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जैन योग की आधारभूमि : श्रद्धा और शील [२] १३७
योग की अपेक्षा पांच महाव्रतों को 'यम' की संज्ञा दी जाती है और शेष २२ गुणों को 'नियम' (योग के दूसरे अंग ) की कोटि में परिगणित किया जा सकता है ।
श्रमण के अन्य आवश्यक गुण ये हैं
(६ १०) पंचेन्द्रियनिग्रह ( इन्द्रिय- प्रत्याहार ) - श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना और स्पर्शन - ये पाँच इन्द्रियाँ हैं । ये अपने-अपने विषयों की ओर दौड़ती हैं । इन्हें इनके विषयों से हटाकर आत्मा में लगाना ही इन्द्रियनिग्रह है ।
( ११-१४) चतुविध कषाय विवेक (शान्ति योग) - कषाय चार हैं- क्रोध, मान, माया और लोभ । इन कषायों के आवेग में बहकर ही मनुष्य भाँतिभाँति के पाप और अकरणीय कार्य करता है । श्रमणत्व ग्रहण किया हुआ योगी, इन कषायों के आवेग का दमन नहीं, परिमार्जन करता है, जिससे उसकी चित्तविशुद्धि होती है, आत्मा पर से राग-द्वेष का मल दूर होता है, आत्मज्योति प्रगट होती है ।
(१५) मावसत्य - अपने अन्तःकरण से आस्रवों (हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह) को दूर करके, धर्मध्यान- शुक्लध्यान द्वारा शुद्ध आत्मिक भावों का अनुप्रेक्षण करके, आत्मभावों में सत्य की स्फुरणा करना, भाव सत्य कहलाता है । श्रमणयोगी भावसत्य द्वारा अपनी अन्तरात्मा की तथा चित्त की विशुद्धि करता है ।
(१६) करणसत्य -- करण का आशय है- जिस अवसर पर जो क्रिया करने योग्य हो, उसे उसी अवसर पर करना । संपूर्ण धार्मिक क्रियाओं को सत्य रूप में और अवसर के अनुकूल करना चाहिए। करणसत्य भाव-सत्य में सहायक है ।
करण के सत्तर' प्रकार हैं । इन्हें यथाविधि करना ही करणसत्य है । करण के सत्तर भेद ये हैं-अशन आदि ४ प्रकार की पिंडविशुद्धि, ५ समिति, १२ भावना, १२ भिक्षु प्रतिमा, ५ इन्द्रिय-निरोध, २५ प्रकार का प्रतिलेखन, ३ गुप्तियाँ, ४ प्रकार का अभिग्रह |
( १७ ) योगसत्य - मन-वचन काया - इन तीनों योगों को श्रमणयोगी शम, दम, उपशम और आत्म-साधना में लगाता है, यही उसका योगसत्य ही
१ पिंडविसोही, समिई, भावणा, पडिमाय इंदियनिरोहो । पडिलेहणं गुत्तीओ अभिग्गहा चेव करणं तु ॥ १२ भिक्षु प्रतिमाओं का वर्णन 'प्रतिमा योग' में देखिए ।
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- ओघनियुक्तिभाष्य
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