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तितिक्षायोग साधना १९७ मान के लिए सूत्रकृतांग सूत्र (१/३६) में शब्द दिया गया है-विउषकसं–व्युत्कर्षः और आधुनिक मनोविज्ञानशास्त्रो मैक्डूगल ने भी मान का संवेग व्युत्कर्ष माना है।
व्युत्कर्ष का अभिप्राय है अपने को उच्च समझना। जब कोई व्यक्ति स्वयं अपने को उच्च समझेगा तो अन्य उसकी दृष्टि में नीचे हो ही जायेंगे। उच्चता का अभिमान या दर्प मान का मुख्य कारण है।
श्रमण इस ऊँच-नीच की भावना का परिमार्जन अपने समरसीभावसाम्यता की भावना-तितिक्षायोग की साधना से करता है। वह संसार के सभी प्राणियों की आत्मा को अपनी आत्मा के समान समझता है, सबके प्रति आत्मौपम्य भाव रखता है।
(५) लाघव-इस धर्म का परिपालन करता हुआ श्रमण ऋद्धि, रस और साता-इन तीनों गारवों का पूर्णतः परित्याग कर देता है, उपकरण भी अल्प रखता है। गारवों के त्याग और उपकरणों की अल्पता से उसकी तितिक्षा और भी बढ़ती है, गहरी होती है।
(६) सत्य-सत्य का श्रमण के जीवन में अत्यधिक महत्त्व है। यह दूसरा महाव्रत है, भाषा समिति है, वचन गुप्ति है, वचन समिति है और धर्म भी है।
वस्तुतः सत्य के विधेयात्मक (Positive) और निषेधात्मक (Negative) दोनों पहलुओं को श्रमण के जीवन में महत्त्व दिया गया है, स्वीकारा गया है । भाषा समिति में उसका विधेयात्मक रूप है और वचनगुप्ति में निषेधात्मक रूप ।
सत्य आत्मा का धर्म है, यह वीतराग भाव की साधना है, शान्ति का मूल है। सत्य धर्म की साधना शान्ति की साधना है । जिसके मन-वचन-काया अणु-अणु और रग-रग में सत्य प्रतिष्ठित होगा वही शान्ति की साधना कर सकता है और जिसका मन-मानस शान्त होगा वही सत्यधर्म का पालन उत्तम भावों से कर सकता है।
(७) संयम-संयम का अभिप्राय है-विवेकपूर्वक अपनी इच्छाओं का नियमन, मन और इन्द्रियों के प्रवाह को अन्तमुखी बनाना तथा आन्तरिक वृत्तियों का परिमार्जन करके उन्हें पवित्र बनाना, उन्हें शान्त-उपशान्त करना । संयम, मन और इन्द्रियों के बाह्य प्रवाह के लिए तटबन्ध है।
मन और इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों की ओर दौड़ते हुए चंचल बने
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