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जैन योग : सिद्धान्त और साधना
हटाता जाता है । इस प्रक्रिया के बाद जो कुछ भी भी बचता है, वह आत्मा का शुद्ध भाव है, उसी पर योगी अपना ध्यान केन्द्रित करता है। प्रारम्भ में उसके ध्यान में कुछ चंचलता रहती है, किन्तु दृढ़ अभ्यास से वह चंचलता भी मिट जाती है, मन स्थिर हो जाता है, मन और आत्मा का अभेद स्थापित हो जाता है और यह अभेद स्थापित होते ही अभेद ध्यान सिद्ध हो जाता है तथा योगी कृतकृत्य हो जाता है। सुरतशब्दयोग
'सुरतशब्दयोग' राधास्वामी सम्प्रदाय में प्रचलित योग साधना का पारिभाषिक नाम है । यहाँ सुरत शब्द आत्मा का प्रतीक है। राधास्वामी मत का ऐसा मन्तव्य है कि आत्मा की जोधारा प्रवाहित होती है, उसमें शब्द भी होता है, उस शब्द का आनन्द लेने का नाम ही सुरतशब्दयोग है ।
इस सम्प्रदाय में शब्द दो प्रकार के माने गये हैं-(१) आहत-जो दो वस्तुओं की टकराहट से उत्पन्न होते हैं, अर्थात् व्याघात से उत्पन्न होते हैं। और (२) अनाहत-जो बिना व्याघात के स्वतः ही उत्पन्न होते हैं । अनाहत शब्दों में सुरत अर्थात् ध्यान जोड़ने को ही सुरत-शब्द-योग कहा जाता है।
हठयोग के समान ही इस सम्प्रदाय में भी मानव-शरीर के अन्दर षट् चक्र माने जाते हैं । साथ ही कमल और पद्मों की भी मान्यता है । सुरतशब्द-योग द्वारा इन चक्रों, पद्मों और कमलों को जाग्रत किया जाता है। इसके लिए वे सुमिरन और ध्यान को आवश्यक मानते हैं। सुमिरन से अभिप्राय एक विशेष बीजमन्त्र का अन्तर में जप या उच्चारण है और ध्यान से अभिप्राय अन्तर में चेतन स्वरूप का चिन्तन है ।
इनकी साधना करते-करते साधक शनैः शनैः राधास्वामी दयाल के स्थान को प्राप्त कर लेता है, दूसरे शब्दों में कृतकृत्य हो जाता है। अरविन्द का पूर्णयोग
श्री अरविन्द घोष वर्तमान शताब्दी के प्रतिष्ठित योगी थे। उनके 'पूर्ण योग' का सार यह है कि मनुष्य जाति में ही भगवान को पाना और प्रगट करना है ।' यही अरविन्द की दृष्टि में योग द्वारा मानव जाति की सेवा है।
इसके लिए साधक को कुछ विशेष नहीं करना है सिर्फ उसे मौन और शान्त रहकर भगवत् प्राप्ति के लिए उत्कंठ होना, भगवान की ओर उन्मुख होना, भगवदनुकूल होना और भगवान की दया को ग्रहण करना है। भगवान ही मार्गदर्शक हैं और वे ही सब कुछ करते हैं ।
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