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________________ जैन योग को आधार भूमि : श्रद्धा और शील [२] १३५ ब्रह्मचर्य महावत की स्थिरता के लिए पाँच भावनाएँ हैं (१) रागपूर्ण स्त्री-कथा त्याग-श्रमणयोगी स्त्री सम्बन्धी कथा या वार्ता नहीं करता और न सुनता ही है। (२) मनोहर अंगों के अवलोकन का त्याग-श्रमणयोगी स्त्रियों के कामवर्धक और मनोहर अंगों की ओर दृष्टि-निक्षेप भी नहीं करता। (३) पूर्व रति-स्मरण त्याग-श्रमण ने अपने गृहस्थ जीवन में (दीक्षा ग्रहण करने से पूर्व) जो स्त्री-सम्बन्धी सुख भोगे हों, उनका उसे स्मरण नहीं करना चाहिए। (४) प्रणीत रस भोजन वर्जन-श्रमण का कर्तव्य है कि वह कामवर्धक, रसीले, स्वादिष्ट और गरिष्ठ आहार का त्याग करे। क्योंकि ऐसे आहार से चित्त चंचल हो जाता है। साथ ही आहार की मात्रा भी कम रखे, अधिक आहार भी विकारवर्द्धक होता है। (५) शयनासन वर्जन-स्त्री-पशु-नपुसक आदि के द्वारा स्पर्शित आसन शय्या आदि का साधु उपयोग न करे। यदि उस आसन-शय्या आदि का उपयोग करना विवशता ही हो तो उनके उठने के एक मुहर्त बाद उसका उपयोग कर सकता है, किन्तु सामान्यतः उपयोग नहीं करना चाहिए। (५) अपरिग्रह महावत : निस्पृह योग परिग्रह का आशय यहाँ भाव और द्रव्य परिग्रह दोनों से है। साधक श्रमण को निग्रंथ कहते हैं और ग्रंथ का अभिप्राय परिग्रह है । निग्रंथ अपरिग्रही होता है। उसके अन्तर्मन में निर्ममत्व होता है। बाह्य धार्मिक उपकरणों में तो उसका ममत्व होता ही नहीं; किन्तु वह अपने शरीर के प्रति भी मोह-ममत्व नहीं रखता। परिग्रह अथवा ममत्व भाव अशांति का कारण होता है और अशांत चित्त कभी एकाग्र नहीं हो सकता और जिस साधक का चित्त एकाग्र न हो सके वह योग साधना कैसे कर सकता है । अतः अपरिग्रह योग साधना में सहायक होता है। पातंजल दर्शन के व्याख्याकार महर्षि व्यास का कथन है कि अपरिग्रह की भावना सुदृढ़ होने पर साधक के चित्त की चंचलता एवं कलुषता धुल जाती है, मन निर्मल जल प्रवाह की भांति शान्त हो जाता है १ आचारांग, द्वितीय श्रु तस्कंध, अध्ययन १५, सूत्र ७८६-८७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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