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योग को आधारभूमि ; श्रद्धा और शोल [१] १२७ इन प्रतिमाओं की साधना' करते समय गृहस्थ साधक योगी के समान हो जाता है, उसके आचार-विचार और व्यवहार में विशिष्टता आ जाती है, उसकी आत्मगति ऊर्जस्वी हो जाती है, उत्कृष्ट भावों से आराधना करने पर उत्तम साधक को विशिष्ट लब्धियाँ भी प्राप्त हो जाती हैं, जैसे कि आनन्द श्रावक को अवधिज्ञान (clairvoyance) प्राप्त हुआ था।
अतः गृहस्थ साधक वस्तुतः गृहस्थयोगी ही होता है।
१ इन प्रतिमाओं की साधना विधि आदि का विशेष वर्णन प्रतिमायोग पृष्ठ १४१
१५३ में किया गया है। - इस संपूर्ण अध्याय में वणित श्रावकाचार के आधार ग्रंथ ये हैं-(१) उपासकदशांग सूत्र (गणधर सुधर्मा प्रणीत-द्वादशांग वाणी का सप्तम अंग), (२) स्थानांगसूत्र (तृतीय अंगसूत्र), (३) धर्म बिन्दु (हरिभद्रसूरि), (४) योगशास्त्र (आचार्य हेमचन्द्र) (५) नीति वाक्यामृत (सोमदेव सूरि) (६) आवश्यक सूत्र (७) तत्त्वार्थ सूत्र (उमास्वाति), (८) योगशतक, (६) उपासकाध्ययन, (१०) समीचीन धर्मशास्त्र, (११) पुरुषार्थ सिद्ध युपाय, (१२) रत्नकरंड श्रावकाचार, (१३) वसुनन्दि श्रावकाचार, (१४) चारित्रसार, (१५) सागार धर्मामृत, (१६) अमितगति श्रावकाचार आदि-आदि ।
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