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________________ १४० जन योग : सिद्धान्त और साधना (१) क्षुधा, (२) पिपासा, (३) शीत, (४) उष्ण, (५) दंशमशक, (६) अचेल, (७) अरति, (८) स्त्री, (९) चर्या, (१०) निषद्या, (११) शय्या, (१२) आक्रोश, (१३) वध, (१४) याचना, (१५) अलाभ, (१६) रोग, (१७) तृणस्पर्श, (१८) जल्ल (पसीना), (१६) सत्कार-पुरस्कार, (२०) प्रज्ञा, (२१) अज्ञान, (२२) अदर्शन ।' (२७) मारणान्तिक समाध्यासना-मारणान्तिक वेदना, कष्ट एवं उपसर्ग-परीषह को भी समभाव से सहन करना, मारणान्तिक समाध्यासना कहलाता है। श्रमणयोगी मृत्युतुल्य कष्ट को भी पूर्ण शान्ति और आत्मभाव में रमण करते हुए सहता है। ये श्रमण के २७ गुण हैं जिनका पालन श्रमण के लिए अनिवार्य है। श्रमण-गुण बनाम योग-मार्ग यदि गहराई से विचार किया जाय तो सम्पूर्ण श्रमणाचार योग-मार्ग ही हैं। अहिंसा महाव्रत द्वारा वह समत्वयोग की साधना करता हैं। सत्य तो योग का आधार है ही। ब्रह्मचर्य द्वारा वह अपनी चेतना का ऊर्ध्वारोहण करता है तथा अपरिग्रह महाव्रत की साधना तो निस्पृह योग की साधना ही है। इसी प्रकार पांचों इन्द्रियों का निग्रह–इन्द्रियों का प्रत्याहार है तथा कषायों के आवेग को रोकना शान्ति योग है जो अध्यात्मयोग का एक आवश्यक पहलू है। योगसत्य द्वारा श्रमण अपने मन-वचन-काय तीनों योगों को वश में करता है । वेदना समाध्यासना द्वारा वह तितिक्षा भाव की वृद्धि करके 'लययोग' की उच्चतम सीमा तक पहुँचता है तो चारित्र सम्पन्नता द्वारा अर्हन्त अथवा जीवन-मुक्त की स्थिति प्राप्त करता है। इस प्रकार श्रमणयोगी अपने श्रमणाचार (महाव्रत यानी मूलव्रत और उत्तरवतों की साधना) द्वारा सम्पूर्णयोग की साधना करता है। 00 १ उत्तराध्ययन सूत्र-परीषह विभक्ति, दूसरा अध्ययन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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