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लेश्या-ध्यान साधना
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द्वारा योगी का आज्ञाचक्र, मनःचक्र, सोमचक्र और सहस्रार चक्र अनुप्राणित होकर जागृत हो जाते हैं । ब्रह्मरन्ध्र स्थित सहस्रार (सहस्रदल वाला कमल) चक्र उन्मुकुलित हो जाता है। ___आज्ञाचक्र के अनुप्राणन ते योगी को विशाल अतीन्द्रिय ज्ञान की उपलब्धि होती है। उसे अवधिज्ञान,' मनःपर्यवज्ञान और यहाँ तक कि केवलज्ञान तक की प्राप्ति भी हो जाती हैं । इन प्रशस्त ज्ञानों की उपलब्धि शुक्ललेश्या के साधक को ही होती है।
__ मनःचक्र के अनुप्राणित होने से साधक की सम्पूर्ण वासनाओं का क्षय हो जाता है और सोमचक्र अनुप्राणित होने पर उसे अनिर्वचनीय आनन्द एवं आत्म-साक्षात्कार हो जाता है तथा सहस्रार चक्र अनुप्राणित होने पर वह स्वात्मस्थित हो जाता है।
समाधि की अवस्था साधक को शुक्ललेश्या में ही प्राप्त होती है।।
शुक्ललेश्यायुक्त साधक का प्रभाव आस-पास के वातावरण तथा प्राणियों पर भी अत्यधिक अनुकूल पड़ता है। साधक के आभामंडल के श्वेत परमाण इतने शक्तिशाली हो जाते हैं कि वैर और क्रोध की आग में झलसते हुए प्राणी भी उसके सान्निध्य में शांति प्राप्त करते हैं, उनके कषायों की उपशांति हो जाती है। ऐसे साधक का प्रभाव इतना अधिक हो जाता है कि उसके नामस्मरण मात्र से हजारों व्यक्ति शांति प्राप्त करते हैं, उनके हृदय में शुभ और कल्याणकारी भावनाओं का उद्रेक हो जाता है।
लेश्याध्यान की साधना का चरमबिन्दु शक्ललेश्याध्यान अथवा श्वेत वर्ण का ध्यान है। ऐसा साधक भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टियों से लाभान्वित होता है, उसका शरीर स्वस्थ रहता है, तथा मानस एकदम शांत । संसार की ऐसी कोई शक्ति अथवा वस्तु नहीं रहती जो उसके लिए लभ्य न हो।
जैन साहित्य में लेश्याओं का दृष्टान्त जैन साहित्य में लेश्याओं के स्वरूप को समझाने के लिए कई रूपक दिये हैं, उनमें से सबसे सरल, सुबोध और आसानी से हृदयंगम हो जाने
१ यहाँ तपोलब्धिजन्य अवधिज्ञान की ही अपेक्षा है और वह भी अप्रतिपाती, जो
एक बार उपलब्ध होकर छूटे नहीं, केवलज्ञान होने तक स्थायी रहे । भवप्रत्यय अवधिज्ञान तो देवों को जन्म के साथ ही हो जाता है, उसकी यहाँ अपेक्षा नहीं
-संपादक
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