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जैन योग : सिद्धान्त और साधना
अंग-यम की साधना करता है और उत्तरगणों के रूप में अष्टांगयोग के द्वितीय अंग नियम की । सामयिक और पौषधोपवास व्रतों में तो वह आसन, प्राणायाम, ध्यान आदि योग के अन्य अंगों की भी साधना करता है, उन सोपानों पर भी अपने कदम रखता है। सामायिक के अन्तर्गत वह छह आवश्यक-(१) समताभाव, (२) चतुर्विंशतिस्तव, (३) गुरुवन्दन, (४) प्रतिक्रमण, (५) कायोत्सर्ग और (६) प्रत्याख्यान करता है। इनमें कायोत्सर्ग तो ध्यान ही है, क्योंकि इसमें ध्यान की आराधना-साधना की जाती है।
और समताभाव-यही तो योग का लक्ष्य है; योग, विशेष रूप से अध्यात्मयोग का लक्ष्य ही समताभाव की पूर्णरूपेण प्राप्ति है। इसी प्रकार पौषध में भी साधक तप-ध्यान-आत्मचिन्तन आदि स्थिर आसन से करता है। वह स्वाध्याय आदि के रूप में तप की साधना करता है।
इन सभी (बारह) व्रतों का वास्तविक उद्देश्य तो मन-वचन-काय की वृत्तियों को सीमित करना-निरोध करना है और चित्तवृति का निरोध ही तो योग साधना का एक मात्र लक्ष्य और केन्द्रबिन्द्र है। इसीलिए गृहस्थ साधक को भी भारत की सभी परंपराओं में गृहस्थयोगी कहा गया है।
गृहस्थयोगी साधक जब अपने ग्रहण किये हुए यम-नियमों (बारहव्रत) की साधना में परिपक्व हो जाता है, उनका निरतिचार निर्दोष पालन करने लगता है और वह देखता है कि उसका बल-वीर्य उत्थान आदि अभी उचित परिमाण में है तब वह विशिष्ट साधना की ओर उन्मुख होता है। गृहस्थयोगी की विशिष्ट साधना-प्रतिमा
श्रावक की यह विशिष्ट साधना जैन आगमों तथा शास्त्रों में प्रतिमा के नाम से कही गई है।
प्रतिमा का आशय-प्रतिज्ञाविशेष, व्रतविशेष, तपविशेष अथवा अभिग्रहविशेष है। साधक अपना गृहस्थ तथा समाज-सम्बन्धी समस्त दायित्व छोड़कर (पुत्रादि को देकर) धर्म-स्थानक में जाकर, तथा संसार से यथाशक्ति निलेप रहकर इन प्रतिमाओं की साधना-आराधना करता है। गृहस्थयोगी की प्रतिमाएं ग्यारह (११) हैं
(१) दर्शन, (२) व्रत, (३) सामायिक, (४) पौषध, (५) नियम, (६) ब्रह्मचर्य, (७) सचित्तत्याग, (८) आरम्भत्याग, (६) प्रेष्य परित्याग अथवा परिग्रह परित्याग, (१०) उद्दिष्टभक्तत्याग तथा (११) श्रमणभूत ।
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