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१६६ जैन योग : सिद्धान्त और साधना
कार्य-कारण की श्रृंखला पर अवस्थित है कि साधक उत्तरोत्तर प्रगति करता हुआ अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होता जाता है ।
प्रत्येक साधना के लिए यह आवश्यक है कि वह भावपूर्वक हो, साधक उसमें तन्मय हो जाय, तभी साधना फलवती होती है, साधक के जीवन में चमक आती है; साथ ही यह भी जरूरी है कि वह विधिपूर्वक की जाय, अविधि से नहीं । यह बात षडावश्यक की साधना के बारे में भी सत्य है ।
डावश्यक के सभी अंगों की साधना साधक किस प्रकार करके अपनी आत्मा को उन्नति की ओर अग्रसर कर सकता है, इसका ज्ञान साधक को आवश्यक है । अतः इनकी विधि, लगने वाले सम्भावित दोषों आदि का संक्षिप्त विवेचन यहाँ दिया जा रहा है ।
समतायोग बनाम सामायिक की साधना
सामायिक की साधना पाप कार्यों से सर्वथा निवृत्ति की साधना है । यह एक विशुद्ध साधना है । इसमें साधक को चित्तवृत्तियाँ तरंग रहित सरोवर के समान पूर्ण शान्त रहती हैं । वह अपने शुद्धात्मस्वरूप में अवस्थित रहता है । चित्तवृत्तियों के शान्त रहने से उसके संवरयोग सधता है और आत्मभाव में स्थित होने से निर्जरायोग । संवर और निर्जरायोग की यदि पूर्ण और उत्कृष्ट साधना हो जाय तो साधक मोक्ष भी प्राप्त कर लेता है ।" शब्द सामायिक में लीन साधक करोड़ों जन्मों के कर्मों को नष्ट कर लेता है ।"
ऐसे उत्तम फलदायक सामायिक की साधना भी शुद्ध रूप में की जानी चाहिए । शुद्ध सामायिक के लिए साधक को सभी प्राणियों पर समभाव
१ सामायिक विशुद्धात्मा सर्वथा घातिकर्मणः क्षयात् केवलमाप्नोति लोकालोकप्रकाशकम् || - हरिभद्र : अष्टक प्रकरण ३०/१
२ तिब्वतवं तवमाणे जं नवि निव्वट्टइ जम्मकोडीहि । तं समभाविआचित्तो, खवेइ कम्मं खणण ॥
३ (क) जो समो सव्वभूएसु तसेसु थावरेसु य । तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलि भासियं ॥
(ख) अनुयोगद्वार १२८ (ग) नियमसार, गाथा १२६
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-आवश्यक नियुक्ति, माथा ७६६
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