । उससे अपूर्वकरण होता है। अपूर्वकरण होने से केवलज्ञान-केवलदर्शन प्रगट हो जाते हैं और फिर साधक मुक्त हो जाता है, उसे शाश्वत सुख की प्राप्ति हो जाती है।' ___ इस प्रकार यह प्रत्याख्यान क्रमशः वृत्तिसंक्षययोग की ओर बढ़ने वाली साधना बन जाता है। प्रत्याख्यान में साधक विभिन्न प्रकार के व्रत-नियमों को ग्रहण करता है। इन नियमों के कुछ विशेष प्रकार यह हैं। (१) संभोग प्रत्याख्यान-सम्मिलित रूप से भोजन का त्याग । इससे साधक स्वावलम्बी और यथालाभसंतोषी बनता है। (२) उपधि-स्याग-वस्त्र आदि उपकरणों का त्याग। इससे साधक को ध्यान में निर्विघ्नता की उपलब्धि होती है। उसकी इच्छा और आकांक्षाओं में कमी आती है। (३) आहार प्रत्याख्यान-इसमें साधक आहार का त्याग करता है। इस प्रकार वह अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचरी आदि तपों की साधना में समर्थ होता है। (४) योग-प्रत्याख्यान-इसमें साधक अपनी क्षमता, शक्ति, योग्यता और पद के अनुसार मन-वचन-काय-तीनों योगों के निरोध की साधना करता हैं। यद्यपि तीनों योगों का पूर्ण रूप से निरोध तो साधना की उच्चतम भूमिका (चौदहवां गुणस्थान) में होता है किन्तु साधक अपनी क्षमता के अनुसार योगों के निरोध की साधना करता है। पच्चक्खाणंमि कए, आसवदाराई हुति पिहियाई । आसव वुच्छेएणं, तण्हा-वुच्छेयणं होइ ॥ तण्हा वोच्छेदेण य, अउलोवसमो भवे मणुस्साणं । अउलोवसमेण पुणो, पच्चक्खाणं हवइ सुद्ध । तत्तो चरित्तधम्मो, कम्म विवेगो तओ अपुव्वं तु । तत्तो केवलनाणं, तओ या मुक्खो सया सुक्खो ॥ -आवश्यकनियुक्ति, गाथा १५६४-१५६६ २ उत्तराध्ययन सूत्र २६/३३-४१ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमार्जनमोग साधना १७५ (५) सदभाव प्रत्याख्यान-इसमें साधक सभी प्रवृत्तियों को त्यागकर वीतराग बनने की साधना करता है। (६) शरीर-प्रत्याख्यान-शरीर से ममत्व भाव को हटाना। यह साधक की अशरीरी-देहातीत (सिद्ध) बनने की साधना है । (७) सहाय प्रत्याख्यान-किसी अन्य का सहयोग अथवा सहायता लेने का त्याग । इससे साधक एकत्वभाव को प्राप्त हो जाता है। एकत्व भाव को प्राप्त होने से वह अल्प शब्द वाला, अल्प कलह वाला और संयमबहुल तथा समाधिबहुल हो जाता है। (८) कषाय-प्रत्याख्यान-इसमें साधक क्रोध आदि कषायों का विसर्जन करता है, परिणामस्वरूप वह राग-द्वेषविजेता, परमशान्तचेता, वीतराम बन जाता है। इस प्रकार प्रत्याख्यान की साधना द्वारा साधक उत्तरोत्तर अपनी आध्यात्मिक उन्नति करता हुआ अपने चरम लक्ष्य को पा लेता है। षडावश्यक : संपूर्ण अध्यात्मयोग साधना क्रम की दृष्टि से विचार किया जाय तो षडावश्यक की साधना, संपूर्ण अध्यात्मयोग की साधना है। इसके द्वारा संपूर्ण अध्यात्मयोग सध जाता है। जैन योग के मर्मज्ञ आचार्य हरिभद्रसूरि ने अध्यात्म योग के ५ सोपान बताये हैं--(१) अध्यात्म, (२) भावना, (३) ध्यान, (४) समता, और (५) वृत्तिसंक्षय । षडावश्यक में इन पांचों अंगों का अभ्यास होता है। षडावश्यक के पहले अंग सावद्ययोगविरति (सामायिक) में समता की साधना होती है। चतुर्विंशतिस्तव और गुरुवंदन (उत्कीर्तन तथा गुणवत् प्रतिपत्ति) में साधक अध्यात्म की साधना करता है। प्रतिक्रमण द्वारा वह अपने दोषों का परिमार्जन करता है। कायोत्सर्ग में भावना और ध्यान की साधना होती है और प्रत्याख्यान द्वारा वृत्तिसंक्षययोग को साधना होती है। इस प्रकार साधक षडावश्यक द्वारा सम्पूर्ण अध्यात्मयोग की साधना में रमण कर सकता है। पातंजल अष्टांगयोग की दृष्टि से विचार करने पर षडावश्यक द्वारा योग के आठों अंगों की साधना हो जाती है। प्रत्याख्यान द्वारा यम-नियम तथा कायोत्सर्ग द्वारा आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा (ध्यान की पूर्व Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ जन. योग : सिद्धान्त और साधना पीठिका के रूप में) ध्यान और समाधि-इन आठों अंगों की साधना पूर्ण हो जाती है। यही कारण है कि जैन साधक को, चाहे वह गृहस्थ साधक हो अथवा गृहत्यागी श्रमण साधक हो, षडावश्यक की साधना प्रतिदिन करने का जैन आगमों और ग्रन्थों में निर्देश दिया गया है । षडावश्यक की साधना द्वारा वह सम्पूर्ण अध्यात्मयोग और अष्टांगयोग की साधना सतत करता है। हाँ, इतना अवश्य है कि परिस्थिति, पदवी, योग्यता और क्षमता के अनुसार गृहस्थ साधक और गृहत्यागी साधक की षडावश्यक साधना में अन्तर आ जाता है; और यह स्वाभाविक भी है। फिर भी दोनों का ध्येय एक ही है और वह है मोक्ष । श्रमण अपने ध्येय की ओर शीघ्र गति से अग्र-- सर होता है, जबकि गृहस्थ साधक की गति मन्द होती है। पर दोनों ही अपने लक्ष्य मोक्ष-प्राप्ति की ओर बढ़ते रहते हैं। 30 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ ग्रन्थि-भेद-योग साधना __ ग्रन्थि कहते हैं गाँठ को। इसे अंग्रेजी में knot अथवा tie भी कहते हैं। जिस प्रकार कपड़े में गाँठ लगाई जाती है, रेशम की डोरी में गाँठ लगाई जाती है । जैसी वस्त्र व डोरी में गाँठ होती है, वैसी गाँठ मन में भी होती है। अन्तर इतना है कि कपड़े और रेशम की गाँठ स्थूल होती है। तथा मन की गाँठ सूक्ष्म होती है। जिस प्रकार सूती कपड़े से रेशम महीन होता है और महोन होने के कारण ही उसकी गाँठ बहुत मजबूत होती है, सरलता से नहीं खुलती, बहुत प्रयास करना पड़ता है। उसी प्रकार मन तो और भी सूक्ष्म है, उसे आँखें देख नहीं सकती; कान सुन नहीं सकते, न वह सूघा जा सकता है, न चखा जा सकता है और न ही उसका स्पर्श किया जा सकता है, बहुत ही सूक्ष्म है. . वह, तो उसकी गाँठ भी अत्यधिक मजबूत होती है, उसे खोलने के लिए साधक को बहुत-बहुत प्रयत्न करना पड़ता है। ___ मन में अनेक प्रकार की गाँठे होती हैं-अज्ञान की ग्रन्थि, मिथ्यात्व की ग्रन्थि, वस्तु के किसी एक ही पक्ष को पूर्ण सत्य मानने की (आग्रह) एकान्त की ग्रन्थि, संशय की ग्रन्थि, क्रोध अथवा वैर की गाँठ, अहंकार और ममकार की ग्रन्थि, झूठ-कपट की, लोभ-लालच की ग्रन्थि; आदि-आदि अनेक प्रकार की ग्रन्थियाँ होती हैं मन में । ये सब मनोग्रन्थियाँ हैं जो बहुत ही सूक्ष्म हैं इसलिए खोलने में अत्यन्त कठिन है। ये सभी प्रकार की ग्रन्थियाँ साधक की आत्मोन्नति में बाधक होती हैं, इन ग्रन्थियों को खोले बिना अथवा नष्ट किये बिना साधक मोक्ष-मार्ग में उन्नति-गति-प्रगति नहीं कर पाता। इन सभी ग्रन्थियों को आत्मिक गुणों की अपेक्षा दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है-प्रथम, श्रद्धा अथवा सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में रुकावट डालने वाली ग्रन्थियाँ और द्वितीय, आत्मा के चारित्र गुण के विकास में बाधक बनने वाली ग्रन्थियाँ । अज्ञान, विपरीत ज्ञान, संशय, एकान्त आग्रह आदि की प्रन्थियां आत्मा Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ जेन योग : सिद्धान्त और साधना के दर्शन गुण (सम्यग्दर्शन-शुद्ध श्रद्धा) को प्रभावित करती हैं और उसका दृष्टिकोण सम्यक् सर्वग्राही नहीं होते देतीं। क्रोध, मान, राग-द्वेष, माया, कपट, लोभ, काम, अहंकार-ममकार आदि की ग्रन्थियाँ आत्मा के चारित्र गुण को प्रभावित करती हैं, प्राणी को मोक्ष-मार्ग में गति नहीं करने देती, यम-नियम आदि की साधना में बाधक बनती हैं और चारित्रिक विकास को अवरुद्ध करती हैं। उनके कारण आत्मा श्रावकाचार अथवा श्रमणाचार का पालन नहीं कर पाता। मोक्ष अथवा निर्वाण एवं शान्ति-उससे बहुत दूर रहती है। प्राचीन आगमों में तथा तत्त्वार्थसूत्रकार ने ग्रंथि के लिये 'शल्य' शब्द का प्रयोग किया है। जिस प्रकार शल्य (काँटा) हर समय व्यक्ति के मन में चुभता रहता है, उसी प्रकार ग्रन्थि भी साधक को व्यथित किये रहती है। किसी व्यक्ति ने आपका अपमान कर दिया, आप उस समय उसका बदला नहीं ले पाये, लेकिन वह अपमान आपको खटक गया, अब वह वैर की गांठ (ग्रंथि) बन गया, जब तक आप उससे बदला नहीं चुका लेंगे- वह ग्रंथि शल्य के समान खटकती रहेगी, चुभती रहेगी। यह वैर की ग्रन्थि है, जो लम्बे समय तक चलने वाले क्रोध का परिणाम होती है। __ जैन मनोविज्ञान के अनुसार मनोग्रन्थियां दो प्रकार की होती हैं१ वैदिक परम्परा में तीन प्रकार की हृदय ग्रन्थियां मानी गई हैं-(१) आगामी कर्म (२) संचित कर्म और (३) प्रारब्ध कर्म ।। (१) आगामी कर्मों को उपनिषद् में ब्रह्मप्रन्थि, चंडी में मधुकैटभ और तंत्र में कुल-कुण्डलिनी कहा गया है । इसका स्थान मनोमय कोष माना गया है तथा स्वामी ब्रह्मा को । यहाँ मन के दो मुख माने गये हैं-एक नीचे को ओर तथा दूसरा ऊपर की ओर । नीचे का मुख प्रवृत्ति की ओर प्रवाहित रहता है अर्थात् मन सहज रूप से सांसारिक विषयों की ओर दौड़ता रहता है । इसके विपरीत ऊपर का मुह सद्गुरु का सत्संग तथा उनकी कृपा प्राप्त होने पर खुलता है और निवृत्ति की ओर प्रवाहित होने लगता है । सार यह कि मन की सहज प्रवृत्ति संसाराभिमुख होती है; किन्तु सत्संग तया गुरुकृपा से उसका प्रवाह निवृत्ति की ओर होने लगता है। __इस ग्रन्थि के भेदन के लिए आत्म-साक्षात्कार आवश्यक है, बिना आत्मदर्शन के इस ग्रन्थि का यथार्थ भेदन नहीं होता। आत्मसाक्षात्कार अथवा आत्म-दर्शन के लिए साधक अपने मन को Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबिमेवयोग साधना १७६. (१) आत्मा के दर्शन गुण को प्रभावित करने वाली और (२) आत्मा के चारित्र गुण को प्रभावित करने वाली । ग्रंथियाँ कैसे निर्मित होती हैं ? किसी गाँव में एक तालाब था । उसमें एक कछुआ रहता था । तालाब के किनारे पर गाँव के मनुष्य आया जाया-आते थे । उनकी परछाई । संसाराभिमुखी होने से रोकता है । तब उसकी बुद्धि (तर्कणा - हिताहित निर्णायिका शक्ति) का विकास होता है । बुद्धिमय क्षेत्र ही मेधस् का आश्रय स्थान है, आश्रय है और यही ब्रह्मज्ञान का तोरणद्वार है । सुषुम्णा प्रवाह प्रकाशित होने पर साधक वहाँ पहुँच सकता है । तन्त्रयोग में इसी को कुल-कुण्डलिनी जागरण कहा जाता है । इसका साक्षात्कार होते ही जीव को ब्रह्मग्रन्थि शिथिल हो जाती है । षट्चक्रों के अनुसार ब्रह्मग्रंथि तथा उसके स्वामी ब्रह्मा का स्थान नाभिचक्र है । ब्रह्मग्रन्थ भेद सत्य की प्रतिष्ठा है । ब्रह्मग्रन्थिभेद होने पर साधक की आगामी कर्मों (किये जाने वाले कर्म ) के प्रति आसक्ति का नाश हो जाता है । साधक हानि-लाभ, यश-अपयश में अनासक्त हो जाता है, उसकी फलासक्ति छूट जाती है । (२) संचित कर्म अथवा विष्णुग्रन्थि का निवास हृदयचक्र में है । विष्णुग्रन्थिभेद से प्राण प्रतिष्ठा होती है । विष्णु ग्रन्थि का स्थान प्राणमय कोष है । प्राणमय कोष में जीव के अनेक जन्मों के संस्कार संचित रहते हैं । इन्हीं को संचित कर्म कहा गया है । प्राणमय कोष सूक्ष्म शरीर है। सूक्ष्म शरीर में ही संस्कार संचित रहते हैं । संस्कार ही प्राणी के लिए यथार्थ बंधन हैं । साधना क्षेत्र में प्राण का नाम विष्णु है । विष्णुग्रन्थि के भेद के लिए जीव भवबीजीय संस्कारों का विसर्जन करता है, अपने अहं का त्याग करता है और शरणागतियोग की साधना करता है, भगवान तथा सद्गुरु की शरढ़ ग्रहण करता है । इस शरणागतियोग से उसके भवबीजीय संस्कार नष्ट हो जाते हैं और विष्णुग्रन्थि का भेदन हो जाता है, गांठ खुल जाती है । इस ग्रन्थि-भ ेद के फलस्वरूप आत्मा की कामनाओं तथा वासनाओं का विनाश हो जाता है, उसे चित्तविशुद्धि प्राप्त हो जाती है । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० जन योग : सिद्धान्त और साधना जल में पड़ती थी। परछाई तो जल में उल्टी ही पड़ती है-पैर ऊपर की ओर और सिर नीचे की ओर । उन परछाइयों को देखकर कछुए ने धारणा बना हठयोग की भाषा में उसका हृदय चक्र जागृत हो जाता है, अनाहत नाद सुनाई देने लगता है और साधक को आनन्द रस की अनुभूति होने लगती है । (३) प्रारब्ध कर्मों को ही रुद्रग्रन्थि कहा जाता है । रुद्र का एक अर्थ शिव भी है। शिवजी का निवास मानव के ललाट में माना जाता है, अतः इस ग्रन्थि का स्थान भी ललाट है । हठयोग की भाषा में आज्ञा चक्र है। इस ग्रन्थि को कारण शरीर-विज्ञानमय कोष में अवस्थित माना गया है। इस ग्रन्थि के भेद के लिए साधक निम्न प्रयास करता है (१) जीवो ब्रह्म व नापरः (जीव ही ब्रह्म है, ब्रह्म जीव से भिन्न अन्य नहीं) सूत्र पर दृढ़ विश्वास। (२) बुद्धि तत्त्व में अवस्थान कर स्वयं प्रकाशित चितिशक्ति की ओर बारबार लक्ष्य करने का अभ्यास । (३) दृश्य पदार्थों में व्यावहारिक सत्ता है, पारमार्थिक सत्ता नहीं है, युक्ति से इस तथ्य पर दृढ़ विश्वास । (४) शास्त्रीय प्रमाणों की सहायता से 'तत्त्वमसि' 'एकमेवाद्वितीयम्' 'नेह मानास्ति किंचन' इत्यादि वाक्यों को प्रमाण मानते हुए अद्वय रूप परिग्रह करने का प्रयास । इन प्रयासों से जीव को कारण-शरीर का भी अहंकार समाप्त हो जाता है और रुद्रग्रन्थि का भेदन हो जाता है। इस ग्रन्थि के खुलते ही साधक को विशुद्ध ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। और फिर गीता की भाषा में'ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते ज्ञान की अग्नि सभी कर्मों को भस्म कर देती है। संक्षेप में रुद्रग्रन्थि के भेदन से साधक को विशुद्धि बोध स्वरूप (आत्मज्ञान) की प्राप्ति हो जाती है, वह उस ज्ञान ज्योति में रमण करता है और उसके समस्त कर्म क्षय हो जाते हैं तथा वह मोक्ष की प्राप्ति कर लेता है। हठयोग की भाषा में कहें तो कुण्डलिनी शक्ति का मिलाप शिव (शुद्ध ज्योति स्वरूप ज्ञान सत्ता) से हो जाता है। यही वैदिक परम्परा में ग्रन्थिभेदयोग साधना है। -परमार्थ पथ (गीता प्रेस, चन्डीगढ़) में प्रकाशित 'ग्रन्थि भेद' का संक्षिप्त : सार पृष्ठ २५६-२६७ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमेवयोग साधना १८१ ली कि मनुष्य वह होता है जिसका सिर नीचे भूमि की ओर तथा पैर आकाश की ओर होते हैं । यह विपरीत ज्ञान की ग्रन्थि उसके मन-मानस में इतनी गहरी बैठ गई कि जब उसने पानी से निकलकर और किनारे पर आकर साक्षात् मनुष्य को अपने सामने खड़े देखा तो उसे विश्वास ही नहीं हुआ क्योंकि उसकी तो धारणा थी कि मनुष्य वह होता है। जिसका सिर जमीन की और और पैर आसमान की ओर होते हैं । इसी प्रकार जिस मनुष्य का चित्त दोलायमान होता है, दीवाल घड़ी के घंटे के समान एक सेकिंड में इधर जाता है तो दूसरे हो क्षण उधर । ऐसी ही स्थिति संशयशील मनुष्य की होती है, जब यह स्थिति अधिक दिनों तक चलती है तो वह ग्रन्थि बन जाती है । इसी प्रकार अधिक समय तक चलने वाली राग-द्वेष, अभिमान, वैर आदि की धाराएँ मन में इतनी गहरी जम जाती हैं कि ग्रन्थियों का रूप ले लेती | अमोनिया पर यदि जल की धारा बहाई जाय तो वह बर्फ बन जाती है, पानी जमकर बर्फ बन जाता है, बस यही दशा मनोग्रन्थियों की है, विभिन्न प्रकार के आवेगों-संवेगों, धारणाओं का प्रवाह भी ग्रंथियों का रूप ले लेता है, मन में गांठ पड़ जाती हैं । प्रथियों की अवस्थिति ग्रन्थियों की अवस्थिति होती है अवचेतन मन में । मनोविज्ञान के अनुसार मन के तीन स्तर माने गये हैं- ( १ ) अचेतन मन ( unconscious mind), (२) अवचेतन मन ( sub-conscious mind) और (३) चेतन मन ( conscious mind). इसे अगर चेतना की दृष्टि से कहना चाहें तो कह सकते हैं- (१) गुप्त चेतना (२) अप्रकट चेतना और (३) प्रकट चेतना । जिस प्रकार मन के तीन विभाजन हैं, उसी प्रकार मानव शरीर के भी तीन प्रकार हैं । प्रथम औदारिक अथवा स्थूल शरीर; द्वितीय तैजस् या सूक्ष्म शरीर और तीसरा कार्मण शरीर । मन, चेतना और शरीर के ये तीनों स्तर उत्तरोत्तर सूक्ष्म होते हैं । ग्रन्थियों की अवस्थिति होती है तैजस् शरीर में और उनके मूल कारण राग-द्वेष की अवस्थिति होती है कार्मण शरीर में ( कर्म रूप में) । इनमें कारण-कार्य भाव होता है, अर्थात् कार्मण शरीर उत्तेजित Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ जैन योग : सिद्धान्त और साधना करता है तैजस् शरीर को और तेजस् शरीर से उत्तेजना मिलती है औदारिक शरीर को और औदारिक शरीर से ग्रन्थियों का प्रकटीकरण हो जाता है । यही स्थिति मन की है । अचेतन मन से अवचेतन मन उत्तेजना प्राप्त करता है और अवचेतन मन से चेतन मन । जिस प्रकार ओदारिक शरीर मनोवेगों और ग्रन्थियों के प्रगटीकरण का माध्यम है उसी प्रकार चेतन मन भी माध्यम है । अवचेतन मन में रही हुई ग्रन्थियाँ कोई भी निमित्त पाकर अथवा अवकाश के क्षणों में चेतन मन पर उभर आती हैं । आपका किसी ने अपमान कर दिया । उस समय किसी विवशता के कारण आपको वह अपमान कड़वे घूँट के समान पीना पड़ा; किन्तु बदले की भावना मन में घर कर गई । चेतन मन से अवचेतन मन में चली गई । अब आपको हर समय उसकी याद नहीं आती । वह ग्रन्थि बन गई है और अवचेतन मन की गहराई में उतर गई है तो याद कैसे आये । क्योंकि आप काम तो चेतन मन से करते हैं । अपने व्यापार-धन्धे में लगे रहते हैं, आफिस जाते हैं, दूकान चलाते हैं, मिल चलाते हैं। लेकिन जब कभी बातचीत के दौरान उस व्यक्ति की चर्चा चल पड़ती है, अथवा वह दिखाई दे जाता है तो आपकी वह बदले की भावना - - बदले की मनोग्रन्थि उभर कर चेतन मन में आ जाती है और आप तिलमिला उठते हैं । कभी-कभी ऐसा भी होता है कि आप अवकाश के क्षणों में बैठे हैं, काम कोई है नहीं । आप निश्चल बैठे हैं, या पलंग पर लेटे हैं लेकिन आपका मन न तो कभी निश्चल बैठता है और न लेटता ही है, वह तो हमेशा चंचल रहता है, भाँति-भाँति के विचार उसमें दौड़ते रहते हैं, उस विचार प्रवाह में यदि वह घटना स्मृति पटल पर तैर गई — अवचेतन मन से चेतन मन के प्रवाह में आ गई तो भी आप तिलमिला उठेंगे, बदले की आग में जल उठेंगे । तो निष्कर्ष यह है कि मनोग्रन्थियाँ अवचेतन मन में रहती हैं और कोई निमित्त पाकर या अवकाश के क्षणों में चेतन मन में उभर आती हैं । आधुनिक सभ्यता का उपहार : विभिन्न प्रत्थियाँ आधुनिक युग में मानव सभ्य तो हुआ है, वैज्ञानिक आविष्कारों के कारण उसे विभिन्न प्रकार की सुख-सुविधाओं के साधन भी प्राप्त हुए हैं, वह शिक्षित भी हुआ है; किन्तु इस सभ्यता के उपहारस्वरूप मिली हैं उसे विभिन्न प्रकार की मनोग्रन्थियाँ । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ प्रन्थिभेदयोग साधना १८३ यदि मनोविज्ञान की भाषा में कहा जाय तो आधुनिक युग का मानव अनेक प्रकार की ग्रन्थियाँ अपने अन्तरमानस में पाले हुए हैं। हीनभावना, उच्चता की भावना, अभिमान एवं वस्तुओं के प्रदर्शन की भावना आदि विभिन्न प्रकार की ग्रन्थियों से वह पीड़ित है । सबसे बड़ी बात यह है कि आज शराफत का युग है । प्रत्येक व्यक्ति अपनी शराफत का प्रदर्शन करता है। जिसके प्रति वह मन में बदले की भावना रखे हुए है, उसे धोखा देना चाहता है, उसकी समृद्धि और उन्नति के प्रति ईर्ष्या और जलन रखता है, उसे गिराने की योजनाएं बनाता है, षड्यन्त्र रचता है; किन्तु उसी व्यक्ति से जब वह मिलता है तो ऐसा प्रगट करता है मानो उसका सबसे बड़ा मित्र और हितैषी वही है। सामाजिक ही नहीं राजनीतिक, पारिवारिक आदि सभी क्षेत्रों में और यहाँ तक कि धार्मिक क्षेत्र में भी ये ग्रन्थियाँ अपना प्रभाव दिखाती हैं। इनके परिणामस्वरूप मनुष्य का व्यक्तित्व खण्डित या विभक्त हो जाता है, उसका आचरण दोहरा-दो प्रकार का हो जाता है, अन्दर कुछ और बाहर कुछ और ही। प्रन्थियाँ कारण है-दोहरे व्यक्तित्व को ग्रन्थियों के कारण मनुष्य का व्यक्तित्व दोहरा हो जाता है। वह ऊपर से सज्जन-साधु और मन से दुर्जन तथा पापी बन जाता है, दूसरे शब्दों में ढोंगी और पाखंडी (Hypocrate) हो जाता है । धर्मस्थानक में जाकर सदुपदेश सुनता है । वासना एवं भोगों के त्याग के सदुपदेश भी सुनता है । उस समय सुनने में उसे ये बातें अच्छी भी लगती हैं; किन्तु ज्योंही घर या व्यापारिक संस्थान में आता है, उसका व्यवहार बदल जाता है। ग्रन्थियों के कारण ही मनुष्य धर्म और धार्मिक बातों को अपने अन्तर में रमा नहीं पाता, उसका धर्माचरण बाहरी अथवा ऊारी ही रह जाता है । वास्तविकता यह है कि धर्म अचेतन तथा अवचेतन मनोजगत की वस्तु है। किन्तु वहाँ तो राग-द्वेष और विभिन्न प्रकार की ग्रन्थियाँ जड़ जमाए हैं तब धर्म वहाँ कैसे स्थान पा सकता है, चेतना को ऊपरी सतह तक ही रह जाता है। धार्मिक सिद्धान्तों का केवल दोहराना मात्र होता है। अन्तर में राग-द्वेष और तरह-तरह की ग्रन्थियाँ तथा ऊपर से सज्जनता इसी से मनुष्य खण्डित मन (Divided mind)' भग्नाश (frustrated Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ जैन योग : सिद्धान्त और साधना mind) तथा विभाजित व्यक्तित्व (Divided personatity) वाला हो जाता है । न वह व्यावहारिक जगत में सफल हो पाता है और न आध्यात्मिक क्षेत्र में; वह घुटन भरा असन्तुष्ट जीवन जीता है । वह कभी उच्चता ( superiority complex) का प्रदर्शन करता है तो कभी हीनता (inferiority complex) का । निर्बलों पर झल्लाना, उन पर नाराज होना तथा सबलों की खुशामद करनायही उसका जीवन व्यवहार बन जाता है । उसे स्वयं अपने ऊपर विश्वास तो रहता ही नहीं, उसका आत्मविश्वास समाप्तप्राय हो जाता है, कभी अतिविश्वास (over-confidence) का शिकार बन जाता है तो कभी अल्पविश्वास (under confidence) का । विभिन्न प्रकार के परस्पर विरोधी विचारों के वात्याचक्रों घूमता-भटकता रहता है । अतः ग्रन्थियों के मूल कारणों और आधारों को समझना साधक के लिए आवश्यक है जिससे वह अपनी साधना समुचित रूप से कर सके । ग्रन्थियों के मूल कारण और आधार प्रन्थियों के मूल कारण हैं— राग-द्वेष और आधार है-पक्षपात । पक्ष दो होते हैं - एक अपना और दूसरा पराया । अपने के प्रति कभी राग भी होता है और रागजन्य क्रोध भी । क्रोध इस प्रकार कि अपने पुत्र आदि, जिस पर अपनत्व भाव है उसने कोई बात न मानी तो उस पर क्रोध आगया । लेकिन पराया तो पराया है, उसके प्रति अपनत्व भाव तो है ही नहीं; उसके प्रति द्वेष की ग्रंथि ही बनती है । इस अपने-पराये का पक्षपात और अहंकार-ममकार, राग-द्वेष रूप आधार को समाप्त किये बिना ग्रंथि भेद नहीं हो पाता । ग्रन्थिभेदयोग की साधना ग्रंथि भेद का अभिप्राय श्वानवृत्ति को त्यागकर सिंहवृत्ति अपनाना है, श्वान से सिंह बनना है । श्वान की दो प्रमुख वृत्तियां हैं- एक, निर्बलों पर झपटना, उन पर गुर्राना, उनको नोंचना, खसोटना, नाजायज रूप से दबाना; तथा बलवानों के आगे दब जाना, दाँत दिखाना, पूँछ हिलाना और उनकी खुशामद करना; और दूसरी वृत्ति है निमित्त पर झपटना, निमित्त को ही दोषी मानना; जैसे कोई व्यक्ति कुत्ते को लकड़ी से मारे तो वह लकड़ी पर झपटता है, उस व्यक्ति पर नहीं; श्वान की यह दूसरी वृत्ति निमित्त आंश्रित होती है । इसी प्रकार जो ग्रंथिग्रस्त मनुष्य होते हैं वे भी श्वानवृत्ति के समान आचरण करते हैं । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पबिनेदयोग साधना १८५ इसके विपरीत सिंह स्वाभिमानी होता है, वह निर्बल को सताता नहीं और शक्तिशाली के सामने दबता नहीं वरन् उससे संघर्ष करता है। साथ ही वह बन्दूक पर नहीं अपितु बन्दूक चलाने वाले पर झपटता है, उसकी दृष्टि निमित्त से आगे बढ़कर उपादान तक पहुँचती हैं। ग्रन्थिमुक्त मनुष्य सिंहवृत्ति वाले होते हैं, उनमें आत्मविश्वास होता है, वे अपने विवेक से कारणों को तह तक पहुंच जाते हैं । ग्रन्थिभेद का अभिप्राय है. श्वानवृत्ति का पलायन और सिंहवृत्ति का आविर्भाव । आध्यात्मिक शब्दों में ग्रन्थिभेद की साधना स्वयं का स्वयं से संघर्ष है । साधक अपनी ही हीनवृत्तियों से, दुर्वृत्तियों से, ग्रन्थियों से स्वयं ही अपने अन्तर में संघर्ष करता है । यह सम्पूर्ण संघर्ष आन्तरिक है, बाहर इस संघर्ष का कोई भी चिन्ह नहीं दिखाई देता, सिर्फ परिणाम ही झलकता है । आन्तरिक होने के कारण यह संघर्ष बहुत ही श्रमसाध्य है । __ कर्मयोगी श्रीकृष्ण के जोवन का एक प्रसंग है। एक बार उन्होंने भगवान अरिष्टनेमि के सभी श्रमणों की सविधि वन्दना की। वन्दना करते-करते वे अत्यधिक थक गये । सभी श्रमणों की सविधि वन्दना समाप्त करने के बाद उन्होंने भगवान अरिष्टनेमि से पूछा-... ____ "भन्ते ! मैंने जीवन में बहुत से युद्ध किये हैं, लाखों योद्धाओं से अकेला ही जूझा हूँ। फिर भी मुझे कभी इतनी थकान नहीं आई, जितनी आज श्रमणों की वन्दना से आ गई है। इसका क्या कारण है ?" ... भगवान अरिष्टनेमि ने कहा "कृष्ण ! वह बाह्य युद्ध थे। उनमें तुमने बोहरी शत्रुओं से संघर्ष किया था। किन्तु श्रमण-वन्दन करते समय तुम आन्तरिक शत्रुओं से जूझ रहे थे, कर्मों की ग्रन्थियों को तोड़ रहे थे । आन्तरिक संघर्ष अधिक कठिन होता है, इसीलिए तुम्हें थकान का अनुभव हो रहा है।" सार यह है कि आन्तरिक संघर्ष में अधिक आत्मिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है और प्रन्थिभेद साधना में आन्तरिक संघर्ष ही साधक को करना होता है। __ ग्रन्थियों के भेद और प्रकार कितने भी हों, उनके कितने भी नाम दिये जायें किन्तु सबकी सब एक ही वृत्ति में समाहित हो जाती हैं और मन की इस वृत्ति का नाम है 'मोह'। ... Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ जैन योग: सिद्धान्त और साधना सबसे पहले साधक को ध्यान रखना चाहिए कि वह ग्रन्थि का भेदन कर रहा है, छेदन नहीं। उसे काटने (कर्तन करने) अथवा तोड़ने का प्रयोस न करे; अपितु उसे सुलझाए, शिथिल करे, उसका बन्धन ढीला करके उसे खोले । कुछ साधक आवेश एवं उत्साह में भरकर ग्रन्थियों को तोड़ने का प्रयास करते हैं, किन्तु उनकी यह क्रिया मूलतः विपरीत और हानिकारक है । इसके परिणाम बड़े भयंकर होते हैं, गाँठ तो खैर खुलती ही नहीं, ग्रंथि भी नहीं टूटती वरन् मानसिक विकृति और उत्पन्न हो जाती है। धागा एक स्थूल वस्तु है, वह टूट सकता है, उसके दो टुकड़े हो सकते हैं किन्तु चेतना एक अखंड धारा है, इसके खण्ड नहीं हो सकते, यदि उस अखंड चेतना के प्रवाह को ग्रंथिभेद करते समय तोड़ने का प्रयास किया जायगा तो वही स्थिति बनेगी जैसी कि नदी के प्रवाह को अचानक रोकने से होती है, नदी का जल तटों को तोड़कर सर्वनाश का-प्रलय का दृश्य उपस्थित कर देगा । उसी प्रकार चेतना के सहज प्रवाह को रोकने का परिणाम भी साधक के लिए अतिभयंकर होता है। ____ अतः ग्रंथिभेदयोग की साधना के लिए क्रमपूर्वक चलना हितकर है। . प्रन्थिभेद की प्रक्रिया एवं क्रम सुयोग्य साधक ग्रंथिभेद क्रमपूर्वक और बड़ी जागरूकता के साथ करता है। ग्रंथिभेद करते समय निरंतर उत्साह, लगन, दृढ़निष्ठा और उल्लास का बना रहना आवश्यक है; क्योंकि इस आंतरिक संघर्ष में थोड़ी सी भी असावधानी साधक के सारे प्रयत्नों को विफल कर देती है। ___साधक अपने साधना काल में दो बार ग्रंथि-भेदन करता है। प्रथम, जब वह अपनी मिथ्या श्रद्धा को सम्यक रूप में परिणत करता है और दूसरी बार जब वह कैवल्य प्राप्ति के लिए श्रेणी का आरोहण करता है । दोनों बार का साधनाक्रम एक-सा है। साधक अपने साधना क्रम में सर्वप्रथम अपने विश्वास को सम्यक बनाता है, उस समय उसकी आत्मिक चेतना का संघर्ष दर्शन (श्रद्धा) को विपरीत करने वाली ग्रंथियों से होता है। इस समय चेतना का प्रतिपक्षी होता हैं-मोह । मोह वहां राग और द्वष-दो रूपों में अपने को प्रगट करता है। साधक को अपनी पुरानी मान्यताओं और धारणाओं तथा कदाग्रह का राग सताता है, कभी संप्रदाय का राग सामने आ जाता है तो कभी पुराने संस्कारों का; इसी प्रकार द्वष भी विभिन्न रूप रखकर सामने आता है। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्धिमेदयोग साधना १८७ कभी अहंकार की आँधी साधक के चेतना प्रवाह को उड़ा ले जाने का प्रयत्न करती है तो कभी ममकार का अंधड़ चलता है; कभी अज्ञान का अन्धकार घटाटोप हो जाता है तो कभी संशय सामने आकर उसे दोलायमान करने लगता है, कभी उसकी एकान्त मान्यताएँ अन्य पक्षों की मान्यताओं के प्रति आक्रोश रूप में आकर उपस्थित हो जाती हैं। उस समय साधक का दृष्टिकोण व्यापक होना चाहिए, उसे अनेकान्त का ज्ञान होना चाहिए तथा उस पर यकीन भी; तभी वह इन सब राग-द्वेष को सेना पर विजय प्राप्त करके अपनी श्रद्धा को सम्यक् बना सकता है। ग्रंथिभेद की साधना में तीन स्थितियां होती हैं, जिन्हें कर्मग्रंथों की भाषा में करण कहते हैं-(१) यथापूर्वकरण (२) अपूर्वकरण और (३) अनिवृत्तिकरण। प्रथम करण की स्थिति में साधक मिथ्यात्व की ग्रंथि तक पहुँचता है, किन्तु उसकी भीषणता देखकर वापिस लौट जाता है, उसके आत्म-परिणाम बिना संघर्ष किये ही मिथ्यात्व से पुनः प्रस्त हो जाते हैं। द्वितीय करण की स्थिति में साधक राग-द्वेष-मोह आदि मनोविकारों और ग्रंथियों से संघर्ष करता है। किन्तु उसके आत्म-परिणाम इतने बलशाली नहीं होते कि वह उन पर विजय प्राप्त कर सके, वह उन आवेगों-संवेगों के प्रवाह में बह जाता है। तीसरे करण की स्थिति में साधक के आत्म-परिणाम आवेगों-संवेगों की तुलना में अधिक शक्तिशाली होते हैं, वह उन्हें पराजित कर देता है तथा ग्रंथि-भेद करके सम्यक्त्व की प्राप्ति कर लेता है। __ यही प्रक्रिया चारित्रमोह की ग्रंथियों के भेदन की है। उसमें भी ये तीनों करण साधक करता है और अन्तिम करण वाला साधक ही विजयी होकर ग्रन्थिभेद में सफल होता है । इसके लिए ग्रंथों में एक उदाहरण दिया है तीन व्यक्ति परदेश जाने के लिए अपने गांव से चले । रास्ते में विकट वन पड़ता था। तीनों व्यक्ति वन में होकर जा रहे थे कि सामने से अचानक चार डाकू आ गये थे। पहला व्यक्ति तो इतना डरपोक निकला कि डाकुओं को देखकर ही उल्टे पाँवों लौट गया। दूसरे व्यक्ति ने संघर्ष किया किन्तु उन डाकुओं से परास्त हो गया, उनके बन्धन में बंध गया। तीसरा व्यक्ति इतना साहसी था कि उस अकेले ने ही उन चारों डाकुओं को पराजित कर दिया और अपने गन्तव्य स्थल-लक्ष्य पर पहुँच गया। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ जैन योग : सिवान्त और साधना यह तीसरा व्यक्ति ही ग्रंथिभेद करके सम्यक्दर्शन की प्राप्ति एवं श्रणी आरोहण करने में सक्षम होता है। ग्रन्थिभेद साधना के परिणाम ___ ग्रन्थिभेद साधना के परिणाम साधक के लिए बहुत हितकर, कल्याणकर और सुखद होते हैं। सबसे बड़ा लाभ साधक को ग्रंथिभेद से यह होता है कि उसकी चेतना का प्रवाह सहज हो जाता है, ग्रंथि न रहने से उनके प्रवाह में किसी भी प्रकार की रुकावट नहीं आती, उसके व्यक्तित्व में दोहरापन नहीं रहता, उसका अन्तर् और बाह्य एक समान रहता है। इसके परिणामस्वरूप उसकी सारी दुविधाएँ मिट जाती हैं, उसमें सरलता और ऋजुता आ जाती है तथा चित्त की भूमि विशुद्ध हो जाती है। विशुद्ध चित्तभूमि होने से वह धर्म का आचरण करता है, धर्म को धारण करता है, अपनी भावनाएँ विशुद्ध रखता है, अपने आत्म-परिणामों की प्रेक्षा करता है और श्रेणी आरोहण करके कैवल्य प्राप्त कर लेता है। कैवल्य की उपलब्धि के उपरान्त तो उसे मुक्ति प्राप्त हो ही जाती है। इस प्रकार ग्रंथिभेदयोग साधना मुक्ति की सहज साधना है। योगमार्ग के अभ्यासियों के लिए आवश्यक साधना है। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ तितिक्षायोग साधना तितिक्षा का अभिप्राय तितिक्षा का अर्थ है-सहनशीलता, समभाव और शान्ति। इन्हें अंग्रेजी में व्यक्त करना चाहें तो Endurance, Folerance और Peace कह सकते हैं। सहनशीलता और सहिष्णता लगभग एक ही अर्थ को व्यक्त करते हैं, वह है समभाव । इसीलिए गांधीजी ने अंग्रेजी के शब्द tolerance का हिन्दी पर्याय 'समभाव' किया। तितिक्षा शब्द का अभिप्रेत हुआ समभाव (tolerance) और शान्ति (peace) । तितिक्षायोग की साधना में साधक इन दोनों की साधना करता है। वह तन को और मन को भी साधता है, उन्हें सहनशील होने की ट्रेनिंग देता है, बर्दाश्त करने की क्षमता बढ़ता है, कठिन से कठिन परिस्थिति में भी तनमन को संतुलित बनाये रखने की आदत डालता है। साधक समभाव की भी साधना करता है और शान्ति की भी साधना करता है। समभाव का अर्थ है-अनुकूल और प्रतिकूल-दोनों ही परिस्थितियों में उद्वेलितः न होना, राग-द्वेष रहित होकर तटस्थ रहना । शान्ति का अभिप्राय है-मानसिक संकल्पों-विकल्पों, आवेगों-संवेगों में न उलझना, आत्मिक भावों में स्थिर रहना, तनावमुक्त रहना। समभाव की साधना, साधक परीषहों पर विजय प्राप्त करके करता है ।। वह परीषहों को समभाव से सहन करता है, वह न उस अवसर पर घबड़ाता है और न ही दीन बनता है अपितु निर्भीक योद्धा के समान उनका मुकाबला करता है और उन पर विजय प्राप्त करता है, फिर भी उसके मन में रागद्वष का संचार नहीं होता। परीषहजय : समत्व को साधना. जैन आगमों में बाईस प्रकार के परीषह बताये हैं जो इस प्रकार हैं(१) क्षुधा परीषह (२) पिपासा परीषह (३) शीत परीषह (४) उष्ण परीषह (५) दंश-मशक परीषह (६) अचेल परीषह (७) अरति परीषह (८) स्त्री Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० जैन योग : सिद्धान्त और साधना परीषह (C) चर्या परीषह (१०) निषद्या परोषह (११) शय्या परीषह (१२) आक्रोश परीषह (१३) वध परीषह (१४) याचना परीषह (१५) अलाभ परीषह (१६) रोग परीषह (१७) तृण-स्पर्श परीषह (१८) जल्ल परीषह (१६) -सत्कार - पुरस्कार परोषह ( २० ) प्रज्ञा परीषह (२१) अज्ञान परीषह और (२२) दर्शन परीषह । यों तो प्राणीमात्र का जीवन संघर्षों की कहानी है, सुख-दुःख का चित्रपट है किन्तु मानव-जीवन तो संघर्षों में ही पलता है, उसमें भी साधक, और विशेष रूप से गृहत्यागी साधक - श्रमण का जीवन बहुत ही विघ्नधाओं से भरा होता है । पग-पग पर उसके समक्ष कठिनाइयाँ आती हैं । उन कठिनाइयों को वह हँसते - मुसकराते समभावपूर्वक सहन करता है । इसी - लिए तो श्रमणचर्या खांडे की धार पर चलने के समान हैं । साधक ( श्रमण) क्षुधा शान्ति के लिए न तो वृक्ष से फल आदि तोड़ता है और तुड़वाता है तथा न भोजन पकाता है और न अपने लिए पकवाता ही है; जब तक शुद्ध प्रासुक- एषणीय आहार उसे नहीं मिल जाता तब तक वह क्षुधा परीषह को समभाव से सहता है । इसी प्रकार वह कंठ में प्राण आने पर भी सचित्त जल ग्रहण नहीं करता । समभाव से प्यास को सहता है । सनसनाती शीत में भी वह शरीर को गर्म करने की इच्छा नहीं करता और न ही भीष्म ग्रीष्म में स्नान, व्यजन ( पंखे से हवा करना) आदि शीतलतादायक उपायों की ही इच्छा करता है । वह समभावपूर्वक शीत और गर्मी की पीड़ा को सहन करता है । साधक अटवी में, वृक्ष मूल में अथवा कन्दरा में ध्यानस्थ होता है तो वहाँ उसे दंश-मशक पीड़ा पहुँचाते हैं, वज्रमुखी चींटियाँ उसके शरीर को छलनी कर देती है; फिर भी वह उनके प्रति तनिक भी द्व ेष भाव नहीं लाता यहाँ तक कि वह उन्हें उड़ाता भी नहीं । उनके द्वारा दी गई पीड़ा को वह समभाव से सहता है । यदि साधक के वस्त्र जीर्ण-शीर्ण हो जायें तो भी वह नये वस्त्रों की इच्छा नहीं करता । यदि उसे अल्प मूल्य वाले वस्त्र मिलें तो खेद नहीं १ क्षुधा पर विजय प्राप्त करने के लिए साधक अनशन, ऊनोदरी आदि विभिन्न प्रकार के तप भी करता है; जिनका वर्णन 'तपोयोग' में किया जायेगा । — संपादक Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तितिमायोग साधना १६१ करता और अधिक मूल्य वाले वस्त्रों की प्राप्ति में हर्ष तथा गर्व नहीं करता, दोनों ही स्थितियों में सम रहता है। अरति का अभिप्राय संयम के प्रति अधैर्य अथवा अनादर भाव है। श्रमणचर्या और संयम के प्रति मन में भी अरुचि उत्पन्न नहीं होने देता। यदि कभी मन में ऐसे भाव आ जायें तो वह उन्हें तुरन्त निकाल फेंकता है । अपने समत्व भाव को भंग होने नहीं देता। स्त्रियों से साधक विशेष रूप से सावधान रहता है । वह उन्हें अपनी ब्रह्मचर्य साधना में विशेष रूप से बाधक मानता है । इसीलिए वह उनसे अधिक परिचय भी नहीं रखता । स्त्री के श्रृंगार काम-वर्धक होते हैं। अतः वह अपनी इन्द्रियों को, मनोवृत्तियों को कछुए के समान संकुचित कर लेता है। यहाँ स्त्री शब्द कामवासना का उपलक्षण है। अतः श्रमण कामवासना का निरोध करता हुआ पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन करता है। वासनाजन्य तथा वासना से सम्बन्धित आवेगों-संवेगों-वासनागत कुण्ठाओं से अपने मन-मानस को उद्वेलित न होने देना, तथा समत्व की साधना में लीन रहना यही 'स्त्री परीषह जय' है। __ श्रमण अपने कल्प के अनुसार मार्ग के कष्टों को सहता हुआ ग्रामानुग्राम विचरण करता है। उन कष्टों से वह आकुल-व्याकुल नहीं होता। इस प्रकार वह 'चर्या परीषह' पर विजय प्राप्त करता है। चर्या परीषह जय में साधक ममता से ऊपर उठकर समता की साधना करता है। इसी प्रकार साधक श्रमण श्मशान आदि शून्य स्थानों में जब ध्यानस्थ होता है तो वह नियत काल के लिए वीरासन, पद्मासन आदि आसनों से अवस्थित होता है । उस समय वह देवकृत, मनुष्यकृत, तिर्यंचकृत सभी उपसर्गों को समभावपूर्वक सहन करता है, मन्त्र आदि से भी उनका प्रतिकार नहीं करता। इस प्रकार अपनी तितिक्षा के बल पर उन उपसर्गों को सहता है। साधक श्रमण को जैसी भी शैय्या मिल जाय, उसी पर वह विश्राम कर लेता है, अच्छी शय्या पर अनुराग नहीं करता और कंकरीली-पथरीली शय्या पर द्वेष नहीं करता। दोनों में ही समभाव रखता है। श्रमण को कोई गाली दे और यहाँ तक कि कोई उसका वध भी करे, उसके अंगों का छेदन-भेदन भी करे तो भी वह प्रशान्त बना रहता है, उसकी उपेक्षा ही करता है, गाली देने और प्रहार करने वाले पर रोष या आक्रोश Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ जैन योग : सिद्ध और साधना नहीं करता, अपितु उन्हें अपनी कर्मनिर्जरा में सहायक समझकर उपकारी हो मानता है । इस प्रकार वह प्रतिकूल परिस्थितियों में भी शान्त रहता है । याचना परीषह पर विजय प्राप्त करना विनम्रता और अहंकार भाव के विसर्जन की साधना है । श्रमण को सभी वस्तुएँ याचना से ही प्राप्त हो पाती हैं । अतः जीवनोपयोगी वस्तुओं के लिए उसे सद्गृहस्थ से याचना करनी ही पड़ती है । और याचना अभिमान त्याग तथा हृदय की ऋजुता एवं सरलता के अभाव में हो नहीं पाती । अतः याचना परीषह जय का आशय ही श्रमण की ऋजुता है । याचना करने पर भी यह सम्भव है कि आवश्यक वस्तु मिले और न भी मिले । लाभ और अलाभ दोनों ही स्थितियों में श्रमण सम रहता है, हर्षशोक नहीं करता । यों तो श्रमण की दिनचर्या तथा तपोसाधना ऐसी है कि साधारणतया उसे कोई रोग नहीं हो पाता, फिर भी पूर्वकृत कर्म-दोष के कारण अथवा पथ्य-अपथ्य आहार के कारण यदि कभी कोई रोग हो भी जाय तो पीड़ा-चिन्ता करके आर्तध्यान नहीं करता, वह सावद्य ( - सदोष ) चिकित्सा का अभिनन्दन भी नहीं करता, अनाकुल भाव से सहज शान्त बना रहता है । शयन करते समय अथवा मार्ग में चलते समय श्रमण को तृण-स्पर्श हो जाय, काँटे, शूल आदि चुभ जायें तो वह उस तृण की तीखी चुभन से व्याकुल नहीं होता, अपितु समभाव में रहता है । श्रमण स्नान नहीं करता । गरमियों में पसीना आता है, उस पर मैल जम जाता हैं, धूल आदि उड़कर भी जम जाती है, किन्तु श्रमण उस मैल की पीड़ा से व्यथित नहीं होता । वस्तुतः देह के प्रति श्रमण का निर्ममत्व होता है । उसकी दृष्टि आत्मकेन्द्रित होती है, शरीर - केन्द्रित नहीं । इसी प्रकार साधक घोर तप करके भी यह सोचकर व्यथित नहीं होता कि मुझे दिव्यज्ञान क्यों नहीं प्राप्त हो रहा है । न वह अपनी श्रद्धा से ही डगमगाता है । यदि उसे विशिष्ट ज्ञान हो, उसकी तर्कणा शक्ति प्रबल हो तो उसका अहंकार नहीं करता । उपसर्ग विजय परीषहों के साथ उपसर्गों का चोली-दामन का सा साथ है। जिस प्रकार श्रमण परीषहों पर विजय प्राप्त करता है उसी प्रकार वह उपसर्गों को Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तितिक्षायोग साधना १६३: भी निर्भयतापूर्वक जीतता है । उस समय वह न मन में दीनता का भाव लाता है और न उन उपसर्गों को अपनी मन्त्र शक्ति अथवा विशिष्ट लब्धियों के बल पर दूर करने का ही प्रयास करता है, वरन् अपनी आत्म-शक्ति से तितिक्षापूर्वक उन पर विजय प्राप्त करता है । उपसर्ग तीन प्रकार के होते हैं- देवकृत, मनुष्यकृत और तिर्यंचकृत | देव कई कारणों से श्रमण पर उपसर्ग करते हैं - पूर्वभव के र विपाक से (२) श्रमण की परीक्षा लेने के उद्देश्य से (३) कभी हास्य ( कौतुक ) से भी देव उपसर्ग करते हैं (४) कभी पूर्व राग के कारण भी देव श्रमण को अनुकूल उपसर्ग करते हैं । मनुष्यकृत उपसर्ग भी इन्हीं कारणों से होते हैं । " तिर्यंचकृत उपसर्ग - भय से, द्वेष से आहार के लिए तथा अपनी सन्तान रक्षा के कारण होते हैं । इन तीनों के अतिरिक्त आत्म-संवेदन रूप उपसर्ग और होते हैं । वे चार प्रकार के हैं - ( १ ) अंगों को परस्पर रगड़ने से ( २ ) अंगुलि आदि अंगोपांगों के चिपक जाने या कट जाने से (३) रक्त संचार के रुक जाने से अथवा ऊपर से गिर जाने से तथा (२) वात-पित्त-कफ के प्रकुपित हो जाने से । इस तरह अनेक प्रकार के उपसर्गों को श्रमण अपने आत्म-बल के द्वारा जीतता है । उपसर्ग और परोषह : श्रमण की तितिक्षा की कसौटी उपसर्ग तथा परीषह कैसे भी क्यों न हों, सबके सब श्रमण की तितिक्षा की - सहनशीलता और समभाव की कसौटी हैं । यदि श्रमण इन्हें समभावपूर्वक जीत लेता है तो वह विजयी हो जाता है और यदि कहीं आकुल व्याकुल हो गया, मस्तिष्क में ईर्ष्या-द्वेष के संस्कार उदबुद्ध हो गये तो वह अपनी साधना से, अपने गौरवपूर्ण पद से विचलित हो जाता है । श्रमण द्वारा परीषह और उपसर्गों की विजय उसकी तितिक्षायोग की साधना है । यह साधना जितनी ही बलवती होती है श्रमण उतनी ही सरलता और सहजता से उपसर्ग- परीषहों पर विजयी हो जाता है, उसकी साधना चमक उठती है । जिस प्रकार कसौटी पर खरा उतरा सोना सर्वजनआदरणीय हो जाता है उसी प्रकार तितिक्षायोग में निष्णात साधक भी पूजनीय हो जाता है । गृहस्थ साधक के जीवन में तितिक्षायोग तितिक्षायोग की साधना सिर्फ गृहत्यागी साधक योगी के लिए नहीं है, किन्तु गृहस्थयोगी के लिए भी इसका बहुत महत्त्व तथा उपयोग है । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जैन योग : सिद्धान्त और साधना मनुष्य के जीवन में कठिनाइयाँ, संघर्ष और प्रतिकूल परिस्थितियाँ कदम-कदम पर मुह बाए खड़ी हैं। यदि इन विपरीत स्थितियों से घबड़ाकर व्यक्ति पलायन करने लगे तो एक दिन का जीवन भी नहीं चल सकता। यश के बदले अपयश, लाभ के स्थान पर हानि, असफलता, अपमान, बड़ों से अवहेलना, आदि का क्षण-क्षण में हमें अनुभव होता है, सफर में पैसे खर्च करके भी आदमी कितनी तकलीफ उठाता है, व्यापार में पैसे फंसाकर, भारी जोखिम उठाकर और रात-दिन मेहनत करके भी कभी-कभी भारी हानि उठानी पड़ती है, आफिस में अपने अधिकारी या बॉस की जी-हजूरी करके और अपना कार्य पूरा करके भी कभी-कभी डाँट व अपमान को कड़वी घूट पीनी पड़ती है। विद्यार्थी को जी-तोड़ परिश्रम करने पर भी किसी कारण फेल या थर्ड डिवीजन मिलता है । इस प्रकार की सैकड़ों विपरीत स्थितियाँ, अनचाही मुसीबतें जीवन में निराशा, अनुत्साह और आकुलता का विष घोलती रहती हैं। इन स्थितियों में झझलाकर किसी को कोसना, सरकार या विभाग को गलियाँ देना, अथवा दूसरों को जिम्मेदार ठहराना-एक प्रकार को असहिष्णुता व आकुलता है, इससे हमारी पीड़ा कम नहीं होती, बल्कि मानसिक तनाव, संत्रास और अधिक बढ़ता है, तथा कभी-कभी तो समस्या अधिक उलझ जाती है। - तितिक्षायोग इन विपरीत स्थितियों में भी 'हँसते हँसते जीने की कला' सिखाता है । तन की पीड़ा को मन तक पहुँचने से रोक देता है। एक प्रकार से तितिक्षायोग मन को फायर प्रफ बना देता है, ताकि अभाव व पीड़ाओं की आग से मन संतप्त न हो। आई हुई कठिनाई व बिगड़ी हुई परिस्थितियों में हम सहनशील रहें, उसे बरदाश्त करें और शान्त चित्त से उसके कारणों पर विचार कर उसका प्रतिकार करें—यह शक्ति तितिक्षायोग की साधना से प्राप्त होती है। अतः तितिक्षायोग को साधना गृहस्थ साधक के जीवन में भी अनिवार्य है, उपयोगी है। यह परिस्थिति से धैर्यपूर्वक निपटना सिखाता है। तितिक्षायोग साधना का उत्कर्ष : दश श्रमण धर्म तितिक्षायोग की साधना, श्रमण को सहनशील, सहिष्णु, समताभावी और अभय तो बनाती ही है किन्तु साथ ही साथ उसकी आत्मिक और चारित्रिक उन्नति भी करती है, श्रमण के चारित्रिक विकास का साधन भी बनती है। यह श्रमण के आध्यात्मिक शांति और प्रगति का मार्ग (The way of spiritual peace and progress) है । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तितिक्षायोग साधना १९५ श्रमण जो संयम की साधना करता है, उसका हार्द है-दस श्रमण धर्म । इन दस धर्मों से श्रमण की साधना को चार चाँद लगते हैं, उसकी साधना रत्नराशि के समान जगमगाने लगती है। आगमों और परवर्ती जैन ग्रंथों में दस विध श्रमणधर्मों का उल्लेख हुआ है । यद्यपि कहीं-कहीं इनके क्रम में भेद मिलता है; किन्तु उनका स्वरूप एक ही है, उसमें समानता है, भेद नहीं है। स्थानांग सूत्र में उनके नाम इस प्रकार दिये गये हैं (१) क्षांति (२) मुक्ति (३) आर्जव (४) मार्दव, (५) लाघव, (६) सत्य (७) संयम, (८) तप, (६) त्याग (१०) ब्रह्मचर्य । आवश्यकचूणि और तत्त्वार्थसूत्र में इन धर्मों से पहले 'उत्तम' विशेषण लगाया गया है । इस विशेषण का अभिप्राय यह है कि क्षमा आदि तभी धर्म हो सकते हैं जब इनका आचरण उत्कृष्ट भावों से किया जाय । वस श्रमण धर्म और तितिक्षायोग (१) शांति अथवा उत्तम क्षमा धर्म का अभिप्राय है क्रोध का निग्रह, क्रोध के निमित्त प्राप्त होने पर भी मन में कलुषता न लाना, शुभ परिणामों द्वारा क्रोध की निवृत्ति करना । १. (क) खंती, मुत्ती, अज्जवे, मदवे, लाघवे, सच्चे; संजमे, तवे, चियाए, बंभचेरवासे । -स्थानांग १०/७१२ (ख) खन्ती य मदवऽज्जव मुत्ती तव संजमे य बोद्धव्वे । सच्चं सोयं आकिंचण च बंभं च जइधम्मो॥ -स्थानांगवृत्ति पत्र, २८३ (ग) समवायांग, समवाय १० (घ) खन्ती मुत्ती अज्जव मदव तह लाघवे तवे चेव । संजम चियागिऽकरण, बोद्धव्वे बंभचेरे य ॥ -आचार्य हरिभद्र द्वारा उद्धृत प्राचीन गाथा (च) उत्तम खमा, महवं, अज्जवं, मुत्ती, सोयं, सच्चो, संजमो, तवो, अकिंचणत्तणं बंभचेरेमिति । -आवश्यकचूणि (छ) उत्तमः क्षमामार्दवावशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिंचन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः । -तत्वार्थसूत्र ६/६ (ज) षट्प्राभृत-द्वादशानुप्रेक्षा, श्लोक ७१-८१ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ जैन योग : सिद्धान्त और साधना क्रोधविजय का विधेयात्मक रूप क्षान्ति है। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी शान्ति रखना, मन में क्रोध कषाय के आवेग को न उठने देना ही क्षमा है । यही तितिक्षायोग की साधना है। ___ मानव का मस्तिष्क अति संवेदनशील अंग है, थोड़ी भी विपरीत बात से उसमें उथल-पुथल मच जाती है, विक्षोभ पैदा हो जाता है। श्रमण तितिक्षा की साधना से मन को इतना अपने वश में कर लेता है कि प्रतिकूल स्थिति में भी वह भड़कता नहीं, उद्वलित नहीं होता, शान्त बना रहता है । (२) मुक्ति का अभिप्राय है-लोभ का, लालच का निग्रह करना । सूत्रकृतांग सूत्र में एक शब्द आया है 'सव्वप्पगं' जिसका अर्थ है लोभ; और इसे सर्वव्यापक बताया है। आधुनिक युग के मनोवैज्ञानिक मैकडगल ने भी लोभ का मूल संवेग स्वाग्रह भाव माना है। श्रमण स्वाग्रह भाव के संवेग का विनाश करता है । स्वाग्रह भाव के संवेग से अपनी आत्मिक शान्ति में विक्षेप नहीं होने देता। (३) आर्जव-आर्जव का अभिप्राय है-मन-वचन-काया की ऋजुता, सरलता । आर्जव धर्म के परिपालन से साधक माया-कपट तथा योगों की विसंवादिता (दोगलापन) का परिमार्जन करता है, उसका अन्तर् और बाह्य एक समान होता है । वह जो मन में विचार करता है, वही कहता है और वैसा ही करता भी है। योगों की विसंवादिता के परिमार्जन से उसकी आत्मिक शान्ति स्थिर रहती है और आत्मिक शान्ति के कारण योग-विसंवादिता का परिमार्जन होता है । परस्पर इनमें कार्य-कारण भाव है। इस कार्य-कारण भाव को श्रमण अपनी तितिक्षा की साधना से स्थिर रखता है । जितना ही उसकी तितिक्षायोग की साधना गहरी होगी उतनी ही उसमें सरलता एवं ऋजुता होगी और आर्जव धर्म का परिपालन वह उत्तम भावों से कर सकेगा। ___ इसीलिए भगवान महावीर ने कहा है-सोही उज्जुयभूयस्स धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ-ऋजु अथवा सरल व्यक्ति में धर्म स्थिर होता है । (४) माव-मार्दव धर्म का परिपालन करने वाला श्रमण मान कषाय का परिमार्जन करता है। १ सूत्रकृतांग १/३६ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तितिक्षायोग साधना १९७ मान के लिए सूत्रकृतांग सूत्र (१/३६) में शब्द दिया गया है-विउषकसं–व्युत्कर्षः और आधुनिक मनोविज्ञानशास्त्रो मैक्डूगल ने भी मान का संवेग व्युत्कर्ष माना है। व्युत्कर्ष का अभिप्राय है अपने को उच्च समझना। जब कोई व्यक्ति स्वयं अपने को उच्च समझेगा तो अन्य उसकी दृष्टि में नीचे हो ही जायेंगे। उच्चता का अभिमान या दर्प मान का मुख्य कारण है। श्रमण इस ऊँच-नीच की भावना का परिमार्जन अपने समरसीभावसाम्यता की भावना-तितिक्षायोग की साधना से करता है। वह संसार के सभी प्राणियों की आत्मा को अपनी आत्मा के समान समझता है, सबके प्रति आत्मौपम्य भाव रखता है। (५) लाघव-इस धर्म का परिपालन करता हुआ श्रमण ऋद्धि, रस और साता-इन तीनों गारवों का पूर्णतः परित्याग कर देता है, उपकरण भी अल्प रखता है। गारवों के त्याग और उपकरणों की अल्पता से उसकी तितिक्षा और भी बढ़ती है, गहरी होती है। (६) सत्य-सत्य का श्रमण के जीवन में अत्यधिक महत्त्व है। यह दूसरा महाव्रत है, भाषा समिति है, वचन गुप्ति है, वचन समिति है और धर्म भी है। वस्तुतः सत्य के विधेयात्मक (Positive) और निषेधात्मक (Negative) दोनों पहलुओं को श्रमण के जीवन में महत्त्व दिया गया है, स्वीकारा गया है । भाषा समिति में उसका विधेयात्मक रूप है और वचनगुप्ति में निषेधात्मक रूप । सत्य आत्मा का धर्म है, यह वीतराग भाव की साधना है, शान्ति का मूल है। सत्य धर्म की साधना शान्ति की साधना है । जिसके मन-वचन-काया अणु-अणु और रग-रग में सत्य प्रतिष्ठित होगा वही शान्ति की साधना कर सकता है और जिसका मन-मानस शान्त होगा वही सत्यधर्म का पालन उत्तम भावों से कर सकता है। (७) संयम-संयम का अभिप्राय है-विवेकपूर्वक अपनी इच्छाओं का नियमन, मन और इन्द्रियों के प्रवाह को अन्तमुखी बनाना तथा आन्तरिक वृत्तियों का परिमार्जन करके उन्हें पवित्र बनाना, उन्हें शान्त-उपशान्त करना । संयम, मन और इन्द्रियों के बाह्य प्रवाह के लिए तटबन्ध है। मन और इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों की ओर दौड़ते हुए चंचल बने Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ जैन योग : सिद्धान्त और साधना रहते हैं, उनकी चंचलता तभी समाप्त होती हैं जब उनकी प्रवृत्ति अन्तमुखी हो जाती है, चेतना के सहज-सरल प्रवाह का सम्पर्क पाते ही मन और इन्द्रियाँ शान्त हो जाती हैं । यह शान्ति ही तितिक्षायोग है। (८) तप-तप है शरीर पर मन का नियन्त्रण करने एवं वीतराग बनने की साधना । जब यह साधना श्रमण का सहज स्वभाव बन जाती है तब वह तप धर्म बन जाती है । उत्तम भावों से तप का आचरण, तपधर्म है। इस तपधर्म के आचरण मेंकर्मनिर्जरा तीव्र गति से होती है, आत्मशान्ति प्राप्ति होती है और मुक्ति निकट आती है। तप का हार्द वीतराग भाव की वृद्धि और फल आत्म-स्वरूप की प्राप्ति है। स्वरूप स्थित आत्मा शान्त-प्रशान्त होता है। (६) त्याग-सुख और शान्ति का साधन त्याग है । यह त्याग आन्तरिक परिग्रह-कषाय आदि तथा बाह्य परिग्रह-दोनों प्रकार के परिग्रहों का किया जाता है। ___ श्रमण जितना-जितना त्याग करता है, उतना-उतना वह शान्त और सुखी होता जाता है। त्यागधर्म के द्वारा वह तितिक्षायोग की साधना करता है। (१०) ब्रह्मचर्य-ब्रह्मचर्य का अभिप्राय है-(ब्रह्म अर्थात् शुद्ध आत्मभाव तथा चर्य का अर्थ है-रमण करना)-शुद्ध आत्मभाव में रमण करना। इसका बाह्य रूप अथवा स्थूल रूप काम-भोग विरति है। काम-भोगों को इच्छा, चित्त की चंचलता का कारण बनती है, मन में विभिन्न प्रकार के आवेग-संवेग और संकल्प-विकल्प उठते हैं, भोगोपभोगों की सामग्री प्राप्त करने को व्यक्ति बेचैन हो उठता है और न मिलने पर आकुलव्याकुल हो जाता है। श्रमण काम-भोगों से पूर्णतः विरत होकर सभी प्रकार की मानसिक आकुलताओं से रहित हो जाता है, उसका मन-मानस शान्त हो जाता है। मन को आवेग-संवेगों से क्षुब्ध न होने देना तितिक्षायोग की साधना है। १ तप का विस्तृत वर्णन 'तपोयोग' नामक अध्याय में किया गया है । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तितिक्षायोग साधना १९६ धर्म का मूल लक्ष्य एक ही है-आत्मिक शान्ति की प्राप्ति । शान्ति के लिए ही धर्म का आचरण किया जाता है। इसीलिए धर्म मानव के आचार-विचार को शुद्ध और निर्मल बनाने का वाला मुख्य तत्त्व है। इस दृष्टि से विचार किया जाय तो ये सभी (दश श्रमण धर्म) धर्म, तितिक्षायोग की साधना हैं । क्योंकि तितिक्षायोग भी तो शान्ति की साधना ही है। तितिक्षायोग का साधक साम्यभाव की साधना करता है, वह अनुकूल-परिस्थितियों में भी सम बना रहता है, उनमें राग-द्वष नहीं करता है। तितिक्षायोगी उपसर्गों और परीषहों को भी समताभाव से जीतता है । उसका समत्व किसी भी स्थिति-परिस्थिति में खण्डित नहीं होता है। तितिक्षायोग की तीन निष्पत्तियाँ हैं-सहनशीलता, समताभाव और शान्ति । वह शान्ति में, समताभाव में स्थिर रहता है। इस स्थिरता के कारण तथा परिणामों में संकल्प-विकल्प, राग-द्वेष न होने के कारण वह मुक्ति के समीप पहुँचता जाता है। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ प्रेक्षाध्यान-योग साधना भगवान महावीर ने साधना क्षेत्र में बढ़ने वाले साधक को एक अनुभूत सूत्र दिया इह आणाकंखी पंडिए अणिहे एगमप्पाणं संपेहाए धुणे सरीरं कसेहि अप्पाणं, जरेहि अप्पाणं । -आचारांग ४/४६० अर्थात्-ज्ञानी पुरुष एकमात्र आत्मा की संप्रेक्षा करे; वह शरीर को प्रकंपित करे (धुने-जिस प्रकार रुई धुनने वाला धुनिया रुई को धुनता है, उस प्रकार धुने अर्थात् जर्जरित करे), कषाय आत्मा को कृश करे और उसे जीर्ण करे। भगवान महावीर की साधना अप्रमाद की साधना थी और अप्रमाद का सर्वप्रथम सूत्र है- आत्म-दर्शन, आत्मा को देखना। भगवान ने साधक के लिए कहा संपिक्खए अप्पगमप्पएण अर्थात्-आत्मा को आत्मा से देखो। प्रेक्षाध्यान-योग प्रेक्षाग्यान क्या है ? भगवान ने आत्म-दर्शन को उत्सुक साधक के लिए शब्द दिया 'संपेहाए । संपेहाए शब्द का अर्थ है गहराई से देखना, ध्यानपूर्वक देखना, या देखने में ही तल्लीन हो जाना; उस समय सिर्फ देखना ही हो, विचार न हो, निर्विचार की स्थिति आ जाये। दो शब्द हैं-प्रेक्षा और संप्रेक्षा (संपेहा)। प्रेक्षा सामान्य जन की भाषा में सिर्फ देखने तक ही सीमित है, यद्यपि इसमें भी गहराई से देखा जाता है किन्तु निर्विचारता की स्थिति नहीं आ पाती। लेकिन ध्यानयोग की साधना में प्रेक्षा शब्द का प्रयोग संप्रेक्षा के अर्थ में किया जाता है। जो Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेक्षाध्यान-योग साधना २०१ अभिप्राय संप्रेक्षा शब्द से अपेक्षित है, वही प्रेक्षा शब्द से लिया जाता है। दूसरे शब्दों में संप्रेक्षाध्यान-योग' हो प्रेक्षाध्यान-योग है। चेतना अथवा आत्मा का मूल लक्षण उपयोग है। उपयोग के दो रूप हैं -(१) दर्शनोपयोग और (२) ज्ञानोपयोग । दर्शन यानी देखना और ज्ञान यानी जानना । अतः देखना और जानना आत्मा का स्वभाव है। किन्तु काँ से आवृत होने के कारण आत्मा की यह देखने-जानने की क्षमता में क्षीणता आ जाती है । अतः उस क्षमता को-आत्मा के स्वभाव को विकसित करने लिए भगवान ने साधक को सूत्र दिया-देखो और जानो। आत्मा को, आत्मा से, आत्ममय देखो। स्थूल चेतना से सूक्ष्म चेतना को देखो। स्थल मन से सूक्ष्म मन को देखो; इसके प्रकंपनों को देखो। स्थल शरीर को देखो, उसमें होते हए प्रकंपनों-परिवर्तनों को देखो। तैजस शरीर और इसके प्रकंपनों को देखो, शक्ति केन्द्रों, मर्मस्थानों और चक्रस्थानों को देखो। कषायों के आवेगों-संवेगों को देखो। आदि..."आदि.." देखना मूल तत्त्व है। इसीलिए इसे प्रेक्षाध्यान (संप्रेक्षाध्यान) कहा गया है। प्रेक्षाध्यान आगमवर्णित धर्मध्यान के भेद-विचयध्यान का ही एक प्रकार है। प्रेक्षाध्यान का सूत्र प्रेक्षाध्यान का प्रमुख सूत्र है-सिर्फ देखना । देखना, सिर्फ देखना हो। उस समय मन में न किसी प्रकार के विचार आवें और न संकल्प-विकल्प ही उठे । न राग-द्वेष का अंश हो, न किसी प्रकार की आशा-अभिलाषा। देखने में आत्मा तल्लीन हो जाये। __जिस समय आत्मा सिर्फ देखता है, उस समय वह विचार नहीं कर सकता । संकल्प विकल्प, राग-द्वेष आदि कोई भी प्रवृत्ति नहीं होती और यदि किसी भी प्रकार की मन की प्रवृत्ति होती है तो प्रेक्षा नहीं होगी, देखने का क्रम टूट जायगा। १ (क) संप्रेक्षा अथवा प्रक्षाध्यान ही बौद्ध दर्शन का विपश्यना ध्यान है । उसकी क्रिया-प्रक्रिया भी प्रेक्षा ध्यान के समान ही है। (ख) द्रष्टुटुंगात्मता मुक्तिदृश्य कात्म्यं भवभ्रमः । -अध्यात्मोपनिषद्, ज्ञानयोग; श्लोक ५ २ उपयोगो लक्षणं । __ -तत्त्वार्थसूत्र २८ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग : सिद्धान्त और साधना देखना, विचारों के क्रम और सिलसिले को तोड़ने का - निर्विचार स्थिति लाने का अचूक और अमोघ साधन है । यह कल्पना के जाल को, भूत काल के भोगे हुए भोगों की स्मृति को और भविष्य की आशाओं-आकांक्षाओं को तोड़ने का प्रबल साधन है । २०२ साधक जब किसी बाह्य वस्तु को अनिमेष दृष्टि से देखता है तो उसके विकल्प समाप्त हो जाते हैं, विचारशून्यता की स्थिति आ जाती है । साधक पहले अपने स्थूल शरीर को देखता है, उसमें होने वाले प्रकंपनों को देखता है और फिर तैजस् और सूक्ष्म शरीर तथा वहाँ होने वाली हलचलों को देखता है, इस प्रकार उसकी प्रेक्षा गहन से गहनतर होती चली जाती है । प्रेक्षा में सिर्फ चैतन्य - सत्ता अथवा चेतना ही सक्रिय होनी चाहिए । यदि उसमें राग-द्वेष, रति-अरति, प्रियता - अप्रियता का भाव आ जाए तो वह देखना नहीं रहता । जैसे दर्शन के पश्चात् ज्ञान का क्रम है । यही देखने-जानने का क्रम है । दर्शनपूर्वक ही ज्ञान होता है । ज्यों-ज्यों साधक देखता जाता है त्यों-त्यों वह जानता भी जाता है । मन और इन्द्रियों के संवेदन से परे सिफ चेतना द्वारा ही देखना और जानना - चैतन्य का उपयोग है और यह साधक का चरम लक्ष्य है; क्योंकि केवली भगवान भी सिर्फ चैतन्य उपयोग के द्वारा ही देखते और जानते हैं । ग्रन्थों में देखने और जानने के लिए नेत्रों का उदाहरण दिया गया है । छद्मस्थ प्राणी नेत्रों से ही देखता - जानता है । चक्षु इन्द्रिय सामने आने वाले विभिन्न प्रकार के दृश्यों को देखती है, जानती है; किन्तु दर्पण के समान उस पर कोई संस्कार नहीं पड़ते । न वह उन दृश्यों का निर्माण करती है, न रागद्वेष करती है और इसीलिए वह उनका फल भोग भी नहीं करती । अतः चक्षु अकारक और अवेदक है । इसी प्रकार ज्ञानी साधक जब प्रेक्षाध्यान में गहरा उतरता है, किसी वस्तु को देखता है तो वह भी अकारक होता है, वह न कर्मों का आस्रव करता है, न उसको कर्मबन्ध होता है, न विपाक प्राप्त कर्मों के फल का वेदन ही वह करता है और न उन कर्मों से उसका तादात्म्य ही स्थापित होता है । साधक जब देखने-जानने- प्रेक्षाध्यान का अभ्यस्त हो जाता है तो Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेक्षाध्यान योग साधना २०३ व्याधि, कष्ट आदि को वह देख और जान तो लेता है, किन्तु उनके साथ तादाम्य का अनुभव नहीं करता अतः उसको वेदना की प्रेक्षा से कष्ट की अनुभूति या तो होती ही नहीं अथवा अत्यल्प मात्रा में होती है । तो, प्रेक्षाध्यान का साधक के लिए महत्त्वपूर्ण सूत्र है - देखना, सिर्फ देखना ही हो, मात्र ! जानना ही हो; उसमें प्रियता अप्रियता, विचार, संकल्पविकल्प आदि न जुड़े । प्रेक्षाध्यान की विधि एवं प्रकार साधना और साधक की सुविधा की दृष्टि से प्रेक्षाध्यान के अनेक भेद अथवा प्रकार भी किये जा सकते हैं; वे हैं - (१) काय प्रेक्षा (२) श्वास- प्रेक्षा (३) मन के संकल्प - विकल्पों की प्रेक्षा (४) कषाय - आवेग संवेगों की प्रेक्षा (५) अनिमेष - पुद्गल द्रव्य की प्रेक्षा और ( ६ ) वर्तमान क्षण की प्रेक्षा । (१) काय- प्रेक्षा मानव शरीर के तीन भेद हैं, अथवा मानव आत्मा पर तीन प्रकार के शरीरों का आवरण है - (१) कार्मण शरीर - अति सूक्ष्म कर्म वर्गणाओं द्वारा निर्मित शरीर । (२) तेजस् शरीर - तेजस् पुद्गल परमाणुओं द्वारा निर्मित शरीर, इसे सूक्ष्म शरीर भी कहा जाता है और आधुनिक वैज्ञानिकों की शब्दावली में यह Etheric body है । (३) औदारिक शरीर - उराल - स्थूल पुद्गलों से निर्मित शरीर, यह स्थूल शरीर है और यही हमें अपने चर्मचक्षुओं से दिखाई देता है । इनमें से कार्मण शरीर चतुःस्पर्शी पुद्गलों से निर्मित अति सूक्ष्म शरीर है अतः छद्मस्थ साधक इसे देखने में सक्षम नहीं हो पाता । साधक औदारिक एवं तैजस् शरीर अथवा स्थूल और सूक्ष्म शरीर की प्रेक्षा करता है । शरीर आत्मा का निवास स्थान है । इसी के माध्यम से चैतन्य की अभिव्यक्ति होती है | अतः साधना की दृष्टि से शरीर का काफी महत्त्व है । क्योंकि यह आत्मा पर पड़े कर्मों के आवरण को दूर करने का शक्तिशाली माध्यम है। साधक इसी की सहायता एवं सम्यक् उपयोग से आत्मा के साथ संश्लिष्ट कर्मों को हटाता है, उनका क्षय करता है । भगवान महावीर ने साधक को एक साधना - सूत्र दिया हैarrera लोग-विपस्सी लोगस्स अहो मामं जाणइ, उड्ढं भागं जाणइ, तिरियं भागं जाणइ । - आचारांग २/२/३०२ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग : सिद्धान्त और साधना - अर्थात् - दीर्घदर्शी मनुष्य लोकदर्शी होता है । वह लोक के अधोभाग को जानता है, ऊर्ध्व भाग को जानता है, तिरछे भाग को जानता है । २०४ यह सूत्र काम अनासक्ति के सन्दर्भ में है । इस सूत्र का अभिप्राय है कि लोकदर्शन, कामवासना से मुक्त होने का पहला आलम्बन है । यहाँ लोक का अभिप्रेत अर्थ भोग्य वस्तु अथवा विषय है । शरीर भोग्य वस्तु या विषय है । 