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जैन योग को आधारभूमि : श्रद्धा और शील [२] १३६ उपशान्ति हो, ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप समत्व की उपलब्धि हो, उसे सामायिक चारित्र कहा जाता है।
___ इस चारित्र द्वारा श्रमण समत्वयोग की भूमिका पर आरूढ़ हो जाता है।
(२) छेदो पस्थापनीय चारित्र-नव-दीक्षित साधु-साध्वी सर्वप्रथम सामायिक चारित्र ग्रहण करता है। उसे ग्रहण करने के जघन्य (कम से कम) ७ दिन, मध्यम ३ मास और उत्कृष्ट ६ मास के पश्चात् जब वह प्रतिक्रमण भली-भाँति सीख जाता है, तब गुरुदेव द्वारा पाँच महाव्रतारोपण रूप जो चारित्र दिया जाता है, वह छेदोपस्थापनीय चारित्र कहलाता है । इसमें पूर्वपर्याय का व्यवच्छेद करके उत्तरपर्याय का स्थापन-महाव्रतों का आरोपण किया जाता है, इसलिए इस चारित्र को छेदोपस्थापनीय चारित्र कहते हैं।
(वर्तमान युग में इसे बड़ी दीक्षा कहा जाता है।)
(३) परिहारविशुद्धि चारित्र-दोष लग जाने पर अथवा बिना ही दोष लगे, कर्ममल को दूर करने के लिए तथा आत्मा की शुद्धि के लिए जो विशिष्ट साधना की जाती है, उसे परिहारविशुद्धि चारित्र कहा जाता है ।
(४) सूक्ष्मसम्पराय चारित्र-इस चारित्र में लोभ कषाय को सूक्ष्म किया जाता है।
(५) यथाख्यात चारित्र-इस चारित्र में कषायों का पूर्ण नाश हो जाता है, तथा आत्मा के स्वाभाविक गुण प्रगट हो जाते हैं ।
यह चारित्र श्रमण के चारित्रसम्पन्नता की पूर्णता और उत्कृष्ट स्थिति है।
इस प्रकार श्रमणयोगी सामायिक चारित्र अथवा समता की साधना से प्रारम्भ करके शनैः-शनैः ऊपर की ओर चढ़ता हआ समताभाव की पूर्णता अथवा यथाख्यात चारित्र प्राप्त कर लेता है, अरिहन्त बन जाता है, जीवन-मुक्त हो जाता है और योग-मार्ग के उच्चतम बिन्दु पर पहुँच जाता है।
(२६) वेदना समाध्यासना-श्रमणयोगी किसी भी प्रकार की पीड़ा, कष्ट, वेदना आदि को समभावपूर्वक सहता है, राग-द्वष आदि कषाय भाव नहीं करता । वस्तुतः वेदना समाध्यासना श्रमण की तितिक्षा की परीक्षा हैं ।
इन कष्टों को शास्त्रीय भाषा में परीषह कहा गया है। इन परीषहों पर श्रमणयोगी समताभाव से विजय प्राप्त करता है। शास्त्रों में इन परीषहों की संख्या २२ बताई गई है
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