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________________ १३४ जन योग : सिद्धान्त और साधना (३) परिमित पदार्थ ग्रहण करना-श्रमण को स्थान, आहार, उपकरण आदि ग्रहण करते समय अपनी मर्यादा का ध्यान रखना चाहिए । दूसरे शब्दों में मर्यादा से अधिक पदार्थों को ग्रहण न करे। (४) बार-बार पदार्थों की मर्यादा ग्रहण करना-श्रमण को अपने स्वीकृत अभिग्रह की मर्यादा को बार-बार ग्रहण करके और भी संकुचित करते रहना चाहिए। (५) सार्मिक अवग्रह याचन-सांभोगिक साधुओं से आवश्यकता होने पर पात्र, उपकरण, वसति आदि की याचना करनी चाहिए।' इन भावनाओं से श्रमणयोगी अपनी वृत्तियों को और भी संकुचित करता है। याचना से उसमें विनम्रता और निरभिमानता आती है, तथा वस्तुओं के प्रति आसक्ति भाव कम होता है। साधक का मन जब वस्तुमात्र के प्रति अनासक्त हो जाता है तो जगत् का समस्त वैभव, गुप्त खजाने उसके लिए मिट्टी तुल्य हो जाते हैं तथा इस अनासक्ति योग की चरम स्थिति में पृथ्वी के समस्त रत्न उसके समक्ष प्रकट हो जाते हैं।' (४) ब्रह्मचर्य महावत : चेतना का ऊर्वारोहण ब्रह्मचर्य की साधना योग के लिए आधार-बिन्दु है, बिना ब्रह्मचर्य की साधना किये योग-मार्ग पर एक भी कदम आगे रखना असंभव है । जब तक योगी ब्रह्मचर्य की साधना नहीं करता, वह ऊर्ध्वरेता नहीं बन सकता। उसकी साधना का तेजोबिन्दु ब्रह्मचर्य ही है, इसी से उसकी तपःसाधना में तेज बढ़ता है और तेजस् शरीर बलवान बनता है, उसमें चमक और प्रकाश की किरणें प्रस्फुटित होती हैं। सर्वविरत श्रमणयोगी नवकोटि और नवबाड़ सहित पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करता है। उसके त्रियोग (मन-वचन-काया) ब्रह्मचर्य में ही स्थित रहते हैं, अब्रह्म सम्बन्धी विचार भी उसके अन्तर्मानस में नहीं उठते । वह सर्वतोभावेन ब्रह्मचर्य में लीन रहता है और उसकी रक्षा के लिए सदैव सन्नद्ध रहता है। १ आवश्यकचूर्णि में इन पांच भावनाओं का क्रम दूसरी प्रकार से दिया गया है। -देखिए-आवश्यकचूणि, प्रतिक्रमणाध्ययन, १४३-१४७ २ अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम् । -योगदर्शन २/३७ ३ योगदर्शन २/३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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