'उसके तीन भाग हैं गड्ढा । आदि । (१) अधोभाग - नाभि के नीचे का भाग । (२) ऊर्ध्वभाग - नाभि से ऊपर का भाग । (३) तिर्यग भाग - नाभि स्थान । दूसरी अपेक्षा से शरीर के तीन भाग ये माने जाते हैं (१) अधोभाग - आँख का गड्ढा, मुख के बीच का भाग, गले का (२) ऊर्ध्व भाग अथवा उभरे हुए भाग — घुटना, वक्षस्थल, ललाट (३) तिर्यग् अथवा तिरछा भाग- शरीर का समतल भाग । साधक प्रेक्षा करे कि इन तीनों भागों में स्रोत हैं । साधक शरीर की प्रेक्षा दो रूपों में करता है (१) संपूर्ण शरीर की प्रेक्षा (२) शरीर के मर्मस्थानों, केन्द्रस्थानों और चक्रस्थानों की प्रेक्षा । जिस समय साधक शरीर (स्थूल या औदारिक शरीर ) की प्रेक्षा करता है और स्थूल शरीर के प्रकंपनों को तटस्थ दृष्टि से देखता है तो अकेले मस्तिष्क में ही उसे लाखों-करोड़ों कोशिकाएँ तथा ज्ञानवाही तन्तु दिखाई देते हैं । प्रतिपल - प्रतिक्षण हजारों-लाखों कोशिकाएँ मरती हैं और जीवित होती हैं । जन्म-मरणरूप लोक उसे वहाँ दिखाई देता है । इसी प्रकार की स्थिति उसे सम्पूर्ण शरीर में दिखाई देती है । स्थूल शरीर की प्रेक्षा का अभ्यस्त होने पर साधक सूक्ष्म या तैजस् शरीर की प्रेक्षा करता है, उसे देखने लग जाता है, वहाँ उसे प्रकम्पन और भी तीव्र गति से होते दिखाई देते हैं, तेजस् शरीर का प्रकाश भी उसके दृष्टि Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेक्षाध्यानयोग साधना २०५. पटल पर नाचने लगता है, उसे ज्योति के दर्शन होते हैं। मर्मस्थानों और चक्रस्थानों पर उसे ऐसा लगता है जैसे तीव्र प्रकाश हो । वास्तव में है भी तैजस् शरीर प्रकाश पुञ्ज ही। उसी में मानवीय विद्य त धारा का प्रवाह प्रवाहित होता है, उसी की स्फूति से स्थूल शरीर संचालित होता है। शरीर-प्रेक्षा का परिणाम अप्रमाद और सतत जागरूकता होता है। वह प्रतिपल होने वाले प्रकम्पनों को देखता है । वह क्षणों को देखने लगता है। तटस्थ द्रष्टा होने के कारण वह सुखात्मक क्षण में राग नहीं करता है और दुखात्मक क्षण में द्वेष नहीं करता। वह उन्हें केवल देखता और जानता है । वह सुख-दुःखातीत हो जाता है। वस्तुतः शरीर-प्रेक्षा की सम्पूर्ण साधना अप्रमत्तता और जागरूकता की साधना है । आचारांग में एक सूत्र आया है-सुत्तेसु जागरमाणे-सोते हुए भी जागृत रहने वाला तथा दूसरा सूत्र है साधक के लिए-सुत्तेसु यावि पडिबुद्धजीवी-साधक सोता हुआ भी प्रतिबुद्ध होकर जीए। __ ये दोनों सूत्र प्रेक्षाध्यान की अपेक्षा से हैं, क्योंकि शरीर-प्रेक्षा का अभ्यस्त साधक ही सोते हुए भी प्रतिबुद्ध रहता है, निद्रित अवस्था में भी अप्रमत्त रहता है। इसी अपेक्षा से भगवान महावीर के विषय में कहा गया है णिहमि णो पगामाए, सेवइ भगवं उठाए। जग्गावती य अप्पाणं, ईसि सायो यासी अपडिन्ले ।। अर्थात्-भगवान विशेष नींद नहीं लेते थे। वे बहुत बार खड़े-खड़े ध्यान करते थे तब भी अपने आप को जागृत रखते थे। वे समूचे साधना काल में बहुत कम सोये । साढ़े बारह वर्ष के साधना काल में मुहते भर भी नहीं सोये। वास्तविकता यह है कि शरीर-प्रेक्षा करने वाला साधक जागरूक हो जाता है, वह सतत अप्रमत्त रहता है। (२) श्वास-प्रेक्षा श्वास को सामान्यतया जोवन का पर्यायवाची माना जा सकता है। जब तक श्वास चलता है तब तक मनुष्य को जीवित माना जाता है, दूसरे शब्दों में ही श्वास जीवन है । श्वास को प्राण कहा जाता है । प्राण का शरीर, मन और नाड़ी संस्थान के साथ गहरा संबंध है। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जैन योग : सिद्धान्त और साधना चैतन्य-शक्ति के द्वारा प्राण-शक्ति का संचालन होता है। प्राण-शक्ति के द्वारा मन, नाड़ी संस्थान और संपूर्ण सूक्ष्म तथा स्थूल शरीर का संचालन होता है। दूसरे शब्दों में इसे यों भी कह सकते हैं कि बाह्य दृष्टि से श्वास द्वारा नाड़ी संस्थान, सूक्ष्म शरीर और प्राण-शक्ति तक साधक पहुँचता है । __वस्तुतः श्वास शरीर की ही एक क्रिया है । शरीर के विभिन्न अवयव, श्वास प्रणाली (Respiratory systam), श्वास लेते और छोड़ते समयश्वासोच्छ्वास के समय गतिशील होते हैं । इन अवयवों में विकृति आजाने से मनुष्य को श्वास लेने में कठिनाई हो जाती है। प्राणायाम की साधना में हठयोगी श्वास का निरोध भी कर लेते हैं। किन्तु प्रेक्षाध्यान का साधक श्वास का निरोध नहीं करता, अपितु उसको देखता है तटस्थ द्रष्टा के समान । श्वास-प्रेक्षा द्वारा साधक प्राणशक्ति और तेजस् शरीर के स्पन्दनों को देखता है। साधक श्वासोच्छ्वास क्रिया दो प्रकार से कर सकता है(१) सहज-प्राकृतिक रूप से जिस प्रकार श्वासोच्छ्वास क्रिया होती है और (२) प्रयत्न द्वारा। प्रयत्न द्वारा श्वासोच्छ्वास क्रिया साधक दो प्रकार से कर सकता है (१) दीर्घश्वास (लम्बे साँस लेना)। (२) लयबद्ध श्वास (प्राणायाम)। सर्वप्रथम साधक दीर्घश्वास का अभ्यास करता है और जब दीर्घश्वास में अभ्यस्त हो जाता है तो वह लयबद्ध श्वासोच्छ्वास का अभ्यास करता है। लयबद्ध श्वासोच्छ्वास में पूरक, कुम्भक और रेचक-प्राणायाम के तीनों अंगों की साधना करता है। पूरक, कुम्भक और रेचक में १:४:२ का अनुपात रखता है । मान लीजिये, उसने १० सैकिण्ड में पूरक किया तो ४० सैकिण्ड तक कुम्भक करेगा और २० सैकिण्ड में रेचक । जब साधक इन क्रियाओं में निष्णात हो जाता है, उसे पूरा अभ्यास हो जाता है तो वह श्वास-प्रेक्षा करता है । श्वासोच्छ्वास को आते-जाते सिर्फ देखता है । श्वास की गति पर मन को केन्द्रित कर देता है। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेक्षाध्यानयोग साधना २०७ दीर्घश्वास शारीरिक और मानसिक रूप से साधक के लिए बहुत लाभकारी है । इससे साधक को प्राणवायु (oxygen) अधिक मिलता है । परिणामस्वरूप उसके रक्त को, फेफड़ों को, शरीर के अन्य संस्थानों को अधिक बल मिलता है, रक्त का शोधन होता है, मानसिक शक्ति बढ़ती है, फेफड़ों (lungs) की सहज मालिश अथवा सुष्ठु व्यायाम होता है और साधक मानसिक तथा शारीरिक रूप से स्वस्थ रहता है । तेजस् शरीर पर इसका अधिक प्रभाव पड़ता है । इससे सुषम्ना नाड़ी और नाड़ी संस्थान प्रभावित होता है, नाड़ी शुद्धि होती है, तैजस् शरीर शक्तिशाली बनता है और शक्ति केन्द्र तथा चक्रस्थान जागृत होते हैं । यह संवेगों पर नियन्त्रण करने में भी सहायक होता है । लयबद्ध श्वास से ज्ञानशक्ति विकसित होती है, अतीन्द्रिय ज्ञान की उपलब्धि की सम्भावनाएँ प्रबल होती हैं और आवेग संवेगों की उपशान्ति होती है । श्वास-प्रेक्षा, साधक की मानसिक एकाग्रता के लिए एक प्रमुख आलम्बन है । मानसिक एकाग्रता से उसे शान्ति का अनुभव होता है, कषायों के आवेग उपशान्त हो जाते हैं, संकल्प-विकल्प साधक को उद्वेलित नहीं कर पाते । (३) मानसिक संकल्प-विकल्पों की प्रेक्षा श्वास- प्रेक्षा में अभ्यस्त हुआ साधक और भी सूक्ष्म द्रष्टा बन जाता है । अब स्थूल और सूक्ष्म शरीर से भी गहराई में उतरकर अपने मन के चेतन और अवचेतन तथा अचेतन स्तर पर पहुँचता है, वहाँ उठने वाले संकल्पों-विकल्पों की प्रेक्षा करता है, तटस्थ दर्शक के समान उन्हें देखता है; किन्तु उनसे अपने को जोड़ता नहीं, अलग ही रहता है । संकल्प - विकल्प - प्रेक्षा से साधक की है; साथ ही उन संकल्प - विकल्पों का बल भी समाप्तप्राय होने लगते हैं । राग-द्वेष की वृत्ति कम हो जाती क्षीण हो जाता है, वे धीरे-धीरे (४) कषाय- प्रेक्षा कषायों का मूल स्थान तो कार्मण शरीर है; किन्तु उनके आवेगोंसंवेगों की धारा अवचेतन मन, चेतन मन, तेजस् शरीर से गुजरती हुई स्थूल शरीर द्वारा अभिव्यक्त होती है । जैसे - क्रोध आने से आँखें लाल हो जाती हैं, अहंकार की स्थिति में शरीर सहज ही अकड़ जाता है । कभी-कभी स्थूल Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ जैन योग : सिद्धान्त और साधना शरीर से अभिव्यक्ति नहीं भी हो पाती तो वह तेजस् शरीर तक ही रह जाती है । कषायों के आवेग संवेग मानव मस्तिष्क और तेजस् शरीर में हलचल उत्पन्न कर देते हैं और यदि उनकी प्रबलता तीव्र हुई तो उथल-पुथल ही मचा देते हैं । मानसिक संकल्प - विकल्प प्रेक्षा में अभ्यस्त होने के उपरान्त साधक कषायों के आवेगों-संवेगों की प्रेक्षा करता है । वह अपने अवचेतन मन की प्रेक्षा करता है, उसे तटस्थ द्रष्टा बनकर देखता है तो चकित रह जाता है, कषायों का कितना भयंकर अंधड़ चल रहा है उसके अवचेतन मन में । यद्यपि उसका आसन स्थिर है, वाणी भी मौन है, मन में भी संकल्प-विकल्प अति न्यून हैं, उपशान्त हैं, मन-वचन-काय के योग भी शान्त जैसे दिखाई देते हैं, देखने वाले भी कहते हैं-साधक जी ! शान्तरस में निमग्न हैं; और कषाय- प्रेक्षा से पहले साधक भी अपने मन को शान्त समझता है; किन्तु कषायप्रेक्षा द्वारा ही वह अशान्ति के मूल राग-द्व ेष और कषायों तक पहुँचता है और आत्मिक अशान्ति के यथार्थ कारणों को समझता है । कषाय- प्रेक्षा के प्रभाव से साधक के कषाय-जनित आवेग संवेग उपशान्त होते हैं, साधक सच्ची आत्मिक शान्ति की ओर बढ़ता है । (५) अनिमेष - पुद्गल द्रव्य की प्रेक्षा भगवान महावीर की साधना के वर्णन के संदर्भ में आगमों में एक सूत्र आया है १. एग पोग्गलनिवि विठ्ठी' अर्थात् — एक पुद्गल -निविष्ट दृष्टि- यानी एक पुद्गल पर दृष्टि को स्थिर करना किसी एक पुद्गल पर, भित्ति पर अथवा नासाग्र पर स्थिरतापूर्वक दृष्टि जमाकर अपलक देखते रहना अनिमेष-प्रेक्षा है । अनिमेष - प्रेक्षा, साधक के लिए, आगमों में बारहवीं भिक्षु प्रतिमा में तिहिव की गई है । इस प्रेक्षा के परिणाम बहुत ही महत्त्वपूर्ण होते हैं । १ (क) भगवती सूत्र श. ३, उ.२ ॥ (ख) एगपोगलठित्तीए दिट्ठीए - एक पुद्गलस्थितया दृष्ट्या । — दशाश्रु तस्कन्ध, आयारदसा, सातवीं दशा, बारहवीं भिक्षुप्रतिमा Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेक्षाध्यान साधना मानव का मस्तिष्क ज्ञान कोषों का भंडार है । उसमें लाखों-करोड़ों की संख्या में छोटे-छोटे ज्ञान कोष हैं। उन ज्ञान कोषों में अतीन्द्रिय ज्ञान की क्षमता प्रसुप्त अवस्था में पड़ी रहती है । साधारणतया वे जागृत और सक्रिय नहीं होते । अनिमेष प्रेक्षा उन ज्ञान कोषों को तथा ज्ञान तंतुओं को जागृत करने का एक प्रभावशाली साधन है । साधक, यदि एक रात्रि तक अनिमेष - प्रेक्षा की साधना कर ले तो उसे केवलज्ञान की भी प्राप्ति हो सकती है । किन्तु साधारण साधक यदि इसकी नियमित रूप से कुछ मिनट प्रतिदिन ही साधना करे तो उसको भी अतीन्द्रिय ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है । अनिमेष प्रेक्षा ज्ञान के कपाटों का उद्घाटन करती है । २०६ (६) वर्तमान क्षण की प्रक्षा यह काल की अपेक्षा से योगों (मन-वचन-काय) में होने वाले प्रकंपनों की प्रेक्षा है । प्रकंपन कर्मास्रव के निमित्त बनते हैं और प्रतिपल प्रतिक्षण होते रहते हैं । वर्तमान क्षण की प्रेक्षा करने वाला साधक वर्तमान में ही जीता है, उसी को देखता - जानता है । भगवान महावीर ने कहा खणं जाणाहि पंडिए अर्थात् - क्षण को जानने वाला ही ज्ञानी होता है । ज्ञानी साधक न अतीत काल के संस्कारों की स्मृति करता है और न भविष्य की कल्पनाएँ ही संजोता है। वर्तमान क्षण की प्रेक्षा करने वाला ज्ञानी साधक इन दोनों से ही बच जाता है । भूतकाल की स्मृति और भविष्य काल संबंधों कल्पनाएँ, राग-द्वषों का प्रमुख कारण हैं। वर्तमान क्षण की प्रेक्षा करने वाला साधक इन से तो बच ही जाता है, साथ ही वर्तमान क्षण की राग-द्व ेषरहित सिर्फ प्रेक्षा करने से - देखने-जानने से वह वर्तमान में राग-द्वेषरहित हो जाता हैं; और राग-द्वेषरहित होना ही संवर हैं, आस्रव का निरोध है और साथ ही कर्मबंध का भी अभाव है । - ( आचारांग सूत्र ) वर्तमान में जीना ही भावक्रिया है और भावक्रिया स्वयं ही साधना है प्रथा स्वयं ही ध्यान है; क्योंकि भावक्रिया का अभिप्राय ही यह है कि हृदय उस क्रिया की भावना से भावित हो, मन उस क्रिया में रम जाये - उसे छोड़कर अन्यत्र कहीं भी न जाये, इन्द्रियाँ उस क्रिया के प्रति समर्पित हो जायँ । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० : जैन योग : सिद्धान्त और साधना जब व्यक्ति अपनी क्रियमाण क्रिया में इतना तल्लीन और तन्मय हो जाता है तभी उसकी क्रिया भावक्रिया बनती है और यह स्थिति सदा वर्तमान क्षण में ही आती है, इसीलिए वर्तमान क्षण की प्रेक्षा राग-द्वेषविजय की साधना है । प्रेक्षाध्यान से साधक को लाभ प्रेक्षाध्यान से साधक को अनेक प्रकार के लाभ होते हैं । उनमें से कुछ प्रमुख लाभ हैं (१) अप्रमत्तता - प्रेक्षाध्यान-साधना से साधक का प्रमत्तभाव समाप्त हो जाता है और अप्रमत्तभाव आ जाता है । (२) मन की एकाग्रता - प्रेक्षाध्यान-साधक के मन की एकाग्रता सध जाती है, उसका चित्त चंचल नहीं होता है । (३) संयम की साधना सुकर - प्रेक्षाध्यान से साधक की संयम - साधना सरल और सहज हो जाती है । संयम के उपसर्ग और परीषह उसे अधिक पीड़ित नहीं कर पाते । जिस प्रकार कुम्भक श्वास का निरोध है, उसी प्रकार संयम इच्छाओं का निरोध है । प्रेक्षाध्यान का साधक मन की इच्छाओं, संकल्प-विकल्पों को देखता और जानता ही है; किन्तु न उन इच्छाओं में राग-द्वेष ही करता है और न आचरण ही । अतः प्रेक्षा स्वयं संयम है, आत्मभावों का कुम्भक है । (४) आत्मा और शरीर का भेदविज्ञान - प्रेक्षाध्यान के साधक को आत्मा और शरीर की पृथक्ता का प्रत्यक्ष अनुभव होता है । वह स्पष्ट देख लेता है कि आत्मा पृथक् है और मन- शरीर इन्द्रियाँ आदि पृथक् हैं । उसे स्व-पर के भेदविज्ञान का प्रत्यक्ष अनुभव हो जाता है । (५) चैतन्य केन्द्रों का जागृत होना - प्रेक्षाध्यान की साधना से तैजस् शरीरस्थित चैतन्य केन्द्र, चक्रस्थान सक्रिय हो जाते हैं । (६) ज्ञाता - द्रष्टाभाव का विकास -- प्रेक्षाध्यान में साधक तटस्थ ज्ञाताद्रष्टा बना रहता है, अतः उसमें ज्ञाता द्रष्टाभाव का विकास हो जाता है। और यही भाव आत्मा का स्वभाव है । (७) वस्तु के स्वरूप को जानने की क्षमता का विकास - प्रेक्षाध्यानसाधना में जब साधक किसी एक पुद्गल पर, अपने शरीर आदि पर दृढ़तापूर्वक दृष्टि निक्षेप करता है तो उसे उस पदार्थ की वास्तविकता का - वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो जाता है । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेक्षाध्यान साधना २११ (ब) मम से देखने-जानने का अभ्यास-शरीर के अन्दर, श्वास, संकल्पविकल्प, आवेग-संवेग इतने सूक्ष्म हैं कि उन्हें चर्मचक्षओं से देखना सम्भव ही नहीं है, वे तो मन की आँखों से-विवेक-नेत्रों और ज्ञान बक्षओं से ही देखेजाने जा सकते हैं । अतः इन्द्रियों की पराधीनता समाप्त हो जाती है और ज्ञान-चक्षु खुल जाते हैं, साधक ज्ञान-चक्षुओं से किसी भी वस्तु को देखनेजानने का अभ्यस्त हो जाता है। . इस प्रकार प्रेक्षाध्यान की साधना, साधक के लिए बहुत ही लाभकारी है। इससे उसको राग-द्वेष की वृत्ति का संक्षय होता है, ज्ञाता-द्रष्टाभाव का विकास होता है और यदि एक रात वह अनिमेष-अपलक प्रेक्षा करने में सक्षम हो सके तो उसे कैवल्य की प्राप्ति तक हो सकती है। वस्तुतः प्रेक्षाध्यान विचयध्यान (धर्मध्यान) का ही एक रूप है। इसे अन्त मानना साधक के लिए उचित नहीं है, यह तो आदि-बिन्दु ही है। किन्तु यह विस्तृतता की प्रवृत्ति रखता है। जिस प्रकार पानी पर तेल की बूंद फैल जाती है उसी प्रकार यह प्रेक्षाध्यान भी शरीर से आत्मा तक फैलाव कर लेता है, विस्तृत हो जाता है । यह इसका सर्वाधिक महत्त्व है। 00 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ भावनायोग साधना अनुप्रेक्षा का आशय एक शब्द है प्रेक्षा; उसका आशय है देखना, गहराई से देखना, तटस्थतापूर्वक देखना, सिर्फ देखना, उसमें कोई चिन्तन-मनन न हो, मात्र प्रेक्षा ही हो; और दूसरा शब्द है अनुप्रेक्षा; 'अनु' उपसर्ग लगते ही प्रेक्षा शब्द का आशय बदल गया, अभिप्राय 'परिवर्तित हो गया, उसमें चिन्तन-मनन का समावेश हो गया, इस प्रकार अनुप्रेक्षा शब्द का आशय है-बार-बार देखना, गहराई से देखना, चिन्तन-मननपूर्वक देखना, मनन करना, चिन्तन करना और मन, चित्त तथा चैतन्य को उस विषय में रमाना, उन संस्कारों को दृढ़ीभूत करना।' अनुप्रेक्षा, सचाई को देखना है, सचाई पर चिन्तन करना है। अपनी जो पूर्वधारणाएँ हैं, उन्हें निकालकर पूर्व-संस्कारों को हटाकर जो सत्य है, यथार्थ है, वास्तविकता है उसका चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। अनुप्रेक्षा का अभिप्रेत है-सत्यं प्रति प्रेक्षा, अनुप्रंक्षा। सत्य के प्रति एकनिष्ठ बुद्धि से देखना जनुप्रेक्षा है । अनुप्रेक्षा का सिद्धान्त, वास्तविकता में, सत्य-दर्शन का सिद्धान्त है, सत्य के प्रति एकनिष्ठ समर्पण का सिद्धान्त है, अपनी सभी पूर्वधारणाओं और संस्कारों को नकार कर सत्य को/सचाई को ग्रहण करने का, उसे धारण करने का सिद्धान्त है। १ (क) अणुप्पेहा णाम जो मणसा परियट्टेइ णो वायाए।-दशवै० चूणि, पृष्ठ २६ -पठित व श्रुत अर्थ का मन से (वाणी से नहीं) चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। (ख) शरीरादीनां स्वभावानुचिन्तनमनुप्रेक्षा। -सर्वार्थसिद्धि ६/२/४०६ -शरीर आदि के स्वभाव का पुनः पुनः चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है । (ग) परिज्ञातार्थस्य एकाग्रेण मनसा यत्पुनः पुनः अभ्यसनं अनुशीलनं सानुप्रेक्षा। -कार्तिकेयानुप्रेक्षाटीका ४६६ -जाने हुए विषय का एकाग्रचित्त से बार-बार चिन्तन-अनुशीलन करना अनुप्रेक्षा है। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावनायोग साधना २१३ अनुप्रेक्षायोग की साधना करने वाला साधक अपने पूर्वसंस्कारों और धारणाबों तथा राग-द्वेषमय मान्यताओं/मूढ़ताओं से परे हटकर, सत्य के प्रति समर्पित हो जाता है और सत्य को ही अपने मन में, अणु-अणु में रमाता है। इस सत्य को अपने मन-मस्तिष्क में रमाने के लिए वह बारह अनुप्रेक्षाओं का बार-बार चिन्तवन करता है । बारह अनुप्रेक्षाओं के नाम ये हैं (१) अनित्य अनुप्रेक्षा (७) आस्रव अनुप्रेक्षा (२) अशरण अनुप्रेक्षा (८) संवर अनुप्रेक्षा (३) संसार अनुप्रेक्षा __(6) निर्जरा अनुप्रेक्षा (४) एकत्व अनुप्रेक्षा (१०) लोक अनुप्रेक्षा (५) अन्यत्व अनुप्रेक्षा (११) बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा (६) अशुचि अनुप्रेक्षा (१२) धर्म अनुप्रेक्षा इन बारह अनुप्रेक्षाओं का बार-बार चिन्तन-मनन करके साधक इन संस्कारों से अपनी आत्मा को भावित करता है, अतः इन्हें भावना भी कहा जाता है। अनुप्रेक्षा और भावना दोनों शब्द एकार्थवाची हैं। प्राचीन आचार्यों के कथनानुसार भावना व अनुप्रेक्षा में वाणो-प्रयोग नहीं होता, सिर्फ मन ही उस विषय में गतिशील रहता है अतः मौनपूर्वक गंभीर चिन्तन-मनन को अनुप्रेक्षा या भावना कहा गया ह । इन अनुप्रेक्षाओं की साधना ही योग की दृष्टि से अनुप्रेक्षायोग साधना कहलाती है। ध्यान की अपेक्षा से भावनाओं का वर्गीकरण इनमें से अनित्य, अशरण, संसार और एकत्व ये चार अनुप्रेक्षाएँ धर्मध्यान की भावनाएँ मानी जाती हैं अर्थात् धर्मध्यान की साधना में ये भावनाएं सहायक होती हैं।' (१) अनित्य अनुप्रेक्षायोग-शरीरासक्ति-त्याग साधना भगवान महावीर ने अनित्य भावना के साधक को एक साधना सूत्र दिया १ धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ तं जहाएगाणुप्पेहा, अणिच्चाणुप्पेहा, असरणाणुप्पेहा, संसाराणुप्पेहा । -ठाणांग ४/१/२४७ (धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं कही हैं, यथा-एकत्वानुप्रेक्षा, अनित्यानुप्रेक्षा, अशरणानुप्रेक्षा और संसारानुप्रेक्षा ।) Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ जैन योग : सिद्धान्त और साधना से पुवं पेयं, पच्छा पेयं भेउरधम्मं, विद्वंसण-धम्मं, अधुवं, अणितियं, असासयं, चयावचइयं विपरिणामधम्मं, पासह एयं रूवं । - आचारांग ५ / २ / ५०६ अर्थात् - हे साधक ! तुम अपने इस शरीर को देखो। यह पहले अथवा पीछे एक दिन अवश्य ही छूट जायेगा । इसका स्वभाव ही विनाश और विध्वंसन है । यह शरीर अध्रुव, अनित्य और अशाश्वत है । इसका उपचयअपचय होता है । इसकी विविध अवस्थाएँ होती हैं। शरीर के इस रूप को देखो । शरीर की अनित्यता और मृत्यु की अनिवार्यता के बारे में दूसरा साधना सूत्र साधक को दिया णत्थि कालस्स नागमो । - आचारांग २ / २ / २३६ शरीर मरणधर्मा है, यह क्षण प्रतिक्षण मृत्यु की ओर जा रहा है, इस तथ्य को सभी जानते हैं; किन्तु उनका आचरण इसके अनुकूल नहीं होता । माता पुत्र उत्पन्न होते ही भविष्य की आशाएँ- आकांक्षाएँ सँजोने लगती हैं; किन्तु इस तथ्य को नजरअन्दाज कर जाती है मात कहे सुत बाढ़े मेरो । काल कहे दिन आवे मेरो ॥ किन्तु अनित्यभावना का साधक इस लोक परम्परा और लोक धारणा से अलग हट जाता है, वह शरीर के यथार्थ और वास्तविक स्वरूप का चिन्तन करता है । शरीर के सत्य को देखता है, कल्पना, व्यामोह और राग के आवरणों को तोड़कर सत्य का साक्षात्कार करता है । अनित्य भावना का साधक कुछ सूत्रों के अनुसार अपनी साधना करता है । उसका पहला सूत्र होता है - 'इमं सरीरं अजिच्च' यह शरीर अनित्य हैं । दूसरा सूत्र है— 'इमं सरीरं चयावचयधम्मय' - यह शरीर चय - अपचय स्वभाव वाला है । कभी यह पुष्ट होता है तो कभी कृश हो जाता है । तीसरा सूत्र है - ' इमं सरीरं विपरिणामधम्मयं ' - विभिन्न प्रकार के परिणमन इस शरीर में होते रहते हैं । कभी भोजन - पानी से इस शरीर में परिवर्तन होता है तो कभी सर्दी-गर्मी - बरसात के मौसम से । पुद्गलों से परिवर्तन होता है तो कभी मनुष्य की आवेगों-संवेगों से परिवर्तन होता है । इस प्रकार अनेकों प्रकार के परिवर्तन इस शरीर में होते रहते हैं । काल (समय) कृत परिवर्तन तो होते ही रहते हैं । कभी दूसरे के संतापी अपनी ही भावनाओं, Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावनायोग साधना २१५ चौथा सूत्र है - 'इमं सरीरं जरामरणधम्मयं - वृद्धावस्था और मृत्यु इस शरीर का स्वाभाविक और अनिवार्य परिणाम है । समय पाकर इसमें वृद्धावस्था भी आयेगी और इसकी मृत्यु भी होगी, आत्मा इसे छोड़कर अन्यत्र - अन्य किसी गति-योनि में जायेगा भी । इस प्रकार साधक अनित्य भावना की साधना इन चार सूत्रों के आधार पर करता है । प्रेक्षाध्यान में जब वह अपने औदारिक शरीर की प्रेक्षा करता है तो वहाँ उसे शरीर में अवस्थित लाखों-करोड़ों कोशिकाएँ प्रतिपल जीवनशून्य होती हुई, मरती हुई दिखाई देती हैं । और फिर वह अनित्य अनुप्रेक्षा के चिन्तवन से इस तथ्य को कि शरीर अनित्य हैं अपने मन-मस्तिष्क में हढ़ीभूत कर लेता है । इस भावना के चिन्तवन से उसका अपने शरीर प्रति ममत्व भाव विनष्ट हो जाता है । (२) अशरण अनुप्र ेक्षा-पर-पदार्थों से विरक्ति की साधना अशरणता - मेरा कोई रक्षक नहीं, कोई शरण नहीं, कोई मेरा नाथ नहीं - इस अनुप्रेक्षा के साथ मन-मस्तिक को जोड़ना, योग करना, अशरण अनुप्रेक्षायोग साधना है । भगवान ने साधक को अशरण अनुप्रेक्षा का सूत्र दिया णालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा । तुमपि तेसि गालं ताणाए वा, सरणाए वा ॥ अर्थात् — हे साधक ! वे स्वजन तुम्हें त्राण देने नहीं हैं, और तुम भी उन्हें त्राण देने में, शरण देने में -आचारांग २/१६४ में - शरण देने में समर्थ समर्थ नहीं हो । सामान्य मनुष्य भी प्रतिदिन अपने सामने गुजरते हुए संसार और संसारीजनों की प्रवृत्तियों को देखता है कि एक-दूसरे के दुःख, पीड़ा, कष्ट को कोई बँटा नहीं सकता, मृत्यु के मुँह में जाने वाले को कोई बचा नहीं सकता, कोई भी एक-दूसरे को शरण नहीं दे सकता; धन-वैभव, सम्पत्ति, स्वजन - परिजन, मित्र, बन्धु बान्धव, विविध प्रकार के वैज्ञानिक उपकरण, औषधियाँ आदि कोई भी किसी को शरण देने में समर्थ नहीं हैं । यह सम्पूर्ण दृश्य प्रत्यक्ष देखकर भी सामान्य मानव इनमें राग करता है, इनके मोह में मूच्छित रहता है । Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ जैन योग : सिद्धान्त और साधना किन्तु अशरण अनुप्रेक्षा का साधक इन सब साधनों की नश्वरता और क्षण-क्षण बदलते रूप को देखकर इनके प्रति राग भावना का त्याग कर देता है, इनके मोह में मूच्छित नहीं होता। वह धर्म की शरण को ही वास्तविक शरण मानता है और 'अप्पाणं शरणं गच्छामि'-मैं आत्मा की शरण में जाता हूँ, इस सूत्र को हृदयगम करता है, अपनी आत्मा को इस सूत्र से भावित करता है और स्वयं को ही समर्थ बनाता है । वस्तुतः अशरण अनुप्रेक्षा की साधना संसार और समस्त सांसारिक सम्बन्धों तथा साधनों से राग-त्याग की साधना है । इस भावना द्वारा वह समस्त संयोगज सम्बन्धों और विकल्पों से मुक्त होने का प्रयास करता है। उनके प्रति कल्पित आकर्षण से दूर हटकर वास्तविकता को समझता है । यदि साधक गृहस्थयोगी है, पारिवारिक और सामाजिक उत्तरदायित्व उसके कन्धे पर है तो वह सिर्फ कर्तव्य भावना से अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करता है, उनमें राग-द्वष नहीं करता, यदि राग-द्वेष होते भी हैं तो अत्यल्प मात्रा में होते हैं । वह पुत्र-पुत्रियों तथा अन्य किसी भी परवस्तु से कोई आशा-अकांक्षा-अपेक्षा नहीं करता। वह अनासक्त भाव से कर्म करता है, सिर्फ कर्तव्य-बुद्धि से। गृहत्यागी साधक तो पूर्णतया अनासक्त कर्म करता है, क्योंकि वह फलाशा को पूर्णतया छोड़ चुका होता है। अशरण भावना, इस अपेक्षा से, अनासक्त योग की साधना है । (३) संसार अनुप्रेक्षा : वैराग्य की ओर बढ़ते कदम संसार का अभिप्राय है-जन्म-मरण का चक्र । यह भ्रमण नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव-इन चार गतियों में होता है । जो आत्मा इन चार गतियों में भ्रमण करता है, वही संसारी आत्मा कहा जाता है। इसीलिए विशेषावश्यकभाष्य में संसार का लक्षण बताया गया है संसरणं संसारः । भवाद् भवगमनं नरकादिषु पुनमणं वा । अर्थात्-एक भव (जन्म) से दूसरे भव में, एक गति से दूसरी गति में भ्रमण करते रहना ही संसार है। संसार भावना (अनुप्रेक्षा) का अनुचिन्तन करता हुआ साधक संसार के दुःखों, जन्म-जरा-मरण की पीड़ाओं, चारों गतियों के कष्टों पर विचार Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावनायोग साधना २१७ करता है और सोचता है - 'एतदुक्खं जरिए व लोयं" कि सम्पूर्ण संसार और संसार के प्राणी एकान्त दुःख से दुखी हैं, कहीं भी सुख का लेश नहीं है । वह भगवान महावीर के शब्दों में 'पास लोए महन्मयं " संसार को महाभयानक देखता है । इस प्रकार के अनुचिन्तन से साधक के मन में संसार और सांसारिक काम-भोगों के प्रति विरक्ति हो जाती है, उसमें वैराग्य भाव दृढ़ हो जाता है और संसार - बन्धनों से मुक्त होने की प्रबल अभिलाषा जाग उठती है । इस भावना से साधक संसार के प्रति निराशा या भय की भावना से व्याकुल नहीं होता, किन्तु संसार में जो दुःख, पीड़ाएँ, मृत्यु आदि अवश्यंभावी घटनाएँ हैं, उनको समझकर अनुद्विग्न और तितिक्षु रहता है । ( ४ ) एकत्व अनुप्रेक्षा : संयोगों से विरक्ति एकत्व अनुप्रेक्षा का अनुचिन्तन करने वाले साधक की दृष्टि आत्मकेन्द्रित हो जाती हैं, वह संसार के सभी पदार्थों और सम्बन्धों को केवल संयोगजनित मानता है और उनसे विरक्ति धारण करके अपनी आत्मा को ही अपना मानता है । वह आत्मा को बहुत ही इष्ट, कान्त, प्रिय और मनोज्ञ देखने, जानने और समझने लगता है । उसकी दृढ़ मान्यता हो जाती है नाणदंसणसंजओ । एगो मे सासओ अप्पा, सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोग लक्खणा ॥ अर्थात् -- ज्ञान (विवेक) और दर्शन (श्रद्धा) ( अथवा देखना और (जानना) गुण से संयुक्त मेरो आत्मा ही शाश्वत है, उसके अतिरिक्त ये सब तो बाह्य भाव हैं, जिनका मेरी आत्मा के साथ संयोग मात्र है । जो वस्तुएँ बाहरी हैं, उनसे तो साधक के चित्त में विरक्ति हो ही जाती है, किन्तु वह अपने मनोभावों को भी अपना नहीं मानता; सिर्फ अपने आत्मिक गुणों को हो अपना मानता है; अपनी आत्मा के गुणों अथवा आत्मा में उसकी रुचि इतनी दृढ़ हो जाती है कि वह उसी में मग्न रहता है । वह इस प्रकार के एकत्व का आश्रय लेता है । १ सूत्रकृतांग १७ /११ २ आचारांग ६ / १ ३ मज्झवि आया एगे भंडे, इट्ठे, कंते, पिये, मणुन्ने । ४ आतुरप्रत्याख्यानप्रकीर्णक २६ - भगवती सूत्र २ / १ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ जैन योग : सिद्धान्त और साधना लेकिन इस एकत्व का अभिप्राय यह नहीं है कि वह अपने को असमर्थ समझने जगता है। असमर्थता की भावना तो कायरता है, जो सम्यक्त्व के प्रथम स्पर्श में ही छट जाती है । इस एकत्व भावना के अनचिंतन से तो साधक में प्रबल पुरुषार्थ जागता है। वह इतना पुरुषार्थी हो जाता है कि अकेला ही अपनी साधना के पथ पर बढ़ने का प्रयास करता है। इससे पर-सहायनिरपेक्षता के संस्कार दृढ़ होते हैं। __एकत्व की भावना के अनुचिंतन से साधक सर्वसंयोगों से विरक्त होकर आत्मिक चिन्तन में अपना पुरुषार्थ प्रगट करता है। एकत्व भाव के साथ धर्म की साधना-उपासना करता है। भगवान के शब्दों में-'एगं चरेज धम्मो''अकेले ही धर्म का आचरण करो-यही उसकी वृत्ति-प्रवृत्ति हो जाती है। (५) अन्यत्व मावना : भेदविज्ञान की साधना . अन्यत्व भावना के अनुचिन्तन से साधक भेदविज्ञान की साधना करता है । भेदविज्ञान का अर्थ है-हंसविवेक-नीर-क्षीर न्याय । वह इस भावना द्वारा आत्म और अनात्म दोनों को पृथक समझता है। आत्मिक गुणों और भावों के अतिरिक्त अन्य सभी भावों-यथा क्रोध, मान आदि कषायों के भाव और राग-द्वषों के तथा काम-भोग के साधन और इनको प्राप्त करने की इच्छाओं, आशाओं को अन्य मानता है। इस अन्यत्व भावना का बार-बार अनुचिंतन तथा अभ्यास से साधक का भेदविज्ञान सुदृढ़ हो जाता है, अन्य वस्तुओं को प्राप्त करने की उसकी इच्छा क्षीण होती है, इन्द्रियों के विषयों की ओर रुचि कम हो जाती है, ममत्वभाव कम होकर समत्वभाव प्रादुर्भूत हो जाता है । साधक का दृढ़ विश्वास हो जाता है कि ममत्व ही दुःख, चिन्ताओं और मानसिक उद्वेगों का कारण है, अतः वह ममत्व को छोड़कर समत्व में लीन होता है । इन सब से अपनी आत्मा को भिन्न समझता है । इस प्रकार उसका अन्यत्व भाव सुदृढ़ होता है। (६) अशुचि भावना : पावनता की ओर प्रयाण __ अशुचिभावना का अनुचिंतन करता हुआ साधक अपने शरीर की अशुचि को देखता है। यह शरीर जैसा बाहर है, वैसा ही भीतर है; और जैसा भीतर है वैसा ही बाहर है। १ सूत्रकृतांग २/१/१३. Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावनायोग साधना २१६ साधक इस अशुचि शरीर को अन्दर से अन्दर देखता है और झरते हुए विविध स्रोतों को भी देखता है।' शरीर की अशुचिता को देखने से साधक के मन में इस शरीर के प्रति रागासक्ति मिट जाती है और वह पावनता तथा पवित्रता की ओर मुड़ता है। पवित्रता उसे दिखाई देती है आत्मा में, आत्मिक गुणों में। उसका शरीरसौन्दर्य के प्रति मोह मिट जाता है और पवित्रात्मा के अनुभव की ओर वह मुड़ जाता है। वह अपनी आत्मा पर अपना ध्यान केन्द्रित करने लगता है। अशुचि भावना, इस प्रकार साधक को शुचिता की ओर, पवित्रता की ओर जाने का मार्ग प्रशस्त करती है और उसे आत्म-ध्यान की ओर अभिमुख करती है। (७) आस्रव भावना : आन्तर भावों का निरीक्षण अब तक की ६ भावनाएं बाह्य जगत से संबंधित थीं। उनके अनुचिंतन द्वारा साधक बाह्य जगत, शरीर आदि के प्रति ममत्व एवं आसक्ति का विसर्जन करता था, उनके प्रति मोह को तोड़ता था किन्तु इस आस्रव भावना द्वारा वह अपने आन्तरिक जगत का निरीक्षण करता है। वह देखता है कि मनवचन-काय-इन तीनों योगों को प्रवृत्ति के कारण कर्मों का आगमन हो रहा है। कर्मों का आगमन ही आस्रव है। यह आस्रव पाँच प्रकार का होता है-(१) मिथ्यात्व, (२) अविरति (३) प्रमाद (४) कषाय और (५) योग । __ इनमें से मिथ्यात्व का नाश तो वह पहले ही कर चुका होता है। शेष चार प्रकार के आस्रव ही उसको शेष होते हैं। उनका निरीक्षण करके साधक उन्हें न होने देने का प्रयास करता है। आस्रव भावना को साधना द्वारा साधक को कर्मबन्ध के हेतुओं का परिज्ञान हो जाता है, अतः उसमें उनसे विरति की भावना आती है और वह आस्रव के कारणों को अनास्रव के कारण बनाने की ओर गतिशील होता हैं। आस्रव वास्तव में आत्मा के छिद्र हैं । नाव में जिस प्रकार छिद्रों से पानी भरता है और पानी भरने से नाव को डूबने का खतरा पैदा होता है, उसो प्रकार आस्रव के रूप में आत्मा में कर्मजल भरता है और वह संसार समुद्र में डबता है। आस्रव भावना से अनुभावित साधक अपने मनश्छिद्रों को स्वयं देखता है, समझता है, पहचानता है, उन पर ध्यान केन्द्रित करता है, उन १ जहा अंतो तहा बाहिं, जहा बाहिं तहा अन्तो । अंतो अंतो देहन्तराणि पासति पुढो वि सवंताई। -आचारांग २/५/१२ २ आचारांग १/४/२/४४१ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० जन योग : सिद्धान्त और साधना स्रोतों से आते-जाते कर्म-रूप-जल को समझने का प्रयत्न करता है । इस प्रकार साधक अपनी दुर्बलता और भूल को पहचानता और पकड़ता है। भूल को पकड़ लेना बहुत बड़ी सफलता है, क्षमता है। वह आगे चलकर उनको बन्द भी कर देता है और समस्त दुर्बलताओं पर विजय भी पा लेता है। अतः आस्रव भावना से साधक कार्मास्रवों को जानने पहचानने में निपुण होता है। फिर उन्हें रोकने का प्रयत्न भी करता है जिसे आगे 'संवर भावना' में बताया गया है। (८) संवर भावना : मुक्ति की ओर चरणन्यास संवरयोग, जैन योग का एक बहत ही महत्त्वपू योग है। साधक इस संवर भावना के अनूचितन द्वारा संवरयोग की ही साधना करता है। वह आस्रवों को-कर्मी के आगमन को रोकता है। आस्रव से विपरीत प्रवृत्ति करके वह संवर करता है।' संवर के लिए वह सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय और अयोग की साधना करता है। संवर की साधना वह दो रूपों में करता है। द्रव्यरूप से वह योगों को (मन-वचन-काय को), कषाय आदि को स्थिर रखता है और भावरूप से वह मन के संकल्पों-विकल्पों, आवेगों-संवेगों को रोकता है। १ संवर की परिभाषा करते हुए श्री देवसेनाचार्य ने कहा है रुन्धिय छिद्द सहस्से जल जाणे जह जलं तु णासवदि । मिच्छत्ताइ अभावे तह जीवे संवरो होइ । -बृहद् नयचक्र १५६ __ जिस प्रकार नाव के छिद्र रुक जाने से उसमें जल प्रवेश नहीं करता, उसी प्रकार मिथ्यात्वादि का अभाव हो जाने पर जीव में कर्मों का संवर होता है । संवर के मुख्य भेद ५ हैं-(१) सम्यक्त्व, (२) विरति, (३) अप्रमाद, (४) अकषाय (५) योगनिग्रह । -स्थानांग ५/२/४१८ तथा समवायांग ५ किन्तु इसके २० और ५७ भेद भी माने जाते हैं। (क) पाँच समिति, तीन गुप्ति, दस धर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाईस परीषहजय, और पांच चारित्र-- ये संवर के ५७ भेद हैं। -स्थानांगवृत्ति, स्थान १ (तत्त्वार्थ सूत्र ६/२) (ख) सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय, अयोग, प्राणातिपातविरमण, मृषावादविरमण, अदत्तादानविरमण, अब्रह्मचर्यविरमण, परिग्रहविरमण, श्रोत्रेन्द्रिय संवर, चक्षुरिन्द्रियसंवर, घ्राणेन्द्रियसंवर, रसनेन्द्रियसंवर, स्पर्शनेन्द्रियसंवर, मनसंवर, वचनसंवर, कायसंवर, उपकरणसंवर, सूचीकुशाग्रसंवर-ये २० भेद संवर के होते हैं। -प्रश्नव्याकरण, संवर द्वार तथा स्थानांग १०/७०६ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावनायोग साधना २२१ इस प्रकार साधक अनास्रव अथवा संवर की साधना करके कर्मबन्ध को रोकता है अन्तरिछद्रों को ढांकता है और मुक्ति की ओर अग्रसर होता है । (६) निर्जरा भावना : आत्मशुद्धि की साधना निर्जरा, आत्मशुद्धि की प्रक्रिया है । आत्मा के साथ जो कर्म बँधे हुए हैं, उनको आत्मा से दूर करना, झाड़ना, बन्धनमुक्त करना निर्जरा है । वह निर्जरा तप' के द्वारा की जाती है । इस भावना के अनुचितन में साधक निर्जरा के लक्षण, स्वरूप और साधनों के बारे में बार-बार चिन्तन-मनन करता है । इस चिन्तन से साधक की आत्मा में तप, दान, शील के प्रति आकर्षण बढ़ता है । तप करने की हृदय में भावना जगती है तथा उत्साह एवं साहस भी उत्पन्न होता है । इस आत्मिक साहस, उत्साह और भावना से भी कर्मों की निर्जरा होती है और जब वह तप के मार्ग पर चल पड़ता है, तप करने लगता है, तब तो वह सभी कर्मों से मुक्त होकर शुद्ध बन जाता है । इस प्रकार निर्जरा भावना आत्म शुद्धि का साधन बन जाती है और साधक इस भावना के द्वारा अपनी आत्मा की शुद्धि का प्रयास करता है । साधक में अदम्य साहस व तितिक्षा वृत्ति जागृत होती है । (१०) धर्म भावना : आत्मोन्नति की साधना धर्म, आत्मा की उन्नति का साधन है । धर्म से ही आत्मा को श्रेयस् की प्राप्ति होती है । धर्म ही प्राणी को संसार के दुःखों से उत्तम सुख में पहुँचाता है ।" वह धर्म अहिंसा, संयम और वही सर्वोत्तम मंगल है । बचाकर मुक्ति के तप रूप हैं और धर्मभावना के अनुचितन में साधक धर्म (केवलि प्रज्ञप्त धर्म ) के विविध पहलुओं का चिन्तन करता है तथा उससे आत्मा को भावित करता है | श्रुतधर्म तथा चारित्रधर्म के भेद-प्रभेद और लक्षणों तथा अहिंसा, संयम और तप आदि का चिन्तन करता है । इस चिन्तन से साधक की आत्मा में, उसके रग-रग में, आचार-विचार १ २ ३ तप का वर्णन 'तपोयोग' नामक अध्याय में किया गया है । धर्म कर्म निवर्हणं संसारदुःखतः सत्त्वान्यो धरत्युत्तमे सुखे । धम्मो मंगलमुक्किट्ठ, अहिंसा संजमो तवो । - रत्नकरंड श्रावकाचार, श्लोक २ - दशकालिक १/१ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ जैन योग : सिद्धान्त और साधना व्यवहार में सर्वत्र धर्म रम जाता है, उसकी आत्मा धर्म से भावित हो जाती है और उसका सम्पूर्ण जीवन ही धर्ममय बन जाता है । वास्तविक अर्थ में वह धर्मात्मा (धर्ममय आत्मा) बन जाता है । धर्म भावना से साधक धर्म के सूक्ष्म से सूक्ष्म रहस्य को हृदयंगम कर लेता है । उसके इस धर्ममय आचरण से उसके जीवन में सुख-शान्ति का सागर लहराने लगता है और उसकी आत्मिक उन्नति होती है । (११) लोक भावना : आस्था की शुद्धि साधक लोक भावना का अनुचिन्तन करते हुए षड्द्रव्यात्मक लोक का विचार करता है । जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, आकाश, काल - इन छह द्रव्यों तथा उनके गुणों और पर्यायों पर विचार करता है । लोक की शाश्वतता, अशाश्वतता, इसके रचयिता अथवा स्वयं निर्मित, उसके संस्थान आदि बातों पर विचार करता है और फिर इस लोक में अपनी स्थिति पर चिन्तन करता है । इस संपूर्ण चिन्तन से साधक की आस्था शुद्ध हो जाती है, वह लोक के वास्तविक स्वरूप को समझ जाता है । उसकी जिनवचनों के प्रति श्रद्धा प्रगाढ़ हो जाती है । लोकानुप्रेक्षा द्वारा साधक को अपनी (आत्मा की ) अनादिकालीन लोक यात्रा का अन्त पाने की कुञ्जी प्राप्त हो जाती है, उसका आस्तिक्य भाव शुद्ध और दृढ़ हो जाता है । वह लोक के स्वीकार के साथ-साथ अपनी तथा अन्य जीवों और द्रव्यों की स्थिति भी स्वीकार करता है । अन्य जीवों के प्रति उसमें सहिष्णुता और कल्याणभावना जागृत होती है । यह कल्याणभावना स्वयं उसके कल्याण का भी साधन बनती है । (१२) बोधिदुर्लभ भावना : अन्तर्जागरण की प्रेरणा बोधि का अभिप्राय है - सम्यग्दर्शन ज्ञान - चारित्र की उपलब्धि । इसकी उपलब्धि बहुत ही कठिन है । इस भावना का अनुचितन करते हुए साधक, जीव की क्रमिक उन्नति पर विचार करता है । वह सोचता है - मेरा जीव अनादि काल से भव-भ्रमण कर रहा है । पहले कभी अव्यवहार राशि में था, फिर व्यवहार राशि में आया, अनन्त काल निगोद में ही गुजर गया, फिर नरक, तियंच की वेदनाएँ सहीं, असंख्यात काल तक एकेन्द्रिय रहा, फिर संख्यात काल द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय में गुजर गया, पंचेन्द्रिय बना तो मनरहित रहा, मनसहित भी Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावनायोग साधना २२३ हुआ तो पश-पक्षी बन गया, नरक की वेदना भी सही। मनुष्य बना तो आर्यक्षेत्र, उत्तम कुल न मिला, मिल भी गया तो धर्म की ओर रुचि न हई, संयम में पराक्रम न किया। भाग्ययोग अथवा पुण्यबल से अब मुझे ये सब संयोग प्राप्त हो गये हैं तो अब मुझे मुक्ति की साधना में अपना संपूर्ण बल-वीर्यपराक्रम लगा देना चाहिए । इस प्रकार के चिन्तन से साधक को अन्तर जागरण को प्रेरणा प्राप्त होती है, उसका अन्तर हृदय जाग्रत हो जाता है और वह मुक्ति-मार्ग पर चल पड़ता है, मुक्त होने के लिए पूर्ण पुरुषार्थ करता है । वह बोधि और संबोधि को प्राप्त करता है। इस प्रकार इन बारह अनुप्रेक्षाओं (भावनाओं) के चिन्तन-मनन द्वारा साधक अपनी वैराग्य भावना दृढ़ करता है । ज्ञान को जुगाली एक अपेक्षा से अनुप्रेक्षाओं के चिन्तवन को ज्ञान की जुगाली भी कह सकते हैं। जिस प्रकार गाय आदि पशु पहले तो घास आदि को उदरस्थ कर लेते हैं और फिर उस घास को शीघ्रता से और भली भाँति हजम करने के लिए एकान्त-शान्त स्थान पर बैठकर अवकाश के समय जुगाली करते हैं, इससे वह घास अच्छी तरह पच जाती है । उसी प्रकार साधक भी धर्मग्रंथों के स्वाध्याय तथा गुरु-उपदेश से प्राप्त ज्ञान को पहले तो श्रवण और चक्षु इन्द्रियों के माध्यम से ग्रहण कर लेता है और फिर शांत-एकान्त क्षणों में उस पर चिन्तनमनन करता है, स्मति पटल पर लाकर उस पर गहराई से विचार करता है। इस प्रक्रिया से गुरु-उपदिष्ट तथा स्वाध्याय से प्राप्त ज्ञान उसे हृदयंगम हो जाता है । अतः अनुप्रेक्षाओं को ज्ञान जुगाली भी कह सकते हैं। वैराग्य भावनाएं भावनाओं के वर्गीकरण में द्वादश अनुप्रेक्षाओं को वैराग्य भावना कहा गया है। वैराग्य भावना कहने का कारण यह है कि इनके चिन्तन से साधक का वैराग्य भाव तीक्ष्ण, निर्मल एवं दृढ़ होता है। . योग साधना के लिए वैराग्य सर्वप्रथम और आवश्यक तत्त्व है । बिना वैराग्य के अध्यात्मयोग में साधक गति ही नहीं कर सकता । उसकी सम्पूर्ण गति-प्रगति वैराग्य की दृढ़ता और प्रकर्षता पर ही निर्भर होती है। वैराग्यहीन योग तो बिना प्राण का शरीर-शव मात्र ही होता है। उस योगविद्या के माध्यम से साधक चमत्कारी सिद्धियाँ भले ही प्राप्त कर ले Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ जैन योग : सिद्धान्त और साधना किन्तु मोक्षमार्ग की ओर उसकी गति हो ही नहीं सकती। सही शब्दों में ऐसा साधक अपनी आत्मा को पतन की ओर ही ले जाता है। अध्यात्मयोग के साधक के लिए वैराग्य अति आवश्यक और आधारभूत है। इसीलिए भावनायोग के नाम से अध्यात्मयोग साधना का एक अंग भी निर्धारित किया है, जिसमें द्वादश अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करके साधक अपने वैराग्य को और भी सुदृढ़ करता है । अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन से लाम अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन से वैराग्य भाव के दृढ़ होने के अतिरिक्त साधक को और भी कई लाभ होते हैं। उनमें से कुछ प्रमुख ये हैं (१) यथार्थता की अनुभूति-इन द्वादश अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन से साधक को यथार्थता की स्पष्ट अनुभूति होती है। वह शरीर के-लोक के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर लेता है। अशरण भावना से उसे विश्वास हो जाता है कि धर्म के अतिरिक्त संसार में कोई भी शरण नहीं है। (२) मुर्छा और मलों की सफाई का अवसर-अनादिकालीन मिथ्या संस्कारों और कर्म-मलों के लगे रहने से आत्मा का ज्ञान-दर्शन-चारित्र संसाराभिमुखी और मलिन होता है । उस मल और मिथ्या संस्कारों को परिमार्जन करने का अवसर साधक को इन अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन द्वारा प्राप्त होता है। संसार-सम्बन्धी उसकी मोह-मूर्छा का नाश होता है । अशुचि भावना ते उसका देहाध्यास छूट जाता है, संसार भावना से उसे संसार दुःखमय दिखाई देने लगता है। इसी प्रकार अन्य भावनाओं के चिन्तन से उसकी मूर्छा का नाश होता है। (३) मन की निर्मलता-मिथ्या-संस्कार, मोह-मूर्छा का नाश होने का परिणाम यह होता है कि साधक के मन में जो कलुषता थी उसका भी नाश हो जाता है, मन में उठने वाले आवेग-संवेगों के भाव और संकल्प-विकल्प उपशान्त हो जाते हैं । इसका परिणाम मन की निर्मलता होता है। साधक का मन ज्यों-ज्यों निर्मल होता है, उसमें वैराग्य भाव बढ़ता जाता है, उसकी आध्यात्मिक उन्नति होती है, उसकी आत्म-चेतना की धारा उन्नति के सोपानों पर चढ़ती जाती है । इस प्रकार द्वादश अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन-मनन से साधक को अपरिमित लाभ होता है। यही कारण है कि गृहस्थ और गृहत्यागी-दोनों प्रकार के साधक अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करके आत्मिक उन्नति के प्रति सजग रहते हैं। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावनायोग साधना २२५ द्वादश अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन-मनन-अनुशीलन-अनुचिन्तन से साधक के हृदय में निवृत्ति-निर्वेद और परम शान्ति का संचार होने लगता है, एवं उसका वैराग्य दृढ़ से दृढ़तर हो जाता है, इसीलिए इन बारह अनुप्रेक्षाओं को वैराग्य भावना कहा गया है। __ योग भावनाएं ___ इनके अतिरिक्त आगमों में चार भावनाओं का और उल्लेख प्राप्त होता है । वे हैं (१) मैत्री भावना', (२) प्रमोद भावना', (३) कारुण्य भावना और (४) माध्यस्थ भावना। आगमों के उपरान्त इनका सर्वप्रथम उल्लेख तत्त्वार्थसूत्र में आचार्य उमास्वाति ने किया हैमंत्री प्रमोर कारुण्यमाध्यस्थानि सत्वगुणाधिक क्लिश्यमानाऽविनेयेषु । -तत्त्वार्थ सूत्र ७/६ अर्थात्-प्राणीमात्र पर मैत्रीभाव, गुणाधिकों पर प्रमोदभाव, दुःखितों पर करुणाभाव एवं अविनीत जनों पर माध्यस्थभाव रखना चाहिए। इन चारों भावनाओं का पातंजल योगसूत्र में भी विशद वर्णन हुआ है। १ (ख) मित्ती मे सव्वभूएसु । -आवश्यक सूत्र ४ (ख) मेत्ति भूएसु कप्पए। - उत्तरा० ६/२ (ग) न विरुज्झज्ज केणइ । -सूत्रकृतांग १/१५/१३ २ सुस्मूसमाणो उवासेज्जा सुप्पन्नं सुतवस्सियं । -सूत्रकृतांग १/६/३३ ३ सव्वेसि जीवियं पियं नाइवाएज्ज कंचणं । --आचाशंग १/२/३ ४ (क) उवेह एणं बहिया य लोगं । से सव्व लोगम्मि जे केइ विण्ण । - आचारांग १/४/३ (ख) अणुक्कसे अप्पलीणे मझण मुणि जावए। - सूत्रकृतांग १/१/४/२ ५ मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःख पुण्यापुण्य विषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम् । -पातंजल योगसूत्र, समाधिपाद, सूत्र ३३ अर्थात्-मंत्री, करुणा, मुदिता (प्रमोद), उपेक्षा (माध्यस्थ) इन भावनाओं के आधार पर सुख, दुःख, पुण्य, अपुण्य (पाप) आदि विषयों का चिन्तन करने से चित्त में प्रसन्नता व आल्हाद की उत्पत्ति होती है-चित्त स्वच्छ हो जाता है अर्थात् चित्त की शुद्धि होती है। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ जन योग : सिद्धान्त और साधना आचार्य अमितगति का इन भावनाओं के बारे में प्रसिद्ध श्लोक है सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोवं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थ्यभावं विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव ! ॥ अर्थात् समस्त सत्त्व (जीव, प्राणी, भूत) पर मैत्री हो, गुणीजनों के प्रति प्रमोद भाव हो-उनके गुणों के प्रति अनुराग और सन्मान की भावना रहे। दःखी जीवों के प्रति करुणा की भावना रहे और जो मुझसे विरोध रखते हैं उनके प्रति उपेक्षा या माध्यस्थ्य भावना रहे; अथवा प्रतिकूल प्रसंगों में भी राग-द्वेष से दूर तटस्थ रहूँ; मेरी आत्मा सदैव इस प्रकार चिन्तन करे । __ आचार्य हेमचन्द्र ने इन भावनाओं को ध्यान को पुष्ट करने वाली बताया है मंत्री-प्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थानि नियोजयेत् । धर्मध्यानमुपस्कर्तुं तद्धि तस्य रसायनम् ।। -योगशास्त्र ४/११ अर्थात्-मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ भावना के साथ आत्मा की योजना करनी चाहिए-आत्मा के साथ इनका योग (संयोग) करना चाहिए। ये भावनाएँ रसायन के समान धर्मध्यान (ध्यान) को परिपुष्ट बनाती हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने इन भावनाओं का वर्णन भी ध्यान के अन्तर्गत किया है। - आचार्य हरिभद्र ने जो आठ योगदृष्टियाँ बताई हैं, उनमें भी प्रथम दृष्टि का नाम उन्होंने मित्रा' दिया है। इन सब प्रमाणों के आधार पर मंत्री आदि चारों भावनाएँ योग से सम्बन्धित हैं, उसका कारण यह है कि इन भावनाओं की साधना साधक को समत्वयोग की साधना के निकट पहुँचा देती है। माध्यस्थ भावना तो स्पष्ट ही समत्वयोग की साधना है। इसी प्रकार अन्य तीनों भावना भी आत्मोल्कर्ष और अध्यात्मयोग में सहायक बनती हैं। इसी कारण ये चारों भावनाएँ, योगभावना के रूप में वर्गीकृत की गई हैं। १ मित्रा तारा बला दीप्रा स्थिरा कान्ता प्रभा परा। नामानि योगदृष्टीनां लक्षणं च निबोधत ॥ - -योगदृष्टिसमुच्चय, १३ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावनायोग साधना | २२७ (१) मैत्री भावना : आत्मौपम्य भाव की साधना मैत्री भावना का साधक सभी जीवों की आत्मा को अपनी आत्मा के समान समझता है । इस भावना के दृढ़ अभ्यास से उसके हृदयगत ईर्ष्या, द्वेष, शत्रता आदि के संस्कारों का परिमार्जन होकर उसमें विश्व-मंत्री की भावना का संचार हो जाता है। उसका अहिंसाभाव परिपुष्ट होता है, किसी के भी प्रति वैर-विरोध की भावना मन में शेष नहीं रहती। वह सभी प्राणियों की हित कल्याण-कामना करता है। सभी की कल्याण-कामना की मंगल भावना से साधक का स्वयं अपना कल्याण होता है, उसके हृदय में प्राणिमात्र के प्रति बन्धुभाव तथा समत्व भावना का विकास होता है और वह समतायोगी बन जाता है। मैत्री भावना का अनुचिन्तन करता हुआ साधक विचार करता हैसंसार के सभी प्राणी मेरे अपने हैं, सभी के साथ मेरे (किसी न किसी पूर्वजन्म में) सम्बन्ध बने हैं, इन्होंने मुझ पर उपकार किये हैं, अतः ये सभी मेरे उपकारी हैं। वर्तमान में कष्ट देने वालों के बारे में भी वह ऐसी भावना रखता है, सोचता है-यह व्यक्ति मेरे पूर्वकृत अशुभ कर्मों की निर्जरा में सहायक बन रहा है, अतः यह मेरा उपकारी है। इस प्रकार की भावना से उसका मैत्रीभाव और भी परिपुष्ट बन जाता है। इसका प्रभाव अन्य प्राणियों पर भी पड़ता है, उनमें भी शत्रुभाव का अभाव हो जाता है। बड़े-बड़े साधकों के समीप आकर जो सर्प-नकुल, मृग-सिंह आदि पशु भी अपना जन्मजात वैर भूल जाते हैं, उनकी शत्रता उपशान्त हो जाती है, उसका कारण साधक का उत्कृष्ट मैत्रीभाव ही है। ___ अतः मैत्री भावना साधक की, स्वयं को और उसके संपर्क में आने वाले अन्य सभी प्राणियों की दुवृत्तियों का परिमार्जन करके सुवृत्तियों को स्थापित करती है तथा आत्मौपम्य भाव को विकसित करती है। (२) प्रमोद भावना : गुण-ग्रहण की साधना आध्यात्मिक उन्नति और अध्यात्मयोग की साधना हेतु साधक के लिए आवश्यक है कि वह गुण ग्रहण करे। और माधक गुण तभी ग्रहण कर सकता है, जब वह गुणी जनों के प्रति अनुराग रखे, उनके प्रति प्रशंसा और सन्मान के भाव रखे। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ जन योग : सिद्धान्त और साधना प्रमोद भावना की. साधना द्वारा साधक अपनी गुण-ग्रहण की क्षमता को विकसित करता है । गुणियों के प्रति अनुराग और उनके प्रति आदर-सन्मान के कारण उसके हृदय में भी वे गुण आ जाते हैं। इस भावना का अनचिन्तन करता हुआ साधक बार-बार उन गुणों का स्मरण करता है, गुणीजनों-गुरुजनों के प्रति विनय एवं भक्ति का भाव रखता है। इस विनम्रतापूर्ण भक्ति की भावना से उसमें अनेक सद्गुणों का विकास हो जाता है तथा उसकी चारित्रिक एवं आध्यात्मिक उन्नति होती है। इसीलिए प्रमोद भावना को समतायोग का नेत्र कहा गया है। जैसे नेत्र सुन्दर-असुन्दर सभी वस्तुओं को देखते हैं, किन्तु आकर्षित सुन्दर के प्रति ही होते हैं। इसी प्रकार गुणदृष्टि वाला साधक गुणों के प्रति ही आकर्षित होता है, गुणों को ही ग्रहण करता है। यह गुण-ग्रहण ही प्रमोद भावना है । (३) कारुण्य भावना : अभय की साधना साधक न तो स्वयं कभी भयभीत होता है और न किसी अन्य को ही भयभीत करता है वरन वह अन्य भयत्रस्त, कष्ट से पीड़ित, दुःखी, आर्त प्राणियों के प्रति अनुकम्पा रखता है, उनको हितचिन्ता करता है तथा चाहता है कि सभी प्राणी दुःख से मुक्त हों, सुखी रहें। कारुण्य भावना का बार-बार अभ्यास करने से साधक का हृदय दया की भावना से परिपूर्ण हो जाता है, उसके हृदय में वात्सल्य का सागर उमड़ने लगता है। वह स्व-दया और पर-दया-दोनों प्रकार की दया का पालन करने लगता है। पर-दया में वह किसी अन्य प्राणी को कष्ट नहीं देता, पीड़ित नहीं करता, ऐसे वचन भी नहीं बोलता जो किसी के हृदय को वेध दे तथा स्व-दया में आर्त-रोद्रध्यान करके अपनी आत्मा को पीड़ित नहीं करता, विषय-कषायों की ज्वाला में नहीं जलाता। इस प्रकार वह स्वयं भी अभय रहता है और दूसरों को भी अभय देता है, सभी के सुख की कामना करता है और दुःखी एवं पीड़ितों के प्रति अनुकम्पाभाव रखता है। १ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःख भाग् भवेत् ॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावनायोग साधना | २२६ समतायोग की दृष्टि से विचार किया जाय तो यह भावना समतायोग का हृदय है। शरीर में जो स्थान हृदय का होता है, वही कारुण्य भावना का समतायोग में है। समतायोग की साधना वही साधक कर सकता है जिसका हृदय कोमल हो, जो परदुःखकातर हो, दूसरे का दुःख देखकर पसीज जाय । इसके विपरीत कठोर हृदय वाला समतायोग की साधना कर ही नहीं सकता। तीर्थंकर से बड़ा समतायोगी कौन होगा ? वे भो संसार के सभी जीवों के प्रति दया भाव रखते हैं, और इसीलिए वे प्रवचन फरमाते हैं ? अतः कारुण्य भावना के दृढ़ अभ्यास से साधक आध्यात्मिक उत्कर्ष प्राप्त करता है, जो अध्यात्मयोग का लक्ष्य है। (४) माध्यस्थ भावना : विपरीतता में समत्व (राग-द्वषविजय की साधना) __ माध्यस्थ भावना का दूसरा नाम उपेक्षावृत्ति है । उपेक्षा का आशय है-राग-द्वेष न करना, अनुक्ल एवं प्रतिकूल स्थितियों में सम रहना; अनुकूल में राग न करना और प्रतिकूल के प्रति द्वेष न रखना । सदैव उपेक्षावृत्ति तथा माध्यस्थ भावना में रमण करना । __ माध्यस्थ भावना द्विमुखी है-यह राग पर भी विजय प्राप्त करती है और द्वेष को भी निमूल करती है। इस प्रकार दोनों ओर से शोधन एवं परिमार्जन करके आत्मा को शुद्ध एवं निर्मल बनाती है । साधक माध्यस्थ भावना का अनुचिन्तन करता है कि ये अनुकूल एवं प्रतिकूल दोनों ही प्रकार की स्थितियां संयोगजन्य हैं और ये संयोग भी मेरे पूर्वकृत शुभ-अशुभ कर्मों के परिणाम हैं । इनमें हर्ष अथवा शोक क्यों करना; क्योंकि हर्ष और शोक दोनों ही अन्त में दुःख के–कर्मबन्ध के कारण बनते हैं; और वास्तव में हर्ष तथा शोक दोनों ही भाव एक ही सिक्के दो पहलू हैं। . वह भगवान महावीर के इन शब्दों पर अपनी विचारधारा और आस्था केन्द्रित कर देता है १ सव्वजीवरक्खणदयट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं । -प्रश्नव्याकरण सूत्र, संवर द्वार Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० जैन योग : सिद्धान्त और साधना एगन्तरत्त रुइरंसि भावे, अतालिसे सो कुणइ पोस। दुक्खस्सा संपोलमुवेइ बाले, न लिप्पइ तेण मुणी विरागो॥ -उत्तराध्ययन ३२/६१ अर्थात्-जो मनुष्य मनोज्ञ (मन के अनुकूल) भावों में आसक्त होता है, वह मन के प्रतिकूल भाव मिलने पर उनमें द्वष भी करने लगता है। इस प्रकार वह अज्ञानी पुरुष कभी राग से पीड़ित होता है तो कभी द्वष से; दोनों ही स्थितियों में वह दुखी होता है। किन्तु अनुकूल और प्रतिकूल स्थितियों में सम रहने वाले-विरागी साधक (मुनि) सदा सुखी रहते हैं । फिर वह विचार करता है कि अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियां न शाश्वत हैं, न स्थिर; ये तो क्षण-क्षण परिवर्तनशील हैं, फिर इनमें हर्ष-शोक क्यों करना? इस प्रकार के अनुचिन्तन से माध्यस्थ भावना का साधक हर्ष-शोक, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वात्मक भावों से परे हो जाता है, ऊपर उठ जाता है और समत्व समभाव की स्थिति में पहुँच जाता है। वहाँ न इन्द्रिय तथा इन्द्रियविषयों की खटपट रहती है, न कषायों की ज्वाला जलती है, न राग-द्वेष की तूफानी हवाएं चलती हैं, न मानसिक आताप-सन्ताप सताते हैं । वहाँ सब कुछ शान्त-प्रशान्त होता है, सुख का क्षीर सागर लहराता है। अतः माध्यस्थ भावना की साधना राग-द्वेषातीत होने की साधना है, योग और समत्वयोग की अन्तिम परिणति है, लक्ष्य बिन्दु है, जहाँ पहुँच कर साधक कृतकृत्य हो जाता है। योग-भावनाओं को फलभ ति __इस प्रकार मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ-इन चारों योगभावनाओं की फलश्र ति वीतरागता की प्राप्ति है। इन योग-भावनाओं द्वारा साधक वीतरागता की साधना करता है और शनैः शनैः आत्मिक भावों की उम्नति करते हुए, प्रगति करता है तथा एक दिन आत्मोन्नति के शिखर पर पहुँच जाता है, कृतकृत्य हो जाता है, मानव-जीवन का चरम लक्ष्य पा लेता है। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपोयोग साधना-१ १० बाह्यतप : बाह्य आवरण-शुद्धि साधना 'तप' का अभिप्राय 'तप' दो लघु अक्षरों से निर्मित एक छोटा-सा शब्द है; किन्तु है बड़ा शक्तिशाली। जब 'तप' का योग आत्मा से हो जाता है और यह तपोयोग बन जाता है तब असीमित शक्ति को प्रस्फुटित करता है। जिस प्रकार वैज्ञानिक अण का विखंडन विद्य त तरंगों के माध्यम से करके असीमित ऊर्जा तथा शक्ति प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार मानव अपने विद्यु त शरीर में बहने वाली विद्युत धारा का तप के साथ संयोग करके, तप को तपोयोग में परिणत करके असीम शक्ति प्राप्त कर सकता है । हएक वैज्ञानिक अणशक्ति के प्रयोग द्वारा अपने स्थान पर बैठा आ ही, सि फैएक स्विच दबाकर, जापान जैसे एक देश को-जनपद को जीवनरहित कर सकता है तो तपोशक्ति (तेजोलेश्या) के प्रयोग से एक तपस्वी १६ जनपदों का विनाश करने की प्रचण्ड क्षमता रखे तो यह आश्चर्य की बात नहीं। यह तो सिर्फ एक उदाहरण है, तपोशक्ति का सिर्फ व्यावहारिक स्थूल रूप है; किन्तु इसका सूक्ष्म रूप अनन्त और असीमित शक्तिशाली है। उसका कारण यह है कि तेजस् शरीर का स्वामी एवं संचालक आत्मा भी तो अनंत शक्तिशाली है। तपोयोग द्वारा आत्मा की वही शक्ति, जो आवृत दशा में होती है, प्रगट हो जाती है। आत्म-शक्ति के प्रगटीकरण को प्रक्रिया और साधन है तप, तपोसाधना, तयोयोग साधना। जिस प्रकार सूर्य तथा अग्नि के ताप से बाह्य मल जलकर वस्तु शुद्ध हो जाती है, अपने निर्मल और वास्तविक रूप में आ जाती है। उसी प्रकार तप के ताप से आत्मा पर लगे कर्मगल, कर्मग्रन्थियाँ, राग-द्वेष आदि आन्तरिक दोष जल जाते हैं, परिणामस्वरूप कर्मदलिक (आवरण) झड़ जाते हैं और Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ जैन योग : सिद्धान्त और साधना आत्मा का वास्तविक स्वरूप, उसके समस्त दिव्य गुण, अनन्त शक्ति प्रगट हो जाती है, वह अपने निजस्वरूप में अवस्थित हो जाती है, कोटि-कोटि सूर्यप्रभा के समान भास्वर हो उठती है और करोड़ों चन्द्रमाओं की ज्योत्स्ना के समान अमृतरूप शांति में स्थिर हो जाती है, अनन्त और अव्याबाध सुख में रमण करती है । और आत्मा अपनी स्वाभाविक दशा प्राप्त करता है—तयोयोग की साधना द्वारा । तप के लक्षण व्याकरणशास्त्र की दृष्टि से 'तप' शब्द की रचना 'तप्' नामक धातु से हुई है । 'तप' धातु का अर्थ है तपना । अतः आचार्य अभयदेव ने निरुक्त की दृष्टि से तप का लक्षण बताया रस- रुधिर- मांस-मेदास्थि मज्जा शुक्राण्यनेन तप्यन्ते कर्माणि वाऽशुभानीत्यतस्तपो नाम निरुक्तः । - स्थानांगवृत्ति ५ / १, पत्र २८३ अर्थात् - जिस साधना के द्वारा शरीर के रस, रक्त, मांस, मेद ( चर्बी ) अस्थि (हड्डी), मज्जा और शुक्र तप जाते हैं, शुष्क हो जाते हैं अथवा अशुभ कर्म जल जाते हैं, उनका क्षय हो जाता है, उस साधना को तप कहते हैं । आवश्यक सूत्र के टीकाकर मलयगिरि ने तप का यह लक्षण बताया है - आवश्यक मलयगिरि, खण्ड २, अध्ययन १ अर्थात् — जो आठ प्रकार के कर्मों को तपाता है, वह तप है । दशकालिक के चूर्णिकार जिनदासगणी महत्तर का भी यही अभि मत है- तापयति अष्ट प्रकारं कर्म इति तपः । तवो णाम तावयति अट्ठविहं कम्मगंठि, नासेतितबुत्तं भवइ । - दशकालिक सूत्र — जिनदास चूर्णि अर्थात् - तप उस साधना को कहा जाता है जिसके द्वारा आठ प्रकार के कर्मों की ग्रन्थियों को तपाया जाता है, नाश किया जाता है । कर्मग्रन्थियों को तपाना, नाश करना और आत्मा का शोधन करनाये दोनों बातें एक ही हैं । जब कर्म नष्ट हो जायेंगे तो आत्मा शद्ध हो ही जायेगी। इन दोनों में सिर्फ अपेक्षाभेद है । कर्म की अपेक्षा से कर्मों को क्षय Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाह्य तप : बाह्य आवरण-शुद्धि साधना | २३३ करना तप है और आत्मा की अपेक्षा से तप का कार्य एवं लक्ष्य आत्म-शोधन अथवा आत्म-शुद्धि है। तप का महत्त्व आत्म-शुद्धि को ही बौद्धों ने चित्तशुद्धि कहा है और चित्तशुद्धि के लिए तपश्चरण करने की व्यवस्था की है। महामंगलसुत्त में वर्णित चार उत्तम मंगलों में तप को प्रथम स्थान दिया है । तथागत बुद्ध ने कहा है कि तप करने से किसी के कुशल धर्म बढ़ते हैं और अकुशल धर्म कम होते हैं तो उसे तप अवश्य करना चाहिए। इसी प्रकार वैदिक परम्परा में भी तप को बहुत उच्च स्थान दिया गया है। इसे आत्मा को तेजस्वी बनाने की साधना माना गया है । जैन धर्म में भी तप का बहुत महत्त्व है । इसे आत्म-शुद्धि और मुक्ति का प्रत्यक्ष कारण माना गया है। तपोयोग की साधना से साधक अपने पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करके आत्मा को शुद्ध बनाता है। इसीलिए जैन श्रमणों के लिए आगम ग्रन्यों में विभिन्न प्रकार के विशेषण प्रयुक्त हुए हैं, जो उन्हें 'तपःशूर' अथवा तपोयोग के उत्कृष्ट साधक के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं। तप के विभिन्न प्रकार तपोयोग का जैन आगमों और ग्रन्थों में विस्तृत विवेचन मिलता है। भगवान महावीर ने तपोयोग को विस्तृत और व्यापक संदर्भ प्रदान किया है। 'भगवान महावीर स्वयं एक महान तपोयोगी थे। १ अंगुत्तरनिकाय-दिठिवज्ज सुत्त २ (क) अजो भागस्तपसा तं तपस्व । -ऋग्वेद १०/१६/१४ (ख) श्रेष्ठो ह वेदस्तपसोऽधिजातः । गोपथ ब्राह्मण १/१/8 (ग) तपसा चीयते ब्रह्मः । -मुण्डकोपनिषद १/१/८ (घ) ऋतं तपः सत्यं तपः श्रुतं तपः शांतं तपो दानं तपः । -तैत्तिरीय आरण्यक १०/८ ३ तपसा निर्जरा च। -तत्वार्थ सूत्र ६/३ ४ उग्गतवे, दित्ततवे, तत्ततवे, महातवे, ओराले घोरे घोरगुणे घोर तवस्सी । -भगवती शतक १, उद्देशक ३ ५ तसूरा अणगारा। -आवश्यकनियुक्ति, गा० ४५० ६ देखिए-औपपातिक सत्र, आचारांग, उत्तराध्ययन सूत्र आदि ग्रंथ । ... Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ जन योग : सिद्धान्त और साधना __जैन आगमों के अनुसार, अनाहार भी तपस्या है और कम खाना भी तपस्या है; कायोत्सर्ग भी तप है और ध्यान भी तप है; इन्द्रिय-संयम भी तप है और आसन भो तप है । अन्तःकरण अथवा चित्तशोधन की क्रिया भी तप हैं और स्वाध्याय तथा विनय की अन्तरंग वृत्ति भी तप है। सेवा भी तप है। इस प्रकार तप का आयाम, जैन आगमों के अनुसार बहुत ही व्यापक है । इन तपों में अनाहार अथवा अनशन तप का पहला प्रकार है और व्युत्सर्ग अन्तिम । दूसरे शब्दों में, तप का प्रारम्भ आहार के विसर्जन से होता है और अन्त देह अथवा शरीर के प्रति अहंता तथा कषाय, संसार एवं कर्म के विसर्जन में होता है। तप के भेद-प्रभेदों का विस्तृत वर्णन उत्तराध्ययन सूत्र' में किया गया है। तप के प्रमुख भेद दो हैं--(१) बाह्य तप और (२) आभ्यन्तर तप । बाह्य तप छह प्रकार का है-(१) अनशन (२) ऊनोदरी (अवमौदर्य) (३) भिक्षाचरी (वृत्तिपरिसंख्यान) (४) रस-परित्याग (५) कायक्लेश और (६) विविक्त शयनासन (प्रतिसंलोनता)। आभ्यन्तर तप छह प्रकार का है-(१) प्रायश्चित्त, (२) विनय., (३) वैयावृत्य, (४) स्वाध्याय (५) ध्यान और (६) व्युत्सर्ग। विभाजन के कारण यद्यपि तप तो एक ही है और उसका लक्ष्य है-आत्म-शोधन, किन्तु प्रक्रियाओं के आधार पर ये बारह भेद किये गये हैं। साथ ही भाव बिना तप का आध्यात्मिक दृष्टि से कोई मूल्य नहीं है, सिर्फ कायाकष्ट अथवा दिखावा मात्र है, इनसे शारीरिक अथवा मानसिक लाभ तो हो सकते हैं किन्तु आत्मिक लाभ नहीं होता और भाव का अभिप्रेत आत्मिक भाव हैं जो अन्तर जगत की हो वस्तु हैं। फिर भी तप के आभ्यन्तर और बाह्य दो भेद किये गये हैं। इस विभाजन के समुचित कारण हैं। अनशन आदि छह तपों की परिगणना बाह्य तपों में की गयी है, उसके कारण हैं १ उत्तराध्ययन सूत्र ३०/७-३६ २ अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशाबाह्य तपः। -तत्त्वार्थ सूत्र ६/१६ ___३ प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् । -तत्त्वार्थ सूत्र ६/२० Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) बाह्य तप का प्रभाव शरीर पर अधिक पड़ता है । (२) ये तप बाहर दिखाई देते हैं । (३) इनका सम्बन्ध अशन, पान, आसन, आदि बाहरी द्रव्यों से होता है। बाह्य तप: बाह्य आवरण-शुद्धि साधना | २३५ (४) साधारण व्यक्ति बाह्य तप को तप के रूप में स्वीकार करता है । (५) ये बाह्य तप मुक्ति के बहिरंग कारण बन सकते हैं । बाह्य तप भी निरर्थक नहीं यह सत्य है कि जैन तपोयोग की आधारभूमि आध्यात्मिक है । बाह्य तपों का प्रमुख सम्बन्ध बाहरी द्रव्यों से होता है, वे बाहर दिखाई देते हैं; किन्तु इसका यह अर्थ समझना भूल होगी कि आध्यात्मिक विकास में इनका कोई स्थान ही नहीं है । साधक के जीवन में इनका भी महत्त्वपूर्ण स्थान है । कोई व्यक्ति घी को पिघलाना चाहता है, तो वह किसी बर्तन में रख कर ही घी को पिघला सकता है । यदि वह सीधा आग में घी को डाल देगा तो घी जल जायगा, आग भी लग सकती है । घी को शुद्ध करने में, पिघलाने में, उसके मैल को दूर करने में जो महत्त्व बर्तन का है, बर्तन को गरम करने का है। वही महत्त्व साधक को आत्मशुद्धि में बाह्य तप का । जिस प्रकार मुक्ति की साधना औदारिक अथवा स्थूल शरीर से हो की जा सकती है, उसी प्रकार आभ्यन्तर तपों की साधना भी बाह्य तपों की साधना से की जा सकती है । बाह्य तप, आभ्यतर तपों में सहायक हैं, आधारभूमिका हैं । अतः आध्यात्मिक साधना में इनका भी महत्त्वपूर्ण स्थान है । साथ ही यह भी सत्य है कि बाह्य तपोसाधना से साधक को अनेक प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक लाभ होते हैं । बाह्य तप के लाभ आचार्य शिवकोटि ने मूलाराधना' में बाह्य तप के कई लाभ बताये हैं, उनमें से प्रमुख हैं (१) काय की संलेखना होती है । (२) आत्मा में संवेग जागता है । (३) इन्द्रियों का दमन होता है । (४) विषयों के प्रति आसक्ति घटती है । १ मूलाराधना ३ / २३७-२४४ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ जन योग : सिवान्त और साधना (५) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र में स्थिरता आती है। (६) तृष्णा का क्षय होता है। (७) आत्म-शक्ति बढ़ती है। (८) कष्टसहिष्णुता का अभ्यास होता है। (6) देह, पदार्थ और सांसारिक सुखों के प्रति (भेदविज्ञान द्वारा) आसक्ति क्षीण होती है। (१०) क्रोध आदि कषायों का निग्रह होता है। (११) निद्रा विजय होती है। (१२) प्रमाद और आलस्य पर विजय प्राप्त होती है। (१३) मानसिक और शारीरिक लाघव (हल्कापन) सिद्ध होता है। (१४) सन्तोष का भाव हृदय में दृढ़ होता है। (१५) समत्व की साधना होती है। (१६) समाधियोग का स्पर्श होता है !....आदि....आदि इस प्रकार बाह्य तपों का शरीर, मन और वृत्तियों पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। शरीर स्वस्थ एवं नीरोग रहता है, उसमें चुस्ती तथा फुर्ती आती है, मानसिक शक्तियों में भी वृद्धि होती है। योग के प्रसंग में तप का वर्णन इसलिए प्रासंगिक ही नहीं अत्यावश्यक है कि 'तप' योग की ही व्यवस्थित, क्रमिक और अध्यात्ममूलक प्रक्रिया है। तपस्वी एवं योगी की भूमिका लगभग समान है। 'तप' सधने पर ही योग की योग्यता प्राप्त होती है। बाह्य तप (१) अनशन तप : आत्म-आवरणों का शोधन अनशन, तपोयोग की साधना का प्रथम चरण है। अशन कहते हैं आहार को और अनशन का अभिप्राय है आहार का त्याग, आहार का विसजन । तपोयोगी सर्वप्रथम, साधना के प्रथम चरण में आहार का त्याग करता है। अनाहार का दूसरा नाम है उपवास । उपवास का अध्यात्मपरक अभिप्राय है-आत्मा के समीप रहना। तपोयोगी साधक आहार का त्याग करके, भोजन सम्बन्धी क्रियाओं को छोड़कर सारा समय आत्म-चिन्तन-मनन में व्यतीत करता है। ___ उपवास से साधक को शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से भी बहुत लाभ होते हैं। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाह्य तप: बाह्य आवरण-शुद्धि साधना | २३७ आयुर्वेद में उपवास को लंघन कहा गया है, और लंघन को परमौषधि - 'लंघनं परमौषधम्' बताया गया है । अनशन तप से शरीर की शुद्धि होती है, रक्त संचार ठीक होता है और पाचन क्रिया तेज होती है । परिणामस्वरूप उदर सम्बन्धी रोगों का उपशमन होता है । गैस, अग्निमन्दता, आदि रोग नहीं हो पाते । उपवास से पाचन तन्त्र को अवकाश मिलता है, इस अवकाश में वह पिछले अपचे हुए अन्न को पचा लेता है, अतः कब्ज नहीं हो पाता है और पेट में जमा पुराना मल भी साफ हो जाता है । प्राकृतिक चिकित्सा का तो मूल आधार ही उपवास है । शरीर और विशेष रूप से उदर का आन्तरिक भाग रबड़ जैसा लचीला है । भोजन से उदर की आंतें आदि फैल जाती हैं और उपवास से वे अपनी स्वाभाविक दशा में आ जाती हैं । उपवास से फोड़ा-फुन्सी आदि जल्दी ठीक होते हैं; क्योंकि उपवास काल में शरीर दूषित पदार्थों को बाहर निकाल देता है । उपवास द्वारा रक्त के लाल कण (Red Corpsules) बढ़ जाते हैं, अतः रक्ताल्पता नहीं हो पाती । शरीर की अम्लता (acidity) को समाप्त करने में भी उपवास लाभप्रद होता है । अतः डाक्टर फेलिक्स, एल. आसवाल्ड के शब्दों में- शरीर की आन्तरिक सफाई का सर्वोत्तम तरीका उपवास है । शारीरिक लाभों के अतिरिक्त उपवास से मानसिक लाभ भी बहुत होते हैं । सिर-दर्द, दिमाग का भारीपन आदि मिट जाते हैं । मस्तिष्क अधिक सक्रिय होता है और उसकी विचार-शक्ति बढ़ जाती है, नई-नई स्फुरणाएँ उत्पन्न होती हैं । इन सब बातों का परिणाम यह होता है कि तपोयोगी साधक, अनशन तप के फलस्वरूप मानसिक और शारीरिक रूप से योग साधना के लिए अधिक सक्षम हो जाता है, वह आगे के तपों की साधना सरलता से कर सकता है; क्योंकि अनशन तप के आचरण से उसमें 'क्षुधाविजय' भूख को सहने की अद्भुत क्षमता आ जाती है । भूख को जीतने वाला सब को ही जीत सकता है और उससे तपः साधना की आधारभूमि तैयार हो जाती है । अतः अनशन तप तपोयोग की आधार भूमि है । Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ जैन योग : सिद्धान्त और साधना अनशन तप के मेव-प्रभेव आगमों' में काल की दृष्टि से अनशन तप के दो भेद किये गये हैं (१) इत्वरिक-एक निश्चित काल सीमा तक आहार का त्याग, यह एक दिन के उपवास से लेकर छह मास तक का हो सकता है। (२) यावत्कथिक-जीवन भर के लिए आहार का त्याग। उत्तराध्ययन सूत्र में इत्वरिक तप को सावकांक्ष और यावत्कथिक तप को निरवकांक्ष कहा गया है। इसका कारण यह है कि इत्वरिक तप में साधक को काल की निश्चित सीमा के उपरान्त आहार की आकांक्षा इच्छा रहती है और यावत्कथिक में भोजन की इच्छो का ही नाश हो जाता है। इत्वरिक तप के संक्षेप में छह प्रकार हैं-(१) श्रेणी तप (२) प्रतर तप (३) धन तप (४) वर्ग तप (५) वर्ग-वर्ग तप और (६) प्रकीर्णक तप । श्रेणी तप-चतुर्थभक्त (उपवास), षष्ठ तप (बेला), अष्ट तप (तेला) चौला, पंचोला, इस प्रकार बढ़ते-बढ़ते अष्टान्हिका, पक्षोपवास, मासोपवास, दो मास का उपवास, तीन मास का उपवास यावत् छह मास का उपवासइस प्रकार का तप श्रेणी तप कहलाता है। प्रतर तप-क्रमशः १, २, ३, ४, २, ३, ४, १, ३, ४, १, २, ४, १, २, ३; इत्यादि अंकों के अनुसार तप करना, प्रतर तप है। घन तप-किसी भी घन के कोष्ठों, यथा ८x८=६४ कोष्ठकों में आने वाले अंकों के अनुसार तप करना, घन तप है। वर्ग तप-६४४ ६४= ४०६६ कोष्ठकों में आने वाले अंकों के अनुसार तप करना वर्ग तप है। वग-वर्गतप-४०६६४४०६६=१६७७२१६ कोष्ठकों में आने वाले अंकों के अनुसार तप करना वर्ग-वर्ग तप है। प्रकीर्णक तप-इसके अनेक भेद हैं, यथा-कनकावली, मुक्तावली, एकावली, बृहत्सिंह क्रीडित, लघुसिंह क्रीड़ित, गुणरत्न संवत्सर, वज्रमध्य प्रतिमा, यवमध्य प्रतिमा, सर्वतोभद्र प्रतिमा, महाभद्र प्रतिमा, भद्र प्रतिमा, आयंबिल वर्द्धमान इत्यादि तप प्रकीर्णक तप कहलाते हैं । १ भगवती २५/७ २ उत्तराध्ययन ३०/९ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाह्य तप : बाह्य आवरण-शुद्धि साधना | २३६ वैसे प्रकीर्णक तप के अन्तर्गत-(१) नवकारसी, (२) पौरसी, (३) पूर्वाद्ध, (४) एकासन (५) एक स्थान (एकल ठाणा), (६) आयंबिल (७) दिवस चरिम (८) रात्रि भोजन त्याग, (8) अभिग्रह, (१०) चतुर्थभक्त उपवास -इन दस तपों की गणना प्रमुख रूप से होती है। अनशन तप का द्वितीय भेद यावत्कथिक है । इस तप में जीवन भर के लिए आहार का त्याग करके संथारा किया जाता है। इसमें धीरे-धीरे काया को क्षीण किया जाता है और साथ ही साथ कषायों को भी क्षीण किया जाता है । यह अन्तिम समय की साधना है। इसके बाद फिर कोई साधना शेष नहीं रहती। तपोयोगी साधक अनशन तप के द्वारा शरीर और मन की शुद्धि करता है तथा आहार के विषय में अपनी आसक्ति कम करता है। वह आहार के त्याग के साथ ही साथ अपनी वृत्तियों को अन्तमुखी करता है। - इस प्रकार अनशन तप तपोयोगी साधक के लिए साधना की आधारभूमि तैयार करता है। (२) ऊनोदरी तप : इच्छा नियमन साधना ऊनोदरी का अर्थ (ऊन = कम, उदरपेट) भूख से कम खाना होता है। आगम साहित्य में ऊनोदरी के 'अवमोदरिका' एवं 'अवमोदर्य' ये दो नाम और मिलते हैं । शब्दभेद होने पर भी इनके अर्थ में कोई अन्तर नहीं है। स्थानांग सूत्र में ऊनोदरी तप के तीन प्रकार बताये हैं—(१) उप'करण अवमौदरिका (२) भक्त-पान अवमौदरिका और (३) भाव (कषायत्याग) अवमौदरिका । भगवती' में द्रव्य उनोदरी और भाव ऊनोदरी-ये दो भेद किये गये हैं। . उत्तराध्ययन में ऊनोदरी के पाँच प्रकार बताये गये हैं- (१) द्रव्य ऊनोदरी-आहार की मात्रा भूख से कम लेना, इसी प्रकार वस्त्र आदि भी आवश्यकता से कम लेना । (२) क्षेत्र ऊनोदरी-भिक्षा के लिए स्थान निश्चित करके वहीं से भिक्षा लेना (३) काल ऊनोवरी-भिक्षा के लिए समय निश्चित १ स्थानांग ३/३/१८२ - २ ओमोयरिया दुविहा-दवमोयरिया य भावमोयरिया । .:३ उत्तराध्ययन ३०/१०-११ -भगवती सूत्र Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० जैन योग : सिदान्त और साधना करके उसी समय भिक्षा ग्रहण करना। (४) भाव ऊनोदरी-अभिग्रह लेकर भिक्षा के लिए जाना (५) पर्याय ऊनोदरी-उक्त चारों प्रकार की ऊनोदरी को क्रिया रूप में परिणत करना। उत्तराध्ययन में वर्णित ऊनोदरी के ये पाँचों भेद श्रमण की अपेक्षा से हैं। वैसे तपोयोग की अपेक्षा से ऊनोदरी के प्रमुख भेद दो ही हैं--(१) द्रव्य ऊनोदरी और (२) भाव ऊनोदरी। द्रव्य ऊनोदरी में तपोयोगी साधक आहार-वस्त्र-उपकरण (सामग्री) आदि को कम करता है और भाव ऊनोदरी में कषाय, राग-द्वेष, योगों की चपलता आदि को कम करता है, वचन की भी ऊनोदरी करता है यानी कम बोलता है। अल्पभोजन की तरह अल्पभाषण भी ऊनोदरी तप है। तयोयोग की दृष्टि से ऊनोदरी, अनशन की अपेक्षा कठिन तप है। इसे वही साधक कर सकता है जिसका अपने मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण हो। भूखा रह जाना तो सरल है; किन्तु जिस समय षटस व्यंजनों का थाल सामने रखा हो, पेट में भूख भी हो, मनुष्य खा भी रहा हो, 'और लीजिए' 'और लीजिए' की मनुहार भी हो रही हो; ऐसी स्थिति में भूख से कम खानाऊनोदरी करना उसी व्यक्ति के लिए संभव है, जिसका अपने मन और इच्छाओं पर नियंत्रण हो । यही स्थिति वस्त्र आदि के बारे में है। कषायों और राग-द्वेष के वेग को कम करना तो और भी कठिन है। अन्दर से क्रोध उबलने को फटा पड़ रहा है, बाहर क्रोध को भड़काने वाले निमित्त भी हों फिर भी उस आवेग को दबाना, कम करना बहुत ही कठिन कार्य है। इससे भी कठिन कार्य है लोभ को कम करना, सोने-चांदी के अम्बार लगे हों, लाभ का अच्छा चांस हो फिर भी अपनी आवश्यकता से कम लेना, कितना कठिन है। - अनशन में तो सिर्फ पेट की भूख पर ही काबू किया जाता है; किन्तु ऊनोदरी में मन के और कषायों के वेग पर भी नियंत्रण का अभ्यास किया जाता है, उन्हें कम किया जाता है। तपोयोगी साधक अपनी साधना के बल पर इस कठिन कार्य को भी सरल बना लेता है और सफलतापूर्वक ऊनोदरी तप की साधना करता है। द्रव्य-भाव ऊनोदरी तप की साधना से तपोयोगी साधक का प्रमाद कम हो जाता है, उसका आलस्य मिट जाता है तथा स्मृति, धृति, बुद्धि, सहिष्णता, धैर्य आदि मानसिक शक्तियां बढ़ती हैं। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाह्य तप : बाह्य आवरण-शुद्धि साधना २४१ (३) मिनाचरी तपः वृत्ति-संकुचन की साधना श्रमण के लिए भिक्षा एक तप है और सामान्य भिक्षक के लिए अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन । भिक्षा और भिक्षाचरी तप में महान अन्तर है। सामान्य भिक्षक दोनवृत्ति से भिक्षा माँगता है, न मिलने पर रुष्ट होता है, दाता को कटुवचन भी कह देता है, चित्त में खेद करता है और यदि अच्छे पदार्थ मिल जायें तो हर्षित होता है, दाता की प्रशंसा करता है, उसको दुआएँ देता है। उसकी भिक्षा पौरुषघ्नी (पुरुषार्थ का नाश करके अकर्मण्य और आलसी बनाने वाली) होती है। जबकि श्रमण अदीनभाव से अपनी मर्यादा और अभिग्रह के अनुकूल भिक्षा ग्रहण करता है, अस्वादिष्ट पदार्थ मिलने पर रुष्ट नहीं होता है और अच्छे पदार्थ मिलने पर तुष्ट नहीं होता, न मिलने पर खेद नहीं करता और मिल जाने पर हर्षित नहीं होता-दोनों ही स्थितियों में समभाव रखता है। इसीलिए श्रमण का भिक्षा ग्रहण करना तप है और उसकी भिक्षा 'सर्वसम्पत्करी' है । वह दाता के लिए भी कल्याणकारी है और श्रमण भी अपने शरीर को भोजन के रूप में भाड़ा देकर अपना कल्याण करता है। श्रमण की भिक्षाचर्या को आचारांग,' उत्तराध्ययन, आदि आगमों में 'गोयरग्ग' (गोचराग्र-गोचरी) भी कहा गया है। गोचरी का अभिप्राय है कि जिस प्रकार गो (गाय) घास को जड़ से नहीं उखाड़ती, एक ही स्थान को घास से बिल्लकुल साफ नहीं करती, अपितु चरती हई खेत के एक सिरे से दूसरे सिरे तक पहुँच जाती है, और इस प्रकार अपनी क्षधा-तृप्ति कर लेती है उसी प्रकार श्रमण भी अनेक घरों से थोड़ी-थोड़ी भिक्षा ग्रहण करता है, किसी एक गृहस्थ पर बोझ नहीं बनता। दशवकालिक सूत्र में भिक्षाचरी को माधुकरी वृत्ति भी कहा गया है । उसका अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार मधुकर (भौंरा) अनेक फूलों से थोड़ाथोड़ा रस लेता है, उसी प्रकार श्रमण भी थोड़ी-थोड़ी भिक्षा अनेक घरों से ग्रहण करता है तथा जिस प्रकार भौंरे के रस ग्रहण करने से पुष्प और भी महकते हैं क्योंकि भ्रमर पुष्प के अतिरिक्त रस को ही चूसता है) उसी प्रकार १ आचारांग २/१ २ उत्तराध्ययन ३०२५ ३ दशवकालिक सूत्र १/५-महुकार समा बुद्धा। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ जैन योग : सिद्धान्त और साधना साधु के भिक्षा ग्रहण करने से दाता को लौकिक और पारलौकिक लाभ मिलते हैं । तत्त्वार्थसूत्र' आदि कई ग्रन्थों में भिक्षाचरी के लिए वृत्तिपरिसंख्यान अथवा वृत्तिसंक्षेप शब्द भी प्राप्त होता है । यद्यपि भिक्षाचरी, गोचरी, माधुकरी वृत्ति और वृत्ति-संक्षेप - इन सभी का भाव समान है किन्तु योग की अपेक्षा से वृत्तिसंक्षेप शब्द अधिक उपयुक्त है । क्योंकि वृत्तिसंक्षेप शब्द की मूल ध्वनि है- वृत्तियों का मन-वचनकाय और चित्त की वृत्तियों तथा कषाय आदि विभावों का संक्षेपीकरण, उनका जो फैलाव है, विस्तार है उसे समेटना, कम करना, सीमित दायरे भें ले आना, उनका संकुचन करना । यह संकुचन गृहत्यागी श्रमण भिक्षाचरी (अपनी अनिवार्य आवश्यकताओं के साधनों को गृहस्थ श्रावक से प्राप्त करते समय ) द्वारा अपनी मर्यादा और अनेक प्रकार के अभिग्रहों से करता है तथा गृहस्थ साधक (योगी) चौदह नियमों को प्रतिदिन ग्रहण करके करता है । दोनों ही अपनीअपनी मर्यादा, सीमा, योग्यता, क्षमता और पद के अनुकूल अपनी वृत्तियों का संक्षेपीकरण अथवा संकुचन करते हैं । तपोयोग की साधना में वृत्तियों के संक्षेपीकरण का बहुत महत्व है । इससे साधक अपनी असीमित इच्छाओं तथा वृत्तियों और अनिवार्य आवश्यकताओं को सीमित कर लेता है । मन-वचन-काय की वृत्ति प्रवृत्तियाँ सीमित होने से उसका सिन्धु के समान सावद्ययोग (पाप) बिन्दु के समान रह जाता है । इस प्रकार वृत्तिसंक्षेप तप की साधना करके तपोयोगी त्याग की दृढ़ भूमिका अपने मन-मानस में तैयार करता है । (४) रस - परित्याग तप: अस्वादवृत्ति की साधना किसी भी इन्द्रिय के विषय की ओर मन के राग भाव का न जोड़ना तप है । तपोयोगी रस - परित्याग तप का आचरण करता हुआ जिह्वा अथवा उसना इन्द्रिय के रस - स्वाद के प्रति अनासक्त भाव रखता है, सरस- स्वादिष्ट भोजन की प्राप्ति की इच्छा भी नहीं करता । जहाँ तक सम्भव हो सकता है वह ऐसा आहार ग्रहण नहीं करता । १ तत्त्वार्थ सूत्र ६ / १६ २ उवासगदसाओ, पढमं अज्झयण Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाह्य तक: बाह्य गावरम-शुद्धि साधना २४३ रस दीप्तिकारक अर्थात् मन में उत्तेजना उत्पन्न करने वाले', विकृति बढ़ाने वाले होते हैं, अतः सरस आहार को विकृति भी कहा गया है। शास्त्रों में 8 विकृतियाँ बताई गई हैं-(१) दूध, (२) दही, (३) नवनीत, (४) घत, (५) तेल, (६) गुड़, (७) मधु, (८) मद्य और (8) मांस। इनमें से अन्तिम तीन तो महाविकृतियाँ हैं, जिन्हें साधक ग्रहण करता ही नहीं। शेष छह विकृतियों का प्रयोग भी बड़ी सावधानी से करता है। रसना इन्द्रिय का सीधा सम्बन्ध ब्रह्मचर्य की साधना से है । रस-लोलुपी कभी भी ब्रह्मचर्य की साधना कर ही नहीं सकता, यहाँ तक कि वह अन्य सभी इन्द्रियों को भी वश में नहीं रख सकता । इसीलिए रस-परित्याग को तपों में स्थान दिया गया है और इससे सर्वेन्द्रिय संयम अपेक्षित है। तपोयोगी साधक रस-परित्याग द्वारा अपनी सभी इन्द्रियों और मन को वश में रखने की साधना करता है, वह अपने मन में विकारी भावना नहीं आने देता। . भगवान महावीर ने रस-परित्याग तप की दो भूमिकाएं बताई हैं(१) रस को ग्रहण ही न करना और (२) ग्रहीत रस पर राग-भाव न करना। वस्तुतः साधक की रसों के प्रति गृद्धि और लोलुपता उसकी साधना में विघ्न बन जाती है, वह ध्यान और स्वाध्याय में अपना चित्त स्थिर नहीं कर पाता। रस की ओर उसका चित्त दौड़ता रहता है, रसपूर्ण आहार प्राप्त होने पर उसे हर्ष तथा रूक्ष आहार मिलने पर खेद होता है अतः उसका समताभाव खण्डित हो जाता है। इन्द्रिय-विषयों के प्रति उसका ममत्वभाव हो जाता है। . रस-परित्याग तप की साधना का लक्ष्य भोजन में अस्वाद वृत्ति एवं अनासक्त भाव है। इस साधना से साधक को वैराग्य की दृढ़ता, सन्तोष की भावना और ब्रह्मचर्य की आराधना-ये तीन उपलब्धियां होती हैं। इसीलिए रस-परित्याग की साधना करने वाला तपोयोगी साधक आहार करता हुआ भी अस्वादवृत्ति की साधना करता है। १ पायं रसा दित्तिकरा नराणं । -उत्तराध्ययन सूत्र ३२/१० २ स्थानांग ६/६७४ ३ जिब्भिन्दिय विसयप्पयार निरोहो वा, जिब्भिन्दिय विसयपत्तेसु अट्ठसु रागदोसनिग्गहो वा। .-अपपातिक सूत्र, समवसरण प्रकरण Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ जैन योग: सिद्धान्त और साधना (५) कायक्लेश तप : काय-योग की साधना यद्यपि 'कायक्लेश' शब्द का शाब्दिक अर्थ काया (शरीर) को कष्ट देना या शरीर से कष्ट सहना है किन्तु तपोयोग की अपेक्षा से इसका अर्थ है देह का ममत्व त्याग देना, निर्ममत्व भाव रखना तथा आसन आदि के अभ्यास द्वारा शरीर को साध लेना। विभिन्न प्रकार के आसनों के अभ्यास से तपोयोगी अपने शरीर को इतना साध लेता है कि वह सर्दी-गर्मी के द्वन्दों को सहने में सक्षम बन जाता है' तथा शारीरिक सुखों के प्रति उसमें आकांक्षा नहीं रहती। जैन आगमों में तथा आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र में काय-क्लेश तप के अन्तर्गत अनेक आसनों का वर्णन किया गया है जिनके द्वारा तपोयोगी साधक अपने शरीर को चंचलतारहित, स्थिर और निश्चल बनाता है। उनमें से प्रमुख हैं-(१) कायोत्सर्गासन, (२) उत्कटिकासन, (३) पद्मासन, (४) वीरासन, (५) दण्डासन, (६) लगुडासन, (७) गोदोहिकासन, (८) पर्यंकासन, (९) वज्रासन आदि-आदि । . (१) कायोत्सर्गासन-सीधा तनकर दोनों एड़ियों को परस्पर मिलाकर अथवा चार अंगुल का अन्तर रखकर खड़ा होना । इसका दूसरा नाम खड्गासन भी है। १ यहाँ पातंजल योगसूत्र वर्णित अष्टांग योग के तृतीय अंग 'आसन' का समावेश हो जाता है । देखिए स्थिर सुखमासनम् । ततो द्वन्द्वानभिघातः। -योगसूत्र २/४६,४७ निश्चलतापूर्वक बैठना आसन है। आसन की सिद्धि से सर्दी-गर्मी आदि द्वन्द्वों का आघात नहीं लगता । सार यह है कि कायक्लेश तप के अन्तर्गत 'आसन-जय' की साधना पूर्ण हो जाती है । २ शरीरदुःखसहनार्थ शरीरसुखानभिवांछार्थ । -तत्त्वार्थसूत्र ६/१६ श्रुतसागरीया वृत्ति ३. विभिन्न आसनों के आगमिक सन्दर्भ के लिए इसी पुस्तक के सिद्धान्त खण्ड में 'जैन योग का स्वरूप' नामक अध्याय का 'जैन आगमों में आसन' शीर्षक देखिए ।' ४ हेमचन्द्राचार्य-योगशास्त्र ४/१२४-१३४ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाह्य तप : बाह्य आवरण-शुद्धि साधना २४५ (२) उत्कटिकासन-इस प्रकार बैठना जिसमें दोनों पैरों की एड़ियां नितम्बों से लगी रहें। (३) पद्मासन-बाँई जाँघ पर दायाँ पैर और दाईं जांघ पर बाँया पैर रखकर और हथेलियों को एक-दूसरी पर रखकर नाभि के नीचे रखना। (४) वीरासन-इसके दो प्रकार हैं--(१) बाँया पैर दाहिनी जाँघ पर और दायाँ पैर बाँई जांघ पर रखकर बैठना; और (२) कोई व्यक्ति जमीन पर पैर रखकर सिंहासन पर बैठा हो और उसके नीचे से सिंहासन निकाल लिया जाय तब जो उसकी मुद्रा बनती है, वह वीरासन है। (५) दण्डासन-जमीन पर सीधे इस प्रकार लेटना जिससे अंगुलियाँ, घुटने और पाँव जमीन से लगे रहें। . (६) लगुडासन-वक्र काष्ठ के समान भूमि पर लेटना। : (७) गोवोहिकासन-गाय दुहने की स्थिति में बैठना। (क) पर्यकासन-दोनों जंघाओं के निचले भाग पैरों के ऊपर रखने पर तथा दाहिना और बाँया हाथ नाभि के पास ऊपर दक्षिण और उत्तर रखने से पर्यंकासन होता है। ___(6) वज्रासन-वज्र की आकृति के समान दोनों हाथ पीछे रखकर, दोनों हाथों से पैरों के अंगूठे पकड़ने पर जो आकृति बनती है वह वज्रासन है। विभिन्न आसनों के अतिरिक्त औपापतिक सूत्र में मासिक प्रतिमाएँ आदि स्वीकार करना, सूर्य आदि की आतापना लेना, देह को कपड़े आदि से न ढंकना, खुजली चलने पर भी देह को न खुजलाना, थूक आने पर भी नहीं थूकना, देह के सभी संस्कार, सज्जा, विभूषा आदि न करना भी कायक्लेश तप के प्रकारों में गिनाये गये हैं।' ...... इस प्रकार विभिन्न प्रकार के आसनों तथा शारीरिक साधनाओं द्वारा तपोयोगी अपने स्थूल शरीर को साधता है । कायक्लेश तप में तपोयोगी दो प्रकार के कष्ट सहन करता है-(१) प्राकृतिक; और (२) स्वेच्छा से ग्रहण किये हुए । सर्दी-गर्मी आदि के कष्ट तो प्राकृतिक हैं, और आसन, केशलोच, आतापना आदि के कष्ट स्वेच्छा से स्वीकृत हैं। १. औपपातिक सूत्र, तपोऽधिकार, सूत्र ३० Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ जैन योग : मितान्त र साधना ये दोनों प्रकार के कष्ट सामान्य मनुष्य को तो कष्टकर और दुःसह प्रतीत होते हैं किन्तु तपोयोगो साधक अपने शरीर को इतना साध लेता है कि ये कष्ट उसे पीड़ित नहीं करते । उसकी क्षमता इतनी विकसित हो जाती है कि वह इन कष्टों से प्रभावित भी नहीं होता, न उसको शारीरिक और मानसिक तनाव ही आता है और न पीड़ा की अनुभूति ही होती है । लेकिन विचारणीय तथ्य यह है कि क्या स्थूल (औदारिक) शरीर को साधने से ही तपोयोगी साधक की क्षमता विकसित हो जाती है कि उसे कष्टों की, पीड़ा की अनुभूति ही न हो; क्योंकि अनुभूति तो स्थूल शरीर को होती ही नहीं, यह तो माध्यम है; अनुभूति तो तेजस् और प्राणमय शरीर के माध्यम से आत्मा ही करता है। अतः यह मानना अधिक उचित होगा कि तपोयोगी साधक स्थूल शरीर के साथ-साथ तैजस शरीर को भी साधता है। और तैजस अथवा प्राणमय शरीर को साधने का माध्यम है प्राण । वह प्राणायाम की साधना द्वारा ही तैजस शरीर को साधता है, उसे कष्टसहिष्ण बनाता है। जिससे कि वह (तैजस शरीर) कष्ट की अनुभूतियों से प्रभावित न हो और उन कष्टप्रद अनुभूतियों को आत्मा तक न पहुँचावे । इसीलिए तपोयोगी साधक प्राणायाम की साधना करता है। __ आचार्य हेमचन्द्र' ने प्राणायाम को मनोविजय का साधन और आचार्य शुभचन्द्र ने इसे ध्यान की सिद्धि तथा मन को एकाग्र करने के लिए आवश्यक बताया है तथा इसकी फलश्रु ति में कहा गया है यह शरीर (स्थूल और सूक्ष्म दोनों शरीर) की शुद्धि करता है। प्राण श्वास-प्रश्वास की गति, उसका आयाम-विच्छेद-अवरोध करना प्राणायाम है। प्राण, अपान, उदान, समान और व्यान-इन पांच प्रकार की वायुओं पर विजय प्राप्त करना, यह प्राणायाम है। प्राणायाम के रेचक, पूरक और कुम्भक ये तीन भेद हैं-नाभि प्रदेश में स्थित वायु को नासिका. रन्ध्र से बाहर निकालना रेचक; बाहर के वायु को बलपूर्वक नासारन्ध्र से १ योगशास्त्र ५/१ २ ज्ञानार्णव २६/१-२ ३ योगशास्त्र ५/३२-३५ ४ (क) तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः । (ख) योगशास्त्र ५/४ ___-पातंजल योगसूत्र २/४६ ५ योगशास्त्र ५/१३-४१ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाह्य तप : बाह्य आवरण-शुद्धि साधना २४७ भीतर खींचना पूरक; और आकृष्ट वायु को बलपूर्वक शरीर के अन्दर किसी भी विशिष्ट स्थान पर रोकना कुम्भक है।' जैन विचारणा में प्रत्येक क्रिया पर द्रव्य और भाव दोनों दृष्टियों से विचार किया गया है और द्रव्य की अपेक्षा भाव को अधिक महत्त्व दिया है। तथा अध्यात्म मूलक तपोयोग में भाव का स्थान भी विशेष है।' भाव या अध्यात्मपरक दृष्टि से बाह्य भाव का त्याग-रेचक, अन्तर्भाव की पूर्णता- . पूरक; और समभाव में स्थिरता-कुम्भक है। इस प्रकार आसन और प्राणायाम के अभ्यास से तपोयोगो साधक अपने शरीर (स्थूल और सूक्ष्म) को साध लेता है। इस तप की साधना से साधक को विभिन्न प्रकार के लाभ होते हैं। उनमें से कुछ प्रमुख लाभ हैं (१) शारीरिक ताजगी और मानसिक शान्ति प्राप्त होती है। (२) कष्टसहिष्णुता और सहनशक्ति बढ़ती है। (३) मांसपेशियों में लचीलापन आता है। (४) रक्त संचालन यथोचित सीमा में रहता है; न कम, न ज्यादा। (५) हड्डियों में लचीलापन रहता है । (६) थकान की अनुभूति कम होती है। (७) शारीरिक और मानसिक क्षमता में वृद्धि होती है। (८) शरीर की गन्दगी साफ हो जाती है। (8) श्वास क्रिया पर नियंत्रण स्थापित हो जाता है। आदि-आदि....' संक्षेप में तपोयोगी कायक्लेश तप की साधना से काययोग पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लेता है। (६) प्रतिसंलीनता सप : अन्तर्मुखी बनने की साधना संलीनता का अर्थ है-पूर्ण रूप से लीन होना और प्रति-किसी का वाच्य शब्द है । किसके प्रतिसंलीनता ? आत्मा के प्रतिसंलीनता। प्रतिसंलीनता शब्द का निर्वचन इस प्रकार किया भी जा सकता है-प्रति-विपरीत, सलीनता-भली प्रकार लीन होना अर्थात् अब तक जो इन्द्रिय, योग बाह्य प्रवृत्तियों में लीन थे, उनकी वृत्ति को विपरीत करके, मोड़कर अन्तमुख बनाना, आत्माभिमुख करना, आत्मा में लगाना। योगदर्शन में जो भाशय 'प्रत्याहार' से व्यक्त किया गया है, वही अभिप्राय प्रतिसंलीनता से प्रकट होता है। १ यहाँ कायक्लेश तप में ही अष्टांग योग के चौथे अंग प्राणायाम का समावेश हो जाता है। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ जैन योग : सिद्धान्त और साधना __अतः प्रतिसंलीनता तप का वाच्यार्थ हुआ-आत्म-रमणता, आत्माभिमुख होना, अन्तमुखी बनना, आत्मा में पूर्ण रूप से लीन होना। तपोयोगी साधक इस तप की साधना द्वारा अपनी बृत्ति-प्रवृत्तियों को अन्तर्मुखी बनाकर आत्माभिमुख होता है । भगवती' और औपपातिक सूत्र में इसे प्रतिसंलीनता कहा है तथा उत्तराध्ययन और तत्वार्थसत्र में इसे विविक्तशय्यासन कहा गया है। अनेक ग्रन्थों में इसका नाम संलीनता, प्रतिसंलीनता और विविक्त शय्याविविक्त शय्यासन मिलता है। किन्तु ये सभी नाम एकार्थवाची हैं, एक ही भाव को प्रगट करते हैं। भगवती में प्रतिसंलीनता तप के चार भेद बताये हैं(१) इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता (२) कषाय-प्रतिसंलीनता (३) योग-प्रतिसंलीनता (४) विविक्त-शयनासन सेवना इन्द्रिय प्रतिसंलीनता तप को साधना इन्द्रियाँ ५ हैं और उनके विषय २३ हैं। श्रोत्रेन्द्रिय का विषय शब्द है। चक्षु-इन्द्रिय का विषय हैं रूप-यह रूपवान दृश्य और पदार्थों को देखती है। घ्राण इन्द्रिय सुगन्ध-दुर्गन्ध को ग्रहण करती है। रसना इन्द्रिय रसों का आस्वादन करती है। स्पर्श इन्द्रिय शीत-उष्ण, मृदु-कठोर आदि विभिन्न प्रकार के स्पर्शों का ज्ञान करती है। ___ अनादिकालीन संस्कारों के कारण ये इन्द्रियाँ संसाराभिमुखी होकर अपने-अपने विषयों की ओर दौड़ रही हैं। इनकी प्रमुख प्रवृत्ति बाह्याभिमुखी है, विषयों में सुख लेने की है। - इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता तप की आराधना करता हुआ तपोयोगी साधक १ भगवती २५/८०२ । २ उत्तराध्ययन ३०/२८ ३ तत्वार्थ सूत्र ६/१६ ४ (क) भगवती २५/७ (ख) औपपातिक सूत्र, तपोऽधिकार, सूत्र ३० ५ औपपातिक सूत्र, तपोऽधिकार, सूत्र ३० Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाह्य तप: बाह्य आवरण शुद्धि साधना २४६ इन्हें इनके विषयों की ओर जाने से रोककर बाह्याभिमुखी से अन्तर्मुखी बनाता है, आत्मा की ओर मोड़ता है । ऐसा वह दो प्रकार से कर सकता है (१) इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किये हुए विषयों में राग-द्वेष न करे, उनमें मन को न जोड़े । (२) इन्द्रिय-विषयों को ग्रहण ही न करे । इनमें से प्रथम भूमिका प्रवृत्ति की है और द्वितीय भूमिका निवृत्ति की हैं । जिस समय तपोयोगी साधक प्रवृत्ति करता है, उस समय यह सम्भव ही नहीं कि उसे कर्णकटु और कर्णप्रिय शब्द सुनाई ही न पड़ें, सुन्दर-असुन्दर दृश्य दिखाई ही न दें, सुगन्ध या दुर्गन्ध का अनुभव ही न हो, अथवा शीतलताकठोरता का स्पर्शं ही न हो । संक्षेप में सभी इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों को ग्रहण करती ही हैं । किन्तु तपोयोगी साधक उनमें हर्ष - विषाद नहीं करता, राग-द्वेषात्मक वृत्तियों को नहीं जोड़ता, इन द्वन्द्वात्मक स्थितियों में - इन्द्रिय-विषयों में सम और उदासीन रहता है । दूसरी स्थिति निवृत्ति की है, चित्त की एकाग्रता की है । यह ऊँची स्थिति है । जब साधक का चित्त एकाग्र हो जाता है तो वह इन्द्रिय-विषयों को ग्रहण ही नहीं करता। वह सुनकर भी नहीं सुनता, देखकर भी नहीं देखता, — इसी प्रकार पाँचों इन्द्रियों के विषयों को ग्रहण ही नहीं करता । --- इस स्थिति में साधक अभ्यास के उपरान्त पहुँचता है, अथवा सतत अभ्यास से साधक को यह स्थिति प्राप्त होती है । इस स्थिति में उसकी इन्द्रियाँ अपने सम्बन्धों से असंयुक्त होकर साधक के चित्त के स्वरूप में तदाकार हो जाती हैं और फिर उस योगी की इन्द्रियाँ उसके वश में हो जाती हैं । ' जब तपोयोगी साधक इस स्थिति में पहुँच जाता है, इस स्थिति को प्राप्त कर लेता है तो उसकी इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता तप की आराधना पूर्ण हो जाती है । १ 'प्रतिसंलीनता तप' के प्रथम विभाग 'इन्द्रिय- प्रति संलीनता तप' में अष्टांग योग के पाँचवे अंग 'प्रत्याहार' का अन्तर्भाव हो जाता है जैसा कि पातंजल योगसूत्र के निम्न सूत्रों से प्रगट होता है— स्वविषयासंप्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः । ततः परमावश्यतेन्द्रियाणां । - पातंजल योगसूत्र २/५४-५५ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० जना योग : सिदान्त और साधना कषाय प्रतिसंलीनता तप .. कषाय चार हैं- (१) क्रोध, (२) मान, (३) माया, (४) लोभ । कषाय ही जन्म-मृत्यु रूप संसार-परिभ्रमण का मुख्य कारण हैं ।' देशोनकोटि पूर्व तक महान साधना करके जो फल प्राप्त किया जाता है, वह संपूर्ण उपलब्ध फल अन्तमुहूर्त की कषाय द्वारा ही भस्म हो जाता है। __ कषाय अन्तर् की ज्वाला है, भीषण अग्नि है, आध्यात्मिक दोष है। यह अग्नि ठंडी भी है और गरम भी है। माया और लोभ को कषायाग्नि ठंडी है तथा क्रोध और मान की अग्नि गरम है, धधकती ज्वाला है । लेकिन ठंडी और गरम दोनों ही प्रकार की आग आत्मा को परितप्त करती है। - इसीलिए तपोयोगी साधक कषाय प्रतिसंलीनता तप की आराधना द्वारा कषायों पर विजय प्राप्त करता है। कषायों को विजय करने अथवा कषाय-प्रतिसंलीनता तप की आराधना के दो प्रकार हैं (१) कषायों के उदय (आते हए आवेग) का निरोध करना; तथा (२) उदय में आये हुए कषायों को विफल (व्यर्थ-असफल) कर देना। कषाय-प्रतिसंलीनता तप के कषायों के आधार पर चार भेद हैं(१) क्रोध-कषाय प्रतिसंलीनता तप (२) मान-कषाय प्रतिसंलीनता तप (३) मायाकषाय प्रतिसंलीनता तप (४) लोभकषाय प्रतिसंलीनता तप तपोयोगी साधक क्रोध कषाय पर उपशम भाव से, मान पर मृदुता से, माया पर ऋजुता से और लोभ कषाय पर संतोष भाव से विजय प्राप्त करता है। १ आचारांग नियुक्ति १८६ २ जं अज्जियं चरितं देसुण्णए वि पुवकोडीए । __तं पि कसायमेत्तो नासेइ नरो मुहुत्तणं ॥ -निशीथभाष्य २७६३ ३ कोहं च माणं च तहेव मायं, लोभं घउत्थं मज्झत्थदोसा। -सूत्रकृतांग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध, वीरस्तव छठा अध्ययन, 'गाथा २६ ४ औपपातिक सूत्र, तपोऽधिकार, सूत्र ३० ५ उवससेण हणे कोहं, माणं महवया जिणे । मायं चऽज्जवभावेण, लोभं संतोसिओ जिणे ॥ -दशर्वकालिक सूत्र-८/३८ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाह्य तप : बाह्य आवरण-शुद्धि साधना २५१ इन सैद्धान्तिक उपायों के साथ-साथ तपोयोगी साधक कषायों पर विजय प्राप्त करने के कुछ व्यावहारिक साधन भी अपनाता है। उदाहरणार्थ-जब क्रोध का वेग मन में आता है तो वह तुरन्त अन्तमुखी बनकर उस वेग को तटस्थ द्रष्टा के रूप में देखता है, उसकी प्रेक्षा करता है। किन्तु उसमें अपने आप को संयोजित नहीं करता । इस प्रकार क्रोध का वेग निर्बल होकर उपशांत हो जाता है। दूसरा उपाय साधक यह करता है कि क्रोध के स्वरूप तथा उसके कट परिणामों पर चिन्तन करने लगता है। इससे भी क्रोध उपशान्त हो जाता है। मान कषाय पर विजय प्राप्त करने के इच्छक तपोयोगी को अनित्य और अशरण भावना का चिन्तन लाभकारी है। साथ ही अपने अहं अथवा मान कषाय के आवेग के उपशमन के लिए अपने से ज्ञान, चारित्र आदि में उच्च व्यक्तियों का, जैसे पंच परमेष्ठी का चितन करता है। इसके अतिरिक्त वह छोटे-बड़े का भेद भाव हृदय से दूर करके सबको समान मानता है, समत्व भाव का विचार करता है। इस प्रकार वह मान के वेग-मान कषाय पर विजय प्राप्त करता है। माया कषाय के विजय के लिए तपोयोगी ऋजुता/ऋजुयोग की साधना करता है । हृदय की सरलता, निष्कपटता, निश्छलता से ही माया कषाय पर साधक विजय प्राप्त करता है। लोभ कषाय की विजय के लिए साधक के पास सर्वोत्तम उपाय इच्छाओं का संयम और यथालाभ संतोष भाव है। इन उपायों से सपोयोगी साधक कषायों के आवेग को रोक कर तथा उन आवेगों को विफल करके कषाय प्रतिसंलीनता तप की आराधना करता है और आन्तरिक दोषों से मुक्त होकर मानसिक तथा शारीरिक शान्ति प्राप्त करता है। योगप्रतिसंलीनता तम मन, वचन और काया-ये तीनों प्रवृत्ति के निमित्त हैं अतः योग कहे गये हैं । अकुशल मन तथा वाणी का निरोध करना, मन और वचन की कुशल प्रवृत्ति; एवं काय तथा शरीर के विभिन्न अवयवों की कुचेष्टा तथा १ इन भावनाओं पर विशद चिन्तन इसी पुस्तक के 'भावना योग साधना' नामक अध्याय में किया जा चुका है। -संपादक Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ जन योग : सिद्धान्त और साधना व्यर्थ चेष्टा का निरोध और हाथ-पैर आदि सभी अंग-उपांगों को सुस्थिर कर, कछुए के समान अपनी सभी इन्द्रियों को गुप्त करके सुसमाहित होना, निश्चल होना, योग प्रतिसंलीनता है।' तपोयोगी साधक के लिए योग प्रतिसंलीनता तप की कुछ भूमिकाएं हैं। मनोयोग प्रतिसंलीनता तप की-(१) अकुशल मन का निरोध, (२) कुशल मन की प्रवृत्ति, और (३) मन की एकाग्रता-ये तीन भूमिकाएँ हैं। इसी प्रकार वचनयोग प्रतिसंलीनता तप की भी तीन भूमिकाएं हैं(१) अकुशल वचन का निरोध, (२) कुशल वचन की प्रवृत्ति और (३) वचन की एकाग्रता अथवा मौन । काययोग प्रतिसंलीनता तप की भी तीन भूमिकाएँ हैं-(१) काय का अप्रशस्त प्रवृत्ति का निरोध, (२) प्रशस्त प्रवृत्ति करना और (३) काय की स्थिरता। योग प्रतिसंलीनता तप की आराधना करता हुआ साधक मन-वचनकाय-इन तीनों योगों को सुसमाहित करता है। मनोयोग को साधना-मन सामान्यतः चंचल रहता है, वह स्थिर तो सिर्फ एकाग्र होने पर ही होता है; अन्यथा साधारणतया तो वह विभिन्न प्रकार के संकल्प-विकल्पों में ही उलझा रहता है। यहाँ तक कि जब मनुष्य निद्रा ले रहा होता है तब भी वह कल्पना लोक के, दुनिया भर के सैर-सपाटे कर रहा होता है जिसका प्रतिबिम्ब स्वप्न के रूप में प्रगट होता है। संसाराभिमुख और विषय-कषायों में अनादिकाल से प्रवृत्त होने के कारण मन की प्रवृत्ति सामान्यतया अप्रशस्त रहती है। शुभ या प्रशस्त प्रवृत्ति तो बहुत ही कम यदा-कदा होती है। तपोयोगी साधक सर्वप्रथम मन की अकुशल प्रवृत्ति का निरोध करता है, किन्तु मन बिना किसो आलम्बन के टिकता नहीं, प्रवृत्ति करना उसका स्वभाव है, इसलिए साधक उसे कुशल प्रवृत्ति में लगाता है और फिर कुशल १ (क) औपपातिक सूत्र, तपोऽधिकार, सूत्र ३०. (ख) भगवती सूत्र (२५/७) में मन-वचन-योग प्रतिसंलीनता तप में दो बातें और बताई गई हैंमणस्स वा एगत्तीभावकरणं-वइए वा एगीभावकरणं । Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. बाह्य तप : बाह्य आवरण-शुद्धि साधना २५३ प्रवृत्ति से हटाकर उसे किसी एक ध्येय अथवा आलंबन पर स्थिर करता है, एकाग्र करता है। सद्प्रवृत्ति के अभ्यास से शिक्षित हुए मन को ही एकाग्र किया जा सकता है। जैसे जंगल से पकड़े हुए बन्दर को शिक्षित करने के बाद ही मदारी उससे अपनी इच्छानुसार काम करवा सकता है, उसी प्रकार तपोयोगी साधक भी शिक्षित मन को किसी एक आलम्बत पर टिका सकता है, स्थिर कर सकता है। यह आलम्बन कोई भी हो सकता है, यथा-पुद्गल स्कन्ध, शरीर का कोई अवयव, कोई रूप अथवा श्वास-प्रश्वासप्रेक्षा । किसी भी वस्तु को तटस्थ द्रष्टा के रूप में सतत देखने के अभ्यास से मन स्थिर हो जाता है। - इसी प्रकार तपोयोगी साधक वचनयोग की साधना करता है। सर्वप्रथम वह अनिष्टकारी, मर्मवेधी, कठोर, निष्ठुर, हिंसाकारी भाषा से बचने का अभ्यास करता है और प्रयत्नपूर्वक मिष्ट, सर्वसाताकारी, हितकारी भाषा बोलता है। इस प्रकार अकुशल वचनयोग के निरोध तथा कुशल वचन के प्रयोग में शिक्षित और अभ्यस्त होकर साधक मौन का अवलम्बन लेता है। इस प्रकार वह वचनयोग का संयम करता है । मौन के अवलम्बन से पूर्व साधक प्रशस्त मनोयोग में पूर्णतया अभ्यस्त हो जाता है अन्यथा मौन काल में दुर्विचार मन में आने की संभावना रहती है । तपोयोगी साधक इस विषय में विशेष सावधान और जागरूक रहता है। काययोग की साधना में साधक अपने संपूर्ण शरीर को स्थिर करने का अभ्यास करता है। वह शरीर की व्यर्थ चेष्टाएँ नहीं करता तथा साथ ही इन्द्रियों को भी गुप्त करता है। योगों को सावध योग में प्रवृत्ति करते ही समस्त अंग-उपांगों को कूर्म के सदृश संकुचित कर लेता है। इस प्रकार तपोयोगी साधक योग प्रतिसंलीनता तप की आराधना द्वारा तीनों योगों को अपने वश में कर लेता है। विविक्तशयनासन सेवना तपोयोगी साधक के लिए आवश्यक है कि वह एकान्त शान्त स्थान का सेवन करे, रहे। स्थान ऐसा हो जहां स्त्री, पशु, नपुसक न हों साथ ही वह स्थान निर्जीव हो' यानी घास आदि एकेन्द्रिय, कीड़े-मकोड़े आदि त्रस जीवों से संकुलित न हो। १ एगंतमणावाए, इत्थी पसु विवज्जए। सयणासण सेवणया, विविक्त सयणासणं ।। -उत्तराध्ययन ३०/२८ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ जैन योग : सिद्धान्त और साधना साधु यानी गृहत्यागी श्रमण साधक तो अनिकेत होता है, वह अपने आवास निवास के लिए विवेकपूर्वक स्थान की तलाश करता है; किन्तु गृहस्थ योगी साधक को भी विविक्त शयनासन का सेवन करना चाहिए । विविक्त शयनासनसेवना के विषय में ध्यानशतक में एक गाथा प्राप्त होती है निच्चं चिय जुवइ पसु नपुंसक कुसील वत्रियं जइणो । ठाणं वियणं भणियं विसे सओ झाणकालम्मि || -ध्यानशतक ३५ अर्थात् - साधक सदा युवती, पशु, नपुंसक तथा कुशील ( दुःशील ) व्यक्तियों से रहित विजन ( जन-रहित ) स्थान में रहे, विशेषतः ध्यान काल में तो विजन स्थान में ही रहे । विविक्त शयनासनसेवना का बहुत बड़ा वैज्ञानिक आधार है । यहाँ साधक को स्त्री, पशु, नपुंसक और कुशील व्यक्तियों से रहित, एकांत, शांत स्थान में निवास और ध्यान का जो आदेश दिया गया है, वह सर्वथा उचित और विज्ञानसम्मत है । शास्त्रीय (जैन ग्रन्थों की) भाषा में यह सम्पूर्ण संसार परिणमन का संसार है; यहाँ प्रत्येक द्रव्य परिणमन कर रहा है; और आधुनिक विज्ञान की भाषा में यह सम्पूर्ण जगत विकीरणों, प्रकम्पनों और तरंगों का संसार है । यहाँ प्रकाश की तरंगें हैं, विद्युत तरंगें हैं, ध्वनि तरंगें हैं, रेडियोधर्मी तरंगें हैं और भी अनेक प्रकार की तरंगें हैं । ये तरंगें सम्पूर्ण सृष्टि में फैली हुई हैं । अचेतन द्रव्य (पुद्गल) की भी तरंगें हैं और चेतन द्रव्य की भी तरंगें हैं । चेतन द्रव्य (पशु-पक्षी, मनुष्य) के मनोभावों- मनोविकारों सदसद्भावनाओं की तरंगें, इन सभी प्रकार की तरंगों में सर्वाधिक शक्तिशाली हैं । इसीलिए वे प्रकम्पन ( vibration ) भी अधिक उत्पन्न करती हैं और वातावरण को तथा दूसरे व्यक्तियों को भी शीघ्र प्रभावित करती हैं । वैज्ञानिक शोधों से यह सिद्ध हो गया है कि सामान्य मनुष्य के विद्युत शरीर (Electric body – तेजस् शरीर ) से विकीर्ण होने वाली मानवीय विद्युत तरंगें, ( Man Electric Waves) उसके स्थूल शरीर से ६ इन्च बाहर तक निकलती रहती हैं । अतः जिस स्थान पर मनुष्य बैठता है, उसको भी ये तरंगें प्रभावित करती हैं और वहाँ स्थित पुद्गल स्कन्धों में भी तीव्र प्रकम्पन होता है, उन प्रकम्पनों से सम्पूर्ण वातावरण प्रभावित हो जाता है । यदि Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाह्यत: बाह्य आवश्य-शुद्धि साधना २५.५ व्यक्ति पूर्ण स्वस्थ हो और उसकी मनोभावनाओं का आवेग तीव्र हो तो उसकी मानवीय विद्युत तरंगों का विकिरण २ व ३ ( ढाई-तीन फीट) तक हो सकता है और उतनी ही अधिक मात्रा में वातावरण भी प्रभावित होता है । चूँकि स्त्री में स्त्री हारमोन्स (Female harmones) निःसृत होते हैं और वे पुरुष हारमोन्स ( Male harmones) को अधिक मात्रा में आकर्षित / प्रभावित करते हैं, इसलिए साधक को स्त्री - संपृक्त स्थान में रहने का आगमों में निषेध किया गया है । इतना विशेष है कि युवती स्त्री में स्त्री हारमोन्स अधिक मात्रा में बनते हैं और वृद्धा स्त्रो में इनकी मात्रा कम हो जाती है, इसलिए ध्यानशतक तथा आगमों की (उत्तराध्ययन सूत्र आदि की टीका ) टीका में स्त्री का अर्थ प्रायः युवती किया गया है । फिर भी स्त्री शब्द में नारी मात्र का समावेश है । नपुंसक की काम वासना का दृष्टान्त तो आगमों में नगर - दाह से दिया गया है, उसकी काम वासना भी अति तीव्र होती है, उसकी विचार तरंगें प्रायः वासनाप्रधान रहती है अतः उससे संपृक्त स्थान में तो तपोयोगी को बिल्कुल भी नहीं बैठना चाहिए। पशुओं में राजसिक और तामसिक तरंगें होती हैं, सात्विक तरंगें नहीं होतीं, इसलिए तपोयोगी का स्थान उनसे भी रहित होना चाहिए। आसन आदि के प्रयोग के बारे में जो साधु के लिए यह विधान है कि 'जिस आसन पर स्त्री बैठी हो, विवशता होने पर भी साधु एक मुहूर्त के बाद ही उसका उपयोग करे' उसका कारण भी यही है कि स्त्री के विद्युत् शरीर से जो तरंगें निकलकर उस आसन के परमाणुओं को प्रकम्पित करती हैं, उसके आसन छोड़ने के एक मुहूर्त में वे परमाणु शान्त हो जाते हैं, उन पर हुआ विद्युत् तरंगों का प्रभाव समाप्त हो जाता है । कुशील व्यक्ति की दुर्भावनाओं से भी वातावरण दूषित और मलिन हो जाता है, इसीलिए साधक को उससे रहित स्थान पर रहना चाहिए । यद्यपि गृहत्यागी श्रमण तपोयोगी तो जीवन भर के लिए विविक्त शयनासन सेवन करता है, किन्तु जो गृहस्थ तपोयोगी साधक प्रतिसंलीनता तप की आराधना करता है, वह भी अपने आराधन और ध्यान काल में विविक्त शयनासन सेवन करे, यह अपेक्षित है । १ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ५, पृ० २५० Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ जन योग : सिवान्त और साधना इसीलिए गृहस्थ साधकों के लिए धर्मस्थान, उपासना गृह, चेत्य तथा पौषधशालाएँ और उपाश्रय आदि में जाकर धर्मसाधना एवं तपः-साधना की परम्परा रही है। बाह्य तपों से तपोयोगी को लाम अनशन, अवमौदरिका, वृत्तिपरिसंख्यान, रस-परित्याग, काय-क्लेश और प्रतिसंलीनता- इन छह बाह्य तपों की आराधना-साधना से तपोयोगी साधक को अनेक लाभ होते हैं (१) शरीर-सुखता की भावना का विनाश होता है । (२) इन्द्रियों का दमन होता है और उन पर नियन्त्रण स्थापित करने की क्षमता-सामर्थ्य प्राप्त होती है। (३) वीर्य शक्ति का सदुपयोग होता है। (४) तृष्णा का निरोध होता है । (५) कषायों का निग्रह होता है। (६) काम-भोगों के प्रति विरक्ति होती है। (७) लाभ-अलाभ, सफलता-विफलता, प्राप्ति-अप्राप्ति में हर्ष-शोक की भावना में कमी आती है। (८) समत्व भाव दृढ़ होता है। (९) प्रमाद और आलस्य में कमी आती है। (१०) शरीर में स्फूर्ति आती है। (११) मानसिक शक्तियाँ और क्षमताएँ विकसित होती हैं। (१२) बुद्धि में नई-नई स्फुरणाएँ उत्पन्न होती हैं । (१३) श्वास क्रिया पर नियन्त्रण होता है। (१४) आसन सिद्धि होती है। (१५) राग-द्वेष का उपशमन होता है। (१६) स्थूल और सूक्ष्म शरीर का शोधन होता है । (१७) तैजस् शरीर बलशाली होता है । उसका प्रभाव बढ़ता है। (१८) अन्तरंग तपों की साधना के लिए आधार भूमि तैयार होती है। (१६) चित्त-शुद्धि होती है। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाह्य तप : बाह्य आवरण-शुद्धि साधना २५७ (२०) मन के संकल्प-विकल्प और आवेग-संवेगों का उपशमन होता है। इस प्रकार तपोयोगी साधक बाह्य तपों की आराधना-साधना से बाह्य शुद्धि करके आन्तरिक शुद्धि की ओर-आभ्यन्तर तपों की ओर कदम बढ़ाता है । दूसरे शब्दों में, बाह्य तप, आभ्यन्तर तपों की आधार-भूमि प्रस्तुत करते हैं। तपोमार्ग पर गति करने वाले साधक के लिए बाह्य तपों की साधना आवश्यक है । बाह्य तपों से बाह्य आवरण-शुद्धि के बाद ही साधक आत्मशुद्धि के सोपान पर बढ़ पाता है। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपोयोग साधना-२ ११ आभ्यन्तर तप : आत्म-शुद्धि की सहज साधना - जिस प्रकार बाह्य तप आत्म-आवरणों-तैजस और औदारिक (सूक्ष्म एवं स्थूल-Electric and Material Body) शरीर की शुद्धि की प्रक्रिया है, -साधना है। उसी प्रकार आभ्यंतर तप आत्मशोधन, साथ ही साथ आत्मा के साथ संपृक्त, बद्ध कार्मण शरीर के शोधन की, उसे निजीर्ण करने की साधना है। आत्म-शोधन का अभिप्राय ही कार्मण शरीर-कर्मग्रंथियों का क्षय करना (annihilation) है, क्योंकि आत्मा की शुद्धि ही कामण शरीर के विनाश से होती है। कार्मण शरीर में राग-द्वेष-आभ्यन्तरिक दोष-क्रोध, मान, माया, लोभ, आदि की अवस्थिति होती है। मोह के कारण ही आत्मा अशुद्ध हो रहा है, उसको ज्ञान, दर्शन, चारित्रमय स्वाभाविक दशा विभावरूप में परिणत हो रही है शुद्ध ज्ञायक भाव विकृत हो रहा है। आभ्यंतर तपोयोगी साधक इन आभ्यंतर तपों की साधना, आराधना द्वारा इस कार्मण शरीर-राग-द्वष-मोह का विनाश करके, क्षय करके आत्मा की शुद्ध स्वाभाविक दशा प्राप्त कर लेता है, शुद्ध-बुद्ध-सिद्ध हो जाता है और अनन्त-अक्षय-अव्याबाध सुख में रमण करने लगना है, त्रैलोक्य और त्रिकाल का ज्ञाता-द्रष्टा बन जाता है। आभ्यंतर तपों की साधना में निरत साधक अपनी साधना-यात्रा प्रायश्चित्त-पापों के शोधन-आन्तरिक पापों के शोधन से शुरू करता है और देह विसर्जन-व्युत्सर्ग पर समाप्त करता है । दूसरे शब्दों में, योग (मन-वचनकाया-तीनों योग) शुद्धि से प्रारम्भ करके योग-निरुन्धन पर समाप्त करता रई,योग की पराकाष्ठा करके योगातीत हो जाता है। (१)प्रायश्चित्त तप : पाप-शोधन की साधना आभ्यंतर छह तपों में प्रायश्चित्त प्रथम तप है। प्रायश्चित्त है भूलशोधन-पाप शोधन की साधना । १ प्रायः पापं विनिर्दिष्टं चित्तं तस्य विशोधनम् । -धर्मसंग्रह ३, अधिकार Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभ्यंतर तप: आत्म-शुद्धि की सहज साधना २५६ प्रायश्चित्त का लक्षण राजवार्तिक में इस प्रकार दिया गया है'प्रायः' अपराध है और 'चित्त' का अभिप्राय है विशोधन; जिस प्रक्रिया अथवा साधना से अपराध की विशुद्धि होती है, वह प्रायश्चित्त है ।' प्राकृत भाषा में प्रायश्चित्त के लिए 'पायच्छित' का प्रयोग हुआ है । वहाँ भी 'पाय' का अर्थ पाप और उसको छेदन करने की प्रक्रिया को 'च्छित्त' बताया गया है | जो पाप का छेदन करता है, उसे नष्ट करता है, वह 'पायच्छित्त' है । " यद्यपि तपोयोगी साधक बाह्य तपों-विशेष रूप से प्रतिसंलीनता तप की साधना-आराधना में इन्द्रियों को वश में करता है, क्रोध-मान आदि कषायों पर विजय प्राप्त करने का प्रयास करता है, मन-वचन-काय के योगों की अशुभ प्रवृत्ति का निरोध करता है; फिर भी साधक की आत्मा अनादि काल से अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग से ग्रसित है, संसाराभिमुखी है; रोकते रोकते भी मन रूपी सारथी काया रूपी रथ को अशुभ मार्ग की ओर दौड़ाने की प्रवृत्ति कर बैठता है; साधक जरा भी असावधान हुआ, थोड़ा भी प्रमाद आया, लगाम ढीली हुई कि दुष्ट अश्व की भाँति मन कुमार्ग की ओर दौड़ा । यद्यपि साधक पूर्ण रूप से सावधान रहता है फिर भी प्रमाद के कारण कहीं न कहीं भूल हो ही जाती है, स्खलना हो जाती है । तपोयोग में निरत साधक अपनी भूलों को पहचानता है, उन्हें समझता है, जानता है और उनकी शुद्धि का प्रयास करता है तथा भविष्य में उन भूलों को न करने का दृढ़ संकल्प करता है । भूल अथवा पाप-शोधन की संपूर्ण प्रक्रिया प्रायश्चित्त है । तपोयोगी साधक इस प्रक्रिया द्वारा प्रायश्चित्त तप की साधना आराधना करता है । प्रायश्चित्त तप की आराधना के लिए आवश्यक है कि साधक का अन्तर्मानस सरल हो, पाप के प्रति उसके मन में घृणा व भय हो, और उसके अन्तर्हृदय में पाप-विशुद्धि की, अपनी आत्म-शुद्धि की तीव्र और उत्कट भावना हो, वही साधक प्रायश्चित कर सकता है । वही गुरु के समक्ष निष्कपट १ अपराधी वा प्रायः चित्तशुद्धिः । प्रायस् चित्तं - प्रायश्चित्तं - अपराधविशुद्धिः । - अकलंकदेवकृत तत्त्वार्थ राजवार्तिक ६ / २२/१ २ पावं छिदन्ई जम्हा पायच्छित्तं त्ति भण्णइ तेण । - पंचाशक सटीक विवरण Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६०. जैन योग । सिवान्त और साधना . . . . हृदय से अपने दोषों को प्रकट करके, उनकी शुद्धि के लिए प्रार्थना कर सकता है। प्रायश्चित्त तपाराधना के लिए साधक का हृदय सरल होना अनिवार्य है । सरल हुए बिना प्रायश्चित्त नहीं हो सकता। प्रायश्चित्त के भेद जैन आगमों में प्रायश्चित्त तप के सम्बन्ध में बहुत व्यापक दृष्टि से विचार किया गया है। साधक की सूक्ष्म से सूक्ष्म मनःस्थिति को पकड़कर प्रायश्चित्त के दस भेद व अनेक उपभेद बताये गये हैं। आलोचनाह, प्रतिक्रमणाह, मिच्छामि दुक्कडं आदि प्रायश्चित्त के विविध प्रकार हैं। प्रायश्चित्त का प्रथम भेद आलोचनाह और अन्तिम भेद पारांचिकाह है। आलोचनाह से लेकर पारांचिकाह तक के सभी प्रायश्चित्तों का उद्देश्य साधक को दंड देना नहीं, अपितु उसकी दोष-विशुद्धि का लक्ष्य है। 'मिच्छामि दुक्कड', जैन साधना में प्रयुक्त यह शब्द बहुत ही गुरु गंभीरो रहस्य को लिये हुए है। तपोयोगी साधक के लिए इस शब्द के रहस्य क जानना अति आवश्यक है । श्री भद्रबाहु स्वामी ने आवश्यकनियुक्ति में इस शब्द का निर्वचन करके इसके रहस्य को इस प्रकार स्पष्ट किया है 'मि' त्ति मिउमद्दवत्त, 'छ' ति दोसाण छादने होइ। "मि' त्ति अ मेराइ ठिओ 'दु' त्ति दुगंछामि अप्पाणं ।। 'क' ति कडं मे पावं 'ड' त्ति डवेमि तं उवसमेणं । एसो मिच्छा दुक्कड पयक्खरत्थो समासेणं ।। अर्थात्-'मि'कार मदुता से साधक अपने अन्तर्मानस को-कोमल तथा अहंकार रहित बनाता है, तथा 'छकार' से साधक दोषों का त्याग करता है, 'मि' कार से वह अपनी संयम मर्यादा को दृढ़ करता है, 'दु'कार से वह अपनी पाप करने वाली आत्मा की निन्दा करता है, 'क'कार द्वारा वह अपने कृत दोषों को स्वीकार करता है और 'ड'कार द्वारा वह उन दोषों का उपशमन करता है, उन्हें नष्ट करता है। . इस प्रकार तपोयोगी साधक 'मिच्छामि दुक्कडं' के उच्चारण के साथ हृदय में दोषों की स्वीकृति, आलोचना, एवं निन्दा करके प्रायश्चित्त तप की साधना करता है। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभ्यंतर तप : आत्म-शुद्धि की सहज साधना २६१ साथ ही यह भी है कि दोष कितना भी छोटा या बड़ा हो, उसकी शुद्धि हो सकती है, कोई भी दोष ऐसा नहीं है जिसकी शुद्धि न हो सके । (२) विनय तप : अहं विसर्जन की साधना आभ्यन्तर तप का दूसरा अंग है विनय । विनय से अहंकार विगलित होकर हृदय कोमल बन जाता है । गुरुजनों एवं अपने से छोटों - बड़ों के प्रति आदर बहुमान तथा सम्मान भाव तभी प्रदर्शित किया जा सकता है जब मन में समर्पण एवं भक्ति का अंकुर प्रस्फुटित हुआ हो । जैन आगमों में विनय के सात भेद' बताये गये हैं । (१) ज्ञान विनय, (२) दर्शन विनय, (३) चारित्र विनय, (३) मनोविनय, (५) वचन विनय, (६) काय विनय और (७) लोकोपचार विनय । (१) ज्ञानविनय - तपोयोगी साधक ज्ञान और ज्ञानी दोनों की विनय करता है । ज्ञानविनय से उसका ज्ञान निर्मल होता है और ज्ञान प्राप्ति की ओर उसका आकर्षण बढ़ता है । इसीलिए ज्ञानविनय के अन्तर्गत वह मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधि - ज्ञानी, मनः पर्यवज्ञानी और केवलज्ञानी की विनय करता है । १ (क) औपपातिक सूत्र, तपोऽधिकार, सूत्र ३० (ख) भगवती २५ / ७ (ग) स्थानांग सूत्र ७ / ५८५ (घ) तत्वार्थ सूत्र में विनय के चार प्रकार ही बताये हैंज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः । - तत्त्वार्थ सूत्र ९ / २३ (च) विनय के विशेषावश्यकभाष्य में ५ प्रकार बताये हैं— (१) लोकोपचार विनय- माता-पिता, अध्यापक आदि गुरुजनों का विनय, (२) अर्थ - विनय - धन के लिए सेठ आदि धनवानों, राजा, नेता, आदि का विनय, (३) कामविनय - काम-भोगों की इच्छापूर्ति के लिए स्त्री आदि का विनय, (४) भयविनय - प्राणरक्षा अथवा अपराध हो जाने पर उसका दण्ड न भोगना पड़े, इस उद्देश्य से राज्याधिकारियों तथा समाज प्रमुखों एवं असामाजिक तत्वों का विनय । (५) मोक्ष विनय - आत्मकल्याण हेतु सद्गुरुओं की विनय करना । इनमें से प्रथम विनय लोक व्यवहार तथा शिष्टाचार है, वह शुभ कर्मों का हेतु है । दूसरी, तीसरी, चौथी विनय, विनय न होकर चापलूसी है, अशुभ कर्मबन्ध का हेतु है। पांचवीं विनय ही वास्तविक विनय है, वही तप है। क्योंकि कर्मनिर्जरा का कारण है । -संपादक Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग : सिद्धान्त और साधना (२) वर्शन विनय - दर्शनविनय में साधक सम्यग्दृष्टि के प्रति विश्वास तथा सम्यग् दृष्टि सम्पन्न व्यक्तियों के प्रति आदरभाव प्रगट करता है । यह विनय वह दो रूपों में करता है - (१) शुश्रूषा (सेवा) विनय के रूप में और (२) अनाशातना विनय के रूप में । S २६२ (१) अरिहन्त, (२) अरिहन्त प्ररूपित धर्म, (३) आचार्य, (४) उपाध्याय, (५) स्थविर, (६) कुल, (७) गण, (८) संघ, (६) क्रियावन्त, (१०) सम आचार वाले, (११-१५) पाँच ज्ञान के धारक - इन पन्द्रह की आशातना न करना, बहुमान करना और स्तुति करना इस प्रकार अनाशातना विनय के ( १५ x २) ४५ भेद होते हैं । दर्शनविनय तप की आराधना करने वाला साधक ४५ प्रकार की अनाशातना विनय करता है । (३) चारित्र विनय - सामायिक चारित्र, आदि जो ५ प्रकार के चारित्र हैं, उन चारित्रों के धारक चारित्रनिष्ठ जो चारित्रात्मा हैं, उनके प्रति साधक विनय करता है, वह चारित्रविनय है । (४) मनोविनय - मन को अकुशल वृत्ति से हटाकर पवित्र भावों में लगाना । साधक अपने मन को सदा पवित्र भावों में लगाता है, इस प्रकार मनोविनय से वह मनः शुद्धि करता है । (५) वचन विनय - वचन विनय तप की साधना द्वारा साधक अप्रशस्त वचन का प्रयोग न करके प्रशस्त वचन का प्रयोग करता है । इस तप की साधना के प्रभाव से साधक के वचनयोग की शुद्धि होती है । (६) काय विनय - ठहरना, चलना, बैठना, सोना आदि जितनी भी कायिक क्रियाएँ साधक करता है, उनमें उसकी विनम्रता और सरलता ही प्रगट होती है, अकड़ अथवा अभिमान नहीं । साधक के मनोविनय का स्पष्ट रूप उसकी वचनविनय और काय - विनय में प्रगट होता है। तथ्य यह है कि मनोविनय की अभिव्यक्ति वचन और काय में होती है । मन, वचन और काय की विनय साधक की तेजस्विता को बढ़ाती है, तीनों योगों की सरलता और ऋजुता के कारण उसकी आध्यात्मिक और चारित्रिक उन्नति होती है, बड़ी सहजता से वह आत्मिक प्रगति के पथ पर बढ़ता है । Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभ्यंतर तप : आत्म-शुद्धि की सहज साधना . २६३ . (७) लोकोपचार विनय-माता-पिता, गुरु-बन्धु, मित्र, स्वजन आदि के साथ उनकी मर्यादानुकूल आचरण सद्व्यवहार तथा शिष्टाचार आदि, को लोकोपचार विनय कहते हैं। इस के सात भेद हैं-(१) अभ्यासवर्तित (गुरु आदि के सन्निकट रहना), (२) परछन्दानुवर्ती (गुरु जनों आदि वरिष्ठ जनों की इच्छानुसार कार्य करना), (३) कार्य हेतु (गुरु जनों के कार्यों में सहयोग देना), (४) कृत प्रतिकृत्य (गुरु आदि वरिष्ठ व्यक्तियों के उपकारों का स्मरण करके उनके प्रति कृतज्ञ रहना) (५) आतंगवेषणा (रोगी एवं अशक्त श्रमणों के लिए आहार आदि की गवेषणा करना), (६) देश काल ज्ञाता (देश और समय के अनुसार व्यवहार करना), (७) सर्वत्र अप्रतिलोमता (किसी के विरुद्ध आचरण न करना)। भगवान महावीर ने विनय को धर्म का मूल बताया है।' धर्म का मूल आधार होने से विनय तर है, निर्जरा का हेतु है। ___ साधक इन सातों प्रकार के विनय द्वारा अपने आचरण को, योगों को शुद्ध करता है। उसकी आन्तरिक और बाह्य दोनों प्रकार की शुद्धि होती. है । लोकोपचार विनय से उसकी स्वयं की प्रशंसा तो जगत में होती ही है, साथ ही धर्म संघ की भी प्रभावना होती है। अन्य पर-धर्मी व्यक्ति भी धर्म की ओर अभिमुख होकर आत्म-कल्याण में तत्पर होते हैं। (३) वैयावृत्य तप : समर्पण की साधना वैयावृत्य का अभिप्राय है-पूर्णतया समर्पण । सेवा और वैयावृत्य में, बहुत बड़ा अन्तर है। निःस्वार्थ सेवा करते हुए भी व्यक्ति में इतना विचार तो रहता ही है कि 'मैं अमुक की सेवा कर रहा हूँ, या 'मुझे अमुक की सेवा करनी चाहिए;' अथवा 'सेवा करना मेरा कर्तव्य है।' किन्तु सेवा वयावृत्य तब बनती है जब उसके ये विचार तिरोहित हो जाते हैं, वह सेवा में तन्मय हो जाता है, उसे अपने आप का भी भान नहीं रहता। ऐसी सेवा ही तप की कोटि में आती है, वैयावृत्य तप कहलाती है और कर्म-निर्जरा का हेतु बनती है। तपोयोगी साधक वैयावृत्य तप की साधना उसमें तल्लीन और तन्मय होकर करता है । और जब उसे उत्कृष्ट तन्मयता (रसायन) आ जाता है, वैयावृत्य करते समय बाह्य भावों से विरत होकर, सुख की अनुभूति करने लगता है तब उसे तीर्थ कर नाम कर्म का बंध भी हो सकता है। १ धम्मस्स विणओ मूलं । -दशवकालिक ६/२/२१ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जैन योग : सिद्धान्त और साधना णायाधम्मकहाओ' में तीर्थंकर गोत्र बन्ध के जो २० कारण बताये हैं, उनमें से आठ वैयावृत्य से संबंधित है-अरिहंत, सिद्ध, प्रवचन, गुरु, स्थविर, ज्ञानी, तपस्वी को भक्ति और संघ को समाधि पहुँचाना । ___ तपोयोग की दृष्टि से यहाँ 'भक्ति' या 'वल्लभता' शब्द का अर्थ तल्लीनता है। भक्तियोग की साधना में भी भक्त अपने इष्टदेव के प्रति तन्मय हो जाता है, अपना स्वयं का भान भूल जाता है। यही बात वैयावृत्य तप के बारे में लागू होती है। तपोयोगो साधक वैयावृत्य करते समय उसी में तल्लीन और तन्मय हो जाता है । - स्थानांग, भगवती, औपपातिक आदि आगमों में वैयावृत्य तप के दस भेद बताए हैं-(१) आचार्य (२) उपाध्याय (३) स्थविर, (४) तपस्वी, (५) रोगी, (६) नवदीक्षित मुनि (७) कुल, (८) गण (९) संघ, (१०) सार्मिक की सेवा भक्ति एवं वैयावृत्य करना। तपोयोगी साधक इन सबकी वैयावृत्य करके महान कर्म निर्जरा करता है। (४) स्वाध्याय ता : स्वात्मसंवेदन ज्ञान की साधना आचार्य अभयदेव ने स्वाध्याय शब्द का निर्वचन करते हुए इसका लक्षण दिया है-" 'सु'-सुष्छु, भलीभांति, 'आङ'-मर्यादा के साथ अध्ययन को स्वाध्याय कहा जाता है । आवश्यकसूत्र में श्रेष्ठ अध्ययन को स्वाध्याय कहा है। कुछ विद्वानों ने स्वाध्याय का लक्षण इस प्रकार भी दिया है'स्वयमध्ययनं स्वाध्यायः' अन्य किसी को सहायता बिना अध्ययन करना और अध्ययन किये हुए विषय का मनन एवं निदिध्यासन करना। स्वस्यास्मनोऽध्ययनम्-अपनी आत्मा का अध्ययन करना। स्पेन स्वस्य अध्ययनंस्वाध्याय :-स्वयं द्वारा स्वयं का अध्ययन करना।" mr. १ णायाधम्मकहाओ, अज्झयण ८, सुत्त १४ २ स्थानांग, स्थान १० ३ भगवती, २५/७ ४ औपपातिक सूत्र, तपोऽधिकार, सूत्र ३० ५ स्थानांग २/२३० ६ अध्ययन अध्यायः शोभनो अध्यायः स्वाध्यायः । ७ जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप, पष्ठ ५८५ -आवश्यक सूत्र ४ अ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यंतर तप : आत्म-शुद्धि को सहज साधना २६५ तपोयोगी साधक श्रेष्ठ तथा आत्म-कल्याण के मार्गदर्शक ग्रंथों का भी स्वाध्याय करता है और एकान्त-शांत स्थान पर बैठकर अध्ययन किये हुए विषय का चिन्तन, मनन तथा निदिध्यासन भी करता है। साथ ही अपनी आत्मा के विषय में विचार करता है, स्वात्मा को जानने का प्रयास करता है, गुरु से अथवा ग्रंथों से सीखे ज्ञान को स्वात्मसंवेदन ज्ञान के रूप में परिणत करता है, आत्मा के ज्ञायक स्वभाव तथा ज्ञान-दर्शन-चारित्र-सुख-वीर्य रूप आत्मिक गुणों का स्वसंवेदन करता है। स्वाध्याय तप तब सफल होता है, जब तपोयोगी साधक समस्त विकारों और विभावों से दूर होकर आत्मा के ज्ञान गुण में स्वाद लेने लगता है, उसमें उसे सुख की अनुभूति होने लगती है। स्वाध्याय तप की साधना में निरत साधक इस स्थिति में पहुँचकर मन-बुद्धि-चित्त और इन्द्रियों से परे हो जाता है, अपनी आत्मा के ज्ञानमय स्वरूप का आनन्द लेने लगता है। वैदिक परम्परा में इस स्थिति का नाम ही विज्ञानमय कोष में साधक की अवस्थिति है। स्वाध्याय के भेद अथवा अंग शास्त्रों में स्वाध्याय के ५ भेद अथवा अंग बताये गये हैं, जो इस प्रकार है (१) वाचना-तपोयोगी साधक सद्गुरुदेव से सूत्र पाठ की वाचना लेता है तथा उनके उच्चारण के समान ही उच्चारण करता है। वह हीनाक्षर, अत्यक्षर, घोषहीन, पदहीन आदि दोषों से बचता है। स्वयं भी जब सूत्रपाठों तथा धर्मग्रन्यों का अभ्यास और स्वाध्याय करता है तब भी उच्चारण आदि के दोष नहीं लगाता, पाठ को समझते हुए वाचना करता है। (२) पृच्छना-जब साधक स्वाध्याय करता है तो उसके मन में विभिन्न प्रकार के प्रश्न उठते हैं। उन प्रश्नों का समाधान वह गुरुदेव से करता है, और विषय को हृदयंगम करता है। (३) परिवर्तना-सोखे हए ज्ञान की परिवर्तना आवश्यक है, अन्यथा वह ज्ञान विस्मृति के गर्भ में समा जाता है। अतः साधक अपने सीखे हुए ज्ञान को बार-बार दुहराता है । इससे उसका ज्ञान सदा ताजा बना रहता है । (४) अनुप्रेक्षा-अनुप्रेक्षा का अर्थ है चिन्तन-मनन । साधक अपने गृहीत ज्ञान पर बार-बार चिन्तन-मनन करता है, गहराई से उसका अनुशीलन करता है। इससे उसका ज्ञान तलस्पर्शी बन जाता है। