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१३६ जैन योग : सिद्धान्त और साधना
और शान्त चित्त में पूर्वजन्मों की स्मृति उभरने लगती है । अपरिग्रह भाव से भावित मन पूर्वजन्म - जातिस्मरण बोध को प्राप्त होता है । '
जैन आगमों में भी वैराग्य या निर्वेद में लीन होने पर अनेक भव्यों को जातिस्मरण ज्ञान की उत्पत्ति के उदाहरण मिलते हैं ।
श्रमण भी योग साधना के लिए दीक्षा लेता है । वह अपनी योग साधना अपरिग्रह महाव्रत का पालन करके आगे बढ़ाता है ।
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इस महाव्रत की पाँच भावनाएँ हैं—
(१) श्रोत्रेन्द्रिय रागोपरति - प्रिय अप्रिय, कोमल-कठोर शब्दों को सुनकर श्रमण उसमें राग-द्वेष न करे ।
(२) चक्षुइन्द्रिय रागोपरति - सुन्दर-असुन्दर, सुरूप - कुरूप आदि चक्षु इन्द्रियों से देखे जाने वाले विभिन्न प्रकार के रूपों में साधु को राग-द्वेष नहीं करना चाहिए ।
(३) घ्राणेन्द्रिय रागोपरति--सुगन्ध- दुर्गन्ध आदि में साधु राग-द्वेष न करे ।
(४) रसनेन्द्रिय रागोपरति - साधु को विभिन्न प्रकार के रसों में राग-द्वेष न करके उनसे उदासीन रहना चाहिए ।
(५) स्पर्शनेन्द्रिय रागोपरति - साधु को अपने जीवन में शीत - उष्ण, हल्का - भारी आदि अनेक प्रकार के स्पर्श का अनुभव होता है; किन्तु उसे उनमें राग-द्वेष न करके मन में शान्ति बनाये रखनी चाहिए ।
इस प्रकार श्रमणयोगी पाँच महाव्रतों का पालन इन पच्चीस (२५) भावनाओं (प्रत्येक महाव्रत की पाँच-पाँच भावनाएँ ) के साथ करता है और परिणामस्वरूप अपने चित्त में शान्ति ( राग-द्वेष न करने के कारण ) बनाये रखता है ।
इन पाँच यमों का महत्त्व उसके जीवन में अत्यधिक है, ये उसके मूल गुण हैं और योग के प्रथम सोपान हैं । श्रमण अपने स्वीकृत महाव्रतों द्वारा योग की साधना करता है और आत्म शान्ति की दिशा में आगे बढ़ता है ।
श्रमणाचार की अपेक्षा पांच महाव्रत श्रमण के मूलव्रत हैं तथा शेष
बाईस गुण उसके अन्य गुण हैं ।
१ योगदर्शन, भाष्य २ / ३६
२ आचारांग, द्वितीय श्र तस्कन्ध अध्ययन १५ सूत्र ७८८ ७६१
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