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३ विशिष्ट योग-भूमिका-प्रतिमायोग-साधना
प्रतिमा का आशय जब साधक अपने द्वारा स्वीकृत एवं अंगीकृत व्रत-नियमों, मूलव्रत, उत्तरव्रत, यम-नियमों का पालन भली-भाँति करने लगता है और उनके पालन में परिपक्व हो जाता है तो वह आगे अपने चरण विशिष्ट साधना की ओर बढ़ाता है। इस विशिष्ट साधना में वह दृढ़तापूर्वक विशेष नियम ग्रहण करता है और उनका सम्यक् परिपालन करता है, किसी भी भयंकर से भयंकर और विपरीत स्थिति में वह अपने स्वीकृत नियम से विचलित नहीं होता।
ऐसे विशिष्ट नियम गृहस्थ साधक भी ग्रहण करता है और संसारत्यागी श्रमण-साधक भी। दोनों ही अपनी-अपनी मर्यादा के अनुसार प्रतिज्ञा ग्रहण करते हैं। मर्यादा एवं व्रत तथा योग्यता, क्षमता के आधार पर दोनों के ही नियम और प्रतिज्ञाएं अलग-अलग होती हैं।
इन विशिष्ट नियमों और साधना पद्धति का नाम ही 'प्रतिमायोग' है।
। प्रतिमा का अभिप्राय है-प्रतिज्ञा-विशेष, व्रत विशेष,' तप-विशेष; विशेष साधना पद्धति एवं कोई दृढ़ कठोर संकल्प ।
प्रतिमाओं के दो भेद हैं-(१) श्रावक-प्रतिमा और (२) श्रमणप्रतिमा।
(१) श्रावक प्रतिमा (गृहस्थयोगी की विशिष्ट साधना भूमिकाएं) जिस प्रकार किसी ग्यारह (११) मंजिल के भवन की सबसे ऊँची मंजिल पर पहुँचने के लिए सोपानों को पार किया जाता है, उसी प्रकार गृहस्थयोगी भी अपने श्रावकधर्म के चरम शिखर तक पहुँचने के लिए ११ १ (क) प्रतिमापतिपत्तिः प्रतिज्ञति यावत्। -स्थानांग वृत्ति, पत्र ६१ (ख) प्रतिमा-प्रतिज्ञा अभिग्रहः ।
-वही, पत्र १८४
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