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ जैन योग : सिद्धान्त और साधना (५) धर्मकथा-ज्ञान के परिपक्व होने पर साधक स्वयं तो उससे लाभान्वित होता ही है, अन्यों को भी प्रतिबुद्ध करता है। स्वाध्याय तप की पूर्णता इन पाँचों अंगों के समन्वय से होती है। स्वाध्याय तप की फलश्रुति स्वाध्याय तष की आराधना से तपोयोगी साधक को अनेक प्रकार के लाभ प्राप्त होते हैं (१) श्रत का संग्रह होता है। (२) शिष्य श्रु तज्ञान से उपकृत होता है, वह प्रेम से श्रुत की सेवा करता है। (३) स्वाध्याय से ज्ञान के प्रतिबन्धक कर्म निर्जरित होते हैं। (४) अभ्यस्त थ त विशेष रूप से स्थिर होता है। (५) निरन्तर स्वाध्याय करने से सूत्र विच्छिन्न नहीं होते। आगम साहित्य के चिन्तन-मनन-अध्ययन से अनेकानेक सद्गुणों का विकास होता है। ज्ञान की वृद्धि, सम्यग्दर्शन की शुद्धि, चारित्र की संवृद्धि होती है और मिथ्यात्व नष्ट होकर सत्य तथ्य को प्राप्त करने की जिज्ञासा वृत्ति जागृत होती है।' (६) बुद्धि निर्मल होती है। (७) प्रशस्त अध्यवसाय की प्राप्ति होती है। (८) शासन की रक्षा होती है। (६) संशय की निवृत्ति होती है। (१०) परवादियों के आक्षेपों के निरसन की शक्ति प्राप्त होती है। (११) तप-त्याग की वृद्धि होती है । (१२) अतिचारों की शुद्धि होती है।' (१३) चंचल मन स्थिर होता है। (१४) मन की एकाग्रता बढ़ती है। (१५) निर्विकारता आती है। (१६) संयम में मन स्थिर होता है। (१७) अच्छे विचार और सुसंस्कारों का निर्माण होता है । १ स्थानांग ५ २ तत्त्वार्थराजवार्तिक-अकलंकदेव Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माम्यंतर तप । आत्म-शुद्धि की सहज साधना (१८) मस्तिष्क में नई-नई स्फुरणाएं आती हैं। (१६) आत्मानुभूति होती है । (२०) आत्मिक सुख की प्राप्ति होती है। तपोयोगी साधक के लिए स्वाध्याय जीवन-रस के समान है। इस तप की साधना-आराधना से साधक अपने बहुत से जन्मों के संचित कर्मों को क्षण मात्र में नष्ट कर देता है। इसीलिए मनस्वी आचार्यों ने स्वाध्याय तप के समान किसी भी जप-तप को नहीं माना। भगवान महावीर ने स्वयं अपने श्रीमुख से स्वाध्याय तप को सभी दुखों का अन्त करने वाला बताया है। स्वाध्याय तप की महिमा सभी धर्मों, पन्थों और सम्प्रदायों ने स्वीकार की है। वस्तुतः स्वाध्याय तप तपोयोगी साधक के लिए चिन्तामणि रत्न के समान है। जिस प्रकार चिन्तामणि रत्न से व्यक्ति की सभी लौकिक इच्छाएँ पूरी हो जाती है उसी प्रकार स्वाध्याय तप से तपोयोगी साधक अपने जीवन का चरम लक्ष्य प्राप्त करने में सक्षम हो जाता है, उसकी आत्मा आत्म-भाव में स्थिर हो जाती है। (५) ध्यान तप : मुक्ति की साक्षात साधना ध्यान (धर्मध्यान और शुक्लध्यान) तप मुक्ति की साक्षात साधना है। इस तप के प्रभाव से मनुष्य जीवन-मरण रूप संसार-चक्र से मुक्त हो जाता है। (६) व्युत्सर्ग तप : ममत्व विसर्जन की साधना व्युत्सर्ग का शाब्दिक अर्थ है-विशेष प्रकार से उत्सर्ग करना, (वि+ उत्सर्ग), त्यागना, छोड़ना। आचार्य अकलंकदेव ने व्युत्सर्ग तप का लक्षण इस प्रकार दिया है १ बहुभवे संचियं खलु सज्झाए ण खणे खवइ । -चन्द्रप्रज्ञप्ति ९१ २ न वि अत्थि न वि अहोई सज्झाय समं तवोकम्म । -चन्द्रप्रज्ञप्ति ८६, तथा बृहत्कल्प भाष्य ११६६ ३ सज्झाए वा निउत्तण सव्वदुक्खविमोक्खणे। -उत्तरज्झयणाणि २६/१० ४ ध्यान तप का विस्तृत विवेचन 'ध्यानयोग साधना' नामक अध्याय में किया गया है। सम्पादक Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ जैन योग : सिद्धान्त और साधना निःसंगता, अनासक्ति, निर्भयता और जीवन को आशा (लालसा) का त्याग ।' व्युत्सर्ग तप की आराधना करता हुआ तपोयोगी साधक ममत्व-विसर्जन की साधना करता है। व्युत्सर्ग तप के भेद व्युत्सर्ग तप के प्रमुख दो भेद हैं- (१) द्रव्य व्युत्सर्ग और (२) भाव व्युत्सर्ग। द्रव्य व्युत्सर्ग के उत्तर भेद चार हैं-(१) गण व्युत्सर्ग (२) शरीर व्युत्सर्ग (३) उपधि व्युत्सर्ग और (४) भक्तपान व्युत्सर्ग । (१) गण व्युत्सर्ग-तपोयोगी साधक की साधना के लिए गण (संघ) एक आलम्बन होता है । वहाँ उसकी साधना सुचारु रूप से चलती है। किन्तु साथ ही यह भी सत्य-तथ्य है कि साधक को आत्माभिमुखी साधना के लिए शान्त-एकान्त स्थान अत्यावश्यक है। गण व्युत्सर्ग तप का आशय यह है कि साधक गण में रहता हुआ भी गण के प्रति निःसंग रहे, जैसे जल में कमल । किन्तु यदि किसी कारणवश गण में उसकी साधना सुचारु रूप से नहीं चल पाती, उसकी समाधि भंग होती है तो वह गण का व्युत्सर्ग भी कर सकता है। तपोयोगी साधक के लिए साधना और समाधि ही प्रमुख है। लेकिन जब गण उसी में बाधक बनने लगे तो फिर उसके पास असमाधिकारक गण को छोड़ने के अलावा चारा ही क्या है। लेकिन गण छोड़ने का अभिप्राय साधक का स्वेच्छाचारी हो जाना नहीं है, वह विशिष्ट साधना के लिए गुरुजनों की अनुमति से ही गण छोड़ता है और उनकी अनुमति से वापिस गण में सम्मिलित भी हो जाता है । (२) शरीर व्युत्सर्ग-इस तप का अभिप्राय है-शरीर के प्रति ममत्व का त्याग । इसका अपर नाम कायोत्सर्ग भी है। - तपोयोगी साधक एकान्त-शान्त स्थान में शरीर से निस्पृह होकर खम्भे की तरह सीधा खड़ा हो जाता है, उस समय वह शरीर को न अकड़ा १ निःसंगनिर्भयत्वं जीविताशाव्युदाशाद्यर्थो व्युत्सर्गः। -तत्त्वार्थराजवार्तिक ६/२६/१० Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभ्यंतर तप : मारमा-शुद्धि की सहज साधना २६६ कर रखता है और न झुकाकर ही। दोनों बाहों को घुटनों की ओर लम्बा करके प्रशस्त-ध्यान में निमग्न हो जाता है तथा उपसर्गों और परीषहों को सहन करता है। यह कायोत्सर्ग की साधना है। कायोत्सर्ग की साधना लेटकर और बैठकर भी की जा सकती है। यह शिथिलीकरण की प्रक्रिया है । इसमें मन-वचन-काय तीनों योगों को शिथिल करके सम अवस्था में लाया जाता है, इनके तनावों को दूर किया जाता है जिससे कायोत्सर्ग की स्थिति में सहज रूप से आया जा सके। कायोत्सर्ग की साधना में साधक धीरे-धीरे अपने श्वास को सूक्ष्म करता चला जाता है। श्वास को स्थूल से सूक्ष्म करने की क्रिया यौगिक प्रक्रिया है । इस प्रक्रिया द्वारा जब श्वास सूक्ष्म हो जाता है तो साधक को शारीरिक एवं मानसिक शान्ति प्राप्त होती है, उसके तनाव अनुबन्ध शिथिल जाते हैं। __ कायोत्सर्ग द्वारा तपोयोगी साधक मन-वचन-काय की प्रवृत्तियों को स्थिर करता है। इस स्थिरीकरण से उसका अपने स्थूल और सूक्ष्म शरीर (औदारिक और तैजस) के प्रति ममत्व भाव टूटता है, ममत्व ग्रंथियाँ टूटती हैं, काया और आत्मा की अभिन्नता की भ्रान्ति मिटती है। उसकी आत्मा में हल्कापन आता है । आत्मा की अनुभूति होती है। इस प्रकार कायोत्सर्ग या शरीर व्युत्सर्ग तप से साधक का देहात्मभाव समाप्त हो जाता है । (३) उपधि व्युत्सर्ग-जब साधक अपने शरीर को ही अपना नहीं मानता, उसके प्रति ही उसका ममत्त टूट जाता है तो उपधि (धार्मिक उपकरण) को अपना कैसे मानेगा? तपोयोगी साधक उपधि के प्रति भी मोह नहीं रखता। (४) भक्तपान व्युत्सर्ग-आहार-पानी के प्रति अनासक्ति । आहार आदि स्थूल शरीर को चलाने के साधन हैं । जब साधक को देह से ही ममत्व नहीं नहीं रहता तो आहार आदि के प्रति ममत्व का प्रश्न ही कहाँ है ? इस स्थिति में साधक आहार करता है तो उसी प्रकार जैसे बिल में सर्प प्रवेश करता है, अर्थात् उसका भोजन के प्रति अनासक्त भाव हो जाता है। १. मूलाराधना २/११६ विजयोदया टीका Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० जैम योग : सिमान्त और साधना भाव व्युत्सर्ग के तीन प्रकार हैं (१) कषाय व्युत्सर्ग-क्रोध, मान, माया, लोभ-इन चारों कषायों की अवस्थिति कार्मण शरीर में है। कषाय-व्युत्सर्ग तप की साधना में निरत साधक अपने कार्मण शरीर के शोधन का प्रयास करता है। वह जानता है कि कषाय शुद्धोपयोग में मलिनता उत्पन्न करते हैं। और साधक अपने चरण शुद्धोपयोग की ओर बढ़ाता है, इस कार्य हुतु वह कषायों का परिमार्जन करता है, उनका विसर्जन करता है, जिससे उसके चैतन्योपयोग में विक्षोभ न हो, चेतना की अखंड धारा, उसका शुद्धोपयोग निराबाध गति से बहता रहे। (२) संसार व्युत्सर्ग-साधक चतुर्गतिरूप संसार में परिभ्रमण के हेतु आस्रवों का विसर्जन करता है। कामना-वासनारूपी भाव-संसार को नष्ट करता है। भाव संसार के नष्ट होते ही द्रव्य संसार का स्वयमेव ही नाश हो जाता है । (३) कर्म व्युत्सर्ग-इस तप की साधना में साधक कर्म-बंधन के हेतुओं का त्याग कर देता है। कर्मबन्धन के हेतुओं के त्याग से उसकी आत्मा विशुद्ध से विशुद्धतर होती जाती है। मोक्ष क्षण-प्रति-क्षण उसके समीप आता जाता है। जैन तपोयोग में तप की साधना अनशन (स्थूल शरीर को पुष्ट करने वाले भोजन का त्याग) तप से शरू होकर व्युत्सर्ग तप पर समाप्त होती है। प्रथम सोपान अनशन तप में साधक देह की पुष्टि के साधनों का त्याग करता है और अन्तिम तप में देह के प्रति ममत्व का विसर्जन । साधक के लिए बाह्य और आभ्यन्तर दोनों ही प्रकार के तप आवश्यक हैं। बाह्य तप क्रियायोग के प्रतीक हैं और आभ्यन्तर तप ज्ञानयोग के । और ज्ञान तथा क्रिया के समन्वय से ही मोक्ष की प्राप्ति होती हैज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः । 00 १ प्रज्ञापना पद १३ २ बाह्याभ्यंतरं चेत्थं तपः कुर्यात् महामुनिः । ३ विन्जाए चेव, चरणेण चेव । -ज्ञानसार, तप अष्टक ६ -स्थानांग २/६३ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपोयोग साधना-३ १२ ध्यान योग-साधना गणधर गौतम ने भगवान महावीर से पूछा भंते ! एक आलंबन पर मन को सन्निवेश (स्थिर) करने से जीव को क्या लाभ होता है ? भगवान ने बताया-गौतम ! एक आलंबन पर मन को सन्निवेश करने से चित्त का निरोध होता है ।' चित्तनिरोध का आशय है-मन की चंचलता का निग्रह, मन की स्थिरता अथवा एक विषय पर केन्द्रीकरण । मन की दो अवस्थाएँ हैं-चंचल और स्थिर । इनमें से स्थिर अवस्था ध्यान है। ध्यान का लक्षण व्याकरणशास्त्र की दृष्टि से ध्यान शब्द की निष्पत्ति 'ध्य चिन्ता याम्'-इस धातु से हुई है । व्युत्पत्ति की दृष्टि से 'ध्यान' का अर्थ चिन्तन है। किन्तु योगमार्ग की अपेक्षा से 'ध्यान' का आशय कुछ भिन्न है । यहाँ चित्त को किसी एक आलम्बन पर स्थिर करनी 'ध्यान' माना गया है।' उमास्वाति ने एकाग्रचिन्ता, तथा शरीर, वाणी और मन के निरोध को ध्यान कहा है। -ध्यानशतक २ १ उत्तराध्ययन २६/२६ २ जं थिरमज्झवसाणं झाणं जं चलं तयं चित्तं । ३ आवश्यकनियुक्ति, गाथा १४६३ ४ तत्त्वार्थ सूत्र ६/२७ Jan Education International Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ जैन योग : सिद्धान्त भोर साधना पतंजलि ने ध्यान का सम्बन्ध केवल मन से माना है। उनका अभिमत है-जहाँ चित्त को लगाया जाय उसी में वृत्ति की एकतानता ध्यान है। विसुद्धिमग्गो में भी ध्यान को मानसिक ही माना है।' किन्तु जैन योग साधना में ध्यान को मानसिक, वाचिक और कायिक-तीनों प्रकार का माना है। ध्यानयोगी साधक जब 'मेरा शरीर अकंपित हो' इस तरह स्थिरकाय बनता है, वह उसका कायिक ध्यान है । इसी तरह जब वह संकल्पपूर्वक वचनयोग को स्थिर करता है तब उसे वाचिक ध्यान होता है और जब वह मन को एकान करता है तथा वाणी और शरीर को भी उसी लक्ष्य पर केन्द्रित करता है तब उसको कायिक, वाचिक तथा मानसिक तीनों ध्यान एक साथ हो जाते हैं। यही पूर्ण ध्यान है तथा इसी में एकाग्रता एवं अखंडता होती है और एकाग्रता घनीभूत होती है। वस्तुतः ध्यान वह अवस्था है, जिसमें साधक के चित्त की अपने आलंबन में पूर्ण एकाग्रता होती है, मन चेतना के विराट सागर में लीन हो जाता है, वचन और काय भी उसी में तल्लीन हो जाते हैं, तीनों योगों की चंचल अवस्था, स्थिर रूप में परिणत हो जाती है। इसीलिए जैन योग की दृष्टि से तीनों योगों का निरोध तथा स्थिरता ही ध्यान है। क्योंकि जब तक तीनों योगों का निरोध नहीं हो जाता, तब तक संवरयोग की साधना नहीं हो सकती । आस्रव का निरोध ही तो संवर हैं और मन-वचन-काय योग की प्रवृत्ति ही आस्रव है । इसका फलित यह है कि ध्यान की पूर्णता के लिए तीनों योगों का निरोध आवश्यक है और तभी कर्मों की निर्जरा होती है जो ध्यानयोग का प्रमुख लक्ष्य है। ध्यान-साधना के प्रयोजन एवं उपलब्धियाँ तपोयोगी साधक ध्यान तप की साधना एक ही लक्ष्य को लेकर करता हैं, और वह है-मुक्ति, कर्म-बन्धनों से मुक्ति, जन्म-मरणरूप चातुर्गतिक संसार से मुक्ति । और इस साधना को यदि संसार की अपेक्षा से देखा जाय १ पातंजल योग सूत्र ३/२ २ विसुद्धिमग्गो, पृष्ठ १४१-१५१ ३ आवश्यकनियुक्ति, गाथा १४७४, १४७६-७८ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागयोग साधना २५ तो यह अप्रयत्न है, अप्रवृत्ति है, निवृत्ति है और है निवृत्ति की साधना, मन-वचन-काय की प्रवृत्ति को रोककर उन्हें स्थिर करना, एक ध्येय पर लगाना, दृढ़ीभूत करना। ध्यान की साधना तपोयोगी साधक सत्य की खोज के लिए करता है सत्य की खोज के दो मार्ग हैं-भौतिक और आध्यात्मिक, प्रवृत्तिपरक और निवृत्तिपरक । सत्य की जितनी भी खोज वैज्ञानिक करता है, वह सब प्रवृत्तिपरक है; क्योंकि उसका क्षेत्र संसार है, जड़ पदार्थ है, पुद्गल है । किन्तु तपोयोगी का क्षेत्र अध्यात्म है, अतः उसकी खोज का मार्ग भो निवृत्तिपरक है, वह ध्यान तप की साधना द्वारा चित्त को एकाग्र करके चेतना की अतल गहराइयों में उतरता है और आध्यात्मिक सत्य को खोजकर उसकी स्वतंत्र सत्ता का, आत्मा के शुद्ध स्वरूप का अनुभव करता है। अब तक जो उसे कषायात्मा आदि का अनुभव हो रहा था, उसके स्थान पर वह शद्धात्मा का अनुभव करता है तथा अपने ज्ञायक भाव को प्रतिष्ठित करता है। साथ ही अपनी चेतना की धारा को व्यापक बनाता है। अध्यात्मयोगी साधक योग की साधना द्वारा पदार्थों के प्रति प्रतिबद्धता को तोड़ता है, इसका प्रतिफलन दुःख-मुक्ति के रूप में होता है। दुःख-मुक्ति के साथ ही उसका मन (चित्त), अन्तमुखी, निर्मल और सशक्त बनता है। मानव के मन की स्थिति शरीर में वही है जो नगर में पावर हाउस की होती है । पावर हाउस से विद्य त की धारा जब नगर में फैल जाती है तो पावर हाउस रिक्त हो जाता है, उसकी ऊर्जा, शक्ति और क्षमता क्षीण हो जाती है, यही स्थिति मन (मस्तिष्क) की है। पावर हाउस को पुनः शक्तिशाली नई विद्य त के उत्पादन एवं संचयन से किया जाता है और मन (मस्तिक) को शक्तिशाली ध्यान से बनाया जाता है । स्मृति, विश्लेषण, चयन आदि कार्य मानव शरीर में लघुमस्तिष्क (Cerebellum) द्वारा किये जाते हैं और ध्यान द्वारा इन शक्तियों का विकास होता है। आध्यात्मिक भाषा में प्रवृत्ति से शक्ति क्षीण होती है और निवृत्ति से शक्ति का संचय होता है। व्यक्ति चलने से थकता है, बोलने से थकता है और मन के संकल्पों-विकल्पों, कषायों के आवेगों-संवेगों से थकता है। यह सब कायिक, बाचिक और मानसिक प्रवृत्ति ही तो हैं और इन तीनों योगों की स्थिरता, प्रवृत्ति का अभाव अथवा निवृत्ति तथा एकामता-एकनिष्ठता ही Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ जेन योग : सिमान्त और साधना ध्यान है। इसीलिए ध्यान से असीम शक्ति का संचयन होता है। ध्यान के बाद साधक को स्फूर्ति का अनुभव होता है। सूर्य की किरणों में आग लगाने की शक्ति मौजूद है किन्तु जब तक वे किरणें बिखरी रहती है, आग नहीं लगा सकती; किन्तु आतिशी शीशे के माध्यम से उन किरणों को जब घनीभूत कर लिया जाता है, केन्द्रित करके किसी एक स्थान पर प्रक्षिप्त कर दिया जाता है तो नगर भी भस्म किया जा सकते हैं । सूर्यकिरणों (सौर ऊर्जा) द्वारा जलाये जाने वाले चूल्हे (Sun stoves) तथा अन्य उपयोग इसी बात के प्रमाण हैं। इसी प्रकार आत्मशक्ति जब ध्यान-तप के माध्यम से एकीभूत और घनीभूत हो जाती है तो वह ध्यानाग्नि का रूप धारण कर लेती है और कर्ममल को जलाकर आत्मा को उसी प्रकार शुद्ध कर देती है, जिस प्रकार भौतिक अग्नि स्वर्ण में मिले मैल को जलाकर उसे कुन्दन (पूर्णतया शुद्ध स्वर्ण) बना देती है। जिस तरह किसान गेहूँ के लिए ही खेती करता है किन्तु उसे भूसा स्वयमेव ही प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार अध्यात्मयोगी साधक की अन्तदृष्टि स्वयमेव ही जागृत हो जाती है, उसकी लेश्या रूपान्तरित हो जाती है और आभामंडल स्वच्छ हो जाता है, साथ ही शक्तिशाली भी बनता है तथा साधक को अतीन्द्रिय ज्ञान भी प्राप्त हो जाता है और उसके चक्रस्थान (चेतन्य केन्द्र) भी जागृत हो जाते हैं। साधक को यह सब उपलब्धियाँ मन की चंचलता को रोकने से, उसे स्थिर करने से प्राप्त होती हैं । मन को चंवलता को रोकना ही ध्यान-तप का प्रयोजन है। मन की चंचलता के कारण मन की चंचलता का प्रमुख हेतु वृत्तियाँ हैं और वातावरण उन बाह्य वृत्तियों की उत्तेजना तथा सक्रियता में सहायक होता है। वृत्तियों का दायरा जितना विस्तृत होगा, जितनी उनकी उत्तेजना अधिक होगी; मन उतना ही अधिक चंचल होगा। इसके विपरीत वृत्तियाँ जितनी क्षीण होंगी, उनका दायरा जितना सोमित और संकुचित होगा; मन भी उतना ही कम चंचल होगा। " वर्तमान काल की प्रवृत्ति अल्पकालीन अथवा क्षणिक होती है। किन्त उन वृत्ति-प्रवृत्तियों की स्मृति मस्तिष्क में रह जाती हैं और गहरी वृत्तियों के संस्कार बन जाते हैं। भविष्यकाल सम्बन्धी वृत्ति कल्पना तथा संकल्प Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानयोग साधना २७५ विकल्प, आशा-निराशा, सफलता-असफलता, विभिन्न प्रकार की चिन्तादुश्चिन्ता के रूप में होती है। इस प्रकार वृत्तियों के तीन रूप हो जाते हैं, वर्तमान काल सम्बन्धी, भूतकाल सम्बन्धी स्मृति और संस्कार, तथा भविष्य काल सम्बन्धी संकल्पविकल्पात्मक कल्पनाएँ और चिन्ताएँ। इनमें से भूत-भविष्य सम्बन्धी वृत्तियाँ ध्यानयोगी साधक की ध्यान साधना में अधिक विक्षेप उत्पन्न करती हैं । जब साधक चित्त को एकाग्र करता है, एक ध्येयनिष्ठ करता है तो उसका अवचेतन मन जागृत हो जाता है उसमें अनेक वर्षों पूर्व के ही नहीं; पूर्वजन्मों के संस्कार भी अंगड़ाई लेकर उठ खड़े होते हैं और साधक के स्मृति पटल पर आकर उसके मानस को विक्षुब्ध कर देते हैं। साधक चकित रह जाता है, सोचता है-ऐसा विचार तो मैंने इस जीवन में कभी किया ही नहीं था। उसका यह सोचना सही भी होता है। लेकिन इन संस्कारों को निर्जीर्ण तो करना ही होता है; क्योंकि बिना संस्कारों (पूर्व-जन्मों तक के संस्कार) के नष्ट हुए चित्त-शुद्धि निष्पन्न ही नहीं हो सकती। अतः साधक इन संस्कारों अथवा भूत-भविष्यत्कालीन वृत्ति-प्रवृत्तियों की सिर्फ प्रेक्षा करता है, अपने ध्येय से इधर-उधर डगमगाता नहीं, उस पर दृढ़ रहता है और उन वृत्तिप्रवृत्तियों में राग-द्वष नहीं करता। अनुकूल वृत्ति राग का कारण बनती है और प्रतिकूल वृत्ति द्वष का। इन दोनों के कारण ही मन का सागर प्रकंपित रहता है, उद्वेलित रहता है, चंचल बना रहता है और ध्यानयोग की दृढ़ता से जब चंचल मन स्थिर हो जाता है तभी साधक को आत्म-दर्शन होता है;' तथा मन के प्रसार को रोक देने पर आत्मा परमात्मा बन जाती है । ___ इसीलिए आचारांग सूत्र में भगवान महावीर ने साधक को साधना का सूत्र दिया है-'वर्तमान क्षण को जानो। तथा वर्तमान कम्पन के प्रेक्षक बनो।' इन सूत्रों को हृदयंगम कर ध्यान करने वाला साधक सतत जागरूक और अप्रमत्त रहता है। ध्यान का काल-मान यद्यपि अध्यात्मयोगी साधक की प्रबल भावना होती है कि वह दीर्घ १ मणसलिलें थिरभूए दीसइ अप्पा तहा विमले। २ निग्गहिए मपपसरे अप्पा परमप्पा हवई। ३ ‘इमस्स विग्गहस्स अयं सणेत्ति अन्न सी।। -तत्वसार ४१ -आराधनासार २० -आचारांग १/५/५०१ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ नंद योग : किडन्त और सावना काल तक ध्यान करता रहे, किन्तु अनादि काल से मन और इन्द्रियों का प्रवाह बहिमुखी होने के कारण ध्यान का प्रवाह लम्बे समय तक नहीं चल पाता । साधक अपने मन को अन्तर्मुखी बनाने का, एक ध्येय पर टिकाने का प्रयास करता है; किन्तु मन दुष्ट अश्व की भाँति बाहर की ओर दौड़ता है। यद्यपि बार-बार के अभ्यास और वैराग्य की भावना से मन स्थिर होने लगता है, फिर भी अनन्त पर्यायात्मक द्रव्य की किसी एक पर्याय पर साधक का चित्त अन्तमुहर्त (४८ मिनट से कम समय) तक ही स्थिर रह सकता है। हाँ, अनेक पर्यायों का आलम्बन लेने पर, ध्येय बदल जाने पर ध्यान का प्रवाह लम्बे समय तक भी चल सकता है। ध्यान की पूर्वपीठिका : धारणा साधक अपने चित्त को एक ध्येय पर निश्चल रूप से टिकाने अथवा एकाग्र करने का पूर्ण प्रयास करता है। फिर भी मन चंचल मर्कट के समान एक ध्येय पर टिकता नहीं, इधर-उधर दौड़ लगाता रहता है। अतः साधक ध्यान की सिद्धि से पहले ध्यान की पूर्वपीठिका के रूप में धारणा का अभ्यास करता है। __चित्त को एकाग्र करने के लिए उसको किसी एक-देश--स्थानविशेष पर लगा देना-जोड़ देना धारणा है।' यहाँ 'देश-स्थानविशेष' शब्द नाभि, हृदय, नासिका का अग्रभाग, कपाल, भृकुटि, तालु, आँख, मुख, कान, मस्तक, जिह्वा का अग्रभाग आदि स्थानों का वाचक है। साधक इनमें से किसी एक अथवा क्रमशः सभी पर चित्त को लगाता है। इन स्थानों के अतिरिक्त तान्त्रिक और हठयोग के ग्रन्थों में आधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपूर चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्धि चक्र, आज्ञा चक्र और अजरामर चक्र-इन सात चक्रों पर भी चित्त को जोड़ने अथवा लगाने का उल्लेख है। हठयोगो साधक इन चक्र-स्थानों पर मन और पवन (प्राण १ तत्वार्थ सूत्र ६/२७ तथा इस सूत्र का भाष्य २ ध्यानशतक, ४ ३ देशबन्धश्चित्तस्य धारणा। -पातंजल योगसूत्र ३/१ ४ नाभिचक्रे हृदयपुण्डरीके मूनि ज्योतिषि नासिकाग्रे जिह्वाग्रे-इत्येवमादिषु देशेषु बाह्य वा विषये चित्तस्य वृत्तिमात्रेण बन्ध इति धारणा। -व्यास भाष्य Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानयोग साधना २७७ श्वास) को रोकता है, स्थिर करता है तथा मन एवं पवन को भ्रमर के समान गुञ्जारव करता हुआ घुमाता है । जैन योग-सम्बन्धी ग्रन्थों में और विशेष रूप से आगम ग्रन्थों तथा विक्रम की आठवीं शताब्दी से पूर्व रचित ग्रन्थों में धारणा को धर्मध्यान के एक भेद आलम्बन ध्यान में समाहित किया गया है । आलम्बन की अपेक्षा से धर्मध्यान के तीन भेद किये गये हैं- ( १ ) परावलम्बन, (२) स्वावलम्बन और (३) निरवलम्बन | स्वावलम्बन ध्यान में स्वशरीरगत किसी एक स्थान अथवा अनेक स्थानों पर चित्त लगाया जाता है । राजयोग में धारणा के स्थान पर 'त्राटक' शब्द का प्रयोग हुआ है । योग- प्रदीप नामक ग्रन्थ में त्राटक के तीन भेद बताये गये हैं - ( १ ) आंतर त्राटक (२) मध्य त्राटक और (३) बाह्य त्राटक | आंतर त्राटक में साधक अपने भ्र मध्य, नासाग्र, नाभि आदि स्थानों पर चित्तवृत्ति को लगाता है। धातु अथवा पत्थर - र - निर्मित वस्तु काली स्याही आदि के धब्बे पर टकटकी लगाकर देखते रहना मध्य त्राटक है । दीपक, चन्द्र, नक्षत्र, प्रातः कालीन सूर्य आदि दूरवर्ती पदार्थों पर दृष्टि स्थिर करना बाह्य त्राटक है । ' जैन योग में जो 'एग मोग्गलनिविट्ठ बिट्ठी' और 'एगपोग्गल ठिलीए दिट्ठीए' शब्दों का प्रयोग हुआ है, उसके अन्तर्गत ही योग का धारणा और त्राटक अंग समाहित हो जाता है । २ वस्तुतः धारणा, ध्यान की पूर्वभूमिका है । अनादि काल से चंचल मन अचानक ही एक ध्येय पर एकाग्र नहीं हो जाता । धारणा के अभ्यास में साधक मन की चंचलता को सीमित करता है, असंख्य भावों, विचारों और वस्तुओं पर दौड़ते हुए मन को सात-पाँच-तीन- दो स्थानों पर दौड़ाता है और फिर एक स्थान पर उसे रोकने का प्रयास करता है । जब मन एक स्थान पर रुकने का अभ्यस्त हो जाता है तब ध्यान की स्थिति आती है । साधक ध्यानयोगी बनता है । १ योग की प्रथम किरण, पृष्ठ १३१ २ धारणा शब्द पिण्डस्थ आदि धारणाओं के लिए भी प्रयुक्त हुआ है, उसका वर्णन इसी बध्याय में आगे किया गया है । सम्पादक Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ जन योग : सिवान्त और साधना धारणा का विषय पहले तो स्थूल होता है और फिर सूक्ष्म तथा सूक्ष्मतर होता चला जाता है। ज्यों-ज्यों साधक सूक्ष्म ध्येय पर चित्त को स्थिर करता जाता है, त्यों-त्यों वह प्रगति करता जाता है और चेतन स्वरूप को ध्येय बनाकर उसका साक्षात्कार करने में सक्षम हो जाता है। यह उस साधक की ध्यानावस्था है। इस प्रकार धारणा, ध्यान की पूर्वपीठिका और चित्त को एकाग्र एवं स्थिर बनाने में सहायक होती है । धारणा और ध्यान में अन्तर धारणा और ध्यान में इतना अन्तर है कि धारणा में ध्येय के एक देश में साधक अपनी चित्तवृत्ति को स्थापित करता है और ध्यान में उसकी (चित्तवृत्ति की) एकाग्रता निष्पन्न होती है। इसीलिए योगसूत्रकार महर्षि पतंजलि ने देशनिशेष में ध्येय वस्तु के ज्ञान की एकतानता को ध्यान कहा है।' दूसरे शब्दों में, जिस देशविशेष पर साधक धारणा का अभ्यास करते हुए अपने चित्त को स्थापित करता है, उसमें ध्येय वस्तु का ज्ञान अन्य किसी वस्तु के ज्ञान से अनभिभूत होकर जब एकाकार होता है तब उस साधक का ध्यान निष्पन्न होता है। ध्यान में चित्त की एकाग्रता अत्यन्त अपेक्षित होती है। ध्यान का महत्व ध्यान चित्त की एकाग्रता है। इसीलिए ध्यान, योग का सर्वस्व है, प्राण है और अष्टांग योग के अन्य सभी अंगों से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। यह सम्पूर्ण योग की आत्मा है। ध्यान से कर्मों का क्षय बड़ी तीव्रता से होता है। कर्म-राशि को भस्म करने के लिए ध्यान जाज्वल्यमान अग्नि के समान है । इसके प्रकाश में रागद्वष-मोह का अन्धकार बड़ी शीघ्रता से विनष्ट होता है। ध्यान से निष्पन्न होने वाली एकाग्रता से आध्यात्मिक विकास और आत्मिक विशुद्धि में अभूतपूर्व प्रगति होती है। यही कारण है कि जैन आगमों में ध्यान का सविस्तृत वर्णन तो हुआ १ पातंजल योगसूत्र ३/२ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...... ध्यानयोग साधना २७९ ही है साथ ही साथ आत्म-कैवल्य और आत्मनिर्वाण के साथ उसकी निकटता भी प्रदर्शित की गई है। ध्यान के भेव-प्रभेद . जैन आगमों तथा ग्रन्थों में ध्यान के चार भेद' बताये गये हैं. (१) आर्तध्यान, (२) रोद्रध्यान, (३) धर्मध्यान, (४) शुक्लध्यान । इनमें से प्रथम दो-आर्त और रौद्रध्यान अप्रशस्त हैं और बाद के दो-धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान प्रशस्त हैं । अप्रशस्त होने के कारण प्रथम दो ध्यान संसार के कारण हैं, कर्मबन्धन के हेतू हैं और बाद के दो ध्यान संसार से मुक्ति और कर्मक्षय के कारण हैं। प्रथम दो ध्यानों की संज्ञा दुर्ध्यान और अन्तिम दो ध्यानों की संज्ञा सूध्यान भी है। _ संसार बन्धन के कारण होने की वजह से प्रथम दो ध्यानों को तप के अन्तर्गत नहीं माना गया और न ही इन्हें योग में गिना गया है । तप के अन्तर्गत सिर्फ धर्मध्यान और शुक्लध्यान ही आते हैं । अतः तपोयोगी साधक के लिए धर्मध्यान शुक्लध्यान ही ग्राह्य और उपादेय हैं तथा आर्त-रौद्रध्यान सर्वथा त्याज्य एवं हेय है।। फिर भी जैसे दोष को जाने बिना दोष का परिमार्जन नहीं किया जा साता उसी प्रकार आतं-रौद्रध्यान को जानना और जानकर उन्हें छोड़ना ध्यानयोगी साधक के लिए अनिबार्य है। इसी हेतु से ध्यान के अन्तर्गत आर्तरौद्रध्यान का विवेचन हुआ है। आर्तध्यान आर्तध्यान के उत्तर भेद चार' हैं-(१) इष्टवियोग, (२) अनिष्ट १ (क) भगवती २५/७; स्थानांग स्थान ४; औपपातिक सूत्र तपोऽधिकार सूत्र ३० (ख) ज्ञानार्णव ३/२८-३१, में आचार्य शुभचन्द्र ने ध्यान के (१) अशुभ, (२) शुभ और (३) शुद्ध-ये तीन भेद बताये हैं। किन्तु इन तीनों का आगमोक्त चार ध्यानों में समावेश हो जाता है। (ग) नमस्कार स्वाध्याय पृष्ठ २७५ में ध्यान के २८ भेद भी बताये हैं। (घ) तत्त्वार्थ सूत्र ६/२६-३० २ (क) भगवती २५/७; (ख) औपपातिक सूत्र, तपोऽधिकार, सूत्र ३० (ग) स्थानांग, स्थान ४ (घ) तत्त्वार्थ सूत्र, ६/३१-३४ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० मन योग: सिदान्त और साधना संयोग, (३) प्रतिकूल वेदना अथवा पीड़ा चिन्तवन और (४) काम-भोगों की लालसा अथवा निदान । (१) इष्टवियोग आर्तध्यान-धन-ऐश्वर्य, स्त्री-पुत्र आदि सांसारिक काम-भोग के पदार्थ तथा यश-प्रतिष्ठा आदि का वियोग न हो जाय, इस प्रकार की चिन्ता करते रहना तथा वियोग होने पर उनके लिए हाय-हाय करते रहना, झुरते रहना, उदास और गमगीन बने रहना इष्टवियोग आतध्यान है। (२) अनिष्टसंयोग आर्तध्यान-अनिष्ट और अप्रिय वस्तुओं, यथा-कोई मेरा शत्र न बन जाये, कोई मुझे हानि न पहँचा दे, मुझे हानि न हो जाय आदि ऐसी अनिष्ट वस्तुओं के संयोग की सम्भावना से चिन्तित, दुखी और उदास रहना तथा अनिष्ट संयोग हो जाने पर आकुल-व्याकुल हो जाना और सतत यह चिन्ता करते रहना कि इस आपत्ति से कब छुटकारा मिलेगा, यह सब अनिष्टसंयोग आर्तध्यान है। (३) प्रतिकूल वेदना आर्तध्यान-शारीरिक एवं मानसिक आधि-व्याधियों से ग्रस्त जीव उनसे छुटकारा पाने का जो रात-दिन चिन्तन किया करता है, वह प्रतिकूल वेदना आर्तध्यान है। साथ ही भविष्य में कोई रोग न हो जाय, इस बात की चिन्ता करते रहना, रोग होने पर सतत रोग और पीड़ा में ही चित्तवृत्ति लगाये रखना अथवा भूतकाल में हए रोग जो उपशमित हो चुके हैं, उनकी स्मृति करके दुःखी होते रहना—यह सब प्रतिकूल वेदना या पीड़ा चिन्तवन आर्तध्यान है। (४) निदान आर्तध्यान-जो काम-भोग इस जीवन में प्राप्त न हो सके हों, उन्हें अगले जीवन में प्राप्त करने की तीव्र अभिलाषा और लालसा रखना, अपने प्रबल शत्र से अगले जन्म में बदला लेने की प्रबल इच्छा रखना, आदि निदान आर्तध्यान है। निदान की विशेषता यह है कि किसी भी प्रकार की विवशता (शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक आदि) के कारण जिन काम-भोगों, वैर-बन्ध आदि को व्यक्ति इस जन्म में पूरा नहीं कर पाता और उसके हृदय में उनके प्रति उद्दाम लालसा होतो है, तो उन्हें अगले जन्मों में पूरा करने का वह दृढ़ संकल्प कर लेता है । यही निदान है। ___ संसार के अधिकांश प्राणी इस आर्तध्यान में ही निमग्न रहते हैं। कहीं इष्टवियोग का दुःख है तो कहीं अनिष्टसंयोग की पीड़ा है, कहीं रोग की चिन्ता है तो कहीं काम-भोगों की उद्दाम लालसा प्राणियों को जला रही Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानयोग साधना २८१ है। सार यह कि देव-दुर्लभ मानव-जीवन इस दृध्यनि-आर्तध्यान में भस्मीभूत इस दुनि से ध्यानयोगी साधक को विशेष रूप से सावधान रहने तथा बचने की आवश्यकता है। रौद्रध्यान कर, कठोर एवं हिंसक व्यक्ति को रुद्र कहा जाता है। इन अतिशय क्र र भावनाओं तथा प्रवृत्तियों से संश्लिष्ट ध्यान रौद्रध्यान है। क्र रता और कठोरता का मूल कारण हिंसा, झूठ, स्तेय और विषय-संरक्षण की प्रवृत्ति है। इन प्रवृत्तियों के आधार पर रौद्रध्यान के भी चार' प्रकार हैं-(१) हिंसानुबन्धी, (२) मृषानुबन्धी, (२) स्तेयानुबन्धी और (४) विषय-संरक्षणानुबन्धी। (१) हिंसानुबन्धी रौप्रध्यान-रौद्र ध्यान के इस प्रथम प्रकार का आधार क्रोध कषाय है। क्रोध कषाय से संश्लिष्ट चिन्तन ही हिंसानुबन्धी रौद्रध्यान है। ऐसा व्यक्ति बहुत ही कर और कठोर होता है। इसमें क्रोध का विष अधिक होता है। इसका स्वभाव निर्दय और बुद्धि पापमयी होती है। दूसरे प्राणियों को दुखी और पीड़ित देखकर यह हर्षित एवं आनन्दित होता है। यह स्वयं भी प्राणियों को मारने में तनिक भी नहीं हिचकिचाता। यह पाप कार्यों में कुशल, दूसरों को पाप का उपदेश देने वाला तथा पापी जीवों की संगति करने वाला होता है ।। ऐसे व्यक्ति के प्रमुख लक्षण-हिंसा के साधनों को एकत्र करना, हिंसक प्राणियों का पोषण करना, व्यर्थ की हिंसा करना और दयालु पुरुषों से द्वेष करना, उनकी मानहानि, अर्थहानि की योजनाओं में सदा तल्लीन रहना, आदि हैं। इनकी लेश्या (कषायरंजित परिणाम) अत्यधिक संक्लिष्ट और दुष्प्रभाव वाली होती है। ध्यानयोगी साधक इस ध्यान को कभी नहीं करता, इससे दूर ही रहता है। १ (क) भगवती २५/७ (ख) औपपातिक तपोऽधिकार सूत्र ३० (ग) स्थानांग, स्थान ४ (घ) तत्त्वार्थ सूत्र ६/३६ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जैन योग सिद्धान्त और साधना (२) मृषानुबन्धी- रौद्रध्यान इस ध्यान वाले मनुष्य का चित्त सदा झूठफरेब, छल-कपट आदि में लगा रहता है । फलस्वरूप, वह सफेद झूठ बोलता है और अपना झूठ पकड़े जाने पर भी ढीठ बना रहता है। ठगी, विश्वासघात, धूर्तता आदि उसके स्वभाव में होते हैं । वह दूसरे के साथ ठगी, कपट आदि करके प्रसन्न होता है । २८२ (३) स्तेयानुबन्धी रौद्रध्यान - ऐसा व्यक्ति चोरी, तस्करी आदि के विषय में ही चिन्तन करता रहता है । परिणामस्वरूप वह सभी प्रकार की चोरियाँ भी करता है और अपनी चोरी की कला पर प्रसन्न होता है, गर्व करता है, इठलाता है और शेखी बघारता है । (४) विषय संरक्षणानुबन्धी रौद्रध्यान — काम भोग के साधन एवं धन आदि के संरक्षण, उन्हें और अधिक बढ़ाने की लालसा, व्यापार आदि तथा धनोपार्जन के साधनों की, लाभवृद्धि की अभिलाषा आदि सभी विषय संरक्षणानुबन्धी चिन्तन रौद्रध्यान हैं । ऐसा मनुष्य काम-भोग के साधन, धन आदि सांसारिक वैभव के संचय और संरक्षण में सतत व्यस्त रहता है, उन्हीं के बारे में उसका चिन्तन चलता रहता है । आर्त और रौद्र दोनों ही ध्यान आत्मा की अधोगति के कारण हैं । इनके मूल कारण राग-द्वेष-मोह और क्रोध आदि कषाय हैं । इसीलिए ये भवभ्रमण और संसारवृद्धि के हेतु हैं । अतः इनकी गणना तपोयोग के अन्तर्गत नहीं की गई है । तपोयोग के अन्तर्गत न होने पर भी ध्यानयोगी साधक के लिए आर्त- रौद्रध्यान को जानना जरूरी है । साधना में सफलता प्राप्त करने के लिए साधक का इनका ज्ञान होना अनिवार्य है । अन्यथा वह इन दोनों ध्यानों से बचेगा कैसे ? जो महत्त्व स्वर्णशोधक ( Refiner) के लिए स्वर्ण में मिले मैल को जानने का है, वही महत्त्व तपोयोगो साधक को इन आर्त - रौद्रध्यान को जानने का है । इन दोनों ध्यानों को जानकर इन्हें छोड़ना, यही ध्यानयोगी के लिए इष्ट है । इन दोनों ध्यानों का विसर्जन योग मार्ग में सहायक बनता है, यही इनको जानने की उपयोगिता है । धर्मध्यान : मुक्ति-साधना का प्रथम सोपान साधक के वे सब क्रिया-कलाप एवं विचारणा, जिनमें धर्म की प्रमुखता हो और आर्त- रौद्र परिणाम न हों, धर्म- क्रियाओं में परिगणित होती Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानयोग साधना हैं, सामान्यतया उन्हें धर्म-ध्यान कहा जाता है। किन्तु योग की दृष्टि से धर्मध्यान का अभिप्राय कुछ अधिक गहरा है। ___ सामान्यतया धार्मिक अनुचिन्तन और तत्त्व-विचारणा को धर्मध्यान कहा जाता है, और है भी; लेकिन साधक-तपोयोगी साधक का धर्मध्यान तत्त्व-विचारणा और तत्त्व-चिन्तन से और भी गहरा होकर तत्त्व-साक्षात्कार तक पहुँचता है। ध्यानयोगी अपने निर्मल अध्यवसाय की प्रबलता से तत्त्वों के साक्षात्कार में प्रयत्नशील रहता है । वस्तु अनन्त पर्यायात्मक है, अनन्त धर्मात्मक है। ध्यानयोगी साधक अपने ध्यान के लिए किसी भी एक अथवा अनेक गुणों, धर्मों तथा पर्यायों को ध्येय बनाकर, उनका आलम्बन लेकर अपने चित्त को उन ध्येयों अथवा आलम्बनों पर एकाग्र करता है; तब उसकी ध्यानयोग साधना सधती है। ___धर्मध्यान की साधना मोक्ष का परम्परा कारण है, प्रथम सोपान है । तपोयोगी साधक मुक्ति-प्राप्ति के लिए विशिष्ट साधना करता है। साधना की विशिष्टता, ध्याता की योग्यता, ध्यान के अवलम्बन आदि के आधार पर ध्यान के आठ अंग माने गये हैं। (१) ध्याता-ध्यान करने वाला साधक । साधक के चार लक्षण अथवा गुण शास्त्रों में बताये गये हैं-(क) आज्ञारुचि-यहाँ रुचि का अर्थ दृढ़ विश्वास-गहरी निष्ठा है । साधक को जिनेश्वर देव की आज्ञा, आर्हत् प्रवचन और सद्गुरुओं पर पूर्ण निष्ठा होनी चाहिए। (ख) निसर्गरुचिआर्हत् धर्म, सर्वज्ञ और सद्गुरुओं की ओर उसकी स्वाभाविक रुचि होनी चाहिए। उसमें किसी प्रकार की लौकिक कामना, दबाव अथवा एषणा नहीं होनी चाहिए। ऐसी स्वाभाविक रुचि की उपलब्धि साधक को उसके दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय अथवा क्षयोपशम से होती है। (ग) सूत्ररुचि-सूत्र अर्थात् आईत्-प्रवचन को सुनने, समझने और हृदयंगम करने की साधक में तीव्र रुचि होना आवश्यक है ; (घ) अवगाढ रुचि-साधक की रुचि अत्यन्त गहरी होनी चाहिए । यदि उसकी श्रद्धा, विश्वास आदि ढलमुल होंगे तो वह ध्यानसाधना में कभी भी सफल नहीं हो सकता।। इनके अतिरिक्त साधक के मन-मस्तिष्क में अपने स्वरूप को जानने की तथा संसार से मुक्त होने की प्रबल इच्छो आवश्यक है। साथ ही मन को नियन्त्रित करने, इन्द्रियों को वश में रखने और आत्मा को संवृत रखने की क्षमता भी जरूरी है। Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ जन योग : सिद्धान्त और साधना इन गुणों और क्षमताओं का धारक साधक ही ध्यान का अधिकारी होता है। (२) ध्येय - ध्यान करने योग्य पदार्थ, वस्तु और आलम्बन जिसका ध्यान किया जा सके, जिस पर मन को टिकाया जा सके, एकाग्र किया जा सके। (३) ध्यान - किसो एक विषय पर मन को केन्द्रित करना। (४) ध्यान का फल-यह कर्म निर्जरा है। इससे चित्त की पवित्रता और अन्तमुखी वृत्ति का विकास होता है।। (५) स्वामी- ध्यान का स्वामी तो अप्रमत्त मुनि है; किन्तु संयम की दिशा में बढ़ता हुआ साधक भी ध्यान का स्वामी होता है। (६) क्षेत्र-वह स्थान जहाँ अवस्थित होकर ध्यान किया जा सके । वह स्थान जन-कोलाहल तथा डांस-मच्छर आदि की बाधा से रहित होना चाहिए । स्थान की शुचिता भी शुभ-ध्यान की स्थिरता में सहायक होती है। साधक को ध्यान के लिए ऐसा स्थान चुनना चाहिए जहाँ राग-द्वष के निमित्तों की अल्पता हो। (७) काल-ध्यान का सर्वोत्तम समय ब्राह्म मुहर्त है। उस समय मन प्रफुल्लित रहता है तथा शरीर में ताजगी । ऐसे समय में चित्त सरलता से एकाग्र हो जाता है। (८) योगमुद्रा-इसे आसन भी कहते हैं। जिस आसन से भी साधक का चित्त सरलता से एकाग्र हो सके और साधक अधिक समय तक सुखपूर्वक स्थिर रह सके, वही आसन साधक के लिए उचित है। ध्या साधना की प्रारम्भिक अवस्था में साधक के लिए इन आठों अंगों की अनुकूलता अपेक्षित होती हैं, किन्तु ज्यों-ज्यों उसका अभ्यास दृढ़ होता जाता है, इन अंगों की अनुकूलता न होने पर भी वह ध्यान में लीन हो सकता है। धर्मध्यान के आगमोक्त चार भेद भगवती, स्थानांग, औपपातिक आदि आगमों तथा तत्त्वार्थसूत्र में धर्मध्यान के चार भेद' बताये गये हैं-(१) आज्ञाविचय, (२) अपायविचय, १ (क) भगवती २५/७ (ख) स्थानांग ४/१ (ग) औपपातिक. सूत्र ३० (घ) तत्त्वार्थसूत्र ६/३७ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भयोग सायबर २८५ (३) विपाकवित्रय, (४) संस्थानविचय । धर्मध्यान के ये चारों भेद आगमोक्त हैं। (१) आज्ञाविचय धर्मध्यान-आज्ञा का अभिप्राय है-किसी विषय को भली प्रकार जानकर उसका आचरण करना-(आसमान्तात् ज्ञायते आचरति)। योग-मार्ग में इसका अभिप्राय अरिहंत भगवान की आज्ञा, उनके द्वारा प्रणीत धर्म से है, तथा विचय का अर्थ है विचार; उस पर चित्त को एकाग्र करना धर्मध्यान है। सर्वज्ञ वीतराग तीर्थंकर देव ने वस्तु को प्रत्यक्ष देख-जानकर उसका उपदेश दिया है। उस उपदेश को जान-सुनकर साधक उन शब्दों के अर्थ को समझता है और फिर उन सभी तत्त्वों का आलम्बन लेकर साधक उनका साक्षात्कार करने का प्रयत्न करता है। साधक द्वारा तत्त्व-साक्षात्कार करने का यह प्रयत्न, आज्ञाविचय धर्मध्यान की साधना है। इसी साधना को 'आणाए तवो, माणाए संजमो' तथा 'आणाए मामयं धम्म सूत्र वाक्यों से प्रगट किया गया है । (२) अपायविचय धर्मध्यान-अपाय का अर्थ दोष अथवा दुगुण हैं। राग-द्वेष, क्रोधादि कषाय तथा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद आदि दोष हैं। उन दोषों की विशुद्धि के बारे में एकनिष्ठ होकर चिन्तन करना, अपायविचय धर्मध्यान है। साधक इस ध्यान में दोषों को जानता-समझता व देखता है और उनसे बचने के उपायों का चिन्तन करता है । (३) विपाकविचय धर्मध्यान-विपाक का अभिप्राय है कर्मफल । कर्मफल शुभ और अशुभ दोनों प्रकार का होता है। ध्यानयोगी साधक इन दोनों प्रकार के विपाकों को जानकर कर्मबन्ध की प्रक्रिया से छुटकारा पाने के प्रयासों का चिन्तन करता है। विपाकों को ध्येय बनाकर उन्हें अपने निजस्वभाव से पृथक समझने की साधना करता है। साथ ही साधक गुणस्थानों के आरोह क्रम से इन कर्मों से आत्मा के सम्बन्ध विच्छेद के विषय में चिन्तन करता है। (४) संस्थानविषय धर्मध्यान-संस्थान का अर्थ आकार है। ध्यानयोगी साधक इस धर्मध्यान में लोक के स्वरूप, छह द्रव्यों के १ सम्बोधसलरि ३२ २ कामासंग २/२ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ जैन योग : सिद्धान्त और साधना गुण-पर्याय, चातुर्गतिक संसार, द्रव्यों के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य, लोके की शाश्वतता-अशाश्वतता, द्रव्य की परिणामिनित्यत्वता, देव-मनुष्य-नारक-तिर्यंच चतुर्गति और लोक के ऊर्ध्व, अधो एवं तिर्यग् भाग आदि का चिन्तन करता है । उक्त विषयों पर ध्यान केन्द्रित करता है तथा इस प्रकार आत्म-विशुद्धि करता है।' धर्मध्यान के आलम्बन अपने निश्चित ध्येय तक पहुँचने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को आलम्बन की आवश्यकता पड़ती हैं । धर्मध्यान के साधक को भी इसी प्रकार आलम्बन आवश्यक है। - धर्मध्यान के आलम्बन चार हैं-(१) वाचना, (२) पृच्छना (३) परिवर्तना और (४) धर्मकथा।। ये चारों स्वाध्याय तप के भी भेद हैं किन्तु स्वाध्याय से ध्यान में इतनी विशेषता है कि इनमें गहराई अधिक होती है और एकनिष्ठता का भी समावेश हो जाता है। स्वाध्याय तप में तो ये स्वाध्याय के अंग हैं और ध्यान तप में ये आलम्बन हैं। इन आलम्बनों के सहारे ध्यानयोगी ध्यान में प्रवेश और प्रगति करता है। धर्मध्यान की चार अनुप्रेमाएँ अनुप्रेक्षा का अर्थ है-गहराईपूर्वक चिन्तन करना और उस चिन्तन में तल्लीन हो जाना । धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ हैं-(१) एकत्वानुप्रेक्षा, (२) अनित्यानुप्रेक्षा, (३) अशरणानुप्रेक्षा और (४) संसारानुप्रेक्षा। . इन अनुप्रेक्षाओं का ध्यानयोग के सन्दर्भ में विशेष महत्त्व है । अनुप्रेक्षायोग की साधना में तो साधक चिन्तन-मनन तक ही सीमित रहता है १ भगवान महावीर की ध्यानचर्या का वर्णन करते हुए बताया गया है अविझाइ से महावीरे, आसणत्थे अकुक्कुए झाणं । उड्ढं अहे तिरियं च, पेहमाणे समाहिपडिन्ने ।। -आचारांग अ० ६, उ०४, सूत्र १०८ भगवान महावीर ध्यान के योग्य आसन. पर निश्चलरूप से स्थिर होकर ऊर्ध्व, अधः और तिर्यक् लोकगत जीवाजीव पदार्थों का द्रव्य-पर्यायरूप से चिन्तन करते और आत्मशुद्धि का निरीक्षण करते थे। २ अनुप्रेक्षाओं का विस्तृत विवेचन इसी पुस्तक के 'भावना योग साधना' नामक अध्याय में किया गया है । सम्पादक Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्यानसोन साधना २८७ किन्तु ध्यानयोग की भूमिका में इन अनुप्रेक्षाओं पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है। एकत्व भावना के ध्यान में साधक स्वयं को एक देखता है अर्थात् राग-द्वष-कषाय आदि से अपनी आत्मा को विमुक्त देखता है। पर्याय दृष्टि से अनित्य अनुभव करता है। अशरण अनुप्रेक्षा द्वारा शुद्ध भावों को ही एक मात्र शरण और त्राता अनुभव करता है। संसारानुप्रेक्षा में वह ममत्व विसर्जन की साधना करता है।' ध्येय की अपेक्षा से ध्यान के भेद ध्येय की अपेक्षा से भी आचार्यों ने ध्यान के भेद किये हैं। इस अपेक्षा से ध्यान के तीन भेद हैं-(१) परावलम्बन ध्यान, (२) स्वावलम्बन ध्यान, (३) निरवलम्बन ध्यान । (१) परावलम्बन ध्यान-यह ध्यान बाहरी अवलम्बनों का आधार लेकर किया जाता है । साधक इस प्रकार के ध्यान में बाह्य वस्तुओं अथवा पदार्थों का अवलम्बन लेता है । दशाश्र तस्कंध में बारहवीं भिक्ष प्रतिमा में जो 'एक पुद्गल पर दृष्टि निक्षेप' ध्यान का वर्णन हुआ है, वह इसी ध्यान के अन्तर्गत है। .... (२) स्वावलम्बन ध्यान-इसमें साधक बाहरी पदार्थों का अवलम्बन नहीं लेता; अपने विचारों एवं कल्पनाओं द्वारा निर्मित भावों कल्पना-चित्रों पर चित्त को एकाग्र करता है। ___(३) निरवलम्बन ध्यान-इस ध्यान में साधक न बाहरी अवलम्बनों का आश्रय लेता है और आन्तरिक अवलम्बनों का। वह स्थिति पूर्णतया विचार और विकल्पशून्य होती है । .. इस साधना में साधक का ध्यान स्थूल से सूक्ष्म और सूक्ष्मतर होता चला जाता है। सूक्ष्म होने पर साधक का चित्त स्थिर और संकल्प-विकल्प रहित हो जाता है, उसकी धर्मध्यान की साधना पूर्ण हो जाती है। योग की अपेक्षा से धर्मध्यान के भेद . त्रियोग का निरोध और निश्चलता योग है। योग साधना का ध्येय तीनों योगों और विशेषरूप से मनोयोग को-चित्तवृति को स्थिर करना, एक ध्येय पर लगाना है । चित्त की स्थिरता के लिए आचार्य हेमचन्द्र तथा शभचन्द्र ने पाँच धारणाएँ बताई हैं-(१) पाथिवी धारणा, .१ ध्यानशतक ३१ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैम योग : सिद्धान्त और साधना (२) आग्नेयी धारणा, (३) वायवी धारणा, (४) वारुणी धारणा और (५) तत्त्वरूपवती धारणा ।' इनका स्वरूप इस प्रकार है २८८ (१) पार्थिवी धारणा - किसी भी आसन से बैठकर साधक मेरुदण्ड को सीधा रखता है और फिर नासाग्र पर दृष्टि को जमाकर अथवा आँखें बन्द करके कल्पना द्वारा इस चित्र को स्पष्ट सामने लाता है— मध्यलोक के समान विशाल और गोल आकृति का एक क्षीर सागर है, जिसमें दूध के समान सफेद जल भरा है । सागर में हल्की-हल्की सहज तरंगें उठ रही हैं । उसके मध्य में स्वर्ण के समान पीले रंग का चमकता हुआ हजार पंखुड़ियों का एक कमल है। कमल की कणिका मेरु पर्वत के समान उत्तंग है । उसके सर्वोच्च शिखर पर अर्द्धचन्द्राकार पांडुकशिला पर धवल श्वेत वर्ण का सिंहासन है । उस सिंहासन पर मेरा आत्मा ( मैं स्वयं) आसीन है । कमल की कणिका और पंखुड़ियों से पद्मराग (पीला रंग ) बिखर कर चारों ओर फैल रहा है और उसने समस्त दिशा - विदिशाओं को पीला कर दिया है । यह सम्पूर्ण कल्पना चलचित्र के चित्रों के समान साधक के दृष्टि-पथ पर साकार होती है और वह पृथ्वी के बीज 'हं' 'सोऽहं का जप ध्यान करता रहता है । इस प्रकार की धारणा से साधक का मन ध्येय में बँध जाता है, स्थिर हो जाता है । वह पार्थिवी धारणा का स्वरूप है । (२) आग्नेयी धारणा - पार्थिवी धारणा के पश्चात् साधक आग्नेयी धारणा की साधना करता है । साधक पांडुकशिला स्थित सिंहासन पर विराजमान अपने आत्मा का चिन्तन करने के बाद, अपने नाभि-स्थान में सोलह पंखुड़ियों वाले एक कमल की रचना करता है, उन सोलह पंखुड़ियों पर सोलह मातृ का वर्ण (अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ,ऋ, लृ, लृ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः) की स्थापना करता है तथा मध्य कर्णिका पर देदीप्यमान अग्नि के समान 'ह' या 'अहं' अक्षर की स्थापना करता है । तदुपरान्त हृदय स्थान पर धूम्र वर्ण के एक उल्टे लटके ( अधोमुख) अष्टदल कमल की कल्पना करता है, जिसकी आठों पंखुड़ियों पर अष्ट कर्म (ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और १ हेमचन्द्राचार्य – योगशास्त्र ७ / १ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानयोग साधना २८६ अन्तराय) की स्थापना करता है। तदुपरान्त ऐसा चिन्तन करता है कि 'अहं' या 'ह' अक्षर की रेफ से धुआ निकल रहा है और फिर धुंआ धगधगाती जाज्वल्यमान अग्नि में परिवर्तित हो गया है। उस अग्नि ने अष्टकर्मों सहित अष्ट दल कमल को भी भस्म कर दिया है तथा वह ज्वाला मस्तक (कपाल) तक पहँच गई है। वहाँ से अग्नि की एक लकीर बाईं ओर नीचे की तरफ तथा दूसरी दाईं ओर नीचे की तरफ उसके आसन तक आ पहुँची है तथा आसन के आधार से चलकर एक-दूसरी से मिल गई हैं। इस प्रकार एक त्रिकोण की आकृति बन गई है, जिसका आधार उसका आसन है और शीर्ष उसका कपाल । उसका सम्पूर्ण शरीर अग्निमय हो गया है तथा अग्नि का बीजाक्षर 'र' स्फुरित हो रहा है तथा त्रिकोण के तीनों कोणों और साधक के दोनों स्कन्धों पर अग्निमय स्वस्तिक निर्मित हो गये हैं। इसके उपरान्त साधक कल्पना करता है कि अब जलाने को कुछ भी नहीं बचा अतः ज्वालाएँ शान्त हो गई हैं। यह आग्नेयी धारणा का स्वरूप है। (३) वायवी धारणा-इस धारणा में साधक कल्पना करता है कि तीव्रगति वोला चक्राकार पवन चल रहा है और उसने समस्त भस्म को उड़ा दिया है, साथ ही वायु के बीजाक्षर 'सोऽयं' का जप ध्यान भी करता जाता है। यह वायवी धारणा का स्वरूप है। (४) वारणी धारणा--अब साधक कल्पना करता है कि उमड़-घुमड़ कर घटाएँ घिर आई हैं और बिजली कौंध रही है तथा सहस्रधारा जल वर्षा हो रही है, चारों ओर जल ही जल हो गया है तथा वह साधक भी आपादमस्तक उसमें डूब गया है । जो कुछ भी रज (कर्म-रज) अवशेष रह गई थी वह इस जल से साफ हो गई है और उसकी आत्मा स्वच्छ तथा निर्मल हो इस सम्पूर्ण कल्पना में साधक जप का बीजाक्षर 'सोऽदं' का जपध्यान भी करता रहता है। कोई-कोई साधक जल के पर्यायवाची 'पानी' शब्द के आधार पर 'प' को भी बीजाक्षर मानते हैं। यह वारुणी धारणा का स्वरूप है। (५) तत्त्वरूपवती धारणा-इस धारणा में साधक अपनी आत्मा को Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० जन योग : सिद्धान्त और साधना स्वच्छ, शुद्ध, कर्ममल से रहित-निर्मल देखता और अनुभव करता है । वह अपनी आत्मा को अनन्त ज्ञान-दर्शन-सुख-शक्तिसम्पन्न अनुभव करता है । ___ इन पाँच धारणाओं' के सिद्ध हो जाने पर साधक की आत्म-शक्तियाँ जागृत हो जाती हैं, वह बाहरी विरोधी शत्तियों से अपराजेय हो जाता है । ध्यान-साधना की अपेक्षा धर्मध्यान के भेव ध्यान साधना अथवा ध्यान आलम्बन की अपेक्षा से धर्मध्यान के चार भेद बताये गये हैं-(१) पिण्डस्थ, (२) पदस्थ, (३) रूपस्थ और (४) रूपातीत । हेमचन्द्राचार्य ने इन्हें आलम्बन रूप ध्येय कहा है। (१) पिण्डस्थ ध्यान-पिण्ड का अर्थ शरीर है और उसमें अवस्थित रहने वाला आत्मा है। पिण्ड यानी शरीर सहित ओत्मा का ध्यान पिण्डस्थ ध्यान है। ऊपर जो पार्थिवी आदि धारणाओं का वर्णन किया गया है वह सब पिण्डस्थ ध्यान के अन्तर्गत है। इन पाँचों धारणाओं को सिद्ध करके आत्मशक्तियों को जागृत करना, चित्तवृत्ति को एक ध्येय पर स्थिर करना पिण्डस्थ ध्यान है। . (२) पदस्थ ध्यान-यह अक्षरात्मक होता है। इसमें एकाक्षरी मन्त्र, जैसे 'ॐ' "ह" आदि का; दो अक्षरी मन्त्र, जैसे 'अहं' का तथा इसी प्रकार पैंतीस अक्षर वाले नवकार मन्त्र तथा नवपद का भी ध्यान किया जाता है। जप और जप-ध्यान में अन्तर यह है कि जप में तो मन्त्र की पुनरावृत्ति मात्र होती है और जप-ध्यान में मन्त्र का उसके रंग आदि के साथ साक्षात्कार भी किया जाता है; अर्थात् मन्त्र के अक्षर, उनके निर्धारित रंगों १ आचार्य हेमचन्द्र : योगशास्त्र ७/६-२८ २ पदस्थ मन्त्रवाक्यस्थं, पिण्डस्थ-स्वात्मचिन्तनम् । रूपस्थसर्वचिद्र पं, रूपातीतनिरंजनं । -योगीन्दुदेवकृत परमात्मप्रकाश की टीकागत श्लोक ३ पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत ध्यान के विस्तृत वर्णन के लिए द्रष्टव्य हैं योगशास्त्र के प्रकाश संख्या ७,८,६ और दसवें प्रकाश के छठे श्लोक तक । ४ नवकार-नवपद आदि महत्त्वपूर्ण मन्त्रों की साधना का विस्तृत सांगोपांग वर्णन इसी पुस्तक के अन्तिम अध्याय में किया गया है। -सम्पादक Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानयोग साधना २६१ और तत्त्वों आदि के साथ साधक के ज्ञान चक्षुओं के समक्ष स्पष्ट प्रतिभासित होते हैं। पदस्थ ध्यान में साधक अपनी इच्छानुसार विभिन्न मन्त्रों का जपध्यान करके चित्तवृत्तियों को स्थिर करता है। (३) रूपस्थ ध्यान-रूपयुक्त तीर्थंकर आदि इष्टदेव का ध्यान करना रूपस्थ ध्यान है। इसमें साधक अरिहंत भगवान का समवसरण-स्थित रूप में ध्यान करता है और स्वयं को उसमें तल्लीन बना लेता है। (४) रूपातीत ध्यान-इसमें साधक निरंजन, निर्विकार, सिद्ध स्वरूप का अथवा अपनी शुद्धात्मा का ध्यान करता है। - यह ध्यान निरवलम्बन है। इसमें न किसी प्रकार का मन्त्र-जप होता है, न कोई अवलम्बन; साधक अपनी शुद्धात्मा के स्वरूप को स्थिर होकर जानता है, देखता है और उसी में तल्लीन होता है, आत्मा के ज्ञान-दर्शनचारित्र-सुख आदि गुणों में अपनी चित्तवृत्ति को स्थिर कर लेता है। धर्मध्यान की फलश्रुति . धर्मध्यान की साधना से लेश्याओं की शुद्धि, वैराग्य की प्राप्ति और शुक्लध्यान की योग्यता प्राप्त होती है। धर्मध्यान, शुक्लध्यान का उपायभूत ध्यान है। यह मोक्ष मन्दिर में पहुँचने की प्रथम सीढ़ी है और इसके बाद की अन्तिम सीढ़ी शुक्लध्यान है। अतः योग-मार्ग में प्रवृत्त साधक के लिए तीनों योगों (मन, वचन, काया) की स्थिरता और मानसिक शान्ति तथा आध्यात्मिक जागृति एवं उन्नति के लिए धर्मध्यान बहुत ही उपयोगी है। साथ ही यह मुक्ति प्राप्ति की परम्पर साधना है। परम्पर साधना इस अपेक्षा से कि इसके बाद साधक शक्लध्यान की साधना करता है जो कि मुक्ति का साक्षात कारण है, और शुक्लध्यान की साधना से वह मुक्ति प्राप्त करता है। महाप्राणध्यान साधना जैन योग और जैन योगियों की विशिष्ट ध्यान साधना पद्धति महाप्राणध्यान साधना है। यह साधना जैन परम्परा के योगियों और साधकों में ही प्रचलित थी, अन्य योग सम्प्रदायों में इस साधना पद्धति का कोई उल्लेख नहीं मिलता । अतः यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि महाप्राणध्यान साधना, जैन योग की एक विशिष्ट साधना पद्धति है। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ जैन योग : सिद्धान्त और साधना महाप्राणध्यानयोग में साधक अपने तीनों योगों को निश्चेष्ट करने की साधना करता है। इस साधना के लिए वह अपने प्राणों को स्थूल से सूक्ष्म करता है । प्राण से यहाँ अभिप्राय है श्वासोच्छ्वास । साधक श्वासोच्छ्वास की गति धीमी करता जाता है। धीरे-धीरे सतत अभ्यास से गति इतनी सूक्ष्म हो जाती है कि साधक का शरीर निश्चेष्ट शव के समान पड़ा रहता है, सिर्फ ब्रह्मरन्ध्र में ही प्राण का संचार होता रहता है। ___ इस ध्यान-साधना से मस्तिष्कीय शक्तियाँ अत्यधिक विकसित हो जाती हैं, द्वादशांग श्रत की विशाल राशि का पारायण साधक एक अन्तमुहूर्त (४८ मिनट से कम समय) में ही करने में सक्षम हो जाता है, उसकी अतीन्द्रिय ज्ञान की क्षमताएं भी बहुत विकसित हो जाती हैं, वह भूत-भविष्य की बातें भी जानने लगता है। असाधारण साधक तो इतना उच्च श्रेणी पर अवस्थित हो जाता है कि वह अपने प्राणों को ब्रह्मरन्ध्र तक ही सीमित रखता है। ऐसे योगी शान्त, एकान्त, निर्जन वन, कन्दराओं में ध्यानस्थ रहते थे । साधारण साधक ब्रह्मरन्ध्र के साथ पैर के अंगूठे में भी प्राणधारा को प्रवाहित रखते थे अतः पैर के अंगूठे को दबाने से उनकी समाधि खुल सकती थी, प्राणों का प्रवाह पूरे शरीर में होने लगता था। _इस विशिष्ट साधना का ध्येय संवर और निर्जरायोग को उत्कृष्ट साधना था। तीनों योगों के स्थिर होने से संवरयोग सधता था तथा पुराने संचित और आत्मा से लिप्त कर्म निर्जीर्ण होते चले जाते थे। साधक की कर्मनिर्जरा तीव्र गति से होती थी। साधक दीर्घकाल तक–महीनों तक समाधि में लीन रह सकता था। साधारणतया महाप्राणध्यान की साधना पूर्वज्ञान के धारक उत्कृष्ट योगी किया करते थे। इससे उनका ज्ञान निर्मल रहता था और विस्मत नहीं हो पाता था । पूर्वज्ञान की विलुप्ति और दृष्टिवाद अंग की विलुप्ति के साथ यह ध्यान साधना भी विलुप्त हो गई। अब तो इस ध्यान साधना और साधकों का उल्लेख मात्र ही शास्त्रों में प्राप्त होता है। इस महाप्राणध्यान साधना के साधकों के दो नाम प्राचीन ग्रंथों में विशेष रूप में प्राप्त होते हैं। उनमें से एक साधक हैं-अंतिम श्र तकेवली आचार्य भद्रबाहु और दूसरे हैं आचार्य पुष्यमित्र । Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानयोग साधना २६३ आचार्य भद्रबाहु महासाधक थे । इन्होंने महाप्राणध्यान की साधना नेपाल की एकान्त, शान्त, निर्जन गुफा में की थी । इनके साथ कोई उत्तरसाधक होने का उल्लेख नहीं मिलता, अर्थात् इन्होंने अकेले ही साधना की थी । अकेले साधना करने वाले साधक का मनोबल बहुत ऊँचा होता है, वह स्वयं ही महाप्राणध्यान साधना से पहले काल- मान निश्चित कर लेता है कि 'अमुक समय तक मैं समाधिस्थ रहूँगा' और फिर अपने प्राणों को सूक्ष्म अतिसूक्ष्म कर लेता है । उस समय उसका आसन ' पर्यंकासन' अथवा 'शवासन' होता है । सूक्ष्मतम प्राण उसके ब्रह्मरंध्र में ही गतिशील रहता है । ऐसी उच्च कोटि की महाप्राणध्यान साधना श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु ने की थी । दूसरे साधक थे आचार्य पुष्यमित्र । ये भी महाप्राणध्यान साधना करना चाहते थे । प्राणों को सूक्ष्म करने की विधि तो इन्हें ज्ञात थी किन्तु इन्हें एक कुशल उत्तरसाधक की आवश्यकता थी । आचार्य पुष्यमित्र का एक शिष्य था । था तो वह अत्यन्त कुशल, मेधावी और सजग-सावधान; किन्तु आचार्यश्री से किसी बात पर थोड़ा सा मतभेद हो जाने के कारण वह अन्यत्र चला गया था । आचार्यश्री ने उसे योग्य उत्तरसाधक समझकर अपने पास बुलाया और महाप्राण ध्यान साधना करने की अपनी इच्छा प्रगट की तथा उसे उत्तरसाधक बनने को कहा । शिष्य ने उत्तरसाधक बनने का गुरुतर कार्य स्वीकृत कर लिया । आचार्यश्री धर्मस्थानक के भीतरी कक्ष में जाकर महाप्राणध्यान साधना में लीन हो गये और शिष्य ने उत्तरसाधक का भार सँभाल लिया । उत्तरसाधक का कार्य बहुत ही महत्त्वपूर्ण होता है । उस पर जिम्मेवारी भी अत्यधिक होती है । साधक के शरीर की सुरक्षा, समाधि के बाह्य विघ्नों आदि से सुरक्षा का भार उसी पर होता है । साधक तो समाधि में लीन होकर निश्चेष्ट हो जाता है; किन्तु बाहरी सभी व्यवधानों और बाधाओं का निराकरण करने का भार उत्तरसाधक पर आ जाता है । कभीकभी ऐसी भी स्थिति आ जाती है, अज्ञानी एवं समाधि की इस उच्च भूमिका से अनभिज्ञ लोग वातावरण को इतना दूषित कर देते हैं, कि उत्तरसाधक उस विपरीत परिस्थिति को सँभाल नहीं पाता और उसे साधक की समाधि असमय ही भंग करनी पड़ती है । वह साधक के दाएँ पैर के अंगूठे को Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जैन योग : सिद्धान्त और साधना दबाकर उसकी ऊर्ध्वगतिशील चेतना धारा को नीचे लाता है। परिणामस्वरूप साधक के संपूर्ण शरीर में प्राणों का संचार हो जाता है, उसकी समाधि भंग हो जाती है। ऐसी ही स्थिति आचार्य पुष्यमित्र के शिष्य उत्तरसाधक के सामने उपस्थित हो गई, उसे भी अपने गुरुदेव की समाधि भंग करनी पड़ी। घटना यों हई आचार्य पुष्यमित्र तो कक्ष में जाकर 'शवासन' (शरीर का शव के समान निश्चल, निश्चेष्ट और निष्क्रिय हो जाना-शारीरिक हलन चलन का पूर्ण अभाव होना) से लेट गये और प्राण को अतिसूक्ष्म करके महाप्राणध्यान साधना में लीन हो गये। उनका उत्तरसाधक वह शिष्य सावधानी से चौकसी करने लगा कि कोई भी व्यक्ति उनके पास जाकर उनकी समाधि भंग न कर दे। आचार्यश्री के और भी शिष्य थे। उन्होंने देखा कि आचार्यश्री बाहर नहीं आ रहे हैं तो वे दो-तीन दिन तो चुप रहे, फिर उन्होंने आचार्यश्री के पास जाने का आग्रह किया । उस शिष्य ने उन्हें रोका । इस पर इन्हें उत्तरसाधक पर शक हो गया कि 'इसने गुरुदेव को मार दिया है, अन्यथा उनके दर्शनों से रोकने का दूसरा क्या कारण हो सकता है।' अब तो उनका आग्रह अधिक उग्र हो गया। उत्तरसाधक ने खिड़की से उन शिष्यों को गुरुदेव के दर्शन करा दिये। शिष्यों ने गुरुदेव को निश्चेष्ट शव के समान स्थिर देखा तो उनका शक विश्वास में बदल गया। उन्होंने तुरन्त यह समाचार श्रावक संघ तक पहुँचा दिया और श्रावक संघ ने राजा को कह सुनाया। राजा भी आचार्यश्री का परम भक्त था। तुरन्त राजा सहित श्रावक संघ और नगर के नरनारी इकट्ठे हो गये और उस उत्तरसाधक को बुरा-भला कहने लगे । भीषण संकट उपस्थित हो गया। __ इस संकट से उबरने का उत्तरसाधक के पास एक ही उपाय था, और वह था गुरुदेव की समाधि को भंग करना। उसने ऐसा ही किया । गुरुदेव के दाहिने पैर का अंगूठा दबाया। गुरुदेव की प्राणधारा जो ब्रह्मरंध्र में ही बह रही थी, अधोमुखी हुई, संपूर्ण शरीर में प्राणों का संचार हुआ। गुरुदेव उठ बैठे, आँखें खोलकर उत्तरसाधक से कहा- वत्स ! इतनी जल्दी तुमने मेरी समाधि क्यों भंग कर दी? मैं तो लम्बे समय तक समाधिस्थ रहना चाहता था। Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानयोग साधना २६५ उत्तरसाधक ने अपनी विवशता बताई - गुरुदेव ! बाहर देखिए, क्या हो रहा है ? ऐसे संकट के समय मैं और क्या करता ? मेरे पास और उपाय ही क्या था ? जैसी अघट घटना आचार्य पुष्यमित्र के साथ घटित हुई, वैसी, संभव है, अन्य साधकों के साथ भी घटित हुई हों। ऐसी घटनाएँ भी महाप्राणध्यान साधना की विलुप्ति का कारण बनी होंगी । यद्यपि महाप्राणध्यान साधना विलुप्त हो गई फिर भी जैन शास्त्रों में साधक को प्रेरणा दी गई कि वह सूक्ष्म प्राणायाम के साथ धर्म और शुक्लध्यान की साधना करे । ' इस प्रकार महाप्राणध्यान साधना के विलुप्त होने पर भी संवरयोग के रूप में सूक्ष्मप्राण साधना जैन साधकों में चलती रही । ताव हुमाणुपाणू, धम्मं सुक्कं च झाइज्जा । →→ - आवश्यक नियुक्ति १५१४; - आवश्यक नियुक्ति अवचूर्णि, पृ०२२१ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ शुक्लध्यान एवं समाधियोग शुक्लध्यान : मुक्ति को साक्षात साधना शुक्लध्यान, ध्यानयोग की सर्वोत्कृष्ट दशा है। इसमें चितवृत्ति की एकाग्रता तथा निरोध पूर्ण रूप से सम्पन्न होता है । वीतरागता की साधना इसी दशा में पूर्णत्व को प्राप्त होती है। साधक जिस लक्ष्य को लेकर योगमार्ग पर प्रवत्ति करता है, इस ध्यान की दशा में उस लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। ध्यानशतक की टीका में हरिभद्रसूरि ने शक्लध्यान का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ—'शोकनिवर्तक और एकाग्रचित्त निरोध' किया है। अर्थात् जिससे आत्मगत शोक की सर्वथा निवृत्ति हो जाय ऐसा एकाग्रचित्तनिरोध शुक्लध्यान है।' शक्लध्यानी साधक के मन की सभी विषय-वासनाएँ और कषाय नष्ट हो जाते हैं, परिणामस्वरूप उसको चितवत्ति निर्मल हो जाती है। इसीलिए शुक्लध्यान का वर्ण शंख के समान श्वेत माना गया है। निर्मल चित्तवृत्ति होने से उसके ध्यान में स्थिरता आती है, मन विभावों और बाह्य भावों में नहीं दौड़ता तथा शुद्ध आत्मस्वरूप और आत्मिक गुणों पर एकाग्र हो जाता है। चित्त की निर्मलता और ध्यान की एकाग्रता से साधक की कर्म-निर्जरा तीव्र गति से होती है । वह गुणस्थानों का आरोहण करता हुआ, अनेक जन्मों के संचित और संश्लिष्ट कर्मों को मुहर्त मात्र (४८ मिनट) में ही क्षय करने में समर्थ हो जाता है । शुक्लध्यान का अधिकारी ऐसी महान् सामर्थ्य और क्षमता प्रत्येक तथा साधारण साधक प्राप्त १ शुचं क्लमयतीति शुक्लं -शोकं ग्लपयतीत्यर्थः । -ध्यानशतक, श्लोक १ की टीका Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक्लध्यान एवं समाधियोग २६७ नहीं कर पाता । इसके लिए साधक में विशिष्ट मानसिक तथा शारीरिक शक्ति अपेक्षित है। __ जिस प्रकार बच्चों के पटाखों में प्रयुक्त होने वाले साधारण कोटि के बारूद से पहाड़ नहीं उड़ाये जा सकते, उसके लिए विशिष्ट शक्तिशाली बारूद की आवश्यकता होती है और उस बारूद को सुरक्षित रखने के लिए अत्यन्त मजबूत लोहे के सिलिण्डर की भी आवश्यकता होती है। साथ ही बहुत ही ऊँचे दर्जे की (१६००० वोल्ट की) विद्य त-धारा भी आवश्यक होती है इन तीनों साधनों के अभाव में पहाड़ नहीं उड़ाये जा सकते । यही स्थिति सघन, सचिक्कण, अत्यन्त प्रगाढ़ रूप से आत्मा के साथ संश्लिष्ट अनन्तानन्त पौद्गलिक कर्मवर्गणाओं के समूह को नष्ट करने के बारे में है । शुक्लध्यानी साधक का शरीर इतना बलिष्ठ होना चाहिए कि वह सभी प्रकार के उपसर्गों और परीषहों को समभाव से सहन कर सके, साथ ही स्वस्थ हो जिससे साधना में विघ्न रूप न होकर सहायक बने । उसका वैराग्य भाव इतना प्रबल हो कि इन्द्र का ऐश्वर्य देखकर भी न डिगे और शक्ति एवं आत्मिक ऊर्जा इतनी उत्कृष्ट हो कि वह ध्यानाग्नि द्वारा कर्म समूह को भस्म कर सके। इन्हीं शक्तियों की अपेक्षा से शुक्लध्यान को योग्यता उत्तम संहननधारियों को बताई है। इसीलिए स्थानांग' आदि आगमों में शुक्लध्यानी के लिंग, आलम्बन और अनुप्रेक्षाओं का वर्णन किया गया है । शुक्लध्यानी के लिंग लिंग का अभिप्राय चिन्ह अथवा लक्षण है। शुक्लध्यानी के चार लक्षण होते हैं (१) अव्यथ-शुक्लध्यानी साधक मानव, देव, तिर्यंच कृत उपसर्गों और सभी प्रकार के परीषहों को समभाव से सहने में सक्षम होता है । वह न तो भयभीत होता है, न उनका प्रतीकार करता है और न ही अपने मन को १ तत्त्वार्थसूत्र ६/२७, वज्रऋषभनाराच, ऋषभनाराच और नाराच-ये तीन उत्तम संहनन हैं। २ स्थानांग, स्थान ४, उद्देशक १, सूत्र २४७ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ जैन योग : सिद्धान्त और साधना विचलित ही करता है; अपितु उनको समभावपूर्वक सहता हुआ अपनी साधना में निरत रहता है । (२) असम्मोह - शुक्लध्यानी साधक की श्रद्धा अचल होती है । देवदानव - गन्धर्व - राक्षस- मनुष्य कोई भी उसे उसकी श्रद्धा से नहीं डिगा सकता । इन्द्र आदि भी अपनी विकुर्वणा से उसे विचलित नहीं कर सकते । (३) विवेक -- शुक्लध्यानी साधक का तत्त्व विषयक विवेक बहुत गहरा होता है । वह जीव को जीव और अजीव को अजीव मानता है । आत्मा और शरीर की पृथक्ता का उसे पूर्ण विश्वास होता है । ( ४ ) व्युत्सर्ग - वह सभी प्रकार की आसक्तियों से विमुक्त होता है । उसमें भोगेच्छा और यशेच्छा किंचित् मात्र भी नहीं होती । इन्द्र की विभूति और ऐश्वर्य को भी तृणवत् मानता है, उसकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखता तथा निरन्तर अपने वीतराग भाव में निरत रहता है और उसे बढ़ाता जाता है । इन लक्षणों से शुक्लध्यानी योगी की पहचान की जा सकती है । शुक्लध्यान के आलम्बन ध्यान के सन्दर्भ में आलम्बन साधक के लिए सहायक रूप में होते हैं जिनके सहारे से साधक आत्मिक प्रगति के सोपानों पर चढ़ता है तथा शिखर पर पहुँचता है । 'आलम्बन' चार हैं (१) क्षमा-1 - शुक्लध्यानी साधक क्रोधविजेता होता है । उसमें उत्तम क्षमा साकार होती है । कैसा भी क्रोध का प्रसंग सामने उपस्थित हो, किन्तु उसके मानस में कभी क्रोध नहीं आता । (२) मार्दव - शुक्लध्यानी साधक मान ( कषाय ) पर विजय प्राप्त कर लेता है, उसके मन-मस्तिष्क में मान सम्बन्धी विचार भी नहीं आते । (३) आजर्व - शुक्लध्यानी साधक का चित्त अत्यन्त सरल होता है, वह माया ( कपट) का पूर्ण रूप से परित्याग कर चुका होता है । (४) मुक्ति - शुक्लध्यानी साधक लोभ से पूर्णतया मुक्त होता है । क्षमा, मार्दव, आर्जव और मुक्ति (निर्लोभता ) - इन चार आलम्बनों द्वारा शुक्लध्यानी साधक अपनी साधना में प्रगति करता है। शुक्लध्यान में आरूढ़ होता है । १ ध्यानशतक ६६. Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक्लध्यान एवं समाधियोग २६६ शुक्लध्यान की अनुप्रेक्षाएँ चंचल मन को स्थिर करने के लिए शुक्लध्यानी साधक चार अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करता है। (१) अनन्ततितानुप्रेक्षा-इस अनुप्रेक्षा में साधक संसार का अथवा अनंत भव परम्परा का चिन्तन-मनन करता है। (२) विपरिणामानुप्रक्षा-इस अनुप्रेक्षा में साधक वस्तुओं के परिणमनशील स्वभाव पर चिन्तन करता है । वह विचार करता है कि सभी वस्तुएँ प्रतिपल-प्रतिक्षण परिवर्तित होती रहती हैं, शुभ अशुभ में बदलती हैं और अशुभ शुभ में । अतः सभी वस्तुएँ अहेयोपादेय (न ग्रहण करने योग्य और न छोड़ने योग्य) हैं । इस अनुप्रेक्षा के चिन्तन से साधक की वस्तुओं, यहाँ तक कि अपने शरीर की भी आसक्ति छूट जाती है। (३) अशुभानुप्रेक्षा-इस अनुप्रेक्षा में साधक संसार के अशुभ रूप का गहराई से चिन्तन करता है। फलस्वरूप उसका निर्वेद भाव प्रबल हो जाता है। (४) अपायानुप्रेक्षा-अपाय का अर्थ है दोष । साधक इस अनुप्रेक्षा में आस्रव आदि दोषों पर गहराई से चिन्तन करता है। इससे वह आस्रवों से विरक्त हो जाता है। ___ इन भावनाओं के चिन्तन-मनन-अनशीलन से साधक की बहिर्मुखता नष्ट हो जाती है, उसका चित्त वैराग्य में और ध्यान साधना में दृढ़ हो जाता है। कर्म-ग्रंथों की अपेक्षा से विचार किया जाय तो शक्लध्यान के अधिकारी दो प्रकार के साधक ही हो सकते हैं-(१) क्षीणकषायी, जिनके दर्शनमोहनीय कर्म और अनन्तानबन्धी (अनन्त संसार में परिभ्रमण कराने वाले) क्रोध, मान, माया, लोभ कषाय पूर्णतया नष्ट हो गये हों; और (२) उपशान्त कषायी, जिनके ये कषाय उपशमित-शान्त हो गये हों। ___ शुक्लध्यान की साधना करने वाला साधक श्रेणी का आरोहण करता है तथा श्रेणो आरोहण के लिए अनन्तानबन्धी कषायों का अभाव अत्यावश्यक है; इन कषायों के सद्भाव में श्रेणी आरोहण हो ही नहीं सकता। इसीलिए शुक्लध्यानी साधक इन कषायों से दूर ही रहता है, इन कषायों को उपशमित एवं क्षय करता है । कषाय का किंचित् भी सद्भाव शुक्लध्यान का सबसे बड़ा विघ्न है। इसीलिए शुक्लध्यान के चार आलंबन बताये गये हैं, जिनमें कषायविजय स्पष्टतया सन्निहित है। Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० जन योग : सिद्धान्त और साधना शुक्लध्यान के भेद शुक्लध्यान के चार भेद बताये हैं-(१) पृथक्त्ववितर्क सविचार (२) एकत्ववितर्क अविचार (३) सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती और (४) व्युपरतक्रिया निवृत्ति । इन में से प्रथम दो ध्यान (पृथक्त्ववितर्क सविचार और एकत्ववितर्क अविचार) आठवें से बारहवें गुणस्थान अर्थात् छद्मस्थ योगी को होते हैं और शेष दो ध्यान सर्वज्ञ केवलज्ञानी को होते हैं। इनमें से भी चतुर्थ ध्यान केवली को भी आयु के अन्तिम भाग में होता है। प्रथम दो भेदों में बाह्य अवलंबन की आवश्यकता तो बिल्कुल नहीं रहती किन्तु श्र तज्ञान और योग का अवलंबन रहता है तथा अन्तिम दो ध्यानों में किसी भी प्रकार का अवलम्बन नहीं रहता। इस अपेक्षा से शुक्लध्यान के प्रथम दो भेद सावलंबन और अन्तिम दो भेद निरवलम्बन होते हैं। यद्यपि तेरहवें गुणस्थानवर्ती केवलज्ञानी परमात्मा सयोगी होते हैं, अर्थात् उनके मन-वचन-काया तीनों योग होते हैं और इन तीनों योगों का व्यापार भी होता है-अर्थात् वे धर्मोपदेश भी देते हैं और गमनागमन किया भी करते हैं किन्तु उनका शुक्लध्यान (सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती) इन योगों के आश्रित नहीं होता; योग वहाँ द्रव्य रूप से उपस्थित रहते हैं, भावरूप से नहीं। अतः इस अपेक्षा से, अर्थात् योगों की अपेक्षा से (१) पृथक्त्ववितर्क सविचार शक्लध्यान-तीनों योग वाले को, मनवचन-काया-इन तीनों योग वालों को; (२) एकत्ववितर्क अविचार शुक्लध्यान-तीनों में से किसी एक योग वाले को; (३) सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाती शुक्लध्यान-केवल काय योग वालों को; (४) समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति शुक्लध्यान-सर्वयोगरहित अयोगी; को होता है। १. व्येकयोगकाययोगायोगानाम् । -~-तत्त्वार्थ सूत्र ६/४२ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक्लध्यान एवं समाधियोग ३०१ ज्ञान की अपेक्षा शुक्लध्यान के प्रथम दोनों भेदों में उत्कृष्ट श्रुतज्ञान होता है तथा अन्तिम दोनों भेदों में सिर्फ केवलज्ञान । प्रथम दोनों शुक्लध्यानों का आश्रय एक है - श्रुतज्ञान | आगमों और शास्त्रों में बताया गया है कि प्रथम दो शुक्लध्यानों के अधिकारी श्रुतकेवली, चौदह पूर्वधर आदि विशिष्ट श्रुतज्ञानी होते हैं ।' पूर्वज्ञान के आश्रय से ही साधक शुक्लध्यान का प्रारंभ करता है । ये दोनों ही सवितर्क अर्थात् श्रुतज्ञान सहित है । इनमें से पहला शुक्लध्यान - पृथक्त्ववितर्क सविचार, भेदप्रधान है । पृथक्त्व का अर्थ है भेद; वितर्क का अभिप्राय श्र ुतज्ञान और विचार का अभिप्राय अर्थ, व्यंजन और योग का संक्रमण है 13 दूसरा शुक्लध्यान अभेद अर्थात् एकत्व प्रधान है, इसमें अर्थ, व्यंजन और योग का संक्रमण नहीं होता । इन पारिभाषिक शब्दों का अभिप्राय समझ लेने के बाद यह हृदयंगम करना सरल होगा कि साधक शुक्लध्यान की साधना किस प्रकार करता है । (१) पृथक्त्वबितर्क सविचार शुक्लध्यान इस शुक्लध्यान में साधक श्र तज्ञान के आधार पर जीवाजीव पदार्थां का द्रव्य भाव आदि विविध नयों और दृष्टियों के आलंबन सहित ध्यानावस्थित होता है । उसका ध्यान भेद-प्रधान होता है । इस पर, अर्थ से शब्द पर, एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ १ (क) शुक्ले चाद्य पूर्वविदः । - तत्त्वार्थ सूत्र ६ / ३६ विशेष - मरुदेवी माता, माषतुष मुनि आदि के दृष्टान्त ऐसे हैं कि उन्होंने विशेष ज्ञान, पूर्व आदि के ज्ञान के बिना ही कैवल्य प्राप्त किया है । इतना तो निश्चित है कि क्षपक श्र ेणी आरोहण और शुक्लध्यान के बिना कैवल्य नहीं प्राप्त हो सकता । अतः यह समझना उचित होगा कि सामान्यतः तो शुक्लध्यान के लिए पूर्वज्ञान अपेक्षित है; किन्तु उत्कृष्ट भावना वाले साधक, पूर्वज्ञान के अभाव में भी श्र ेणी आरोहण और शुक्लध्यान करके कैवल्य प्राप्त कर सकते हैं । - संपादक — वही ६/४५ - वही १/४६ २ वितर्कः श्रुतम् । ३ विचारोऽर्थ व्यंजनयोग संक्रान्तिः । ध्यान में वह शब्द से अर्थ पर, एक पर्याय से दूसरी Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ जैन योग : सिद्धान्त और साधना पर्याय पर, मनोयोग से वचनयोग पर, वचनयोग से काययोग पर - इस प्रकार अर्थ, व्यंजन और योग पर उसका ध्यान संक्रमित होता रहता है । इस संक्रमण का अर्थ साधक के ध्यान में विक्ष ेप नहीं है अपितु सिर्फ आलंबन का ही परिवर्तन है और यह आलंबन भी आन्तरिक होता है, बाह्य नहीं होता तथा सहज ही होता रहता है, इसमें प्रयत्न अपेक्षित नहीं है । ध्यान की इस पृथक्त्व और संक्रमणशील स्थिति के कारण ही यह शुक्लध्यान पृथक्त्ववितर्क सविचार कहा जाता है । (२) एकत्व - वितर्फ अविचार शुक्लध्यान प्रस्तुत शुक्लध्यान में साधक, श्र तज्ञान का आश्रय लेते हुए भी अभेदप्रधान ध्यान में लीन होता है । न उसका ध्यान अर्थ आदि पर संक्रमण करता है और न योगों पर ही । उसका ध्यान निर्वात स्थान पर दीपशिखा के समान अचंचल और निष्कंप होता है, उसमें किसी भी प्रकार की चंचलता नहीं रहती, उसका ध्यान स्थिर हो जाता है । साधक इस ध्यान की दशा में निर्विचार होता है, मन संकल्प-विकल्पों से शून्य हो जाता है । उसके समस्त संकल्प-विकल्प, आवेग संवेग समाप्त हो जाते हैं । अवचेतन, अर्द्ध चेतन और चेतन मन संकल्पों से सर्वथा रहित होकर स्वच्छ दर्पण के समान हो जाते हैं । मनोलय अर्थात् - आत्मज्ञान में मन के विलय की स्थिति आ जाती है । इस ध्यान की पूर्णता - अन्तिम स्थिति में भाव-मन आत्म-सत्ता में लीन हो जाता है । इस शुक्लध्यान की साधना से साधक को एक विशेष प्रकार के उदात्त अनुभव की प्राप्ति होती है । अब तक साधक को आत्म-सत्ता की जो परोक्ष अनुभूति होती थी, वह अनुभूति प्रत्यक्ष हो जाती है । इसके प्रभाव से आत्मा को सर्वपदार्थबोधक ज्ञान, दर्शन की प्राप्ति हो जाती है और ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्मों के कर्मावरणों का आत्यन्तिक क्षय हो जाता है । परिणामस्वरूप आत्मा की शक्तियों का परिपूर्ण विकास हो जाता है और साधक की आत्मा मध्यान्ह के सूर्य के समान चमकने लगती है, आभासित होने लगती है । साधक को कैवल्य (केवलज्ञान- केवलदर्शन) की प्राप्ति हो जाती है । वह साधक की श्र ेणी से ऊपर उठकर सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, सर्वशक्तिसम्पन्न, सर्व सुखसम्पन्न, Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक्लध्यान एवं समाधियोग ३०३ ईश्वर और जीवन्मुक्त बन जाता है। दूसरे शब्दों में, इस ध्यान के फलस्वरूप साधक अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। (३) सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती शुक्लध्यान इस शुक्लध्यान का अभिप्राय है काययोग को सूक्ष्म करना तथा अप्रतिपाती विशेषण इस बात को प्रगट करता है कि इस शक्लध्यान में प्रवेश करने के बाद साधक वापस नहीं लौटता। तेरहवें गुणस्थानवर्ती केवली भगवान का आयुष्य जब एक अन्तमुहर्त शेष रहता है, तब उन वीतराग भगवान में योग-निरोध की प्रक्रिया आरंभ होती है। सर्वप्रथम वे भगवान स्थूल काययोग के सहारे से स्थल मनोयोग को सूक्ष्म करते हैं। फिर सूक्ष्म काययोग के अवलम्बन से सूक्ष्म मन और वचनयोग का भी निरोध करते है। तब केवल सूक्ष्म काययोग अर्थात् श्वासोच्छास की सूक्ष्म क्रिया शेष रहती है। (४) समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति शुक्लध्यान यह शुक्लध्यान चौदहवें गुणस्थान में प्राप्त होता है। जिस समय श्वास-प्रश्वास आदि सूक्ष्म क्रियाओं का भी निरोध हो जाता है और आत्मप्रदेशों में किसी भी प्रकार का कंपन नहीं होता, तब वह ध्यान समुच्छिन्न क्रियानिवृत्ति कहलाता है। इस समय आत्मा में किसी भी प्रकार के स्थूल, सूक्ष्म, मानसिक, वाचिक, कायिक व्यापार नहीं होते । आत्म-प्रदेश पूर्ण रूप से निष्कंप बन जाते हैं। आत्मा के भवोपनाही आयु-नाम-गोत्र-वेदनीय कर्मों के बन्धन भी निःशेष हो जाते हैं। आत्मा अयोगी बन जाता है । इस दशा को शैलेशी दशा कहा जाता है । आत्मा पूर्ण रूप से निष्कलंक एवं निष्प्रकम्म बन जाता है। .. तत्क्षण ही आत्मा निर्मल, शांत, निरामय, अरुज, अनंत ज्ञान-दर्शनवीर्य-सुख आदि आत्मिक भावों में लीन शिव पद में जा विराजता है, उसकी यह दशा अनन्त काल तक रहती है। उसका भवभ्रमण का चक्कर सदा-सदा के लिए छूट जाता है। ___ आत्मा की मुक्ति का हेतू है ध्यान । धमध्यान उपाय है शक्लध्यान का, अतः यह परम्परा से मोक्ष का साधन है और शुक्लध्यान साक्षात मुक्ति का साधन है। मुक्ति-स्थान लोक के अग्रभाग पर है, जहाँ मुक्तात्मा अपने सिद्ध, बुद्ध, मुक्त स्वभाव और सच्चिदानन्द स्वरूप में रमण करती हई अनन्त काल तक विराजमान रहती है । यही सिद्धि पद अथवा निर्वाण है। साधक सम्यक्दर्शन से जिस योगमार्ग पर चरण रखता है, शील और Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ जैन योग : सिद्धान्त और साधना श्रत की सेवना से अपने कदम आगे बढ़ाता है, भावना, अनुप्रेक्षा, प्रेक्षा, प्रतिमा योग आदि विभिन्न योगों की साधना करता है, उन सबकी चरम परिणति ध्यान में होती है, शभ और शद्ध अथवा धर्म और शुक्लक्षयान की साधना से वह मुक्ति प्राप्त कर लेता है। जिस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वह विभिन्न प्रकार के उपसर्ग-परीषह सहता है, तपों की साधना-आराधना करता है, वह लक्ष्य इसे ध्यानयोग (धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान) की साधना से प्राप्त हो जाता है। अतः ध्यानयोग साधना, मुक्ति की सहज एवं साक्षात् साधना है। शुक्लध्यान और समाधि पातंजल अष्टांग योग का अन्तिम अंग समाधि है। साधक जो यम, नियम आदि सात अंगों की साधना करता है, उसकी चरम परिणति समाधि है । समाधि ही साधक का लक्ष्य है। योगदर्शन में समाधि के दो भेद माने गये हैं। इनमें से प्रथम हैसबीज समाधि और दूसरी है निर्बीज समाधि। इन्हीं को क्रमशः संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात तथा सविकल्प और निर्विकल्प एवं सवितर्क और निर्वितर्क अथवा सविचार और निर्विचार समाधि भी कहा गया है। ___संप्रज्ञातयोग (समाधि) के विषय में बताया गया है कि वितर्क, विचार, आनन्द और अस्मिता-इन चारों के सम्बन्ध से युक्त चित्तवृत्ति का समाधान संप्रज्ञात योग है।' संप्रज्ञातयोग के ध्येय पदार्थ तीन हैं-(१) ग्राह्य-इन्द्रियों के स्थूल और सूक्ष्म विषय (२) ग्रहण-इन्द्रियाँ और अन्तःकरण (३) ग्रहीता-बुद्धि के साथ एकरूप हुआ पुरुष अथवा आत्मा। जब साधक पदार्थों के स्थूल रूप में समाधि करता है, समाधि में स्थिर होता है और उस समाधि में शब्द, अर्थ तथा ज्ञान का विकल्प रहता है, तब तक उसकी समाधि सवितर्क समाधि होती है और जब इनका विकल्प नहीं रहता तो वही समाधि निवितर्क हो जाती है। इसी प्रकार जब साधक (ग्रहीता-आत्मा अथवा पुरुष) ग्राह्य और ग्रहण के सूक्ष्म रूप में समाधि करता है, समाधि स्थित होता है और जब तक उस समाधि में शब्द, अर्थ तथा ज्ञान का विकल्प रहता है, तब तक वह १ पातंजल योग सूत्र १/१७-वितर्कविचारानन्दास्मितानुगमात्संप्रज्ञातः । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक्लध्यान एवं समाधियोग ३०५ समाधि सविचार होती है और इनका विकल्प न होने पर निविचार हो जाती है। निर्विचार समाधि में विचार तो नहीं होता किन्तु अहंकार का सम्बन्ध रहता है और ध्याता (साधक) को आनन्द का अनुभव होता है। जब तक आनन्दानुभूति विद्यमान रहती है तब तक उसकी समाधि आनन्दानुगत रहती है और जब साधक को आनन्द को अनुभूति भी नहीं रहती, यह प्रतीति भी विलुप्त हो जाती है तभी वह समाधि अस्मितानुगत हो जाती है। यही निविचार समाधि की निर्मलता हैं।' इस (सम्प्रज्ञात योग) में सत्त्व के उत्कर्ष होने से चित्त की एकाग्रता लक्षण परिणत होने पर साधक आत्मा सद्भूत अर्थ का प्रकाश करती हैपरमार्थभूत ध्येय वस्तु का साक्षात्कार करती है, चित्तगत क्लेशों को दूर करती है, कर्मबन्धनों को शिशिल और निरोध को अभिमुख करती है। यही सम्प्रज्ञातयोग है। सम्प्रज्ञातयोग समाधि में ध्यान, ध्याता, ध्येय-तीनों का आत्मा को आभास रहता है तथा ध्येय आलम्बन रूप में होता है, इसीलिए इसका नाम सबीज समाधि है। इसमें ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय आदि का विकल्प बना रहता है। चित्तवृत्ति का अवस्थान आत्मा में नहीं हो पाता। असम्प्रज्ञात समाधि में सभी विकल्पों का लय हो जाता है, इसमें ज्ञान आदि का कोई विकल्प नहीं रहता । जिस प्रकार लवण पानी में घुलकर पानी रूप हो जाता है, इसी प्रकार इस समाधि अवस्था में चित्त भी आत्मा में लय हो जाता है, मन को पृथक सत्ता नहीं रहती। इस समाधि में कोई आलम्बन नहीं रहता, ध्याता-ध्यान-ध्येय एकाकार हो जाते हैं । इसमें सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है। १ पातंजल योगसूत्र १/१७ की भाष्य एवं टीका २ सम्यक् प्रज्ञायते क्रियते ध्येयं यस्मिन्निरोधविशेषे सः सम्प्रज्ञातः । अर्थात्-जिस में साधक को अपने ध्येय का भली प्रकार साक्षात्कार होता है, वह सम्प्रज्ञात है। -योगसूत्र १/१ टिप्पण में बालकराम स्वामी (क) क्षिप्तं मूढं विक्षिप्तमेकाग्रे निरुद्धमिति चित्तभूमयः । तत्र विक्षिप्ते चेतसि विक्षेपोपसर्जनीभूतः समाधिर्न योगपक्षे वर्तते । यस्त्वेकाग्रे चेतसि सद्भूतमर्थं प्रद्योतयति-क्षिणोति च क्लेशान् कर्मबन्धनानि श्लथयति-निरोधाभिमुखं करोति स सम्प्रज्ञातो योगः इत्याख्यायते । स च वितर्कानुगतो, Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ जैन योग : सिद्धान्त और साधना असम्प्रज्ञात समाधि के भो दो भेद बताये गये हैं-भवप्रत्यय और उपायप्रत्यय । उपाय प्रत्यय समाधि ही वास्तविक समाधि है। इसकी उत्पत्ति श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा से होती है। वस्तुतः योगसूत्रकार महर्षि पतंजलि को वृत्तिनिरोध से क्लेशादिकों को नष्ट करने वाला योग ही इष्ट है। यद्यपि यत्किंचित वृत्तिनिरोध तो क्षिप्तादि भूमिकाओं में भी होता है, किन्तु उसको योगरूप नहीं माना गया, अपितु क्लेशकर्म वासना का समूलनाशक जो वृत्तिनिरोध है, उसी को योग माना गया है। इस प्रकार पातंजल योगदर्शन में योग को समाधिरूप मानकर व्याख्या की गई है। दूसरे शब्दों में, समाधि चित्तगत क्लेशादि-रूप वृत्तियों के निरोध से सम्पन्न होती है । जैनदर्शन के अनुसार आत्मा स्वभाव से ही निस्तरंग महासमुद्र के समान निश्चल है। जैसे वायु के सम्पर्क से उसमें तरंगें उठने लगती हैं, उसी प्रकार मन और शरीर के संयोग से उसमें (आत्मा में) संकल्प-विकल्प और परिस्पन्दन-चेष्टारूप नाना प्रकार की वृत्तिरूप तरंगें उठने लगती हैं। इनमें विकल्परूप वृत्तियों का उदय मनोद्रव्य-संयोग से होता है और चेष्टारूप वत्तियाँ शरीर सम्बन्ध से उत्पन्न होती हैं। इन विकल्प और चेष्टारूप वृत्तियों का समूल नाश ही वृत्तिसंक्षय है। विचारानुगतः आनन्दानुगतोऽस्मितानुगत इत्युपरिष्टात्प्रवेदिष्यामः । सर्ववृत्तिनिरोध इत्यसंप्रज्ञातः समाधिः । -पातंजल योगसूत्र १/१ (ख) श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम् । -पातंजल योगसूत्र १/२० १ तथा च यद्यपि योगः समाधिः स एव च चित्तवृत्तिनिरोधः स च सार्वभौमः सर्वासु क्षिप्तादिभूमिषु भवः, एवं च क्षिप्तादिष्वतिप्रसंगः तथापि हि यत्किचित्वत्तिनिरोधसत्वात्, तथापि यो निरोधः क्लेशान् क्षिणोति स इव योगः, स च सम्प्रज्ञातासम्प्रज्ञातभेदेन द्विविधः इति नातिप्रसंगः इत्यर्थः । -पातंजल योगसूत्र १/१ के टिप्पण में स्वामि बालकराम २ (क) अन्यसंयोगवृत्तीनां, यो निरोधस्तथा तथा । ... अपुनर्भावरूपेण स तु तत्संक्षयो मतः ॥ . -योगबिन्दु, ३६६ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक्लध्यान एवं समाधियोग ३०७ .. यह वृत्तिसंक्षयरूप योग कैवल्य-केवलज्ञान की प्राप्ति के समय और निर्वाण-प्राप्ति के समय साधक को उपलब्ध होता है। अर्थात् सयोगकेवली अवस्था (तेरहवें गुणस्थान) में तो विकल्परूप वृत्तियों का समूल नाश हो जाता है और अयोगकेवली अवस्था (चौदहवें गुणस्थान) में चेष्टारूप वृत्तियाँ भी समूल नष्ट हो जाती हैं। इस सबका फलित यह है कि सम्प्रज्ञातसमाधि तो ध्यान और समता रूप है तथा असम्प्रज्ञात समाधि वृत्तिसंक्षयरूप है। क्योंकि सम्प्रज्ञात समाधि में समस्त राजस और तामस वृत्तियों का निरोध हो जाता है तथा सत्त्वगुणप्रधान प्रज्ञाप्रकर्षरूप वृत्तियों का आविर्भाव होता है एवं असम्प्रज्ञात समाधि में सम्पूर्ण वृत्तियों का क्षय हो जाता है और शुद्ध समाधि की सम्प्राप्ति होती है तथा इस समाधि दशा में साक्षात आत्मस्वरूप का अनुभव होता है। यह शुद्धात्मा का अनुभव हो असम्प्रज्ञात समाधि है। जैन योग की अपेक्षा इस असम्प्रज्ञात समाधि के दो रूप होते हैं-(१) सयोगकेवलिभावी और (२) अयोगकेवलिभावी। इनमें से प्रथम तो विकल्प और ज्ञानरूप मनोवृत्तियों तथा उनके कारणभूत ज्ञानावरणीय, मोहनीय आदि कर्मों के क्षय से आविर्भूत होती है एवं दूसरी शारीरिक चेष्टारूप वृत्तियों और उनके कारणभूत औदारिक आदि शरीरों-नोकर्मों तथा भवोपग्राही कर्मों के क्षय से प्राप्त होती है। प्रथम अर्थात् सम्प्रज्ञात समाधि और जैन दर्शन के अनुसार एकत्ववितर्क अविचार शुक्लध्यान की फलश्रुति कैवल्य वृत्ति-इह स्वभावत एव निस्तरंगमहोदधिकल्पस्यात्मनो विकल्परूपाः परिस्पन्दनरूपाश्च वृत्तयः सर्वा अन्यसंयोगनिमित्ता एव । तत्र विकल्परूपास्तथाविधमनोद्रव्यसंयोगात् परिस्पन्दनरूपाश्च शरीरादिति । ततोऽन्यसंयोगे वा वृत्तयः तासां यो निरोधः तथा-केवलज्ञानलाभकालेऽयोगकेवलिकाले च । अपुनर्भावरूपेण--पुनर्भवनपरिहारस्वरूपेण । स तु स पुनः तत्संक्षयो वृत्तिसंक्षयो मत इति। (ख) विकल्पस्पंदरूपाणां, वृत्तीनामन्यजन्मनाम् । - अपुनर्भावतो रोधः, प्रोच्यते वृत्तिसंक्षयः ।। -योगभेद द्वात्रिंशिका, २५ (उपा० यशोविजयजी) १ सम्प्रज्ञातोऽवतरति ध्यानभेदेऽत्र तत्वतः। -योगावतार द्वात्रिशिका १५ २ असम्प्रज्ञातनामा तु सम्मतो वृत्तिसंक्षयः। -योग द्वात्रिशिका २१ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ जन योग : सिद्धान्त और साधना और दूसरी असम्प्रज्ञात समाधि और जैन दर्शन के अनुसार शुक्लध्यान के तृतीय-चतुर्थ भेदों की फलश्र ति निर्वाण है।' दूसरे शब्दों में, जैन दर्शन में वर्णित तेरहवें, चौदहवें गुणस्थान में पातंजलयोगसम्मत समाधि (सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात-समाधि के दोनों भेदों) का अन्तर्भाव हो जाता है। जैन दर्शन में वर्णित मुक्ति के सोपान-रूप जो चौदह गुणस्थान बताये गये हैं, उनकी अपेक्षा से यदि विचार किया जाय तो समाधि का प्रारम्भ आठवें अप्रमत्त गुणस्थान से हो जाता है और उसकी पूर्णता चौदहवें अयोगकेवली गुणस्थान में होती है। आत्मा की जो स्थूल-सूक्ष्म चेष्टाएँ हैं, वे ही उसकी वृत्तियाँ हैं और उन वृत्तियों का कारण कर्मसंयोग योग्यता है और इन स्थूल-सूक्ष्म चेष्टाओं तथा तथा उनके कारण कर्म-संयोग योग्यता का अपगम-क्षय-ह्रास अथवा हानि वृत्तिसंक्षय है। ____ इन वृत्तियों का क्षय अचानक ही नहीं हो जाता, अपितु क्रमिक होता है। यह क्रमिक क्षय अथवा इन वृत्तियों की क्षय की परम्परा ही गुणस्थान क्रमारोह की संज्ञा से जैन शास्त्रों में अभिहित की गई है। वृत्तियों का क्षय साधक आठवें गुणस्थान अप्रमत्तविरत से प्रारम्भ करता है । इस गुणस्थान में साधक क्षपक श्रेणी पर आरोहण करता है। १ इह च द्विधाऽसम्प्रज्ञातसमाधिः, सयोगकेवलिकालभावी अयोगकेवलिकालभावी च । तत्राद्यो मनोवृत्तीनां विकल्पज्ञानरूपाणां तबीजस्य ज्ञानावरणाधु दयरूपस्य निरोधादुत्पद्यते । द्वितीयस्तु सकलाशेषकायदिवृत्तीनां तद्बीजानामौदारिकादि शरीररूपाणामत्यन्तोच्छेदात् सम्पद्यते । -यो० वि० व्या० श्लोक ४३१ २ मद्य (अभिमान), पंचेन्द्रियविषष, चार कषाय, चार विकथा, और निद्रा-ये प्रमाद हैं। जिस साधक में इन प्रमादों का अभाव हो जाता है, वह अप्रमत्त कहलाता है और उसका साधना सोपान-गुणस्थान अप्रमत्तविरत के नाम से अभिहित होता है। आध्यात्मिक उत्थान की दो श्रेणी हैं--(१) क्षपक और (२) उपशम । क्षपक श्रेणी पर आरोहण करने वाला साधक अनन्तानुबन्धी चतुष्क-क्रोध, मान, माया, लोभ और दर्शन त्रिक-मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व, सम्यकप्रकृतिमिथ्यात्व -इन सातों कर्म-प्रकृत्तियों का समूल क्षय कर देता है और उपशम श्रेणी पर आरोहण करने वाला साधक इन्हीं सातों कर्मप्रकृतियों का उपशमन करता है। क्षपक श्रेणी मोक्ष का साक्षात कारण है। Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक्लध्यान एवं समाधियोग ३०६ इसी गुणस्थान में साधक ग्रन्थिभेद करता है और वह शुक्लध्यान के प्रथम भेद पृथक्त्ववितर्क सविचार ध्यान की साधना में प्रविष्ट होता है । ग्रन्थिभेद के पश्चात् वृत्तियों का संक्षय करता हुआ साधक गुणस्थान क्रमारोह करके बारहवें क्षीणकषाय गुणस्थान में पहुँचता है । वहाँ वह शुक्लध्यान के दूसरे भेद एकत्ववितर्क अविचार ध्यान की साधना में तल्लीन रहता है । उसको चित्तवृत्तियाँ इतनी निश्चल और ध्यान इतना स्थिर हो जाता है कि वह एक ध्येय पर ही निर्वात दीपशिखा के समान निष्कंप - स्थिर रहता है । इस प्रकार शुक्लध्यान के प्रथम दो भेदों (पृथक्त्ववितर्क सविचार और एकत्ववितर्क अविचार) में पातंजलयोग वर्णित सम्प्रज्ञात समाधि का समावेश हो जाता है । इसका कारण यह है कि सम्प्रज्ञात योग-समाधि सवितर्क-विचारआनन्द अस्मिता निर्भास रूप ही हैं, अतः वह पर्यायान्तर रहित शुद्ध द्रव्य विषयक शुक्लध्यान में अर्थात् शुक्लध्यान के दूसरे भेद एकत्ववितर्क अविचार ध्यान में समाविष्ट हो जाती है । इसके उपरान्त असम्प्रज्ञात समाधि के प्रथम भेद का समावेश सयोगकेवली अवस्था में हो जाता है । महर्षि पतंजलि ने जो असम्प्रज्ञात समाधि को संस्कारशेष' कहा है; उसे जैन दर्शन को दृष्टि से भवोपग्राही कर्मों की अपेक्षा से समझना चाहिए । - पातंजल योगसूत्र १/१८ सर्ववृत्तिप्रत्यस्तसमये संस्कारशेषो निरोधश्चित्तस्य समाधिरसम्प्रज्ञातः । -व्यास भाष्य १ विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः । अर्थात् सर्ववृत्तिनिरोध के कारण पर वैराग्य के अभ्यास से संस्कारशेष चित्त की स्थिरता का नाम असम्प्रज्ञात समाधि है - तात्पर्य यह है कि असम्प्रज्ञात समाधि में निरुद्धचित्त की समस्त वृत्तियों का लय हो जाने से मात्र संस्कार शेष रह जाता है । २ आयु, नाम, गोत्र, वेदनीय – ये चार कर्म भवोपग्राही कहलाते हैं; क्योंकि ये आत्मा को उसी शरीर में अथवा उसी जन्म में टिकाये रखते हैं । इनके नाश होने पर ही कैवल्य प्राप्त आत्मा को निर्वाण की प्राप्ति होती है । Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० जन योग : सिद्धान्त और साधना क्योंकि सयोग एवं अयोग केवली दशा में भी भवोपनाही कर्मों का सम्बन्ध तो आत्मा के साथ रहता ही है और यही कैवल्य दशा में संस्कार है । कैवल्य दशा अथवा असंप्रज्ञात समाधि की अवस्था में भाव-मन तो रहता ही नहीं और मति-श्रत-अवधि-मनःपर्यव ज्ञान के भेद रूप संस्कारों का भी समूल नाश हो जाता है । दूसरे शब्दों में, इस दशा में वृत्तिरूप मन रहता ही नहीं अथवा यों भी कह सकते हैं कि कैवल्य दशा में आत्मा को किसी भी पदार्थ को जानने के लिए मन की आवश्यकता ही नहीं रहती। फिर मति और श्र तज्ञान ही तो मन' की अपेक्षा रखते हैं। शेष तीन ज्ञान-अवधि, मनःपर्यव और केवलज्ञान में तो मन की आवश्यकता ही नहीं होती। इन तीन ज्ञानों से तो आत्मा को स्वयमेव ही-मन की सहायता के बिनावस्तु तत्त्व के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान होता है। अतः वृत्तिरूप मन अथवा भाव मन के संस्कारों का तो कैवल्य दशा में प्रश्न हो नहीं है; हाँ, भवोपनाही कर्मों के संबंध से होने वाले संस्कार अवश्य शेष रहते हैं । ये संस्कार भी चौदहवें अयोगकेवलो गुणस्थान में मनवचन-काया के स्थूल-सूक्ष्म समस्त योगों के निरुद्ध हो जाने से निःशेष हो जाते हैं और शैलेशीभाव से निर्वाण पद की प्राप्ति हो जाती है । निर्वाण-प्राप्ति का यही क्रम पातंजल योगदर्शन में भी स्वीकार किया गया है-साधक को जब पर-वैराग्य की प्राप्ति हो जाती है, तब स्वभाव से ही चित्त संसार के पदार्थों की ओर नहीं जाता, वह उनसे स्वयमेव ही उपरत हो जाता है। उस उपरत अवस्था की प्रतीति ही विराम-प्रत्यय है।' इस उपरति की प्रतीति का भी अभ्यास क्रम जब बन्द हो जाता है, तब चित्त की वृत्तियों का सर्वथा अभाव हो जाता है। उस समय सिर्फ अन्तिम उपरत अवस्था के संस्कारों से युक्त चित्त रहता है। उन संस्कारों के कारण उस चित्त की प्रशान्तवाहिता स्थिति होती है। प्रशान्तवाहिता का अभिप्राय हैनिरोध संस्कार धारा ।५ फिर निरोध संस्कारों के क्रम की भी समाप्ति हो १ तत्त्वार्थ सूत्र १/१४ २ पातंजल योगदर्शन १/१८ का भाष्य ३ तज्जः संस्कारोऽन्यसंस्कारप्रतिबन्धी । तस्यापि निरोधे सर्व निरोधान्निर्बीजः समाधिः। -पातंजल योगसूत्र १/५०-५१ ४ पातंजल योगसूत्र १/२० ५ तस्य प्रशान्तवाहिता संस्कारात् । -पातंजल योगसूत्र ३/१० Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक्लध्यान एवं समाधियोग ३११ जाती है।' तदुपरान्त वह आत्मा कृतकृत्य होकर अपने निज स्वरूप में, चितिशक्ति अथवा चैतन्य सत्ता में प्रतिष्ठित हो जाती है । अर्थात् पुरुषार्थशून्य गुणों का प्रतिप्रसव किंवा स्वप्रतिष्ठारूप मोक्ष (निर्वाण) प्राप्त कर लेती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि महर्षि पतंजलिवर्णित अष्टांगयोग का आठवां और अंतिम अंग समाधि (संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात दोनों प्रकार की समाधि) का जैन दर्शनसम्मत शुक्लध्यान में अन्तर्भाव हो जाता है । इसे यों भी कहा जा सकता है कि शुक्लध्यान का ही दूसरा नाम पतंजलिप्रोक्त समाधि है। पतंजलि ने ध्यान और समाधि को अलग-अलग मानकर इन्हें योग के दो अंग बताया है। किन्तु जैन दर्शन ने ध्यान के ही दो भेद-धर्मध्यान और शुक्लध्यान स्वीकार किये हैं। यदि यथार्थ दृष्टि से विचार किया जाय तो पतंजलिप्रोक्त समाधि भी ध्यान ही तो है; साधक जो-जो और जैसी साधनाएँ शुक्लक्षयान में करता है उनका जो क्रम आदि है वैसा ही समाधि में है । अतः शुक्लध्यान और पतंजलिवणित समाधि में नाम के अन्तर के सिवाय अन्य कोई भेद प्रतीत नहीं होता। जैन दर्शन की मूल मान्यता (द्वादशांग वाणी और आगमयुगीन मान्यता) में 'योग' का अन्तर्भाव ध्यान में ही किया गया है। वहाँ धयान को प्रमुखता दी गई है । और ध्यान की उत्कृष्टता तथा चरम स्थिति शुक्लध्यान है। अतः जैन दर्शन में ध्यान के अतिरिक्त समाधि का कोई स्थान नहीं है, यह ध्यान की अवस्थाविशेष ही है। १ ततः कृतार्थानां परिणामक्रमसमाप्तिगुणानां। -पातंजल योगसूत्र ४/३२ २ पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तरिति । -पातंजल योगसूत्र ४/३४ ३ (क) समाधिरिति च शुक्लध्यानस्य एवं नामान्तरं परैः परिभाषितम्... (ख) अत्र चतुर्विधोऽपि सम्प्रज्ञातसमाधिः शुक्लध्यानस्याद्यपदद्वयं प्रायो नातिशते.......... (ग) अतश्चरमशुक्लध्यानांशस्थानीयोऽसम्प्रज्ञात समाधि ::......"इत्यादि । -शास्त्रवार्तासमुच्चय की वृत्ति 'स्याद्वाद कल्पलता' में उपाध्याय यशोविजयजी Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ जैन योग : सिद्धान्त और साधना यद्यपि आगमों में 'समाधि' शब्द का उल्लेख पर्याप्त मात्रा में हुआ है। साथ ही समाधि के लिए उपयुक्त स्थानों का वर्णन भी यत्र-तत्र मिलता है। किन्तु समाधि शब्द से भी वहाँ ध्यान-विशेष या चित्त की निर्मलता एवं स्थिरता ही गृहीत हआ है। सूत्रों में दर्शन-समाधि, ज्ञान-समाधि, चारित्रसमाधि, श्रत-समाधि, विनयसमाधि आदि का वर्णन आया है; किन्तु कहीं पर 'समाधि' शब्द धर्मध्यान के अर्थ में प्रयुक्त है तो कहीं ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना के रूप में। लेकिन जिस रूप में 'समाधि' शब्द का प्रयोग पातंजल योगदर्शन में हआ है, वैसा जैन आगमों नहीं हुआ। चूँकि वह समाधि शुक्लध्यान की परिणतिस्वरूप ही है । साथ ही 'धारणा' शब्द भी जैन आगमों में उस रूप में नहीं मिलता, जिस रूप में इसका प्रयोग अष्टांगयोग में हआ है। जैन आगमों में भावना अथवा अनुप्रेक्षा शब्द का प्रयोग हुआ है। दर्शन भावना, ज्ञान भावना, चारित्र भावना, वैराग्य भावना, योग भावना (मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ्य), महाव्रतों की भावना, बारह भावना आदि कई प्रकार की भावनाओं का वर्णन हुआ है। आक्ष्यात्मिक एवं मूक्ति-प्राप्ति के पथ के रूप में भावनाओं का महत्त्व धारणा की अपेक्षा अत्यधिक है क्योंकि धारणा तो चित्तवृत्ति को किसी एक स्थान पर लगाना मात्र ही है। जबकि भावना, साधक की आत्मोन्नति एवं आत्म-प्रतीति में सहायक बनती है । धारणा जल प्रवाह का किसी एक स्थान पर केन्द्रित होना है तो भावना एक ही धारा में प्रवहमान स्थिति एकतानता है । अतः जैनदर्शन के अनुसार मुक्ति-साधना का क्रम यों बनता हैभावना, धर्मध्यान, शुक्लध्यान ।' ये तीनों ही ध्येय विषयक चिन्तनरूप ध्यान की विशुद्ध, विशुद्धतर और विशुद्धतम अवस्थाएँ हैं। अतः मोक्ष का उपायभूत धर्मव्यापार जो कि 'योग' के नाम से विख्यात है, वह मुख्य रूप से शुक्लध्यान हो है क्योंकि शुक्लध्यान ही मोक्ष का साक्षात् कारण है। इसके अतिरिक्त व्रत, नियम, स्वाध्याय, आदि तप एवं संयम आदि जितने भी धर्मानुष्ठान, धार्मिक क्रिया-कलाप, भावनाओं का चिन्तन-मनन इत्यादि हैं, वे सभी शुक्लध्यान तक पहुँचने के सोपान हैं। इन सोपानों पर चढ़ता हुआ साधक शुक्लध्यान तक पहुँचता है। १ अष्टांगयोग का मुक्ति साधना क्रम यों है-धारणा, ध्यान, समाधि । Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक्लध्यान एवं समाधियोग ३१३ शुक्लध्यान में ही चित्त का निरोध पूर्ण रूप से होता है, चित्त की वृत्तियाँ पूर्णतया शांत होती है, कर्मों का क्षय होता है और मन का (भाव-मन का) आत्मा की अनन्त सत्ता में विलय होता है। कैवल्य (केवलज्ञान-दर्शन) और साथ ही अनन्त सुख और वीर्य का कारण भी शुक्लध्यान है और यही निर्वाण का हेतु है। शुक्लध्यान ही आत्मिक अशुद्धियों को दूर कर उसे पूर्ण रूप से शुद्ध बनाता है । साधक शुक्लध्यान की साधना से सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होकर अपने स्वरूप (आत्मा के निज शुद्ध स्वरूप) में अवस्थित होता है। अतः शुक्लध्यान ही सर्वोत्कृष्ट तप है, समस्त धार्मिक क्रियाओं की चरम परिणति है। साधक इसी की साधना से अपना चरम लक्ष्य-मोक्ष प्राप्त कर लेता है । यही जैन योग द्वारा प्रस्तावित अध्यात्मयोग (तपोयोग) का चरम बिन्दु एवं फलश्रुति है। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनो यस्य वशे तस्य, . भवेत्सर्वं जगद्वशे । मनसस्तु वशे योऽस्ति . स सर्वजगतो वशे ॥ . -जिस साधक का मन उसके वश में होता है, उसके वश में सारा संसार हो जाता है । इसके विपरीत जो मन के वश में होता है, वह सारे संसार के वश में हो जाता है। 00 मन के सधने से खुलें, शक्ति के सब द्वार । है सुख-इच्छुक के लिए, उत्तम यह उपचार ॥ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग सिद्धान्त और साधना प्राण - साधना १-प्राण शक्ति स्वरूप, साधना, विकास और उपलब्धियां २-प्राण शक्ति की अद्भुत क्षमता और शारीरिक-मानसिक स्वस्थता ३-लेश्या ध्यान - साधना (भावना तथा रंग - चिकित्सा सिद्धान्त) ४-मंत्र शक्ति - जागरण एवं अर्हत्योग ५-नवकार महामन्त्र की साधना Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ प्राण-शक्ति : स्वरूप, साधना, विकास और उपलब्धियाँ यह सम्पूर्ण संसार, चलाचल जगत्, अखिल सृष्टि प्राणमय है । प्राणमय है, इसलिए जीवित है । प्राण एक धारा है शक्ति की; यह शक्ति का प्रवाह है । यह चैतन्य अथवा आत्मशक्ति का वह रूप है जो तेजस् शरीर से आत्म-प्रदेशों के संपृक्त होने पर निर्मित होता है, उत्पन्न होता है और उसी (तैजस् शरीर ) में प्रवाहित होता है, औदारिक (स्थूल) शरीर को संचालित करता है । वह तैजस् और औदारिक दोनों प्रकार के समूचे शरीर में प्रवाहित हो रहा है । प्राण-शक्ति का संचार ही जीवन का लक्षण है । जीवन और मरण का द्योतक प्राण ही है । जब तक प्राणों का संचालन शरीर में होता रहता है तब तक मनुष्य अथवा पशू जीवित माना जाता है और प्राण के अभाव में उसे मृत घोषित कर दिया जाता है । जब तक विज्ञान की पहुँच स्थूल शरीर तक ही सीमित रही तब तक हृदय गति को ही जीवन का आधार माना जाता रहा, हृदय गति रुकते ही मनुष्य को मृत घोषित कर दिया जाता था; किन्तु अब विज्ञान मस्तिष्कीय कोषाओं और तन्तुओं तक पहुँच चुका है, जब कोषाएँ निष्क्रिय हो जाती हैं, उनका हलन चलन पूर्ण रूप से बन्द हो जाता है तब व्यक्ति को मृत घोषित किया जाता है । इन सूक्ष्म कोषाओं का संचालन प्राण-शक्ति की धारा से होता है । अतः प्राण हा जीवन का लक्षण है । जीव प्राणधारी होते हैं, इसीलिए वे प्राणी कहलाते हैं । वे प्राणी अमीबा (amaeba) तथा फफूंदी में पाये जाने वाले प्राणियों के समान इतने सूक्ष्म भी होते हैं कि एक आलपिन की नोंक पर सैकड़ों-हजारों प्राणधारी जीव अवस्थित रह सकते हैं और ह्व ेल मछली के समान दीर्घकाय भी । यह सम्पूर्ण लोक सूक्ष्म जीवों-प्राणधारियों से ठसाठस भरा है, इसी कारण तो संसार को प्राणमय कहा गया है । Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ जैन योग : सिद्धान्त और साधना प्राणी कहाँ नहीं हैं ? जल में असंख्य प्राणी हैं; वायु में प्राणी हैं; वनस्पति में, अग्नि में-सर्वत्र प्राणी हैं। मनुष्य, पशु तो स्पष्ट ही प्राणी दिखाई देते हैं। ____ अतः प्राण का लक्षण ही यह है कि जिनके द्वारा जीव जीता है, जीवित रहता है, उन्हें प्राण कहते हैं । प्राण के शास्त्रोक्त दश भेद जैन शास्त्रों में प्राण' दश प्रकार के बताये गये हैं(१) स्पर्शनेन्द्रिय बल प्राण (६) मनोबल प्राण (२) रसनेन्द्रिय बल प्राण (७) वचनबल प्राण (३) घ्राणेन्द्रिय बल प्राण (४) कायबल प्राण (४) चक्षुरिन्द्रिय बल प्राण (९) आनपान (श्वासोच्छ्वास) बल प्राण (५) श्रोत्रन्द्रिय बल प्राण (१०) आयु बल प्राण एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक सभी जीव प्राणधारी होते हैं, उनमें प्राण'धारा अथवा प्राण-शक्ति प्रवाहित रहती है । हाँ, यह बात अवश्य है कि एकेन्द्रिय आदि क्ष द्र एवं सूक्ष्म प्राणि यों में प्राण-शक्ति का प्रवाह सूक्ष्म तथा अव्यक्त रहता है और संज्ञी पंचेन्द्रिय प्राणियों में व्यक्त । मनुष्य में तो वह प्रवाह और भी अधिक व्यक्त होता है । यद्यपि ये दश प्राण जैन शास्त्रों में बताये गये हैं, और इनके माध्यम से प्राण-शक्ति के प्रवाह को अभिव्यक्ति मिलती है, किन्तु योग की दृष्टि से प्राणधारा एक ही है, ये दश प्रकार के प्राण तो अभिव्यक्ति के माध्यम हैं। जो प्राणधारा आँखों में प्रवाहित है, वह हाथ की अंगुलियों में है और वही सम्पूर्ण शरीर-त्वचा में भी है तभी तो अँगुलियों से आँख की संवेदना के उदाहरण मिलते हैं। अभिव्यक्ति के माध्यमों की अपेक्षा, क्योंकि ये माध्यम विभिन्न प्रकार की क्षमताएं प्रदर्शित करते हैं, इसलिए शास्त्रों में दश प्राण बताये गये हैं। अन्यथा प्राणधारा तो एक ही प्रकार की है, दश प्रकार की नहीं। १ पंचय इन्दियपाणा मणवचकाया दु तिण्णि बलपाणा। आणप्पाणप्पाणा आउगपाणेण होंति दसपाणा ॥ -मूलाचार, गाथा ११६१ २ देखिए, इसी पुस्तक का पृष्ठ ४ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राण-शक्ति: स्वरूप, साधना, विकास और उपलब्धियाँ ३१७ प्राण-शक्ति प्रवाह का केन्द्र मनोवैज्ञानिक, शरीर-वैज्ञानिक (चिकित्साशास्त्र) की दृष्टि से प्राणशक्ति का केन्द्र है-मस्तिष्क । इस दृष्टिबिन्दु के अनुसार मस्तिष्क प्राणशक्ति का उत्पादन स्थल है, वहीं इस शक्ति का निर्माण होता है और वहीं से यह शरीर के अन्य अवयवों में-संपूर्ण शरीर में प्रवाहित होती है। किन्तु योग-मार्ग का दृष्टिकोण इस बारे में भिन्न है। योग की अपेक्षा से प्राणशक्ति का केन्द्र है कुण्डलिनो का निचला अन्तिम भाग, जहाँ कुण्डलिनी शक्ति (serpent power) अधोमुखी होकर अवस्थित-सोई हुई है। इसके अधोमुखी होने का प्रभाव यह है कि मनुष्य के जीवन की समस्त प्रवृत्तियाँ बाहर की ओर, संसाराभिमुखी हो रही हैं, मनुष्य विषय-कषायों और काम-भोगों में प्रवृत्ति कर रहा है। योगी साधक प्राणशक्ति के इस अधोमुखी-संसाराभिमुखी प्रवाह को मोड़ता है, उसे ऊर्ध्वगामी बनाता है और योगशास्त्रों में वर्णित सातों चक्रों में प्रवाहित करता हुआ योग को सिद्धि करता है। यही प्राणशक्ति का ऊर्वारोहण है, और यही प्राणशक्ति की साधना है। योगी साधक किस प्रकार इस ऊर्ध्वारोहण को सम्पन्न करता है, इस बात को समझ लेना आवश्यक है। प्राणशक्ति के ऊर्ध्वारोहण के सोपान हैं-आसन-शुद्धि, नाड़ीशुद्धि, प्राणायाम और प्रत्याहार । इन सोपानों को कुशलतापूर्वक पार करने के लिए तथा प्राणशक्ति को अधिकाधिक ऊर्जस्वो, तेजस्वो तथा सक्षम बनाने के लिए प्राणवायु की अनिवार्य आवश्यकता है । प्राणवायु और प्राण का सम्बन्ध साधक प्राणवायु और प्राण को एक समझने की भूल नहीं करता। वह जानता है कि ये दो भिन्न वस्तुएं हैं। प्राणवायु प्राणशक्ति के लिए वही कार्य करती है जो अग्नि को प्रज्वलित करने और रखने के लिए वायु (oxygen gas) करती है। जिस प्रकार वायु (oxygen gas) के अभाव में अग्नि प्रज्वलित नहीं हो सकती और जलती अग्नि भी बुझ जाती है । उसी प्रकार प्राणशक्ति के प्रवाह के लिए भी प्राणवायु आवश्यक है, प्राणवायु के अभाव में प्राणशक्ति भी बुझ जाती है । जिस प्रकार वायु के वेग से अग्नि प्रज्वलित रहती है, ज्यों-ज्यों वायु का वेग बढ़ता Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ जन योग : सिद्धान्त और साधना है त्यों-त्यों अग्नि की लपटें भो तीव्र से तीव्रतर होती जाती हैं और वायु का वेग मंद होने पर अग्नि मन्द से मन्दतर होती जाती है। उसी प्रकार व्यक्ति श्वास द्वारा जितनी अधिक प्राणवायु शरीर के अन्दर ग्रहण करता है उतनी ही प्राण-शक्ति भी तीव्र होती है। प्राणवायु, प्राणशक्ति को उत्तेजित करती है। मनुष्य जिस समय प्राणवायु को ग्रहण करता है तो प्राणों को ग्रहण नहीं करता; क्योंकि प्राण तो उसके शरीर में पहले ही मौजद हैं। इसी तरह उच्छ्वास अथवा प्राणवायु को बाहर निकालना, प्राण छोड़ना नहीं है। प्राणायाम की क्रिया भी प्राणों का आयाम नहीं है, प्राण वायु का आयाम है। कुम्भक में प्राणशक्ति अथवा प्राणधारा को नहीं रोका जाता, प्राणवायु को रोका जाता है । यही बात पूरक और रेचक के बारे में भी है। ___इस तरह प्राणवायु और प्राणशक्ति एक नहीं है, इनमें परस्पर सम्बन्ध मात्र है। प्राणशक्ति, आत्मशक्ति द्वारा संचालित है। आत्मशक्ति तेजस् शरीर से जुड़ी हुई है। आत्मचेतना की धारा तैजस् शरीर से जुड़ती है तब प्राणशक्ति का उद्गम होता है । इस प्रकार प्राण का सम्बन्ध तो आत्म-शक्ति से जुड़ा हुआ है किन्तु प्राणवायु का सम्बन्ध आत्मचेतना से नहीं जुड़ता, इसका सम्बन्ध जुड़ता है प्राणशक्ति से-प्राणशक्ति की धारा और प्रवाह से । इसीलिए प्राणशक्ति की साधना से साधक को बाह्य लाभ तो होते हैं, अनेक प्रकार की ऋद्धि और लब्धि भी प्राप्त हो जाती हैं, मानसिक और शारीरिक शान्ति एवं स्वस्थता भी प्राप्त हो जाती है; किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से कोई विशेष लाभ नहीं होता। आसन-शुद्धि प्राण-शक्ति को तीव्र करने का यह प्रथम सोपान है। सर्वप्रथम साधक आसन-शुद्धि करता है । आसनशुद्धि का अभिप्राय है आसन की स्थिरता। यों तो हठयोग तथा अन्य यौगिक ग्रंथों में ८४ प्रकार के आसन बताये गये हैं, और वैसे देखा जाय तो आसनों के अनगिनत प्रकार हैं; किन्तु योग साधना में सहकारी कुछ ही आसन हैं। उनमें से प्रमुख आसन ये हैं-(१) पर्यंकासन (२) वीरासन (३) वज्रासन (४) पद्मासन (५) भद्रासन (६) दंडासन (७) उत्कटिकासन (८) गोदोहिकासन (६) कायोत्सर्गासन ।' १ इन आसनों का वर्णन योगशास्त्र, प्रकाश ४, श्लोक १२४-१३४ में है। Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राण-शक्ति : स्वरूप, साधना, विकास और उपलब्धियाँ ३१६ (१) पर्यकासन-दोनों जंघाओं के निचले भाग पैरों के ऊपर रखने पर तथा दाहिना और बाँया हाथ नाभि के पास दक्षिण-उत्तर में रखने से पर्यंकासन होता है। (२) वीरासन-बायां पैर दाहिनी जाँघ पर और दाहिना पैर बायीं जांघ पर जिस आसन में रखा जाता है, वह वीरासन है । वीरासन का दूसरा प्रकार यह है-कोई पुरुष सिंहासन पर बैठा हो और उसके पीछे से सिंहासन हटा लिया जाय तब उसकी जो आकृति बनती है, वह वीरासन है। (३) वज्रासन-वीरासन करने के उपरान्त वज्र की आकृति के समान दोनों हाथ पीछे रखकर, दोनों हाथों से पैर के अंगूठे पकड़ने पर जो आकृति बनती है, वह वज्रासन है । कुछ आचार्य इसे बेतालासन भी कहते हैं । (४) पदमासन-एक जाँघ के साथ दूसरी जाँघ को मध्य भाग में मिलाकर रखना पद्मासन है। (५) भद्रासन-दोनों पैरों के तलभाग वृषण प्रदेश में-अंडकोषों की जगह एकत्र करके, उसके ऊपर दोनों हाथों की अंगुलियाँ एक-दूसरी अंगुली में डालकर रखना, भद्रासन है । (६) दण्डासन-भूमि पर बैठकर इस प्रकार पैर फैलाना कि अंगुलियाँ, गुल्फ और जाँघे जमीन से लगी रहें, दण्डासन है। (७) उत्कटिकासन-भूमि से लगी हुई एड़ियों के साथ जब दोनों नितम्ब मिलते हैं तब उत्कटिकासन होता है। (८) गोदोहिकासन-जब एड़ियाँ जमीन से लगी हुई नहीं होती और नितंब एड़ियों से मिलते हैं तब गोदोहिकासन होता है। (६) कायोत्सर्गासन-कायिक ममत्व का त्याग करके, दोनों भुजाओं को लटकाकर शरीर और मन से स्थिर होना, कायोत्सर्ग आसन है ।' इनमें से किसी एक आसन अथवा एक से अधिक आसन और अन्य भी कोई आसन, यथा सिद्धासन आदि जिस आसन से भी साधक सुखपूर्वक अधिक देर तक स्थिर रह सके, मन को अचंचल दशा में रख सके-उसी आसन का प्रयोग साधक करता है। १ ये आसन मुक्ति-प्राप्ति में भी सहायक हैं । अधिकांश साधकों को इन्हीं आसनों . में अवस्थित रहकर कैवल्य और मोक्ष की प्राप्ति हुई है। -संपादक Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० जैन योग : सिद्धान्त और साधना आसनों से साधक को शारीरिक एवं मानसिक लाभ भी होता है, जैसे कायोत्सर्गासन से मानसिक तनावों से मुक्ति मिलती है, साधक का तन-मन तनाव-मुक्त होकर हल्का और तरोताजा हो जाता है, उसके अन्दर उत्फुल्लता और उत्साह उत्पन्न होते हैं। आसन-जय अथवा आसन-शुद्धि के द्वारा साधक अपने स्थूल (औदारिक) शरीर को स्थिर करने का अभ्यास करता है। शरीर के स्थिर होने पर, जो प्राण-शक्ति की धारा शरीर की हलनचलन आदि क्रियाओं में खर्च हो जाती थी, वह नहीं हो पाती; परिणामस्वरूप प्राणशक्ति का प्रवाह तैजस् और औदारिक शरीर को अधिक प्रभावी बनाता है। साथ ही औदारिक शरीर के स्थिर होते ही तैजस शरीर भी स्थिर हो जाता है। अतः प्राणधारा का अखण्ड प्रवाह सहज गति से शरीर के अन्दर ही संचारित होता रहता है । इससे भी तेजस् शरीर को बल मिलता है। इस प्रकार आसन-शुद्धि की फलश्र ति साधक के तेजस् और औदारिक शरीर की स्वस्थता, प्रभावशाली बनना तथा मानसिक स्थिरता है। ये तीनों लाभ साधक आसनशुद्धि से प्राप्त करता है। नाड़ी-शुद्धि प्राण-शक्ति को तीव्र, ऊर्जस्वी और ऊर्ध्वमुखी बनाने का यह द्वितीय सोपान है। आसन-शुद्धि के बाद साधक नाड़ी-शुद्धि की ओर अभिमुख होता है । नाड़ी-शुद्धि का अभिप्राय है स्वर नियन्त्रण अथवा स्वर-नियमन । मनुष्य के दाँए और बाँए नथुने से जो वायु बाहर निकलता रहता है, वह योग की भाषा में 'स्वर' कहलाता है । दाँए नथुने से जब वायु निकलता है तो दाहिना अथवा दाँया स्वर; और बाँए नथुने से निकलते समय के वायु को बाँया स्वर कहते हैं। ये सूर्य स्वर और चन्द्र स्वर भी कहलाते हैं। इनके अतिरिक्त जब दोनों ही नथुनों से वायु निःसृत होता है तो उसे सुषुम्ना स्वर कहते हैं। स्वरों के इन नामों का आधार नाड़ियाँ हैं। गुदा मूल से गरदन के पिछले भाग तक जो लम्बी हड्डी होती है, वह मेरुदण्ड कहलाता है और वह मेरुदण्ड अनेक शिराओं तथा धमनियों के माध्यम से मस्तिष्क से जुड़ा होता है। इस मेरुदण्ड में तीन नाड़ियाँ होती हैं-बायीं ईड़ा, दायीं पिंगला और मध्य की सुषुम्ना । इन्हीं को चन्द्र नाड़ी, सूर्य नाड़ी और सुषुम्ना नाड़ी भी कहते हैं । चन्द्र-नाड़ी में होता हुआ वायु बाँए नथुने से निकलता है, सूर्य Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राण-शक्ति : स्वरूप, साधना, विकास और उपलब्धियाँ ३२१ नाड़ी में घूमता हुआ दायें नथुने से और सुषुम्ना का वायु दोनों नथुनों से निःसृत होता है। वायु का नथुनों द्वारा अन्दर खींचना (inhaling) और बाहर निकालना (exhaling) तो सामान्य श्वास-प्रश्वास क्रिया है जो जीवन का लक्षण है; किन्तु यह सामान्य क्रिया विज्ञान-स्वर-विज्ञान तब बनती है, जब साधक इन तीनों प्रकार के स्वरों को नियन्त्रित करता है, अपनी इच्छानुसार चलाता है तथा इस प्रकार अपनी नाड़ियों की शुद्धि करता है । यह नाडी-शुद्धि योग का अंग और प्राणायाम की आवश्यक पूर्वपीठिका है। बिना नाड़ी-शुद्धि के प्राणायाम की साधना सही ढंग से नहीं सध पाती, उससे किसी प्रकार की बाह्य लब्धि, चमत्कार उत्पन्न करने की शक्ति तथा मानसिक एवं शारीरिक क्षमता तथा स्वस्थता की प्राप्ति नहीं हो पाती। प्राचीन युग में योगी और साधक ग्राम-नगरों से बाहर, भयानक वनों में साधना करते थे। सर्दी-गर्मी आदि के प्राकृतिक प्रकोपों का शरीर पर प्रभाव पड़ता ही था, शरीर अस्वस्थ भी हो जाता था, मानसिक एवं शारीरिक स्वस्थता भंग हो जाती थी, उसका उपचार योगी स्वर-विज्ञान से कर लेते थे। शीत के प्रकोपों, अजीर्ण आदि का उपचार योगी दांया स्वर चलाकर कर लेता है और गर्मी के प्रकोप, दाह ज्वर आदि का उपचार वह अपना बाँया स्वर चलाकर कर लेता है। भोजन करते समय तथा उसके १ घन्टे बाद तक वह अपना दाँया स्वर चलाता है, जिससे भोजन शीघ्र पच जाता है, अजीर्ण नहीं हो पाता और परिणामस्वरूप कब्ज से होने वाली बीमारियाँ भी नहीं हो पातीं। यदि कभी योगी को अपने शरीर के किसी भी अंग में स्नायविक वेदना मालूम होती है तो वह शरीर में जिस ओर-दायीं या बायीं तरफ स्नायविक या किसी भी प्रकार की पीड़ा होती है, उधर का ही स्वर रोक देता है, उसकी पीड़ा शान्त हो जाती है। साधक जुकाम और यहाँ तक कि श्वास रोग का उपशमन भी स्वर के माध्यम से कर लेता है। जब दमे का दौरा उठता है, उस समय जिस नासिका से स्वर चल रहा हो उसे रोक कर दूसरी नासिका से चला देता है, इससे दो चार मिनट में ही दमे का दौरा शान्त हो जाता है। प्रतिदिन इस क्रिया को करने से थोड़े दिनों में दमे की पीड़ा शान्त हो जाती है। Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ जैन योग : सिद्धान्त और साधना जुकाम के रोग में तो स्वर-विज्ञान अथवा स्वर-नियमन क्रिया कों पश्चिमी वैज्ञानिक और चिकित्सक भी उपयोगी मानते हैं । Chronic cough, cold, catarrah, aesthma में वे रोगी को breathing exercise की सलाह देते हैं। योगी नाड़ी-शुद्धि द्वारा शारीरिक और मानसिक स्वस्थता प्राप्त करता है। वह विपरीत वातावरण में भी स्वस्थ तथा नीरोग रहता है और स्वस्थ चित्त से योग साधना-प्राण साधना करता है। __इतना तो निश्चित है कि स्वस्थ तन-मन के अभाव में किसी भी प्रकार की साधना नहीं की जा सकती और न उसमें सफलता ही प्राप्त की जा सकती है, अतः स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मन का होना आवश्यक है। नाड़ी-शुद्धि का योग साधक के लिए यही उपयोग है और इसीलिए वह स्वरनियमन करता है, जिससे कि सुचारु रूप से प्राणायाम की साधना करके प्राण-शक्ति को शक्तिशाली बना सके । प्राणायाम प्राणायाम, प्राण-साधना का अन्तिम सोपान है। प्राणायाम को अंग्रेजी में breathing exercise कहते हैं। प्राणायाम की साधना से साधक को अनेक प्रकार के शारीरिक और मानसिक लाभ होते हैं, चमत्कारिक सिद्धियाँ तथा लब्धियाँ प्राप्त होती हैं, उसका मनोबल, वचनबल तथा कायबल बढ़ता है, वचनसिद्धि प्राप्त होती है, अपने विचारों से दूसरों को प्रभावित करने की क्षमता आती है, उसके व्यक्तित्व में चुम्बकीय शक्ति का विकास होता है, तेजस् शरीर का आभामंडल शक्तिशाली बनता है, यहाँ तक कि उसकी अन्तष्टि का विकास हो जाता है और वह इतना सक्षम हो जाता है कि अपने ज्ञान-नेत्र (इसे योग की भाषा में 'तोसरा नेत्र'-third eye कहा जाता है) से दूसरों से सूक्ष्म शरीर को देख सकता है, उनके विचारों को जान सकता है और भूत-भविष्य को जानकारी भी उसे हो जाती है । । वस्तुतः प्राणायाम हो प्राण-साधना है। प्राणायाम के तीन भेद हैं-पूरक, कुम्भक, रेचक । पूरक में साधक वायु को अन्दर खींचता (inhale) है, कुम्भक में वायु को अन्दर किसी एक स्थान पर यथा नाभिस्थान, हृदयस्थान आदि पर रोकता है और रेचक में वायु को बाहर निकाल (exhale) देता है। इन तीनों के समय का अनुपात १:४:२ होता है। Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राण-शक्ति : स्वरूप, साधना, विकास और उपलब्धियाँ ३२३ सामान्य प्राणायाम, जिसे अंग्रेजी में breathing exercise कहा जाता है, वह तो सिर्फ इतना ही है किन्तु योग-मार्ग का प्राणायाम इसकी अपेक्षा बहुत गहरा है, यद्यपि उसमें भी क्रियाएँ तो रेचक, पूरक, कुम्भक-यही तीन की जाती हैं। किन्तु इनकी गहराई और समय-सीमा अधिक होती है। सामान्य प्राणायाम में तो प्राणवायु का संचार रेचक, कुम्भक और पूरक शरीर के अग्रभाग; यथा-नाभि, हृदय, फेफड़े, मस्तिष्क में ही होता है किन्तु यौगिक प्राणायाम मेरुदण्ड अथवा रीढ़रज्जु (medulla oblangata) में होकर किया जाता है अर्थात् साधक वायु का संचार रीढरज्जु में होकर करता है। उसका क्रम यह है-रीढ़ रज्जु के अन्तिम निचले भाग, मूलाधार चक्र से वायु को ऊर्ध्वगामी बनाता हुआ साधक ऊपरी सिरे-गरदन के पष्ठ भाग तक पहुँचाता है और फिर वहाँ से ललाट में वायु को ले जाकर कपाल के ऊर्श्वभाग तक पहुँचाता है, फिर नीचे उतारता हुआ नथुनों से बाहर निकाल देता है। यौगिक प्राणायाम में सुषुम्ना का महत्त्व चिकित्सा शास्त्र में जिसे मेरुदण्ड (back-bone) अथवा रीढरज्जु कहा जाता है उसी को योग में 'सुषुम्ना नाड़ी' कहा गया है। सुषुम्ना नाड़ी, योग की दृष्टि से, शक्ति का पावर हाउस ही है। इसमें ऐसी-ऐसी शक्तियां भरी पड़ी हैं कि जिन्हें जगाने पर योगी साधक असम्भव कार्यों को भी सम्भव कर दिखाता है, वह महीनों तक समाधि ले लेता है, श्वास-प्रश्वास क्रिया को बन्द कर देता है, हृदयगति और नाड़ियाँ भी बन्द हो जाती हैं, साधारण भाषा में जीवन का कोई चिन्ह शेष नहीं रहता; फिर भी समाधिस्थ होकर वह जीवित रहता है, समाधि खुलने पर हर्षोत्फुल्ल दिखाई देता है और दर्शकों को चकित कर देता है । इस प्रकार साधक असाधारण सामर्थ्य का स्वामी बन जाता है। किन्तु इस असाधारण सामर्थ्य को पाने के लिए उसे पुरुषार्थ भी असाधारण ही करना पड़ता है। मेरुदण्ड अथवा सुषुम्ना नाड़ी अन्दर से पोली है । मनुष्य का यह पोला मेरुदण्ड ३३ छोटे-छोटे अस्थि-खंडों से मिलकर निर्मित हुआ है । यह शरीर की आधारशिला है और यही यौगिक शक्तियों का भण्डार भी है। • शरीर-विज्ञान के अनुसार मेरुदण्ड में अनेकों नाड़ियाँ हैं जो शरीर Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ जैन योग : सिद्धान्त और साधना के विभिन्न अवयवों में पहुंचकर विभिन्न प्रकार के शारीरिक कार्य सम्पन्न करती हैं। किन्तु योगविद्या के अनुसार इसमें तीन प्रमुख नाड़ियाँ हैं- ईड़ा, पिंगला और सुषुम्ना। ये नाड़ियाँ सूक्ष्म औदारिक पृद्गलों से निर्मित हैं और सूक्ष्म औदारिक शरीर से सम्बन्धित हैं, इसलिए इन्हें चर्मचक्षुओं से नहीं देखा जा सकता; मेरुदण्ड को चीरने पर ये नाड़ियाँ दिखाई देतीं भी नहीं। इन तीनों नाड़ियों की तुलना विद्युत प्रवाह से की जा सकती है। विद्य त की दो धाराएँ होती हैं --एक, धन (positive) विद्य त और दूसरी ऋण (negative) विद्य त । दोनों प्रकार की धाराएँ अलग-अलग तारों (wires) के माध्यम से चलती हैं, उन तारों में प्रवाहित होती हैं। ये धाराएँ अलग-अलग चाहे जितने समय तक और चाहे जितनी दूर तक चली जायें, कोई शक्ति उत्पन्न नहीं होती, न बल्ब जलते हैं, न पंखे चलते हैं, और जैसे ही ये धाराएँ मिल जाती है इनका circuit complete हो जाता है, शक्ति का स्रोत उमड़ पड़ता है, नियोन लाइट जल उठती हैं, वातावरण प्रकाश में नहा जाता है, पंखे घूमने लगते हैं, मोटरें गतिमान हो जाती हैं, मिलों और कारखानों की मशीने धड़धड़ाने लगती हैं, हजारों टनों भरी पत्थरों और लोहे के सामानों को क्रन इधर से उधर उठाकर रख देती है, रेडियो पर गाने आने लगते हैं और टेलीविजन पर दूर-दूर के दृश्य दिखाई देने लगते हैं। विद्युत् शक्ति से असम्भव लगने वाले कार्य भी सम्भव हो जाते हैं। ___ यही स्थिति इन नाड़ियों के बारे में है। ईड़ा (चन्द्रनाड़ी) को ऋण विद्य त धारा (Negative) और पिंगला (सूर्य नाड़ी) को धन विद्य त धारा (Positive) कह सकते हैं तथा जहाँ ये दोनों मिलती हैं, वहीं सुषुम्ना नाड़ी है । जब ये मिल जाती हैं तभी यौगिक शक्तियों का स्रोत बह निकलता है। इस प्रकार सुषुम्ना नाड़ी एक तीसरी शक्ति है। योग की और सूक्ष्म गहराई में जाने पर, सुषुम्ना के अन्दर एक और त्रिवर्ग है जो पहले त्रिवर्ग से भी सूक्ष्म है। वहाँ भी तीन नाड़ियाँ हैं-(१) वज्रा (२) चित्रणी और (३) ब्रह्म नाड़ी। बस, ब्रह्मनाड़ी ही यौगिक शक्तियों का मूल और केन्द्र है । यही नाड़ी मस्तिष्क में, शिराओं आदि के रूप में जाकर हजारों भागों में फैल जाती है। यह नाड़ी (ब्रह्म नाड़ी) तैजस् परमाणुओं से निर्मित और तेजस् शरीर में अवस्थित है। योगशास्त्रों में कहे गये सप्त कमल (अथवा चक्र) भी इसी Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राण-शक्ति : स्वरूप, साधना, विकास और उपलब्धियाँ ३२.