________________
योग के विविध रूप और साधना-पद्धति ४७ अर्थात् मन पूर्ण रूप से जप तथा इष्टदेव में लय हो जाता है, ध्याता, ध्येय और ध्यान एक रूप हो जाता है, इस अवस्था का नाम समाधि है। समाधि मन्त्र योग की उच्चतम स्थिति है। समाधि-प्राप्त मन्त्रयोगी साधक कृतकृत्य हो जाता है।
__ इस प्रकार मन्त्रयोग के इन सोलह अंगों की पूर्णता से साधक मुक्ति प्राप्त कर लेता है।
ध्यानयोग योगमार्ग में ध्यान का महत्व सर्वविदित है। ऐसा कोई भी योग का मार्ग नहीं जिसमें ध्यान की चर्चा और वह भी विशेष रूप से न हो। लेकिन ध्यानयोग में सिर्फ ध्यान का ही वर्णन हुआ है और इसी से मुक्ति मानी गई है।
ध्यानयोग के अनुसार ध्यान के दो प्रकार हैं-(१) भेद ध्यान और (२) अभेद ध्यान ।
भेद ध्यान के उत्तरभेद अनेक हैं।
(१) इष्टदेव का ध्यान-इस प्रकार के ध्यान में साधक अपने माने हुए इष्टदेव अथवा गुरु की मुद्रा का ध्यान करता है।
(२) स्थूल ध्यान-इस ध्यान में भी साधक अपने इष्ट के स्थूल रूप का ध्यान करता है।
(३) ज्योतिर्ध्यान-भकूटि के मध्य में और मन के ऊर्ध्व भाग में (अर्थात् सोमचक्र में) जो ज्योति विराजमान है उस ज्योति अथवा तेज का ध्यान करना। इस ध्यान से योगसिद्धि और आत्म-प्रत्यक्षता की शक्ति प्राप्त होती है।
(४) सूक्ष्मध्यान-यह ध्यान शाम्भवी मुद्रा द्वारा किया जाता है। शाम्भवी मुद्रा में ध्यानयोगी भृकुटि के मध्य दृष्टि को स्थिर करके एकाग्र. चित्त से परमात्मा के दर्शन करता है। सूक्ष्म ध्यान में योगी की चित्तवृत्तियाँ अपने ध्येय पर स्थिर हो जाती हैं।
____ अभेद ध्यान-इस ध्यान में साधक किसी प्रकार का बाह्य आलंबन नहीं लेता। अद्धनिमीलित आँखें रखकर वह दृष्टि नासाग्र पर जमाता है तथा अपनी चित्तवृत्तियों को निष्पक्ष रूप से द्रष्टा मात्र होकर देखता है, दूसरे शब्दों में प्रेक्षाध्यान करता है। इस समय चित्त में जो भी काम, क्रोध, ईर्ष्या आदि के विकार तथा अन्य किसी प्रकार के विभाव दृष्टिगोचर हों, उन्हें
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org