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________________ १३८ जैन योग : सिद्धान्त और साधना इस प्रकार इन तीनों योगों में सरलता और सत्य ओत-प्रोत हो जाता है, और योगी अपनी आध्यात्मिक साधना में सफलता की ओर बढ़ता है । (१८) क्षमा-यह योगी का विशिष्ट लक्षण है । कैसी भी क्रोध उत्पन्न करने वाली स्थिति-परिस्थिति हो, किन्तु वह क्षमा रखता है, क्रोध नहीं करता; क्योंकि क्रोध आत्म-साधना के मार्ग में बहुत बड़ा रोड़ा है। (१६) विरागता-आध्यात्मिक योग-मार्ग में आगे बढ़ने के लिए विरागता-सांसारिक भोगों से वैराग्य अति आवश्यक है। वैराग्य के बिना वह योग-मार्ग पर एक कदम भी नहीं रख सकता, उसकी रुचि ही योग की ओर न होगी। (२०) मनःसमाहरणता-मन की अकुशल प्रवृत्ति को रोककर उसे कुशल प्रवृत्ति (शुभ-भावों) में लगाना मनःसमाहरणता है। समाहरण का अभिप्राय मन को अन्य वृत्तियों से रोककर किसी एक वृत्ति पर स्थिर करना है । यह मका प्रत्याहार है, जो योग का एक आवश्यक अंग है। श्रमणयोगी मनःसमाहरण द्वारा मनःप्रत्याहार की साधना करता है। (२१) वाक्समाहरणता-यह वचन का प्रत्याहार है। वाक् को स्वाध्याय आदि में लगाना, अथवा मौन रहना वाक्समाहरणता है। (२२) कायसमाहरणता-शरीर को स्थिर एवं अचंचल रखना, कायसमाहरणता है। इस गुण से योगी को आसन-सिद्धि में सहायता प्राप्त होती है। (२३) ज्ञानसम्पन्नता-श्रमण को जितना भी अधिक सम्भव हो सके, ज्ञान का उपार्जन करके ज्ञानसम्पन्नता का गुण अजित करना चाहिए। (२४) दर्शनसम्पन्नता—अपने सम्यग्दर्शन को दृढ़ रखना, उसकी सुरक्षा करना श्रमण का दर्शनसम्पन्नता नाम का गुण है। (२५) चारित्रसम्पन्नता (सम्पूर्ण योग की साधना)-चारित्र का लक्षण बताते हुए कहा गया है कि जिसके द्वारा कर्मों का चय (संचय) रिक्त हो, उसे चारित्र कहते हैं। चारित्र के पाँच भेद हैं-(१) सामायिक, (२) छेदोपस्थापना, (३) परिहार-विशुद्धि, (४) सूक्ष्म-संपराय, (५) यथाख्यात ।' (१) सामायिक चारित्र-जिससे सावद्ययोग से निवृत्ति हो, राग-द्वेष की १ उत्तराध्ययन सूत्र २८/३२-३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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