५ नाड़ी में स्थित हैं। योगी प्राणवायु द्वारा इसी नाड़ी को शक्तिमान्, स्फूर्तिवान् बनाता है और अनेक चमत्कारी शक्तियाँ प्राप्त करता है। इस स्थिति में मस्तिष्क एरियल का काम करता है, वही स्थूल और सूक्ष्म भौतिक तरंगों को पकड़ता है। इवनि-तरंगों को, विचार-तरंगों को, विद्यत तरंगों को, रेडियोधर्मी तरंगों को-सभी प्रकार की तरंगों को पकड़ता है और साधक भूत-भविष्य का जानकार, चुम्बकीय शक्ति वाला तथा अन्तर्दृष्टिसम्पन्न एवं अनेक प्रकार की शक्तियों का स्वामी बन जाता है। __ मेरुदण्ड के निचले अन्तिम भाग में, सुषुम्ना के अन्दर रहने वाली ब्रह्म नाड़ी एक काले वर्ण के षट्कोण स्कन्ध (चक्रजाल) से बँधकर लिपट जाती है। पुराणों में इसी को कूर्म कहा गया है और यौगिक ग्रंथों में कुण्डलिनी । यह गुन्थन कुण्डलाकार है, इसीलिये इसका नाम कुण्डलिनी पड़ा। कुण्डलिनी शक्ति का ऊर्ध्वारोहण और चक्रभेदन योग और विशेष रूप से हठयोग में कुण्डलिनी की महिमा का बहुत गुणगान किया गया है। श्वेताश्वतर उपनिषद् में इसे 'नाचिकेत' अग्नि कहा गया है और बताया गया है कि जो साधक 'त्रि-नाचिकेत' बन जाते हैं, वे जन्म और मृत्यु से पार पहुँच जाते हैं–तरति जन्ममृत्यू उनका शरीर योगाग्निमय हो जाता है और वे जरा, व्याधि तथा मृत्यु से पार हो जाते हैं न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम् । -श्वेताश्वतर उपनिषद् चैनिक योग दीपिका में इसे आत्मिक अग्नि (spirit fire) कहा गया है Only after the completed work of a hundred days will the Light be real, there will it become Spirit fire. The heart is the fire; the fire is the Elixir. -I'lohin योगविद्या के पाश्चात्य विद्वान इसे सर्पवत्वलयान्विता अग्नि (serpent fire) कहते हैं और मैडम ब्लैवेटस्की (Madame Blavetsky-ये थियोसोफीकल सोसाइटी Theosophical Society की जन्मदाता थीं) इसे विश्वव्यापी विद्युत शक्ति (Cosmic Eletricity) कहती थीं। इसकी गति के Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ जन योग : सिद्धान्त और साधना विषय में बताते हुए उन्होंने कहा है कि प्रकाश १,८५,००० मील प्रति सैकिण्ड की गति से चलता है, जबकि कुण्डलिनी शक्ति की गति ३,४५,००० मील प्रति सैकिण्ड है। (Light travels at the rate of 1,85,000 miles per second, Kundalini at 3,45,000 miles a second.)1 यह कुण्डलिनी शक्ति साधारणतया मानव-शरीर में सोयी पड़ी रहती है, सुषुप्ति अवस्था में रहती है। किन्तु जब योगी प्राणायाम द्वारा प्राणशक्ति को इसमें संचारित करता है, सही शब्दों में ठोकर देता है प्राणशक्ति की; प्राणशक्ति को उस पर केन्द्रित करके ऊपर की ओर धक्का लगाता है, इसे ऊपर की ओर चढ़ने को प्रेरित करता है तब इसकी सुषप्ति दशा टूटती है और यह ऊर्वारोहण करती है; उर्ध्वारोहण के क्रम में यह चक्रों का भेदन करती है। चक्र के लिए योग ग्रंथों में 'कमल' शब्द दिया गया है। यह शब्द अधिक उपयुक्त है । जिस तरह कमल का फूल खिलता और बन्द होता है, उसका १ मैडम ब्लेवेट्सको के कथन में कुछ अपूर्णता है। वास्तव में, प्रकाश की गति १८६,००० मील प्रति सैकिण्ड है, विद्युत की गति २,८८,००० मील प्रति सैकिण्ड और विचारों की गति २२,६५,१२० मील प्रति सैकिण्ड है। -सम्पादक चक्रों की संख्या के बारे में कई विचारधाराएं प्राचीन मनीषियों की प्राप्त होती हैं । साधारणतया चक्र सात माने जाते हैं-(१) मूलाधार-सुषुम्ना के अन्तिम निचले सिरे में, (२) स्वाधिष्ठान पणिपूर यक -मूलाधार से चार अंगुल ऊपर पेडू में (३) मणिपूर-नाभि स्थान में, (४) अनाहत हृदय में (५) विशुद्धि-कंठ में, (६) आज्ञा-भ्रू मध्य में, (७) " सहस्रार-ब्रह्मरंध्र में। (देखिए चित्र) कुछ आचार्यों ने आज्ञा और सहस्रार चक्र के मध्य में दो चक्रों की अवस्थिति और मानी है-(१) मनःचक्र और (२) सोमचक्र । मनःचक्र का स्वाधिष्ठान चक क Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राण-शक्ति : स्वरूप, साधना, विकास और उपलब्धियाँ ३२७ संकोच-विस्तार होता है, वही स्थिति इन चक्रों की है। जिस समय सुषुम्ना मार्ग में संचारित होती हुई प्राण-शक्ति इन चक्रों से टकराती है अथवा कुण्डलिनी शक्ति इनको ठोकर मारती है, योगी इन चक्रों को प्राणवायु के संसर्ग से अनुप्राणित करता है तो बन्द हुए अथवा संकुचित अवस्था में रहे हए कमल खिल जाते हैं, और विकसित-विस्तृत हो जाते हैं । यही चक्र-वेध अथवा चक्रों का उन्मुकुलन या अनुप्राणन है। चक्नों अथवा कमलों का उन्मुकुलन अथवा अनुप्राणन कुण्डलिनी शक्ति के जागरण से होता है और कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होती है या तो हठयोग से अथवा भावनायोग से। साधक अपनी रुचि, क्षमता तथा योग्यता के अनुसार हठयोग की प्रक्रियाओं अथवा भावनायोग की साधना से कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करता है। साथ ही यह शक्ति सिर्फ सिद्धासन, पद्मासन, पर्यकासन से ही जागृत होती है । शवासन, दंडासन, लगुडासन आदि आसनों से नहीं हो सकती। इन आसनों से कुण्डलिनी शक्ति का ऊर्वारोहण संभव ही नहीं है। यह कुण्डलिनी शक्ति प्राणमय कोश अथवा तैजस शरीर (Etheric Body) में अवस्थित है और प्राणमय शरीर प्रकाश रूप है, अतः कुण्डलिनी शक्ति भी प्रकाश रूप है; किन्तु अत्यन्त सूक्ष्म पुद्गल परमाणओं से निर्मित होने के कारण इस शरीर को साधारण चर्म-चक्षुओं से नहीं देखा जा सकता। स्थान ललाट है, यह आज्ञाचक्र से लगभग २ अंगुल ऊपर होता है, उसी में विचार उत्पन्न होते हैं तथा इन्द्रियविषयों (श्रवण, नेत्र, घ्राण, जिह्वा, स्पर्श इन्द्रियों के विषय) का स्थान भी वही है, यहीं से आज्ञावहा नाड़ी निकलती है यह मूर्धास्थान से ऊपर अवस्थित है। __ मनश्चक्र से ऊपर और सहस्रार चक्र से नीचे सोमचक्र है। यही निरालम्बपुरी तुरीयातीत अवस्था में रहने का स्थान है । इस स्थान (चक्र) में योगीजन तेजोमय ब्रह्म का दर्शन और अनुभव करते हैं, आत्मस्वरूप का अनुभव एवं साक्षात्कार करते हैं। शक्ति सम्मोहन तंत्र में भी नव चक्रों का वर्णन है, किन्तु उनके नाम भिन्न हैं, दल आदि का भी विवरण नहीं दिया गया है । इन चक्रों के अतिरिक्त हठयोग में त्रिकूट, श्रीहाट, गोल्लाट और पीठ एवं भ्रमर गुम्फा नाम के पाँच चक्र और बताये गये हैं। -परमार्थ पथ, पृ० ३८७-४०३; पं० श्री त्र्यम्बक शास्त्री खरे के 'श्री कुण्डलिनीशक्ति योग' निबन्ध के आधार पर Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग : सिद्धान्त और साधना इसके लिए विशिष्ट साधनों की आवश्यकता होती है । ये साधन आध्यात्मिक भी हो सकते हैं और भौतिक भी । योगी आध्यात्मिक उन्नति, हठ योग की क्रियाओं तथा भावनायोग द्वारा अपने अन्तर् में बीज रूप में उपस्थित दिव्य दृष्टि को विकसित करता है और वैज्ञानिक बाह्य साधनों द्वारा भी प्रकाशमय प्राणमय शरीर को देख लेता है । ' ३२८. १ (क) डॉ० क्लिनर ने प्राणमय कोष (Etheric boby) को देखने के लिए ऑरोस्पेक (Aurospec) नाम का चश्मा (Goggles ) खोज निकाला है । इस चश्मे से दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है अर्थात् इस चश्मे द्वारा मानव किसी भी दूसरे व्यक्ति के प्राणमय शरीर को देख सकता है । परन्तु यह जो प्राणमय शरीर प्रकाशरूप दिखाई देता है सो प्रकाशात्मक कुण्डलिनी शक्ति के सारे शरीर में व्याप्त होने के कारण से दिखाई देता है । मनोमय शरीर में ऊर्मियों के उत्पन्न होने पर अन्नमय शरीर में उनकी क्रिया होने का साधन प्राणमय शरीर ही है । अर्थात् प्राणमय शरीर का प्रकाश रूप अपने अनुभव से तथा डॉ० क्लिनर के ऑरोस्पेक से प्रत्यक्ष होता है । - श्री कुण्डलिनी योग-शक्ति-ले० पं० श्री त्र्यम्बक भास्कर शास्त्री खरे ( परमार्थ पथ, पृ० ३९८ ) (ख) ऐसी दिव्य दृष्टि प्राप्त करने की दूसरी बाह्य विधि बाहरी साधनों से मस्तिष्क के विशिष्ट अंग को उत्तेजित करना है । यह तिब्बत के लामाओं में प्रचलित है । वे लोग विशेष प्रकार की जड़ी-बूटियों तथा मंत्रों से अभिमंत्रित करने के बाद उस अभिमन्त्रित आरी जैसे दाँतेदार औजार को गर्म करते हैं और उस तपती हुई आरी से ललाट की हड्डी को काटते हैं, फिर उसके द्वारा हुए छेद में एक जड़ी-बूटियों तथा मंत्रों से पवित्र की हुई शलाका को डाल देते हैं । वह शलाका इतनी कुशलता से डाली जाती है कि मस्तिष्क के एक विशेष भाग टकराकर उसे उत्तेजित कर देती है । इस प्रकार मनुष्य की तीसरी आंख बन जाती है और उसे दिव्य दृष्टि प्राप्त हो जाती है, वह दूसरों के प्राणमय शरीर (Etheric or Electric body) को देख सकता है । ऐसी घटना लोबसंग नाम के लामा के जीवन में घटी है। उसने इसका पूरा ब्योरा The Third Eye 'तीसरी आँख' नामक पुस्तक में दिया है । - पूर्ण विवरण के लिए द्रष्टव्य -- तीसरी आँख (रहस्यों के घेरे में, पृ० ८ ६) Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राण शक्ति : स्वरूप, साधना, विकास और उपलब्धियाँ ३२६ इस प्राणमय शरीर में अवस्थित कुण्डलिनी शक्ति को जागृत कर चक्रों अथवा कमलों को अनुप्राणित करने से योगी को विशिष्ट लब्धियाँ और चमत्कारी शक्तियाँ प्राप्त होती हैं। (१) मूलाधार को अनुप्राणित करने से अध्यात्म विद्या में प्रवृत्ति और नोरोगता; (२) स्वाधिष्ठान से वासना क्षय और ओजस्विता; (३) मणिपूर से आरोग्य, आत्म-साक्षात्कार, ऐश्वर्य; (४) अनाहत से यौगिक उपलब्धियाँ एवं आत्मस्थता, (५) विशुद्धि चक्र से कामना-विजय, (६) आज्ञाचक्र से अन्तआन और वासिद्धि, (७) मनःचक्र से अतीन्द्रिय ज्ञान तथा इन्द्रिय और मनोविजय; (८) सोमचक्र से सर्वसिद्धि, आनन्द की प्राप्ति और आत्मा के तेजोमय स्वरूप का अनुभव; (8) सहस्रार से मुक्ति । अर्थात् इन चक्रों (कमलों) के उन्मुकुलित होने पर साधक को ये विशिष्ट उपलब्धियाँ प्राप्त होती हैं। वस्तुतः प्राणमय शरीर आत्मा के साथ लगा रहने वाला सूक्ष्म (तेजस्) शरीर है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार सूक्ष्म शरीर की रचना न्यूट्रिनो नामक कणों से होती है। न्यूट्रिनो कण अदृश्य (साधारण चर्मचक्षुओं से अदृश्य), आवेश रहित और इतने हल्के होते हैं कि इनमें मात्रा और भार लगभग नहीं के बराबर होता है । ये स्थिर नहीं रह सकते और प्रकाश की तीव्र गति से सदा चलते रहते हैं। वैज्ञानिकों ने प्रयोग करके देखा है कि यदि न्यूट्रिनो कणों को किसी दीवार की ओर छोड़ा जाय तो वे दीवार को पार करके अन्तरिक्ष में विलीन हो जाते हैं । कोई भी भौतिक वस्तु इन्हें रोक नहीं सकती । इन न्यूट्रिनो कणों को पुनः भौतिक वस्तु के रूप में भी परिवर्तित किया जा सकता है ।। परामनोविज्ञान के अनुसार यह सूक्ष्म शरीर किसी भी स्थान पर, किसी 'भी दूरी और परिमाण में अपने को प्रकट और लय कर सकता है। -रहस्यों के घेरे में, पृष्ठ ३७ इस वैज्ञानिक विवरण से स्पष्ट है कि यह प्राणमय अथवा सूक्ष्म (तेजस्) शरीर पौद्गलिक है और इसी कारण यह वैज्ञानिक यन्त्रों, ऑरोस्पेक (Aurospec) आदि से भी देखा जा सकता है । -सम्पादक Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० जैन योग : सिद्धान्त और साधना इन आत्मिक एवं यौगिक उपलब्धियों के अतिरिक्त प्राणायाम का साधक के शरीर पर भी बहुत ही अनुकूल प्रभाव पड़ता है । प्राणायाम का शरीर पर प्रभाव आधुनिक शरीर - विज्ञान के अनुसार मानव शरीर के अन्दर काम करने वाले प्रधान अंग समूह हैं - ( १ ) स्नायु जाल (Nervous system) (२) ग्रन्थि समूह (glandular system), (३) श्वासोपयोगी प्रणाली ( respiratory system), (४) रक्तवाहिनी प्रणाली ( circulatory system), (५) पाचन संस्थान ( digestive system) । प्राणायाम से इन सभी अंग समूहों को लाभ होता है । प्राणायाम में पूरक के समय जो लम्बी गहरी साँस ली जाती है, उससे रक्त अधिक शुद्ध होता है और शुद्ध रक्त सम्पूर्ण शरीर में फैलकर स्फूर्ति और चुस्ती देता है । मस्तिष्क से लेकर पैरों तक के सभी अंग बलशाली बनते हैं । सामान्य साँस लेने में फेफड़ों के कुछ ही अंश क्रियाशील होते हैं और शेष अंश निष्क्रिय पड़े रहते हैं । किन्तु प्राणायाम (गहरी साँस लेने) से फेफड़ों के सभी अंग सक्रिय हो जाते हैं । परिणामस्वरूप राजयक्ष्मा ( तपैदिक T. B. ) नहीं हो पाती और यदि प्रारम्भिक अवस्था ( primary stage) में हो तो ठीक भी हो जाती है । इसी प्रकार फेफड़ों सम्बन्धी अन्य रोग जैसे plurisy आदि भी ठीक हो जाते हैं । शुद्ध रक्त मिलने से ग्रन्थि समूह ठीक तरह से काम करने लगेगा, शीघ्र ही बुढ़ापे के लक्षण प्रगट नहीं होंगे ( क्योंकि बुढ़ापा Thyroid ग्रन्थि की निष्क्रियता से आता है और प्राणायाम से यह ग्रन्थि सक्रिय बनी रहती है), शरीर फुर्तीला बना रहेगा और कार्यक्षमता भी बढ़ेगी । व्यायाम पाचन संस्थान के लिए भी बहुत सहायक है । रेचक, पूरक और कुम्भक - तीनों दशाओं में उदर की नाड़ियाँ सिकुड़ती और फैलती है । इस प्रकार उनका व्यायाम हो जाता है और वे स्वस्थ बनी रहती हैं । इस प्रकार प्राणायाम से शरीर स्वस्थ बना रहता है । मांसपेशियाँ (muscles) लचोली और सुदृढ़ बनी रहती हैं, गुर्दे (Kidney), यकृत (liver), प्लीहा आदि सभी अंग सुचारु रूप से काम करते हैं, फेफड़ों में लचीलापन बना रहता है और श्वास- कास आदि रोग नहीं हो पाते । Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राण-शक्ति : स्वरूप, साधना, विकास और उपलब्धियाँ प्राणायाम शारीरिक दृष्टि से रोग निवारक और रोग प्रतिरोधक है, अतः यह शरीर को नीरोग रखता है । शरीर की नीरोगता के साथ-साथ मनःस्वास्थ्य और मनः समाधि में भी सहयोगी बनता है । इस प्रकार साधक प्राण-साधना में क्रमशः आसन-शुद्धि, नाड़ी - शुद्धि और पवन-साधना करता है, प्राणों यानी सूक्ष्म शरीर को तीव्र करता है और अनेक विशिष्ट शक्तियों की उपलब्धि करता है । किन्तु जब तक ये उपलब्धियाँ बहिर्मुखी रहती हैं, अन्तमुखी नहीं हो पातीं तब तक ये आध्यात्मिक उपलब्धियाँ, अध्यात्म - साधना नहीं बन पातीं । फिर भी इनसे साधक को अनेक प्रकार के मानसिक एवं शारीरिक लाभ प्राप्त होते हैं । प्रारम्भ में जो दश प्राण बताये गये हैं, वे प्राणायाम की साधना से बलशाली बनते हैं, उनको कार्यक्षमता बढ़ती है, इन्द्रिय और मन सूक्ष्मग्राही ते हैं । यही प्राण साधना की फलश्रुति है | ३३१ १ विभिन्न प्रकार के रोगनिवारण और उपलब्धियों के लिए द्रष्टव्य हेमचन्द्राचायंकृत योगशास्त्र, पाँचवा प्रकाश और शुभचन्द्राचार्य प्रणीत ज्ञानार्णव । 9 Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ लेश्या - ध्यान साधना भावना तथा रंग चिकित्सा सिद्धान्त लेश्या ध्यान-साधना नया नाम है, किन्तु प्रक्रिया और अनुभूतियाँ नई नहीं हैं । इस विषय को एक-एक शब्द पर चलकर समझने का प्रयत्न कीजिए । लेश्या है कर्मों से लिप्त आत्म- प्रदेशों का परिस्पन्दन' और साथ ही उस परिस्पन्दन से आकर्षित हुए कर्म-परमाणुओं का स्पन्दन । यह कषायों से -अनुरंजित योगों की प्रवृत्ति है ।" और लेश्या - ध्यान साधना है भावों ( कषाय-अनुरंजित आत्म-परिणामों तथा अप्रशस्त पुद्गल परमाणुओं) को शुद्ध करने की प्रक्रिया, आध्यात्मिक मूर्च्छा को मिटाने की विधि, मानसिक एवं शारीरिक शान्ति व स्वस्थता पाने की विधि और है जागरण, विशेष रूप से अन्तर्जागरण की प्रक्रिया । मानव के अन्तर्जगत में दो प्रकार के स्पन्दन सतत होते रहते हैं, दो प्रकार की धाराएँ साथ-साथ बहती रहती हैं । एक है विचारों की धारा और दूसरी है भावों की धारा । विचारों की धारा ज्ञान से सम्बन्धित होती है, उसमें बाह्य परिस्थितियाँ और व्यावहारिक जगत भी सहकारी होता है । मनुष्य वातावरण से, समाज से, गुरु से, पुस्तकों से जो कुछ भी ज्ञान अर्जित करता है, उसी के अनुकूल उसके अन्तर्जगत में एक धारा बन जाती है, वैसे ही उसके विचार १ (क) लिम्पतीति लेश्या । ... कर्मभिरात्मानमित्यध्याहारापेक्षित्वात् । - धवला १/१,१,४/१४६/६ २ (क) गोम्मटसार, जीवकाण्ड, मूल ५३६ / ६३१ मोहोदयखओवसमोवसमखयजजीवफंदणं भावो । - मोहनीय कर्म के उदय, क्षयोपशम, उपशम अथवा क्षय से उत्पन्न हुआ जीव का स्पन्दन । (ख) कषायोदयारंजिता योगप्रवृत्तिरिति । - सर्वार्थसिद्धि २ / ६ /१५६/११ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्या-ध्यान साधना ३३३ बन जाते हैं, सोचने-समझने का एक दायरा बन जाता है, यही उसकी विचारों की धारा है। ___ मानव, चिन्तन-मननशील प्राणी है, वह सोचे-विचारे बिना रह ही नहीं सकता; हमेशा कोई न कोई विचार उसके मन-मस्तिष्क में बहता ही रहता है, यह बहते हुए विचार ही एक धारा का रूप ले लेते हैं और यही आत्मा की विचारों की धारा है, विचारों का स्पन्दन है। एक दूसरी धारा भी मानव के (और विशाल दृष्टि से देखा जाय तो प्राणी मात्र के) अन्तर्जगत में सतत गतिमान रहती है, वह है भावों की धारा । भावधारा का अभिप्राय है-कषायों की धारा। क्रोध की, मान की, माया की, लोभ की, हास्य-रति-अरति-भय-जुगुप्सा स्त्री-पुरुष-नपुंसक वेद की (काम भावना की) धारा-यह धारा भी मानव के अन्तर्जगत में-सूक्ष्म अथवा तैजस शरीर में सतत बहती रहती है। यह धारा प्रशस्त भी होती है और अप्रशस्त भी; शुभ भी होती है और अशुभ भी तथा संक्लिष्ट और असंक्लिष्ट भी; अन्धकार के रंग-काले नीले-हरे रंग की भी होती है और प्रकाश के रंग-पीले, लाल और श्वेत रंग की भी। इसे संक्षेप में राग-द्वष अथवा मोह की धारा भी कह सकते हैं। जब संक्लिष्ट विचारों को धारा प्रवाहित होती है तो मनुष्य के मन में बुरे भाव (विचार) आते है, कभी घणा के तो कभी द्वष के, कभी कपट के तो कभी भय एवं वासना के । जब मनुष्य मूर्छित होता है, पर-पदार्थों, विषयों, घटनाओं के प्रति संवेदनशील होता है, उनके प्रति प्रतिबन्धित होता है तब यह संक्लिष्ट विचारों की धारा अथवा द्वष की धारा चलती है। लेकिन द्वेष की धारा भी स्थायी नहीं होती, असंक्लिष्ट धारा भी मनुष्य की अन्तश्चेतना में चलती है तब उसमें अच्छे भाव, अच्छे विचार, प्रेम, करुणा, एकता, विश्वास आदि के आवेग उमड़ते हैं, वह अच्छे काम करने को प्रवृत्त होता है। लेकिन संक्लिष्ट और असंक्लिष्ट ये दोनों ही प्रकार की भावधारा मोहजन्य है, अतः इसमें मूर्छा भाव रहता है। योग की भाषा में कहें तो मनुष्य की अन्तश्चेतना मोह-मूच्छित रहती है। __ यह मूच्छित दशा मनुष्य के तेजस् अथवा प्राण शरीर में रहती है । कार्मण शरीर में अवस्थित कषायों की धारा प्राण शरीर में बहती है और Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ जन योग : सिदान्त और साधना उसकी अभिव्यक्ति औदारिक (स्थूल) शरीर में होती है । मनुष्य का प्राणजगत, मनोजगत और आत्मा भी इससे प्रभावित होता है । इसीलिए ऐसी आत्मा को जैनागमों में कषायात्मा कहा गया है। लेश्याध्यान द्वारा साधक इस कषाय-अनुरंजित भावधारा को निर्मल और स्वच्छ बनाने की साधना करता है। आभामंडल जैन दर्शन के अनुसार लेश्या के दो भेद हैं—(१) भाव लेश्या और (२) द्रश्य लेश्या। योग के अनुसार भावलेश्या तो कषाय-आत्मा के प्रदेशों का परिस्पन्दन हैं, भावधारा है और द्रव्यलेश्या, आत्मा के उन परिस्पन्दनों से आकर्षित पुद्गल वर्गणाएँ-तेजस् पुद्गल वर्गणाएँ हैं, इन तैजस पुद्गल वर्गणाओं से ही तैजस् अथवा प्राण शरीर की सृष्टि होती है और उसी में द्रव्य लेश्याओं की अवस्थिति होती है। तेजस् अथवा प्राण शरीर पौद्गलिक होने के कारण दृश्य होता है, उसमें रूप होता है, अतः लेश्या (द्रव्य लेश्या) भी रूपगुण युक्त होती है। उसमें विविध वर्ण होते हैं। इन वर्गों के आधार पर लेश्या छह प्रकार की मानी गई है। आगमों में लेश्या को आणविक आभा, कान्ति, प्रभा और छाया रूप बताया गया है। आधुनिक विज्ञान ने भी सूक्ष्म (प्राण) शरीर को न्यूट्रिनो पुद्गलों से निर्मित प्रकाश रूप माना है। उन्होंने इसके फोटो भी लिये हैं। वे यह भी मानते हैं कि शुभ विचारों के समय यह प्राण शरीर पीला, लाल और श्वेत रंग का हो जाता है और कुत्सित विचारों के समय हरा, नीला तथा काले रंग का। __ इस प्राण शरीर से एक प्रकार की विद्युत धारा निकलती है। इस विद्य तधारा का निर्माण तैजस् परमाणुओं (न्यूट्रिनो कणों) की तीव्रतम गति के कारण होता है। वैज्ञानिक इसे मानव विद्य त (Human Electricity) कहते हैं । यह विद्यु त भी प्राणमय शरीररूप होती है। १ लेशयति-श्लेषयतीवात्मनि जन नयनानीति लेश्या-अतीव चक्षुरापेक्षिका स्निग्धदीप्त रूपा छाया । - उत्तराध्ययन बृहवृत्ति, पत्र ६५० Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेश्या - ध्यान साधना ३३५ इस प्रकार प्राण शरीर विद्युत रूप में मानव के स्थूल शरीर से २३३ फुट बाहर तक प्रवाहित रहता है । इसी को आभामंडल कहा जाता है । मनुष्य ही नहीं, यह आभामंडल' प्राणी मात्र के स्थूल शरीर के १ आभामंडल ( aura ) और प्रभामंडल ( Halo) में बहुत अन्तर है । आभामंडल तो प्राणशरीर से विकीर्ण होने वाली विद्युत् तरंगों से बनता है । इसमें रंग भी होते हैं और वे रंग भावनाओं तथा आवेग संवेग के अनुसार बदलते भी रहते हैं । यह आभामंडल संपूर्ण शरीर के आकार का तथा मानव शरीर से २३३ फुट तक बाहर निःसृत होता रहता है । मानव ही नहीं, प्राणीमात्र, यहाँ तक वृक्षों ओर फूल-पत्तियों में भी आभामंडल होता है । किन्तु प्रभामंडल केवल पवित्रात्माओं में ही बनता है । यह सिर्फ सिर के पीछे की ओर गोलाकार रूप में होता है । इसका वर्ण स्वर्ण के समान चमकीला होता है तथा यह वर्ण स्थायी होता है, कभी बदलता नहीं । साथ ही यह वर्ण इतना स्पष्ट होता है कि चर्मचक्षुओं से भी देखा जा सकता है। भगवान महावीर, राम, कृष्ण, बुद्ध, ईसा आदि के सिरों के पीछे जो प्रकाशवलय तस्वीरों आदि में दिखाया जाता है, वह प्रभामंडल ही है, जिसे साधारण भाषा में 'भामंडल' भी बोल दिया जाता है । प्रभामण्डल की उत्पत्ति उन्हीं पवित्रात्माओं के होती है जो आध्यात्मिक उन्नति की चरम स्थिति पर पहुँच जाते हैं। योग की दृष्टि से जिस योगी का - अन्तिम यानी सहस्रार चक्र अनुप्राणित हो जाता है उसी के यह प्रभामण्डल बनता है । आत्मिक तेज दिखाई देने प्रभामण्डल का निर्माण योगी साधक आज्ञा चक्र जागृत करने के उपरान्त अपनी शक्ति का प्रवाह जब और ऊँचा चढ़ाता है तब वह शक्ति ऊर्ध्वमुखी गति से मनश्चक्र को जाग्रत करती है और आगे बढ़कर सोमचक्र को अनुप्राणित करती है । इस सोमचक्र के जागृत होते ही साधक को कोटि सूर्यसम लगता है । यह आसाधारण प्रकाश ही पुंजीभूत होकर करता है और जब साधक का ब्रह्मरन्ध्र स्थित सहस्रार चक्र अनुप्राणित हो जाता है तो वह अति आनन्ददायक और प्रभावशाली प्रकाश सहस्र - सहस्र रश्मियों के रूप में बाहर की ओर बह निकलता है । सहस्रार चक्र ( कमल) में हजार दल (पंखुड़ियाँ) हैं और इन सभी से प्रकाश प्रस्फुटित होता है । यही प्रकाश योगी के सिर के पीछे वृत्ताकार रूप में दिखाई देता है, जिसे प्रभामण्डल कहते हैं । Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ जैन योग : सिद्धान्त और साधना चारों ओर विकीर्ण होता है; किन्तु सूक्ष्म पुद्गलों द्वारा निर्मित होने के कारण चर्म-चक्षुओं से इसका दृष्टिगोचर हो पाना कठिन है। वैज्ञानिकों ने अत्यन्त संवेदनशील कैमरों से इसके चित्र लिये हैं तथा डाक्टर किलनर द्वारा आविष्कृत ऑरोस्पेक चश्मा (aurospec goggles) द्वारा इसे देखा जा सकता है और जिस योगी का आज्ञा चक्र जागृत हो गया है तथा उसे दिव्य दृष्टि (सूक्ष्म पुद्गल परमाणुओं को देखने की शक्ति) प्राप्त हो गई हो, वह तो उसे देख ही सकता है। लेश्याध्यान : प्राण शरीर-शुद्धि की प्रक्रिश लेश्याध्यान का साधक इस आभामण्डल सहित सम्पूर्ण प्राण शरीर की शुद्धि करता है । यह शुद्धि वह दो प्रकार से करता है-(१) भावना द्वारा और (२) रंगों के ध्यान द्वारा । __भावना आन्तरिक है अतः यह आन्तरिक शुद्धि का माध्यम है। भावना का अभिप्राय यहाँ शुभ और शुद्ध भावना है। साधक अपने मन-मस्तिष्क को सर्वप्रथम बुरी और कुत्सित भावनाओं से रिक्त करता है; ईर्ष्या-द्वेष, घृणा, क्रोध, मान, माया, लोभ, आदि विकारी भावनाओं को दूर करता है और इनके स्थान पर दया, क्षमा, परोपकार, आत्म-भाव आदि की शुभ-शुद्ध भावनाओं से मन-मस्तिष्क को संवासित करने का प्रयत्न करता है। ज्यों-ज्यों भावनाएँ शुभ-शुद्ध होती जाती हैं, लेश्याएँ भी शुभ से शुभतर-शुभतम होती जाती हैं। साथ ही साथ प्राण शरीर भी ओजस्वी-तेजस्वी होता जाता है । जल से जिस प्रकार वस्त्र या शरीर धुलकर उजला होता है, उसी प्रकार भावना से धुलता हुआ तैसस् शरीर उज्ज्वल उज्ज्वलतर होने लगता है तब प्राणमय शरीर से विकीर्ण होने वाली विद्युत तरंगें भी प्रभाव शाली व प्रकाशमयी होती जाती हैं। परिणामस्वरूप चारों ओर का-दूर-दूर तक का वातावरण भी प्रभावित होता है। ___महान् योगियों और पवित्रात्माओं, उच्चकोटि के साधुओं के सान्निध्य में जो पशु-पक्षी अपना जन्मजात वैर भाव भी भूलकर शान्तिपूर्वक बैठ जाते हैं, उसका कारण लेश्या-शुद्धि का प्रभाव हो है। किसी उच्च भावना वाले या प्रखर मनोबल वाले व्यक्ति के संसर्ग का प्रभाव हमारे मन-मस्तिष्क पर पड़ता है, उसका कारण भी उसकी प्रबल लेश्याएँ ही हैं। Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्या-ध्यान साधना ३३७ लेश्या-शोधन की दूसरी प्रक्रिया रंगों का ध्यान है । यह बाह्य साधना है। इसकी गति अथवा पहुँच प्राण शरीर तक ही है । इसके द्वारा साधक को शान्ति का अनुभव तो होता है, किन्तु वह स्थायी नहीं होता । साधक विभिन्न प्रकार के रंगों के ध्यान द्वारा विभिन्न प्रकार के आवेगों के उपशमन का अनुभव करता है। वे आवेग कुछ काल के लिए उपशान्त भी हो जाते हैं। यह स्थिति ऐसी ही है, जैसे निर्मली डालने से पानी की गन्दगी नीचे बैठ जाती है और जल शुद्ध दिखाई देने लगता है। हाँ, यदि इसमें शुभ भावनाओं का भी योग मिल जाये तो आवेगों का स्थायी उपशमन और दूसरे शब्दों में क्षय भी हो जाता है। रंग के साथ भावना का योग मिलने से प्रभाव में स्थायित्व आता है। यदि बाह्य दृष्टि से विचार किया जाय तो लेश्याध्यान रंगों का ध्यान है; क्योंकि लेश्याओं के भी रंग होते हैं। लेश्याओं का वर्गीकरण शुद्धि-अशुद्धि और असंक्लिष्टता तथा संक्लिष्टता के आधार पर लेश्याओं के छह वर्गीकरण किये गये हैं(१) कृष्ण लेश्या अशुद्धतम क्लिष्टतम (२) नील लेश्या अशुद्धतर क्लिष्टतर (३) कापोत लेश्या क्लिष्ट (४) तेज लेश्या शुद्ध अक्लिष्ट (५) पद्म लेश्या शुद्धतर अक्लिष्टतर (६) शुक्ल लेश्या शुद्धतम अक्लिष्टतम नामों के अनुसार इनके रंग भी हैं-कृष्ण लेश्या का रंग काला, (अपराबैंगनी से बैंगनी तक), नील लेश्या का रंग नीला, कापोत लेश्या का रंग हरा (कपोत के रंग जैसा-आकाश सदृश नीला), तेजोलेश्या का लाल (अरुण-बाल सूर्य के समान), पद्मलेश्या का पीला (उगते हुए सूर्य की आभा जैसा जिसमें हल्की सी लालिमा भी होती है) और शुक्ललेश्या का रंग श्वेत (शंख के समान) होता है। ये रंग इन लेश्याओं के पुद्गल परमाणुओं के होते हैं । जैन शास्त्रों में वर्ण पाँच बताये हैं-(१) काला, (२) पीला, (३) नीला, (४) लाल और (५) सफेद । आधुनिक विज्ञान सात रंग मानता है-(१) अशुद्ध Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ जैन योग : सिद्धान्त और साधना बैगनी अथवा जामुनी रंग (२) नीला (गहरा नीला) (३) नीला (आकाश जैसा नीला (४) हरा (५) पीला (६) नारंगी और (७) लाल ।' लेश्याध्यान और रंग चिकित्सा प्राणाली वस्तुतः जितने भी स्थूल सूक्ष्म स्कंध हैं, वे सभी रंगों और उपरंगों वाले होते है। लेकिन रंग हमें ४६वें कंपन पर दिखाई देते हैं, इस से कम कंपन पर नहीं । मानव का शरीर और मन भी स्थूल-सूक्ष्म स्कंधों से निर्मित होता है। अतः यह बाहरी रंगों से प्रभावित भी होते हैं। इनमें शुभ रंगों के प्रभाव से व्यक्ति में शुभ भावनाओं का प्रादुर्भाव होता है और अशुभ रंगों से अशुभ भावों का। ___ यदि एक अपेक्षा से देखा जाय तो प्रशस्त रंग भी सदैव अप्रशस्त ही नहीं होते। उदाहरण के लिए-नवकार मंत्र के अन्तिम पद 'नमो लोए सव्वसाहूँणं' का ध्यान करते हुए साधक साधु पद का कृष्ण वर्णमयी ध्यान करता है किन्तु वहाँ यह कृष्णवर्ण प्रशस्त है, शुभ है। यह कृष्ण (काला रंग) वर्ण अवशोषक है, बाहर से आती हुई अशुभ भावों की तरंगों को रोकता है, अपने अन्दर ही जज्ब कर लेता है, आत्मा तक नहीं पहुँचने देता। साथ ही यह प्रशस्त कृष्ण वर्ण का ध्यान साधक के शरीर और मन को कष्ट-सहिष्णु तथा उपसर्ग-परीषहों को समभाव से सहन करने में सक्षम बना देता है । इस प्रकार साधु पद के ध्यान में साधक द्वारा ध्येय कृष्ण वर्ण अलग है और कृष्ण लेश्या का कृष्णवर्ण उससे बिल्कुल ही विपरीत अप्रशस्त और अशुभ है । साधु पद के ध्यान के समय का कृष्ण वर्ण कस्तूरी जैसा चमकीला है १ आधुनिक विज्ञान Vibgyor के सिद्धान्त को मानता है । इस शब्द का एक-एक अक्षर एक-एक रंग के नाम प्रथम वर्ण है, यथा --v=viloet (बंगनी), i= indigo (गहरा नीला) b= blue= (नीला), g== green (हरा), y=Dyellow (पीला), o=D orange(नारंगी), I = red (लाल)। विज्ञान श्वेत रंग को नहीं मानता, उसकी मान्यता है कि इन रंगों के संयोग से श्वेत रंग बन जाता है । सही स्थिति यह है कि सूर्य किरणें, जो पारे के समान श्वेत होती हैं, उनमें ये सातों रंग prism द्वारा दिखाई देते हैं। किन्तु इन सात रंगों के संयोग से शंख जैसा सफेद रंग नहीं बनता। जबकि जैन दर्शनसम्मत श्वेत रंग शंख के समान .. सफेद है और वह मूल (original) रंग है, रंगों का मिश्रण नहीं है। -सम्पादक Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्या ध्यान साधना और कृष्ण लेश्या का काला रंग अंजन (काजल) के समान है, इसमें चमक नहीं होती, घोर अंधकार ही होता है । कृष्णलेश्या और काला रंग काला रंग मनुष्य की दुर्भावनाओं का प्रतीक है । जिस मनुष्य के भावों में हिंसा, क्रूरता आदि दुर्भावों की तरंगें प्रवाहित होती हों, उसका आभामंडल काला होता है । ऐसा व्यक्ति कृष्णश्लेयावाला होता है । ३३६ श्याध्यान का साधक काले रंग का ध्यान करता है, उस समय वह काले रंग को गहरा न करके उसका परिमार्जन एवं संशोधन करता है । उसे हल्का बनाने का प्रयास करता है । साथ ही साधक काले रंग के ध्यान से अपने शरीर को कष्टसहिष्णु बनाता है | चूँकि काला रंग अवशोषक है, वह बाहर के भावों, दुर्गुणों को अन्दर नहीं आने देता और अन्दर के भावों को बाहर नहीं जाने देता, अतः साधक काले रंग के इस गुण का लाभ उठाकर बाह्य दुर्गुणों को अपने अन्दर प्रवेश नहीं करने देता, बाह्य प्रतिकूल परिस्थितियों से उत्त ेजित न होने की तथा उन्हें समभावपूर्वक सहन करने की क्षमता का विकास कर लेता है । ध्यान से परिमार्जित होता हुआ काला रंग बैंगनी रंग में परिवर्तित हो जाता है । इस स्थिति में यह रंग साधक के स्वाधिष्ठान चक्र को संयमित करता है । स्वाधिष्ठान चक्र के संयमन से साधक को मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है । साधक अत्यधिक भूख पर नियंत्रण स्थापित करने में सक्षम हो जाता है तथा हिंसात्मक अत्यधिक क्रूरता (fanatic violence) जो पागलपन की सीमा तक बढ़ी हुई होती है, उससे छुटकारा पा लेता है । इससे साधक को रक्त शुद्धि और अस्थियों में सुदृढ़ता आती है; परिणामस्वरूप उसे शारीरिक नीरोगता की उपलब्धि होती है । जब लेश्याध्यान साधना के बल पर साधक बैंगनी रंग को जामुनी रंग में परिवर्तित कर लेता है तो इस रंग पर ध्यान के प्रभाव से उसको मांसपेशियों की शक्ति बढ़ जाती है, परिणामस्वरूप वह शारीरिक अवयवों के दर्द (muscular pains and aches) के प्रति संज्ञाशून्य-सा हो जाता है, अर्थात् उसे दर्द की अनुभूति नहीं होती । वस्तुस्थिति यह है कि इस रंग के ध्यान से साधक अपनी चेतना को इतने ऊँचे प्रकंपनों पर पहुँचा देता है कि उस Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० बन मोप : सिद्धान्त और साधना स्थिति में उसे अपने शरीर का भी भान नहीं रहता, वह शरीर से एक प्रकार से निस्पृह सा हो जाता है। इसका कारण यह है कि इस रंग का ध्यान साधक के आध्यात्मिक, भौतिक और भावनात्मक स्तर को प्रभावित करता है। परिणामस्वरूप साधक की श्रवण (सुनने की), गन्ध (सूघने) की और दृष्टि (देखने की) शक्तियाँ भी प्रभावित हो जाती हैं, उनकी दिशा में ऐसा परिवर्तन आ जाता है कि साधक की बहिर्मुखी प्रवृत्तियाँ अन्तमुखी बनने लगती हैं । लेश्याध्यान का साधक काले रंग की साधना दुष्प्रवृत्तियों के शोधन के लिए करता है। नील लेश्याध्यान और नीले रंग की साधना नील लेश्यावाला व्यक्ति, कृष्ण लेश्यावाले से कुछ ऊपर उठा होता है, अर्थात् नील लेश्या वाला व्यक्ति, कृष्ण लेश्या वाले से कम क र होता है। फिर भी उसमें ईर्ष्या, कदाग्रह, अविद्या, निर्लज्जता, प्रद्वेष, प्रमाद, रसलोलुपता, प्रकृति की क्षद्रता और बिना विचारे कार्य करने की प्रवृत्ति होती है। यदि उसे किसी कार्य में लाभ होता हो तो अन्य व्यक्ति को हानि पहेंचाने में संकोच नहीं करता। आधुनिक भाषा में ऐसे व्यक्ति को स्वार्थी (selfish) कह सकते हैं। योग की अपेक्षा से लेश्याध्यान का साधक काले रंग का परिमार्जन करता हआ, बैंगनी और जामुनी रंग पर ध्यान केन्द्रित करता हआ नीले रंग पर पहुँचता है। उस समय उसकी भाव धारा कुछ विशुद्ध हो जाती है। साधक, इस नीले ध्यान की साधना से मन की शान्ति प्राप्त करता है। उसकी पापवृत्तियाँ शान्त होने लगती हैं तथा स्वार्थीपन की भावधारा कम हो जाती है। वह चारों ओर के वातावरण से अनुकूलन स्थापित करने में सक्षम हो जाता है। ___ शारीरिक दृष्टि से इस ध्यान की साधना द्वारा साधक को सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि उसके नाड़ी संस्थान (nervous system) की उत्त जना कम हो जाती है। यह रक्त (blood) के लिए टॉनिक है। ऊँचे रक्त चाप (high blood pressure) को सामान्य (normal) करने के लिए इस नीले रंग की साधना अधिक उपयोगी होती है। १ उत्तराध्ययन ३४/२२-२४ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्या-ध्यान साधना ३४१ आध्यात्मिक दृष्टि से इस रंग की साधना द्वारा साधक में सत्य के प्रति झुकाव, गुरु के प्रति विनय, प्रामाणिकता, प्रातिभ ज्ञान तथा आन्तरिक ज्ञान की उत्पत्ति के लक्षण प्रगट होने लगते हैं। योगमार्ग का साधक, नोललेश्या अथवा नीले रंग की साधना भी परिमार्जन की दृष्टि से करता है। वह साधना और ध्यान के बल पर गहरे नीले रंग को हलका करता है, उसका गहरापन कम करता है और ध्यान के प्रयोग से गहरा नीला रंग, कापोती रंग अथवा हल्के नीले रंग में परिवर्तित हो जाता है। कापोत लेश्याध्यान और हल्के नीले रंग की साधना कापोत लेश्या वाला मनुष्य वक्र स्वभावी होता है। उसकी वाणी और आचरण में कपट होता है। वह अपने दुगुणों को छिपाकर सद्गुणों को प्रकट करता है। वह कभी-कभी दुष्टवचन भी बोलता है, फिर भी उसकी भावधारा नीललेश्या वाले पुरुष की भावना की अपेक्षा शुभ होती है। ___ आधुनिक विज्ञान ने कापोती रंग के स्थान पर हरा रंग माना है । हरा रंग शान्तिदायक है। यह आज्ञा चक्र को बलशाली बनाता है। आज्ञा चक्र को शरीर विज्ञान में Pitutary gland कहा जाता है। अतः हरे रंग को दृष्टिपटल एवं मानस पटल पर लाने से, साधना करने से साधक को मानसिक और शारीरिक शान्ति प्राप्त होती है। उसका रक्तचाप और रक्तवाहिनी नाड़ियों (blood artileries) का तनाव उपशांत होता है। फलतः उसकी मानसिक और शारीरिक थकान दूर होकर स्फूति का संचार होता है। हरे रंग की साधना से साधक में जीवनी शक्ति का निर्माण होता है, यानी उसके शरीर की मांसपेशियों और ऊतकों (muscles and tissues) का निर्माण होता है तथा पुरानी जर्जरित मांसपेशियों और ऊतकों में नवजोवन का संचार होता है। साधक के भावना क्षेत्र (आभामण्डल) पर हरे रंग की साधना का बहुत ही अनुकूल प्रभाव पड़ता है। उसके अन्तर्जगत में जो काम, क्रोध, लोभ, हिंसा, करता आदि दुर्भावनाओं की धारा बह रही होती है, वह उपशान्त हो जाती है। दूसरे शब्दों में कषायों (आध्यात्मिक दोषों), मानसिक १ उत्तराध्ययन ३४/२५-२६ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ जन योग : सिद्धान्त और साधना तनावों, शारीरिक रोगों तथा विकृत हारमोन्स (Harmones) की शुद्धि होती है। तेजोलेश्या ध्यान और लाल (अरुण) रंग तेजोलेश्या वाले व्यक्ति का स्वभाव नम्र और अचपल होता है । वह जितेन्द्रिय, तपस्वी, पापभीरु और मुक्ति की अन्वेषणा करने वाला होता है ।' उसमें महत्त्वाकांक्षा नहीं रहती तथा स्वार्थसिद्धि की भावना भी अत्यल्प रह जाती है। योग की दृष्टि से तेजोलेश्या वाले व्यक्ति के आभामण्डल में से कालिमा (काला, नीला, कापोती तथा श्माम वर्ष के sphere में आने वाले बंगनी, जामुनी आदि सभी रंगों की आभा-प्रतिच्छाया) निःशेष हो जाती है और उसके आभामण्डल का रंग अरुण (बाल सूर्य के समान लाल) रंग हो जाता है। लाल रंग भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टियों से क्रान्तिउक्रान्ति का प्रतीक है । मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह वर्ण स्वास्थ्यप्रद और प्रतिरोधात्मक शक्ति से सम्पन्न होता है। शारीरिक दृष्टि से यह रोगों का विनाशक-स्वास्थ्यप्रद, तथा मानसिक दृष्टि से यह दुर्भावनाओं का अन्त करने वाला एवं आध्यात्मिक दृष्टि से यह अधर्म से धर्म की ओर उन्मुख करने वाला है। साधक जिस समय तेजोलेश्या का, अरुण रंग के संयोगपूर्वक ध्यान करता है तो उसका आभामण्डल अरुणिम होकर अरुणाभ तरंगों का विकीरण करने लगता है । उस विकीरण के प्रभाव से उसकी मानसिक दुर्भावनाएं तो नष्ट होती ही हैं। साथ ही उसका नाड़ी मण्डल और रक्त सक्रिय बनता है। परिणामस्वरूप उसकी ज्ञानवाही नाड़ियाँ और ज्ञानतन्तु भी सक्रिय बन जाते हैं। इसके फलस्वरूप उसकी अन्तश्चेतना में ज्ञान के विविध आयाम खुलने लगते हैं । साधक की पाँचों इन्द्रियाँ विशेष रूप से कार्यक्षम और सक्षम १ उत्तराध्ययन ३४/२७-२८ २ जैन आगमों में कृष्ण, नील, कापोत- इन तीनों लेश्याओं को अधर्म लेश्या कहा गया है तथा इनका फल दुर्गति बताया गया है। वस्तुतः लेश्याध्यान की साधना (आत्मिक उन्नति की साधना की अपेक्षा से) इस तेजोलेश्या से ही प्रारम्भ होती है। यहीं से साधक के जीवन में धर्म का प्रवेश होता है। -सम्पादक Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्या-ध्यान साधना ३४३ हो जाती हैं, वह भौतिक जगत में होने वाले सूक्ष्य प्रकम्पनों को भी पकड़ने में असमर्थ हो जाती हैं। तेजोलेश्या के ध्यान तथा उसमें लाल रंग के संयोग से साधक के शरीर का सेरेब्रो-स्पाइनल द्रव पदार्थ (liquid matter of Cerebro-spinal) उत्प्रेरित हो जाता है। परिणामस्वरूप मस्तिष्क का दायाँ भाग विशेष रूप से सक्रिय हो जाता है । अन्तर्ज्ञान और अतीन्द्रिय ज्ञान के द्वार खुलने लगते हैं। साधक की वृत्तियों में अभूतपूर्व परिवर्तन आ जाता है। साधक के आभामण्डल से विकीणित होने वाली ये लाल रंग की किरणें तापोत्पादक और शरीर में शक्ति संचार करने वाली होती हैं। ये जिगर (lever) और मांसपेशियों के लिए विशेष लाभप्रद होती हैं। ये क्षार द्रव्यों (alkalines) का आयोनाइजेशन (ionisation) करती हैं और ये आयोन्स (ions) विद्य त चुम्बकीय शक्ति (electro-magnetic energy) के वाहक होते हैं। सीधे शब्दों में साधक के मन के भावों और शरीर के परमाणुओं में एक ऐसा आकर्षण उत्पन्न हो जाता है कि प्रत्येक प्राणी उसकी ओर आकर्षित तथा उससे प्रभावित होने लगता है। पद्मलेश्या ध्यान और पीत (सुनहरा) वर्ण पद्मलेश्या वाले साधक के जीवन में क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों की अल्पता होती है। उसका चित्त प्रशान्त होता है । वह जितेन्द्रिय और अल्पभाषी होता है अतः वह ध्यान साधना सहज रूप से कर सकता है। योग की दृष्टि से पद्मलेश्या वाले साधक का आभामण्डल पीले (स्वर्ण कान्ति मिश्रित चमकदार सुनहरे पीले) रंग का होता है। पीले रंग में किसी प्रकार की उत्त जना नहीं होती अतः यह रंग ज्ञान और ध्यान का प्रतीक है। आधुनिक मनोवैज्ञानिक और शरीर-वैज्ञानिक दृष्टि से पीले रंग में धन चुम्बकीय विद्यत (Positive Magnetic Electric) होती है। इसीलिए यह शरीर के मृत सैलों (cells) को सजीव बनाकर उन्हें सक्रिय करता है। यह क्रियावाही नाड़ियों और मांसपेशियों को भी सक्रिय और शक्तिशाली बनाता है । धन चुम्बकीय विद्युत के प्रभाव से साधक का नाड़ीमंडल एवं १ उत्तराध्ययन ३४/२६-३० Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ जन योग : सिद्धान्त और साधना मस्तिष्क शक्तिशाली तथा सक्रिय बनते हैं। उसकी मानसिक शक्तियाँ विकसित होती है। पद्मलेश्या की ध्यान-साधना से साधक का दर्शन केन्द्र तथा आनन्द केन्द्र (विशद्धि चक्र) अनुप्राणित एवं जागृत हो जाते हैं, परिणामस्वरूप साधक को अनिर्वचनीय आन्तरिक प्रसन्नता एवं आनन्द की उपलब्धि होती है।' शुक्ललेश्या ध्यान और श्वेत वर्ण शुक्ललेश्या वाले पुरुष का चित्त शांत होता है । मन-वचन काया पर उसका पूर्ण नियन्त्रण स्थापित हो जाता है तथा वह जितेन्द्रिय हो जाता है । वस्तुतः श्वेत रंग समाधि का प्रतीक है । जिस समय साधक श्वेत रंग का ध्यान करता है तो उसकी अन्तश्चेतना में से कषायों, विषय-विकारों, परपदार्थों के प्रति आसक्ति इन सब का नाश हो जाता है। इस रंग के ध्यान १ तेजोलेश्या (लाल रंग) की साधना के दौरान जब साधक अपने परिणामों को भावधारा को उत्तरोत्तर विशुद्ध बनाता हुआ पद्मलेश्या (पीले रंग) की साधना भूमिका में पहुंचता है तो इस तरतमता के मध्यान्तर में उसके दृष्टिपटल एवं मानस पटल पर नारंगी (orange) रंग उभरता है। शारीरिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से साधक के लिए यह नारंगी रंग भी महत्त्वपूर्ण है। इस रंग से साधक को अनेक लाभ प्राप्त होते हैं। वस्तुतः नारंगी रग लाल और पीले रंग का मिश्रण है। इसमें लाल और पीले दोनों रंग समान मात्रा में होते है । इससे साधक की संकल्प-शक्ति दृढ़ होती है तथा उसे अनेक भौतिक लब्धियों की प्राप्ति होती है । साधक की थाइराइड ग्रन्थि (Thyroid Gland) सक्रिय होती है, अतः बुढ़ापे के लक्षण प्रगट नहीं होते। तीर्थंकर जो सदा युवा रहते हैं, उसका रहस्य इसी ग्रन्थि की सक्रियता में निहित है। योगी भी बहुत अधिक आयु में ही बूढ़े होते हैं । इससे योगी की इथरिक बॉडी (Etheric Body) शक्तिशाली बनती है। उसे अपनी भावनाओं पर नियंत्रण करने की क्षमता प्राप्त हो जाती है। पैनक्रियास ग्रन्थि (Pancreas gland) से, इस रंग द्वारा शक्ति का प्रवाह जारी हो जाता है, अतः साधक में वात्सल्य (विश्व कल्याण भावना), आन्तरिक प्रसन्नता, भावनाबों की सजीवता तथा योग-क्षेम की भावना विकसित हो जाती है । २ उत्तराध्ययन ३४/३१-३२. Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्या-ध्यान साधना ३४५ द्वारा योगी का आज्ञाचक्र, मनःचक्र, सोमचक्र और सहस्रार चक्र अनुप्राणित होकर जागृत हो जाते हैं । ब्रह्मरन्ध्र स्थित सहस्रार (सहस्रदल वाला कमल) चक्र उन्मुकुलित हो जाता है। ___आज्ञाचक्र के अनुप्राणन ते योगी को विशाल अतीन्द्रिय ज्ञान की उपलब्धि होती है। उसे अवधिज्ञान,' मनःपर्यवज्ञान और यहाँ तक कि केवलज्ञान तक की प्राप्ति भी हो जाती हैं । इन प्रशस्त ज्ञानों की उपलब्धि शुक्ललेश्या के साधक को ही होती है। __ मनःचक्र के अनुप्राणित होने से साधक की सम्पूर्ण वासनाओं का क्षय हो जाता है और सोमचक्र अनुप्राणित होने पर उसे अनिर्वचनीय आनन्द एवं आत्म-साक्षात्कार हो जाता है तथा सहस्रार चक्र अनुप्राणित होने पर वह स्वात्मस्थित हो जाता है। समाधि की अवस्था साधक को शुक्ललेश्या में ही प्राप्त होती है।। शुक्ललेश्यायुक्त साधक का प्रभाव आस-पास के वातावरण तथा प्राणियों पर भी अत्यधिक अनुकूल पड़ता है। साधक के आभामंडल के श्वेत परमाण इतने शक्तिशाली हो जाते हैं कि वैर और क्रोध की आग में झलसते हुए प्राणी भी उसके सान्निध्य में शांति प्राप्त करते हैं, उनके कषायों की उपशांति हो जाती है। ऐसे साधक का प्रभाव इतना अधिक हो जाता है कि उसके नामस्मरण मात्र से हजारों व्यक्ति शांति प्राप्त करते हैं, उनके हृदय में शुभ और कल्याणकारी भावनाओं का उद्रेक हो जाता है। लेश्याध्यान की साधना का चरमबिन्दु शक्ललेश्याध्यान अथवा श्वेत वर्ण का ध्यान है। ऐसा साधक भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टियों से लाभान्वित होता है, उसका शरीर स्वस्थ रहता है, तथा मानस एकदम शांत । संसार की ऐसी कोई शक्ति अथवा वस्तु नहीं रहती जो उसके लिए लभ्य न हो। जैन साहित्य में लेश्याओं का दृष्टान्त जैन साहित्य में लेश्याओं के स्वरूप को समझाने के लिए कई रूपक दिये हैं, उनमें से सबसे सरल, सुबोध और आसानी से हृदयंगम हो जाने १ यहाँ तपोलब्धिजन्य अवधिज्ञान की ही अपेक्षा है और वह भी अप्रतिपाती, जो एक बार उपलब्ध होकर छूटे नहीं, केवलज्ञान होने तक स्थायी रहे । भवप्रत्यय अवधिज्ञान तो देवों को जन्म के साथ ही हो जाता है, उसकी यहाँ अपेक्षा नहीं -संपादक Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ जैन योग : सिद्धान्त और साधना वाला रूपक है-एक जामुन के वृक्ष और छह व्यक्तियों की मित्र मंडली का। छह पुरुषों की एक मित्र मंडली थी। उनके मन में विचार आया कि जामुन का मौसम है, समीप के ही जंगल में जामुन के कई विशाल वृक्ष हैं। वहाँ जाकर भरपेट जामुन खायें। ___ जहाँ मित्रता और विचार-एक्यता होती है, वहाँ मन के विचारों को कार्य रूप में परिणत करने में समय नहीं लगता। छहों मित्र वन में पहुँचे गये और जामुनों से लदे एक विशाल वृक्ष के पास जा खड़े हुए। जामून के वृक्ष को देखकर पहला मित्र बोला-यह वृक्ष जामुनों से लदा है और फल भी ऐसे पके और स्वादिष्ट दिखाई दे रहे हैं कि मुंह में पानी आ रहा है। इस पर चढ़कर फल तोड़ने से तो यही अच्छा रहेगा कि कुल्हाड़ी द्वारा इस वृक्ष को मूल से ही काट दिया जाय । यह वृक्ष गिर पड़ेगा और हम लोग आनन्द से जामुन खायेंगे। दूसरे मित्र ने प्रतिवाद किया-पूरे वृक्ष को मूल से ही काटने से क्या लाभ ? बड़ी-बड़ी शाखाओं को ही काट लें । उन्हीं से अपना काम चल जायेगा। तीसरे मित्र ने अपना विचार प्रगट किया-बड़ी शाखाओं को भी काटना व्यर्थ है। छोटी-छोटी शाखाओं को काटने से ही हमारा काम चल सकता है। चौथे मित्र ने अपनी राय दी-छोटी शाखाओं को भी काटने का परिश्रम व्यर्थ है। फल तो गुच्छों में ही लगे हैं। हमें फल ही तो खाने हैं । बस, गुच्छों को तोड़ लें। पांचवाँ मित्र कहने लगा-गुच्छों में तो पके-कच्चे दोनों प्रकार के फल हैं । हमें सिर्फ पके फल ही खाने हैं, अतः गुच्छों को न तोड़कर सिर्फ पके फल हो तोड़ने चाहिए। छठे मित्र ने अपनी संतोष वत्ति व्यक्त की-भाई ! पके फल तोड़ने का श्रम भी क्यों किया जाय और क्यों इस वृक्ष को कष्ट दिया जाय ? यहाँ १ आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति, पृ० २४५ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्वा-याम साधना ३४७ स्वयं ही टूटे हुए हजारों फल जमीन में पड़े हुए हैं । ये पके भी हैं और मीठे भी। हम इन्हें ही खाकर अपना पेट भर सकते हैं। इन छहों मित्रों के परिणाम उत्तरोत्तर शुभ हैं, उनके परिणामों में उत्तरोत्तर संक्लेश कम है । पहला मित्र कृष्णलेश्या वाला, दूसरा नीललेश्या वाला, तीसरा कापोतलेश्या वाला, चौथा तेजोलेश्या वाला, पाँचवाँ पद्मलेश्या वाला और छठा शुक्ललेश्या वाला है। जिस प्रकार इन छहों मित्रों के आत्म-परिणाम उत्तरोत्तर शभ हैं, उसी प्रकार लेश्या-ध्यान का साधक अपने संक्लिष्ट परिणामों को, भावधारा को कषायों के आवेग-संवेग को कम करता हुआ, इनका परिमार्जन करता हुआ अपनी भावधारा को शुद्ध बनाता है, अपने आभामंडल को स्वच्छ और निर्मल करता है तथा आध्यात्मिक, मानसिक एवं शारीरिक स्वस्थता और शांति प्राप्त करता है। 00 Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ प्राण-शक्ति की अद्भुत क्षमता और शारीरिक एवं मानसिक स्वस्थता प्राणीमात्र के जीवन का आधार प्राण-शक्ति है, किन्तु मनुष्य में यह शक्ति बढ़ी-चढ़ी होती है । इस विकसित हुई शक्ति के आधार पर ही मानव सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहलाता है। उसे तीक्ष्ण बुद्धि (Keenest intellect) इसी शक्ति के कारण प्राप्त हुई है। इसी शक्ति के बल पर मानव आध्यात्मिक और भौतिक दोनों प्रकार की उन्नति के चरम शिखर पर पहुंचने की क्षमता रखता है। मानव की प्राणशक्ति दुधारी तलवार है। यह रक्षक भी है और भक्षक भी; विष्ण के समान पालन करने वाली है तो शिव के समान संहारक भी; यह प्रशस्त भी है और अप्रशस्त भी। वस्तुतः यह एक शक्ति है, और यह साधक की मनोवृत्ति पर निर्भर है कि इस शक्ति का उपयोग वह स्व-परकल्याण के लिए करे अथवा विनाश के लिए। प्राणशक्ति, यदि आधुनिक वैज्ञानिक शब्दावली में कहा जाय तो जैव विधु त (Biological Electric) है । यह जैव विद्युत प्राणी के तैजस् शरीर में उत्पन्न होती है और समूचे औदारिक कायतन्त्र का परिचालन करती है। मस्तिष्क से लेकर सम्पूर्ण शरीर में दौड़ती है। मस्तिष्क से लेकर हाथ की अंगुलियों के पोरुओं तक और शरीर के इंच-इंच भाग को ठण्डा और गरम रखने के लिए बाह्य मौसम से अनुकूलन करने के लिए नाड़ियों का जाल बिछा हुआ है । किन्तु अनुकूलन का यह संपूर्ण कार्य प्राणशक्ति करती है। डा० ब्राउन के अनुसार-शारीरिक एवं मानसिक कार्यों के संचालन के लिए मानव को इतनी शक्ति की आवश्यकता होती है, जितनी से एक बड़ा मील (Mill) चलाया जा सकता है तथा छोटे बच्चे के शरीर में व्याप्त शक्ति से एक रेलवे इंजिन चलाया जा सकता है। मानव के पास साधारण रूप से इतनी शक्ति, प्राणशक्ति के रूप में Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राण-शक्ति की अद्भुत क्षमता और शारीरिक एवं मानसिक स्वस्थता ३४६ मौजूद है और यदि वह यौगिक क्रियाओं द्वारा इस शक्ति को बढ़ा लेता है तो वह चमत्कारपूर्ण कार्यों को करने में सक्षम हो जाता है। प्राणशक्ति की चमत्कारी क्षमता यौगिक क्रियाओं द्वारा बढ़ी हुई प्राणशक्ति में चमत्कारी क्षमता उत्पन्न हो जाती है। प्राणशक्ति के लिए प्राणवायु एक ईंधन है और प्राणवायु मानव ग्रहण करता है श्वास द्वारा । श्वासोच्छ्वास के नियमन से योगी अपनी प्राणशक्ति को बढ़ा लेता है और उस प्राणशक्ति के बल पर ऐसी असामान्य घटनाएँ अथवा बातें प्रदर्शित कर सकता है जो जन-सामान्य को चमत्कार दिखाई देती हैं। प्राणशक्ति द्वारा चमत्कारी प्रयोग के लिए मनःशक्ति का संयोग आवश्यक है। इसलिए इस सन्दर्भ में मनःशक्ति कैसे और क्या काम करती है, यह समझ लेना जरूरी है। रेडियो में जो स्थिति क्रिस्टल (Crystal) अथवा एरियल (aerial) की है, आध्यात्मिक और प्राणशक्ति में वही स्थिति मन की है। आधुनिक विज्ञान यह स्वीकार कर चुका है कि सम्पूर्ण लोक में ईथर (Ether) नामक तत्त्व व्याप्त है जो विभिन्न वस्तुओं, विचारों और तरंगों की गति में सहायक होता है । यह ईथर तत्त्व गति का माध्यम है । हम जो बोलते हैं, उन शब्दों में भी गति होती है, किन्तु हमारे शब्दों को रेडियो इसलिए नहीं पकड़ पाता कि हम शब्दों को-ध्वनि तरंगों को-विद्य त तरंगों में परिवर्तित नहीं कर सकते । रेडियो का सिद्धान्त यह है कि रेडियो स्टेशन में बोले जाने वाले शब्दों को पहले विद्य त तरंगों में बदला जाता है और उन विद्य त तरंगों को रेडियो का एरियल पकड़कर शब्दों में बदल देता है और हम रेडियो स्टेशन से प्रसारित किये जाने वाले कार्यक्रमों को अपने घर में बैठे रेडियो पर सुनते हैं । . बस, यही सिद्धान्त विचार संप्रेषण (telepathy) आदि में काम करता है। विचार संप्रेषण (Telepathy) विचार संप्रेषण का अर्थ है अपने मन के विचारों को दूरस्थ किसी व्यक्ति तक पहुँचाना । यह काम योगी अपनी प्राणशक्ति और मनःशक्ति से करता है। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० जन योग : सिवान्त और साधना आधुनिक विज्ञान के अनुसार विचारों की गति २२,६५,१२० मील प्रति सेकिण्ड है। यानी विद्यत तरंगों से भी विचार-तरंगों को गति लगभग सात गुनी है। विचार एक क्षण में ही पृथ्वी की लगभग ४० बार परिक्रमा लगा सकते हैं, अतः विचार शोघ्र ही दूरस्थ व्यक्ति तक पहुंच जाते हैं। योगी अपनी प्राणशक्ति तथा मस्तिष्कीय विद्य त शक्ति के सहयोग से अपने विचारों की तरंगों को विद्यत तरंगों में परिवर्तित कर सकता है, वे विद्यत तरंगें आकाश में चलती हुई उस विशिष्ट व्यक्ति तक पहुँचती हैं, उसका मनरूपी एरियल उन विद्यत तरंगों को पकड़ता है और पुनः विचारों में परिवर्तित कर देता है अर्थात् वह दूरस्थ व्यक्ति योगी के सन्देश को जान लेता है। साधारण भाषा में कहा जा सकता है कि जिस प्रकार बेतार के तार द्वारा संदेश प्रसारित किया जाता है, उसी प्रकार प्राणशक्ति द्वारा योगी भी अपना सन्देश अपने भक्तों तक पहुँचा देता है। पुराणों में जो यह वर्णन आता है कि गुरु अपने शिष्यों को दूर बैठे ही आशीर्वाद दे देते थे और शिष्य उसे पाकर निहाल हो जाते थे, इसी प्रकार शिष्य द्वारा प्रणाम, वन्दना आदि को दूर बैठे गुरु स्वीकार कर लेते थे, वह सब इस प्राणशक्ति द्वारा विचार संप्रेषण का ही प्रयोग कहा जा सकता है । शक्तिपात (Pass) आधुनिक युग में शक्तिपात शब्द काफी प्रचलित है । योगी और तथाकथित भगवान अपने भक्तों को शक्तिपात द्वारा प्रभावित करते हैं। शक्तिपात करने वाला योगी भक्त की अपेक्षा बढ़ी हुई प्राणशक्ति से सम्पन्न तो होता ही है । एक स्वस्थ मनुष्य की हाथ की अंगुलियों के पोरुओं से साधारणतः ६ इंच बाहर तक प्राण शरीर का विद्य त प्रवाह विकीर्ण होता रहता है । इस विद्य त प्रवाह को योगी अपनी दृढ़ मनोशक्ति से घनीभूत कर लेता है । ऐसा एक साधारण व्यक्ति भी दृढ़ मनोबल से कर सकता है, इसमें योगी की कोई बहुत बड़ी विशेषता नहीं है। __शक्तिपात देते समय योगी मन ही मन दृढ़तापूर्वक Auto suggestion देता है कि 'मेरी अंगुलियों से अत्यन्त तीव्र विद्य त शक्ति प्रवाहित हो रही है और मेरे सामने लेटे अथवा बैठे इस मनुष्य (the subject) के शरीर में प्रवेश कर रही है।' कुछ तो योगी का प्रभाव, कुछ उसकी विद्य त शक्ति का सघन प्रवाह और सर्वाधिक भक्त की योगी के प्रति श्रद्धा एवं असोम आदर भाव-इन Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राण-शक्ति को अद्भुत क्षमता और शारीरिक एवं मानसिक स्वस्थता ३५१ तीनों का सम्मिलित प्रभाव यह होता है कि भक्त को भी ऐसा लगता है जैसे असीम शक्ति का प्रवाह हड्डियों को चोरता हुआ उसके अन्दर प्रवेश कर रहा है। शक्तिपात अधिकतर एक कनपटी से दूसरी कनपटी तक ललाट पर दिया जाता है। कनपटी में ही ध्वनिवाहिनी नाड़ियाँ हैं और ललाट के अन्दर ही दृष्टिवाहिनी नाड़ियाँ (olfactory nerves) हैं तथा भ्र मध्य में ही पिट्यूटरी ग्रन्थि (pitutary gland) है, जो स्वामी ग्रन्थि (master gland) कहलाती है तथा यह ग्रन्थि ज्ञान-विज्ञान कोष है। अतः किसी भक्त को विभिन्न प्रकार की विचित्र-विचित्र ध्वनियाँ सुनाई देने लगती हैं तो किसी को विभिन्न प्रकार के रंग तथा दृश्य; इसी प्रकार किसी को विभिन्न प्रकार की अनुभूतियाँ होने लगती हैं । यद्यपि यह ध्वनिवाहिनी नाड़ियों, दृष्टिवाहिनी नाड़ियों और पिटयूटरी ग्रन्थि के उत्तजित होने से होता है किन्तु भोला भक्त योगी से अत्यधिक प्रभावित हो जाता है और उसे विशिष्ट शक्तिसम्पन्न तथा भगवान तक मानने लगता है। यह शक्तिपात केवल चमत्कार-प्रदर्शन और भक्तों को प्रभावित एवं आकर्षित करने के लिए होता है । इससे भक्त प्रभावित भी हो जाते है और योगी का यश भी फैल जाता है, किन्तु योगी स्वयं बहुत घाटे में रहता है। जिस प्राणशक्ति को वह अपनी आध्यात्मिक उन्नति और आत्मिक प्रगति में उपयोग करके आत्मिक शुद्धि कर सकता है, उसे इस चमत्कारप्रदर्शन में बरबाद कर देता है और इस तरह जब अधिक शक्ति बरबाद हो जाती है तो वह स्वयं शक्तिहीन-सा हो जाता है। इसीलिए यह देखा जाता है कि कुछ दिनों तक एक योगी की तूती बोलती है, उसका खूब नाम और यश फैल जाता है, लोगों की जबान पर उसका नाम चढ़ जाता है, किन्तु कुछ दिनों बाद वह निस्तेज हो जाता है। कोई नया योगी संसार के रंगमंच पर चमकने लगता है और पहले योगी को लोग भूल जाते हैं। कुछ दिन बाद इस नये योगी की भी यहो दशा होती है । यह चक्र चलता रहता है । प्राणशक्ति के चमत्कार दिखाने वालों का यही हश्र होता है। प्राणशक्ति और मानसिक एवं शारीरिक स्वस्थता सामान्यतः शरीरशास्त्रियों की मान्यता है कि साधारणतः मनुष्य को स्वस्थ रहना चाहिए। प्रकृति ने मानव-शरीर की रचना इस प्रकार की है कि मनुष्य १०० वर्ष की आयु तक स्वस्थ रह सकता है, यदि कोई विशिष्ट Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ जैन योग : सिद्धान्त और साधना घटना न घटे और मानव प्रकृति के नियमों के अनुकूल अपना जीवन यापन करे । किन्तु विवशता यह है कि सामाजिक परिस्थितियाँ ऐसी हैं कि मानव प्रकृति के अनुसार अपना जीवन व्यवहार चला नहीं पाता, उसे अनेक प्रकार की पारिवारिक, सामाजिक व्यवस्थाएँ तथा परम्पराएँ घेरे रहती हैं. तथा विविध प्रकार की चिन्ताएँ लग जाती हैं, और इन चिन्ताओं के कारण वह अपने स्वास्थ्य को चौपट कर लेता है। शराबखोरी, जूआ, वेश्यागमन आदि व्यसन उसे लग जायें तो वह अन्दर से खोखला ही हो जाता है, अनेक रोग उसे घेर लेते हैं । तात्पर्य यह कि आधुनिक शरीरशास्त्री और प्राचीन चिकित्सा विशेषज्ञ - सभी एकमत से शारीरिक और मानसिक अस्वास्थ्य का कारण चिन्ता और व्यसन तथा प्रकृति के साथ अननुकूलन को मानते हैं । अध्यात्मशास्त्री इन कारणों को तो स्वीकार करता ही है किन्तु वह मानव के अस्वास्थ्य का मूल कारण - अध्यात्म- दोषों को मानता है । अध्यात्म - दोष हैं - राग-द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ - कषायों के आवेग, भय, काम आदि के संवेग । अध्यात्मशास्त्री यह मानता है कि शारीरिकमानसिक अस्वास्थ्य और विभिन्न रोगों की उत्पत्ति सर्वप्रथम मानव के कार्मण शरीर (आत्मा से बद्ध अति सूक्ष्म शरीर ) में होती है, वहाँ से वह तेजस् शरीर (सूक्ष्म शरीर) में आती हैं और फिर औदारिक (स्थूल) शरीर में व्यक्त हो जाती है । आधुनिक परमनोविज्ञान शास्त्री भी ऐसा ही मानते हैं, उनकी दृष्टि अभी सूक्ष्म शरीर (तैजस् शरीर ) द्वारा निर्मित आभामंडल तक ही पहुँची है, अतः वे रोग का मूल कारण तेजस् शरीर को मानते हैं । प्रोफेसर जे० सी० ट्रस्ट ने परामनोविज्ञान के क्षेत्र में काफी काम किया है । वैज्ञानिक साधनों की सहायता से वे व्यक्ति के आभामंडल को देखने में सक्षम हैं । अतः उन्होंने अनेक मानसिक रोगियों का सफल उपचार भी किया है । एक बार उनके पास एक महिला आई । उसने अपनी शिकायत बताई - 'जब भी मैं गिरजाघर ( church) में जाती हूँ तो मेरे सारे शरीर में खुजली चलने लगती है, अनेक उपकार कराये हैं किन्तु कोई लाभ नहीं हुआ ।' ट्रस्ट ने देखा तो उन्हें उस महिला के आभामंडल में काले रंग के असंख्य: Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राण-शक्ति को अद्मुत क्षमता और शारीरिक एवं मानसिक स्वस्थता ३५३ बिन्दु तैरते दिखायी दिये । ट्रस्ट ने रोग की जड़ पकड़ ली कि यह आन्तरिक खाज (Internal Eczema) है। बातों में उस महिला ने भी स्वीकार किया कि वह एक आफिस में कैशियर है और छोटी-मोटी रकमों की चोरियाँ करती रही है। ट्रस्ट ने उस महिला को रोग का कारण और उपचार बताते हुए समझाया-'तुम्हारे मन में छिपी पाप भावना पवित्र स्थान का वातावरण सह नहीं पाती, वह बाहर निकलने की चेष्टा करती है, इसीलिए तुम्हारे शरीर में खुजली मचने लगती है। अब तुम ऐसा करो कि तुमने जितनी भी चोरियां की हैं, वे सब अपने मालिक (boss) के सामने स्पष्ट स्वीकार कर लो । तुम इस रोग से मुक्त हो जाओगी।' उस महिला ने आशंका प्रगट की-'आपके सुझाव को मानने से तो मेरी नौकरी (service) ही छूट जायेगी। मेरा निर्वाह कैसे होगा? मैं आर्थिक संकट में फँस जाऊँगी।' ट्रस्ट ने आश्वासन दिया-'ऐसा कुछ नहीं होगा। मेरा तो विश्वास है कि तुम्हारा मालिक तुम्हारी स्पष्टवादिता से प्रभावित होगा और तुम्हें अधिक विश्वसनीय समझेगा, क्षमा कर देगा। ट्रस्ट के सुझाव के अनुसार महिला ने अपनी चोरियाँ मालिक के सामने स्पष्ट स्वीकार कर लीं। मालिक ने उसे क्षमा कर दिया। स्पष्टोक्ति से वह महिला रोगमुक्त हो गई। इस और ऐसी अनेक घटनाओं से परामनोविज्ञान यह स्वीकार कर चुका है कि रोगों की उत्पत्ति पहले सूक्ष्म शरीर में होती है और उनकी अभिव्यक्ति होती है स्थूल शरीर में तथा उन रोगों का कारण होता हैपाप-हिसा, झठ, चोरी, व्यभिचार आदि तथा सामाजिक मर्यादाओं का उल्लंघन, जिन्हें व्यक्ति आवेश में कर तो लेता है, किन्तु उन्हें छिपाना चाहता है, वह चाहता है कि अन्य कोई भी उसके पाप को न जाने, अन्य लोगों की निगाह में वह शरीफ बना रहे; तथा विभिन्न प्रकार के कषायजन्य आवेगसंवेग, उत्तेजना, ईर्ष्या, कुढ़न, चिन्ता, भय, दमित कामभावनाएँ, कामनाएँ, इच्छाएँ, यश-प्रसिद्धि, मान-सम्मान प्राप्ति की अभिलाषाएँ, आकांक्षाएँ भौतिक और संसारिक सुख-भोगों की इच्छा, अतृप्ति, महत्त्वाकांक्षा आदि । ___ क्योंकि सभी मानसिक और शारीरिक रोगों का मूल कारण प्राण शरीर (कार्मण शरीर सहित) है अतः प्राण-शक्ति अथवा यौगिक क्रियाओं से इनका उपचार भी सम्भव है। Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ जैन योग : सिद्धान्त और साधना मानसिक एवं शारीरिक रोग : कारण और उपचार वैसे तो सभी रोगों का कारण तैजस् अथवा प्राण शरीर है, सभी रोगों का मूल स्थान वह है किन्तु चिकित्साशास्त्र की दृष्टि से रोगों के दो भेद किये जाते हैं-(१) मानसिक रोग और (२) शारीरिक रोग । शारीरिक रोग विशेष रूप से शरीर से सम्बन्धित होते हैं, उनके लक्षण भी शरीर में दिखाई देते हैं और शरीर पर औषधि प्रयोग से ठीक भी हो जाते हैं। मानसिक रोग मन अथवा मस्तिष्क से सम्बन्धित होते हैं, इनके उपचार की प्रणाली भी अलग है, इनको ठीक करने के लिए विद्य त झटके (electric shocks) आदि पद्धतियाँ अपनाई जाती हैं । मानसिक रोगों में हिस्टीरिया (Hysteria), पागलपन, खण्डित व्यक्तित्व (Frustrated personality), विभाजित व्यक्तित्व (Divided personality) आदि मुख्य हैं। मन का स्वरूप एवं लक्षण मानसिक रोगों को समझने के लिए पहले मन का स्वरूप, उसका लक्षण, शरीर में उसकी स्थिति आदि बातों का जानना जरूरी है। हम लोग चेतना के स्तर पर जीते हैं, विचारों के स्तर पर तैरते हैं, आवेग-संवेगों से संचालित होते हैं, तर्क के आधार पर निर्णय लेते हैं और भावनाओं के अनुसार कार्य करते हैं। इसलिए 'मन' शब्द से तुरन्त 'मस्तिष्क' का अभिप्राय लगा लेते हैं-मस्तिष्क वह जो हमारे कपाल में स्थित है और मन का भी केवल सात प्रतिशत भाग जिसके द्वारा हमारे आवेग-संवेग और क्रियाएँ संचालित होती हैं । इस मन के ६३ प्रतिशत भाग तक हमारी दृष्टि ही नहीं जाती क्योंकि वह हमारे अनुभव में प्रत्यक्ष नहीं होता। मन सिर्फ मस्तिष्क में ही अवस्थित नहीं है, वरन् वह प्राणी के संपूर्ण शरीर में व्याप्त है। आधुनिक शरीरविज्ञान के अनुसार भी जितने जीव कोष (cells) हैं, उन सबका अलग-अलग मन है, उनकी भी अपनी इच्छाएँ है, संवेग हैं, आवेग हैं और वे अपने संवेगों-आवेगों द्वारा संचालित होते हैं तथा अपनी इच्छा पूरी करना चाहते हैं । और क्योंकि ये जीव कोष सम्पूर्ण शरीर में अवस्थित होते हैं, अतः मन भी सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है। किन्तु इतना अवश्य है कि मन का सर्वाधिक शक्तिशाली केन्द्र मस्तिष्क-स्थित जीव कोष ही है अतः मस्तिष्क-स्थित मन की स्थिति राजा के समान है और शरीर. स्थित सम्पूर्ण जीव कोष (और उनमें स्थित मन) इस मस्तिष्क-स्थित मन की आज्ञा का पालन करते हैं। मस्तिष्क-स्थित मन के शक्तिशाली एवं राजा बनने Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राण शक्ति की अद्भुत क्षमता और शारीरिक एवं मानसिक स्वस्थता ३५५ का एक प्रमुख कारण भी है, और वह यह कि प्राणी के शरीर में जितनी भी विद्यत उत्पन्न होती है, उसका २०% यह मन ले लेता है, बाकी में शरीर की सम्पूर्ण क्रियाओं आदि का संचालन होता है अतः शरीरस्थित करोड़ों जीव कोषों को विद्यु त का बहुत ही अल्प भाग मिलता है, अतः वे मस्तिष्कस्थित मन के समान शक्तिशाली और सक्षम नहीं बन पाते और अक्षम एवं संज्ञाशून्य से बने रहकर मस्तिष्कीय मन (master brain) की आज्ञा का पालन करते रहते हैं। उनकी चेतना और संज्ञा अव्यक्त रहती है। यदि किसी प्रकार इन जीव कोषों को मस्तिष्कीय मन जितनी विद्य त मिल जाय तो ये भी उसी के समान सम्पूर्ण क्रियाएँ कर सकते हैं यथा प्राणी सम्पूर्ण शरीर से अथवा शरीर के किसी भी अंगोपांग से देख सकता है, सूघ सकता है, विचार कर सकता है यानी व्यक्त मन जैसी सभी क्रियाएँ कर सकता है। फिर भी प्राणी के शरीर-स्थित सभी जीव कोष और उनमें अवस्थित मन, अव्यक्त रूप से ही सही, आवेग-संवेग, पाप-पुण्य आदि सभी प्रकार की क्रियाएँ सतत करते रहते हैं।' जब तक मस्तिष्कीय मन और संपूर्ण शरीरस्थित असंख्य मन में समन्वय बना रहता है, ये मन मस्तिष्कीय मन की आज्ञापालन करते रहते हैं तब तक मनुष्य का मनोमय कोष व्यवस्थित रहता है, मनुष्य मानसिक रूप से स्वस्थ रहता है और जब कभी तथा किसी भी कारण से इस १ जैन आगमों में व्यक्त (मस्तिष्कीय) मन वाले प्राणियों को संज्ञी और अव्यक्त (जीवकोषीय) मन वाले प्राणियों को असंज्ञी बताया है। भगवान महावीर ने सभी प्राणियों (यहाँ तक कि एकेन्द्रिय जीव भी जो हलन-चलन आदि क्रियाएँ नहीं करते; जैसे वनस्पति कायिक, पृथिवीकायिक आदि जीवों को भी) को अठारह पापों (हिंसा, झूठ, चोरी आदि से मिथ्यादर्शन शल्य तक) का सेवन करने वाला तथा पाप-बंध करने वाला बताया है। सामान्य बुद्धि वाले और इन जीव कोषों के रहस्य को न समझने वाले बुद्धिजीवी भी भगवान के कथन पर शंका करते हैं कि वनस्पति बोलती नहीं तो झूठ कैसे बोलेगी, इसी तरह चोरी भी नहीं कर सकती तथा अन्य पापों का सेवन भी नहीं कर सकती, परिणामस्वरूप उसे कर्मबन्ध भी नहीं होना चाहिए । ऐसे लोगों का समाधान जीव कोषों के उपरोक्त परिचय से होना चाहिए कि अव्यक्त मन वाले प्राणी भी सभी प्रकार के पापों का बन्ध करते हैं । ---सम्पादक Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ जैन योग : सिद्धान्त बोर साधना व्यवस्था में गड़बड़ी हो जाती है तभी विभिन्न प्रकार के मानसिक रोग उठ खड़े होते हैं। कल्पना करिये कि वासना केन्द्र के जीव कोष अपनी इच्छा पूरी करना चाहते हैं यानी कामसेवन करना चाहते हैं किन्तु मस्तिष्कीय मन नहीं चाहता, (इसमें सामाजिक, पारिवारिक, आध्यात्मिक, नैतिक अनेक कारण हो सकते हैं) तो इन दोनों में संघर्ष छिड़ जाता है। इसी प्रकार की स्थिति अन्य केन्द्रों के जीव कोषों और मस्तिष्कीय मन के मध्य उपस्थित हो सकती है । आपने स्वयं अनुभव किया होगा कि आपका एक मन कुछ कहता है दूसरा उसका विरोध करता है। ऐसे क्षण प्रत्येक मानव के जीवन में आते हैं। उस समय मस्तिष्कीय मन ही एक से दो नहीं हो जाता, वह विभक्त नहीं होता, वह तो अविभक्त ही रहता है। संघर्ष तो जीव कोषीय मन अथवा अव्यक्त मन और व्यक्त मन के मध्य होता है । यदि किसी प्रकार अव्यक्त मन प्रभावी हो जाता है तो मानव का व्यक्तित्व विशृंखलित हो जाता है, उसका व्यक्तित्व विखण्डित हो जाता है और अनेक प्रकार के मानसिक रोग उसे घेर लेते हैं, वह उन रोगों के कुचक्र में फंस जाता है । कुछ प्रमुख मानसिक व्याधियों, उनके कारण और उपचार का संक्षिप्त परिचय यहाँ दे रहे हैं, जिसके प्रयोग से बिना औषधि के ही मनुष्य मानसिक रूप से स्वस्थ रह सकता है। प्रोजीरिया : समयपूर्व वृद्धावस्था जब मानव का मन विपरीत परिस्थितियों से जूझता हुआ थक जाता है तो उसमें निराशा व्याप्त हो जाती है। निराश मन वाले व्यक्ति को अपने चारों ओर अन्धकार ही दिखाई देता है, वह प्रत्येक घटना और वस्तु का काला पक्ष हो देखता है। उसे असमय में ही बुढ़ापा घेर लेता है, आयु से युवा होते हुए भी वह मन से वृद्ध हो जाता है। इस मानसिक व्याधि को आधुनिक शरीरशास्त्रीय भाषा में 'प्रोजीरिया' कहा जाता है। मन में निराशा का भाव आने से थाइराइड (Thyroid) ग्रन्थि से निकलने वाले हारमोन्स कम हो जाते हैं, परिणामस्वरूप शरीर में स्फूर्ति और चुस्ती की भी कमी हो जाती है। थाइराइड ग्रंथि गले की घंटी के पास होती है। इसका वजन सामान्यतया लगभग २५ ग्राम होता है। इसी पर मानव की कार्यक्षमता निर्भर होती है। इस ग्रंथि से निकलने वाले स्राव अथवा हारमोन्स (Harmones) Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राण-शक्ति की अद्भुत क्षमता और शारीरिक एवं मानसिक स्वस्थता यदि अधिक हों तो मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य के लिए उत्तम है । इससे व्यक्ति में कार्यशीलता और प्रसन्नता बनी रहती है । यद्यपि शरीरशास्त्री अथवा चिकित्सक इस ग्रंथि के हारमोन्स का इंजैक्शन लगाकर इसे उत्त ेजित कर देते हैं, किन्तु योगी इस काम को प्राणशक्ति द्वारा भी कर लेता है । कंठ में ही विशुद्धि चक्र है, योगी प्राणायाम द्वारा प्राणवायु को कंठ तक ले जाता है, तथा वहाँ स्थिर कर देता है यानी कुम्भक कर लेता है । प्राणवायु के प्रभाव से यह ग्रंथि उत्तेजित हो जाती है, और योगी को बुढ़ापा नहीं आ पाता तथा उसमें स्फूर्ति और प्रसन्नता भी बनी रहती है । ३५७ तनाव (Tension) आधुनिक सभ्यता के युग में अनेक प्रकार के मानसिक एवं शारीरिक रोगों एवं व्याधियों की वृद्धि हुई है; किन्तु उनमें सबसे भयंकर और सबसे अधिक व्यापक व्याधि है तनाव | आज के सभ्य कहलाने वाले व्यक्ति तनाव से ग्रस्त हैं । अमीर-गरीब, बुद्धिमान मूर्ख, पढ़े-लिखे और अपढ़ सभी इस बीमारी की चपेट में है । यह सभ्य संसारव्यापी व्याधि है । तनाव के अनेक कारण है; जैसे भय, असुरक्षा की भावना, प्रतिकूल परिस्थितियाँ, आर्थिक व्यापारिक सामाजिक समस्याएँ आदि-आदि; किन्तु इन सभी कारणों को यदि एक शब्द में कहा जाय तो वह है - व्यक्ति में अनुकूलन (adjustment ) का अभाव। जब व्यक्ति परिस्थितियों से अनुकूलन (समझौता) नहीं कर पाता, जीवन में आने वाली समस्याओं को नहीं सुलझा पाता तो उसका मन-मस्तिष्क तनावग्रस्त हो जाता है । अध्यात्म की भाषा में तनाव का मूल कारण है- राग-द्वेष और रति - अरति की भावना । तनावग्रस्त व्यक्ति की अधिवृक्क ग्रंथि ( cortex) अधिक सक्रिय हो जाती है, रक्त से हारमोन्स अधिक स्रवित होने लगते हैं और छाती की इन्डोक्राइन ग्रन्थि (Indocrine gland or Thymus gland) सिकुड़ जाती है । तनाव की तीव्रता और मन्दता के अनुसार इन ग्रंथियों के कार्यों में भी अन्तर आ जाता है | तनाव सिर्फ एक व्याधि ही नहीं, अनेक व्याधियों की जननी भी है । Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ जैन योग : सिद्धान्त और साधना हृदय रोग, कैंसर, मादक द्रव्यों का व्यसन, असामाजिक गतिविधियां, करता और मार-पीट की प्रवृत्तियाँ, आत्महत्याएँ, सेक्स सम्बन्धी दुर्बलताएं, तथा अन्य बहुत सी गुप्त और रहस्यमय बीमारियाँ-सभी तनाव के परिणाम हैं । यहाँ तक कि आन्तरिक व्रण (ulcers) जो शरीर के विभिन्न भागों में यथा-पेट, प्लीहा, आदि स्थानों में हो जाते हैं, उनका कारण भी तनाव ही है । थकान तो तनाव का अवश्यम्भावी परिणाम ही है। चिकित्साशास्त्रीय दृष्टिकोण से तनाव तथा मानसिक उत्तेजना द्वारा समस्त नाड़ी मंडल गड़बड़ा जाता है तथा जिस अंग यथा मस्तिक में जहाँ तनाव अधिक होता है, शरीर की अनुकूलन ऊर्जा (adjustment energy) वहीं अधिक सक्रिय हो जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि अन्य अंगों को यह अनुकूलन ऊर्जा बहुत ही कम मिल पाती है और विभिन्न प्रकार की व्याधियाँ उठ खड़ी होती हैं। तनाव और मानसिक उत्त जना शरीर की जीवनी शक्ति को बहुत ही तीव्र गति से नष्ट करती है। परिणामस्वरूप मनुष्य में थकान आती है। मानसिक थकान से हृदय के पेशियों वाले भाग 'मायोकाडियम' में स्नायविक संतुलन बिगाड़ जाता है, इससे जैव रासायनिक परिवर्तन होते हैं और रक्त के आवागमन में बाधा पहुँचती है। इससे दिल घबड़ाना, मस्तिष्क शूल आदि अनेक रोग हो जाते हैं। तनाव का ही एक परिणाम अनिद्रा है। अनिद्रा और तनाव का चोली-दामन का सम्बन्ध है । मानसिक तनाव से अनिद्रा-नींद नहीं आती और नींद न आने से तनाव और बढ़ता है, मानसिक उद्विग्नता उत्पन्न हो जाती है तथा मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है। मानसिक संतुलन बिगड़ने से हिस्टीरिया आदि जैसे रोग हो जाते हैं। मनोविज्ञान की दृष्टि से मानसिक तनावग्रस्त व्यक्ति 'न्यूरोसिस' तथा 'साइकोसिस' हो जाता है। ऐसा व्यक्ति एक तरह से जिद्दी हो जाता है, वह अपनी भूल को मानता ही नहीं, दूसरों के दोष ही देखता है, अपनी असफलताओं के लिए परिस्थितियों को दोषी ठहराता है और कभी भाग्य को कोसता है । यह स्थिति तनावजन्य निराशा की है। जब यह निराशा और बढ़ जाती है तो उसके व्यक्तित्व में झझलाहट प्रवेश कर जाती है, उसका मन-मस्तिष्क अस्थिर अथवा डाँवाडोल हो जाता है, संकल्पशक्ति का अभाव हो जाता है । वह पहले क्षण जिस वस्तु को अच्छी समझता है, Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राण-शक्ति को अद्भुत क्षमता और शारीरिक एवं मानसिक स्वस्थता ३५६ दूसरे ही क्षण वह वस्तु उसे अप्रिय लगने लगती है। इस दोगली मनोवृत्ति को मनश्चिकित्साशास्त्र में 'कैटटोनिक शिजीनिया' कहा गया है। तनावग्रस्त व्यक्ति अन्दर ही अन्दर भयभीत रहते हैं। जब व्यक्ति में तनाव आर्थिक हानि, प्रियजनों के बिछोह, विश्वासघात, अपमान, अप्रत्याशित आघात, असफलता आदि के कारण उत्पन्न होता है तो वह हर समय भयभीत रहने लगता है। इस भय की भावना को मनश्चिकित्सा शास्त्र में 'फेगबिया या फोबिक न्यूरोसिस' कहा गया है। इनका वर्गीकरण किया गया है-'मृत्यु का भय (मोनो फीबिया), पाप का भय (थैनिटोफीबिया), काम विकृति आतंक (पैकाटोफोबिया), रोग का भय (गाइनो फ्रीबिया), विपत्ति का भय (नोजोफीबिया), अजनबी का भय (पैंथो फीबिया) आदि-आदि। तनाव किसी भी प्रकार का हो–उत्त जना से अथवा भय से, है यह जीवन-शक्ति का विनाशक ही। अतः जितना शीघ्र हो सके मनुष्य को तनावमुक्त हो जाना चाहिए और जहाँ तक संभव हो सके तनावग्रस्त होना ही नहीं चाहिए। तनाव-मुक्ति के कुछ उपाय वैज्ञानिकों ने सुझाये हैं, यथा(१) उदारता का दृष्टिकोण रखिए। (२) मनोरंजन को जीवन में उचित स्थान दीजिए। (३) हंसने की आदत डालिए। (४) अधिकाधिक व्यस्त रहने का प्रयास करिए । आदि, आदि लेकिन तनाव-मुक्ति के ये सभी उपचार अस्थायी हैं, ठीक वैसे ही जैसे क्रोध या भय का आवेग आने पर एक गिलास ठण्डा पानी पी लेना। ऐसे उपायों से अस्थायी शान्ति तो मिल सकती है। किन्तु स्थायी शान्ति नहीं प्राप्त हो सकती। तनावों के विसर्जन और स्थायी शान्ति के लिए योग ही एक मात्र उपाय है। साधक यौगिक क्रियाओं के माध्यम से स्वयं को तनावमुक्त रखता है। १ तुलना करिये, जैन शास्त्रों में वणित सप्त भयों से--(१) इहलोक भय, (२) परलोक भय, (३) आदान भय या अत्राणभय, (४) अकस्मात भय, (५) आजीविका भय या वेदना भय, (६) अपयश भय या अश्लोक भय (७) मरण भय । -स्थानांग, स्थान ७ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० जैन योग : सिद्धान्त और साधना दीर्घश्वास लेने से एड्रीनल ग्रन्थि सक्रिय हो जाती है, उससे अधिक हारमोन निकलने लगते हैं और भय की भावना पलायन कर आती है। तनावों से मुक्ति पाने का सर्वश्रेष्ठ साधन है-समत्व-योग । अनुकूल और प्रतिकूल स्थितियों में सम रहना ही समता-योग है। समत्वयोगी साधक को तनाव सताते ही नहीं अथवा यों कहें कि तनाव उसे स्पर्श भी नहीं करते तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। शवासन और शिथिलीकरण.मुद्रा से भो तनाव-विसर्जन हो आता है। प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और कायोत्सर्ग से मानसिक एवं शारीरिक तनाव और थकान सहज ही दूर हो जाते हैं। ये उपचार स्थायी हैं। योगी इन्हीं उपचारों से अपने को तनाव और तनावजन्य सभी व्याधियों से मुक्त रखता है। साथ ही उसकी प्राण-शक्ति भी बलवती बनती है। शारीरिक व्याधियाँ जहाँ तक शारीरिक रोगों का सम्बन्ध है, प्राण-शक्ति और प्राणवायु की साधना से सभी व्याधियाँ शान्त हो जाती हैं। उदर की व्याधि, कफ, शरीर की पुष्टि, सन्निपात ज्वर आदि अनेक रोग शान्त हो जाते हैं, घाव जल्दी भर जाते हैं, टूटी हुई हड्डी भी जुड़ जाती है, जठराग्नि तेज होती है, गर्मी-सर्दी आदि का प्रभाव नहीं पड़ता अर्थात् शीत-ताप से होने वाले रोग नहीं होते, दर्द-पीड़ा आदि का उपशमन हो जाता है, शरीर सभी प्रकार से नीरोग और स्वस्थ रहता है तथा बल, कान्ति आदि की वृद्धि होती है।' शारीरिक व्याधि न होने से साधक मानसिक रूप से भी स्वस्थ रहता है, उसको व्याधिजन्य तनाव नहीं हो पाता। जैन शास्त्रों में उल्लेख आता है कि मुनि सनत कुमार कुष्ट की व्याधि से पीड़ित हो गये थे, उनके रोग-निवारण के लिए स्वर्ग से एक देव वैद्य का रूप रखकर आया और उनके रोग का उपचार करने की इच्छा प्रगट की। इस पर मुनिश्री ने अपनी हाथ की अंगुली पर थूक कर रोग मिटाकर दिखा दिया। यह घटना तो पौराणिक है; किन्तु एक घटना ऐतिहासिक काल की भी अधिक प्रसिद्ध है। विक्रम की लगभग १३वीं शताब्दी की बात है । मुनि १ योगशास्त्र, प्रकाश ५, श्लोक १०-२४ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राण-शक्ति को अद्भुत क्षमता और शारीरिक एवं मानसिक स्वस्थता ३६१ वादीभसिंह सरि कूष्ट से ग्रसित थे। एक श्रावक उनका बहत भक्त था, उस श्रावक का राज-दरबार में भी काफी सम्मान था। कुछ विद्वेषियों ने राजा से कहा कि 'इस श्रावक के गुरु तो कोढ़ी हैं' और मुनिश्री की काफी निन्दा की। इस पर श्रावक उत्तेजित हो गया, उसने कह दिया-'मेरे गुरु कोढ़ी नहीं हैं।' राजा ने इस विवाद को शान्त करने के लिए स्वयं मुनिश्री के दर्शन करने का निर्णय लिया। यह सम्पूर्ण घटना श्रावक ने मुनि को कह सुनाई। दूसरे दिन प्रातःकाल जब राजा ने मुनिश्री के दर्शन किये तो उनके शरीर पर कोढ़ का चिह्न भी नहीं था। ऐसी एक घटना विक्रम की अठारहवीं शताब्दी की है। मालेर कोटला में तपावालों के स्थानक में आचार्य रतिराम जी महाराज ठहरे हए थे। उनको कोढ़ की व्याधि हो गई, विद्वेषियों ने नबाव से शिकायत की; लेकिन जब नवाब ने स्वयं आकर देखा तो वहाँ न बदबू थी और न आचार्यश्री के शरीर पर कोढ़ ही था। ऐसी घटनाओं को जनसाधारण चमत्कार समझ बैठते हैं; किन्तु तपस्या और योग में चमत्कार शब्द है ही नहीं; यह सब प्राण-शक्ति की की अद्भुत क्षमता है। उच्चकोटि के साधक कभी चमत्कार दिखाते भी नहीं। यह बात दूसरी है कि प्राण और प्राणायाम से प्राप्त योगी की अद्भुत क्षमता को जन-साधारण नहीं समझ पाते और ऐसी घटनाओं को चमत्कार मान लेते हैं। मानव साधारणतया तीन शक्तियों से परिचित रहता है-(१) मन की शक्ति-मनोबल; (२) वचन की शक्ति-वचनबल और (२) काय की शक्ति-कायबल; किन्तु इन तीनों शक्तियों से अधिक बलशाली और प्रभावी शक्ति है, उससे साधारणतः मानव' अनभिज्ञ-सा ही रहता है, वह शक्ति है-प्राण-शक्ति-प्राणों की शक्ति-प्राण-बल । प्राणशक्ति, जब प्राणायाम को साधना से उत्तेजित एवं अनुप्राणित हो जाती है, दूसरे शब्दों में इसकी क्षमता विकसित हो जाती है तो यह मानव-शरीर अर्थात् साधक-शरीर के रेटिक्यूलर फॉर्मेशन को ही बदल देती है। यह रेटिक्यूलर फॉर्मेशन मस्तिष्क की अत्यन्त गहराई में ऐसे संस्थान हैं, जिनमें अपरिमित शक्ति भरी होती है। योगी साधक प्राणायाम की साधना से इस रेटिक्यूलर फॉर्मेशन को सक्रिय कर लेता है, जागृत कर देता है। फलस्वरूप उसमें अद्भुत क्षमताएँ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ जन योग : सिद्धान्त और साधना विकसित हो जाती हैं। वह ऐसे कार्य कर सकता है, जो साधारण लोगों को चमत्कार दिखाई देते हैं। योगी अपने भावों-विचारों की तरंगों को विद्य त तरंगों में परिवर्तित करके दूरस्थ किसी भी व्यक्ति के पास भेजकर उसे अपनी इच्छानुसार संचालित कर सकता है। यह स्थिति ऐसी ही है जैसी कि अपने केन्द्र में बैठे हुए ही वैज्ञानिक लोग आकाश में छोड़े गये स्पूतनिकों को संचालित करते रहते हैं। यहाँ से संकेत भेजते रहते हैं और वहाँ के प्रकम्पनों को पकड़कर सन्देश प्राप्त कर लेते हैं, आकाशीय भौतिक पदार्थों में हो रहे और होने वाले परिवर्तनों को जान लेते हैं। तथा जो परिवर्तन हो चुके हैं उनका ज्ञान भी प्राप्त कर लेते हैं। __ वैज्ञानिक जो भी विशिष्ट उपलब्धियाँ, यन्त्रों, प्रयोगशालाओं, बाह्य साधनों द्वारा प्राप्त करते हैं, वे तथा उनसे भी बहुत अधिक उपलब्धियाँ योगी अपनी प्राणशक्ति द्वारा अर्जित कर लेता है। इसका कारण यह है कि वैज्ञानिकों का कार्य क्षेत्र भौतिक है, पदार्थ है, जो स्वयं निर्जीव है तथा उसकी शक्ति भी सीमित है, और योगी का कार्य क्षत्र चेतना है, चैतन्य जगत है जो स्वयं ही अनन्त शक्ति का भंडार है, यही कारण है कि योगी साधक की शक्तियाँ वैज्ञानिकों से बढ़ी-चढ़ी होती हैं, उन्हें देखकर वैज्ञानिक भी हतप्रभ रह जाते हैं। जिन रहस्यों को समझने और सुलझाने में वैज्ञानिकों को वर्षों तक श्रम करना पड़ता है, उन रहस्यों को योगी क्षणमात्र में ही अपनी प्राणशक्ति द्वारा समझ लेता है, सुलझा लेता है। विज्ञान ने आज तक जितने भी आविष्कार किये हैं, मानव के मानसिक और शारीरिक स्वस्थता के साधन प्रस्तुत किये हैं, औषधियों और विद्युत तरंगों आदि से उपचार की खोज की है, वे सब परावलम्बी और अस्थायी हैं, उनसे क्षणिक लाभ और शांति तो प्राप्त हो जाती है किन्तु स्थायी लाभ अथवा शान्ति प्राप्त नहीं हो पाती। जब कि प्राणशक्ति मानव को स्थायी सुख और शांति देने में सक्षम है। यह स्वावलम्बी भी है। इसकी साधना के लिए साधक को किसी भी प्रकार के बाह्य साधनों की आवश्यकता नहीं। यह शक्ति तो उसके स्वयं के अन्दर ही है। लेकिन अध्यात्म की दृष्टि से प्राण शक्ति भी बाह्य ही है, क्योंकि इसकी सीमा प्राण शरीर (तैजस शरीर) है। यदि प्राणशक्ति भावों Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राण-शक्ति की अद्भुत समता और शारीरिक एवं मानसिक स्वस्थता ३६३ कषायों की धारा का परिमार्जन करके आत्मिक निर्मलता में सहायक बनती है तब तो यह आत्मिक उन्नति और शाश्वत सुख का साधन बन जाती है; और यदि यह प्राण साधना और प्राणशक्ति को ही तेजस्वी बनाने में लगी रहती है, वहीं अपनी सीमा और लक्ष्य निर्धारित कर लेती है तो यह मानसिक और शारीरिक शांति, नोरोगता, स्वास्थ्य और अद्भुत कार्यों के प्रदर्शन में तो सक्षम हो जाती है। किन्तु आत्मिक प्रगति में योगदान नहीं दे पाती। अतः आत्मिक सुख के लिए प्रयत्नशील साधक को प्राणशक्ति का उपयोग आध्यात्मिक उन्नति में करना चाहिए । उसके लिए प्राणशक्ति द्वारा प्राप्त विशिष्ट क्षमताओं एवं अद्भुत शक्तियों के प्रदर्शन के लोभ में अपनी शक्ति को गंवाना उचित नहीं है। Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ मंत्र - शक्ति - जागरण safe प्रकम्पनों की व्यापकता यह समूचा ब्रह्मांड (लोक) ध्वनि प्रकम्पनों से आपूरित है । अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक ध्वनि की तरंगों से व्याप्त है । भाषा अथवा ध्वनि के पुद्गल क्षण- प्रतिक्षण निकलते रहते हैं और वातावरण को उद्वेलित करते रहते हैं - जो हम बोलते हैं, वह शब्द ध्वन्यात्मक होते हैं; किन्तु जो हम सोचते हैं चिन्तन-मनन करते हैं, वह विचार भी शब्दात्मक होते हैं । मन का चिन्तनभूतकाल की स्मृति, भविष्य की योजना और वर्तमान के विचार, सभी शब्द - रूप हैं, इनसे भी शब्द उत्पन्न होता है; किन्तु वह कानों से सुनाई नहीं देता । एक साधक मौन है, उसके होठ भी नहीं हिल रहे हैं, ध्वनि उत्पादक कण्ठ के यंत्रों से ध्वनि भी नहीं निकल रही है, पूर्णतया सहज और शान्त है; फिर भी उसके भाषा वर्गणा के पुद्गल विचार तरंगों के माध्यम से वातावरण में प्रसारित हो रहे हैं, यह एक तथ्य है । ध्वनि अथवा शब्दों के कर्णगोचर होने की स्थिति तो तब आती है जब हम कण्ठ के स्वर यंत्रों का प्रयोग करते हैं । आधुनिक विज्ञान की भाषा में हमारे कान केवल ३२,७४० प्रति सैकिण्ड की गति के कम्पनों को हो ग्रहण कर सकते हैं, यानी जब किसी वस्तु में इतने कंपन हों तब हम ध्वनि को सुन सकते हैं तथा ४०,००० कम्पन ( अथवा इससे अधिक हों तो वह ध्वनि हमारी श्रवण शक्ति की सीमा से बाहर हो जाती है, हम उसे सुन नहीं सकते, वह हमारे लिए ultrasonic अथवा Supersonic हो जाती है । सामान्य वार्तालाप में हमारे शरीर में स्थित स्नायु लगभग १३० बार प्रति सैकिण्ड की गति से झनझनाते हैं । हमारे साधारण वार्तालाप के शब्दों की ध्वनि तरंगें १० फीट दूर तक जाती हैं और चिन्तन करते समय शरीर से Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्त्र-शक्ति-जागरण ३६५ लगभग २ इंच दूर तक । यद्यपि इन तरंगों की लम्बाई (Wave Length) कम है, किन्तु ये शक्तिशाली अधिक होती हैं । इन पर आंधी, वर्षा, तूफान आदि शक्तियों का कोई प्रभाव नहीं होता और हजारों-लाखों मील तक निर्बाध रूप से चली जाती हैं। इसीलिए अध्यात्मशास्त्रों में शब्दों की अपेक्षा विचारों को अधिक प्रभावशाली माना गया है। यही कारण है कि इंगलैंड, अमेरिका आदि दूरस्थ देशों से रेडियो पर समाचार Short Wave पर प्रसारित किये जाते हैं। शब्द का उच्चारण छह प्रकार से किया जाता है-(१) ह्रस्व, (२) दीर्घ, (३) प्लुत, (४) सूक्ष्म, (५) सूक्ष्मतर, (६) सूक्ष्मतम । 'मन्त्र' स्वर-विज्ञान-शब्द, विज्ञान, तथा ध्वनि-विज्ञान की दृष्टि से प्लुत उच्चारण (तेज स्वर) में बोला जाने वाला शब्द है। इसे मन्त्र-शास्त्र में संजल्प कहा गया है। ह्रस्व दीर्घ स्वर जल्प है। तीसरी स्थिति आती है सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम शब्द की । इसे अन्तर्जल्प कहा गया है। सूक्ष्म शब्द की स्थिति में ध्वनि इतनी सूक्ष्म होती है कि मनुष्य यदि स्वर-प्रेक्षा (स्वर पर ध्यान केन्द्रित करे) तो उसे ही अपने स्वर यन्त्रों की ध्वनि सुनाई देती है, दूसरा उस ध्वनि को नहीं सुन पाता। सूक्ष्मतर स्थिति में क्षीण ध्वनि गुजारव (भ्रमर गुञ्जन) के समान साधक को सुनाई देती है। इसी को हठयोग में अनाहत नाद और जप योग में भ्रामरी जप की स्थिति कहा गया है । सूक्ष्मतम शब्दों की ध्वनि साधक को स्वयं भी नहीं सुनाई देती। यह मन (मस्तिष्क) में होती रहती है । श्वासोच्छ्वास से भी इसका सम्बन्ध नहीं रहता । यह मन के शब्दात्मक चिन्तन-मनन के रूप में होती है । यही स्थिति मन्त्रशास्त्र की दृष्टि से मन्त्र के शब्द और अर्थ का एकाकार हो जाना है। इस दशा में साधक को वचनसिद्धि हो जाती है, उसे शाप और अनुग्रह की शक्ति प्राप्त हो जाती है, उसके मुख से जो भी निकल जाता है, वह सत्य होकर रहता है । यह सूक्ष्मतम शब्द की प्रथम स्थिति होती है। प्रथम स्थिति के उपरान्त क्रमशः सूक्ष्मतम शब्द की अन्तिम स्थिति आती है। इस स्थिति में शब्द ज्ञानात्मक (Cognitive)हो जाता है । साधक मन्त्र के गूढ़तम रहस्य तक पहुँच जाता हैं, उस रहस्य में उसका स्वरूपतादात्म्य स्थापित हो जाता है तथा मन्त्र का साक्षात्कार हो जाता है । मन्त्र का साक्षात्कार होते ही शब्द की शक्ति द्वारा साधक का तैजस् शरीर अत्यन्त बलशाली हो जाता है। यहीं शब्द की शक्ति का पूर्ण रूप से प्रस्फुटन होता Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ जैन योग : सिमान्त और साधना है। योगशास्त्रों में जो बताया गया है कि संसार में व्याप्त शक्ति (energy) का तृतीय अंश शब्द शक्ति है, वह यही स्थिति है। इस शक्ति से सम्पन्न साधक क्षण मात्र में असम्भव कार्य कर सकता है। वस्तुतः इस स्थिति में पहुँचे हुए साधक को कुछ भी करना नहीं पड़ता, करने की जरूरत भी नहीं रहती। मन में विचार आया, क्रिया का संकल्प जगा कि कार्य सिद्ध । करुणा जागी कि अमुक व्यक्ति का रोग दूर हो जाय; अमुक क्षत्र में अकाल है, सुकाल हो जाय; और वह व्यक्ति रोग-मुक्त हो गया, उस क्षेत्र में सुकाल हो गया। उसके चिन्तन की तरंगों से व्याप्त वायु जितनी दूर तक संचरण करती है, उतने क्षेत्र के सभी प्राणी सुखी हो जाते हैं, सुख का अनुभव करने लगते हैं। सूक्ष्मतम शब्द की इस तीसरी अवस्था को कुछ लोग ज्ञानात्मक भी कहते हैं; उसे ज्ञानावरण का विलय मानते हैं; किन्तु ज्ञानावरण का विलय तब होता है, जब पहले कषायावरण का क्षय हो जाता है । कषायावरण का विलय एवं क्षय प्रथम होता है और ज्ञानावरण का विलय तदुपरान्त । शब्द की इस सूक्ष्मतम स्थिति में तो योगी को भाषा-शक्ति का, वचनयोग की पुद्गल वर्गणाओं का साक्षात्कार होता है, मनोयोग की वर्गणाओं से वचनयोग की वर्गणाओं के साथ तादात्म्य हो जाता है और शब्द-शक्ति अपने विकास की उच्चतम स्थिति तक पहुँच जाती है। साधक की भाषा वर्गणाएँ ऊर्जस्वी तेजस्वी बन जाती हैं। ___भाषा की ये वर्गणाएँ पौलिक हैं, अतः इनमें रूप (रंग) भी है, रस भी हैं, स्पर्श भी है, गन्ध भी है और इनका निश्चित आकार भी है। इनके ये तत्त्व मन्त्रशास्त्र में बहुत महत्त्वपूर्ण हैं । मन्त्र की साधना इन तत्त्वों के आधार पर की जाती है। मन्त्र की सिद्धि और साक्षात्कार में ये बहुत उपयोगी हैं। अतः इनको समझने से मन्त्र-सिद्धि का रहस्य सहज ही समझ में आ सकता है। मन्त्र और महामन्त्र ___मन्त्र शास्त्रों में बताया है कि वर्णमाला के जितने भी अक्षर हैं, वे सभी मन्त्र हैं-अमन्त्रमक्षरं नास्ति । हिन्दी की वर्णमाला में 'अ' से 'ह' तक ६४ अक्षर हैं। इन अक्षरों से अनेक प्रकार के असंख्य मन्त्रों की रचना होती है। उनमें वशीकरण के मन्त्र भी होते हैं, मारण-उच्चाटन आदि के भी मन्त्र होते हैं । यों मन्त्रशास्त्र में प्रमुख रूप से आठ प्रकार के मन्त्र बताये गये हैं; किन्तु इनके उत्तर भेद अनगिनत है । Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्न-ति-गागरण ३६७ वस्तुतः 'मन्त्र' अक्षरों का संयोग या पिण्ड है । अक्षरों में कुछ शोधन बीज होते हैं, कुछ बीजाक्षर होते हैं, और कुछ अक्षर विभिन्न तत्त्वों से सम्बन्धित होते हैं। इनमें अभिधा, लक्षणा, व्यंजना शक्ति भी होती है। कुछ अक्षर संयुक्त और मिश्रित भी होते हैं। मन्त्र रचना में इन सबका समायोजन करते हुए अक्षरों का संयोजन इस प्रकार किया जाता है कि जिस अभिप्राय से मन्त्र-रचना हुई है, उसका जप करने वाले साधक का वह अभिप्राय पूरा हो जाय।। सामान्यतः मंत्र एक प्रतिरोधात्मक शक्ति है, कवच है, चिकित्सा है। यह चिकित्सा है-शारीरिक और मानसिक विकृतियों को, विकारों की। शरीर और मन में जो विकार उत्पन्न होते हैं, वे उन मंत्रों द्वारा उपशमित हो जाते हैं, उन विकारों का रेचन हो जाता है, वे समाप्त हो जाते हैं । __ कवच के रूप में मंत्र बहुत प्रभावी कार्य करता है। पृथ्वी के वायुमंडल में, चारों ओर के वातावरण में जो दुर्भावों की, तीव्र ध्वनि की तथा विकारवद्धक विचारों, संगीत आदि की तरंगें बह रही हैं, व्याप्त हो रही हैं, वे मंत्र जप द्वारा निर्मित भाव कवच के कारण साधक के शरीर और मन में प्रविष्ट नहीं हो पाती, फलतः साधक का मन-मस्तिष्क और शरीर उन विरोधी और विकारी तरंगों से प्रभावित नहीं होते। इसी प्रकार जो रोग के कीटाण वायु आदि के माध्यम से सामान्य व्यक्ति के शरीर में होकर रक्त में प्रवेश कर जाते हैं, मंत्र-कवच के कारण प्रवेश नहीं कर पाते। ____मंत्र-जप से साधक के रक्त, स्नायुमंडल, नाड़ीमंडल, क्रियावाही तंत्रिका संस्थान में एक ऐसी प्रतिरोधात्मक शक्ति (विद्य त) उत्पन्न हो जाती है कि वह प्रतिक्रिया करने वाले, विभिन्न विकार और रोगों के जीवाणुओं (Bacteria) की शक्ति को शून्यप्राय या भस्मसात् कर देती है। जपयोगी (मंत्र जाप करने वाला साधक) की मानसिक और शारीरिक स्वस्थता का यही रहस्य है। ___इसके साथ ही मंत्र जप से साधक का तजम् शरीर बलशाली बन जाता है। जिस भावना को हृदय में रखकर साधक मंत्र का जाप करता है, उसके अनुरूप तथा मंत्राक्षरों के वर्ण, तत्त्व, गंध, संस्थान आदि के प्रभाव से साधक को अपने लक्ष्य की प्राप्ति सुलभ होती है। जिस प्रकार प्रति सैकिण्ड लाखों प्रकम्पन होने पर ध्वनि तरंगें विद्य त Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ जन योग : सिद्धान्त और साधना में परिवर्तित हो जाती हैं व्यक्ति के भावों के अनुकूल प्रवाहित होने लगती हैं, उसी प्रकार हजारों लाखों बार मंत्र की आवृत्ति करने पर, जाप करने पर ही मंत्र इच्छित फल प्रदान करने में सक्षम होता है अथवा साधक की मनोवांछा पूरी होती है। . यह सामान्य मंत्र और उससे इच्छित फल प्राप्ति की प्रक्रिया एवं साधना विधि है। लेकिन कुछ मन्त्र इन सामान्य मन्त्रों से काफी ऊँचे होते हैं, उनकी शक्ति भी अत्यधिक होती है और प्रभाव भी अचिन्त्य होता है। उनके बीजाक्षरों, शोधन बीजों क्षादि की संयोजना कुछ ऐसी होती है कि देखने और सामान्य रूप से पढ़ने में तो वे मन्त्र साधारण से लगते हैं, किन्तु उनमें अत्यन्त गुरु-गम्भीर रहस्य भरे होते हैं। उन मन्त्रों के विधिपूर्वक जप और साधना से साधक को ऐसी महान् शक्ति और ऊर्जा की प्राप्ति होती है, कि साधक स्वयं ही चकित रह जाता है। प्रत्येक धर्म सम्प्रदाय और परम्परा में अपने-अपने विश्वास के अनुसार कुछ महामन्त्र होते हैं । वैदिक परम्परा का महामन्त्र 'गायत्री' हैं और मुस्लिम परम्परा अपने मान्य महामन्त्र को 'कलमा' कहती है। इसी प्रकार अन्य सभी परम्पराओं के अपने माने हुए महामन्त्र अलग-अलग हैं। जैन परम्परा द्वारा मान्य महामन्त्र नवकार है। लेकिन कोई मन्त्र महामन्त्र है अथवा नहीं, इसकी मन्त्रशास्त्रसम्मत कसौटियाँ हैं, निष्पत्तियाँ हैं, लक्षण हैं, प्रभाव हैं, शब्द और अक्षर संयोजना है। इन सब कसौटियों पर कसने पर नवकार मन्त्र खरा उतरता है, इसीलिए वह महामन्त्र माना गया है। नवकार मन्त्र का महामन्त्रत्व महामन्त्र वह है, जिसकी साधना से(१) साधक के विकल्प शान्त हों। (२) उसकी मानसिक, आन्तरिक एवं बाह्य शक्तियों का जागरण हो। (३) आत्मा का साक्षात्कार हो। (५) आत्मिक एवं मानसिक ऊर्जा में वृद्धि हो। (६) साधक की दृष्टि बाह्याभिमुखी से अन्तमुखी हो। (७) कषायों-आवेगों-संवेगों की तीव्रता में कमी हो, कषाय क्षीण हों। (८) वीतरागता तथा समताभाव का विकास हो। Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्र-शक्ति-जागरण ३६६ (e) मानव-शरीर के शक्ति केन्द्रों, चैतन्य केन्द्रों-चक्रों में प्राण-शक्ति की सघनता होती है, वहीं से वीर्य-शक्ति प्रस्फुटित होती है। महामन्त्र वीर्यवान मन्त्र होता है । अतः उससे वीर्य-शक्ति प्रस्फुटित हो जाती है। (१०) साधक की संकल्पशक्ति दृढ़ होती है। (११) बाह्य पदार्थों के प्रति साधक की मूर्छा टूटती है। (१२) अध्यात्म-दोषों-राग-द्वेष तथा आवरण, विकार और अन्तराय का नाश होता है । साथ ही मानसिक एवं शारीरिक रोग भी उपशांत होकर साधक शारीरिक और मानसिक रूप से भी स्वस्थ रहता है। इन कसौटियों के अतिरिक्त महामंत्र की साधना के विशिष्ट फल अथवा साधक को उपलब्धियाँ भी होती हैं (१) साधक की इच्छाओं को तृप्ति नहीं, अपितु उनका विसर्जन व समापन होता है। (२) सुख-दुःख की पूर्वकालीन मान्यताएँ परिवर्तित हो जाती हैं अर्थात् सुख-दुःख के बारे में उसका दृष्टिकोण समीचीन बनता है। (३) साधक की अधोमुखी (संसाराभिमुखी) वृत्तियाँ ऊर्ध्वमुखी (आत्माभिमुखी) बनती हैं। (४) मार्ग (मोक्ष-मार्ग-आत्म-मुक्ति एवं आत्म-सुख) की उपलब्धि होती है। साथ ही साधक के अन्तर् में उस मार्ग पर आगे बढ़ने की अन्तः स्फुरणा जागृत होती है। (५) साधक की आत्म-शक्ति (चैतन्य शक्ति), आनन्द और वीर्य शक्ति का समन्वित एवं एक साथ (simultaneous) विकास होता है। नवकार मंत्र की साधना द्वारा ये सब उपलब्धियाँ साधक को प्राप्त होती हैं अतः नवकार मंत्र निश्चित ही महामंत्र है। महामन्त्र का साक्षात्कार एवं सिद्धि . साधारण मानव ही नहीं, साधकों के मन में भी यह जिज्ञासा रहती है कि मंत्र का साक्षात्कार कब होगा, सिद्धि कब प्राप्त होगी, कब मंत्र सिद्ध होगा, जो फल नवकार मंत्र के जप के बताये गये हैं, मंत्र-शास्त्रों में कहे गये हैं, वे कब मिलेंगे ? ___आम तौर से लोग कहते हैं- इतने वर्षों तक माला फेरी, मंत्र का जप किया; किन्तु नतीजा शून्य ही रहा। न मंत्र का साक्षात्कार हुआ, न कोई चमत्कार ही हुआ और न मानसिक शांति ही मिली। किसी भी समस्या Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० जैन योग : सिद्धान्त और साधना का निदान न हुआ। इतना समय और श्रम अकारथ ही चला गया। और उनकी श्रद्धा डगमगा जाती है, हृदय चंचल हो उठता है, शंकाशील बन जाता है। अतः साधक के लिए यह जानना आवश्यक है कि मंत्र के साक्षात्कार का अर्थ क्या है और मंत्रसिद्धि क्या है ? साधक में कौन-कौन से लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं, जिनसे उसे मंत्रसिद्धि का विश्वास हो सके। ____ मंत्र साक्षात्कार, मंत्र-जप के कई सोपान पार करने के बाद होता है। प्रथम सोपान में ध्याता अथवा साधक और मंत्र के शब्दों का भेद संबंध होता है, यानी साधक अपने को साधना करने वाला मानता है और मंत्र के पदों को ध्येय; अर्थात् इस सोपान में मंत्र-पद और साधक के मध्य भिन्नता की स्थिति रहती है। __ इसके उपरान्त साधक दूसरे सोपान पर चढ़ता है। वहाँ उसकी अन्तश्चेतना का मंत्र के अक्षरों-पदों के साथ तादात्म्य (एकत्व-सम्बन्ध) स्थापित हो जाता है, अभेद दशा की प्राप्ति हो जाती है। तीसरे सोपान में स्थूल शब्दों (जल्प) का जप भी नहीं होता, तब सविकल्प अवस्था प्राप्त हो जाती है। . चौथे सोपान में मंत्र के अर्थ और गूढ़ रहस्य का साक्षात्कार हो जाता है। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि तात्त्विक दृष्टि से महामंत्र निर्विकल्पात्मक होता है। अतः मन को निर्विकल्प स्थिति पर पहुँचने पर ही मंत्र का साक्षात्कार होता है। मंत्रसिद्धि के लक्षण जो साधक में प्रगट होते हैं वे आध्यात्मिक, मानसिक और शारीरिक रूप से तीन प्रकार के हैं। आध्यात्मिक लक्षण -(१) ध्येय के प्रति तीव्र निष्ठा उत्पन्न होने पर साधक के संकल्प-विकल्प शांत हो जाते हैं। (२) उसके अहं भाव का विसर्जन हो जाता है 'अर्ह' अथवा 'अर्हत्' भाव विकसित होने लगता है। (३) कषायों की अल्पता तथा तरतम क्षीणता होने से ममत्वभाव का व्युत्सर्ग होता है और उसके स्थान पर समत्व भाव प्रतिष्ठित होता है । मानसिक लक्षण-(१) साधक को आन्तरिक शक्तियाँ विकसित हो जाती हैं। Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्त्र - शक्ति - जागरण (२) साधक के चित्त में सहज आन्तरिक प्रसन्नता एवं प्रफुल्लता व्याप्त हो जाती है । यह प्रफुल्लता चित्त की निर्मलता का परिणाम होती है । (३) साधक में संतोष भावना सहजरूप में दृढ़ हो जाती है । इच्छित पदार्थों की उपलब्धि न होने पर भी चित्त विक्षेपरहित तथा संतुष्ट रहता है । वस्तुतः यह संतुष्टि अथवा मानसिक तोष इच्छाओं के अभाव का परिणाम होता है । मन में संतोष इतना व्याप्त हो जाता है कि साधक की चाह ही मिट जाती है । ३७१ शारीरिक लक्षण – - (१) ज्योतिदर्शन - साधक को मस्तक और ललाट में मंत्र जाप के समय ज्योति अथवा प्रकाश दिखाई देने लगता है । (२) तैजस् शरीर बलशाली होने से आभामंडल विकसित हो जाता है, परिणामस्वरूप साधक का स्थूल शरीर भी तेजोदीप्त हो जाता है | शरीर, मस्तक, ललाट पर तेज झलकने लगता है । साथ ही शरीर पुलकित एवं प्रफुल्लित रहता है । (३) साधक की इच्छा-शक्ति विकसित हो जाती है । यह इच्छा - शक्ति अथवा संकल्प शक्ति सभी कार्यों में सफलता की कुञ्जी है | (४) साधक के लिए सारे भौतिक एवं पौद्गलिक पदार्थ अनुकूल हो जाते हैं । इन लक्षणों से साधक स्वयं अनुभव कर सकता है कि उसे मंत्र - सिद्धि हुई अथवा नहीं। यहाँ यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि मंत्र सिद्धि का अभिप्राय किसी चमत्कारी सिद्धि से नहीं है, अपितु मंत्र की सफलता या जो साधना वह कर रहा है उसमें परिपक्वता से है । मंत्र की सफलता का मूल सूत्र है कि साधक मंत्र के अक्षरों की साधना करता हुआ, पदों पर पहुँचे और पदों से आगे बढ़कर उन पदों में नियोजित अपनी चैतन्यधारा को स्थूल शरीर की सीमा को पारकर सूक्ष्म अथवा शरीर (प्राण शरीर) में पहुँचा दे, प्राण शरीर को उद्दीप्त कर दे । मंत्र में नियोजित साधक की चैतन्यधारा जब तैजस् शरीर तक पहुँच जाती है, उसे उद्दीप्त कर देती है तब तैजस् शरीर से शक्तिशाली प्राणधारा बहने लगती है । उस प्राणधारा से संयुक्त होकर मंत्र शक्तिशाली बन जाता है। सही शब्दों में, साधक को जो चैतन्यधारा मंत्र के शब्दों में Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ जैन योग : सिद्धान्त और साधना नियोजित होती है, वह शक्तिशाली बन जाती है। परिणामस्वरूप साधक का मन और शरीर शक्तिशाली बन जाते हैं। ___ यह सारा काम साधक अपनी प्रबल साधना द्वारा संपन्न करता है। मंत्रशक्ति का रहस्य मंत्रशक्ति अर्थात् मंत्र की फल-प्रदान शक्ति का रहस्य उसके वर्ण संयोजन (स्वर और व्यंजन दोनों का समन्वित संयोजन) में निहित है। जिस प्रकार धातु और रासायनिक पदार्थों के उचित और विचारपूर्ण संयोजन से विद्य त शक्ति उत्पन्न होती है, उसी प्रकार मंत्र के अक्षरों (वर्ण और स्वरों) के संयोजन तथा साधक को उसमें नियोजित प्राणधारा के उचित और विवेकपूर्ण संयोग से मंत्र के शब्दों में भी विद्य त धारा-मानवीय विद्युत धारा का निर्माण होता है । यह विद्युत धारा जितनी ही अधिक बलवतो होगी, मंत्र की फलप्रदान शक्ति उतनी ही अधिक हो जायगी । और विद्य त धारा का बलवती होना बहुत कुछ मंत्र में प्रयुक्त वर्ण संयोजना पर निर्भर है। वर्ण समूह और साधक की ध्वनि तरंगों के सूक्ष्म मिलन से मंत्र में चमत्कारिक शक्ति उत्पन्न हो जाती है। और जब साधक के अन्तःकरण की विचार-शक्ति, भाव-शक्ति, प्राण-शक्ति, मनःशक्ति और संयम-शक्ति मंत्र में घुलमिल जाती है तो मंत्र के वर्ण अनुप्राणित (सजीव) हो जाते हैं तथा मंत्र-साधक को अभीप्सित फल की प्राप्ति होने लगती है। इन क्षणों में साधक का सूक्ष्म शरीर सब कुछ अनुभव करता है, साथ ही स्थूल शरीर में भी उस अनुभव का प्रभाव दृष्टिगोचर होने लगता है। ____मंत्रशक्ति का यह रहस्य मंत्रशास्त्रों में तो वर्णित है ही; किन्तु आज का विज्ञान भी मंत्र-शक्ति के इस आधारभूत रहस्य से परिचित हो चला है तथा अनेक वैज्ञानिकों ने इसे स्वीकार भी कर लिया है। 00 Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ नवकार महामन्त्र की साधना - नवकार मन्त्र महामन्त्र है। इसकी शक्ति अमोघ है और प्रभाव अचिन्त्य । इसकी साधना से साधक को लौकिक और पारलौकिक सभी प्रकार की उपलब्धियाँ प्राप्त होती हैं। शारीरिक और मानसिक स्वस्थता तथा शान्ति प्राप्त होती है और आध्यात्मिक उत्कर्ष होता है। कषायों की क्षीणता होती है। साधक वीतरागता की ओर बढ़ता है। अपने अहं का विसर्जन करके साधक अर्ह की स्थिति पर पहुँचने के लिए प्रयत्नशील होता है। अद्भुत वैज्ञानिक संयोजन नवकार महामन्त्र के वर्गों के संयोजन पर विचार करें तो यह बड़ा अद्भुत है, और पूर्ण वैज्ञानिक लगता है । जैन परम्परा इस मन्त्र को अनादि (द्रव्य दृष्टि से) मानती है किन्तु यदि यह मान भी लिया जाय कि इस मन्त्र का संयोजन किसी महामनीषी ने किया तो उसकी अद्भुत मेधा के सम्मुख नतमस्तक होना ही पड़ता है कि उसने आध्यात्मिक विज्ञान की दृष्टि से तो पूर्ण संयोजन किया ही किन्तु भौतिक विज्ञान की दृष्टि से भी यह पूर्ण है, खरा है। इसके बीजाक्षरों को जब आप आधुनिक शब्द-विज्ञान की कसौटी पर कसेंगे तो पायेंगे कि इनमें विलक्षण ऊर्जा और शक्ति का भण्डार छिपा है । इस मन्त्र में ५ पद हैं, ३५ अक्षर हैं और ६८ वर्ण हैं।' इन सभी में से प्रत्येक का अपना विशिष्ट अर्थ है, प्रयोजन है, विशिष्ट शक्ति है, ऊर्जा उत्पादन की क्षमता है; जो आध्यात्मिक और भौतिक दोनों ही दृष्टियों से बहुत महत्त्वपूर्ण है। १ स्वर भोर व्यंजन अलग-अलग वर्ण कहलाते हैं । कोई भी व्यंजन स्वर के संयोग से ही पूर्ण होता है, अन्यथा अधूरा रहता है; जैसे क्+अ = क । इस अपेक्षा से प्रत्येक व्यंजन में दो वर्ण होते हैं; किन्तु स्वर स्वयं पूर्ण होता है, उसे व्यंजन की अपेक्षा नहीं होती, अतः स्वर जैसे 'म' में एक वर्ण माना जाता है । Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग : सिद्धान्त और साधना आप इस महामन्त्र के पहले पद को लीजिए । पहला पद है- णमो अरिहंताणं । ३७४ ' णमो अरिहंताणं' में १३ वर्ण, अक्षर ७, स्वर ७, व्यंजन ६, नासिक्य व्यंजन ३, और नासिक्य स्वर २ हैं । तत्त्व की दृष्टि से 'इ' (मातृका वर्ण के रूप में) और 'र' अग्नि बीज हैं, 'अ' और 'ता' बायु बीज हैं, 'हं', 'णमो' और 'णं' आकाश बीज हैं । यानी इस पद में अग्नि, वायु और आकाश तीनों तत्त्व मौजूद हैं । अग्नि तत्त्व के कारण अशुभ कर्मों की निर्जरा अधिक होती है, वायु तत्त्व निर्जरित कर्म-रज को उड़ाकर साफ कर देता है और आकाश तत्त्व भौतिक दृष्टि से साधक के चारों ओर एक कवच निर्मित करता है, साधक की प्रतिबन्धक शक्ति को बढ़ाता है जिससे बाहर के विकार उसकी आत्मा, मन और शरीर में प्रवेश न कर सकें तथा आध्यात्मिक दृष्टि से साधक के आत्म- गुणों को अनन्त आकाश में व्याप्त करता है, उन्हें आकाश-व्यापी बनाता है । आकाश है ही अनन्तता (infinity) का प्रतीक । अब जरा रंग संयोजन पर आइये । मन्त्रशास्त्रों में साधक को निर्देश दिया गया है कि 'णमो अरिहंताणं' पद का ध्यान श्वेत' रंग में करे । आज विज्ञान का साधारण विद्यार्थी भी जानता है कि बैंगनी, गहरा नीला, हल्का नीला, पीला, हरा, नारंगी और लाल इन रंगों के बिन्दु किसी ' णमो अरिहंताणं' पद का सफेद रंग, ‘णमो सिद्धाणं' पद का लाल रंग, ' णमो आयरियाणं' पद का पीला रंग, णमो उवज्झायाणं' पद का नीला रंग और ‘णमो लोए सव्व साहूणं' का काला रंग - इन पदों की अपेक्षा से माना गया है । इन पदों में वर्ण संयोजन ही इस ढंग से हुआ है कि जब साधक अपनी प्राणधारा से इन पदों को अनुप्राणित करता है तब ये रंग स्वयं ही प्रगट होते हैं और अपनी शक्ति तथा चमत्कार दिखाते हैं । किन्तु अरिहंत भगवान का सफेद रंग, सिद्ध भगवान का लाल रंग, आचार्यदेव का पीला रंग, उपाध्यायजी का नीला रंग और साधुजी का काला रंग नहीं है । सिद्ध भगवान तो अवर्ण ही हैं; शेष चारों परमेष्ठी का भी सफेद, पीला, नीला, काला रंग नहीं है । अतः जहाँ ऐसा उल्लेख है कि 'साधक को अमुक परमेष्ठी की आराधना अमुक रंग में करनी चाहिए' वहाँ उस पर - मेष्ठी के वाचक पद की साधना समझनी चाहिए, न कि परमेष्ठो का रंग । Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवकार महामंत्र की साधना ३७५ प्लेट (spectrum) पर बनाकर उस प्लेट को तीव्र गति से घुमा दिया जाय तो ये सभी रंग दब जायेंगे और सफेद रंग का धब्बा ही दिखाई देगा। . णमो अरिहंताणं' पद में भी सात अक्षर हैं, वर्ण और बीज हैं, तत्त्व हैं, उनके अपने-अपने रंग हैं और उन रंगों का सम्मिलित प्रभाव भी है। और वह सम्मिलित प्रभाव श्वेत वर्ण रूप है। श्वेत वर्ण शांति, समता, शुभ्रता, सात्विकता आदि का प्रतीक है। अब लीजिए दूसरा पद-णमो सिद्धाणं । ‘णमो सिद्धाणं' पद में ११ वर्ण, ५ अक्षर, ५ स्वर, ६ व्यंजन, ३, नासिक्य व्यंजन और २ नासिक्य स्वर हैं। तत्त्वों की दृष्टि से 'णमो' और 'ण' आकाश तत्त्व, 'स' और 'द' जल तत्त्व, 'ध' पृथ्वी तत्व और 'इ' (मातृका वर्ण के रूप में) अग्नि तत्त्व हैं। यानी इस पद में पृथ्वी, अग्नि, जल और आकाश ये सभी तत्त्व मौजद हैं। १ नासिक्य या अनुनासिक वर्गों का मंत्रशास्त्र में अत्यधिक महत्व है। इन वर्गों के उच्चारण में नासिका तंत्र का विशेष रूप मे प्रयोग होता है तथा इनके उपांशु उच्चारण के समय ध्वनि तरंगें सीधी ब्रह्मरंध्र तथा मस्तिष्क के ज्ञानवाही और क्रियावाही तंतुओं से टकराती हैं, अत: अत्यधिक ऊर्जा उत्पन्न होती है। भाषा-शास्त्र की दृष्टि के 'अ' 'अ' 'ण' 'न' 'म' ये अनुनासिक वर्ण हैं । इनमें 'ण' और अनुस्वार (') ये दोनों विशिष्ट शक्ति उत्पन्न करने वाले हैं। ____ मंत्रशास्त्र की दृष्टि से ये बीजाक्षर हैं तथा वे मंत्र अधिक प्रभावशाली होते हैं जिनमें अनुनासिक वर्गों की प्रचुरता हो । हीं, श्री, क्लीं, ओं आदि सभी बीजाक्षर अन्त में अनुनासिक हैं। नवकार महामंत्र की यह बहुत बड़ी विशेषता है कि इसके प्रत्येक पद का आरम्भ तथा अन्त अनुनासिक वर्गों से हुआ है। प्रत्येक पद में कम से कम चार नासिक्य वर्ण तो हैं ही, किसी-किसी में अधिक भी हैं । इन अनुनासिक वर्गों के कारण सामान्य मंत्रों की अपेक्षा शत-सहस्र गुनी कर्जा इसके जाप से साधक के मन-मस्तिष्क में उत्पन्न होती है। २ बीजाक्षर, तत्त्व और उनके रंग आदि के विस्तृत ज्ञान के लिए 'मंत्रराज रहस्य', 'णमोकार मंत्र ग्रंथ' आदि द्रष्टव्य हैं। Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ जैन योग : सिद्धान्त और साधना अब जरा इस पद में 'द्धा' वर्ण का विश्लेषण करिए । 'ध' वर्ण धारणा शक्ति को प्रबल करता है तो 'द' व्युत्सर्ग (अहंकार - ममकार का व्युत्सर्गक्योंकि 'दु' दमन (इन्द्रिय दमन), दान आदि की ओर संकेत करता है, साथ ही जल तत्त्व होने के कारण यह शीतलताप्रदायक है और आध्यात्मिक शांति - शीतलता 'अहं' और 'मम' के विसर्जन से ही प्राप्त हो सकती है ।) की प्रेरणा देता है । ध्वनिविज्ञान' के अनुसार जब 'द्धा' वर्ण का उच्चारण तालु, जिह्वा को स्थिर करके तथा होठों को बन्द करके केवल कंठ स्थित स्वर यंत्र से किया जाता है तो ध्वनि तरंगें सीधी मूर्धा, ललाट और मस्तिष्क से टकराती हैं । इसीलिए साधक जब उपांशु जप में 'द्धा' का उच्चारण करता है तो उसे विलक्षण ऊर्जा (शक्ति व स्फूर्ति) का अनुभव होता है । साधक इस पद की साधना लाल रंग में करता है । इस महामंत्र का तीसरा पद है- 'णमो आयरियाणं' । 'णमो आयरियाणं' पद में १२ वर्ण, ७ अक्षर, ७ स्वर, ५ व्यंजन, ५ नासिक्य व्यंजन और ५ नासिक्य स्वर हैं । तत्त्वों की दृष्टि से 'नमो' और 'णं' आकाश तत्त्व, 'आ' 'य' और 'या' वायु तत्त्व, 'रि' अग्नि तत्त्व है । यानी इस पद में वायु, अग्नि और आकाश - ये तीनों तत्त्व मौजूद हैं । समवेत रूप से पूरे पद का वर्ण पीला है । इसीलिए साधक इस पद की साधना पीले रंग में करता है । पीला रंग साधक के ज्ञानवाहो तंतुओं को अधिक संवेदनशील और शक्तिशाली बनाता है । यह रंग ज्ञानवाही और क्रियावाही तंतुओं के बीच सेतु का काम भी करता है । चौथा पद है - ' णमो उवज्झायाणं' | ' णमो उवज्झायाणं' पद में १४ वर्ण, ७ अक्षर, ७ स्वर, ७ व्यंजन, ५ नासिक्य व्यंजन ओर' नासिक स्वर है । तत्त्वों की अपेक्षा से 'नमो' और 'णं' आकाश तत्त्व, 'उ' ओर 'उ' पृथ्वी तत्त्व, 'व' और 'झा' जल तत्त्व तथा 'य' वायु तत्त्व है । इस प्रकार - १ वर्णों, अक्षरों, स्वरों की विशिष्ट ध्वनि के लिए द्रष्टव्य है – Phoneticism by Sunit Kumar Chatterjee. Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवकार महामंत्र की साधना ३७७ इस पद में पृथ्वी, जल, वायु और आकाश - इन चारों तत्त्वों का उचित समन्वय है । इस पद का समवेत रंग निरभ्र आकाश के समान हल्का नीला है । नीला रंग शांति प्रदायक है । इससे साधक में क्षमाशीलता और तितिक्षा भाव का विकास होता है, वह क्रोधविजयी बनता है । विशेष ध्यान देने की बात यह है कि इस पद में एक भी अग्नि तत्त्व का वर्ण नहीं है । इसीलिए यह पद साधक के लिए शीतलता प्रदायक है और उसमें समताभाव का विकास करने वाला है । पाँचवा पद है - णमो लोए सव्वसाहूणं । ' णमो लोए सव्व साहूणं' पद में १८ वर्ण, ६ अक्षर, ६ स्वर, व्यंजन, अनुनासिक व्यंजन ३ और अनुनासिक स्वर १ है । तत्त्वों की दृष्टि से 'णमो' 'हू' और 'णं' आकाश तत्त्व है, 'लो' पृथ्वी 'तत्त्व है, 'ए' वायु तत्त्व है, और 'स', 'व्व', 'सा' जल तत्त्व है । यानी इस पद में पृथ्वी, वायु, जल और आकाश - ये चारों तत्त्व हैं । इनमें भी आकाश तत्त्व के चार अक्षर हैं, अत: इस पद में आकाश तत्त्व अधिक है; और क्योंकि आकाश तत्त्व का रंग गहरा नीला या काला माना गया है अतः इस पद का रंग भी काला है, किन्तु पृथ्वी और जल तत्त्व की विशेष अवस्थिति होने के कारण यह काला वर्ण अंजन के समान काला न होकर कस्तूरी के समान चमकदार काला रंग होता है । इस पद की साधना करने वाला साधक इस पद को कस्तूरी जैसे काले चमकदार रंग से रंगा हुआ मानकर साधना करता है । साधना की विधि साधना के लिए सर्वप्रथम द्रव्य-शुद्धि, काल-शुद्धि और भाव- शुद्धि करके किसी भी आसन; यथा -- पद्मासन, कायोत्सर्गासन आदि से अवस्थित हो जाइये | आसन अपनी शक्ति और शारीरिक क्षमता के अनुसार ऐसा ग्रहण करें, जिसमें सुखपूर्वक अधिक समय तक अपने शरीर को स्थिर रख सकें; क्योंकि शारीरिक स्थिरता पर ही मानसिक स्थिरता निर्भर करती है । इतनी तैयारी करने के बाद अब नवकार मन्त्र की साधना प्रारम्भ करिए । णमो अरिहंताणं ध्यान का स्थान - ज्ञान केन्द्र ( आज्ञाचक्र -- ललाट - मध्य) अपने मन को ज्ञान केन्द्र पर एकाग्र करिए। साथ ही श्वेत वर्ण हो । Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग : सिद्धान्त और साधना इस पद की साधना के चार सोपान हैं- (१) अक्षर ध्यान, (२) पद ध्यान, (३) पद के अर्थ का ध्यान और (४) अर्हत स्वरूप का ध्यान । ३७८ प्रथम सोपान - इसमें इस प्रथम पद ' णमो अरिहंताणं' के एक-एक अक्षर का ध्यान किया जाता है । नासाग्र दृष्टि रखकर अथवा पलक बन्द करके सर्वप्रथम 'ण' अक्षर का ध्यान करें। ऐसा महसूस हो जैसे अनन्त आकाश में श्वेत वर्णका - स्फटिक के समान श्वेत वर्ण का 'ण' अक्षर उभर रहा है । वह अक्षर लगभग १ मीटर (तीन फीट) लम्बा है । बहुत ही चमकदार है । उसमें से श्वेत रंग की प्रकाश किरणें निकल रही हैं । उसकी ज्योति चारों ओर विकीर्ण हो रही है । उससे समूचा आकाश ही सफेद रंग का हो गया है । इसके उपरान्त उस अक्षर के आकार को घटाते जायँ, कम करते जायँ और बिन्दु के समान अति सूक्ष्म कर लें; किन्तु ज्यों-ज्यों अक्षर का आकार घटे उसका चमक बढ़ती जाना चाहिए । इसी प्रकार इस पद के शेष अक्षरों 'मो' 'अ' 'रि' 'हं' 'ता' 'णं' को कल्पना से लिख और उनका ध्यान करें । द्वितीय सोपान - अब सम्पूर्ण 'णमो अरिहंताणं' पद का ध्यान करें । इस. पूरे पद को साक्षात अनन्त आकाश में लिखा देखें । पहले इसके स्थूल रूप, अर्थात् बड़े-बड़े अक्षरों का ध्यान करें; फिर समूचे पद का आकार घटाते जायँ किन्तु चमक बढ़ाते जायँ और इसे बिन्दु तक ले आवें । फिर आकार बढ़ावें और समस्त आकाश में व्याप्त कर दे, तदुपरान्त आकार घटाते हुए बिन्दु. तक ले आवें । इस घटाने-बढ़ाने के क्रम में चमक बढ़ती रहनी चाहिए और सम्पूर्ण आकाश स्फटिक के समान श्वेत रहना चाहिए । इस प्रकार इस पूरे पद का बार-बार ध्यान करें और अभ्यास इतना दृढ़ कर लें कि जब भी आप इच्छा करें और पलके बन्द करें तो यह पूरा पद आपको श्वेत वर्णी दिखाई देने लगे । तृतीय सोपान -- इस पद को श्वेत वर्ण से लिखा हुआ देखने के साथसाथ इस पद के अर्थ का चिन्तन करें । इस पद का अर्थ है-अरितों को नमस्कार । अरिहंत अनन्त चतुष्टय के धनी होते हैं । अनन्त चतुष्टय हैंअनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य । अरिहत - अठारह दोषों से रहित होते हैं, हित- मित-प्रिय वचन बोलते हैं, सर्वज्ञ - सर्वदर्शी होते हैं, आदि-आदि। अरिहंतों के गुणों का चिन्तवन करें । Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - नवकार महामंत्र की साधना ३७६ लेकिन चिन्तवन में ऐसा न हो कि इस पद को जो आप श्वेत रंग से लिखा हुआ देख रहे हैं, वह ओझल हो जाय, अथवा मन का एकीकरण ज्ञान केन्द्र से हट जाय । पद का साक्षात् दिखाई देना और पद के अर्थ का ध्यान दोनों साथ-साथ चलते रहें । इसका भी दृढ़ अभ्यास कर लें। चौथा सोपान-अब अरिहंत के स्वरूप का ध्यान करें। स्फटिक के समान श्वेतवर्णी, निर्मल अरिहंत की पुरुषाकृति का ध्यान ज्ञान केन्द्र में करें। उसके आकार को बढ़ाते हुए अपने सम्पूर्ण शरीर के आकार का बना लें और फिर घटाते हुए ज्ञानकेन्द्र में अति सूक्ष्म बना लें। किन्तु उस पुरुषाकृति की चमक, ज्योति बढ़ती रहनी चाहिए। इस प्रकार बार-बार करके अभ्यास इतना हृढ़ करले कि पलक बन्द करते ही अरिहंत की आकृति प्रत्यक्ष दिखाई देने लगे। श्वेत रंग, ज्ञान केन्द्र और णमो अरिहंताणं' पद से चेतना का जागरण होता है, ज्ञानशक्ति जागृत होतो है, मानसिक एवं शारीरिक स्वस्थता प्राप्त होती है तथा शुद्ध, शुभ और सात्विक भाव जागते हैं। यह ‘णमो अरिहंताणं' पद की साधना है । णमो सिद्धाणं अब ‘णमो सिद्धाणं' पद की साधना करें। इसके भी चार सोपान हैं-(१) अक्षर ध्यान (२) पद ध्यान (३) पद के अर्थ का ध्यान (४) सिद्ध स्वरूप का ध्यान । णमो सिद्धाणं' पद के ध्यान का स्थान दर्शन केन्द्र (सहस्रारमस्तिष्क-ब्रह्मरन्ध्र) है; अर्थात् चित्तवृत्ति को दर्शन केन्द्र पर एकाग्र करिए। इस पद का वर्ण बालसूर्य जैसा लाल (अरुण) है । अतः इस पद की साधना लाल रंग में की जाती है । प्रथम सोपान-इसमें भी एक-एक अक्षर की साधना की जाती है, एक-एक अक्षर को प्रत्यक्ष किया जाता है । बाल सूर्य के अरुण रंग के 'ण' 'मो' 'सि' 'द्धा' 'ण' का अलग-अलग क्रमशः ध्यान साधक करता है। द्वितीय सोपान में अरुण रंग में लिखे हुए संपूर्ण पद ‘णमो सिद्धाणं' का ध्यान किया जाता है। तीसरे सोपान में इस पद के अर्थ का चिन्तन किया जाता है, सिद्धों के गुणों पर विचार किया जाता है। जैसे—सिद्ध भगवान अविनाशी हैं, Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० जैन योग : सिद्धान्त और साधना अविकार हैं, अनन्त सुख में लीन हैं, अरुज हैं, अपुनर्जन्मा हैं, शाश्वत हैं आदि-आदि । ate सोपान में साधक सिद्ध के स्वरूप का ध्यान करता है । अपने दर्शन केन्द्र और फिर सम्पूर्ण शरीर से बाल सूर्य के समान निर्मल ज्योति के प्रस्फुटन और विकीर्णन को साक्षात देखता है, ज्ञान नेत्रों से देखता - जानता है और अनुभव करता है । इस सम्पूर्ण प्रकिया में साधक लाल रंगमयी सम्पूर्ण सृष्टि को देखता है। लाल रंग प्रमाद और आलस्य को कम करता है, अतः साधक में उल्लास और उत्साह जागता है, जड़ता का नाश होकर स्फूर्ति आती है । लाल वर्ण, दर्शन केन्द्र और 'णमो सिद्धाणं' पद- इन तीनों का संयोग आन्तरिक दृष्टि को जागृत एवं विकसित करने का अनुपम साधन है । अक्षरों को दीर्घ और सूक्ष्म करने से यह आन्तरिक दृष्टि और भी तीव्रता से विकसित होती है । यह ' णमो सिद्धाणं' पद की साधना है । णमो आयरियाणं इस पद का ध्यान विशुद्धि केन्द्र ( कण्ठस्थान) पर मन को एकाग्र करके किया जाता है । इस पद की साधना दीप शिखा के समान पीत वर्ण (पीले रंग ) में की जाती है । इसकी साधना भी चार सोपानों में की जाती है । प्रथम सोपान में साधक पीत वर्णमयी 'ण' अक्षर का ध्यान करता हुँ । उस समय वह प्रत्यक्ष देखता है कि इस अक्षर की पीत प्रभा से सम्पूर्ण संसार सोने के समान पीला हो गया है । उसके बाद 'मो' 'आ' 'य' 'रि' 'या' 'णं' इन सभी वर्णों का क्रमशः पीत रंग में ध्यान करता है । अक्षरों को सूक्ष्म और विशाल करने का क्रम यहाँ भी चलता है । दूसरे सोपान में साधक इसी प्रकार सम्पूर्ण पद ' णमो आयरियाणं' का पीत रंग में ध्यान करता है। पूरे पद को विशाल और सूक्ष्म बनाकर अपने ध्यान को दृढ़ करता है । तीसरे सोपान में 'णमो आयरियाणं' पद में अर्थ का चिन्तन करें । आचार्यदेव के गुणों का चिन्तवन करें । Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवकार महामंत्र की साधना ३८१ ate सोपान में आचार्य के स्वरूप का ध्यान करें । स्व पर प्रकाशक दीपशिखा के समान पीत वर्ण की साधना करें, देखें और अपने शरीर के कण-कण और अणु-अणु से निकलती पोले रंग की प्रभा को देखें । योगशास्त्रों में विशुद्धि केन्द्र का काफी महत्व है । इसका स्थान कंठ है । यह प्राणी के आवेगों-संवेगों को नियन्त्रित करता है । वैज्ञानिक यहाँ थाइराडड ग्रंथि मानते हैं और उसे आवेगों का नियामक स्वीकार करते हैं । पीला रंग ज्ञान वृद्धि में सहायक होता है, ज्ञान तंतुओं को बलशाली बनाता है । विशुद्धि केन्द्र, पीले रंग और 'णमो आयरियाणं' पद – इन तीनों के संयोजित ध्यान-साधना से साधक के आवेग -संवेगों का नाश होता है, उसकी चित्तवृत्तियाँ उपशांत होती हैं । यह नवकार मंत्र के तीसरे पद 'णमो आयरियाणं' की साधना है । णमो उवज्झायाणं इस पद का ध्यान आनन्द केन्द्र (हृदय कमल) में मन को एकाग्र करके किया जाता है तथा इस पद का वर्ण निरभ्र आकाश जैसा नील वर्ण है । इस पद की साधना के भी चार सोपान हैं । प्रथम सोपान में साधक अक्षरों का ध्यान करता है । दूसरे सोपान में पूरे पद का ध्यान करता है । तीसरे सोपान में इस पद के अर्थ का तथा उपाध्यायजी के गुणों का चिन्तन साधक करता है । चौथे पद में वह उपाध्यायजी के स्वरूप का ध्यान करता है । यह संपूर्ण ध्यान साधक निरभ्र आकाश के समान नीले रंग में करता है । नीला रंग शांति प्रदायक है, तथा कषायों और उनके आवेग को शांत करता है । जैसे - क्रोध के आवेग के समय यदि साधक नीले रंग का ध्यान करे तो कोध उपशांत हो जायेगा । यह रंग आत्मसाक्षात्कार में भी सहायक तथा समाधि और चित्त की एकाग्रता में निमित्त बनता है । आनंद केन्द्र, नीले रंग और 'णमो उवज्झायाणं' पद - इन तीनों के संयोग से साधक की हृदयगत कषायधारा उपशांत होती है, उसकी चित्तवृत्ति एकाग्र होती है तथा समाधि में साधक अवस्थित होता है । Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ जैन योग : सिद्धान्त और साधना यह नवकार मंत्र के चौथे पद णमो उवज्झायाणं' की साधना है। णमो लोए सव्वसाहूणं इस पद की साधना शक्ति केन्द्र (मणिपूर चक्र-नाभि कमल-नाभिस्थान) में चित्त की वृत्ति को एकाग्र करके की जाती है, तथा इस पद का वर्ण 'श्याम (काला) है-कस्तूरी जैसा चमकदार काला । इस पद का ध्यान भी चार सोपानों में किया जाता है। सम्पूर्ण साधना विधि उपयुक्त जैसी ही है। विशेष यह है कि इस पद का ध्यान श्याम वर्ण में किया जाता है। यद्यपि साधारणतया लोक प्रचलित मान्यता के अनुसार श्याम वर्ण अप्रशस्त है; किन्तु योग में श्याम वर्ण का अत्यधिक महत्त्व है। चमकदार काला रंग अवशोषक होता है, वह अन्दर की ऊर्जा को बाहर नहीं जाने देता है और बाहर के कुप्रभाव को अन्दर नहीं आने देता। काले रंग की साधना से साधक एक प्रकार से outer.proof हो जाता है। __शक्ति केन्द्र, श्याम वर्ण और ‘णमो लोए सव्वसाहूणं' के संयोग से साधक कष्ट-सहिष्णु, उपसर्ग-परीषह को समभाव से सहन करने में सक्षम हो जाता है। बाह्य निमित्तों से अप्रभावित रहने के कारण वह इन्द्रिय और मनोविजेता बन जाता है । मनोविजय से उसकी प्राणधारा शुद्ध होती है और वह प्राणधारा शक्ति केन्द्र को बलशाली बनाती है, उसकी शक्ति और चेतना ऊर्ध्व गति की ओर संचरण करने लगती है, चेतनाधारा का ऊर्ध्वारोहण होता हैं। ___ यह नवकार मन्त्र के पांचवें और अन्तिम पद ‘णमो लोए सव्वसाहूणं' की साधना है। विशेष-इन पाँचों पदों की साधना से कुछ विशिष्ट लाभों की प्राप्ति भी साधक को होती है। ___ 'णमो अरिहंताणं' पद की साधना से साधक का आवरण (ज्ञानावरण, दर्शनावरण कर्म का आवरण) और अन्तराय कर्म का क्षय होता है, उसकी ध्वंस शक्ति-बुराइयों को विनाश करने की शक्ति प्रचण्ड बनती है तथा उसकी दिव्य श्रवण शक्ति का विकास होता है। __ 'णमो सिद्धाणं' पद की साधना से शाश्वत सुख की अनुभूति होती है, कार्य साधिका शक्ति प्रखर होती है, ज्ञान शक्ति का विकास होता है, दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है। Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ., नवकार महामंत्र को साधना ३८३ णमो आयरियाणं' पद की साधना से साधक की बौद्धिक शक्तियाँ और क्षमताएँ विकसित होती हैं, प्रातिभ और अतीन्द्रिय ज्ञान की प्राप्ति होती है। शरीर से दिव्य सुगन्धि प्रसरित होती है । आचार शुद्धि एवं अनुशासन शक्ति विकसित होती है। ___ णमो उवज्झायाणं' पद की साधना से साधक को मानसिक शान्ति की उपलब्धि होती है, स्मरण शक्ति प्रखर एवं धारणा शक्ति सुदृढ़ होती है। विकट समस्याओं का भी अनायास समाधान हो जाता है, अमृत के समान अनुपम रस की अनुभूति होती रहती है । णमो लोए सव्वसाहूणं' पद की साधना से साधक की काम वासना, विषय भोगों और काम-भोगों की इच्छा समाप्त हो जाती है, उसके लिए बाह्य कर्कश एवं कठोर स्पर्श भी दुःखदायी नहीं रहते, दुःखद अनुभूतियाँ सुखद हो जाती हैं। एक और विधि साधना को नवकार मंत्र के पांचों पदों की साधना की साधक के लिए एक और सरल विधि है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-शद्धि करके साधक किसी भी आसन में अवस्थित होकर ध्यान करना शुरू करे । चिन्तन करे कि वह एक पर्वत शिखर पर बैठा है । पर्वत तथा संपूर्ण सष्टि और यहाँ तक कि स्वयं को भी स्फटिक के समान श्वेत रंग का देखे, चिन्तन करे । ऐसा ध्यान करे कि रात्रि का चौथा प्रहर है। उसके शभ्रचिन्तन से संपूर्ण दिशा-विदिशाएँ श्वेत हो गई हैं तथा शुभ्र चन्द्र की शुभ्र ज्योत्स्ना से संपूर्ण अग-जग नहा रहा है। अत्यन्त चमकीला, किरणें बिखेरता हुआ कोटि चन्द्रों की प्रभा से भी अधिक प्रभावान ‘णमो अरिहंताणं' पद आकाश में उभर रहा है और अधिकाधिक चमकीला होता जा रहा है। इस प्रकार ‘णमो अरिहंताणं' पद की साधना करे। फिर ऐसा चिन्तन करे कि प्रातःकालोन सूर्य (बाल सूर्य) का उदय हो रहा है, जिससे सम्पूर्ण दिशा-विदिशायें लाल हो गई हैं। कोटि सूर्यों की प्रभा को भी लज्जित करता हुआ, अरुण वर्ण को रश्मियाँ बिखेरता हआ 'णमो सिद्धाणं' पद उभर आया है। उसने साधक को भी अरुण कर दिया है। Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ म योग : सिद्धान्त और साधना इस अरुण वर्ण के 'गमो सिद्धाणं' पद को साधक उसमें तल्लीन बना देखता रहे, तन्मय हो जाय । तदुपरान्त ऐसा चिन्तन करे कि दोपहर की धूप-पीले रंग की सूर्य रश्मियाँ फैली हुई हैं । सम्पूर्ण जगत सुनहरी (स्वर्ण के समान पीले रंग वाला) हो गया है। उसमें से अत्यधिक स्फुरायमान—कोटि-कोटि स्वर्ण-रश्मियाँ किरणें बिखेरता हुआ ‘ण मो आयरियाणं' पद उभर आया है। साधक इस पद के दर्शन में (देखने में) तल्लीन हो जाय । फिर यह विचारे कि आसमान विल्कुल ही साफ है, न वहाँ सूर्य का प्रकाश है और न चन्द्र का ही प्रकाश। आसमान अपने सहज-स्वाभाविक रूप में है, उसका वर्ण हल्का नीला है। उसमें से अत्यधिक चमकीला 'णमो उवज्झायाणं' पद उभर आया है । उसकी किरणें बहुत ही सौम्य और शीतलतादायक हैं। साधक का अपना तन-मन और चेतना- सभी कुछ अनुपम शीतलता का अनुभव करने लगे। इस प्रकार शीतलता का अनुभव करता हुआ साधक इस पद के ध्यान में तन्मय और तल्लीन हो जाय । इसके बाद साधक चिन्तन करे कि अत्यधिक चमकीला 'णमो लोए सव्वसाहूणं' पद उभर रहा है। उसकी चमक बढ़ती ही जा रही है और उसके प्रभाव से सम्पूर्ण दिशा-विदिशाएँ श्यामवर्णी हो गई हैं। साधक के स्वयं के शरीर के चारों ओर काले रंग का एक अभेद्य कवच निर्मित हो गया है और वह स्वयं उस पद के ध्यान में तल्लीन है। इस प्रकार की साधना से साधक की चेतना का ऊर्ध्वारोहण और आत्मिक विकास तीव्र गति से होता है। 'नवपद' की साधना नव पद में नौ पद होते हैं, जिनमें से पांच पद तो नवकार मंत्र के ही हैं । शेष चार पद हैं-(१) नमो नाणस्स ,(२) नमो सणस्स, (३) नमो चरितस्स, (४) नमो तवस्स। किन्हीं आचार्यों ने ४ पद ये माने हैं-(१) एसो पंच णमोकारो, (२) सम्व पाचप्पणासणो, (३) मंगलाणं च सव्वेसि (४) पढमं हवइ मंगलं । इन नमो नाणस्स, नमो दसणस्स, नमो चरित्तस्स, नमो तवस्स पदों की साधना का क्रम वही है, जो नवकार मंत्र के पांच पदों का है। इनमें से प्रत्येक पद का ध्यान भी चार सोपानों में किया जाता है । विशेषता इतनी है कि इन चारों पदों का ध्यान श्वेत वर्ण में किया जाता है। Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवकार महामन्त्र की साधना ३८५ णमो आयरियाण णमो दसणस्स/ पामा xणाणस्स णमो सिदाण/ वज्झायाम णमो STMaiya सिदचक्र तवस्स णमो णमा सव्वसाहूण णमोलोए णमो आयरियाणं 'एसोपंच -प्पणासणो सव्व पाव णमुक्कारो णमो सिहदाणं णमो अरिहंताण Nउवायाण णमो अष्टदल कमल में नवपद सहवईमगल । पदम अच् सव्वेसिं सव्वसाहूण (णमोलोए मगलाण Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ जैन योग : सिद्धान्त और साधना नवकार मंत्र के पांच पद और ये चार पद मिलकर नवपद कहलाते हैं तथा इन्हीं को सिद्धचक्र कहा जाता है। साधक जब तक इन सभी (नौ) पदों का अलग-अलग ध्यान एवं जप करता है तब तक वह नवपद का ध्यान-जप-साधना कहलाती है और जब अष्टदल कमल (हदय-कमल आदि) के रूप में जाप करता है, ध्यान और साधना करता है, तब वह सिद्धचक्र का ध्यान-साधना कहलाती है। अंतर आत्मामां सिदचकरी मांडणी नमो सिदाणं नमो उवझायागनमोलोएससाहणं /--नमो आयुरियाणं जनमोदसणस्स नमो णाणस्स नमोचरित्तस्स MA नमो तवस्स - - Sar - - - - नमो अरिहंताणं - Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो उवज्झायाण APP त्रितयभेदना अभेद माटे ध्यान नमो सिद्धाणं - नमो अरिहंताण नमो आयरियाण नमो लोएसव्व साहूण ( एसो पंचनमुक्कारो सव्वपावण्पणासणी । मंगलाणं च सव्वेसिं पदमं हवई मंगलं | नवकार महामन्त्र की साधना ३८७ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ जन योग : सिद्धान्त और साधना अन्तर् आत्मा में सिद्धचक्र ध्यान-साधना सिद्धचक्र की ध्यान-साधना के, आसनों की अपेक्षा, दो भेद हैं । जब साधक अपनी अन्तर् आत्मा में ही सिद्धचक्र का ध्यान एवं साधना करता है तो वह दो आसनों से अवस्थित होकर करता है—(१) कायोत्सर्गासन और (२) पद्मासन। कायोत्सर्गासन में अवस्थित साधक 'नमो अरिहंताणं' पद को चरण युगल में स्थापित करता है, 'नमो सिद्धाणं' को ललाट में, 'नमो आयरियाणं' को नासिकाग्र में, 'नमो उवज्झायाणं' को दायीं आँख में, 'नमो लोए सव्व साहूणं' को बायीं आँख में, 'नमो दसणस्स' को कण्ठ (विशुद्धि चक्र) में, 'नमो नाणस्स' को हृदय कमल में, 'नमो चरित्तस्स' को उदर कमल में, और 'नमो तवस्स' को नाभि कमल में । इस प्रकार इन नवपदों को स्थापित करने के बाद साधक अपनी चेतना की धारा को चरण युगलों से ऊर्ध्वगामी बनाकर सीधा ललाट पर, फिर नासिकाग्र पर, तब दायीं आँख पर, बायीं आँख पर, कण्ठ में, हृदय कमल, उदर कमल और अन्त में नाभि कमल पर पहुंचाता है तथा इस प्रकार क्रमशः नवपदों की साधना करता है। इस साधना से साधक की पूरी चेतना धारा (चरणों से लेकर ललाट ----कपाल तक) सम्पूर्ण शरीर में जागृत हो जाती है । पद्मासन में अवस्थित साधक ‘णमो अरिहंताणं' पद को मुख पर स्थापित करता है, 'णमो सिद्धाणं' को ललाट में, 'णमो आयरियाणं' को कण्ठ में, ‘णमो उवज्झायाणं' को दायें हाथ में, ‘णमो लोए सव्वसाहूणं' को बाँए हाथ में तथा 'एसो पंच नमुक्कारो', 'सव्व पावप्पणासणो', 'मंगलाणं च सव्वेसिं' और 'पढम हवइ मंगलं' ये चारों पद क्रमशः सुषुम्ना में स्थापित करता है। अथवा 'नमो दंसणस्स', 'नमो नाणस्स', 'नमो चरित्तस्स' और 'नमो तवस्स' इन चारों पदों को क्रमशः सुषुम्ना में स्थापित करता है। साधना क्रम वही है, अर्थात् साधक अपनी प्राणधारा को ‘णमो अरिहताणं' से प्रारम्भ करके 'पढम हवाइ मंगलं' अथवा 'नमो तवस्स' पर समाप्त करता है तथा इस प्रकार अपने अन्तरआत्मा में प्राणधारा का चक्र ही निर्मित कर लेता है। यह चक्राकार चूमती हुई प्राणधारा कुण्डलिनी शक्ति को शोघ्र ही जागृत कर देती है और साधक ऊर्ध्वरेता बन जाता है। Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवकार महामन्त्र की साधना ३८६ हस्य कमल पर ध्यान-कुछ साधक नवपद की साधना हृदय कमल पर भी करते हैं। ___इसके लिए साधक अपने हृदय कमल पर अष्टदल कमल की रचना करता है। उसकी कणिका पर 'णमो अरिहंताणं' पद लिखता है, इसके ऊपर उत्तर दिशा में 'णमो सिद्धाणं' दायें हाथ के पूर्व दिशा में कमल-पत्र पर 'णमो आयरियाणं', णमो अरिहंताणं' के ठीक नीचे दक्षिण दिशा में णमो उवज्झायाणं', और बाएं हाथ की ओर पश्चिम दिशा में णमो लोए सव्वसाहूणं' तथा शेष चार विदिशाओं में क्रमशः 'नमो णाणस्स', 'नमो दंसणस्स', 'नमो चरित्तस्स' और 'नमो तवस्स'-ये चारों पद स्थापित करता है । वह 'नमो अरिहंताणं' से शुरू करके 'नमो तवस्स' पर अपनी प्राणधारा को समाप्त करता है, अर्थात् उसकी प्राणधारा हृदय कमल पर ही चक्राकार घूमती है। इससे हृदय चक्र जागृत हो जाता है, कषायों को उपशान्ति हो जाती है और साधक को आन्तरिक प्रसन्नता की अनुभूति होती है। . चक्रों पर नवपद का ध्यान-इसमें साधक अपने आज्ञा चक्र पर 'णमो अरिहंताणं' पद को स्थापित करता है, सहस्रार चक्र में 'णमो सिद्धाणं' पद को, दायीं कनपटी पर 'णमो आयरियाणं', विशुद्धि चक्र पर णमो उवज्झायाणं', बायीं कनपटी पर 'णमो लोए सव्वसाहणं' पद को तथा दायों आँख पर 'नमो दंसणस्स', चिबुक के दायीं ओर 'नमो नाणस्स', बायीं ओर 'नमो चरित्तस्स' और बायीं आँख पर 'नमो तवस्स' को स्थापित करता है। फिर 'णमो अरिहंताण' से प्राणधारा को शुरू करके 'नमो तवस्स' पर समाप्त करता है । इस प्रकार बार-बार ध्यान करने से साधक के विशुद्धि, आज्ञा और सहस्रार तीनों चक्र जागृत हो जाते हैं। उसकी वासनाओं का क्षय होता है, कषायों के आवेग उपशान्त हो जाते हैं, अतीन्द्रिय ज्ञान की उपलब्धि हो जाती है, भूत भविष्य और वर्तमान उसके सामने प्रत्यक्ष हो जाते हैं, आत्म-ज्योति के दर्शन होते हैं और साधक को आत्म-साक्षात्कार के साथ-साथ आत्मानुभूतिरूप अनिवर्चनीय आत्मिक सुख की उपलब्धि होती है। ॐ की साधना भारतीय संस्कृति में 'ॐ' का विशिष्ट स्थान है । सभी मोक्षवादी परम्पराएं इसका महत्त्व स्वीकार करती हैं । वैदिक परम्परा का तो यह प्राण Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० जैन योग : सिद्धान्त और साधना ही है। प्रत्येक मन्त्र में इसका होना अनिवार्य-सा है । वैदिक ऋषि तो ब्रह्म को भी ॐकार मय मानते हैं। उनके विचारानुसार ॐ शब्दब्रह्म है । सारी सृष्टि तो ॐमय है ही। ॐ की शक्ति से सम्पूर्ण संसार-सूर्य, चन्द्र, तारा, जल, वायु आदि सभी शक्तियाँ परिचालित हो रही हैं। ॐ का पर्यायवाची प्रणव है। 'प्रणव' का अभिप्राय प्राण देने वाला होता है। योगशास्त्रों के अनुसार ॐ मनुष्य की प्राणशक्ति को प्रज्वलित करने वाला है। अतः वैज्ञानिक युग में जितना भौतिक ऊर्जा का मूल्य है उससे भी अधिक मूल्य मानव की आन्तरिक विकास की ऊर्जा में ॐ का है। वैदिक परम्परा के अनुसार ॐ शब्द 'अ', 'उ', 'म्' इन तीन अक्षरों के संयोग से निष्पन्न हुआ है। वहाँ 'अ' (ब्रह्मा), उ (विष्णु), म् (महेशशिव)-ये तीनों शक्तियाँ इससे जुड़ी हुई हैं । जैनाचार्यों ने ॐ को पंच परमेष्ठी का वाचक माना है अरिहंता-असरीरा-आयारिय-उवज्झाय-मुणिणो । पंचक्खरनिप्पण्णो ओंकारी पच परमिट्ठी ।। अ (अरिहत)+अ (अशरीरी-सिद्ध),+आ (आचार्य),+उ (उपाध्याय),+म् (मुनि)= अ+अ+आ+उ+म्=ॐ । ॐ शब्द पंच परमेष्ठी के प्रथमाक्षरों की सन्धि करने से निष्पन्न होता है । ॐ शब्द दूसरे प्रकार से भी निष्पन्न होता है आययचक्खू लोगविपस्सी लोगस्स अहोमागं जाणइ, उड्ढ भागं जाणइ तिरियं भागं जाणइ ।। जो महापुरुष इहलोक अथवा परलोक में होने वाले समस्त कषायादि को प्रत्यक्षतः अच्छी तरह जानता है, जिसके ज्ञान में कोई पदार्थ व्यवधानक या बाधक नहीं बन सकते; जो सांसारिक विषयों से उत्पन्न समस्त सुखों को विषतुल्य समझकर शमसुख को प्राप्त कर चुका है, वही आयतचक्ष-दीर्घदर्शी-तीनों लोकों को जानने वाला पूर्ण ज्ञानी महापुरुष है । यहाँ अहोभाग, उडढ भागं, तिरिय भागं (मध्य भाग)=अ+उ+म्इन तीन आद्य अक्षरों को मिलने से भी ॐ शब्द निष्पन्न होता है। __इसी आधार पर जैन आचार्यों ने ॐ की निष्पत्ति इस प्रकार भी की है-अ-ज्ञान, उ--दर्शन, म्–चारित्र का प्रतीक है । अतः अ+उ+म् = Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवकार महामन्त्र की साधना ३६१ ॐ की साधना विभिन्न रंगों के साथ की जाती है । श्वेत वर्णी ॐ की साधना शान्ति, पुष्टि और मोक्ष प्रद है । ज्ञान तन्तुओं को सक्रिय बनाने के लिए पीले रंग के ॐ का जप ध्यान किया जाता है। लाल वर्णी ॐ का जप ध्यान ऊर्जा वृद्धि करता है । नील वर्णी ॐ की साधना साधक के लिए शान्तिप्रद होती है । श्यामवर्णी ॐ की साधना साधक को कष्टसहिष्णु बनाती है । ॐ की साधना का महत्त्व इसलिए अधिक है कि यह पंच परमेष्ठी का वाचक एकाक्षरी मन्त्र है । इसका जप भी अत्यन्त सरल है । साधक उठते-बैठते, चलते-फिरते किसी भी स्थिति में इसका जप कर सकता है । इसका जप श्वासोच्छ्वास के साथ-साथ स्वतः ही होता रहता है | श्वास लेते समय 'ओ' और छोड़ते समय 'म्' की ध्वनि होती ही रहती है । बस, साधक को इस ओर थोड़ा उपयोग लगाना ही अपेक्षित है; फिर तो अभ्यास दृढ़ होने पर ॐ शब्द की दिन भर में स्वयमेव ही हजारों आवृत्तियाँ' हो जाती हैं । सोsहं साधना 'सोsहं' को भी अजपाजप कहा जाता है । श्वास लेते समय व्यक्ति 'सो' की ध्वनि निकालता है और श्वास छोड़ते समय 'हं' की । इस प्रकार एक श्वासोच्छ्वास में अनजाने हो व्यक्ति 'सोऽहं' का जाप कर लेता है, आवृत्ति कर लेता है । 'सोsहं' का शाब्दिक अर्थ है - मैं वही हूँ । इसी अर्थ को प्रगट करने वाले 'तदिदं', 'सेयं', 'सोऽयं' आदि शब्द भी हैं । इन सभी शब्दों के विषयी ज्ञान में तदंश स्मृति और इदमंश तथा अहमंश प्रत्यक्ष हैं । इस ज्ञान को दार्शनिक प्रत्यभिज्ञा कहते हैं । यदि इन ज्ञानों के अवस्थादि बोधक तदंश ( मैं वही ) और इदमंश (मैं यह) को छोड़ दिया जाय तो शुद्ध अभिन्न पदार्थ ही ज्ञान का विषय बनता है, कहीं-कहीं सदृश पदार्थों का भी ज्ञान होता है । अतः अवस्था विशेष से सम्बन्ध न रखने वाले शुद्ध चैतन्य का बोध कराने के लिए 'सोsहं' गत ' तत्ता' तथा 'अहंता' अंशों का त्याग आवश्यक १ एक दिन में इक्कीस हजार छह सौ (२१,६०० ) आवृत्तियाँ क्योंकि योगशास्त्र और धर्मशास्त्रों के अनुसार एक स्वस्थ मनुष्य २४ घण्टे में इतने ही श्वासोच्छ्वास ग्रहण करता और छोड़ता है । -सम्पादक Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ जैन योग : सिमान्त और साधना है । परन्तु सम्पूर्ण 'सः' तथा 'अहम' पदों का लोप भी नहीं किया जा सकता क्योंकि ऐसा करने से जीव की उस शुद्ध अवस्था का बोधक कोई शब्द हो नहीं रह जायगा। अतः 'तत्ता' तथा 'अहंता' के बोधक अंशों का ही त्याग हो सकता है। उस दशा में 'स' और 'अहं' का त्याग करने पर जीव के शुद्ध स्वरूप का बोधक शब्द होता है-ॐ। साधक भी जब तक भेदस्थिति में रहता है तभी तक वह 'सोऽहं का जप करता है और ज्योंही जप में तरतमता बनो, साधक की चित्तवृत्ति ध्येय से एकाकार हुई, अभेद स्थिति आई, त्योंहो उसके श्वासोच्छ्वास से स्वयं हो ॐ की ध्वनि निकलने लगाती है। अतः सोऽहं को जप 'ॐ' के जप-ध्यान और साधना की प्रारम्भिक अवस्था है । इसकी (सोऽहं) साधना भी साधक अपनी इच्छानुकूल रंगों के समन्वय के साथ करता है। अर्ह की साधना 'अहं' जैन धर्म दर्शन का विशिष्ट मन्त्र है । इसका योग एवं आत्मिक उन्नति की साधना में अत्यधिक महत्त्व है। इसका प्राण-शक्ति को जगाने में बहुत उपयोग है। इस मन्त्र की साधना द्वारा साधक की प्राणशक्ति शीघ्र ही जाग्रत हो जाती है, उसका प्राणिक शरीर (Electric body) शक्तिशाली बनता है और आज्ञाचक्र एवं मूलाधार चक्र जाग्रत हो जाते हैं। यह कर्मनिर्जरा में भी सहायक है, अतः आत्मिक उन्नति एवं आत्म-शुद्धि भी इस मन्त्र से होती है। इसके अतिरिक्त साधक को मानसिक एवं शारीरिक स्फूर्ति प्राप्त होती है, उसकी मेधा तीव्र होती है, मानसिक स्फुरणा होती है, अतीन्द्रिय ज्ञान की प्राप्ति होती है, चित्त की चंचलता समाप्त होकर एकाग्रता आती है। अतः प्राणिक शक्ति के जागरण और चित्त की एकाग्रता के लिए यह मन्त्र 'सोऽह' और 'ॐ' से भी अधिक प्रभावी है। जैन धर्म दर्शन और जैन मन्त्र ग्रन्थों में इसे अरिहंत परमेष्ठी का वाचक बताया गया है और इसकी काफी महिमा गाई गई है। 'अर्ह' का पद विन्यास 'अहं' का यदि वर्ण और अक्षरों की अपेक्षा से विन्यास किया जाय तो इसमें 'अ, र, ह, म्' ये चार वर्ण हैं । इनमें 'अ' वायु तत्त्व, 'र' अग्नि तत्त्व, 'ह' Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवकार महामन्त्र की साधना ३६३ आकाश और अनुस्वार आकाश तत्त्व हैं । इस प्रकार इसमें अग्नि, आकाश और वायु तोनों तत्त्व हैं । अग्नि तत्त्व कर्म-निर्जरा में सहायक है तथा प्राणशक्ति और प्राण-शरीर को शक्तिशाली बनाता है, वायु तत्व साधक के मनः कोषों को सबल और सक्षम बनाकर मेधाशक्ति को बढ़ाता है, तथा आकाश तत्व साधक में अनेक सद्गुण, कष्टसहिष्णता, समभाव तथा तितिक्षा भाव की वृद्धि करता है एवं बाह्य अवगुणों तथा सन्तापी तरंगों को उसके आभामण्डल एवं तैजस शरीर में प्रविष्ट नहीं होने देता। __अहं की साधना विधि अह की साधना साधक कई रूपों में करता है। सर्वप्रथम वह इसे नाभिकमल में स्थापित करके इसकी साधना तेजोबीज के रूप में करता है। 'अहं' की रेफ को वह रक्तवर्णमय, अग्नि के रूप में देखता है और रेफ के ऊर्व भाग से वह अग्नि की चिनगारियाँ निकलते देखता है तथा फिर अग्नि लपटों से कर्म और नोकर्मों को भस्म होते हए देखता है। इस रूप में 'अहं' कर्म-निर्जरा में सहायक बनाता है। दूसरी प्रकार की साधना विधि में वह 'अहं' पद का ध्यान करता है । आत्म-शुद्धि हेतु वह इसका ध्यान श्वेत वर्ण में चक्ष ललाट में (आज्ञाचक्र में) करता है। आज्ञाचक्र और मणिपूर चक्र (ज्ञान केन्द्र और शक्ति केन्द्र) का सीधा सम्बन्ध है । साधक 'अहं' को शक्ति केन्द्र से उठता हुआ तथा ज्ञान केन्द्र पर पहुँचता हुआ देखता है। प्राण (श्वास) द्वारा चढ़ता हुआ और उश्वास (निश्वास) द्वारा ज्ञान केन्द्र से शक्ति केन्द्र पर आता हुआ देखता है। इस प्रकार साधक एक श्वासोच्छ्वास में 'अहं' पद का शक्ति केन्द्र से ज्ञान केन्द्र तक तथा ज्ञान केन्द्र से शक्ति केन्द्र तक का एक चक्कर पूरा कर लेता है। इस प्रकार के असंख्य चक्र साधक करता है, अपनी प्राणधारा को प्रवाहित करता है। ___ योग की अपेक्षा से शक्ति केन्द्र (नाभिकमल) अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। यहीं से शक्ति का जागरण होता है, और वह ऊर्ध्वगामिनी बनती है । शक्ति केन्द्र से ज्ञान केन्द्र में प्राणधारा के प्रवाहित होते समय मध्यवर्ती आनन्द केन्द्र, विशुद्धि केन्द्र भी स्वयमेव जाग्रत हो जाते हैं। शक्ति केन्द्र और ज्ञान केन्द्र तो जाग्रत होते ही हैं। ज्ञान केन्द्र (आज्ञा चक्र) पर साधक 'अहं' को स्फुरायमान होता हुआ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ जैन योग । सिद्धान्त और साधना देखता है । कभी उसे चंचल और कभी स्थिर करता है । कभी 'अहं' पद को आकाशव्यापी देखता है तो कभी उसे अणु के समान अति सूक्ष्म रूप में ध्यान का विषय बनाता है। अणरूप अह अत्यन्त शक्तिशाली श्वेत किरणों का विकीरणन करता है । इससे साधक का समस्त ललाट और कपाल (मनःचक्र, सोमचक्र और सहस्रार चक्र) प्रकाशित हो जाता है। परिणमतः ये तीनों चक्र (समष्टि रूप से एक चक्र-सहस्रार) जाग्रत हो जाते हैं। 'अर्ह' पद के जप-ध्यान से ये सम्पूर्ण सातों (अथवा ६) चक्र शीघ्र ही जाग्रत होते हैं । इसका कारण यह है कि ध्वनि शास्त्र की दृष्टि से ह्रस्व (अ) और प्लुत (ह) दोनों प्रकार की ध्वनियों का इसमें समायोजन है । 'ह' प्लुत ध्वनि महाप्राण ध्वनि है । अतः साधक जब इसका उच्चारण करता है तो उसे प्राण शक्ति (ॐ अथवा 'सोऽहं' के उच्चारण की अपेक्षा) अधिक लगानी पड़ती है। दूसरे शब्दों में, 'अहं' के उच्चारण के समय प्राणशक्ति अधिक ऊर्जस्वी होती है। उपांशु जप करते समय जब साधक अन्तर्जल्प या सूक्ष्म वचनयोग द्वारा इस मन्त्र का जप-ध्यान करता है तो उसकी ध्वनि तरंगे-भाषा वर्ग णा के सूक्ष्म पुद्गल शक्ति केन्द्र (नाभिकमल) से ऊर्ध्वगामो बनकर सीधे आज्ञा चक्र तथा सहस्रार चक्र से टकराते हैं, सम्पूर्ण मस्तिष्क और उसके ज्ञानवाही तन्तु झनझना उठते हैं । भाषा वगंणा को सूक्ष्म ध्वनि तरंग विद्य त तरंगों में परिवर्तित हो जाती हैं। परिणामस्वरूप साधक का सम्पूर्ण तेजस् शरीर उत्तजित हो जाता है-तीव्र गति से परिस्पन्दन करने लगता है । इसका प्रभाव कार्मण शरीर पर भी पड़ता है, उसके प्रकम्पनों की गति भी बढ़ जातो है। भगवान महावीर ने जो कहा है कि साधक अपने शरीर को धुने (धुणे सरोर) वह स्थिति आ जाती है । परिणाम यह होता है कि तेजस् शरीर स्थित सभी चक्र जागृत-अनुप्राणित हो जाते हैं और सबसे बड़ी बात यह है कि कर्म निर्जरा अति तीव्र गति से होती है, फलतः आत्म-शुद्धि होती है तथा ज्ञान एवं शरीर सम्बन्धी अनेक विशिष्ट लब्धियों की प्राप्ति होती है। __ साधक को 'अर्ह' पद के जप-ध्यान से अनेक प्रकार के लाभ प्राप्त होते हैं। उनमें से कुछ ये हैं (१) उसकी मस्तिष्कीय शक्तियाँ अति प्रबल हो जाती हैं। (२) आधुनिक विज्ञान के अनुसार आर० एन० ए० रसायन (जो मस्तिष्क की समस्त गतिविधियों को संचालित करता है। उसकी प्राणवत्ता Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___नवकार महामंत्र को साधना ३६५ और सक्रियता बढ़ जाती है। परिणामस्वरूप साधक के लिए अतीन्द्रिय ज्ञान के मार्ग खुल जाते हैं, ज्ञान तन्तुओं के सजग और शक्तिशाली बनने से विशिष्ट ज्ञान की प्राप्ति होती है । (३) साधक की वासना-कामना क्षीण हो जाती हैं। (४) कषायों का वेग और उत्तेजना समाप्त हो जाती है। (५) अनिर्वचनीय सुख और आनन्द की प्राप्ति होती है। (६) वचनसिद्धि होती है। (७) शरीर में स्फूर्ति आती है। (८) प्रमाद का नाश होकर अप्रमत्तता आती है। इस प्रकार 'अहं' की साधना साधक के लिए अति लाभकारी और शक्ति, स्फूर्ति तथा शान्ति देने वाली है । यह ध्यान-साधना कर्म-निर्जरा और आत्म-शुद्धि का प्रबल साधन है। अतः अध्यात्मयोगी साधक के लिए अवश्य करणीय है। Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ So we a जैन योग सिद्धान्त और साधना परिशिष्ट * १ – सन्दर्भ ग्रन्थ सूत्री २ - विशिष्ट सूची ३ - विशिष्ट व्यक्ति नाम सूची ४ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : १ सन्दर्भ ग्रन्थ सूची आचारांग सूत्र बृहत्कल्प सूत्र (युवाचार्य मधुकर मुनिजी द्वारा संपादित) नन्दीसूत्र सूत्रकृतांग सूत्र कल्पसूत्र स्थानांग सूत्र निशीथ भाष्य समवायांग सूत्र चन्द्रप्रज्ञप्ति भगवती सूत्र उत्तराध्ययन सूत्र प्रश्नव्याकरण सूत्र उत्तराध्ययन बृहदवृत्ति (पं० हेमचन्दजी म.) दशवैकालिक सूत्र उपासक दशांग (युवाचार्य मधुकर मुनि) अणु और आभा (प्रो. जे. सी. ट्रस्ट) औपपातिक सूत्र अद्भुत रामायण ज्ञातधर्मकथांग अध्यात्म कल्पद्रुम आयारदसा अध्यात्म तत्त्वालोक (मुनि श्री कन्हैयालालजी 'कमल') अध्यात्मसार प्रज्ञापना सूत्र अध्यात्मोपनिषद् (उपाध्याय यशोविजयजी) अनुयोगद्वार अभिधान राजेन्द्र कोष आवश्यक सूत्र अमनस्क योग आवश्यकनियुक्ति अमितगति श्रावकाचार आवश्यकवृत्ति अष्टक प्रकरण-हरिभद्र आवश्यक मलयगिरिवृत्ति अंगुत्तरनिकाय आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति आतुरप्रत्याख्यान प्रकीर्णक आवश्यकचूणि आटानटीय सुत्त विशेषावश्यक भाष्य आत्मस्वरूप विचार व्यवहारभाष्य पीठिका आभामंडल व्यवहारभाष्य वृत्ति (युवाचार्य महाप्रज्ञ) स्थानांग वृत्ति आर्हत्दर्शन दीपिका ओपनियुक्ति भाष्य इष्टोपदेश-पूज्यपाद Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ | जैन योग : सिद्धान्त और साधना : परिशिष्ट : १ उपासकाध्ययन ( सोमदेव सूरि ) ऋग्वेद एसो पंच नमोक्कारो ( युवाचार्य महाप्रज्ञ) कठोपनिषद् कबीर की विचारधारा कायोत्सर्ग शतक कार्तिकेयानुप्रा कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका किसने कहा मन चंचल है ? ( युवाचार्य महाप्रज्ञ ) गुणस्थान क्रमारोह गुह्य समाज तन्त्र गोपथ ब्राह्मण गोम्मटसार-आचार्य नेमिचन्द्र गौड़पादीय कारिका घेरण्ड संहिता चारित्रसार चेतना का ऊर्ध्वारोहण ( मुनि नथमल ) चैनिक योग दीपिका - आई. लोहिन जैन तत्त्वकलिका ( आ. आत्मारामजी महाराज ) जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन (डा० अर्ह द्वास दिघे ) जैन योग की परम्परा ( मुनि राकेशकुमार ) जैन योग - मुनि नथमल जैन मुमुक्षुओ ने विपश्यना ( मुनि अमरेन्द्रविजय जी ) जैन साधना पद्धति में तपोयोग (मुनि श्रीचन्द्र ) जैन साहित्य का बृहद् इतिहास (पा.वि. वाराणसी) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष ( संपादक, क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी) तत्त्वार्थ सूत्र - उमास्वाति तत्त्वार्थ सूत्रभाष्य तत्त्वार्थ सूत्र - श्रुतसागरीयावृत्ति तत्त्वार्थ राजवार्तिक ( अकलंकदेव ) तत्त्वार्थ सर्वार्थसिद्धि - पूज्यपाद तत्ववैशारदी टीका तिलोयपण्णत्ति तेजोबिन्दु उपनिषद् तैतिरीय आरण्यक तैतिरीय उपनिषद् दर्शन और चिन्तन दीघनिकाय धर्म बिन्दु - हरिभद्रसूरि धर्मरत्नाकर धवला ध्यानबिन्दु उपनिषद् ध्यानशतक जिनभद्र गणी ध्यानशतक की वृत्ति - हरिभद्रसूरि नमस्कार स्वाध्याय नादबिन्दु उपनिषद् नियमसार - आचार्य कुन्दकुन्द नीतिवाक्यामृत- सोमदेवसूरि न्यायदर्शन पातंजल योगसूत्र - मूल ( हिन्दी व्याख्याकार हरिकृष्ण गोयनका ) पातंजल योगसूत्र एवं व्यास भाष्य पातंजल योगसूत्र की भोजवृत्ति पातंजल योगदर्शन की टिप्पणी ( स्वामी बालकराम ) पातंजल योगशास्त्र : एक अध्ययन ( महामहोपाध्याय डा. ब्रह्ममित्र अवस्थी) पुरुषार्थसिद्ध युपाय ( अमृतचन्द्र सूरि ) Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | ३६६ पंच संग्रह मुण्डकोपनिषद् प्रमेयरत्नमाला मूलाचार प्रवचनसारोद्धार मूलाराधना प्रश्नोत्तर श्रावकाचार मेरुतन्त्र प्रश्नोपनिषद् मंत्र यी उपनिषद् बुद्धलीलासार संग्रह मंजुश्री मलकल्प बृहद्नयचक्र मंत्रराज रहस्य बृहदारण्यक उपनिषद योग की प्रथम किरण-साध्वी राजीमती ब्रह्मजाल सुत्त योगतत्त्वोपनिषद् ब्रह्म बिन्दु उपनिषद् योगदर्शन ब्रह्मसूत्र योगदष्टिसमुच्चय-हरिभद्रसूरि ब्रह्मसूत्रभाष्य योगसूत्र-पतंजलि भगवती आराधना योगप्रदीप भगवद्गीता योगबिन्दु-हरिभद्र सूरि भगवान महावीर की साधना का रहस्य योगभाष्य की भूमिका (मुनि नथमल) (स्वामी बालकराम) भागवत पुराण योगभेद द्वात्रिंशिका भारतीय संस्कृति और साधना, भाग २ योगमाहात्म्य द्वात्रिशिका भाव चूडामणि योगलक्षण द्वात्रिंशिका भावनायोग योगवाशिष्ट (आचार्य सम्राट आनन्द ऋषि) योगविशिका-हरिभद्रसूरि मज्झिमनिकाय योगशतक-हरिभद्रसूरि मनुस्मति योगशास्त्र-आचार्य हेमचन्द्र मनोनिग्रह के दो मार्ग योगसार (मुनिश्री धनराजजी 'प्रथम') योगसार प्राभूत मस्तिष्क : प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष योगावतार द्वात्रिंशिका (श्रीराम शर्मा आचार्य) रत्नकरंडश्रावकाचार-स्वामी समंतभद्र महानिर्वाण तन्त्र रहस्यों के घेरे में महापुराण रुद्रयामल महाभारत वसुनन्दि श्रावकाचार मानव शरीर के सात तत्त्व वायुपुराण मैडम ब्लैवेटस्की विद्यानुशासन मानवीय मस्तिष्क विलक्षण कम्प्यूटर विंशतिका (श्रीराम शर्मा आचार्य) विश्वसार मुक्त्यद्वषप्राधान्य द्वात्रिंशिका विसुद्धिमग्गो Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० | जैन योग : सिद्धान्त और साधना : परिशिष्ट : वैशेषिक दर्शन शाक्योपदेश टीका शांडिल्योपनिषद् शांतसुधारस - विनयविजयजी शिवसंहिता श्वेताश्वतर उपनिषद् श्रावकाचार संग्रह श्रीचक्रसंवर श्रीमन्न्यायसुधा श्रीमन्महाभारततत्त्व निर्णय षट्चक्र निरूपण षट्खण्डागम षट् प्राभृत- द्वादशानुप्र ेक्षा षोडशक सद्धर्म पुण्डरीक समथयान समाधिमार्ग समाधिराज समाधि शतक — पूज्यपाद समीचीन धर्मशास्त्र मागार धर्मामृत - पं. आशाधर साधनमाला सामञ्ञफल सुत्त सामायिक पाठ ( अमितगति द्वात्रिंशिका ) सिद्ध सिद्धान्त पद्धति सुखावती व्यूह सूत्र संतमत का सरभंग संप्रदाय सांख्यकारिका माठरवृत्ति सांख्यसूत्र स्कन्द पुराण हठयोग प्रदीपिका हेमचन्द्र धातुमाला ज्ञानसार ज्ञानार्णव- शुभचन्द्र ज्ञानेश्वरी ( मराठी ) उपाध्याय पुष्कर मुनि अभिनन्दन ग्रंथ कर्मयोगी केसरीमल सुराना अभिनंदन ग्रन्थ Modern Review, Aug, 1932 मार्च १६६२, आज कल, कल्याण, साधनांक गोस्वामी, प्रथम खण्ड, वर्ष २४, अंक २ परमार्थ पथ, अंक १ और २ श्रमण, वर्ष १९६५, अंक १ और २ तीर्थंकर णमोकार मन्त्र विशेषांक प्रथम व द्वितीय अंक आरोग्य, मासिक पत्र अखण्ड ज्योति, जनवरी ८३ से मई ८३ तक के अंक Gorakhnath and Kanfata yogis Philosophical Essays Phoneticigm --Sunit Kumar Chatterjee Science of Seership-Hudson The Serpent Power ----Arthur Avalon Shakti and Shakta -John Woodraffe Siddha Siddhant Paddhat: and other works of Nathyogis Story of Philosophy Tantrik Texts Yoga Philosophy The Vision of India 00 -Will Durant -Sisir Kumar Mitra Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ विशिष्ट व्यक्ति नाम सूची अकलंक देव २६७ बुद्ध (तथागन) १५,१६,५० अभयदेव सूरि २३२,२६४ ब्रह्ममित्र अवस्थी २५,२६ अमितगति २२६ भद्रबाहु आचार्य १७१,२६२,२६३ अरविन्द ४८, ४६ भद्रबाहु (श्रुतकेवली) २०,२६०,२६१ अरिष्टनेमि (तीर्थंकर) १८५ मध्वाचार्य ३४ आइन्स्टीन १ महादेव (योगसूत्र के वृत्ति कार)२५ आनन्दगिरि ३७ मलयगिरि २३२ आनन्द श्रावक १२७ महावीर (तीर्थंकर) १६,२०,८०,१६४ उमास्वाति २७१ २००,२०१,२०३,२०५,२०८,२१३, ऋषभदेव (हिरण्यगर्भ) तीर्थंकर १६,२२, २१७,२२६,२३३,२४३,२६३,२६७, २३,२४,२५ २७१,२७५,२८६ कणाद १५ मेस्मर ५३ किलनर, डा० ३२८ मैग्डूगल १९७ गोरखनाथ ३३ मैडम ब्लैवेटस्की ३२५,३२६ गौड़पाद ३७ यशोविजय (उपाध्याय) १७,२१,५८ गौतम गणधर २७१ रतिराम जी महाराज ३६१ जयतीर्थ मुनीन्द्र ३५ राघवानन्द २५ जिनदास गणी महत्त र २३२ राजाराम शास्त्री २५ देवनियर ५३ राधानन्द २५ ट्रस्ट, जे. सी. ३५२,३५३ रामधारी सिंह दिनकर २४ नीलकण्ठ २३ रामानन्द २५ पतंजलि १५,२५,२६,३१,८७,६०,१०१ रामानुज २५ १३३,२७२,२७८,३०६,३०६,३११ लोबसंग ३२८ पुष्यमित्र आचार्य २६२,२६३,२६४,२६५ वादीभसिंह सूरि ३६१ पूज्यपाद २० वामदेव ४६ पंचशिख २५ विनयविजय (उपाध्याय) २१ फेलिक्स, एल. आसवाल्ड (डाक्टर)२३७ शिवकोटि (आचार्य) २३५ बनियर ५३ शिवशंकर २५ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ | जैन योग : सिद्धान्त और साधना : परिशिष्ट २ शीलांकाचार्य ८७ शुकदेव ४६ शुभचन्द्राचार्य २१,७६,२४६,२८७ श्रीकृष्ण १८५ सदाशिव २५ सनत्कुमार मुनि ३६० हडसन ८१ हरिप्रसाद स्वामी २५ हरिभद्र सूरि १८,२०,५८,७०,७६,७६, ८२,८६,९१,१७५, २२६,२६६ हेमचन्द्र आचार्य २१,६१,७९,२२६,२४४ २४६,२८७ 8 Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ २६०,३६१,३६४ ॐ - साधना ३८६- ३६१ अहं २८६- २६०, ३७०, ३७३ अहं - साधना ३६२,३६५ अकषाय १६,२२० अकस्मात्भय ३५६ अकुशल धर्म २३३ विशिष्ट शब्द सूची ३४ अचौर्याणुव्रत ११५ अजपाजप ४४, ३६१ अजरामर चक्र २७६ अजीव (द्रव्य) २२२ अणिमा ( सिद्धि ) १४, ६५ अणुव्रत ११३, ११८, १२५ अतिक्रम ११२ अतिचार ११२, ११४,११५, ११६,११७, ११८,१२०, १२१, १२२, १२३, १२४, अकुशल मन २५१, २५२ अकुशल वाणी २५१, २५२ अखण्ड जप ४४ अचल जप ४२ अननुष्ठान ६८ अचरमावर्ती ६४, ६५ अनन्तानुबन्ध २६६ अनन्तानुवर्तितानुप्रेक्षा २६६ अचौर्य महाव्रत १३३ at महाव्रत की पाँच भावनाएँ १३३ - अनर्थदण्डविरमणव्रत १२० अनवस्थितता १२२ अनशन १२५ अतीतानागत ज्ञान (विभूति) १५ अतिथि संविभाग व्रत १२४ अतिभारारोपण ( अतिचार ) ११५ अद्वन्द्वत्व (सिद्धि ) ९४ अधर्म (द्रव्य) २२२ अधिष्ठान (अभिज्ञा - लब्धि ) ६५ अध्यात्मयोग २०, २१, ८२, ८३, ८४, ६०, १७५,२२३,२२४, २२६,२२७, २२६, ३१३ अध्यात्मविद्या ६२ अनगार धर्म १०६ अनध्यवसाय १०८ परिशिष्ट ३ १६५,१७४,२३४, २३६-२४०, २५६,२७० अन्नमय कोष अनाचार ११२,११५, ११६ अनापात असंलोक १६१ अनापात संलोक १६१ अनायतन ( छह ) १०६,१०७ अनावलम्बन ६६ अनाशातना विनय २६२ अनासक्त कर्मयोग १८ अनासक्ति योग ३७,१३३,१३४,२१६ अनास्रव २१६ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ | जैन योग : सिद्धान्त और साधना : परिशिष्ट ३ अनाहत चक्र ६,३६,७६, २७६, ३२६,३२६ अपुनर्बन्धक ६६ अनाहत नाद ३६५ अपुनर्भावरूप निरोध ८६ अनित्य भावना (अनुप्रेक्षा ) ८५,८६,२१३, अपूर्वकरण १७४,१८७ २१४,२१५,२५१ अनिमेष - पुद्गल द्रव्य की प्रेक्षा २०३,२०८, २०६ अनिवृत्तिकरण १८७ अनिष्ट संयोग २७६,२८० अनुकम्पा १०५, १०६ अनुकूलन ऊर्जा ३५८ अनुप्रेक्षा १६,८४,१३२,२१२,२१३,२१५, २२३,२२४,२२५,२६५, २८७, ३०४, ३१२ अनुवीचि भाषण १३२ अनुस्मृति ५१ अनुज्ञापनी भाषा १४६ अनेकान्त १८७ अन्तर्जल्प १६८, ३६४ अन्तर्धान ( विभूति) ६५ अन्तरायकर्म ६८,२८६,३०२,३८२ अन्यत्व अनुप्रेक्षा ( भावना ) ८५,८६,२१३, २१८ अनंगक्रीड़ा ११६ अपक्वाहार १२० अपयश ( अश्लोक ) भय ३५६ अपध्यानाचरित १२० अपराभव ( सिद्धि) ६४ अपरिग्रह महाव्रत १३५,१३६,१४० अपरिग्रह महाव्रत की पांच भावनाएँ १३६ अपरिग्रहव्रत ६५ अपरिग्रहीतागमन ११६ अपायविचय ( धर्मध्यान ) २८४,२८५ अपायानुप्रेक्षा २६६ अप्रमत्तविरत गुणस्थान ३०८ अप्रमाद १६, २००,२०५, २२० अभिग्रह १३७ अभिज्ञा (लब्धि ) ६५ अभ्यास ८४ अभ्यासयोग १४, ३१ अभ्यासवर्तित २६३ अभेदध्यान ४७ अमृतानुष्ठान ६८, ६६ अयोग १६,६७,७०,२२० अयोग केवली ३०७ अयोग गुणस्थान ५२ अयोगी ३०३ अर्थ ६६ अर्थविनय २६१ अर्द्ध पद्मासन १७१ अर्हत् ३७० अर्हत् लब्धि ६८ अवगाढ़ रुचि २८३ अवधि लब्धि ६८ अवधिज्ञान ६८, १२७,१५३ अवधूतमत ३३ अवधूत संप्रदाय ३३ अवमौदरिका तप २३६, २५६ अवमौदर्य तप २३६ अविरति ५७, २१६, २५६ अव्यथ २६७ अव्यवहार राशि २२२ अष्टदल कमल ३८६,३८६ अष्टांग योग १४, २१, ३१, ५१, ६७, १२६, Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्ट शब्द सूची | ४०५ १३१, १३२,३०४ आजीविका भय ३५६ अष्टांगिक मार्ग १६,१८ आत्मयोग १४,३१ अष्ट प्रवचन माता १५४,१५५ आत्मसंयमयोग १४,३१ अशरण अनुप्रेक्षा (भावना) ८५,८६,२१३, आदान-निक्षेपण समिति १५४,१५८,१६० २१५, २१६, २२४,२५१,२८६ आदान निक्षेपण समिति भावना १३१ अशुचि अनुप्रेक्षा (भावना) ८५,८६,२१३, आदान-निक्षेपण समिति के पालन के २१८,२१६,२२४ चार प्रकार १६० अशुभानुप्रेक्षा २६६ आदान (अत्राण) भय ३५६ असतीजन पोषणता कर्म १२० आधार चक्र २७६ असंगानुष्ठान ७५ आध्यात्मिक योग ४६,६१,६३ असंप्रज्ञात (योग समाधि) २१,३१,६०, आध्यात्मिक विज्ञान ३७३ ३०४,३०५,३०६, ३०७,३०८,३०६ आनन्द ३०४,३०५ ३१०,३११ आनन्द केन्द्र ३८१,३६३ असम्मोह २६८ आनन्दमय कोष ६ अस्तेयव्रत ६३ आनन्दानुगत ३०५ अस्पर्श योग ३७ आनपान (श्वासोच्छ्वास) बलप्राण ३१६ अस्वादवृत्ति २४३ आनयन प्रयोग (अतिचार) १२३ अस्मिता ३०४ आन्तर् धारणा ४६ अस्मितानुगत ३०५ आन्तरिकव्रण (ulecrs) ३५८ अहिंसा २२१ आपात असंलोक १६१ अहिंसाणुव्रत ११३,११४,११८ आपात संलोक १६१ अहिंसा महाव्रत १३०,१३१,१४० आपाश्रय १६३ अहिंसा यम १४६,१४७ आभामण्डल २७४,३३४,३३५,३३६,३३६, अहिंसावत ६४ ३४१,३४२,३४३,३४५,३४७,३५२, अक्षीणमहानस लन्धि १०० ३७१,३६३ अज्ञान की ग्रन्थि १७७ आभ्यन्तर तप २३४,२३५,२५७,२५८, अंगार कर्म ११६ २६१,२७० आकाश (द्रव्य) २२२ आमोसहि (लब्धि) १७ आकाशगमन (विभूति) ६५ आयतचा ३६० आगमानुसारित्व ८३ आयु कर्म २८८,३०३ आगार चारित्र ११० आयुबल प्राण ३१६ आगार धर्म १०६ आरंभ १४६,१५६ आग्नेयी धारणा २८८,२८६ आरम्भत्याग प्रतिमा १४२,१४६ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ | जैन योग : सिद्धान्त और साधना : परिशिष्ट ३ आरम्भीहिंसा ११४ इच्छायोग ७०,७१,६६ आर्जव १६५,१६६,२६८ इज्झनठेन ऋद्धि ६६ आर्त गवेषणा २६३ इत्वरिक (अनशन तप) २३८ आर्तध्यान १६२,२७६,२८०,२८१,२८२ इत्वरिकपरिग्रहीतागमन ११६ आर्य ऋद्धि ६६ इन्द्रियदमन ३७६ आलम्बन ६६ इन्द्रियनिरोध १३७ आलम्बन ध्यान २७७ इन्द्रिय प्रतिसंलीनता तप २४८,२४६ आलम्बन योग १७० इन्द्रिय प्रत्याहार १३७ आलोकित पान भोजन भावना १३२ इन्द्रिय संयम २३४ आलोचनाह २६० इष्टवियोग (आर्तध्यान) २७६,२८० आवश्यक १६२,१६३ इहलोक भय ३५६ आशीविष लब्धि ६८ इहलोकाशंसा प्रयोग १२५ आसन १५,१६,२०,२१,३२,३८,६३,६४, ईडा नाड़ी ३२०,३२४ ६५,१२६,१४६,१५३,१६५,१७१, ईथर ३४६ १७५,२३४,२३५,२४४,२४५,२४७, ईर्या समिति १५४,१५८ २८४,३१८-३२०,३७७,३८३ ईर्या समिति भावना १३१ आसन-शुद्धि ३१७,३१८-३२०,३३१ ईर्या समिति के पालन के चार प्रकार आस्तिक्य १०५,१०६,२२२ १३८,१५६ आस्रव १३७,१७३,२१६,२२०,२७२ ईश्वर प्रणिधान २६ आस्रव अनुप्रेक्षा (भावना) ८५,८६,२१३, ईश्वरभक्तियोग २४,२५ २१६,२२० ईषिता (सिद्धि) ६४ आहार-प्रत्याख्यान १७४ ईसाई धर्म ५२ आहार-संयम १४५,१४६ उत्कटिकासन २४४,२४५,३१८,३१६ आहारक लब्धि ६६ उत्तरव्रत १४३ आहारक समुद्घात ६६ उद्दिष्टभक्तत्याग प्रतिमा १४२,१४७ आज्ञाचक्र ६,७६,२७६,३२६,३२६,३४१, उद्योगी हिंसा ११४ . ३४५,३७७,३८६,३६३ उपकरण अवमौदरिका २३६ आज्ञारुचि २८३ उपधित्याग (प्रत्याख्यान) १७४ आज्ञा विचय (धर्मध्यान) २८४,२८५ उपधि व्युत्सर्ग २६८,२६६ ऑरोस्पेक चश्मा (aurospec goggles) उपभोग-परिभोगपरिमाण व्रत ११८ ३२८,३२६,३३६ उपभोग-परिभोगातिरेक १२१ इच्छापरिमाणवत ११६ उपभोग-परिभोग संबंधी २६ वस्तुएँ इच्छायम ७१ ११८-११६ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्ट शब्द सूची | ४०७ उपरान्त ज्ञान (विभूति) ९५ कर्मविपाकजा ऋद्धि १६ उपवास (तप) २३६,२३७.२३८ कर्म व्युत्सर्ग २७० उपशान्त कषायी २६६ कर्मादान ११६ उपसर्ग १४६,१५१,१५३,१६१,१६२, कलमा (मुस्लिम महामंत्र) ३६८ १६३,१६६,२६७,३०४,३८२ कषाय (आस्रव) ५७, २१६, २५६ उपाय ५० कषाय-प्रतिसंलीनता तप २४८,२५०, उपायप्रत्यय ३०६ २५१ उपांशु जप ४३,३७६,३६४ कषाय-प्रत्याख्यान १७५ उपेक्षावृत्ति २२६ कषाय-प्रक्षा २०३, २०७, २०८ ऊनोदरी १७४,२३४,२३६,२४० कषायविवेक १२६,१३७ ऊर्ण ६६ कषाय-व्युत्सग २७० ऋजुयोग ४१,२५१ कषायात्मा २७३, ३३४ ऋजुमति लब्धि ६८ कषायावरण ३६६ ऋद्धि ६३,६५,६६ क्यूसोस (जूडो) ६, ७ एकत्व अनुप्रेक्षा (भावना) ८५,८६,२१३, कान्तादृष्टि ७१, ७४, ७५ २१७,२१८,२८६ कापोत लेश्या ३३७, ३४१, ३४७ एकत्व वितर्क अविचार (शुक्लध्यान) कामभोगतीव्राभिलाषा ११६ ३००,३०२,३०७ ३०६ कामभोगाशंसाप्रयोग १२५ एषणा समिति १५४, १५८, १५६ कामविनय १६१ एषणा समिति भावना १३१ कामावसायिता (सिद्धि) ६४ एषणा समिति के पालन के चार प्रकार कायक्लेश तप २३४, २४४, २४५, २४७, २५६ ऐश्वरीय योग १४, ३१ कायगुप्ति १५४, १५६, १५७ औचित्य (सम्यग्बोधपूर्वक) ८३ काय-प्रेक्षा (शरीर-प्रेक्षा) २०३,२०४, कन्दर्प १२१ २०५ कन्यालीक ११५ काय दुष्प्रणिधान (अतिचार) १२२ करण १३० कायबल प्राण ३१६ करण सत्य १२६, १३७ काययोग १६ करुणा भावना ८३ काययोग की साधना २५३ कर्मकाण्ड १८ कायविनय २६१,२६२ कर्मग्रंथियाँ २३१, २३२, २५८ काय-शुद्धि १६६ कर्ममार्ग ५२, ६२ कायसमाहारणता. १२६, १३८ कर्मयोग १४, २६, ३१, ३६, ६२ कायसमिति १५८ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ | जैन योग : सिद्धान्त और साधना : परिशिष्ट ३ काय-संयम १६६ कृत-कारित-अनुमोदित २७ कायव्यूह ज्ञान (विभूति) ६५ कृत-प्रतिकृत्य २६३ काय-सम्पत (विभूति) ६५ कृष्ण लेश्या ३३७, ३३८, ३३६, ३४०, कायिक ध्यान २७२ ३४७ कायोत्सर्ग २०, १२६, १४३, १५१, केवल लब्धि ६८ १६४, १६५, १७०-१७३, १७५, क्रोधवश भाषण वर्जन १३२ २३४, २६६, ३६० खड्गासन १७१, २४४ कायोत्सर्ग मुद्रा २४ खेलोसहि (लब्धि) ६७ कायोत्सर्गासन २४४, ३१८, ३१६, ३२०, गणधर लब्धि ६८ ३७७, ३८८ गण व्युत्सर्ग २६८ कारुण्य भावना २२५, २२६, २२८, गरानुष्ठान ६८ २२६, २३०, ३१२ गवालीक ११५ कार्य हेतु २६३ गाइनोफीबिया ३५६ काल-ऊनोदरी २३६ गायत्री (वैदिक महामंत्र) ३६८ काल द्रव्य २२२ गारव १६७ काल-शुद्धि १२२, १६७, ३७७, ३८३ गीतोक्त योग ३० कालातिक्रम १२५ गुणवत ११३, ११७, ११८, १२५ क्रियाऽवंचक ७८ गुणस्थान २६६, ३००, ३०३, ३०७, क्रियायोग १५३, २७० ३०८, ३०६, ३१० कुण्डलिनी १३, ३७, ७६-८२ ३१७, गुणस्थान क्रमारोह ३०८, ३०६ ३२५-३२६ गुप्ति ५८, १३७, १५४, १५५, १५६, कुण्डलिनी ध्यान चक्र २१ १५८ कुण्डलिनी शक्ति ३३, ३४, १४५, ३८८ गुरुमूढ़ता १०६ कुप्य-भांडपरिमाणातिक्रम ११७ गुरुवन्दन १२६, १४३, १७५ कुल (कुण्डलिन का ऊर्ध्व संचालन) ३६ गृहस्थधर्म (विशेष) ११०, ११२ कुलयोगी ७६, ७७ गृहस्थधर्म (सामान्य) ११०, ११२ कुष्ट व्याधि ३६०, ३६१ गोचरी २४१, २४२ कुशल धर्म २३३ गोदोहिकासन २२४, २४५ , ३१८, कुशल मन २५२ ३१६ कुशल वचन २५२ गोत्र कर्म २८८, ३०३ कूटतुला कूटमान (अतिचार) ११६ गोत्रयोगी ७६, ७७ कूट साक्षी ११५ ग्रन्थि १७७, १७८, १७६, १८०, १८१, कूट साक्षी (अतिचार) ११५ १८२, १८३, १८४, १८५, १८६, Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्ट शब्द सूची | ४०६ १८७, १८८ छद्मस्थ ३०० ग्रंथिभेद ३०६ छेदोपस्थापना चारित्र १३८, १३६ ग्रन्थिभेद योग १७७, १८०, १८४, जपयोग ४१, ४२, ४३, ४४, ३६५, १८५, १८६, १८७, १८० ३७० ग्लैण्ड्स ७ जयणा योग १५४ घन तप २३८ जरथुस्त्र धर्म (पारसी धर्म) ५२ घ्राणेन्द्रिय बलप्राण ३१६ जल्प ३७० चक्र ५, २७४, ३१७, ३२४, ३२६, जल्लोसहि (लब्धि) ६७ । ३२७, ३६६, ३८६, ३६४ | जीवकोषीय मन ३५५, ३५६ चक्रवर्ती लब्धि ६८ जीव (द्रव्य) २२२ चतुर्विंशतिस्तव १२६, १४३, १६४, जीविताशंसाप्रयोग १२५ १६६, १७५ ज्योतिदर्शन ३७१ चन्द्र नाड़ी ३२० ज्योतिर्ध्यान ४७ चन्द्रस्वर ३२० जंघाचारण लब्धि ६८ चरमदेह १७ तत्त्वरूपवती धारणा २८८, २८६ चरमावर्ती ६४, ६५ तत्प्रतिरूपक व्यवहार (अतिचार) ११६ चल जप ४३ तद्ध तु अनुष्ठान ६८ चक्षुरिन्द्रिय बल प्राण ३१६ तनाव (व्याधि) ३५७, ३५८, ३५६, चारण लब्धि ६८ चारित्र ८४ तन्त्रयोग १५, २४, २५, ३८, ३६, ४० चारित्र धर्म २११ ४१, २१ चारित्र भावना ३१२ तन्त्रयोग (वाममार्ग) ४० चारित्रविनय २६१, २६२ तंत्रशास्त्र २१ चारित्र समाधि ३१२ तप १७, १८, ५६, ८४, ६०, ६१, ६३, चारित्र सम्पन्नता १२६, १३८, १३६, १०१, १६७, २२१, २३१-२४६, १४० २५६-२५६, ३०४, ३१२ चित्तशुद्धि ६७, २३३ तप (श्रमणधर्म) १६५, १६८ चित्रणी नाड़ी ३२४ तपःशूर २३३ चेष्टारूप वृत्ति ८६, ६०, ३०६, ३०७ तपोयोग १८, १९, २०, २१, ९०, चैतन्य केन्द्र २७४, ३६६ १४७, १५२, १५३, १६५, २३१, चैतन्य धारा ३७१ २३२, २३३, २३५-२३७, २४०, चौदह नियम ११६ २४२, २४४, २४७, २५८, २५६, छविच्छेद (अतिचार) ११४ २६४, २७०, २७१, २८२, ३१३ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० | जैन योग : सिद्धान्त और साधना : परिशिष्ट ३ तपोशक्ति २३१ तस्कर प्रयोग ( अतिचार) ११६ दान ८४, २२१, ३७६ दार्शनिक प्रत्यभिज्ञा ३६१ दार्शनिक योगी १४२ दावाग्निदापन कर्म १२० तारकयोग ४१ तारादृष्टि ७१, ७२ ताराव्यह ज्ञान (विभूति) ६५ दिपरिमाण व्रत ११७ तितिक्षा १३६, १५३, १६१, १३, १९६, दिक्परिमाणव्रत के पाँच अतिचार ११८ दिशापरिमाणव्रत १२३ १६७, ३७७, ३६३ तितिक्षायोग १८६, १६३, १६४, १६५ द्विपद-चतुष्पद परिमाणातिक्रम ११ ११७ १६, १७, १८, १६६ तीर्थंकर ह तीर्थंकर नाम कर्म २६३ तीर्थकर गोत्र बंध २६४ तीसरा नेत्र ३२२ तुच्छौषधिभक्षण ( अतिचार ) १२० तेजोलब्धि ६६, १०० तेजोलेश्या ८०, ८१, ६६, १००, ३३७, देशविरति ६६ ३४२, ३४३, ३४७, त्यागवृत्ति १०७, १२४ त्याग ( श्रमण धर्म) १६५, १६८ त्राटक २७७ त्रिकालज्ञत्व (सिद्धि) ९४ थैनिटोफीबिया ३५६ दत्ति १४६, १५१ दर्शन केन्द्र ३४४, ३७६, २८० दर्शनप्रतिमा १४२ दर्शनभावना ३१२ दर्शनविनय २६१, २६२ दर्शनसमाधि ३१२ दर्शन संपन्नता १२६, १३८ दर्शनावरण धर्म ८६, ६८,२८८, ३०२ दर्शनोपयोग २०१ . दंडासन २४४, २४५, ३१८, ३१६, ३२७ दन्तवाणिज्य १२० दिव्यासोत ( अभिज्ञा ) ९६ दिव्वचक्खु (अभिज्ञा ) ९६ दीप्रादृष्टि ७१ ७२ दुःख - संयोग-वियोगयोग १४, ३१ दुष्पक्वाहार १२० देव मूढ़ता १०६ देष - कालज्ञाता २६३ देशावकाशिक व्रत १२३ देहजाड्यशुद्धि १७१, १७३ दैवयोग १४, ३१ द्रव्य ऊनोदरी २३६, २४० द्रव्य व्युत्सर्ग २६८ द्रव्य-शुद्धि १२२, १६७, ३७३, ३८३ धन-धान्य परिमाणातिक्रम ११७ धनादि की एषणा १०७ धर्म अनुप्र ेक्षा ( भावना ) ८६, २१३, २२१, २२२ धर्म २२१, २२२ धर्म (द्रव्य) २२२ धर्मकथा २६६, २८६ धर्मध्यान ५६, १३७, १४४, १५८, २१३, २२६, २२७, २७६-२६५, ३०३, ३०४, ३११, ३१३ धर्मध्यान ( संस्थान विचय) २१ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मव्यापार ३१२ धर्मसंन्यासयोग ७०, धर्मात्मा २२२ धारणा १३, १६, २१, ३८, ५१, ७५, ३, १७५, २७६, २७७, २८७, २०, ३१२, ३६० ३६ धूत- अवधूत १८ ध्याता १५२, २८३, ३७० ध्यान १३, १५, १६, १७, १८, २०, २१, ३२, ३८, ५१, ५६, ५७, ५६, ७५,८७,८८, ६०, ६३, १२३, १२६, १४३, १४७, १४८, १५३, १६५, १७१, १७२, १७६, २०६, २२६, २३४, २४३, २७१-२९५, २०४, ३०३, ३०४, ३०७, ३११, ३६० ध्यान ( तप) २३४, २६७ ध्यानमुद्रा ११ ध्यानयोग १४, १६, २१, २५, ३१, ४७, ४६, ८२, ८६, ८७, ८८, १४७, १५०, १५२, १५३, १५८, १७१, १७५, २००, २७१-२६५, २६६, ३०४ ध्यानयोग साधना २० ध्येय १५२, २४, ३७० निविज्ञान ३७६ नवकरवाली ४६ नवकार मंत्र १७१, ३६८, ३८६ नवकार मंत्र की साधना ३७३-३८४ नवपद ३८४, ३८६, ३८६ नवपद साधना ३८४-३८६ नाचिकेत अग्नि ८१, ३२५ विशिष्ट शब्द सूची | ४११ नाड़ी शुद्धि ३३, ३१७, ३२०-३२२,. ३३१ नाथयोग ३३, ३४ नाथसिद्धान्तयोग ३४ नाद ३६, ३७ नाभिकमल ६, ३८२, ३८८, ३६३, ३६४ नाम कर्म २८८, ३०३ नित्य जप ४२ नित्य योग १४, ३१ निदान (आर्तध्यान ) २५० नियम २१, ३८, ६५, ७२, ६३, ६४, ५, १२६, ३०४, ३१२ नियम (दस) ३८ नियम प्रतिमा १४२, १४४ निरवकांक्ष ( अनशन तप ) २३८ निरवलम्बन ध्यान २७७, २८७ निर्जरा १६, २२१ निर्जरा अनुप्र ेक्षा ( भावना ) ८५, ८६, २१३, २२१ निर्जरायोग २६, १६६ निर्बीज समाधि ३१, ३०४ निर्विकल्प समाधि ३१, १५३, ३०४ निर्विचार समाधि ३०४, ३०५ निर्वितर्क समाधि ३०४ निर्वेद १०५ निलच्छन कर्म १२० निष्पन्नयोगी ७६, ६६ निसर्गरुचि २८३ निस्पृह योग १३५ नील लेश्या ३३७, ३४०, ३४१, ३४७ नैमित्तिक जप ४२ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ | जैन योग : सिद्धान्त और साधना : परिशिष्ट ३ नोकर्म ३०७, ३६३ १८६-६०, १६६, २६७, ३०४, नोजोफीबिया ३५६ ३८२ न्यायदर्शन १५ पर्याय ऊनोदरी २४० न्यासापहार ११५ पर्यंकासन २४४, २४५, ३१८, ३१६, न्यूट्रिनो कण ३२६, ३३४ ३२७ न्यूरोसिस ३५८ पापकर्मोपदेश (अतिचार) १२१ पद-लब्धियाँ १०० पायच्छित्त २५६ पदस्थ ध्यान २१, २६०, २६१ पारांचिकाह २६० पदानुसारिणी लब्धि ६६ पार्थिवी आदि धारणाएँ २१ पद्मलेश्या ३३७, ३४३, ३४४, ३४७ पार्थिवी धारणा २८७, २८८ पद्मासन १७१, १६१, २४४, २४५, पिंगला नाड़ी ३२० ३१८, ३१६, ३२७, ३७७, ३८८ पिंड विशुद्धि १३७ परकाय प्रवेश (विभूति) ६५ । पिण्डस्थ (ध्यान) २१, २६० परचित्त अभिज्ञान (सिद्धि) ९४ पिपीलिका मार्ग ४६ परचित्त ज्ञान (विभूति) ६५ पुण्यवती ऋद्धि ६६ परचित्त विज्ञानन् (अभिज्ञा) ६६ पुत्र षणा १०७ परछन्दानुवर्ती २६३ पुद्गल प्रक्षेप १२३ पर-दया २२८ पुद्गलावर्त ६५ परलोक भय ३५६ पुलाक लब्धि १०० परलोकाशंसा प्रयोग १२५ पुव्वनिवासानुस्सती (अभिज्ञा) ६६ परविवाहकरण ११६ पूर्ण ध्यान २७२ परव्यपदेश १२५ पूर्णयोग ४८, ४६ परादृष्टि ७१, ७६ पूर्व जाति ज्ञान (विभूति) ६५ परावलम्बन ध्यान २७७, २८८ पूर्वधर लब्धि ६८ परिष्ठापनिकासमिति १५४, १५८,, पूर्व सेवा ६४ पृच्छना २६५, २८६ परिष्ठापनिका समिति के पालन के चार पृच्छनी भाषा १४६ प्रकार १६१ पृथक्त्व वितर्क सविचार (शुक्लध्यान) परिमार्जन योग १६२ ३००, ३०२, ३०२, ३०६ परिवर्तना २६५, २८६ पृष्ठ व्याकरणी भाषा १४६ परिहारविशुद्धि चारित्र १३८, पैकाटोफीबिया ३५६ पैथोफीबिया ३५६ परीषह १३६, १४०, १५३, १७१, प्रोजीरिया ३५६ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौरुषघ्नी भिक्षा २४१ पौषध प्रतिमा १४२, १४४ पौषधोपवास १२३, १२६ पौषधोपवासव्रत के पाँच अतिचार १२४ पंचेन्द्रिय निग्रह १२६, १३७ प्रकीर्णक तप ( अनशन तप ) २३८, २३६ प्रणव ३६० प्रणिधान ( चित्तशुद्धि) ६७ प्रतर- तप ( अनशन तप ) २३८ प्रतिकूल वेदना ( आर्तध्यान ) २८० प्रतिक्रमण १२६, १३६, १४३, १६५, १७०, १७५ प्रतिक्रमणार्ह २६० प्रतिमा (ग्यारह ) १२६, १२७ प्रतिमायोग १४१-१५३, ३०४ प्रतिसंलीनता १३४२४७-२५६, २५६, प्रत्याख्यान १२६, १४३, १६४, १६५, १७३, १७४, १७५ १६४, प्रत्याहार १३, १६, २१, ३२, ३८, ५१, ७३, १५, १६५, २४७, ३१७, ३६० प्रभादृष्टि ७१, ७५ प्रभामंडल ३३५ प्रमाद ५७, २१६, २५६ प्रमादाचरित १२१ प्रमोद भावना ८३, २२५, २२६, २२७, २२८, २३० प्रवृत्तचक्रयोगी ७६, ७७, ७८, ७६ प्रवृत्तचत्रयोगी के आठ गुण ७८ प्रवृत्ति (चित्तशुद्धि) ६७ प्रवृत्तियम ७१ प्रशान्तवाहिता ३१० प्रज्ञा ३०६ विशिष्ट शब्द सूची | ४१३ प्रज्ञाप्रकर्ष ३०७ प्रज्ञाप्रकर्षरूप वृत्ति ६० प्राकाम्य ( सिद्धि ) ६४ प्राण १३१, ३१६, ३३१, प्राणबल ३६१ प्राणमय कोष ८, ६, ३२७ प्राणवायु ३१७, ३१८ प्राण-शक्ति ३०६, ३१५-३३१, ३४८, ३६३ प्राणायाम २१, २८, ३२, ३३, ३७, ३८, ५२, ७१, ६३, ९४, ९५, १२६, १५४, १७१, १७५, २०६, २४६, २४७, ३१७, ३२१, ३२२, ३३१, ३६१, प्रातिष्टम्भ (सिद्धि ) ६४ प्रायश्चित्त २३४, २५८, २५६, २६० प्रायश्चित्त तप ४२ प्र ेष्य परित्याग प्रतिमा १४२, १४६ प्रेष्यप्रयोग १२३ प्रेक्षा २००, २०१, २०२, २०३, २०४, २०५, २०६, २०७, २०८, २०६, २१०, २१२, २१५, २५१, २५३, २७५ प्रेक्षाध्यान २००, २०१, २२, २०३, २०४, २०५, २०६, २१०, १११, २१५ प्रेक्षायोग ३०४ फलावंचक ७८ फेबिया फोबिक न्यूरोसिस ३५६ बन्ध (अतिचार) ११४ बलदेव लब्धि ६६ बलादृष्टि ७१. ७२ बहिर्जल्प १६८ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ | जैन योग : सिद्धान्त और साधना : परिशिष्ट ३ बहिर् धारणा ४६ भाव क्रिया २०६, २१० ब्रह्म ग्रंथि १७८, १७६ भानों की धारा (कषायधारा) ३३२, ब्रह्मचर्य (श्रमणधर्म ) १६५, १६८ ३३३, ३३४ ३४७ ब्रह्मचर्य प्रतिमा १४५ भावना (अनुप्रक्षा) ६०, १३७, २१३, ब्रह्मचर्य महावत १३४ २१७, २१८, २२४, २२६, २६६; ब्रह्मचर्य महाव्रत की पाँच भावनाएँ १३५ ३०४, 3१२ ब्रह्मनाड़ी ३२४, ३२५ भावना योग १६, २०, २१, ८२, ८३, ब्रह्मयोग १४, ३१ ८४, ८५, १७५, २१२ २२४, ब्राह्मतप २३४, २३५, २३६, २५६, ३२७, ३२८, २५७ २६० भाव प्राणायाम २६ बीजबुद्धि लब्धि ६६ भावयोगी ६६ बुद्धियोग १४, ३१ . भाव व्युत्सर्ग २६८, २७० बोधिदुर्लभ अनुप्रंक्षा (भावना) ८६, भाव शुद्धि १२२, १६७, ३७७, ३८३, २१३, २२२ भाव सत्य १२६, १३७ बौद्ध दर्शन १५, २६ भाषा समिति १५४, १५८, १५६, १६७ बौद्धयोग ५०-५१ भाषा समिति के पालन के चार प्रकार भक्तपान अवमौदरिका २३६ . १५६ भक्तपान विच्छेद (अतिचार) ११४ भ्रामरी जप ३६५ भक्तपान व्युत्सर्ग २६८, २६६ भिक्षाचरी १७४, २२३, २४१, २४२ भक्तिमार्ग ५२, ६२ भिक्षु (श्रमण) प्रतिमा १३७, १४१, भक्तियोग १४, १८, २५, २६, २६, ३४ १४८-१५३ ३५, ४६, ६२, १४३, १६४, १६६ भुवनज्ञान (विभूति) ६५ . १७०, २६४, भूम्यालीक ११५ भद्रासन ३१८, ३१६ भेदविज्ञान १७१, २१०, २१८, २३६ भवप्रत्यय २७, ३०६ मणिपूर चक्र ६, ७६, २७६, ३२६, भवोपनाही कर्म ३०३, ३०७, ३०६, ३२६, ३८२, ३६३ ३१० मतिजाड्यशुद्धि १७२, १७३ भयवशभाषणवर्जन १३१ मत्सरता १२५ भयविनय २६१ मद (आठ) १०६-१०७ भाटक कर्म ११६ मन-वचन-काय (व्यापार) १७ भाव ८४, २२१ मनःचक्र ३२६, ३२७, ३२६, ३४५, भाव अवमौदरिका २३६ भाव ऊनोदरी २४० मनःप्रत्याहार १३८ ३६४ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्ट शब्द सूची | ४१५ मनःशुद्धि १६८ २२७, २२६, २३०, ३१२ मनःसमाहरणता १२६, १३८ मान कषाय प्रतिसंलीनता तप ३५० मनःसमिति ५६, १५७, १५८ मानस जप ४४ मनःसंवर १७ मानसिक ध्यान २७२, मनोगुप्ति ५६, १२४, १५६, १५७ मानसिक संकल्प-विकल्पों की प्रेक्षा मनोगुप्ति भावना १३१ । ३०३, २०७, ३०८ मनोग्रंथि १७७, १५८, १८१, १८२ माया कषाय प्रतिसंलीनता तप २५० मनोदुष्प्रणिधान १२२ मारणान्तिक समाध्यासना १४० मनोबलप्राण ३१६ मार्जन (Pass) ५४ मनोमय कोष ८, ६ मार्दव १६५, १६६, २६८ मनोमया (लब्धि) ६५ मिच्छामि दुक्कडं २६० मनोविनय २६१, २६२ मित्रादृष्टि ७१, २२६ मनोयोग १६, ३०२ मिथ्यात्व ५७, ६५, 3१६ मनोयोग साधना २५२ मुक्ति (निर्लोभता) १६५, १६६, ३६८ मरणभय ३५६ मुद्रा ३२ मरणाशंसा प्रयोग १२५ मूढ़ मन ६१ मर्मस्थान ५ मूलवत १४३ मस्तिष्कीय मन ३५४, ३५५, ३५६ मूलाधार चक्र ६, ३७, ७६, ३२३, ३२६, महाप्राण ध्यान साधना २०, २६१, ३२६ २६५ मृषानुबन्धी (रौद्रध्यान) २८१, २८२ महाप्राण ध्वनि ३६४ मृषोपदेश (अतिचार) ११५ महाव्रत २७, १५५ मेस्मेरिज्म ५३, ५४ महाव्रत (पाँच) १२६, १३०, १३६, मैत्री भावना ८३, २१५, २२६, २२७, १३७ २३०, ३१२ महिमा (सिद्धि) ६४, ६५ मैत्री आदि भावना संयुक्तत्व ८३ मंत्र ३६५-३७२ मोनोफीबिया ३५६ मंत्रयोग ४४-४६ मोहनजोदड़ो २४ मंत्रयोग के सोलह अंग ४४-४६ मोहनीय कर्म ८६, १८, २८८, ३०२, मंत्र शक्ति ३७२ ३०७ मंत्र-साक्षात्कार ३७० मोक्ष विनय २६१ मंत्रसिद्धि ३७०, ३७१ मौखर्य १११ माधुकरी २४१, २४२ यतना १५४ माध्यस्थ (उपेक्षा) भावना ८३ २२५, यथाख्यात चारित्र ८६, १३८,१३९ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ | जैन योग : सिद्धान्त और साधना : परिशिष्ट ३ यथापूर्वकरण १८७ योगावंचक ७८ यन्त्रपीड़न कर्म १२० रत्नत्रय १८, ६० यम २१, २८, ३८, ६५, ७१, ६३, ६४, रस परित्याग तप २३४, २४२, २४३, १२६, १३१, १३२, ३०४ २५६ यम (दस) ३८ रस वाणिज्य १२० यज्ञ याग १८ रसनेन्द्रिय बल प्राण ३१६ यज्ञयोग १४, ३१ रहस्याभ्याख्यान (अतिचार) ११५ याचनी भाषा १४६ रागात्मिका भक्ति ४५ यातायात मन ६१, ६२ राजयोग २४, २६, ३२, ३३, २७७ यावत्कथिक (अनशन तप) २३८ २३६ रुद्रग्रंथि १८० योग १३० रूप लावण्य (विभूति) ६५ योग (आस्रव) २१६ रूपस्थ ध्यान २१, २६०, २६१ योग (व्युत्पत्ति, परिभाषा, विभिन्न अर्थ, रूपातीत ध्यान २१, २६०, २६१ परम्परा आदि) १२-१४, ५६ रूपानुपात (अतिचार) १२३ योगचक्र ७ रेटिक्यूलर फॉर्मेशन ३६१ योगदर्शन १५, २१, २५, २६, २८ रौद्रध्यान २७६, २८१, २८२ योग दृष्टि ७१, ७६, ६१, २२६ लगुडासन २४४, २४५, ३२७ योग प्रतिसंलीनता तप २४८, २५१, २५२, लघिमा (सिद्धि) ६४ २५३ लब्धि २८, ६३-१०१, ३१८ योग प्रत्याख्यान १७४ लययोग ३६, ३७, १४० योग बीज ६४ ललना चक्र ७६ योग भावना २२५, २२६, २३०, ३१२ । लाघव (ऋद्धि) १६५, १६७ योग मार्ग ३३, ४६, ५० लाक्षावाणिज्य १२० योग मुद्रा २८४ लेश्या २७४, २८१, ३३२, ३३४, ३३६, योग विद्या २२, २३, २४ ३३७, ३३८, ३३६, ३४०, ३४१, योग विभूति २८ ३४५ योग-वियोग-अयोग ५१-५२ लेश्या ध्यान ३३२-३४७ योग सत्य १२६, १३७, १४० लोक अनुप्रेक्षा (भावना) २१३, २२२ योग संग्रह ६२-६४ लोक दर्शन २०४ योग संन्यास (नैश्चयिक शुद्ध व्यवहारमय लोकपक्ति कृतादर ६५ विशिष्ट योग) ७६ लोक भावना ८५ योग संन्यास योग ७० लोकेषणा १०७ योग संप्रदाय ३३ लोकोपचार विनय २६१, २६३ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...... विशिष्ट शब्द सूची | ४१७ विकल्प रूप वृत्ति ८६, ६०, ३०६, ३०७ विकुर्वण (लब्धि) ६५ विकृति २४३ विघ्नजय (चित्त शुद्धि) ६७ .. विचय ध्यान २००, २११ विचार ३०४ विचार संप्रेषण ३४६ विचारों की धारा (ज्ञान धारा) ३३२, लोगस्स १७१ लोभ कषाय प्रतिसंलीनता तप २५० । लोभवश भाषण वर्जन १३२ . लोहानीपुर २४ वचन ऊनोदरी २४० वचन गुप्ति १५४, १५६, १९७: वचन दुष्प्रणिधान १२२. वचन बल प्राण ३१६ वचन योग १६, १४७, १६८, १६६, २६२, ३०२, ३६६ वचनयोग साधना २५३ वचन विनय २६१, २६२ बचन शुद्धि १२८, १६६ वचन समिति १५८, १६७ वचन सिद्धि ३६५ वज्र संहनन २७ वजा नाड़ी ३२४ वज्रासन २४४, २४५, ३१८, ३१६ वन्दन (आवश्यक) १६४, १७० वर्गतप २३८ वर्ग-वर्ग तप २३८ वर्तमान क्षण की प्रेक्षा २०३, २०६ वशिता (सिद्धि) ६४ वाक्समाहरणता १२६, १३८ वाचना २६५, २८६ वाविक जप ४३ वाचिक ध्यान २७२ वाम-कोल ३८, ३६ वाम-कोल तन्त्र योग ३८, ५६ वाम मार्ग ३८, ३६, ४०, ४१ वायवी धारणा २८८, २८९ बारुणी धारणा २८८, २८९ वासुदेव लब्धि ६६ ... वितर्क ३०४ विद्याचारण लब्धि ६८ विद्यामया ऋद्धि ६६ विनय २३४, २६१-६३ विनय समाधि ३१२ विनियोग (चित्तशुद्धि) ६७, ६८ विपरिणामानुप्रेक्षा २९६ विपर्यय १०८ विपश्यना ध्यान १५ विपाक विचय (धर्मध्यान) २८५ विपुलमति लब्धि ९८ विप्पोसहि (लब्धि) ९७ विभूति ६३, ६४, ६५ विरतियोग १४३ विरति (संवर) २२० विरागता १२६, १३८ विराम प्रत्यय ३१० विरुद्ध राज्यातिक्रम (अतिचार) ११६ विरोधी हिंसा ११४ विविक्त शयनासन २३४, २४८ विविक्त शयनासन सेवना २४८, २५३, २५४, २५५ विवेक २६८ विशुद्धि चक्र (केन्द्र) ६, ७६, २७६, Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० . . . .. ४१८ [ जैन योग : सिद्धान्त और साधना : परिशिष्ट ३ .. ३२६, ३२६, ३४४, ३५७, ३८०, व्युत्सर्ग (तप) २३४, २५८, २६७-२७०, ३८१, ३८८, ३८६, ३९३ : विष वाणिज्य १२० व्युपरत क्रिया निवृत्ति ३००, ३०३ विषय संरक्षणानुबन्धी (रौद्रध्यान) शकटकर्म ११६ २८१, २८२ शक्ति केन्द्र ३६६, ३८२, ३६३, ३६४ विषानुष्ठान ६८ शक्तिपात ५४, ३५०, ३५१ विष्णु ग्रंथि १७६ शक्तियोग ३१ .. ..." विहंगम मार्ग ४६ शब्दानुपात १२३ विक्षिप्त मन ६१, ६२ शब्द विज्ञान ३७३ विज्ञानमय कोष ६, २६५ शरणागतियोग १४, ३१ वीरासन १६१, २४४, २४५, ३१८, शरीर प्रत्याख्यान १७५ शरीर लब्धियाँ १०० वीर्य ३०६ शरीर व्युत्सर्ग २६८, २६६ वीर्यान्तराय कर्म (क्षयोपशम) ५७ शल्य १७८ वृत्तिपरिसंख्यान २३४, २४२, २५६ शवासन ३२७, ३६० वृत्तसमवेतत्व ८३ शान्ति योग १३७, १४० वृत्ति संक्षय ३०६, ३०७, ३०८ : शारीरिक व्याधि ३६० वृत्तिसंक्षय योग २१, ७०, ८२, ८६, ६० शास्त्र मूढ़ता १०६ १७४, १७५ शास्त्रयोग ७०, ७१, ६१ वृत्तिसंक्षेप २४२ शिथिलीकरण मुद्रा ११, ३६० वेतालासन ३१६ शिक्षाबत ११३, १२१, १२५ वेदना भय ३५६ शीतल लेश्या ८० वेदना समाध्यासना १२६, १३६, १४० शीतल लेश्या लब्धि १०० वेदनीय कर्म २८८, ३०३ शील ८४, १०३, १२८, २२१, ३०३ वैक्रिय लब्धि १०० शुक्लध्यान ५६, १३७, १५८, २८६वैभाविक संस्कार ८४ ३१३ वैयावृत्य २३४, २६३-२६४ शुक्लपाक्षिक ६५ वैराग्य ८४ शुक्ल लेश्या ३३७, ३४४, ३४७ वैराग्य भावना २२३, २२५, ३१२ शुश्रूषा विनय २६२ व्रत १६, १७३, ३१२ शैलेशी ३०३, ३१० व्रत प्रतिमा १४२, १४३ शैलेशी अवस्था ७० व्यतिक्रम ११२ शैलेशीकरण ९० व्यवहार राशि २२२ श्रद्धा १०३, १२८, १७०, १७८, ११६, Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्ट शब्द सूची | ४१६ १८७, २१७, ३०६ १६६, १७५, २२७, २२८, २२६ श्रद्धायोग १५३ :. . . समत्वभाव १६४ श्रमण धर्म १६५ समन्वयोग १४, ३१, १३६, १४०, श्रमणभूत प्रतिमा १४२, १४७, १४८ .. १५१, २२६, २३०, ३६० . श्रावक प्रतिमा १४१-१४८ समर्पणयोग १७० श्रुतकेवली ६६ समभाव ३६३ श्रुतधर्म २२१ समाधि १५, १६, १७, २१, ३२, ३८, श्रत समाधि ३१२ ५१, ५६, ५८, ५६, ७६, १४८, श्रेणी २६६ १७६, ३०४-३१२, ३४४, ३४५, श्रेणीतप २३८ ३८१ श्रोत्रन्द्रियबलप्राण ३१६ समाधियोग ३१, ५६, २३६ श्वानवृत्ति १८४,१८५ समाधि विस्फार (लब्धि) ६६ श्वासप्रेक्षा २०३, २०५, २०६, २०७ समारंभ १५६ श्लिष्ट मन ६१ समिति-गुप्ति योग २१ षट्कर्म ३२ समिति ५८, १३७, १५४, १५५, १५८, षट्चक्र ४८ षड्द्रव्यात्मक लोक २२२ सम्यक्चारित्र १८, ६०, ७५, १०६, षडावश्यक १६२, १६४, १६५, १६६, २२२, २३६ १६६, १७३, १७५, १७६ सम्यकदर्शन १८, ६०, ७४, ७५, १०३, सचित्त त्याग प्रतिमा १४२, १४५ १०४, १०६, १३८, १४२, १५५, सचित्तनिक्षेप १२४ १९८, १८८, २२२, २३६, ३०३ सचित्त पिधान १२५ सम्यक्दर्शन (आठ) गुण १०७ सचित्त प्रतिबद्धाहार १२० सम्यकदर्शन (आठ) दोष १०६, १०७ सचित्ताहार १२० सम्यक्दृष्टि ६६ सत्य १९५, १६७ सम्यज्ञान १८, ६०, ७५, १०८, १५५, सत्य महाव्रत १३२ २२२, २३६ सत्याणुव्रत ११५ सयोग केवली ३०७, ३०६ सद्भाव प्रत्याख्यान १७५ सरोह्रदतड़ागशोषणता कर्म १२० सबीज समाधि ३१, ३०४, ३०५ सर्वअदत्तादान विरमण १२६, १३३ सम १०५ सर्वपरिग्रह विरमण १२६ समता ८८, ६०, ३०७ सर्वप्राणातिपात विरमण १२६, १३० समताभाव १२६, १४३, ३७७ सर्वभूतरुत ज्ञान (विभूति) ६५ समतायोग २१,. ८२, ८७, ८८, ८१, सर्वमृषावाद विरमण १२६, १३२ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '४२० | जैन योग : सिद्धान्त और साधना : परिशिष्ट ३ सर्व मैथुन विरमण १२६ सिद्धि ६३, ६४ सर्वविरति ६६ सिद्धि (चित्तशुद्धि) ६७ सर्वसम्पत्करी भिक्षा २४१ सिद्धियम ७१ सर्वसंन्यास योग ७० सिंहवृत्ति १८४, १८५ सर्वसंवरयोग ध्यान साधना २० सुख-दुःख तितिक्षा १७२ सर्वत्र अप्रतिलोमता २६३ सुखासन १७१ सविकल्प समाधि ३१, ३०४ सुरत शब्द योग ४८ सविचार समाधि ३०४, ३०५ सुलीन मन ६१ सवितर्क समाधि ३०४ सुषुम्ना चक्र ७६ सवितर्क-सविचार-निर्विचार २७ सुषुम्ना नाड़ी ३२०, ३२१, ३२३, ३२४, सव्वोसहि (लब्धि) ६७ ३८८ सहजयोग १५४ सुषुम्ना स्वर ३२० . सहसाभ्याख्यान (अतिचार) ११५ सूर्य नाड़ी ३२० सहस्रार चक्र ६, ३३, ३४, ७६, ८०, सूर्य स्वर ३२० ३२६, ३२६, ३४५, ३७६, ३८६, सूत्ररुचि २८३ सूक्ष्म काययोग ३०३ सहाय प्रत्याख्यान १७५. . सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाती (शुक्ल ध्यान) साइकोसिस ३५८ - ३००, ३०३ सातत्ययोग १४, ३१ सूक्ष्म ध्यान ४७ सामर्थ्य योग-७०, ७१, ६१. सूक्ष्म संपराम चारित्र १३८, १३६ सामायिक १२६, १६४, १६६, १६७१७५, सेवा (तप) २३४ सामायिक चारित्र १३८, १३६, २६२ : सोपक्रम निरुपक्रम २७, २८ सामायिक प्रतिमा १४२, १४३, १४४, १५३ सोम चक्र ८१, ३२६, ३२७, ३२६, सामायिक व्रत १२१ ३४५, ३६४ सावकांक्ष (अनशन तप) तप २३८ । सोऽहं २८८, ३६१, ३६४ . सांख्य दर्शन १५, २६, २८ सोऽहं साधना ३६१-३६२ सांख्ययोग २५ संकल्पी हिंसा ११४ सिद्धचक्र ३८६, ३८८ संजल्प ३६५ सिद्धचक्र साधना ३८६, ३८७, ३८८, संन्यासयोग १४, ३१ ३८६ संपूर्ण अध्यात्मयोग १७५ सिद्धमत. ३३ संपूर्ण योग १४० सिद्धयोग ३७ संपेहा २०० सिद्धासन ३१६, ३२७. संप्रज्ञात योग ६, २१, ३०४, ३०५, Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्ट शब्द सूची | ४२१ ३०७, ३०६, ३११ स्थूल प्राणातिपात विरमण ११३, ११५ संप्रेक्षा २००, २०१ स्थूल मनोयोग ३०३ संप्रेक्षा ध्यान योग २०१ स्थूल मषावाद विरमण ११३, ११५ संबोधि २२ स्थंडिल भूमि १६० संभिन्नश्रोत (लब्धि) १८ स्पर्शनेन्द्रिय बलप्राण ३१६ संभोग प्रत्याख्यान १७४ स्फोट कर्म १२० संयम १५, १७, २१, ६२, १०१, १२८, स्मृत्यकरण १२२ १६७, १७३, १६१, २२१, २२३, स्वर-प्रेक्षा ३६५ ३१२ स्वदारमंत्र भेद (अतिचार) ११५ संयम (श्रमणधर्म) १९५, १६७ स्व-दया २२८ संयुक्ताधिकरण १२१ स्वदारसंतोष व्रत ११३, ११६ संरम्भ १५६ स्वाधिष्ठान चक्र ६, ७६, २७६, ३२६, संलेखना १२५, २३५ ३२९, ३३६ संवर १६, १७, ५७, २२१, २७२ . स्वाध्याय १२३, १३८, १४४, १४७, संवर अनुप्रेक्षा (भावना) ८५, ८६, २१३, १४८, २३४, २४३, ३१२ . . २२० स्वाध्याय तप २६४-२६७ संवर योग १८, १९, २१, २६, १४६, स्वावलम्बन ध्यान २७७, २८७ १४७, १५०, १५२, १६५, १६६, स्थिरयम ७१ २२०, २७२, २६५ स्थिर योग १६५ संवेग १०५ स्थिरादृष्टि ७१, ७३, ७४, ७५ संसार अनुप्रेक्षा (भावना) ८५, ८६, हठयोग १५, २१, २५, ३२, ३३, ३४, २१३, २१६, २२४, २८६ ३६, ४०, ४१, ८०, ८१, ६४, संसार व्युत्सर्ग २७० २७६, ३१८, ३२५, ३२७, ३२८, संस्कार २७४, २७५ ३६५ संस्कारशेष ३०६ हस्तिबल (विभूति) ९५ संस्थानविचय २८५ हास्यवशभाषणवजन १३३ संहनन २९७ हिप्नोटिज्म ५३, ५४ स्तेनाहृत (अतिचार) ११६ हिरण्य-सुवर्ण परिमाणातिक्रम ११७ स्तेयानुबन्धी २८१, २८२ हिस्टीरिया ३५४ स्थूल अदत्तादान विरमण ११३, ११५ हिंसप्रदान १२१ स्थूल काययोग ३०३ हिंसानुबन्धी २८१ स्थूल ध्यान ४७ हृदय कमल (चक्र) ६, ३८१, ३८६, स्थूल परिग्रह परिमाणवत ११३ ३८८, ३८६ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ | जैन योग : सिद्धान्त और साधना : परिशिष्ट ३ हृदय रोग ३५८ हैरण्यगर्भ शास्त्र २५ ह्र' २८६, २६० क्षपक श्रेणी ३०८ क्षमा १२६, १३८, २६८ क्षायिक सम्यग्दर्शन ७४ क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन ७४ क्षांति १६५, १६६ क्षिप्त मन ६१ क्षीणकषायी २६६ क्षीर-मधु सपरास्रव लब्धिः ६६ क्षुत्पिपासानिवृत्ति (विभूति) ६५ क्षेत्र २८४ क्षेत्र ऊनोदरी २३६ क्षेत्रवास्तु परिमाणातिक्रम ११७ क्षेत्र शुद्धि १२२, १६७, ३८३ ज्ञान केन्द्र ३७७, ३७६, ३६३ ज्ञान भावना ३१२ ज्ञान मार्ग ४६, ५०, ५२, ε२ ज्ञानयोग १४, १८, २४, २६, ३१ ३५, ३६, १२, २७० ज्ञान लब्धियाँ १०० ज्ञानविनय २६१ ज्ञान विस्फार (लब्धि ) ९६ ज्ञान समाधि ३१२ ज्ञान - संपन्नता १२९, १३८ ज्ञानावरण कर्म २७, ८६, ६८, २०६ ३०२, ३०७, ३६६ ज्ञानोपयोग २०१ ज्ञायक भाव २७३ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मननीय-संकेत Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मननीय-संकेत Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'योग' जीवन विद्या है। योग का अध्ययन, अनुशीलन और साधन-जीवन के सर्वतोमुखी विकास के लिए आवश्यक है। प्रस्तुत पुस्तक में जैन परम्परा सम्मत योग-प्रणाली को ध्यान में रखकर योगविद्या के इतिहास, योग के विभिन्न प्रकार, साधनाएं और योगिक उपलब्धियों के विषय में सर्वथा मौलिक तथा स्वतन्त्र दृटि से चिन्तन करते हुए आज तक के ज्ञान-विज्ञान की महत्वपूर्ण उपलब्धियों एवं अनुसंधान के आलोक में विवेचन किया गया है। इस पुस्तक के मूल लेखक हैं जैनधर्म दिवाकर आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज / उनकी अमर कृति-"जैनागमों में अष्टांगयोग" का यह परिवद्धित तथा परिष्कृत नव संस्करण है। इसके विद्वान सम्पादक हैं-प्रवचनभूषण श्री अमरमुनिजी आप भारतीय धर्म, दर्शन के अधिकारी विद्वान हैं और समस्त धर्म-सम्प्रदायों में समन्वय मूलक विचारधारा के समर्थक हैं। मूल्य : केवल पचास रुपया आवरण पृष्ठ के मुद्रक : शैल प्रिन्टर्स, माईथान, आगर: 3 ain B ersal Hacaanetunepal